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2025-06-13T05:35:20Z
शीतल सिन्हा
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'''प्राइस एक्शन''' (Price Action) वित्तीय बाजारों में व्यापार करने की एक विधि है जो केवल किसी परिसंपत्ति की कीमत की गतिविधियों का विश्लेषण करने पर केंद्रित होती है।इसमें किसी भी जटिल तकनीकी संकेतक (Technical Indicators) या एल्गोरिदम का उपयोग नहीं किया जाता है। इसका मूल विचार यह है कि बाजार में उपलब्ध सभी जानकारी (समाचार, मौलिक विश्लेषण, आदि) पहले से ही कीमत में परिलक्षित होती है।
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शीतल सिन्हा
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'''प्राइस एक्शन''' (Price Action) वित्तीय बाजारों में व्यापार करने की एक विधि है जो केवल किसी परिसंपत्ति की कीमत की गतिविधियों का विश्लेषण करने पर केंद्रित होती है।इसमें किसी भी जटिल तकनीकी संकेतक (Technical Indicators) या एल्गोरिदम का उपयोग नहीं किया जाता है। इसका मूल विचार यह है कि बाजार में उपलब्ध सभी जानकारी (समाचार, मौलिक विश्लेषण, आदि) पहले से ही कीमत में परिलक्षित होती है।
प्राइस एक्शन में क्या शामिल है?
प्राइस एक्शन ट्रेडर्स विभिन्न चार्टों और पैटर्न का उपयोग करके बाजार के व्यवहार को समझने की कोशिश करते हैं, ताकि वे सूचित निर्णय ले सकें। इसमें मुख्य रूप से निम्नलिखित चीजें शामिल हैं:
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'''प्राइस एक्शन''' (Price Action) वित्तीय बाजारों में व्यापार करने की एक विधि है जो केवल किसी परिसंपत्ति की कीमत की गतिविधियों का विश्लेषण करने पर केंद्रित होती है।इसमें किसी भी जटिल तकनीकी संकेतक (Technical Indicators) या एल्गोरिदम का उपयोग नहीं किया जाता है। इसका मूल विचार यह है कि बाजार में उपलब्ध सभी जानकारी (समाचार, मौलिक विश्लेषण, आदि) पहले से ही कीमत में परिलक्षित होती है।
प्राइस एक्शन में क्या शामिल है?
प्राइस एक्शन ट्रेडर्स विभिन्न चार्टों और पैटर्न का उपयोग करके बाजार के व्यवहार को समझने की कोशिश करते हैं, ताकि वे सूचित निर्णय ले सकें। इसमें मुख्य रूप से निम्नलिखित चीजें शामिल हैं:
कैंडलस्टिक चार्ट (Candlestick Charts): ये चार्ट समय के साथ कीमत की गति को बहुत स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं, जिसमें ओपन (खुली कीमत), हाई (उच्चतम कीमत), लो (न्यूनतम कीमत) और क्लोज (बंद कीमत) शामिल होती हैं। कैंडलस्टिक पैटर्न, जैसे हैमर (Hammer), पिन बार (Pin Bar), एंगल्फिंग पैटर्न (Engulfing Pattern), डोजी (Doji) आदि, बाजार की भावना और संभावित उलटफेर या निरंतरता का संकेत देते हैं।
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'''प्राइस एक्शन''' (Price Action) वित्तीय बाजारों में व्यापार करने की एक विधि है जो केवल किसी परिसंपत्ति की कीमत की गतिविधियों का विश्लेषण करने पर केंद्रित होती है।इसमें किसी भी जटिल तकनीकी संकेतक (Technical Indicators) या एल्गोरिदम का उपयोग नहीं किया जाता है। इसका मूल विचार यह है कि बाजार में उपलब्ध सभी जानकारी (समाचार, मौलिक विश्लेषण, आदि) पहले से ही कीमत में परिलक्षित होती है।
प्राइस एक्शन में क्या शामिल है?
प्राइस एक्शन ट्रेडर्स विभिन्न चार्टों और पैटर्न का उपयोग करके बाजार के व्यवहार को समझने की कोशिश करते हैं, ताकि वे सूचित निर्णय ले सकें। इसमें मुख्य रूप से निम्नलिखित चीजें शामिल हैं:
कैंडलस्टिक चार्ट (Candlestick Charts): ये चार्ट समय के साथ कीमत की गति को बहुत स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं, जिसमें ओपन (खुली कीमत), हाई (उच्चतम कीमत), लो (न्यूनतम कीमत) और क्लोज (बंद कीमत) शामिल होती हैं। कैंडलस्टिक पैटर्न, जैसे हैमर (Hammer), पिन बार (Pin Bar), एंगल्फिंग पैटर्न (Engulfing Pattern), डोजी (Doji) आदि, बाजार की भावना और संभावित उलटफेर या निरंतरता का संकेत देते हैं।
सपोर्ट और रेजिस्टेंस स्तर (Support and Resistance Levels): ये ऐसे महत्वपूर्ण मूल्य बिंदु होते हैं जहां कीमत अक्सर उलट जाती है या रुक जाती है। सपोर्ट वह स्तर होता है जहां खरीदने का दबाव बढ़ने की उम्मीद होती है, जबकि रेजिस्टेंस वह स्तर होता है जहां बेचने का दबाव बढ़ने की उम्मीद होती है।
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2025-06-13T05:43:24Z
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'''प्राइस एक्शन''' (Price Action) वित्तीय बाजारों में व्यापार करने की एक विधि है जो केवल किसी परिसंपत्ति की कीमत की गतिविधियों का विश्लेषण करने पर केंद्रित होती है।इसमें किसी भी जटिल तकनीकी संकेतक (Technical Indicators) या एल्गोरिदम का उपयोग नहीं किया जाता है। इसका मूल विचार यह है कि बाजार में उपलब्ध सभी जानकारी (समाचार, मौलिक विश्लेषण, आदि) पहले से ही कीमत में परिलक्षित होती है।
प्राइस एक्शन में क्या शामिल है?
प्राइस एक्शन ट्रेडर्स विभिन्न चार्टों और पैटर्न का उपयोग करके बाजार के व्यवहार को समझने की कोशिश करते हैं, ताकि वे सूचित निर्णय ले सकें। इसमें मुख्य रूप से निम्नलिखित चीजें शामिल हैं:
कैंडलस्टिक चार्ट (Candlestick Charts): ये चार्ट समय के साथ कीमत की गति को बहुत स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं, जिसमें ओपन (खुली कीमत), हाई (उच्चतम कीमत), लो (न्यूनतम कीमत) और क्लोज (बंद कीमत) शामिल होती हैं। कैंडलस्टिक पैटर्न, जैसे हैमर (Hammer), पिन बार (Pin Bar), एंगल्फिंग पैटर्न (Engulfing Pattern), डोजी (Doji) आदि, बाजार की भावना और संभावित उलटफेर या निरंतरता का संकेत देते हैं।
सपोर्ट और रेजिस्टेंस स्तर (Support and Resistance Levels): ये ऐसे महत्वपूर्ण मूल्य बिंदु होते हैं जहां कीमत अक्सर उलट जाती है या रुक जाती है। सपोर्ट वह स्तर होता है जहां खरीदने का दबाव बढ़ने की उम्मीद होती है, जबकि रेजिस्टेंस वह स्तर होता है जहां बेचने का दबाव बढ़ने की उम्मीद होती है।
ट्रेंड लाइन और चैनल (Trend Lines and Channels): ये कीमत की दिशा को उजागर करने में मदद करते हैं। ट्रेंड लाइनें किसी विशेष दिशा में कीमत के रुझान को दिखाती हैं, जबकि चैनल एक निश्चित सीमा के भीतर कीमत की गतिविधियों को दर्शाते हैं।
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'''प्राइस एक्शन''' (Price Action) वित्तीय बाजारों में व्यापार करने की एक विधि है जो केवल किसी परिसंपत्ति की कीमत की गतिविधियों का विश्लेषण करने पर केंद्रित होती है।इसमें किसी भी जटिल तकनीकी संकेतक (Technical Indicators) या एल्गोरिदम का उपयोग नहीं किया जाता है। इसका मूल विचार यह है कि बाजार में उपलब्ध सभी जानकारी (समाचार, मौलिक विश्लेषण, आदि) पहले से ही कीमत में परिलक्षित होती है।
प्राइस एक्शन में क्या शामिल है?
प्राइस एक्शन ट्रेडर्स विभिन्न चार्टों और पैटर्न का उपयोग करके बाजार के व्यवहार को समझने की कोशिश करते हैं, ताकि वे सूचित निर्णय ले सकें। इसमें मुख्य रूप से निम्नलिखित चीजें शामिल हैं:
कैंडलस्टिक चार्ट (Candlestick Charts): ये चार्ट समय के साथ कीमत की गति को बहुत स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं, जिसमें ओपन (खुली कीमत), हाई (उच्चतम कीमत), लो (न्यूनतम कीमत) और क्लोज (बंद कीमत) शामिल होती हैं। कैंडलस्टिक पैटर्न, जैसे हैमर (Hammer), पिन बार (Pin Bar), एंगल्फिंग पैटर्न (Engulfing Pattern), डोजी (Doji) आदि, बाजार की भावना और संभावित उलटफेर या निरंतरता का संकेत देते हैं।
सपोर्ट और रेजिस्टेंस स्तर (Support and Resistance Levels): ये ऐसे महत्वपूर्ण मूल्य बिंदु होते हैं जहां कीमत अक्सर उलट जाती है या रुक जाती है। सपोर्ट वह स्तर होता है जहां खरीदने का दबाव बढ़ने की उम्मीद होती है, जबकि रेजिस्टेंस वह स्तर होता है जहां बेचने का दबाव बढ़ने की उम्मीद होती है।
ट्रेंड लाइन और चैनल (Trend Lines and Channels): ये कीमत की दिशा को उजागर करने में मदद करते हैं। ट्रेंड लाइनें किसी विशेष दिशा में कीमत के रुझान को दिखाती हैं, जबकि चैनल एक निश्चित सीमा के भीतर कीमत की गतिविधियों को दर्शाते हैं।
चार्ट पैटर्न (Chart Patterns): ये कीमत के दोहराए जाने वाले पैटर्न होते हैं जो भविष्य की मूल्य गतिविधियों का अनुमान लगाने में मदद करते हैं। उदाहरण के लिए, हेड एंड शोल्डर्स (Head and Shoulders), फ्लैग (Flag), त्रिकोण (Triangles) आदि।
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'''प्राइस एक्शन''' (Price Action) वित्तीय बाजारों में व्यापार करने की एक विधि है जो केवल किसी परिसंपत्ति की कीमत की गतिविधियों का विश्लेषण करने पर केंद्रित होती है।इसमें किसी भी जटिल तकनीकी संकेतक (Technical Indicators) या एल्गोरिदम का उपयोग नहीं किया जाता है। इसका मूल विचार यह है कि बाजार में उपलब्ध सभी जानकारी (समाचार, मौलिक विश्लेषण, आदि) पहले से ही कीमत में परिलक्षित होती है।
प्राइस एक्शन में क्या शामिल है?
प्राइस एक्शन ट्रेडर्स विभिन्न चार्टों और पैटर्न का उपयोग करके बाजार के व्यवहार को समझने की कोशिश करते हैं, ताकि वे सूचित निर्णय ले सकें। इसमें मुख्य रूप से निम्नलिखित चीजें शामिल हैं:
कैंडलस्टिक चार्ट (Candlestick Charts): ये चार्ट समय के साथ कीमत की गति को बहुत स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं, जिसमें ओपन (खुली कीमत), हाई (उच्चतम कीमत), लो (न्यूनतम कीमत) और क्लोज (बंद कीमत) शामिल होती हैं। कैंडलस्टिक पैटर्न, जैसे हैमर (Hammer), पिन बार (Pin Bar), एंगल्फिंग पैटर्न (Engulfing Pattern), डोजी (Doji) आदि, बाजार की भावना और संभावित उलटफेर या निरंतरता का संकेत देते हैं।
सपोर्ट और रेजिस्टेंस स्तर (Support and Resistance Levels): ये ऐसे महत्वपूर्ण मूल्य बिंदु होते हैं जहां कीमत अक्सर उलट जाती है या रुक जाती है। सपोर्ट वह स्तर होता है जहां खरीदने का दबाव बढ़ने की उम्मीद होती है, जबकि रेजिस्टेंस वह स्तर होता है जहां बेचने का दबाव बढ़ने की उम्मीद होती है।
ट्रेंड लाइन और चैनल (Trend Lines and Channels): ये कीमत की दिशा को उजागर करने में मदद करते हैं। ट्रेंड लाइनें किसी विशेष दिशा में कीमत के रुझान को दिखाती हैं, जबकि चैनल एक निश्चित सीमा के भीतर कीमत की गतिविधियों को दर्शाते हैं।
चार्ट पैटर्न (Chart Patterns): ये कीमत के दोहराए जाने वाले पैटर्न होते हैं जो भविष्य की मूल्य गतिविधियों का अनुमान लगाने में मदद करते हैं। उदाहरण के लिए, हेड एंड शोल्डर्स (Head and Shoulders), फ्लैग (Flag), त्रिकोण (Triangles)
वॉल्यूम (Volume): हालांकि प्राइस एक्शन मुख्य रूप से कीमत पर केंद्रित है, कुछ ट्रेडर वॉल्यूम का उपयोग कीमत की गतिविधियों की ताकत की पुष्टि करने के लिए भी करते हैं।
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'''प्राइस एक्शन''' (Price Action) वित्तीय बाजारों में व्यापार करने की एक विधि है जो केवल किसी परिसंपत्ति की कीमत की गतिविधियों का विश्लेषण करने पर केंद्रित होती है।इसमें किसी भी जटिल तकनीकी संकेतक (Technical Indicators) या एल्गोरिदम का उपयोग नहीं किया जाता है। इसका मूल विचार यह है कि बाजार में उपलब्ध सभी जानकारी (समाचार, मौलिक विश्लेषण, आदि) पहले से ही कीमत में परिलक्षित होती है।
प्राइस एक्शन में क्या शामिल है?
प्राइस एक्शन ट्रेडर्स विभिन्न चार्टों और पैटर्न का उपयोग करके बाजार के व्यवहार को समझने की कोशिश करते हैं, ताकि वे सूचित निर्णय ले सकें। इसमें मुख्य रूप से निम्नलिखित चीजें शामिल हैं:
कैंडलस्टिक चार्ट (Candlestick Charts): ये चार्ट समय के साथ कीमत की गति को बहुत स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं, जिसमें ओपन (खुली कीमत), हाई (उच्चतम कीमत), लो (न्यूनतम कीमत) और क्लोज (बंद कीमत) शामिल होती हैं। कैंडलस्टिक पैटर्न, जैसे हैमर (Hammer), पिन बार (Pin Bar), एंगल्फिंग पैटर्न (Engulfing Pattern), डोजी (Doji) आदि, बाजार की भावना और संभावित उलटफेर या निरंतरता का संकेत देते हैं।
सपोर्ट और रेजिस्टेंस स्तर (Support and Resistance Levels): ये ऐसे महत्वपूर्ण मूल्य बिंदु होते हैं जहां कीमत अक्सर उलट जाती है या रुक जाती है। सपोर्ट वह स्तर होता है जहां खरीदने का दबाव बढ़ने की उम्मीद होती है, जबकि रेजिस्टेंस वह स्तर होता है जहां बेचने का दबाव बढ़ने की उम्मीद होती है।
ट्रेंड लाइन और चैनल (Trend Lines and Channels): ये कीमत की दिशा को उजागर करने में मदद करते हैं। ट्रेंड लाइनें किसी विशेष दिशा में कीमत के रुझान को दिखाती हैं, जबकि चैनल एक निश्चित सीमा के भीतर कीमत की गतिविधियों को दर्शाते हैं।
चार्ट पैटर्न (Chart Patterns): ये कीमत के दोहराए जाने वाले पैटर्न होते हैं जो भविष्य की मूल्य गतिविधियों का अनुमान लगाने में मदद करते हैं। उदाहरण के लिए, हेड एंड शोल्डर्स (Head and Shoulders), फ्लैग (Flag), त्रिकोण (Triangles)
वॉल्यूम (Volume): हालांकि प्राइस एक्शन मुख्य रूप से कीमत पर केंद्रित है, कुछ ट्रेडर वॉल्यूम का उपयोग कीमत की गतिविधियों की ताकत की पुष्टि करने के लिए भी करते हैं।
प्राइस एक्शन क्यों महत्वपूर्ण है?
सरलता: यह जटिल संकेतकों पर निर्भर नहीं करता है, जिससे इसे समझना और लागू करना आसान हो जाता है।
वास्तविक समय (Real-time): यह बाजार के वास्तविक व्यवहार पर आधारित है, न कि लैगिंग संकेतकों पर जो पिछली कीमत डेटा पर आधारित होते हैं।
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'''प्राइस एक्शन''' (Price Action) वित्तीय बाजारों में व्यापार करने की एक विधि है जो केवल किसी परिसंपत्ति की कीमत की गतिविधियों का विश्लेषण करने पर केंद्रित होती है।इसमें किसी भी जटिल तकनीकी संकेतक (Technical Indicators) या एल्गोरिदम का उपयोग नहीं किया जाता है। इसका मूल विचार यह है कि बाजार में उपलब्ध सभी जानकारी (समाचार, मौलिक विश्लेषण, आदि) पहले से ही कीमत में परिलक्षित होती है।
प्राइस एक्शन में क्या शामिल है?
प्राइस एक्शन ट्रेडर्स विभिन्न चार्टों और पैटर्न का उपयोग करके बाजार के व्यवहार को समझने की कोशिश करते हैं, ताकि वे सूचित निर्णय ले सकें। इसमें मुख्य रूप से निम्नलिखित चीजें शामिल हैं:
कैंडलस्टिक चार्ट (Candlestick Charts): ये चार्ट समय के साथ कीमत की गति को बहुत स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं, जिसमें ओपन (खुली कीमत), हाई (उच्चतम कीमत), लो (न्यूनतम कीमत) और क्लोज (बंद कीमत) शामिल होती हैं। कैंडलस्टिक पैटर्न, जैसे हैमर (Hammer), पिन बार (Pin Bar), एंगल्फिंग पैटर्न (Engulfing Pattern), डोजी (Doji) आदि, बाजार की भावना और संभावित उलटफेर या निरंतरता का संकेत देते हैं।
सपोर्ट और रेजिस्टेंस स्तर (Support and Resistance Levels): ये ऐसे महत्वपूर्ण मूल्य बिंदु होते हैं जहां कीमत अक्सर उलट जाती है या रुक जाती है। सपोर्ट वह स्तर होता है जहां खरीदने का दबाव बढ़ने की उम्मीद होती है, जबकि रेजिस्टेंस वह स्तर होता है जहां बेचने का दबाव बढ़ने की उम्मीद होती है।
ट्रेंड लाइन और चैनल (Trend Lines and Channels): ये कीमत की दिशा को उजागर करने में मदद करते हैं। ट्रेंड लाइनें किसी विशेष दिशा में कीमत के रुझान को दिखाती हैं, जबकि चैनल एक निश्चित सीमा के भीतर कीमत की गतिविधियों को दर्शाते हैं।
चार्ट पैटर्न (Chart Patterns): ये कीमत के दोहराए जाने वाले पैटर्न होते हैं जो भविष्य की मूल्य गतिविधियों का अनुमान लगाने में मदद करते हैं। उदाहरण के लिए, हेड एंड शोल्डर्स (Head and Shoulders), फ्लैग (Flag), त्रिकोण (Triangles)
वॉल्यूम (Volume): हालांकि प्राइस एक्शन मुख्य रूप से कीमत पर केंद्रित है, कुछ ट्रेडर वॉल्यूम का उपयोग कीमत की गतिविधियों की ताकत की पुष्टि करने के लिए भी करते हैं।
प्राइस एक्शन क्यों महत्वपूर्ण है?
