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हिंदी संप्रेषण/ध्वनि और वर्ण
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2025-06-12T03:33:28Z
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हिंदी भाषा में कुल 59 ध्वनियाँ स्वीकार की गई हैं। इस दृष्टि से हिंदी दुनिया की सर्वाधिक समृद्ध भाषाओं में एक है। विषय की सभी भाषाओं में प्रचलित प्रायः सभी ध्वनियाँ इसमें विद्यमान हैं।
इन ध्वनियों को मूल रूप से तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है।
(1) स्वर (2) व्यंजन (3) अयोगवाह ध्वनियाँ
;(1) स्वर: स्वर उस ध्वनि को कहते हैं जिसका उच्चारण बिना किसी अन्य ध्वनि की सहायता के होता है। हिंदी भाषा में बारह स्वर हैं जिन्हें तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।
;(1)मूल स्वर: अर्थात वे स्वर जिनका कोई विभाजन नहीं हो सकता। ये संख्या में चार है - अ, इ, उ,ऋ,।
;(2)दीर्घ स्वर: अर्थात एक ही मूल स्वर के दो बार जुडने से बनने वाले स्वर। ये भी संख्या में चार हैं।
आ(अ+अ), ऊ(उ+उ),
ई(इ+इ), ऋ(ऋ+ऋ)।
;(3) संयुक्त स्वर: अर्थात वे दीर्घ स्वर जो अलग-अलग स्वरों से मिलकर बने हों। ये भी संकया में चार हैं-
ए(अ+इ), ऐ(अ+ए), ओ(अ+उ), औ(अ+ओ)।
;(2) व्यंजन: व्यंजन वे ध्वनियाँ हैं जिनके उच्चारण के लिए किसी अन्य ध्वनि (स्वर) की सहायता लेनी पड़ती है। स्वर के बिना व्यंजन पूर्ण नहीं होते। हिंदी में कुल 45 व्यंजन हैं जिनका कई आधारों पर वर्गीकरण किया जा सकता है।
;(1) उच्चारण स्थान के आधार पर व्यंजनों का वर्गीकरण:
;कंठ्य: - क,ख,ग,घ,ङ,क़‚ख़‚ग़‚घ़‚ङ़‚ह,ह़‚
;तालव्य: - च,छ,ज,झ,ञ,च़,छ़,ज़‚झ़‚ञ़‚य,य़‚श,श़‚
;मूर्धन्य: - ट,ठ,ड,ढ,ण,ट़,ठ़,ड़,ढ़‚ण़,र,ष,ष़‚
;दंत्य: - त,थ,द,ध,न,त़‚थ़‚द़‚ध़‚ल,ल़‚ळ‚स,स़‚
;ओष्ठ्य: - प,फ,ब,भ,म,प़‚फ़‚ब़‚म़‚व‚व़‚
;श्रावणया: - ऩ‚ऱ‚ऴ‚ष़‚ॸ‚ॹ‚ॺ‚
;(2)अवरोध के आधार पर व्यंजनों के भेद: इस आधार पर व्यंजनों के तीन भेद किए जाते हैं- अंतस्थ, ऊष्म व स्पर्श।
;(अ) अंतस्थ व्यंजन: ये वे व्यंजन है जिसका उच्चारण स्वर और व्यंजन का मध्यवर्ती होता है। इन व्यंजनों में श्वास का अवरोध बहुत कम होता है। ऐसे व्यंजन चार है-य,र,ल,व,। य और व में यह प्रकृति अधिक है। इस विशेष योग्यता के कारण इन दोनों को 'अर्धस्वर' भी कहा जाता है।
;(ब) ऊष्म या संघर्षी व्यंजन: ये वे व्यंजन जिनके उच्चारण में विशेष रूप से स्वास का घर्षण होता हैं। वस्तुतः जीभ तथा होंठों के निकट आने के कारण इनके उच्चारण में वायु रगड़ खाती हुई बाहर निकलती है व इसी से संघर्ष/घर्षण होता है। ये संख्या में चार है। श,ष,स,ह।
;(स) स्पर्श व्यंजन: ये वे व्यंजन हैं जिनके उच्चारण में जीभ या निचला होंठ उच्चारण स्थान का स्पर्श करके वायु को रोकता है। इन व्यंजनों को उच्चारण स्थान के आधार पर पाँच वर्गों में पाँच-पाँच की संख्या में बाँटा गया है।
;क वर्ग-:क,ख,ग,घ,ङ,
;च वर्ग-:च,छ,ज,झ,ञ
;ट वर्ग-:ट,ठ,ड,ढ,ण
;त वर्ग-:त,थ,द,ध,न
;प वर्ग-:प,फ,ब,भ,म
ऊपर दिए गए 33 व्यंजन हिंदी में मूल रूप से स्वीकार किए गए हैं किन्तु विकास की प्रक्रिया में आठ और व्यंजन भी हिंदी में स्वीकृति हुए है। इसकी सूचना स्रोतों के साथ इस प्रकार है-
;(1): मराठी से : ळ
;(2): फारसी से :
;(3): अपभ्रंम से : ड़,ढ़
इन 41 व्यंजनों के अतिरिक्त हिंदी में चार संयुक्त व्यंजन स्वीकृत हैं-क्ष,त्र,ज्ञ,श्र।
इस प्रकार कुल 45 व्यंजन हिंदी भाषा में स्वीकृत किए गए हैं।
;व्यंजनों के अन्य वर्गीकरण: व्यंजनों को कुछ और आधारों पर भी वर्गीकरण किया जाता है। ऐसे तीन वर्गीकरण प्रमुख है।
;(क)-अल्पप्राण व महाप्राण व्यंजन:
;(ख)-अघोष व सघोष व्यंजन:
;(ग)-संयुक्त व्यंजन:
;(क)-अल्पप्राण व महाप्राण व्यंजनों: का अंतर उच्चारण में खर्च होने वाले श्वाश की मात्रा पर आधारित है। अल्परण व्यंजन वे व्यंजन है जिनमें ऊर्जा, श्वाश या वायु की मात्रा कम खर्च होती है। जबकि महाप्राण व्यंजन वे व्यंजन है जिनमें ज्यादा ऊर्जा, श्वाश या वायु खर्च होती है। एक सामान्य नियम यह है कि प्रायः अल्पप्राण ध्वनियों में ह् जोड़ दिया जाए तो वे महाप्राण बन जाती हैं, जैसे-
;क्+ह्=ख्:
;ग्+ह्=घ्:
हिंदी के वर्गीय व्यंजनों में पहले व तीसरे व्यंजन अल्पप्राण होते हैं, तथा दूसरे व चौथे व्यंजन महाप्राण। इसके अतिरक्त अंतःस्थ व्यंजन (य,र,ल,व) अल्पप्राण होते है जबकि ऊष्म व्यंजन (श,ष,स,ह) महाप्राण होते हैं।
;(ख)-अघोष व सघोष व्यंजन: का मूल अंतर यह है कि सघोष व्यंजन के उच्चारण में स्वरतंत्री के अधिक कंपन के कारण आवाज काफी भारी होती है जबकि अघोष व्यंजन में स्वरतंत्री के कम कंपन के कंपन के कारण आवाज अधिक भारी नहीं होती। हिंदी व्यंजनमाला में वर्गीय व्यंजनों में पहले दो व्यंजन अघोष व अंतिम तीन सघोष होते है। अंतस्थ व्यंजन सघोष है। अन्य व्यंजनों में 'ह' सघोष है जबकि 'श', 'ष' तथा 'स' अघोष है।
;(ग)-संयुक्त व्यंजन: दो या दो से अधिक व्यंजनों के मेल से निर्मित होने वाले व्यंजनों का भी एक वर्ग है जिन्हें संयुक्त व्यंजन कहते हैं। हिंदी वर्णमाला में चार संयुक्त व्यंजन हैं-क्ष,त्र,ज्ञ तथा श्र,जिनकी निर्मिती इस प्रकार है-
;क्ष-(क्+ष):
;त्र-(त्+र):
;ज्ञ-(ज्+ञ):
;श्र-(श्+र):
;(3) अयोगवाह ध्वनियाँ: ये वे ध्वनियाँ हैं जो न स्वर है न ही व्यंजन। ये स्वर इसलिए नहीं है कि इनकी स्वतंत्र गति नहीं और व्यंजन इसलिए नहीं है कि ये स्वरों के बाद आते हैं, उनसे पहले नहीं आते। ऐसी तीन ध्वनियाँ है।
(क) अनुस्वार (ख) अनुनासिक (ग) विसर्ग
;(क) अनुस्वार: अनुस्वार एक नासिक्य ध्वनि है। अनुस्वार का अर्थ है- अनु+स्वर, अर्थात् जो नासिक्य ध्वनियाँ स्वर के उच्चारण के बाद आती हैं जैसे गंगा (गड्गा)। अनुस्वार के रूप में वर्गीय व्यंजनों के संदर्भ में नियम यह है कि अनुस्वार अपने से बाद में आने वाले व्यंजन के वर्ग का ही पाँचवा व्यंजन होगा। उदाहरण के लिए,
गंगा>गङ्गा, खंभा>खम्भा, गंदा>गन्दा, गंजा>गञजा
;(ख) अनुनासिक: वह नासिक्य ध्वनि जो स्वर के स्वर के साथ जोड़कर बोली जाती है। इसके संकेत के रूप में अ, आ, के साथ चन्द्रबिन्दु तथा ए व ओ की मात्रा के साथ बिन्दु का प्रयोग किया जाता है, बाँस जोंक।
;(ग) विसर्ग: यह वह ध्वनि है कुछ तत्सम शब्दों में स्वर के बाद 'ह' रूप में उच्चारित होती है, जैसे दुख छः, प्रायः अतः आदि।
यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वर्णमाला में अनुस्वार और अनुनासिक ध्वनियों की गणना एक ध्वनि के रूप में ही की जाती है। इस प्रकार अयोगवाह ध्वनियाँ दो ही बचती हैं।
इस प्रकार हमने देखा कि हिंदी वर्णमाला में वर्णमाला में कुल 12 स्वर हैं, 45 व्यंजन हैं तथा दो अयोगवाह ध्वनियाँ है। ये सभी ध्वनियाँ परस्पर मिलकर 59 हो जाती है।
l98lg39gtngqtm3g5wvtkax1qypqzg7
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हिंदी भाषा में कुल 59 ध्वनियाँ स्वीकार की गई हैं। इस दृष्टि से हिंदी दुनिया की सर्वाधिक समृद्ध भाषाओं में एक है। विषय की सभी भाषाओं में प्रचलित प्रायः सभी ध्वनियाँ इसमें विद्यमान हैं।
इन ध्वनियों को मूल रूप से तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है।
(1) स्वर (2) व्यंजन (3) अयोगवाह ध्वनियाँ
;(1) स्वर: स्वर उस ध्वनि को कहते हैं जिसका उच्चारण बिना किसी अन्य ध्वनि की सहायता के होता है। हिंदी भाषा में बारह स्वर हैं जिन्हें तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।
;(1)मूल स्वर: अर्थात वे स्वर जिनका कोई विभाजन नहीं हो सकता। ये संख्या में चार है - अ, इ, उ,ऋ,।
;(2)दीर्घ स्वर: अर्थात एक ही मूल स्वर के दो बार जुडने से बनने वाले स्वर। ये भी संख्या में चार हैं।
आ(अ+अ), ऊ(उ+उ),
ई(इ+इ), ऋ(ऋ+ऋ)।
;(3) संयुक्त स्वर: अर्थात वे दीर्घ स्वर जो अलग-अलग स्वरों से मिलकर बने हों। ये भी संकया में चार हैं-
ए(अ+इ), ऐ(अ+ए), ओ(अ+उ), औ(अ+ओ)।
;(2) व्यंजन: व्यंजन वे ध्वनियाँ हैं जिनके उच्चारण के लिए किसी अन्य ध्वनि (स्वर) की सहायता लेनी पड़ती है। स्वर के बिना व्यंजन पूर्ण नहीं होते। हिंदी में कुल 45 व्यंजन हैं जिनका कई आधारों पर वर्गीकरण किया जा सकता है।
;(1) उच्चारण स्थान के आधार पर व्यंजनों का वर्गीकरण:
;कंठ्य: - क,ख,ग,घ,ङ,क़‚ख़‚ग़‚घ़‚ङ़‚ह,ह़‚
;तालव्य: - च,छ,ज,झ,ञ,च़,छ़,ज़‚झ़‚ञ़‚य,य़‚श,श़‚
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;दंत्य: - त,थ,द,ध,न,त़‚थ़‚द़‚ध़‚ल,ल़‚ळ‚स,स़‚
;ओष्ठ्य: - प,फ,ब,भ,म,प़‚फ़‚ब़‚भ़,म़‚व‚व़‚
;श्रावणया: - ऩ‚ऱ‚ऴ‚ष़‚ॸ‚ॹ‚ॺ‚
;(2)अवरोध के आधार पर व्यंजनों के भेद: इस आधार पर व्यंजनों के तीन भेद किए जाते हैं- अंतस्थ, ऊष्म व स्पर्श।
;(अ) अंतस्थ व्यंजन: ये वे व्यंजन है जिसका उच्चारण स्वर और व्यंजन का मध्यवर्ती होता है। इन व्यंजनों में श्वास का अवरोध बहुत कम होता है। ऐसे व्यंजन चार है-य,र,ल,व,। य और व में यह प्रकृति अधिक है। इस विशेष योग्यता के कारण इन दोनों को 'अर्धस्वर' भी कहा जाता है।
;(ब) ऊष्म या संघर्षी व्यंजन: ये वे व्यंजन जिनके उच्चारण में विशेष रूप से स्वास का घर्षण होता हैं। वस्तुतः जीभ तथा होंठों के निकट आने के कारण इनके उच्चारण में वायु रगड़ खाती हुई बाहर निकलती है व इसी से संघर्ष/घर्षण होता है। ये संख्या में चार है। श,ष,स,ह।
;(स) स्पर्श व्यंजन: ये वे व्यंजन हैं जिनके उच्चारण में जीभ या निचला होंठ उच्चारण स्थान का स्पर्श करके वायु को रोकता है। इन व्यंजनों को उच्चारण स्थान के आधार पर पाँच वर्गों में पाँच-पाँच की संख्या में बाँटा गया है।
;क वर्ग-:क,ख,ग,घ,ङ,
;च वर्ग-:च,छ,ज,झ,ञ
;ट वर्ग-:ट,ठ,ड,ढ,ण
;त वर्ग-:त,थ,द,ध,न
;प वर्ग-:प,फ,ब,भ,म
ऊपर दिए गए 33 व्यंजन हिंदी में मूल रूप से स्वीकार किए गए हैं किन्तु विकास की प्रक्रिया में आठ और व्यंजन भी हिंदी में स्वीकृति हुए है। इसकी सूचना स्रोतों के साथ इस प्रकार है-
;(1): मराठी से : ळ
;(2): फारसी से :
;(3): अपभ्रंम से : ड़,ढ़
इन 41 व्यंजनों के अतिरिक्त हिंदी में चार संयुक्त व्यंजन स्वीकृत हैं-क्ष,त्र,ज्ञ,श्र।
इस प्रकार कुल 45 व्यंजन हिंदी भाषा में स्वीकृत किए गए हैं।
;व्यंजनों के अन्य वर्गीकरण: व्यंजनों को कुछ और आधारों पर भी वर्गीकरण किया जाता है। ऐसे तीन वर्गीकरण प्रमुख है।
;(क)-अल्पप्राण व महाप्राण व्यंजन:
;(ख)-अघोष व सघोष व्यंजन:
;(ग)-संयुक्त व्यंजन:
;(क)-अल्पप्राण व महाप्राण व्यंजनों: का अंतर उच्चारण में खर्च होने वाले श्वाश की मात्रा पर आधारित है। अल्परण व्यंजन वे व्यंजन है जिनमें ऊर्जा, श्वाश या वायु की मात्रा कम खर्च होती है। जबकि महाप्राण व्यंजन वे व्यंजन है जिनमें ज्यादा ऊर्जा, श्वाश या वायु खर्च होती है। एक सामान्य नियम यह है कि प्रायः अल्पप्राण ध्वनियों में ह् जोड़ दिया जाए तो वे महाप्राण बन जाती हैं, जैसे-
;क्+ह्=ख्:
;ग्+ह्=घ्:
हिंदी के वर्गीय व्यंजनों में पहले व तीसरे व्यंजन अल्पप्राण होते हैं, तथा दूसरे व चौथे व्यंजन महाप्राण। इसके अतिरक्त अंतःस्थ व्यंजन (य,र,ल,व) अल्पप्राण होते है जबकि ऊष्म व्यंजन (श,ष,स,ह) महाप्राण होते हैं।
;(ख)-अघोष व सघोष व्यंजन: का मूल अंतर यह है कि सघोष व्यंजन के उच्चारण में स्वरतंत्री के अधिक कंपन के कारण आवाज काफी भारी होती है जबकि अघोष व्यंजन में स्वरतंत्री के कम कंपन के कंपन के कारण आवाज अधिक भारी नहीं होती। हिंदी व्यंजनमाला में वर्गीय व्यंजनों में पहले दो व्यंजन अघोष व अंतिम तीन सघोष होते है। अंतस्थ व्यंजन सघोष है। अन्य व्यंजनों में 'ह' सघोष है जबकि 'श', 'ष' तथा 'स' अघोष है।
;(ग)-संयुक्त व्यंजन: दो या दो से अधिक व्यंजनों के मेल से निर्मित होने वाले व्यंजनों का भी एक वर्ग है जिन्हें संयुक्त व्यंजन कहते हैं। हिंदी वर्णमाला में चार संयुक्त व्यंजन हैं-क्ष,त्र,ज्ञ तथा श्र,जिनकी निर्मिती इस प्रकार है-
;क्ष-(क्+ष):
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;(3) अयोगवाह ध्वनियाँ: ये वे ध्वनियाँ हैं जो न स्वर है न ही व्यंजन। ये स्वर इसलिए नहीं है कि इनकी स्वतंत्र गति नहीं और व्यंजन इसलिए नहीं है कि ये स्वरों के बाद आते हैं, उनसे पहले नहीं आते। ऐसी तीन ध्वनियाँ है।
(क) अनुस्वार (ख) अनुनासिक (ग) विसर्ग
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गंगा>गङ्गा, खंभा>खम्भा, गंदा>गन्दा, गंजा>गञजा
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;(ग) विसर्ग: यह वह ध्वनि है कुछ तत्सम शब्दों में स्वर के बाद 'ह' रूप में उच्चारित होती है, जैसे दुख छः, प्रायः अतः आदि।
यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वर्णमाला में अनुस्वार और अनुनासिक ध्वनियों की गणना एक ध्वनि के रूप में ही की जाती है। इस प्रकार अयोगवाह ध्वनियाँ दो ही बचती हैं।
इस प्रकार हमने देखा कि हिंदी वर्णमाला में वर्णमाला में कुल 12 स्वर हैं, 45 व्यंजन हैं तथा दो अयोगवाह ध्वनियाँ है। ये सभी ध्वनियाँ परस्पर मिलकर 59 हो जाती है।
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रामनाथ शिवेंद्र के आदिवासी उपन्यास
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2025-06-12T10:29:32Z
Ramnathshivendra
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'''सीमांत की संघर्ष-गाथा ‘हरियल की लकड़ी’'''
अरविन्द चतुर्वेद
[[File:Hariyal ki lakadi jpg.jpg|thumb|novel based on the protest of tribal lady Basmatia आदिवासी महिला बसमतिया की संघर्ष गाथा पर केंद्रित उपन्यास]]
दुनिया के जिस ‘सबसे बड़े लोकतंत्रा’ में हम रहते हैं, आज़ादी के अठ्ठावन साल बाद आज भी सीमांत पर कई ऐसी जिन्दगियां हैं जिन्हें आज़ादी की रोशनी मयस्सर नहीं, उलटे तंत्रा के शिकंजे में वे छटपटा रही हैं। विकास की संजीवनी तो खैर उन्हें क्या मिले, विडंबना ही है कि विकास की मार ने उनका जीना दूभर कर रखा है। ये सीमांत के दूर-दराज के जंगली गॉव भी हो सकते हैं और शहरों की झुग्गी-झोपड़ियां या फुटपाथी जिन्दगी भी।
कथाकार रामनाथ शिवेन्द्र के हाल ही में आये उपन्यास ‘हरियल की लकड़ी’ में जिस तरह से सीमांत की जीवन गाथा उपस्थित हुई है वह भौगोलिक रूप से भी उत्तर-प्रदेश का दक्षिणी-पूर्वी सीमांत है। सोनभद्र जनपद के रूप में वही सीमांत है जो कोयला, सीमेन्ट, अल्युमिनियम की बदौलत औद्योगिक अंचल और बिजली कारखानों के चलते ऊर्जा राजधानी जैसे चमकदार जुमले से संबोधित किया जाता है तो दूसरी ओर इसी सीमांत पर विकास की मारी, विस्थापन से धकियाई हुई वह ग्रामीण जंगली बस्तियां हैं जो अपने अ-विकास में अचल हैं और प्रशासनिक अंधेरगर्दी, लूट,खसोट तथा बहुस्तरीय दैहिक-मानसिक शोषण की स्वेच्छाचारिता की शिकार हैं। छब्बीस उपशीर्षकों में विन्यस्त उपन्यास ‘हरियल की लकड़ी’ में इसी ग्रामीण आदिवासी ज़िन्दगी की संघर्ष गाथा को उसकी अनेक गूंज-अनुगूंज के साथ प्रस्तुत किया गया है। कहना न होगा कि बहुत हद तक इसमें उपन्यासकार को सफलता मिली है। वैश्वीकरण के जिस अभियान में विकास की दंुदुभी बजाई जा रही है उसकी असलियत जाननी हो तो सीमांत के परिवेश का जायजा लेने से उसका खोखलापन अपने आप उजागर हो जाता है। इस उपन्यास में आये गॉव का जीवन परिवेश देखिए....कृ
‘सदी का गुज़रना इस गॉव से गायब था। यहां परंपरायें थीं, उनका दबाव था। दूसरी कोई चीज थी तो वह था जंगल, नदी नाले पहाड़। जंगल में महुआ, करवन, बेर, हर्रा, बहेरा जैसे कुछ जंगली फल-फूल थे। जिन्हें अपने उपयोग के लिए प्रयोग में लाना कानून प्रतिबंधित और दण्डित करता था। गॉव हजारों साल की परंपराओं में वह गॉव कुछ इस तरह ढंका था कि नई सदी का वहां कहीं अता-पता न चलता था। एक तरफ धॉगरी बोलते हुए करम देवता खड़े थे तो दूसरी ओर मैदानी इलाके में राम, कृष्ण, शंकर जैसे देवता भी पुजहाई करवाने में कम न थे। हाल के सालों में कुछ नेताओं, परेताओं के नाम भी गॉव में घुस चुके हैं। (पृ.68)
उपन्यास की मुख्य कथा तो बस इतनी ही है कि चेरो जाति की आदिवासी युवती बसमतिया का पति जगदा पॉच साल पहले गॉव छोड़कर कहीं चला गया है। न वह लौटा, न उसने इस बीच अपनी कोई खबर दी। लेकिन बसमतिया है कि अपनी बूढ़ी विधवा सास के साथ रह कर मेहनत मजूरी करते हुए ज़िन्दगी बसर किये जा रही है। वह जवान है, आकर्षक है, मेहनती है, और चाहे तो अपने जाति समाज के मुताबिक किसी दूसरे युवक के साथ ‘सलट’ कर ज़िन्दगी की नई पारी भी शुरू कर सकती है। लेकिन वह जगदा के लौटने का इन्तजार करती है। जगदा वापस आ जाये इसके लिए ‘छठ’ का ब्रत रखती है, ‘करम’ देवता से मनौती करती है। वह जगदा और उसकी स्मृतियों को ‘हारिल की लकड़ी’ की तरह थामेे हुई है, जकड़े हुई है।
सीमांत की ज़िन्दगी का अर्थिक संघर्ष कितना गहरा है उपन्यास में आया विवरण द्रष्टव्य है---
‘चेरवान के परिवारों की संख्या चालीस थी तथा धॉगर कुल पैंतालिस परिवार थे, अहीर जो लगभग भूमिहीन थे उनकी संख्या चार परिवार की थी। भूमिहीन व गरीबी रेखा के नीचे जीवन गुजारने वाले इन परिवारों के बच्चे स्कूल न जाते थे। बहुतायत लोगों के पास बंधी में ली गई जमीनों के एवज में चौदह-चौदह बिस्वों के दिए गये छोटे-छोटे जमीन के टुकड़े थे। गॉव के भूमिहीन जंगल विभाग के कामों पर सब्बल, गैंता, फावड़ा चलाते और औरतें टोकरियॉ ढोतीं। कभी जंगल में उन्हें वृक्षारोपण का काम भी मिल जाता।’
लेकिन जिस बसमतिया की जिन्दगी दागों वाली दुनिया की न थी, वह जल की तरह चमकदार थी और पारदर्शी भी।’ पृ..54
उसकी स्थिति दूसरों से इस मायने में भिन्न है कि आर्थिक अभाव के साथ ही उसका जीवन भवनात्मक अभाव से भी ग्रसित है। इसलिए यह बहुत ही स्वाभाविक है कि...
‘बसमतिया वर्तमान में जीने वाली औरत थी। उसके पास न तो अतीत की आनददायक स्मृतियॉ थीं और न ही भविष्य का मनोरम सपना था’ पृ.127
तो क्या बसमतिया के अन्दर इच्छा-आकांक्षा न थी, राग-अनुराग न था, या वह हाड़-मांस की नहीं बनी थी? रात के एकांत में अपनी मायके में भउजाई के साथ सोई बसमतिया कहती है...
‘भउजी जबसे तुम्हारा घर से ननदोई भागा है तबसे जाने क्या हुआ कि मेरी देह भी उसके साथ चली गई है। समझ में नहीं आता कि देह कैसे चली गई, मेरी खुशियां लेकर, मुई देह भी गुसिया गई है मुझ पर’कृ 52
यानि एक तरह से पति-परित्यक्ता, युवा बसमतिया जिस तरह की परिस्थितियों का शिकार है, उसमें किसी भी तरह उसकी ज़िन्दगी निरापद नहीं है। वह जिस मालिक के काम पर जाती है, एक मौका पाकर वह उसे दबोच लेता है। संघर्ष करके बसमतिया उसके चंगुल से निकल भागती है, और दुबारा फिर उसके काम पर नहीं जाती। बसमतिया के जेठ की भी उस पर बुरी निगाह है। अव्वल तो वह चाहता है कि बसमतिया किसी के साथ ‘सलट’ कर दफा हो जाये तो जगदा के हिस्से की जरा सी जमीन उसे मिल जाये या फिर बसमतिया उसके अवैध संरक्षण में रहने लगे। लेकिन बसमतिया कठिन जिन्दगी जीते हुए भी टूटती नहीं। यथा संभव न्यूनतम जरूरतों और शर्तों पर जिन्दगी जीती है, लेकिन जेठ तथा मालिक जैसे बदनीयत लोगों के लिए वह सर्वथा अलभ्य बनी रहती है।
बसमतिया का पति भगोड़ा निकला जरूर लकिन बसमतिया परिस्थितियों के अंधड़ में सूखे पत्तों की तरह उड़ जाने वाली स्त्राी नहीं है। उसका जीवन रिक्त है और उसकी मन‘स्थिति को बड़ी बारीकी से उकेरने में लेखक ने पर्याप्त दक्षता का परिचय दिया है पर असल चीज है बसमतिया का जीवट, वह चट्टानी दृढ़ता, जो हर तरह के आर्थिक, मानसिक हरहराते अभावों के आगे पराभूत होना नहीं जानती। इसी ने बसमतिया के व्यक्तित्व को चमकदार बनाया है। लेकिन यहां यह कहना भी जरूरी है कि ‘हरियल की लकड़ी’ उपन्यास को स्त्राी विमर्श के खाते में डालकर ‘रिड्यूस’ नहीं किया जा सकता। दरअसल यह उपन्यास सीमांत की जिन्दगी जी रहे लोगों के संघर्ष और जिजीविशा की बिडंबनापूर्ण दास्तान तो है ही, साथ ही बचे-खुचे सामंती अवशेषो, पूंजीवाद के हमलावर चरित्रा और जनतंत्रा को अप्रासंगिक बनाने पर आमादा भष्ट, क्रूर प्रशासनिक व्यवस्था तथा विकास की इकहरी प्रक्रिया के दुःपरिणामों को उजागर करता एक खौलता कथा-दस्तावेज भी है।
बसमतिया उपन्यास का केन्द्रीय पात्रा तो है लेकिन एक ऐसा पुल भी है जिस पर से होकर उसके मायके और ससुराल की ग्रामीण जिन्दगी की सीमांत चुनौतियां और संघर्ष अनेक रूपों में आवाजाही करते हैं। उसके बाप ने कभी सरकारी सहायता के तहत भैंस ली थी जिसके एवज में देय बैंक का कर्ज दो हजार से बढ़कर आठ हजार रुपये हो जाता है। यह कर्ज भी एक नेता की कागजी धोखा-धड़ी की देन है जिसका शिकार उसका अनपढ़ बाप बनता है। बाप को जेल न जाना पड़े और किसी तरह कर्ज से छुटकारा मिले इसके लिए गॉव के सीधे-सादे दूसरे कर्जदारों के साथ बसमतिया को बैंक और कचहरी का चक्कर लगाना पड़ता है। बसमतिया की गॉव की सहेली ननकी का दूर का एक रिष्तेदार देवनाथ डूबते को तिनके का सहारा जैसा वकील मिल जाता है और हालांकि बसमतिया का बाप जेल जाने से बच जाता है, उपभोक्ता फोरम के माध्यम से मुकदमा जीतने के कारण उसे कर्ज से मुक्ति भी मिल जाती है। फिर भी रोज कमाने खाने वालों के लिए बैंक-कचहरी का चक्कर अपने आप में कितना बड़ा संघर्ष है, यह वकील देवनाथ से बसमतिया की इस जिज्ञासा व चिन्ता से समझा जा सकता है...
‘फैसला कब तक हो जाएगा वकील साहब! यहां आओ तो सत्तर अस्सी रुपया खरच हो जाता है, दो दिन का नुकसान अलग से। रोज कमाओ खाओ नहीं तो फांका’पृ.159
प्रशासनिक भ्रष्टाचार और लूटतंत्रा का शिकार होकर सरकारी अनुदान, सहायता और बैंक कर्ज आदि के जरिए सीमांत की जिन्दगियां जहां जाल में फंसकर छटपटाती हैं, वहीं औद्योगिकरण और इकहरे विकास की प्रवंचना भी उन्हीं के हिस्से आती है।
‘गॉव के आकाश का सूरज, गॉव के हिस्से की जमीन, धूप हवा, जंगल, पहाड़ सभी कुछ गॉव में होते हुए भी गॉव से बाहर थे उन पर दूसरों का कब्जा था। नदी का पानी दूर जाकर नहर में गिरता था जिससे गॉव का रिश्ता नहीं। गॉव का पहाड़ टूट-टूट कर ढोंका, पटिया, चूना, सीमेन्ट, अल्युमिनियम बनता था, जंगल कटकर पलंग, कुर्सी,मेज, किवाड़ वगैरह में ढलता था पर बसमतिया का मायकाकृबिना नहर वाला, बिना कुर्सी वाला, बिना सीमेन्ट वाला था जो आज भी है। इतिहास की बनती बिगड़ती स्थितियों ने कभी भी इस गॉव का भला नहीं किया’ पृ..73-74।
उपन्यास का अंत सचमुच विचलित कर देने वाला है। गॉव के पंडितों के मन मुताबिक ग्रामसभा का काम न होने के कारण वे भूमिहीनों और मजदूर तबके के लोगों का साथ देने वाले ग्रामप्रधान के खिलाफ हैं। अंततः गॉव के भूमिपति यानि पंडित वन विभाग के रंेजर के साथ मिलकर प्रधान व भूमिहीन ग्रामीणों के खिलाफ साजिश रचते हैं। रेजर की अगुवाई में वन विभाग वाले जंगल की जमीन पर कब्जा का बहाना बना कर उनकी झोपड़ियां उजाड़ते हैं, आग लगा देते हैं, विरोध करने वालों को खदेड़कर पकड़ ले जाते हैं। रेंजर आफिस पर खुद लकड़ी के गोदाम में आग लगवाकर रेजर, गॉव वालों को आरोपी बनाता है। यह सारी कार्यवाई रात में होती है। बसमतिया और रज्जो के साथ सामूहिक बलात्कार किया जाता है। इस बर्बर दमनात्मक कार्यवाई के बाद प्रधान समेत पकड़े गये ग्रामीणों को गिरफ्तार कराके जेल भेज दिया जाता है। पक्ष विपक्ष में खबरे छपती हैं, चूंकि वकील देवनाथ भी ग्रामीणों को भड़काने के आरोप में गिरफ्तार होता है इसलिए वकीलों की हड़ताल और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के धरना प्रदर्शन का सिलसिला शुरू हो जाता है। एक बार फिर मामला जॉच और कचहरी की पेचीदा गलियों में चला जाता है। विचलित कर देने वाले दमन और षडयंत्रा के गर्भ में जिस तरह के विस्फोट के मुहाने पर जाकर उपन्यास खत्म होता है, वहां हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था और इसकी उपलब्धियों के सामने एक बड़ा प्रश्नचिन्ह स्वयमेव खड़ा हो जाता है। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि वैश्वीकरण के गाए जा रहे भारतीय सोहर के सामने यह उपन्यास एक ऐसा शोकगीत है जिसे अनसुना नहीं किया जा सकता।
परिचय (साहित्यिक पत्रिका----
अंक 06 पृ...107-110
हंस मासिक पत्रिका
समीक्ष्य कृति- हरियल की लकड़ी’ (उपन्यास)
प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन,
नेता जी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली, 110002
मूल्य-195.00 सन्- 2006
'''-2-'''
'''मौलिक अधिकारों के संघर्ष की तैयारी ‘तीसरा रास्ता’'''
नन्द किशोर नीलम
[[File:Teesara Rasta.jpg|thumb|NGO संस्कृति पर केंद्रित उपन्यास भूमिअधिकार के सन्दर्भ में]]
एन.जी.ओ. की भूमिका पर अनगिनत सवाल उठते रहे हैं। एन.जी.ओ. ने अपनी कार्यप्रणाली और समग्र व्यवहार से बराबर ऐसे हालात पैदा किए हैं जिससे तमाम धारणायें पुष्ट और प्रमाणित हुई हैं कि इनकी भूमिका विकास विरोधी दलालों की तरह है। निरीह जनता के हिस्से की कल्याणकारी योजनाओं की अकूत राशि इनके पंचतारा ऐशो-आराम पर खर्च कर दी जाती है। बाड़ (बाउन्ड्री) का काम खेत की रखवाली करना होता है, पर यदि बाड़ ही खेत खाने लगे तो! संभवतः एन.जी.ओज की भूमिका पर अपनी रचनात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले रामनाथ शिवेन्द्र के महत्वपूर्ण उपन्यास ‘तीसरा रास्ता’ में यही संशय उमड़ता-घूमता रहता है। मानवाधिकार जन समिति की एन.जी.ओ. का कर्ताधर्ता डी.बी़ जैसा शातिर व्यक्ति, जिसके हाथ में समाज को बदलने की ताकत और साधन दोनों हैं, शोषक व भक्षक की भूमिका में है। समाज की बेहतरी के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले साधनों को वह समाज के विनाश के, समाज की चेतना को कुंद करने के हथियारों के रूप में तब्दील करने में माहिर है,वह कहता है...
‘क्रान्ति एक छलावा है, तथा विकास यथार्थ’ वह आगे कहता है...
‘बुद्धि के व्यापार के लिए किसी एन.जी.ओ. का होना आवश्यक था सो उसने अमेरिकी फन्डर की बात जस के तस मान कर अपनी संस्था बना ली’ पृ...21
इसलिए क्रान्ति को अवरूद्ध करने के तमाम उपाय करता हैै। डी.बी. राजनीतिक समीकरण बिठाने में माहिर है। उसके मंसूबों को साकार करने और उसके अटके कामों को करवाने के लिए कोई न कोई स्त्राी हमेशा देह में परिवर्तित हो जाने को तत्पर रहती है, जो उसका विरोध करती है उसे वह बर्बाद कर देता है। जटिल जीवन पद्धति, बाजारीकरण और घिचपिच सौन्दर्यबोध से स्त्राी का संपूर्ण व्यक्तित्व किस तरह संचालित होता है इसका ज्वलंत उदाहरण है डी.बी. की सहायक मधुनिहलानी और शालिनी। वस्तुतः यह उपन्यास समाज परिवर्तन की दिशा में स्त्राी की भूमिका के परस्पर विरोधी आयामों की गहरी पड़ताल करके उसके सही और सकारात्मक भूमिका और हस्तक्षेप को सुधा, अस्मिता, नन्दिता तथा प्रमिला जैसी स्त्राी पात्रों के द्वारा रचता है जो हर स्तर पर समाज बदल के लिए प्रतिरोधी क्षमता का प्रतिनिधित्व करती हैं। स्त्राी जीवन के दो घनघोर विरोधी स्वरूपों (देह में तब्दील हो जाना एक स्वरूप तथा विरोधी स्वरूप अपनी अस्मिता के बचाव में प्रतिरोध करना) पर रामनाथ शिवेन्द्र ने स्त्राी पात्रों के माध्यम से गंभीर विचारण किया है।
प्रस्तुत उपन्यास सोनपुर जनपद की आम जनता के माध्यम से आज के असंख्य शोषितों, पीड़ितों, दलितों, दमितों और वंचितों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए किए जा रहे संघर्ष की कथा कहता है। सोनपुर के ये लोग अपने जल,जंगल और जमीन के हक़ के लिए लगातार ठगे जा रहे हैं। शासन इनके प्रति निश्क्रिय और उदासीन है, लगभग जनविरोधी और विकास विरोधी भूमिका में। वन विभाग इन पर झुठे मुकदमे दायर करवाकर क्रूर हत्यारे की तरह व्यवहार करता है और उनके मौलिक अधिकारों की हिफाज़त की लड़ाई के लिए देशी -विदेशी फंडरों से करोड़ों रुपये डकारने वाले एन.जी.ओ. इनके सामाजिक तथा मौलिक अधिकारों का सबसे बड़े अपहर्ता हैं। देखें..
‘आर्थिक उदारवाद तथा एन.जी.ओ. संस्कृति ने आन्दोलनों के चरित्रा की हत्या कर दी है’ पृ...224
‘एन.जी.ओ. वाले.बेकारी तथा बेरोजगारी का लाभ उठाते हैं तथा रुपया कमाने का व्यापार करते हैं, आधे से भी कम मजूरी पर कार्यकर्ताओं का शोषण करते हैं।’ समाज बदलने के व्यापक उद्दष्यों को छोड़कर ‘ये एन.जी.ओ. वाले गरीबी, भुखमरी,बीमारी का सौदा करते हैं तथा अमेरिका व इंग्लैंड को बेचते हैं। पृ...198
इस उपन्यास की एक महत्वपूर्ण घटना है सुधा के नेत्त्व में सोनपुर में बंधी का निर्माण जो वास्तव में आज के समय में जनभागीदारी के द्वारा जल संरक्षण के श्रोतों को सिरजने के पहल के लिए प्रेरित करता है, दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार द्वारा बड़े बांध बनाने के लिए अपनी जमीन से उजाड़ दिए जाने वाले निरीह आदिवासियों के विस्थापन को रोकने तथा बड़े बांध के विकल्प में छोटी-छोटी बंधियां बनाकर प्राकृतिक रूप से जल संरक्षण करने से जल, जंगल और जमीन रूपी आम जनता के मौलिक अधिकारों का हनन भी नहीं होगा और उन्हें बार बार उजड़ने से निजात भी मिलेगी पर वन विभाग सुधा द्वारा जन सहभागिता से बनवाये जा रहे बंधी निर्माण से खुश नहीं है, उसके धन व वर्चस्व का सारा खेल बड़े बांध खड़े होने में है।
वन विभाग के पैमाइशी फीते का जाल इतना गहरा और बड़ा होता है कि आम आदमी और उसके जीवन जीने के संसाधन भी इसी जाल में उलझकर रह जाते हैं। प्रतिरोध करने पर वन विभाग का दमन चक्र क्रूरता में बदल जाता है फिर पुलिस? नेता, और स्वयं सेवी संगठनों के भ्रष्ट आका आपसी साठगांठ से जनप्रतिरोध की धार को कुन्द कर देते हैं। उपन्यास में सोनपुर के निरीह लोगों को रेंजर की हत्या के आरोप में फसाना ऐसी ही सांठगांठ का परिणाम है। सुधा, विजयकीर्ति भाई, निखिल दा और विनय जैसे लोगों की बड़ी चिंता यह है कि इन्हें किसी भी तरह से उजड़ने से बचाया जाए और विस्थापित किए जाने वाले लोगों के बीच जाकर उन्हें आदिवासियों के मौलिक स्वत्व के संघर्ष के लिए कैसे तैयार किया जाए? लेकिन अनेक बार उजड़ चुके और शासन और पुलिस की पाश्विकता को भोग चुके लोग डरे हुए हैं। गॉव का एक सत्तरवर्षीय वृद्ध सुधा और विनय को इस बर्बरता के बारे में बताते हुए लगभग पागलपन की हद तक पहुंच चुकी निराशा में ‘करमा’ गा गा कर नाचने लगता है। पृ...222। यह बुजुर्ग आदिवासी बार बार के विस्थापन को अपनी नियति मान चुका है। जिस डर, हताशा और निराशा का वह शिकार है वह आज पूरे भारतीय समाज पर हावी है। पर इसी गॉव के कुछ युवा लोग इस नियति को बदलकर आपने जीने के अधिकार को पाना चाहते हैं। इनमें अथाह जोश है और प्रतिरोध की आवश्यक क्षमता भी। ये अब मरने-मारने पर उतारू हैं।
इस उपन्यास का शीर्षक ‘तीसरा रास्ता’ देख कर ऐसा लगता है कि राजनीति में तीसरे विकल्प की तरह उपन्यासकार भी एक ‘तीसरा रास्ता’ बनाने या सुझाने की पहल करेगा जो कायम सत्ता और विकास विरोधी स्वयं संगठनों की लूट से परे होगा। जिस तीसरे रास्ते का खुलासा रामनाथ शिवेन्द्र उपन्यास के अंतिम ख्ंाड ‘तीसरा रास्ता’ में करते हैं वह चौंकाता है। प्रारंभ में एक क्रान्तिकारी कामरेड रहे दीपेश भट्टाचार्य (डी.बी.) का रमेशरा बनकर नन्दिनी के जमीनदार पिता की हत्या करवाना, हत्या की राजनीति का पैरोकार होना, बाद में एन.जी.ओ. चलाना और अपने भ्रश्ष्ट व्यभिचारी चरित्रा को छिपाने के लिए अंततः आध्यात्मिक गुरु बन जाना ही क्या अब ‘तीसरा विकल्प’ या ‘तीसरा रास्ता’ बचा है? क्या वास्तव में आज के इस विकट दौर में जनपक्षधर मूल्यों के प्रति लोगों का रुझान कम हो रहा है? क्या संघर्ष और प्रतिरोधी चेतना पर ‘धन’ और ‘आध्यात्म’ ने आधिपत्य कायम कर लिया है? क्या अमेरिकी धनकुबेरों का प्रतिरोधी ताकतों को मनोवैज्ञानिक रूप से अपहृत करने का षडयंत्रा फलीभूत हो चुका है? ऐसे कई प्रश्नों से यह उपन्यास विचलित करता है। आध्यात्म वास्तव में इस उपन्यास की ‘जय’ है या ‘पराजय’ तनिक गंभीरता से विचार करना पड़ेगा।
डी.बी. का सब तरफ से हार कर अपने पुराने आध्यात्मिक गुरु की शरण में चले जाना और अंत में अपने गुरु की जगह लेकर भगवा धारण कर लेना आज के समय की बड़ी सच्चाई है। आध्यात्मिक गुरुओं का प्रभामंडल लगातार फैल रहा है। कई गुरुओं और बापुओं के यौन-दुराचारों का पर्दाफास होने के बाद भी ये अपना प्रभामंडल विस्तृत करने मे कामयाब हो रहे हैं। आज जिस तरह की घटनांए हमारे वैचारिक समाज में घट रही हैं उन्हें देखते हुए यही कहा जा सकता है कि रामनाथ शिवेन्द्र आगत के भयावह हालात की पूर्व सूचना दे रहे हैं। प्रगतिशील और जनपक्षधरता के अगुआओं का इन दिनों जातियों, संघियों और सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों के चंगुल में फसना या स्वेच्छा से उनके आतिथ्य और धन को स्वीकार करना कहीं वही ‘तीसरा रास्ता’ तो नहीं जिसकी ओर रामनाथ शिवेन्द्र ने संकेत किया है? बहरहाल आज के वैज्ञानिक युग में आध्यात्म की दुन्दुभी जिस ऊंचे सवर में कान फोड़ रही है उसे देखते हुए ‘तीसरे रास्ते’ का घातक संकेत हमें सावधान करता है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अतिवाद के इस कठिन समय में बड़े बड़े अपराधियों का अंतिम ठौर आध्यात्म (?)ही हो सकता है, जहां न तर्क चलता है न कानून। यहां तमाम धार्मिक व कठमुल्ला ताकतें उनके जयकारें और संरक्षण के लिए तत्पर हैं। इस तथ्य की सच्चाई को हम पिछले सालों देख चुके हैं।
इस उपन्यास के माध्यम से रामनाथ शिवेन्द्र ने घटित हो रही सच्चाइयों पर और बढ़ती संवेदनशीलता पर बहुत कुछ कहने की कोशिश की है। विचारों का भारी दबाव व ऊभ-चूभ तथा अधिक कथा विस्तार शिथिलता लाता है ऐसी तमाम सीमाओं के बावजूद यह कहने में संकोच नहीं है कि यह उपन्यास व्यापक सामाजिक सरोकारों को बड़े पैमाने पर बहस के बीच लाता है, यही इस उपन्यास की सफलता है।
उपन्यास के कुछ अंश जो विचारण के लिए अनिवार्य जैसे हैं उन्हें यहां प्रस्तुत करना गलत न होगा।कृ
‘हम साकारी विधानों, कानूनों, परंपराओं के तार्किक व प्रतिबद्ध अहिंसक अवज्ञाकारी हैं, इस अवज्ञा के दौरान हमें हक़ है कि हम अपनी हिफाजत करें तथा जनता की भी जिसे जागरूक बनाने के लिए हम संकल्पित और लक्ष्यित हैं’ पृ...33
‘अमेरिकियों का नारा था जिसका पेट भरेगा वह क्रान्ति नहीं करेगा सो रुपया बांटो, खाना दो, पढ़़ाओ, दवाई दो यानि उन्हें बचाओ जो खुद मर रहे हैं या प्रायोजित मृत्यु के लिए क्रान्तिकारी बन रहे हैं’ पृ...35
‘डी.बी. को स्वयंसेवी संस्थावाद की इस परिभाषा से पहले कुछ दिक्कत हुई, क्यांकि तब तक वह मानसिक रूप से दिवालिया नहीं हुआ था, उसे कदम कदम पर मार्क्स याद आते जैसे रति प्रसंग के दौरान फ्रायड’ पृ...39
‘तुम्हारा नाम प्रवीण है, तूं एन.जी.ओ. चलाता है, तूं गॉव का विकास करेगा खैरात बांट कर। तूं जमीन क्यों नहीं बटवाता? ’पृ...64
‘वैसे भी वे इतिहास की अश्लील आदतों से परिचित न थे कि वह परिवर्तित होने वाली परिघटना है तथा समय समय पर कई तरह का रंग रूप धारण करना उसका स्वभाव है।पृ....106
‘सरकार के पास इतनी बड़ी जेल नही जो सभी को जेल में रख सके’ पृ..116
‘बड़े उद्योगों का विशाल सांचा नहीं बचेगाकृयदि लाभ, अतिरिक्त लाभ वाली व्यवस्था को सहभागितापूर्ण अर्थतंत्रा व प्रबंधन से तोड़ दिया जाए, इससे नौकरषाही का सांचा भी तोड़ा जाना संभव हो सकता है।’
‘प्रतिरोध कार्यक्रम खुला-खुला था यानि कि नई दुनिया संभव है पर दान, प्रतिदान, बैंक कर्जों के आवंटन, दया व कृत्रिम आर्थिक सहयोग के द्वारा नहीं। संभव बनाया जा सकता है बराबरी का दर्जा देकर, क्रय शक्ति बढ़ा कर, अवसरों में समानता का वातावरण बना कर, सामाजिक मर्यादा बहाल कर? उत्पादनों को जनोन्मुखी बना कर’ पृ...193
‘आखिर हम आदिवासी ही क्यों उजाड़े जाते हैं, जमीन में कोयला, हीरा, सोना, चॉदी चाहे जो मिल जाये उजड़ो, हमेशा उजड़ते रहो, हमारा कुछ भी नहीं, ऐसा नहीं चलेगा। हम कोई लाश नहीं, हमारा भी हक़ है इस माटी पर, इस जंगल पर, अब हम इसे कटने नहीं देंगे, जंगल का फल-फूल, बालू, मिट्टी सारा हमारा, हमें नहीं चाहिए दिल्ली’ पृ...224
‘यहां आकर इतिहास मरे न मरे पर विज्ञान, राजनीति, दर्शन और धर्म सारे के सारे यहां आकर मर चुके हैं इसलिए इस परिक्षेत्रा में बारहवीं शताब्दी आज भी जीवित है। इनके चेहरे आज पूंजीवादी बर्बरता के परिणाम हैं’ पृ...227
हंस कथा मासिकक-फरवरीक-2010 पृ...84-85
समीक्ष्य कृति-तीसरा रास्ता’
पिलग्रिम्स प्रकाशन
बी.27/98-ए-8, दुर्गाकुण्ड, वाराणसी, 221010
मूल्य-225.00 फोन(91-542)2314060
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'''विस्थापित होते समय का दस्तावेज
‘ढूह वाली लछमिनिया’'''
अमरनाथ अजेय
[[File:Dohawali Laxmaniya Final jpg.jpg|thumb|विस्थापन के सवाल पर केंद्रित उपन्यास आदिवासी महिला लक्ष्मीनिया की गाथा]]
यह दौर कठिन समय का है। इस समय में चुनौतियां चारो तरफ से हैं, कुछ खतरे बाहर से हैं तो कुछ भीतर से। जहां तक खतरों की बात है खासतौर से ये सोनभद्र जैसे आदिवासी बहुल जनपद में अन्य जनपदों की तुलना में कुछ ज्यादा ही हैं। लेकिन जो खतरे अपने लोगों से हैं वे कहीं अधिक त्रासद हैं, चिंतनीय है। आज के बाज़ारवादी समय का दबाव जंगल व जंगल भूमि पर ज्यादा है, और ये दबाव बनाने वाले कोई और लोग नहीं हैं, बल्कि अपने हुक्मरान हैं, अपने अफसर हैं, अपने कानून हैं। जो जंगली मानुष अपनी जमीन और जंगल से विस्थापित हो रहा है उसके लिए खतरा केवल जमीन का ही नहीं है बल्कि संस्कृति और सम्मान का भी है, अस्तित्व बचाने का भी है। ऐसे दुरूह समय का दस्तावेज है रामनाथ शिवेन्द्र का उपन्यास ‘ढूह वाली लछमिनिया’। लछमिनिया समामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक खतरों से घिरे हुए एक आदिवासी परिवार की युवा लड़की है। लछमिनिया की चिंता में केवल अपनी देह ही नहीं है उसकी चिंताओं में भीखू काका की जमीन है, तो वह पीड़ित लडकी भी है जो जिला स्तर के एक अफसर द्वारा यौन शोषण की शिकार हुई है, तथा उसका गॉव भी है जिसे किसी न किसी दिन विस्थापित किया जाना है। गॉव को विस्थापित किए जाने की नोटिस सरकार ने कथितरूप से तामिल करा दिया है। इन चिंताओं व चुनौतियों के अलावा उसकी चिंताओं में गॉव की फसल है, गीत, संगीत तथा परंपराएं है ‘करमा’ नृत्य, संगीत मण्डली की सहभागिता को टूटने से बचाना भी है। इन चिंताओं की खातिर वह माथा पीट कर टूट जाने वाली किसी लड़की की तरह नहीं है बल्कि किसी बहादुर की तरह वह हर स्तर पर चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार भी है। चुनौतियों से टकराने की उसकी मानसिक तैयारी कुदरती है, इस तैयारी के लिए उसने कहीं से शिक्षण प्रशिक्षण नहीं लिया है। वह अब तक तमाम चरित्रों से अलग है जो स्वस्फूर्त चेतना का उत्पाद है। उसे पता है कि चुनौतियों से टकराने के लिए उसे क्या करना चाहिए। बाहर तथा भीतर से आए संक्रमणों से जिस तरह वह लड़ती है वह स्वतः उल्लेखनीय बन जाता है। संक्रमण की स्थितियां, परिस्थितियां कुदरती नहीं, बदलते समय के जड़ लोगों की कुटिल चालों, विभेदी कानूनी फन्दों, लुभावने वादों के जरिए आती हैं। समय तो बदला है लेकिन उसके साथ खतरे भी बदल गये हैं। खतरों नेे भी अपना रूप जिले के पीड़ित लड़की का यौन शोषणकरने वाले अधिकारी (उपन्यास का एक पात्रा) की तरह बदल लिया है। यह वही अधिकारी है जो एक दिन लछमिनिया को दबोच लेता है, उसे क्या पता कि लछमिनिया जो एक आदिवासी युवती है वह समय से टकराने के कौशल में माहिर है, वह अपना बचाव विषम स्थितियों में भी कर सकती है। ऐसा ही हुआकृअपने बचाव में लछमिनिया हंसुआ वाली लड़की बन जाती है। खतरों के बारे में किसे पता कि वे अफसर की कुटिल चालों के रूप में आयेंगे, या किस प्रकार आयेंगे? खतरा आ गया अफसर के रूप मेंकृअफसर को तो करमा मंडली का चुनाव करना था। सो उक्त अधिकारी लछमिनिया के गॉव गया हुआ था, करमा नाचने व गानेवाले तो आदिवासियों के गॉव में ही मिलते। गॉव में करमा नृत्य का प्रदर्शनहुआ, नृत्य के प्रदर्शन ने अफसर की निगाह में लछमिनिया के रूप को कामुक बना दिया फिर क्या था, अफसर तो अफसर कृत्रिम बहानों के जरिए वह टूट पड़ा लछमिनिया पर और लछमिनिया ने बचाव में हंसुआ उठा लिया। इसके पहले कि लछमिनिया अफसर पर हंसुआ चला देती, अफसर अपने वर्गीय चरित्रा के अनुरूप गिड़गिड़ाने लगा। लछमिनिया ने कुदरती उदारता के कारण अफसर को जीवित छोड़ दिया, उस पर हंसुआ नहीं चलाया। अफसर के गिड़गिड़ाने व माफी मांगने को उसने कुदरती समझा, ‘गलतियां हो जाती हैं किसी की जान लेना ठीक नहीं।’
खतरों का क्या, दिन हो रात हो, जगह कोई हो, दहाड़ते हुए आ जाते हैं। वह भी ऐसे समय मंे जब दुनिया पूंजी के नाच में मगन हो, जहां कदम कदम पर आशंकायें व खतरे ही हों। खतरे तो ऐसे हैं जो गॉव के बड़े जोतदार तथा थाने के दुलरुआ शंकर गवहां की तरफ से भी लछमिनिया के सामने आये। वह उन खतरों से तो लड़ ही रही थी कि एक दिन पूंजीवादी चरित्रा का एक और खतरा उसके बपई की तरफ से आ गया जिसमें वह बुरी तरह से उलझ गई।
अब क्या होगा? कैसे लड़ेगी वह बपई से? बपई ने तो एक ठीकेदार से उसे बेचने का राजीनामा कर लिया है। जैसे वह कोई सामान हो, धान, चावल, गेहूं, गाय गोरू की तरह। वह बिक जायेगी पर उसके बपई को नहीं मालूम कि लछमिनिया बिकने वाली सामान या कोई कमोडिटी नहीं है, जिसे बेच दिया जाये। वह उस खतरे से भी लड़ती है और सफल होती है। ठीकेदार की कार दिन दहाड़े जला दी जाती है, लछमिनिया का बपई भी उस दिन गॉव में होता तो मारा जाता, गॉव की स्वस्फूर्त उत्तेजना में उसकी जान चली जाती, ठीकेदार जान बचाकर भागा नहीं तो जाने क्या होता, ठीकेदार की अकूत संपदा उसे जीवन दान तो नहीं दे सकती थी। सो अगर वह गॉव से भागा न होता तो मारा जाता। लछमिनिया को क्या पता कि उसका बपई भी उसके लिए खतरा बन जायेगा और उसका सौदा ठीकेदार से कर लेगा। लछमिनिया का बपई हालांकि था तो आदिवासी ही जो सामान्यतया बाजारू नहीं हुआ करते पर वह ठीकेदार के प्रलोभन में बाजारू बन गया और अपनी बिटिया का ही बेचने के लिए राजीनामा कर लिया। उसे ठीकेदार ने सपना दिखाया था कि उसे वह अपने क्रशर का पार्टनर बना देगा जहां वह मजूरी करता था। पार्टनर बन जाने की लालच ने लछमिनिया के बपई को बाजरू बना दिया और उसने अपनी बिटिया को बेच देने का राजीनामा ठेकेदार से कर लिया। तो खतरे ऐसे होते हैं, खतरे मॉ, बाप, भाई, बहन, बहनोई, मामा किसी के भी जरिए आ सकते हैं। बपई की तरफ का खतरा लछमिनिया के लिए पूंजी के खेल वाला था, कौन है जो धन दौलत वाला नहीं बनना चाहता। पर लछमिनिया तो स्थितिप्रज्ञ होकर बपई की कुटिल योजना से टकराती है। ठीकेदार भाग जाता है, उसकी कार जला दी जाती है। लछमिनिया के गॉव के लिए ही नहीं थाने के लिए भी यह घटना करवट बदल लेती है। थानेदार व ठीकेदार आदि तो वैसे भी पूंजीतंत्रा के रिश्तों में बंधे होते हैं। स्थानीय थाने का दारोगा जो पदेन अर्थपिपाशु था उसे ठीकेदार की पूंजी ने मोह लिया फिर तो दारोगा ने ठीकेदार की कार जलाने और गॉव में झगड़ा फसाद करने के जुर्म में गॉव के कुछ अन्य युवाओं के साथ लछमिमिया के पति को गिरफ्तार कर लिया। लछमिनिया जानती थी कि दारोगा कि यही सीमा है, उसके पति को गिरफ्तार करने के अलावा वह कर भी क्या सकता है पर दारोगा को नहीं पता कि लछमिनिया का गॉव का जन मन क्या कर सकता है?
लछमिनिया व उसके पति को को पूरा गॉव भली भांति जानता है। गॉव के लड़के उन दोनों के लिए मर मिटने के लिए तैयार रहते हैं। लड़कों को बुरा लगा कि लछमिनिया के बपई ने लछमिनिया को बेचने का ठीकेदार से राजीनामा कर लिया है सो गॉव के नौजवान लड़कों ने गुस्से में आकर स्वस्फूर्त ढंग से ठीकेदार की कार जला दिया और उसी दिन थाना भी घेर लिया। उन्हें नहीं पता था कि थाना घेरना अन्याय के खिलाफ विरोध प्रदर्शन है या और कुछ। दारोगा थाना घिरा देख कर सहम गया उसके पास घेराव का दमन करने के तरीके नहीं थे, वह मजबूर था, उसी दिन अदालत ने लछमिनिया के पति की गिरफ्तारी के बारे में थाने से रिपोर्ट भी मॉग लिया था। लक्षमिनिया के पति की मॉ से जंगल विभाग के रेंजर की करीबी पहचान थी। रेंजर कानूनी दॉव पेंचों के अनुसार लछमिनिया के पति को गिरफ्तार होते ही अदालत चला गया था। अदालत ने थाने से रिपोर्ट मॉग लिया था। गॉव से गवाह भी नहीं मिलते। सो थानेदार ने लछमिनिया के पति को थाने से ही छोड़ दिया, कौन बवाल में पड़े, अदालत किसी को नहीं छोड़ती। तो यही कहानी है ‘ढूह वाली लछमिनिया’ उपन्यास की। इस कहानी में लछमिनियिा की जिन्दगी से जुड़ी चुनौतियां है तो गॉव जवार से जुड़ी चुनौतियां भी हैं। लछमिनिया जंगली गॉव की रहने वाली है जंगल के गॉव यानि कई बार के विस्थापन के शिकार गॉव। लछमिनिया का गॉव भी कई बार के विस्थापन के बाद बसा है पर उसे हाल ही में उजाड़ा जाना है, नोटिसें दी जा चुकी हैं। उपन्यास इसी आखिरी बार के विस्थापन के लिए दी जा चुकी नोटिस एवं विस्थापन कार्यवाहियों के व्यापक विरोध के स्तर पर समाप्त हो जाता है।
होता यह है कि जिस कंपनी को लछमिनिया के गॉव की जमीन सरकार द्वारा आवंटित किया गया है उक्त कंपनी आवंटित जमीन पर कब्जा लेना चाहती है दूसरी तरफ गॉव वाले हैं कि वे किसी भी हाल में उजड़ना नहीं चाहते सो वे प्रतिकार में उठ खड़े होते हैं। जैसा कि मालूम है कि सरकार और प्रष्शासन तो एक रेखीय दमनात्मक सत्ता प्रबंधन पर पुलिस बल के सहयोग से चलने का अभ्यासी हुआ करती है सो वहां पुलिस बल दमन पर उतर जाता हैकृफिर वही हजारों साल की पुलिस परंपरा, मारपीट, यातना, दमन और गिरफ्तारियां। गॉव के नौजवानों के साथ गॉव की कुदरती नेत्राी लक्षमिनिया को गिरफ्तार कर लिया जाता है, वह पाथरटोला वालों के साथ जेल चली जाती हैकृफिर भी वह निश्चिंत है.
‘का फरक है जेहल अउर ईहां में? ईहां से तो जेलवय ठीक है, न मार का डर, न चोरी चमारी का डर, खाओ अउर सूतो।’
लछमिनिया पाथर टोला गॉव के सर्वतोमुखी विकास के लिए एक नायिका की भूमिका निभाती है जो भीखू काका की जमीन में बोई धान की फसल को दबंग शंकर गवहां व उनके पुत्रों को ले जाने से रोकवा देती है। गॉव में होने वाली अर्थहीन रैलियों का प्रतिरोध करती है और प्रतिशोध में फसाये गये अपने प्रेमी/पति को थाने का घेराव करके छुड़वा लेती है। इतना ही नहीं वह खुद को भी अपने बाप के साजिशों से बचा ले जाती है। इतना ही नहीं वह अपने गॉव के विस्थापन के प्रतिरोध में गॉव वालों के साथ जेल जाती है।
उपन्यास में आये शब्द चित्रों को देखें...
‘चरित्तर लड़कियों को जानता है, यदि मजबूरी न हो तो वे किसी को भी सभ्य बनाकर ऐसा संस्कारित कर दें कि वे जीवन भर नाम न लें कि लड़कियां ऐसी होती हैं जिनकी देह पर बाजार का अर्थ लिखा जा सकता है।’
‘आखिर बाजार ने किसे नहीं छला है? अपसंस्कृति भी तो बाजार का ही एक खेल है। आज के जटिल समय में जंगल का आदिवासी विकास की धारा से कोसों दूर है। उनमें जनतांत्रिक प्रतिरोध की क्षमता का भी विकास नहीं हो पाया है। सोनभद्र जिले के आदिवासियों के विस्थापन पर केन्द्रित प्रस्तुत उपन्यास ‘ढूहवाली लछमिनिया’ गिरिवासियों के दुख दर्द का कालजयी दस्तावेज हैै। अपनी भाषा में उपन्यास के पात्रा अपनी स्थितियों, परिस्थितियों का एहसास कराते हैं जिससे संवाद जीवंत हो जाता है। उपन्यास की भाषिक जीवंतता उल्लेखनीय है। अपेक्षा है कि प्रस्तुत उपन्यास पाठकांे का घ्यान आकर्षित करने में सफल होगा।आइए उपन्यास में आये कुछ संवादों, प्रतिसंवादों को देखें....
