विकिपुस्तक hiwikibooks https://hi.wikibooks.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%96%E0%A4%AA%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A0 MediaWiki 1.45.0-wmf.4 first-letter मीडिया विशेष वार्ता सदस्य सदस्य वार्ता विकिपुस्तक विकिपुस्तक वार्ता चित्र चित्र वार्ता मीडियाविकि मीडियाविकि वार्ता साँचा साँचा वार्ता सहायता सहायता वार्ता श्रेणी श्रेणी वार्ता रसोई रसोई वार्ता विषय विषय चर्चा TimedText TimedText talk मॉड्यूल मॉड्यूल वार्ता हिंदी कथा साहित्य/रामनाथ शिवेंद्र की कहानी "चित्र कथा और वह " 0 11375 82534 82506 2025-06-10T06:09:10Z Ramnathshivendra 15902 82534 wikitext text/x-wiki '''चित्र कथा और वह''' रामनाथ शिवेंद्र [[File:Ramnath shivendra 99.jpg|thumb|Ramnath shivendra 99]] बांस भर धूप चढ़ जाने के बाद वह जागा। रात में देर से सोया था। खेती किसानी में वैसे भी कई काम ऐसे होते हैं जो रात में ही निपटाये जा सकते हैं, उन्हीं कामों को निपटाने में उसे पता ही नहीं चला कि रात कितनी गुजर चुकी है। उसे पता था कि उसकी पत्नी घर पर अकेली घबरा रही होगी। पत्नी घबरा तो रही थी पर उसके घर आने पर वह प्रेम से मिली, कोई उलाहना नहीं, उलाहना देना उसकी पत्नी जानती ही नहीं थी। जल्दी जल्दी दैनिक क्रिया निपटाकर दिन में किए जा सकने वाले कामों को वह याद करने लगा। वह जब से बालिग हुआ है यानि कि वोट देने लायक तब से ही वह सारे कामों पर विचार करता है, कामों को कब और कैसे करना है उसके बारे में गुनता है। दिन में निपटाये जाने वाले कामों के बारे में वह गुन ही रहा था कि उसे ख्याल आया, उसे तो परधान जी से मिलना है। पुल बनाने के अलावा भी दूसरे काम हैं जिनमें पहला काम है गॉव की पोखर और नाले की सफाई करवाना जिसे करवाने के लिए चुनाव के दौरान परधान जी ने वादा किया था। उनके द्वारा चुनाव में किए गये वादों को उन्हें याद दिलाना है, और शिलान्यास के कार्यक्रम में भी उनके साथ जाना है। परधान जी का घर उसके टोले से करीब दो किलोमीटर दूर था, बीच में एक नाला पड़ता था। वह उस नाले को करीब बीस सालों से उसी तरह से लगातार देखता आ रहा है, बीस साल के पहले का उसे पता नहीं। वह जानता है कि गॉव में बहुत कुछ बदल चुका है, कुछ लोगों के कच्चे मकान पक्के हो चुके हैं। पर वह नाला तथा गॉव के बीच में स्थित पोखर तथा गॉव के दक्षिण वाली दलित बस्ती आज भी जस के तस हैं। नाले तथा पोखर में पक्के मकानों की नालियां जाने कब से गन्दा पानी उगल रही हैं। ये वही नाला और पोखर हैं जिसमें गॉव के बहुलांश नहाते हैं, कपड़ा धोते हैं, गोया पोखर और नाला गॉव के लिए सुलभ जलश्रोत हैं, जिनकी सफाई कराना गाॉव से संक्रमक रोगों को भगाने के लिए सबसे जरूरी है। गॉव परधानी के चुनाव के दौरान गॉव के लोगों से विजेता परधान ने वादा किया था कि वह नाले तथा गॉव की अकेली पोखर की सफाई करायेगा, मनरेगा के बन्द पड़े कामों को शुरू करायेगा, लगता है वह अपने वादे को भूल गया है। उसने कहीं पढ़ा था कि जागरूक नागरिकों के लिए जरूरी है कि वे जन प्रतिनिधियों को उनके वादों को लगातार याद दिलाते रहें सो परधान से जनहित का काम करवाने के लिए उसे तो पहल करना ही होगा। पहली बार उसे वोट देना था। वह काफी उत्साहित था। उसके बपई ने उसे समझाया था कि देखो ‘कलम दावात’ वाले निशान पर ही मोहर मारना, कलम दावात वाला ही गॉव को साफ सुथरा बना सकता है तथा गरीबों के लिए तमाम तरह की कमाऊ योजनांयें भी ला सकता है, वह दलितों का हितुआ है। उसकी अइया ने भी बपई की तरह ही उसे समझाया था और उसने वैसा किया भी था। कलम दावात निशान वाला दलितों के समर्थन से चुनाव जीत भी गया था। कलम दावात निशान वाला गरीबों, प्रताड़ितों का आदमी था, वह उनके लिए थाना और ब्लाक घेर लिया करता था। परधान की जीत से वह खुश था, उसके मन में था कि परधान मेरे गॉव का बड़ा और प्रभावशाली आदमी है। परधान की प्रतिभा ने उसे इतना प्रभावित किया कि उसके भीतर कुलबुलाता चित्राकार जागृत हो गया। बचपन में वह पटरी पर किसिम किसिम के चित्रा बनाया करता था पशु पक्षी से लेकर आदमी तक के। चित्रा बनाने में उसकी रूचि थी। उसे याद है बचपन की बातें, साथ में जब पटरी नहीं होती थी तो वह जमीन पर ही चित्रा बना लिया करता था। अब भी वह किसी का भी चित्रा बना सकता है, कागज, कपड़े या जमीन पर ही, उसकी कला की सीख खतम नहीं हुई है। उसके मन में आया कि गॉव के जमे जमाये और तपे तपाये लोगों को हरा कर जीते हुए जनप्रिय परधान का चित्रा बनाये। गॉव में चित्रा बनाने वाले सामान तो थे नहीं, सो वह बाजार गया और ब्रश, पेपर, रंग आदि खरीद लाया। उसने परधान का चित्रा बनाया, उसके लिए सुविधा थी। परधान के चित्रा का उसके पास एक पोस्टर था उसने पोस्टर वाले चित्रा की नकल किया। चित्रा तो एकदम परधान की तरह ही बन गया पर उसकी समझ में आया कि इस चित्रा से बहादुरी नहीं छलक रही, परधान का रूआब नहीं दिख रहा क्योंकि चित्रा में घोड़ा नहीं है, नही परधान की मूंछ है। प्राइमरी की पढ़ाई के दौरान उसने कक्षा पांच की किताब में राणा प्रताप का चित्रा देखा था, वे घोड़े पर सवार थे, उनके माथे पर एक विशेष किसिम का टोप था, उनकी नुकीली मूंछ थीं, उसने सोचा ‘बहादुर को तो राणाप्रताप की तरह दिखना चाहिए या फिर भगत सिंह की तरह, अगर परधान का चेहरा चन्द्रष्शेखर आज़ाद की माफिक बन जाये तब भी ठीक पर परधान का चेहरा तो वैसा नहीं बन रहा फिर तो उसने पहले के बनाये परधान के चित्रा को मिटा दिया। वह परधान का चित्रा किस तरह का बनाये सोचने लगा। उसके जेहन में बहादुरों के कई तरह के चित्रा उभरे, जिन्हें वह केवल किताबों के सहारे जानता था कि वे इतिहास के बहादुर लोग थे, वे ऐसे लोग थे जो अपने समय की बद्जात हुकूमत से टकराने का साहस रखने वाले थे। इस तरह से वह इतिहास में उतर गया मानो उसके सामने इतिहास के बहादुर जस के तस उपस्थित हो गये हों फिर तो उसने तय किया कि परधान का चित्रा तो ओज और साहस से चमकता हुआ बनाना चाहिए, आखिर परधान हमारे गॉव का मुखिया है, वह भी गॉव के जमे जमाये लोगों को पटक कर परधान बना है, क्या हुआ दंगल में नहीं, वोट में उसने पटका है। वह उन्हें पटका है जो हमेशा बाहें फुलाते रहते हैं। एक तरह से परधान ने गॉव के जमे जमाये लोगों को पटक कर हजारों साल के बद्जात इतिहास को पटका है पर वह परधान के चित्रा को किस तरह का बनाये निश्चित नहीं कर पा रहा था। किसी चीज को गंभीरता से सोचो तो कोई न कोई रास्ता निकल ही आता है। कुछ दिनों बाद रास्ता निकल आया, उसे समझ आ गया कि परधान का चित्रा किस तरह का बनाना है। फिर तो उसने वैसा ही किया, कुछ अतिरिक्त श्रम और कल्पना से उसने परधान का चित्रा बनाया। पर चित्रा तो जैसा वह चाहता था वैसा नहीं बन पाया हालांकि उसने परधान को घोड़े पर सवार करा दिया था, मूंछ भी लगा दी थी फिर भी परधान का चित्रा राणाप्रताप वाले चित्रा की तरह प्रभाव वाला नहीं बना पाया। उसे अपनी कला पर संदेह हुआ, शायद वह अनुभूति और अभिव्यक्ति में एकरसता नहीं सृजित कर पा रहा है। चित्रा को तो संवाद करना चाहिए पर परधान का चित्रा तो गूंगा बन गया है। उसे अपनी गलती समझ नहीं आ रही थी उसे लगा...‘कहीं न कहीं उसकी कला में कमी है।’ उसे समझ आया कि स्मृति के सहारे काम नहीं चलने वाला स्मृति से चित्रा बनाने में गलती हो सकती है। सो वह राणा प्रताप का चित्रा कहीं से ले आया। परधान के चित्रा से राणा प्रताप के चित्रा का उसने मिलान किया, बहुत फर्क था दोनों चित्रों में। फिर तो उसने पहले के बनाये परधान के चित्रा को फिर मिटा दिया। चित्र मिटाते समय उसे जान पड़ा था कि वह पूरा मुगलकालीन इतिहास ही मिटा रहा है पर ऐसा नहीं था। इतिहास तो जहां था, पड़ा था, भला इतिहास मिटाने वाली चीज है? अब क्या करे? वह सोच में पड़ गया। उसे समझ आया कि आज के जमाने में राणा प्रताप की तरह किसी को बनाया नहीं जा सकता, राणा प्रताप तो तभी बनाये जा सकते हैं जब अकबर हो, सच है कि अब अकबर नहीं है। परधान का बहादुराना चित्रा बनाने में असफल होने के बाद वह जिद्द पर आ गया, परधान का बहादुराना चित्रा वह बनायेगा ही बनायेगा, बनेगा क्यों नहीं। कला निरंतर अभ्यास मांगती है, उसका अभ्यास छूट गया है, शायद इसी लिए परधान का बहादुराना चित्रा नहीं बन पा रहा। अपनी कला के बारे में बहुत विचार और चिंतन करने के बाद उसने दुबारा परधान का चित्रा बनाना शुरू किया। ज्योंही उसने परधान का चित्रा बनाना शुरू किया अचानक उसे लगा कि वह गलत कर रहा है, वैश्वीकरण और औद्योगीकरण के बदलते जमाने के आदमी को राणा प्रताप की तरह भला कैसे बनाया जा सकता है। वह चिन्तित हो गया। परधान तो परधान था, उसका अपना चेहरा था जो किसी से मेल नहीं खा रहा था। परधान इक्कीसवीं शताब्दी का आदमी है, वह देश के तमाम लोगों की तरह केवल एक उपभोक्ता है भले ही गॉव का परधान बन गया है तो इससे क्या हुआ? उसे भी तो थाने के दारोगा, तहसील के लेखपाल, ब्लाक के बी.डी.ओ. स्कूल के मास्टर आदि माफिक सरकारी कर्मचारियों की निगरानी में ही रहना है। सो परधान बहादुर कैसे बन सकता है? वैसे वह जानता था कि समाज बदल के लिए आत्मोसर्ग करने वाली प्रतिभाओं को गढ़ा नहीं जा सकता, वे तो खुद पैदा होती हैं, पर उसने तो निश्चित कर लिया था कि परधान उसके गॉव का है, सरकारी कर्मचारियों से भी वह लड़ने का काम किया करता है। एक तरह से वह हुकूमत से ही तो लड़ रहा है। परधान को वह हर हाल में इतिहास के बहादुर लोगों से जोड़ेगा, उन लोगों से जिन लोगों ने आतताई हकूमत से मोर्चा लिया था, उनकी तरह, ऐसा सोचते ही वह इतिहास में उतर गया। इतिहास में उसने देखा कि एक चेहरा तो भगत सिंह का भी है, उनकी तरह से परधान का चित्रा उसे बनाना चाहिए। पर भगत सिंह तो अंग्रेजों के जमाने के थे, अब अंग्रेज तो हैं नहीं सो भगत सिंह की तरह वह परधान का चित्रा कैसे बना सकता है? उसका माथा अंग्रेजों में उलझ गया पर तत्काल ही उसके माथा ने काम किया...विदेशी अंग्रेज नहीं हैं तो का हुआ देशी अंग्रेज तो हैं ही, अब तो बहादुर उन्हें ही कहना होगा जो देशी अंग्रेजों से टकराने का साहस रखते हों। परधान का उसने एक रफ स्केच बनाया जो वास्तविक था। उसने भगत सिंह का भी स्केच बनाया। भगत सिंह वाले स्केच को उसने परधान के स्केच पर चिपका दिया। यह क्या है, चित्रा देखते ही वह चकरा गया। परधान के स्केच को भगत सिंह के स्केच ने पूरी तरह से ढक लिया फिर तो परधान कहीं गायब हो गया। कुछ सेाचने के बाद उसने परधान के स्केच पर से भगत सिंह के स्केच के कुछ हिस्से को मिटाया, उनकी हैट और मूंछ को परधान के स्केच पर जस के तस रहने दिया फिर भी परधान का चेहरे पर वह चमक नहीं उभर पायी जैसी कि बहादुरों व वलिदानियों के चहरों पर होती है। हालांकि वह प्रशिक्षित चित्राकार नहीं था पर उसकी ललक ने उसे चित्राकार बना दिया था। वह कल्पनाओं में डूब सकता था और प्रकृति के रहस्यों को चित्रामय बना सकता था। उसने गंभीरता से परधान के चित्रा को देखा और कुछ जरूरी बदलाव किया इस बार तो परधान का चित्रा पूरी तरह से बदल गया उसके चेहरे पर हिंसक जानवरों जैसी लकीरें जम गईं, देखते देखते ही परधान का चित्रा दुबारा बदल गया हिंसक जानवरों से अलग। परधान के हाथ में त्रिश्षूल और शंख आ गया, माथे पर लाल बिन्दी भी उभर आयी, उसे समझ नहीं आया कि आखिर परधान का चेहरा अपने आप क्यों बदल रहा है? क्या परधान के चित्रा की तरह इतिहास भी स्वतः बदल जाया करता है? नहीं नहीं ऐसा तो नहीं होना चाहिए। वह परधान का चित्रा जैसा बनाना चाहता है वैसा बनाने के लिए उसका चित्त स्थिर क्यों नहीं हो रहा है? पर उसकी समझ में कुछ नहीं आया। वह निराश हो गया उसे लगा कि परधान का चित्रा वह नहीं बना सकता फिर उसे क्या मिलेगा परधान का चित्रा बना कर। चूंकि वह मन से चित्राकार था सो हार मानना उसके लिए संभव नहीं था। यह बात अलग थी कि उसने अपनी चित्राकारिता को व्यवसाय नहीं बनाया था पर था तो चित्राकार ही। वह अपनी रोजी रोटी खेती किसानी से ही चलाता था। अपनी चित्राकारिता के लिए वह धनिया, लहसुन, गोभी आदि की कियारियों को किसी सालअष्टकोणीय बनाता था तो किसी साल किसी गुंबद या मीनार का आकार दे दिया करता था। उसने घर के सामने सेहन में उगे फूलों के पौधों की कियारियां भी कलात्मक ढंग से रचा हुआ था, जिसे देख कर वह मन ही मन खुश हुआ करता है। वह कपड़े भी गॉव वालों से अलग ढंग का पहनता है, चेहरे पर हल्की सी दाढ़ी भी रखता है। वह अपने कपड़े खुद सिल लिया करता है और दाढ़ी भी छांट लिया करता है। उसका मानना है कि कला तो हर जगह होती है बस चीजों व समय को कला की तरह देखने की ऑखें होनी चाहिए। एक बार तो उसे जाने क्या हुआ कि करीब एक महीना लगा दिया जहां देखो उसके हाथ में चित्राकला की कापी ही होती थी उस पर वह कुछ न कुछ बनाता रहता था, उसकी पत्नी भी कई बार पूछ चुकी थी पर उसने सच नहीं बताया था। करीब एक माह बाद उसने पत्नी को अपनी कला दिखाया था... उसकी पत्नी तो उस चित्रा को देखते ही उछल पड़ी थी...कृकृ ‘तो क्या हम ऐसे हैं’ पत्नी ने उससे पूछा था। ‘और नहीं तो का’ वह मुस्करा दिया था वह एक खूबसूरत चित्रा बन गया था, भावुकता पूर्ण, गरिमा युक्त। वह चित्रा खाना खिलाते समय का था। वह जमीन पर पलथी मार कर खाना खा रहा है और उसकी पत्नी पंखा झल रही है, सामने ढिबरी टिमटिमा रही है। मद्धिम रोशनी में पत्नी के चेहरे से मुलायम किरणें निकल रही हैं। पत्नी ने अपने पति के बनाये चित्रा की फ्रेमिंग करवा कर दीवार पर टांग दिया था। वह उस चित्रा को अक्सर देखती और पति पर मोहित हो जाती। कभी कभी उलाहना भी दिया करती थी... ‘तुम चित्रा बनाने या कपड़े सिलने का ही काम क्यों नहीं करते, चार पैसे तो घर में आते, धान चावल से का होने वाला है? पेट भी तो नहीं भरता। कपड़े भी सिलते तो ठीक रहता, तुमने मेरा ब्लाउज बिना नाप लिए ही पिछले साल सिला था वह अभी तक जस के तस है और जो दर्जी से सिलवाया था उसकी सिलाई उभर रही हैं, और ढीली भी है, देह से बाहर।’ वह पत्नी की बातें मुस्करा कर टाल देता था... ‘कला का रोजगार नहीं होता मुनिया। कला केवल मन के लिए होती है, धन के लिए नही, तुम्हारा चित्रा मैंने मन से बनाया था बिना देखे, बिना नकल किये और ब्लाउज भी मैंने जो सिला था उसके लिए तुम्हारा नाप नहीं लिया था, बिना नाप के ब्लाउज सिला था, अनुमान से, और वह तुम पर फिट हो गया, जानती हो मुनिया कला मन की उपज होती है मन के लिए और मन के भीतर।’ करीब चार पांच दिन तक उसने सोचने में लगा दिया कि क्या उसे परधान का चित्रा बनाना चाहिए या नहीं। छठवें दिन उसने तय किया कि उसे परधान का चित्रा बनाना चाहिए, ऐसा करने के लिए उसे इतिहास में जाने की जरूरत नहीं है, इतिहास तो गॉवों के निवासियों व गावों का होता ही नहीं, इतिहास तो केवल शासकों का ही होता है, शोषित तो हर हाल में शोषित होता है गॉव का परधान भी शोषित है सो उसके चेहरे पर इतिहास कैसे चिपक सकता है? उसने इतिहास में उतर कर खुद से सवाल किया। सवाल टेढ़ा था पर था सटीक। वह इतिहास में दर्ज वैसे लोगों के बारे में सोचने लगा जो शासक नहीं रहे थे। उसे पता था विरसा मुंडा तथा सोनभद्र के जूरा और बुद्धू भगत के बारे में, वे तो सामान्य जन थे पर दिक्कत थी उसके पास न तो विरसा मुंडा का चित्रा था और न ही जूरा और बुद्धू भगत का। उसने काफी सोच विचार के बाद तय किया कि विरसा मुंडा, जूरा या बुद्धू भगत में से किसी एक की तरह ही वह परधान का चित्रा बनाएगा। इन तीनों चित्रों में से किसी न किसी की तरह का चित्रा तो परधान का बन ही जाएगा। उनके चित्रों को वह कहीं से खोज कर ले आयेगा। ऐसा तो हो नहीं सकता कि सोनभद्र के नामी विद्वानों व लेखकों के पास यहां के