सरलता: यह जटिल संकेतकों पर निर्भर नहीं करता है, जिससे इसे समझना और लागू करना आसान हो जाता है।
वास्तविक समय (Real-time): यह बाजार के वास्तविक व्यवहार पर आधारित है, न कि लैगिंग संकेतकों पर जो पिछली कीमत डेटा पर आधारित होते हैं।
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'''प्राइस एक्शन''' (Price Action) वित्तीय बाजारों में व्यापार करने की एक विधि है जो केवल किसी परिसंपत्ति की कीमत की गतिविधियों का विश्लेषण करने पर केंद्रित होती है।इसमें किसी भी जटिल तकनीकी संकेतक (Technical Indicators) या एल्गोरिदम का उपयोग नहीं किया जाता है। इसका मूल विचार यह है कि बाजार में उपलब्ध सभी जानकारी (समाचार, मौलिक विश्लेषण, आदि) पहले से ही कीमत में परिलक्षित होती है।
प्राइस एक्शन में क्या शामिल है?
प्राइस एक्शन ट्रेडर्स विभिन्न चार्टों और पैटर्न का उपयोग करके बाजार के व्यवहार को समझने की कोशिश करते हैं, ताकि वे सूचित निर्णय ले सकें। इसमें मुख्य रूप से निम्नलिखित चीजें शामिल हैं:
कैंडलस्टिक चार्ट (Candlestick Charts): ये चार्ट समय के साथ कीमत की गति को बहुत स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं, जिसमें ओपन (खुली कीमत), हाई (उच्चतम कीमत), लो (न्यूनतम कीमत) और क्लोज (बंद कीमत) शामिल होती हैं। कैंडलस्टिक पैटर्न, जैसे हैमर (Hammer), पिन बार (Pin Bar), एंगल्फिंग पैटर्न (Engulfing Pattern), डोजी (Doji) आदि, बाजार की भावना और संभावित उलटफेर या निरंतरता का संकेत देते हैं।
सपोर्ट और रेजिस्टेंस स्तर (Support and Resistance Levels): ये ऐसे महत्वपूर्ण मूल्य बिंदु होते हैं जहां कीमत अक्सर उलट जाती है या रुक जाती है। सपोर्ट वह स्तर होता है जहां खरीदने का दबाव बढ़ने की उम्मीद होती है, जबकि रेजिस्टेंस वह स्तर होता है जहां बेचने का दबाव बढ़ने की उम्मीद होती है।
ट्रेंड लाइन और चैनल (Trend Lines and Channels): ये कीमत की दिशा को उजागर करने में मदद करते हैं। ट्रेंड लाइनें किसी विशेष दिशा में कीमत के रुझान को दिखाती हैं, जबकि चैनल एक निश्चित सीमा के भीतर कीमत की गतिविधियों को दर्शाते हैं।
चार्ट पैटर्न (Chart Patterns): ये कीमत के दोहराए जाने वाले पैटर्न होते हैं जो भविष्य की मूल्य गतिविधियों का अनुमान लगाने में मदद करते हैं। उदाहरण के लिए, हेड एंड शोल्डर्स (Head and Shoulders), फ्लैग (Flag), त्रिकोण (Triangles)
वॉल्यूम (Volume): हालांकि प्राइस एक्शन मुख्य रूप से कीमत पर केंद्रित है, कुछ ट्रेडर वॉल्यूम का उपयोग कीमत की गतिविधियों की ताकत की पुष्टि करने के लिए भी करते हैं।
प्राइस एक्शन क्यों महत्वपूर्ण है?
सरलता: यह जटिल संकेतकों पर निर्भर नहीं करता है, जिससे इसे समझना और लागू करना आसान हो जाता है।
वास्तविक समय (Real-time): यह बाजार के वास्तविक व्यवहार पर आधारित है, न कि लैगिंग संकेतकों पर जो पिछली कीमत डेटा पर आधारित होते हैं।
सभी बाजारों में लागू: इसका उपयोग स्टॉक, विदेशी मुद्रा (Forex), कमोडिटी, क्रिप्टोकरेंसी आदि सभी वित्तीय बाजारों में किया जा सकता है।
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हिंदी कथा साहित्य/रामनाथ शिवेंद्र के उपन्यास
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Ramnathshivendra
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रामनाथ शिवेंद्र के उपन्यास
'''सीमांत की संघर्ष गाथा ‘हरियल की लकड़ी’'''
[[File:Hariyal ki lakadi jpg.jpg|thumb|आदिवासी महिला बसमतिया की संघर्ष गाथा पर केंद्रित उपन्यास]]
अरविन्द चतुर्वेद
दुनिया के जिस ‘सबसे बड़े लोकतंत्र’ में हम रहते हैं, आज़ादी के अठ्ठावन साल बाद आज भी सीमांत पर कई ऐसी जिन्दगियां हैं जिन्हें आज़ादी की रोशनी मयस्सर नहीं, उलटे तंत्र के शिकंजे में वे छटपटा रही हैं। विकास की संजीवनी तो खैर उन्हें क्या मिले, विडंबना ही है कि विकास की मार ने उनका जीना दूभर कर रखा है। ये सीमांत के दूर-दराज के जंगली गॉव भी हो सकते हैं और शहरों की झुग्गी-झोपड़ियां या फुटपाथी जिन्दगी भी।
कथाकार रामनाथ शिवेन्द्र के हाल ही में आये उपन्यास ‘हरियल की लकड़ी’ में जिस तरह से सीमांत की जीवन गाथा उपस्थित हुई है वह भौगोलिक रूप से भी उŸारप्रदेश का दक्षिणी-पूर्वी सीमांत है। सोनभद्र जनपद के रूप में वही सीमांत है जो कोयला, सीमेन्ट, अल्युमिनियम की बदौलत औद्योगिक अंचल और बिजली कारखानों के चलते ऊर्जा राजधानी जैसे चमकदार जुमले से संबोधित किया जाता है तो दूसरी ओर इसी सीमांत पर विकास की मारी, विस्थापन से धकियाई हुई वह ग्रामीण जंगली बस्तियां हैं जो अपने अ-विकास में अचल हैं और प्रशासनिक अंधेरगर्दी, लूट,खसोट तथा बहुस्तरीय दैहिक-मानसिक शोषण की स्वेच्छाचारिता की शिकार हैं। छब्बीस उपशीर्षकों में विन्यस्त उपन्यास ‘हरियल की लकड़ी’ में इसी ग्रामीण आदिवासी ज़िन्दगी की संषर्ष गाथा को उसकी अनेक गूंज अनुगूंज के साथ प्रस्तुत किया गया है। कहना न होगा कि बहुत हद तक इसमें उपन्यासकार को सफलता मिली है।
वैश्वीकरण के जिस अभियान में विकास की दुदुभी बजाई जा रही है उसकी असलियत जाननी हो तो सीमांत के परिवेश का जायजा लेने से खोखलापन अपने आप उजागर हो जाता है। इस उपन्यास में आये गॉव का जीवन परिवेश देखिए...
‘सदी का गुज़रना इस गॉव से गायब था। यहां परंपरायें थीं, उनका दबाव था। दूसरी कोई चीज थी तो वह था जंगल, नदी नाले पहाड़। जंगल में महुआ, करवन, बेर, हर्रा, बहेरा जैसे कुछ जंगली फल-फूल थे। जिन्हें अपने उपयोग के लिए प्रयोग में लाना कानून प्रतिबंधित और दण्डित करता था। गॉव हजारों साल की परंपराओं में कुछ इस तरह ढंका था कि नई सदी का कहीं अता-पता न चलता था। एक तरफ धॉगरी बोलते हुए करम देवता खड़े थे तो दूसरी ओर मैदानी इलाके में राम, कृष्ण, शंकर जैसे देवता भी पुजहाई करवाने में कम न थे। हाल के सालों में कुछ नेताओं, परेताओं के नाम भी गॉव में घुस चुके हैं। (पृ.68)
उपन्यास की मुख्य कथा तो बस इतनी ही है कि चेरो जाति की आदिवासी युवती बसमतिया का पति जगदा पॉच साल पहले गॉव छोड़कर कहीं चला गया है। न वह लौटा, न उसने इस बीच अपनी कोई खबर दी। लेकिन बसमतिया है कि अपनी बूढ़ी विधवा सास के साथ रह कर मेहनत मजूरी करते हुए ज़िन्दगी बसर किये जा रही है। वह जवान है, आकर्षक है, मेहनती है, और चाहे तो अपने जाति समाज के मुताबिक किसी दूसरे युवक के साथ ‘सलट’ कर ज़िन्दगी की नई पारी भी शुरू कर सकती है। लंकिन वह जगदा के लौटने का इन्तजार करती है। जगदा वापस आ जाये इसके लिए ‘छठ’ का ब्रत रखती है, ‘करम’ देवता से मनौती करती है। वह जगदा और उसकी स्मृतियों को हारिल की लकड़ी की तरह थामेे हुई है, जकड़े हुई है।
सीमांत की ज़िन्दगी का अर्थिक संघर्ष कितना गहरा है उपन्यास में आया विवरण द्रष्टव्य है...
‘चेरवान के परिवारों की संख्या चालीस थी तथा धॉगर कुल पैंतालिस परिवार थे, अहीर जो लगभग भूमिहीन थे उनकी संख्या चार परिवार की थी। भूमिहीन व गरीबी रेखा के नीचे जीवन गुजारने वाले इन परिवारों के बच्चे स्कूल न जाते थे।.... बहुतायत लोगों के पास बंधी में ली गई जमीनों के एवज में चौदह-चौदह बिस्वों के दिए गये छोटे-छोटे जमीन के टुकड़े थे। गॉव के भूमिहीन जंगल विभाग के कामों पर सब्बल, गैंता, फावड़ा चलाते और औरतें टाकरियॉ ढोतीं। कभी जंगल में वृक्षारोपण का काम भी मिल जाता।’लेकिन जिस बसमतिया की जिन्दगी दागों वाली दुनिया की न थी, वह जल की तरह चमकदार थी और पारदर्शी भी। पृ..54
उसकी स्थिति दूसरों से इस मायने में भिन्न है कि आर्थिक अभाव के साथ ही उसका जीवन भवनात्मक अभाव से भी ग्रसित है। इसलिए यह बहुत ही स्वाभाविक है कि
‘बसमतिया वर्तमान में जीने वाली औरत थी। उसके पास न तो अतीत की आनददायक स्मृतियॉ थीं और न ही भविष्य का मनोरम सपना था’ पृ..127
तो क्या बसमतिया के अन्दर इच्छा-आकांक्षा न थी, राग-अनुराग न था, या वह हाड़-मांस की नहीं बनी थी? रात के एकांत में अपनी मायके में भउजाई के साथ सोई बसमतिया कहती है...
‘भउजी जबसे तुम्हारा ननदोई भागा है तबसे जाने क्या हुआ कि मेरी देह भी उसके साथ चली गई है। समझ में नहीं आता कि देह कैसे चली गई, मेरी खुशियां लेकर.... मुई देह भी गुसिया गई है मुझ पर... पृ..52
यानि एक तरह से पति-परित्यक्ता, युवा बसमतिया जिस तरह की परिस्थितियों का शिकार है, उसमें किसी भी तरह उसकी ज़िन्दगी निरापद नहीं है। वह जिस मालिक के काम पर जाती है, एक मौका पाकर वह उसे दबोच लेता है। संघर्ष करके बसमतिया उसके चंगुल से निकल भागती है, और दुबारा फिर उसके काम पर नहीं जाती। बसमतिया के जेठ की भी उस पर बुरी निगाह है। अव्वल तो वह चाहता है कि बसमतिया किसी के साथ ‘सलट’ कर दफा हो जाये तो जगदा के हिस्से की जरा सी जमीन उसे मिल जाये या फिर बसमतिया उसके अवैध संरक्षण में रहने लगे। लेकिन बसमतिया कठिन जिन्दगी जीते हुए भी टूटती नहीं। यथासंभव न्यूनतम जरूरतों और शर्तों पर जिन्दगी जीती है, लेकिन जेठ तथा मालिक जैसे बदनीयत लोगों के लिए वह सर्वथा अलभ्य बनी रहती है।
बसमतिया का पति भगोड़ा निकला जरूर लकिन बसमतिया परिस्थितियों के अंधड़ में सूखे पŸाों की तरह उड़ जाने वाली स्त्री नहीं है। उसका जीवन रिक्त है और उसकी मन‘स्थिति को बड़ी बारीकी से उकेरने में लेखक ने पर्याप्त दक्षता का परिचय दिया है पर असल चीज है बसमतिया का जीवट, वह चट्टानी दृढ़ता, जो हर तरह के आर्थिक, मानसिक हरहराते अभावों के आगे पराभूत होना नहीं जानती। इसी ने बसमतिया के व्यक्तित्व को चमकदार बनाया है। लेकिन यहां यह कहना भी जरूरी है कि ‘हरियल की लकड़ी’ उपन्यास को स्त्री विमर्श के खाते में डालकर ‘रिड्यूस’ नहीं किया जा सकता। दरअसल यह उपन्यास सीमांत की जिन्दगी जी रहे लोगों के संघर्ष और जिजीविषा की बिडंबनापूर्ण दास्तान तो है ही, साथ ही बचे-खुचे सामंती अवशेष, पूंजीवाद के हमलावर चरित्र और जनतंत्र को अप्रासंगिक बनाने पर आमादा भ्रष्ट,क्रूर प्रशासनिक व्यवस्था तथा विकास की इकहरी प्रक्रिया के दुःपरिणामों को उजागर करता एक खौलता कथा-दस्तावेज भी है।
बसमतिया उपन्यास का केन्द्रीय पात्र तो है लेकिन एक ऐसा पुल भी है जिस पर से होकर उसके मायके और ससुराल की ग्रामीण जिन्दगी की सीमांत चुनौतियां और संघर्ष अनेक रूपों में आवाजाही करते हैं। उसके बाप ने कभी सरकारी सहायता के तहत भैंस ली थी जिसके एवज में देय बैंक का कर्ज दो हजार से बढ़कर आठ हजार रुपये हो जाता है। यह कर्ज भी एक नेता की कागजी धोखा-धड़ी की देन है जिसका शिकार उसका अनपढ़ बाप बनता है। बाप को जेल न जाना पड़े और किसी तरह कर्ज से छुटकारा मिले इसके लिए गॉव के सीधे सादे दूसरे कर्जदारों के साथ बसमतिया को बैंक और कचहरी का चक्कर लगाना पड़ता है। बसमतिया की गॉव की सहेली ननकी का दूर का एक रिश्तेदार देवनाथ डूबते को तिनके का सहारा जैसा वकील मिल जाता है और हालांकि बसमतिया का बाप जेल जाने से बच जाता है, उपभोक्ता फोरम के माध्यम से मुकदमा जीतने के कारण उसे कर्ज से मुक्ति भी मिल जाती है। फिर भी रोज कमाने खाने वालों के लिए बैंक-कचहरी का चक्कर अपने आप में कितना बड़ा संघर्ष है, यह वकील देवनाथ से बसमतिया की इस जिज्ञासा व चिन्ता से समझा जा सकता है....
‘फैसला कब तक हो जाएगा वकील साहब! यहां आओ तो सŸार अस्सी रुपया खरच हो जाता है, दो दिन का नुकसान अलग से। रोज कमाओ खाओ नहीं तो फांका...पृ..159।
प्रशासनिक भ्रष्टाचार और लूटतंत्र का शिकार होकर सरकारी अनुदान, सहायता और बैंक कर्ज आदि के जरिए सीमांत की जिन्दगियां जहां जाल में फंसकर छटपटाती हैं, वहीं औद्योगिकरण और इकहरे विकास की प्रवंचना भी उन्हीं के हिस्से आती है।...
‘गॉव के आकाश का सूरज, गॉव के हिस्से की जमीन, धूप हवा, जंगल, पहाड़ सभी कुछ गॉव में होते हुए भी गॉव से बाहर थे उन पर दूसरों का कब्जा था। नदी का पानी दूर जाकर नहर में गिरता था जिससे गॉव का रिश्ता नहीं। गॉव का पहाड़ टूट-टूट कर ढोंका, पटिया, चूना, सीमेन्ट, अल्युमिनियम बनता था, जंगल कटकर पलंग, कुर्सी,मेज, किवाड़ वगैरह में ढलता था पर बसमतिया का मायका.... बिना नहर वाला, बिना कुर्सी वाला, बिना सीमेन्ट वाला था जो आज भी है। इतिहास की बनती बिगड़ती स्थितियों ने कभी भी इस गॉव का भला नहीं किया’ पृ...73-74।
उपन्यास का अंत सचमुच विचलित कर देने वाला है। गॉव के पंडितों के मन मुताबिक ग्रामसभा का काम न होने के कारण वे भूमिहीनों और मजदूर तबके के लोगों का साथ देने वाले ग्रामप्रधान के खिलाफ हैं। अंततः गॉव के भूमिपति यानि पंडित वन विभाग के रंेजर के साथ मिलकर प्रधान व भूमिहीन ग्रामीणों के खिलाफ साजिश रचते हैं। रेजर की अगुवाई में वन विभाग वाले जंगल की जमीन पर कब्जा का बहाना बना कर उनकी झोपड़ियां उजाड़ते हैं, आग लगा देते हैं, विरोध करने वालों को खदेड़कर पकड़ ले जाते हैं। रेंजर आफिस पर खुद लकड़ी के गोदाम में आग लगवाकर रेजर, गॉव वालों को आरोपी बनाता है। यह सारी र्काावाई रात में होती है। बसमतिया और रज्जो के साथ सामूहिक बलात्कार किया जाता है। इस बर्बर दमनात्मक कार्रवाई के बाद प्रधान समेत पकड़े गये ग्रामीणों को गिरफ्तार कराके जेल भेज दिया जाता है। पक्ष विपक्ष में खबरे छपती हैंे, चूंकि वकील देवनाथ भी ग्रामीणों को भड़काने के आरोप में गिरफ्तार होता है इसलिए वकीलों की हड़ताल और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के धरना प्रदर्शन का सिलसिला शुरू हो जाता है। एक बार फिर मामला जॉच और कचहरी की पेचीदा गलियों में चला जाता है। विचलित कर देने वाले दमन और षडयंत्र के गर्भ में जिस तरह के विस्फोट के मुहाने पर जाकर उपन्यास खत्म होता है, वहां हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था और इसकी उपलब्धियों के सामने एक बड़ा प्रश्नचिन्ह स्वयमेव खड़ा हो जाता है। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि वैश्वीकरण के गाए जा रहे भारतीय सोहर के सामने यह उपन्यास एक ऐसा शोकगीत है जिसे अनसुना नहीं किया जा सकता।
परिचय... अंक 06 पृ...107-110
हंस...
समीक्ष्य कृति... हरियल की लकड़ी’ (उपन्यास)
प्रकाशक.. राजकमल,
नेता जी सुभाष मार्ग
नई दिल्ली,110002
मूल्य..195..00
सन्... 2006
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'''मौलिक अधिकारों के संषर्ष की तैयारी ‘तीसरा रास्ता’'''
[[File:Teesara Rasta.jpg|thumb|NGO संस्कृति परकेंद्रित उपन्यास भूमिअधिकार के सन्दर्भ में]]
नन्द किशोर नीलम
एन.जी.ओ. की भूमिका पर अनगिनत सवाल उठते रहे हैं। एन.जी.ओ. ने अपनी कार्यप्रणाली और समग्र व्यवहार से बराबर ऐसे हालात पैदा किए हैं जिससे तमाम धारणायें पुष्ट और प्रमाणित हुई हैं कि इनकी भूमिका विकास विरोधी दलालों की तरह है। निरीह जनता के हिस्से की कल्याणकारी योजनाओं की अकूत राशि इनके पंचतारा ऐशो-आराम पर खर्च कर दी जाती है। बाड़ (बाउन्ड्री) का काम खेत की रखवाली करना होता है, पर यदि बाड़ ही खेत खाने लगे तो! संभवतः एन.जी.ओज की भूमिका पर अपनी रचनात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले रामनाथ शिवेन्द्र के महत्वपूर्ण उपन्यास ‘तीसरा रास्ता’ में यही संशय उमड़ता-घूमता रहता है। मानवाधिकार जन समिति की एन.जी.ओ. का कर्ताधर्ता डी.बी़ जैसा शातिर व्यक्ति, जिसके हाथ में समाज को बदलने की ताकत और साधन दोनों हैं, शोषक व भक्षक की भूमिका में है। समाज की बेहतरी के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले साधनों को वह समाज के विनाश के, समाज की चेतना को कुंद करने के हथियारों के रूप में तब्दील करने में माहिर है...वह कहता है...