‘पर शंकर यादव अपने घर लौटने के बाद अपने में डूब गया। ज़माना बदल गया है, जंगल जाग रहा है पहले वाला नहीं कि सोया हुआ था। सरकारें भी अब पहले वाली नहीं हैं, गरीब गुरबों की सरकार प्रदेश में काबिज है, गरीबों की सुरक्षा के बाबत कानून बन गये हैं। थाना हो या कचहरी अब कहीं भी गॉधी टोपी वाले नहीं दिखते, ठाकुर, बाभन जैसे ज़मीनदार अपनी गुफाओं में बैठे हैं, करंे भी तो क्या?’ पृ...20
‘चुप रह छोटकू, तूं बड़बड़ करता रहता है, तूं का जानेगा कायदा, कानून, अब तो पुलिस पेड़ों अउर झाड़ियों पर भी मुकदमा कर देती है।’ पृ...21 ‘समझेगा का? यही कि चिड़िया जाल में, जाल खींचो अउर पकड़ लो।’ पृ..38
‘का खाली, का भरा, खाली ही ठीक है, पहिले मॉग भरो फिर पेट, आया था एक लंगूर’ पृ..47 ‘देख महटर, हम तोहरे पर इलजाम नाहीं लगा रहे, खाली हम अपने को बचाय रहे हैं,नाहीं बचायेंगे तोकृमन तो भर जायेगा जो खाली खाली है, पर मनवै तो नाहीं भरेगा नऽ, पेटवो तऽ भर जायेगा।’ पृ...51 ‘लछमिनिया ऐसी नदी नहीं जिसे बांधा जा सके या पुल ही बनाया जा सके।’ पृ...57 ‘गॉव में जबसे चिमनियां घुसी हैं, न जाने कितने किसिम के धुंआ भी घुसे हैं।’ पृ...61 ‘संघरस तो मरदों का काम है, एमें जनाना का करेंगी? पृ...81 ‘वैसे गॉवों में कागजों की पहुंच बहुत कम होती है, और कानून तो कागजों पर ही उछलता कूदता है।’ पृ...87‘टोले मंे जनतंत्रा की आग धधक रही थी।’ पृ..90 ‘उस दौर के अधिकारी भी खूब थे, कानून की सजी संवरी जीभ वाले, पुलिस के पास तो बारूदी जुबान थी ही।’ पृ...92 ‘बाल, बुतरू भी नौकरों से जनमवाते हैं का अइया?’ पृ..93
‘इस सभ्यता ने तो यही सिखाया है कि हर चीज बेचे जाने योग्य है।’ पृ...101 ‘अरे! मरदवा तऽ सभै हरामी होते हैं।’ पृ..127 ‘लछमिनिया तूं घूंघट काढ़कर घर में बैठी है, निकल बाहर, हल्ला कर, चिल्ला जोर जोर से, कोई तो सुनेगा, कोई तो चलेगा तेरे साथ’ पृ...136 ‘भगाई को राजीनामा बोलता है, एके कानून बचायेगा, जा कानून के संगे खा, पी, अउर हग, मूत, रहेगा कहां रे! पृ...139
समीक्ष्य कृति--‘ढूह वाली लछमिनिया’
रचनाकार- रामनाथ शिवेन्द्र
पाठ- जुलाईक--2017
ज्योतिपर्व मीडिया एण्ड पब्लिकेशन
99, ज्ञानखण्ड-3, इन्दिरा पुरम्
गजियाबाद-201012 मूल्य--299.00 व
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आदिवासी कानून
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'''आदिवासी कानून'''
रामनाथ शिवेंद्र
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जनजाति या आदिवासी दोनों न तो एक दूसरे के पूरक हैं और न ही पर्याय। आदिवासी का अर्थ मूल निवासी से ही लगाया जा सकता है, जबकि जनजाति में रहवास की मूल व्यवस्था का अर्थ किसी से छिपा नहीं है। जनजाति का अर्थ एक ऐसा वंशमूल या एक ऐसी प्रजाति जो सीधे तौर पर लोकसंस्कृति तथा लोककला व लोकविद्या से जुड़ी हुई हो, लगाया जा सकता है पर केवल ‘आदि’ या ‘मूल’ तथा रहवास से नहीं आदिवासीका सीधा अर्थ है ऐसा जनसमूह जो आदिकाल से ही निवासी हो कहीं बाहर से आकर बसाहट न किया हो। जाहिर है, ‘जन’ को ‘अभिजन’ से पूर्णतः अलग कोटि में मान लेने की परंपरा विकसित हो चुकी है। विडम्बना देखें जब से इतिहास में आर्य तथा द्रविण का संघर्ष उभरा है, तब से यह सिद्ध नहीं हो पा रहा है कि यहां के मूल निवासी कौन थे? ‘वनआर्य’ जातियां या ‘द्रविणआर्य’ जातियां, किसे मूल निवासी माना जाये, यह आज भी विवादास्पद बना हुआ है। लगभग इसी झगड़े के प्रारंभ से ही आदिवासियों को अंग्रेजों की शोषणकारी तर्ज पर एक अलग किस्म का नाम हासिल कराया गया है, वह है ‘वनवासी’, ‘गिरिवासी’ जिसका सीधा और स्पष्ट अर्थ है, ऐसी मानव प्रजातियां जो वनों तथा पहाड़ों पर निवास करती हों। अंग्रेजों ने साजिश के तौर पर आदिवासियों को जनजाति का नाम दिया था। जिसका अर्थ था एक ऐसा मानव समूह, जो हैं तो दूसरे मनुष्यों की तरह ही पर उनमें मुक्त जीवन जीने संबधी कुछ ऐसी भिन्नतांए व असमानतांए हैं जो सभ्य समाज के लिए अहितकर हैं। इस अंग्रेजी सोच ने जनजातीय समूहों को मानव समाज के दूसरे समूहों से अलग थलग कर दिया और उनसे उनके मूल निवासी होने के कुदरती अधिकारों को भी छीन लिया, इतना ही नहीं सके लिए कानूनी प्राविधानों को भी अपने तरीके से सृजित कर लिया। वनवासी या गिरिवासी नामकरण का भी यही अर्थ था। जनजातीय समूहों को तत्कालीन मानव सभ्यता से अलग करना। ऐसा करने से आदिवासी का मूल अर्थ ही समाप्त हो गया। आदिवासी का गंभीर अर्थ होता है यानि मूल निवासी, अंग्रेजों या मुगलों की तरह बाहरी नहीं, वे यहीं के हैं तथा इस देश पर उनका पूराअधिकार है, पर अंग्रेजों को तो मूल निवासी के अर्थ को पलट कर भ्रम पैदा करना था कि सभी जातियां आर्य हैं, और यहीं की हैं,देश में रहने वाली जातियों में जो भी फर्क दिखता है, वह नागर एवं अरण्यक सभ्यता के विभेदों के कारण दिखता है। लगभग सभी कालों में नागर तथा अरण्यक सभ्यता का भेद तो रहा ही है। यह निर्विविवादित सत्य है कि आदिम जनजाति समूह सदैव शोध व जिज्ञासा का विषय रहा है। इन्हें समझने वालों ने भी इन्हें समरूप न मान कर अलग अलग किस्म से समझने का प्रयास किया है। उसी के अनुसार व्याख्या भी की हैं। आदिवासियों के बारे में बौद्धिक मत-भिन्नताओं ने भी आदिवासियों को समझने में भ्रम फैलाने का ही काम किया है। आदिवासियों का समूह पूरी तरह से प्रकृति पर आधारित तथा प्रकृति की ही तरह हमेशा प्रसन्नचित्त रहने वाला, एक ऐसा समूह है जो सभ्यता की कुटिल कलाओं, वौद्धिक प्रपंचों तथा तार्किक विखंडनों के काल्पनिक स्वर्गों से पूरी तरह अलग है। आदिम समूह अपने जीवन निर्वाह तथा जीवन की शाश्वस्तता की ऊर्जा प्रकृति से हासिल कर पूरी तरह
से प्रकृति पर निर्भर रहने वाला समूह है। सही अर्थों में, यह समूह न जनजाति की श्रेणी में आता है और न ही वनवासी की श्रेणी में, सीधे तौर पर ऐसे समूह को वनजीवी या प्रकृतिजीवी ही कहा जाना चाहिए, यह अलग बात है कि वनों से इन्हें लगातार बेदखल किया जाता रहा है, शायद इन्हें वनों से बेदखल करने के लिए ही वनजीवी नहीं माना गया। वनजीवी कहने से तो यह अर्थ निकलता ही कि ये वनजीवी हैं, वनों को सुरक्षित रखने वाली जातियां यही हैं। इनसे वनों की निर्भरता छीन कर ही इन्हें आदिवासी ;tribal नाम दिया गया जिससे प्रमाणित न हो कि वन इनके थे तथा ये वन-जीवी व वन-उपासक समूह ही वनों के रक्षक थे। और आज भी ये समूह ही वनों की सुरक्षा कर सकते हैं। आदिवासी समूहों का अध्ययन करने वालों ने अदिवासियों की संस्कृति से अलग से अलग जिन ‘घोटुलों’, ‘रोरुओं’ तथा ‘घुमकुरियाओं’ की कल्पना की है वे सर्वथा गलत जान पड़ती हैं। उन्होंने घोटुलों में स्वच्छन्द यौनाचार तथा मनोरंजन के ही चिन्ह पाये जबकि ऐसा नहीं है। घोटुल जैसे युवागृह आदिवासियों के सांस्कृतिक केन्द्रों की अभिव्यक्ति देते हैं तथा साबित करते हैं कि नर-नारी के रिश्तों को ठीक ढंग से समझने के लिए घोटुल जैसे यौन-प्रशिक्षण गृहों का होना आवश्यक है। घोटुल युवा वर्ग के लिए एक आवश्यक सांस्कृतिक प्रशिक्षण केन्द की तरह है। यह बात जाने कब से आदिवासी
समूहों में सहज रूप से स्वीकृत तथा प्रचलित है। जबकि आज की सभ्य दुनिया काम शिक्षा sex education की अनिवार्यता पर अभी भी बहस कर रही है। नैतिकतावादियों के दबाव से काम शिक्षा का कार्यक्रम काफी हद तक प्रभावित हो रहा है। यह त्रासदपूर्ण विडम्बना है कि जिस आदिम प्रजाति में ‘घोटुल’ जैसे युवा गृह का सांस्कृतिक एवं सामाजिक रूप से प्रचलन हो वह समाज रोजी-रोटी के लिए परेशान हो, जिसके यहां दो जून का खाना भी न बनता हो, जिनकी जमीनें छीन ली गई हों, जिनका विस्थापन दर विस्थापन किया जा चुका हो, फिर भी वह समूह जीवित हो, आखिर वह जीवन जीने की आकांक्षा कहां से हासिल करता है? घोटुल जैसे युवागृह जिस सामूहिक अस्तित्व तथा सामूहिक कल्पनाशीलता की सूचना देते हैं उनकी तुलना में कथित सभ्यों के रात्रि क्लब वगैरह का कोई अर्थ नहीं। अशोक से लेकर मुगल काल तक, आदिवासी प्रजाति के प्रभावकारी स्वरूप का पता तो चलता है पर ऐसा नहीं मालूम होता है कि उन कालों में आदिवासियों की मूल व्यवस्था में, किसी भी तरह का कोई हस्तक्षेप न किया गया हो। स्वतंत्राता के पूर्व अंग्रेजों ने निश्चित रूप से इन भोली जनजाति प्रजातियों पर वैधानिक हमले किए तथा यह साबित करने कराने का कार्य किए कि ये प्रजातियां अन्य प्रजातियों के लिए काफी सीमा तक खतरनाक हैं। आदिवासी प्रजातियों को दूसरी अन्य प्रजातियों से अलग alliniate करने के उनके अपने लक्ष्य थे, जिससे उनकी एकता खण्डित रहे, कम से कम भारत में तो दो समूह रहें जो अलग अलग खानों में साफ तौर से विभक्त हों। ऐसा करने के लिए अग्रंेजों ने अलगाववाद के तमाम तर्कों को गढ़ा तथा जनजातीय समूहों को पूरी तरह से समाज की मुख्य-धारा से अलग कर दिया। आदिवासी समूहों को अलग करने का कारण देश में उभरने वाले अन्तर्विरोध भी रहे हैं। अंग्रेजी सत्ता-प्रबंधन चाहता था कि सामान्य व विशिष्ट रूप से चलने वाले सत्ताप्रबंधन के विरोध में आदिवासियों की कोई भूमिका न हो। अंग्रेजों ने इन आदिवासी समूहों का भलीभांति अध्ययन किया था तथा उन्हें इनकी वीरता तथा वलिदान का आभास था, खासतौर से 1857 के बाद तो अंग्रेज पूरी तरह सावधान हो चुके थे। इस काल में तमाम आदिवासी विद्रोह प्रकाश में आ चुके थे। 1855-56 में संथाल विद्रोह हो चुका था। कोल विद्रोह की पूरी लाक्षणिकता तथा व्यापकता से अंग्रेज वाकिफ थे, जो 1830 में हुआ था। 1897 के विद्रोह में मुण्डाओं ने ग्रामीणों के सुधार कार्यक्रमों में लगे ईसाई मिशनिरियों को भी नहीं छोड़ा। जमीनदार तो मारे ही गये, संथाल विद्रोह ने अंग्रेजों के कान खड़े कर दिए थे तथा अंग्रेजों को बता दिया था कि जमीन संथालों के लिए कोई विक्रय या विनिमय की वस्तु नहीं है जिसे जब चाहा जिसे दे दिया। 1855-56 का संथाल विद्रोह सशस्त्रक्रान्ति का पहला अध्याय था जो जमीनदारी व्यवस्था तथा अंग्रेजी व्यवस्था के खिलाफ आयोजित किया गया था। संथाल जनजाति समूह अपनी भूसंपदा की हिफाजत के लिए जिस तरह से मरने मिटने के लिए तत्पर हो गया था वह अंग्रेजों के लिए न केवल विस्मयकारी था वरन् एक पाठ भी था। सो अंग्रेजों ने आदिवासी समूहों को अन्य समूहों से अलग थलग रखना आवश्यक समझा। राष्ट्रीय आन्दोलनों से आदिवासी समूहों को किसी भी हाल में वंचित रखने का लक्ष्य, अंग्रेजों ने बना लिया। उनका मानना था ये जनजाति तथा वनवासी समूह अगर राष्ट्रीय आन्दोलनकारियों के साथ हो जाते हैं फिर तो पूरा देश ही स्वाधीनता आन्दोलन के पक्ष में खड़ा हो जायेगा। आनन फानन में अंग्रेजों ने आदिवासियों के क्षेत्रों को निषिद्ध क्षेत्रा घोषित कर दिया तथा उन क्षेत्रों में दूसरों के प्रवेश को रोक दिया। अंग्रेज अधिकारियों तथा ईसाई मिशनरी वालों को ही उन क्षेत्रों में जाने की छूट थी। आदिवासी क्षेत्रों को देश के दूसरे क्षेत्रों से अलग करने का यह अंग्रेजों का प्राथमिक प्रयास था, जिसे वे कानूनी भी बना रहे थे, पर वे पूरे देश के आदिवासी क्षेत्रों को अलग करने के बारे में पूरे तौर पर निर्णय नहीं ले पाये थे। फिलहाल यह आंशिक अलगाव था। इस क्रम को आगे बढ़ाते हुए अंग्रेजों ने प्रयोग के तौर पर राजमहल के पहड़िया, मलेरों व दुद्धी (सोनभद्र) के धांगरों, बैगाओं के आदिवासी बहुल क्षेत्रा को चुना। अंग्रेजों ने इन आदिवासी समूहों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास करना शुरू कर दिया पर वह सारा कुछ दिखावा था असल बात तो आदिवासियों को अन्य समाजों से अलग करना था। उनके क्रान्तिकारी संपर्कों को तोड़ना था। अंग्रेजांे ने पहड़िया तथा मलेरों को मुख्यधारा में लाने के लिए एक अलग न्यायालय की भी स्थापना की तथा आदिवासियों को जमीन का सनद भी दिया। अंग्रेजों ने पहड़िया तथा मलेरों को सनद बांटने के बाद एक और काम किया वह यह कि मलेरों तथा पहड़िया आदिवासी क्षेत्रा को घेर कर उनके गांवों के किनारों की जमीनों को सैनिकों तथा उनके आश्रितों के बीच आवंटित कर दिया, एक तरह से बाड़ लगा दिया। पूरे राजमहल आदिवासी क्षेत्रा को अंग्रेजों ने घेरे में ले लिया जिससे वे विद्रोह न कर सकें।अंग्रेजों ने अलग ढंग से जिस न्यायलय की व्यवस्था की थी उसमें आदिवासीनेताओं की भी भागीदारी सुनिश्चित किया। अंग्रेजों द्वारा स्थापित उक्त न्यायालय आदिवासी समूहों के मुकदमों का निर्णय भी करता था इसका परिणाम सकारात्मक निकला पर वह कुछ ही समय के लिए था। इस सफलता से उत्साहित हो कर अंग्रेजों ने फैसला लिया कि आदिवासी क्षेत्रों में बाहरियों के प्रवेश को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए, बाहरियों को राकने के लिए अंग्रेजों ने समूचे क्षेत्रा को आदिवासियों में आवंटित कर दिया। एक प्रकार से आदिवासियों के लिए यह स्थानीय सत्ता-प्रबंधन का एक रूप था। इतना ही नहीं अंग्रेजों ने उस क्षेत्रा को राजस्व से भी मुक्त कर दिया। इसका प्रभाव आदिवासियों पर अच्छा पड़ा, आदिवासियों ने अंग्रेजांे की वफादारी करना तथा उनके कानूनों को मानना शुरू कर दिया। इस पूरी व्यवस्था को अंग्रेजो ने 1796 के रेगुलेशन में ढाल दिया, इतना ही नहीं एक पहाड़ी परिषद की भी स्थापना किया, पर इस तरह का छलावा पूर्ण प्रबंधन बहुत प्रभावकारी नहीं रह सका, फलस्वरूप अंग्रेजों ने इस रेगुलेशन पर 1827 के रेगुलेशन के द्वारा रोक लगा दी। 1827 के रेगुलेशन के अंग्रेजी रोक के बाद सिंहभूमि में हो विद्रोह 1831 में तथा कोलविद्रोह 1830, खोड उत्थान 1846, तथा क्रान्तिकारी संथाल विद्रोह 1855 में प्रारंभ हो जाता है। इन सभी विद्रोहों का मूल कारण था,अपने स्वामित्व तथा अस्मिता की रक्षा करना तथा आत्मस्वतंत्राता की हिफाजत करना। अंग्रेजी व्यवस्था के जरिए नये जमीनदारों व सौदागरों का एक ऐसा वर्ग तैयार हो गया था जो जंगली जनजाति क्षेत्रों में जा कर लूटपाट ही नहीं नीलामी भी लेने लग गया था। जमीनदारी नीलाम लेने के बाद जबरिया लगान वसूलना भी शुरू कर दिया था। लगान वसूली का कोई न्यायिक आधार नहीं था, वे में तथा कोलविद्रोह 1830, खोड उत्थान 1846, तथा क्रान्तिकारी संथाल विद्रोह 1855 में प्रारंभ हो जाता है। इन सभी विद्रोहों का मूल कारण था,अपने स्वामित्व तथा अस्मिता की रक्षा करना तथा आत्मस्वतंत्राता की हिफाजत करना। अंग्रेजी व्यवस्था के जरिए नये जमीनदारों व सौदागरों का एक ऐसा वर्ग तैयार हो गया था जो जंगली जनजाति क्षेत्रों में जा कर लूटपाट ही नहीं नीलामी भी लेने लग गया था। जमीनदारी नीलाम लेने के बाद जबरिया लगान वसूलना भी शुरू कर दिया था। लगान वसूली का कोई न्यायिक आधार नहीं था, वे जितना धन वसूलना चाहते थे, वसूलने लगे थे। वे इस बात की चिन्ता भी नहीं करते थे कि जमीन में फसलें कितनी उत्पादित हुई हैं। लगान वसूल करने के लिए जमीनदार क्रूरतम तरीकों का प्रयोग करता था जो सभी जनजाति समूहों के लिए उनकी निश्छल स्वतंत्राता के विपरीत होता था। फलस्वरूप दो दशक के भीतर ही हर क्षेत्रा में जनजाति समूहों ने सशत्रा विद्रोह कर दिया।
अंग्रेजों ने जनजाति के विद्रोहों को गंभीरता से लिया तथा निश्चित किया कि इनके क्षेत्रों को पहले की तरह नहीं वरन पूरी तरह से अलग कर दिया जाना चाहिए। मनोवैज्ञानिकों तथा अनुसूचित जनजाति के अंग्रेजी कमीशन ने भी इसकी संस्तुति कर दी। फिर तो अंग्रेजों ने जनजाति समूहों के क्षेत्रों को अन्य समूहों से पूरी तरह से अलग करने के लिए 1874 में एक अधिनियम पारित कर दिया। इस अधिनियम के आधार पर जनजाति क्षेत्रों को अनुसूचित जिलों के रूप में विभाजित कर दिया गया। बाद में चल कर 1919 में एक दूसरा अधिनियम भी लाया गया। इस अधिनियम के तहत अधिकारियों की नियुक्तियां की गई तथा उन्हें राजस्व वसूली के साथ साथ दीवानी एवं फौजदारी के मुकदमों का निपटारे काम भी दिया गया तथा अनुसूचित जिलों के प्रशासन की जिम्मेदारी भी उन पर डाल दी गई। 1857 के स्वतंत्राता संग्राम ने अंग्रेजों को सचेत कर दिया फलस्वरूप वे हर हाल में जनजाति क्षेत्रों को अलग करने का निर्णय ले लिए। साइमन कमीशन ने भी सुझाव दिया कि अनुसूचित जिलों की जिम्मेदारी केन्द्र पर होनी चाहिए तथा इन्हें प्रान्तों से अलग कर देना चाहिए। 1947 तक अंग्रेजों ने जनजाति क्षेत्रों के लिए कई नियम व उपनियम पारित किए, तथा क्रूरतम व सख्त रास्ते अख्तियार किए जिससे जनजाति समूह दूसरे क्षेत्रों से अलग-थलग हो जायें। 1935 के अधिनियम के द्वारा जनजाति क्षेत्रों को पूर्ण व आंशिक रूप से अलग क्षेत्रों में परिवर्तित कर दिया गया।
जनजाति क्षेत्रों पर प्रशासन स्थापित करने की अंग्रेजी इच्छाशक्ति को उनके विभाजन व राज करो की नीति से ही समझा जाना चाहिए। हालांकि अंग्रेज हमेशा जनकल्याण की ही बातें करते थे तथा संदेश देना चाहते थे कि वे जनजाति समूहों का भला करना चाहते हैं पर ऐसा नहीं था। उनके सामने अपनी सत्ता को स्थायित्व प्रदान करने का एक साम्राज्यवादी कार्यभार था। इसलिए वे भारत को सांस्कृतिक व सामाजिक रूप से बंटा हुआ रखना चाहते थे। अपने राजनीतिक व आर्थिक विस्तार के लिए भी वे काफी चिन्तित रहते थे तथा उनका प्रयास होता था कि किसी भी हाल में भारतीयों में एकता न स्थापित हो। भारतीय समाज हर हाल में विभाजित रहे।
मीरजापुर व सोनभद्र में 1795 का भूमि स्थायी बन्दोबस्त पूरी तरह लागू नहीं किया गया तथा सिंगरौली व दुद्धी की भूमि कोे बिना बन्दोबस्ती के ही छोड़ दिया गया। इस क्षेत्रा में जनजातियों का बाहुल्य था, बाद में चल कर दुद्धी को अंग्रेजी जैक (ब्रिटिश राज) के अधीन कर लिया गया तथा इसे एक अलग क्षेत्रा मान कर तमाम कानूनी सुविधाओं से वंचित कर दिया गया वैसे भी संपूर्ण मीरजापुर जनपद 1830 के पहले बनारस के ही अधीन था गजेटियर 1911पृ.165 बताता है- special arrangement wera made for Rajas of Kantit, Agori and Barahar आदिवासी क्षेत्रों को अलग करने के लक्ष्य से अगोरी, बड़हर, कन्तित तथा सिंगरौली के लिए नये प्रकार के कानूनी प्रबंध किए गये। पूरे क्षेत्रा की भूमि संपदा को बिना बन्दोबस्ती के छोड़ दिया गया। अंग्रेजों ने दुद्धी, बड़हर तथा सिंगरौली रियासतों को आदिवासी बहुल क्षेत्रा मान कर बन्दोबस्ती से अलग रखा। उसका कारण था कि क्षेत्रा में भूमि बन्दोबस्ती को ले कर अन्तर्विरोध न उभरने पायंे।
आदिवासी क्षेत्रों के अलगाव की कहानी को इस प्रकार समझा जा सकता है कि बनारस राज का स्थायी बन्दोबस्त 1795 में कर दिया जाता है तथा 1830 में मीरजापुर को अलग जनपद का दर्जा मिलता है, 1989 तक सोनभद्र मीरजापुर का ही एक हिस्सा था फिर भी अंग्रेजी व्यवस्था 1849 तक दुद्धी सिंगरौली तथा बड़हर के लिए कोई नई व्यवस्था नहीं कर पाती। किसी तरह उन क्षेत्रों की भूमि बन्दोबस्ती 1876-77 तक हो पाती है। इस बन्दोबस्ती का परिणाम दुद्धी, सिंगरौली तथा बड़हर के लिए बहुत ही विनाश-कारी साबित हुआ क्योंकि वन क्षेत्रा को बन्दोबस्त के लिए बहुत सीमित कर दिया गया और सारे वन क्षेत्रा को अंग्रेजी हुकूमत में मिला लिया गया। वनक्षेत्रों के अधिग्रहणका मतलब था उसके भीतर पड़ने वाले जोतों को नियंत्रित करना तथा लगान का निर्धारण करके नये सिरे से लगान वसूलना। एक प्रकार से सुरक्षित वन क्षेत्रा स्थापित कर दिया गया जो आज के सुरक्षित वन क्षेत्रा की जमीनदारी की तरह से ही था।
आइए देखते हैं अंग्रेजों ने वन क्षेत्रों को क्यों तथा कैसे सुरक्षित किया? यह जान लेना आवश्यक होगा कि इससे आदिवासियों को जंगली क्षेत्रों सेबुरी तरह विस्थापित होना पड़ा। लार्ड डलहौजी जो मध्यभारत का गवर्नर था उसने 1855 के एक वननीति के जरिए वनजीवी तथा आदिवासी समुदाय के लिए खतरनाक संकट पैदा कर दिया। इस वन नीति के तहत उसने वनक्षेत्रों का सीमांकन करा दिया तथा वनक्षेत्रों में पायी जाने वाली ईमारती लकड़ियों को राज्य सरकार की संपत्ति घोषित कर दिया। इस प्रकार से भारतीय नागरिकों के वन क्षेत्रों के दावों पर नियंत्राण लगा दिया। इतना ही नहीं 1855 की डलहौजी की वन-नीति के तहत एक सर्वथा नया विभाग वन विभाग भी कायम करके उसका विनाशकारी ढांचा भी खड़ा कर दिया गया। इस विभाग का सबसे बड़ा अधिकारी वन महानिरीक्षक बनाया गया। इस वन महानिरीक्षक का मुख्य कार्य वन साधनों की सुरक्षा के साथ साथ वन क्षेत्रों का अंग्रेजों के हित में व्यापक स्तर पर दोहन करना था।
अंग्रेजों को अपनी आमदनी बढ़ानी थी, इसीलिए अंग्रेजों ने स्थानीय राजाओं के वन पर पहले से स्थापित सारे हक हकूकों को निरस्त करवा दिया। इस प्रकार से वन को कानून के मकड़जाल में फसा कर अंग्रेजों ने आदिवासियों को ही नही राजाओं को भी वन क्षेत्रों से बेदखल कर दिया और जनता के अधिकारों को छीन लिया। अंग्रेजों की यह वननीति वनविभाग की स्थापना के साथ साथ आदिवासियों तथा वनवासियों को राजाओं की अधीनता से अलग करने की लक्ष्यगत योजना थी, जिसमें अंग्रेजों को आशातीत सफलता भी मिली तथा वन संपदा का निजी क्षेत्रा की तरह अकूत लाभ ;नदअंसनंइसमद्ध भी मिला।
1855 की वन नीति के बाद 1865 में पहला वन कानून बनाया व लागू किया, जिसका आशय था वन जीवियों तथा आदिवासियों द्वारा जंगल की वस्तुओं को एकत्रा करने तथा प्रयोग करने के अधिकारों को एक दमनकारी कानून के अन्तर्गत लाना। अंग्रेजों ने इस वन कानून के द्वारा जंगल वासियों एवं वन जीवियों के सामान्य व पारंपरिक आचरण को सख्ती के साथ प्रतिबंधित कर दिया। 1878, 1894 की वननीतियां भी वन जीवियों व आदिवासियों को नियंत्रित करने तथा उनके पारंपरिक अधिकारों को छीनने के लिए ही लाई गई थीं। बाद में चल कर 1878-1894 की वन नीतियों को 1927 के अधिनियम के द्वारा और भी कठोर बना दिया गया। इस कानून के जरिए अंग्रेजों ने वन तथा उसके अन्दर निहित भूमि पर नियंत्राण को राज्य सरकार के अधीन करके वनभूमि तथा वनसंपदा पर पारंपरिक व कुदरती अधिकार भी प्रतिबंधित कर दिया तथा वन-कानून को तोड़ना जुर्म तथा अपराध के दायरे में ला दिया गया तथा दण्ड का विधान किया गया। वनविभाग के लिए सख्त व ताकतवर कार्यपालिका की स्थापना की गई जिसके तहत वन सेवा अधिकारी, रंेजर, फारिस्टर आदि पदों का सृजन किया गया। फारेस्ट आफिसर को दण्ड देने जैसे अधिकार दिए गये, वह किसी को भी वन से संबधित अपराध पर गिरफ्तार कर सकता था, उसके लिए केवल इतना साबित करना था कि अपराधी व्यक्ति द्वारा वन को क्षति पहुंचाई गई। इसी अधिनियम की धारा 70 के अनुसार 1871 वाला अतिचार कानून लागू रहने दिया गया कि अतिचारी पशुओं को पकड़ने तथा उन्हें जब्त करने का अधिकार वन विभाग के पास सुरक्षित रहेगा। जाहिर है ये सारे कानून वनवासियों तथा आदिवासियों को नियंत्रित करने के लिए ही अधिनियमित किए गये थे। अंगेजों को राजाओं से ही नहीं आदिवासियों के कब्जों से भी वन-क्षेत्रों को अलगियाना था तथा उसका दोहन करना था, जाहिर है ऐसे अत्याचारी कानून का विरोध होना था और हुआ भी। ऐसे विरोधों का दमित करने के लिए इसी कानून में धारा 70 को प्राविधानित किया गया कि वन अतिक्रमणकारियों को दण्डित या नियंत्रित करने के दौरान किए गये कार्यों के लिए वनविभाग के कर्मचारियों तथा अधिकारियों पर मुकदमे कायम नहीं किए जा सकते उनके कार्य को सद्भावना तथा वन-हित में माना जाना चाहिए। सोनभद्र के बारे में विशेष रूप सेे सोचना होगा कि इस जनपद को अनुसूचित जनजाति जनपद होने के बाद भी अनुसूचित जनजाति क्षेत्रा के रूप में कभी मान्यता क्यों नहीं मिली? आजादी के बाद से ले कर आज तक यह परिक्षेत्रा अनुसूचित जाति के विधायकों तथा सांसद का क्षेत्रा रहा है फिर भी इसे संविधान की अनुसूची पांच के अधीन नहीं रखा गया। यहां की कई जनजातियों को प्रारंभ में जनजाति भी नहीं माना गया था। इक्कीसवीं शदी के पहले दशक में यहां की कुछ जनजातियों को उ.प्र.सरकार नेजनजातियों में शामिल तो करवा दिया पर उन्हें जनजाति होने का लाभ नहीं मिला, उनके लिए पंचायत या किसी भी चुनाव के लिए सीटें आरक्षित नहीं की गईं। 2011 के पंचायत चुनाव में आदिवासियों के लिए एक भी चुनाव क्षेत्रा आरक्षित नहीं किया गया। लम्बे समय तक आदिवासियों के लिए आदिवासी बहुल दुद्धी क्षेत्रा को आरक्षित नहीं किया था पर अब जनवरी 2017 में सोनभद्र के दुद्धी तथा ओबरा विधायक क्षेत्रा को अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित कर दिया गया है, यह आदिवासियों के लम्बे व सतत प्रतिरोध की जीत है। सोनभद्र की जनजातियों को अनुसूचित जाति में न बदला गया होता तब इस जनपद पर भी अनुसूचित क्षेत्रा होने के विशेष नियम प्रभावी होते तथा केन्द्रसरकार द्वारा उन्हें विशेष लाभ मिले होते। ऐसा कृत्य संवैधानिक अवमानना का है कि संविधान के कथित अनुपालकों ने सोनभद्र को जनजाति क्षेत्रा क्यों नहीं घोषित किया? खरवार, बैगा, धांगर, कोल, चेरो, माझी, पनिका जैसी जनजातियां जब दूसरे प्रदेशों में जनजाति मानी जाती हैं फिर सोनभद्र में क्यों नही मानी गईं? इन्हें सोनभद्र में आजादी के बाद ही अनुसूचित जाति घोषित कर दिया गया, लम्बे समय बाद इन्हें जनजाति माना गया।संविधान का अनुच्छेद- जो आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए संविधापित किए गये हैं, आइए देखें....
15(4)- आदिवासियों के लिए आर्थिक व शैक्षणिक हितों को प्रोत्साहित करता है।
अनुच्छेद 16(4)- पदों व नौकरियों में आरक्षण तथा 19(5)- संपत्ति के मामलों में जनजातीय हितों की सुरक्षा की व्यवस्था करता है।
अनुच्छेद 23- मानव के बलात श्रम को प्रतिबंधित करता है,
अनुच्छेद 29- शैक्षिक व सांस्कृतिक अधिकार प्रदान करता है।
अनुच्छेद 49- अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जन जातियों एवं अन्य दुर्बल
वर्गों की शिक्षा तथा आर्थिक अभिवृद्धि की बात करता है।
अनुच्छेद 330, 332 व 334 लोकसभा तथा विधानसभाओं में सीटों के आरक्षण को प्राविधानित करता है तो अनुच्छेद 335-आरक्षण के दावों की पुष्टि करता है। जनजातीय क्षेत्रों के लिए विशेष आयोगों के गठन के लिए अनुच्छेद 339(1) का प्राविधान किया गया है, आर्थिक विकास पर विशेष घ्यान देने के लिए अनुच्छेद 275 तथा 339 में व्यवस्था की गई है। यहां यह जान लेना उचित ं होगा कि अनुसूचित जनजाति क्षेत्रों के गठन का प्राविधान हमारी संसद ने क्यों किया था? संसद ने प्राविधानित किया है-
क-बिना किसी विघ्न बाधा के जनजाति के लोगों को अपने मौजूदा अधिकारों का पूरा पूरा लाभ उठाने में सहायता करना,
ख-अनुसूचित जनजाति क्षेत्रों का विकास करना तथा उनके हितों का सरंक्षण करना। राष्ट्रपति जी की आज्ञा से आन्ध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराश्ट्र उड़ीसा, राजस्थान तथा हिमांचल प्रदेश के कुछ क्षेत्रों को अनुसूचित क्षेत्रा घोषित भी किया जा चुका है पर सोनभद्र को क्यों छोड़ दिया गया बात समझ में नहीं आती। दर असल आदिवासियों को आदिवासी होने का दर्जा न दिया जाना तथा संविधान के नियमों की अनदेखी करना या उसकी गलत व्याख्या करना यह आदिवासियों के साथ किया गया विधिक कदाचार है। सामाजिक रूप से आदिवासियों के साथ किये गये अत्याचारों से विधिक उपेक्षा कहीं अधिक विपथगामी है। उपरोक्त संवैधानिक व्यवस्थाओं के तहत हम देख सकते हैं तथा मूल्यांकन कर सकते हैं कि आदिवासी हितों के प्रति हमारी सरकारों ने घृणित स्तर तक कदाचार किया है जिसे इतिहास कभी क्षमा नहीं करेगा। हमारा सोनभद्र तो संवैधानिक कदाचारों का जीता जागता उदाहरण है।
reference----
[[File:Adivasi paksh aur samaya jpg.jpg|thumb|Adivasi paksh aur samaya jpg]]
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हिंदी कथा साहित्य/रामनाथ शिवेंद्र के उपन्यास
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रामनाथ शिवेंद्र के उपन्यास
'''सीमांत की संघर्ष गाथा ‘हरियल की लकड़ी’'''
[[File:Hariyal ki lakadi jpg.jpg|thumb|आदिवासी महिला बसमतिया की संघर्ष गाथा पर केंद्रित उपन्यास]]
अरविन्द चतुर्वेद
दुनिया के जिस ‘सबसे बड़े लोकतंत्र’ में हम रहते हैं, आज़ादी के अठ्ठावन साल बाद आज भी सीमांत पर कई ऐसी जिन्दगियां हैं जिन्हें आज़ादी की रोशनी मयस्सर नहीं, उलटे तंत्र के शिकंजे में वे छटपटा रही हैं। विकास की संजीवनी तो खैर उन्हें क्या मिले, विडंबना ही है कि विकास की मार ने उनका जीना दूभर कर रखा है। ये सीमांत के दूर-दराज के जंगली गॉव भी हो सकते हैं और शहरों की झुग्गी-झोपड़ियां या फुटपाथी जिन्दगी भी।
कथाकार रामनाथ शिवेन्द्र के हाल ही में आये उपन्यास ‘हरियल की लकड़ी’ में जिस तरह से सीमांत की जीवन गाथा उपस्थित हुई है वह भौगोलिक रूप से भी उŸारप्रदेश का दक्षिणी-पूर्वी सीमांत है। सोनभद्र जनपद के रूप में वही सीमांत है जो कोयला, सीमेन्ट, अल्युमिनियम की बदौलत औद्योगिक अंचल और बिजली कारखानों के चलते ऊर्जा राजधानी जैसे चमकदार जुमले से संबोधित किया जाता है तो दूसरी ओर इसी सीमांत पर विकास की मारी, विस्थापन से धकियाई हुई वह ग्रामीण जंगली बस्तियां हैं जो अपने अ-विकास में अचल हैं और प्रशासनिक अंधेरगर्दी, लूट,खसोट तथा बहुस्तरीय दैहिक-मानसिक शोषण की स्वेच्छाचारिता की शिकार हैं। छब्बीस उपशीर्षकों में विन्यस्त उपन्यास ‘हरियल की लकड़ी’ में इसी ग्रामीण आदिवासी ज़िन्दगी की संषर्ष गाथा को उसकी अनेक गूंज अनुगूंज के साथ प्रस्तुत किया गया है। कहना न होगा कि बहुत हद तक इसमें उपन्यासकार को सफलता मिली है।
वैश्वीकरण के जिस अभियान में विकास की दुदुभी बजाई जा रही है उसकी असलियत जाननी हो तो सीमांत के परिवेश का जायजा लेने से खोखलापन अपने आप उजागर हो जाता है। इस उपन्यास में आये गॉव का जीवन परिवेश देखिए...
‘सदी का गुज़रना इस गॉव से गायब था। यहां परंपरायें थीं, उनका दबाव था। दूसरी कोई चीज थी तो वह था जंगल, नदी नाले पहाड़। जंगल में महुआ, करवन, बेर, हर्रा, बहेरा जैसे कुछ जंगली फल-फूल थे। जिन्हें अपने उपयोग के लिए प्रयोग में लाना कानून प्रतिबंधित और दण्डित करता था। गॉव हजारों साल की परंपराओं में कुछ इस तरह ढंका था कि नई सदी का कहीं अता-पता न चलता था। एक तरफ धॉगरी बोलते हुए करम देवता खड़े थे तो दूसरी ओर मैदानी इलाके में राम, कृष्ण, शंकर जैसे देवता भी पुजहाई करवाने में कम न थे। हाल के सालों में कुछ नेताओं, परेताओं के नाम भी गॉव में घुस चुके हैं। (पृ.68)
उपन्यास की मुख्य कथा तो बस इतनी ही है कि चेरो जाति की आदिवासी युवती बसमतिया का पति जगदा पॉच साल पहले गॉव छोड़कर कहीं चला गया है। न वह लौटा, न उसने इस बीच अपनी कोई खबर दी। लेकिन बसमतिया है कि अपनी बूढ़ी विधवा सास के साथ रह कर मेहनत मजूरी करते हुए ज़िन्दगी बसर किये जा रही है। वह जवान है, आकर्षक है, मेहनती है, और चाहे तो अपने जाति समाज के मुताबिक किसी दूसरे युवक के साथ ‘सलट’ कर ज़िन्दगी की नई पारी भी शुरू कर सकती है। लंकिन वह जगदा के लौटने का इन्तजार करती है। जगदा वापस आ जाये इसके लिए ‘छठ’ का ब्रत रखती है, ‘करम’ देवता से मनौती करती है। वह जगदा और उसकी स्मृतियों को हारिल की लकड़ी की तरह थामेे हुई है, जकड़े हुई है।
सीमांत की ज़िन्दगी का अर्थिक संघर्ष कितना गहरा है उपन्यास में आया विवरण द्रष्टव्य है...
‘चेरवान के परिवारों की संख्या चालीस थी तथा धॉगर कुल पैंतालिस परिवार थे, अहीर जो लगभग भूमिहीन थे उनकी संख्या चार परिवार की थी। भूमिहीन व गरीबी रेखा के नीचे जीवन गुजारने वाले इन परिवारों के बच्चे स्कूल न जाते थे।.... बहुतायत लोगों के पास बंधी में ली गई जमीनों के एवज में चौदह-चौदह बिस्वों के दिए गये छोटे-छोटे जमीन के टुकड़े थे। गॉव के भूमिहीन जंगल विभाग के कामों पर सब्बल, गैंता, फावड़ा चलाते और औरतें टाकरियॉ ढोतीं। कभी जंगल में वृक्षारोपण का काम भी मिल जाता।’लेकिन जिस बसमतिया की जिन्दगी दागों वाली दुनिया की न थी, वह जल की तरह चमकदार थी और पारदर्शी भी। पृ..54
उसकी स्थिति दूसरों से इस मायने में भिन्न है कि आर्थिक अभाव के साथ ही उसका जीवन भवनात्मक अभाव से भी ग्रसित है। इसलिए यह बहुत ही स्वाभाविक है कि
‘बसमतिया वर्तमान में जीने वाली औरत थी। उसके पास न तो अतीत की आनददायक स्मृतियॉ थीं और न ही भविष्य का मनोरम सपना था’ पृ..127
तो क्या बसमतिया के अन्दर इच्छा-आकांक्षा न थी, राग-अनुराग न था, या वह हाड़-मांस की नहीं बनी थी? रात के एकांत में अपनी मायके में भउजाई के साथ सोई बसमतिया कहती है...
‘भउजी जबसे तुम्हारा ननदोई भागा है तबसे जाने क्या हुआ कि मेरी देह भी उसके साथ चली गई है। समझ में नहीं आता कि देह कैसे चली गई, मेरी खुशियां लेकर.... मुई देह भी गुसिया गई है मुझ पर... पृ..52
यानि एक तरह से पति-परित्यक्ता, युवा बसमतिया जिस तरह की परिस्थितियों का शिकार है, उसमें किसी भी तरह उसकी ज़िन्दगी निरापद नहीं है। वह जिस मालिक के काम पर जाती है, एक मौका पाकर वह उसे दबोच लेता है। संघर्ष करके बसमतिया उसके चंगुल से निकल भागती है, और दुबारा फिर उसके काम पर नहीं जाती। बसमतिया के जेठ की भी उस पर बुरी निगाह है। अव्वल तो वह चाहता है कि बसमतिया किसी के साथ ‘सलट’ कर दफा हो जाये तो जगदा के हिस्से की जरा सी जमीन उसे मिल जाये या फिर बसमतिया उसके अवैध संरक्षण में रहने लगे। लेकिन बसमतिया कठिन जिन्दगी जीते हुए भी टूटती नहीं। यथासंभव न्यूनतम जरूरतों और शर्तों पर जिन्दगी जीती है, लेकिन जेठ तथा मालिक जैसे बदनीयत लोगों के लिए वह सर्वथा अलभ्य बनी रहती है।
बसमतिया का पति भगोड़ा निकला जरूर लकिन बसमतिया परिस्थितियों के अंधड़ में सूखे पŸाों की तरह उड़ जाने वाली स्त्री नहीं है। उसका जीवन रिक्त है और उसकी मन‘स्थिति को बड़ी बारीकी से उकेरने में लेखक ने पर्याप्त दक्षता का परिचय दिया है पर असल चीज है बसमतिया का जीवट, वह चट्टानी दृढ़ता, जो हर तरह के आर्थिक, मानसिक हरहराते अभावों के आगे पराभूत होना नहीं जानती। इसी ने बसमतिया के व्यक्तित्व को चमकदार बनाया है। लेकिन यहां यह कहना भी जरूरी है कि ‘हरियल की लकड़ी’ उपन्यास को स्त्री विमर्श के खाते में डालकर ‘रिड्यूस’ नहीं किया जा सकता। दरअसल यह उपन्यास सीमांत की जिन्दगी जी रहे लोगों के संघर्ष और जिजीविषा की बिडंबनापूर्ण दास्तान तो है ही, साथ ही बचे-खुचे सामंती अवशेष, पूंजीवाद के हमलावर चरित्र और जनतंत्र को अप्रासंगिक बनाने पर आमादा भ्रष्ट,क्रूर प्रशासनिक व्यवस्था तथा विकास की इकहरी प्रक्रिया के दुःपरिणामों को उजागर करता एक खौलता कथा-दस्तावेज भी है।
बसमतिया उपन्यास का केन्द्रीय पात्र तो है लेकिन एक ऐसा पुल भी है जिस पर से होकर उसके मायके और ससुराल की ग्रामीण जिन्दगी की सीमांत चुनौतियां और संघर्ष अनेक रूपों में आवाजाही करते हैं। उसके बाप ने कभी सरकारी सहायता के तहत भैंस ली थी जिसके एवज में देय बैंक का कर्ज दो हजार से बढ़कर आठ हजार रुपये हो जाता है। यह कर्ज भी एक नेता की कागजी धोखा-धड़ी की देन है जिसका शिकार उसका अनपढ़ बाप बनता है। बाप को जेल न जाना पड़े और किसी तरह कर्ज से छुटकारा मिले इसके लिए गॉव के सीधे सादे दूसरे कर्जदारों के साथ बसमतिया को बैंक और कचहरी का चक्कर लगाना पड़ता है। बसमतिया की गॉव की सहेली ननकी का दूर का एक रिश्तेदार देवनाथ डूबते को तिनके का सहारा जैसा वकील मिल जाता है और हालांकि बसमतिया का बाप जेल जाने से बच जाता है, उपभोक्ता फोरम के माध्यम से मुकदमा जीतने के कारण उसे कर्ज से मुक्ति भी मिल जाती है। फिर भी रोज कमाने खाने वालों के लिए बैंक-कचहरी का चक्कर अपने आप में कितना बड़ा संघर्ष है, यह वकील देवनाथ से बसमतिया की इस जिज्ञासा व चिन्ता से समझा जा सकता है....
‘फैसला कब तक हो जाएगा वकील साहब! यहां आओ तो सŸार अस्सी रुपया खरच हो जाता है, दो दिन का नुकसान अलग से। रोज कमाओ खाओ नहीं तो फांका...पृ..159।
प्रशासनिक भ्रष्टाचार और लूटतंत्र का शिकार होकर सरकारी अनुदान, सहायता और बैंक कर्ज आदि के जरिए सीमांत की जिन्दगियां जहां जाल में फंसकर छटपटाती हैं, वहीं औद्योगिकरण और इकहरे विकास की प्रवंचना भी उन्हीं के हिस्से आती है।...
‘गॉव के आकाश का सूरज, गॉव के हिस्से की जमीन, धूप हवा, जंगल, पहाड़ सभी कुछ गॉव में होते हुए भी गॉव से बाहर थे उन पर दूसरों का कब्जा था। नदी का पानी दूर जाकर नहर में गिरता था जिससे गॉव का रिश्ता नहीं। गॉव का पहाड़ टूट-टूट कर ढोंका, पटिया, चूना, सीमेन्ट, अल्युमिनियम बनता था, जंगल कटकर पलंग, कुर्सी,मेज, किवाड़ वगैरह में ढलता था पर बसमतिया का मायका.... बिना नहर वाला, बिना कुर्सी वाला, बिना सीमेन्ट वाला था जो आज भी है। इतिहास की बनती बिगड़ती स्थितियों ने कभी भी इस गॉव का भला नहीं किया’ पृ...73-74।
उपन्यास का अंत सचमुच विचलित कर देने वाला है। गॉव के पंडितों के मन मुताबिक ग्रामसभा का काम न होने के कारण वे भूमिहीनों और मजदूर तबके के लोगों का साथ देने वाले ग्रामप्रधान के खिलाफ हैं। अंततः गॉव के भूमिपति यानि पंडित वन विभाग के रंेजर के साथ मिलकर प्रधान व भूमिहीन ग्रामीणों के खिलाफ साजिश रचते हैं। रेजर की अगुवाई में वन विभाग वाले जंगल की जमीन पर कब्जा का बहाना बना कर उनकी झोपड़ियां उजाड़ते हैं, आग लगा देते हैं, विरोध करने वालों को खदेड़कर पकड़ ले जाते हैं। रेंजर आफिस पर खुद लकड़ी के गोदाम में आग लगवाकर रेजर, गॉव वालों को आरोपी बनाता है। यह सारी र्काावाई रात में होती है। बसमतिया और रज्जो के साथ सामूहिक बलात्कार किया जाता है। इस बर्बर दमनात्मक कार्रवाई के बाद प्रधान समेत पकड़े गये ग्रामीणों को गिरफ्तार कराके जेल भेज दिया जाता है। पक्ष विपक्ष में खबरे छपती हैंे, चूंकि वकील देवनाथ भी ग्रामीणों को भड़काने के आरोप में गिरफ्तार होता है इसलिए वकीलों की हड़ताल और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के धरना प्रदर्शन का सिलसिला शुरू हो जाता है। एक बार फिर मामला जॉच और कचहरी की पेचीदा गलियों में चला जाता है। विचलित कर देने वाले दमन और षडयंत्र के गर्भ में जिस तरह के विस्फोट के मुहाने पर जाकर उपन्यास खत्म होता है, वहां हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था और इसकी उपलब्धियों के सामने एक बड़ा प्रश्नचिन्ह स्वयमेव खड़ा हो जाता है। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि वैश्वीकरण के गाए जा रहे भारतीय सोहर के सामने यह उपन्यास एक ऐसा शोकगीत है जिसे अनसुना नहीं किया जा सकता।
परिचय... अंक 06 पृ...107-110
हंस...
समीक्ष्य कृति... हरियल की लकड़ी’ (उपन्यास)
प्रकाशक.. राजकमल,
नेता जी सुभाष मार्ग
नई दिल्ली,110002
मूल्य..195..00
सन्... 2006
-2-
'''मौलिक अधिकारों के संषर्ष की तैयारी ‘तीसरा रास्ता’'''
[[File:Teesara Rasta.jpg|thumb|NGO संस्कृति परकेंद्रित उपन्यास भूमिअधिकार के सन्दर्भ में]]
नन्द किशोर नीलम
एन.जी.ओ. की भूमिका पर अनगिनत सवाल उठते रहे हैं। एन.जी.ओ. ने अपनी कार्यप्रणाली और समग्र व्यवहार से बराबर ऐसे हालात पैदा किए हैं जिससे तमाम धारणायें पुष्ट और प्रमाणित हुई हैं कि इनकी भूमिका विकास विरोधी दलालों की तरह है। निरीह जनता के हिस्से की कल्याणकारी योजनाओं की अकूत राशि इनके पंचतारा ऐशो-आराम पर खर्च कर दी जाती है। बाड़ (बाउन्ड्री) का काम खेत की रखवाली करना होता है, पर यदि बाड़ ही खेत खाने लगे तो! संभवतः एन.जी.ओज की भूमिका पर अपनी रचनात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले रामनाथ शिवेन्द्र के महत्वपूर्ण उपन्यास ‘तीसरा रास्ता’ में यही संशय उमड़ता-घूमता रहता है। मानवाधिकार जन समिति की एन.जी.ओ. का कर्ताधर्ता डी.बी़ जैसा शातिर व्यक्ति, जिसके हाथ में समाज को बदलने की ताकत और साधन दोनों हैं, शोषक व भक्षक की भूमिका में है। समाज की बेहतरी के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले साधनों को वह समाज के विनाश के, समाज की चेतना को कुंद करने के हथियारों के रूप में तब्दील करने में माहिर है...वह कहता है...
‘क्रान्ति एक छलावा है, तथा विकास यथार्थ’ वह आगे कहता है...
‘बुद्धि के व्यापार के लिए किसी एन.जी.ओ. का होना आवश्यक था सो उसने अमेरिकी फन्डर की बात जस के तस मान कर अपनी संस्था बना ली’ पृ..21
इसलिए क्रान्ति को अवरूद्ध करने के तमाम उपाय करता हैै। डी.बी. राजनीतिक समीकरण बिठाने में माहिर है। उसके मंसूबों को साकार करने और उसके अटके कामों को करवाने के लिए कोई न कोई स्त्री हमेशा देह में परिवर्तित हो जाने को तत्पर रहती है, जो उसका विरोध करती है उसे वह बर्बाद कर देता है। जटिल जीवन पद्धति, बाजारीकरण और घिचपिच सौन्दर्यबोध से स्त्री का संपूर्ण व्यक्तित्व किस तरह संचालित होता है इसका ज्वलंत उदाहरण है डी.बी. की सहायक मधुनिहलानी और शालिनी। वस्तुतः यह उपन्यास समाज परिवर्तन की दिशा में स्त्री की भूमिका के परस्पर विरोधी आयामों की गहरी पड़ताल करके उसके सही और सकारात्मक भूमिका और हस्तक्षेप को सुधा, अस्मिता, नन्दिता तथा प्रमिला जैसी स्त्री पात्रों के द्वारा रचता है जो हर स्तर पर समाज बदल के लिए प्रतिरोधी क्षमता का प्रतिनिधित्व करती हैं। स्त्री जीवन के दो घनघोर विरोधी स्वरूपों (देह में तब्दील हो जाना एक स्वरूप तथा विरोधी स्वरूप अपनी अस्मिता के बचाव में प्रतिरोध करना) पर रामनाथ शिवेन्द्र ने स्त्री पात्रों के माध्यम से गंभीर विचारण किया है।
यह उपन्यास सोनपुर जनपद की आम जनता के माध्यम से आज के असंख्यशोषितों, पीड़ितों, दलितों, दमितों और वंचितों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए किए जा रहे संघर्ष की कथा कहता है। सोनपुर के ये लोग अपने जल,जंगल और जमीन के हक़ के लिए लगातार ठगे जा रहे हैं। शासन इनके प्रति निष्क्रिय और उदासीन है, लगभग जनविरोधी और विकास विरोधी भूमिका में। वन विभाग इन पर झुठे मुकदमे दायर करवाकर क्रूर हत्यारे की तरह व्यवहार करता है और उनके मौलिक अधिकारों की हिफाज़त की लड़ाई के लिए देशी-विदेशी फंडरों से करोड़ों रुपये डकारने वाले एन.जी.ओ. इनके सामाजिक तथा मौलिक अधिकारों का सबसे बड़े अपहर्ता हैं। देखें...
‘आर्थिक उदारवाद तथा एन.जी.ओ. संस्कृति ने आन्दोलनों के चरित्र की हत्या कर दी है’ पृ..224
‘एन.जी.ओ.वाले.बेकारी तथा बेरोजगारी का लाभ उठाते हैं तथा रुपया कमाने का व्यापार करते हैं....आधे से भी कम मजूरी पर कार्यकर्ताओं का शोषण करते हैं पृ..198
समाज बदलने के व्यापक उद्दश्यों को छोड़कर...
‘ये एन.जी.ओ. वाले गरीबी, भुखमरी,बीमारी का सौदा करते हैं तथा अमेरिका व इंग्लैंड को बेचते हैं। पृ..198
इस उपन्यास की एक महत्वपूर्ण घटना है सुधा के नेत्त्व में सोनपुर में बंधी का निर्माण जो वास्तव में आज के समय में जनभागीदारी के द्वारा जल संरक्षण के श्रोतों को सिरजने के पहल के लिए प्रेरित करता है, दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार द्वारा बड़े बांध बनाने के लिए अपनी जमीन से उजाड़ दिए जाने वाले निरीह आदिवासियों के विस्थापन को रोकने तथा बड़े बांध के विकल्प में छोटी-छोटी बंधियां बनाकर प्राकृतिक रूप से जल संरक्षण करने से जल, जंगल और जमीन रूपी आम जनता के मौलिक अधिकारों का हनन भी नहीं होगा और उन्हें बार बार उजड़ने से निजात भी मिलेगी पर वन विभाग सुधा द्वारा जनसहभागिता से बनवाये जा रहे बंधी निर्माण से खुश नहीं है, उसके धन व वर्चस्व का सारा खेल बड़े बांध खड़े होने में है।
वन विभाग के पैमाइशी फीते का जाल इतना गहरा और बड़ा होता है कि आम आदमी और उसके जीवन जीने के संसाधन भी इसी जाल में उलझकर रह जाते हैं। प्रतिरोध करने पर वन विभाग का दमन चक्र क्रूरता में बदल जाता है फिर पुलिस? नेता, और स्वयं सेवी संगठनों के भ्रष्ट आका आपसी साठगांठ से जनप्रतिरोध की धार को कुन्द कर देते हैं। उपन्यास में सोनपुर के निरीह लोगों को रेंजर की हत्या के आरोप में फसाना ऐसी ही सांठगांठ का परिणाम है। सुधा, विजयकीर्ति भाई, निखिल दा और विनय जैसे लोगों की बड़ी चिंता यह है कि इन्हें किसी भी तरह से उजड़ने से बचाया जाए और विस्थापित किए जाने वाले लोगों के बीच जाकर उन्हें आदिवासियों के मौलिक स्वत्व के संघर्ष के लिए कैसे तैयार किया जाए? लेकिन अनेक बार उजड़ चुके और शासन और पुलिस की पाश्विकता को भोग चुके लोग डरे हुए हैं। गॉव का एक सŸारवर्षीय वृद्ध सुधा और विनय को इस बर्बरता के बारे में बताते हुए लगभग पागलपन की हद तक पहुंच चुकी निराशा में ‘करमा’ गा गा कर नाचने लगता है। पृ..222। यह बुजुर्ग आदिवासी बार बार के विस्थापन को अपनी नियति मान चुका है। जिस डर, हताशा और निराशा का वह शिकार है वह आज पूरे भारतीय समाज पर हावी है। पर इसी गॉव के कुछ युवा लोग इस नियति को बदलकर आपने जीने के अधिकार को पाना चाहते हैं। इनमें अथाह जोश है और प्रतिरोध की आवश्यक क्षमता भी। ये अब मरने-मारने पर उतारू हैं।
इस उपन्यास का शीर्षक ‘तीसरा रास्ता’ देख कर ऐसा लगता है कि राजनीति में तीसरे विकल्प की तरह उपन्यासकार भी एक ‘तीसरा रास्ता’ बनाने या सुझाने की पहल करेगा जो कायम सŸाा और विकास विरोधी स्वयं संगठनों की लूट से परे होगा। जिस तीसरे रास्ते का खुलासा रामनाथ शिवेन्द्र उपन्यास के अंतिम ख्ंाड तीसरा रास्ता में करते हैं वह चौंकाता है। प्रारंभ में एक क्रान्तिकारी कामरेड रहे दीपेश भट्टाचार्य (डी.बी.) का रमेशरा बनकर नन्दिनी के जमीनदार पिता की हत्या करवाना, हत्या की राजनीति का पैरोकार होना, बाद में एन.जी.ओ. चलाना और अपने भ्रष्ट व्यभिचारी चरित्र को छिपाने के लिए अंततः आध्यात्मिक गुरु बन जाना ही क्या अब ‘तीसरा विकल्प’ या ‘तीसरा रास्ता’ बचा है? क्या वास्तव में आज के इस विकट दौर में जनपक्षधर मूल्यों के प्रति लोगों का रुझान कम हो रहा है? क्या सघंर्ष और प्रतिरोधी चेतना पर ‘धन’ और ‘आध्यात्म’ ने आधिपत्य कायम कर लिया है? क्या अमेरिकी धनकुबेरों का प्रतिरोधी ताकतों को मनोवैज्ञानिक रूप से अपहृत करने का षडयंत्र फलीभूत हो चुका है? ऐसे कई प्रश्नों से यह उपन्यास विचलित करता है। आध्यात्म वास्तव में इस उपन्यास की ‘जय’ है या ‘पराजय’ तनिक गंभीरता से विचार करना पड़ेगा।
डी.बी. का सब तरफ से हार कर अपने पुराने आध्यात्मिक गुरु की शरण में चले जाना और अंत में अपने गुरु की जगह लेकर भगवा धारण कर लेना आज के समय की बड़ी सच्चाई है। आध्यात्मिक गुरुओं का प्रभामंडल लगातार फैल रहा है। कई गुरुओं और बापुओं के यौन-दुराचारों का पर्दाफास होने के बाद भी ये अपना प्रभामंडल विस्तृत करने मे कामयाब हो रहे हैं। आज जिस तरह की घटनांए हमारे वैचारिक समाज में घट रही हैं उन्हें देखते हुए यही कहा जा सकता है कि रामनाथ शिवेन्द्र आगत के भयावह हालात की पूर्व सूचना दे रहे हैं। प्रगतिशील और जनपक्षधरता के अगुआओं का इन दिनों जातियों, संघियों और सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों के चंगुल में फसना या स्वेच्छा से उनके आतिथ्य और धन को स्वीकार करना कहीं वही ‘तीसरा रास्ता’ तो नहीं जिसकी ओर रामनाथ शिवेन्द्र ने संकेत किया है? बहरहाल आज के वैज्ञानिक युग में आध्यात्म की दुन्दुभी जिस ऊंचे सवर में कान फोड़ रही है उसे देखते हुए ‘तीसरे रास्ते’ का घातक संकेत हमें सावधान करता है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अतिवाद के इस कठिन समय में बड़े बड़े अपराधियों का अंतिम ठौर आध्यात्म (?)ही हो सकता है, जहां न तर्क चलता है न कानून। यहां तमाम धार्मिक व कठमुल्ला ताकतें उनके जयकारे और संरक्षण के लिए तत्पर हैं। इस तथ्य की सच्चाई को हम पिछले सालों देख चुके हैं।
इस उपन्यास के माध्यम से रामनाथ शिवेन्द्र ने घटित हो रही सच्चाइयों पर और बढ़ती संवेदनशीलता पर बहुत कुछ कहने की कोशिश की है। विचारों का भारी दबाव व ऊभ-चूभ तथा अधिक कथा विस्तार शिथिलता लाता है ऐसी तमाम सीमाओं के बावजूद यह कहने में संकोच नहीं है कि यह उपन्यास व्यापक सामाजिक सरोकारों को बड़े पैमाने पर बहस के बीच लाता है, यही इस उपन्यास की सफलता है।
उपन्यास के कुछ अंश जो विचारण के लिए अनिवार्य जैसे हैं उन्हें यहां प्रस्तुत करना गलत न होगा।...
‘हम साकारी विधानों, कानूनों, परंपराओं के तार्किक व प्रतिबद्ध अहिंसक अवज्ञाकारी हैं, इस अवज्ञा के दौरान हमें हक़ है कि हम अपनी हिफाजत करें तथा जनता की भी जिसे जागरूक बनाने के लिए हम संकल्पित और लक्ष्यित हैं’ पृ..33
‘अमेरिकियों का नारा था जिसका पेट भरेगा वह खूनी क्रान्ति नहीं करेगा सो रुपया बांटो, खाना दो, पढ़़ाओ, दवाई दो यानि उन्हें बचाओ जो खुद मर रहे हैं या प्रायोजित मृत्यु के लिए क्रान्तिकारी बन रहे हैं’ पृ..35
‘डी.बी. को स्वयंसेवी संस्थावाद की इस परिभाषा से पहले कुछ दिक्कत हुई, क्यांकि तब तक वह मानसिक रूप से दिवालिया नहीं हुआ था, उसे कदम कदम पर मार्क्स याद आते जैसे रति प्रसंग के दौरान फ्रायड’ पृ..39
‘तुम्हारा नाम प्रवीण है, तूं एन.जी.ओ. चलाता है, तूं गॉव का विकास करेगा खैरात बांट कर। तूं जमीन क्यों नहीं बटवाता? ’पृ..64
‘वैसे भी वे इतिहास की अश्लील आदतों से परिचित न थे कि वह परिवर्तित होने वाली परिघटना है तथा समय समय पर कई तरह का रंग रूप धारण करना उसका स्वभाव है। पृृ..106
‘सरकार के पास इतनी बड़ी जेल नही जो सभी को जेल में रख सके’ पृ..116
‘बड़े उद्योगों का विशाल सांचा नहीं बचेगा... यदि लाभ, अतिरिक्त लाभ वाली व्यवस्था को सहभागितापूर्ण अर्थतंत्र व प्रबंधन से तोड़ दिया जाए, इससे नौकरशाही का सांचा भी तोड़ा जाना संभव हो सकता है।’
‘प्रतिरोध कार्यक्रम खुला-खुला था यानि कि नई दुनिया संभव है पर दान, प्रतिदान, बैंक कर्जों के आवंटन, दया व कृत्रिम आर्थिक सहयोग के द्वारा नहीं...। संभव बनाया जा सकता है बराबरी का दर्जा देकर, क्रय शक्ति बढ़ा कर, अवसरों में समानता का वातावरण बना कर, सामाजिक मर्यादा बहाल कर? उत्पादनों को जनोन्मुखी बना कर’ पृ...193
‘आखिर हम आदिवासी ही क्यों उजाड़े जाते हैं, जमीन में कोयला, हीरा, सोना, चॉदी चाहे जो मिल जाये उजड़ो, हमेशा उजड़ते रहो, हमारा कुछ भी नहीं, ऐसा नहीं चलेगा। हम कोई लाश नहीं, हमारा भी हक़ है इस माटी पर, इस जंगल पर, अब हम इसे कटने नहीं देंगे, जंगल का फल-फूल, बालू, मिट्टी सारा हमारा, हमें नहीं चाहिए दिल्ली’ पृ.....224
‘यहां आकर इतिहास मरे न मरे पर विज्ञान, राजनीति, दर्शन और धर्म सारे के सारे यहां आकर मर चुके हैं इसलिए इस परिक्षेत्र में बारहवीं शताब्दी आज भी जीवित है। इनके चेहरे आज पूंजीवादी बर्बरता के परिणाम हैं’ पृ...227
हंस कथा मासिक...फरवरी..2010 पृ....84-85
समीक्ष्य कृति... तीसरा रास्ता
पिलग्रिम्स प्रकाशन
बी.27/98-ए-8, दुर्गाकुण्ड
वाराणसी, 221010
मूल्य...225.00 फोन...(91-542)2314060
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कितनी लड़ाई ,कितनी बार "दूसरी आजादी"''''
सुरेश पंडित
‘इतिहास तो हर पीढ़ी लिखेगी/बार बार पेश होंगे/मर चुके/जीवितों की अदालत में/बार बार उठाए जायेंगे/कब्रों में कंकाल/हार पहनाने के लिए/ कभी फूलों के/कभी कांटों के/समय की कोई अंतिम अदालत नहीं/और इतिहास आखिरी बार नहीं लिखा जाता।’ पंजाबी कवि सुरजीत पातर की कविता का यह हिन्दी अनुवाद इतिहास के बारे में फैलाए गये बहुत से मिथकों का खंडन करता है। कोई भी इतिहास समग्रतः सच्चा नहीं होता। इसलिए वह बार बार लिखा जाता है। बार बार गड़े मुर्दे उखाड़ जाते हैं और उनकी कारनामों पर समय की अदालत में फैसले लिए जाते हैं। रामनाथ शिवेन्द्र का उपन्यास ‘दूसरी आज़ादी’ भी इस सच को पकड़ने की एक बेचैन कोशिश है। शीर्षक से जाहिर होता है कि इसमें उस पहली आज़ादी के बाद का इतिहास है, जिसे पिछली शताब्दी के पूर्वार्ध में काफी संघर्षो और कुर्बानियों के बाद हासिल किया गया था। उसके बाद आज तक सŸाा के खिलाफ कई लड़ाइयां लड़ी गई हैं और आगे भी लड़ी जाती रहेंगीं क्योंकि सŸाा चाहे सामंतशाही की हो या लोकतांत्रिक उसका चरित्र प्रायः एक सा होता है। इसलिए इस तरह की लड़ाइयों के क्रम का कभी अंत नहीं होता। उपन्यास में आज़ादी से पहले इसे पाने के लिए लोगों को जिस तरह के आकर्षक सपने दिखा कर संघर्ष हेतु तैयार किया गया था उसका और बाद में उन सपनों को किस तरह तोड़ा गया इसका वर्णन बड़ी संवेदनात्मक भाषा में किया गया है। साथ ही खोई आज़ादी को पुनः पाने के लिए किए गये प्रयासों को भी दर्शाया गया है। लगता है हमारे देश के सारे इतिहास आम लोगों को सपने दिखाने और उन्हें तोड़ने के प्रयासों को ही लेकर लिखे गये हैं। उपन्यास के सभी पात्र चाहे वे नायक हों या खलनायक, पहली आज़ादी के संघर्षों की उपज हैं फिर चाहे उन्होंने एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उसमें भाग लिया हो या उसके विरोध में अथवा एक तटस्थ दर्शक के रूप में। नायक इस उपन्यास का रणविजय भी हो सकता है, रामदयाल भी और रामप्यारे भी। क्योंकि तीनों एक दूसरे के पूरक हैं। ये सब मिलकर एक चरित्र बनते हैं। आज़ादी के बाद इस लड़ाई में शरीक होने वाले लोग दो वर्गों में बट जाते हैं। एक में वे लोग होते हैं जो किसी न किसी रूप में सŸाा से जुड़ जाते हैं। एक में वे लोग होते है जो इससे अलग तो रहते हैं लेकिन आगे क्या करें की दिशाहीनता में गोते लगाते नज़र आते हैं। पहली तरह के लोग गॉधी का मुखौटा लगाकर सŸाा सुख भोगने में लग जाते हैं और दूसरे, गॉधी की राह पर चलकर आगे क्या किया जा सकता है की सोच में उलझ जाते हैं। रणविजय एक शाही परिवार के सदस्य हैं लेकिन इसलिए महल से निकाल दिए जाते हैं क्योंकि वे एक ऐसी लड़की से प्यार कर शादी कर लेते हैं जो एक अंग्रेज पिता और भारतीय मॉ की संतान है। इसी तरह उनके भाई भैया राजा रियासत में रणविजय को हिस्सेदारी से इस आधार पर वंचित कर देते हैं क्योंकि वे भूतपूर्व राजा की दूसरी पत्नी की संतान हैं अर्थात भाई होकर भी सगे भाई नहीं हैं। यद्यपि दोनों ही आरोप सही हैं फिर भी उन्हें कानूनन उनके अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता। लेकिन रणविजय अपने हक़ के लिए स्वयं लड़ने को तैयार नहीं होते। यह शायद उन पर चले आ रहे गॉधी के चिंतन के प्रभावों का परिणाम है या वह भावुकता है जो गॉधी को लेकर बाद तक बनी रही थी।
रामदयाल जी दोनों भाइयों के मित्र हैं वे इस तरह के अन्याय को सहन नहीं कर पाते फिर भी वे न तो भैया राजा का विरोध करते हैं और न ही रणविजय को भैया राजा का विरोध करने के लिए तैयार ही कर पाते हैं। नतीजा यह कि पहली आज़ादी की लड़ाई में भाग लेने के कारण दोनों ही गॉधी के हैंगओवर से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाते। वैसे भी यह ऐसे लोगों का स्वभाव है कि वे तब तक कोई निर्णय नहीं लेते जब तक किसी आन्दोलन के लिए पुख्ता ज़मीन तैयार नहीं हो जाती। पहली आज़ादी की लड़ाई में भी शुरू में किसान, मजदूर और वंचित वर्ग के लोग ही शामिल हुए थे, मध्यम वर्ग तो तब आया था जब वह लड़ाई निर्णायक दौर में पहुंच गई थी।
राजमहल से निष्कासित और पैतृक संपŸिा से वंचित हो जाने के बाद रणविजय और लिली दोनों लिली के घर आकर रहने लगते हैं। रणविजय एक गंभीर विचारक से दिखाई देते हैं जबकि लिली अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती है। शायद यही वह कारण है जिससे वह रणविजय से शादी करती है और जब यह महसूस करती है कि रणविजय उसकी महत्वाकांक्षी प्रकृति को संतुष्ट करने में सहयोगी नहीं बन सकता तो वह नामदेव की ओर झुकती है। रणविजय और लिली के माता-पिता उसके इस झुकाव को पसंद नहीं करते। लेकिन उनकी अनिच्छा के बावजूद लिली अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए नामदेव के साथ रूस चली जाती है। समझ में नहीं आता कि इतनी चंचल चिŸा और महलों में रहने की इच्छा पालने वाली युवती के साथ रणविजय विवाह क्यों कर लेता है। वैसे लिली बौद्धिक रूप से काफी जागरूक है, गंभीर विषयों पर होने वाली चर्चाओं में वह भाग ले सकती है और रूसी साहित्य का अनुवाद तो वह करती ही है। फिर भी वह अथाह प्रेम करने वाले रणविजय और अपने माता-पिता को छोड़कर क्यों चली जाती है? यह समझना कोई मुश्किल नहीं है। दरअसल उसे लगता है कि नामदेव के साथ रहने पर उसके सपने पूरे हो सकते हैं उसकी प्रकृति और प्रवृŸिा दोनों परस्पर विरोधी भावों से बनी है। अन्त में उसका क्या होता है पता नहीं लगता। हो सकता है कि उपन्यासकार ने उसे इसलिए रचा हो कि वह पाठकों के लिए पहेली बनी रहे या फिर आगे वही हुआ जो प्रायः जो इस प्रकार के मामलों में हुआ करता है।
रणविजय के बजाय रामदयाल का चरित्र अधिक परिपक्व व डायनामिक है। यद्यपि एक रात को लिली के साथ घटी धटना का विश्लेषण कर पाना काफी कठिन है। कहीं नहीं लगता कि दोनों का इस तरह का पारस्परिक कभी रहा हो, हो सकता है यह आकस्मिक भावावेग मात्र रहा हो। चरित्र का यह आकस्मिक विचलन इस बात को लेकर भी हो सकता है कि हम एक दूसरे के साथ रहकर और घनिष्ठ संबध बनाकर भी आपस में सारी जानकारी नहीं रख पाते। मानव मन के बारे में किसी भी प्रकार की भविष्यवाणी प्रायः अनुमाननीय होती है। प्रसिद्व अंग्रजी उपन्यासकार ‘सौमट सेर माम’एक जगह लिखते हैं... ‘मैं किसी पात्र को जैसा सोचकर रचता हूं केई बार उसका आचरण मेरी कल्पना के अनुरूप नहीं होता’। फिर इस घटना पर किसी और से कोई प्रतिक्रिया का न होना भी हैरानी पैदा करता है। क्या यह कोई ऐसी घटना थी जिसे सामान्य मानकर भुला दिया जा सकता था। दोनों में से कोई भी न इसके बारे में आत्मग्लानि महसूस करता है न आत्मिक संतृप्ति ही प्रकट करता है।
सरकारी जमीनदारी उन्मूलन कार्यक्रम को विभिन्न हथकंड़ों से क्रियान्वित न होने देने के प्रयासों का रामदयाल, रणविजय और रामप्यारे के साथ मिलकर विरोध करता है। वह स्वयं भी एक छोटा-मोटा जमीनदार हैं अपने आन्दोलन को प्रामाणिक बनाने के लिए पहले वह अपनी जमीन को अपने अधिकार क्षेत्र के किसानों में बांट देता है। यद्यपि इसके लिए उसे अपनी पत्नी और अन्य संबधियों का भारी विरोध सहन करना पड़ता है। जब भैया राजा सहित सारे जमीनदार एकजुट हो जमीनदारी उन्मूलन कार्यक्रम के राह में रोड़े अटका राहे होते हैं तब रामदयाल का यह कदम लोगों का मन जीतने वाला साबित होता है।
गॉधी जी किसी भी काम की शुरूआत अपने से करते थे इसी लिए जनता उनका साथ देती थी। यहां भी लोग रामदयाल का साथ इसी लिए देते हैं। रणविजय और रामप्यारे तो पहले ही सर्वहारा थे। उनके पास अपना कुछ भी नहीं था। इसलिए तीनों का नेतृत्व आमजन को बदलाव की राह दिखाने में उत्साहजनक साबित होता है।
भैया राजा का चरित्र शुरू में जैसा दिखाया जाता है अंत तक वैसा ही बना रहता है। वह पहले सारी रियासत पर अपना एकक्षत्र प्रभुत्व स्थापित करने की राह में कांटा बन सकने वाले अपने ही भाई रणविजय को दरकिनार करता है। फिर कांग्रेस में शामिल होकर रामदयाल और कांग्रेस के जिलाध्यक्ष को एक तरफ खड़ा कर देता और स्वयं विधानसभा का टिकट प्राप्त कर लेता है। तरह तरह की तिकड़मों से वह चुनाव जीत भी लेता है। अपनी ऐययाशी के लिए देवी स्वरूपा अपनी पत्नी के चरित्र पर आरोप लगाकर वह उसे महल से निकाल देता है और एक मेम को ले आता है। मेम के गर्भिणी हो जाने पर वह बच्चे को गिरवाना चाहता है जब मेम इसके लिए तैयार नहीं होती तो उसे राह से हटाने का षडयंत्र रचता है। पर मेम उसकी चंगुल से निकल कर रामदयाल के जमीनदारी विरोधी आन्दोलन में शरीक हो जाती है। आखिर भैया राजा की जमीनदारी के विरूद्ध संघर्ष इतना तेज हो जाता है कि उसे रोकने की सारी चालें असफल हो जाती हैं।
आश्चर्य है लिली का चरित्र जिस तरह उपन्यास में दिखाया गया है उसके माता-पिता से किसी भी रूप में नहीं मिलता। उसकी मॉ जो एक भारतीय माता-पिता की संतान है एक अंग्रेज से शादी करने के बावजूद अंत तक एक पतिपरायण आदर्श भारतीय नारी बनी रहती है। अंग्रेज पति उसके समर्पण और त्याग से अभिभूत दिखाई देता है। वह मन ही मन अंग्रेज औरतों से उसकी तुलना करता है और पाता है कि दोनों में कोई मुकाबिला नहीं किया जा सकता। ब्रिटिश राज के जमाने में वह प्रशासनिक अधिकारी रहा था। गॉधी और उनके अनुयायियों से यहां की संस्कृति से, यहां के लोगों के छल-कपट विहीन स्वभव से वह इतना प्रभावित हो जाता है कि इन्गलैन्ड जाने के बजाय वह यहीं रह जाने का फैसला कर लेता है। यहां के पुरातन साहित्य का अध्ययन करने और उसका अंग्रेजी में अनुवाद करने में वह स्वयं को झोंक देता है। दोनों रूस जाने के लिली के फैसले से आहत तो होते ही हैं लेकिन वह भी जानते हैं कि उनके किए कुछ होने जाने वाला नहीं है। परिणामस्वरूप वे लिली के इस कार्य को धीरे धीरे भुला देते हैं। और अपने अपने कामों में लग जाते हैं। रणविजय के प्रति उनका व्यवहार अत्यंत स्नेहपूर्ण बना रहता है।
पहली आज़ादी का आम लोगांे पर जादू एक डेढ़ दशाक तक चलता रहता है इसकी एक वजह तो यह है कि उनमें यह उम्म्ीद बनी रहती है कि उनके दिन बदलेंगे और वे सपने जो पहले दिखलाए गये थे पूरे होंगे। दूसरा कारण यह भी था कि उस समय में सरकार की बागडोर उन लोगों के हाथ में रही जो स्वतंत्रता सेनानी रहे थे और आम लोगों के हालात सुधारने की कम से कम आशायें बनाये रखने वाले थे। फिर उनके चरित्र भी बेदाग थे। वे अपने त्याग और देशभक्ति के कारण जनता के हृदय में इतना मोहक स्थान बनाये हुए थे कि चुनावों में बिना धन-बल और बाहु-बल का प्रयोग किए जीत जाते थे या उनके विरूद्ध खड़ा होने की कोई हिम्मत ही नहीं दिखा पाता था। जो कुछ गड़बड़ियां या स्वार्थसिद्धियां हो रही थीं उन लोगों की ओर से हो रही थीं जो आज़ादी के पहले तक तो अंग्रेज सरकार के कृपापात्र थे लेकिन जैसे ही हवा पलटी कांग्रेस में आ गये और जोड़-तोड़ कर सŸाा के गलियारे में भी पहुंच गये। वे अन्याय, भ्रष्टाचार और दमन पहले भी करते थे और बाद में भी जारी रखे रहे थे। इन परिस्थितयों ने लोगों का स्वप्न भंग किया। उन्हें लगा कि उनके साथ धोखा हुआ है। सŸाा हमेशा भ्रष्ट, अन्यायी व दमनकारी होती है। उस पर विश्वास करना मूर्खता है। इस लिए इसके विरूद्ध निरंतर आन्दोलन करते रहने की जरूरत है। सरकारें जनदबाव के सामने ही झुकती हैं। जरा सी भी ढील देना उन्हें निरंकुश बनने का अवसर देना है। लेकिन सवाल यह है कि आन्दोलन की निरंतरता कैसे बनी रहे? देश के कुछ लोग तो इतने संतोषी हैं कि उन्हें दिन में एक बार भी रोटी मिलती रहे तो उन्हें और कुछ नहीं चाहिए। कुछ लोग सक्रिय हो सकते हैं लेकिन उन्हें जीविकोपार्जन से ही फुर्सत नहीं मिलती। बाकी वे लोग हैं जिन्हें हर तरह की सुविधायें मिली हुई हैं। उन्हें किसी तरह के बदलाव की जरूरत नहीं है। बल्कि उनकी तो हर मुमकिन कोशिश यही रहती है कि इसी तरह की यथास्थिति बनी रहे ताकि वे सुख भोगते रहें।
पहली और दूसरी आज़ादी की लड़ाइयों के बावजूद देश की स्थितियों में वह परिवर्तन नहीं आया जिसके लिए वे लड़ी गईं थीं इन दोनों के बाद राममनोहर लोहिया व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई जिन्दगी भर लड़ते रहे पर व्व्यवस्था पहले जैसी ही बनी रही। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भी एक लड़ाई लड़ी गईं उसमें जीत हासिल कर लेने के बाद भी हालात वही बनी रही। अन्ना हजारे इसी तरह की एक लड़ाई छेड़े हुए हैं (वह भी सŸाा की माया में दब गया) देखना है कि उसका अंजाम क्या होता है? इमरजेन्सी के बाद से देश में जहां तहां अनेक छोटे-बड़े आन्दोलन होते रहे हैं और अब भी हो रहे हैं, ये जनता को प्रभावित करने वचाले मुद्दों को लेकर हो रहे हैं। इनमें व्यवस्था परिवर्तन की जगह व्यवस्था में रहते हुए ही कुछ बदलाव लाने की कोशिशें हो रही हैं। भूमण्डलीकरण ने इस तरह पूंजीवाद के विरूद्ध पनपने वाले जनाक्रोश को टुकड़ों में बाट कर मुख्य लड़ाई का रूख बदल दिया है।
रामनाथ शिवेन्द्र एक जमीनी स्तर के सामाजिक, राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने विभिन्न आन्दोलनों में भाग लिया है और अब भी संघर्ष-रत हैं। तीन उपन्यासों के बाद उनका यह चौथा उपन्यास है। कुछ कल्पना, कुछ यथार्थ और कुछ जमीनी अनुभवों का उपयोग करते हुए इसका कथानक बुना गया है। यह चाहे पूरी तरह इतिहास सम्मत न हो पर उस समय के लोगों की मनःस्थिति को, और अन्यायी व्यवस्था को बदलने की तड़प को वाणी देने की कोशिश जरूर करता है।
प्रकाशित- नया सबेरा.... 2010
समीक्ष्य कृति- दूसरी आज़ादी
पिलग्रिम्स प्रकाशन
बी.27/98-ए-8, दुर्गाकुण्ड
वाराणसी, 221010
मूल्य..250.00
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'''विस्थापित होते समय का दस्तावेज ‘ढूह वाली लछमिनिया’'''
[[File:Dohawali Laxmaniya Final jpg.jpg|thumb|विस्थापन के सवाल पर केंद्रित उपन्यास आदिवासी महिला लक्ष्मीनिया की गाथा]]
अमरनाथ अजेय
यह दौर कठिन समय का है। इस समय में चुनौतियां चारो तरफ से हैं, कुछ खतरे बाहर से हैं तो कुछ भीतर से। जहां तक खतरों की बात है खासतौर से ये सोनभद्र जैसे आदिवासी बहुल जनपद में अन्य जनपदों की तुलना में कुछ ज्यादा ही हैं। लेकिन जो खतरे अपने लोगों से हैं वे कहीं अधिक त्रासद हैं, चिंतनीय है। आज के बाज़ारवादी समय का दबाव जंगल व जंगल भूमि पर ज्यादा है, और ये दबाव बनाने वाले कोई और लोग नहीं हैं, बल्कि अपने हुक्मरान हैं, अपने अफसर हैं, अपने कानून हैं। जो जंगली मानुष अपनी जमीन और जंगल से विस्थापित हो रहा है उसके लिए खतरा केवल जमीन का ही नहीं है बल्कि संस्कृति और सम्मान का भी है, अस्तित्व बचाने का भी है। ऐसे दुरूह समय का दस्तावेज है रामनाथ शिवेन्द्र का उपन्यास ‘ढूह वाली लछमिनिया’। लछमिनिया समामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक खतरों से घिरे हुए एक आदिवासी परिवार की युवा लड़की है। लछमिनिया की चिंता में केवल अपनी देह ही नहीं है उसकी चिंताओं में भीखू काका की जमीन है, तो वह पीड़ित लडकी भी है जो जिला स्तर के एक अफसर द्वारा यौनशोषण की शिकार हुई है, तथा उसका गॉव भी है जिसे किसी न किसी दिन विस्थापित किया जाना है। गॉव को विस्थापित किए जाने की नोटिस सरकार ने कथितरूप से तामिल करा दिया है। इन चिंताओं व चुनौतियों के अलावा उसकी चिंताओं में गॉव की फसल है, गीत, संगीत तथा परंपराएं है ‘करमा’ नृत्य, संगीत मण्डली की सहभागिता को टूटने से बचाना भी है। इन चिंताओं की खातिर वह माथा पीट कर टूट जाने वाली किसी लड़की की तरह नहीं है बल्कि किसी बहादुर की तरह वह हर स्तर पर चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार भी है। चुनातियों से टकराने की उसकी मानसिक तैयारी कुदरती है, इस तैयारी के लिए उसने कहीं से शिक्षण प्रशिक्षण नहीं लिया है। वह अब तक तमाम चरित्रों से अलग है जो स्वस्फूर्त चेतना का उत्पाद है। उसे पता है कि चुनौतियों से टकराने के लिए उसे क्या करना चाहिए। बाहर तथा भीतर से आए संक्रमणों से जिस तरह वह लड़ती है वह स्वतः उल्लेखनीय बन जाता है। संक्रमण की स्थितियां, परिस्थितियां कुदरती नहीं, बदलते समय के जड़ लोगों की कुटिल चालों, विभेदी कानूनी फन्दों, लुभावने वादों के जरिए आती हैं। समय तो बदला है लेकिन उसके साथ खतरे भी बदल गये हैं। खतरों नेे अपना रूप जिले के पीड़ित लड़की का यौन शोषण करने वाले अधिकारी (उपन्यास का एक पात्र) की तरह बदल लिया है। यह वही अधिकारी है जो एक दिन लछमिनिया को दबोच लेता है, उसे क्या पता कि लछमिनिया जो एक आदिवासी युवती है वह समय से टकराने के कौशल में माहिर है, वह अपना बचाव विषम स्थितियों में भी कर सकती है। ऐसा ही हुआ..अपने बचाव में लछमिनिया हसुआ वाली लड़की बन जाती है। खतरों के बारे में किसे पता कि वे अफसर की कुटिल चालों के रूप में आयेंगे, या किस प्रकार आयेंगे? खतरा आ गया अफसर के रूप में...अफसर को तो करमा मंडली का चुनाव करना था। सो उक्त अधिकारी लछमिनिया के गॉव गया हुआ था, करमा नाचने व गानेवाले तो आदिवासियों के गॉव में ही मिलते। गॉव में करमा नृत्य का प्रदर्शन हुआ, नृत्य के प्रदर्शन ने अफसर की निगाह में लछमिनिया के रूप को कामुक बना दिया फिर क्या था, अफसर तो अफसर कृत्रिम बहानों के जरिए वह टूट पड़ा लछमिनिया पर और लछमिनिया ने बचाव में हसुआ उठा लिया। इसके पहले कि लछमिनिया अफसर पर हसुआ चला देती, अफसर अपने वर्गीय चरित्र के अनुरूप गिड़गिड़ाने लगा। लछमिनिया ने कुदरती उदारता के कारण अफसर को जीवित छोड़ दिया, उस पर हसुआ नहीं चलाया। अफसर के गिड़गिड़ाने व माफी मांगने को उसने कुदरती समझा, ‘गलतियां हो जाती हैं किसी की जान लेना ठीक नहीं।’
खतरों का क्या, दिन हो रात हो, जगह कोई हो, दहाड़ते हुए आ जाते हैं। वह भी ऐसे समय मंे जब दुनिया पूंजी के नाच में मगन हो, जहां कदम कदम पर आशंकायें व खतरे ही हों। खतरे तो ऐसे हैं जो गॉव के बड़े जोतदार तथा थाने के दुलरुआ शंकर गवहां की तरफ से भी लछमिनिया के सामने आये। वह उन खतरों से तो लड़ ही रही थी कि एक दिन पूंजीवादी चरित्र का एक और खतरा उसके बपई की तरफ से आ गया जिसमें वह बुरी तरह से उलझ गई...