बहादुर पुरखों के चित्रा न हों, ऐसे बहादुरांे व स्वतंत्राता प्रेमियों के जिन्होंने जनहित में अपनी जान की बाजी लगा दिया हो। वह आश्वस्त था कि किसी का चित्रा विद्वानों के पास हो न हो पर लक्ष्मण सिंह का तो होगा ही। वे तो 1857 के क्रान्तिकारी थे। विजयगढ़ राज से पूरे दो साल तक अंग्रेजी हुकूमत को बेदखल कर दिया था और खुद को स्वतंत्रा घोषित कर लिया था। बाद में क्रूर अंग्रेजो ने उनकी तथा उनके दो सौ क्रान्तिकारी साथियों की निर्मम हत्या माची के जंगल में करवा दिया था। मॉची का जंगल खून से लाल हो गया था। फिर क्या था वह सोनभद्र के सभी नामधारी लेखकों से मिला जो इतिहास के जानकार के रूप में जाने जाते थे, पर किसी के पास जूरा और बुद्धू भगत के चित्रा नहीं थे, न ही लक्ष्मण सिंह के। उन्हें तो यह भी पता नहीं था कि जूरा और बुद्धू भगत ने अंग्रेजी सेना को विजयगढ़ किले वाले युद्ध में तीर धनुष से ही पस्त कर दिया था। वह काफी निराश हुआ। उसने मान लिया कि इतिहास तो सिर्फ शासकों का ही होता है, परजा का इतिहास तो होता नहीं। किसी तरह से उसे एक ऐसे आदमी से विरसा मुण्डा का चित्रा मिला जो किताबों का केवल पाठक था। वह आदिवासी तथा विरसा की जाति का था, विरसा को भगवान की तरह पूजता था। उसके पूजा वाले स्थान पर कुछ दूसरे देवताओं की तरह विरसा का भी फ्रेम किया हुआ चित्रा रखा हुआ था। विरसा मुण्डा का चित्रा पाते ही वह बासों उछल पड़ा अनमोल रतन धन पायो जैसे। वह परधान का चित्रा विरसा की तरह बनाने में जुट गया। परधान का चित्रा बनाने के पहले उसने विरसा का चित्रा बनाया उसके बाद उसने परधान का चित्रा बनाया। परधान के चित्रा को विरसा की तरह बनाना बहुत टेढ़ा काम था पर उसे तो बनाना ही था। वह लगातार परधान का चित्रा बनाता रहा, बनाता फिर बिगाड़ता ऐसा करते हुए एक महीना गुजर गया पर परधान का चित्रा विरसा की तरह नहीं बन पाया। वह ज्योंही परधान के कंधे पर विरसा वाला तीर धनुष चढ़ाता परधान का चेहरा बिगड़ जाता वह अधिकारियों व मंत्रियों की दलाली करने वालों की तरह दिखने लगता। एक बार तो उसने परधान के चित्रा से उसकी सर्ट ही मिटा दिया। परधान के चित्रा से सर्ट मिटा देने के बाद उसे लगा कि यह जो परधान है वह तो बौद्ध भिक्षु की तरह संसद का प्रत्याशी दिखने लगा है। उसे लगा कि परधान के चित्रा से साधारण वाला पैंट मिटा कर जिन्स की पैंट पहना देना चाहिए, फिर परधान बौद्ध भिक्षु की तरह नहीं दिखेगा, केवल प्रत्याशी दिखेगा। पर उसका सोचना गलत निकला। परधान का चित्र तो फिल्मों में दिखाये जाने वाले एलियंस की तरह दिखने लगा। परधान का चित्रा बनाते बनाते वह थक गया, कुछ कुछ निराश भी हुआ, उसे लगा कि वह परधान का चित्रा बना ही नहीं सकता, वह महज कलाकार है, वह कोई देवता नहीं जो किसी को सिरज दे, रचना तो देवता करते हैं। पर अचानक उसे लगा कि भले ही वह देवता नहीं है तो क्या हुआ? कलाकार तो है, कलाकार भी कल्पित देवताओं से कम नहीं होता। परधान का चित्रा वह बनाएगा ही बनाएगा। कुछ महीने के लिए उसने परधान का चित्रा बनाना छोड़ दिया और घर के बकाया कामों को निपटाने में जुट गया। वैसे भी उसे पता था कि कोई कला मन माफिक न बन पाये तो कुछ समय के लिए उसे बनाना छोड़ देना चाहिए। कुछ समय बाद मन में नये नये भाव स्वतः जागृत हो जाते हैं। फिर अनुभूति और अभिव्यक्ति में संतुलन आ जाता है। नहीं तो अनुभूति कहीं होती है और अभिव्यक्ति कहीं और। वैसे कोई काम छूट जाता है तो छूट जाता है, रोजी रोटी के जुगाड़ में पहले चूल्हा ही दिखता है फिर कला, या कोई दूसरी चीजें। शिलान्यास वाले दिन उसने परधान को देखा। परधान स्कार्पियो पर सवार था, सफेद कपड़ों में लकदक, जिन्स की पैन्ट में खुंसा हुआ रिवाल्वर, चाल में ऐंठन, उसके साथ तीन असलहाधारी थे, जिनके हाथों में रायफलें थीं। परधान एक पुलिया का शिलान्यास करने आया था। परधान के उस रूप को वह देखता रह गया, उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह किसे देख रहा है परधान को या किसी बाहुबली को। उसे समझ आया कि आज के समय के यही बहादुर हैं, वह अपने क्षेत्रा के एक बाहुबली विधायक को कई बार देख चुका है, उसे पता है कि उसकी अपनी सेना भी है तथा सुरक्षा कमाण्डो भी। अचानक उसके दिमाग ने काम करना बन्द कर दिया। परधान तो गॉव का प्यारा आदमी है फिर उसे किस बात का डर, काहे की सुरक्षा, उसे जान पड़ा कि अब बहादुरों की नश्ल बदल रही है। अब बहादुर ऐसे ही होते हैं, खुद को बदलने वाले, वे गॉव व समाज के लिए लड़ाकू नहीं, लड़ाकू हैं अपनी तरक्की के लिए। वह तत्काल शिलान्यास स्थल से अपने घर लौट आया। उसने तय किया कि ऐसे परधान से गॉव के विकास के बारे में वह कभी बातें नहीं करेगा। ‘काहे लौट आये, ‘शिलानास’ में नाहीं गये थे का?’ पूछा था उसकी पत्नी मुनिया ने.... ‘का तो बोल रहे थे कि परधान जी ‘शिलानास’ करेंगे, शिलानास नाहीं हुआ का’ उसने दुबारा पूछा...’ ‘नाही रे! शिलान्यास काहे रूकेगा, वह शिलानास नाहीं था गॉव का नाश था, हमारा मन उहां नाही लगा।’ मुनिया उसे ताकती रह गयी थी जैसे उसे उसके सवाल का उत्तर न मिला हो फिर वह रसोईं में चली गयी। वह परेशान था, परेशान था परधान के बदले रूप को देख कर। उसे अनुमान तक नहीं था कि साधारण रंग रूप का दिखने वाला परधान, परधान बनते ही अपना चोला बदल लेगा, बगल में रिवाल्वर खोंस लेगा, असलहाधारियों के साथ चलेगा। उसके हाथ में माला होती, जेब में शंख और माथे पर चंदन की बिन्दी होती तब भी ठीक था पर नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं, उसकी तरह तो वे लोग भी नहीं दिखते थे जो खानदानी लुटेरे हैं, जिनकी गॉव में हकूमत चला करती है? वे भी ऐसे अवसरों पर समान्य जन बन जाया करते हैं। वह सीधे उस कमरे में गया जिसमें परधान का उसके द्वारा बनाया हुआ चित्रा रखा हुआ था। उसने परधान का चित्रा उठाया और फाड़ दिया। चित्रा फाड़ते समय उसे समझ में आया कि परधान कभी भी विरसा, जूरा या बुद्धू भगत नहीं हो सकता, इसी लिए परधान का चित्रा विरसा की तरह नहीं बन पा रहा था, बनता भी कैसे। परधान जैसे आदमी की चित्राकथा तो बन ही नहीं सकती। वह परधान की चित्राकथा न बना पाने के कारण परेष्शान हो गया था, उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि का करे और का न करे। जाड़े के दिन थे, उसने धूप में खटिया निकाला और उस पर लेवा बिछा कर लेट गया और खुद में खो गया। कब नींद आ गई उसे पता ही नहीं चला। वह तब जागा जब उसके बपई ने उसे झकझोरा... ‘गॉव के सारे जवान उहां है शिलानास वाली जगह पर, अउर तूं खर्राटे मार रहा है, ऊहां रहना चाहिए था’ ‘का करेंगे ऊहां रह कर’उसने बपई को जबाब दिया ‘का करेंगे ऊहां रह कर पूछ रहा है, तोहैं का पता, आजु तऽ परधन ने कमाल कर दिया। ‘परधान ने एक घंटा भाषण दिया अउर साफ कहा कि जो भी गरीबों के साथ ‘अनिआव’ करेगा वह उनकी ऑखें फोड़ देगा, गॉव की जगह जमीन पर सभी का बराबर हक है, अनियाव के खिलाफ गॉव के हर आदमी को बाबा विरसा बनना होगा, अब वह वंशवाद नहीं चलने देगा, जल्दी ही वह गॉव में विरसा भगवान की बहुत बड़ी मूरत लगवायेगा। विरसा बाबा की मूरत बनवाने के लिए आप सभी लोगों को दान में कुछ न कुछ देना होगा फिर क्या था...गॉव ने नारा लगाया...कृ ‘विरसा बाबा जिन्दाबाद।’ अइसहीं बहुत कुछ नारा लगा, हमैं खियाल नाहीं पड़ रहा’ वह बपई की बातें सुन रहा था और ऑखें मलते हुए ही बपई से पूछा... ‘किस जमीन पर गरीबों का हक मिलेगा बाबू! कोई ऐसी जमीन है का गॉव में, जिस पर किसी का नाम न चढ़ा हो, विरसा बाबा की मूरत लगाने से का होगा? जिनके पास घर नाही है औन्है घर मिल जाएगा का?’ बपई को भी पता है कि गॉव की एक ईच जमीन भी ऐसी नाहीं है जिस पर किसी का नाम न चढ़ा हुआ हो फिर कैसे देगा परधान गॉव के गरीबों को जमीन। बपई का बोलता, उसे छोड़ कर चला गया। उसकी नींद खुल चुकी थी। आंखें मलते हुए उसने तय किया कि अब वह परधान का चित्रा नहीं बनाएगा, जमाना बदल चुका है अब कोई ऐसा बन ही नहीं सकता जिसे इतिहास के फटे पन्ने पर भी रचा जा सके। lmectlrukenbk2e8f385nhl9gavxxlz सदस्य:SHUBHAM KR SONI/प्रयोगस्थल 2 11383 82533 2025-06-09T14:17:08Z SHUBHAM KR SONI 15994 '== शब्दावली : प्रौद्योगिकी == ; एल्गोरिदम (Algorithm) : किसी समस्या को हल करने अथवा कार्य को पूर्ण करने हेतु बनाए गए नियमों या चरणों का क्रम। ; डेटाबेस (Database) : सूचना का ऐसा संग्रह जो...' के साथ नया पृष्ठ बनाया 82533 wikitext text/x-wiki == शब्दावली : प्रौद्योगिकी == ; एल्गोरिदम (Algorithm) : किसी समस्या को हल करने अथवा कार्य को पूर्ण करने हेतु बनाए गए नियमों या चरणों का क्रम। ; डेटाबेस (Database) : सूचना का ऐसा संग्रह जो सुव्यवस्थित रूप में रखा जाता है और जिसे आसानी से उपयोग में लाया जा सकता है। ; एन्क्रिप्शन (Encryption) : सूचना को कूट भाषा (कोड) में परिवर्तित करने की प्रक्रिया ताकि अनधिकृत लोग उसे न पढ़ सकें। ; फ़ायरवॉल (Firewall) : ऐसा सुरक्षा तंत्र जो अनधिकृत नेटवर्क एक्सेस को रोकता है। ; मशीन लर्निंग (Machine Learning) : कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) की एक शाखा, जो कम्प्यूटर को डाटा से सीखने में सक्षम बनाती है। ; सॉफ्टवेयर (Software) : कम्प्यूटर में उपयोग किए जाने वाले प्रोग्रामों एवं प्रक्रियाओं का समूह। ; हार्डवेयर (Hardware) : कम्प्यूटर के भौतिक (Physical) घटक, जिन्हें छू सकते हैं। ; क्लाउड कंप्यूटिंग (Cloud Computing) : इंटरनेट के माध्यम से डेटा स्टोरेज और कंप्यूटिंग सेवाएं प्रदान करना। ; नेटवर्क (Network) : कई कम्प्यूटरों या उपकरणों को आपस में जोड़ने की प्रणाली। ; बायोमेट्रिक्स (Biometrics) : व्यक्ति की पहचान के लिए जैविक विशेषताओं (जैसे- फिंगरप्रिंट, आँखों की पुतली) का उपयोग। ; साइबर सुरक्षा (Cyber Security) : कम्प्यूटर सिस्टम और नेटवर्क की सुरक्षा करने की प्रक्रिया। ; डेटा माइनिंग (Data Mining) : बड़े डाटा सेट से उपयोगी जानकारी को खोजने की प्रक्रिया। ; आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (Artificial Intelligence) : कम्प्यूटरों को मानवीय बुद्धिमत्ता की तरह सोचने और कार्य करने में सक्षम बनाना। ; ब्लॉकचेन (Blockchain) : डिजिटल लेनदेन को सुरक्षित, पारदर्शी और अपरिवर्तनीय रूप में दर्ज करने की प्रणाली। ; इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT) : विभिन्न भौतिक उपकरणों को इंटरनेट से जोड़कर उन्हें स्मार्ट बनाना। == टेम्पलेट रूप में (यदि प्रयोग करना चाहो)== {{VocabularyEntry |Term = एल्गोरिदम |Definition = किसी समस्या को हल करने हेतु बनाए गए नियमों या चरणों का क्रम। }} {{VocabularyEntry |Term = डेटाबेस |Definition = सूचना का सुव्यवस्थित संग्रह। }} {{VocabularyEntry |Term = एन्क्रिप्शन |Definition = सूचना को कूट भाषा में परिवर्तित करने की प्रक्रिया। }} {{VocabularyEntry |Term = फ़ायरवॉल |Definition = सुरक्षा तंत्र जो अनधिकृत एक्सेस को रोकता है। }} {{VocabularyEntry |Term = मशीन लर्निंग |Definition = कम्प्यूटर को डाटा से सीखने की क्षमता प्रदान करना। }} (आदि... इसी प्रकार बाकी भी डाल सकते हो) qgzhox2mqu0nore1bhxypw5549e9knp हिंदी कथा साहित्य/कथा का समाजशास्त्र और तीसरी दुनिया 0 11384 82535 2025-06-10T06:40:41Z Ramnathshivendra 15902 ''''कथा का समाजशास्त्र और तीसरी दुनिया''' रामनाथ शिवेंद्र [[File:Ramnath shivendra 99.jpg|thumb|Ramnath shivendra 99]] साहित्य और समाज के रिश्तों पर सवाल उठाना न तो पहले जायज था और न आज ही है पर अ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया 82535 wikitext text/x-wiki '''कथा का समाजशास्त्र और तीसरी दुनिया''' रामनाथ शिवेंद्र [[File:Ramnath shivendra 99.jpg|thumb|Ramnath shivendra 99]] साहित्य और समाज के रिश्तों पर सवाल उठाना न तो पहले जायज था और न आज ही है पर अब सवाल उठाना जायज हो गया है, क्योंकि आज का समाज पहले वाला समाज नहीं है। आज के समाज का जो ताना,बाना है, इसे संचालित करने, निर्देशित करने की व्यवस्था है, उस व्यवस्था को कुदरती प्रबंधन से जबरिया छीन कर एक ऐसे मानवकृत प्र्रबंधन में डाल दिया गया है जिसे सामान्य रूप से राजनीतिक प्रबंधन कहा जाता है। अब समाज राजनीतिक प्रबंधन में है। यही राजनीति, समाज को चालित संचालित, निर्देशित भी कर रही है। मनुष्यों के लिए किसिम किसिम की मनमानी नीतियों को लागू करते हुए सर्वकल्याण की धोखेपूर्ण बातें भी कर रही है। फिर तो उस राजनीति को समझने के लिए हमें उस ग्रामगणराज्य समाजप्रबंधन को समझना होगा जो भारत के लिए अब अतीत का विषय हो चुका है। हमें ध्यान रखना होगा कि हमारा अतीत लोककथाओं, लोककलाओं, लोकविद्या तथा लोकसंस्कृति वाला था और उस समय का लोकसाहित्य, लोकसंगीत, समाज के सहसंबधों का दस्तावेज हुआ करता था यानि तब सहभागी समाज व्यवस्था पर किसी मानव रचित व गढ़ित राजनीति का प्रभाव नहीं था। कुल मिला कर उस दौर में मानव संसाधनों व कुदरती संसाधनों के दोहन के लिए तकनीकी कौशलों से युक्त संस्थान नहीं हुआ करते थे। सारे कुदरती संसाधन, नदी, पहाड़, जंगल, हवा, पानी सारा कुछ समाज के आधिपत्य में हुआ करता था पर अब वैसा समय नहीं रह गया है। आज तो सारे कुदरती संसाधनों पर किसी न किसी निजी कंपनी या कंपनियों को राज्याश्रित कानूनों द्वारा संरक्षित मालिकाना दे दिया गया है। मानवसभ्यता का द्वन्द यही है कि कुदरती संसाधनों पर मालिकाना किसका रहे।? मालिकाना के संस्थापन को कथित विकास के नाम पर आज के समय में कुदरती (मिथक की तरह) बना दिया गया है, जैसे विकास तथा मालिकाना दोनों एक दूसरे के अन्योन्याश्रित ही नहीं पर्याय भी हों। तो ऐसे कठिन समय में जब खुलेआम कुदरती संसाधनों पर निजी मालिकाना स्थापित कराये जा रहे हों, तकनीकी कौशलों को कुदरती संसाधनों के अधिकतम दोहन के लिए जरूरी बताया जा रहा हो, सार्वजनिक रूप से मानवजनित कौशलों व क्षमताओं को नकारा जा रहा हो फिर तो साहित्य के लिए अनिवार्य रूप से अनिवार्य है कि वह समाज को व्याख्यायित करने के लिए राजनीति की खोल में दुबकी सत्ताव्यवस्था की सारी पर्तों को खोले और राजनीतिक प्रबंधन में उगने वाली समाज की विडंबनापूर्ण स्थितियों, परिस्थितियों का खुलासा करे। क्योंकि आज के समय में चाहे मालिकाना स्थापित करने के सवाल हों या मालिकाना से बेदखल करते हुए सामान्य जन को उजाड़ने के सवाल हों, देशी विदेशी कंपनियों को कानूनी बना कर कुदरती संसाधनों के दोहन करने के अधिकार देने के सवाल हों, ये सब सत्ता के ही क्रीड़ा कौतुक हैं। तो यह जो सत्ता है, आज वही समाज को चालित संचालित कर रही है और समाज उसके प्रबंधन में रहने के लिए अभिशप्त हो चुका है। साहित्य के प्रति समर्पण के नाते हमें ऐसा करना भी चाहिए, आज के कठिन समय में हमारे साहित्य का समाजशास्त्र बदल चुका है, चाहे सवाल कथा का हो या कविता का, इतना ही नहीं आलोचना का समाजशास्त्र भी बदल चुका है। साहित्य के बदले हुए समाजशास्त्र के बारे में हम यहां बात करना चाहेंगे तथा उन जटिल परिस्थितियों की तरफ संकेत भी जो हमारे देश के साहित्य के लिए अनिवार्य रूप से अनिवार्य हैं। जाहिर है कि तकनीक की बारीक पर्तों, दर पर्तों को खोल लेने के दावे करने वाली आज की दुनिया, वसुधैव कुटुम्बकम् तो बहुत दूर चित्त और चेतना, विचार और व्यवहार, लक्ष्य और साधन, प्रकृति और पुरुष, तन और मन, समय और समाज आदि संदर्भों में मानवीय समीपता की पक्षधर तो कम से कम नहीं दीख रही है, और न ही मानवीय आदर्शों के प्रति दिखावटी ही सही आग्रही ही दीख रही है। आज की दुनिया संसाधनों व सुविधाओं की गुलामी में उलझी हुई