‘क्रान्ति एक छलावा है, तथा विकास यथार्थ’ वह आगे कहता है...
‘बुद्धि के व्यापार के लिए किसी एन.जी.ओ. का होना आवश्यक था सो उसने अमेरिकी फन्डर की बात जस के तस मान कर अपनी संस्था बना ली’ पृ..21
इसलिए क्रान्ति को अवरूद्ध करने के तमाम उपाय करता हैै। डी.बी. राजनीतिक समीकरण बिठाने में माहिर है। उसके मंसूबों को साकार करने और उसके अटके कामों को करवाने के लिए कोई न कोई स्त्री हमेशा देह में परिवर्तित हो जाने को तत्पर रहती है, जो उसका विरोध करती है उसे वह बर्बाद कर देता है। जटिल जीवन पद्धति, बाजारीकरण और घिचपिच सौन्दर्यबोध से स्त्री का संपूर्ण व्यक्तित्व किस तरह संचालित होता है इसका ज्वलंत उदाहरण है डी.बी. की सहायक मधुनिहलानी और शालिनी। वस्तुतः यह उपन्यास समाज परिवर्तन की दिशा में स्त्री की भूमिका के परस्पर विरोधी आयामों की गहरी पड़ताल करके उसके सही और सकारात्मक भूमिका और हस्तक्षेप को सुधा, अस्मिता, नन्दिता तथा प्रमिला जैसी स्त्री पात्रों के द्वारा रचता है जो हर स्तर पर समाज बदल के लिए प्रतिरोधी क्षमता का प्रतिनिधित्व करती हैं। स्त्री जीवन के दो घनघोर विरोधी स्वरूपों (देह में तब्दील हो जाना एक स्वरूप तथा विरोधी स्वरूप अपनी अस्मिता के बचाव में प्रतिरोध करना) पर रामनाथ शिवेन्द्र ने स्त्री पात्रों के माध्यम से गंभीर विचारण किया है।
यह उपन्यास सोनपुर जनपद की आम जनता के माध्यम से आज के असंख्यशोषितों, पीड़ितों, दलितों, दमितों और वंचितों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए किए जा रहे संघर्ष की कथा कहता है। सोनपुर के ये लोग अपने जल,जंगल और जमीन के हक़ के लिए लगातार ठगे जा रहे हैं। शासन इनके प्रति निष्क्रिय और उदासीन है, लगभग जनविरोधी और विकास विरोधी भूमिका में। वन विभाग इन पर झुठे मुकदमे दायर करवाकर क्रूर हत्यारे की तरह व्यवहार करता है और उनके मौलिक अधिकारों की हिफाज़त की लड़ाई के लिए देशी-विदेशी फंडरों से करोड़ों रुपये डकारने वाले एन.जी.ओ. इनके सामाजिक तथा मौलिक अधिकारों का सबसे बड़े अपहर्ता हैं। देखें...
‘आर्थिक उदारवाद तथा एन.जी.ओ. संस्कृति ने आन्दोलनों के चरित्र की हत्या कर दी है’ पृ..224
‘एन.जी.ओ.वाले.बेकारी तथा बेरोजगारी का लाभ उठाते हैं तथा रुपया कमाने का व्यापार करते हैं....आधे से भी कम मजूरी पर कार्यकर्ताओं का शोषण करते हैं पृ..198
समाज बदलने के व्यापक उद्दश्यों को छोड़कर...
‘ये एन.जी.ओ. वाले गरीबी, भुखमरी,बीमारी का सौदा करते हैं तथा अमेरिका व इंग्लैंड को बेचते हैं। पृ..198
इस उपन्यास की एक महत्वपूर्ण घटना है सुधा के नेत्त्व में सोनपुर में बंधी का निर्माण जो वास्तव में आज के समय में जनभागीदारी के द्वारा जल संरक्षण के श्रोतों को सिरजने के पहल के लिए प्रेरित करता है, दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार द्वारा बड़े बांध बनाने के लिए अपनी जमीन से उजाड़ दिए जाने वाले निरीह आदिवासियों के विस्थापन को रोकने तथा बड़े बांध के विकल्प में छोटी-छोटी बंधियां बनाकर प्राकृतिक रूप से जल संरक्षण करने से जल, जंगल और जमीन रूपी आम जनता के मौलिक अधिकारों का हनन भी नहीं होगा और उन्हें बार बार उजड़ने से निजात भी मिलेगी पर वन विभाग सुधा द्वारा जनसहभागिता से बनवाये जा रहे बंधी निर्माण से खुश नहीं है, उसके धन व वर्चस्व का सारा खेल बड़े बांध खड़े होने में है।
वन विभाग के पैमाइशी फीते का जाल इतना गहरा और बड़ा होता है कि आम आदमी और उसके जीवन जीने के संसाधन भी इसी जाल में उलझकर रह जाते हैं। प्रतिरोध करने पर वन विभाग का दमन चक्र क्रूरता में बदल जाता है फिर पुलिस? नेता, और स्वयं सेवी संगठनों के भ्रष्ट आका आपसी साठगांठ से जनप्रतिरोध की धार को कुन्द कर देते हैं। उपन्यास में सोनपुर के निरीह लोगों को रेंजर की हत्या के आरोप में फसाना ऐसी ही सांठगांठ का परिणाम है। सुधा, विजयकीर्ति भाई, निखिल दा और विनय जैसे लोगों की बड़ी चिंता यह है कि इन्हें किसी भी तरह से उजड़ने से बचाया जाए और विस्थापित किए जाने वाले लोगों के बीच जाकर उन्हें आदिवासियों के मौलिक स्वत्व के संघर्ष के लिए कैसे तैयार किया जाए? लेकिन अनेक बार उजड़ चुके और शासन और पुलिस की पाश्विकता को भोग चुके लोग डरे हुए हैं। गॉव का एक सŸारवर्षीय वृद्ध सुधा और विनय को इस बर्बरता के बारे में बताते हुए लगभग पागलपन की हद तक पहुंच चुकी निराशा में ‘करमा’ गा गा कर नाचने लगता है। पृ..222। यह बुजुर्ग आदिवासी बार बार के विस्थापन को अपनी नियति मान चुका है। जिस डर, हताशा और निराशा का वह शिकार है वह आज पूरे भारतीय समाज पर हावी है। पर इसी गॉव के कुछ युवा लोग इस नियति को बदलकर आपने जीने के अधिकार को पाना चाहते हैं। इनमें अथाह जोश है और प्रतिरोध की आवश्यक क्षमता भी। ये अब मरने-मारने पर उतारू हैं।
इस उपन्यास का शीर्षक ‘तीसरा रास्ता’ देख कर ऐसा लगता है कि राजनीति में तीसरे विकल्प की तरह उपन्यासकार भी एक ‘तीसरा रास्ता’ बनाने या सुझाने की पहल करेगा जो कायम सŸाा और विकास विरोधी स्वयं संगठनों की लूट से परे होगा। जिस तीसरे रास्ते का खुलासा रामनाथ शिवेन्द्र उपन्यास के अंतिम ख्ंाड तीसरा रास्ता में करते हैं वह चौंकाता है। प्रारंभ में एक क्रान्तिकारी कामरेड रहे दीपेश भट्टाचार्य (डी.बी.) का रमेशरा बनकर नन्दिनी के जमीनदार पिता की हत्या करवाना, हत्या की राजनीति का पैरोकार होना, बाद में एन.जी.ओ. चलाना और अपने भ्रष्ट व्यभिचारी चरित्र को छिपाने के लिए अंततः आध्यात्मिक गुरु बन जाना ही क्या अब ‘तीसरा विकल्प’ या ‘तीसरा रास्ता’ बचा है? क्या वास्तव में आज के इस विकट दौर में जनपक्षधर मूल्यों के प्रति लोगों का रुझान कम हो रहा है? क्या सघंर्ष और प्रतिरोधी चेतना पर ‘धन’ और ‘आध्यात्म’ ने आधिपत्य कायम कर लिया है? क्या अमेरिकी धनकुबेरों का प्रतिरोधी ताकतों को मनोवैज्ञानिक रूप से अपहृत करने का षडयंत्र फलीभूत हो चुका है? ऐसे कई प्रश्नों से यह उपन्यास विचलित करता है। आध्यात्म वास्तव में इस उपन्यास की ‘जय’ है या ‘पराजय’ तनिक गंभीरता से विचार करना पड़ेगा।
डी.बी. का सब तरफ से हार कर अपने पुराने आध्यात्मिक गुरु की शरण में चले जाना और अंत में अपने गुरु की जगह लेकर भगवा धारण कर लेना आज के समय की बड़ी सच्चाई है। आध्यात्मिक गुरुओं का प्रभामंडल लगातार फैल रहा है। कई गुरुओं और बापुओं के यौन-दुराचारों का पर्दाफास होने के बाद भी ये अपना प्रभामंडल विस्तृत करने मे कामयाब हो रहे हैं। आज जिस तरह की घटनांए हमारे वैचारिक समाज में घट रही हैं उन्हें देखते हुए यही कहा जा सकता है कि रामनाथ शिवेन्द्र आगत के भयावह हालात की पूर्व सूचना दे रहे हैं। प्रगतिशील और जनपक्षधरता के अगुआओं का इन दिनों जातियों, संघियों और सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों के चंगुल में फसना या स्वेच्छा से उनके आतिथ्य और धन को स्वीकार करना कहीं वही ‘तीसरा रास्ता’ तो नहीं जिसकी ओर रामनाथ शिवेन्द्र ने संकेत किया है? बहरहाल आज के वैज्ञानिक युग में आध्यात्म की दुन्दुभी जिस ऊंचे सवर में कान फोड़ रही है उसे देखते हुए ‘तीसरे रास्ते’ का घातक संकेत हमें सावधान करता है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अतिवाद के इस कठिन समय में बड़े बड़े अपराधियों का अंतिम ठौर आध्यात्म (?)ही हो सकता है, जहां न तर्क चलता है न कानून। यहां तमाम धार्मिक व कठमुल्ला ताकतें उनके जयकारे और संरक्षण के लिए तत्पर हैं। इस तथ्य की सच्चाई को हम पिछले सालों देख चुके हैं।
इस उपन्यास के माध्यम से रामनाथ शिवेन्द्र ने घटित हो रही सच्चाइयों पर और बढ़ती संवेदनशीलता पर बहुत कुछ कहने की कोशिश की है। विचारों का भारी दबाव व ऊभ-चूभ तथा अधिक कथा विस्तार शिथिलता लाता है ऐसी तमाम सीमाओं के बावजूद यह कहने में संकोच नहीं है कि यह उपन्यास व्यापक सामाजिक सरोकारों को बड़े पैमाने पर बहस के बीच लाता है, यही इस उपन्यास की सफलता है।
उपन्यास के कुछ अंश जो विचारण के लिए अनिवार्य जैसे हैं उन्हें यहां प्रस्तुत करना गलत न होगा।...
‘हम साकारी विधानों, कानूनों, परंपराओं के तार्किक व प्रतिबद्ध अहिंसक अवज्ञाकारी हैं, इस अवज्ञा के दौरान हमें हक़ है कि हम अपनी हिफाजत करें तथा जनता की भी जिसे जागरूक बनाने के लिए हम संकल्पित और लक्ष्यित हैं’ पृ..33
‘अमेरिकियों का नारा था जिसका पेट भरेगा वह खूनी क्रान्ति नहीं करेगा सो रुपया बांटो, खाना दो, पढ़़ाओ, दवाई दो यानि उन्हें बचाओ जो खुद मर रहे हैं या प्रायोजित मृत्यु के लिए क्रान्तिकारी बन रहे हैं’ पृ..35
‘डी.बी. को स्वयंसेवी संस्थावाद की इस परिभाषा से पहले कुछ दिक्कत हुई, क्यांकि तब तक वह मानसिक रूप से दिवालिया नहीं हुआ था, उसे कदम कदम पर मार्क्स याद आते जैसे रति प्रसंग के दौरान फ्रायड’ पृ..39
‘तुम्हारा नाम प्रवीण है, तूं एन.जी.ओ. चलाता है, तूं गॉव का विकास करेगा खैरात बांट कर। तूं जमीन क्यों नहीं बटवाता? ’पृ..64
‘वैसे भी वे इतिहास की अश्लील आदतों से परिचित न थे कि वह परिवर्तित होने वाली परिघटना है तथा समय समय पर कई तरह का रंग रूप धारण करना उसका स्वभाव है। पृृ..106
‘सरकार के पास इतनी बड़ी जेल नही जो सभी को जेल में रख सके’ पृ..116
‘बड़े उद्योगों का विशाल सांचा नहीं बचेगा... यदि लाभ, अतिरिक्त लाभ वाली व्यवस्था को सहभागितापूर्ण अर्थतंत्र व प्रबंधन से तोड़ दिया जाए, इससे नौकरशाही का सांचा भी तोड़ा जाना संभव हो सकता है।’
‘प्रतिरोध कार्यक्रम खुला-खुला था यानि कि नई दुनिया संभव है पर दान, प्रतिदान, बैंक कर्जों के आवंटन, दया व कृत्रिम आर्थिक सहयोग के द्वारा नहीं...। संभव बनाया जा सकता है बराबरी का दर्जा देकर, क्रय शक्ति बढ़ा कर, अवसरों में समानता का वातावरण बना कर, सामाजिक मर्यादा बहाल कर? उत्पादनों को जनोन्मुखी बना कर’ पृ...193
‘आखिर हम आदिवासी ही क्यों उजाड़े जाते हैं, जमीन में कोयला, हीरा, सोना, चॉदी चाहे जो मिल जाये उजड़ो, हमेशा उजड़ते रहो, हमारा कुछ भी नहीं, ऐसा नहीं चलेगा। हम कोई लाश नहीं, हमारा भी हक़ है इस माटी पर, इस जंगल पर, अब हम इसे कटने नहीं देंगे, जंगल का फल-फूल, बालू, मिट्टी सारा हमारा, हमें नहीं चाहिए दिल्ली’ पृ.....224
‘यहां आकर इतिहास मरे न मरे पर विज्ञान, राजनीति, दर्शन और धर्म सारे के सारे यहां आकर मर चुके हैं इसलिए इस परिक्षेत्र में बारहवीं शताब्दी आज भी जीवित है। इनके चेहरे आज पूंजीवादी बर्बरता के परिणाम हैं’ पृ...227
हंस कथा मासिक...फरवरी..2010 पृ....84-85
समीक्ष्य कृति... तीसरा रास्ता
पिलग्रिम्स प्रकाशन
बी.27/98-ए-8, दुर्गाकुण्ड
वाराणसी, 221010
मूल्य...225.00 फोन...(91-542)2314060
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कितनी लड़ाई ,कितनी बार "दूसरी आजादी"''''
सुरेश पंडित
[[File:Dusary azadi दूसरी आज़ादी.jpg|thumb|हिंदी उपन्यास]]
‘इतिहास तो हर पीढ़ी लिखेगी/बार बार पेश होंगे/मर चुके/जीवितों की अदालत में/बार बार उठाए जायेंगे/कब्रों में कंकाल/हार पहनाने के लिए/ कभी फूलों के/कभी कांटों के/समय की कोई अंतिम अदालत नहीं/और इतिहास आखिरी बार नहीं लिखा जाता।’ पंजाबी कवि सुरजीत पातर की कविता का यह हिन्दी अनुवाद इतिहास के बारे में फैलाए गये बहुत से मिथकों का खंडन करता है। कोई भी इतिहास समग्रतः सच्चा नहीं होता। इसलिए वह बार बार लिखा जाता है। बार बार गड़े मुर्दे उखाड़ जाते हैं और उनकी कारनामों पर समय की अदालत में फैसले लिए जाते हैं। रामनाथ शिवेन्द्र का उपन्यास ‘दूसरी आज़ादी’ भी इस सच को पकड़ने की एक बेचैन कोशिश है। शीर्षक से जाहिर होता है कि इसमें उस पहली आज़ादी के बाद का इतिहास है, जिसे पिछली शताब्दी के पूर्वार्ध में काफी संघर्षो और कुर्बानियों के बाद हासिल किया गया था। उसके बाद आज तक सŸाा के खिलाफ कई लड़ाइयां लड़ी गई हैं और आगे भी लड़ी जाती रहेंगीं क्योंकि सŸाा चाहे सामंतशाही की हो या लोकतांत्रिक उसका चरित्र प्रायः एक सा होता है। इसलिए इस तरह की लड़ाइयों के क्रम का कभी अंत नहीं होता। उपन्यास में आज़ादी से पहले इसे पाने के लिए लोगों को जिस तरह के आकर्षक सपने दिखा कर संघर्ष हेतु तैयार किया गया था उसका और बाद में उन सपनों को किस तरह तोड़ा गया इसका वर्णन बड़ी संवेदनात्मक भाषा में किया गया है। साथ ही खोई आज़ादी को पुनः पाने के लिए किए गये प्रयासों को भी दर्शाया गया है। लगता है हमारे देश के सारे इतिहास आम लोगों को सपने दिखाने और उन्हें तोड़ने के प्रयासों को ही लेकर लिखे गये हैं। उपन्यास के सभी पात्र चाहे वे नायक हों या खलनायक, पहली आज़ादी के संघर्षों की उपज हैं फिर चाहे उन्होंने एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उसमें भाग लिया हो या उसके विरोध में अथवा एक तटस्थ दर्शक के रूप में। नायक इस उपन्यास का रणविजय भी हो सकता है, रामदयाल भी और रामप्यारे भी। क्योंकि तीनों एक दूसरे के पूरक हैं। ये सब मिलकर एक चरित्र बनते हैं। आज़ादी के बाद इस लड़ाई में शरीक होने वाले लोग दो वर्गों में बट जाते हैं। एक में वे लोग होते हैं जो किसी न किसी रूप में सŸाा से जुड़ जाते हैं। एक में वे लोग होते है जो इससे अलग तो रहते हैं लेकिन आगे क्या करें की दिशाहीनता में गोते लगाते नज़र आते हैं। पहली तरह के लोग गॉधी का मुखौटा लगाकर सŸाा सुख भोगने में लग जाते हैं और दूसरे, गॉधी की राह पर चलकर आगे क्या किया जा सकता है की सोच में उलझ जाते हैं। रणविजय एक शाही परिवार के सदस्य हैं लेकिन इसलिए महल से निकाल दिए जाते हैं क्योंकि वे एक ऐसी लड़की से प्यार कर शादी कर लेते हैं जो एक अंग्रेज पिता और भारतीय मॉ की संतान है। इसी तरह उनके भाई भैया राजा रियासत में रणविजय को हिस्सेदारी से इस आधार पर वंचित कर देते हैं क्योंकि वे भूतपूर्व राजा की दूसरी पत्नी की संतान हैं अर्थात भाई होकर भी सगे भाई नहीं हैं। यद्यपि दोनों ही आरोप सही हैं फिर भी उन्हें कानूनन उनके अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता। लेकिन रणविजय अपने हक़ के लिए स्वयं लड़ने को तैयार नहीं होते। यह शायद उन पर चले आ रहे गॉधी के चिंतन के प्रभावों का परिणाम है या वह भावुकता है जो गॉधी को लेकर बाद तक बनी रही थी।
रामदयाल जी दोनों भाइयों के मित्र हैं वे इस तरह के अन्याय को सहन नहीं कर पाते फिर भी वे न तो भैया राजा का विरोध करते हैं और न ही रणविजय को भैया राजा का विरोध करने के लिए तैयार ही कर पाते हैं। नतीजा यह कि पहली आज़ादी की लड़ाई में भाग लेने के कारण दोनों ही गॉधी के हैंगओवर से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाते। वैसे भी यह ऐसे लोगों का स्वभाव है कि वे तब तक कोई निर्णय नहीं लेते जब तक किसी आन्दोलन के लिए पुख्ता ज़मीन तैयार नहीं हो जाती। पहली आज़ादी की लड़ाई में भी शुरू में किसान, मजदूर और वंचित वर्ग के लोग ही शामिल हुए थे, मध्यम वर्ग तो तब आया था जब वह लड़ाई निर्णायक दौर में पहुंच गई थी।