अब क्या होगा? कैसे लड़ेगी वह बपई से? बपई ने तो एक ठीकेदार से उसे बेचने का राजीनामा कर लिया है। जैसे वह कोई सामान हो, धान, चावल, गेहूं, गाय गोरू की तरह। वह बिक जायेगी पर उसके बपई को नहीं मालूम कि लछमिनिया बिकने वाली सामान नहीं, वह कोई कमोडिटी नहीं है, जिसे बेच दिया जाये। वह उस खतरे से भी लड़ती है और सफल होती है। ठीकेदार की कार दिन दहाड़े जला दी जाती है, लछमिनिया का बपई भी उस दिन गॉव में होता तो मारा जाता, गॉव की स्वस्फूर्त उŸोजना में उसकी जान चली जाती, ठीकेदार जान बचाकर भागा नहीं तो जाने क्या होता, ठीकेदार की अकूत संपदा उसे जीवन दान तो नहीं दे सकती थी। सो अगर वह गॉव से भागा न होता तो मारा जाता। लछमिनिया को क्या पता कि उसका बपई भी उसके लिए खतरा बन जायेगा और उसका सौदा ठीकेदार से कर लेगा। लछमिनिया का बपई हालांकि था तो आदिवासी ही जो सामान्यतया बाजारू नहीं हुआ करते वह ठीकेदार के प्रलोभन में बाजारू बन गया और अपनी बिटिया का ही बेचने के लिए राजीनामा कर लिया। उसे ठीकेदार ने सपना दिखाया था कि उसे वह अपने क्रशर का पार्टनर बना देगा जहां वह मजूरी करता था। पार्टनर बन जाने की लालच ने लछमिनिया के बपई को बाजरू बना दिया और उसने अपनी बिटिया को बेच देने का राजीनामा ठेकेदार से कर लिया। तो खतरे ऐसे होते हैं, खतरे मॉ, बाप, भाई, बहन, बहनोई, मामा किसी के भी जरिए आ सकते हैं। बपई की तरफ का खतरा लछमिनिया के लिए पूंजी के खेल वाला था, कौन है जो धन दौलत वाला नहीं बनना चाहता। पर लछमिनिया तो स्थितिप्रज्ञ होकर बपई की कुटिल योजना से टकरा जाती है। ठीकेदार भाग जाता है, उसकी कार जला दी जाती है। लछमिनिया के गॉव के लिए ही नहीं थाने के लिए भी यह घटना करवट बदल लेती है। थानेदार व ठीकेदार आदि तो वैसे भी पूंजीतंत्र के रिश्तों में बंधे होते हैं। स्थानीय थाने का दारोगा जो पदेन अर्थपिपाशु था उसे ठीकेदार की पूंजी ने मोह लिया फिर तो दारोगा ने ठीकेदार की कार जलाने और गॉव में झगड़ा फसाद करने के जुर्म में गॉव के कुछ अन्य युवाओं के साथ लछमिमिया के पति को गिरफ्तार कर लिया। लछमिनिया जानती थी कि दारोगा कि यही सीमा है, उसके पति को गिरफ्तर करने के अलावा वह कर भी क्या सकता है पर दारोगा को नहीं पता कि लछमिनिया का गॉव का जन मन क्या कर सकता है?
लछमिनिया व उसके पति को को पूरा गॉव भली भांति जानता है। गॉव के लड़के उन दोनों के लिए मरमिटने के लिए तैयार रहते हैं। लड़कों को बुरा लगा कि लछमिनिया के बपई ने लछमिनिया को बेचने का ठीकेदार से राजीनामा कर लिया है सो गॉव के नौजवान लड़कों ने गुस्से में आकर स्वस्फूर्त ढंग से ठीकेदार की कार जला दिया और उसी दिन थाना भी घेर लिया। उन्हें नहीं पता था कि थाना घेरना अन्याय के खिलाफ विरोध प्रदर्शन है या और कुछ। दारोगा थाना घिरा देख कर सहम गया उसके पास घेराव का दमन करने के तरीके नहीं थे, वह मजबूर था, अदालत ने लछमिनिया के पति की गिरफ्तारी के बारे में थाने से रिपोर्ट भी मॉग लिया था। लक्षमिनिया के पति की मॉ से जंगल विभाग के रेंजर की करीबी पहचान थी। रेंजर कानूनी दॉव पेंचों के अनुसार लछमिनिया के पति को गिरफ्तार होते ही अदालत चला गया था। अदालत ने थाने से रिपोर्ट मॉग लिया था। गॉव से गवाह भी नहीं मिलते। सो थानेदार ने लछमिनिया के पति को थाने से ही छोड़ दिया, कौन बवाल में पड़े, अदालत किसी को नहीं छोड़ती। तो यही कहानी है ‘ढूह वाली लछमिनिया’ उपन्यास की। इस कहानी में लछमिनियिा की जिन्दगी से जुड़ी चुनौतियां है तो गॉव जवार से जुड़ी चुनौतियां भी हैं। लछमिनिया जंगली गॉव की रहने वाली है जंगल के गॉव यानि कई बार के विस्थापन के शिकार गॉव। लछमिनिया का गॉव भी कई बार के विस्थापन के बाद बसा है पर उसे हाल ही में उजाड़ा जाना है, नोटिसें दी जा चुकी हैं। उपन्यास इसी आखिरी बार के विस्थापन के लिए दी जा चुकी नोटिस एवं विस्थापन कार्यवाहियों के विरोध के स्तर पर समाप्त हो जाता है।
होता यह है कि जिस कंपनी को लछमिनिया के गॉव की जमीन सरकार द्वारा आवंटित किया गया है उक्त कंपनी आवंटित जमीन पर कब्जा लेना चाहती है दूसरी तरफ गॉव वाले हैं कि वे किसी भी हाल में उजड़ना नहीं चाहते सो वे प्रतिकार में उठ खड़े होते हैं। जैसा कि मालूम है कि सरकार और प्रशासन तो एक रेखीय दमनात्मक सŸाा प्रबंधन पर पुलिस बल के सहयोग से चलने का अभ्यासी हुआ करती है सो वहां पुलिस बल दमन पर उतर जाता है... फिर वही हजारों साल की पुलिस परंपरा, मारपीट, यातना, दमन और गिरफ्तारियां.... गॉव के नौजवानों के साथ गॉव की कुदरती नेत्री लक्षमिनिया को गिरफ्तार कर लिया जाता है, वह पाथरटोला वालों के साथ जेल चली जाती है.... वह निश्चिंत है.
‘का फरक है जेहल अउर ईहां में? ईहां से तो जेलवय ठीक है, न मार का डर, न चोरी चमारी का डर, खाओ अउर सूतो’
लछमिनिया पाथर टोला गॉव के सर्वतोमुखी विकास के लिए एक नायिका की भूमिका निभाती है जो भीखू काका की जमीन में बोई धान की फसल को दबंग शंकर गवहां व उनके पुत्रों को ले जाने से रोकवा देती है। गॉव में होने वाली अर्थहीन रैलियों का प्रतिरोध करती है और प्रतिशोध में फसाये गये अपने प्रेमी/पति को थाने का घेराव करके छुड़वा लेती है। इतना ही नहीं वह खुद को भी अपने बाप के साजिशों से बचा ले जाती है। इतना ही नहीं वह अपने गॉव के विस्थापन के प्रतिरोध में गॉव वालों के साथ जेल जाती है।
उपन्यास में आये शब्द चित्रों को देखें...
‘चरिŸार लड़कियों को जानता है, यदि मजबूरी न हो तो वे किसी को भी सभ्य बनाकर ऐसा संस्कारित कर दें कि वे जीवन भर नाम न लें कि लड़कियां ऐसी होती हैं जिनकी देह पर बाजार का अर्थ लिखा जा सकता है’
आखिर बाजार ने किसे नहीं छला है? अपसंस्कृति भी तो बाजार का ही एक खेल है। आज के जटिल समय में जंगल का आदिवासी विकास की धारा से कोसों दूर है। उनमें जनतांत्रिक प्रतिरोध की क्षमता का भी विकास नहीं हो पाया है। सोनभद्र जिले के आदिवासियों के विस्थापन पर केन्द्रित प्रस्तुत उपन्यास ‘ढूहवाली लछमिनिया’ गिरिवासियों के दुख दर्द का कालजयी दस्तावेज हैै। अपनी भाषा में उपन्यास के पात्र अपनी स्थितियों, परिस्थितियों का एहसास कराते हैं जिससे संवाद जीवंत हो जाता है। उपन्यास की भाषिक जीवंतता उल्लेखनीय है। अपेक्षा है कि प्रस्तुत उपन्यास पाठकांे का घ्यान आकर्षित करने में सफल होगा।
अन्त में उपन्यास में आये कुछ संवादों, प्रतिसंवादों का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा।
‘पर शंकर यादव अपने घर लौटने के बाद अपने में डूब गया.. ज़माना बदल गया है, जंगल जाग रहा है पहले वाला नहीं कि सोया हुआ था। सरकारें भी अब पहले वाली नहीं हैं, गरीब गुरबों की सरकार प्रदेश में काबिज है, गरीबों की सुरक्षा के बाबत कानून बन गये हैं। थाना हो या कचहरी अब कहीं भी गॉधी टोपी वाले नहीं दिखते, ठाकुर, बाभन जैसे ज़मीनदार अपनी गुफाओं में बैठे हैं, करंे भी तो क्या?’ पृ...20
‘चुप रह छोटकू, तूं बड़बड़ करता रहता है, तूं का जानेगा कायदा, कानून, अब तो पुलिस पेड़ों अउर झाड़ियों पर भी मुकदमा कर देती है’ पृ..21
‘समझेगा का? यही कि चिड़िया जाल में, जाल खींचो अउर पकड़ लो’ पृ..38
‘का खाली, का भरा, खाली ही ठीक है, पहिले मॉग भरो फिर पेट, आया था एक लंगूर’ पृ...47
‘देख महटर, हम तोहरे पर इलजाम नाहीं लगा रहे, खाली हम अपने को बचाय रहे हैं,नाहीं बचायेंगे तो...मन तो भर जायेगा जो खाली खाली है, पर मनवै तो नाहीं भरेगा नऽ, पेटवो तऽ भर जायेगा’ पृ...51
‘लछमिनिया ऐसी नदी नहीं जिसे बांधा जा सके या पुल ही बनाया जा सके’ पृ...57
‘गॉव में जबसे चिमनियां घुसी हैं, न जाने कितने किसिम के धुंआ भी घुसे हैं’ पृ..61
‘नींद में केवल नींद ही नहीं थी, उसमें पीड़ित लड़की थी, उसकी बेबस छटपटाहट थी,खूनी पंजे थे। लड़की छटपटा तथा चीख रही थी, चीखें निकलतीं जो कमरे की दीवारों, छाजन से टकराकर बिस्तरे पर भहरा जातीं, फिर पसीना पसीना हो जातीं। खूनी पंजे किसी उत्सव में डूबे हुए देह का मनोरम चूमते चाटते। पृ...76
‘संघरस तो मरदों का काम है, एमें जनाना का करेंगी? पृ...81
‘वैसे गॉवों में कागजों की पहुंच बहुत कम होती है, और कानून तो कागजों पर ही उछलता कूदता है।’ पृ...87
‘टोले मं जनतंत्र की आग धधक रही थी’ पृ..90
‘उस दौर के अधिकारी भी खूब थे, कानून की सजी संवरी जीभ वाले, पुलिस के पास तो बारूदी जुबान थी ही।’ पृ..92
‘बाल, बुतरू भी नौकरों से जनमवाते हैं का अइया?’ पृ..93
‘इस सभ्यता ने तो यही सिखाया है कि हर चीज बेचे जाने योग्य है।’ पृ..101
‘अरे! मरदवा तऽ सभै हरामी होते हैं।’ पृ...127
‘लछमिनिया तूं घूंघट काढ़कर घर में बैठी है, निकल बाहर, हल्ला कर, चिल्ला जोर जोर से, कोई तो सुनेगा, कोई तो चलेगा तेरे साथ’ पृ...136
‘भगाई को राजीनामा बोलता है, एके कानून बचायेगा, जा कानून के संगे खा, पी, अउर हग, मूत। रहेगा कहां रे! पृ...139
समीक्ष्य कृति... ढूह वाली लछमिनिया
रचनाकार.. रामनाथ शिवेन्द्र
पाठ...जुलाई...2017
ज्योतिपर्व मीडिया एण्ड पब्लिकेशन
99,ज्ञानखण्ड-3, इन्दिरा पुरम्
गजियाबाद-201012 मूल्य..299.00
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'''बदलते मानकों का आइना ‘अन्तर्गाथा’'''
[[File:Antargatha jpg.jpg|thumb|बदलते मानकों का आइना ‘अन्तर्गाथा’]]
अमरनाथ अजेय
सृष्टि में जैसे जैसे बदलाव हो रहे हैं वैसे ही मानव सभ्यता, संस्कृति व सामाजिक संरचना में भी दिनों दिन बदलाव होते दिख रहे हैं। मानव मूल्य व मान्यताएं तथा सिद्धान्त जो मानव निर्मित क्रियाकलाप हैं, वे भी सुविधाओं की परिधि में अपनी जमीन छोड़ कर भिन्न भिन्न आडबरों में रूपान्ताित होते जा रहे हैं।
श्री रामनाथ शिवेन्द्र का उपन्यास ‘अन्तर्गाथा’ कुछ इन्हीं विसंगतियों पर प्रहार करता हुआ कथा का आकार लेता है। आदमी, आदमी न होकर मात्र अपनी परर्छाइं हो गया है। प्रस्तुत उपन्यास में कथाकार, कवि, ठेकेदार, नेता जैसे कई चरित्रों का पोस्टमार्टम किया गया है। विमर्श की दृष्टि से स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, और बहुत से अन्य सभ्यतागत विमर्शों के साथ साथ मानव जीवन में घटित होने वाले बिडम्बनाओं का विश्लेषण किया गया है, जो कथित सभ्य समाज से अन्तर्गुम्भित हैं।
कथा प्रारंभ होती है प्रवासीनाथ जी से जो एक चर्चित उपन्यासकार एवं विश्वविद्यालय के प्रवक्ता है ंतथा सुशीला और अमरेन्दर से, जो उनके निर्देशन में शोध कार्य कर रहे हैं। प्रवासीनाथ सुशीला से नाटकीय ढंग से शारीरिक संबध बना लेते हैं, यही नहीं शारीरिक संबध बन जाने के बाद उन्हें लगता है कि सुशीला उनके प्रस्तावित उपन्यास की पाण्डुलिपि है। प्रवासीनाथ, सुशीला तथा अमरेन्दर के अलावा जो दूसरे चरित्र हैं उनमें एल.आर., कवि विलोचन, जगेशर, प्रधानाचार्या, बंगाली बाबू की बिटिया, जद्दो भाई, बाहुबली विधायक, सुशाीला के चाचा, सांसद तथा सुदर्शन जी आदि। इन्हीं चरित्रों के क्रियाकलापों के विवरणों व विश्लेषणों के द्वारा अन्तर्गाथा की औपन्यासिक जमीन तैयार की गई है। आई.ए.एस. के समकक्ष अधिकारी की बिटिया सुशीला इन्हीं चरित्रों के विभिन्न प्रसंगों पर केन्दित एक फिल्म भी बनाती है।
वैसे प्रवासीनाथ के लिए पप्पू चाय के बैठकबाज चरित्रों का कोई मतलब नहीं होता पर सुशीला उहीं चरित्रों का मूल्य स्थापित करने के लिए अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर देती है जो उपन्यास के केन्द्रीय विषय बन जाते हैं। प्रवासीनाथ के लिए वामपंथ या उसकी अवधारणाएं उतना महत्वपूर्ण नहीं हैं जितना कि एल.आर. तथा जगेशर के लिए हैं। जबकि जगेशर तो प्रवासीनाथ की वामधारा की चेतना से ही प्रभावित होकर चारू मजूमदार के संगठन के साथ जुड़ा था पर उस रास्ते के अन्तर्विरोधों से दुखी होकर बनारस लौट आया था। यही हाल एल.आर. का भी था। वामउग्रवाद के अन्तर्विरोधों का शिकार होने के बाद उसने भी संगठन छोड़ दिया था। जगेशर ने बनारस में दूध बेचने का रोजगार डाल लेने के बाद खुद पान की गोमटी खोल लिया था पर एल.आर. बिना काम के था, खालीपन मिटाने के लिए वामपंथी धारा की एक पत्रिका निकालता था। वह कामरेडों को दो खानों में बांटता था, चुनाव लड़ने वालों को मठी कामरेड मानता तथा चुनाव का विरोध करने वालों को हठी कामरेड। चरित्रों की विभिन्नताओं के कारण पप्पू चाय की दुकान के बैठकबाजों का जुड़ाव बना रहता है।
प्रवासीनाथ की लेखकीय काम के बाबत अपनी प्रस्थापनायें हैं,..तरीके हैं ...
‘‘प्रवासीनाथ थे कि बिना सुरा सुन्दरी के न कुछ लिख पाते थे न किसी का कोई काम करा पाते थे। वे इसे लिखने का रोग मानते थे। सुरा, सुन्दरी से बचने के लिए जिन लोगों ने कुछ न लिखने की कसम खा रखी है, उन्हें वे बहुत अच्छा मानते तथा खुद को बुरा।’’ अपने खास मित्रों से वे सगर्व कहते भी..
‘‘कल्पनाओं के सहारे शब्दों एवं संवेदनाओं से निरंतर सहवास करते रहने से लेखक का मनोरोगी हो जाना स्वाभाविक है’’
साहित्य जगत में प्रवासीनाथ का आतंक अमेरिकी तर्ज पर है, अपनी अपेक्षाओं की चीजों को हासिल कर लेना और दूसरों को देने के नाम पर ऑखें घुरेरना। उपन्यास में विभिन्न कथापात्रों के माध्यम से लेखकीय समाज की पड़ताल करते हुए राजनीतिक विचारधाराओं में व्याप्त विद्रूपताओं व बिडंबनाओं की समीक्षा अद्भुत हैं। अधिकांश पात्र एकल नहीं हैं, उनके साथ कोई न कोई महिला है..एल.आर. के साथ उसकी नर्स मित्र व बंगाली बाबू की बिटिया, कवि विलोचन के साथ एक कवियत्री, जद्दोभाई के साथ उनकी पत्नी हैं तो हनुमान भक्त पाण्डेय के साथ विदेशी लड़की, प्रवासीनाथ के साथ उनकी पत्नी पूसी हैं। प्रवासीनाथ तो प्रवासीनाथ हैं उनके साथ सुशीला भी जुड़ी हुई है। लहा, पटा कर किसी कवियत्री के कारण कवि विलोचन को कविसम्मेलनों में जहां केवल पांच सौ रुपये मिला करते थे तो महिला कवियत्री के साथ होने पर उन्हें पांच हजार मिलने लगे थे। प्रस्तुत उपन्यास वामपंथ में व्याप्त हताशा, निराशा और उसके कारण संगठन में उपजे भेदों, उपभेदों तथा विचारों में बदलते प्रतिमानों का आइना है। उपन्यास में एल.आर. एक ऐसा पात्र है जो वामपंथ त्याग कर समाजवादी हो जाता है, कारण होता है विश्वविद्यालय में होने वाले चुनाव के दौरान एक भाषण, उसे एक समाजवादी नेता संबोधित कर रहा था, एल.आर. कामरेडों के साथ उस नेता के लिए मंच के पास ही ‘गो बैक’, ‘गो बैक’ का नारा लगा रहा था..समाजवादी नेता ने सुन लिया कि कुछ कामरेड लड़के उसका विरोध कर रहे हैं, फिर तो उसने मंच से ललकारा...
‘‘कहां जाऊं गुरू? यहीं पैदा हुआ, यही पला, बढ़ा और पढ़ा लिखा। मेरी सभा का विरोध न करो, सभी को सुनना सीखो, रही लड़ने की बात तो एक एक करके आओ, फरिया लो।’’ फिर तो समाजवादी नेता मंच से डांक कर जमीन पर आ गया और एल.आर. को पकड़ लिया। समाजवादी नेता ने जांघिया छोड़ कर सारे कपड़े उतार दिये, एल.आर. सन्न और सुन्न.. समाजवादी नेता ने एल.आर. को जबरन मंच पर बिठा लिया और उसे आमंत्रित किया कि वह बोले.. विरोध बोल कर सामने करो, आड़े नहीं। इस घटना ने एल.आर. को बदल दिया और उसने सयुस की सदस्यता ले ली। उपन्यास की भाषा की बात करें तो पूरा उपन्यास काव्यमय है। एक तरफ प्रवासीनाथ हैं तो दूसरी तरफ उनका भाई ब्लाकप्रमुख है जो तीन दलितों को गोली मार देता है और बाद में तीन तिकड़म करके उसी पारटी के टिकट पर चुनाव लड़ कर विधायक बन जाता है। मुकदमे से प्रवासीनाथ प्रधानाचार्या से जुगाड़ लगा कर बरी हो जाते हैं. कथा कहन में बनारसी बोली का ठाठ अद्भुत है..
‘‘थाने गये थे का गुरू? का हुआ?/ होगा क्या, सौ रुपये में सौदा पटा/महिनवारी/ हॉ/बंबई जा रहे हो न?/नहीं, जाने का मन था पर अब नहीं जाऊंगा/ काहे?’’ कुछ वाक्य तो बहुत ही अर्थपूर्ण हैं..‘‘यार! यह धन पशु जद्दो भाई तो अन्तःमन से कामरेड है’/ ‘का गुरू कब से जेबा में गुड़ लेके चलय लगला?’ जेल और कचहरी तो मर्दों के लिए ही होती है’/‘हड़ताल, घेराव, प्रदर्शन तो पूंजीवाद के गुप्तांग हैं’’
बनारस में स्थित पप्पू चाय की दुकान की उपन्यास में केन्द्रीय भूमिका है। उपन्यास के सारे पात्र उस दुकान से गुंथे हुए हैं। वहां पर देश की संपूर्ण राजनीतिक गतिविधियों का पोस्टमार्टम होता रहता है, एक अजब तरह की अन्त हीन बहस, पर निर्णायक कभी नहीं। कभी तो देश में राजनीतिक रूप से वैसा ही होता जो पप्पू की दुकान में तय होता। दुकान में अमरेन्दर और सुशीला का प्रवासीनाथ द्वारा अपना उल्लू सीधा करने की बातें हों या बंगाली बाबू की बिटिया को लेकर बंबई भाग जाने की झूठी घटना हो जिस पर प्रवासीनाथ का संस्मरण छपा हो, सभी बातों को लेकर मुहल्ला गर्म हो जाता...उपन्यास में एक कथा चित्र है...
‘एक आदमी रिक्से पर कहीं जा रहा था, गंतव्य पर पहुचकर रिक्से से उतर गया, उसने रिक्से का किराया चुकता किया, रिक्से वाले को किराया कम लगा, उसने एतराज किया, बाकी किराया उसने मांगा। गोया झंझट बढ़ गई, रिक्से वाले ने सांस्कृतिक बयान दिया..
‘गरीब हंू, मार लीजिए, कोई दूसरा होता तो मारते क्या? यात्री ने उसे दुबारा झापड़ मारा, उसने भी सांस्कृतिक बयान दिया...साले! पन्द्रह साल से कुबेर (धन के देवता) को खोज रहा हूं, मिल जाता नऽ , रामकसम पटक पटक कर उसे मारता.. पर मिलता ही नहीं, मिलते तो गरीब हैं फिर किसे मारूं? इसी आशय की कविता थी कवि विलोचन की, गरीब, दलित नहीं मारा जायेगा फिर कौन मारा जायेगा? इसका समाधान न तो जनतंत्र में है और न तो तानाशाही में...क्या ऐसी कोई हुकूमत नहीं जिसमें उसका समाधान हो? एक सवाल...
जद्दो भाई व उनकी ठकुराइन की बातें देखें...
‘रहस्यमय ढंग से ठकुराइन टोंकती...अपने हिस्से का...
ठकुराइन व्यंग्य रूपक गढ़तीं.. कहां से कैसे आपका हिस्सा? आप कहते हैं हमारे देश में गरीबी है... लोग खाये बिना मर रहे हैं... उस पर आप का हिस्सा, यह हिस्सा क्या है?
जद्दो भाई बोलते... ‘‘यार ठकुराइन! तुम तो मार्क्स की बिटिया जैसी जान पड़ती हो, देखो, इस रूप को बनाये रखो, कहीं लेनिन या माओ का बेटा बन गई तो...यह तुम्हारा जद्दो आग में जल जायेगा।’’
नुक्कड़ नाटक के द्वारा हिन्दू मुस्लिम दंगा फैलाकर उसका चुनाव में चाहे राजनीतिक लाभ लेने की बात हो या इच्छाधारी प्रेत की बात हो जो सात समुन्दर पार एक सफेद महल में बसता हो इन कथाक्रमों को रूपकों के द्वारा समय की विसंगतियों पर प्रहार करने का तरीका रामनाथ शिवेन्द्र को एक अलग पहिचान देता है। दलित बस्ती जलाये जाने के विरोध में जद्दो भाई द्वारा किया जाने वाला प्रयास फिर उनकी गिरफ्तारी तथा उस विरोध के द्वारा पप्पू चाय की दुकान के बैठक बाजों को एक साथ जोड़ लेने का प्रसंग भी उपन्यास की गरिमा बढ़ाने वाला है। एल.आर.,जद्दो भाई तथा जगेशर के अनगढ़ चरित्रों का उपन्यास में बहुत ही आकर्षक संयोजन है, सुशीला की तरह। सुशीला है कि वह अपने लिए नहीं जीती, ऐसे चरित्रों को गढ़ने में उपन्यासकार की महारथ दिखती है।
सुशीला अपने गुरुभाई अमरेन्दर के साथ बंबई चली जाती है, उसका मधुर जुड़ाव एक नामी फिल्मी गीतकार से है। वहां वह एक फिल्म बनाती है जिसकी चर्चा जोरों पर है खासकर बनारस में कि वह फिल्म बनारस के अस्सी पर स्थित पप्पू चाय की दुकान के बैठकबाजों पर केन्द्रित है। अचानक एक दिन गीतकार को सुशीला पर सन्देह हो जाता है कि उसका संबध फिल्म के नौजवान प्रोड्यूसर से है, वह उसके कमरे में एक दिन देख भी लेता है। गीतकार तो गीतकार उसने आत्महत्या कर लिया। इसके बाद सुशीला के जीवन में आश्चर्यजनक बदलाव आ जाता है। वह बंबई की सारी संपŸिा अमरेन्दर के नाम से स्थानांतरित करके बनारस चली आती है। बनारस यानि उसके गांव का पड़ोसी शहर। वह उसी गांव में बसने और सामाजिक काम करने का संकल्प ले लेती है जिस गांव का नाम तक उसके पिता के.नाथ कभी किसी को नहीं बताया करते थे। यहां तक कि वे अपने बड़े भाई का नाम भी किसी का नहीं बताते थे। उन्हें दलित कहलाये जाने का डर बना रहता था जबकि सुशीला दलित होने के हीनताबोध के डर से बाहर है। सुशीला अपने पिता का विलोम थी, संभव है बढ़ती दलित चेतना के कारण ऐसा हुआ हो। उपन्यास में दलित चेतना के उत्कर्ष के प्रभावकारी विवरण हैं तो जन संघर्ष के भी हैं। कुल मिला कर उपन्यास में अमरेन्दर तथा सुशीला के प्रेम की शुचितापूर्ण गाथा है तो प्रवासीनाथ के वैयक्तिक प्रतिभा के छद्म के उत्कर्ष का भी। सुशीला द्वारा अपना जीवन गांव के विकास के लिए समर्पित कर देना तथा अपनी जड़ों की तरफ लौटना किसी चुनौती की तरह है जैसा कि अमूमन नहीं हुआ करता। गांव में उसे दलित जन ही नहीं सवर्ण भी प्यार करने लगते हैं वह अपने गांव में स्कूल तथा अस्पताल खुलवाती है तथा गांव से बाहर पढ़ने वाले छात्रों को स्कालरशिप भी देती है। अपनी कार्ययोजना को सुचारु रूप से चलाने के लिए वह जद्दो भाई, एल.आर. तथा बंगाली बाबू की बिटिया को भी जोड़ लेती है। उसके स्कूल के प्रबंधन को लेकर क्षेत्र के बाहुबली विधायक से भी उसे पंगा लेना पड़ता है। दरअसल बाहुबली नहीं चाहता कि सुशीला दलितों व सवर्णों को एक साथ जोड़ कर चले तथा विद्यालय चलाये। पर सुशीला तो सुशीला वह बाहुबली से पंगा ले ले लेती है। एक घटना के दौरान सुशीला के स्कूल के छात्र बाहुबली का विद्यालय परिसर में ही कुटम्मस कर देते हैं फिर तो पुलिस, सरकारी दमन। विधायक सŸाापक्ष का होता है पर सुशीला उससे नहीं डरती, वह तनेन खड़ी है। प्रशासन विद्यालय बन्द करा देता है, परिसर में पुलिस का पहरा लग जाता है सुशीला इस दौरान एस.पी. से भी भिड़ जाती है। मुकदमे का अन्तहीन सिलसिला पर हाई कोर्ट का आदेश सुशीला के पक्ष में आ जाता है, विद्यालय फिर से शुरू हो जाता है। मरने जीने की परवाह किये बगैर सुशीला ने बाहुबली के खिलाफ चुनाव लड़ने का निश्चय किया। सुशीला द्वारा बाहुबली के खिलाफ चुनाव लड़ने का निर्णय लेने के बाद उपन्यास समाप्त हो जाता है। आगे क्या हो सकता है? इसका निर्णय पाठकों पर शिवेन्द्र जी छोड़ देते हैं। ऐसा करना उपन्यासकार की लेखकीय कुशलता है। पाठक भी तो सोचें... आशा है शिवेन्द्र जी का प्रस्तुत उपन्यास भाषा, शैली तथा कथा के प्रस्तुतीकरण की काव्यात्मकता प्रभावित करेगी उनके अन्य उपन्यासों की तरह।
उपन्यास- अन्तर्गाथा
रचनाकार- रामनाथ शिवेन्द्र
प्रकाशक- नेहा प्रकाशन, (शिल्पायन)
उलधनपुर, नवीन शाहदरा दिल्ली, 110032
दूरभाष-9899486788
मूल्य..450.00
प्रकाशित......कथाक्रम जनवरी-मार्च 2017 पृ...99-101
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'''अनसुलझे सवालों की पड़ताल करता
उपन्यास ‘कनफेशन’'''
अमरनाथ ‘अजेय’
संबंधों के बीच न जाने कितने सवाल हैं, जो अब तक सुलझाए नहीं जा सके हैं, जिनसे टकराते हुए व्यक्ति की आत्मा चटक-चटक कर विदीर्ण हो रही है जिसके लिए कोई मरहम कारगर नहीं दीखता। संबंध चटकने की टकराहटें इतनी तेज होती हैं कि उसकी आवाजें संवेदनशील साहित्यकार के लिए सर्जना का विषय-वस्तु बन जाती हैं। कविता, कहानी, लेख, संस्मरण और उपन्यास की शक्ल मंे ढलकर देश, काल व समाज के लिए अमूल्य कृति बन जाती हैं। सामाजिक संरचना में भूमि, संपŸिा तथा नारी अस्मिता के सवाल प्रमुख रूप से मानवीय संबधों को चालित करतेे हैं। यह सच है कि नर, नारी के संबंधों की सुकुमार प्रवृŸिायॉ ही मानव सभ्यता को गतिशील करते हुए ऊॅचाई तक ले जाती हैं।
चर्चित लेखक रामनाथ शिवेन्द्र का उपन्यास ‘‘कनफेशन’’ नर, नारी के मानवीय संबंधों की विसंगतियों के धरातल पर बुना गया उनका नया उपन्यास है। नारी को उपभोग की वस्तु मान कर उसके साथ बनाए जाने वाले संबंधों की परिणति ‘एड्स’ जैसे रोग तक जा पहुॅचती है। यह कितना भयानक होता है इसका अनुमान किसे नहीं। आखिर देह व्यापार का मामला आज केी विकसित दुनिया क्यों नहीं खतम कर पा रही है अचरज होता है। देह को भी व्यापार की वस्तु बना दिया गया है। मन, तथा वुद्धि के बेचे जाने का तो बाजार ह हीै, दोनों बेचे जा रहे है बाजार में, दोनों के कानूनी तथा गैर कानूनी बाजार हैं। बिक दोनों रहे है तन भी मन भी।
देश के पूर्वोŸार मंे स्थित उ0प्र0 का सोनभद्र जिला पहाड़ी और आदिवासी बाहुल्य है। इन आदिवासियों के सुख-चैन मे सेंध लगाते हुए कल-कारखानंे इन्हें किसी लायक नहीं छोड़ रहे हैं। इनकी पुस्तैनी जल, जंगल और जमीन पर से इनके विस्थापन का दंश इनके अस्तित्व को समाप्त करता जा रहा है क्योंकि, इन्हें इनसे मिलता है, चिमनियों का काला धुआं, कारखानों से निकलता विषाक्त जल जिससे वे असमय ही मृत्यु के मुह मंे समा जा रहे हैं। प्रदूषण की मार सहते हुए ये आदिवासी आर्थिक तंगी का भी सामना कर रहे हैं। भुखमरी की समस्या के समाधान के लिए परदे के अन्दर-अन्दर इनकी बहन-बेटियां देह बेचकर अपने परिवार की भुखमरी की समस्या का समाधान कर रही हैं, जिसकी जानकारी प्रकाश मे आ रही है। शिवेन्द्र का उपन्यास ‘‘कनफेशन’’ देह-व्यापार और उससे उपजी विसंगतियों का विस्तृत पड़ताल करता हैं, जो कथानक व शिल्प के स्तर पर अपनी तरह का नया है। देह-व्यापार के दलदल में फंसे एड्स रोगियों की समस्या व उसके समाधान के लिए एक संस्था के माध्यम से एक युवती के सर्वेक्षण की रिपोर्ट अत्यंत रोचक व चौकाने वाली है।
एक एन.ज.ी.ओ. से जुड़ी शशि जिसकी उपन्यास में प्रमुख भूमिका है उसका पति खुद भी देह-कौतुक में फंसकर एड्स का मरीज हो गया है। वह अपनी पत्नी पर देह के विविध खेलों का प्रतिभागी होने के लिए घृणित दबाब डालता है जिसे वह निर्ममतापूर्वक ठुकरा देती है। और आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए एक संस्था में कार्य करने लगती है। शशि के अलावा उपन्यास में कई महिला पात्र हैं, जो अपने अस्तित्व के लिए जद्दोजहद करती हुई औपन्यासिक कृति ‘कन्फेशन’ की औपन्यासिक कथा की ताकत बनती हैं। आज जहां, सामाजिक समानता के लिए राजनीतिक क्षेत्र मंे स्त्री सशक्तिकरण पर विशेष बल दिया जा रहा है, वहीं साहित्य के क्षेत्र मंे भी स्त्री-विमर्श के नाम पर स्त्री पात्रों को कहानियों व उपन्यासों में भी इन्हें अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष करते हुए दिखाया जा रहा है। समीक्ष्य उपन्यास में पुरूष पात्रों की संख्या नगण्य है पहला पुरुष पात्र तो उपन्यासकार खुद है और दूसरा एक वी.डी.ओ. है कुछ जो दूसरे पुरुष पात्र हैं वे तो केवल पूरक हैं फिर भी उपन्यास नारी विषयक उपन्यासों से अलग है कथ्य, तथ्य तथा भाषा के स्तर पर।
रामनाथ ‘शिवेन्द’्र के उपन्यास ‘कनफेशन’ की स्त्री पात्र घर से बाहर निकलकर विभिन्न स्तर पर संघर्ष कर रहीं हैं। शशि के अतिरिक्त एक और पात्र है लाैंगी, जो घर के खाना- खर्चे का भार स्वयं अपने सिर पर उठाती है। उसका पिता बीमार हैं घर में कमाने वाला कोई नहीं है। पेट खर्ची के लिए उसकी अइया (मॉ) उसे देह व्यापार में झोंक देती हैं। एक दिन वह प्रधान से पैसे लेकर उसे उसके यहां भेजती हैं, जहां प्रधान उसकी देह नोचता खसोटता है। वह अपनी अइया से इसकी शिकायत करती है परन्तु अइया नहीं सुनती, उसे ही
भला बुरा कहती है। वह थाने भी जाती है पर थाना उसे ही रपट बना देता है। लौंगी प्रधान से प्रतिशोध लेने के लिए उसे, और फिर उसके बेटे को अपना एड्स रोग बांटने की कोशिश करती है। क्योंकि उसे एड्स है वह जानती है कि एड्स देह धरे का रोग है, देह संबंध से ही फैलता है। वह परधान को एड्स में फसा देती है। एक दिन परधान मर जाता है। ऐसा भी नहीं कि वह यह धंधा करते हुए विल्कुल ही संवेदनशून्य हो गई हो। स्त्री की स्वाभाविक संवेदना उसके भी अन्दर है। साथ ही शारीरिक करतब भी। तभीं तो बी. डी. ओ. जिसकी पत्नी मर चुकी है, उसके शारीरिक व संवेदनात्मक कौतुक पर वह आकर्षित है। यहां तक कि उसे एड्स है, यह जानकर भी। इसीलिए लाैंगी भी बी.डी.ओ. से सहवास के वक्त कंडोम लगवाना नहीं भूलती। वह तो कभी की उससे शादी कर चुकी होती, परन्तु लौंगी को अपनी जिम्मेवारियां अच्छी तरह याद हैं। घर की परवरिश उसे ही करनी है! साथ ही बी. डी. ओ. का भी ख्याल रखना है कि उसे एड्स न हो जाय। उस आदिवासी बाला से बी.डी.ओ. का भी प्रेम खूब कुलांचे भर रहा है। यहां तक कि लौंगी के बीमार हो जाने पर उसे अस्पताल मे भरती करवाना व उसकी रात-दिन तिमारदारी करना साथ ही दवा-दारू में पैसे की कमी न होने देने तक बी. डी.ओ. उसका ख्याल रखाता है। उपन्यास में एक और औरत है, थाने वाली महिला के नाम से, वह थाने पर अपने पति को छुड़वाने के लिए जाती है तो, थानेदार उसे ही अपने हबस का शिकार बना लेता है फिर तो थाने वाली महिला आग बन जाती है मानो जला देगी थाना। वह थाने पर ही हंगामा कर बैठती है। वह थानेदार के निलंबन तक संघर्ष करती है। थाने वाली महिला तो उपन्यासकार को भी नहीं छोड़ती फटकारती है, अपनी मौलिक शैली में....
‘‘तूं का लिखेगा मेरे बारे में? तूं भी तो मरद जाति का है, थूथुन वाला, कहते हैं, नाक न हो तो मैला खाने वाला, तूं का जानेगा मेहरारू के बारे में कि मेहरारू का होती हैं। मेहरारू को तूं जब जैसा चाहता है वैसा गढ़ देता है कभी देवी बनाता है तो जरूरत के हिसाब से रण्डी बना देता है। देवी बना कर माला फूल चढ़ता है, तो रण्डी बना कर जोंक की तरह चूसता है, देह को बिछौना बना देता है, खुश, हुआ तो खेत बना कर जोतने कोड़ने लगता है, बेंगा डाल देता है, खेत में जब बेंगा पड़ जाता है तो कुछ न कुछ जामेगा ही। जाम जाने के बाद दूसरा बेंगा डालने के लिए उसे फिर जोत भी देता है। देखना है तो दारोगा को देख कि वह का कर रहा? फिर दारोगा को भी तूं काहे देखेगा, खुद अपने को देख ले, तोहरे मुहें में मेहरारून के बारे में विषैला लार है कि जलता हुआ लोर है। पर तोहरे पास लोर कहां से होगा? लोर तो मेहरारून के पास होता है, जो उनके दिलों को लगातार हिलोरता रहता है।’ पृ..73
इन महिलाओं के अतिरिक्त एक अन्य महिला पात्र लाजवंती भी है, जो देह की सीढी से चढकर नौकरी तक की उंचाई प्राप्त कर लेती है और अपने पिता पर चढे कर्ज को उतार देती है। देह के धंधे सड़क के किनारे होटलों व ढाबों में निरन्तर हो रहे हैं, जिसकी जानकारी एक सामाजिक कार्यकर्ता शशि को एड्स के रोगियों से मिलने के दौरान होती है। इस उपन्यास के माध्यम से उपन्यासकार ने कुछ अपनी धारणाओं व प्रस्थापनाओं को भी उकेरा हैे।
क्या पत्नी का अधिकार अपने शरीर पर भी नहीं है? वर्ण, जाति व गोत्र की तरह स्त्री स्वातंत्र्य का भी सवाल अनुत्तरित है। उच्च पदाधिकारी जनता का व्यक्ति नहीं होता, वह जनता से एक निश्चित दूरी बना कर रहता है।’
सोनभद्र में पचासों चेकडैमों के नाम पर करोड़ों रुपयों का गमन किया गया, जो जांच के दौरान उजागर हुआ था, उपन्यासकार ने इसे उपन्यास में वर्णित कर उपन्यास का वजन बढाया है। उपन्यासकार ने एक उपन्यासकार के अस्तित्व-बोध पर भी सवाल खड़ा किया है कि वह अनुत्पादक कार्यों मे अपना जीवन खपा देता है। उसे हासिल कुछ भी नहीं होता। प्रकाशक तक उसकी उपेक्षा करते हैं पाठकों की तो बात ही अलग है। सेक्स जोन के गांवों मंे जिस परिवार में देह व्यापार से जितना अधिक धन-संग्रह होता है, उस परिवार की इज्जत गांव मंे उतनी ही बढ जाती है। देहव्यापार को मर्यादा से जोड़ना आखिर कैसा सन्देश देता है? सवाल है? प्राकृतिक आपदा के चलते जब कोई किसान खेत का मालगुजारी या पनिकर नहीं दे पाता, तो उस किसान को चौदह दिनों तक तहसील की हवालात मंे किस बात की सजा काटनी होती हैं? यह सवाल उभरा है लाजवंती के बहाने। लाजवंती अमीन की डर से तहसीलदार के पास जाती है फरियाद करने के लिए कि उसके बाप को गिरफ्तार न किया जाये। उसकी फरियाद सुन व गुन लेता है तहसीलदार। उसके बाप को तहसील की हवालात में नहीं जाना पड़ता। फरियाद सुनने के एवज में तहसीलदार लाजवंती की देह से खेलता है, यह बात और है कि उसे तहसील में नौकरी भी दिलवा देता है। पर ऐसा सभी के साथ तो होता नहीं वह
तो महज संयोग का खेल था कि लाजवंती को नौकरी मिल गई नही ंतो कुछ नहीं मिलता सिवाय अपमान के। ज्ञातव्य है कि सोनभद्र के गरीब, किसान कर्ज वसूली के संकट से लगातार गुजरते रहे हैं।
उपन्यास की भाषा भी खूब खूब है... देखें....
‘नेह अगर है तो, देह नहीं झूलती। मर्द के पास लार व स्त्री के पास लोर ही तो होता है। मर्द जब चाहे तब जिस पर चाहे लार टपका दे, और औरत दुखों मे सिर्फ आंसू ही बहाती रहे।’
‘मर्द और बर्द पर जवानी का जुआ रख दीजिए और जहां चाहे तहां ले चलिये।’ ‘अनब्याही बाला को यदि बच्चा पैदा हो जाता है, और जिसकी करनी से बच्चा पैदा हुआ हो, वह व्यक्ति बच्चा लेने से या उस औरत से शादी करने से इंकार करता हो तो मां को चाहिये कि,उस बच्चे को निःसंकोच पाल-पोष कर बड़ा करे और बाप से बदला लेने के लिए उसे तैयार करे। गर्भ में या पैदा होने पर बच्चे की हत्या न करे।’
उपन्यास में एक नारी पात्र है लौंगी जो सेकेन्ड सेक्स की ‘फुकुयामा’ की अवधारणा से अधिक स्वतंत्र व संघर्षशील है। पीत पत्रकारिता को भी लेखक ने एक पात्र के माध्यम से आड़े हाथों लिया है, जो पठनीय बन पड़ा है। प्रकाशकों द्वारा लेखकों को प्रताड़ित करने की बातें भी उपन्यास के माध्यम से कही गई है। लेखक स्वयं को भी नही छोड़ता है। वह कहता है कि,
‘जैसे थानेदार महिला से बलात्कार करता है ठीक उसी तरह से एक लेखक भी महिला को जहां चाहे तहां पटक देता है उपन्यास में। लेखक भी महिला को लेकर कम दोशी नहीं।’
उपन्यासकार का मानना है कि, जाति व योनि के दोनों कटघरे पूंजीमूल्यबोध का ही प्रचार करते हैं। स्त्री-स्वातंत्र्य के प्रसंग में लेखक ने स्वीकार किया है कि, काश! स्त्री और पुरुष के रिश्ते नदी और कहू (अर्जुन का पेड़) की तरह होते। नदी न तो पेड़ का गिराती है और न ही पेड़ नदी को क्षतिग्रस्त करता है, दोनों अर्न्तलयित होते हैं एक दूसरे में ।
एक मिथक का भी प्रयोग उपन्यासकार ने बखूबी से किया है। ‘‘हां, वहीं त्रिशंकु जिसे स्वर्ग के रक्षा-कर्मियों ने स्वर्ग में घुसने नही दिया। किसी तरह वह नर्क से बाहर निकला, फिर लटक गया, स्वर्ग ओर नर्क के बीच जिसके आंसुओं, खखारों और लारों से धरती पर कर्मनाशा नदी बह निकली, किसी शोक कविता की तरह।’’
प्रभावकारी भाषा, तथा कलात्मक शिल्प के द्वारा उपन्यासकार ज्वलंत सवालों पर अपनी राय देने में पीछे मुड़कर नहीं देखता। सोनभद्र में एक ओर भूख से कराहते व बिलबिलाते लोग हैं तो दूसरी ओर तिजोरियों से खेलते लोग। नोटों के बिस्तरेां पर धनी होने के धार्मिक अनुष्ठान करते हुए।’’ घृणित दर्जे की यह आर्थिक असमानता सोनभद्र में वाम उग्रवाद के फैलाव के कारणों में से है। शशि के पति की आत्महत्या वाली घटना पर एक आदिवासी बाला की स्वाभाविक साफ बयानी यहां देखने योग्य है.....
‘‘एड्स हो गया था तो क्या हो गया। यह तो पहले गुनना चाहिये था न ! फेर आत्महत्या से रोग खतम होगा का ?लौंगी को भी तो एड्स हुआ हैे। वह तो आत्महत्या नहीं कर रही। लड़ रही है समय से....शशि के पति को भी लड़ना चाहिये था रोग से...।’’
आदिवासियों की जमीनें जहां से वे विस्थापित कर दिये गये, वहां बड़े-बड़े कल-कारखानें बना दिये गये हैं। उन कल-कारखानों में भी इन आदिवासियों को रोजगार नहीं मुहैया कराया गया, जो बड़ी त्रासदी है। लेखक ने कारखानों की चमक -दमक की दुनियां की आड़ मंे फैल रहे देह-व्यापार के इस विष-बेल को, जो बड़े फलक वर व्याप्त है, को एक छोटे से उपन्यास में करीने से कहने का करिश्माई कार्य किया है। उपन्यास के सभी चरित्र जीवन के खुरदरे रपटों को सही- सही कनफेश करने मे कहीं से कोताही नहीं करते। किसी न किसी बहाने सभी पात्र कन्फेश करते हैं चाहे लौंगी हो, लाजवंती हो, या शशि का पति हो। उपन्यासकार भी कन्फेश करता है वह अंश यहां प्रस्तुत करना आवश्यक जान पड़ता है.... देखें उक्त अंश...
‘साला उपन्यासकार बनता है। एक दारू चुआने वाली आदिवासी महिला को पकड़ लिया उपन्यास में और उसे कप्तान तक पहुंचा दिया। अक्षरों की गाड़ी पर बिठा कर, दौड़ाने लगा किसी रेसर की तरह। इतना तेज किस्मत के भरोसे वाले किसी पात्र को दौड़ाया जा सकता है भला! वह भी उपन्यास में, फिल्म की बात दूसरी है, पात्रों को चाहे जितना दौड़ा दो, एक अदना सा हीरो आठ दस आदमियों को मार गिराता है। ऐसा तो केवल फिल्म में ही चलता है पर उपन्यास में... फिल्म की रील की तरह पन्नों को फड़फड़ना ठीक नहीं, संभल कर चलना होता है। उपन्यास में तो एक कदम भी गलत उठा तो शीलभंग होना निश्चित है। किसी लड़की का शीलभंग होने तथा उपन्यास के शीलभंग होने में धागे भर का भी अंतर नहीं.. लेखन की शुचिता भी तो कोई चीज होती है नऽ।’ पृ...63
शशि का पति जो, देह के कौतुकों में फंसकर अपना जीवन वरबाद कर चुका था, और जिसे वह त्याग ही चुकी थी, वह भी अन्त में मरने से पहले एक चिट्ठी छोड़ जाता है, जिसपर शशि कहती है कि....
‘‘वे दस दिन अस्पताल में पड़े रहे, ऐसा नहीं था कि, मैं उनकी सेवा न करती,... एक चिट्ठी छोड़ गये हैं हमारे नाम, चिट्ठी क्या है, मृत्यु-शैय्या पर पड़े आदमी का कनफेशन है। एक तरह से वह चिट्ठी मृत्यु का दस्तावेज है।’’ उपन्यास में पाठकीय आकर्षण है। अस्तु यह ‘कनफेशन’ उपन्यास अत्यंत पठनीय है।
समीक्ष्य उपन्यास
उपन्यास- ‘कनफेशन’ लेखक-रामनाथ ‘शिवेन्द्र
प्रकाशक----
मनीष पब्लिकेशन
471/10, ए ब्लाक, पार्ट-प्प्
सेनिया विहार, दिल्ली
मूूल्य- रु 650
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‘भूमि प्रबंधन पर जायज सवाल उठाता ‘पट्टा चरित’
पट्टा चरित
पट्टा चरित उपन्यास के बारे में कुछ कहना, न कहना दोनों बराबर है। उपन्यास खुद आपसे संवाद करेगा, संवाद ही नहीं प्रतिवाद भी करेगा तथा अपने सृजन के बारे में बाजिब बयान भी देगा तथा बताएगा कि मौजूदा शदी में भी इस उपन्यास की जरूरत क्या है? वैसे यह बता देना लेखकीय औचित्य है कि इसकी कथा आठवें दशक में ही उपन्यास का रूप धर कर ‘सहपुरवा’ उपन्यास के नाम से मेरे मित्रों के सहयोग से प्रकाशित हो चुकी थी। वह मेरा पहला औपन्यासिक प्रयास था। इसमें पात्रों के संवाद की भाषा हिन्दी तथा भोजपुरी बलिया, गोरखपुर, आजमगढ़, जौनपुर वाली नहीं थी बल्कि ठेठ बनारसी या बिजयगढ़िया थी। संवाद के अलावा सारा कुछ खड़ी बोली में था।
तो कथा पुरानी है आपात काल के आस पास की। सवाल है कि पुरानी कथा को फिर से क्यों? आठवें दशक से लेकर अब तक के गॉवों की जॉच पड़ताल कर लीजिए और एक झटके से आपात काल को फलांग कर इक्कीसवीं शताब्दी में घुस आइए फिर देखिए कि क्या गॉव बदल गये? गॉवों की संस्कृति बदल गई? और गॉव ऐसे हो गये कि बिना संकोच ‘अहा ग्राम्य’ कहा जा सके, हॉ गॉवों से पोखर गायब हो गये, पनघट गायब हो गये, आजादी मिलते ही किसिम किसिम के विस्थापित पैदा हो गये, कुछ कारखानों के निर्माण के कारण, कुछ सड़कांे, नहरों के निर्माण के कारण तो अधिकांश वन प्रबंधन की दादागिरी और वनअधिनियम की धारा 4 तथा 20 के कारण। तो गॉवों में अब जो निवसित हैं वे या तो विस्थापित हैं या ऐसे है जो शहर में कहीं खप नहीं सकते।
होमगार्ड से लेकर स्कूल के मास्टर तक, चपरासी से लेकर बड़े ओहदे तक का पदाधिकारी बना कर तन बल तथा वुष्द्वि बल वाले व्यक्ति को गॉवों से छीन लिया गया है, कोशिश की गई है और की जा रही है कि वे गॉव में रहने न पाये, उन्हें किसी भी तरह से सत्ता प्रबंधन से जोड़ लिया जाये। वही हुआ। आज के समय में गॉव में वही बचे हुए है जिनके पास जीवन जीने के लिए कहीं कोई ठौर नहीं तथा वे चौदह दिन की हवालात की योग्यता वाले हैं। इनसे गॉव तो नहीं बचेगा।
इस उपन्यास का केन्द्रीय विषय है भूमिहीन गरीबों को भूमि आवंटन। आपात काल
के दौरान कांग्रेस का यह प्रशंसनीय अभियान था जिसे बाद में किसी ने लागू
नहीं करवाया।अभियान तो ठीक था पर जो तत्कालीन सामंत थे उनके लिए यह अभियान महज राजनीतिक खेल था। प्रस्तुत उपन्यास में सवालों दर सवालों से गुंथी वही कहानी दुहराइ गई है कि आजादी के बाद कितनी आजादी मिली लोगों को, सन्दर्भ आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक या राजनीतिक किसी भी तरह का हो। एक भूमिहीन व्यक्ति गॉव में कैसे निवसे, किस तरह से रहे? रहे तो किस किस को सलाम करे यह सवाल जैसे पहले था वैसे आज भी है।
यह तो नहीं कहा जा सकता कि गॉव नहीं बदले, गॉव बदले हैं पर गरीबी का प्रतिशत जिन जिन क्षेत्रों में जैसे पहले था वैसे ही आज भी है। इसी लिए कहा जाना चाहिए कि गरीबी पूॅजीवादी सत्ता प्रबंधन का आर्थिक उत्पादन है और आज तो गरीबीे उत्पादन में वृद्धि हो चुकी है। आखिर किसे पड़ी जो जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी इस पर गुने जाहिर है कि गरीबी पूॅजीवादी सत्ता प्रबंधन की रहस्यमय आर्थिक प्रक्रिया है गरीबी रहेगी तभी तो अमीरी रहेगी। हॉ गरीबी की उग्र भूख गरीबों में पैदा न होने पाये इसके समाधान के लिए पूॅजीवादी सत्ता प्रबंधन सभी को भोजन का अधिकार, सभी को शिक्षा का अधिकार, सभी को बुनियादी आय तथा कुछ मामलों में सब्सिडी जैसी रियायतें प्रदान किया करती है जिससे सरकार की छवि लोकतांत्रिक बनी रह सके। पर इससे क्या होगा?
होगा तो तब जब यह पता लगाया जाये कि महज दस फीसदी लोग देश की समस्त कुदरती संपदा पर काबिज कैसे हैं, कौन कौन से कानून है जो उन्हें अमीर बनाते हैं। हमारे कानूनों में कहॉ कहॉ दरारे है जिनमें से इस कथा के रामभरोस जैसे लोग सभी की छाती पर कोदो दरकर उग जाया करते हैं जिनके दमन से फेकुआ, सुमिरनी, औतार, जोखू तथा बिफना को गॉव से भागने के लिए विवश होना पड़ता है। प्रस्तुत उपन्यास का यही आशय है कि हम पता लगा सकें कानूनी दरारों को जिनसे होेते हुए दमन हमारे ग्राम्य संस्कृति तथा जीवन को लील रहा है। चिमनियॉ चाहे जितनी उग जॉये पर गॉव की हरियाली तथा पनघट की मोहकता नहीं पैदा कर सकतीं। जीवन तो गॉवों में है क्योंकि वहॉ अनाज के दाने हैं, दानों पर मन के संगीत लिपे पुते हैं, उसे मन के राग संवारते हैं पोंछते है, बीनते हैं। आइए गॉव बचायें गॉव के लिए कुछ करें। आशा है प्रस्तुत उपन्यास पाठकों की कुदरती प्रतिक्रियाओं को हकदार बनेगा। इसी आशा में....
रावर्ट्सगंज,सोनभद्र 2019
रामनाथ शिवेंद्र के उपन्यास ‘‘पट्टा चरित‘‘ की समीक्षा
‘भूमि प्रबंधन पर जायज सवाल उठाता ‘पट्टा चरित’
अमरनाथ अजेय
भगत सिंह ने अपनी जेल डायरी में लिखा था कि, गोरे अंग्रेजों से भारत को आजादी तो मिल जाएगी परंतु अपने देश के काले अंग्रेजों से दलितों व शोषितो को आजादी कैसे मिलेगी, यह एक बड़ा प्रश्न है!