अपनी वैयक्तिक संप्रभुता के कुत्सित फैलावों में जुटी हुई मानवीय समीपता के सर्वग्राही कुदरती नियमों को प्रतिस्पर्धाओं के बहाने निरंतर ठेंगा दिखा रही है। ‘एकला चलो’ वाली हमारी दार्शनिक संस्कृति अचानक ‘मैं’ के रूप में बदल जाएगी इसका आभास दूर दूर तक नहीं था। ‘मैं’ केवल ‘मैं’, मेरा काम, मेरा लाभ, मेरा हित ऐसा किसी भी मानव सभ्यता के अतीत में प्रस्तावित नहीं था, जो था, जो है सारा कुछ सभी का है सभी के लिए है, इसी बुनियाद पर समाज की नींव डाली गई थी, फिर कुटुम्ब बना था, कुटुम्बों के संगठन वाली सहयोगी व सहभागी संरचना से दुनिया की तस्वीर बनी थी, पर हाय रे दुनिया! आज वह दुनिया नहीं है। आज की दुनिया ‘मैं’ के घृणित आभामंडल में खुद को चॉद सितारा बना लेने के प्रयासों में सर्वसमाज की पीठ पर भाई चारे के पाठों के पोस्टर चिपका रही है। आज की दुनिया कम से कम दो खानों में तो निश्चितरूप से विभक्त है पहला खाना है एक ऐसी दुनिया का जिसमें मानव संसाधनों के समुचित व बराबरी के स्तर पर उपयोगों के बारे में सत्ता प्रबंधन की तरफ से निराशाजनक उदासीनता है तथा उपेक्षा है, तो दूसरा खाना है एक ऐसी दुनिया का जो अपने से इतर दुनिया के सारे मानव समाजों को तकनीकी संहारक कौशलों के द्वारा भयभीत कर अपने आधिपत्य को पोख्ता बनाए रखने के प्रयासों में सारे तकनीकी कौशलों को आजमा रही है। गोया आज की दुनिया का माहौल पहले वाला सर्वहितकारी, सहयोगी व सहभागितापूर्ण नहीं है जिसे वसुधैव कुटुुम्बकम्् के रूप में हम जानते हैं। आज हमारे सामने एक ऐसी कथित विकसित दुनिया है जो किसिम, किसिम के जनसंहारक हथियारों से लैश होकर अपनी संहारक क्षमताओं के प्रदर्शनों के उत्सवों को चॉद पर मनाने के लिए बेचैन है तथा इसे प्रमाणित करने के लिए हमारे जैसे देशों (तीसरी दुनिया के देशों) का चयन किया करती है तथा कर रही है। जाहिर है उसे ऐसे ही देश या भूगोल अनिवार्य रूप से चाहिए होते हैं जो अपने प्राकृतिक संसाधनों का ही नहीं, अपने मानव संसाधनों का भी समुचित प्रयोग तो दूर आंशिक प्रयोग भी अपनी जनता के हितों के लिए नहीं कर पाते हैं या कर पा रहे हैं। हमारा आशय तीसरी दुनिया के देशों से है खासतौर से उन देशों से जहां आज भी भूख और कर्ज से दबे किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं, बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं, वे पढ़ाई करने के बजाय अपने मां बाप के कामों में सहायता करने के लिए विवश हैं। एक ऐसा हताश देश जहां मतदान करने की अनिवार्यता के बारे में लोगों को सिखाने पढ़ाने की आवश्यकता पड़ रही हो, जहां आजादी के सातवंे दशक में भोजन का अधिकार, सूचना का अधिकार व शिक्षा का अधिकार दिखावटी तौर पर विधिक बनाया जा रहा हो। एक ऐसा देश जहां आज भी शिक्षा का स्तर केवल साक्षर होना हो और जीवन निर्वाह के लिए पेट की आग में झुलसती जनता को घृणित मात्रा में सरकारी संस्थानों द्वारा खाद्यान्न वितरण योजनांए चलाई जा रही हों। जहां चालीस फीसदी घरों में आज भी दो जून का खाना नहीं पक रहा हो। जाहिर है, एक ऐसा देश जहां मानव संसाधन के उपयोग को पूरी तरह से नकारा जा रहा हो तथा विकास के एकांगी लक्ष्यों को मशीनी कुशलता से पूरा करने के प्रयास किए जा रहे हों। परोक्ष रूपसे मानव संसाधन को बेरोजगार बना कर उनकी कार्य क्षमताओं को विकलांग बनाया जा रहा हो। कुल मिला कर ऐसे देश की तस्वीर पर आप चाहें भी तो कोई रंग नहीं लगा सकते, वसंती वाला, फागुन वाला या कजरी वाला कोई भी। ऐसी कुत्सित सामाजिकता पर रंग लगाने के लिए किसी खास तथा प्रिय रंग का चुनाव आप नहीं कर पायेंगे। जाहिर है हम ऐसे ही भूगोल तथा देश के लोग हैं जहां मौसम के हसीन करतबों के सहारे ही खुद को जीवित बचाए रखना है और अपने अतीत को पीठ पर बांधे हुए शौर्य तथा वलिदान के गीतों को गाते रहना है। शायद हम ऐसा कर भी रहे हैं। हम एक ऐसे देश के लोग हैं जहां एक पहाड़ी की कीमत हजारों लाखों मनुष्यों से कहीं अधिक है, नदी का पानी हमारे ऑसुओं से कीमती है क्योंकि वह कुदरती संसाधन है, पहाड़ी के भीतर छिपा खनिज हमारे कलेजे और किडनी से कीमती है। सो हम किसी शोकगाथा की तरह हताश और निराश हैं तथा मनुष्य होने के बोझ से दबे हुए विकल्पहीन हैं, हमारे लिए जीवन जीने और जीते रहने के सुलभ विकल्पों की कोई चादर नहीं है। फिर भी मनुष्य जीवन जीने और जीते रहने के संभव समाधानों से खुद को अलगिया कर अपनी इहलीला समाप्त करने की योजना नहीं बनाता। वह जीवन जीते रहने के सपने देखता है क्योंकि वह खुद कहानी होता है। इसीलिए अपनी कहानीपना की हिफाजत में नाना प्रकार के सपने भी देखा करता है, वह सपने देखता है, समाज के बारे में तो कभी खुद के बारे में कि उसे समाज के साथ किस तरह के रिश्तों का निर्वहन करना चाहिए तथा खुद को किस तरह से संवारना व दुलारना चाहिए। ऐसा करते हुए वह अपना सारा जीवन दुखों से लड़ता हुआ, रोता, चीखता, चिल्लाता हुआ या तकलीफों में गोते लगाता हुआ या सुखों के अपने रचे गढ़े मानकों को निर्मित करता हुआ गुजार देता है। पर खुद को संभाले रखने या समय के साथ टकराने के जितने कौशलों का प्रयोग वह करता रहता है, उससे कितना आश्वस्त रहता है इसका उसके पास कोई गंभीर मूल्यांकन नहीं होता। यही है तीसरी दुनिया के मनुष्यों का सच। ऐसा मनुष्य अपनी दयनीयता, निरीहता व असमर्थता को दैवीलीला मानने से भी खुद को नहीं रोक पाता, जो किस्मत में लिखा होता है वही मिलता है या उसे भोगना ही पड़ता है। इसी सारतत्व में गोते लगाता हुआ समानता, स्वतंत्रता, बन्धुत्व के नारों में फसा तीसरी दुनिया का आदमी अपना जीवन बिताने के लिए विवश है। मनोवैज्ञानिक विश्लेषणों, निष्कर्षों तथा समाधानों को परखने के आधार पर कहा जा सकता है कि मनुष्य के चेतन तथा अचेतन मन में जाने अनजाने अंखुआने वाले सपने जो कहानी की शक्लधारी होते हैं, बिना किसी प्रयास के जड़ जमाए रहते हैं। वे सपने आभासी मात्र नहीं होते, कभी कभी सकारात्मक परिणामों व उपलब्धियों के हेतु बनते भी दिख जाते हैं सवाल है कि सपनों के रूप में ये कहानियां मनुष्य के मन में कैसे प्रवेश कर जाती है? सवाल यह भी है कि क्या उन कहानियों से मनुष्य का कोई रिश्ता बनता है जो उसे प्रभावित करती हैं। शायद इस तरह से सपनों को विश्लेषित करते हुए सामाजिक सरोकारों से जोड़ने का काम मानव सभ्यता करती रही है। आज के जटिल समय में देश तथा उससे जुड़ी राष्ट्रीयता किसी सपने की तरह नहीं जान पड़ सकती है पर कभी यही राष्ट्रीयता सपना थी, इसी सपने को हासिल करने के लिए हम अपने पुरखों के परिणामकारी प्रयासों को कŸाई नहीं भूल सकते और भूलना भी नहीं चाहिए। यही राष्ट्रीयता का सपना हमें अपने अतीत की तरफ ले जाता है जो काफी संघर्षपूर्ण व उलझन भरा रहा है। हमारे पुरखों ने राष्ट्रीयता के सपने को सच करने के लिए उस समय के खतरनाक जनसंघर्षाें को जिस तरह से गतिमान किया या संचालित किया वह दुनिया के लिए किसी उदाहरण से कम नही। यानि वह वही समय था जब मनुष्य अपने सपनों को चरितार्थ करने के लिए तत्कालीन सत्ता प्रबंधन से टकाराते हुए खुद कहानी बन रहा था। यही कहानी आने वाले समय के लिए प्रेरक बन जाएगी हमारे पुरखों को पता भी था या नहीं साफ साफ नहीं कहा जा सकता। वैसे भी आने वाले समय के लिए हमारे पुरखे जो कहानी बन रहे होते थे वे आजकल के प्रायोजित मानवों की तरह होते ही नहीं थे, वे तो अपने सपनों के लिए लड़ रहे होते थे, भला ऐसे में उन्हें क्या पता होगा कि उनकी कहानी का क्या होगा? वैसे भी आज के समय में तो सारे सपने खुद की पीठ पर टंगे हुए होते हैं। समाज की राष्ट्रीयता जैसी तस्वीर रचने व गढ़ने वाले सपने अब होते ही कहां हैं? दुखद है कि हम आज ऐसे समय में है जब हम उन्हीं सपनों में गोते लगा रहे हैं जो हमें हर समय चूमते चाटते रहें तथा विपरीत परिस्थितियों में भी आज्ञाकारी