राजमहल से निष्कासित और पैतृक संपŸिा से वंचित हो जाने के बाद रणविजय और लिली दोनों लिली के घर आकर रहने लगते हैं। रणविजय एक गंभीर विचारक से दिखाई देते हैं जबकि लिली अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती है। शायद यही वह कारण है जिससे वह रणविजय से शादी करती है और जब यह महसूस करती है कि रणविजय उसकी महत्वाकांक्षी प्रकृति को संतुष्ट करने में सहयोगी नहीं बन सकता तो वह नामदेव की ओर झुकती है। रणविजय और लिली के माता-पिता उसके इस झुकाव को पसंद नहीं करते। लेकिन उनकी अनिच्छा के बावजूद लिली अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए नामदेव के साथ रूस चली जाती है। समझ में नहीं आता कि इतनी चंचल चिŸा और महलों में रहने की इच्छा पालने वाली युवती के साथ रणविजय विवाह क्यों कर लेता है। वैसे लिली बौद्धिक रूप से काफी जागरूक है, गंभीर विषयों पर होने वाली चर्चाओं में वह भाग ले सकती है और रूसी साहित्य का अनुवाद तो वह करती ही है। फिर भी वह अथाह प्रेम करने वाले रणविजय और अपने माता-पिता को छोड़कर क्यों चली जाती है? यह समझना कोई मुश्किल नहीं है। दरअसल उसे लगता है कि नामदेव के साथ रहने पर उसके सपने पूरे हो सकते हैं उसकी प्रकृति और प्रवृŸिा दोनों परस्पर विरोधी भावों से बनी है। अन्त में उसका क्या होता है पता नहीं लगता। हो सकता है कि उपन्यासकार ने उसे इसलिए रचा हो कि वह पाठकों के लिए पहेली बनी रहे या फिर आगे वही हुआ जो प्रायः जो इस प्रकार के मामलों में हुआ करता है।
रणविजय के बजाय रामदयाल का चरित्र अधिक परिपक्व व डायनामिक है। यद्यपि एक रात को लिली के साथ घटी धटना का विश्लेषण कर पाना काफी कठिन है। कहीं नहीं लगता कि दोनों का इस तरह का पारस्परिक कभी रहा हो, हो सकता है यह आकस्मिक भावावेग मात्र रहा हो। चरित्र का यह आकस्मिक विचलन इस बात को लेकर भी हो सकता है कि हम एक दूसरे के साथ रहकर और घनिष्ठ संबध बनाकर भी आपस में सारी जानकारी नहीं रख पाते। मानव मन के बारे में किसी भी प्रकार की भविष्यवाणी प्रायः अनुमाननीय होती है। प्रसिद्व अंग्रजी उपन्यासकार ‘सौमट सेर माम’एक जगह लिखते हैं... ‘मैं किसी पात्र को जैसा सोचकर रचता हूं केई बार उसका आचरण मेरी कल्पना के अनुरूप नहीं होता’। फिर इस घटना पर किसी और से कोई प्रतिक्रिया का न होना भी हैरानी पैदा करता है। क्या यह कोई ऐसी घटना थी जिसे सामान्य मानकर भुला दिया जा सकता था। दोनों में से कोई भी न इसके बारे में आत्मग्लानि महसूस करता है न आत्मिक संतृप्ति ही प्रकट करता है।
सरकारी जमीनदारी उन्मूलन कार्यक्रम को विभिन्न हथकंड़ों से क्रियान्वित न होने देने के प्रयासों का रामदयाल, रणविजय और रामप्यारे के साथ मिलकर विरोध करता है। वह स्वयं भी एक छोटा-मोटा जमीनदार हैं अपने आन्दोलन को प्रामाणिक बनाने के लिए पहले वह अपनी जमीन को अपने अधिकार क्षेत्र के किसानों में बांट देता है। यद्यपि इसके लिए उसे अपनी पत्नी और अन्य संबधियों का भारी विरोध सहन करना पड़ता है। जब भैया राजा सहित सारे जमीनदार एकजुट हो जमीनदारी उन्मूलन कार्यक्रम के राह में रोड़े अटका राहे होते हैं तब रामदयाल का यह कदम लोगों का मन जीतने वाला साबित होता है।
गॉधी जी किसी भी काम की शुरूआत अपने से करते थे इसी लिए जनता उनका साथ देती थी। यहां भी लोग रामदयाल का साथ इसी लिए देते हैं। रणविजय और रामप्यारे तो पहले ही सर्वहारा थे। उनके पास अपना कुछ भी नहीं था। इसलिए तीनों का नेतृत्व आमजन को बदलाव की राह दिखाने में उत्साहजनक साबित होता है।
भैया राजा का चरित्र शुरू में जैसा दिखाया जाता है अंत तक वैसा ही बना रहता है। वह पहले सारी रियासत पर अपना एकक्षत्र प्रभुत्व स्थापित करने की राह में कांटा बन सकने वाले अपने ही भाई रणविजय को दरकिनार करता है। फिर कांग्रेस में शामिल होकर रामदयाल और कांग्रेस के जिलाध्यक्ष को एक तरफ खड़ा कर देता और स्वयं विधानसभा का टिकट प्राप्त कर लेता है। तरह तरह की तिकड़मों से वह चुनाव जीत भी लेता है। अपनी ऐययाशी के लिए देवी स्वरूपा अपनी पत्नी के चरित्र पर आरोप लगाकर वह उसे महल से निकाल देता है और एक मेम को ले आता है। मेम के गर्भिणी हो जाने पर वह बच्चे को गिरवाना चाहता है जब मेम इसके लिए तैयार नहीं होती तो उसे राह से हटाने का षडयंत्र रचता है। पर मेम उसकी चंगुल से निकल कर रामदयाल के जमीनदारी विरोधी आन्दोलन में शरीक हो जाती है। आखिर भैया राजा की जमीनदारी के विरूद्ध संघर्ष इतना तेज हो जाता है कि उसे रोकने की सारी चालें असफल हो जाती हैं।
आश्चर्य है लिली का चरित्र जिस तरह उपन्यास में दिखाया गया है उसके माता-पिता से किसी भी रूप में नहीं मिलता। उसकी मॉ जो एक भारतीय माता-पिता की संतान है एक अंग्रेज से शादी करने के बावजूद अंत तक एक पतिपरायण आदर्श भारतीय नारी बनी रहती है। अंग्रेज पति उसके समर्पण और त्याग से अभिभूत दिखाई देता है। वह मन ही मन अंग्रेज औरतों से उसकी तुलना करता है और पाता है कि दोनों में कोई मुकाबिला नहीं किया जा सकता। ब्रिटिश राज के जमाने में वह प्रशासनिक अधिकारी रहा था। गॉधी और उनके अनुयायियों से यहां की संस्कृति से, यहां के लोगों के छल-कपट विहीन स्वभव से वह इतना प्रभावित हो जाता है कि इन्गलैन्ड जाने के बजाय वह यहीं रह जाने का फैसला कर लेता है। यहां के पुरातन साहित्य का अध्ययन करने और उसका अंग्रेजी में अनुवाद करने में वह स्वयं को झोंक देता है। दोनों रूस जाने के लिली के फैसले से आहत तो होते ही हैं लेकिन वह भी जानते हैं कि उनके किए कुछ होने जाने वाला नहीं है। परिणामस्वरूप वे लिली के इस कार्य को धीरे धीरे भुला देते हैं। और अपने अपने कामों में लग जाते हैं। रणविजय के प्रति उनका व्यवहार अत्यंत स्नेहपूर्ण बना रहता है।
पहली आज़ादी का आम लोगांे पर जादू एक डेढ़ दशाक तक चलता रहता है इसकी एक वजह तो यह है कि उनमें यह उम्म्ीद बनी रहती है कि उनके दिन बदलेंगे और वे सपने जो पहले दिखलाए गये थे पूरे होंगे। दूसरा कारण यह भी था कि उस समय में सरकार की बागडोर उन लोगों के हाथ में रही जो स्वतंत्रता सेनानी रहे थे और आम लोगों के हालात सुधारने की कम से कम आशायें बनाये रखने वाले थे। फिर उनके चरित्र भी बेदाग थे। वे अपने त्याग और देशभक्ति के कारण जनता के हृदय में इतना मोहक स्थान बनाये हुए थे कि चुनावों में बिना धन-बल और बाहु-बल का प्रयोग किए जीत जाते थे या उनके विरूद्ध खड़ा होने की कोई हिम्मत ही नहीं दिखा पाता था। जो कुछ गड़बड़ियां या स्वार्थसिद्धियां हो रही थीं उन लोगों की ओर से हो रही थीं जो आज़ादी के पहले तक तो अंग्रेज सरकार के कृपापात्र थे लेकिन जैसे ही हवा पलटी कांग्रेस में आ गये और जोड़-तोड़ कर सŸाा के गलियारे में भी पहुंच गये। वे अन्याय, भ्रष्टाचार और दमन पहले भी करते थे और बाद में भी जारी रखे रहे थे। इन परिस्थितयों ने लोगों का स्वप्न भंग किया। उन्हें लगा कि उनके साथ धोखा हुआ है। सŸाा हमेशा भ्रष्ट, अन्यायी व दमनकारी होती है। उस पर विश्वास करना मूर्खता है। इस लिए इसके विरूद्ध निरंतर आन्दोलन करते रहने की जरूरत है। सरकारें जनदबाव के सामने ही झुकती हैं। जरा सी भी ढील देना उन्हें निरंकुश बनने का अवसर देना है। लेकिन सवाल यह है कि आन्दोलन की निरंतरता कैसे बनी रहे? देश के कुछ लोग तो इतने संतोषी हैं कि उन्हें दिन में एक बार भी रोटी मिलती रहे तो उन्हें और कुछ नहीं चाहिए। कुछ लोग सक्रिय हो सकते हैं लेकिन उन्हें जीविकोपार्जन से ही फुर्सत नहीं मिलती। बाकी वे लोग हैं जिन्हें हर तरह की सुविधायें मिली हुई हैं। उन्हें किसी तरह के बदलाव की जरूरत नहीं है। बल्कि उनकी तो हर मुमकिन कोशिश यही रहती है कि इसी तरह की यथास्थिति बनी रहे ताकि वे सुख भोगते रहें।
पहली और दूसरी आज़ादी की लड़ाइयों के बावजूद देश की स्थितियों में वह परिवर्तन नहीं आया जिसके लिए वे लड़ी गईं थीं इन दोनों के बाद राममनोहर लोहिया व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई जिन्दगी भर लड़ते रहे पर व्व्यवस्था पहले जैसी ही बनी रही। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भी एक लड़ाई लड़ी गईं उसमें जीत हासिल कर लेने के बाद भी हालात वही बनी रही। अन्ना हजारे इसी तरह की एक लड़ाई छेड़े हुए हैं (वह भी सŸाा की माया में दब गया) देखना है कि उसका अंजाम क्या होता है? इमरजेन्सी के बाद से देश में जहां तहां अनेक छोटे-बड़े आन्दोलन होते रहे हैं और अब भी हो रहे हैं, ये जनता को प्रभावित करने वचाले मुद्दों को लेकर हो रहे हैं। इनमें व्यवस्था परिवर्तन की जगह व्यवस्था में रहते हुए ही कुछ बदलाव लाने की कोशिशें हो रही हैं। भूमण्डलीकरण ने इस तरह पूंजीवाद के विरूद्ध पनपने वाले जनाक्रोश को टुकड़ों में बाट कर मुख्य लड़ाई का रूख बदल दिया है।
रामनाथ शिवेन्द्र एक जमीनी स्तर के सामाजिक, राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने विभिन्न आन्दोलनों में भाग लिया है और अब भी संघर्ष-रत हैं। तीन उपन्यासों के बाद उनका यह चौथा उपन्यास है। कुछ कल्पना, कुछ यथार्थ और कुछ जमीनी अनुभवों का उपयोग करते हुए इसका कथानक बुना गया है। यह चाहे पूरी तरह इतिहास सम्मत न हो पर उस समय के लोगों की मनःस्थिति को, और अन्यायी व्यवस्था को बदलने की तड़प को वाणी देने की कोशिश जरूर करता है।
प्रकाशित- नया सबेरा.... 2010
समीक्ष्य कृति- दूसरी आज़ादी
पिलग्रिम्स प्रकाशन
बी.27/98-ए-8, दुर्गाकुण्ड
वाराणसी, 221010
मूल्य..250.00
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'''विस्थापित होते समय का दस्तावेज ‘ढूह वाली लछमिनिया’'''
[[File:Dohawali Laxmaniya Final jpg.jpg|thumb|विस्थापन के सवाल पर केंद्रित उपन्यास आदिवासी महिला लक्ष्मीनिया की गाथा]]
अमरनाथ अजेय
यह दौर कठिन समय का है। इस समय में चुनौतियां चारो तरफ से हैं, कुछ खतरे बाहर से हैं तो कुछ भीतर से। जहां तक खतरों की बात है खासतौर से ये सोनभद्र जैसे आदिवासी बहुल जनपद में अन्य जनपदों की तुलना में कुछ ज्यादा ही हैं। लेकिन जो खतरे अपने लोगों से हैं वे कहीं अधिक त्रासद हैं, चिंतनीय है। आज के बाज़ारवादी समय का दबाव जंगल व जंगल भूमि पर ज्यादा है, और ये दबाव बनाने वाले कोई और लोग नहीं हैं, बल्कि अपने हुक्मरान हैं, अपने अफसर हैं, अपने कानून हैं। जो जंगली मानुष अपनी जमीन और जंगल से विस्थापित हो रहा है उसके लिए खतरा केवल जमीन का ही नहीं है बल्कि संस्कृति और सम्मान का भी है, अस्तित्व बचाने का भी है। ऐसे दुरूह समय का दस्तावेज है रामनाथ शिवेन्द्र का उपन्यास ‘ढूह वाली लछमिनिया’। लछमिनिया समामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक खतरों से घिरे हुए एक आदिवासी परिवार की युवा लड़की है। लछमिनिया की चिंता में केवल अपनी देह ही नहीं है उसकी चिंताओं में भीखू काका की जमीन है, तो वह पीड़ित लडकी भी है जो जिला स्तर के एक अफसर द्वारा यौनशोषण की शिकार हुई है, तथा उसका गॉव भी है जिसे किसी न किसी दिन विस्थापित किया जाना है। गॉव को विस्थापित किए जाने की नोटिस सरकार ने कथितरूप से तामिल करा दिया है। इन चिंताओं व चुनौतियों के अलावा उसकी चिंताओं में गॉव की फसल है, गीत, संगीत तथा परंपराएं है ‘करमा’ नृत्य, संगीत मण्डली की सहभागिता को टूटने से बचाना भी है। इन चिंताओं की खातिर वह माथा पीट कर टूट जाने वाली किसी लड़की की तरह नहीं है बल्कि किसी बहादुर की तरह वह हर स्तर पर चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार भी है। चुनातियों से टकराने की उसकी मानसिक तैयारी कुदरती है, इस तैयारी के लिए उसने कहीं से शिक्षण प्रशिक्षण नहीं लिया है। वह अब तक तमाम चरित्रों से अलग है जो स्वस्फूर्त चेतना का उत्पाद है। उसे पता है कि चुनौतियों से टकराने के लिए उसे क्या करना चाहिए। बाहर तथा भीतर से आए संक्रमणों से जिस तरह वह लड़ती है वह स्वतः उल्लेखनीय बन जाता है। संक्रमण की स्थितियां, परिस्थितियां कुदरती नहीं, बदलते समय के जड़ लोगों की कुटिल चालों, विभेदी कानूनी फन्दों, लुभावने वादों के जरिए आती हैं। समय तो बदला है लेकिन उसके साथ खतरे भी बदल गये हैं। खतरों नेे अपना रूप जिले के पीड़ित लड़की का यौन शोषण करने वाले अधिकारी (उपन्यास का एक पात्र) की तरह बदल लिया है। यह वही अधिकारी है जो एक दिन लछमिनिया को दबोच लेता है, उसे क्या पता कि लछमिनिया जो एक आदिवासी युवती है वह समय से टकराने के कौशल में माहिर है, वह अपना बचाव विषम स्थितियों में भी कर सकती है। ऐसा ही हुआ..अपने बचाव में लछमिनिया हसुआ वाली लड़की बन जाती है। खतरों के बारे में किसे पता कि वे अफसर की कुटिल चालों के रूप में आयेंगे, या किस प्रकार आयेंगे? खतरा आ गया अफसर के रूप में...अफसर को तो करमा मंडली का चुनाव करना था। सो उक्त अधिकारी लछमिनिया के गॉव गया हुआ था, करमा नाचने व गानेवाले तो आदिवासियों के गॉव में ही मिलते। गॉव में करमा नृत्य का प्रदर्शन हुआ, नृत्य के प्रदर्शन ने अफसर की निगाह में लछमिनिया के रूप को कामुक बना दिया फिर क्या था, अफसर तो अफसर कृत्रिम बहानों के जरिए वह टूट पड़ा लछमिनिया पर और लछमिनिया ने बचाव में हसुआ उठा लिया। इसके पहले कि लछमिनिया अफसर पर हसुआ चला देती, अफसर अपने वर्गीय चरित्र के अनुरूप गिड़गिड़ाने लगा। लछमिनिया ने कुदरती उदारता के कारण अफसर को जीवित छोड़ दिया, उस पर हसुआ नहीं चलाया। अफसर के गिड़गिड़ाने व माफी मांगने को उसने कुदरती समझा, ‘गलतियां हो जाती हैं किसी की जान लेना ठीक नहीं।’
खतरों का क्या, दिन हो रात हो, जगह कोई हो, दहाड़ते हुए आ जाते हैं। वह भी ऐसे समय मंे जब दुनिया पूंजी के नाच में मगन हो, जहां कदम कदम पर आशंकायें व खतरे ही हों। खतरे तो ऐसे हैं जो गॉव के बड़े जोतदार तथा थाने के दुलरुआ शंकर गवहां की तरफ से भी लछमिनिया के सामने आये। वह उन खतरों से तो लड़ ही रही थी कि एक दिन पूंजीवादी चरित्र का एक और खतरा उसके बपई की तरफ से आ गया जिसमें वह बुरी तरह से उलझ गई...
अब क्या होगा? कैसे लड़ेगी वह बपई से? बपई ने तो एक ठीकेदार से उसे बेचने का राजीनामा कर लिया है। जैसे वह कोई सामान हो, धान, चावल, गेहूं, गाय गोरू की तरह। वह बिक जायेगी पर उसके बपई को नहीं मालूम कि लछमिनिया बिकने वाली सामान नहीं, वह कोई कमोडिटी नहीं है, जिसे बेच दिया जाये। वह उस खतरे से भी लड़ती है और सफल होती है। ठीकेदार की कार दिन दहाड़े जला दी जाती है, लछमिनिया का बपई भी उस दिन गॉव में होता तो मारा जाता, गॉव की स्वस्फूर्त उŸोजना में उसकी जान चली जाती, ठीकेदार जान बचाकर भागा नहीं तो जाने क्या होता, ठीकेदार की अकूत संपदा उसे जीवन दान तो नहीं दे सकती थी। सो अगर वह गॉव से भागा न होता तो मारा जाता। लछमिनिया को क्या पता कि उसका बपई भी उसके लिए खतरा बन जायेगा और उसका सौदा ठीकेदार से कर लेगा। लछमिनिया का बपई हालांकि था तो आदिवासी ही जो सामान्यतया बाजारू नहीं हुआ करते वह ठीकेदार के प्रलोभन में बाजारू बन गया और अपनी बिटिया का ही बेचने के लिए राजीनामा कर लिया। उसे ठीकेदार ने सपना दिखाया था कि उसे वह अपने क्रशर का पार्टनर बना देगा जहां वह मजूरी करता था। पार्टनर बन जाने की लालच ने लछमिनिया के बपई को बाजरू बना दिया और उसने अपनी बिटिया को बेच देने का राजीनामा ठेकेदार से कर लिया। तो खतरे ऐसे होते हैं, खतरे मॉ, बाप, भाई, बहन, बहनोई, मामा किसी के भी जरिए आ सकते हैं। बपई की तरफ का खतरा लछमिनिया के लिए पूंजी के खेल वाला था, कौन है जो धन दौलत वाला नहीं बनना चाहता। पर लछमिनिया तो स्थितिप्रज्ञ होकर बपई की कुटिल योजना से टकरा जाती है। ठीकेदार भाग जाता है, उसकी कार जला दी जाती है। लछमिनिया के गॉव के लिए ही नहीं थाने के लिए भी यह घटना करवट बदल लेती है। थानेदार व ठीकेदार आदि तो वैसे भी पूंजीतंत्र के रिश्तों में बंधे होते हैं। स्थानीय थाने का दारोगा जो पदेन अर्थपिपाशु था उसे ठीकेदार की पूंजी ने मोह लिया फिर तो दारोगा ने ठीकेदार की कार जलाने और गॉव में झगड़ा फसाद करने के जुर्म में गॉव के कुछ अन्य युवाओं के साथ लछमिमिया के पति को गिरफ्तार कर लिया। लछमिनिया जानती थी कि दारोगा कि यही सीमा है, उसके पति को गिरफ्तर करने के अलावा वह कर भी क्या सकता है पर दारोगा को नहीं पता कि लछमिनिया का गॉव का जन मन क्या कर सकता है?