क्या आजादी मिलने के बाद मेहनतकश मजदूर अपनी आर्थिक हालत सुधार पाए ? क्या मजदूरों व दलितों पर एलीट वर्ग द्वारा हो रहे अत्याचार मे कोई कमी आई ? क्या सत्ता- प्रबंधन के थाने व उनकी पुलिस दलितों के पक्ष में कभी खड़ा होने की हिम्मत जुटा पाई ? क्या मजदूरों को उन्हे आवंटित पट्टो पर पुलिस उनका कब्जा दिला पाई ? ये तमाम ऐसे सवाल हैं जिनका लेखक रामनाथ शिवेंद्र का उपन्यास ‘‘पट्टा चरित ‘‘ पड़ताल करने का प्रयत्न करता है स यही नहीं इन तमाम विद्रूपताओं के समाधान के लिए भी रास्ता तैयार करता है स यह उपन्यास उनके शहपुरवा उपन्यास का संशोधित दूसरा संस्करण है जो देश में आपातकाल के दौरान ग्रामीण जीवन में घटी घटनाओं पर आधारित है स लेखक का मानना है कि आपातकाल ही नहीं उसके बाद 21 वीं शताब्दी तक में क्या गांव की संस्कृति में कोई बदलाव आया, गांव के पोखर गायब हो गए बगीचे नहीं रहे यहां तक की वही गांव में बचे हैं जो 14 दिन की हवालात की योग्यता वाले लोग हैं स इसीलिए कहा जाना चाहिए कि गरीबी पूंजीवादी सत्ता प्रबंधन का आर्थिक उत्पाद है स पूंजीवाद के लिए गरीबों का होना और गरीबों में गरीबी होना अत्यंत आवश्यक है स गांव की इस अपसंस्कृति के संरक्षण के लिए जितना कुछ अंग्रेजों ने किया आजादी के बाद भी वही कुछ हो रहा है।
ग्रामीण जीवन में अन्त्यजो पर सामंतों के अत्याचारके के विविध रूप देखे जाते हैं स खासतौर से इमरजेंसी कॉल में सरकारी महकमे और पुलिस गांव के प्रभावशाली और चालू जमींदारों के पक्ष में आकर गरीब कामगारों को अपनी आवाज उठाने पर उन्हें बिना वजह प्रताड़ित करने लगी स सहपुरवा के सामंत रामभरोस की निगाह जहां एक ओर गांव में आई नई दुल्हनों पर होती तो दूसरी ओर अपने आतंक से मजदूरों पर शासन करने की भी होती , जिसके चलते वे अपने लठैतो के बल पर घटनाओं को अंजाम देते रहते हैं स इन्हीं कारणों से गांव के चमारों को गांव से विस्थापित होना पड़ा स रामभरोस जिस मजदूर युवती को चाहते उसे अपने लठैतो के बल पर उठा ले जाते और अपने हवस का शिकार बना लेतेस जो कोई उनकी जी हजूरी नहीं करता उसके पट्टे वगैरह रद्द करवाने के लिए अपने प्रभाव का प्रयोग करते, जिससे मजदूरों में असंतोष भड़कता स सुमिरनी जैसी नवोढा को जब उसने दबोच लिया तो एक मजदूर ने इसका प्रतिरोध किया और उसके सतीत्व की रक्षा कीस इसी तरह फेकुआ के पट्टे की जमीन पर पंचायत भवन बनवाने के लिए मंत्री जी से उद्घाटन करवा कर रामभरोस ने कार्य शुरू करा दी स मजदूरों ने संगठित होकर पंचायत भवन के काम पर न जाने, एवं जोड़े गए कुछ ऊंचाई तक के दीवारों को ढहाने के लिए तैयारी कर ली,जो प्रसन्न कुमार जैसे गांव-गांव के एक युवक की प्रेरणा से हो सका।
प्रसन्न कुमार बाम उग्रवाद के प्रभाव में आकर एक अभियान के अंतर्गत मजदूरों को संगठित करता है स सन 67 के नक्सलबाड़ी आंदोलन का असर पश्चिम बंगाल से असम बिहार एवं उत्तर प्रदेश जैसे प्रदेशों में फैल गया था जिससे गांव गांव प्रसन्न कुमार जैसे युवक मजदूरों को उनके पट्टा की जमीनों पर कब्जा दिलाने का कार्य करने लगे थे स इस उपन्यास पट्टा चरित में ग्रामीण जीवन में सिसक रहे मानव मूल्यों के लिए व उसके प्रतिस्थापन के निमित्त एकता का महत्वपूर्ण सूत्र अपनाया गया है जिसे पकड़ कर विभिन्न देशों में त्वरित परिवर्तन की क्रांतियां हुई । कहा भी गया है कि भूख जब पेट से चढ़कर सिर पर सवार हो जाती है तब ऐसी क्रांतियां होती हैं । उपन्यास का केंद्रीय चरित्र प्रसन्न कुमार है जिस की चिंता खुद लेखक की चिंता है । उपन्यास में प्रसन्न कुमार कहता है- लोग देश बेचने के साथ-साथ दिमाग बेचने का काम आखिर क्यों कर रहे हैं , जबकि किसान अपना धान और गेहूं भी नहीं भेज पा रहा है । इसमें कोई न कोई तिलिस्म है जरूर !
फेकुआ के आवंटित पट्टे की जमीन में बोई गई फसल नाजायज ढंग से लावा ले जाने के बाद जब उस जमीन पर जबरन पंचायत भवन का निर्माण रामभरोस ने करवाना शुरू किया तो फेकुआ के उसे रोकने से संबंधित दरख्वास्त पर जिले के आला अफसरों ने चुप्पी साधे रखी तो गरीब ग्रामीणों को संगठित होकर उसके विरुद्ध कार्यवाही करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं बचता। आखिरकार ग्रामीणों ने पंचायत भवन ढहाकर मलबा नदी में फेंक दिया और जमीन पहले जैसी बना दिए । इस कार्रवाई के बाद पुलिस का जो तांडव गांव में हुआ उसका वर्णन लेखक ने इस प्रकार किया हैस
एक सिपाही घर में जाता दूसरा लाइन में खड़ा रहता उसके बाद फिर तीसरा जाता स सहपुरवा सिपाहियों के घर के अंदर जाने और बाहर निकलने का खेल बन गया था। उन्हें घर में जाने से कौन रोकता ऊपर का आदेश था, कितने ऊपर का था गांव के लोग क्या जाने!
उपन्यास की भाषा काव्यात्मक है । लालित्य गुणों से भरपूर प्रसाद गुण संपन्न है । काव्य में कहानी और कहानी में काव्य का समावेश लेखक की भाषा को प्रभावोत्पादक बनाती है । ‘‘बैलों को पगुरी करता देखकर फेकुआं का मन हरा हो गया । जैसे प्रकृति के हरेपन में उसका मन कै द हो गया हो । उसे तो समझ आ गया कि अबोलता बैलों को नहीं मारना - पीटना चाहिए ।क्या ऐसी समझ रामभरोस को भी आएगी? उनके सामने तो पूरा शहपुरवा अबोलता है फिर भी वे अबोलतो को सदा मारते पीटते रहते हैं। पर उन्हें कभी भी समझ नहीं आएगी कि अबोलो को नहीं मारना पीटना चाहिए।
‘‘ शोभनाथ पंडित को फेकुआ चमार सुरती बना कर देता है तो सोमनाथ फेकुआ की हथेली से सुरती उठा जीभ के नीचे दबा लिया जैसे वे छूत-अछूत की बदजात संस्कृति दबा रहे हैं चूस कर उसे फेंकने के लिए, पर यह तो छूत- अछूत की संस्कृति है स वह सुरती माफिक नहीं है कि वह जीभ के नीचे डाल दिया और चूस कर थूक दिया।
इस संदर्भ में निम्न वाक्य अत्यंत मौजू हैं - ‘‘कहीं थाना भी मेरी पीठ पर कुछ लिखने ना लगे , पता नहीं हम लोगों की का किस्मत है कि लोग हम लोगों की पीठ पर अपना गुस्सा लिखने लगते हैं ।अरे गुस्सा है तो पहाड़ों पर लिखो बादलों पर लिखो नदियों पर लिखो ,बादल पानी क्यों नहीं बरसा रहे, नदियां क्यों सूख जाया करती हैं यपर नहीं।
इसके अतिरिक्त कवि सम्मेलनों का प्रभाव मजदूरों के ऊपर क्या असर छोड़ता है ,की व्याख्या लेखक ने इस उपन्यास में किया है ।रामनाथ शिवेंद्र के इस उपन्यास में कहानी में उपन्यास और उपन्यास में कहानी पिरोने की कला है ,तो पाठ के शुरुआत में उसका शीर्षक भी काव्यात्मक पंक्तियों में आवद्ध करने का हुनर है। यानी यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह ‘‘पट्टा चरित ‘‘उपन्यास पढ़ते हुए पाठक को कहानी उपन्यास एवं काव्य यानी तीनों का रसास्वादन एवं पुण्य प्राप्त होता है। एक पाठ का शीर्षक देखिए- ‘‘जुबान काट दी जाए संप्रभुता छीन ली जाएं , फिर भी कथाएं नहीं मरती। आइए कथा के साथ चलें कुछ दूर ही सही पर चलें। परहित का पुण्य अर्जित करें ,पर पीड़ा में भागीदार बने । लेखक की ‘‘अपनी बात ‘‘ में उपन्यास का मंतव्य खुद उसकी बातों में देखें-
‘‘ प्रस्तुत उपन्यास का यही आशय है कि हम पता लगा सकें कानूनी दरारों को , जिन से होते हुए दमन हमारे ग्राम - संस्कृति तथा जीवन को लील रहा है । चिमनियां चाहे जितनी उग जाएं पर गांव की हरियाली तथा पनघट की महत्ता नहीं पैदा कर सकतीं।जीवन तो गांव में है क्योंकि वहां अनाज के दाने हैं दानों पर मन के संगीत लिखे हैं उसे मन के राग सवारते हैं। मारते हैं पोछते हैं ,बीनते हैं। आओ गांव बचावें, गांव के लिए कुछ करें । ‘‘ निश्चित ही पूरी मानव सभ्यता उत्पीड़नो की गाथाओं पर ही निर्मित की गई है । मालिकों के रूप में उत्पीड़ितों का संगठित गिरोह पूरी धरती पर है। धरती माता कांपती है उनसे।
शहपुरवा का संशोधित संस्करण इस ‘‘पट्टा चरित‘‘ के साथ लगभग 6 उपन्यास एवं कई कहानी संग्रह ,इतिहास, आलोचना एवं कविताओं की पुस्तकें लेखक की प्रकाशित हैं और चर्चित हैं । असुविधा पत्रिका का भी प्रकाशन अनवरत लेखक की जीवटता को प्रमाणित करता है। हमारे समझ से लेखक ने एक आंदोलन के तौर पर अपनी रचना धर्मिता में पीड़ित, शोषित, विस्थापित एवं असहायओं की आवाज पाठकों तक पहुंचने का कार्य किया है और आज भी निरंतर कठिन दिनों में भी लेखन से अपना गहरा संबंध बनाए रखा है।
मुझे पूरा विश्वास है कि उपन्यास ‘‘पट्टा चरित ‘‘ पाठकों पर अपना प्रभाव अवश्य छोड़ेगा ।
उपन्यास- पट्टा चरित
रामनाथ शिवेन्द्र
प्रकाशक-मनीष पब्लिकेशन,
441/10,ए ब्लाक, पार्ट-2
सोनिया बिहार, दिल्ली-110090
मोबाइल-9968762953 मूूल्य- रु 650.00
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धरती कथा उपन्यास
जरूरी सवाल तो पूछे ही जाएंगे
वीरेन्द्र सारंग
वरिष्ठ कथाकार रामनाथ शिवेंद्र का उपन्यास धरती कथा काल्पनिक तथ्यों पर आधारित नहीं है। शिवेंद्र सोनभद्र के हैं और भी वहां के समाज साहित्य से पूरी तरह परिचित है। वे राजनीति में दखल नहीं रखते लेकिन उसमें भी उनकी समझ सार्थक रूप से देखने को मिलती है। धरती कथा उपन्यास की कथा जिस घटना पर आधारित है वह दिल दहलाने वाली है। आज के लोकतंत्र में ऐसा नरसंहार जो जमीन से बेदखल करने के लिए किया जाए कई सवाल खड़ा करता है। इतना ही नहीं नरसहार बाकायदा योजनाबद्ध तरीके से किया गया है। 10 लोगों की हत्या कोई मामूली घटना नहीं है। वे 10 लोग कौन हैं? हां वे वही लोग हैं जो अपने उर्वर भूमि पर खेती करते हैं आज से नहीं बाप दादा के समय से। उन्हें पता ही नहीं कि वह जमीन तो किसी और की है। ऐसी स्थिति में विवाद होना तो तय है। उस नरसंहार की चर्चा पूरे भारत में विस्तारित हुई। घटना कहीं और की नहीं सोनभद्र जिले के किसी गांव की है। या वही जिला है जहां आदिवासी और छोटे किसान रहते हैं।
उपन्यास में जिस गांव की घटना है वह गांव काल्पनिक है बल्कि 100 फीसदी सही है। हल्दीघाटी गांव जंगल के बिल्कुल पास है और जिस भूमि पर विवाद है उस पर मुकदमा भी चल रहा है लेकिन कोई समाधान नहीं। आखिर हमारे किसान कब तक अदालत के चक्कर में अपना पेट काटते रहेंगे जमीन से बेदखल होने के डर से मानसिक पीड़ा झेलते रहेंगे । सोनभद्र जनपद को बतोर लेखक पड़ताल करें तो पता चलेगा की पूरे जनपद में विस्थापन का दर्द पसरा हुआ है वह भी एक कारण है उत्पीड़न और यातना का। चारों ओर गरीबी पसरी हुई है धरती कथा की कथा जमीन के अधिकार से शुरू होती है और वहीं पर खत्म भी हो जाती है आखिरकार जमीन का मालिक कौन है? और उस पर अधिकार किसका है? सवाल तो वैसे का वैसे ही और फिर नरसंहार उनका जो भोले-भाले किसान हैं जो खेत को उर्वर बनाते हैं अनाज उत्पादित करते हैं। लगता ही नहीं कि हम लोकतंत्र में जी रहे हैं ऐसा जान पड़ता है यह किसी राजतंत्र द्वारा हम किसान लोग कुचले गए हैं तभी तो खेतों में निर्दोष लोगों की इतनी लाशें अपने सवालों के साथ पसरी पड़ी है जो आज की सत्ता व्यवस्था पर हमें मुंह चिढाती हैं और कहती हैं कि लोकतंत्र में क्या किसान सिर्फ मरने के लिए बैठा होता है?
रामनाथ शिवेंद्र का या उपन्यास घटना को बखूबी समझता है और पूरी पड़ताल भी करता है। किसानों की भूमि किससे और कैसे कई हाथों में बिकते बिकते ऐसी जगह पहुंच जाती है जो दबंग है और जो छोटे किसानों को बेदखल करने के लिए बंदूके चलाता है मानो कोई किला फतह करने की योजना बनाई गई हो। ऐसा भी नहीं की आदिवासी किसान प्रतिरोध नहीं करते गोली के आगे हाथ का क्या विरोध? चीखना चिल्लाना क्या गोली से लड़ पाएगा ? अब जो मारे गए हैं उस पर राजनीति भी होगी। क्या यही लोकतंत्र है?
विपक्ष की एक नेत्री आती है संवेदना व्यक्त करते हुए सवाल खड़े करती है लेकिन सत्ता में बैठे लोग क्या कर रहे हैं? सवाल यह भी है कि कोई घटना बिना वजह क्यों घट जाती है? और जब घटना घट जाती है तब सरकार को स्थिति की गंभीरता का अंदाजा लग जाता है उसके पहले तमाम ऐसे मुकदमे जो वर्षों से तारीखें झेल रहे हैं लेकिन उधर किसी का ध्यान नहीं है। हर घटना के बाद योजनाएं बनेंगी, खडन्जे बिछे्गे मकान पक्का हो जाएगा और धीरे-धीरे सब ठीक-ठाक। फिर तब जमीन को नए ढंग से बंदोबस्ती का आदेश भी दिया जाएगा लेकिन कौन जानता है की यहां भी खेल होता है जो आदिवासी मारे गए जिन्होंने उस जमीन को उर्वर बनाया वह जमीन उन्हें नहीं मिलती उर्वर भूमि को उसे दे दी जाती है जो अधिकारियों को संतुष्ट करता है आदिवासी चुप नहीं बैठते वे उसके लिए भी आंदोलन करते हैं और पुलिस प्रशासन द्वारा मारे पीटे जाते हैं। किसान सवालों के ढेर पर खड़ा होकर सवाल करता है की लो काट लो मेरा पेट जितना भी चाहो, वह मुंह चिढ़ाता है सत्ता में बैठे लोगों या बड़े अधिकारियों को। आज भी किसान अपने अधिकार की लड़ाई पीढ़ी दर पीढ़ी लड़ रहा है आखिर कब तक?
उपन्यास इस सवाल पर भी रोशनी डालता है कि समस्याएं कब हल होंगी? किसान केवल सोनभद्र का ही नहीं पूरे देश का है वैसे सोनभद्र में लगभग 70 फीसदी मुकदमें भूमि विवाद के ही हैं। क्या जमीन सिर्फ तारीखे देखने के लिए उर्वर बनी है? यह कोई छोटी बात नहीं है। मुकदमे की तारीखें पूरे देश की समस्या है। आखिर हमें लोकतंत्र में समानता क्यों नहीं मिलती सवाल तो पूछे ही जाएंगे जो जरूरी होंगे। उपन्यास के पात्र सोनभद्र के धरती से जुड़े हुए लगते हैं और भाषा भी सोनभद्र की कुल मिलाकर धरती कथा की कथा जरूरी लगती है। यह उपन्यास बाकायदा पढ़ा जाना चाहिए इसलिए भी अति पिछड़े आदिवासी क्षेत्र सोनभद्र के कथाकार रामनाथ शिवेंद्र की दृष्टि व्यापक है।
मनीष पब्लिकेशन
प्रकाशक-मनीश पब्लिकेशन,
441/10,ए ब्लाक, पार्ट-2
सोनिया बिहार, दिल्ली-110090
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प्रथम संस्करण...2021
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धरती कथा
प्रस्तावना----
‘आखिर कब तक बन्द रहेंगे हम
आधुनिकता तथा उत्तर-आधुनिकता के
बाजार के कार्टूनों में?’
किसी आज्ञाकारी की तरह बोलने और न बोलने के बारे में हमें बाजार से पूछ लेना चाहिए क्योंकि हम बाजार में हैं और वही हमारी जिन्दिगियों का नियामक भी है। लेकिन छोड़िए यह तो उपन्यास है, उपन्यास नहीं बोलते इसे कौन नहीं जानता! उपन्यास तो वह सब भी नहीं कर सकते जिसे करने के लिए कुदरत खुली छूट देती है। इस खुली छूट के बाद भी उपन्यास अगर कुछ कर सकते तो प्रेमचन्द जी के उपन्यासों के सारे पात्रा आज गली गली, गॉव गॉव रोते चिचियाते नहीं मिलते अपनी दरिद्रता से पूरित अस्मिता के साथ इसी लिए आधुनिक तथा उत्तर-आधुनिक उपन्यासों के केन्द्र में वे अब नहीं हैं। प्रेमचन्द कालीन उपन्यासों के नायक तो तब के हैं जब हम गुलाम थे, आज हम गुलाम नहीं हैं सो नायक चुनने का तरीका भी हमारा बदल चुका है और अब हमारे नायक भी बाजार के उत्पाद जैसे हो गये हैं उन्हें कहीं भी देख सकते हैं, किसी भी गली में, किसी भी चौराहे पर, ललकारते हुए कि ‘अरे! भाई ‘हमसे का मतलब’। यह ‘हमसे का मतलब’ कोई निरर्थक एक वाक्य/मुहाविरा ही नहीं है, यह तो बहुत ही गहरे अर्थ-बोध वाला है, इसे खोलेंगे चाहें या इसका अर्थ निकालेंगे तो इस एक वाक्य में आपको राजनीति, समाजनीति, अर्थनीति, धर्मनीति सारा कुछ थोक में मिल जायेगा। तो इसी का प्रतिनिधित्व करने वाले हमारे जो नायक हैं वे उपन्यासों से, कविताओं से बाहर निकल कर सड़क पर खड़े हैं, रोजगार दफ्तर के सामने खड़े हैं, चुनाव लड़ने के लिए पर्चे खरीद रहे हैं, ऐसे ही तमाम तरह के काम कर रहे हैं साथ ही साथ सत्ता के जनोपयोगी होने तथा न होने के सवाल पर बहसें कर रहे हैं और उसके सामने, ठीक उसके सामने वह जो लड़की अगवा की जा रही है, वह जो आदमी बिला कसूर पीटा जा रहा है उसे केवल देख रहा है और मन के गहरे से बोल रहा है ‘हमसे का मतलब’, वस्तुतः वह कुछ भी नहीं बोल रहा और न प्रतिरोध में कुछ कर रहा। वह ‘हमसे का मतलब’ का मंत्रा अपने मन में बिठाये तुलसीदास की चौपाई ‘कोउ होय नृप हमैं का हानि’ का पाठ कर रहा है।
तो कहा जाना चाहिए कि आज हम पूरी तरह से किसी ‘पाठ’ में तब्दील हो चुके हैं और ‘हमसे का मतलब’ का पाठ कर रहे हैं। प्रस्तुत उपन्यास ‘धरती कथा’ के सारे के सारे पात्रा किसी ‘पाठ’ में तब्दील हो चुके हैं, केवल पात्रा ही नहीं इसकी घटनायें भी ‘पाठ’ की तरह ही उपन्यास में उपस्थित हैं। पर यह जो समय है वह सभी से संवाद करते हुए और फटकार भी रहा है अगर तुम घटना के साक्षी हो तो...देखो और समझने की कोशिश करो के घटनायें कैसे घटा करती हैं,’ कैसे अपना नायकत्व सिरज लिया करती हैं और घटना के पात्रा, घटना का मुख्य किरादार होते हुए भी घटना के घटित से बाहर कहीं दूर, बहुत दूर कूड़े की तरह फेंकाये हुए हैं, उनका नायकत्व उनसे छीन लिया गया है तो यह है नायकत्व का घटना में विलोपन और उसका घटना के घटितों द्वारा अधिग्रहण। तो आज के समय में यह जो ‘घटित’ है वह घटना तो है ही उस घटना का नायक भी है ऐसे में अब नायकों की क्या जरूरत? जरा गुनिए जरूरत है क्या?
जरूरत तो नहीं है, मैंने पूरा प्रयास किया कि इस उपन्यास में विशेष किस्म का कोई करिश्माई नायक रचूॅ पर ऐसा में न कर पाया, घटनायें जो खून आलूदा थीं वे लगातार मुझे घसीटती रहीं कभी मुझे बांयें की तरफ ले जातीं तो कभी दांये तरफ तो कभी आज के सत्ता-बाजार और उसके कौतुक की तरफ। आप तो जानते ही हैं कि सत्ता कौतुक में जो फस गया वह भी और जो रम गया वह भी उससे बाहर नहीं निकल पाते। धरती कथा का एक पात्रा सरवन ‘नायक’ की तमीज वाला था, वह करिश्मा जरूर करता पर उसकी हत्या कर दी गई। उसकी तथा उसके साथ नौ दूसरे नौजवानों की बर्बर हत्या ने उपन्यास के कथानक को पूरी तरह से बदल दिया जिसके लिए मैं सचेत नहीं था। सो सरवन के साथ पूरा होने वाला जो कथानक था वह बर्बर हत्या की घटना में खो कर रह गया। सरवन के बाद थोड़ी सी आश जगी थी कि ‘बबुआ’ कथानक में कुछ विशेष करेगा जो नये किस्म का होगा पर वह बेचारा तो बर्बर हत्या की जॉच-पड़ताल की माया-जाल में उलझ कर रह गया। वह साहस करके पुलिसिया कार्यवाहियों के जाले को फलांगने तथा अदालती अदब के संस्कारों से निजात पाने की कोशिशें करता, पर एक कदम भी आगे बढ़ कर कथानक को कुलीन न बना पाया। सो कथानक कैसे अद्भुत बन पाता जैसा कि कथानक का अद्भुत होना उपन्यास के लिए अनिवार्य हुआ करता है।
तो ऐसा ही है इस उपन्यास में आपको घटना के साथ ही अपनी संपूर्ण बौधिकता के साथ अलोचनात्मक होते हुए दो चार कदम आगे चलना होगा और आगे चलते चलते वह गॉव भी आपको मिलेगा जो उपन्यास का कवल कथानक ही नहीं उसका नायक भी है तो वहां पहुंच कर मुझे बताइएगा जरूर कि वह गॉव आपको कैसा लगा, आपके उत्तर की प्रतीक्षा में।
धरती कथा- कुछ नोट
2021 प्रउत्तर प्रदेश का सबसे पिछड़ा जनपद सोनभद्र कई मायनो में कुछ विशेष किस्म के लोगों को बहुत ही विकसित दिख सकता है और यहां की विशाल काय चिमनियां उनके दिल दिमाग को बसंती बना सकती हैं, वे पूंजी की मादकता में गोते लगा सकते हैं पर सभी के लिए ऐसा नहीं है खासतौर से उन लोगों के लिए जो सोनभद्र के रहने वाले हैं। पूरे जनपद में विस्थापन का दर्द पसरा हुआ है तो उत्पीड़न और यातना के घृणित परिणाम भी हर हर तरफ गरीबी के रूप में पसरे हुए हैं। प्रस्तुत उपन्यास धरती कथा धरती से जुड़े हुए कानूनों एवं उसके पक्षपाती प्रबंधन पर जलते हुए सवालो के परिप्रेक्ष्य मे एक औपन्यासिक रचाव है। जाहिर है कथा में यथार्थ के साथ कल्पना का विस्तार भी कथा की मांग के अनुरूप है। कथा जमीन से जुड़े मालिकाना अधिकार से शुरू होती है और और उसी पर जाकर खत्म हो जाती है। जमीन पर मालिकाना का अधिकार किसका? किस सीमा तक यह एक ऐसा सवाल बन जाता है जो खून खराबा कत्ल और बलबा तक जा पहुंचता हैं । जमीन कब्जा करने के लिए गांव में योजनाबद्ध तरीके से कुछ लोग आते हैं और 10 निरीह आदिवासियों की हत्या कर देते हैं। हल्दीघाटी नाम का एक गांव (बदला हुआ नाम) है जो जंगल का समीपवर्ती है और यहां पर दलित आदिवासी सैकड़ों साल से खेती किसानी करते हुए आबाद है। इसी गांव की जमीन का विवाद है कि यह जमीन किसकी? राजस्व अदालत में मुकदमा भी चल रहा है पर मुकदमे का कोई विधिक समाधान नहीं निकलता फलस्वरूप विवाद बना रह जाता है और यह विवाद कत्ल तक जा पहुंचता है। कथा यहां से प्रारंभ लेती है आजादी के 70,72 साल बाद गांव में एक एनजीओ वाला आता है और कहता है की यह जमीन उसकी है उसने इसका रजिस्टर्ड बैनामा करा लिया है। गांव वाले आदिवासी हैं प्रताड़ित है दमित है तथा विस्थापित है। वे कहते हैं की यह जमीन उनकी है। राजा बड़हर ने उन्हें दान में दिया है तब वे यहां के राजा थे अब नहीं है। उक्त एनजीओ वाला उस जमीन को एक ऐसे आदमी को बेच देता है जो स्थानीय है तथा शासन प्रशासन में पर्याप्त दखल रखता है। वही आदमी अपने सैकडो सहयोगियों के साथ मौके पर जमीन कब्जाने के लिए बंदूके चलाता है मारपीट करता है आदिवासी भी प्रतिरोध करते हैं और वे मारे जाते हैं फिर शुरू होता है शासन-प्रशासन का खेल जो मुआवजा तक पहुंचता है। पोस्टमार्टम से लेकर मुआवजा देने तक सारा प्रकरण किसी खेल की तरह दिखता है । विपक्ष की एक बडी नेत्री का भी उस गांव में आगमन होता है उसके तरफ से भी आदिवासियों को मुआवजा दिया जाता है। गांव के विकास के लिए कई तरह की योजनाएं लागू कर दी जाती है सब देखते देखते होने लगता है एक तरह से गांव में 10 आदिवासियों की हत्या कर दिए जाने के बाद प्रशासन की मदद से स्वर्ग उतर आता है गलियां खड़ंजा मय हो जाती है, दमितों के कच्चे मकान पक्के बन जाते हैं, गली गली खाद्यान्न बटता हुआ दिखाई देने लगता है गोया सब कुछ ठीक-ठाक होने लगता है असंभव संभव बन जाता है पर यह सब होता है 10 आदिवासियों की हत्या के बाद । विडंबना यही यही कथा का मुख्य विषय भी है। सबसे महत्वपूर्ण अंश कथा का यह है कि पूरे गांव की जमीन को नए ढंग से बंदोबस्ती के लिए आदेश दे दिया जाता है और पुरानी बंदोबस्ती को निरस्त कर दिया जाता है नए तरह से बंदोबस्ती शुरू हो जाती है।
बहुत कम समय में जमीन की बंदोबस्ती कर भी दी जाती है। कथा का असली मकसद यहां से शुरू होता है इस बंदोबस्ती मे मारे गए आदिवासियों को वह जमीन नहीं मिलती जिसके लिए बलवा हुआ था बल्कि वह जमीन दे दी जाती है जिस जमीन से उनका कभी भी कोई नाता नहीं था जो अच्छी जमीन थी जोत कोड वाली थी जिस पर वे खेती करते थे। जाहिर है प्रताड़ित इस नई बंदोबस्ती को क्यों मानते वे आंदोलन रत हो जाते हैं और कचहरी पर धरना प्रदर्शन करते और उन्हें वही मारा पीटा जाता है तथा गिरफ्तार कर लिया जाता है। इसी दौरान कोरोना की घोषणा ह़ो जाती है और लॉकडाउन हो जाता है आंदोलन करने वाले आदिवासियों को गिरफ्तार कर लिए जाने के तत्काल बाघ कुछ ही घंटे बाद ही शासन के आदेश पर उन्हें मुक्त भी कर दिया जाता है। खेल यहां से शुरू होता है और कोरोना के बहाने पूरे गांव को सील कर दिया जाता है आदिवासियों की मांग थी कि हमें वही जमीन बंदोबस्त की जाए जिस जमीन पर हमारा पुश्तैनी कब्जा दखल चलता आ रहा है। किसे नहीं मालूम कि प्रशासन प्रशासन होता है किसी ने किसी बहाने शासन को भी ठेंगा दिखा देता है। वही हुआ हल्दीघाटी गांव में भी, बंदोबस्ती में लेन देन का खेल चला और उर्वरक जमीन उन्हें दे दी गई जिन्होंने प्रशासन की सेवा की। धरती कथा उपन्यास की कथा ही कथा का नायक है और घटना भी। औपन्यासिक रचाव के लिए कुछ पात्रों का होना जरूरी है वे पात्र भी सरवन बबुआ खेलावन सुमेरन के नाम से है तथा सुगनी बिफनी जैसी नारी पात्र भी है। वेअनुरोध करती हैं तो प्रतिरोध भी। उपन्यास खत्म हो जाता है उस बिंदु पर जब आदिवासी नई बंदोबस्ती का विरोध करते हैं और प्रतिरोध में खड़े हो जाते हैं उपन्यास में हल नहीं निकलता की आदिवासियों को अपने प्रतिरोध में क्या मिला इसे पाठकों के हवाले छोड़ दिया गया है तथा बताने का प्रयास किया गया है यह जो भूमि प्रबंधन है कितना प्रपंच भरा है। धरती प्रबंधन का जो खेल है वह पूरे सोनभद्र को परेशान किए हुए आज कचहरी में लगभग 70 प्रतिशत मुकदमे भूमि विवाद के हैं इनका त्वरित ढंग से निस्तारण नहीं हो पा रहा है केवल तारीखें पडती रहती है मुकदमे में। जमीन का मामला भी मुकदमे में जाकर अटका हुआ है भले ही नई बंदोबस्ती कर दी गई है फिर भी कथा का दर्द यही है इसीलिए यह कथा भी । सबसे मजेदार बात यह है कि यह सब तमाशा धरती भाई देख रही है और सुन रही है और पृथ्वी से स्वर्ग लोक जाने की तैयारी में है। अब नहीं रहना पृथ्वी पर पृथ्वी पुत्रों के साथ।
पहला अंश----
‘पैर तो जमीन पर ही चलेंगे!
चलिए, चलते हैं कुछ दूर धरती कथा के साथ...’
‘गॉव के दस लोगों के मारे जाने के बाद गॉव खामोश हो गया है, कोई नहीं रह गया है गॉव में, सभी लाशों के पास मुह बाये खड़े हैं। क्या छोटे क्या बड़े क्या औरत क्या मर्द, सभी खामोश और चकित हैं। खामोश तो धरती-माई भी हैं आखिर क्या हो गया गॉव में? क्या ऐसा ही समय देखने के लिए वे उतरीं थी धरती पर, यह समय का हेर-फेर है, कोई क्रीड़ा-कौतुक है, क्या है यह आखिर? धरती-माई अपना माथा पकड़ कर चिन्तन की दुनिया में चली जाती हैं...चिन्तन की दुनिया में तो अन्धेरा है, सन्नाटा है, चित्त कहीं और धक्के खा रहा है तो चेतना किसी गटर में बज-बजा रही है। वे भावुकता के परतीय क्षेत्रा की तरफ लौटती हैं फिर तो उनकी ऑखें भर भर जाती हैं...उन्हें कुछ साफ साफ नहीं दिख रहा, वे ऑचल से ऑखें पोंछती हैं फिर भी...ऑखों से लोर बह जाने के बाद अचानक उनकी ऑखों में हिलोरें उठ जाती हैं हर तरफ खून ही खून, वे कॉप जाती हैं... वे तो धरती पर अवतरित हुईं थीं धरती को हरा-भरा बनाने के लिए, पेड़-पौधे उगवाने के लिए, अन्न उपजवाने के लिए, भूख और भोजन की दूरी पाटने कि लिए पर यहां तो खून हो रहा है, कतल हो रहा है, सभ्यता का यह कैसा खेल है? धरती-माई गुम-सुम हो गयी हैं, आइए चलते हैं...धरती-कथा के साथ....’
इस धरती कथा के दो पुराने पात्र हैं, दोनों बूढ़े हैं सोमारू व बुझावन, वे पड़े हुए हैं अपनी खटिया पर। वे कराह रहे हैं, रो रहे हैं, चाह कर भी नहीं जा सकते घटना स्थल पर सो खुद पर रोते हुए अपने बाल-बुतरूओं को कोस रहे हैं सोमारू..
‘हम तऽ पहिलहीं से बोल रहे थे, छोड़ दो गॉव चलो कहीं दूसरी जगह चलें वहीं बस जायेंगे इहां का धरा है। मर मुकदमा जीन लड़ो पर नाहीं मुकदमा लड़ेंगे...’
बुझावन भी गुस्से में हैं...
‘हम जानते थे कि कउनो दिन कतल होगा हमरे गॉयें में। जमीन ओकर होती है जेकरे हाथ में लाठी होती है, ओकर नाहीं जो खाये बिना मर रहा है, जेकरे घरे में चूल्हा जलना मुहाल है।’
‘अब भोगो, दस लाल लील गई यह धरती। अउर जोतो जमीन, खेती करो, जेकरे पास जॉगर है वोके का कमी है, जहां पसीना बहाओ वहीं कुछ न कुछ मिलेगा। जाने कहां सब मरि गये कउनो देखाई नाहीं दे रहे हैं, अरे! हमहूॅ के ले चलो लालों के पास। उहां ले चलो जहां धरती माई ने खून पिया है हमरे लालों का, केतनी पियासी है यह धरती?’
पर वहां है कौन जो उन्हें लाशों की तरफ ले जायेगा। सभी तो लाशों के पास
हैं। जहां लाशें गिरी हैं। वह खेत दो किलोमीटर दूर है गॉव से, कई ढूह पार करो, ऊबड़, खाबड़ जमीन नापो तब पहुंचो वहां। वे तो खुद वहां जाने में समर्थ हैं नहीं, सो पड़े हुए हैं खटिया पर कराहते और सिसकते हुए नाहीं तऽ ओहीं जातेे।
खटिया पर बैठे हुए वे चिल्ला रहे हैं...
‘अरे हमहूं के ले चलो लालों के पास ओनकर मुहवा तऽ देख लें’ पर कोई नहीं सुन रहा उनकी, वहां है ही कौन?
सोमारू और बुझावन दोनों अपनी उमर जी चुके हैं। पिछले साल ही सोमारू को लकवा मार गया है और बुझावन को टी.बी. ने जकड़ लिया है। खॉसते रहते हैं हरदम, खॉसते खांसते बलगम निकल जाता है, पूरी बोरसी भर जाती है दिन-रात में। ऊ तो उनकी छोटकी पतोहिया है कि रोज बोरसी साफ कर दिया करती है और गोइठे की राख भर दिया करती है उसमें। उनका छोटका बेटवा बबुआ खूब खूब है वह बुझावन को खटिया पर छोड़ कर कमाने के लिए कहीं बाहर नहीं गया न कभी जायेगा। उनके दो लड़के तो चले गये हैं गुजरात, वहीं कहीं कारखाने में काम करते हैं। बुझावन कहते भी हैं मेरे छोटका लड़िकवा को देखो वह साक्षात सरवन कुमार है।
सोमारू और बुझावन दोनों जनों को नहीं पता है कि भयानक गोलीकाण्ड में का हुआ है, कौन कौन मरे हैं। दोनों शक कर रहे हैं अपने लड़कों के बारे में। सोमारू तो मान कर चल रहे हैं कि उनका सरवन ही मारा गया होगा, बहुत बोलाक है, दतुइन-कुल्ला कर सीधे भागा था खेत की तरफ। वे पूछते रह गये थे उससे..
‘कहां जाय रहे हो सबेरे सबेरे, पर नहीं बताया था कुछ भी और दौड़ पड़ा था खेत की तरफ।’
बुझावन अपनी कहानी लेकर बैठे हुए थे। उनका छोटका लड़का ही तो मुकदमा लड़ रहा था सरवन के साथ, वही दोनों गॉव को गोलबन्द किए हुए थे। उन्हें निशाने पर लिया होगा हत्यारों ने।’
कई बार बुझावन ने उसे रोका था ....
‘देखो मर मुकदमा के चक्कर में जीन पड़ो, गरीब आदमी मुकदमा नाहीं लड़ते, ई जो नियाव है नऽ वह गरीबों के लिए नाहीं होता है। गरीब आदमी का तो एक्कै काम है बड़े लोगों को सलाम करना अउर उनकी सेवा-टहल करना। पर नाहीं माना, बोलता है कि अब कउनो राजा कऽ राज है, अब तो ‘लोकतंतर’ है। हमहू आदमी हैं सो काहे डरंे केहू से, हम मुकदमा लड़ेंगे अउर हाई कोरट तक लड़ेंगे।’
अचानक बुझावन पूरी तरह से उतर गयेे गॉव की गाथा में। उन्हें याद आने लगे हैं उनके बपई। जो गोड़ बिरादरी के चौधरी थे, बहुत ही रोब-दाब था उनका। क्या मजाल था कि उनकी बिरादरी का कोई आदमी उनका हुकुम टाल दे। गॉव-घर में गलती-सलती करने पर जाने कितनों को पेड़ से बंधवा कर मारा करतेे थे पर थे सही आदमी। नियाव के लिए कुछ भी कर जाते थे, डरते तो किसी से नहीं थे चाहे मैदान का राजा उनके सामने आ जाये या जंगल का राजा शेर, भिड़ जाते थे दोनों से।’
गॉव के खातिर वे भिड़ गये थे बड़हर महाराज से। याद आ रहा है सारा कुछ बुझावन को। बड़हर रियासत का मनीजर गॉव में आया था घोड़े पर सवार हो कर ‘खरवन’ वसूलने। उससे भिड़ गये थे बुझावन के बपई...
‘ई का हो रहा है साहेब? का वसूल रहे हैं, हम लोग एक छटांग भी नाहीं देंगे ‘खरवन’ में, ई गॉव हमलोगों को महाराज ने माफी में दिया है फेर काहे का खरवन दें हमलोग।’
तूॅ तूॅ मैं मैं होने लगी थी। बिरादरी के सभी छोटे बड़े गोलबन्द हो गये थे, का करते मनीजर भाग चले रियासत की ओर।
बुझावन को याद है कि ‘जब जब तक बड़का महाराज थे उनके बाद छोटका महाराज राजा बनेे उनके जमाने में भी गॉव से एक छदाम भी ‘खरवन’ के नाम पर नाहीं गया था रियासत में। फेर बाद में जाने का हुआ के रियासत को ‘खरवन’ दिया जाने लगा। वही नेम चलता रहा बपई के जमाने तक। जो आज तक चल रहा है।’
‘ओ समय गॉये गॉये गॉधी बाबा का जोर था। हमरहूं गॉये में कंग्रेसी नेता-परेता आया-जाया करते थे। एक बार तो हमरे बिरादरी का भी नेता आया था हमरे गॉयें में जो म.प्र. के आदिवासी सटेट का राजा था। हमरे राजा साहेबओकरे संघे थे। वे लोग नारा लगवाया करते थे। संघे संघे हमहूं लोग नारा लगाया करते थे...’
‘सुराज आयेगा सुराज आयेगा’ ‘जनता कऽ राज होगा, अब परजा ही राजा होगी, कोई रेयाया नहीं होगा।’
‘गॉधी बाबा की जय’ अउर न जाने का का नारा लगाया करते थे हमहूं लोग,लइकई कऽ बात है खियाल नाहीं पड़ि रहा कुलि नरवा।
एक दिन बड़हर राजा का करिन्दा हमरे गॉये आया उसके साथ कई आदमी थे। सारे आदमी ‘पटेवा’ लिए हुए थे। ‘पटेवा’ पर मिठाइयों की भरी ‘दौरी’ थी, करिन्दा गॉव वालों को बुला कर मिठाइयॉ बांटने लगा।
‘काहे मिठाइयॉ बाट रहे हो करिन्दा साहेब...’पूछा था बपई ने
‘नाहीं जानते का...?’
‘आजु हमार देश आजाद हो गया है, अंग्रेजवा भाग गये हैं, अब हमरे देश के लोगन की हुकूमत होयगी, आपन राज होगा, हमरे पर कोई जोर-जबर नाहीं करेगा।’
‘पहिले का था हो करिन्दा साहेब...?’ पूछा था गॉव वालों ने कारिन्दा से
‘पहिले गुलाम था नऽ हमार देश, हमलोगन पर हकूमत अंग्रेजों की थी’
‘कइसन गुलाम हो करिन्दा साहेब...?’
‘हमलोग तऽ कुछु नाहीं जानते, केके बोलते हैं गुलामी अउर के के बोलते हैं अजादी।’
करिन्दा साहब से पूछ बैठे नन्हकू काका, वे हमरे बपई के छोटका भाई थे। थे तो बहुत बातूनी अउर सवाल खूब पूछा करते थे। बाद में पता चला कि ननकू काका जानते ही नहीं थे कि गुलामी का होती है। ऊ जमनवो तऽ उहय था कोई पढ़ा लिखा था नाही गॉयें में, अब ससुर के जाने का होती है गुलामी अउर का होती है आजादी। ओ समय हम लोगन कऽ जिनगी राजा साहेब से शुरू होती थी अउर राजा साहेब पर जा कर खतम जाती थी। राजा साहब का हुकूम हमलोगन के सर-माथे पर हुआ करता था।
‘ओ दिना हमलोग जाने के हमार देश आजाद हो गया है। पहिले तऽ हमलोग जानते थे कि बड़हर राजा ही हमरे राजा हैं, हमलोगन के का मालूम के हमरे राजा भी अंग्रजों के गुलाम ही थे। अंग्रेज ही देश के राज-महाराजा थे।’
‘साल दुई साल गुजरा होगा कि गॉये गॉये हल्ला मच गया। ई जो खेत कियारी है नऽ, खेती बारी कऽ जमीन है नऽ, ऊ सब ओकर है जे एके जोतत होय... जेकर जमीन पर कब्जा होय, जोतै वाले के नामे से जमीन होय जायेगी, तब हमैं खियाल आया पहिले का एक नारा..
‘जे जमीन के जोतेय कोड़य ऊ जमीन कऽ मालिक होवै’
कंग्रेसी सरकार ने ई ऐलान कर दिया है, अब न कोई राजा रहेगा न परजा, सब बराबर होय गये हैं, सब कर जगह-जमीन पर बराबर कऽ हक है।’
‘ओ समय लोग कहते थे कि सब की रियासत टूट गई जमीनदारी टूट गई। अब जे खेत का जोतदार है उहै ओकर मालिक है, अब ‘लगान’, ‘खरवन’, ‘चौथा’ राजा को नाहींें देना पड़ेगा, कानून बनि गया है।’ हमरे बाप-दादा खबर सुन कर मस्त होय गये थे कि अब राजा के मनीजर को जो ‘खरवन’ दिया जाता है नाहीं देना पड़ेगा अउर साल में एक गाय अउर बछवा भी नाहीं देना पड़ेगा। खेती-बारी के समय माफी में दस दिन बिना मजूरी काम नाहीं करना पड़ेगा। बाद में जाने का हुआ के कागजों के हेर-फेर में एक दूसरे आदमी आ गये गॉयें में कहने लगे कि गॉव की सारी जमीन अब उनके नाम से हो गई है। कांग्रेसी सरकार ने उनकी संसथा के नाम से गॉये कऽ कुल जमीन कर दिया है, अउर संसथा को गरीबों आदिवासियों के विकास के लिए नई सरकार ने बनाया है। पूरा गॉव घबरा गया था सुन कर, आसमान से गिरे अउर खजूर पर लटकि गये। लो अब संसथा वाले आय गये! राजा साहब कउन खराब थे, ओनसे तो निभ गई थी अब एनसे कैसे निभेगी? अउर तब हम आजाद कहां हुए, हम तऽ रहि गये गुलाम के गुलाम।’
पूरा गॉव भागा भागा गया था महराज के ईहां, उहां हाजिरी लगाया...
‘ई का सुनाय रहा है महाराज! एक संसथा वाला आया था बोल रहा था कि हमहन कऽ गॉव ओकरे नामे से होय गया है अब ओके खरवन देना होगा, खेती करने के बदले। का बात है महाराज आप सही सही बतायें हुजूर।’
‘हॉ हो तूं लोग सही सुने हो, जमीनदारी टूट गई है नऽ, हमहूं अब राजा नाहीं रहि गये। हमरौ सब जमीन छिना गई है, जउने जमीनियन पर हमार जोत-कोड़ है यानि सीर है बस ओतनै हमरे नामे से रहेगी नाहीं तऽ बाकी सब सरकार ने छीन लिया है। ऊ ओकरे नामे से होय गई है जेकर जोत-कोड़ था ओ जमीनी पर।’
‘महाराज जोत-कोड़ तऽ हमलोगों का है फेर हमहन के जोत-कोड़ पर संसथा का नाम कैसे होय गया। ईहै तो समझ में नाहीं आय रहा है...’
महाराज खामोश हो गये, उनके पास कोई जबाब नहीं था। उन्हें खुद समझ में नहीं आ रहा था कि जमीनदारी तोड़ने की क्या प्रक्रिया है, वे लगातार अधिकारियों के संपर्क में थे ताकि जमीनदारी बचाई जा सके।’
महाराज ने अनुमान लगाया कि जमीनदारी टूटते समय ही संसथा वालों ने हेर-फेर करके संस्था का नाम चढ़वा लिया होगा। वैसे राजा ने भी संस्था वालों के नाम से कुछ बीघे जमीन का पट्टा संस्था वालों के पक्ष में पहले ही कर दिया था पर आदिवासियों की जमीनों को छोड़ दिया था।
महाराज तो खुद टूटे हुए थे। उनकी रियासत तोड़ दी गई थी, वे परजा बन चके थे। जमीनदारी तोड़े जाने के खिलाफ वे मुकदमा दाखिल करने के फिराक में थे। बडे़ बड़े वकीलांे से सलाह-मशविरा कर रहे थे।
नन्हकू काका थे तो बातूनी पर चालाक भी बहुत थे। थोड़ा बहुत कागजों के खेल के बारे में जानते थे। उन्हें पता था कि नई दुनिया कागजों वाली है। जमीन पर जिसका जोत-कोड़ होता है उसके नाम से ही कागज बनता है। अंग्रेज एक बिस्वा जमीन का भी कागज बनवाया करते थे। उनका गॉव राजा साहब की जमीनदारी का गॉव था सो उसका कागज राजा साहब के नाम था। राजा साहब ने आदिवासियों को जो जमीन दिया था उसका रियासती पट्टा कर दिया था। अंग्रेज बिना कागज के कुछ काम नहीें करते थे।
नन्हकू काका रियासत से अपने गॉव लौट आये और जमीन का कागज तलाशने लगे। पूरे गॉव में खबर फैल गई कि अब जमाना कागजों वाला है सो राजा साहब ने जो पट्टा दिया था उसका कागज खोजो...
पूरा गॉव कागज खोजने लगा... कागजों की खोज में गॉव पसीना बहा रहा है.गॉव था ही कितना बड़ा यही कोई चार पॉच घरों की बस्ती। फूस के मकान, फूस की दिवालें...और करइल माटी की जमीन। फूस के घेरों से बने घर, घर क्या किसी के पास एक कमरा तो किसी के पास दो कमरा। किसी के पास बांस की चारपाई तो किसी के पास वह भी नहीं। लेवनी, फटे कंबल, कथरा, एक दो चादर ओढ़ने व बिछाने के नाम पर बस इतना ही... और सामान रखने के लिए...टीन के छोटे बक्से किसी घर में वह भी नहीं, वैसे रखना भी क्या था, क्या था ही आदिवासियों के पास। जंगली गॉव था, लेन-देन की परंपरा थी, कोइरी अनाज ले कर तरकारी दे दिया करता था, बनिया अनाज लेकर कपड़ा और परचून का सामान दे दिया करता था। कुछ लोग ऐसे भी होते थे जो रोजाना गॉव आते थे और दारू खरीदते थेे। दारू से कुछ कमाई हो जाया करती थी गॉव वालों की। इसी कमाई से आदिवासियों का गुजारा होता था।
पूरा गॉव दारू चुआने में माहिर था। हर घर में एक अड़ार था। बर्तन में महुआ सड़ रहा होता था, खमीर उठने पर दारू चुआना शुरू होता था।
गॉव की यह ब्यवस्था जो सरकारी तो नहीं थी पर समझदारी से पूर्ण थी वह थी आपसी सहयोग की। एक दिन में एक ही घर में दारू चुआई जाती थी दूसरे घर में नहीं। पूरे साल यही क्रम चलता था। बारी से बारी से दारू चुआना और उसे बेचना यह कुटीर उद्योग की तरह था। यह कब से था किसी को नहीं मालूम। वहां की दारू का गुण-गान गरीब गुरबा ही नहीं जमीनदार किसिम के रईस भी किया करते थे। लोग बताते हैं कि होली, दशहरा के पहले वहां की दारू खरीदने के लिए मारा-मारी तक हो जाया करती थी। इलाके के लोग खास त्याहारों के लिए वहीं से दारू खरीदा करते थे।
घरों के सारे बर्तन देख लिये गये, एक दो जो बक्से थे वे जाने कितनी बार देखे गये पर कहीं पट्टा वाला कागज नहीं मिला। कागज होता तो मिलता, कागज तो था ही नहीं फिर मिलता कैसे।
नन्हकू काका को सिर्फ इतना मालूम है कि राजा साहब का कारिन्दा पट्टा का कोई कागज बहुत पहले दे गया था। कागज देने के बदले में एक बकरा भी हॉक ले गया था और दो बोतल दारू उपरौढ़ा से लिया था। उस कागज को किसने रखा यह उन्हें याद नहीं। वह जमाना कागजों वाला था भी नहीं, जुबान वाला था, गर्दन कट जाये भले पर जुबान न कटने पाये। नन्हकू काका माथ पकड़ कर बैठ गये।
वैसे नन्हकू काका थक-हार कर बैठने वालों में नहीं थे। दारू बेचने का अगवढ़ ले कर वे एक दिन मीरजापुर पहुंच गये, मीरजापुर ही तब जिला था।
नन्हकू काका दूसरी बार मीरजापुर आये थे। एक बार तब आये थे जब उन्हें माई के दर्शन के लिए विन्ध्याचल धाम जाना था और फिर इस बार कागज तलाशने। मीरजापुर पहुंचने पर उन्हें ख्याल आया एक वकील का, जो कुछ महीने पहले ही उनके गॉव आया था और हिरन की खाल के लिए रिरिया रहा था। हिरन की खाल किसी ने उसे नहीं दिया सभी ने बोल दिया कि नहीं है खाल। ये नन्हकू काका ही थे जो उसकी रिरियाहट से पसीज गये थे और वकील को हिरन की एक खाल इन्तजाम करके दिया था। वकील बहुत परेशान था उसका लड़का बीमार था किसी तांत्रिक ने उसे बताया था कि हिरन की खाल पर बैठ कर ही तंत्रा-साधना करनी होगी।
नन्हकू काका वकील का नाम याद करने लगे..कौन था वह वकील, का नाम था उसका, बहुत ही चाव से उनकी बनाई दारू पिया था और अपनी जीप में एक मटकी रख भी लिया था...
‘ऐसी दारू मिलती कहां है?’ उसने कहा था
कोई बात नाहीं, नाम नाहीं याद रहा तो का हुआ कचहरी में तो पहचना जायेगा ही, यही होगा कि उसे खोजना होगा पूरी कचहरी मंे।
नन्हकू काका कचहरी करीब बारह बजे पहुंचे। पैदल ही मीरजापुर जाना था कलवारी से होते हुए लालगंज फिर मीरजापुर। तीन दिन से पैदल ही चल रहे थे, पैर सूज गया था पर हिम्मत थी, सो तनेन थे और कड़क भी...कचहरी पहुंच कर लगे खोजने वकील को। तब कचहरी नाम में तो बड़ी थी पर आकार मेंआज के मुकाबिले बहुत ही छोटी थी। खोजते, खोजते नन्हकू काका जा पहुंचे वकील के पास...
वकील काका को न पहचान पाया, तीन साल पहले की बात थी वह भूल चुका था काका को। काका ने उसे याद दिलाया फिर उसे याद आया हिरन की खाल से। वकील चौंक गया...
‘अरे! नन्हकू तूॅ...’
‘ईहां काहे आये हो, का बात है...का कउनो काम आ गया कचहरी का..?’
‘हॉ सरकार तब्बै तो ईहां आया हूॅ’ नन्हकू ने बताया
‘का काम है हो, बताओ तो..’
नन्हकू काका ने वकील को काम बताया। जमीन कऽ काम है सरकार! राजा साहब ने हमारे खानदान वालों को जमीन पट्टा में दिया था। ऊ जमीन पर हमलोगों का नाम नाहीं चढ़ा है। ओ जमीनी केे हमरे बाप-दादों ने काट-पीट कर समतलियाया था, कियारियॉ गढ़ी थीं फिर खेती बारी शुरू हुई थी अउर आज भी हमलोग उसे जोत कोड़ रहे हैं। वह जमीन कउनो संस्था वाले के नाम से होय गई है। एही के पता लगाना है सरकार के हमलोगों के जोत-कोड़ वाली जमीनिया केकरे नामे होय गई!
‘ठीक है नन्हकू! हम आजै पता लगा लेते हैं पर ई बताओ एतना दिना कहां थे? जमीनदारी टूटे तो चार साल होय गया, ई सब काम तो वोही समय कर लेना चाहिए था।’
‘का बतावैं सरकार! हम लोग ठहरे जंगली, हम लोग का जानते हैं कानून-फानून के बारे में कि का होता है कानून। हम लोग का जानते साहेब ऊ तो संसथा के दो आदमी गॉव में आये थे। जमीन देखने लगे, खेती के बारे में पूछने लगे कौन कौन जोता कोड़ा है किसकी फसल है। हम लोगों ने सही सही बताय दिया और वे लोग उसे कागज पर उतार भी लिए। फिर बाद में पूछने लगे..राजा साहब को खरवन में केतना रुपिया देते हो तुम लोग?’
हमलोगों ने बता दिया कि पहिले एक पैसा बिगहा दिया जाता था अउर अब तीन आना बिगहा दिया जाता है।
‘तो अब वह खरवन तूॅ लोग हमारी संस्था को देना, इस गॉव की सारी जमीन हमलोगों की संस्था के नाम से होय गई है।’
‘ओही दिना हम लोग जाने सरकार कि जमीन का कागज बनता है। तब हम लोग पता करने लगे कि हमलोगों की जमीन का कागज बना है कि नाहीं।’
वकील चला गया कागज के बारे में पता करने किसी आफिस में, नन्हकू काका वहीं बैठे रहे। करीब एक घंटे बाद वकील वापस लौटा और नन्हकू काका को बताया। उससे काका हिल गये...
‘अब का होगा सरकार! कैसे चढ़ेगा हमलोगन कऽ नाम कागज पर। अगोरी से भाग कर तो बड़हर आये थे, राजा साहब ने बसाया था हम लोगों को, अब कहां जायेंगे इहां से उजड़ कर। पहिले तो जंगल काट कर जमीन बना लेते थे हम लोग अब तो जंगल का एक पत्ता भी नहीं तोड़ सकते। नन्हकू काका माथा पकड़ लिए।’
‘नन्हकू! तूॅ लोगों का नाम नाहींें लिखा है जमीन पर ओपर कउनो संस्था का नाम लिखा हुआ है, कहां की है यह संस्था, जानते हो का? एक काम करना तूॅ लोग जमीन पर से कब्जा कभी नाहीं छोड़ना, बूझ गये नऽ मेरी बात। जोत-कोड़ में संस्था वाले दखल करंेगे या मारपीट करेंगे तो तो सीधे चले आना मेरे पास। हम देख लेंगे संस्था वालों को। हम अजुएै एक दरखास लगाय देते हैं देखो का होता है ओमें...’
नन्हकू काका को को कुछ पता नहीं था कि कैसे कागज बन गया संसथा वालों का। जोत-कोड़ के हिसाब से कागज बनना था तो संसथा वालों का कैसे बन गया। वकील ने साफ बताया काका को कि घपला किया गया है कागज बनाने में।
मीरजापुर में ननकू काका ने एक मुकदमा दाखिल करा दिया...
‘साहब आप देखो हमलोगांे का मुकदमा, आपका खर्चा-पानी देने में कमी नाहीं करेंगे हमलोग।’ वकील से बोल-बतिया तथा मुकदमा दाखिल करा कर नन्हकूं काका वहां से गॉव लौटआये।
गॉव में सन्नाटा पसरा हुआ था जाने का हो मीरजापुर में। काका की बातें सुनकर गॉव सन्न हो गया...गॉव वालों ने पूछा काका से...
‘अब का होगा काका?’
‘का बतावैं हो, हमैं तऽ कुछ बुझाय नाहीं रहा है, एक बात है वकील ने कहा है कि जमीन पर से कब्जा न छोड़ना, तो समुझि लो के हमलोग कउनो तरह से कब्जा नाहीं छोड़ेंगे।’
यह आजाद भारत का नया कानून था कागजों पर लिखा हुआ जो नन्हकू काका को कुदरती जमीन से बेदखल करने वाला था। ऐसी जमीन से जिसे किसे ने नहीं बनाया, जिसे किसी ने नहीं रचा, उसे खेती करने लायक बनाया नन्हकू काका के पसीने ने, पसीने ने ही उसे समतल किया, कियारियां गढ़ीं। देश आजाद होते ही किसिम किसिम के मालिक उग गये धरती पर, किसिम किसिम की धरती-कथा लिखने लगे। पहिले के जमाने में धरती-कथा लिखने वाले जो राजा थे, मालिक थे, वे टूट रहे थे और दूसरे किसिम के लोग धरती-कथा लिख कर राजा बन रहे थे।
धरती-माई देख रही हैं मानव सभ्यता का कानूनी खेल, किस तरह की व्यवहार-संस्कृति उग रही है धरती पर झाड़-झंखाड़ की तरह। व्यवहार-संस्कृति के कागजी झाड़-झंखाड़ को कौन साफ करेगा? नन्हकू काका जैसे पसीना बहाने वाले तमाम लोग कागजों के राजनीतिक व कानूनी खेल में फंस गये हैं धरती में, धरती ने उन्हें लील लिया है। ऐसे लोग जो धरती पर अपनी जिन्दगी लिखते हैं, धरती को जो चूमते हैं। धरती की दरारों में पैर फंस जाने के बाद भी जो धरती को प्रणाम करते हैं, गरियाते नहीं हैं, इनका क्या होने वाला है? कौन बता सकता है? क्या धरती माई बोलेंगी कुछ इस बारे मे
'''वाम उग्रवाद पर केंद्रित शिवेंद्र का उपन्यास जंगल दंश'''
[[File:जंगल दंश jpg.jpg|thumb|वाम उग्रवाद पर केंद्रित शिवेंद्र का
उपन्यास जंगल दंश]]
अपनी बात----
‘जंगलदंश’ उपन्यास के बारे में कुछ कहने से अच्छा है, कुछ न कहा जाये तथा यह भी न बताया जाये कि जंगलदंश उपन्यास है या लम्बी कहानी है। पर इतना कहना जरूरी है कि आज के आलोचनात्मक व विखंडनवादी समय में, जहां कदम कदम पर कुदरती चिंतन तथ व्यवहार को ठेंगा दिखाया जा रहा हो, मानवीय समीपताओं को किसी भी तरह से नष्ट करने व मिटा देने के कूट प्रयास किये जा रहे हों, कृत्रिम संप्रभुताओं के द्वारा व्यक्ति की नैसर्गिक संप्रभुता को दमित व उत्पीड़ित किया जा रहा हो, जहां आदमी को आदमी की तरह जीने, मरने की कुदरती परिस्थितियां न उपलब्ध कराकर उसे उपभोक्ता वस्तु में तब्दील किया जा रहा हो, जहां चित्त, चेतना तथा चिंतन के हसीन बाजार हों और उस बाजार में विचार व दृष्टि को ( प्कमं ंदक अपेपवद ) बेचे तथा खरीदे जाने के कौशल दिखाये जारहे हों, ऐसे में ‘जंगलदंश’ की कुदरती कथा लिखना जरूरी था। ऐसे खतरनाक समय में कथा के माध्यम से यह देखना भी जरूरी था कि यह जो ‘जंगल में मंगल’ या‘अहा ग्राम्य जीवन’ की राग अलापने, किसानों को फसल की दुगनी आय दिला कर उनकी आत्महत्या रोकने वाली साहित्यिक व खासतौर से राजनीतिक व्यवहारलिपि है, उसमें इन दोनों ‘पदों’ का कितना मान, सम्मान व आदर है?
किसे नहीं पता कि जंगल में जंग है तो गॉव में जाति है, गोत्रा है, अगड़ा है, पिछड़ा है, मंडल है कमंडल है, इनके अपने अपने दांव हैं पर ‘अहा ग्राम्य जीवन’ तथा ‘मंगल’ कहीं नहीं है। हर तरफ जंग ही जंग हैं, दांव ही दांव हैं। जंगल में जंग हैं तो गॉव में दांव हैं। जंगल हैं, तो कारखानों के द्वारा उपजाये गये विस्थापन के दंश हैं, गॉव हैं तो जमीन है, जमीन है तो उसके होने न होने के कारण हैं, मालिकाना है, विरासत है, वसीयत है और कब्जे हैं तथा जब ये सब हैं तो थाना है, कचहरी है यानि बहुत कुछ है। जमीन, जोरू और जर(संपत्ति) का सीधा मतलब है झगड़ा, झगड़ा है तो थाना है कवहरी है, मुकदमा है। बाहरी दुनिया यानि प्रशासकों की दुनिया में विवेकाधिकार तथा विशेषधिकार हैं। गोया हर समाज बटा हुआ है चाहे नागर हो या ग्रामीण उसी के अनुसार मानवनिर्मित अधिकार भी विभाजित हैं समझना यही है कि ये विभाजन समतावादी समाज के अनुकूल हैं या समाज को पन्द्रहवी शताब्दी में ले जाने वाले हैं। अगर ऐसा ही है फिर हमारी सभ्यता किन अर्थों में आधुनिक है?
जमीन किसी ने जनमाया नहीं, उगाया नहीं, पहाड़ किसी ने रचा नहीं, नदियों को किसी ने बहाया नहीं। अब तो ये कुदरती सच सत्ताप्रबंधनके लिए जटिल सवाल बन कर किसिम किसिम की संस्कारलिपि भी रचने लगे हैं, खतरा इसी नये किस्म की संस्कारलिपि से है। दुखद है कि इस संस्कारलिपि से मानव समीपतायें कांप रही हैं, कांप तो जंगलदंश की कथा भी रही है, आइए देखते हैं, आगे क्या होाता है?
वैसे कथाओं का क्या है, चाहे जितनी कही जायें या सुनी जांये उनका सामाजिक बदलावों के सन्दर्भों में कुछ विशेष असर पड़ा हो ऐसा नहीं जान पड़ता। गोदान का होरी जीवित समाज का प्रतिनिधि बन गया हो नहीं देखा गया। अगर उस तरह के चरित्रा देखे भी गये तो उन्हें बाजार ने डस लिया, फिर वे होरी से बदल कर कुछ और हो गये। गायब हो गया होरी और बाजार की चमक में कहीं खो गया, अब उसे कौन गढ़े या रचे? पूंजीवादी सत्ता प्रबंधन ने उन्हें भलमानुष नहीं रहने दिया, उपभोक्ता संस्कृति ने उन्हें किसी कमोडिटी में बदल दिया। बाजार की कमोडिटी बने लोगों के बीच मानुष रहना आसान भी तो नहीं। आसान होगा भी कैसे, बाजार में तो किसी कार्टून की तरह इधर से उधर उड़ते रहना मजबूरी है।
जंगल दंश की कथा आपके सामने है, देखिए यह कथा आपको प्रभावित कर पाती है या नहीं। अगर इस कथा के माध्यम सेआप वामउग्रवाद के क,ख,ग, से वकिफ हो जाते हैं फिर तो यह सार्थक कथा होगी।
हिन्सा तथा अहिन्सा दो छोर हैं वामउग्रवाद को समझने के लिए। कम से कम
भारतीय संस्कृति किसी भी हाल में हिन्सा की वकालत नहीं करती। वामउग्रवादी
चिन्तन भारतीय व्यवहार संस्कृति की भाषा नहीं है। समाज बदल के लिए हिन्सा का सहारा लेना यह पद्धति भारत में मनोवैज्ञानिक व सामाजिक रूप से त्याज्य है, इस पद्धति में सामाजिकता तो हो ही नहीं सकती। आज के समय को सोलहवीं शदी में बदल देना या बदलने का प्रयास करना सिवाय बेवकूफी के और कुछ नहीं।
आशा है मेरे पिछले उपन्यासों की तरह प्रस्तुत उपन्यास को भी आपकी मुहब्बत मिलेगी। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतिक्षा में...
जून- 2019
राबर्ट्सगंज,सोनभद्र,उ.प्र.
भावना प्रकाशन
109-पटपड़गंज गॉव, दिल्ली-110091
मो...8800139684, 9312869947
प्रथम संस्करण 2022
मूल्य..400.00
जंगल दंश का पहला अश----
‘लाईन में लगना और लाइन बन जाना,
अलग अलग बातें हैं, यानि कथा आगे है’
मनीष देर रात तक घर लौटा। वह बाहर दोस्तों से घिर गया था। दोस्त उसे समझा रहे थे कि चुनाव में हार, जीत तो होती रहती है, उससे घबराना नहीं चाहिए, पर उसके घबराने का कारण दूसरा था, जिसे वह दोस्तों को बताना नहीं चाहता था।
मनीष घर में घुसते ही अवाक रह गया, उसे लगा जैसे वह अपने घर में न हो कर किसी दूसरे के घर में घुस गया हो, जहां होने का कोई मतलब नहीं... इस घर में तो वह कभी आया ही नहीं था। पता नहीं कैसे आ गया है। उसे विगत का सारा कुछ ख्याल आता जा रहा है, उसे भूलना चाहे तो भी नहीं भूल सकता, कुछ दूसरी भूल जाने लायक बातों की तरह, जिन्हें वह कबका भूल चुका है। उसकी यादें उसे नोचने चोथने लगी हैं, जबाब मांगने लगी हैं... यह पहला अवसर है जब वह अपनी यादों से मुठभेड़ करने की स्थिति में नहीं है। चार साल पहले ही उसने अपना घर बनवाया था, यह मानकर कि शहर में रहना हर हाल में ठीक होता है। किसे नहीं पता कि घर बनवाना आसान नहीं होता, वह भी शहर में, फिर भी मनीष ने शहर में घर बनवाया। कुमुद भी तो घर बनवाने के लिए जिद्द कर रही थी।
उसे पता था कि कुमुद गॉव मंें नहीं रह सकती, उसने गॉव देखा नहीं है। जब से उसने खुद को जानना और समझना शुरू किया है, तब से शहर में ही रह रही है। पढ़ाई लिखाई सारा कुछ, उसने शहर में ही किया है।
एक बार कुमुद किसी गॉव में गई थी, अपने पापा के साथ। गॉव में कोई मीटिंग होनी थी, विस्थापन का मामला था, एक प्राइवेट कारखाना बनवाने के लिए गॉव वालों को उजाड़ा जाना था। कारखाने को तीन सौ एकड़ जमीन चाहिए थी और सरकार ने उसे देने के लिए जो भी कानूनी प्रस्ताव वगैरह होते हैं, पास कर लिया था। सारा कार्यक्रम सरकार ने आनन फानन में तय कर लिया था और किसी को कानो कान खबर तक नहीं लगी थी। कुछ महीनों में ही गॉव वालों को उनकी जन्मभूमि तथा कर्मभूमि से उजाड़ दिया जाना था। यह सब करने में कमजोर से कमजोर सरकार भी बहुत मजबूत व ताकतवर हुआ करती है। चाहे वह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के मामलों में विश्वबैंक तथा संयुक्त राष्ट्रसंघ के सामने, किसी अनाथ की तरह हाथ जोड़े खड़ी रहती हो, इतना ही नहीं, सारी दुनिया में घूम घूम कर देश की सुरक्षा के नाम पर घातक हथियारों, मिजाइलों वगैरह की भीख मांगा करती हो फिर भी देश के आंतरिक मामलों जैसे गॉव के गरीब किसानों के विस्थापन संदर्भाें में या दूसरे तरह के शोषणों के मामलों में, भीख मांगने वाली सरकारें भी अपनी जनता के साथ जघन्य से जघन्य क्रूरताएं बरतती रहती हैं।
तकरीबन दस गॉवों को उजाड़ा जाना था, गॉवों के लोगों को विस्थापित किये जाने के औचित्य को साबित करने के लिए सरकार के पास ढेरों कानून थे। उन कानूनों में जो भी दरारें थीं उन्हें सरकार ने संसदीय सहमतियों, एवं विधिक संस्तुतियों से पाट लिया था। प्रशासन ने गॉवों को उजाड़े जाने की नोटिस भी तामिल करवा लिया था। नोटिस में साफ लिखा था कि जिन्हें आपŸिायां करनी हों, वे एक माह के भीतर करें नहीं तो माना लिया जायेगा कि किसी को कोई एतराज नहीं है, फिर सारे प्रकरण को एकतरफा ढंग से निपटा लिया जायेगा।
गॉव वालों को नोटिस वगैरह के बारे में कुछ पता नहीं था... नोटिस कब आई, किसने भेजा, सारा कुछ रहस्य था। अचानक एक दिन गॉव की नापी होने लगी, तब गॉव वालों को पता चला कि वे उजाड़े जांएगे।
विस्थापन वाले कामों को किये जाने की ऐसी ही परंपरा है। पहले नोटिस भेज दी जाती है। नोटिस के जबाब आते हैं। जिन्हें पता होता है कि जबाब दिया जाना है, वे जबाब दे देते हैं। जिन्हें नहीं पता होता वे जबाब नहीं दे पाते। जो जबाब आए होते हैं, कहा जाता है कि जबाबों के परिप्रेक्ष्य में नोटिस का निस्तारण होता है। जबकि जबाबों के निस्तारण की परंपरा ने कभी समाज को उल्लेखनीय लाभ नहीं पहुंचाया है। मान लिया जाता है कि सरकारें जो कुछ भी करती, कराती हैं वह सब राष्ट्र हित में समाज और अपनी जनता के लिए ही, फिर सरकारी काम से किसी को कैसे नुकसान हो सकता है?