बने रहें। सपनों को भी आज्ञाकारिता व अनुशासन के दायरों से बाहर न निकलने देने वाला हमारा समय कई मायनों में हमारे लिए किसी शोकगाथा से कम नहीं होता पर हमारी अभिशप्तता उसे महसूसने ही नहीं देती। आजादी के दौर वाले सपनों की बात करें तो उस समय हमारे पुरखों के सामने खुद तथा राष्ट्र को मुक्त कराने के अनिवार्य व महत्वपूर्ण कार्यभार थे पर आज हमारे सामने किस तरह के सपने हैं, और अगर सपने हैं भी तो क्या हम उसके बारे में जानते हैं? क्या हम अपने सपनों का मूल्यांकन करते हुए सपनों के साथ गतिमान रहने की कला जानते हैं? इस बारे में हमें सोचना व गुनना होगा। तो यह है आज के समय की कथा का समाजशास्त्र। ऐसा नहीं हैं कि हम आज के वैयक्तिक कुटिल प्रतिस्पर्धा वाले समय में सपने देखने की आदतें खो चुके हैं, ऐसा कŸाई नहीं है, ऐसा गुनना अप्राकृतिक होगा, ऐसा हो ही नहीं सकता। मनुष्य है तो वह सपने देखेगा ही और हम सपने देख भी रहे हैं पर आजादी के पहले वाले सपनों और आज के समय के सपनों में बेमेल घालमेल हो गया है। किसिम किसिम के वैचारिक रसायनों ने सपनों की प्रवृŸति व प्रकृति को बदल दिया है। आधी सदी गुजर चुकी है पर हम आने वाले समय से टकराने के बाबत सावधान नहीं हैं। हमें यह भी नहीं पता कि राष्ट्र के सवाल पर, केवल राष्ट्र के भूगोल को बचा लेने का काम ही राष्ट्र को बचाना नहीं होता, ठीक है बचाना तो भूगोल को भी पड़ता है पर यह भी सच है कि राष्ट्र के नागरिकों को बचाना राष्ट्र के भूगोल को बचाने से अनिवार्य रूप से अधिक जरूरी है। पर हम अपने देश के नागरिकों को बचाने के सवाल पर कितने गंभीर हैं या उत्साहित हैं इसके प्रमाण तो बिरले ही दीखते हैं। देखा जा रहा है कि हमारे वौद्धिक कारीगर भूगोल बचाने की मार्मिक सीखों के आधार पर कभी संस्कृति बचाने की बातें करते हैं तो कभी इतिहास बचाने की, वौद्धिक कारीगरों की बातों को रट, रटा कर हमारे नेता भी दिखावे के तौर पर संस्कृति बचाने लगते हैं तो कभी इतिहास बचाने लगते हैं। पर बचाना क्या है इस सवाल से वे परेशान नहीं हालांकि वे जानते होते हैं कि भूगोल, व इतिहास बचा लेने से मनुष्यों को नहीं बचाया जा सकता, मनुष्यों को तो तभी बचाया जा सकता है जब सत्ता प्रबंधन को मानवीय समीपता के सूत्रों से रचा गढ़ा जाएगा, सामाजिक संरचना की खाईं को सामाजिक बराबरी की तरफ ले जाने के लिए आर्थिक बराबरी के परिणामकारी प्रयासों को क्रियान्वित कराया जायेगा, जबकि वैसा किया नहीं जा रहा, यही तीसरी दुनिया का संकट है। सो बार बार इतिहास व संस्कृति बचाने की बातें सŸााप्रभुओं द्वारा की जाती हैं। विडंबना है कि मनुष्य बचाने की बातें नहीं की जा रहीं जो प्रकृति की अद्भुत कृति है। अरे! भाई थोड़ी शर्म करो और यह बात साफ कर लो कि इतिहास और संस्कृति से मनुष्य नहीं पैदा होता, मनुष्य से संस्कृतियां जनमती हैं, इतिहास जनमता है, तो मनुष्य बचाने की बातें क्यों नहीं करते? मनुष्य ही जब नहीं बचेगा फिर इतिहास और संस्कृति कैसे बचेगी? आज के समय में हमारे सपनों को निश्चितरूप से मनुष्य बचाने के सवालों के आधार पर ही अपनी कथा चुनना होगा। ऐसी कथाओं का समाजशास्त्र ही सŸाा विकल्पों के बन्द दरवाजों को खोलेगा तभी मनुष्य केन्द्रित सत्ता का सर्वसमाजीरूप उभार पा सकेगा फिलवक्त तो सŸााप्रबंधन पर भाषा, भूषा, भवन, भोजन पर कुंडली मारे हुए लोगों का कब्जा है। आज की संसद में कोई गरीब पहुंच ही नहीं सकता, आंकड़े बताते हैं कि करीब तीन सौ से अधिक सांसद करोड़पति हैं। समझ में नहीं आ पाता कि इन करोड़पतियों से हमें किस सत्ता विकल्प की आशा करनी चाहिए, क्या ऐसे लोग मनुष्य केन्द्रित सŸाा विकल्पों की तरफ एक कदम भी आगे चल सकेंगे? कŸाई नहीं। ये लोग तो समाज कल्याण के नाम पर कभी केशरिया, तो कभी हरा, गुलाबी, पीला रंगरोगन ही कर सकते हैं, इससे अधिक कुछ नहीं। इसलिए इनके आधार पर सिरजी गई कथाओं को किसी न किसी दिन गहरी खांई में गिरकर छटपटाना ही होगा। सो यह जो तीसरी दुनिया की बेढंगी राजनीति से उपजा समाजशास्त्र है, वह कभी भी चेतन व जागृतकथा का समाजशास्त्र नहीं हो सकता। इतिहास और संस्कृति रूपी कामधेनु से निकलने वाले दूध में नहाने वाली सŸाा के लिए तो मनुष्य केवल शासित होने के लिए होते हैं जिनकी पीठ और पेट पर कानून की धाराएं लिखी जाती हैं सो उन्हें तथा उनकी मनुष्यता बचाने की क्या आवश्यकता? वे जाएंगे कहां, रहेंगे तो शासकों के द्वारा रचे गढ़े कानूनों व भूगोलों के दायरे में ही, यही तीसरी दुनिया का संकट है। वह जो पहले वाली दुनिया है अपने द्वारा गढ़े गये सूत्रों के आधार पर खुद को सभ्यता के शिखर पर बैठा हुआ मनवाना चाहती है। उसकी मुस्कराहट से सत्ता प्रबंधन के गुर सीखने वाले तीसरी दुनिया के नीतिकार नहीं जानते कि वे गले में फासी का फन्दा डाल रहे हैं। दिक्कत सिर्फ यही नहीं है कि हमारी राजनीति उस सत्ता प्रबंधन की नकल कर रही है, जिसकी नीतियों में मनुष्य मनुष्य होता ही नहीं, वह उपभोक्ता होता है, एक वस्तु होता है, एक बाजार होता है, तथा सŸााप्रबंधन का आज्ञाकारी उत्पाद होता है, दिक्कत यह है कि हम साहित्यिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी नकल कर रहे हैं और मनुष्यता विरोधी सत्ता प्रबंधन की प्रतिलिपि बनते जा रहे हैं। जाहिर है हम तीसरी दुनिया के लोग हैं और हमारे सामने उस कथित सभ्य दुनिया की तुलना में समय, समाज एवं साहित्य के स्तर भी दूसरे तरह की चुनौतियां व विमर्श हैं सो हमारी कवितायें व कहानियां भी अलग हैं, अतीत बचाने से किसी को रोटी नहीं मिलने वाली, साबित हो चुका है कि तकनीकी कौशलों से संवरित कारखाने हमें रोटी नहीं दे सकते, हर हाथ को काम नहीं दे सकते। ये कारखाने तो व्यक्तिगत लाभ के सूत्रों पर आधारित कुदरती संसाधनों के दोहन के महज कानूनी संस्थान हैं। केन्द्रीयकृत और तकनीकी उत्पादन व्यवस्था कभी भी कुटीर उद्योगों के लक्ष्य को नहीं हासिल कर सकती। हमारे जैसे देश में जहां आबादी का घनत्व प्रति किलोमीटर पांच सौ से अधिक मनुष्यों का है, उसके लिए विशाल तकनीकी ढांचों वाले कारखानों का कोई प्रयोजन नहीं। यहां तो हर हाथ को काम चाहिए। हम चाहें तो कारखानों के उत्पादन लक्ष्यों को कुटीर उद्योगों के द्वारा भी हासिल कर सकते हैं। तीसरी दुनिया का कार्यभार होना चाहिए मनुष्य बचाने का न कि बाजार के उपभोक्ता को बचाने का। हमारे यहां मनुष्य, मनुष्य होता है, वस्तु नहीं, हम सामाजिक सहभागी कल्याणकारी सŸााप्रबंधन के लोग हैं, न कि बमों व बन्दूकों की बारूद में नहाए हुए आज्ञाकारी, दण्डित किए जा सकने वाले लोग। हम ‘पीर पराई जानने’ वाले लोग हैं, न कि पीर का मजाक बनाने वाले लोग। मानवीयता बचाने व सुरक्षित रखने का संदर्भ अन्ततः मनुष्यों को ही बचाना है, नागरिकों को ही बचाना है, पर कैसे बचेगी मनुष्यता आज के उपभोक्तावादी समय में? मनुष्य को मनुष्य बचाए रखने के लिए सत्ता के करतबों को कितना लचीला और मानवीय बनाना होगा, मनुष्य को उपभोक्ता बनने से कैसे रोकना होगा, मनुष्य को बाजार का बाजारू पोस्टर व कार्टून बनने से कैसे रोका जाये यही सारे सवाल तीसरी दुनिया के लिए विचारण के मामले हैं। सभी को पता है कि अधिक भू क्षेत्रफलों व कम आबादी वाले देशों के लिए तकनीकी कौशलों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया जाना अनिवार्य रूप से अनिवार्य है पर क्या सीमित और आधे एकड़ से भी कम प्रतिव्यक्ति भू क्षेत्रफल वाले भारत जैसे देशों के लिए भी प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए मानव ऊर्जा के स्थान पर तकनीकी कौशलों की ऊर्जा का प्रयोग किया जाना चाहिए? भारत जैसे क्षेत्रों के लिए जहां आबादी का घनत्व प्रति वर्ग किलोमीटर 400 व्यक्ति से अधिक है, यहां के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए अनिवार्यरूप से मानव संसाधनों पर ही आश्रित