लछमिनिया व उसके पति को को पूरा गॉव भली भांति जानता है। गॉव के लड़के उन दोनों के लिए मरमिटने के लिए तैयार रहते हैं। लड़कों को बुरा लगा कि लछमिनिया के बपई ने लछमिनिया को बेचने का ठीकेदार से राजीनामा कर लिया है सो गॉव के नौजवान लड़कों ने गुस्से में आकर स्वस्फूर्त ढंग से ठीकेदार की कार जला दिया और उसी दिन थाना भी घेर लिया। उन्हें नहीं पता था कि थाना घेरना अन्याय के खिलाफ विरोध प्रदर्शन है या और कुछ। दारोगा थाना घिरा देख कर सहम गया उसके पास घेराव का दमन करने के तरीके नहीं थे, वह मजबूर था, अदालत ने लछमिनिया के पति की गिरफ्तारी के बारे में थाने से रिपोर्ट भी मॉग लिया था। लक्षमिनिया के पति की मॉ से जंगल विभाग के रेंजर की करीबी पहचान थी। रेंजर कानूनी दॉव पेंचों के अनुसार लछमिनिया के पति को गिरफ्तार होते ही अदालत चला गया था। अदालत ने थाने से रिपोर्ट मॉग लिया था। गॉव से गवाह भी नहीं मिलते। सो थानेदार ने लछमिनिया के पति को थाने से ही छोड़ दिया, कौन बवाल में पड़े, अदालत किसी को नहीं छोड़ती। तो यही कहानी है ‘ढूह वाली लछमिनिया’ उपन्यास की। इस कहानी में लछमिनियिा की जिन्दगी से जुड़ी चुनौतियां है तो गॉव जवार से जुड़ी चुनौतियां भी हैं। लछमिनिया जंगली गॉव की रहने वाली है जंगल के गॉव यानि कई बार के विस्थापन के शिकार गॉव। लछमिनिया का गॉव भी कई बार के विस्थापन के बाद बसा है पर उसे हाल ही में उजाड़ा जाना है, नोटिसें दी जा चुकी हैं। उपन्यास इसी आखिरी बार के विस्थापन के लिए दी जा चुकी नोटिस एवं विस्थापन कार्यवाहियों के विरोध के स्तर पर समाप्त हो जाता है।
होता यह है कि जिस कंपनी को लछमिनिया के गॉव की जमीन सरकार द्वारा आवंटित किया गया है उक्त कंपनी आवंटित जमीन पर कब्जा लेना चाहती है दूसरी तरफ गॉव वाले हैं कि वे किसी भी हाल में उजड़ना नहीं चाहते सो वे प्रतिकार में उठ खड़े होते हैं। जैसा कि मालूम है कि सरकार और प्रशासन तो एक रेखीय दमनात्मक सŸाा प्रबंधन पर पुलिस बल के सहयोग से चलने का अभ्यासी हुआ करती है सो वहां पुलिस बल दमन पर उतर जाता है... फिर वही हजारों साल की पुलिस परंपरा, मारपीट, यातना, दमन और गिरफ्तारियां.... गॉव के नौजवानों के साथ गॉव की कुदरती नेत्री लक्षमिनिया को गिरफ्तार कर लिया जाता है, वह पाथरटोला वालों के साथ जेल चली जाती है.... वह निश्चिंत है.
‘का फरक है जेहल अउर ईहां में? ईहां से तो जेलवय ठीक है, न मार का डर, न चोरी चमारी का डर, खाओ अउर सूतो’
लछमिनिया पाथर टोला गॉव के सर्वतोमुखी विकास के लिए एक नायिका की भूमिका निभाती है जो भीखू काका की जमीन में बोई धान की फसल को दबंग शंकर गवहां व उनके पुत्रों को ले जाने से रोकवा देती है। गॉव में होने वाली अर्थहीन रैलियों का प्रतिरोध करती है और प्रतिशोध में फसाये गये अपने प्रेमी/पति को थाने का घेराव करके छुड़वा लेती है। इतना ही नहीं वह खुद को भी अपने बाप के साजिशों से बचा ले जाती है। इतना ही नहीं वह अपने गॉव के विस्थापन के प्रतिरोध में गॉव वालों के साथ जेल जाती है।
उपन्यास में आये शब्द चित्रों को देखें...
‘चरिŸार लड़कियों को जानता है, यदि मजबूरी न हो तो वे किसी को भी सभ्य बनाकर ऐसा संस्कारित कर दें कि वे जीवन भर नाम न लें कि लड़कियां ऐसी होती हैं जिनकी देह पर बाजार का अर्थ लिखा जा सकता है’
आखिर बाजार ने किसे नहीं छला है? अपसंस्कृति भी तो बाजार का ही एक खेल है। आज के जटिल समय में जंगल का आदिवासी विकास की धारा से कोसों दूर है। उनमें जनतांत्रिक प्रतिरोध की क्षमता का भी विकास नहीं हो पाया है। सोनभद्र जिले के आदिवासियों के विस्थापन पर केन्द्रित प्रस्तुत उपन्यास ‘ढूहवाली लछमिनिया’ गिरिवासियों के दुख दर्द का कालजयी दस्तावेज हैै। अपनी भाषा में उपन्यास के पात्र अपनी स्थितियों, परिस्थितियों का एहसास कराते हैं जिससे संवाद जीवंत हो जाता है। उपन्यास की भाषिक जीवंतता उल्लेखनीय है। अपेक्षा है कि प्रस्तुत उपन्यास पाठकांे का घ्यान आकर्षित करने में सफल होगा।
अन्त में उपन्यास में आये कुछ संवादों, प्रतिसंवादों का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा।
‘पर शंकर यादव अपने घर लौटने के बाद अपने में डूब गया.. ज़माना बदल गया है, जंगल जाग रहा है पहले वाला नहीं कि सोया हुआ था। सरकारें भी अब पहले वाली नहीं हैं, गरीब गुरबों की सरकार प्रदेश में काबिज है, गरीबों की सुरक्षा के बाबत कानून बन गये हैं। थाना हो या कचहरी अब कहीं भी गॉधी टोपी वाले नहीं दिखते, ठाकुर, बाभन जैसे ज़मीनदार अपनी गुफाओं में बैठे हैं, करंे भी तो क्या?’ पृ...20
‘चुप रह छोटकू, तूं बड़बड़ करता रहता है, तूं का जानेगा कायदा, कानून, अब तो पुलिस पेड़ों अउर झाड़ियों पर भी मुकदमा कर देती है’ पृ..21
‘समझेगा का? यही कि चिड़िया जाल में, जाल खींचो अउर पकड़ लो’ पृ..38
‘का खाली, का भरा, खाली ही ठीक है, पहिले मॉग भरो फिर पेट, आया था एक लंगूर’ पृ...47
‘देख महटर, हम तोहरे पर इलजाम नाहीं लगा रहे, खाली हम अपने को बचाय रहे हैं,नाहीं बचायेंगे तो...मन तो भर जायेगा जो खाली खाली है, पर मनवै तो नाहीं भरेगा नऽ, पेटवो तऽ भर जायेगा’ पृ...51
‘लछमिनिया ऐसी नदी नहीं जिसे बांधा जा सके या पुल ही बनाया जा सके’ पृ...57
‘गॉव में जबसे चिमनियां घुसी हैं, न जाने कितने किसिम के धुंआ भी घुसे हैं’ पृ..61
‘नींद में केवल नींद ही नहीं थी, उसमें पीड़ित लड़की थी, उसकी बेबस छटपटाहट थी,खूनी पंजे थे। लड़की छटपटा तथा चीख रही थी, चीखें निकलतीं जो कमरे की दीवारों, छाजन से टकराकर बिस्तरे पर भहरा जातीं, फिर पसीना पसीना हो जातीं। खूनी पंजे किसी उत्सव में डूबे हुए देह का मनोरम चूमते चाटते। पृ...76
‘संघरस तो मरदों का काम है, एमें जनाना का करेंगी? पृ...81
‘वैसे गॉवों में कागजों की पहुंच बहुत कम होती है, और कानून तो कागजों पर ही उछलता कूदता है।’ पृ...87
‘टोले मं जनतंत्र की आग धधक रही थी’ पृ..90
‘उस दौर के अधिकारी भी खूब थे, कानून की सजी संवरी जीभ वाले, पुलिस के पास तो बारूदी जुबान थी ही।’ पृ..92
‘बाल, बुतरू भी नौकरों से जनमवाते हैं का अइया?’ पृ..93
‘इस सभ्यता ने तो यही सिखाया है कि हर चीज बेचे जाने योग्य है।’ पृ..101
‘अरे! मरदवा तऽ सभै हरामी होते हैं।’ पृ...127
‘लछमिनिया तूं घूंघट काढ़कर घर में बैठी है, निकल बाहर, हल्ला कर, चिल्ला जोर जोर से, कोई तो सुनेगा, कोई तो चलेगा तेरे साथ’ पृ...136
‘भगाई को राजीनामा बोलता है, एके कानून बचायेगा, जा कानून के संगे खा, पी, अउर हग, मूत। रहेगा कहां रे! पृ...139
समीक्ष्य कृति... ढूह वाली लछमिनिया
रचनाकार.. रामनाथ शिवेन्द्र
पाठ...जुलाई...2017
ज्योतिपर्व मीडिया एण्ड पब्लिकेशन
99,ज्ञानखण्ड-3, इन्दिरा पुरम्
गजियाबाद-201012 मूल्य..299.00
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'''बदलते मानकों का आइना ‘अन्तर्गाथा’'''
[[File:Antargatha jpg.jpg|thumb|बदलते मानकों का आइना ‘अन्तर्गाथा’]]
अमरनाथ अजेय
सृष्टि में जैसे जैसे बदलाव हो रहे हैं वैसे ही मानव सभ्यता, संस्कृति व सामाजिक संरचना में भी दिनों दिन बदलाव होते दिख रहे हैं। मानव मूल्य व मान्यताएं तथा सिद्धान्त जो मानव निर्मित क्रियाकलाप हैं, वे भी सुविधाओं की परिधि में अपनी जमीन छोड़ कर भिन्न भिन्न आडबरों में रूपान्ताित होते जा रहे हैं।
श्री रामनाथ शिवेन्द्र का उपन्यास ‘अन्तर्गाथा’ कुछ इन्हीं विसंगतियों पर प्रहार करता हुआ कथा का आकार लेता है। आदमी, आदमी न होकर मात्र अपनी परर्छाइं हो गया है। प्रस्तुत उपन्यास में कथाकार, कवि, ठेकेदार, नेता जैसे कई चरित्रों का पोस्टमार्टम किया गया है। विमर्श की दृष्टि से स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, और बहुत से अन्य सभ्यतागत विमर्शों के साथ साथ मानव जीवन में घटित होने वाले बिडम्बनाओं का विश्लेषण किया गया है, जो कथित सभ्य समाज से अन्तर्गुम्भित हैं।
कथा प्रारंभ होती है प्रवासीनाथ जी से जो एक चर्चित उपन्यासकार एवं विश्वविद्यालय के प्रवक्ता है ंतथा सुशीला और अमरेन्दर से, जो उनके निर्देशन में शोध कार्य कर रहे हैं। प्रवासीनाथ सुशीला से नाटकीय ढंग से शारीरिक संबध बना लेते हैं, यही नहीं शारीरिक संबध बन जाने के बाद उन्हें लगता है कि सुशीला उनके प्रस्तावित उपन्यास की पाण्डुलिपि है। प्रवासीनाथ, सुशीला तथा अमरेन्दर के अलावा जो दूसरे चरित्र हैं उनमें एल.आर., कवि विलोचन, जगेशर, प्रधानाचार्या, बंगाली बाबू की बिटिया, जद्दो भाई, बाहुबली विधायक, सुशाीला के चाचा, सांसद तथा सुदर्शन जी आदि। इन्हीं चरित्रों के क्रियाकलापों के विवरणों व विश्लेषणों के द्वारा अन्तर्गाथा की औपन्यासिक जमीन तैयार की गई है। आई.ए.एस. के समकक्ष अधिकारी की बिटिया सुशीला इन्हीं चरित्रों के विभिन्न प्रसंगों पर केन्दित एक फिल्म भी बनाती है।
वैसे प्रवासीनाथ के लिए पप्पू चाय के बैठकबाज चरित्रों का कोई मतलब नहीं होता पर सुशीला उहीं चरित्रों का मूल्य स्थापित करने के लिए अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर देती है जो उपन्यास के केन्द्रीय विषय बन जाते हैं। प्रवासीनाथ के लिए वामपंथ या उसकी अवधारणाएं उतना महत्वपूर्ण नहीं हैं जितना कि एल.आर. तथा जगेशर के लिए हैं। जबकि जगेशर तो प्रवासीनाथ की वामधारा की चेतना से ही प्रभावित होकर चारू मजूमदार के संगठन के साथ जुड़ा था पर उस रास्ते के अन्तर्विरोधों से दुखी होकर बनारस लौट आया था। यही हाल एल.आर. का भी था। वामउग्रवाद के अन्तर्विरोधों का शिकार होने के बाद उसने भी संगठन छोड़ दिया था। जगेशर ने बनारस में दूध बेचने का रोजगार डाल लेने के बाद खुद पान की गोमटी खोल लिया था पर एल.आर. बिना काम के था, खालीपन मिटाने के लिए वामपंथी धारा की एक पत्रिका निकालता था। वह कामरेडों को दो खानों में बांटता था, चुनाव लड़ने वालों को मठी कामरेड मानता तथा चुनाव का विरोध करने वालों को हठी कामरेड। चरित्रों की विभिन्नताओं के कारण पप्पू चाय की दुकान के बैठकबाजों का जुड़ाव बना रहता है।
प्रवासीनाथ की लेखकीय काम के बाबत अपनी प्रस्थापनायें हैं,..तरीके हैं ...
‘‘प्रवासीनाथ थे कि बिना सुरा सुन्दरी के न कुछ लिख पाते थे न किसी का कोई काम करा पाते थे। वे इसे लिखने का रोग मानते थे। सुरा, सुन्दरी से बचने के लिए जिन लोगों ने कुछ न लिखने की कसम खा रखी है, उन्हें वे बहुत अच्छा मानते तथा खुद को बुरा।’’ अपने खास मित्रों से वे सगर्व कहते भी..
‘‘कल्पनाओं के सहारे शब्दों एवं संवेदनाओं से निरंतर सहवास करते रहने से लेखक का मनोरोगी हो जाना स्वाभाविक है’’
साहित्य जगत में प्रवासीनाथ का आतंक अमेरिकी तर्ज पर है, अपनी अपेक्षाओं की चीजों को हासिल कर लेना और दूसरों को देने के नाम पर ऑखें घुरेरना। उपन्यास में विभिन्न कथापात्रों के माध्यम से लेखकीय समाज की पड़ताल करते हुए राजनीतिक विचारधाराओं में व्याप्त विद्रूपताओं व बिडंबनाओं की समीक्षा अद्भुत हैं। अधिकांश पात्र एकल नहीं हैं, उनके साथ कोई न कोई महिला है..एल.आर. के साथ उसकी नर्स मित्र व बंगाली बाबू की बिटिया, कवि विलोचन के साथ एक कवियत्री, जद्दोभाई के साथ उनकी पत्नी हैं तो हनुमान भक्त पाण्डेय के साथ विदेशी लड़की, प्रवासीनाथ के साथ उनकी पत्नी पूसी हैं। प्रवासीनाथ तो प्रवासीनाथ हैं उनके साथ सुशीला भी जुड़ी हुई है। लहा, पटा कर किसी कवियत्री के कारण कवि विलोचन को कविसम्मेलनों में जहां केवल पांच सौ रुपये मिला करते थे तो महिला कवियत्री के साथ होने पर उन्हें पांच हजार मिलने लगे थे। प्रस्तुत उपन्यास वामपंथ में व्याप्त हताशा, निराशा और उसके कारण संगठन में उपजे भेदों, उपभेदों तथा विचारों में बदलते प्रतिमानों का आइना है। उपन्यास में एल.आर. एक ऐसा पात्र है जो वामपंथ त्याग कर समाजवादी हो जाता है, कारण होता है विश्वविद्यालय में होने वाले चुनाव के दौरान एक भाषण, उसे एक समाजवादी नेता संबोधित कर रहा था, एल.आर. कामरेडों के साथ उस नेता के लिए मंच के पास ही ‘गो बैक’, ‘गो बैक’ का नारा लगा रहा था..समाजवादी नेता ने सुन लिया कि कुछ कामरेड लड़के उसका विरोध कर रहे हैं, फिर तो उसने मंच से ललकारा...
‘‘कहां जाऊं गुरू? यहीं पैदा हुआ, यही पला, बढ़ा और पढ़ा लिखा। मेरी सभा का विरोध न करो, सभी को सुनना सीखो, रही लड़ने की बात तो एक एक करके आओ, फरिया लो।’’ फिर तो समाजवादी नेता मंच से डांक कर जमीन पर आ गया और एल.आर. को पकड़ लिया। समाजवादी नेता ने जांघिया छोड़ कर सारे कपड़े उतार दिये, एल.आर. सन्न और सुन्न.. समाजवादी नेता ने एल.आर. को जबरन मंच पर बिठा लिया और उसे आमंत्रित किया कि वह बोले.. विरोध बोल कर सामने करो, आड़े नहीं। इस घटना ने एल.आर. को बदल दिया और उसने सयुस की सदस्यता ले ली। उपन्यास की भाषा की बात करें तो पूरा उपन्यास काव्यमय है। एक तरफ प्रवासीनाथ हैं तो दूसरी तरफ उनका भाई ब्लाकप्रमुख है जो तीन दलितों को गोली मार देता है और बाद में तीन तिकड़म करके उसी पारटी के टिकट पर चुनाव लड़ कर विधायक बन जाता है। मुकदमे से प्रवासीनाथ प्रधानाचार्या से जुगाड़ लगा कर बरी हो जाते हैं. कथा कहन में बनारसी बोली का ठाठ अद्भुत है..