कुमुद को जाने कैसे उस दिन गॉव अच्छा लगा था। वहां के लोग उसे सरल और सीधे लगे थे, पर उसे वहां गुस्सा भी खूब खूब आया था। ऐसे सरल और सहज लोगों को जाने कैसे उजाड़ने के बारे में सरकार निर्णय ले रही है? क्या तमाशा है, जो कई कई शहरों में काबिज हैं, कई कई धन्धों को हथियाए बैठे हैं, उन्हें नहीं उजाड़ रही? उजाड़ रही ऐसे लोगों को जिनके पास इस गॉव के अलावा कहीं शरण नहीं...
वह तो अपने पापा पर ही गुस्सा हो गई थी.....
‘पापा यह क्या है? आप मीटिंग करके यहां से लौटने के लिए सोच रहे हो। आपके मित्र कामरेड भी चले गये, उनमें से एक कामरेड तो कार्यक्रम के संयोजक से कार का किराया भी मांग रहे थे, बोल रहे थे, कार का किराया दे दो, दसके अलावा हमलोगों को कुछ नहीं चाहिए।’
‘अरे वही, जो लखनऊ विश्वविद्यालय वाले हैं, जिनका बहुत बड़ा नाम है, उनके साथ जो लेखक किस्म के एक आदमी थे, अभी उनकी एक किताब ‘खामोशी का वैश्वीकरण’ प्रकाशित हुई है, जिसकी समीक्षा मैंने साहित्य की चर्चित पक्षीनामधारी पत्रिका में पढ़ी है। वे मना कर रहे थे...
‘जाने दो भाई, गॉव वाले रूपया कहां से देंगे। हमलोग आपस में खर्चा बांट लेंगे। तीन तीन सौ या चार चार सौ एक एक आदमी पर पड़ेगा और क्या। साथ ही साथ वे सभी लोगों को रोक भी रहे थे, काम तो यहां हैं, जनता के
बीच में, इनकी लड़ाई को आगे बढ़ाना है, फिर यहां से लौटने का क्या मतलब। बेचारे गॉव वाले क्या करेंगे, सरकार का विरोध करना आसान नहीं होता। सरकार के पास तमाम तरह की ताकतें होती हैं, जो जनता के मन को कमजोर तथा लचीला बना दिया करती हैं। फिर जनता किसी छुई मुई माफिक अपनी ही छुअन से डर कर, खुद को अपने अपने भाग्य के रहस्यों में डुबो लिया करती है।
मीटिंग में जो बाहरी लोग आए हुए थे वे गॉव में रुकने वाले नहीं थे। वे भाषणों को बेचने वाले सौदागर थे। ऐसे तिजारती लोग भला उस गॉव में रुक कर गॉव वालों के साथ लाठी डंडंे क्यों खाते। मीटिंग खत्म हुई और वे चले गये। कुमुद ने अपने पापा पर व्यंग्य किया....
‘पापा आपको जाना हो तो जाइए, मुझे इन गॉव वालों को इस हालत में छोड़ कर नहीं जाना’ कुमुद लड़ गई अपने पापा से..
पापा तो पापा, उन्हें अपने अनुभवों से हासिल ज्ञान पर गर्व था..
‘क्या बोल रही तूं, का करेगी इस गॉव में रुक कर, जानती है इस इलाके के बारे में, यह क्षेत्र नक्सलाइटों का है, यहां आदमी नहीं, बन्दूकें बोलती हैं, यहां बन्दूकें कहानियां और कवितायें लिखती हैं। यहां रुकना ठीक नहीं होगा और गॉव वालों को भी कुछ लाभ नहीं मिलेगा।’
‘पापा आप चाहे जो सोंचें, गुनें, पर मुझे इस गॉव से बाहर नहीं जाना। मैं जानती हूॅं कि गॉव वालों को इस समय मेरी आवश्यकता है, और अगर नहीं भी है तो मुझे मालूम है कि गॉव वालों के साथ रहने की आवश्यकताओं को मैं कैसे रच व गढ़ सकती हूॅं। इस परेशान गॉव में मैं अपनी उपयोगिता सिरज लूंगी’
‘तो तुम्हें वापस नहीं लौटना, तूं यहां रुक कर करेगी क्या? कोई प्लान है क्या तेरे पास?’
‘फिलहाल तो नहीं, प्लान पहले से बना कर क्या होगा? प्लान तो परिस्थितियों के आधार पर बनाना अच्छा होता है।’
‘पापा शहर लौटने के लिए आप कैसे बोल रहे हैं? आपने ही तो मुझे सिखाया है कि अत्याचारों से लड़ना हर समझदार के लिए आवश्यक है, चाहे अत्याचार खुद के या किसी गैर के ऊपर हो। अत्याचार तो सिर्फ अत्याचार होता है, अत्याचार का प्रतिकार न करना, खामोश रहना, यह अत्याचार करने से भी भयानक है। आपकी उस सीख का क्या हुआ पापा?
‘आप कहा करते थे, जनता की लड़ाई जनता के द्वारा, उसकी अगुआई भी जनता के द्वारा। प्रताड़ित किये जाने वाले लोगों को वुद्धिजीवियों द्वारा वैचारिक सहायता देनी चाहिए, जिससे लड़ाई की धारा अराजक न होने पाये। मैं तो आपके साथ नहीं लौटने वाली। गॉव वालों को असहाय छोड़ कर मैं नहीं जा सकती पापा।’
कुमुद की बातें प्रोफेसर आलोकनाथ को बहुत बुरी लगी थीं...
‘लगता है, कुमुद मनबढ़ होती जा रही है और अपने लिए हुए फैसलों के प्रति कट्टर भी।’
बहुत कुछ कुमुद के बारे में सोचने लगे थे आलोकनाथ। जैसे यही कि कुमुद को खुली सोचों का नागरिक नहीं बनने देना चाहिए था। यह तो अतुकांत कविता की तरह मर्यादा के नियंत्रणों को तोड़ रही है। इसे पता ही नहीं कि जीवन जीने के तरीकों में आत्मनियंत्रण की भूमिका होती है। अभी से ही मनमानी पर उतर आई है, बोल रही है, वापस नहीं लौटना। मेरी समझ में नहीं आ रहा यहां रुक कर करेगी क्या? क्या आन्दोलन चलाएगी? क्या करेगी आखिर यहां रुक कर?
‘नहीं तुझे मेरे साथ चलना ही होगा, मेरे बारे में सोचो न सोचो, कम से कम मनीष के बारे में तो सोचो, उसे बुरा लगेगा।’
सख्त हो गये थे आलोकनाथ, उनकी ऑखें लाल होने लगीं थीं और चेहरे पर लोहे सी गर्मी पसर आई थी। एक दम से लाल लाल, तपते तवा माफिक। होठ सूखने लगे थे, उंगलियां हरकत में आ गई थीं जैसे कुमुद को मार ही देंगे पर उन्हांेने कुमुद को कभी मारा नहीं था, मारना तो दूर गुस्सा कर डांटा भी नहीं था। जब कभी कुमुद की मॉ कुमुद की युवा शरारतों पर डांट दिया करती थीं, तब वे पत्नी पर बरस पड़ते थे। आलोकनाथ ने कुमुद की तेज तर्रार छाया में छरहरा जवान लड़का देखा था, समय से मुठभेड़ करने वाला तथा अपने पैरों पर खड़ा होकर आसमान में छेद करने वाला, साथ ही साथ अपने हित अहित के द्वन्दों को अनुकूलित करने वाला, पर यह कुमुद तो जाने क्या सोच व गुन रही है।
‘आन्दोलन करेगी, गिरफ्तारी देगी, नारे लगायेगी, इन गॉव वालों के साथ। इसने मुझसे कुछ नहीं सीखा। इसे तो यह भी नहीं मालूम कि लड़ाइयां विचारों के औजारों से लड़ी जाती हैं... लड़ाई लड़ने के लिए विचारों को जांचा परखा जाता है, फिर युद्ध की चुनौती स्वीकार की जाती है, तूं तो पहले ही चुनौती देने लग गई हो।’
आलोकनाथ छटपटाती सोचों में थे, कुमुद को दुबारा आदेशित किये...।
‘चल मेरे साथ, यहां नहीं रुकना है’
पर कुमुद को तो खुद को प्रमाणित करने वाली दुनिया दीख रही थी, शहादत वाली, वलिदान वाली, सिर्फ अपने लिए क्या जीना, जिया तो दूसरों के लिए जाता है। उसने आलोकनाथ से साफ बोल दिया कि उसे नहीं लौटना तो नहीं लौटना।
कुमुद तो अपने पापा के प्रति पहले से ही सचेत थी और उसने तय कर लिया था कि उसे क्या करना है तथा कैसे करना है? वह अपने पापा को लगातार समझने की कोशिश कर रही थी, पर समझा नहीं पा रही थी। कुछ समय बाद तो वह उनके बारे में बहुत कुछ जान गई थी।
वह उन कामरेडों को भी संदेह से देखने लगी थी, जो वैचारिक ज्ञान अर्जन के लिए उसके पापा के पास आया करते थे। क्या उन्हें नहीं पता है कि ये जो कामरेड आलोकनाथ हैं, वे अक्षरों के युद्धभमि के योद्धा हैं...। इनके तमाम भाषण कामरेडों के द्वारा संसदीय प्रणाली स्वीकार करने के बाबत थे। जो काफी महत्वपूर्ण तथा गंभीर थे। वे एक ऐसे कामरेड हैं जिनसे कोई माई का लाल तर्कों में जीत नहीं सकता। इनके पास बने बनाए तर्कों व मन्सौदों का खजाना है। संसदीय लाईन पर चलने के औचित्य को कामरेड आलोकनाथ ने तत्कालीन परिस्थितियों में अनिवार्य बताया था तथा उसे समाज बदल का कारगर औजार भी प्रमाणित किया था। देश भर में बिखरे कामरेडों को जान पड़ा था कि उनके बीच आलोकनाथ के रूप में कोई देवदूत है, फिर तो वे संसदीय लाईन को समाज बदल का कारगर तरीका मान लिये थे।
पढ़ाई के अन्तिम वर्ष में एक दिन कुमुद ने अपने पापा को छेड़ा था.....
‘पापा हरावल दस्ता क्या होता है? क्या आप कभी इस दस्ते में रहे हैं?’
आलोकनाथ पसीने से सरोबार हो गये थे, तत्काल उनका ज्ञान बौना पड़ गया था तथा उŸार देने में असमर्थ हो गये थे.
कुमुद ने दुबारा पूछा था...
‘पापा क्या होता है, हरावल दस्ता?’
‘इसे लड़कू दस्ता बोलते हैं बेटा’
‘कैसा लड़ाकू दस्ता?’
‘अरे उनका दस्ता जो क्रूर हुकूमत बदलने के लिए हिंसा का सहारा लेते है.. सामाजिक बदलाव की लड़ाई लड़ने वाले लड़ाकू दस्ते को, हरावल दस्ता बोलते हैं, पर यह सब तूं काहे पूछ रही है?’
‘बस ऐसे ही पापा, कोई खास बात नहीं, मैं जानना चाह रही थी कि आपकी लाईन क्या है? सुना है आप भी कभी भूमिगत थे और जनचेतना के हरावल दस्ते में रहे थे। अब आप संसदीय लाईन पर हैं, वैसा कुछ नहीं कर रहे हैं जिससे भूमिगत रहना पड़े, इसीलिए पूछ रही हूॅं पापा।’
आलोकनाथ कुमुद का चेहरा देखने लग गये थे। उन्हें समझ आ रहा था कि कुमुद कोई चुनमुन चिरैया नहीं है, इसकी ऑखों में तरतीब से जलने वाली आग है, ऐसी आग जो बनावटी तथा सजावटी चेहरों को भस्म कर दिया करती है। आलोकनाथ कुमुद के चेहरे पर अपनी ऑखें नहीं टिका पाये थेे। उन्हांेने अपना मुंह आलमारी में सजा कर रखी किताबों की तरफ घुमा लिया था।
आलमारी में ढेर सारी किताबें रखी हुई थीं। वहां ऐसी भी किताबें थीं जिसमें दुनिया में हो चुके सभ्यतागत बदलावों को विश्लेषित करने वाले खोजपूर्ण आलेख प्रकाशित थे। उनमें खास बात यह भी थी कि उन बदलावों के तरीकों के विशद वर्णन थे। आलोकनाथ उन वर्णनों को जब तब पढ़ा करते थे और अपनी मानसिक ऊर्जा बढ़ाया करते थे। उनमें कुछ आलेख ऐसे भी थे जिनमें उनके करतबों का प्रतिबिम्ब दिखता था। जिन्हें पढ़ कर वे घबरा जाया करते थे और आत्मपरीक्षण करने लगते थे।
‘नहीं,ं नहीं, वे संशोधनवादी नहीं हैं, संशोधनवादी तो उन्हें कहा जाना चाहिए जो सŸााप्रबंधन के समर्थक हों। ठीक है, वे हरावल दस्ते में नहीं हैं, समाज बदलने के लिए हिन्सा का समर्थन नहीं करते पर वैचारिक लड़ाई में तो वे किसी योद्धा से कम नहीं हैं। उन्हांेने सŸाा का कभी समर्थन नहीं किया।’
आलोकनाथ अकेले शहर लौटे, कुमुद आलोकनाथ के साथ नहीं लौटी, वह गॉव में ही रह गई। गॉव में गई तो गॉव वालों का बन कर रह गई। उनके आन्दोलन का सक्रिय कार्यकर्ता बन कर। वह मनीष के बारे में आश्वस्त थी कि उसे समझा लेगी, सो उसे मनीष की चिन्ता नहीं थी।
मनीष परेशान, परेशान था, आखिर कुमुद कहां चली गई? वह कभी इस तरह से बाहर कहीं नहीं रुका करती थी, चाहे जितनी रात हो जाये, घर अवश्य ही लौट आती थी। उसने आलोकनाथ को फोन मिलाया...
‘सर! कुमुद नहीं आई क्या अभी तक।’
‘हां वह वहीं गॉव में रुक गई है, उसे लगता है उसकी जरूरत गॉव में है।’
‘कब तक वापस लौटेगी? कुछ बताया है क्या?’
‘नहीं, इस बारे में उससे कोई बात नहीं हुई’
मनीष लगातार कुमुद को फोन मिला रहा था पर उसके मोबाइल का स्वीच आफ चल रहा था, परेशान हो कर उसने आलोकनाथ से पूछा था।
मनीष को अपने घर में भला नहीं लग रहा था। वह तो पहले से ही चुनाव की हार के गम में डूबा हुआ था। सारी जमा पूॅजी उसने चुनाव में फूंक दिया था, इतना ही नहीं गॉव की कुछ जमीन भी बिक गई थी। ऐसे तनाव भरे समय में उसके लिए कुमुद ही सहारा थी। वह मान कर चल रहा था कि वह जिन्दगी की सारी उलझनों को कुमुद के साथ रहते हुए सुलझा लेगा। देर रात तक वह कुमुद की प्रतिक्षा करता रहा था। नींद ने उसे कब जकड़ लिया, उसे पता ही नहीं चला। नींद खुलने पर उसने देखा कि घर के सारे दरवाजे खुले हुए हैं...
‘कोई अनहोनी नहीं हुई?’ मनीष दरवाजे बन्द करना भूल गया था।
कुमुद की प्रतिक्षा करते करते सात दिन गुजर गये। कुमुद का फोन नहीं आया और न ही उसका फोन मिल रहा था। मनीष घबड़ा गया, हुआ क्या आखिर? ऐसा तो कुमुद कभी नहीं करती थी, कहीं बीमार तो नहीं हो गई, गॉव का पानी लग गया होगा या मच्छरों ने काट लिया होगा।
मनीष अखबारों में लगातार पढ़ा करता था कि गॉव वालों के सक्रिय विरोध के कारण पहड़िया टोला में कारखाना बनना मुश्किल हो गया है। कई बार ग्रामीणों तथा पुलिस के बीच हिन्सात्मक झड़पें हो चुकी हैं। कई ग्रामीणों की गिरफ्तारियां भी की गई हैं। कहीं कुमुद भी गिरफ्तार तो नहीं हो गई?
मनीष ने एक दिन आलोकनाथ से कुमुद के बारे में दुबारा पूछा था पर उन्हें भी कुमुद के बारे में कुछ नहीं पता था। वे कुमुद से नाराज थे, सो उसका हाल अहवाल नहीं ले रहे थे। आलोकनाथ ने तो कुमुद को फटकार ही दिया था।
‘जा जो करना हो कर, तुझे मरना है तो मर। मैंने तो सोचा था कि किसी कालेज में लगवा दूंगा। कालेज के लिए लेक्चररों की नियुक्तियों वाले चयन समितियों में बहुत सारे लोग मेरे हैं। किसी को बोल दूंगा, पर नहीं, तुझे तो क्रान्तिकारी बनना है तो बन। तुझे कौन समझाए कि हमारे देश की समाजार्थिक परिस्थितियां क्रान्ति के अनुकूल नहीं हैं। सामाजिक क्रान्ति का अभियान चलाने के लिए यहां के लोगों में वह गुस्सा नहीं है जो होना चाहिए। किसी खास मुद्दे पर आकस्मिक ढंग से गुस्सा हो जाना तथा सामाजिक बदलाव के लिए सŸाा के प्रबंधकीय तकनीकों पर गुस्सा हो जाना, दोनों बातें अलग अलग होती हैं।... क्रान्ति के लिए सŸााप्रबंधन के तकनीकों पर गुस्सा आवश्यक है जो दूर दूर तक भारतीय समाज में नहीं दीख रहा। हम भारतीय लोग तटस्थता और मौन के सनातनी पूजक हैं, हम सारी चीजों को दैवीय मानते हैं।’
आलोकनाथ कुमुद के कारण तनाव में थे, तनाव में क्यों नहीं रहते, वही उनका सहारा थी। पर करते क्या कुमुद तो जुनूनी हो गई थी, जिसे आलोकनाथ एक गलत कार्यवाही मानते थे। कहते थे......
‘उŸोजना शुचितापूर्ण चेतना को लील कर व्यक्ति को अराजक बना देती है, जाहिर है, अराजकता से समाज बदल नहीं हुआ करता’
मनीष को कुमुद के बारे में आलोकनाथ से कोई जानकारी नहीं मिली। परेशान हो कर वह अपने गॉव चला गया, जहां आन्दोलन चल रहा था। वहां कुमुद नहीं थी। वह संतोष के साथ भूमिगत हो चुकी थी।
’यह संतोष कौन है?’
मनीष के लिए बहुत बड़ा सवाल था। संतोष के बारे में उसे जो जानकारी मिली वह चौंकाने वाली थी। मालूम हुआ कि संतोष बिहार का रहने वाला है और किसी भूमिगत संगठन का अगुआ है। संतोष के सक्रिय सहयोग व समर्थन के कारण गॉव वालों को अब तक नहीं उजाड़ा जा सका है। गॉव वालों की प्रशासन से कई बार आमने सामने की लड़ाइयां हो चुकी हैं और प्रशासन के लोग भाग खड़े हुए हैं...। लड़ाइयों के कारण प्रशासन ने फिलवक्त विस्थापन के काम को रोक दिया है।
संतोष के बारे में जानकारी जुटाना मनीष के लिए खतरनाक भी हो सकता था, क्योंकि गॉव के लोग गरम थे, एक महीने पहले ही तो गॉव वालों की वन प्रशासन से आमने सामने की झड़प हुई थी। गॉव वाले आग में जलने के लिए तैयार थे, लगता था कि वे आग में से तप कर निकले भी हैं। लगता उनके लिए सामाजिक व्यवस्था, कायदा, कानून तथा समरसता का मामला, महज कुछ शब्द भर हैं जो समय के साथ भोथरे तथा निष्प्रयोज्य हो चुके हैं...।
मनीष गॉव में जिस आदमी के घर पर था, वह भी खूब खूब डरा हुआ था। डरते हुए बताने लगा...
‘बबुआ जाने का हो इस गॉव का, सिपाहियों को मारना ऐसा तो हमने नाहीं सुना था न देखा था बबुआ! पर उहो देखना पड़ा हमैं... संतोष गुरुजी ने ललकार दिया फिर क्या था गॉव के लड़के सिपाहियों पर टूट पड़े। लात जूते बरसने लगे, सिपाहियों पर। दो बार तो पहले भी ऐसा हो चुका था बबुआ। बीसों लोग गॉव के गिरफ्तार हो चुके हैं। संतोष गुरुजी और उनके साथ रहने वाली मेम साहब जाने का लगती हैं, गुरु जी की? हमैं तो जान पड़ता है कि मेहरारू ही हांेगी। गॉव में मारपीट के बाद दोनों लोग जाने कहां भाग गये। उन दोनों लोगों का कहीं अता पता नाहीं है। हमरे गॉव के लड़कवे हैं न बाबूजी! संतोष गुरुजी को कउनो देवता बूझते हैं, ओन्हई के आगे पीछे लगे रहते हैं, लड़िकवन के कुछू बोलो तो गरम हो जाते हैं.....।
‘बोलते हैं कि ई सब हम लोगन कऽ राज है, वन हमार, पहाड़ हमार, नदी नाला, ईहां जौन कुछ है, सब हमार है। बाहरी लोगन के हम लोग ईहां नाहीं आने देंगे।’
‘जाने दो बबुआ का करोगे सब जानकर। हमार बात केहूॅ से जीन बताना, तोहैं भलमानुष बूझ कर हमने बताय दिए, नाहीं तो हम लोगन कऽ मॅुह सिलाय गया है। एक बात अउर है बबुआ! तूंहो ए गॉव से जल्दी भाग निकलो। पुलिस के लोग अगलै बगल होंगे। देख लेंगे तो तोहैं भी संतोष गुरुजी का साथी बूझ कर जेहल में डाल देंगे। भागो भागो बबुआ!’
मनीष उस गॉव वाले की बातें सुन कर अनिर्णय की स्थिति में था, आखिर यह संतोष कौन है और कुमुद का उससे क्या लेना देना है? उसे विगत ख्याल आने लगा...
वह भी तो पहले कुमुद को नहीं जानता था। हालांकि दोनों एक ही विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे। पर थे अलग अलग कालेजों में, अलग अलग विषयों में पोस्ट ग्रेजुएसन कर रहे थे। छात्र संघ के चुनाव के दौरान कुमुद उससे मिली थी, वह भी छात्र संघ की अध्यक्षी की प्रत्याशी थी। मनीष तो था ही। मनीष चुनाव जीत गया, उसे भारी समर्थन हासिल हुआ था। दूसरे नम्बर पर कुमुद थी। कुमुद ने मनीष को जीत की बधाई दी थी। फिर मिलने का सिलसिला जो चला तो चलता ही गया। दोनों साथ रहने लगे। साथ रहने में दोनों के सामने कोई दिक्कत नहीं थी, दोनों खुले दिमाग के थे और मानते थे कि नर और नारी के रिश्तों में सखी-सखा वाला मन ही आवश्यक होता है। दोनों वादाखिलाफी को बुरा मानते थे फिर तो उनके लिए विवाह का नाटक आवश्यक नहीं था। इसी सोच के कारण दोनों ने वस्तुतः विवाह भी नहीं किया। हां दोनों ने आलोकनाथ के चरण छू कर आशीर्वाद जरूर लिए थे और साथ साथ रहने लगे थे। कुछ दिनों में ही दोनों की सांसें व घड़कने एक दूसरे को सहलाने, चूमने लगीं थीं..।. जैसे उन्हें अलग होना ही नहीं है हालांकि वे अर्धनारीश्वर नहीं थे, पर थे, उसी के समरूप, एक दूसरे में विलयित।
मनीष का सोचना था कि जिस तरह उसने छात्रसंघ का चुनाव जीत लिया था अपने व्यवहार और विचार के आधार पर, उसी तरह विधायकी भी जीत लेगा, पर नहीं जीत सका और हार गया। हार भी पांचवें नम्बर की। कुमुद ने चुनाव में मनीष के लिए जी जान लगा दिया था। जितना वह कर सकती थी।
कुमुद के बारे में जानकारी लेकर मनीष शहर लौट आया, उसे लौटना ही था, का करता गॉव में... चार दिन बाद उसे एक चिठ्ठी मिली। वह चिठ्ठी पढ़ने लगा...
‘प्रिय मनीष!
मैंने तुझे गॉव में देखा, मुझे मालूम था कि तुम मुझे ढूढने जरूर आओगे, मैंने संतोष को तुम्हारे बारे में बता दिया था। संतोष तुझसे मिलना भी चाहता था पर सुरक्षा कारणों से हमलोग तुझसे नहीं मिल पाये। हम दोनों तुझे देख रहे थे तथा उस आदमी को भी, जो तुझसे बतिया रहा था।
तुम एक अच्छे आदमी हो मनीष! ऐसा मैं कई बार संतोष को बोल चुकी हूॅं, तुझसे बहुत कुछ सीखने और जानने का लाभ मुझे मिला है, जिसे मैं कभी भूल नहीं सकती। अब संतोष के साथ रहते हुए मुझे रोमांचक अनुभव मिल रहे हैं...
जंगल, नदी, नाले, पहाड़, पेड़, झाड़ियंा और चौड़े चौड़े हरियाई धरती के विशाल भूखण्ड, पŸाों का हरापन, उनका सरसराना, मादकता में डूब कर झूमना सारा कुछ देखो तो देखते रह जाओ। शायद तुमने पŸिायों से लदी टहनियों को, झूम झूम कर आपस में बोलते बतियाते देखा और महसूसा होगा। जंगल की मादकता में डूबना मुझे तो बहुत ही अच्छा लगता है।
जानते हो मनीष! यह पत्र लिखते समय मैं पहाड़ की एक चोटी पर बैठी हुई हूॅं, इसे हिमगिरि का उŸाुंग शिखर समझ सकते हो, संतोष मुझे भीगे नयनों से देख रहा है, मैं शीतल प्रवाह की तरह संतोष को खुद में बहाए जा रही हूॅं, मजा यह कि वह भी मेरे प्रवाह के साथ बह रहा है।
मनीष याद करो वे दिन, जब मैं तुम्हारे साथ तुम बन गई थी और तुम मैं बन कर मुझे दिल की अतल गहराई में डुबोए जा रहे थे फिर उस गहराई में अचानक हमदोनों तैरने लगे थे। याद हैं न वे दिन। क्षमा करना मनीष! मैं तुमसे बिना कुछ बताए ही यहां आ गई, मैं जानती हूॅं कि मुझे तुमको बता देना चाहिए था। यहां आने पर संतोष मिला तथा गॉव के लोग, जो परेशान हैं जिन्हें विस्थापित किया जाना है। मुझे लगता है कि गॉव वालों के लिए मैं कुछ कर सकती हूॅं। विस्थापन के खिलाफ एक सक्रिय मोर्चा बना सकती हूॅं, यानि कि एक लड़ाई लड़ी जा सकती है, सरकार की जनविरोधी नीतियों एवं कार्यक्रमों के खिलाफ। कुछ ऐसी ही ऊर्जां संतोष में भी मैं देख रही हूॅ... यही ऊर्जा हासिल करने के लिए जाने कब से परेशान परेशान थी मैं...।
‘बुरा मत मानना मनीष! समाजबदल की ऊर्जा से तो तुम भी लबालब हो पर तुम्हारी ऊर्जा में संभ्रांतता का घोल है। जिसमें दिमाग और कंठ का मिश्रण है, जबकि संतोष की ऊर्जा में पेट ही पेट है। पेट की धधकती आग है, वही आग जो मुझे चिनगारी बनने के लिए प्रेरित करती है, वही मैं संतोष की चेतना में देख रही हूॅं, पर एक बात साफ है कि आजादी पूर्वक जीवन जीने का रास्ता तुमने ही मुझे सिखाया है। जिसका परिणाम है कि मैं इस पत्र में वह सब लिख पा रही हूॅं जो मुझे नहीं लिखना चाहिए था, पर मुझे यकीन है कि तुम एक सचेतन आदमी हो, दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना जानते हो, यही तुम्हारी आदत तुम्हें मुझ पर नाराज होने से रोकेगी। तुम खुद को नियंत्रित कर यह प्रमाणित भी कर सकोगे कि तुम आजादी का सम्मान करना जानते हो, तथा समानधर्मा रिश्तों का निर्वहन भी।
‘सच बताऊं मनीष! आज जिस लाईन का चुनाव मैं कर सकी हूॅं, वह तुम्हारी ही सीख है। तूंने ही सिखाया है कि मित्रता में झूठ बोलना अपराध होता है, सो सच सच बोल रही हूॅ...
हम इस समय ऐसे मोड़ पर हैं, जहां तमाम तरह के आकस्मिक निर्णयों के लिए सलाह मशविरे की जरूरत पड़ती है। मेरे साथ तुम्हारा न होना काफी अखर रहा है, पर मैं तुम्हारी प्राथमिकताओं को जानती हूॅ...। सो तुमसे यह नहीं बोलूंगी कि तुम भी हमारे साथ जुड़ जाओ, फिर हम एक साथ मिल कर नया सबेरा देखने की कोशिश करंे...।
खैर क्षमा करना साथी! और उस समय को भूलने की कोशिश भी, जिसे हम दोनों ने एक दूसरे में विलयित हो कर जिया था। संभव है कि अब तुमसे मुलाकात न हो, मैं जिस रास्ते पर चल पड़ी हूॅं उसके हर कदम पर मृत्यु थिरकती रहती है।
एक निवेदन यह भी है कि हमारे बीच संबधों का जो अन्तर्लयन था, उसे प्रलय न समझना तथा प्रकृतिस्थ होने के संभव उपायों को आजमाते रहना। यहां मैं तुम्हारी स्मृतियों के मनोरम कौतुकों में गोते लगाती रहूॅंगी। हो सके तो पापा का भी ध्यान रखना।’
पत्र लम्बा था, पत्र के एक एक शब्द मनीष को टुकड़ों में बांट रहे थे। मनीष विखंडित हो कर किसी कठिन कविता का हिस्सा बनता जा रहा था। उसे आने वाले समय के साथ कुमुद से जुड़ी यादों की संगति बिठाने का काम करना था तथा मान कर चलना था कि समय उससे आगे निकल चुका है। वह बीते समय में अब नहीं लौट सकता, उसके सारे दरवाजे बन्द हो चुके हैं...।
पत्र पढ़ लेने के बाद मनीष चौंक गया...
‘तो क्या कुमुद जिस ‘लाईन’ की बातें, बात बात में किया करती थी, वह ‘लाईन’ यही है। इसी लाईन पर वह चलना चाहती थी, यानि कि संतोष की लाईन। संतोष की लाईन ही अगर कुमुद को पसंद थी तो मुझसे जुड़ने का मतलब?’ क्या उसे नहीं पता कि ‘लाइन’ में लगना और ‘लाइन’ बन जाना अलग अलग बातें होती हैं’
‘मुझसे वह जुड़ी तो उसे पता था कि मेरी लाईन का बाजार है और मैं छात्रसंघ का चुनाव जीत चुका हूॅ, वह विजेता के साथ थी, पराजित के साथ नहीं। अब तो मैं हारा हुआ, औसत दर्जे का आदमी भर ही हूॅ। भला मेरे साथ कुमुद कैसे रह सकती है? अगर उसे कहीं जाना था, तो चली जाती, यह क्या है कि बिना बताये ही चली गई। कुमुद को समझना चाहिए था कि ’आज का राजनीतिक समय पहले वाला नहीं है, आज तो केन्द्र की सरकार ही नहीं प्रदेशों की सरकारें भी वामपंथियों तथा जनवादियों के विचारों के खिलाफ हैं। वामपंथी व जनवादी शाक्तियों को जनता ने मौजूदा चुनावों में नकार दिया है।
मनीष परेशान था। वह दोस्तों से कुमुद के बारे में क्या बताता, कि वह उसे छोड़कर चली गई है अपनी ‘लाइन’ बनाने के लिए।
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सिलाई मशीन की शटल हुक का टाइमिंग, समस्या और समाधान
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2025-06-11T11:59:23Z
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= सिलाई मशीन की शटल हुक का टाइमिंग, समस्या और समाधान =
'''सिलाई मशीन की शटल हुक का टाइमिंग, समस्या और समाधान''' एक हिंदी भाषा में लिखी गई टेक्स्टबुक है, जिसका उद्देश्य सिलाई मशीनों की कार्यप्रणाली और उससे जुड़ी समस्याओं को समझाना और उनके समाधान को सरल भाषा में प्रस्तुत करना है।
== परिचय ==
यह पुस्तक सिलाई मशीन की शटल हुक टाइमिंग के तकनीकी ज्ञान, उससे जुड़ी समस्याओं और उनके समाधान पर केंद्रित है। इस पुस्तक का उद्देश्य उन लोगों को शिक्षित करना है जो सिलाई मशीन की मरम्मत, संचालन या तकनीकी समझ को सीखना चाहते हैं।
== अध्याय सूची ==
* [[/सिलाई मशीन की शटल हुक का टाइमिंग का मतलब/|सिलाई मशीन की शटल हुक का टाइमिंग का मतलब]]
* [[/सिलाई मशीन की शटल हुक का टाइमिंग क्या होता हैं/|सिलाई मशीन की शटल हुक का टाइमिंग क्या होता हैं]]
* [[/शटल हुक के टाइमिंग का गलत होना/|सिलाई मशीन की शटल हुक के टाइमिंग का गलत होना, खराब होना या बिगड़ने का मतलब]]
* [[/टाइमिंग सही ना होने से समस्याएं/|सिलाई मशीन की शटल हुक की टाइमिंग सही ना होने से क्या क्या समस्याएं आती हैं]]
* [[/सटल टाइमिंग सेटिंग समाधान/|सिलाई मशीन की शटल हुक टाइमिंग से होने वाली समस्याओं को ठीक कैसे करे]]
== लेखक ==
आर के गुप्ता गोविन्द
== लाइसेंस ==
यह पुस्तक [https://creativecommons.org/licenses/by-sa/4.0/deed.hi क्रिएटिव कॉमन्स एट्रीब्यूशन-शेयरअलाइक 4.0 अंतरराष्ट्रीय (CC BY-SA 4.0)] के तहत उपलब्ध है। आप इसे पुनः प्रयोग, साझा और संशोधित कर सकते हैं, बशर्ते मूल स्रोत का उल्लेख करें और समान लाइसेंस के तहत साझा करें।
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[[श्रेणी:सिलाई मशीन मरम्मत]]
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सिलाई मशीन की शटल हुक का टाइमिंग, समस्या और समाधान/शटल हुक के टाइमिंग का गलत होना
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== सिलाई मशीन की शटल हुक के टाइमिंग का गलत होना, खराब होना या बिगड़ने का मतलब ==
सिलाई मशीन की शटल हुक के टाइमिंग का गलत होना, खराब होना या बिगड़ने का मतलब होता है कि सिलाई मशीन के शटल का हुक, सुई में लगे हुए धागे को पकड़ कर नीचे ले जाकर, शटल के अंदर लगे हुए बॉबिन केस के अंदर, बॉबिन में भरे हुए धागे से मिलकर लूप नहीं बना पाना।
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सिलाई मशीन की शटल हुक का टाइमिंग, समस्या और समाधान/टाइमिंग सही ना होने से समस्याएं
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== सिलाई मशीन की शटल हुक की टाइमिंग सही ना होने से क्या क्या समस्याएं आती हैं ==
सिलाई मशीन की शटल हुक की टाइमिंग सही न होने से, शटल हुक अपने सही टाइमिंग पर कार्य नहीं करता है, जिसके कारण शटल का हुक सुई और बॉबिन के धागे को मिलाकर लूप नहीं बना पाता और बॉबिन का धागा ऊपर नहीं आना, लूप नहीं बनना, सिलाई छोड़-छोड़ कर होना और सिलाई बिल्कुल न होने जैसी समस्याएं आती हैं।
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सिलाई मशीन की शटल हुक का टाइमिंग, समस्या और समाधान/सटल टाइमिंग सेटिंग समाधान
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== सिलाई मशीन की शटल हुक टाइमिंग से होने वाली समस्याओं को ठीक कैसे करे ==
सिलाई मशीन के शटल हुक की टाइमिंग इस हिसाब से सेट करें कि शटल का हुक, सिलाई मशीन की सुई में लगे हुए धागे को पकड़ कर, शटल के अंदर लगे हुए बॉबिन केस के अंदर, बॉबिन में भरे हुए धागे से मिलाकर सही से लूप बना सके। ऐसे सेट करने से, शटल टाइमिंग के कारण होने वाली समस्याएं जैसे सिलाई नहीं होना, बॉबिन का धागा ऊपर नहीं आना, लूप नहीं बनना, सिलाई छोड़-छोड़ कर होना और बिल्कुल भी सिलाई नहीं होने जैसी समस्याएं सही हो जाती हैं।
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हिंदी उपन्यास/रामनाथ शिवेंद्र के आदिवासी केंद्रित प्रमुख उपन्यास
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Ramnathshivendra
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''''रामनाथ शिवेंद्र के आदिवासी एवं दलित केंद्रित प्रमुख कहानी संग्रह [[File:2025Rnathshivedra46.jpg|thumb|in a seminar]] '''अपनी बात''' [[File:Pansal jpgपनसाल.jpg|thumb|आदिवासी एवं दलित जीवन पर केंद्रित कहानी संग्रह]]...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
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'''रामनाथ शिवेंद्र के आदिवासी एवं दलित केंद्रित प्रमुख कहानी संग्रह
[[File:2025Rnathshivedra46.jpg|thumb|in a seminar]]
'''अपनी बात'''
[[File:Pansal jpgपनसाल.jpg|thumb|आदिवासी एवं दलित जीवन पर केंद्रित कहानी संग्रह]]
‘पनसाल’ कहानी संग्रह मेरा पहला कहानी संग्रह था जो 1980 में प्रकाशित हुआ था इसके दो साल पहले ‘सहपुरवा’ उपन्यास प्रकाशित हो चुका था। संकलन की सभी कहानियॉ देहाती पृष्ठभूमि से उपजी हुई हैं। मुझे याद है वह समय जब छपाई बहुत ही कठिन हुआ करती थी। पहले कम्पोजिंग वह भी एक एक अक्षर चुनना और उसे एक फ्र्रेम में बिठाना फिर छापने के लिए ट्रेडिल मशीन पर सेट करना। तो प्रकाशन का वह मुश्किल दौर था। प्रूफ देखना भी कठिन हुआ करता था भीगे कागज पर कम्पोज्ड सामग्री को हाथ से उतार कर फिर प्रूफ देखा जाता था।
‘पनसाल’ संग्रह के लेखकीय वक्तव्य को बिना फेर बदल किए उसी को यहां प्रस्तुत किया जाना आवश्यक जान पड़ रहा है जिससे पता चले सके कि वह दौर कथा साहित्य के लिए कितना मुश्किल था?
‘यकीनन ‘पनसाल’ कहानी संग्रह छाप कर ऐश्वर्य और वैभव प्राप्त करने का कुटिल इरादा कम से कम मेरे जैसा आदमी तो नहीं ही रखेगा इसका मतलब यह भी नहीं कि गॉव-गॉव गली-गली उभरती सोच को प्रकाशन के दायरे में कैद न करके अपने साथ ही अमानुषिक व्यवहार किया जाये। पनसाल संग्रह की सारी कहानियॉ आपके अगल बगल की उपज हैं जिसमें पात्रों की अल्हड़ता तथा अखण्डता के साथ साथ उनकी अपनी विचारधारा की लड़ाई व्यवस्था के खिलाफ निरंतर जारी है। इस कहानी संग्रह में ऐसा कुछ मौके गर मौके नहीं मिलेगा जिससे रति सुख की बनावटी जरूरत दिमाग में उपजे और एकांत की सुगबुगी को हास्य और विनोद से झकझोरे
सही मायनों में देशी संस्कृति के इर्द-गिर्द चौंकाऊ तथा उत्तेजक आचरण का जुनून कुछ इस तरह फेल गया है कि लोग बाग चौंधिया कर बेइमानी को ईमानदारी के सॉचें में ढालने का अनुपयोगी कुप्रयास कर रहे हैं। रोजी-रोटी के लिए मुहताज लोगों को विज्ञापन की तरह इस्तेमाल करके कानून की अधिकांश धाराओं को ‘हर माल छह आना’ बेचा जा रहा है। यह सच है कि हम जिनके लिए लिख रहे हैं उनके दिमाग में साठ करोड़ की बात नहीं है, अपनी मुसीबत को साठ करोड़ की मुसीबत बताने की क्षमता नहीं है। जनहित तथा राष्ट्रहित की व्यवस्था को निजी संदर्भों से जोड़ने का जुगाड़ नहीं है, फिर वे हमारी कहानियों से, कविताओं से, गीतों से किस तरह जुड़ेंगे, स्पष्ट नहीं है। फिर भी हम तथा हमारे जैसे लोग उन्हीं की बस्तियों, उन्हीं कीे जिन्दगियों से गंभीरता पूर्वक रिश्ता कायम कर रहे हैं क्योंकि हमें जो कुछ करना है जन मन की सार्थक सोच की धारा से ही करना है। यह सवाल भी आयातीत लगता है कि जब वे पढ़ नहीं सकते, जब वे समझ नहीं सकते तब उनके लिए क्यों लिखा जाये। इस तरह के सवाल भ्रम पैदा करने के लिए बहुत ही मौजू हुआ करते हैं क्योंकि इनकी पैदाइश ही हास्यास्पद, विवादास्पद तथा घृणित है। इस तरह के सवाल को बाजारू बनाने वाले लोग निश्चित ही साजिशी तौर पर जन आन्दोलनों के खिलाफ हैं और हो सकता है, हो सकेगा, ऐसा नहीं होता के रोमांचकारी परिणामों पर उत्सर्ग हैं।
विज्ञापनों और अन्य जरूरी, गैर जरूरी जगहों पर औरत को अधनंगी, नंगी, खूबसूरत देह वाली बनाने की प्रवृत्ति के खिलाफ आपका भीतरी मन झटपट कुछ करने के लिए भले ही तैयार न हो पर आपका लोक मन निश्चित ही सार्वजनिक ढंग से विरोध ही करता होगा। यह हास्यास्पद तर्क लगता है कि विस्मय, कोलाहल, रोमांच, रोमांस से ऊपर उठ कर मानवीय संवेदनाओं से जुड़ने का मतलब, हक की लड़ाई की अगुआई करने का मतलब सिर्फ दिमागी बोझ ढोना है, अपने को गर्त में ढकेलने से है। बमुश्किल तमाम फुर्सत के क्षण हासिल होते हैं और उन्हें साठ करोड़ के साठ करोड़ समस्याओं से जोड़ कर, बिस्तरे की स्पंजनुमा फुसफुसाहट, आनन्द और उत्साह को क्यों बर्बाद कर दिया जाये। वैसे समान्य रूप से ‘अन्धा प्रेम’, ‘पागलप्रेमी’,‘ प्रेम का दिवाना’ जैसी तमाम बिस्तर बाज कहानियॉ ही प्रचलन में हैं और जहां अन्याय, शेषाण, और अत्याचार के खिलाफ बगावत की रूपरेखा में कहानियॉ हो उन्हें सामाजिक जीवन में नहीं स्वीकारा जाता।
वैसे पनसाल कहानी संग्रह जैसे संग्रहों का प्रकाशन अत्यंत ही कठिन काम है, तरह तरह की परेश्शानियां छोटे प्रकाशनों को उठानी पड़ती हैं फिर भी चैलेन्ज के तौर पर इस काम को बड़े बड़े एकाधिकारवादी संरक्षण प्राप्त प्रकाशनों के खिलाफ प्रयास किया ही जाना चाहिए। दक्षिणांचल के आदिवासियों, कल-कारखानों के मजूरों को भजाने वाली सरकारी सुविधा प्राप्त पत्रिकाओं के विरूद्ध छोटे छोटे प्रकाशनों के जरिए विरोधी माहौल तैयार करने की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता। झूठ की समझ सार्वजनिक ढंग से विकसित हो भी जाये तब भी वह झूठ ही रहेगा। गरीबी हटाने, बेरोजगारी मिटाने समता और समृद्धि लाने का मतलब कदाचित सत्तर फीसदी लोगों का गरीबी रेखा के नीचे का जीवन जीने से ही है। धन प्राप्त करने के तमाम संसाधनों को प्रतियोगिता के जरिए हासिल करवाने और वादा दर वादा से मौजूदा समस्याओं को हल करने का कुशल विज्ञान इस देश में जिस तेजी से उभर रहा है लगता है हम सभी लोगों की तटस्थता का दुष्परिणाम ही है।
पनसाल कहानी संग्रह बिना विराम के हर जगह संघर्ष की जुझारू यात्रा तय करते हुए मिहनती हाथों को मजबूत बनाने की ओर अग्रसर है। संघर्ष की सार्थक रूपरेखा बनाने की योजना में इस संग्रह के पात्रों की पात्राता निहित है। जिसका आशय जितना स्पष्ष्ट, सपाट और बेबाक है उतना ही आकर्षक, चौंकाऊ और झकझोरू भी, पनसाल आपके हाथ में है, देखें....
नवम्बर 2019 रामनाथ शिवेन्द्र
'''डफली बजाये जा'''
[[File:Dafli bajaye jaa डफली बजाये जा.jpg|thumb|आदिवासी एवं दलित जीवन पर केंद्रित कहानी संग्रह]]
'''हम तुम्हें खोना नहीं चाहते कामरेड'''
‘जयकरन पाडे़ को छोड़कर तुमने अच्छा नहीं किया कामरेड ! सेक्रेटरिएट की बैठक में क्या जबाब दिया जाएगा ?‘ कहते हुए चुप हो गए थे कॉमरेड दŸा , और सतीश का चेहरा बुझ सा गया था ,
हां गलती तो हो गई है पर करता क्या ? वह बेचारी औरत पैर पर गिर पड़ी थी, ‘भईया‘, ‘भईया ‘ कह कर देह से लिपट गई थी, सामने पेड़ में बंधा था उसका पति , उसके ससुर को मार ही दिया गया था, पूरी बखरी धंू-धूं कर जल रही थी, सामने दो-दो लाशें झुकी गर्दनें, पेड़ में लटकी हुई, गोलियों से छलनी हुआ सीना, हमारा लक्ष्य पूरा हो गया था, केवल जयकरन ही तो छूट गया....... क्या फर्क पड़ जाएगा इससे ?‘
कामरेड सतीश आगे कुछ नहीं बोल पाया, एक अंतहीन उदासी में लीन हो गया,
कामरेड सतीश का जबाब अच्छा नहीं लगा कामरेड़ प्रभुदŸा को , पर होता भी क्या ? जयकरन को तो छोड़ ही दिया गया था, वर्ग -दुश्मन सफाया अभियान के लिए भविष्य में घातक हो सकता था जयकरन, इतिहास की वैज्ञानिक व्याखांए भी अवांक्षनीय के विनाश और वांक्षनीय की प्राप्ति की पक्षधर हैं, बुद्धि और बल सभी स्तर पर, बहुत ही संकटपूर्ण स्थिति थी कामरेड प्रभुदत्त के समक्ष ,कामरेड प्रभुदत्त अभियान के मुखिया हैं, सारी जबाब देही इनके ऊपर है, पर सतीश के साहस ; संकल्प ; और समर्पण से इतना प्रभावित कि उसके विरूद्ध कुछ निर्णय लेना, इस अनुशासनहीनता के खिलाफ; अब उनके वश का नही रह गया है, जयकरन का छोडा़ जाना, कई वर्षों से चल रहे अभियान की बहुत ही त्रासद घटना थी, ऐसा कभी सुना नहीं गया था , अभियान में संलग्न तमाम कामरेड, कामरेड सतीश के इस कृत्य से सख्त नाराज हो गए थे, उनमें कामरेड सतीश को लेकर कामरेड प्रभुदत्त के प्रति संदेह के बीज अंकुरित होने लग गए थे, जगह-जगह गोष्ठियां होने लगीं थीं , मार्क्स , एजिंल, लेनिन और माओत्से तुंग की छितराई व्याख्याएं-व्याख्यायित होने लगीं थीं, सवाल था....‘फैसला तो फैसला‘, ‘क्या हमें अपने अभियान की सफलता के लिए भावनाओं, इच्छाओं पर नियंत्रण नहीं रखना चाहिए, वहीं भावनाएं , इच्छाएं जो बदचलन समाज की कुप्रवृत्तियां हैं,‘अभियान के एक महत्वपूर्ण कामरेड रवि सक्सेना तो अपना आपा ही खो बैठे थे-
खूब करो वर्ग दुश्मनों की पहचान, और सफाया का काम, लाओ सर्वहारा की तानाशाही, घूम-घूम जलाते रहो घरों को जहां कुछ अपने काम का दीख जाए; उसे छोड़ते जाओ,
मार्क्सबाद....मार्क्स तो नहीं रहे, उनकी बातें भी मर जाएंगी इसी तरह, मार्क्स को कोई धन-पशु थोडे़ मारेगा,हम लोग ही मार डालेगें, इससे भी बड़ा मजाक और क्या हो सकता है, कि कोई वांक्षित दुश्मन सामने हो और भावनाओं ,उदारताओं, दया तथा कृपा जैसी वाहियात संवेदनाओं के कारण जीवित छोड़ दिया जाए बिना विचार के, कि कल वह क्या करेगा ?
कामरेड रवि घूम-घूम कर संगठन में सबसे इसी तरह कहने लगे थे, मार्क्सबाद की मोटा-मोटी समझ रखने वाले अन्य कामरेड भी उनकी बात से प्रभावित होते जा रहे थे, ‘हां बहुत गलत हुआ‘ यहीं तक संगठन का माहौल रह जाता तो ठीक था, किन्तु कामरेड प्रभुदत्त के बीसों साल के समर्पण, प्रतिबद्धता और संघर्ष को त्याग कर, उन्हें भी सवालों के घेरे में रख लिया गया था-‘आखिर सतीश अब तक छुट्टा सांड़ की तरह क्यों घूम रहा है ? संगठन का नियम एक समान सब पर लागू किया जाना चाहिए और संगठन का नियम ऐसे में किसी को मृत्यु-दान नहीं देता ,‘
ऐसा नहीं था कि , कामरेड प्रभुदत्त को ; संगठन में चल रही कानाफूसी और रवि सक्सेना के षड्यंत्रकारी कार्यों की जानकारी नहीं थी, उन्हें बराबर सूचनाएं प्राप्त हो रही थीं , फिर भी कामरेड सतीश के बारे में चुप ही रहे ,कामरेड प्रभुदत्त। संगठन के हित में सतीश की गलती को भूल जाना ही ठीक था , पर संगठन के लोग तो सतीश को दंडित किया जाना आवश्यक समझते थे। दंड़ देने की परंपरा पुरानी थी संगठन में , कई कामरेडों को इस तरह की गलतियों के कारण गोली से भूना जा चुका था , वे लोग भी समर्पित तथा प्रतिबद्ध लोग हुआ करते थे।
कामरेड प्रभुदत्त ने संगठन के लोगों को अलग-अलग तरीकों से समझाना भी चाहा था , प्रयास भी किया था ; पर सफलता नहीं मिली थी , उन्होंने इसी क्रम में रवि सक्सेना से भी बात की थी ,पर वह तुनक गया था , यह वही रवि सक्सेना है जो कामरेड प्रभुदत्त की विद्धता एवं प्रतिबद्धता की घूम-घूम कर तारीफ किया करता था ,जब कभी कामरेड प्रभुदत्त के क्लासों को वह छोड़ दिया करता था , उसे कोफ्त होती थी, भौतिक द्वंद्ववाद का ज्ञान इन क्लासों में जाने से ही उसे हासिल हुआ, पर अब वह प्रभुदत्त को सतीश के मुद्दे पर संवेदनशील, भावुक और प्रतिक्रिया-वादी तथा संशोधनवादी करार दे रहा था, कामरेड प्रभुदत्त किसी भी तरह से सतीश को दंडित किए जाने के पक्ष में नहीं थे, संगठन बनाने से लेकर,चलाने तक की पूरी प्रक्रिया में सतीश उनसे अलग नहीं हुआ था। पढ़ाई-लिखाई समाप्त हो जाने के बाद जब घर-गृहस्थी का सवाल आया , कामरेड प्रभुदत्त घर-बार छोड़कर भाग खडे़ हुए थे, पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र और लेनिन की प्रसिद्ध पुस्तक ‘क्या करें‘ का अध्ययन कर लिया था, बाद में ‘पूंजी‘ तथा विभिन्न इंटरनेशनल्स में हुए निर्णयों का भी, रूस की अक्टूबर क्रांति और चीन में हुई सांस्कृतिक क्रांति की वैज्ञानिक समझ भी उन्हें कड़े अध्ययन से ही हासिल हो पाई थी,
जनता के साथ, जनता का काम ‘ करने का फैसला उन्होंने स्वेच्छा से लिया था, सत्ता बंदूक की नाल से ही हासिल होगी, इसे पूर्ण सत्य मानते थे, इतिहास में मजाक औरघटी तमाम घटनाओं के क्रूर परिदृश्य भी तो इसी तरह दीखते हैं, अतीत को बिना जीते भविष्य को नहीं जीता जा सकता ,ऐसा कुछ मानने लगे थे प्रभुदत्त। वे निकल पडे़ थे सोचे-समझे अभियान की तरफ, जगह-जगह जो थोड़े-बहुत लोग इस दिशा में सक्रिय थे उनसे संपर्क भी किया था कामरेड़ प्रभुदत्त ने, फिर बाद में अपना संगठन बना लिया था उन्हंे ,संगठन बनाने के दौरान ही कामरेड सतीश मिल गया था, बी.ए. में पढ़ने वाले विद्यार्थी के रूप में , सतीश के भीतर की आग पहचान लिया था उन्होंने , धीरे-धीरे जोड़ने लगे थे सतीश को अपने साथ, जब भी शहर आना होता सतीश के यहॉ निश्चित रूप से ठहरते कामरेड प्रभुदत्त। सामाजिक ,राजनीतिक धार्मिक तमाम तरह की बातें होतीं जिनसे निरंतर प्रभावित होता चला गया सतीश। पढ़ाई समाप्त होने के बाद सतीश के विधायक पिता श्री ने चाहा था कि वह ‘कम्पटीशन‘ दे, पर उनका प्रयास बेकार गया, किसी दूसरे किस्म की नौकरी या व्यवसाय करने का दबाव उसके ऊपर पड़ा ,पर सतीश ने सब नकार दिया, बाप की इच्छाओं को ठुकराकर संगठन में शामिल हो गया, कामरेड! प्रभुदत्त के साथ।
कामरेड प्रभुदत्त के लिए संगठन और सतीश दोनों ही पर्याय हैं एक दूसरे के। कई-कई मोर्चों पर सतीश ने ही बचाया था कामरेड़ प्रभुदत्त को जान से, किसी भी जटिल एवं संघर्ष पूर्ण मोर्चें को आसान बना देना आसान हुआ करता था सतीश के लिए ...... और संगठन चलाना , नए लोगों को शामिल कर लेना , कोई सतीश से सीखे , आज संगठन का यह बढ़ता स्वरूप उसी के कारण ही तो है, इसलिए कामरेड प्रभुदत्त ,सतीश के बारे में कुछ फैसला नहीं ले पा रहे थे, जबकि संगठन में विद्रोह तेजी से उभरता जा रहा था, कामरेड रवि सक्सेना ने विरोधी मोर्चा संभाल लिया था, संगठन में उभरते-असंतोष के कारण सेक्रेटरिएट की बैठक आहूत कर ली गई थी , कामरेड रवि सक्सेना ने सतीश को दंडित किए जाने के निर्णय के पक्ष में अन्य कामरेडों को खुलकर सामने आने के लिए, प्रयास तेज कर दिया था, एक पल भी गंवाना उनके वश में नहीं रह गया था इससे अलग , यहां तक कि उसने कहना शुरू कर दिया था कि ‘जयकरन की औरत कामरेड सतीश की पूर्व प्रेमिका है, और उसका मायका उसके गांव की तरफ है भी,कामरेडों में कृत्रिम घृणा उत्पन्न होती जा रही थी, निश्चित ही सेक्रेटरिएट सतीश के लिए मृत्युदंड का ही फैसला लेगा,यह करीब-करीब तय था,कामरेड प्रभुदत्त टूटते जा रहे थे, इस तरह के अनावश्यक बदलाव अंौर उभरते असहमतियों के कारण, लगातार बीस वर्ष का उनका प्रयास विखरता जा रहा था ,ख्ंाड-,खंड होकर टूटता दीख रहा था उन्हें। उन्होंने जो संगठन की ईमारत बनाई थी वह धूं-धूं कर वर्ग-दुश्मनों की बखरियों की तरह जलती जान पड़ रही थी, उन्हें महसूस हो रहा था कि इस समय वे जयकरन की औरत की तरह रवि सक्सेना के पेैरों पर गिर कर सतीश के जीवन-दान की भीख मांग रहे हों फिर भी रवि सक्सेना ठोकर मार-मार कर उन्हें चोटिल कर रहा हो। उन्हें ऐसा भी लग रहा था कि रवि सक्शेना सतीश की हत्या करने के बाद उनके पेट में संगीन घोंपना चाहता है। कामरेड प्रभुदत्त ऐसा सोचकर कांप जाते हैं अब सेक्रेटरिएट की बैठक तो नाटक की तरह है, फैसला तो पहले ही करा चुका है रवि सक्सेना । खूब दारू पीते हैं, कामरेड प्रभुदत्त फिर सो जाते हैं उन्हीं के बगल में बैठा रह जाता है सतीश रात भर बिना सोए। अच्छी तरह से महसूस कर रहा है सतीश , कामरेड प्रभुदत्त में आए बदलाव का कारण। सुबह होते ही झगड़ जाता है प्रभुदत्त से ,‘आखिर क्यों हैं परेशान कामरेड ! यही न कि मुझे गोली मार दी जायेगी, कोई जीवित रहने के लिए जनमा है क्या? संगठन को बचाइए कामरेड ! मुझे छोड़िये मैने वस्तुतः अपराध किया है सामूहिक निर्णय को व्यक्तिगत निर्णय से क्षति पहुंचाया है , भला बताएं मैंने संगठन के लिए किया ही क्या है ? मैं वर्ग-च्युत भी तो नहीं हो पाया अब तक.........सर्वहारा समाज का भी नहीं हंू कामरेड ! मैं आत्म-हत्या कर लेता अब तक .....और आपको चिंतित भी न होना पड़ता मैं जानता हंू ‘विश्वास जब मर जाय तब मर जाना ही बेहतर होता है ‘ पर मुझे बहुत कुछ कहना है सेक्रेटरिएट में , इसी लिए जीवित हूं ...‘निवेदन है ,आप मेरी चिंता न करें,‘
‘चुप रहो‘! डांट दिया था कामरेड प्रभुदत्त ने कामरेड सतीश को, ‘बहुत सालों से संगठन के संचालन का काम देख रहे हो तुम ,जो कार्य हमारे लिए लक्ष्यगत तथा अनिवार्य रहे हैं और हमारे दुश्मनों के लिए भयानक, घृणित तथा क्रूर ,क्या कभी विरत हो पाए थे उनके कार्यों से तुम जयकरन को गोली मारना तय था, फिर तुम उसकी औरत के कारण ,कैसे भावुक हो गए ? कहॉ से उपज गई तुम्हारे भीतर संवेदन-शीलता ,वही संवेदनशीलता जो करोड़ों-करोड़ की हैं जिसके लिए हम प्रयास कर रहे है, फिर किसी एक के लिए कैसे-क्यों ? बता सकते हो, मैं जानता हूं तुम उस औरत को जानते तक नहीं.............. फिर उससे संबंध होने का सवाल ही नहीं, ‘सतीश चुप था , अकुलाया हुआ भीतर से , वह भी सोचता रहा है ‘ क्यों छोड़ दिया उसने जयकरन को ‘ इसका जबाब उसे नही मिल पा रहा था , वह इन थोथी संबेदनाओं से , संगठन के कार्य के निमित्त बाहर हो चुका था , फिर भी छोड़ दिया जयकरन को ............
‘कामरेड! मैं समझ नहीं पाया अब तक; आखिर क्या हो गया था मुझे उस दिन, उस औरत की रूलाइयों और चीखों ने मुझे कैसे भटका दिया उस दिन,मेरे लक्ष्य से ,उसने भइया कहा था शायद और मैं बेबस ,बेसहारा बहन का भाई बन गया था, संभवतः यही हुआ होगा, हालांकि हमारे किसी से कोई रिश्ते नहीं है‘ , फिर भी रिश्तों से बाहर नहीं हो पाए हम ..... ताज्जुब है कामरेड,‘
सतीश को आश्वस्त करते हुए कामरेड प्रभुदत्त ने कहा- ‘यही रिश्तों की भावुकता का यथार्थ है जो हमारे-तुम्हारे बीच है, जिसके कारण हम तुम्हें नहीं खोना चाहते कामरेड , और न ही संगठन तोड़ना चाहते हैं पर यह रवि सक्सेना.....,लगता है तोड़ डालेगा हमारे घरौंदे को, रवि ने हमारे संगठन को व्यक्तिवादी राजनीति का अखाड़ा बना दिया है, उसका लक्ष्य सिर्फ तुम्हें ही नहीं ,मुझे भी समाप्त करने तक का है ,अजीब तरह का षड़यंत्र रच रहा है वह। पचासवां पार कर चुके हैं कामरेड प्रभुदत्त, शरीर के अधिकांश हिस्सों से कभी छर्रे तो कभी गोलियां निकाली जा चुकी है उनके, पुरवइया बहते ही देह ऐंठने लगती है ,अब घर की याद नहीं आती, मां-पिता के मृत्यु का समाचार उन्हें मिला था, पर संगठन के कार्यों एवं नीतियों के चलते नहीं जा पाए थे गांव, जहां वे जन्मे थे, उनके कर्म का हिस्सा नहीं रह गया था यह सब, पूरी दुनिया उनकी है और उस पर वे अपनी नीतियों तथा कार्यक्रमों के साथ काबिज होना चाहते है ,उनका संगठन देश के एक दो जिलों तक ही प्रसार पा सका था, अन्य संगठन जो दूसरी जगहों पर कार्यरत थे, उनके साथ ताल-मेल हो ,ऐसा प्रयास भी किया गया था ,पर सब बेकार गया था। वैचारिक भिन्नताओं एवं पार्टी लाइन के चलते सभी संगठनों की हैसियत जुगनू से ऊपर नहीं- इसे जानते थे कामरेड प्रभुदत्त! इसी उधेड़-बुन और नई सुबह की आशा में गुजर चुके हैं बीस साल कामरेड प्रभुदत्त के। वे जानते है, सिर्फ दस साल आगे ही कुछ किया जा सकता है, फिर तो शरीर ही साथ नहीं देगा,
इधर का सामाजिक एवं राजनीतिक माहौल भी तो काफी कुछ बदल गया है ,बीस वर्ष पहले जिन वर्ग-दुश्मनों की पहचान जिन आधारों पर की गई थी; वे आधार भी तो काफी कुछ घिस-पिट गए हैं, बीस वर्ष पहले वाला वर्ग-दुश्मन अपना ही शत्रु बनता जा रहा है , आज जमीनों पर का उसका एकाधिकार सरकारी छद्म उदारताओं के कारण बहुत कुछ कम हुआ है, चुनाव की प्रक्रियाओं से लघु-मानव बहुत अर्थाें में सचेतन हुआ है,आज पुराना वर्ग-शत्रु नए रूपों में समाज में स्थापित होता जा रहा है, सरकार से सीधा तालुक रखने वाला राज-पोषित व्यक्ति आज सामंती चरित्र जी रहा है जिसमें अधिकारी भी है और नागरिक तथा प्रतिनिधि भी ,कामरेड प्रभुदत्त महसूसने लगे हैं कि आज की सामाजिक संरचना काफी-कुछ बदल गई है, जिसके संदर्भ में ही कामरेड प्रभुदत्त वर्ग-संघर्ष को व्याख्यायित करना चाहते हैं,खेतिहार मजदूर,औद्योगिक मजदूर, तमाम गरीब लोगों को एक साथ शामिल करना चाहते हैं कामरेड प्रभुदत्त, एक नया रास्ता बनाना चाहते हैं- वे इसे भी विश्लेषित करना-कराना चाहते हैं कि वे कौन से कारण हैं जिसकी वजह से भूख से परेशान आदमी भी गरीबी की भूख नहीं महसूस करता ? यातना और शोषण से त्रस्त आदमी सब कुछ ईश्वरीय मान लेता है ,क्यों नहीं चुनता संघर्ष का रास्ता ? जीवन और मृत्यु का कारण , वह खुद क्यों नहीं बनना चाहता ? बहुत कुछ लिखा है अपनी डायरी में प्रभुदत्त ने , यह भी लिख लिया है कि कामरेड सतीश हमारे न रहने के बाद भी अच्छी तरह समर्पित भाव से संचालित करता रहेगा हमारे संगठन के कार्यों को, बदलाव की इस दिया को कभी बुझने नहीं देगा कामरेड सतीश। सेक्रेटरिएट की बैठक की अध्यक्षता करते हुए कामरेड प्रभुदत्त,कामरेड सतीश को गोली से उड़ा देने का आदेश दे देते हैं , हालांकि यह कार्य कोई नया नहीं था कामरेड प्रभुदत्त के लिए, फिर भी साफ-साफ महसूस कर रहा था सतीश कि कामरेड़ प्रभुदत्त कांप रहे हैं और उनकी जुबान लड़खड़ा रही है , फैसला हो चुका था ,संगठन के नियमानुसार कामरेड़ सतीश को अस्थाई हवालात में बंद कर दिया गया था ,ऐसे अवसरों पर जश्न मनाया जाता रहा है संगठन में ,ताकि अभियुक्त से जुड़ी तमाम संवेदनाओं को भुलाया जा सके और स्मृति क्षय हो सके , नियमानुसार ठीक तीसरे दिन कामरेड सतीश को गोली से उड़ा दिया जाना था।
कामरेड प्रभुदत्त के लिए उनके संघर्षपूर्ण जीवन का सबसे क्रूर और अनिष्टकारी फैसला था यह , सेक्रेटरिएट की कार्यवाही समाप्त होते ही अपने नियत विश्राम स्थल तक लौट आते हैं कामरेड प्रभुदत्त। सेक्रेटरिएट की बैठक में कामरेड सतीश ने कहा था.......
‘महोदय मुझे तीन दिन तक जीवित रहने का मौका न दिया जाए, यह मेरे साथ अन्याय होगा , मैं अपराधी बनकर एक क्षण भी नहीं जीना चाहूंगा ,आज और अभी ,इसी क्षण मुझे गोली मार दी जाए , यह तीन दिन बाद गोली मारे जाने का नियम भी संभवतः हम कामरेडों ने छद्म भावुकता में ही बनाया था, कृपया इसे आज और इसी वक्त तोड़ दीजिए ,‘ ऐसी भावुकता व संवेदनशीलता नहीं चलनी चाहिए।
कौन सुनता एक अपराधी की बात ,सभी जश्न मनाने में मशगूल हो गए थे, पर रवि सक्सेना सक्रिय था ,वह कुछ और ही चाहता था, उधर कामरेड प्रभुदत्त के लिए कठिन होता जा रहा था वक्त काटना, सतीश से मिलना चाह रहे थे, पर नहीं मिल पा रहे थे......मानसिक अंतर्द्वद्व के शिकार प्रभुदत्त ; अनिर्णय की स्थिति में काफी लाचार और बेबस हुए जा रहे थे, लेनिन की पुस्तक ‘क्या करें‘ को आखिर कितना पढ़ते ? कहां से मिलता उसमें इस तरह की कार्यवाहियों पर कोई विचार ? सक्रिय , समर्पित तथा प्रतिबद्ध कामरेड़ों की एकाध भूलों को किस प्रकार माफ किया जा सकता है, वैसे एंजिल ने भी तो कई-कई बार अपनी स्थापनाओं में काफी फेर बदल किया था , अंततः कामरेड प्रभुदत्त बिफर पड़ते हैं, आंखे छल-छला जाती हैं, क्रांति का यह क्रूर दर्शन उन्हें काफी बोझिल लगने लगता है, हिंसा-प्रतिहिंसा यह क्या है ? उत्पीड़कों का सफाया उत्पीड़न के द्वारा, हिंसा की समाप्ति हिंसा के द्वारा ,कदापि नहीं ,चीख पड़ते हैं कामरेड प्रभुदत्त ‘नहीं-नहीं , ऐसा नहीं होने दूंगा ,‘
कामरेड प्रभुदत्त जान चुके थे कि रवि सक्सेना हमारे संगठन की जमीन में बो चुका है उन्नत किस्म का षड़यंत्रकारी बीज, और मौजूदा राजनीति की व्यक्तिवादी संस्कृति से संस्कारित करना चाहता है पूरे संगठन को, छोड़ देना चाहता है संगठन की अनिवार्य प्रक्रियाओं को ,कामरेड सतीश को हटाकर , वह अपना लक्ष्य पा सकता है और बदल सकता है संगठन को एक उग्रवादी दल में, सिद्धांत हीन..कामरेड प्रभुदत्त को अपनी मानसिक संरचना की तिलिस्म में हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा दीखने लगता है ,रात काफी जा चुकी थी....सो नहीं पा रहे थे प्रभुदत्त, सोना भी कहां था ?
थोड़ी खड़-खड़ाहट होती है, जग जाता है सतीश ,कौन है ? पूछना चाहता है, तब तक उसका मुंह ढक जाता है,एक बलिष्ठ पंजे से, हंू धीरे से.....मैं हूं ‘
‘अरे कामरेड ! आप ! ‘
‘चुप ! वक्त नहीं है बातें फिर होंगी, चलो, ‘फैसले की दूसरी रात थी यह, घुप्प अंधेरे में काफी दूर निकल आए थे दोनों लोग, स्टेशन थोड़ी ही दूर पर था, कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद रेल आ जाती है ,दोनों लोग डिब्बे में सवार हो जाते हैं, बिना जाने कहां जाना है और क्यों जाना है, भीतर से व्याकुल था सतीश ‘यह क्या किया कामरेड़ आपने, अब क्या होगा संगठन का, आखिर हम सब ने जो किया अब तक उसका क्या होगा ?