होना चाहिए न कि तकनीकी कौशलों पर, पर हो उल्टा रहा है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि तकनीकी कौशल के युग में आबादी के कम दबाव वाले क्षेत्र आज पूरी तरह से सुरक्षित क्षेत्र हैं तथा वीजा जैसे कानूनों के खोल में दुबके हुए हैं। समझना चाहिए कि क्या वीजा जैसा कानून मानवीयता के दर्दों को परिभाषित कर सकता है? आखिर मनुष्य तथा मनुष्य के बीच यह वीजा क्यों? आज की दुनिया एक तरफ तकनीकी कौशलों के बोझ से दब कर कराह रही है तो दूसरी तरफ मानव संसाधानों की कार्यक्षमता के उपयोग हीनता से तड़प रही है। मानव सभ्यता को आपस में बांटने का काम जिस प्रकार से जाति, गोत्र, रंग, धर्म आदि ने किया है उसी तरह आज के समय के कथित‘वीजा’ जैसे औपनिवेशी कानूनों ने भी मनुष्यता को बांटने का काम किया है। आखिर यह क्या है कि एक आदमी जो सिर्फ आदमी है वह दुनिया के इच्छित देशों में नहीं जा सकता, उसके लिए वीजा या पासपोर्ट की अनिवार्यता किस लिए, वह भी तब जब दुनिया के सारे सत्ता प्रतिष्ठान आदमी को बचाने की चिन्ताओं के रंगीन दावे करते हैं। मानव विवेक, चिंतन तथा धर्म तो सभै भूमि गोपल की मानता है पर वीजा जैसे कानून उनकी धज्जियां उड़ाते हैं। ऐसा किया जाना अनायास नहीं है अबादी के कम घनत्व व जरूरत से अधिक भू क्षेत्रफल वाले देश मानव जाति को अपने इच्छित स्थानों पर आबाद हो कर मानव सभ्यता के लिए काम करने की आजादी कभी नहीं देंगे। ऐसे सŸाा प्रतिष्ठानों की अनिवार्य चिन्ताओं में केवल भूगोल बचाना है, उनके यहां नागरिकरूपी मनुष्यता बचाने की चिन्ता ही नहीं है। मानव सभ्यता के स्तर पर मनुष्यता और नागरिकता का यही द्वन्द है। किसे नहीं पता कि नागरिकता एक खूबसूरत शब्द होते हुए भी किसी संप्रभु देश की संप्रभुता की मानव निर्मित सीमाओं में कैद होती है, जबकि मनुष्यता किसी भी जायज या नाजायज संप्रभुता संपन्न भूगोल में कैद की ही नहीं जा सकती। एक आदमी भूख से भारत में मरे चाहे कहीं भी मरे उसकी मृत्यु पर सारी दुनिया को शर्मशार होना चाहिए। इससे पूरी मानवता कलंकित व अपमानित होती है। पर ऐसी अनुभूति आज के कथित रूप से विश्वग्राम वाली अवधारणा में कहीं नहीं है। यह साफ है कि अगर भारत में भूख से मौतें हो रही है तो उन मौतों से अमेरिका जैसे सत्ता प्रतिष्ठानों से कुछ लेना देना नहीं। आज की दुनिया इतनी बेदर्द और बेरहम हो गई है कि उसने न केवल भूक्षेत्रों को वरन् भूख व जघन्य गरीबी से आहत मनुष्यता को भी भूगोलों में बांट दिया है। ऐसे मनुष्यता विरोधी कृत्यों पर तीसरी दुनिया के चिंतकों, विचारकों को चिन्तन, मनन करना चाहिए। साथ ही साथ न्यायशास्त्र पर भी गंभीर विचारण करते हुए उसे कुदरती न्याय की सार्वभौम मान्यताओं की तरफ ले जाने के लिए सार्थक पहल करना चाहिए। यह प्राकृतिक न्याय की अवधारणा ही है जो पारंपरिक रूप से जन, जन में रची बसी हुई है उसे गढ़ना या रचना नहीं होता। गढ़ना, रचना, सिरजना तो मानवरोधी कानूनों को होता है, जो लगातार जनहित, लोकहित के नाम पर गढे जा रहे हैं। कुदरती न्याय का संदर्भ आते ही कुदरती संसाधनों की उपयोगिता के बारे में भी सवाल खड़े हो जाते हैं।इस तरह हम देख रहे हैं कि आज के कठिन दौर में कथा का वांक्षित समाजशास्त्र बदल चुका है। आज पहले की तरह की कहानियों का कोई मतलब नहीं, आज की कहानियों में मनुष्य को बचाने की चिन्ता होनी चाहिए, मनुष्य बचेगा तभी कहानियां भी बचेंगी। आज भी भारतेन्दु जी के सवाल का उत्तर दिया जाना शेष है.. ‘होय मनुष्यहिं क्यों भये हम गुलाम ये भूप’ कथासाहित्य के लिए अनिवार्य है कि इसका उत्तर दंे और मनुष्य केन्द्रित कथा का समाज शास्त्र सृजित करे। e91wspts962ag5gu8fzw1vrsapy0t9p साँचा:VocabularyEntry 10 11385 82536 2025-06-10T09:05:47Z SHUBHAM KR SONI 15994 '== शब्दावली : सामान्य विज्ञान == ; गुरुत्वाकर्षण (Gravity) : पृथ्वी या किसी अन्य पिंड द्वारा वस्तुओं को अपनी ओर आकर्षित करने वाला बल। ; ऊर्जा (Energy) : कार्य करने की क्षमता। ; परमाणु (...' के साथ नया पृष्ठ बनाया 82536 wikitext text/x-wiki == शब्दावली : सामान्य विज्ञान == ; गुरुत्वाकर्षण (Gravity) : पृथ्वी या किसी अन्य पिंड द्वारा वस्तुओं को अपनी ओर आकर्षित करने वाला बल। ; ऊर्जा (Energy) : कार्य करने की क्षमता। ; परमाणु (Atom) : किसी पदार्थ का सबसे छोटा कण। ; अणु (Molecule) : दो या अधिक परमाणुओं से बना कण। ; न्यूट्रॉन (Neutron) : परमाणु के नाभिक में पाया जाने वाला उदासीन कण। ; इलेक्ट्रॉन (Electron) : ऋणात्मक आवेश वाला कण। ; प्रकाश (Light) : विद्युत चुंबकीय तरंगों का रूप। ; ध्वनि (Sound) : कंपन द्वारा उत्पन्न तरंगें। ; तापमान (Temperature) : किसी वस्तु की गर्मी या ठंडक की मात्रा। ; बल (Force) : किसी वस्तु पर लगाया गया धक्का या खिंचाव। ; गति (Motion) : किसी वस्तु के स्थान में परिवर्तन। ; घर्षण (Friction) : दो सतहों के बीच होने वाला प्रतिरोध। ; चुम्बकत्व (Magnetism) : चुम्बकीय क्षेत्र में पाई जाने वाली विशेषता। ; परावर्तन (Reflection) : प्रकाश का किसी सतह से वापस लौटना। ; अपवर्तन (Refraction) : प्रकाश का माध्यम परिवर्तन के समय दिशा बदलना। 4mrcq51cyitfiuepss04wk28hbytyl6 82537 82536 2025-06-10T09:08:22Z SHUBHAM KR SONI 15994 /* शब्दावली : सामान्य विज्ञान */ 82537 wikitext text/x-wiki == शब्दावली : सामान्य विज्ञान == ; गुरुत्वाकर्षण (Gravity) : पृथ्वी या किसी अन्य पिंड द्वारा वस्तुओं को अपनी ओर आकर्षित करने वाला बल। ; ऊर्जा (Energy) : कार्य करने की क्षमता। ; परमाणु (Atom) : किसी पदार्थ का सबसे छोटा कण। ; अणु (Molecule) : दो या अधिक परमाणुओं से बना कण। ; न्यूट्रॉन (Neutron) : परमाणु के नाभिक में पाया जाने वाला उदासीन कण। ; इलेक्ट्रॉन (Electron) : ऋणात्मक आवेश वाला कण। ; प्रकाश (Light) : विद्युत चुंबकीय तरंगों का रूप। ; ध्वनि (Sound) : कंपन द्वारा उत्पन्न तरंगें। ; तापमान (Temperature) : किसी वस्तु की गर्मी या ठंडक की मात्रा। ; बल (Force) : किसी वस्तु पर लगाया गया धक्का या खिंचाव। ; गति (Motion) : किसी वस्तु के स्थान में परिवर्तन। ; घर्षण (Friction) : दो सतहों के बीच होने वाला प्रतिरोध। ; चुम्बकत्व (Magnetism) : चुम्बकीय क्षेत्र में पाई जाने वाली विशेषता। ; परावर्तन (Reflection) : प्रकाश का किसी सतह से वापस लौटना। ; अपवर्तन (Refraction) : प्रकाश का माध्यम परिवर्तन के समय दिशा बदलना। == हिंदी शब्दावली : प्रौद्योगिकी + इलेक्ट्रॉनिक्स + कंप्यूटर == ; एल्गोरिदम (Algorithm) : समस्या हल करने हेतु चरणबद्ध प्रक्रिया। ; डेटा (Data) : सूचना का कच्चा रूप। ; डेटाबेस (Database) : सुव्यवस्थित जानकारी का संग्रह। ; एन्क्रिप्शन (Encryption) : सूचना को कूट रूप में बदलना। ; क्लाउड कंप्यूटिंग (Cloud Computing) : इंटरनेट के माध्यम से सेवाएँ प्रदान करना। ; नेटवर्क (Network) : कई उपकरणों को जोड़ने की व्यवस्था। ; सॉफ्टवेयर (Software) : कंप्यूटर में उपयोग होने वाले प्रोग्राम। ; हार्डवेयर (Hardware) : कंप्यूटर के भौतिक घटक। ; ट्रांजिस्टर (Transistor) : इलेक्ट्रॉनिक सिग्नल को नियंत्रित करने वाला घटक। ; अर्धचालक (Semiconductor) : विशिष्ट चालकता वाला पदार्थ। ; आईसी (Integrated Circuit) : एक चिप में समाहित कई घटक। ; फोटोलिथोग्राफी (Photolithography) : IC निर्माण की एक प्रक्रिया। ; कैपेसिटर (Capacitor) : विद्युत ऊर्जा को संग्रहित करने वाला घटक। ; इंडक्टर (Inductor) : विद्युत प्रवाह में परिवर्तन का प्रतिरोधी घटक। ; एनालॉग सिग्नल (Analog Signal) : निरंतर परिवर्तनशील संकेत। ; डिजिटल सिग्नल (Digital Signal) : द्विस्तरीय संकेत (0 और 1)। ; मशीन लर्निंग (Machine Learning) : डाटा के आधार पर मशीनों का