‘‘थाने गये थे का गुरू? का हुआ?/ होगा क्या, सौ रुपये में सौदा पटा/महिनवारी/ हॉ/बंबई जा रहे हो न?/नहीं, जाने का मन था पर अब नहीं जाऊंगा/ काहे?’’ कुछ वाक्य तो बहुत ही अर्थपूर्ण हैं..‘‘यार! यह धन पशु जद्दो भाई तो अन्तःमन से कामरेड है’/ ‘का गुरू कब से जेबा में गुड़ लेके चलय लगला?’ जेल और कचहरी तो मर्दों के लिए ही होती है’/‘हड़ताल, घेराव, प्रदर्शन तो पूंजीवाद के गुप्तांग हैं’’
बनारस में स्थित पप्पू चाय की दुकान की उपन्यास में केन्द्रीय भूमिका है। उपन्यास के सारे पात्र उस दुकान से गुंथे हुए हैं। वहां पर देश की संपूर्ण राजनीतिक गतिविधियों का पोस्टमार्टम होता रहता है, एक अजब तरह की अन्त हीन बहस, पर निर्णायक कभी नहीं। कभी तो देश में राजनीतिक रूप से वैसा ही होता जो पप्पू की दुकान में तय होता। दुकान में अमरेन्दर और सुशीला का प्रवासीनाथ द्वारा अपना उल्लू सीधा करने की बातें हों या बंगाली बाबू की बिटिया को लेकर बंबई भाग जाने की झूठी घटना हो जिस पर प्रवासीनाथ का संस्मरण छपा हो, सभी बातों को लेकर मुहल्ला गर्म हो जाता...उपन्यास में एक कथा चित्र है...
‘एक आदमी रिक्से पर कहीं जा रहा था, गंतव्य पर पहुचकर रिक्से से उतर गया, उसने रिक्से का किराया चुकता किया, रिक्से वाले को किराया कम लगा, उसने एतराज किया, बाकी किराया उसने मांगा। गोया झंझट बढ़ गई, रिक्से वाले ने सांस्कृतिक बयान दिया..
‘गरीब हंू, मार लीजिए, कोई दूसरा होता तो मारते क्या? यात्री ने उसे दुबारा झापड़ मारा, उसने भी सांस्कृतिक बयान दिया...साले! पन्द्रह साल से कुबेर (धन के देवता) को खोज रहा हूं, मिल जाता नऽ , रामकसम पटक पटक कर उसे मारता.. पर मिलता ही नहीं, मिलते तो गरीब हैं फिर किसे मारूं? इसी आशय की कविता थी कवि विलोचन की, गरीब, दलित नहीं मारा जायेगा फिर कौन मारा जायेगा? इसका समाधान न तो जनतंत्र में है और न तो तानाशाही में...क्या ऐसी कोई हुकूमत नहीं जिसमें उसका समाधान हो? एक सवाल...
जद्दो भाई व उनकी ठकुराइन की बातें देखें...
‘रहस्यमय ढंग से ठकुराइन टोंकती...अपने हिस्से का...
ठकुराइन व्यंग्य रूपक गढ़तीं.. कहां से कैसे आपका हिस्सा? आप कहते हैं हमारे देश में गरीबी है... लोग खाये बिना मर रहे हैं... उस पर आप का हिस्सा, यह हिस्सा क्या है?
जद्दो भाई बोलते... ‘‘यार ठकुराइन! तुम तो मार्क्स की बिटिया जैसी जान पड़ती हो, देखो, इस रूप को बनाये रखो, कहीं लेनिन या माओ का बेटा बन गई तो...यह तुम्हारा जद्दो आग में जल जायेगा।’’
नुक्कड़ नाटक के द्वारा हिन्दू मुस्लिम दंगा फैलाकर उसका चुनाव में चाहे राजनीतिक लाभ लेने की बात हो या इच्छाधारी प्रेत की बात हो जो सात समुन्दर पार एक सफेद महल में बसता हो इन कथाक्रमों को रूपकों के द्वारा समय की विसंगतियों पर प्रहार करने का तरीका रामनाथ शिवेन्द्र को एक अलग पहिचान देता है। दलित बस्ती जलाये जाने के विरोध में जद्दो भाई द्वारा किया जाने वाला प्रयास फिर उनकी गिरफ्तारी तथा उस विरोध के द्वारा पप्पू चाय की दुकान के बैठक बाजों को एक साथ जोड़ लेने का प्रसंग भी उपन्यास की गरिमा बढ़ाने वाला है। एल.आर.,जद्दो भाई तथा जगेशर के अनगढ़ चरित्रों का उपन्यास में बहुत ही आकर्षक संयोजन है, सुशीला की तरह। सुशीला है कि वह अपने लिए नहीं जीती, ऐसे चरित्रों को गढ़ने में उपन्यासकार की महारथ दिखती है।
सुशीला अपने गुरुभाई अमरेन्दर के साथ बंबई चली जाती है, उसका मधुर जुड़ाव एक नामी फिल्मी गीतकार से है। वहां वह एक फिल्म बनाती है जिसकी चर्चा जोरों पर है खासकर बनारस में कि वह फिल्म बनारस के अस्सी पर स्थित पप्पू चाय की दुकान के बैठकबाजों पर केन्द्रित है। अचानक एक दिन गीतकार को सुशीला पर सन्देह हो जाता है कि उसका संबध फिल्म के नौजवान प्रोड्यूसर से है, वह उसके कमरे में एक दिन देख भी लेता है। गीतकार तो गीतकार उसने आत्महत्या कर लिया। इसके बाद सुशीला के जीवन में आश्चर्यजनक बदलाव आ जाता है। वह बंबई की सारी संपŸिा अमरेन्दर के नाम से स्थानांतरित करके बनारस चली आती है। बनारस यानि उसके गांव का पड़ोसी शहर। वह उसी गांव में बसने और सामाजिक काम करने का संकल्प ले लेती है जिस गांव का नाम तक उसके पिता के.नाथ कभी किसी को नहीं बताया करते थे। यहां तक कि वे अपने बड़े भाई का नाम भी किसी का नहीं बताते थे। उन्हें दलित कहलाये जाने का डर बना रहता था जबकि सुशीला दलित होने के हीनताबोध के डर से बाहर है। सुशीला अपने पिता का विलोम थी, संभव है बढ़ती दलित चेतना के कारण ऐसा हुआ हो। उपन्यास में दलित चेतना के उत्कर्ष के प्रभावकारी विवरण हैं तो जन संघर्ष के भी हैं। कुल मिला कर उपन्यास में अमरेन्दर तथा सुशीला के प्रेम की शुचितापूर्ण गाथा है तो प्रवासीनाथ के वैयक्तिक प्रतिभा के छद्म के उत्कर्ष का भी। सुशीला द्वारा अपना जीवन गांव के विकास के लिए समर्पित कर देना तथा अपनी जड़ों की तरफ लौटना किसी चुनौती की तरह है जैसा कि अमूमन नहीं हुआ करता। गांव में उसे दलित जन ही नहीं सवर्ण भी प्यार करने लगते हैं वह अपने गांव में स्कूल तथा अस्पताल खुलवाती है तथा गांव से बाहर पढ़ने वाले छात्रों को स्कालरशिप भी देती है। अपनी कार्ययोजना को सुचारु रूप से चलाने के लिए वह जद्दो भाई, एल.आर. तथा बंगाली बाबू की बिटिया को भी जोड़ लेती है। उसके स्कूल के प्रबंधन को लेकर क्षेत्र के बाहुबली विधायक से भी उसे पंगा लेना पड़ता है। दरअसल बाहुबली नहीं चाहता कि सुशीला दलितों व सवर्णों को एक साथ जोड़ कर चले तथा विद्यालय चलाये। पर सुशीला तो सुशीला वह बाहुबली से पंगा ले ले लेती है। एक घटना के दौरान सुशीला के स्कूल के छात्र बाहुबली का विद्यालय परिसर में ही कुटम्मस कर देते हैं फिर तो पुलिस, सरकारी दमन। विधायक सŸाापक्ष का होता है पर सुशीला उससे नहीं डरती, वह तनेन खड़ी है। प्रशासन विद्यालय बन्द करा देता है, परिसर में पुलिस का पहरा लग जाता है सुशीला इस दौरान एस.पी. से भी भिड़ जाती है। मुकदमे का अन्तहीन सिलसिला पर हाई कोर्ट का आदेश सुशीला के पक्ष में आ जाता है, विद्यालय फिर से शुरू हो जाता है। मरने जीने की परवाह किये बगैर सुशीला ने बाहुबली के खिलाफ चुनाव लड़ने का निश्चय किया। सुशीला द्वारा बाहुबली के खिलाफ चुनाव लड़ने का निर्णय लेने के बाद उपन्यास समाप्त हो जाता है। आगे क्या हो सकता है? इसका निर्णय पाठकों पर शिवेन्द्र जी छोड़ देते हैं। ऐसा करना उपन्यासकार की लेखकीय कुशलता है। पाठक भी तो सोचें... आशा है शिवेन्द्र जी का प्रस्तुत उपन्यास भाषा, शैली तथा कथा के प्रस्तुतीकरण की काव्यात्मकता प्रभावित करेगी उनके अन्य उपन्यासों की तरह।
उपन्यास- अन्तर्गाथा
रचनाकार- रामनाथ शिवेन्द्र
प्रकाशक- नेहा प्रकाशन, (शिल्पायन)
उलधनपुर, नवीन शाहदरा दिल्ली, 110032
दूरभाष-9899486788
मूल्य..450.00
प्रकाशित......कथाक्रम जनवरी-मार्च 2017 पृ...99-101
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'''अनसुलझे सवालों की पड़ताल करता
उपन्यास ‘कनफेशन’'''
अमरनाथ ‘अजेय’
[[File:Confession कन्फेशन --.jpg|thumb|हिंदी उपन्यास]]
संबंधों के बीच न जाने कितने सवाल हैं, जो अब तक सुलझाए नहीं जा सके हैं, जिनसे टकराते हुए व्यक्ति की आत्मा चटक-चटक कर विदीर्ण हो रही है जिसके लिए कोई मरहम कारगर नहीं दीखता। संबंध चटकने की टकराहटें इतनी तेज होती हैं कि उसकी आवाजें संवेदनशील साहित्यकार के लिए सर्जना का विषय-वस्तु बन जाती हैं। कविता, कहानी, लेख, संस्मरण और उपन्यास की शक्ल मंे ढलकर देश, काल व समाज के लिए अमूल्य कृति बन जाती हैं। सामाजिक संरचना में भूमि, संपŸिा तथा नारी अस्मिता के सवाल प्रमुख रूप से मानवीय संबधों को चालित करतेे हैं। यह सच है कि नर, नारी के संबंधों की सुकुमार प्रवृŸिायॉ ही मानव सभ्यता को गतिशील करते हुए ऊॅचाई तक ले जाती हैं।
चर्चित लेखक रामनाथ शिवेन्द्र का उपन्यास ‘‘कनफेशन’’ नर, नारी के मानवीय संबंधों की विसंगतियों के धरातल पर बुना गया उनका नया उपन्यास है। नारी को उपभोग की वस्तु मान कर उसके साथ बनाए जाने वाले संबंधों की परिणति ‘एड्स’ जैसे रोग तक जा पहुॅचती है। यह कितना भयानक होता है इसका अनुमान किसे नहीं। आखिर देह व्यापार का मामला आज केी विकसित दुनिया क्यों नहीं खतम कर पा रही है अचरज होता है। देह को भी व्यापार की वस्तु बना दिया गया है। मन, तथा वुद्धि के बेचे जाने का तो बाजार ह हीै, दोनों बेचे जा रहे है बाजार में, दोनों के कानूनी तथा गैर कानूनी बाजार हैं। बिक दोनों रहे है तन भी मन भी।
देश के पूर्वोŸार मंे स्थित उ0प्र0 का सोनभद्र जिला पहाड़ी और आदिवासी बाहुल्य है। इन आदिवासियों के सुख-चैन मे सेंध लगाते हुए कल-कारखानंे इन्हें किसी लायक नहीं छोड़ रहे हैं। इनकी पुस्तैनी जल, जंगल और जमीन पर से इनके विस्थापन का दंश इनके अस्तित्व को समाप्त करता जा रहा है क्योंकि, इन्हें इनसे मिलता है, चिमनियों का काला धुआं, कारखानों से निकलता विषाक्त जल जिससे वे असमय ही मृत्यु के मुह मंे समा जा रहे हैं। प्रदूषण की मार सहते हुए ये आदिवासी आर्थिक तंगी का भी सामना कर रहे हैं। भुखमरी की समस्या के समाधान के लिए परदे के अन्दर-अन्दर इनकी बहन-बेटियां देह बेचकर अपने परिवार की भुखमरी की समस्या का समाधान कर रही हैं, जिसकी जानकारी प्रकाश मे आ रही है। शिवेन्द्र का उपन्यास ‘‘कनफेशन’’ देह-व्यापार और उससे उपजी विसंगतियों का विस्तृत पड़ताल करता हैं, जो कथानक व शिल्प के स्तर पर अपनी तरह का नया है। देह-व्यापार के दलदल में फंसे एड्स रोगियों की समस्या व उसके समाधान के लिए एक संस्था के माध्यम से एक युवती के सर्वेक्षण की रिपोर्ट अत्यंत रोचक व चौकाने वाली है।
एक एन.ज.ी.ओ. से जुड़ी शशि जिसकी उपन्यास में प्रमुख भूमिका है उसका पति खुद भी देह-कौतुक में फंसकर एड्स का मरीज हो गया है। वह अपनी पत्नी पर देह के विविध खेलों का प्रतिभागी होने के लिए घृणित दबाब डालता है जिसे वह निर्ममतापूर्वक ठुकरा देती है। और आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए एक संस्था में कार्य करने लगती है। शशि के अलावा उपन्यास में कई महिला पात्र हैं, जो अपने अस्तित्व के लिए जद्दोजहद करती हुई औपन्यासिक कृति ‘कन्फेशन’ की औपन्यासिक कथा की ताकत बनती हैं। आज जहां, सामाजिक समानता के लिए राजनीतिक क्षेत्र मंे स्त्री सशक्तिकरण पर विशेष बल दिया जा रहा है, वहीं साहित्य के क्षेत्र मंे भी स्त्री-विमर्श के नाम पर स्त्री पात्रों को कहानियों व उपन्यासों में भी इन्हें अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष करते हुए दिखाया जा रहा है। समीक्ष्य उपन्यास में पुरूष पात्रों की संख्या नगण्य है पहला पुरुष पात्र तो उपन्यासकार खुद है और दूसरा एक वी.डी.ओ. है कुछ जो दूसरे पुरुष पात्र हैं वे तो केवल पूरक हैं फिर भी उपन्यास नारी विषयक उपन्यासों से अलग है कथ्य, तथ्य तथा भाषा के स्तर पर।
रामनाथ ‘शिवेन्द’्र के उपन्यास ‘कनफेशन’ की स्त्री पात्र घर से बाहर निकलकर विभिन्न स्तर पर संघर्ष कर रहीं हैं। शशि के अतिरिक्त एक और पात्र है लाैंगी, जो घर के खाना- खर्चे का भार स्वयं अपने सिर पर उठाती है। उसका पिता बीमार हैं घर में कमाने वाला कोई नहीं है। पेट खर्ची के लिए उसकी अइया (मॉ) उसे देह व्यापार में झोंक देती हैं। एक दिन वह प्रधान से पैसे लेकर उसे उसके यहां भेजती हैं, जहां प्रधान उसकी देह नोचता खसोटता है। वह अपनी अइया से इसकी शिकायत करती है परन्तु अइया नहीं सुनती, उसे ही
भला बुरा कहती है। वह थाने भी जाती है पर थाना उसे ही रपट बना देता है। लौंगी प्रधान से प्रतिशोध लेने के लिए उसे, और फिर उसके बेटे को अपना एड्स रोग बांटने की कोशिश करती है। क्योंकि उसे एड्स है वह जानती है कि एड्स देह धरे का रोग है, देह संबंध से ही फैलता है। वह परधान को एड्स में फसा देती है। एक दिन परधान मर जाता है। ऐसा भी नहीं कि वह यह धंधा करते हुए विल्कुल ही संवेदनशून्य हो गई हो। स्त्री की स्वाभाविक संवेदना उसके भी अन्दर है। साथ ही शारीरिक करतब भी। तभीं तो बी. डी. ओ. जिसकी पत्नी मर चुकी है, उसके शारीरिक व संवेदनात्मक कौतुक पर वह आकर्षित है। यहां तक कि उसे एड्स है, यह जानकर भी। इसीलिए लाैंगी भी बी.डी.ओ. से सहवास के वक्त कंडोम लगवाना नहीं भूलती। वह तो कभी की उससे शादी कर चुकी होती, परन्तु लौंगी को अपनी जिम्मेवारियां अच्छी तरह याद हैं। घर की परवरिश उसे ही करनी है! साथ ही बी. डी. ओ. का भी ख्याल रखना है कि उसे एड्स न हो जाय। उस आदिवासी बाला से बी.डी.ओ. का भी प्रेम खूब कुलांचे भर रहा है। यहां तक कि लौंगी के बीमार हो जाने पर उसे अस्पताल मे भरती करवाना व उसकी रात-दिन तिमारदारी करना साथ ही दवा-दारू में पैसे की कमी न होने देने तक बी. डी.ओ. उसका ख्याल रखाता है। उपन्यास में एक और औरत है, थाने वाली महिला के नाम से, वह थाने पर अपने पति को छुड़वाने के लिए जाती है तो, थानेदार उसे ही अपने हबस का शिकार बना लेता है फिर तो थाने वाली महिला आग बन जाती है मानो जला देगी थाना। वह थाने पर ही हंगामा कर बैठती है। वह थानेदार के निलंबन तक संघर्ष करती है। थाने वाली महिला तो उपन्यासकार को भी नहीं छोड़ती फटकारती है, अपनी मौलिक शैली में....
‘‘तूं का लिखेगा मेरे बारे में? तूं भी तो मरद जाति का है, थूथुन वाला, कहते हैं, नाक न हो तो मैला खाने वाला, तूं का जानेगा मेहरारू के बारे में कि मेहरारू का होती हैं। मेहरारू को तूं जब जैसा चाहता है वैसा गढ़ देता है कभी देवी बनाता है तो जरूरत के हिसाब से रण्डी बना देता है। देवी बना कर माला फूल चढ़ता है, तो रण्डी बना कर जोंक की तरह चूसता है, देह को बिछौना बना देता है, खुश, हुआ तो खेत बना कर जोतने कोड़ने लगता है, बेंगा डाल देता है, खेत में जब बेंगा पड़ जाता है तो कुछ न कुछ जामेगा ही। जाम जाने के बाद दूसरा बेंगा डालने के लिए उसे फिर जोत भी देता है। देखना है तो दारोगा को देख कि वह का कर रहा? फिर दारोगा को भी तूं काहे देखेगा, खुद अपने को देख ले, तोहरे मुहें में मेहरारून के बारे में विषैला लार है कि जलता हुआ लोर है। पर तोहरे पास लोर कहां से होगा? लोर तो मेहरारून के पास होता है, जो उनके दिलों को लगातार हिलोरता रहता है।’ पृ..73
इन महिलाओं के अतिरिक्त एक अन्य महिला पात्र लाजवंती भी है, जो देह की सीढी से चढकर नौकरी तक की उंचाई प्राप्त कर लेती है और अपने पिता पर चढे कर्ज को उतार देती है। देह के धंधे सड़क के किनारे होटलों व ढाबों में निरन्तर हो रहे हैं, जिसकी जानकारी एक सामाजिक कार्यकर्ता शशि को एड्स के रोगियों से मिलने के दौरान होती है। इस उपन्यास के माध्यम से उपन्यासकार ने कुछ अपनी धारणाओं व प्रस्थापनाओं को भी उकेरा हैे।
क्या पत्नी का अधिकार अपने शरीर पर भी नहीं है? वर्ण, जाति व गोत्र की तरह स्त्री स्वातंत्र्य का भी सवाल अनुत्तरित है। उच्च पदाधिकारी जनता का व्यक्ति नहीं होता, वह जनता से एक निश्चित दूरी बना कर रहता है।’
सोनभद्र में पचासों चेकडैमों के नाम पर करोड़ों रुपयों का गमन किया गया, जो जांच के दौरान उजागर हुआ था, उपन्यासकार ने इसे उपन्यास में वर्णित कर उपन्यास का वजन बढाया है। उपन्यासकार ने एक उपन्यासकार के अस्तित्व-बोध पर भी सवाल खड़ा किया है कि वह अनुत्पादक कार्यों मे अपना जीवन खपा देता है। उसे हासिल कुछ भी नहीं होता। प्रकाशक तक उसकी उपेक्षा करते हैं पाठकों की तो बात ही अलग है। सेक्स जोन के गांवों मंे जिस परिवार में देह व्यापार से जितना अधिक धन-संग्रह होता है, उस परिवार की इज्जत गांव मंे उतनी ही बढ जाती है। देहव्यापार को मर्यादा से जोड़ना आखिर कैसा सन्देश देता है? सवाल है? प्राकृतिक आपदा के चलते जब कोई किसान खेत का मालगुजारी या पनिकर नहीं दे पाता, तो उस किसान को चौदह दिनों तक तहसील की हवालात मंे किस बात की सजा काटनी होती हैं? यह सवाल उभरा है लाजवंती के बहाने। लाजवंती अमीन की डर से तहसीलदार के पास जाती है फरियाद करने के लिए कि उसके बाप को गिरफ्तार न किया जाये। उसकी फरियाद सुन व गुन लेता है तहसीलदार। उसके बाप को तहसील की हवालात में नहीं जाना पड़ता। फरियाद सुनने के एवज में तहसीलदार लाजवंती की देह से खेलता है, यह बात और है कि उसे तहसील में नौकरी भी दिलवा देता है। पर ऐसा सभी के साथ तो होता नहीं वह
तो महज संयोग का खेल था कि लाजवंती को नौकरी मिल गई नही ंतो कुछ नहीं मिलता सिवाय अपमान के। ज्ञातव्य है कि सोनभद्र के गरीब, किसान कर्ज वसूली के संकट से लगातार गुजरते रहे हैं।
उपन्यास की भाषा भी खूब खूब है... देखें....