गाड़ी में बैठने के बाद ही, पूछता है सतीश , कामरेड प्रभुदत्त से ‘यह क्या किया आपने कामरेड ?
चाहे जो हो, जिस संगठन में रवि सक्सेना जैसा महत्वाकांक्षी हो ,जिसके राजनीति का आधार ही षडयंत्र हो, उस संगठन का भविष्य क्या और क्या वर्तमान? जिस दिन तुमने जयकरन को छोड़ दिया था उस अभियान में रवि सक्सेना भी तो था, वहीं मौके पर ही उसने विरोध क्यों नहीं किया था ? आखिर वह क्या चाहता था, यही न कि सतीश को संगठन के फैसले से ही मारा जाए और संगठन पर अपना दबाब बनाया जाए,‘ मैं तुम्हें नही खोना चाहता था कॉमरेड ! तुम्हें खोने का मतलब ;खोना बहुत कुछ और पाना कुछ भी नहीं,‘ कॉमरेड प्रभुदत्त ने कहते-कहते कॉमरेड सतीश को गले लगा लिया था ,
‘हमें तुम पर उतना ही नाज है जितना अपने आप पर घ्णा , मै अनायास ही टकरा गया था सिंद्धांतों के पहाड़ों से...सिर फूटते-फूटते बचा है कामरेड सतीश, हमें फिर से सोचना समझना होगा ,सामाजिक संरचना को ,जीवन के द्वंद्व को, प्रकृति और पुरूष को, व्यक्ति तथा समष्टि के यथार्थ को नए संदर्भों में व्यक्ति और पदार्थ के रिश्तों को व्याख्यायित करना होगा, फिर नई रूप-रेखा निकलेगी संघर्ष की, वही हमारे लिए आवश्यक होगा‘,
गाड़ी अपनी रफ्तार से चली जा रही थी , निश्चित ही वे लोग वहीं उतरे होंगे जहां गाड़ी का आखिरी पड़ाव होगा और उन लोगों का प्रस्थान स्थल।
'''दूसरी परंपरा'''
[[File:Dusari parampra दूसरी परंपरा.jpg|thumb|आदिवासी एवं दलित जीवन पर केंद्रित कहानी संग्रह]]
काली रात , हर ओर सांय-सांय, बादलों की तड़क-गरज भी नहीं, कुछ भी दिख नहीं रहा, भयानक अंधेरा-अंधेरा भी बोलता, बतियाता, गुदगुदाता, अब उसे अंधेरे की गुदगुदियों से कुछ लेना-देना नहीं, पहले की बात दूसरी थी........वे पढ़ाई के दिन थे, पिता जीवित थे, घर पहुंचते ही पिता के सवाल उसकी खोपड़ी झनझना देते थे,
‘इतनी रात तक कहां थे? पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे रहे?’
पहले तो नहीं, पर बाद में उसे विश्वसनीय झूठ बोलने की आदत पड़ गई थी, बाद में पिता ने तो पूछना ही बंद कर दिया था... शायद वे समझने लगे थे कि कुछ- कुछ इतर है, उसके बाद तो उसे पिता या मां को कुछ भी न बताना पड़ता कि व अंधेरे की भाषा को झूठ की लिपि पहनाने की कला सीख रहा है, अब तो उसे विशेषज्ञता भी हासिल हो चुकी है...
उसे लगता कि सारी गुदगुदियां अंधेरे की भाषा में कैद हैं... वह वही दौर था जब उसे हर ओर हंसियां ही हंसियां दिखतीं.... खूबसूरत आंखे, पांव, पतले-पतले होठ , पतली कमर का लहराना, दिखता फिर तो उसे लगता कि यह अंधेरे की भाषा है जिससे सारी चीजें चमकदार दिखती हैं,
चमकदार चीजें उसे इतना प्रभावित करतीं कि उसे उजाले से घिन होने लगी थी,
अचानक नहीं हुआ ऐसा कि उसे अब अंधेरे की भाषा व उसकी गुदगुदियों में कोई रूचि नहीं जबकि वह दिखावटी ही सही रामरामी, गायत्री या वेदों वाला कोई संत नहीं.... सन्तई व उसके प्रबोधनों से उसका दूर का भी नाता नहीं.....
वैसे आज भी जरूरी कामों को उसे अंधेरे में ही निपटाना पड़ता है, अंधेरे से बोलना बतियाना होता है पर उसमें गुदगुदियां नहीं, लक्ष्य होता है, बलिदानी उर्जा होती है, उन कामों को उजाले मेें करते समय अप्रत्याशित , बाधाओं, उलझाओं का उसे डर बना रहता है, उसका मानना है कि काम तो काम होता है, काम के समय गुदगुदियों से यदि परहेज नहीं किया गया फिर तो लक्ष्य में भटकाव आना असम्भव नहीं, अब तो उसे पहले वाली गुदगुदियां अंधेरे की भाषा में नहीं दिखतीं....
वही अंधेरा, वही सांय-सांय गुदगुदियों वाला मौका पर अब वैसा नहीं, किसी भी तरह का डर भी नहीं, पहले अंधेरा उसे पीता था पर अब उसे वह पीता है, लेकिन आज वह डर रहा है, उसे आज यह डर क्यों आक्रांत कर रहा है, कुछ भी स्पष्ट नहीं,
डरते हुए ही उसे महसूस हुआ कि उसके पास वाले मोटे-मोटे दरखत दिखने लगे हैं पर साफ-साफ नहीं कि वे पहचाने जा सकें, उसे लगा कि दरख्त भी डरे हुए हैं तथा भयानक चुप्पी में हैं, तभी उसकी कमर में तथा पीठ में तेज दर्द उभरा... वह रस्से का यातनादायी बधाव था, एकदम से कसा हुआ, हिल भी न सको, बांधे जाते समय ही नहीं उसे पहले से ही गुमान था कि वह पेड़ की तरह सख्त व स्थिर है, पेड़ जैसा ही सालों साल खड़ा रह सकता है, पेड़ों की जड़ों की तरह उसकी जड़े भी काफी गहरे तक धंसी हैं, कोई दुलारे , खिलाए या नहीं फिर भी उससे उसका लहराना, झूमना नहीं छीना जा सकता ,
उसे याद है पहले की बात जब उसने कामरेड मौर्या से कहा था , ‘कामरेड कोई मेरी चमड़ी उतार ले फिर भी नहीं बताऊंगा कि मैं कौन हूं, क्योंकि मैं अच्छी तरह जानता हूं कि मेरे होने का मतलब क्या है........’
कामरेड मौर्या किसी मुर्झाए फूल की हंसी हंस दिए थे, उस वक्त मौर्या का हंसना उसे अच्छा नहीं लगा था, पर आज, पेड़ों की तरह लहराना व झूमना आखिर क्या है कि सारा कुछ छिना जा रहा है, वह डर क्यों रहा है ? क्या उसे नहीं मालूम कि मृत्यु को विज्ञान या कोई विचार स्थगित नहीं कर सकता, कहीं..... पागल तो नहीं हो गया ?
नहीं ऐसा नहीं , उसे पागलपन कभी नहीं जकड़ सकता, उसने मन की चंचलता को दृढ़ किया तथा स्नेहिल आत्मीयता से जंगल के बारे में सोचा, उसे मालूम था कि वह जंगल में है, उसी जंगल में जिसके दरख्तों, झाड़ियों,नालों व पठारों से उसकी मर्मभरी गुफ्तगू होती रही है, अंतरंगता इतनी कि उसे झाड़ियों तक से वह सब बताना पड़ता था जो सामान्यतया छिपाव की बातें होती हैं पर उसे कटे हुए खुत्थों को देखकर अनामंत्रित गुस्सा आ जाता है, उसकी मुट्ठियां कस जाती हैं.....
‘कितने हरामजादे हैं लोग जो दरख्तों तक का कत्ल करते हैं, उनकी आंतों में से कुर्सियां पलंग, टेबुल जैसी किसम किसम की बस्तुएं निकालते हैं....
उसके इस जंगल में होने के बाद से ही तो यह खेल स्थगित है... वरना अब तक तो सूरज यहां के चप्पे-चप्पे पर काबिज होकर जंगल का सारा हरापन सोख चुका होता, पहाड़ियों को छेद कर उसकी दृढ़ता को लुजलुज बना चुका होता....बंधे हुए ही उसने थोड़ा झुकने की कोशिश की कि जानकारी ले सके, पांवों के पास होने वाली सरसराहट आखिर क्यों है, पर झुक पाना उसके लिए आसान या संभव ही नहीं था, उसे मजबूती से जकड़ा गया था, हाथों को पहले ही बांध दिया गया था, अब उसकी स्थिति उसी पेड़ जैसी थी जिससे उसे बांधा गया था, पेड़ हिलता तभी उसमें हरकत होती,
थोड़ा झुकने की कोशिश में उसे दर्द का आभास हुआ लगा कि पीठ दो फांकों में चीरी जा रही है, फिर तो सरसराहट उसके मन से कहीं निकल गई, पर ऐसा नहीं था,
सरसराहट जारी थी, जो पांवों ,घुटनों से होते हुए सिर तक जा चुकी थी तभी अचानक सरसराहट नीचे उतरी, पांवों पर आकर स्थिर हो गई....
उसने पैरों को झटका दिया, भद्द जैसी गिरने की आवाज हुई, जैसे कोई मुलायम चीज गिरी हो, वह सांप भी हो सकता था, या गिरगिटान, नेवला, गिलहरी, चूहा, मेढ़क, कुछ भी, उसने अनुमान लगाया फिर विश्लेषित करने लगा कि सांप होता तो उसका ठंडापन पांव पीते, नेवला होता तो उसके पंजे गड़ते, इसी तरह जाने कितने जीव जंतुओं के बारे में किसी जीव विज्ञानी की तरह उसने सोचा, तभी उसे महसूस हुआ कि उसके पांवों पर फिर से सरसराहट होने लगी है....
इस सरसराहट ने उसे डरा दिया पर प्रतिकार स्वरूप कुछ कर सकने की क्षमता उसमें न थी, उसने दुबारा पांव झटकना चाहा पर, सरसराहट थी कि उसके पेट को नापते, मुंह व नाक को सहलाते ऊपर चढ़ चुकी थी फिर अचानक गायब , उसने अनुमान किया कि कोई जन्तु या कीड़ा रहा होगा, पेड़ पर चढ़कर मौज लेने वाला,
हालांकि उसे अनुमान तक न हो सका कि चढ़ने वाला क्या था, किस प्रजाति का था पर उसके चढ़ने से उसे जिस तरह की गुदगुदी का आभास हुआ उस पर उसे हंसी आ गई.... क्योंकि गुदगुदी पहले की तरह थी... दिल सहलाने वाली, कानों में श्रृंगार घोलने वाली , उसे खुद पर ताज्जुब हुआ, आखिर उसे अंधेरे की भाषा भूलने के लिए कितना समय चाहिए....
एक ऐसे समय में जबकि उसे बधस्थल पर बांधा जा चुका है बध करने के लिए.... शांति व्यवस्था पर बलि चढ़ाने के लिए फिर भी उसे गुदगुदियों में गोता लगाने की सूझ रही है, उसने खुद को लताड़ा....
अब उसे अपना बंधना महसूस हुआ..... ‘पेड़ से बंधे हुए दो घंटे तो गुजर ही गए होगें, आखिर क्यों देरी कर रहे हैं सब?’ उसे गोली मारनेवालों पर, उनकी लेट-लतीफी व लापरवाही पर घृणा हुई, उसने उन्हें भद्दी सी गाली दी ‘साले तनख्वाह लेंगे मोटी, सुविधा राजा महाराजाओं की तरह और काम, बाकी कामों में तो वे गैर जिम्मेदारी बरतते ही हैं, गोली मारने में भी देरी करते हें... छिः लानत है, उसने गर्दन घुमाया तथा पिच्च से थूक दिया जैसे घृणा से उसके मुंह में खंखार आ गया हो तथा सांस लेने में दिक्कत हो रही हो, जब उसे पकड़ा गया था तभी उसने निश्चित कर लिया था कि उसे गोली मारी जायगी, काउन्टर साहब यहीं होगा कहीं आसपास, उसे कोतवाल बनना है, आखिर किसे तरक्की पसंद नहीं ?
‘तरक्की भी वाह! क्या चीज है’ तभी तो सुधेसर ने ऐसा करवाया , नही ंतो उसे कौन पकड़ पाता, किसी को क्या पता कि मैं कहां हूं, कहां आता-जाता हूं, कामरेड़ मौर्या भी तो नहीं जानते.... सुधेसर का सोचना है कि संगठन में सवर्णों की भर्ती नहीं होनी चाहिए.... फिर यह ठाकुर तो संगठन का आला अगुआ है, इसके रहते उसकी तरक्की नहीं हो पाएगी......
उसे सुधेसर का चेहरा दिखा....लाल-लाल खूनी चकत्तों वाला .... उसे चिंता हुई.... आखिर जाति से मुक्त होने के लिए क्या रास्ते हैं उसके पास ... अक्ल हो तो कोई देख ले उसका काम , आज किसी भी ठाकुर की गर्दन आसमान की ओर तनती नहीं, सभी की आंखे जमीन की तरफ... जान बचाने का रास्ता तलाशती , आखिर यह किसे नहीं मालुम कि सिर का नाता यदि धड़ से बनाए रखना है फिर तो जमीन की तरफ ही देखना होगा तथा माथा पांवों से चिपकाना होगा दूसरों के नहीं अपने पांवों से , सुधेसर के लिए आसान था उसे पकड़वाना तथा मानकर चलना कि काउंटर साहब गोली ही मारेगा फिर तो उसने किसी ठाकुर की मद्द लेकर पुलिस को अवगत कर दिया होगा, नहीं तो पुलिस झोकहवा नाले तक क्यों आती ?
किसी भी हाल में उसे साल में एक बार, निश्चित तिथि पर यानी ठीक सत्रह जुलाई को झोकहवा नाले के पास वाली पहाड़ी पर जाना ही है.... पूरी रात के लिए जहां सत्तो की मुठभेड़ में हत्या की गई थी... सुधेसर भाग लिया था पर सत्तो डटी रह गई थी, रायफल की अंतिम गोली तक, सत्तो सुधेसर के जाति की थी पर थी जाति से बाहर, वह स्त्री होने से भी बाहर थी, कायदा-कानूनों के कष्टदायी लदावों से घृणा करने वाली, वह सिर्फ मनुष्य बनकर रहना चाहती थी, कायदा-कानून , या क सत्तो से चिढ़ता था कि वह उसे क्यों नहीं सहलाती ? किसी ठाकुर के साथ क्यों है? लेकिन यह सब सोचना उसे मजाक जैसा लगा क्या होगा सोचकर ? घंटे दो घंटे में ही काउंटर साहब उसे गोली मार देगा फिर वह प्रकृति में घुल जाएगा लेकिन तभी उसे झटका जैसा लगा, जैसे उसके जिस्म का सारा खून चूस लिया गया हो,
‘कहीं बैजू की तरह उसे भी या यह डर तो उसे पहले भी था, हो सकता है यातनागृह में डाल दे फिर सिगरेटों व बिजली के करंेट से देह निचोड़ना शुरू करे लेकिन जब उसे थाना तक नहीं ले जाया गया, जंगल में ही पेड़ से बांध दिया गया फिर तो उसके मन से डर जैसी चीज फुर्र हो गई थी....
शायद ऐसा नहीं है ‘गोली मारना होता तो मार दिया होता, उसी समय जब उसे पकड़ा गया था, जब वह झोकहवा नाले के पास वाली पहाड़ी पर बैठकर सत्तो की स्मृतियों से छेड़-छाड़ कर रहा था और सत्तो उसकी आंखों में उन्मुक्त गोता लगा रही थी, हूबहू वही, रूप वही रंग वही, चाल वही’ उसने उस समय अपनी रायफल चट्टान पर रख दिया था तथा जहां बैठता था सत्तों में डूबने के लिए बैठ गया था तभी उसकी पकड़ हो गई,
पकड़ तो होनी ही थी , उसका हाथ पैर मारकर प्रतिकार करना बेकार गया, दो चट्टानों की दरारों में से उगी हुई पत्थर चट्टा घास भी उस समय इतनी मुलायम हो गई थी कि रौंदा गई थी, उसे पत्थर चट्टा तथा सत्तो की सख्ती में कभी फर्क समझ में नहीं आया पर सत्तो पत्थर चट्टा के अलावा भी बहुत कुछ थी उसके लिए, पेड़ से बंधा होना उसे काफी कष्टदायी लगने लगा, अचानक उसने भाग्य को कोसा , हालांकि वह भाग्यवादी नहीं था फिर भी .... उसे सत्तो याद आने लगी थी कि पहली गोली में ही उसकी मुलाकात सत्तो से हो जाएगी क्योंकि पुलिस वाले बंधे हुए आदमी को गोली मारने में असावधानी नहीं करते, ठीक-ठीक खोपड़ी में मारते हैं... पर ऐसा हो कहां रहा था ... पुलिस वालों की वहां गंध तक न थी....
विगत के उतार-चढ़ाव के दौरान ही उसे आहट लगी कि बूटों की आवाज उसकी तरफ आ रही है....... उसने अपना ध्यान उस तरफ मोड़ दिया... उसे समझ में आया कि कोई अकेला आ रहा है, पुलिस अकेली तो होती नहीं....
वास्तव में आने वाला अकेला ही था जो जमीन दबाते हुए आ रहा था हालांकि आने वाला दिखने में बाहर था...झिलमिल जैसा.... उसने आंखों पर दबाब बनाया कि आने वाला साफ-साफ दिखे... कुछ देर बाद दबाब की आवश्यकता न थी.....आने वाले की गंध ही ऐसी थी कि उसने अनुमान पक्का कर लिया,‘पुलिस वाला है’,
आने वाला पुलिस वाला ही था हुक्मरानी गंध में सरोबार, हाथ में रायफल लिए, कड़क चाल, आने वाला इतना पास आ गया कि उसने पहचान लिया ‘काउंटर साहब’,
उसे इतनी खुशी हुई कि उसके मन मस्तिष्क से डर जैसी बेबुनियाद चीज फुर्र हो गई, अंधेरे की बदली हुई भाषा उसके अनुकूल लगने लगी.....
काउंटर साहब कुछ ही क्षण में उसके सामने था..... उसने तनेन होकर उससे पूछा..
‘तो तुम कुछ नहीं बताओगे, यहां तक कि अपना नाम भी’,
मैं बताना जरूरी नहीं समझता... उसने बताया,
तुम्हें मालूम होना चाहिए कि तुम बन्दी हो, तुम अपराधी ही नहीं आतंकवादी भी हो और तुम्हारी सजा... काउंटर साहब बोलते-बोलते रूक गया, जैसे जो कह रहा है, वह नहीं कहना चाहिए....
उसने काउंटर साहब की बात का सिरा जोड़ा...
‘मौत, फांसी या गोली, यही न... तुम्हारे जैसे डरपोक गोली नहीं मारा करते’,
‘अच्छा! मैं डरपोक हूं’ कहकर काउंटर साहब ने रायफल की नाल उसकी खोपड़ी पर टिका दिया... फिर पहले वाला सवाल दुहराया,
‘तो तुम अब भी कुछ नहीं बताओगे,’
‘अब भी नहीं, कभी भी कुछ नहीं?’ उसने सगर्व बताया,
‘देखता हूं कितना दम है?’ काउंटर साहब ने राइफल की नाल उसकी खोपड़ी मंे धसांया ... उसे दर्द हुआ वैसे भी रस्से का बंधन उसे काफी तकलीफ दे रहा था, काउन्टर साहब ने नाल थोड़ा जोर से सटाकर उसे धमकाया.....
‘खोपड़ी उधरा जाएगी’ थोड़ी मासूमियत से सरकारी गव साहब ने उसे फिर फुसलाना चाहा...
‘आखिर बता क्यों नहीं देते संगठन के बारे में ... मैं वादा करता हूं तुम्हें कुछ नहीं होगा ... दो चार साल जेल में रहने के बाद बाहर आ जाओगे... तब तक तो तुम इतने प्रचारित व चर्चित हो चुके रहोगे कि किसी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर कम से कम विधायक तो बन ही जाओगे..’.
अच्छा! उ‘तो तुम गोशाले में बंधने की सलाह दे रहे हो?’ आखिर तुम मुझमें किस स्वार्थ के कारण रूचि ले रहे हो... अगर कुछ जानना चाहते हो तो सुनो... वैसे तुम्हारा सवाल काफी बेहूदा है... मैं तो तुम्हारी पुलिस के बारे में नहीं पूछ रहा...
‘फिर भी तुम्हें बता दूं पर तुम्हें यकीन नहीं होगा, मेरे संगठन के बारे में जितना तुम या तुम्हारी पुलिस जानती है उतना भी मुझे नहीं मालूम, चाहूं भी तो नहीं जान सकता- आंध्र से लेकर यहां तक , तुम्हारे थाने से लेकर तुम्हारे गांव व घर तक... कहां नहीं है संगठन... अब ऐसे में भला मैं क्या बताऊं ?‘तो तुम नहीं बताओगे... कोई भी अपराधी अपने बारे में नहीं बताता..’ काउन्टर साहब खीझ उठा... तथा उसे अपराधी संबोधित करने पर गुस्सा आ गया... उसने साफ-साफ पूछा...
कौन है अपराधी ? मैं या तुम .... तो सुन लो मैं अपराधी नहीं, अपराधी तुम और तुम्हारे जैसे लोग हैं जो बेमतलब का कानूनी शर्बत हर उस आदमी को पिलाते है जिसकी भूख तथा गरीबी कोई कानून नहीं मिटा सका.....?’
काउंटर साहब ने उसकी खोपड़ी पर से नाल हटा लिया तथा एक ही हाथ से रायफल हवा में लहराया.... फिर धांय... जंगल की प्रति ध्वनि गूंजी, काउंटर साहब ख्यात व कुख्यात के बीच का इन्सान था, अक्सर लोगों के एनकाउंटर ही करता था, एनकाउंटर के लिए वह पल्ले से रूपया खर्चता , अपराधिक इतिहास वालों का पता करता... जंगल के किसी पेड़ से बंधवाकर गोली मरवा देता... फिर ईनाम लेता, अखबारों में मुठभेड़ की खबर छपती... पुलिस के उच्चाधिकारी इस तरह के उत्तर आधुनिक मुठभेड़ पर सीना फुलाते तथा एनजीओ वाले सबाल्टर्न कहानी गढ़कर फंड जोगाड़ लेते,
‘साला गोली नहीं मारेगा’ उसे कामरेड बैजू का ख्याल दुबारा आया, फिर तो उसे आंतरिक कंपकंपी रोकना था क्योंकि काउन्टर साहब सामने था, वह मजाक उड़ाता... उसने खुद को संयत किया फिर दृढ़ होकर बोलना शुरू किया... लगभग आदेशात्मक शैली में-
‘नाल अपनी तरफ कर लो, उसकी मर्यादा होती है, तुम्हारे जैसा हत्यारा इसे नहीं समझेगा, तूने एक गोली बेमतलब हवा में उड़ा दिया, मालूम है जंगल इस समय गहरी नींद में है, सारे पेड़ दिनभर की थकान मिटाने में हैं, ऊपर देखो पत्ते कांप रहे हैं, पतली सी डार पेड़ से अलग होकर अभी गिरी है, बांई ओर से हटकर थोड़ा दाहिने घूमो... पेड़ों की जड़ के पास कान लगाकर सुनो, तुम्हें कराह सुनाई देगी...
लेकिन पेड़ों से संवाद करना तो तुम्हें पढ़ाया नहीं गया, जंगल का अनुशासन तुम सीखना नहीं चाहोगे, पेड़ों को थोड़ा सहलाओ, फिर देखो तो वहां तुम्हारी मूर्खताओं के काले धब्बे दिखेंगे, खैर तुमसे उम्मीद करना कि प्रकृति का न्याय जो प्रकृति की भाषा में है, उसे तुम पढ़ोगे बेवकूफी होगी....
वैसे बेवकूफी तो यह भी है कि मैं तुमसे बातें कर रहा हूं, जल्दी करो, अपना काम निपटाओ तथा गोली मारो जिसके लिए मोटी तनख्वाह डकारते हो.....?
काउन्टर सहाब उसे देखने में लगातार था, उसने रायफल सीधी कर लिया, कहीं से अचरज का एक अनगढ़ टुकड़ा आया तथा उसके चेहरे पर चिपक गया...
‘बातें इन्ट्रेस्टिंग करते हो, पढ़े-लिखे जान पड़ते हो , वैसे तुम्हारे जैसा अब तक कोई नहीं मिला,’ काउन्टर साहब ने तर्क प्रति तर्क को आगे बढ़ाया जैसे काफी फुर्सत में हो तथा पुलसिया काम को खेल समझता हो, उसने कुछ सोचकर कहा... जो पूछने जैसा था ......
गोया तुम दार्शनिक हो...
तुम मुझे गाली दे रहे हो... उसने फटाका काउन्टर साहब को रोका...
दार्शनिक कहना गाली देना है क्या ? लगता है गलियों को तुम नीतिशतक का हिस्सा मानते हो.... काउन्टर साहब ने उसके ऊपर व्यंग्य फेका....
आखिर तुम देर क्यों कर रहे हो ? क्यों नहीं मारते गोली, उसने झुंझलाकर पूछा... वस्तुतः उसे घबराहट होने लगी थी, कुछ न कुछ गड़बड़ अवश्य है,
‘तो क्या तुम मुंह नहीं खोलोगे ?’ काउन्टर साहब ने पूछा...
‘कभी नहीं, क्योंकि यह तुम्हारी चिंता है मेरी नहीं कि तुम मेरा उपयोग कैसे करोगे... गोली मारोगे या यातनागृह में डालकर जबरिया कहलवाओगे कि मैं अपराधी हूं, वगैरह-वगैरह... इस तरह का घटिया काम तुम्हारे जैसे लोग ही किया करते हैं,
काउन्टर साहब हंसने लगा... हंसते हुए ही उसने अपना पक्ष रखा....
‘इस समय कोई बेवकूफ ही तुम्हें गोली मारेगा, वैसे भी तुम्हारी काबिलियत किसी को भी गोली मारने से रोक देगी, जरा सोचो तो...’ थोड़ा रूककर काउन्टर साहब बोला.....
इस समय तुम रस्से से बंधे हो, भयानक जंगल में, हर ओर सांय-सांय, फिल्मी दृश्य जैसा...हूबहू वैसा ही... दृश्य....फिल्म का खलनायक हीरो को बंधवा देता है फिर गोली मारने का उपक्रम करता है, दर्शक समझते हैं कि गोली चलेगी पर चलती नहीं, नाटकीय ढंग से कुछ लोग आते हैं तथा हीरो
को छुड़ा ले जाते हैं... लेकिन तुम छुड़ाए नहीं जा सकोगे, पूरा बार्डर सील है... ऐसे में कुछ नहीं हो सकता... मैं तुम्हें आखिरी मौका देता हूं साफ-साफ बता दो...’ कहकर काउंटर साहब ने रायफल की मैगजीन देखा उसमें एक कारतूस और लोड किया...
उसने काउन्टर साहब को आवेशित करने की गरज से टोका...
‘तुम कायर हो मिस्टर एनकाउंटर , गोली मारना तुम्हारे वश का नहीं, साथ ही साथ तुम मूर्ख भी हो , यदि तुम समझते हो कि यातनागृह में मैं अपने होने के बारे में बता दूंगा तो यह तुम्हारी बेवकूफी होगी... कहो तो अपना चमड़ा उतार कर दिखाऊं.....’
‘अच्छा! ऐसा कर सकते हो’ काउंटर साहब ने उसे कसा....
फिर उसने काउंटर साहब से कहा... जहां चाहो छील दो, या कील ठोंको, उफ्फ तक न करूंगा... काउंटर साहब ने वैसा किया भी पर उसने सी तक नहीं किया... यह देखकर काउंटर साहब चकरा गया...एक बार तो उसके मन में आया कि गोली मार दे पर उसने यह विचार समाप्त कर दिया....
आखिरी बार काउंटर साहब से उसने कहा...
साफ-साफ बताओ... क्या अब भी गोली नहीं मारोगे, सुबह होने वाली है...आसमान साफ होने पर गोली मारोगे तो जंगल तुम पर थूकेगा, पेड़ गालिया दंेगे...समझे...
‘सही सही जानना चाहते हो तो जान लो, मैं तुम्हें गोली नहीं मारूंगा... तुम्हारे जैसों को गोली मारना मूर्खता होती है, तुम तो यातनागृह में सड़ने के काबिल हो... जब तुम्हें देखा नहीं था तो निश्चित था कि गोली मारूंगा, तुम्हारी पकड़ के समय मैं था भी नहीं... तुम्हें यहीं देखा, पहली बार देखते ही मुझे महसूस हुआ कि तम्हारी आंखों में तुम्हारे विचार क्या कहोगे आइडियोलाजी... हां-हां वही तैर रहे थे, तुम्हारे चेहरे पर उसकी दृढ़ता थी तथा बलिदान होने की अप्रतिम चाहना भी ... जबकि सिपाहियों ने बताया था कि पकड़ के समय तुम डरे हुए थे...शायद बांधे जाने के समय भी...
काउंटर साहब ठीक उसके सामने था, तथा उसकी आंखें प्रशासनिक नीतियों की तरह ऊपर नीचे हो रही थीं, सहज ही अनुमान किया जा सकता था कि उसमें धोखे तैर रहे हैं, उसने डर के बारे में सफाई देना ठीक समझा तथा काउंटर साहब से बोला...
‘मिस्टर काउंटर , यानी कि दरोगा जी, हालांकि तुम एक संवेदनहीन आदमी नहीं हो फिर भी मैं तुम्हंे बताऊं कि मुझे यातनगृहों से काफी डर लगती है, क्योंकि योगियों जैसे देह साधक भी करेंटों, बेंत की मारों, चूतड़ पर गर्म पानी (खौलता हुआ) का छिड़काव, फिर हाथों, पावों के नाखूनों का खिंचाव नहीं सह सकता, वह चीख पड़ेगा... मनुष्य होने की प्राकृतिक कमजोरी उसके साथ बनी रहेगी...’
सो मैं बांधे जाते समय डर रहा था, अब भी डर रहा हूं क्योंकि तुम पुलिस वाले हो, क्या मालूम कि कब क्या करोगे ?
काउंटर साहब गंभीर होकर उसे सुन रहा था, उसने थोड़ा रूककर काउंटर साहब से पूछा...
मिस्टर काउंटर! मैं समझता था कि तुम धोखेबाज नहीं हो, पर तुम धोखे बाज निकले, मुझे धोखे से पकड़वा लिया...
‘धोखा नहीं कार्य योजना बोलो कामरेड, यह इक्कीसवीं सदी है सारा कुछ वर्क प्लान से किया जाता है, तुम्हारी गिरफ्तारी ‘आपरेशन कैट ’का हिस्सा है, समझे.’ काउन्टर साहब ने खुलासा किया, उसने काउंटर सहाब के खुलासे पर प्रहार किया...
‘बकवास ! यह सरासर झूठ है मि0 काउंटर... आपरेशन कैट...वाह! क्या नाम है,
तुम बाघ हो क्या ? गीदड़ की तरह भागने वाला, मुठभेड़ों से डरने वाला... मैं समझ सकता हूं तुम्हारी मजबूरियां... तुम नौकरी करते हो, जो गुलामी का ही एक रूप है... आखिरी बार तुमसे पूछता हूं...’
‘क्या तुम सही में गोली नहीं मारेगे ?’
काउंटर साहब को हंसी आ गई, वह खूब हंसा, उसकी हंसी में उसे भी घुलना होता पर वह गंभीर था, तथा यातनागृह में जाने की मानसिक तैयारी में था... उसे यातनागृह का उद्धरण बनना है... तभी काउंटर साहब ने साफ बताया...
‘क्षमा करना कामरेड! मैं तुम्हें गोली नहीं मारूंगा... क्योंकि मैं जानता हूं तुम्हारे जैसे आइडियोलाजी वाले लोग गोली लगते ही जीवित हो जाते हैं, एक दो नहीं जाने कितने...तुम्हें मौका है यातनागृह में (तुम्हारे शब्दों में) चलने का मन बना लो..’
उसे काउंटर साहब पर गुस्सा आया जिसका कुछ मतलब न था क्यों कि उसके हाथ बंधे थे... उसने काउंटर साहब से पूछा, जो निवेदन था...
‘क्या तुम मेरा एक हाथ खोल सकते हो ?’
‘नहीं,’ उसका उपयोग जाने क्या करो... काउंटर साहब बोला,
अब उसे पक्का यकीन हो चुका था कि उसे यातनागृह तक जाना ही होगा... उसने सवालों को नाजुक बनाते हुए काउंटर साहब से पूछा...
‘तुम चालीस के आसपास हो...साठ के बाद क्या करोगे ? तब तो बिल्ला तथा वर्दी नहीं रहेगी... तुम्हारे अधिकार जो गिरफ्तारी व हत्या से संबंधित हैं वे नहीं रहेंगे, तो क्या साठ के बाद संत बनोगे... मुझे तम्हारे भविष्य की चिंता है...’
काउन्टर साहब के माथे पर थोड़ा सिकुड़नें उग आई, थोड़ा होंठ सूखे, पर नकली गंभीरता से उसने उसे रूआब में बताया...
‘ये मूर्खतापूर्ण सवाल हैं... मैं वर्तमान में जीता हूं, सपनों में नहीं , तुम्हें भी समझाऊंगा कि सपना देखना बंद कर दो, दुनिया नहीं बदलने वाली... यह ऐसे ही चलती है...’
उसने काउंटर साहब का दर्शन सुनकर उसें झिड़का... ‘क्या बकते हो, सपना मैं नहीं तुम देखते हो, अपने बच्चे का , घर का ... देखो मैं ऊब चुका हूं तुमसे बातंे कर, लगता है तम्हारे पास समय का अभाव नहीं, जो करना हो जल्दी करो... पीठ में काफी दर्द हो रहा है, मैं कुछ बताने से रहा, यातनागृह में डालना चाहते हो तो वहीं डाल दो... चमड़ी उतारो चाहे नाखून कुछ फर्क नहीं लेकिन वह न करना जो तुम्हारी पुलिस ने बैजू के साथ किया था....
काउंटर साहब ने उसे रोककर पूछा... क्या हुआ था बैजू के साथ...?
मैं नहीं बता सकता, कोई भी नहीं बता सकता... तुम तो दरोगा हो, समझ सकते हो कि पुरूष के साथ ऐसा क्या किया जा सकता है जिसे वह बता नहीं सकता..उसने काउंटर साहब को बताया...
काउंटर साहब ने उंगलियां मोड़ी , घुमावदार घेरा बनाया फिर उसमें दूसरे हाथ की उंगली डाल दी, यही न... उसने उससे सगर्व पूछा... जैसे वह पहेली बूझने का विशेषज्ञ हो...
उसने सिर हिलाया फिर काउंटर साहब ने अपनी नैतिकता का बखान किया... मैं गंदी चीजों, तरीकों के सहारे अपराधियों से नही निपटता ... उनसे कबूलवाने के कई रास्ते हैं... उन्हें आजमाता हूं... यदि तुम्हारा रिमांड मिल गया फिर देखना...
बंधे हुए ही उसने गर्दन सीधी की , पांवों को झटका, हाथ को आजमाया कहीं शून्य तो नहीं हुए, उसे लगा कि वह ठीक-ठाक है फिर उसने काउंटर साहब से पूछा...
‘आखिर क्या करोगे ? कुछ तो बताओ, मुझे मानसिक तैयारी में सुविधा होगी,’
मैं भी चाहता हूं कि सुविधापूर्ण तरीके से तुम संगठन के बारे में बताओ, अपने साथियों के नाम व पते भी बताओ....
लेकिन कैसे, बीच में उसेने टोका...
काउंटर साहब के होंठ खुले, उस पर हंसी नाची , जो भद्दी थी...‘कैसे’ बहुत आसान है कामरेड! लेकिन है बहुत सटीक, अब कुछ इस तरह समझो, ‘मान लो हम और तुम एक आलीशान मकान के आलीशान कमरे में हैं, आलीशान मकान, आलीशान कमरा तथा आलीशान चीजें जो उस कमरे में होंगी उसके बारे में तुम्हारी क्या जानकारी है, मैं नहीं जान सकता लेकिन मैं वीवीआईपी ड्युटी करते-करते बहुत कुछ सीख व जान चुका हूं, जब पहली बार पाकिस्तानी राष्ट्रपति मुशर्रफ का भारत आना हुआ था, मुझे मौका मिला था... एसपी तथा आईजी साहब के साथ मैं भी उस होटल में आता जाता था तथा उस कमरे में भी जिसमें उन्हें सोना थाः उन कमरों में भी जहां खाना था... जहां वीवीआईपीओ से मिलना मिलाना था... मैं ही तो कमरों की सारी चीजों को ठोकता ठाकता था, तथा उन्हें पारंपरिक स्थानों से हटाकर दूसरी जगह पर रखता था....
काउंटर साहब को जैसे कुछ याद आया हो वह चौंका...फिर बोला....
भला कैसे भूल सकता हूं कि एसपी ने अपनी स्टिक से मुझे मारा था..जब इधर उधर हटाने में एक आदमक्रद शीशा फर्श पर गिर कर टुकड़ा बन गया था...एसपी ने अनुमान लगाया था कि पचास हजार से ऊपर का रहा होगा... कहीं उनमें विस्फोटक वगैरह तो नहीं!
‘तुम कहानी सुनाने लगे...‘उसने काउंटर साहब को विषयांतरित होने पर टोका.... उसके टोकने के बाद काउंटर साहब ‘कैसे’ वाले सवाल पर आ गया .....
‘तो कामरेड! तुम मान लो कि एक आलीशान कमरे में हो, उसमें आलीशान चीजें हैं एक से एक कीमती व खूबसूरत... रात के ग्यारह बजने वाले हैं , तुम्हें झपकियां आ रही हैं, कुछ सेकेंड के लिए तुम्हारी आंखें बंद हो जाती हैं तुम कमरे में अकेले हो, ऐसे में कोई वर्दी वाला बिना वर्दी के आएगा, तुमसे गहन दोस्ताना अंदाज में पूछेगा... तुम्हें जगाते हुए... ‘ क्यों कामरेड नींद आ रही है क्या?’ इस तरह एक दो बार नहीं जाने कितनी बार... यह तो एक बानगी है....कुछ ऐसे कि तुम नींद में न जा सको...
संक्षेप में बताऊं... तुम्हारी आंखें पानी देखेंगी, प्यास महसूसोगे तुम , पर पानी नहीं मिलेगा... इसी तरह खाना भी तथा देह ! वह तो तुममें इतना गहरे तक जाएगी कि तुम सत्तो को देखोगे, नाचते, गाते, आलिंगनबद्ध होते, किसी दूसरे के साथ नहीं, खुद अपने साथ पर सत्तो तक तुम न पहुंच पाओगे... वैसे भी सत्तो ... मारी जा चुकी है....
बस, बस, बस...बस करो मुझ पर रहम करो, मुझे गोली मार दो... सारा कुछ समझ गया कि तुम मुझसे, नींद, भूख, प्यास यहां तक कि सोचने की शक्ति भी छीन लोगे.... मैं जीवित रहूंगा पर लाश की तरह यही न... फिर भी तुम मुझसे संगठन के बारे में कुछ भी न कहलवा सकोगे... ठीक चौदहवें दिन तुम्हारा रिमांड खत्म हो जाएगा तथा अदालत मुझे जेल भिजवा देगी... क्योंकि अदालतें नक्सल पंथियों की जमानतें करती नहीं... चलो ठीक है....तो फिर ले चलो यातनागृह की तरफ, थोडा़ जल्दी करो, जंगल जागने वाला है, जागे हुए जंगल में से तुम्हारा निकलना मुश्किल होगा... मैं तो बेमतलब का परेशान था.. अब समझा...बहुत-बहुत धन्यवाद मि. काउंटर !
काउंटर साहब उसके चेहरे की प्रतिक्रिया देखने में था, वहां शांति थी, तथा अदभुत आश्वस्ति... ऐसा तजबीज कर काउंटर साहब चकरा गया, साश्चर्य पूछा...
‘मि. कामरेड, काहे का धन्यवाद,
‘इतना भी नहीं समझे, धन्यवाद इसलिए कि तुम्हारी वजह से मैं यातनागृह में होऊंगा.... जहां मेरे साथियों की सांसे हैं, गंध हैं... जीवित दिलों की धड़कने हैं...
फिर जाने क्या हुआ कि काउंटर साहब ने रायफल की नाल सीधी किया... धांय...धांय....धांय.. जंगल कांप उठा, पेड़ हिल गए, पत्ते डारों से चिपके हुए कांपने लगे...
यह अंधेरे की दूसरी परंपरा वाली भाषा थी... जिसका कोई अर्थ नहीं....
'''‘चित्रकथा और वह’'''
[[File:Chitra katha aur vah jpg चित्र कथा और वह.jpg|thumb|आदिवासी एवं दलित जीवन पर केंद्रित कहानी संग्रह]]
'चित्रकथा और वह’ कहानी संग्रह की कहानियॉ पिछले आठ-दस वर्षों से लगातार मेरा पीछा करती रही हैं, पीछा ही करतीं तब भी गनीमत थी पर वे तो मुझे फटकारने तथा दुतकारने की सीमा तक जा पहुंचती थीं, मजा यह कि मैं नहीं समझ पाता था कि मेरे साथ मेरी ही रचित कहानियॉ दुर्व्यवहार क्यों कर रही हैं, मुझे ही फटकार रही हैं...। ऐसा तो नहीं होना चाहिए, सृजन के सर्जक को फटकारें, यह नैतिक नहीं है। हॉ आलोचक, समीक्षक फटकारते तो बात दूसरी थी। शब्दों की अदालत में खड़ा करने का उन्हें पूरा पूरा हक है, उनके हक को दुनिया का कोई भी रचनाकार, कलमकार ललकार नहीं सकता। मैं तो अबदना सा कलमकार भला मेरी जुर्रत कि उनसे कुछ बोल सकूं, नहीं, नहीं ऐसा कत्तई संभव नहीं। मेरी ही कानियॉ मुझे फटकारती रहीं और में ओबरा की पहाड़ियों की तरह लगातार टूटता रहा, विखंडित होता रहा।
अब देखिए नऽ, संग्रह की पहली कहानी ‘चित्राकथा और वह’ का वह नामक पात्रा ने तो मुझे इतिहास के एक ऐसे मोड़ पर खड़ा कर दिया जहां से प्यास लगने पर एक बूॅद पानी भी न मिल पाये...
अरे! इतिहास में घुसने की कया जरूरत थी, काहे के लिए राणाप्रताप, भगत सिंह और विरसा मुण्डा को ले आये कहानी में, क्या तुझे नहीं पता कि आज के समय में जो परधानी जीत गया वही बहादुर है, वही शक्तिशाली है तथा दुनिया को बदल देने वाली कूवत का है। लगता है आजकल तूॅ टी.वी. चैनलों के समाचारों को नहीं देख रहा अ।ैर न ही सुन रहा...’
समाचारों को जरा देखा करो तथा उसकी पवित्रा वाणी को सुना करो...चुनाव जो जीत जाता है, वह सारा कुछ जीत जाता है। वह केवल जीतता ही नहीं वल्कि दुश्मन को भारी मतों से पटक देता है, चित्त कर देता है। कोई पारटी चुनाव हारती नहीं वह चुनाव में धाराशाई होती है, चारो खाने चित्त होती है। उसमें रणनीति तथा रण कौशल की बातें होती हैं, मुद्दों रूपी वाण छोड़े जाते हैं। रैलियॉ नहीं निकलतीं,
रैलियों रूपी योद्धा निकलते हैं, वे अपनी ताकत का प्रदर्शन करते हैं गोया मध्यकाल के हमलांे वाला पूरा परिदृश्य भाषण कौशल से निर्मित कर दिया जाता है। तो मध्यकाल के इतिहास में घुसने की क्या जरूरत है? अब जो यह दुनिया का आधुनिक इतिहास बन रहा है उसे देखो, उसे अपने चित्त तथा चेतना का हिस्सा बनाओ। कहते हैं लोकतंत्रा में विपक्ष की भूमिका का बहुत अधिक महत्व होता है पर जब सत्ता संस्थान खुद अपना पक्ष हो तथा विपक्ष भी हो तब विपक्ष की क्या जरूरत? अब पहले वाला जमाना नहीं रहा कि सत्ता का अपना विपक्ष नहीं। ‘चित्राकथा और वह’ कहानी का पात्रा खुद अपना पक्ष है तो विपक्ष भी।
संग्रह की दूसरी कहानी ‘श्रद्धांजलि’ भी अतीत से मेल बिठाती मेरी कलम पर सवार हो गयी। जब रुपये प्रचलन में नहीं थे तब सारा समाज सामानों के बदलवन वाला था। एक बार फिर नोटबन्दी के कारण पूरा देश पुराने जमाने वाला बन गया था, ऐसी स्थिति में कहानी का एक महिला पात्रा रुपया तलाश रही है, रुपये के खेल में वह उलझ जाती है, रुपया उसे नहीं मिलता, न ही बैंक से न ही मजदूरी के भुगतान का। अचानक उसे आदिम निर्णय लेना पड़ता है और अपने मृत पति को पअुरवट की चिता पर लेटाकर उसमें आग लगा देना पड़ता है। हो गया दाह संस्कार, हो गयी श्रद्धांजलि... बिना रुपयों के कफन कैसे खरीदे? आदिम जमाने वाली पूरी तरह से कुदरती श्रद्धांजलि प्रक्रिया।
संग्रह की तीसरी कहानी ‘चलिए लौट चलें’ कुछ अलग किस्म की है, इसमें केवल नर और नारी हैं। मैं इन्हें पहचान नहीं सका कि ये किस सदी के हैं तथा ये चाहते क्या हैं... कहानी की पृष्ठिभूमि में घूमता रह गया फिर भी पता नहीं चला कि कहानी में जो नर है तथा नारी है, वे क्या हैं, उपभोक्ता हैं, कोई वस्तु हैं, बाजार में बिके हुए हैं या केवल पाठ हैं और पाठ भी कैसा...पठित भी अपठित भी। इनके अतीत तथा व्यतीत में मुझे फर्क नजर नहीं आता... ये प्रेमकथा के इतिहास के नायकों की प्रतिलिपि भी नहीं, फिर क्या हैं ये? अब आप ही समझें...
लाइन कहानी जैविकताबोधी चाहनाओं की उपज जैसी उग गयी मेरे दिमाग में... जान पड़ा कि आधुनिकताबोधी इसके पात्रा वर्तमान के सामयिक जालों को जानने, पहचानने, तोड़ने में समर्थ होंगे पर वे तो खुद में सिमटे हुए हैं। वैयक्तिक संप्रभुता कोई बुरी बात नहीं पर जो मन में है वही चित्त में होना चाहिए फिर तन का क्या वह तो मन से संगति बिठा ही लेगा।
कुछ इसी तरह की कहानियॉ संग्रह में संग्रहीत हैं। मैंने प्रयास किया है कि
मौजूदा समय को भी जॉचते परखते चलना चाहिए भले ही जॉच पड़ताल में ठोकरे खानी पड़ें, अपनी ही कहानियों की उपेक्षा का शिकार होना पड़े फिर भी...
कहानियों की जमीन की बात करें तो कहानियॉ सोनभद्र की अनगढ़ माटी की उपज हैं, कुछ तो करइल माटी की तरह हैं तो कुछ धनुस्सर माटी की तरह जिसका
सीधा अर्थ है मानवीय समीपता की पगडंडी पर चलना, किसी सुसज्जित राजमार्ग पर नहीं। इस पद यात्रा का यह प्रयास इसलिए भी जमीन से पैदा होने वाले कथा चरित्रों का लगातार साक्षात्कार होता रहे, उनसे हाल अहवाल लेने को मौका मिलता रहे।ै उनके सुखों दुखों से दो चार होते हुए कहानी की खुरदुरी जमीन पर जितना संभव हो सके उतना दूर तक चला जा सके।
चलने को तो मैं चल ही रहा था कहानियों की खुरदुरी जमीन पर मुझे क्या पता था कि थाने वाली महिला जिसे में अपने नये उपन्यास में जस के तस उतारना चाहता था वह मुझे फटकारने लगेगी...
‘तूॅ का लिखेगा मेरे बारे में? तूॅ भी तो मरद जाति का है, थूथुन वाला, कहते हैं नाक न हो तो मैला खाने वाला, तूॅ का जानेगा मेहरारुन के बारे में, कि मेहरारू का होती हैं। मेहरारुन को तूॅ जब जैसा चाहता है गढ़ लेता है, कभी देवी बनाता है तो कभी जरूरत के हिसाब से रण्डी बना देता है। देवी बनाकर माला-फूल चढ़ाता तो रण्डी बनाकर जोंक की तरह चूसता है। देह को बिछौना बना देता है खुश हुआ तो खेत बनाकर जोतने कोड़ने लगता है, बेंगा डाल देता है। खेत में बेगा पड़ जायेगा तो कुछ न कुछ जामेगा ही। जाम जाने के बाद फिर दूसरा बेंगा उालने के लिए उसे दुबारा जोत देता है। देखना है तो दरोगा को देख ले, तोहरे मुहें में मेहरारुन के बारे में विषैला लार है कि जलता हुआ लोर है। पर तोहरे पास लोर कहां से होगा? लोर तो मेहरारुन के पास होता है जो उनके दिलों को लगातार हिलोरता रहता है।’
इसी करइल माटी की उपज किरदार कहानी की वह थाने वाली महिला जिस किरदार का प्रतिनिधित्व करने लगी थी उससे तो मैं कॉप उठा। इस तरह की भूमिका में तो नारीवादिनी भी नहीं होतीं वे पुरुष सत्ता के प्रतिरोध में लड़ती हुई दिखती तो हैं पर वे समझती हैं कि उनसे उनका महिला होना छिना नहीं गया है। बहरहाल कहानियों की खुरदुरी जमीन को समतलियाते हुए चलना सरल नहीं था, मेरी मजबूरी थी कि मैं खुरदुरी जमीन पर अनाथ की तरह पड़ी कहानियों के साथ संवाद करूं।, उनके सुख दुख को महसूस करूं और उनके साथ उनकी तरह ही चलूॅ फिर वह जमीन समतल हो या खुरदुरी का फर्क पड़ता है?
मुझे यह भी पता था कि मेरी कहानियों का कोई बाजार नहीं है, इनका कोई खरीददार नहीं है, कोई पाठक नहीं फिर भी कहानियॉ लिख रहा था कि भविष्य को नहीं जाना जा सकता के कल क्या होने वाला है? एक सौतीस करोड़ की आबादी में गोदान के कितने पाठक हैं? अगर उनका प्रतिशत निकाला जाये तो काफी शर्मनाक होगा। सो मुझे इस चक्कर में अपने लेखन का चक्कर नहीं बनाना।
मैं लगातार लिखता रहा और कहानियों से दोचार होता रहा... लेखन के ही माध्यम से मैंने समाजनीति, राजनीति, धर्मनीति, अर्थनीति तथा नीति को समझने का प्रयास किया है। फिर समझ में आया कि मानवीय समीपताओं की स्थापना के बिना किसी नीति का नीति होना ही गलत है। उस नीति का नीति होना इसलिए भी गलत है जो आदमी और आदमी के बीच खाइयॉ उगाती हो। जाहिर है कोई भी मानव सभ्यता आदमी और आदमी के बीचा खाइयॉ उगाने का प्रस्ताव नहीं कर सकती। फिर भी वही हो रहा है जो नहीं होना चाहिए। मानवीय समीपता की स्थापना के लिए किए जाने वाले प्रयास संतुष्टि प्रदान करने वाले नहीं दिख रहे।
मेरी कोशिश रही हे कि कहानियों के माध्यम से खुद को विश्लेषित करते हुए सामाजिक संरचना, राजनीतिक विचारधाराओं, धार्मिक प्रयोजनों को समझ सकूॅ तथा यह भी समझ सकूं कि यह जो आर्थिक तथा सामाजिक असमानता की खांई है आखिर इसे क्यों नहीं पाटा जा सकता तथा लोकतंत्र के शास्वत लक्ष्य संभव बराबरी को क्यों नहीं हासिल किया जा सकता?
वैसे संग्रह की तमाम कहानियॉ देश की चर्चित पत्रिकाओं में पहले ही प्रकाशित हो चुकी हैं... अब आपको कैसी लगीं बताने की कृपा करेंगे।
चित्र कथा और वह(story)
बांस भर धूप चढ़ जाने के बाद वह जागा। रात में देर से सोया था। खेती किसानी में वैसे भी कई काम ऐसे होते हैं जो रात में ही निपटाये जा सकते हैं, उन्हीं कामों को निपटाने में उसे पता ही नहीं चला कि रात कितनी गुजर चुकी है। उसे पता था कि उसकी पत्नी घर पर अकेली घबरा रही होगी। पत्नी घबरा तो रही थी पर उसके घर आने पर वह प्रेम से मिली, कोई उलाहना नहीं, उलाहना देना उसकी पत्नी जानती ही नहीं थी।
जल्दी जल्दी दैनिक क्रिया निपटाकर दिन में किए जा सकने वाले कामों को वह याद करने लगा। वह जब से बालिग हुआ है यानि कि वोट देने लायक तब से ही वह सारे कामों पर विचार करता है, कामों को कब और कैसे करना है उसके बारे में गुनता है। दिन में निपटाये जाने वाले कामों के बारे में वह गुन ही रहा था कि उसे ख्याल आया, उसे तो परधान जी से मिलना है। पुल बनाने के अलावा भी दूसरे काम हैं जिनमें पहला काम है गॉव की पोखर और नाले की सफाई करवाना जिसे करवाने के लिए चुनाव के दौरान परधान जी ने वादा किया था। उनके द्वारा चुनाव में किए गये वादों को उन्हें याद दिलाना है, और शिलान्यास के कार्यक्रम में भी उनके साथ जाना है।
परधान जी का घर उसके टोले से करीब दो किलोमीटर दूर था, बीच में एक नाला पड़ता था। वह उस नाले को करीब बीस सालों से उसी तरह से लगातार देखता आ रहा है, बीस साल के पहले का उसे पता नहीं। वह जानता है कि गॉव में बहुत कुछ बदल चुका है, कुछ लोगों के कच्चे मकान पक्के हो चुके हैं। पर वह नाला तथा गॉव के बीच में स्थित पोखर तथा गॉव के दक्षिण वाली दलित बस्ती आज भी जस के तस हैं। नाले तथा पोखर में पक्के मकानों की नालियां जाने कब से गन्दा पानी उगल रही हैं। ये वही नाला और पोखर हैं जिसमें गॉव के बहुलांश नहाते हैं, कपड़ा धोते हैं, गोया पोखर और नाला गॉव के लिए सुलभ जलश्रोत हैं, जिनकी सफाई कराना गाॉव से संक्रमक रोगों को भगाने के लिए सबसे जरूरी है।
गॉव परधानी के चुनाव के दौरान गॉव के लोगों से विजेता परधान ने वादा किया था कि वह नाले तथा गॉव की अकेली पोखर की सफाई करायेगा, मनरेगा के बन्द पड़े कामों को शुरू करायेगा, लगता है वह अपने वादे को भूल गया है। उसने कहीं पढ़ा था कि जागरूक नागरिकों के लिए जरूरी है कि वे जन प्रतिनिधियों को उनके वादों को लगातार याद दिलाते रहें सो परधान से जनहित का काम करवाने के लिए
उसे तो पहल करना ही होगा।
पहली बार उसे वोट देना था। वह काफी उत्साहित था। उसके बपई ने उसे समझाया था कि देखो ‘कलम दावात’ वाले निशान पर ही मोहर मारना, कलम दावात वाला ही गॉव को साफ सुथरा बना सकता है तथा गरीबों के लिए तमाम तरह की कमाऊ योजनांयें भी ला सकता है, वह दलितों का हितुआ है। उसकी अइया ने भी बपई की तरह ही उसे समझाया था और उसने वैसा किया भी था।
कलम दावात निशान वाला दलितों के समर्थन से चुनाव जीत भी गया था। कलम दावात निशान वाला गरीबों, प्रताड़ितों का आदमी था, वह उनके लिए थाना और ब्लाक घेर लिया करता था। परधान की जीत से वह खुश था, उसके मन में था कि परधान मेरे गॉव का बड़ा और प्रभावशाली आदमी है। परधान की प्रतिभा ने उसे इतना प्रभावित किया कि उसके भीतर कुलबुलाता चित्राकार जागृत हो गया। बचपन में वह पटरी पर किसिम किसिम के चित्रा बनाया करता था पशु पक्षी से लेकर आदमी तक के। चित्रा बनाने में उसकी रूचि थी। उसे याद है बचपन की बातें, साथ में जब पटरी नहीं होती थी तो वह जमीन पर ही चित्रा बना लिया करता था। अब भी वह किसी का भी चित्रा बना सकता है, कागज, कपड़े या जमीन पर ही, उसकी कला की सीख खतम नहीं हुई है।
उसके मन में आया कि गॉव के जमे जमाये और तपे तपाये लोगों को हरा कर जीते हुए जनप्रिय परधान का चित्रा बनाये। गॉव में चित्रा बनाने वाले सामान तो थे नहीं, सो वह बाजार गया और ब्रश, पेपर, रंग आदि खरीद लाया। उसने परधान का चित्रा बनाया, उसके लिए सुविधा थी। परधान के चित्रा का उसके पास एक पोस्टर था उसने पोस्टर वाले चित्रा की नकल किया। चित्रा तो एकदम परधान की तरह ही बन गया पर उसकी समझ में आया कि इस चित्रा से बहादुरी नहीं छलक रही, परधान का रूआब नहीं दिख रहा क्योंकि चित्रा में घोड़ा नहीं है, नही परधान की मूंछ है। प्राइमरी की पढ़ाई के दौरान उसने कक्षा पांच की किताब में राणा प्रताप का चित्रा देखा था, वे घोड़े पर सवार थे, उनके माथे पर एक विशेष किसिम का टोप था, उनकी नुकीली मूंछ थीं, उसने सोचा ‘बहादुर को तो राणाप्रताप की तरह दिखना चाहिए या
फिर भगत सिंह की तरह, अगर परधान का चेहरा चन्द्रष्शेखर आज़ाद की माफिक
बन जाये तब भी ठीक पर परधान का चेहरा तो वैसा नहीं बन रहा फिर तो उसने
पहले के बनाये परधान के चित्रा को मिटा दिया।
वह परधान का चित्रा किस तरह का बनाये सोचने लगा। उसके जेहन में बहादुरों के कई तरह के चित्रा उभरे, जिन्हें वह केवल किताबों के सहारे जानता था कि वे
इतिहास के बहादुर लोग थे, वे ऐसे लोग थे जो अपने समय की बद्जात हुकूमत
से टकराने का साहस रखने वाले थे। इस तरह से वह इतिहास में उतर गया मानो उसके सामने इतिहास के बहादुर जस के तस उपस्थित हो गये हों फिर तो उसने तय किया कि परधान का चित्रा तो ओज और साहस से चमकता हुआ बनाना चाहिए, आखिर परधान हमारे गॉव का मुखिया है, वह भी गॉव के जमे जमाये लोगों को पटक कर परधान बना है, क्या हुआ दंगल में नहीं, वोट में उसने पटका है। वह उन्हें पटका है जो हमेशा बाहें फुलाते रहते हैं। एक तरह से परधान ने गॉव के जमे जमाये लोगों को पटक कर हजारों साल के बद्जात इतिहास को पटका है पर वह परधान के चित्रा को किस तरह का बनाये निश्चित नहीं कर पा रहा था।
किसी चीज को गंभीरता से सोचो तो कोई न कोई रास्ता निकल ही आता है। कुछ दिनों बाद रास्ता निकल आया, उसे समझ आ गया कि परधान का चित्रा किस तरह का बनाना है।
फिर तो उसने वैसा ही किया, कुछ अतिरिक्त श्रम और कल्पना से उसने परधान का चित्रा बनाया। पर चित्रा तो जैसा वह चाहता था वैसा नहीं बन पाया हालांकि उसने परधान को घोड़े पर सवार करा दिया था, मूंछ भी लगा दी थी फिर भी परधान का चित्रा राणाप्रताप वाले चित्रा की तरह प्रभाव वाला नहीं बना पाया। उसे अपनी कला पर संदेह हुआ, शायद वह अनुभूति और अभिव्यक्ति में एकरसता नहीं सृजित कर पा रहा है। चित्रा को तो संवाद करना चाहिए पर परधान का चित्रा तो गूंगा बन गया है। उसे अपनी गलती समझ नहीं आ रही थी उसे लगा...‘कहीं न कहीं उसकी कला में कमी है।’
उसे समझ आया कि स्मृति के सहारे काम नहीं चलने वाला स्मृति से चित्रा बनाने में गलती हो सकती है। सो वह राणा प्रताप का चित्रा कहीं से ले आया। परधान के चित्रा से राणा प्रताप के चित्रा का उसने मिलान किया, बहुत फर्क था दोनों चित्रों में। फिर तो उसने पहले के बनाये परधान के चित्रा को फिर मिटा दिया। चित्र मिटाते समय उसे जान पड़ा था कि वह पूरा मुगलकालीन इतिहास ही मिटा रहा है पर ऐसा नहीं था। इतिहास तो जहां था, पड़ा था, भला इतिहास मिटाने वाली चीज है?
अब क्या करे? वह सोच में पड़ गया। उसे समझ आया कि आज के जमाने में राणा प्रताप की तरह किसी को बनाया नहीं जा सकता, राणा प्रताप तो तभी बनाये
जा सकते हैं जब अकबर हो, सच है कि अब अकबर नहीं है।
परधान का बहादुराना चित्रा बनाने में असफल होने के बाद वह जिद्द पर आ गया, परधान का बहादुराना चित्रा वह बनायेगा ही बनायेगा, बनेगा क्यों नहीं। कला निरंतर अभ्यास मांगती है, उसका अभ्यास छूट गया है, शायद इसी लिए परधान का
बहादुराना चित्रा नहीं बन पा रहा।
अपनी कला के बारे में बहुत विचार और चिंतन करने के बाद उसने दुबारा परधान का चित्रा बनाना शुरू किया। ज्योंही उसने परधान का चित्रा बनाना शुरू किया अचानक उसे लगा कि वह गलत कर रहा है, वैश्वीकरण और औद्योगीकरण के बदलते जमाने के आदमी को राणा प्रताप की तरह भला कैसे बनाया जा सकता है। वह चिन्तित हो गया। परधान तो परधान था, उसका अपना चेहरा था जो किसी से मेल नहीं खा रहा था। परधान इक्कीसवीं शताब्दी का आदमी है, वह देश के तमाम लोगों की तरह केवल एक उपभोक्ता है भले ही गॉव का परधान बन गया है तो इससे क्या हुआ? उसे भी तो थाने के दारोगा, तहसील के लेखपाल, ब्लाक के बी.डी.ओ. स्कूल के मास्टर आदि माफिक सरकारी कर्मचारियों की निगरानी में ही रहना है। सो परधान बहादुर कैसे बन सकता है?
वैसे वह जानता था कि समाज बदल के लिए आत्मोसर्ग करने वाली प्रतिभाओं को गढ़ा नहीं जा सकता, वे तो खुद पैदा होती हैं, पर उसने तो निश्चित कर लिया था कि परधान उसके गॉव का है, सरकारी कर्मचारियों से भी वह लड़ने का काम किया करता है। एक तरह से वह हुकूमत से ही तो लड़ रहा है। परधान को वह हर हाल में इतिहास के बहादुर लोगों से जोड़ेगा, उन लोगों से जिन लोगों ने आतताई हकूमत से मोर्चा लिया था, उनकी तरह, ऐसा सोचते ही वह इतिहास में उतर गया। इतिहास में उसने देखा कि एक चेहरा तो भगत सिंह का भी है, उनकी तरह से परधान का चित्रा उसे बनाना चाहिए। पर भगत सिंह तो अंग्रेजों के जमाने के थे, अब अंग्रेज तो हैं नहीं सो भगत सिंह की तरह वह परधान का चित्रा कैसे बना सकता है? उसका माथा अंग्रेजों में उलझ गया पर तत्काल ही उसके माथा ने काम किया...विदेशी अंग्रेज नहीं हैं तो का हुआ देशी अंग्रेज तो हैं ही, अब तो बहादुर उन्हें ही कहना होगा जो देशी अंग्रेजों से टकराने का साहस रखते हों।
परधान का उसने एक रफ स्केच बनाया जो वास्तविक था। उसने भगत सिंह का भी स्केच बनाया। भगत सिंह वाले स्केच को उसने परधान के स्केच पर चिपका दिया। यह क्या है, चित्रा देखते ही वह चकरा गया। परधान के स्केच को भगत सिंह के स्केच ने पूरी तरह से ढक लिया फिर तो परधान कहीं गायब हो गया। कुछ सेाचने के बाद उसने परधान के स्केच पर से भगत सिंह के स्केच के कुछ हिस्से को मिटाया, उनकी हैट और मूंछ को परधान के स्केच पर जस के तस रहने दिया फिर भी परधान का चेहरे पर वह चमक नहीं उभर पायी जैसी कि बहादुरों व वलिदानियों के चहरों पर होती है। हालांकि वह प्रशिक्षित चित्राकार नहीं था पर उसकी ललक ने उसे चित्राकार बना दिया था। वह कल्पनाओं में डूब सकता था और प्रकृति के रहस्यों को चित्रामय बना सकता था। उसने गंभीरता से परधान के चित्रा को देखा और कुछ जरूरी बदलाव किया इस बार तो परधान का चित्रा पूरी तरह से बदल गया उसके चेहरे पर
हिंसक जानवरों जैसी लकीरें जम गईं, देखते देखते ही परधान का चित्रा दुबारा बदल गया हिंसक जानवरों से अलग। परधान के हाथ में त्रिश्षूल और शंख आ गया, माथे पर लाल बिन्दी भी उभर आयी, उसे समझ नहीं आया कि आखिर परधान का चेहरा अपने आप क्यों बदल रहा है? क्या परधान के चित्रा की तरह इतिहास भी स्वतः बदल जाया करता है? नहीं नहीं ऐसा तो नहीं होना चाहिए। वह परधान का चित्रा जैसा बनाना चाहता है वैसा बनाने के लिए उसका चित्त स्थिर क्यों नहीं हो रहा है? पर उसकी समझ में कुछ नहीं आया।
वह निराश हो गया उसे लगा कि परधान का चित्रा वह नहीं बना सकता फिर उसे क्या मिलेगा परधान का चित्रा बना कर। चूंकि वह मन से चित्राकार था सो हार मानना उसके लिए संभव नहीं था। यह बात अलग थी कि उसने अपनी चित्राकारिता को व्यवसाय नहीं बनाया था पर था तो चित्राकार ही। वह अपनी रोजी रोटी खेती किसानी से ही चलाता था। अपनी चित्राकारिता के लिए वह धनिया, लहसुन, गोभी आदि की कियारियों को किसी सालअष्टकोणीय बनाता था तो किसी साल किसी गुंबद या मीनार का आकार दे दिया करता था। उसने घर के सामने सेहन में उगे फूलों के पौधों की कियारियां भी कलात्मक ढंग से रचा हुआ था, जिसे देख कर वह मन ही मन खुश हुआ करता है। वह कपड़े भी गॉव वालों से अलग ढंग का पहनता है, चेहरे पर हल्की सी दाढ़ी भी रखता है। वह अपने कपड़े खुद सिल लिया करता है और दाढ़ी भी छांट लिया करता है। उसका मानना है कि कला तो हर जगह होती है बस चीजों व समय को कला की तरह देखने की ऑखें होनी चाहिए।
एक बार तो उसे जाने क्या हुआ कि करीब एक महीना लगा दिया जहां देखो उसके हाथ में चित्राकला की कापी ही होती थी उस पर वह कुछ न कुछ बनाता रहता था, उसकी पत्नी भी कई बार पूछ चुकी थी पर उसने सच नहीं बताया था। करीब एक माह बाद उसने पत्नी को अपनी कला दिखाया था...
उसकी पत्नी तो उस चित्रा को देखते ही उछल पड़ी थी...कृकृ
‘तो क्या हम ऐसे हैं’ पत्नी ने उससे पूछा था।
‘और नहीं तो का’ वह मुस्करा दिया था
वह एक खूबसूरत चित्रा बन गया था, भावुकता पूर्ण, गरिमा युक्त। वह चित्रा खाना
खिलाते समय का था। वह जमीन पर पलथी मार कर खाना खा रहा है और उसकी पत्नी पंखा झल रही है, सामने ढिबरी टिमटिमा रही है। मद्धिम रोशनी में पत्नी के चेहरे से मुलायम किरणें निकल रही हैं। पत्नी ने अपने पति के बनाये चित्रा की फ्रेमिंग करवा कर दीवार पर टांग दिया था। वह उस चित्रा को अक्सर देखती और
पति पर मोहित हो जाती। कभी कभी उलाहना भी दिया करती थी...
‘तुम चित्रा बनाने या कपड़े सिलने का ही काम क्यों नहीं करते, चार पैसे तो घर में आते, धान चावल से का होने वाला है? पेट भी तो नहीं भरता। कपड़े भी सिलते
तो ठीक रहता, तुमने मेरा ब्लाउज बिना नाप लिए ही पिछले साल सिला था वह अभी तक जस के तस है और जो दर्जी से सिलवाया था उसकी सिलाई उभर रही हैं, और
ढीली भी है, देह से बाहर।’
वह पत्नी की बातें मुस्करा कर टाल देता था...
‘कला का रोजगार नहीं होता मुनिया। कला केवल मन के लिए होती है, धन के लिए नही, तुम्हारा चित्रा मैंने मन से बनाया था बिना देखे, बिना नकल किये और ब्लाउज भी मैंने जो सिला था उसके लिए तुम्हारा नाप नहीं लिया था, बिना नाप के ब्लाउज सिला था, अनुमान से, और वह तुम पर फिट हो गया, जानती हो मुनिया कला मन की उपज होती है मन के लिए और मन के भीतर।’
करीब चार पांच दिन तक उसने सोचने में लगा दिया कि क्या उसे परधान का चित्रा बनाना चाहिए या नहीं। छठवें दिन उसने तय किया कि उसे परधान का चित्रा बनाना चाहिए, ऐसा करने के लिए उसे इतिहास में जाने की जरूरत नहीं है, इतिहास तो गॉवों के निवासियों व गावों का होता ही नहीं, इतिहास तो केवल शासकों का ही होता है, शोषित तो हर हाल में शोषित होता है गॉव का परधान भी शोषित है सो उसके चेहरे पर इतिहास कैसे चिपक सकता है?