सीखना। ; आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (Artificial Intelligence) : मानवीय सोच की नकल करने वाली तकनीक। ; ब्लॉकचेन (Blockchain) : सुरक्षित डिजिटल लेनदेन की तकनीक। ; ओपन सोर्स (Open Source) : सार्वजनिक रूप से उपलब्ध सॉफ्टवेयर। ; एपीआई (API) : सॉफ्टवेयर के बीच संवाद स्थापित करने वाला इंटरफेस। ; गिट (Git) : संस्करण नियंत्रण प्रणाली। ; रिपॉजिटरी (Repository) : कोड या डाटा का संग्रह। ; फायरवॉल (Firewall) : अनधिकृत एक्सेस को रोकने वाला सिस्टम। ; बायोमेट्रिक्स (Biometrics) : जैविक विशेषताओं द्वारा पहचान। ; साइबर सुरक्षा (Cyber Security) : डिजिटल सिस्टम की सुरक्षा। ; कोड (Code) : कंप्यूटर को दिए गए निर्देश। ; डीबगिंग (Debugging) : त्रुटियों को खोजकर सुधारना। ; लूप (Loop) : कोड का पुनरावृत्त निष्पादन। ; क्लॉक सिग्नल (Clock Signal) : डिजिटल सर्किट को सिंक्रोनाइज़ करने का संकेत। == उदाहरण : VocabularyEntry Template में उपयोग == {{VocabularyEntry |Term = एल्गोरिदम |Definition = समस्या हल करने हेतु चरणबद्ध प्रक्रिया। }} {{VocabularyEntry |Term = डेटा |Definition = सूचना का कच्चा रूप। }} {{VocabularyEntry |Term = क्लाउड कंप्यूटिंग |Definition = इंटरनेट के माध्यम से सेवाएँ प्रदान करना। }} {{VocabularyEntry |Term = ट्रांजिस्टर |Definition = इलेक्ट्रॉनिक सिग्नल को नियंत्रित करने वाला घटक। }} {{VocabularyEntry |Term = ब्लॉकचेन |Definition = सुरक्षित डिजिटल लेनदेन की तकनीक। }} b0y9drcyni1yndp0hh87yu73z4j106n 82538 82537 2025-06-10T09:11:47Z SHUBHAM KR SONI 15994 /* उदाहरण : VocabularyEntry Template में उपयोग */ 82538 wikitext text/x-wiki == शब्दावली : सामान्य विज्ञान == ; गुरुत्वाकर्षण (Gravity) : पृथ्वी या किसी अन्य पिंड द्वारा वस्तुओं को अपनी ओर आकर्षित करने वाला बल। ; ऊर्जा (Energy) : कार्य करने की क्षमता। ; परमाणु (Atom) : किसी पदार्थ का सबसे छोटा कण। ; अणु (Molecule) : दो या अधिक परमाणुओं से बना कण। ; न्यूट्रॉन (Neutron) : परमाणु के नाभिक में पाया जाने वाला उदासीन कण। ; इलेक्ट्रॉन (Electron) : ऋणात्मक आवेश वाला कण। ; प्रकाश (Light) : विद्युत चुंबकीय तरंगों का रूप। ; ध्वनि (Sound) : कंपन द्वारा उत्पन्न तरंगें। ; तापमान (Temperature) : किसी वस्तु की गर्मी या ठंडक की मात्रा। ; बल (Force) : किसी वस्तु पर लगाया गया धक्का या खिंचाव। ; गति (Motion) : किसी वस्तु के स्थान में परिवर्तन। ; घर्षण (Friction) : दो सतहों के बीच होने वाला प्रतिरोध। ; चुम्बकत्व (Magnetism) : चुम्बकीय क्षेत्र में पाई जाने वाली विशेषता। ; परावर्तन (Reflection) : प्रकाश का किसी सतह से वापस लौटना। ; अपवर्तन (Refraction) : प्रकाश का माध्यम परिवर्तन के समय दिशा बदलना। == हिंदी शब्दावली : प्रौद्योगिकी + इलेक्ट्रॉनिक्स + कंप्यूटर == ; एल्गोरिदम (Algorithm) : समस्या हल करने हेतु चरणबद्ध प्रक्रिया। ; डेटा (Data) : सूचना का कच्चा रूप। ; डेटाबेस (Database) : सुव्यवस्थित जानकारी का संग्रह। ; एन्क्रिप्शन (Encryption) : सूचना को कूट रूप में बदलना। ; क्लाउड कंप्यूटिंग (Cloud Computing) : इंटरनेट के माध्यम से सेवाएँ प्रदान करना। ; नेटवर्क (Network) : कई उपकरणों को जोड़ने की व्यवस्था। ; सॉफ्टवेयर (Software) : कंप्यूटर में उपयोग होने वाले प्रोग्राम। ; हार्डवेयर (Hardware) : कंप्यूटर के भौतिक घटक। ; ट्रांजिस्टर (Transistor) : इलेक्ट्रॉनिक सिग्नल को नियंत्रित करने वाला घटक। ; अर्धचालक (Semiconductor) : विशिष्ट चालकता वाला पदार्थ। ; आईसी (Integrated Circuit) : एक चिप में समाहित कई घटक। ; फोटोलिथोग्राफी (Photolithography) : IC निर्माण की एक प्रक्रिया। ; कैपेसिटर (Capacitor) : विद्युत ऊर्जा को संग्रहित करने वाला घटक। ; इंडक्टर (Inductor) : विद्युत प्रवाह में परिवर्तन का प्रतिरोधी घटक। ; एनालॉग सिग्नल (Analog Signal) : निरंतर परिवर्तनशील संकेत। ; डिजिटल सिग्नल (Digital Signal) : द्विस्तरीय संकेत (0 और 1)। ; मशीन लर्निंग (Machine Learning) : डाटा के आधार पर मशीनों का सीखना। ; आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (Artificial Intelligence) : मानवीय सोच की नकल करने वाली तकनीक। ; ब्लॉकचेन (Blockchain) : सुरक्षित डिजिटल लेनदेन की तकनीक। ; ओपन सोर्स (Open Source) : सार्वजनिक रूप से उपलब्ध सॉफ्टवेयर। ; एपीआई (API) : सॉफ्टवेयर के बीच संवाद स्थापित करने वाला इंटरफेस। ; गिट (Git) : संस्करण नियंत्रण प्रणाली। ; रिपॉजिटरी (Repository) : कोड या डाटा का संग्रह। ; फायरवॉल (Firewall) : अनधिकृत एक्सेस को रोकने वाला सिस्टम। ; बायोमेट्रिक्स (Biometrics) : जैविक विशेषताओं द्वारा पहचान। ; साइबर सुरक्षा (Cyber Security) : डिजिटल सिस्टम की सुरक्षा। ; कोड (Code) : कंप्यूटर को दिए गए निर्देश। ; डीबगिंग (Debugging) : त्रुटियों को खोजकर सुधारना। ; लूप (Loop) : कोड का पुनरावृत्त निष्पादन। ; क्लॉक सिग्नल (Clock Signal) : डिजिटल सर्किट को सिंक्रोनाइज़ करने का संकेत। == उदाहरण : VocabularyEntry Template में उपयोग == {{VocabularyEntry |Term = एल्गोरिदम |Definition = समस्या हल करने हेतु चरणबद्ध प्रक्रिया। }} {{VocabularyEntry |Term = डेटा |Definition = सूचना का कच्चा रूप। }} {{VocabularyEntry |Term = क्लाउड कंप्यूटिंग |Definition = इंटरनेट के माध्यम से सेवाएँ प्रदान करना। }} {{VocabularyEntry |Term = ट्रांजिस्टर |Definition = इलेक्ट्रॉनिक सिग्नल को नियंत्रित करने वाला घटक। }} {{VocabularyEntry |Term = ब्लॉकचेन |Definition = सुरक्षित डिजिटल लेनदेन की तकनीक। }} == हिंदी शब्दावली : फल (Fruits) == ; आम (Mango) : रसदार, पीला फल जो भारत का राष्ट्रीय फल भी है। ; सेब (Apple) : लाल या हरा रंग का कुरकुरा फल, स्वास्थ्य के लिए लाभकारी। ; केला (Banana) : ऊर्जा से भरपूर, आसानी से उपलब्ध फल। ; संतरा (Orange) : विटामिन C से भरपूर खट्टा-मीठा फल। ; अंगूर (Grapes) : छोटे-छोटे गोल फल, गुच्छों में पाए जाते हैं। ; अनार (Pomegranate) : लाल रंग के दानों वाला पोषणयुक्त फल। ; पपीता (Papaya) : नारंगी रंग का मुलायम फल, पाचन में सहायक। ; तरबूज (Watermelon) : गर्मियों का रसीला फल, पानी से भरपूर। ; खरबूजा (Muskmelon) : मीठा और रसदार गर्मियों का फल। ; लीची (Litchi) : छोटा, लाल छिलके वाला रसीला फल। ; अमरूद (Guava) : हरा या पीला फल, विटामिन C का अच्छा स्रोत। ; जामुन (Java Plum) : बैंगनी रंग का छोटा फल, स्वाद में खट्टा-मीठा। ; चीकू (Sapodilla) : भूरे रंग का मीठा फल। ; नारियल (Coconut) : कठोर खोल वाला फल, जिसके भीतर मीठा पानी और गूदा होता है। ; स्ट्रॉबेरी (Strawberry) : लाल रंग का छोटा रसदार फल। == हिंदी शब्दावली : जानवर (Animals) == ; शेर (Lion) : जंगल का राजा, मांसाहारी जानवर। ; हाथी (Elephant) : सबसे बड़ा स्थलीय जानवर, बुद्धिमान और शक्तिशाली। ; बाघ (Tiger) : शक्तिशाली मांसाहारी बिल्ली प्रजाति। ; गाय (Cow) : पालतू पशु, दूध का प्रमुख स्रोत। ; भैंस (Buffalo) : पालतू पशु, गाढ़े दूध का स्रोत। ; बकरी (Goat) : पालतू जानवर, दूध और मांस के लिए पाला जाता है। ; भेड़ (Sheep) : ऊन और दूध के लिए पाला जाने वाला जानवर। ; घोड़ा (Horse) : तेज़ दौड़ने वाला पालतू जानवर। ; ऊंट (Camel) : रेगिस्तानी क्षेत्र का जहाज कहलाने वाला जानवर। ; कुत्ता (Dog) : सबसे वफादार पालतू जानवर। ; बिल्ली (Cat) : छोटा, चपल और प्यारा पालतू जानवर। ; हिरण (Deer) : घास खाने वाला सुंदर वन्यजीव। ; भालू (Bear) : बड़ा स्तनपायी जानवर, सर्वाहारी। ; लोमड़ी (Fox) : चालाक और तेज़ जानवर। ; गधा (Donkey) : भार ढोने वाला परिश्रमी जानवर। 0ht3bizjut3e6500aep4c6tlsibos1t