‘नेह अगर है तो, देह नहीं झूलती। मर्द के पास लार व स्त्री के पास लोर ही तो होता है। मर्द जब चाहे तब जिस पर चाहे लार टपका दे, और औरत दुखों मे सिर्फ आंसू ही बहाती रहे।’
‘मर्द और बर्द पर जवानी का जुआ रख दीजिए और जहां चाहे तहां ले चलिये।’ ‘अनब्याही बाला को यदि बच्चा पैदा हो जाता है, और जिसकी करनी से बच्चा पैदा हुआ हो, वह व्यक्ति बच्चा लेने से या उस औरत से शादी करने से इंकार करता हो तो मां को चाहिये कि,उस बच्चे को निःसंकोच पाल-पोष कर बड़ा करे और बाप से बदला लेने के लिए उसे तैयार करे। गर्भ में या पैदा होने पर बच्चे की हत्या न करे।’
उपन्यास में एक नारी पात्र है लौंगी जो सेकेन्ड सेक्स की ‘फुकुयामा’ की अवधारणा से अधिक स्वतंत्र व संघर्षशील है। पीत पत्रकारिता को भी लेखक ने एक पात्र के माध्यम से आड़े हाथों लिया है, जो पठनीय बन पड़ा है। प्रकाशकों द्वारा लेखकों को प्रताड़ित करने की बातें भी उपन्यास के माध्यम से कही गई है। लेखक स्वयं को भी नही छोड़ता है। वह कहता है कि,
‘जैसे थानेदार महिला से बलात्कार करता है ठीक उसी तरह से एक लेखक भी महिला को जहां चाहे तहां पटक देता है उपन्यास में। लेखक भी महिला को लेकर कम दोशी नहीं।’
उपन्यासकार का मानना है कि, जाति व योनि के दोनों कटघरे पूंजीमूल्यबोध का ही प्रचार करते हैं। स्त्री-स्वातंत्र्य के प्रसंग में लेखक ने स्वीकार किया है कि, काश! स्त्री और पुरुष के रिश्ते नदी और कहू (अर्जुन का पेड़) की तरह होते। नदी न तो पेड़ का गिराती है और न ही पेड़ नदी को क्षतिग्रस्त करता है, दोनों अर्न्तलयित होते हैं एक दूसरे में ।
एक मिथक का भी प्रयोग उपन्यासकार ने बखूबी से किया है। ‘‘हां, वहीं त्रिशंकु जिसे स्वर्ग के रक्षा-कर्मियों ने स्वर्ग में घुसने नही दिया। किसी तरह वह नर्क से बाहर निकला, फिर लटक गया, स्वर्ग ओर नर्क के बीच जिसके आंसुओं, खखारों और लारों से धरती पर कर्मनाशा नदी बह निकली, किसी शोक कविता की तरह।’’
प्रभावकारी भाषा, तथा कलात्मक शिल्प के द्वारा उपन्यासकार ज्वलंत सवालों पर अपनी राय देने में पीछे मुड़कर नहीं देखता। सोनभद्र में एक ओर भूख से कराहते व बिलबिलाते लोग हैं तो दूसरी ओर तिजोरियों से खेलते लोग। नोटों के बिस्तरेां पर धनी होने के धार्मिक अनुष्ठान करते हुए।’’ घृणित दर्जे की यह आर्थिक असमानता सोनभद्र में वाम उग्रवाद के फैलाव के कारणों में से है। शशि के पति की आत्महत्या वाली घटना पर एक आदिवासी बाला की स्वाभाविक साफ बयानी यहां देखने योग्य है.....
‘‘एड्स हो गया था तो क्या हो गया। यह तो पहले गुनना चाहिये था न ! फेर आत्महत्या से रोग खतम होगा का ?लौंगी को भी तो एड्स हुआ हैे। वह तो आत्महत्या नहीं कर रही। लड़ रही है समय से....शशि के पति को भी लड़ना चाहिये था रोग से...।’’
आदिवासियों की जमीनें जहां से वे विस्थापित कर दिये गये, वहां बड़े-बड़े कल-कारखानें बना दिये गये हैं। उन कल-कारखानों में भी इन आदिवासियों को रोजगार नहीं मुहैया कराया गया, जो बड़ी त्रासदी है। लेखक ने कारखानों की चमक -दमक की दुनियां की आड़ मंे फैल रहे देह-व्यापार के इस विष-बेल को, जो बड़े फलक वर व्याप्त है, को एक छोटे से उपन्यास में करीने से कहने का करिश्माई कार्य किया है। उपन्यास के सभी चरित्र जीवन के खुरदरे रपटों को सही- सही कनफेश करने मे कहीं से कोताही नहीं करते। किसी न किसी बहाने सभी पात्र कन्फेश करते हैं चाहे लौंगी हो, लाजवंती हो, या शशि का पति हो। उपन्यासकार भी कन्फेश करता है वह अंश यहां प्रस्तुत करना आवश्यक जान पड़ता है.... देखें उक्त अंश...
‘साला उपन्यासकार बनता है। एक दारू चुआने वाली आदिवासी महिला को पकड़ लिया उपन्यास में और उसे कप्तान तक पहुंचा दिया। अक्षरों की गाड़ी पर बिठा कर, दौड़ाने लगा किसी रेसर की तरह। इतना तेज किस्मत के भरोसे वाले किसी पात्र को दौड़ाया जा सकता है भला! वह भी उपन्यास में, फिल्म की बात दूसरी है, पात्रों को चाहे जितना दौड़ा दो, एक अदना सा हीरो आठ दस आदमियों को मार गिराता है। ऐसा तो केवल फिल्म में ही चलता है पर उपन्यास में... फिल्म की रील की तरह पन्नों को फड़फड़ना ठीक नहीं, संभल कर चलना होता है। उपन्यास में तो एक कदम भी गलत उठा तो शीलभंग होना निश्चित है। किसी लड़की का शीलभंग होने तथा उपन्यास के शीलभंग होने में धागे भर का भी अंतर नहीं.. लेखन की शुचिता भी तो कोई चीज होती है नऽ।’ पृ...63
शशि का पति जो, देह के कौतुकों में फंसकर अपना जीवन वरबाद कर चुका था, और जिसे वह त्याग ही चुकी थी, वह भी अन्त में मरने से पहले एक चिट्ठी छोड़ जाता है, जिसपर शशि कहती है कि....
‘‘वे दस दिन अस्पताल में पड़े रहे, ऐसा नहीं था कि, मैं उनकी सेवा न करती,... एक चिट्ठी छोड़ गये हैं हमारे नाम, चिट्ठी क्या है, मृत्यु-शैय्या पर पड़े आदमी का कनफेशन है। एक तरह से वह चिट्ठी मृत्यु का दस्तावेज है।’’ उपन्यास में पाठकीय आकर्षण है। अस्तु यह ‘कनफेशन’ उपन्यास अत्यंत पठनीय है।
समीक्ष्य उपन्यास
उपन्यास- ‘कनफेशन’ लेखक-रामनाथ ‘शिवेन्द्र
प्रकाशक----
मनीष पब्लिकेशन
471/10, ए ब्लाक, पार्ट-प्प्
सेनिया विहार, दिल्ली
मूूल्य- रु 650
-7-
‘भूमि प्रबंधन पर जायज सवाल उठाता ‘पट्टा चरित’
पट्टा चरित
[[File:Patta charit पट्टाचरित.jpg|thumb|हिंदी उपन्यास]]
पट्टा चरित उपन्यास के बारे में कुछ कहना, न कहना दोनों बराबर है। उपन्यास खुद आपसे संवाद करेगा, संवाद ही नहीं प्रतिवाद भी करेगा तथा अपने सृजन के बारे में बाजिब बयान भी देगा तथा बताएगा कि मौजूदा शदी में भी इस उपन्यास की जरूरत क्या है? वैसे यह बता देना लेखकीय औचित्य है कि इसकी कथा आठवें दशक में ही उपन्यास का रूप धर कर ‘सहपुरवा’ उपन्यास के नाम से मेरे मित्रों के सहयोग से प्रकाशित हो चुकी थी। वह मेरा पहला औपन्यासिक प्रयास था। इसमें पात्रों के संवाद की भाषा हिन्दी तथा भोजपुरी बलिया, गोरखपुर, आजमगढ़, जौनपुर वाली नहीं थी बल्कि ठेठ बनारसी या बिजयगढ़िया थी। संवाद के अलावा सारा कुछ खड़ी बोली में था।
तो कथा पुरानी है आपात काल के आस पास की। सवाल है कि पुरानी कथा को फिर से क्यों? आठवें दशक से लेकर अब तक के गॉवों की जॉच पड़ताल कर लीजिए और एक झटके से आपात काल को फलांग कर इक्कीसवीं शताब्दी में घुस आइए फिर देखिए कि क्या गॉव बदल गये? गॉवों की संस्कृति बदल गई? और गॉव ऐसे हो गये कि बिना संकोच ‘अहा ग्राम्य’ कहा जा सके, हॉ गॉवों से पोखर गायब हो गये, पनघट गायब हो गये, आजादी मिलते ही किसिम किसिम के विस्थापित पैदा हो गये, कुछ कारखानों के निर्माण के कारण, कुछ सड़कांे, नहरों के निर्माण के कारण तो अधिकांश वन प्रबंधन की दादागिरी और वनअधिनियम की धारा 4 तथा 20 के कारण। तो गॉवों में अब जो निवसित हैं वे या तो विस्थापित हैं या ऐसे है जो शहर में कहीं खप नहीं सकते।
होमगार्ड से लेकर स्कूल के मास्टर तक, चपरासी से लेकर बड़े ओहदे तक का पदाधिकारी बना कर तन बल तथा वुष्द्वि बल वाले व्यक्ति को गॉवों से छीन लिया गया है, कोशिश की गई है और की जा रही है कि वे गॉव में रहने न पाये, उन्हें किसी भी तरह से सत्ता प्रबंधन से जोड़ लिया जाये। वही हुआ। आज के समय में गॉव में वही बचे हुए है जिनके पास जीवन जीने के लिए कहीं कोई ठौर नहीं तथा वे चौदह दिन की हवालात की योग्यता वाले हैं। इनसे गॉव तो नहीं बचेगा।
इस उपन्यास का केन्द्रीय विषय है भूमिहीन गरीबों को भूमि आवंटन। आपात काल
के दौरान कांग्रेस का यह प्रशंसनीय अभियान था जिसे बाद में किसी ने लागू
नहीं करवाया।अभियान तो ठीक था पर जो तत्कालीन सामंत थे उनके लिए यह अभियान महज राजनीतिक खेल था। प्रस्तुत उपन्यास में सवालों दर सवालों से गुंथी वही कहानी दुहराइ गई है कि आजादी के बाद कितनी आजादी मिली लोगों को, सन्दर्भ आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक या राजनीतिक किसी भी तरह का हो। एक भूमिहीन व्यक्ति गॉव में कैसे निवसे, किस तरह से रहे? रहे तो किस किस को सलाम करे यह सवाल जैसे पहले था वैसे आज भी है।
यह तो नहीं कहा जा सकता कि गॉव नहीं बदले, गॉव बदले हैं पर गरीबी का प्रतिशत जिन जिन क्षेत्रों में जैसे पहले था वैसे ही आज भी है। इसी लिए कहा जाना चाहिए कि गरीबी पूॅजीवादी सत्ता प्रबंधन का आर्थिक उत्पादन है और आज तो गरीबीे उत्पादन में वृद्धि हो चुकी है। आखिर किसे पड़ी जो जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी इस पर गुने जाहिर है कि गरीबी पूॅजीवादी सत्ता प्रबंधन की रहस्यमय आर्थिक प्रक्रिया है गरीबी रहेगी तभी तो अमीरी रहेगी। हॉ गरीबी की उग्र भूख गरीबों में पैदा न होने पाये इसके समाधान के लिए पूॅजीवादी सत्ता प्रबंधन सभी को भोजन का अधिकार, सभी को शिक्षा का अधिकार, सभी को बुनियादी आय तथा कुछ मामलों में सब्सिडी जैसी रियायतें प्रदान किया करती है जिससे सरकार की छवि लोकतांत्रिक बनी रह सके। पर इससे क्या होगा?
होगा तो तब जब यह पता लगाया जाये कि महज दस फीसदी लोग देश की समस्त कुदरती संपदा पर काबिज कैसे हैं, कौन कौन से कानून है जो उन्हें अमीर बनाते हैं। हमारे कानूनों में कहॉ कहॉ दरारे है जिनमें से इस कथा के रामभरोस जैसे लोग सभी की छाती पर कोदो दरकर उग जाया करते हैं जिनके दमन से फेकुआ, सुमिरनी, औतार, जोखू तथा बिफना को गॉव से भागने के लिए विवश होना पड़ता है। प्रस्तुत उपन्यास का यही आशय है कि हम पता लगा सकें कानूनी दरारों को जिनसे होेते हुए दमन हमारे ग्राम्य संस्कृति तथा जीवन को लील रहा है। चिमनियॉ चाहे जितनी उग जॉये पर गॉव की हरियाली तथा पनघट की मोहकता नहीं पैदा कर सकतीं। जीवन तो गॉवों में है क्योंकि वहॉ अनाज के दाने हैं, दानों पर मन के संगीत लिपे पुते हैं, उसे मन के राग संवारते हैं पोंछते है, बीनते हैं। आइए गॉव बचायें गॉव के लिए कुछ करें। आशा है प्रस्तुत उपन्यास पाठकों की कुदरती प्रतिक्रियाओं को हकदार बनेगा। इसी आशा में....
रावर्ट्सगंज,सोनभद्र 2019
रामनाथ शिवेंद्र के उपन्यास ‘‘पट्टा चरित‘‘ की समीक्षा
‘भूमि प्रबंधन पर जायज सवाल उठाता ‘पट्टा चरित’
अमरनाथ अजेय
भगत सिंह ने अपनी जेल डायरी में लिखा था कि, गोरे अंग्रेजों से भारत को आजादी तो मिल जाएगी परंतु अपने देश के काले अंग्रेजों से दलितों व शोषितो को आजादी कैसे मिलेगी, यह एक बड़ा प्रश्न है!
क्या आजादी मिलने के बाद मेहनतकश मजदूर अपनी आर्थिक हालत सुधार पाए ? क्या मजदूरों व दलितों पर एलीट वर्ग द्वारा हो रहे अत्याचार मे कोई कमी आई ? क्या सत्ता- प्रबंधन के थाने व उनकी पुलिस दलितों के पक्ष में कभी खड़ा होने की हिम्मत जुटा पाई ? क्या मजदूरों को उन्हे आवंटित पट्टो पर पुलिस उनका कब्जा दिला पाई ? ये तमाम ऐसे सवाल हैं जिनका लेखक रामनाथ शिवेंद्र का उपन्यास ‘‘पट्टा चरित ‘‘ पड़ताल करने का प्रयत्न करता है स यही नहीं इन तमाम विद्रूपताओं के समाधान के लिए भी रास्ता तैयार करता है स यह उपन्यास उनके शहपुरवा उपन्यास का संशोधित दूसरा संस्करण है जो देश में आपातकाल के दौरान ग्रामीण जीवन में घटी घटनाओं पर आधारित है स लेखक का मानना है कि आपातकाल ही नहीं उसके बाद 21 वीं शताब्दी तक में क्या गांव की संस्कृति में कोई बदलाव आया, गांव के पोखर गायब हो गए बगीचे नहीं रहे यहां तक की वही गांव में बचे हैं जो 14 दिन की हवालात की योग्यता वाले लोग हैं स इसीलिए कहा जाना चाहिए कि गरीबी पूंजीवादी सत्ता प्रबंधन का आर्थिक उत्पाद है स पूंजीवाद के लिए गरीबों का होना और गरीबों में गरीबी होना अत्यंत आवश्यक है स गांव की इस अपसंस्कृति के संरक्षण के लिए जितना कुछ अंग्रेजों ने किया आजादी के बाद भी वही कुछ हो रहा है।
ग्रामीण जीवन में अन्त्यजो पर सामंतों के अत्याचारके के विविध रूप देखे जाते हैं स खासतौर से इमरजेंसी कॉल में सरकारी महकमे और पुलिस गांव के प्रभावशाली और चालू जमींदारों के पक्ष में आकर गरीब कामगारों को अपनी आवाज उठाने पर उन्हें बिना वजह प्रताड़ित करने लगी स सहपुरवा के सामंत रामभरोस की निगाह जहां एक ओर गांव में आई नई दुल्हनों पर होती तो दूसरी ओर अपने आतंक से मजदूरों पर शासन करने की भी होती , जिसके चलते वे अपने लठैतो के बल पर घटनाओं को अंजाम देते रहते हैं स इन्हीं कारणों से गांव के चमारों को गांव से विस्थापित होना पड़ा स रामभरोस जिस मजदूर युवती को चाहते उसे अपने लठैतो के बल पर उठा ले जाते और अपने हवस का शिकार बना लेतेस जो कोई उनकी जी हजूरी नहीं करता उसके पट्टे वगैरह रद्द करवाने के लिए अपने प्रभाव का प्रयोग करते, जिससे मजदूरों में असंतोष भड़कता स सुमिरनी जैसी नवोढा को जब उसने दबोच लिया तो एक मजदूर ने इसका प्रतिरोध किया और उसके सतीत्व की रक्षा कीस इसी तरह फेकुआ के पट्टे की जमीन पर पंचायत भवन बनवाने के लिए मंत्री जी से उद्घाटन करवा कर रामभरोस ने कार्य शुरू करा दी स मजदूरों ने संगठित होकर पंचायत भवन के काम पर न जाने, एवं जोड़े गए कुछ ऊंचाई तक के दीवारों को ढहाने के लिए तैयारी कर ली,जो प्रसन्न कुमार जैसे गांव-गांव के एक युवक की प्रेरणा से हो सका।
प्रसन्न कुमार बाम उग्रवाद के प्रभाव में आकर एक अभियान के अंतर्गत मजदूरों को संगठित करता है स सन 67 के नक्सलबाड़ी आंदोलन का असर पश्चिम बंगाल से असम बिहार एवं उत्तर प्रदेश जैसे प्रदेशों में फैल गया था जिससे गांव गांव प्रसन्न कुमार जैसे युवक मजदूरों को उनके पट्टा की जमीनों पर कब्जा दिलाने का कार्य करने लगे थे स इस उपन्यास पट्टा चरित में ग्रामीण जीवन में सिसक रहे मानव मूल्यों के लिए व उसके प्रतिस्थापन के निमित्त एकता का महत्वपूर्ण सूत्र अपनाया गया है जिसे पकड़ कर विभिन्न देशों में त्वरित परिवर्तन की क्रांतियां हुई । कहा भी गया है कि भूख जब पेट से चढ़कर सिर पर सवार हो जाती है तब ऐसी क्रांतियां होती हैं । उपन्यास का केंद्रीय चरित्र प्रसन्न कुमार है जिस की चिंता खुद लेखक की चिंता है । उपन्यास में प्रसन्न कुमार कहता है- लोग देश बेचने के साथ-साथ दिमाग बेचने का काम आखिर क्यों कर रहे हैं , जबकि किसान अपना धान और गेहूं भी नहीं भेज पा रहा है । इसमें कोई न कोई तिलिस्म है जरूर !