उसने इतिहास में उतर कर खुद से सवाल किया। सवाल टेढ़ा था पर था सटीक। वह इतिहास में दर्ज वैसे लोगों के बारे में सोचने लगा जो शासक नहीं रहे थे। उसे पता था विरसा मुंडा तथा सोनभद्र के जूरा और बुद्धू भगत के बारे में, वे तो सामान्य जन थे पर दिक्कत थी उसके पास न तो विरसा मुंडा का चित्रा था और न ही जूरा और बुद्धू भगत का।
उसने काफी सोच विचार के बाद तय किया कि विरसा मुंडा, जूरा या बुद्धू भगत में से किसी एक की तरह ही वह परधान का चित्रा बनाएगा। इन तीनों चित्रों में से किसी न किसी की तरह का चित्रा तो परधान का बन ही जाएगा। उनके चित्रों को वह कहीं से खोज कर ले आयेगा।
ऐसा तो हो नहीं सकता कि सोनभद्र के नामी विद्वानों व लेखकों के पास यहां के बहादुर पुरखों के चित्रा न हों, ऐसे बहादुरांे व स्वतंत्राता प्रेमियों के जिन्होंने जनहित में अपनी जान की बाजी लगा दिया हो। वह आश्वस्त था कि किसी का चित्रा विद्वानों के पास हो न हो पर लक्ष्मण सिंह का तो होगा ही। वे तो 1857 के क्रान्तिकारी थे। विजयगढ़ राज से पूरे दो साल तक अंग्रेजी हुकूमत को बेदखल कर दिया था और खुद को स्वतंत्रा घोषित कर लिया था। बाद में क्रूर अंग्रेजो ने उनकी तथा उनके दो सौ क्रान्तिकारी साथियों की निर्मम हत्या माची के जंगल में करवा दिया था। मॉची का जंगल खून से लाल हो गया था।
फिर क्या था वह सोनभद्र के सभी नामधारी लेखकों से मिला जो इतिहास के जानकार के रूप में जाने जाते थे, पर किसी के पास जूरा और बुद्धू भगत के चित्रा
नहीं थे, न ही लक्ष्मण सिंह के। उन्हें तो यह भी पता नहीं था कि जूरा और बुद्धू भगत ने अंग्रेजी सेना को विजयगढ़ किले वाले युद्ध में तीर धनुष से ही पस्त कर दिया था। वह काफी निराश हुआ। उसने मान लिया कि इतिहास तो सिर्फ शासकों का ही होता है, परजा का इतिहास तो होता नहीं।
किसी तरह से उसे एक ऐसे आदमी से विरसा मुण्डा का चित्रा मिला जो किताबों का केवल पाठक था। वह आदिवासी तथा विरसा की जाति का था, विरसा को भगवान की तरह पूजता था। उसके पूजा वाले स्थान पर कुछ दूसरे देवताओं की तरह विरसा का भी फ्रेम किया हुआ चित्रा रखा हुआ था। विरसा मुण्डा का चित्रा पाते ही वह बासों उछल पड़ा अनमोल रतन धन पायो जैसे।
वह परधान का चित्रा विरसा की तरह बनाने में जुट गया। परधान का चित्रा बनाने के पहले उसने विरसा का चित्रा बनाया उसके बाद उसने परधान का चित्रा बनाया। परधान के चित्रा को विरसा की तरह बनाना बहुत टेढ़ा काम था पर उसे तो बनाना ही था।
वह लगातार परधान का चित्रा बनाता रहा, बनाता फिर बिगाड़ता ऐसा करते हुए एक महीना गुजर गया पर परधान का चित्रा विरसा की तरह नहीं बन पाया। वह ज्योंही परधान के कंधे पर विरसा वाला तीर धनुष चढ़ाता परधान का चेहरा बिगड़ जाता वह अधिकारियों व मंत्रियों की दलाली करने वालों की तरह दिखने लगता। एक बार तो उसने परधान के चित्रा से उसकी सर्ट ही मिटा दिया। परधान के चित्रा से सर्ट मिटा देने के बाद उसे लगा कि यह जो परधान है वह तो बौद्ध भिक्षु की तरह संसद का प्रत्याशी दिखने लगा है। उसे लगा कि परधान के चित्रा से साधारण वाला पैंट मिटा कर जिन्स की पैंट पहना देना चाहिए, फिर परधान बौद्ध भिक्षु की तरह नहीं दिखेगा, केवल प्रत्याशी दिखेगा। पर उसका सोचना गलत निकला। परधान का चित्र तो फिल्मों में दिखाये जाने वाले एलियंस की तरह दिखने लगा।
परधान का चित्रा बनाते बनाते वह थक गया, कुछ कुछ निराश भी हुआ, उसे लगा कि वह परधान का चित्रा बना ही नहीं सकता, वह महज कलाकार है, वह कोई देवता नहीं जो किसी को सिरज दे, रचना तो देवता करते हैं। पर अचानक उसे लगा कि भले ही वह देवता नहीं है तो क्या हुआ? कलाकार तो है, कलाकार भी कल्पित देवताओं से कम नहीं होता। परधान का चित्रा वह बनाएगा ही बनाएगा।
कुछ महीने के लिए उसने परधान का चित्रा बनाना छोड़ दिया और घर के बकाया कामों को निपटाने में जुट गया। वैसे भी उसे पता था कि कोई कला मन माफिक न बन पाये तो कुछ समय के लिए उसे बनाना छोड़ देना चाहिए। कुछ समय बाद मन में नये नये भाव स्वतः जागृत हो जाते हैं। फिर अनुभूति और अभिव्यक्ति में संतुलन आ जाता है। नहीं तो अनुभूति कहीं होती है और अभिव्यक्ति कहीं और।
वैसे कोई काम छूट जाता है तो छूट जाता है, रोजी रोटी के जुगाड़ में पहले चूल्हा ही दिखता है फिर कला, या कोई दूसरी चीजें। शिलान्यास वाले दिन उसने परधान को देखा। परधान स्कार्पियो पर सवार था, सफेद कपड़ों में लकदक, जिन्स की पैन्ट में खुंसा हुआ रिवाल्वर, चाल में ऐंठन, उसके साथ तीन असलहाधारी थे, जिनके हाथों में रायफलें थीं। परधान एक पुलिया का शिलान्यास करने आया था। परधान के उस रूप को वह देखता रह गया, उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह किसे देख रहा है परधान को या किसी बाहुबली को। उसे समझ आया कि आज के समय के यही बहादुर हैं, वह अपने क्षेत्रा के एक बाहुबली विधायक को कई बार देख चुका है, उसे पता है कि उसकी अपनी सेना भी है तथा सुरक्षा कमाण्डो भी। अचानक उसके दिमाग ने काम करना बन्द कर दिया।
परधान तो गॉव का प्यारा आदमी है फिर उसे किस बात का डर, काहे की सुरक्षा, उसे जान पड़ा कि अब बहादुरों की नश्ल बदल रही है। अब बहादुर ऐसे ही होते हैं, खुद को बदलने वाले, वे गॉव व समाज के लिए लड़ाकू नहीं, लड़ाकू हैं अपनी तरक्की के लिए। वह तत्काल शिलान्यास स्थल से अपने घर लौट आया। उसने तय किया कि ऐसे परधान से गॉव के विकास के बारे में वह कभी बातें नहीं करेगा।
‘काहे लौट आये, ‘शिलानास’ में नाहीं गये थे का?’ पूछा था उसकी पत्नी मुनिया ने....
‘का तो बोल रहे थे कि परधान जी ‘शिलानास’ करेंगे, शिलानास नाहीं हुआ का’ उसने दुबारा पूछा...’
‘नाही रे! शिलान्यास काहे रूकेगा, वह शिलानास नाहीं था गॉव का नाश था, हमारा मन उहां नाही लगा।’
मुनिया उसे ताकती रह गयी थी जैसे उसे उसके सवाल का उत्तर न मिला हो फिर वह रसोईं में चली गयी। वह परेशान था, परेशान था परधान के बदले रूप को देख कर। उसे अनुमान तक नहीं था कि साधारण रंग रूप का दिखने वाला परधान, परधान बनते ही अपना चोला बदल लेगा, बगल में रिवाल्वर खोंस लेगा, असलहाधारियों के साथ चलेगा। उसके हाथ में माला होती, जेब में शंख और माथे पर चंदन की बिन्दी होती तब भी ठीक था पर नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं, उसकी तरह तो वे लोग भी नहीं दिखते थे जो खानदानी लुटेरे हैं, जिनकी गॉव में हकूमत चला करती है? वे भी ऐसे अवसरों पर समान्य जन बन जाया करते हैं।
वह सीधे उस कमरे में गया जिसमें परधान का उसके द्वारा बनाया हुआ चित्रा रखा हुआ था। उसने परधान का चित्रा उठाया और फाड़ दिया। चित्रा फाड़ते समय उसे समझ में आया कि परधान कभी भी विरसा, जूरा या बुद्धू भगत नहीं हो सकता, इसी लिए परधान का चित्रा विरसा की तरह नहीं बन पा रहा था, बनता भी कैसे। परधान जैसे आदमी की चित्राकथा तो बन ही नहीं सकती।
वह परधान की चित्राकथा न बना पाने के कारण परेष्शान हो गया था, उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि का करे और का न करे। जाड़े के दिन थे, उसने धूप में खटिया निकाला और उस पर लेवा बिछा कर लेट गया और खुद में खो गया। कब नींद आ गई उसे पता ही नहीं चला। वह तब जागा जब उसके बपई ने उसे झकझोरा...
‘गॉव के सारे जवान उहां है शिलानास वाली जगह पर, अउर तूं खर्राटे मार रहा है, ऊहां रहना चाहिए था’
‘का करेंगे ऊहां रह कर’उसने बपई को जबाब दिया
‘का करेंगे ऊहां रह कर पूछ रहा है, तोहैं का पता, आजु तऽ परधन ने कमाल कर दिया। ‘परधान ने एक घंटा भाषण दिया अउर साफ कहा कि जो भी गरीबों के साथ ‘अनिआव’ करेगा वह उनकी ऑखें फोड़ देगा, गॉव की जगह जमीन पर सभी का बराबर हक है, अनियाव के खिलाफ गॉव के हर आदमी को बाबा विरसा बनना होगा, अब वह वंशवाद नहीं चलने देगा, जल्दी ही वह गॉव में विरसा भगवान की बहुत बड़ी मूरत लगवायेगा। विरसा बाबा की मूरत बनवाने के लिए आप सभी लोगों को दान में कुछ न कुछ देना होगा फिर क्या था...गॉव ने नारा लगाया...कृ
‘विरसा बाबा जिन्दाबाद।’ अइसहीं बहुत कुछ नारा लगा, हमैं खियाल नाहीं पड़ रहा’
वह बपई की बातें सुन रहा था और ऑखें मलते हुए ही बपई से पूछा...
‘किस जमीन पर गरीबों का हक मिलेगा बाबू! कोई ऐसी जमीन है का गॉव में, जिस पर किसी का नाम न चढ़ा हो, विरसा बाबा की मूरत लगाने से का होगा? जिनके पास घर नाही है औन्है घर मिल जाएगा का?’
बपई को भी पता है कि गॉव की एक ईच जमीन भी ऐसी नाहीं है जिस पर किसी का नाम न चढ़ा हुआ हो फिर कैसे देगा परधान गॉव के गरीबों को जमीन। बपई का बोलता, उसे छोड़ कर चला गया।
उसकी नींद खुल चुकी थी। आंखें मलते हुए उसने तय किया कि अब वह परधान का चित्रा नहीं बनाएगा, जमाना बदल चुका है अब कोई ऐसा बन ही नहीं सकता जिसे इतिहास के फटे पन्ने पर भी रचा जा सके।
कथाक्रम, अक्टूबर-दिसंबर 2016 पृ..55-60
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Ramnathshivendra
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सीमांत की संघर्ष-गाथा ‘हरियल की लकड़ी’
अरविन्द चतुर्वेद
novel based on the protest of tribal lady Basmatia आदिवासी महिला बसमतिया की संघर्ष गाथा पर केंद्रित उपन्यास
दुनिया के जिस ‘सबसे बड़े लोकतंत्रा’ में हम रहते हैं, आज़ादी के अठ्ठावन साल बाद आज भी सीमांत पर कई ऐसी जिन्दगियां हैं जिन्हें आज़ादी की रोशनी मयस्सर नहीं, उलटे तंत्रा के शिकंजे में वे छटपटा रही हैं। विकास की संजीवनी तो खैर उन्हें क्या मिले, विडंबना ही है कि विकास की मार ने उनका जीना दूभर कर रखा है। ये सीमांत के दूर-दराज के जंगली गॉव भी हो सकते हैं और शहरों की झुग्गी-झोपड़ियां या फुटपाथी जिन्दगी भी। कथाकार रामनाथ शिवेन्द्र के हाल ही में आये उपन्यास ‘हरियल की लकड़ी’ में जिस तरह से सीमांत की जीवन गाथा उपस्थित हुई है वह भौगोलिक रूप से भी उत्तर-प्रदेश का दक्षिणी-पूर्वी सीमांत है। सोनभद्र जनपद के रूप में वही सीमांत है जो कोयला, सीमेन्ट, अल्युमिनियम की बदौलत औद्योगिक अंचल और बिजली कारखानों के चलते ऊर्जा राजधानी जैसे चमकदार जुमले से संबोधित किया जाता है तो दूसरी ओर इसी सीमांत पर विकास की मारी, विस्थापन से धकियाई हुई वह ग्रामीण जंगली बस्तियां हैं जो अपने अ-विकास में अचल हैं और प्रशासनिक अंधेरगर्दी, लूट,खसोट तथा बहुस्तरीय दैहिक-मानसिक शोषण की स्वेच्छाचारिता की शिकार हैं। छब्बीस उपशीर्षकों में विन्यस्त उपन्यास ‘हरियल की लकड़ी’ में इसी ग्रामीण आदिवासी ज़िन्दगी की संघर्ष गाथा को उसकी अनेक गूंज-अनुगूंज के साथ प्रस्तुत किया गया है। कहना न होगा कि बहुत हद तक इसमें उपन्यासकार को सफलता मिली है। वैश्वीकरण के जिस अभियान में विकास की दंुदुभी बजाई जा रही है उसकी असलियत जाननी हो तो सीमांत के परिवेश का जायजा लेने से उसका खोखलापन अपने आप उजागर हो जाता है। इस उपन्यास में आये गॉव का जीवन परिवेश देखिए....कृ ‘सदी का गुज़रना इस गॉव से गायब था। यहां परंपरायें थीं, उनका दबाव था। दूसरी कोई चीज थी तो वह था जंगल, नदी नाले पहाड़। जंगल में महुआ, करवन, बेर, हर्रा, बहेरा जैसे कुछ जंगली फल-फूल थे। जिन्हें अपने उपयोग के लिए प्रयोग में लाना कानून प्रतिबंधित और दण्डित करता था। गॉव हजारों साल की परंपराओं में वह गॉव कुछ इस तरह ढंका था कि नई सदी का वहां कहीं अता-पता न चलता था। एक तरफ धॉगरी बोलते हुए करम देवता खड़े थे तो दूसरी ओर मैदानी इलाके में राम, कृष्ण, शंकर जैसे देवता भी पुजहाई करवाने में कम न थे। हाल के सालों में कुछ नेताओं, परेताओं के नाम भी गॉव में घुस चुके हैं। (पृ.68) उपन्यास की मुख्य कथा तो बस इतनी ही है कि चेरो जाति की आदिवासी युवती बसमतिया का पति जगदा पॉच साल पहले गॉव छोड़कर कहीं चला गया है। न वह लौटा, न उसने इस बीच अपनी कोई खबर दी। लेकिन बसमतिया है कि अपनी बूढ़ी विधवा सास के साथ रह कर मेहनत मजूरी करते हुए ज़िन्दगी बसर किये जा रही है। वह जवान है, आकर्षक है, मेहनती है, और चाहे तो अपने जाति समाज के मुताबिक किसी दूसरे युवक के साथ ‘सलट’ कर ज़िन्दगी की नई पारी भी शुरू कर सकती है। लेकिन वह जगदा के लौटने का इन्तजार करती है। जगदा वापस आ जाये इसके लिए ‘छठ’ का ब्रत रखती है, ‘करम’ देवता से मनौती करती है। वह जगदा और उसकी स्मृतियों को ‘हारिल की लकड़ी’ की तरह थामेे हुई है, जकड़े हुई है। सीमांत की ज़िन्दगी का अर्थिक संघर्ष कितना गहरा है उपन्यास में आया विवरण द्रष्टव्य है--- ‘चेरवान के परिवारों की संख्या चालीस थी तथा धॉगर कुल पैंतालिस परिवार थे, अहीर जो लगभग भूमिहीन थे उनकी संख्या चार परिवार की थी। भूमिहीन व गरीबी रेखा के नीचे जीवन गुजारने वाले इन परिवारों के बच्चे स्कूल न जाते थे। बहुतायत लोगों के पास बंधी में ली गई जमीनों के एवज में चौदह-चौदह बिस्वों के दिए गये छोटे-छोटे जमीन के टुकड़े थे। गॉव के भूमिहीन जंगल विभाग के कामों पर सब्बल, गैंता, फावड़ा चलाते और औरतें टोकरियॉ ढोतीं। कभी जंगल में उन्हें वृक्षारोपण का काम भी मिल जाता।’ लेकिन जिस बसमतिया की जिन्दगी दागों वाली दुनिया की न थी, वह जल की तरह चमकदार थी और पारदर्शी भी।’ पृ..54 उसकी स्थिति दूसरों से इस मायने में भिन्न है कि आर्थिक अभाव के साथ ही उसका जीवन भवनात्मक अभाव से भी ग्रसित है। इसलिए यह बहुत ही स्वाभाविक है कि... ‘बसमतिया वर्तमान में जीने वाली औरत थी। उसके पास न तो अतीत की आनददायक स्मृतियॉ थीं और न ही भविष्य का मनोरम सपना था’ पृ.127 तो क्या बसमतिया के अन्दर इच्छा-आकांक्षा न थी, राग-अनुराग न था, या वह हाड़-मांस की नहीं बनी थी? रात के एकांत में अपनी मायके में भउजाई के साथ सोई बसमतिया कहती है... ‘भउजी जबसे तुम्हारा घर से ननदोई भागा है तबसे जाने क्या हुआ कि मेरी देह भी उसके साथ चली गई है। समझ में नहीं आता कि देह कैसे चली गई, मेरी खुशियां लेकर, मुई देह भी गुसिया गई है मुझ पर’कृ 52 यानि एक तरह से पति-परित्यक्ता, युवा बसमतिया जिस तरह की परिस्थितियों का शिकार है, उसमें किसी भी तरह उसकी ज़िन्दगी निरापद नहीं है। वह जिस मालिक के काम पर जाती है, एक मौका पाकर वह उसे दबोच लेता है। संघर्ष करके बसमतिया उसके चंगुल से निकल भागती है, और दुबारा फिर उसके काम पर नहीं जाती। बसमतिया के जेठ की भी उस पर बुरी निगाह है। अव्वल तो वह चाहता है कि बसमतिया किसी के साथ ‘सलट’ कर दफा हो जाये तो जगदा के हिस्से की जरा सी जमीन उसे मिल जाये या फिर बसमतिया उसके अवैध संरक्षण में रहने लगे। लेकिन बसमतिया कठिन जिन्दगी जीते हुए भी टूटती नहीं। यथा संभव न्यूनतम जरूरतों और शर्तों पर जिन्दगी जीती है, लेकिन जेठ तथा मालिक जैसे बदनीयत लोगों के लिए वह सर्वथा अलभ्य बनी रहती है। बसमतिया का पति भगोड़ा निकला जरूर लकिन बसमतिया परिस्थितियों के अंधड़ में सूखे पत्तों की तरह उड़ जाने वाली स्त्राी नहीं है। उसका जीवन रिक्त है और उसकी मन‘स्थिति को बड़ी बारीकी से उकेरने में लेखक ने पर्याप्त दक्षता का परिचय दिया है पर असल चीज है बसमतिया का जीवट, वह चट्टानी दृढ़ता, जो हर तरह के आर्थिक, मानसिक हरहराते अभावों के आगे पराभूत होना नहीं जानती। इसी ने बसमतिया के व्यक्तित्व को चमकदार बनाया है। लेकिन यहां यह कहना भी जरूरी है कि ‘हरियल की लकड़ी’ उपन्यास को स्त्राी विमर्श के खाते में डालकर ‘रिड्यूस’ नहीं किया जा सकता। दरअसल यह उपन्यास सीमांत की जिन्दगी जी रहे लोगों के संघर्ष और जिजीविशा की बिडंबनापूर्ण दास्तान तो है ही, साथ ही बचे-खुचे सामंती अवशेषो, पूंजीवाद के हमलावर चरित्रा और जनतंत्रा को अप्रासंगिक बनाने पर आमादा भष्ट, क्रूर प्रशासनिक व्यवस्था तथा विकास की इकहरी प्रक्रिया के दुःपरिणामों को उजागर करता एक खौलता कथा-दस्तावेज भी है। बसमतिया उपन्यास का केन्द्रीय पात्रा तो है लेकिन एक ऐसा पुल भी है जिस पर से होकर उसके मायके और ससुराल की ग्रामीण जिन्दगी की सीमांत चुनौतियां और संघर्ष अनेक रूपों में आवाजाही करते हैं। उसके बाप ने कभी सरकारी सहायता के तहत भैंस ली थी जिसके एवज में देय बैंक का कर्ज दो हजार से बढ़कर आठ हजार रुपये हो जाता है। यह कर्ज भी एक नेता की कागजी धोखा-धड़ी की देन है जिसका शिकार उसका अनपढ़ बाप बनता है। बाप को जेल न जाना पड़े और किसी तरह कर्ज से छुटकारा मिले इसके लिए गॉव के सीधे-सादे दूसरे कर्जदारों के साथ बसमतिया को बैंक और कचहरी का चक्कर लगाना पड़ता है। बसमतिया की गॉव की सहेली ननकी का दूर का एक रिष्तेदार देवनाथ डूबते को तिनके का सहारा जैसा वकील मिल जाता है और हालांकि बसमतिया का बाप जेल जाने से बच जाता है, उपभोक्ता फोरम के माध्यम से मुकदमा जीतने के कारण उसे कर्ज से मुक्ति भी मिल जाती है। फिर भी रोज कमाने खाने वालों के लिए बैंक-कचहरी का चक्कर अपने आप में कितना बड़ा संघर्ष है, यह वकील देवनाथ से बसमतिया की इस जिज्ञासा व चिन्ता से समझा जा सकता है... ‘फैसला कब तक हो जाएगा वकील साहब! यहां आओ तो सत्तर अस्सी रुपया खरच हो जाता है, दो दिन का नुकसान अलग से। रोज कमाओ खाओ नहीं तो फांका’पृ.159 प्रशासनिक भ्रष्टाचार और लूटतंत्रा का शिकार होकर सरकारी अनुदान, सहायता और बैंक कर्ज आदि के जरिए सीमांत की जिन्दगियां जहां जाल में फंसकर छटपटाती हैं, वहीं औद्योगिकरण और इकहरे विकास की प्रवंचना भी उन्हीं के हिस्से आती है। ‘गॉव के आकाश का सूरज, गॉव के हिस्से की जमीन, धूप हवा, जंगल, पहाड़ सभी कुछ गॉव में होते हुए भी गॉव से बाहर थे उन पर दूसरों का कब्जा था। नदी का पानी दूर जाकर नहर में गिरता था जिससे गॉव का रिश्ता नहीं। गॉव का पहाड़ टूट-टूट कर ढोंका, पटिया, चूना, सीमेन्ट, अल्युमिनियम बनता था, जंगल कटकर पलंग, कुर्सी,मेज, किवाड़ वगैरह में ढलता था पर बसमतिया का मायकाकृबिना नहर वाला, बिना कुर्सी वाला, बिना सीमेन्ट वाला था जो आज भी है। इतिहास की बनती बिगड़ती स्थितियों ने कभी भी इस गॉव का भला नहीं किया’ पृ..73-74। उपन्यास का अंत सचमुच विचलित कर देने वाला है। गॉव के पंडितों के मन मुताबिक ग्रामसभा का काम न होने के कारण वे भूमिहीनों और मजदूर तबके के लोगों का साथ देने वाले ग्रामप्रधान के खिलाफ हैं। अंततः गॉव के भूमिपति यानि पंडित वन विभाग के रंेजर के साथ मिलकर प्रधान व भूमिहीन ग्रामीणों के खिलाफ साजिश रचते हैं। रेजर की अगुवाई में वन विभाग वाले जंगल की जमीन पर कब्जा का बहाना बना कर उनकी झोपड़ियां उजाड़ते हैं, आग लगा देते हैं, विरोध करने वालों को खदेड़कर पकड़ ले जाते हैं। रेंजर आफिस पर खुद लकड़ी के गोदाम में आग लगवाकर रेजर, गॉव वालों को आरोपी बनाता है। यह सारी कार्यवाई रात में होती है। बसमतिया और रज्जो के साथ सामूहिक बलात्कार किया जाता है। इस बर्बर दमनात्मक कार्यवाई के बाद प्रधान समेत पकड़े गये ग्रामीणों को गिरफ्तार कराके जेल भेज दिया जाता है। पक्ष विपक्ष में खबरे छपती हैं, चूंकि वकील देवनाथ भी ग्रामीणों को भड़काने के आरोप में गिरफ्तार होता है इसलिए वकीलों की हड़ताल और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के धरना प्रदर्शन का सिलसिला शुरू हो जाता है। एक बार फिर मामला जॉच और कचहरी की पेचीदा गलियों में चला जाता है। विचलित कर देने वाले दमन और षडयंत्रा के गर्भ में जिस तरह के विस्फोट के मुहाने पर जाकर उपन्यास खत्म होता है, वहां हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था और इसकी उपलब्धियों के सामने एक बड़ा प्रश्नचिन्ह स्वयमेव खड़ा हो जाता है। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि वैश्वीकरण के गाए जा रहे भारतीय सोहर के सामने यह उपन्यास एक ऐसा शोकगीत है जिसे अनसुना नहीं किया जा सकता। परिचय (साहित्यिक पत्रिका---- अंक 06 पृ...107-110 हंस मासिक पत्रिका समीक्ष्य कृति- हरियल की लकड़ी’ (उपन्यास) प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन, नेता जी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली, 110002 मूल्य-195.00 सन्- 2006
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मौलिक अधिकारों के संघर्ष की तैयारी ‘तीसरा रास्ता’
नन्द किशोर नीलम
NGO संस्कृति पर केंद्रित उपन्यास भूमिअधिकार के सन्दर्भ में
एन.जी.ओ. की भूमिका पर अनगिनत सवाल उठते रहे हैं। एन.जी.ओ. ने अपनी कार्यप्रणाली और समग्र व्यवहार से बराबर ऐसे हालात पैदा किए हैं जिससे तमाम धारणायें पुष्ट और प्रमाणित हुई हैं कि इनकी भूमिका विकास विरोधी दलालों की तरह है। निरीह जनता के हिस्से की कल्याणकारी योजनाओं की अकूत राशि इनके पंचतारा ऐशो-आराम पर खर्च कर दी जाती है। बाड़ (बाउन्ड्री) का काम खेत की रखवाली करना होता है, पर यदि बाड़ ही खेत खाने लगे तो! संभवतः एन.जी.ओज की भूमिका पर अपनी रचनात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले रामनाथ शिवेन्द्र के महत्वपूर्ण उपन्यास ‘तीसरा रास्ता’ में यही संशय उमड़ता-घूमता रहता है। मानवाधिकार जन समिति की एन.जी.ओ. का कर्ताधर्ता डी.बी़ जैसा शातिर व्यक्ति, जिसके हाथ में समाज को बदलने की ताकत और साधन दोनों हैं, शोषक व भक्षक की भूमिका में है। समाज की बेहतरी के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले साधनों को वह समाज के विनाश के, समाज की चेतना को कुंद करने के हथियारों के रूप में तब्दील करने में माहिर है,वह कहता है... ‘क्रान्ति एक छलावा है, तथा विकास यथार्थ’ वह आगे कहता है... ‘बुद्धि के व्यापार के लिए किसी एन.जी.ओ. का होना आवश्यक था सो उसने अमेरिकी फन्डर की बात जस के तस मान कर अपनी संस्था बना ली’ पृ...21 इसलिए क्रान्ति को अवरूद्ध करने के तमाम उपाय करता हैै। डी.बी. राजनीतिक समीकरण बिठाने में माहिर है। उसके मंसूबों को साकार करने और उसके अटके कामों को करवाने के लिए कोई न कोई स्त्राी हमेशा देह में परिवर्तित हो जाने को तत्पर रहती है, जो उसका विरोध करती है उसे वह बर्बाद कर देता है। जटिल जीवन पद्धति, बाजारीकरण और घिचपिच सौन्दर्यबोध से स्त्राी का संपूर्ण व्यक्तित्व किस तरह संचालित होता है इसका ज्वलंत उदाहरण है डी.बी. की सहायक मधुनिहलानी और शालिनी। वस्तुतः यह उपन्यास समाज परिवर्तन की दिशा में स्त्राी की भूमिका के परस्पर विरोधी आयामों की गहरी पड़ताल करके उसके सही और सकारात्मक भूमिका और हस्तक्षेप को सुधा, अस्मिता, नन्दिता तथा प्रमिला जैसी स्त्राी पात्रों के द्वारा रचता है जो हर स्तर पर समाज बदल के लिए प्रतिरोधी क्षमता का प्रतिनिधित्व करती हैं। स्त्राी जीवन के दो घनघोर विरोधी स्वरूपों (देह में तब्दील हो जाना एक स्वरूप तथा विरोधी स्वरूप अपनी अस्मिता के बचाव में प्रतिरोध करना) पर रामनाथ शिवेन्द्र ने स्त्राी पात्रों के माध्यम से गंभीर विचारण किया है। प्रस्तुत उपन्यास सोनपुर जनपद की आम जनता के माध्यम से आज के असंख्य शोषितों, पीड़ितों, दलितों, दमितों और वंचितों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए किए जा रहे संघर्ष की कथा कहता है। सोनपुर के ये लोग अपने जल,जंगल और जमीन के हक़ के लिए लगातार ठगे जा रहे हैं। शासन इनके प्रति निश्क्रिय और उदासीन है, लगभग जनविरोधी और विकास विरोधी भूमिका में। वन विभाग इन पर झुठे मुकदमे दायर करवाकर क्रूर हत्यारे की तरह व्यवहार करता है और उनके मौलिक अधिकारों की हिफाज़त की लड़ाई के लिए देशी -विदेशी फंडरों से करोड़ों रुपये डकारने वाले एन.जी.ओ. इनके सामाजिक तथा मौलिक अधिकारों का सबसे बड़े अपहर्ता हैं। देखें.. ‘आर्थिक उदारवाद तथा एन.जी.ओ. संस्कृति ने आन्दोलनों के चरित्रा की हत्या कर दी है’ पृ...224 ‘एन.जी.ओ. वाले.बेकारी तथा बेरोजगारी का लाभ उठाते हैं तथा रुपया कमाने का व्यापार करते हैं, आधे से भी कम मजूरी पर कार्यकर्ताओं का शोषण करते हैं।’ समाज बदलने के व्यापक उद्दष्यों को छोड़कर ‘ये एन.जी.ओ. वाले गरीबी, भुखमरी,बीमारी का सौदा करते हैं तथा अमेरिका व इंग्लैंड को बेचते हैं। पृ...198 इस उपन्यास की एक महत्वपूर्ण घटना है सुधा के नेत्त्व में सोनपुर में बंधी का निर्माण जो वास्तव में आज के समय में जनभागीदारी के द्वारा जल संरक्षण के श्रोतों को सिरजने के पहल के लिए प्रेरित करता है, दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार द्वारा बड़े बांध बनाने के लिए अपनी जमीन से उजाड़ दिए जाने वाले निरीह आदिवासियों के विस्थापन को रोकने तथा बड़े बांध के विकल्प में छोटी-छोटी बंधियां बनाकर प्राकृतिक रूप से जल संरक्षण करने से जल, जंगल और जमीन रूपी आम जनता के मौलिक अधिकारों का हनन भी नहीं होगा और उन्हें बार बार उजड़ने से निजात भी मिलेगी पर वन विभाग सुधा द्वारा जन सहभागिता से बनवाये जा रहे बंधी निर्माण से खुश नहीं है, उसके धन व वर्चस्व का सारा खेल बड़े बांध खड़े होने में है। वन विभाग के पैमाइशी फीते का जाल इतना गहरा और बड़ा होता है कि आम आदमी और उसके जीवन जीने के संसाधन भी इसी जाल में उलझकर रह जाते हैं। प्रतिरोध करने पर वन विभाग का दमन चक्र क्रूरता में बदल जाता है फिर पुलिस? नेता, और स्वयं सेवी संगठनों के भ्रष्ट आका आपसी साठगांठ से जनप्रतिरोध की धार को कुन्द कर देते हैं। उपन्यास में सोनपुर के निरीह लोगों को रेंजर की हत्या के आरोप में फसाना ऐसी ही सांठगांठ का परिणाम है। सुधा, विजयकीर्ति भाई, निखिल दा और विनय जैसे लोगों की बड़ी चिंता यह है कि इन्हें किसी भी तरह से उजड़ने से बचाया जाए और विस्थापित किए जाने वाले लोगों के बीच जाकर उन्हें आदिवासियों के मौलिक स्वत्व के संघर्ष के लिए कैसे तैयार किया जाए? लेकिन अनेक बार उजड़ चुके और शासन और पुलिस की पाश्विकता को भोग चुके लोग डरे हुए हैं। गॉव का एक सत्तरवर्षीय वृद्ध सुधा और विनय को इस बर्बरता के बारे में बताते हुए लगभग पागलपन की हद तक पहुंच चुकी निराशा में ‘करमा’ गा गा कर नाचने लगता है। पृ...222। यह बुजुर्ग आदिवासी बार बार के विस्थापन को अपनी नियति मान चुका है। जिस डर, हताशा और निराशा का वह शिकार है वह आज पूरे भारतीय समाज पर हावी है। पर इसी गॉव के कुछ युवा लोग इस नियति को बदलकर आपने जीने के अधिकार को पाना चाहते हैं। इनमें अथाह जोश है और प्रतिरोध की आवश्यक क्षमता भी। ये अब मरने-मारने पर उतारू हैं। इस उपन्यास का शीर्षक ‘तीसरा रास्ता’ देख कर ऐसा लगता है कि राजनीति में तीसरे विकल्प की तरह उपन्यासकार भी एक ‘तीसरा रास्ता’ बनाने या सुझाने की पहल करेगा जो कायम सत्ता और विकास विरोधी स्वयं संगठनों की लूट से परे होगा। जिस तीसरे रास्ते का खुलासा रामनाथ शिवेन्द्र उपन्यास के अंतिम ख्ंाड ‘तीसरा रास्ता’ में करते हैं वह चौंकाता है। प्रारंभ में एक क्रान्तिकारी कामरेड रहे दीपेश भट्टाचार्य (डी.बी.) का रमेशरा बनकर नन्दिनी के जमीनदार पिता की हत्या करवाना, हत्या की राजनीति का पैरोकार होना, बाद में एन.जी.ओ. चलाना और अपने भ्रश्ष्ट व्यभिचारी चरित्रा को छिपाने के लिए अंततः आध्यात्मिक गुरु बन जाना ही क्या अब ‘तीसरा विकल्प’ या ‘तीसरा रास्ता’ बचा है? क्या वास्तव में आज के इस विकट दौर में जनपक्षधर मूल्यों के प्रति लोगों का रुझान कम हो रहा है? क्या संघर्ष और प्रतिरोधी चेतना पर ‘धन’ और ‘आध्यात्म’ ने आधिपत्य कायम कर लिया है? क्या अमेरिकी धनकुबेरों का प्रतिरोधी ताकतों को मनोवैज्ञानिक रूप से अपहृत करने का षडयंत्रा फलीभूत हो चुका है? ऐसे कई प्रश्नों से यह उपन्यास विचलित करता है। आध्यात्म वास्तव में इस उपन्यास की ‘जय’ है या ‘पराजय’ तनिक गंभीरता से विचार करना पड़ेगा। डी.बी. का सब तरफ से हार कर अपने पुराने आध्यात्मिक गुरु की शरण में चले जाना और अंत में अपने गुरु की जगह लेकर भगवा धारण कर लेना आज के समय की बड़ी सच्चाई है। आध्यात्मिक गुरुओं का प्रभामंडल लगातार फैल रहा है। कई गुरुओं और बापुओं के यौन-दुराचारों का पर्दाफास होने के बाद भी ये अपना प्रभामंडल विस्तृत करने मे कामयाब हो रहे हैं। आज जिस तरह की घटनांए हमारे वैचारिक समाज में घट रही हैं उन्हें देखते हुए यही कहा जा सकता है कि रामनाथ शिवेन्द्र आगत के भयावह हालात की पूर्व सूचना दे रहे हैं। प्रगतिशील और जनपक्षधरता के अगुआओं का इन दिनों जातियों, संघियों और सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों के चंगुल में फसना या स्वेच्छा से उनके आतिथ्य और धन को स्वीकार करना कहीं वही ‘तीसरा रास्ता’ तो नहीं जिसकी ओर रामनाथ शिवेन्द्र ने संकेत किया है? बहरहाल आज के वैज्ञानिक युग में आध्यात्म की दुन्दुभी जिस ऊंचे सवर में कान फोड़ रही है उसे देखते हुए ‘तीसरे रास्ते’ का घातक संकेत हमें सावधान करता है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अतिवाद के इस कठिन समय में बड़े बड़े अपराधियों का अंतिम ठौर आध्यात्म (?)ही हो सकता है, जहां न तर्क चलता है न कानून। यहां तमाम धार्मिक व कठमुल्ला ताकतें उनके जयकारें और संरक्षण के लिए तत्पर हैं। इस तथ्य की सच्चाई को हम पिछले सालों देख चुके हैं। इस उपन्यास के माध्यम से रामनाथ शिवेन्द्र ने घटित हो रही सच्चाइयों पर और बढ़ती संवेदनशीलता पर बहुत कुछ कहने की कोशिश की है। विचारों का भारी दबाव व ऊभ-चूभ तथा अधिक कथा विस्तार शिथिलता लाता है ऐसी तमाम सीमाओं के बावजूद यह कहने में संकोच नहीं है कि यह उपन्यास व्यापक सामाजिक सरोकारों को बड़े पैमाने पर बहस के बीच लाता है, यही इस उपन्यास की सफलता है। उपन्यास के कुछ अंश जो विचारण के लिए अनिवार्य जैसे हैं उन्हें यहां प्रस्तुत करना गलत न होगा।कृ ‘हम साकारी विधानों, कानूनों, परंपराओं के तार्किक व प्रतिबद्ध अहिंसक अवज्ञाकारी हैं, इस अवज्ञा के दौरान हमें हक़ है कि हम अपनी हिफाजत करें तथा जनता की भी जिसे जागरूक बनाने के लिए हम संकल्पित और लक्ष्यित हैं’ पृ...33 ‘अमेरिकियों का नारा था जिसका पेट भरेगा वह क्रान्ति नहीं करेगा सो रुपया बांटो, खाना दो, पढ़़ाओ, दवाई दो यानि उन्हें बचाओ जो खुद मर रहे हैं या प्रायोजित मृत्यु के लिए क्रान्तिकारी बन रहे हैं’ पृ...35 ‘डी.बी. को स्वयंसेवी संस्थावाद की इस परिभाषा से पहले कुछ दिक्कत हुई, क्यांकि तब तक वह मानसिक रूप से दिवालिया नहीं हुआ था, उसे कदम कदम पर मार्क्स याद आते जैसे रति प्रसंग के दौरान फ्रायड’ पृ...39 ‘तुम्हारा नाम प्रवीण है, तूं एन.जी.ओ. चलाता है, तूं गॉव का विकास करेगा खैरात बांट कर। तूं जमीन क्यों नहीं बटवाता? ’पृ...64 ‘वैसे भी वे इतिहास की अश्लील आदतों से परिचित न थे कि वह परिवर्तित होने वाली परिघटना है तथा समय समय पर कई तरह का रंग रूप धारण करना उसका स्वभाव है।पृ....106 ‘सरकार के पास इतनी बड़ी जेल नही जो सभी को जेल में रख सके’ पृ..116 ‘बड़े उद्योगों का विशाल सांचा नहीं बचेगाकृयदि लाभ, अतिरिक्त लाभ वाली व्यवस्था को सहभागितापूर्ण अर्थतंत्रा व प्रबंधन से तोड़ दिया जाए, इससे नौकरषाही का सांचा भी तोड़ा जाना संभव हो सकता है।’ ‘प्रतिरोध कार्यक्रम खुला-खुला था यानि कि नई दुनिया संभव है पर दान, प्रतिदान, बैंक कर्जों के आवंटन, दया व कृत्रिम आर्थिक सहयोग के द्वारा नहीं। संभव बनाया जा सकता है बराबरी का दर्जा देकर, क्रय शक्ति बढ़ा कर, अवसरों में समानता का वातावरण बना कर, सामाजिक मर्यादा बहाल कर? उत्पादनों को जनोन्मुखी बना कर’ पृ...193 ‘आखिर हम आदिवासी ही क्यों उजाड़े जाते हैं, जमीन में कोयला, हीरा, सोना, चॉदी चाहे जो मिल जाये उजड़ो, हमेशा उजड़ते रहो, हमारा कुछ भी नहीं, ऐसा नहीं चलेगा। हम कोई लाश नहीं, हमारा भी हक़ है इस माटी पर, इस जंगल पर, अब हम इसे कटने नहीं देंगे, जंगल का फल-फूल, बालू, मिट्टी सारा हमारा, हमें नहीं चाहिए दिल्ली’ पृ...224 ‘यहां आकर इतिहास मरे न मरे पर विज्ञान, राजनीति, दर्शन और धर्म सारे के सारे यहां आकर मर चुके हैं इसलिए इस परिक्षेत्रा में बारहवीं शताब्दी आज भी जीवित है। इनके चेहरे आज पूंजीवादी बर्बरता के परिणाम हैं’ पृ...227 हंस कथा मासिकक-फरवरीक-2010 पृ...84-85 समीक्ष्य कृति-तीसरा रास्ता’ पिलग्रिम्स प्रकाशन बी.27/98-ए-8, दुर्गाकुण्ड, वाराणसी, 221010 मूल्य-225.00 फोन(91-542)2314060
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विस्थापित होते समय का दस्तावेज
‘ढूह वाली लछमिनिया’
अमरनाथ अजेय
विस्थापन के सवाल पर केंद्रित उपन्यास आदिवासी महिला लक्ष्मीनिया की गाथा
यह दौर कठिन समय का है। इस समय में चुनौतियां चारो तरफ से हैं, कुछ खतरे बाहर से हैं तो कुछ भीतर से। जहां तक खतरों की बात है खासतौर से ये सोनभद्र जैसे आदिवासी बहुल जनपद में अन्य जनपदों की तुलना में कुछ ज्यादा ही हैं। लेकिन जो खतरे अपने लोगों से हैं वे कहीं अधिक त्रासद हैं, चिंतनीय है। आज के बाज़ारवादी समय का दबाव जंगल व जंगल भूमि पर ज्यादा है, और ये दबाव बनाने वाले कोई और लोग नहीं हैं, बल्कि अपने हुक्मरान हैं, अपने अफसर हैं, अपने कानून हैं। जो जंगली मानुष अपनी जमीन और जंगल से विस्थापित हो रहा है उसके लिए खतरा केवल जमीन का ही नहीं है बल्कि संस्कृति और सम्मान का भी है, अस्तित्व बचाने का भी है। ऐसे दुरूह समय का दस्तावेज है रामनाथ शिवेन्द्र का उपन्यास ‘ढूह वाली लछमिनिया’। लछमिनिया समामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक खतरों से घिरे हुए एक आदिवासी परिवार की युवा लड़की है। लछमिनिया की चिंता में केवल अपनी देह ही नहीं है उसकी चिंताओं में भीखू काका की जमीन है, तो वह पीड़ित लडकी भी है जो जिला स्तर के एक अफसर द्वारा यौन शोषण की शिकार हुई है, तथा उसका गॉव भी है जिसे किसी न किसी दिन विस्थापित किया जाना है। गॉव को विस्थापित किए जाने की नोटिस सरकार ने कथितरूप से तामिल करा दिया है। इन चिंताओं व चुनौतियों के अलावा उसकी चिंताओं में गॉव की फसल है, गीत, संगीत तथा परंपराएं है ‘करमा’ नृत्य, संगीत मण्डली की सहभागिता को टूटने से बचाना भी है। इन चिंताओं की खातिर वह माथा पीट कर टूट जाने वाली किसी लड़की की तरह नहीं है बल्कि किसी बहादुर की तरह वह हर स्तर पर चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार भी है। चुनौतियों से टकराने की उसकी मानसिक तैयारी कुदरती है, इस तैयारी के लिए उसने कहीं से शिक्षण प्रशिक्षण नहीं लिया है। वह अब तक तमाम चरित्रों से अलग है जो स्वस्फूर्त चेतना का उत्पाद है। उसे पता है कि चुनौतियों से टकराने के लिए उसे क्या करना चाहिए। बाहर तथा भीतर से आए संक्रमणों से जिस तरह वह लड़ती है वह स्वतः उल्लेखनीय बन जाता है। संक्रमण की स्थितियां, परिस्थितियां कुदरती नहीं, बदलते समय के जड़ लोगों की कुटिल चालों, विभेदी कानूनी फन्दों, लुभावने वादों के जरिए आती हैं। समय तो बदला है लेकिन उसके साथ खतरे भी बदल गये हैं। खतरों नेे भी अपना रूप जिले के पीड़ित लड़की का यौन शोषणकरने वाले अधिकारी (उपन्यास का एक पात्रा) की तरह बदल लिया है। यह वही अधिकारी है जो एक दिन लछमिनिया को दबोच लेता है, उसे क्या पता कि लछमिनिया जो एक आदिवासी युवती है वह समय से टकराने के कौशल में माहिर है, वह अपना बचाव विषम स्थितियों में भी कर सकती है। ऐसा ही हुआकृअपने बचाव में लछमिनिया हंसुआ वाली लड़की बन जाती है। खतरों के बारे में किसे पता कि वे अफसर की कुटिल चालों के रूप में आयेंगे, या किस प्रकार आयेंगे? खतरा आ गया अफसर के रूप मेंकृअफसर को तो करमा मंडली का चुनाव करना था। सो उक्त अधिकारी लछमिनिया के गॉव गया हुआ था, करमा नाचने व गानेवाले तो आदिवासियों के गॉव में ही मिलते। गॉव में करमा नृत्य का प्रदर्शनहुआ, नृत्य के प्रदर्शन ने अफसर की निगाह में लछमिनिया के रूप को कामुक बना दिया फिर क्या था, अफसर तो अफसर कृत्रिम बहानों के जरिए वह टूट पड़ा लछमिनिया पर और लछमिनिया ने बचाव में हंसुआ उठा लिया। इसके पहले कि लछमिनिया अफसर पर हंसुआ चला देती, अफसर अपने वर्गीय चरित्रा के अनुरूप गिड़गिड़ाने लगा। लछमिनिया ने कुदरती उदारता के कारण अफसर को जीवित छोड़ दिया, उस पर हंसुआ नहीं चलाया। अफसर के गिड़गिड़ाने व माफी मांगने को उसने कुदरती समझा, ‘गलतियां हो जाती हैं किसी की जान लेना ठीक नहीं।’ खतरों का क्या, दिन हो रात हो, जगह कोई हो, दहाड़ते हुए आ जाते हैं। वह भी ऐसे समय मंे जब दुनिया पूंजी के नाच में मगन हो, जहां कदम कदम पर आशंकायें व खतरे ही हों। खतरे तो ऐसे हैं जो गॉव के बड़े जोतदार तथा थाने के दुलरुआ शंकर गवहां की तरफ से भी लछमिनिया के सामने आये। वह उन खतरों से तो लड़ ही रही थी कि एक दिन पूंजीवादी चरित्रा का एक और खतरा उसके बपई की तरफ से आ गया जिसमें वह बुरी तरह से उलझ गई। अब क्या होगा? कैसे लड़ेगी वह बपई से? बपई ने तो एक ठीकेदार से उसे बेचने का राजीनामा कर लिया है। जैसे वह कोई सामान हो, धान, चावल, गेहूं, गाय गोरू की तरह। वह बिक जायेगी पर उसके बपई को नहीं मालूम कि लछमिनिया बिकने वाली सामान या कोई कमोडिटी नहीं है, जिसे बेच दिया जाये। वह उस खतरे से भी लड़ती है और सफल होती है। ठीकेदार की कार दिन दहाड़े जला दी जाती है, लछमिनिया का बपई भी उस दिन गॉव में होता तो मारा जाता, गॉव की स्वस्फूर्त उत्तेजना में उसकी जान चली जाती, ठीकेदार जान बचाकर भागा नहीं तो जाने क्या होता, ठीकेदार की अकूत संपदा उसे जीवन दान तो नहीं दे सकती थी। सो अगर वह गॉव से भागा न होता तो मारा जाता। लछमिनिया को क्या पता कि उसका बपई भी उसके लिए खतरा बन जायेगा और उसका सौदा ठीकेदार से कर लेगा। लछमिनिया का बपई हालांकि था तो आदिवासी ही जो सामान्यतया बाजारू नहीं हुआ करते पर वह ठीकेदार के प्रलोभन में बाजारू बन गया और अपनी बिटिया का ही बेचने के लिए राजीनामा कर लिया। उसे ठीकेदार ने सपना दिखाया था कि उसे वह अपने क्रशर का पार्टनर बना देगा जहां वह मजूरी करता था। पार्टनर बन जाने की लालच ने लछमिनिया के बपई को बाजरू बना दिया और उसने अपनी बिटिया को बेच देने का राजीनामा ठेकेदार से कर लिया। तो खतरे ऐसे होते हैं, खतरे मॉ, बाप, भाई, बहन, बहनोई, मामा किसी के भी जरिए आ सकते हैं। बपई की तरफ का खतरा लछमिनिया के लिए पूंजी के खेल वाला था, कौन है जो धन दौलत वाला नहीं बनना चाहता। पर लछमिनिया तो स्थितिप्रज्ञ होकर बपई की कुटिल योजना से टकराती है। ठीकेदार भाग जाता है, उसकी कार जला दी जाती है। लछमिनिया के गॉव के लिए ही नहीं थाने के लिए भी यह घटना करवट बदल लेती है। थानेदार व ठीकेदार आदि तो वैसे भी पूंजीतंत्रा के रिश्तों में बंधे होते हैं। स्थानीय थाने का दारोगा जो पदेन अर्थपिपाशु था उसे ठीकेदार की पूंजी ने मोह लिया फिर तो दारोगा ने ठीकेदार की कार जलाने और गॉव में झगड़ा फसाद करने के जुर्म में गॉव के कुछ अन्य युवाओं के साथ लछमिमिया के पति को गिरफ्तार कर लिया। लछमिनिया जानती थी कि दारोगा कि यही सीमा है, उसके पति को गिरफ्तार करने के अलावा वह कर भी क्या सकता है पर दारोगा को नहीं पता कि लछमिनिया का गॉव का जन मन क्या कर सकता है? लछमिनिया व उसके पति को को पूरा गॉव भली भांति जानता है। गॉव के लड़के उन दोनों के लिए मर मिटने के लिए तैयार रहते हैं। लड़कों को बुरा लगा कि लछमिनिया के बपई ने लछमिनिया को बेचने का ठीकेदार से राजीनामा कर लिया है सो गॉव के नौजवान लड़कों ने गुस्से में आकर स्वस्फूर्त ढंग से ठीकेदार की कार जला दिया और उसी दिन थाना भी घेर लिया। उन्हें नहीं पता था कि थाना घेरना अन्याय के खिलाफ विरोध प्रदर्शन है या और कुछ। दारोगा थाना घिरा देख कर सहम गया उसके पास घेराव का दमन करने के तरीके नहीं थे, वह मजबूर था, उसी दिन अदालत ने लछमिनिया के पति की गिरफ्तारी के बारे में थाने से रिपोर्ट भी मॉग लिया था। लक्षमिनिया के पति की मॉ से जंगल विभाग के रेंजर की करीबी पहचान थी। रेंजर कानूनी दॉव पेंचों के अनुसार लछमिनिया के पति को गिरफ्तार होते ही अदालत चला गया था। अदालत ने थाने से रिपोर्ट मॉग लिया था। गॉव से गवाह भी नहीं मिलते। सो थानेदार ने लछमिनिया के पति को थाने से ही छोड़ दिया, कौन बवाल में पड़े, अदालत किसी को नहीं छोड़ती। तो यही कहानी है ‘ढूह वाली लछमिनिया’ उपन्यास की। इस कहानी में लछमिनियिा की जिन्दगी से जुड़ी चुनौतियां है तो गॉव जवार से जुड़ी चुनौतियां भी हैं। लछमिनिया जंगली गॉव की रहने वाली है जंगल के गॉव यानि कई बार के विस्थापन के शिकार गॉव। लछमिनिया का गॉव भी कई बार के विस्थापन के बाद बसा है पर उसे हाल ही में उजाड़ा जाना है, नोटिसें दी जा चुकी हैं। उपन्यास इसी आखिरी बार के विस्थापन के लिए दी जा चुकी नोटिस एवं विस्थापन कार्यवाहियों के व्यापक विरोध के स्तर पर समाप्त हो जाता है। होता यह है कि जिस कंपनी को लछमिनिया के गॉव की जमीन सरकार द्वारा आवंटित किया गया है उक्त कंपनी आवंटित जमीन पर कब्जा लेना चाहती है दूसरी तरफ गॉव वाले हैं कि वे किसी भी हाल में उजड़ना नहीं चाहते सो वे प्रतिकार में उठ खड़े होते हैं। जैसा कि मालूम है कि सरकार और प्रष्शासन तो एक रेखीय दमनात्मक सत्ता प्रबंधन पर पुलिस बल के सहयोग से चलने का अभ्यासी हुआ करती है सो वहां पुलिस बल दमन पर उतर जाता हैकृफिर वही हजारों साल की पुलिस परंपरा, मारपीट, यातना, दमन और गिरफ्तारियां। गॉव के नौजवानों के साथ गॉव की कुदरती नेत्राी लक्षमिनिया को गिरफ्तार कर लिया जाता है, वह पाथरटोला वालों के साथ जेल चली जाती हैकृफिर भी वह निश्चिंत है. ‘का फरक है जेहल अउर ईहां में? ईहां से तो जेलवय ठीक है, न मार का डर, न चोरी चमारी का डर, खाओ अउर सूतो।’ लछमिनिया पाथर टोला गॉव के सर्वतोमुखी विकास के लिए एक नायिका की भूमिका निभाती है जो भीखू काका की जमीन में बोई धान की फसल को दबंग शंकर गवहां व उनके पुत्रों को ले जाने से रोकवा देती है। गॉव में होने वाली अर्थहीन रैलियों का प्रतिरोध करती है और प्रतिशोध में फसाये गये अपने प्रेमी/पति को थाने का घेराव करके छुड़वा लेती है। इतना ही नहीं वह खुद को भी अपने बाप के साजिशों से बचा ले जाती है। इतना ही नहीं वह अपने गॉव के विस्थापन के प्रतिरोध में गॉव वालों के साथ जेल जाती है। उपन्यास में आये शब्द चित्रों को देखें... ‘चरित्तर लड़कियों को जानता है, यदि मजबूरी न हो तो वे किसी को भी सभ्य बनाकर ऐसा संस्कारित कर दें कि वे जीवन भर नाम न लें कि लड़कियां ऐसी होती हैं जिनकी देह पर बाजार का अर्थ लिखा जा सकता है।’ ‘आखिर बाजार ने किसे नहीं छला है? अपसंस्कृति भी तो बाजार का ही एक खेल है। आज के जटिल समय में जंगल का आदिवासी विकास की धारा से कोसों दूर है। उनमें जनतांत्रिक प्रतिरोध की क्षमता का भी विकास नहीं हो पाया है। सोनभद्र जिले के आदिवासियों के विस्थापन पर केन्द्रित प्रस्तुत उपन्यास ‘ढूहवाली लछमिनिया’ गिरिवासियों के दुख दर्द का कालजयी दस्तावेज हैै। अपनी भाषा में उपन्यास के पात्रा अपनी स्थितियों, परिस्थितियों का एहसास कराते हैं जिससे संवाद जीवंत हो जाता है। उपन्यास की भाषिक जीवंतता उल्लेखनीय है। अपेक्षा है कि प्रस्तुत उपन्यास पाठकांे का घ्यान आकर्षित करने में सफल होगा।आइए उपन्यास में आये कुछ संवादों, प्रतिसंवादों को देखें.... ‘पर शंकर यादव अपने घर लौटने के बाद अपने में डूब गया। ज़माना बदल गया है, जंगल जाग रहा है पहले वाला नहीं कि सोया हुआ था। सरकारें भी अब पहले वाली नहीं हैं, गरीब गुरबों की सरकार प्रदेश में काबिज है, गरीबों की सुरक्षा के बाबत कानून बन गये हैं। थाना हो या कचहरी अब कहीं भी गॉधी टोपी वाले नहीं दिखते, ठाकुर, बाभन जैसे ज़मीनदार अपनी गुफाओं में बैठे हैं, करंे भी तो क्या?’ पृ...20 ‘चुप रह छोटकू, तूं बड़बड़ करता रहता है, तूं का जानेगा कायदा, कानून, अब तो पुलिस पेड़ों अउर झाड़ियों पर भी मुकदमा कर देती है।’ पृ...21 ‘समझेगा का? यही कि चिड़िया जाल में, जाल खींचो अउर पकड़ लो।’ पृ..38 ‘का खाली, का भरा, खाली ही ठीक है, पहिले मॉग भरो फिर पेट, आया था एक लंगूर’ पृ..47 ‘देख महटर, हम तोहरे पर इलजाम नाहीं लगा रहे, खाली हम अपने को बचाय रहे हैं,नाहीं बचायेंगे तोकृमन तो भर जायेगा जो खाली खाली है, पर मनवै तो नाहीं भरेगा नऽ, पेटवो तऽ भर जायेगा।’ पृ...51 ‘लछमिनिया ऐसी नदी नहीं जिसे बांधा जा सके या पुल ही बनाया जा सके।’ पृ...57 ‘गॉव में जबसे चिमनियां घुसी हैं, न जाने कितने किसिम के धुंआ भी घुसे हैं।’ पृ...61 ‘संघरस तो मरदों का काम है, एमें जनाना का करेंगी? पृ...81 ‘वैसे गॉवों में कागजों की पहुंच बहुत कम होती है, और कानून तो कागजों पर ही उछलता कूदता है।’ पृ...87‘टोले मंे जनतंत्रा की आग धधक रही थी।’ पृ..90 ‘उस दौर के अधिकारी भी खूब थे, कानून की सजी संवरी जीभ वाले, पुलिस के पास तो बारूदी जुबान थी ही।’ पृ...92 ‘बाल, बुतरू भी नौकरों से जनमवाते हैं का अइया?’ पृ..93 ‘इस सभ्यता ने तो यही सिखाया है कि हर चीज बेचे जाने योग्य है।’ पृ...101 ‘अरे! मरदवा तऽ सभै हरामी होते हैं।’ पृ..127 ‘लछमिनिया तूं घूंघट काढ़कर घर में बैठी है, निकल बाहर, हल्ला कर, चिल्ला जोर जोर से, कोई तो सुनेगा, कोई तो चलेगा तेरे साथ’ पृ...136 ‘भगाई को राजीनामा बोलता है, एके कानून बचायेगा, जा कानून के संगे खा, पी, अउर हग, मूत, रहेगा कहां रे! पृ...139 समीक्ष्य कृति--‘ढूह वाली लछमिनिया’ रचनाकार- रामनाथ शिवेन्द्र पाठ- जुलाईक--2017 ज्योतिपर्व मीडिया एण्ड पब्लिकेशन 99, ज्ञानखण्ड-3, इन्दिरा पुरम् गजियाबाद-201012 मूल्य--299.00 व
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Ramnathshivendra
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सीमांत की संघर्ष-गाथा ‘हरियल की लकड़ी’
अरविन्द चतुर्वेद
[[File:Hariyal ki lakadi jpg.jpg|thumb|आदिवासी महिला बसमतिया की संघर्ष गाथा पर केंद्रित उपन्यास]]
novel based on the protest of tribal lady Basmatia आदिवासी महिला बसमतिया की संघर्ष गाथा पर केंद्रित उपन्यास
दुनिया के जिस ‘सबसे बड़े लोकतंत्रा’ में हम रहते हैं, आज़ादी के अठ्ठावन साल बाद आज भी सीमांत पर कई ऐसी जिन्दगियां हैं जिन्हें आज़ादी की रोशनी मयस्सर नहीं, उलटे तंत्रा के शिकंजे में वे छटपटा रही हैं। विकास की संजीवनी तो खैर उन्हें क्या मिले, विडंबना ही है कि विकास की मार ने उनका जीना दूभर कर रखा है। ये सीमांत के दूर-दराज के जंगली गॉव भी हो सकते हैं और शहरों की झुग्गी-झोपड़ियां या फुटपाथी जिन्दगी भी। कथाकार रामनाथ शिवेन्द्र के हाल ही में आये उपन्यास ‘हरियल की लकड़ी’ में जिस तरह से सीमांत की जीवन गाथा उपस्थित हुई है वह भौगोलिक रूप से भी उत्तर-प्रदेश का दक्षिणी-पूर्वी सीमांत है। सोनभद्र जनपद के रूप में वही सीमांत है जो कोयला, सीमेन्ट, अल्युमिनियम की बदौलत औद्योगिक अंचल और बिजली कारखानों के चलते ऊर्जा राजधानी जैसे चमकदार जुमले से संबोधित किया जाता है तो दूसरी ओर इसी सीमांत पर विकास की मारी, विस्थापन से धकियाई हुई वह ग्रामीण जंगली बस्तियां हैं जो अपने अ-विकास में अचल हैं और प्रशासनिक अंधेरगर्दी, लूट,खसोट तथा बहुस्तरीय दैहिक-मानसिक शोषण की स्वेच्छाचारिता की शिकार हैं। छब्बीस उपशीर्षकों में विन्यस्त उपन्यास ‘हरियल की लकड़ी’ में इसी ग्रामीण आदिवासी ज़िन्दगी की संघर्ष गाथा को उसकी अनेक गूंज-अनुगूंज के साथ प्रस्तुत किया गया है। कहना न होगा कि बहुत हद तक इसमें उपन्यासकार को सफलता मिली है। वैश्वीकरण के जिस अभियान में विकास की दंुदुभी बजाई जा रही है उसकी असलियत जाननी हो तो सीमांत के परिवेश का जायजा लेने से उसका खोखलापन अपने आप उजागर हो जाता है। इस उपन्यास में आये गॉव का जीवन परिवेश देखिए....कृ ‘सदी का गुज़रना इस गॉव से गायब था। यहां परंपरायें थीं, उनका दबाव था। दूसरी कोई चीज थी तो वह था जंगल, नदी नाले पहाड़। जंगल में महुआ, करवन, बेर, हर्रा, बहेरा जैसे कुछ जंगली फल-फूल थे। जिन्हें अपने उपयोग के लिए प्रयोग में लाना कानून प्रतिबंधित और दण्डित करता था। गॉव हजारों साल की परंपराओं में वह गॉव कुछ इस तरह ढंका था कि नई सदी का वहां कहीं अता-पता न चलता था। एक तरफ धॉगरी बोलते हुए करम देवता खड़े थे तो दूसरी ओर मैदानी इलाके में राम, कृष्ण, शंकर जैसे देवता भी पुजहाई करवाने में कम न थे। हाल के सालों में कुछ नेताओं, परेताओं के नाम भी गॉव में घुस चुके हैं। (पृ.68) उपन्यास की मुख्य कथा तो बस इतनी ही है कि चेरो जाति की आदिवासी युवती बसमतिया का पति जगदा पॉच साल पहले गॉव छोड़कर कहीं चला गया है। न वह लौटा, न उसने इस बीच अपनी कोई खबर दी। लेकिन बसमतिया है कि अपनी बूढ़ी विधवा सास के साथ रह कर मेहनत मजूरी करते हुए ज़िन्दगी बसर किये जा रही है। वह जवान है, आकर्षक है, मेहनती है, और चाहे तो अपने जाति समाज के मुताबिक किसी दूसरे युवक के साथ ‘सलट’ कर ज़िन्दगी की नई पारी भी शुरू कर सकती है। लेकिन वह जगदा के लौटने का इन्तजार करती है। जगदा वापस आ जाये इसके लिए ‘छठ’ का ब्रत रखती है, ‘करम’ देवता से मनौती करती है। वह जगदा और उसकी स्मृतियों को ‘हारिल की लकड़ी’ की तरह थामेे हुई है, जकड़े हुई है। सीमांत की ज़िन्दगी का अर्थिक संघर्ष कितना गहरा है उपन्यास में आया विवरण द्रष्टव्य है--- ‘चेरवान के परिवारों की संख्या चालीस थी तथा धॉगर कुल पैंतालिस परिवार थे, अहीर जो लगभग भूमिहीन थे उनकी संख्या चार परिवार की थी। भूमिहीन व गरीबी रेखा के नीचे जीवन गुजारने वाले इन परिवारों के बच्चे स्कूल न जाते थे। बहुतायत लोगों के पास बंधी में ली गई जमीनों के एवज में चौदह-चौदह बिस्वों के दिए गये छोटे-छोटे जमीन के टुकड़े थे। गॉव के भूमिहीन जंगल विभाग के कामों पर सब्बल, गैंता, फावड़ा चलाते और औरतें टोकरियॉ ढोतीं। कभी जंगल में उन्हें वृक्षारोपण का काम भी मिल जाता।’ लेकिन जिस बसमतिया की जिन्दगी दागों वाली दुनिया की न थी, वह जल की तरह चमकदार थी और पारदर्शी भी।’ पृ..54 उसकी स्थिति दूसरों से इस मायने में भिन्न है कि आर्थिक अभाव के साथ ही उसका जीवन भवनात्मक अभाव से भी ग्रसित है। इसलिए यह बहुत ही स्वाभाविक है कि... ‘बसमतिया वर्तमान में जीने वाली औरत थी। उसके पास न तो अतीत की आनददायक स्मृतियॉ थीं और न ही भविष्य का मनोरम सपना था’ पृ.127 तो क्या बसमतिया के अन्दर इच्छा-आकांक्षा न थी, राग-अनुराग न था, या वह हाड़-मांस की नहीं बनी थी? रात के एकांत में अपनी मायके में भउजाई के साथ सोई बसमतिया कहती है... ‘भउजी जबसे तुम्हारा घर से ननदोई भागा है तबसे जाने क्या हुआ कि मेरी देह भी उसके साथ चली गई है। समझ में नहीं आता कि देह कैसे चली गई, मेरी खुशियां लेकर, मुई देह भी गुसिया गई है मुझ पर’कृ 52 यानि एक तरह से पति-परित्यक्ता, युवा बसमतिया जिस तरह की परिस्थितियों का शिकार है, उसमें किसी भी तरह उसकी ज़िन्दगी निरापद नहीं है। वह जिस मालिक के काम पर जाती है, एक मौका पाकर वह उसे दबोच लेता है। संघर्ष करके बसमतिया उसके चंगुल से निकल भागती है, और दुबारा फिर उसके काम पर नहीं जाती। बसमतिया के जेठ की भी उस पर बुरी निगाह है। अव्वल तो वह चाहता है कि बसमतिया किसी के साथ ‘सलट’ कर दफा हो जाये तो जगदा के हिस्से की जरा सी जमीन उसे मिल जाये या फिर बसमतिया उसके अवैध संरक्षण में रहने लगे। लेकिन बसमतिया कठिन जिन्दगी जीते हुए भी टूटती नहीं। यथा संभव न्यूनतम जरूरतों और शर्तों पर जिन्दगी जीती है, लेकिन जेठ तथा मालिक जैसे बदनीयत लोगों के लिए वह सर्वथा अलभ्य बनी रहती है। बसमतिया का पति भगोड़ा निकला जरूर लकिन बसमतिया परिस्थितियों के अंधड़ में सूखे पत्तों की तरह उड़ जाने वाली स्त्राी नहीं है। उसका जीवन रिक्त है और उसकी मन‘स्थिति को बड़ी बारीकी से उकेरने में लेखक ने पर्याप्त दक्षता का परिचय दिया है पर असल चीज है बसमतिया का जीवट, वह चट्टानी दृढ़ता, जो हर तरह के आर्थिक, मानसिक हरहराते अभावों के आगे पराभूत होना नहीं जानती। इसी ने बसमतिया के व्यक्तित्व को चमकदार बनाया है। लेकिन यहां यह कहना भी जरूरी है कि ‘हरियल की लकड़ी’ उपन्यास को स्त्राी विमर्श के खाते में डालकर ‘रिड्यूस’ नहीं किया जा सकता। दरअसल यह उपन्यास सीमांत की जिन्दगी जी रहे लोगों के संघर्ष और जिजीविशा की बिडंबनापूर्ण दास्तान तो है ही, साथ ही बचे-खुचे सामंती अवशेषो, पूंजीवाद के हमलावर चरित्रा और जनतंत्रा को अप्रासंगिक बनाने पर आमादा भष्ट, क्रूर प्रशासनिक व्यवस्था तथा विकास की इकहरी प्रक्रिया के दुःपरिणामों को उजागर करता एक खौलता कथा-दस्तावेज भी है। बसमतिया उपन्यास का केन्द्रीय पात्रा तो है लेकिन एक ऐसा पुल भी है जिस पर से होकर उसके मायके और ससुराल की ग्रामीण जिन्दगी की सीमांत चुनौतियां और संघर्ष अनेक रूपों में आवाजाही करते हैं। उसके बाप ने कभी सरकारी सहायता के तहत भैंस ली थी जिसके एवज में देय बैंक का कर्ज दो हजार से बढ़कर आठ हजार रुपये हो जाता है। यह कर्ज भी एक नेता की कागजी धोखा-धड़ी की देन है जिसका शिकार उसका अनपढ़ बाप बनता है। बाप को जेल न जाना पड़े और किसी तरह कर्ज से छुटकारा मिले इसके लिए गॉव के सीधे-सादे दूसरे कर्जदारों के साथ बसमतिया को बैंक और कचहरी का चक्कर लगाना पड़ता है। बसमतिया की गॉव की सहेली ननकी का दूर का एक रिष्तेदार देवनाथ डूबते को तिनके का सहारा जैसा वकील मिल जाता है और हालांकि बसमतिया का बाप जेल जाने से बच जाता है, उपभोक्ता फोरम के माध्यम से मुकदमा जीतने के कारण उसे कर्ज से मुक्ति भी मिल जाती है। फिर भी रोज कमाने खाने वालों के लिए बैंक-कचहरी का चक्कर अपने आप में कितना बड़ा संघर्ष है, यह वकील देवनाथ से बसमतिया की इस जिज्ञासा व चिन्ता से समझा जा सकता है... ‘फैसला कब तक हो जाएगा वकील साहब! यहां आओ तो सत्तर अस्सी रुपया खरच हो जाता है, दो दिन का नुकसान अलग से। रोज कमाओ खाओ नहीं तो फांका’पृ.159 प्रशासनिक भ्रष्टाचार और लूटतंत्रा का शिकार होकर सरकारी अनुदान, सहायता और बैंक कर्ज आदि के जरिए सीमांत की जिन्दगियां जहां जाल में फंसकर छटपटाती हैं, वहीं औद्योगिकरण और इकहरे विकास की प्रवंचना भी उन्हीं के हिस्से आती है। ‘गॉव के आकाश का सूरज, गॉव के हिस्से की जमीन, धूप हवा, जंगल, पहाड़ सभी कुछ गॉव में होते हुए भी गॉव से बाहर थे उन पर दूसरों का कब्जा था। नदी का पानी दूर जाकर नहर में गिरता था जिससे गॉव का रिश्ता नहीं। गॉव का पहाड़ टूट-टूट कर ढोंका, पटिया, चूना, सीमेन्ट, अल्युमिनियम बनता था, जंगल कटकर पलंग, कुर्सी,मेज, किवाड़ वगैरह में ढलता था पर बसमतिया का मायकाकृबिना नहर वाला, बिना कुर्सी वाला, बिना सीमेन्ट वाला था जो आज भी है। इतिहास की बनती बिगड़ती स्थितियों ने कभी भी इस गॉव का भला नहीं किया’ पृ..73-74। उपन्यास का अंत सचमुच विचलित कर देने वाला है। गॉव के पंडितों के मन मुताबिक ग्रामसभा का काम न होने के कारण वे भूमिहीनों और मजदूर तबके के लोगों का साथ देने वाले ग्रामप्रधान के खिलाफ हैं। अंततः गॉव के भूमिपति यानि पंडित वन विभाग के रंेजर के साथ मिलकर प्रधान व भूमिहीन ग्रामीणों के खिलाफ साजिश रचते हैं। रेजर की अगुवाई में वन विभाग वाले जंगल की जमीन पर कब्जा का बहाना बना कर उनकी झोपड़ियां उजाड़ते हैं, आग लगा देते हैं, विरोध करने वालों को खदेड़कर पकड़ ले जाते हैं। रेंजर आफिस पर खुद लकड़ी के गोदाम में आग लगवाकर रेजर, गॉव वालों को आरोपी बनाता है। यह सारी कार्यवाई रात में होती है। बसमतिया और रज्जो के साथ सामूहिक बलात्कार किया जाता है। इस बर्बर दमनात्मक कार्यवाई के बाद प्रधान समेत पकड़े गये ग्रामीणों को गिरफ्तार कराके जेल भेज दिया जाता है। पक्ष विपक्ष में खबरे छपती हैं, चूंकि वकील देवनाथ भी ग्रामीणों को भड़काने के आरोप में गिरफ्तार होता है इसलिए वकीलों की हड़ताल और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के धरना प्रदर्शन का सिलसिला शुरू हो जाता है। एक बार फिर मामला जॉच और कचहरी की पेचीदा गलियों में चला जाता है। विचलित कर देने वाले दमन और षडयंत्रा के गर्भ में जिस तरह के विस्फोट के मुहाने पर जाकर उपन्यास खत्म होता है, वहां हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था और इसकी उपलब्धियों के सामने एक बड़ा प्रश्नचिन्ह स्वयमेव खड़ा हो जाता है। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि वैश्वीकरण के गाए जा रहे भारतीय सोहर के सामने यह उपन्यास एक ऐसा शोकगीत है जिसे अनसुना नहीं किया जा सकता। परिचय (साहित्यिक पत्रिका---- अंक 06 पृ...107-110 हंस मासिक पत्रिका समीक्ष्य कृति- हरियल की लकड़ी’ (उपन्यास) प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन, नेता जी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली, 110002 मूल्य-195.00 सन्- 2006
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मौलिक अधिकारों के संघर्ष की तैयारी ‘तीसरा रास्ता’
नन्द किशोर नीलम
[[File:Teesara Rasta.jpg|thumb|NGO संस्कृति परकेंद्रित उपन्यास भूमिअधिकार के सन्दर्भ में]]
NGO संस्कृति पर केंद्रित उपन्यास भूमिअधिकार के सन्दर्भ में
एन.जी.ओ. की भूमिका पर अनगिनत सवाल उठते रहे हैं। एन.जी.ओ. ने अपनी कार्यप्रणाली और समग्र व्यवहार से बराबर ऐसे हालात पैदा किए हैं जिससे तमाम धारणायें पुष्ट और प्रमाणित हुई हैं कि इनकी भूमिका विकास विरोधी दलालों की तरह है। निरीह जनता के हिस्से की कल्याणकारी योजनाओं की अकूत राशि इनके पंचतारा ऐशो-आराम पर खर्च कर दी जाती है। बाड़ (बाउन्ड्री) का काम खेत की रखवाली करना होता है, पर यदि बाड़ ही खेत खाने लगे तो! संभवतः एन.जी.ओज की भूमिका पर अपनी रचनात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले रामनाथ शिवेन्द्र के महत्वपूर्ण उपन्यास ‘तीसरा रास्ता’ में यही संशय उमड़ता-घूमता रहता है। मानवाधिकार जन समिति की एन.जी.ओ. का कर्ताधर्ता डी.बी़ जैसा शातिर व्यक्ति, जिसके हाथ में समाज को बदलने की ताकत और साधन दोनों हैं, शोषक व भक्षक की भूमिका में है। समाज की बेहतरी के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले साधनों को वह समाज के विनाश के, समाज की चेतना को कुंद करने के हथियारों के रूप में तब्दील करने में माहिर है,वह कहता है... ‘क्रान्ति एक छलावा है, तथा विकास यथार्थ’ वह आगे कहता है... ‘बुद्धि के व्यापार के लिए किसी एन.जी.ओ. का होना आवश्यक था सो उसने अमेरिकी फन्डर की बात जस के तस मान कर अपनी संस्था बना ली’ पृ...21 इसलिए क्रान्ति को अवरूद्ध करने के तमाम उपाय करता हैै। डी.बी. राजनीतिक समीकरण बिठाने में माहिर है। उसके मंसूबों को साकार करने और उसके अटके कामों को करवाने के लिए कोई न कोई स्त्राी हमेशा देह में परिवर्तित हो जाने को तत्पर रहती है, जो उसका विरोध करती है उसे वह बर्बाद कर देता है। जटिल जीवन पद्धति, बाजारीकरण और घिचपिच सौन्दर्यबोध से स्त्राी का संपूर्ण व्यक्तित्व किस तरह संचालित होता है इसका ज्वलंत उदाहरण है डी.बी. की सहायक मधुनिहलानी और शालिनी। वस्तुतः यह उपन्यास समाज परिवर्तन की दिशा में स्त्राी की भूमिका के परस्पर विरोधी आयामों की गहरी पड़ताल करके उसके सही और सकारात्मक भूमिका और हस्तक्षेप को सुधा, अस्मिता, नन्दिता तथा प्रमिला जैसी स्त्राी पात्रों के द्वारा रचता है जो हर स्तर पर समाज बदल के लिए प्रतिरोधी क्षमता का प्रतिनिधित्व करती हैं। स्त्राी जीवन के दो घनघोर विरोधी स्वरूपों (देह में तब्दील हो जाना एक स्वरूप तथा विरोधी स्वरूप अपनी अस्मिता के बचाव में प्रतिरोध करना) पर रामनाथ शिवेन्द्र ने स्त्राी पात्रों के माध्यम से गंभीर विचारण किया है। प्रस्तुत उपन्यास सोनपुर जनपद की आम जनता के माध्यम से आज के असंख्य शोषितों, पीड़ितों, दलितों, दमितों और वंचितों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए किए जा रहे संघर्ष की कथा कहता है। सोनपुर के ये लोग अपने जल,जंगल और जमीन के हक़ के लिए लगातार ठगे जा रहे हैं। शासन इनके प्रति निश्क्रिय और उदासीन है, लगभग जनविरोधी और विकास विरोधी भूमिका में। वन विभाग इन पर झुठे मुकदमे दायर करवाकर क्रूर हत्यारे की तरह व्यवहार करता है और उनके मौलिक अधिकारों की हिफाज़त की लड़ाई के लिए देशी -विदेशी फंडरों से करोड़ों रुपये डकारने वाले एन.जी.ओ. इनके सामाजिक तथा मौलिक अधिकारों का सबसे बड़े अपहर्ता हैं। देखें.. ‘आर्थिक उदारवाद तथा एन.जी.ओ. संस्कृति ने आन्दोलनों के चरित्रा की हत्या कर दी है’ पृ...224 ‘एन.जी.ओ. वाले.बेकारी तथा बेरोजगारी का लाभ उठाते हैं तथा रुपया कमाने का व्यापार करते हैं, आधे से भी कम मजूरी पर कार्यकर्ताओं का शोषण करते हैं।’ समाज बदलने के व्यापक उद्दष्यों को छोड़कर ‘ये एन.जी.ओ. वाले गरीबी, भुखमरी,बीमारी का सौदा करते हैं तथा अमेरिका व इंग्लैंड को बेचते हैं। पृ...198 इस उपन्यास की एक महत्वपूर्ण घटना है सुधा के नेत्त्व में सोनपुर में बंधी का निर्माण जो वास्तव में आज के समय में जनभागीदारी के द्वारा जल संरक्षण के श्रोतों को सिरजने के पहल के लिए प्रेरित करता है, दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार द्वारा बड़े बांध बनाने के लिए अपनी जमीन से उजाड़ दिए जाने वाले निरीह आदिवासियों के विस्थापन को रोकने तथा बड़े बांध के विकल्प में छोटी-छोटी बंधियां बनाकर प्राकृतिक रूप से जल संरक्षण करने से जल, जंगल और जमीन रूपी आम जनता के मौलिक अधिकारों का हनन भी नहीं होगा और उन्हें बार बार उजड़ने से निजात भी मिलेगी पर वन विभाग सुधा द्वारा जन सहभागिता से बनवाये जा रहे बंधी निर्माण से खुश नहीं है, उसके धन व वर्चस्व का सारा खेल बड़े बांध खड़े होने में है। वन विभाग के पैमाइशी फीते का जाल इतना गहरा और बड़ा होता है कि आम आदमी और उसके जीवन जीने के संसाधन भी इसी जाल में उलझकर रह जाते हैं। प्रतिरोध करने पर वन विभाग का दमन चक्र क्रूरता में बदल जाता है फिर पुलिस? नेता, और स्वयं सेवी संगठनों के भ्रष्ट आका आपसी साठगांठ से जनप्रतिरोध की धार को कुन्द कर देते हैं। उपन्यास में सोनपुर के निरीह लोगों को रेंजर की हत्या के आरोप में फसाना ऐसी ही सांठगांठ का परिणाम है। सुधा, विजयकीर्ति भाई, निखिल दा और विनय जैसे लोगों की बड़ी चिंता यह है कि इन्हें किसी भी तरह से उजड़ने से बचाया जाए और विस्थापित किए जाने वाले लोगों के बीच जाकर उन्हें आदिवासियों के मौलिक स्वत्व के संघर्ष के लिए कैसे तैयार किया जाए? लेकिन अनेक बार उजड़ चुके और शासन और पुलिस की पाश्विकता को भोग चुके लोग डरे हुए हैं। गॉव का एक सत्तरवर्षीय वृद्ध सुधा और विनय को इस बर्बरता के बारे में बताते हुए लगभग पागलपन की हद तक पहुंच चुकी निराशा में ‘करमा’ गा गा कर नाचने लगता है। पृ...222। यह बुजुर्ग आदिवासी बार बार के विस्थापन को अपनी नियति मान चुका है। जिस डर, हताशा और निराशा का वह शिकार है वह आज पूरे भारतीय समाज पर हावी है। पर इसी गॉव के कुछ युवा लोग इस नियति को बदलकर आपने जीने के अधिकार को पाना चाहते हैं। इनमें अथाह जोश है और प्रतिरोध की आवश्यक क्षमता भी। ये अब मरने-मारने पर उतारू हैं। इस उपन्यास का शीर्षक ‘तीसरा रास्ता’ देख कर ऐसा लगता है कि राजनीति में तीसरे विकल्प की तरह उपन्यासकार भी एक ‘तीसरा रास्ता’ बनाने या सुझाने की पहल करेगा जो कायम सत्ता और विकास विरोधी स्वयं संगठनों की लूट से परे होगा। जिस तीसरे रास्ते का खुलासा रामनाथ शिवेन्द्र उपन्यास के अंतिम ख्ंाड ‘तीसरा रास्ता’ में करते हैं वह चौंकाता है। प्रारंभ में एक क्रान्तिकारी कामरेड रहे दीपेश भट्टाचार्य (डी.बी.) का रमेशरा बनकर नन्दिनी के जमीनदार पिता की हत्या करवाना, हत्या की राजनीति का पैरोकार होना, बाद में एन.जी.ओ. चलाना और अपने भ्रश्ष्ट व्यभिचारी चरित्रा को छिपाने के लिए अंततः आध्यात्मिक गुरु बन जाना ही क्या अब ‘तीसरा विकल्प’ या ‘तीसरा रास्ता’ बचा है? क्या वास्तव में आज के इस विकट दौर में जनपक्षधर मूल्यों के प्रति लोगों का रुझान कम हो रहा है? क्या संघर्ष और प्रतिरोधी चेतना पर ‘धन’ और ‘आध्यात्म’ ने आधिपत्य कायम कर लिया है? क्या अमेरिकी धनकुबेरों का प्रतिरोधी ताकतों को मनोवैज्ञानिक रूप से अपहृत करने का षडयंत्रा फलीभूत हो चुका है? ऐसे कई प्रश्नों से यह उपन्यास विचलित करता है। आध्यात्म वास्तव में इस उपन्यास की ‘जय’ है या ‘पराजय’ तनिक गंभीरता से विचार करना पड़ेगा। डी.बी. का सब तरफ से हार कर अपने पुराने आध्यात्मिक गुरु की शरण में चले जाना और अंत में अपने गुरु की जगह लेकर भगवा धारण कर लेना आज के समय की बड़ी सच्चाई है। आध्यात्मिक गुरुओं का प्रभामंडल लगातार फैल रहा है। कई गुरुओं और बापुओं के यौन-दुराचारों का पर्दाफास होने के बाद भी ये अपना प्रभामंडल विस्तृत करने मे कामयाब हो रहे हैं। आज जिस तरह की घटनांए हमारे वैचारिक समाज में घट रही हैं उन्हें देखते हुए यही कहा जा सकता है कि रामनाथ शिवेन्द्र आगत के भयावह हालात की पूर्व सूचना दे रहे हैं। प्रगतिशील और जनपक्षधरता के अगुआओं का इन दिनों जातियों, संघियों और सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों के चंगुल में फसना या स्वेच्छा से उनके आतिथ्य और धन को स्वीकार करना कहीं वही ‘तीसरा रास्ता’ तो नहीं जिसकी ओर रामनाथ शिवेन्द्र ने संकेत किया है? बहरहाल आज के वैज्ञानिक युग में आध्यात्म की दुन्दुभी जिस ऊंचे सवर में कान फोड़ रही है उसे देखते हुए ‘तीसरे रास्ते’ का घातक संकेत हमें सावधान करता है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अतिवाद के इस कठिन समय में बड़े बड़े अपराधियों का अंतिम ठौर आध्यात्म (?)ही हो सकता है, जहां न तर्क चलता है न कानून। यहां तमाम धार्मिक व कठमुल्ला ताकतें उनके जयकारें और संरक्षण के लिए तत्पर हैं। इस तथ्य की सच्चाई को हम पिछले सालों देख चुके हैं। इस उपन्यास के माध्यम से रामनाथ शिवेन्द्र ने घटित हो रही सच्चाइयों पर और बढ़ती संवेदनशीलता पर बहुत कुछ कहने की कोशिश की है। विचारों का भारी दबाव व ऊभ-चूभ तथा अधिक कथा विस्तार शिथिलता लाता है ऐसी तमाम सीमाओं के बावजूद यह कहने में संकोच नहीं है कि यह उपन्यास व्यापक सामाजिक सरोकारों को बड़े पैमाने पर बहस के बीच लाता है, यही इस उपन्यास की सफलता है। उपन्यास के कुछ अंश जो विचारण के लिए अनिवार्य जैसे हैं उन्हें यहां प्रस्तुत करना गलत न होगा।कृ ‘हम साकारी विधानों, कानूनों, परंपराओं के तार्किक व प्रतिबद्ध अहिंसक अवज्ञाकारी हैं, इस अवज्ञा के दौरान हमें हक़ है कि हम अपनी हिफाजत करें तथा जनता की भी जिसे जागरूक बनाने के लिए हम संकल्पित और लक्ष्यित हैं’ पृ...33 ‘अमेरिकियों का नारा था जिसका पेट भरेगा वह क्रान्ति नहीं करेगा सो रुपया बांटो, खाना दो, पढ़़ाओ, दवाई दो यानि उन्हें बचाओ जो खुद मर रहे हैं या प्रायोजित मृत्यु के लिए क्रान्तिकारी बन रहे हैं’ पृ...35 ‘डी.बी. को स्वयंसेवी संस्थावाद की इस परिभाषा से पहले कुछ दिक्कत हुई, क्यांकि तब तक वह मानसिक रूप से दिवालिया नहीं हुआ था, उसे कदम कदम पर मार्क्स याद आते जैसे रति प्रसंग के दौरान फ्रायड’ पृ...39 ‘तुम्हारा नाम प्रवीण है, तूं एन.जी.ओ. चलाता है, तूं गॉव का विकास करेगा खैरात बांट कर। तूं जमीन क्यों नहीं बटवाता? ’पृ...64 ‘वैसे भी वे इतिहास की अश्लील आदतों से परिचित न थे कि वह परिवर्तित होने वाली परिघटना है तथा समय समय पर कई तरह का रंग रूप धारण करना उसका स्वभाव है।पृ....106 ‘सरकार के पास इतनी बड़ी जेल नही जो सभी को जेल में रख सके’ पृ..116 ‘बड़े उद्योगों का विशाल सांचा नहीं बचेगाकृयदि लाभ, अतिरिक्त लाभ वाली व्यवस्था को सहभागितापूर्ण अर्थतंत्रा व प्रबंधन से तोड़ दिया जाए, इससे नौकरषाही का सांचा भी तोड़ा जाना संभव हो सकता है।’ ‘प्रतिरोध कार्यक्रम खुला-खुला था यानि कि नई दुनिया संभव है पर दान, प्रतिदान, बैंक कर्जों के आवंटन, दया व कृत्रिम आर्थिक सहयोग के द्वारा नहीं। संभव बनाया जा सकता है बराबरी का दर्जा देकर, क्रय शक्ति बढ़ा कर, अवसरों में समानता का वातावरण बना कर, सामाजिक मर्यादा बहाल कर? उत्पादनों को जनोन्मुखी बना कर’ पृ...193 ‘आखिर हम आदिवासी ही क्यों उजाड़े जाते हैं, जमीन में कोयला, हीरा, सोना, चॉदी चाहे जो मिल जाये उजड़ो, हमेशा उजड़ते रहो, हमारा कुछ भी नहीं, ऐसा नहीं चलेगा। हम कोई लाश नहीं, हमारा भी हक़ है इस माटी पर, इस जंगल पर, अब हम इसे कटने नहीं देंगे, जंगल का फल-फूल, बालू, मिट्टी सारा हमारा, हमें नहीं चाहिए दिल्ली’ पृ...224 ‘यहां आकर इतिहास मरे न मरे पर विज्ञान, राजनीति, दर्शन और धर्म सारे के सारे यहां आकर मर चुके हैं इसलिए इस परिक्षेत्रा में बारहवीं शताब्दी आज भी जीवित है। इनके चेहरे आज पूंजीवादी बर्बरता के परिणाम हैं’ पृ...227 हंस कथा मासिकक-फरवरीक-2010 पृ...84-85 समीक्ष्य कृति-तीसरा रास्ता’ पिलग्रिम्स प्रकाशन बी.27/98-ए-8, दुर्गाकुण्ड, वाराणसी, 221010 मूल्य-225.00 फोन(91-542)2314060
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विस्थापित होते समय का दस्तावेज
‘ढूह वाली लछमिनिया’
[[File:Dohawali Laxmaniya Final jpg.jpg|thumb|विस्थापन के सवाल पर केंद्रित उपन्यास आदिवासी महिला लक्ष्मीनिया की गाथा]]
अमरनाथ अजेय
विस्थापन के सवाल पर केंद्रित उपन्यास आदिवासी महिला लक्ष्मीनिया की गाथा
यह दौर कठिन समय का है। इस समय में चुनौतियां चारो तरफ से हैं, कुछ खतरे बाहर से हैं तो कुछ भीतर से। जहां तक खतरों की बात है खासतौर से ये सोनभद्र जैसे आदिवासी बहुल जनपद में अन्य जनपदों की तुलना में कुछ ज्यादा ही हैं। लेकिन जो खतरे अपने लोगों से हैं वे कहीं अधिक त्रासद हैं, चिंतनीय है। आज के बाज़ारवादी समय का दबाव जंगल व जंगल भूमि पर ज्यादा है, और ये दबाव बनाने वाले कोई और लोग नहीं हैं, बल्कि अपने हुक्मरान हैं, अपने अफसर हैं, अपने कानून हैं। जो जंगली मानुष अपनी जमीन और जंगल से विस्थापित हो रहा है उसके लिए खतरा केवल जमीन का ही नहीं है बल्कि संस्कृति और सम्मान का भी है, अस्तित्व बचाने का भी है। ऐसे दुरूह समय का दस्तावेज है रामनाथ शिवेन्द्र का उपन्यास ‘ढूह वाली लछमिनिया’। लछमिनिया समामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक खतरों से घिरे हुए एक आदिवासी परिवार की युवा लड़की है। लछमिनिया की चिंता में केवल अपनी देह ही नहीं है उसकी चिंताओं में भीखू काका की जमीन है, तो वह पीड़ित लडकी भी है जो जिला स्तर के एक अफसर द्वारा यौन शोषण की शिकार हुई है, तथा उसका गॉव भी है जिसे किसी न किसी दिन विस्थापित किया जाना है। गॉव को विस्थापित किए जाने की नोटिस सरकार ने कथितरूप से तामिल करा दिया है। इन चिंताओं व चुनौतियों के अलावा उसकी चिंताओं में गॉव की फसल है, गीत, संगीत तथा परंपराएं है ‘करमा’ नृत्य, संगीत मण्डली की सहभागिता को टूटने से बचाना भी है। इन चिंताओं की खातिर वह माथा पीट कर टूट जाने वाली किसी लड़की की तरह नहीं है बल्कि किसी बहादुर की तरह वह हर स्तर पर चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार भी है। चुनौतियों से टकराने की उसकी मानसिक तैयारी कुदरती है, इस तैयारी के लिए उसने कहीं से शिक्षण प्रशिक्षण नहीं लिया है। वह अब तक तमाम चरित्रों से अलग है जो स्वस्फूर्त चेतना का उत्पाद है। उसे पता है कि चुनौतियों से टकराने के लिए उसे क्या करना चाहिए। बाहर तथा भीतर से आए संक्रमणों से जिस तरह वह लड़ती है वह स्वतः उल्लेखनीय बन जाता है। संक्रमण की स्थितियां, परिस्थितियां कुदरती नहीं, बदलते समय के जड़ लोगों की कुटिल चालों, विभेदी कानूनी फन्दों, लुभावने वादों के जरिए आती हैं। समय तो बदला है लेकिन उसके साथ खतरे भी बदल गये हैं। खतरों नेे भी अपना रूप जिले के पीड़ित लड़की का यौन शोषणकरने वाले अधिकारी (उपन्यास का एक पात्रा) की तरह बदल लिया है। यह वही अधिकारी है जो एक दिन लछमिनिया को दबोच लेता है, उसे क्या पता कि लछमिनिया जो एक आदिवासी युवती है वह समय से टकराने के कौशल में माहिर है, वह अपना बचाव विषम स्थितियों में भी कर सकती है। ऐसा ही हुआकृअपने बचाव में लछमिनिया हंसुआ वाली लड़की बन जाती है। खतरों के बारे में किसे पता कि वे अफसर की कुटिल चालों के रूप में आयेंगे, या किस प्रकार आयेंगे? खतरा आ गया अफसर के रूप मेंकृअफसर को तो करमा मंडली का चुनाव करना था। सो उक्त अधिकारी लछमिनिया के गॉव गया हुआ था, करमा नाचने व गानेवाले तो आदिवासियों के गॉव में ही मिलते। गॉव में करमा नृत्य का प्रदर्शनहुआ, नृत्य के प्रदर्शन ने अफसर की निगाह में लछमिनिया के रूप को कामुक बना दिया फिर क्या था, अफसर तो अफसर कृत्रिम बहानों के जरिए वह टूट पड़ा लछमिनिया पर और लछमिनिया ने बचाव में हंसुआ उठा लिया। इसके पहले कि लछमिनिया अफसर पर हंसुआ चला देती, अफसर अपने वर्गीय चरित्रा के अनुरूप गिड़गिड़ाने लगा। लछमिनिया ने कुदरती उदारता के कारण अफसर को जीवित छोड़ दिया, उस पर हंसुआ नहीं चलाया। अफसर के गिड़गिड़ाने व माफी मांगने को उसने कुदरती समझा, ‘गलतियां हो जाती हैं किसी की जान लेना ठीक नहीं।’ खतरों का क्या, दिन हो रात हो, जगह कोई हो, दहाड़ते हुए आ जाते हैं। वह भी ऐसे समय मंे जब दुनिया पूंजी के नाच में मगन हो, जहां कदम कदम पर आशंकायें व खतरे ही हों। खतरे तो ऐसे हैं जो गॉव के बड़े जोतदार तथा थाने के दुलरुआ शंकर गवहां की तरफ से भी लछमिनिया के सामने आये। वह उन खतरों से तो लड़ ही रही थी कि एक दिन पूंजीवादी चरित्रा का एक और खतरा उसके बपई की तरफ से आ गया जिसमें वह बुरी तरह से उलझ गई। अब क्या होगा? कैसे लड़ेगी वह बपई से? बपई ने तो एक ठीकेदार से उसे बेचने का राजीनामा कर लिया है। जैसे वह कोई सामान हो, धान, चावल, गेहूं, गाय गोरू की तरह। वह बिक जायेगी पर उसके बपई को नहीं मालूम कि लछमिनिया बिकने वाली सामान या कोई कमोडिटी नहीं है, जिसे बेच दिया जाये। वह उस खतरे से भी लड़ती है और सफल होती है। ठीकेदार की कार दिन दहाड़े जला दी जाती है, लछमिनिया का बपई भी उस दिन गॉव में होता तो मारा जाता, गॉव की स्वस्फूर्त उत्तेजना में उसकी जान चली जाती, ठीकेदार जान बचाकर भागा नहीं तो जाने क्या होता, ठीकेदार की अकूत संपदा उसे जीवन दान तो नहीं दे सकती थी। सो अगर वह गॉव से भागा न होता तो मारा जाता। लछमिनिया को क्या पता कि उसका बपई भी उसके लिए खतरा बन जायेगा और उसका सौदा ठीकेदार से कर लेगा। लछमिनिया का बपई हालांकि था तो आदिवासी ही जो सामान्यतया बाजारू नहीं हुआ करते पर वह ठीकेदार के प्रलोभन में बाजारू बन गया और अपनी बिटिया का ही बेचने के लिए राजीनामा कर लिया। उसे ठीकेदार ने सपना दिखाया था कि उसे वह अपने क्रशर का पार्टनर बना देगा जहां वह मजूरी करता था। पार्टनर बन जाने की लालच ने लछमिनिया के बपई को बाजरू बना दिया और उसने अपनी बिटिया को बेच देने का राजीनामा ठेकेदार से कर लिया। तो खतरे ऐसे होते हैं, खतरे मॉ, बाप, भाई, बहन, बहनोई, मामा किसी के भी जरिए आ सकते हैं। बपई की तरफ का खतरा लछमिनिया के लिए पूंजी के खेल वाला था, कौन है जो धन दौलत वाला नहीं बनना चाहता। पर लछमिनिया तो स्थितिप्रज्ञ होकर बपई की कुटिल योजना से टकराती है। ठीकेदार भाग जाता है, उसकी कार जला दी जाती है। लछमिनिया के गॉव के लिए ही नहीं थाने के लिए भी यह घटना करवट बदल लेती है। थानेदार व ठीकेदार आदि तो वैसे भी पूंजीतंत्रा के रिश्तों में बंधे होते हैं। स्थानीय थाने का दारोगा जो पदेन अर्थपिपाशु था उसे ठीकेदार की पूंजी ने मोह लिया फिर तो दारोगा ने ठीकेदार की कार जलाने और गॉव में झगड़ा फसाद करने के जुर्म में गॉव के कुछ अन्य युवाओं के साथ लछमिमिया के पति को गिरफ्तार कर लिया। लछमिनिया जानती थी कि दारोगा कि यही सीमा है, उसके पति को गिरफ्तार करने के अलावा वह कर भी क्या सकता है पर दारोगा को नहीं पता कि लछमिनिया का गॉव का जन मन क्या कर सकता है? लछमिनिया व उसके पति को को पूरा गॉव भली भांति जानता है। गॉव के लड़के उन दोनों के लिए मर मिटने के लिए तैयार रहते हैं। लड़कों को बुरा लगा कि लछमिनिया के बपई ने लछमिनिया को बेचने का ठीकेदार से राजीनामा कर लिया है सो गॉव के नौजवान लड़कों ने गुस्से में आकर स्वस्फूर्त ढंग से ठीकेदार की कार जला दिया और उसी दिन थाना भी घेर लिया। उन्हें नहीं पता था कि थाना घेरना अन्याय के खिलाफ विरोध प्रदर्शन है या और कुछ। दारोगा थाना घिरा देख कर सहम गया उसके पास घेराव का दमन करने के तरीके नहीं थे, वह मजबूर था, उसी दिन अदालत ने लछमिनिया के पति की गिरफ्तारी के बारे में थाने से रिपोर्ट भी मॉग लिया था। लक्षमिनिया के पति की मॉ से जंगल विभाग के रेंजर की करीबी पहचान थी। रेंजर कानूनी दॉव पेंचों के अनुसार लछमिनिया के पति को गिरफ्तार होते ही अदालत चला गया था। अदालत ने थाने से रिपोर्ट मॉग लिया था। गॉव से गवाह भी नहीं मिलते। सो थानेदार ने लछमिनिया के पति को थाने से ही छोड़ दिया, कौन बवाल में पड़े, अदालत किसी को नहीं छोड़ती। तो यही कहानी है ‘ढूह वाली लछमिनिया’ उपन्यास की। इस कहानी में लछमिनियिा की जिन्दगी से जुड़ी चुनौतियां है तो गॉव जवार से जुड़ी चुनौतियां भी हैं। लछमिनिया जंगली गॉव की रहने वाली है जंगल के गॉव यानि कई बार के विस्थापन के शिकार गॉव। लछमिनिया का गॉव भी कई बार के विस्थापन के बाद बसा है पर उसे हाल ही में उजाड़ा जाना है, नोटिसें दी जा चुकी हैं। उपन्यास इसी आखिरी बार के विस्थापन के लिए दी जा चुकी नोटिस एवं विस्थापन कार्यवाहियों के व्यापक विरोध के स्तर पर समाप्त हो जाता है। होता यह है कि जिस कंपनी को लछमिनिया के गॉव की जमीन सरकार द्वारा आवंटित किया गया है उक्त कंपनी आवंटित जमीन पर कब्जा लेना चाहती है दूसरी तरफ गॉव वाले हैं कि वे किसी भी हाल में उजड़ना नहीं चाहते सो वे प्रतिकार में उठ खड़े होते हैं। जैसा कि मालूम है कि सरकार और प्रष्शासन तो एक रेखीय दमनात्मक सत्ता प्रबंधन पर पुलिस बल के सहयोग से चलने का अभ्यासी हुआ करती है सो वहां पुलिस बल दमन पर उतर जाता हैकृफिर वही हजारों साल की पुलिस परंपरा, मारपीट, यातना, दमन और गिरफ्तारियां। गॉव के नौजवानों के साथ गॉव की कुदरती नेत्राी लक्षमिनिया को गिरफ्तार कर लिया जाता है, वह पाथरटोला वालों के साथ जेल चली जाती हैकृफिर भी वह निश्चिंत है. ‘का फरक है जेहल अउर ईहां में? ईहां से तो जेलवय ठीक है, न मार का डर, न चोरी चमारी का डर, खाओ अउर सूतो।’ लछमिनिया पाथर टोला गॉव के सर्वतोमुखी विकास के लिए एक नायिका की भूमिका निभाती है जो भीखू काका की जमीन में बोई धान की फसल को दबंग शंकर गवहां व उनके पुत्रों को ले जाने से रोकवा देती है। गॉव में होने वाली अर्थहीन रैलियों का प्रतिरोध करती है और प्रतिशोध में फसाये गये अपने प्रेमी/पति को थाने का घेराव करके छुड़वा लेती है। इतना ही नहीं वह खुद को भी अपने बाप के साजिशों से बचा ले जाती है। इतना ही नहीं वह अपने गॉव के विस्थापन के प्रतिरोध में गॉव वालों के साथ जेल जाती है। उपन्यास में आये शब्द चित्रों को देखें... ‘चरित्तर लड़कियों को जानता है, यदि मजबूरी न हो तो वे किसी को भी सभ्य बनाकर ऐसा संस्कारित कर दें कि वे जीवन भर नाम न लें कि लड़कियां ऐसी होती हैं जिनकी देह पर बाजार का अर्थ लिखा जा सकता है।’ ‘आखिर बाजार ने किसे नहीं छला है? अपसंस्कृति भी तो बाजार का ही एक खेल है। आज के जटिल समय में जंगल का आदिवासी विकास की धारा से कोसों दूर है। उनमें जनतांत्रिक प्रतिरोध की क्षमता का भी विकास नहीं हो पाया है। सोनभद्र जिले के आदिवासियों के विस्थापन पर केन्द्रित प्रस्तुत उपन्यास ‘ढूहवाली लछमिनिया’ गिरिवासियों के दुख दर्द का कालजयी दस्तावेज हैै। अपनी भाषा में उपन्यास के पात्रा अपनी स्थितियों, परिस्थितियों का एहसास कराते हैं जिससे संवाद जीवंत हो जाता है। उपन्यास की भाषिक जीवंतता उल्लेखनीय है। अपेक्षा है कि प्रस्तुत उपन्यास पाठकांे का घ्यान आकर्षित करने में सफल होगा।आइए उपन्यास में आये कुछ संवादों, प्रतिसंवादों को देखें.... ‘पर शंकर यादव अपने घर लौटने के बाद अपने में डूब गया। ज़माना बदल गया है, जंगल जाग रहा है पहले वाला नहीं कि सोया हुआ था। सरकारें भी अब पहले वाली नहीं हैं, गरीब गुरबों की सरकार प्रदेश में काबिज है, गरीबों की सुरक्षा के बाबत कानून बन गये हैं। थाना हो या कचहरी अब कहीं भी गॉधी टोपी वाले नहीं दिखते, ठाकुर, बाभन जैसे ज़मीनदार अपनी गुफाओं में बैठे हैं, करंे भी तो क्या?’ पृ...20 ‘चुप रह छोटकू, तूं बड़बड़ करता रहता है, तूं का जानेगा कायदा, कानून, अब तो पुलिस पेड़ों अउर झाड़ियों पर भी मुकदमा कर देती है।’ पृ...21 ‘समझेगा का? यही कि चिड़िया जाल में, जाल खींचो अउर पकड़ लो।’ पृ..38 ‘का खाली, का भरा, खाली ही ठीक है, पहिले मॉग भरो फिर पेट, आया था एक लंगूर’ पृ..47 ‘देख महटर, हम तोहरे पर इलजाम नाहीं लगा रहे, खाली हम अपने को बचाय रहे हैं,नाहीं बचायेंगे तोकृमन तो भर जायेगा जो खाली खाली है, पर मनवै तो नाहीं भरेगा नऽ, पेटवो तऽ भर जायेगा।’ पृ...51 ‘लछमिनिया ऐसी नदी नहीं जिसे बांधा जा सके या पुल ही बनाया जा सके।’ पृ...57 ‘गॉव में जबसे चिमनियां घुसी हैं, न जाने कितने किसिम के धुंआ भी घुसे हैं।’ पृ...61 ‘संघरस तो मरदों का काम है, एमें जनाना का करेंगी? पृ...81 ‘वैसे गॉवों में कागजों की पहुंच बहुत कम होती है, और कानून तो कागजों पर ही उछलता कूदता है।’ पृ...87‘टोले मंे जनतंत्रा की आग धधक रही थी।’ पृ..90 ‘उस दौर के अधिकारी भी खूब थे, कानून की सजी संवरी जीभ वाले, पुलिस के पास तो बारूदी जुबान थी ही।’ पृ...92 ‘बाल, बुतरू भी नौकरों से जनमवाते हैं का अइया?’ पृ..93 ‘इस सभ्यता ने तो यही सिखाया है कि हर चीज बेचे जाने योग्य है।’ पृ...101 ‘अरे! मरदवा तऽ सभै हरामी होते हैं।’ पृ..127 ‘लछमिनिया तूं घूंघट काढ़कर घर में बैठी है, निकल बाहर, हल्ला कर, चिल्ला जोर जोर से, कोई तो सुनेगा, कोई तो चलेगा तेरे साथ’ पृ...136 ‘भगाई को राजीनामा बोलता है, एके कानून बचायेगा, जा कानून के संगे खा, पी, अउर हग, मूत, रहेगा कहां रे! पृ...139 समीक्ष्य कृति--‘ढूह वाली लछमिनिया’ रचनाकार- रामनाथ शिवेन्द्र पाठ- जुलाईक--2017 ज्योतिपर्व मीडिया एण्ड पब्लिकेशन 99, ज्ञानखण्ड-3, इन्दिरा पुरम् गजियाबाद-201012 मूल्य--299.00 व
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कुदरती कथाभूमि की उर्वरता का सवाल
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2025-06-12T11:48:30Z
Ramnathshivendra
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'''कुदरती कथाभूमि की उर्वरता का सवाल'''
[[File:2025Rnathshivedra46.jpg|thumb|in a seminar]] '''रामनाथ शिवेंद्र'''
मौजूदा समय में कथासाहित्य अपनी जीवंतता तथा प्रभावोत्पादकता के कारण साहित्य की सभी जनप्रिय विधाओं में विशेष दर्जे का अधिकारी बन चुका है। इस लिए अनिवार्य हो जाता है कि देशज कथाभूमि को आयातीत चिंतनों व विचारणों से बंजर बनाने की कुटिल चालों की रोकथाम किया जाये तथा कथा के सभी आयामों को देशी भूमि पर समत्वम् वाले बीज से हरा भरा किया जाये। वैसे तो समकालीन कथा के पाठक भी अन्य साहित्यिक विधाओं के पाठकों की तुलना में अपने सयानेपन पर ज्यादा मुग्ध दीख रहे हैं। यही हालत कथासाहित्य के कृतिकारों का भी है। समता, सहकार, सहयोग, भाईचारा और सामजिक हितों को बचाने के लिए अहिंसक प्रतिरोध बुनियादी रूप से कथासाहित्य के लिए प्रस्तावित थे, मानवीय समीपताओं को स्थापित करना कराना भी प्रस्तावित था, पर समकालीन कथासाहित्य का जो विकास क्रम है क्या वह अपने विषय, भाषा व प्रस्तुतीकरण के द्वारा मानवीय समीपताओं तक पहुंच सका है या सामाजिक बदलावों के लिए जो अहिंसक जनप्रतिरोध अभिष्ट थे उसे हासिल कर पाने में इसकी कोशिशें उल्लेखनीय हैं। मुझे लगता है कि आज के बाजारवादी तथा उपयोगितावादी समय ने हमारी समझ और चेतना दोनों को इतना कुन्द कर दिया है कि हम उन रास्तों पर नहीं चल पा रहे हैं जो सामाजिक तथा राजनीतिक बदलावों के लिए प्रस्तावित थे। साहित्य समाज का दर्पण है, हम जानते व मानते हैं इसी दर्पण को तोड़ने में क्या हम सभी की अचेतन भागीदारी नहीं है? सोचना यही है।
आइए समकालीन कथासाहित्य के रूप और प्रवृत्तियों को जनमूलक और कुदरती जमीन से उपजने वाली आदिम कथाओं से तुलना करने का प्रयास करें और यह भी पता लगाने का प्रयास करें कि समकालीन कथायें मानवीय समीपताओं के व्यवस्थापन के लिए कल्पित श्रमसंबधों में समत्वम् स्थापित कराने के लिए किस तरह से प्रयासरत हैं। जाहिर है सारी दुनिया श्रमसंबधों के कुदरती व्यवहारों से ही चालित होती रही है। मानवीय सभ्यताओं ने श्रम संबधों के द्वारा उपजने वाले परस्पर संवाद के लिए ही भाषाओं के विविध रूपों को सृजित किया है, हमें जानना चाहिए कि कथायें भी मानव समाज में श्रम संबधों की अभिव्यक्ति होती हैं और मन के बहुत गहरे में जा कर संवाद स्थापित करते हुए अपने लिए कथाभाषा सिरजती हैं। यहीं कथाभाषा कथा विषय का चयन करते हुए कुदरतीभाषा से तालमेल बिठाते हुए अपने विषय के साथ पाठकों से अंतःक्रियायें करती हुई आगे का रास्ता तय करती हैं। यह अलग बात है कि पाठक उस कथावस्तु को किस तरह से पाठवोध में तब्दील करता है। देखना है कि समकालीन कथाभाषा ने खुद को कितना पेट के करीब रखा हुआ है और कितना कंठ के। जाहिर है पेट की भाषा कुदरती होती है, और कंठ की भाषा बनावटी और सजावटी। पेट की भाषा ‘भूख’ से सनी होती है और कंठ की भाषा सत्ता व्यवस्थापन’ के रंगों में रंगी होती है।
आज के बाजारवादी व उपयोगितावादी समय में हमारा यह जो कथासमय है, कथा की भाषा है, कथा की शक्ति है, इसमें छलछलाता हुआ सेक्स है, क्या ये सब कुदरती जमीन पर उगने वाली कथा की पगडंडियों पर चल रहे हैं, इनमें प्रकृति की एकाग्रता व समत्वम् का कुछ है, समकालीन कथाओं के पात्रों के चित्त और चेतना में प्रकृति के साथ एकाकार होने की क्षमता है? इन सवालों पर सोचते हुए विचारण करना होगा कि यह जो मानव सभ्यता का विकास क्रम है क्या उसे मानव और प्रकृति की एकाकारिता कबूल नहीं। आज की सभ्यता में अवकाश ही नहीं कि मानव अपने चित्त और चेतना को व्यक्तिगत से अलग कर समूहगत बना सके। ऐसा सोचना ही किसी कपोल कल्पना में गोते लगाना है और हम गोते लगा रहे हैं। हम पैर से ले कर सिर तक ‘निजता’ के दलदल में डूबे हुए हैं। क्या हमारी मानव सभ्यता उस दौर में भी ऐसी ही थी जब हम श्रमसंबधों की अन्तःक्रियाओं से उपजी संवाद की भाषा रचने का प्रयास कर रहे थे, एक दूसरे को समझने के लिए संवाद करने के प्रयासों में थे, इशारों व संकेतों से अलग।
कथाएं, कथावस्तु और रूप के अनुसार जिस पाठवोध का रचाव करती हैं उससे परिवार की संरचना का पता चलता है, रिश्तों की सूचना मिलती है, रिश्तों को बनाये जाने के कथानक का ज्ञान होता है। आधुनिक कथायें तो तरह तरह का पारिवारिक माहौल बनाते हुए दीखती हैं, ये कथायें ही हैं जिसने हमें बताया कि अब कथायें संयुक्त परिवार से होते हुए एकल परिवार की दुर्गम यात्रा पर हैं। कई कई कथाओं ने परिवार के टूटन को आधार बना कर खूब नाम भी कमाया है। कथाओं की दुनिया से परिवार की छोटी से छोटी बात भी नहीं छूट पायी है, चाहे वह संदर्भ पिता का हो, मां का हो, चाचा, चाची, भाई दोस्त किसी का भी हो, सभी रिश्तों पर किसिम किसिम की कथायें हैं, प्रेमसंबधों को ले कर तो कथाओं का एक अलग संसार ही रच बस गया है। प्रेम को प्रेम की तरह, देह से अलग, वाले संबधों की कथायें कथा संसार में कम जगह पा पायी हैं, प्रेम को तन से जोड़ कर मन को कहीं कोने में पटक देने की प्रवृित्तयों समकालीन कथाओं में हर तरफ देखी जा सकती हैं। वे कथायें चर्चित और प्रशसित भी हैं फिर भी लगता है कि कथाओं का काम पूरा नहीं हो पाया है, उन कथाओं से कथाओं का काम पूरा हो भी नहीं सकता। कथाओं का काम है, निजता को समूहगत बनाना, व्यक्त से अव्यक्त तक पहुंचना, चित्त और चेतना को संतुलित करना, पराई पीर को अपनी पीर मानना, पर क्या ऐसा हो पाया? मानवीय संवेदनशीलता को किसी कथा में ढालना बहुत ही अच्छी बात है पर कथा को व्यवहार से अलग केवल किताबों में दर्ज करा देना इसे तो अच्छा नहीं कहा जा सकता। कृति और कृतिकार
दोनों में प्रकृति के ‘समत्वम्’ का कुछ तो शामिल होना ही चाहिए। दोनों को एक में गुंथा दिखना भी चाहिए, चाहे कृति पढ़ो चाहे कृतिकार को। हवाई जहाज से धरती की सतह नापना यह कुदरती कथा का काम नहीं।
इस संदर्भ में कुछ उन कथाओं पर हमें विचार करना होगा जिन्हें साहित्यिक सरोकारों से विशेष धर्म द्वारा समादृत होने के कारण अलग कर दिया गया है, उन कथाओं को छुआछूत की बिमारी की तरह माना जाता है। पर कथासाहित्य की कुदरती परंपराओं पर वे कथायें जैसा प्रभाव छोड़ती हैं वैसी प्रभावोन्वति समकालीन कथाओं में देखना खुद का माथा फोड़ना होगा। हम जानते हैं कि हमारे समाज में राम और कृष्ण की कथाओं की तुलना में कोई कथा जनप्रिय नहीं है। आइए उन कथाओं को समकालीनता के संदर्भ में देखें.. कृष्ण की बात करें तो.. उन कथाओं में कृष्ण कथापात्र भर हैं, वे रहने वाले द्वारिका के हैं पर जाने जाते हैं मथुरा से, वे रूक्मणी के पति हैं पर रूक्मणी कृष्ण के नाम से उतना नहीं जाने जाते हैं जितना कि राधा कृष्ण के नाम से, वे एक ऐसे कथापात्र हैं जो देवकी नंदन से यषोदा नंदन बन जाते हैं, तो ये जो कृष्ण हैं किसी समय के कथापात्र हैं, जिनके दो दो रूप हैं, दो दो जन्म स्थान हैं, दो दो मॉ हैं इसी तरह एक कथा पात्र और उसके दो दो रूप। दोनों रूपों में कही भेद नहीं, पूरी तरह एक में एकाकार यानि प्रकृति से इतना एकाकार कि वे जहां रहते हैं, जिसके साथ रहते हैं उसी के हो जाते हैं। इतना समत्वम्, तो यह है कथा के जनमूलक या कुदरती होने की स्थिति। कृष्ण का यह जो समत्वम् वाला रूप है उससे समकालीन कथाकार सार्थक निष्कर्ष निकाल सकते हैं पर चाहें तब। कृष्ण का सारथी वाला रूप अगर गंभीरता से देखा जाये तो श्रमसंबधों को सम्मान देने वाला रूप है, ध्यान रहे कृष्ण भी नरेश हैं, अर्जुन और दुर्योधन से कम नहीं, वे सारथी हैं महाभारत के युद्ध में, सारथी यानि केवल रथ खींचने वाला एक श्रमिक, कृष्ण रूपी श्रमिक पूरी व्यवस्था खींचने और चलाने वाला बना हुआ है। पर आज क्या ऐसी कथायें रची जा सकती हैं। क्या हमें सारथी बन कर समाज का रथ खींचने काम किसी समकालीन कथा में किया?
कृष्ण के सारथी वाले चरित्र से अलग उनका एक रूप प्रेम वाला भी है, उनका प्यार है रूक्मणी से, वे प्रेम करते हैं राधा से, वे यषोदा के दुलरूआ हैं और देवकी के कलेजे का टुकड़ा हैं, द्रोपदी भी उनके प्रेम की परिणति हैं, उसे वे सुभद्रा से कम नहीं मानते, तो ये हैं कृष्ण, बहुआयामी, सभी के, सभी उन्हें अपना मानते हैं, अपना ही नहीं सभी उनमें अपनापन देखते हैं। कृष्ण का प्यार प्रायोजित नहीं, स्वस्फूर्त है। कृष्ण इतना खुले हुए हैं कि उनको खोलना नहीं पड़ता, वे प्रकृति की तरह प्रकृतिमय हैं, पूरी तरह से खुले हुए, उनके खुलने के लिए खुलने लायक परिस्थितियां निर्मित नहीं करनी पड़तीं। महाभारत का कथानक ऐतिहासिक हो न हो, उसमें रचा गया कृष्ण का चरित्र तो निश्चितरूप से ऐतिहासिक और अभूतपूर्व है। वे महाभारत युद्ध के भागीदार नहीं हैं, तत्कालीन सत्ता संघर्ष का उनके लिए कोई व्यक्तिगत प्रयोजन नहीं, प्रयोजन है, मानव सभ्यता का, पथभ्रष्ट होती सत्ता के बदल का, वे तटस्थता का अपराध नहीं कर सकते थे फिर भी तटस्थ रहते हुए युद्ध का साक्षी बनते हैं। वे अर्जुन से जिन परिस्थितियों मंत संवाद करते हैं हमें उस तरफ लौटना होगा, परिस्थिति युद्ध की है और अर्जुन किंकर्तव्यविमूढ़ हैं, युद्ध लड़ना चाहिए या नहीं, इसे वे तय नहीं कर पा रहे हैं, कृष्ण जो युद्ध के प्रति तटस्थ हैं वे संवाद में वहां सक्रिय हैं, अर्जुन को रास्ता दिखाते हैं, रास्ता भी ऐसा जो किसी रहस्यलोक की तरफ नहीं ले जाता है, वह रास्ता है वैज्ञानिकता का यानि पूरी सृष्टि नश्वर है फिर किस बात की चिंता? मानवीय समीपताओं की सुरक्षा के लिए युद्ध किया जाना समय की जरूरत है। महाभारत का युद्ध युद्धकालीन परंपरा का प्रतीक है, युद्धों को ही तब सत्ता बदल का उपयोगी तरीका माना जाता था। उस समय युद्ध के अलावा सत्ताबदल का कोई दूसरा विकल्प भी नहीं था। एक तरह से युद्ध का समर्थन कृष्ण के व्यक्तित्व पर सवाल की तरह है पर उस समय कृष्ण कर भी क्या सकते थे, जो कर सकते थे वही किया कृष्ण ने, यानि तात्कालिकता का कर्म, तात्कालिकता का कर्म वर्तमान के द्वारा स्वस्फूर्त ढंग से चालित होता है, योजनावद्धता के लिए वहां अवसर कहां?
समकालीन कथाओं की दुनिया भूख और भोजन, तन और मन, चित्त और चेतना, कृति और प्रकृति, व्यक्ति और अभिव्यक्ति, सŸाा और समाज, परंपरा और कानून, व्यवस्था व अव्यवस्था, न्याय और सामाजिक न्याय, अधिकार और मानवाधिकार आदि रंगीन शब्दों के अर्थों को खोलने में आतुरता तो दिखाती है पर क्या उन आतुरताओं के पीछे वर्चस्वी वर्गों की ऐसी दुनिया काम नहीं कर रही होती है जो न केवल शब्दों को विखंडित करती है वरन् उसकी भाषा को भी बाजार के चौराहों पर बिकने के लिए खड़ा कर देती है। जाहिर है भूख और भोजन के बीच ही सभ्यतायें पसरी होती हैं, उसी से सभ्यता के विकास का क्रम आगे बढ़ता है। अगर हम आदिम समाजों की तरफ देखें जिनमें कभी वर्ग भेद नहीं था तो साफ पता चलता है कि उस समय जो भीतरी और बाहरी प्रकृति से तालमेल, संयोजन, व रिश्ता रखने वाले लोग थे, वे ही सभ्यता के विकास क्रम में पिछड़ गये थे, विकास की पगलाई रेस में पिछड़ जाने के कारण वे दमित और शोषित हो जाने के लिए अभिशप्त थे सो उन्हें विकसित लोगों की सेवा करनी पड़ती थी। उन्हें वर्चस्वी वर्ग सेवा के काम में लगा लिया करता था वह भी बमुश्किल तमाम और प्राकृतिक मान्यताओं व नियमों से अलग एक अलग किस्म का वर्ग समाज बन जाता है। और यहीं से विकसित समाज आदिम समाजों की पूरी संस्कृति ही लीलने लग जाता है। उनकी कथाओं, गीतों, संगीतों आदि को असभ्यों की संस्कृति साबित कर खुद से अलग करने लगता है। तथा खुद को सभ्यता का कोतवाल मानने लगता है। विकास के इस क्रम ने श्रमसंबधों को सेवक और स्वामी के दो अलग अलग खानों में बांट दिया। यहीं से प्रारंभ हुआ कुदरती समाज का विघटन, यानि शोषित, दमित, प्रताड़ित और नियोजित समाज और शासक, मालिक, शोषक का अप्राकृतिक स्वरूप। वर्चस्वी वर्ग के लोग ताकत के बल पर सेवा में लगे लोगों को समाज से अलग एक खाने में फेंक देते हैं, वे प्रकृति के करीब जीवन जीने वाले लोगों को उनसे प्रकृति के सारे उपहारों को छीन कर श्रमिक आदि बना देते हैं। यह एक विस्मयकारी कथा है यह सब मानव सभ्यता के विकास क्रम में ही हुआ है, जो कि पूरी तरह से अप्राकृतिक है। तो यह है मानव सभ्यता के विकास क्रम का अतीत। हम चाहे तो अतीत से कुछ अनिवार्य सबक ले सकते हैं और वर्तमान सभ्यता के मूल्यांकन में उस सबक का उपयोग कर सकते हैं। मानव सभ्यता के दौर में यह सब किया गया सामाजिक प्रबंधन और व्यवस्थापन के नाम पर, पर क्या यह जो व्यवस्थापन किया गया मानवीय समीपता के संदर्भ में उसके परिणाम सकारात्मक निकले, हमें पता है कि आदिम समाजों में आज के सभ्य समाज वालों को जो अव्यवस्था दीखती है वह उस समय की व्यवस्था थी, आत्म चेतना वाली समूहगत व्यक्तिगत कत्तई नहीं। व्यवस्था भी अव्यवस्था हो सकती है, जबकि अव्यवस्था हर हाल में अव्यवस्था नहीं होती।
प्रकृति से एकाकारिता के कारण आदिम समूहों के लोग प्रकृति से अलग नहीं हो सकते थे जबकि सभ्यता के नाम पर उनकी प्रकृति से खिलवाड़ किया जा रहा था। ऐसे में जीवन जीने के लिए वे प्रकृति में ही जीवन जीने के संवेगों व ऊर्जा की तलाश करते हैं ऐसा करने में वे खुद को जीवित बनाये रखने के लिए कल्पित देवताओं की तलाश, पेड़ों, झाड़ियों, पहाड़ों आदि में करने लगते हैं, जीवन तो जीवन होता है, वे वन में थे और वन ही उनका जीवन था। वन में ही वे अपने देवी देवता भी सिरज लेते हैं, झाड़, फूंक ओझइती आदि करने लगते हैं। तो यह है वन्य समाज का प्रकृतिमूलक उदय और दूसरी तरफ एक ऐसे समाज का गठन जो पूरी तरह बनावटी, सजावटी और कृत्रिम तथा प्रकृति विरोधी होते हुए भी खुद को सभ्य प्रमाणित करवाने वाला और वैज्ञानिकता से ओतप्रोत बताने वाला।
क्षमा चाहूंगा कृष्ण की कथा का संदर्भ लेने के लिए खासतौर से उन लोगों से जो कृष्ण को धर्म से जोड़ते हैं, पर कृष्ण धार्मिक यानि पारलौकिक कम लौकिक अधिक हैं। और कुदरती कथापरंपरा के नायक हैं। कृष्ण की कथा से अलग एक जनकथा के माध्यम से मैं अपनी बात रखने का प्रयास कर रहा हूं। बात बहुत सरल है पर वह कुदरती जमीन पर किस तरह से उपजती हैं सोचना यही है, मुझे नहीं पता कि इस जनकथा को किसने कहा, कब कहा पर मैं इस कथा को कुदरती जमीन से उपजी हुई कथा मानता हूं।
कथा बहुत ही सामान्य है.. इसे कथा होने पर भी सवाल दागा जा सकता है। फिर भी आइए कथा के साथ दो कदम चलें.. ‘किसी जंगल में एक सियार रहता था। वह कुआंरा था, उसकी उम्र के दूसरे नर सियारों की शादियां हो चुकी थी, उसकी शादी के लिए प्रस्ताव नहीं आते थे। उसके मॉ बाप परेशान थे। वह भी परेशान था। एक दिन वह जंगल में घूम रहा था कि उसे रास्ते में पड़ा हुआ अखबार दिखाई दिया। उसमें एक फोटो छपी थी जो उसकी तरह दीख रही थी फिर क्या था, खुशी के मारे वह उछल पड़ा। अखबार में छपी अपनी जैसी फोटो देख कर उसे लगा कि अब उसका काम हो जाएगा। उसी वक्त एक दूसरे रास्ते से एक सियारिन भी आ गयी। सियार ने उसे रोका.. ‘कहां जा रही हो, थोड़ा रुको, देखो अखबार में मेरी फोटो छपी है।’ सियारिन ने अखबार देखा..
उसने अखबार कभी देखा नहीं था, सो उसने पूछा.. ‘यह किस पेड़ का पत्ता है?’ उसे क्या पता कि अखबार क्या होता है?
‘पागल कहीं की, यह पत्ता नहीं है, अखबार है। पर तूं का जाने अखबार के बारे में मूरख कहीं की। उसने उसे अखबार के बारे में बताया कि इसमें खबरे छपती हैं और वे सच होती हैं। जंगल के उस पार जो आदमियों की शक्ल में जानवर रहते हैं उनके लिए अखबार छपता है, इसमें देश दुनिया की खबरें छपती हैं, सरकार के बारे में छपता है, राजा के बारे में छपता है’
‘तो का हुआ, अखबार है तो है, छपा करे उसमें राजा रानी के बारे में, हमैं ओसे का लेना देना, हमें अखबार काहे दिखा रहे हो?’
‘मतलब है, सो दिखा रहा हूं, मुझे जंगल ही नहीं जंगल के बाहर रहने बसने वाले आदमियों का इस गजट के द्वारा राजा बना दिया गया है, अब मेरा हुकुम जंगल और गांवों दोनों जगहों पर चलेगा।’
सियारिन अखबार देखने लगी, उसे भी जान पड़ा कि सियार सच बोल रहा है, फोटो तो इसी की लगती है। सियारिन ने सियार को गंभीरता से देखा। उसके मन में सियार के प्रति आकर्षण हुआ जो प्रेम का एक रूप था। सियार ने सियारिन को बाहों में भर लिया। बात आगे बढ़ी, सियार ने सियारिन के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा, उसे सियारिन ने सहर्ष स्वीकार लिया फिर दोनों की शादी हो गयी। समय बीतने लगा। एक दिन दोनों का मन हुआ जंगल से बाहर निकल कर घूमने का। दोनों जंगल से बाहर निकल गये। जब दोनों गांवों की तरफ गये तब देखा कि एक खेत में ईख लहलहा रही है। सियार का मन ईख देख कर ललच गया। दोनों खेत में घुस कर ईख तोड़ कर चूसने लगे। तभी खेत के मालिक ने उन्हें देख लिया फिर क्या था मालिक ने उन्हें हंका लिया।
दोनों बिना देर किए जंगल की तरफ भागे, खेत का मालिक उन्हें हंकाता हुआ उनके पीछे पीछे दोड़ रहा था। कुछ दूर भागने के बाद सियार ने पीछे देखा, मालिक लौट चुका था। उसने सियारिन से कहा.. ‘अब सुस्ता लेते हैं, लगता है गांव वाले वापस हो चुके हैं’, दोनों थक भी गये थे..सियारिन चालाक थी.. ‘तुम भागे क्यों, तुम तो जंगल और गांवों के राजा हो, भला राजा अपनी परजा से डर कर भागता है?’ ‘चुप रहो! तूं का जानो राज काज’‘काहे हम नाहीं जानते हैं का राज काज। तूं तो चोर की तरह भाग रहे थे। जब तूं राजा हो, भागे काहे? कहा जाता है कि राजा तो परजा का प्यारा होता है, फिर परजा से काहे का डर’‘अरे तूं का जानेगी औरत जात, चूल्हा चौका करने वाली, तूं का जानेगी गांव वालों के बारे में, वह मेरी मूरख परजा है, उजड्ड, अशिक्षित और असभ्य और जंगल की परजा तो बुद्धिमान और आज्ञाकारी है। राजा तो हम हैं ही, तूं नहीं जानती कुछ भी, राजनीति कहती है कि समझदार राजा को मूरख परजा से बच कर रहना चाहिए, मूरख परजा गुस्से में किसी को नहीं पहचानती, चाहे वह राजा ही क्यों न हो। मारने पीटने पर उतर जाती है इसी लिए तो हमने गांव की मूरख परजा को अपने जंगल में आने से रोक दिया है। हमें पता है कि गांव वाले जंगल में आ कर हमारी सभ्यता खतम कर देंगे और जंगल में अराजकता फैला देंगे। यहां की एक एक ईच जमीन पर अपना मालिकाना बना लेंगे, तुझे तो पता है कि जंगल हम सभी का है, यहां रहने बसने वालों के जंगल पर बराबर बराबर अधिकार हैं। जंगल की हमारी लोकतांत्रिक सभ्यता के बारे में कम पढ़े लिखे, असभ्य, गंवार गांव वाले का जानें।’सियारिन मुस्कराने लगी, उसे अपने पति पर प्यार आ गया फिर तो वह उससे लिपट गयी। उसे लगा कि उसका पति झूठ नहीं बोल रहा।’
तो यह है एक सामान्य सी पर उल्लेखनीय कुदरती कथा। ध्यान देने की बात है, अखबार, राजा, मूरख परजा, व्यवस्था, राज काज ये शब्द इस कथा में आते हैं हमें विचार करना है कि क्या इन शब्दों के अर्थोंं को खोलने में यह जो कुदरती कथा है, बिना बनावट वाली, समर्थ नहीं है। इसे समझने के लिए हमें आयातीत विचारणों की जरूरत है, क्या इसकी तुलना में हम किसी समकालीन कथा को उद्धृत कर सकते हैं, जो राजा, और परजा के बीच पसरे अर्थों के एक एक रेशे की सहज व्याख्या कर सकती हो। तो यह है कुदरती कथाभाषा का एक रूप जिसे हम संवाद मानते हैं। इस कथा में संवाद साफ साफ है, पर्दे में ढका छुपा नहीं। इस कथा में अखबार ही नहीं मूरख परजा और आज्ञाकारी परजा, सभ्य और असभ्य, राज काज का भी रूप खुलता है, राजा तो खुलता ही है। इस तरह यह जो राजा है या राजा बनाये जाने की प्रवृत्तयां हैं वह भी खुल जाती हैं। क्या आपको नहीं लगता कि ऐसी कथाओं में पाठ वस्तु और पाठ वोध में पूरी तरह समत्वम् का अर्थवोध होता है। हमें गुनना होगा कि कहीं हमारा चिंतन और विवेक सियारिन वाला तो नहीं? और हम सियार जैसे स्वघोषित राजाओं और राजप्रबंधन के मकड़जाल में तो नहीं?
साफ है कि हमारे चिंतन और विचारण की जमीन कुदरती रही है, सभै भूमि गोपाल वाली, रुपया हाथ का मैल है, हमारे कुदरती चिंतन में चित्त और चेतना दोनों अलग अलग नहीं ‘समत्वम्’ वाले भाव में हुआ करते हैं। वैसे भी जहां चित्त कुदरती हो चेतना कुदरती हो ही जाती है फिर तो व्यक्ति और समष्टि में, कृति और प्रकृति में, व्यक्ति और अभिव्यक्ति में फर्क नहीं रहता। ये सारे बुनियादी तत्व एकमेक होते हैं, एक दूसरे में यौगिक की तरह यह जो मानव और मानव में फर्क आगया है वह तो मौजूदा समय के राजनीतिक और सामाजिक संबधों में श्रमसंबधों की अवमानना के कारण। हमें पता है कि हमारी कथाभूमि कभी बाजारभूमि नहीं रही ह,ै इसी लिए कभी भी हम बाजार का विश्वास जीतने का प्रयास नहीं करते थे और हमें करना भी नहीं चाहिए। जबकि आज के समय में हम बाजार का विश्वास जीतने का ही प्रयास कर रहे हैं। वैसे सच है कि आज हम बाजार में हैं फिर भी हमें प्रयास करना होगा लुकाठी ले कर बाजार में खड़े होने की, पर हाथ में लुकाठी लेना तो हमें प्राच्यवादी बना देगा। और प्राच्यवादी बनना आधुनिक सभ्यता में शर्मनाक बिमारी की तरह है।
हम आगे देखें कि पीछे देखें इसमें फसे हुए हैं इस देखने के बारे में लियोनार्दो की प्रसिद्ध पंक्ति है ‘हमें जो दिखायी देता है, उस पर यकीन नहीं करना चाहिए; अपितु जो दिखायी देता है उसे समझना चाहिए’ दिक्कत यही है हमारे दिल, दिमाग में सदैव बाजार के करतब नाचते रहते हैं और हम वफादार उपभोक्ता की तरह बाजार में खड़े होने तथा कोई पैकेट बनने की चाह में उलझे हुए बाजार का विश्वास जीतने की प्रतिस्पर्धा की तैयारियों में लग जाते हैं। तो जैसा कि लियोनार्दो ने कहा है कि हमें जो आज का राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक बाजार दिखायी देता है उस पर यकीन नहीं कर लेना चाहिए उसे समझना चाहिए, तो यह जो समझ का मामला है दरअसल वह है क्या? कथा की जमीनी दुनिया में कथाकारों के लिए आवश्यक हो जाता है कुदरती आवश्यकताओं की झील में उतरना, वहां जो कुदरती रत्न जैसे समता, भाई चारा, सहभागिता जैसे यथार्थ दफन किए जा चुके हैं, उनकी तलाश करना उनके सहारे अपनी कथाभाषा सृजित करना उसी अनुरूप की कथावस्तु के द्वारा दुनिया से संवाद करना ही सार्थक प्रयास होगा। जरूरी कथा सृजन के लिए अतीत को पुनः आविष्कृत करना तथा उसे वर्तमान से संयुक्त कर भविष्योन्मुख बनाना भी तो एक जरूरी कार्यभार है।
हमें यह मान कर चलना होगा कि समकालीन सत्ता व्यवस्था और बाजार का प्रबंधतंत्र दोनों एक दूसरे में एकाकार हैं, दोनों में परिचालन संबधी समरूपता होती है, दोनों का अपना तंत्र होता है इसी लिए वे एक दूसरे के सहयोगी भी होते हैं, एक दूसरे के हितों के रखवाले भी होते है। ऐसे जटिल समय में कथा कार के लिए आसान नहीं है कुदरती जमीन पर पांव रखने भर की जमीन भी तलाश लेना सो वह विवश है उसी जमीन पर पांव रखने के लिए जिसे सत्ता या बाजार उसे उपलब्ध कराता है यानि बतौर कथाकार हमारे सामने संकट बहुत हैं फिर भी हमें उन संकटों से तथा उनके प्रायोजित घेरों से बाहर निकलना होगा। हमें कथा की उस भूमि से खुद को हर हाल में अलग करना होगा जिसे बाजार और सत्ता पुरस्कार, सम्मान व पद जैसे पट्टे पर उपलब्ध कराती है। बाजार का हमारे लिए सुभाषित है कि ‘लिखो ऐसा लिखो जिसके खरीददार हों, जो हाथों हाथों बिके।’ हमें अकर्मण्यता और मूढ़ता के आरोपों से निकलना होगा कि हम वही लिख सकते हैं जो हमसे लिखवाया जाता है, हम वही समझ सकते हैं जो हमसे समझवाया जाता है, तो क्या हम बाजारवादी तंत्र में उलझे हुए प्रकाशकों के चौखटों पर माथा नवाने की ही योग्यता वाले लोग हैं और मूढ़ नहीं हैं। यह सवाल हमें खुद से पूछना होगा और उस जाल से बाहर निकलना होगा जिसे सत्ता और बाजार तंत्र ने अपने बफादार आलोचकों, समीक्षकों या चिंतकों के गठजोड़ से बनाया हुआ है।
जाहिर है चुनौतियां बहुत हैं फिर भी हताशा या माथा फोड़ लेने से काम नहीं चलने वाला। काम तो तब चलेगा जब हम कुदरती कथा को अपने जीवन की कथा बना लेंगे और उन चीजों से दूर रहने का प्रयास करेंगे जो हमसे हमारा चित्त और चेतना दोनों छीन लेने के लिए किसिम किसिम के तंत्र विकसित कर रहे हैं। निश्चित रूप से हमें कुदरती कथाभूमि को बंजर बनने से रोकने के लिए भारतीय परिवेश के कथाबीजों को कथाखेती के लिए आविष्कृत करना होगा। जाहिर है ऐसा करने के लिए हमें सामाजिक संरचना के ताने, बाने को गंभीरता से जांचना परखना होगा। दर असल आज का समय प्रकृतिमयता से बहुत दूर कृत्रिमता की तरफ भागने वाला है। ऐसे समय में बाजार या सत्ताप्रबंधन से जुड़ी ताकतें समाज की उभरती या उभर सकने वाली प्र्रतिरोधी चेतना से लैश ताकतों का विलीनीकरण सत्ताप्रबंधन में किसी न किसी प्रकार से कर लिया करती हैं फिर जो ग्रामीण चेतना या प्रकृति की चेतना के पोषक होते हैं वे भी सत्ताप्रबंधन के मुलायम कालीनों पर आसन जमाने की लालच में पड़ जाया करते है ऐसी स्थिति में हमें सावधान रहना होगा कि सामाजिक चेतना की समानधर्मा ताकतों का विलीनीकरण सत्ताप्रबंधन की बाजारू संस्कृति में न होने पाये जिनकी पात्रता हमारे कथासाहित्य तथा कथाभाषा दोनों के लिए अनिवार्य है।
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