फेकुआ के आवंटित पट्टे की जमीन में बोई गई फसल नाजायज ढंग से लावा ले जाने के बाद जब उस जमीन पर जबरन पंचायत भवन का निर्माण रामभरोस ने करवाना शुरू किया तो फेकुआ के उसे रोकने से संबंधित दरख्वास्त पर जिले के आला अफसरों ने चुप्पी साधे रखी तो गरीब ग्रामीणों को संगठित होकर उसके विरुद्ध कार्यवाही करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं बचता। आखिरकार ग्रामीणों ने पंचायत भवन ढहाकर मलबा नदी में फेंक दिया और जमीन पहले जैसी बना दिए । इस कार्रवाई के बाद पुलिस का जो तांडव गांव में हुआ उसका वर्णन लेखक ने इस प्रकार किया हैस
एक सिपाही घर में जाता दूसरा लाइन में खड़ा रहता उसके बाद फिर तीसरा जाता स सहपुरवा सिपाहियों के घर के अंदर जाने और बाहर निकलने का खेल बन गया था। उन्हें घर में जाने से कौन रोकता ऊपर का आदेश था, कितने ऊपर का था गांव के लोग क्या जाने!
उपन्यास की भाषा काव्यात्मक है । लालित्य गुणों से भरपूर प्रसाद गुण संपन्न है । काव्य में कहानी और कहानी में काव्य का समावेश लेखक की भाषा को प्रभावोत्पादक बनाती है । ‘‘बैलों को पगुरी करता देखकर फेकुआं का मन हरा हो गया । जैसे प्रकृति के हरेपन में उसका मन कै द हो गया हो । उसे तो समझ आ गया कि अबोलता बैलों को नहीं मारना - पीटना चाहिए ।क्या ऐसी समझ रामभरोस को भी आएगी? उनके सामने तो पूरा शहपुरवा अबोलता है फिर भी वे अबोलतो को सदा मारते पीटते रहते हैं। पर उन्हें कभी भी समझ नहीं आएगी कि अबोलो को नहीं मारना पीटना चाहिए।
‘‘ शोभनाथ पंडित को फेकुआ चमार सुरती बना कर देता है तो सोमनाथ फेकुआ की हथेली से सुरती उठा जीभ के नीचे दबा लिया जैसे वे छूत-अछूत की बदजात संस्कृति दबा रहे हैं चूस कर उसे फेंकने के लिए, पर यह तो छूत- अछूत की संस्कृति है स वह सुरती माफिक नहीं है कि वह जीभ के नीचे डाल दिया और चूस कर थूक दिया।
इस संदर्भ में निम्न वाक्य अत्यंत मौजू हैं - ‘‘कहीं थाना भी मेरी पीठ पर कुछ लिखने ना लगे , पता नहीं हम लोगों की का किस्मत है कि लोग हम लोगों की पीठ पर अपना गुस्सा लिखने लगते हैं ।अरे गुस्सा है तो पहाड़ों पर लिखो बादलों पर लिखो नदियों पर लिखो ,बादल पानी क्यों नहीं बरसा रहे, नदियां क्यों सूख जाया करती हैं यपर नहीं।
इसके अतिरिक्त कवि सम्मेलनों का प्रभाव मजदूरों के ऊपर क्या असर छोड़ता है ,की व्याख्या लेखक ने इस उपन्यास में किया है ।रामनाथ शिवेंद्र के इस उपन्यास में कहानी में उपन्यास और उपन्यास में कहानी पिरोने की कला है ,तो पाठ के शुरुआत में उसका शीर्षक भी काव्यात्मक पंक्तियों में आवद्ध करने का हुनर है। यानी यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह ‘‘पट्टा चरित ‘‘उपन्यास पढ़ते हुए पाठक को कहानी उपन्यास एवं काव्य यानी तीनों का रसास्वादन एवं पुण्य प्राप्त होता है। एक पाठ का शीर्षक देखिए- ‘‘जुबान काट दी जाए संप्रभुता छीन ली जाएं , फिर भी कथाएं नहीं मरती। आइए कथा के साथ चलें कुछ दूर ही सही पर चलें। परहित का पुण्य अर्जित करें ,पर पीड़ा में भागीदार बने । लेखक की ‘‘अपनी बात ‘‘ में उपन्यास का मंतव्य खुद उसकी बातों में देखें-
‘‘ प्रस्तुत उपन्यास का यही आशय है कि हम पता लगा सकें कानूनी दरारों को , जिन से होते हुए दमन हमारे ग्राम - संस्कृति तथा जीवन को लील रहा है । चिमनियां चाहे जितनी उग जाएं पर गांव की हरियाली तथा पनघट की महत्ता नहीं पैदा कर सकतीं।जीवन तो गांव में है क्योंकि वहां अनाज के दाने हैं दानों पर मन के संगीत लिखे हैं उसे मन के राग सवारते हैं। मारते हैं पोछते हैं ,बीनते हैं। आओ गांव बचावें, गांव के लिए कुछ करें । ‘‘ निश्चित ही पूरी मानव सभ्यता उत्पीड़नो की गाथाओं पर ही निर्मित की गई है । मालिकों के रूप में उत्पीड़ितों का संगठित गिरोह पूरी धरती पर है। धरती माता कांपती है उनसे।
शहपुरवा का संशोधित संस्करण इस ‘‘पट्टा चरित‘‘ के साथ लगभग 6 उपन्यास एवं कई कहानी संग्रह ,इतिहास, आलोचना एवं कविताओं की पुस्तकें लेखक की प्रकाशित हैं और चर्चित हैं । असुविधा पत्रिका का भी प्रकाशन अनवरत लेखक की जीवटता को प्रमाणित करता है। हमारे समझ से लेखक ने एक आंदोलन के तौर पर अपनी रचना धर्मिता में पीड़ित, शोषित, विस्थापित एवं असहायओं की आवाज पाठकों तक पहुंचने का कार्य किया है और आज भी निरंतर कठिन दिनों में भी लेखन से अपना गहरा संबंध बनाए रखा है।
मुझे पूरा विश्वास है कि उपन्यास ‘‘पट्टा चरित ‘‘ पाठकों पर अपना प्रभाव अवश्य छोड़ेगा ।
उपन्यास- पट्टा चरित
रामनाथ शिवेन्द्र
प्रकाशक-मनीष पब्लिकेशन,
441/10,ए ब्लाक, पार्ट-2
सोनिया बिहार, दिल्ली-110090
मोबाइल-9968762953 मूूल्य- रु 650.00
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धरती कथा उपन्यास
जरूरी सवाल तो पूछे ही जाएंगे
वीरेन्द्र सारंग
[[File:Dharti katha धरती कथा.jpg|thumb|हिंदी उपन्यास]]
वरिष्ठ कथाकार रामनाथ शिवेंद्र का उपन्यास धरती कथा काल्पनिक तथ्यों पर आधारित नहीं है। शिवेंद्र सोनभद्र के हैं और भी वहां के समाज साहित्य से पूरी तरह परिचित है। वे राजनीति में दखल नहीं रखते लेकिन उसमें भी उनकी समझ सार्थक रूप से देखने को मिलती है। धरती कथा उपन्यास की कथा जिस घटना पर आधारित है वह दिल दहलाने वाली है। आज के लोकतंत्र में ऐसा नरसंहार जो जमीन से बेदखल करने के लिए किया जाए कई सवाल खड़ा करता है। इतना ही नहीं नरसहार बाकायदा योजनाबद्ध तरीके से किया गया है। 10 लोगों की हत्या कोई मामूली घटना नहीं है। वे 10 लोग कौन हैं? हां वे वही लोग हैं जो अपने उर्वर भूमि पर खेती करते हैं आज से नहीं बाप दादा के समय से। उन्हें पता ही नहीं कि वह जमीन तो किसी और की है। ऐसी स्थिति में विवाद होना तो तय है। उस नरसंहार की चर्चा पूरे भारत में विस्तारित हुई। घटना कहीं और की नहीं सोनभद्र जिले के किसी गांव की है। या वही जिला है जहां आदिवासी और छोटे किसान रहते हैं।
उपन्यास में जिस गांव की घटना है वह गांव काल्पनिक है बल्कि 100 फीसदी सही है। हल्दीघाटी गांव जंगल के बिल्कुल पास है और जिस भूमि पर विवाद है उस पर मुकदमा भी चल रहा है लेकिन कोई समाधान नहीं। आखिर हमारे किसान कब तक अदालत के चक्कर में अपना पेट काटते रहेंगे जमीन से बेदखल होने के डर से मानसिक पीड़ा झेलते रहेंगे । सोनभद्र जनपद को बतोर लेखक पड़ताल करें तो पता चलेगा की पूरे जनपद में विस्थापन का दर्द पसरा हुआ है वह भी एक कारण है उत्पीड़न और यातना का। चारों ओर गरीबी पसरी हुई है धरती कथा की कथा जमीन के अधिकार से शुरू होती है और वहीं पर खत्म भी हो जाती है आखिरकार जमीन का मालिक कौन है? और उस पर अधिकार किसका है? सवाल तो वैसे का वैसे ही और फिर नरसंहार उनका जो भोले-भाले किसान हैं जो खेत को उर्वर बनाते हैं अनाज उत्पादित करते हैं। लगता ही नहीं कि हम लोकतंत्र में जी रहे हैं ऐसा जान पड़ता है यह किसी राजतंत्र द्वारा हम किसान लोग कुचले गए हैं तभी तो खेतों में निर्दोष लोगों की इतनी लाशें अपने सवालों के साथ पसरी पड़ी है जो आज की सत्ता व्यवस्था पर हमें मुंह चिढाती हैं और कहती हैं कि लोकतंत्र में क्या किसान सिर्फ मरने के लिए बैठा होता है?
रामनाथ शिवेंद्र का या उपन्यास घटना को बखूबी समझता है और पूरी पड़ताल भी करता है। किसानों की भूमि किससे और कैसे कई हाथों में बिकते बिकते ऐसी जगह पहुंच जाती है जो दबंग है और जो छोटे किसानों को बेदखल करने के लिए बंदूके चलाता है मानो कोई किला फतह करने की योजना बनाई गई हो। ऐसा भी नहीं की आदिवासी किसान प्रतिरोध नहीं करते गोली के आगे हाथ का क्या विरोध? चीखना चिल्लाना क्या गोली से लड़ पाएगा ? अब जो मारे गए हैं उस पर राजनीति भी होगी। क्या यही लोकतंत्र है?
विपक्ष की एक नेत्री आती है संवेदना व्यक्त करते हुए सवाल खड़े करती है लेकिन सत्ता में बैठे लोग क्या कर रहे हैं? सवाल यह भी है कि कोई घटना बिना वजह क्यों घट जाती है? और जब घटना घट जाती है तब सरकार को स्थिति की गंभीरता का अंदाजा लग जाता है उसके पहले तमाम ऐसे मुकदमे जो वर्षों से तारीखें झेल रहे हैं लेकिन उधर किसी का ध्यान नहीं है। हर घटना के बाद योजनाएं बनेंगी, खडन्जे बिछे्गे मकान पक्का हो जाएगा और धीरे-धीरे सब ठीक-ठाक। फिर तब जमीन को नए ढंग से बंदोबस्ती का आदेश भी दिया जाएगा लेकिन कौन जानता है की यहां भी खेल होता है जो आदिवासी मारे गए जिन्होंने उस जमीन को उर्वर बनाया वह जमीन उन्हें नहीं मिलती उर्वर भूमि को उसे दे दी जाती है जो अधिकारियों को संतुष्ट करता है आदिवासी चुप नहीं बैठते वे उसके लिए भी आंदोलन करते हैं और पुलिस प्रशासन द्वारा मारे पीटे जाते हैं। किसान सवालों के ढेर पर खड़ा होकर सवाल करता है की लो काट लो मेरा पेट जितना भी चाहो, वह मुंह चिढ़ाता है सत्ता में बैठे लोगों या बड़े अधिकारियों को। आज भी किसान अपने अधिकार की लड़ाई पीढ़ी दर पीढ़ी लड़ रहा है आखिर कब तक?
उपन्यास इस सवाल पर भी रोशनी डालता है कि समस्याएं कब हल होंगी? किसान केवल सोनभद्र का ही नहीं पूरे देश का है वैसे सोनभद्र में लगभग 70 फीसदी मुकदमें भूमि विवाद के ही हैं। क्या जमीन सिर्फ तारीखे देखने के लिए उर्वर बनी है? यह कोई छोटी बात नहीं है। मुकदमे की तारीखें पूरे देश की समस्या है। आखिर हमें लोकतंत्र में समानता क्यों नहीं मिलती सवाल तो पूछे ही जाएंगे जो जरूरी होंगे। उपन्यास के पात्र सोनभद्र के धरती से जुड़े हुए लगते हैं और भाषा भी सोनभद्र की कुल मिलाकर धरती कथा की कथा जरूरी लगती है। यह उपन्यास बाकायदा पढ़ा जाना चाहिए इसलिए भी अति पिछड़े आदिवासी क्षेत्र सोनभद्र के कथाकार रामनाथ शिवेंद्र की दृष्टि व्यापक है।
मनीष पब्लिकेशन
प्रकाशक-मनीश पब्लिकेशन,
441/10,ए ब्लाक, पार्ट-2
सोनिया बिहार, दिल्ली-110090
मोबाइल-9968762953 मूूल्य- रु 650
प्रथम संस्करण...2021
-9-
धरती कथा
प्रस्तावना----
‘आखिर कब तक बन्द रहेंगे हम
आधुनिकता तथा उत्तर-आधुनिकता के
बाजार के कार्टूनों में?’
किसी आज्ञाकारी की तरह बोलने और न बोलने के बारे में हमें बाजार से पूछ लेना चाहिए क्योंकि हम बाजार में हैं और वही हमारी जिन्दिगियों का नियामक भी है। लेकिन छोड़िए यह तो उपन्यास है, उपन्यास नहीं बोलते इसे कौन नहीं जानता! उपन्यास तो वह सब भी नहीं कर सकते जिसे करने के लिए कुदरत खुली छूट देती है। इस खुली छूट के बाद भी उपन्यास अगर कुछ कर सकते तो प्रेमचन्द जी के उपन्यासों के सारे पात्रा आज गली गली, गॉव गॉव रोते चिचियाते नहीं मिलते अपनी दरिद्रता से पूरित अस्मिता के साथ इसी लिए आधुनिक तथा उत्तर-आधुनिक उपन्यासों के केन्द्र में वे अब नहीं हैं। प्रेमचन्द कालीन उपन्यासों के नायक तो तब के हैं जब हम गुलाम थे, आज हम गुलाम नहीं हैं सो नायक चुनने का तरीका भी हमारा बदल चुका है और अब हमारे नायक भी बाजार के उत्पाद जैसे हो गये हैं उन्हें कहीं भी देख सकते हैं, किसी भी गली में, किसी भी चौराहे पर, ललकारते हुए कि ‘अरे! भाई ‘हमसे का मतलब’। यह ‘हमसे का मतलब’ कोई निरर्थक एक वाक्य/मुहाविरा ही नहीं है, यह तो बहुत ही गहरे अर्थ-बोध वाला है, इसे खोलेंगे चाहें या इसका अर्थ निकालेंगे तो इस एक वाक्य में आपको राजनीति, समाजनीति, अर्थनीति, धर्मनीति सारा कुछ थोक में मिल जायेगा। तो इसी का प्रतिनिधित्व करने वाले हमारे जो नायक हैं वे उपन्यासों से, कविताओं से बाहर निकल कर सड़क पर खड़े हैं, रोजगार दफ्तर के सामने खड़े हैं, चुनाव लड़ने के लिए पर्चे खरीद रहे हैं, ऐसे ही तमाम तरह के काम कर रहे हैं साथ ही साथ सत्ता के जनोपयोगी होने तथा न होने के सवाल पर बहसें कर रहे हैं और उसके सामने, ठीक उसके सामने वह जो लड़की अगवा की जा रही है, वह जो आदमी बिला कसूर पीटा जा रहा है उसे केवल देख रहा है और मन के गहरे से बोल रहा है ‘हमसे का मतलब’, वस्तुतः वह कुछ भी नहीं बोल रहा और न प्रतिरोध में कुछ कर रहा। वह ‘हमसे का मतलब’ का मंत्रा अपने मन में बिठाये तुलसीदास की चौपाई ‘कोउ होय नृप हमैं का हानि’ का पाठ कर रहा है।
तो कहा जाना चाहिए कि आज हम पूरी तरह से किसी ‘पाठ’ में तब्दील हो चुके हैं और ‘हमसे का मतलब’ का पाठ कर रहे हैं। प्रस्तुत उपन्यास ‘धरती कथा’ के सारे के सारे पात्रा किसी ‘पाठ’ में तब्दील हो चुके हैं, केवल पात्रा ही नहीं इसकी घटनायें भी ‘पाठ’ की तरह ही उपन्यास में उपस्थित हैं। पर यह जो समय है वह सभी से संवाद करते हुए और फटकार भी रहा है अगर तुम घटना के साक्षी हो तो...देखो और समझने की कोशिश करो के घटनायें कैसे घटा करती हैं,’ कैसे अपना नायकत्व सिरज लिया करती हैं और घटना के पात्रा, घटना का मुख्य किरादार होते हुए भी घटना के घटित से बाहर कहीं दूर, बहुत दूर कूड़े की तरह फेंकाये हुए हैं, उनका नायकत्व उनसे छीन लिया गया है तो यह है नायकत्व का घटना में विलोपन और उसका घटना के घटितों द्वारा अधिग्रहण। तो आज के समय में यह जो ‘घटित’ है वह घटना तो है ही उस घटना का नायक भी है ऐसे में अब नायकों की क्या जरूरत? जरा गुनिए जरूरत है क्या?
जरूरत तो नहीं है, मैंने पूरा प्रयास किया कि इस उपन्यास में विशेष किस्म का कोई करिश्माई नायक रचूॅ पर ऐसा में न कर पाया, घटनायें जो खून आलूदा थीं वे लगातार मुझे घसीटती रहीं कभी मुझे बांयें की तरफ ले जातीं तो कभी दांये तरफ तो कभी आज के सत्ता-बाजार और उसके कौतुक की तरफ। आप तो जानते ही हैं कि सत्ता कौतुक में जो फस गया वह भी और जो रम गया वह भी उससे बाहर नहीं निकल पाते। धरती कथा का एक पात्रा सरवन ‘नायक’ की तमीज वाला था, वह करिश्मा जरूर करता पर उसकी हत्या कर दी गई। उसकी तथा उसके साथ नौ दूसरे नौजवानों की बर्बर हत्या ने उपन्यास के कथानक को पूरी तरह से बदल दिया जिसके लिए मैं सचेत नहीं था। सो सरवन के साथ पूरा होने वाला जो कथानक था वह बर्बर हत्या की घटना में खो कर रह गया। सरवन के बाद थोड़ी सी आश जगी थी कि ‘बबुआ’ कथानक में कुछ विशेष करेगा जो नये किस्म का होगा पर वह बेचारा तो बर्बर हत्या की जॉच-पड़ताल की माया-जाल में उलझ कर रह गया। वह साहस करके पुलिसिया कार्यवाहियों के जाले को फलांगने तथा अदालती अदब के संस्कारों से निजात पाने की कोशिशें करता, पर एक कदम भी आगे बढ़ कर कथानक को कुलीन न बना पाया। सो कथानक कैसे अद्भुत बन पाता जैसा कि कथानक का अद्भुत होना उपन्यास के लिए अनिवार्य हुआ करता है।
तो ऐसा ही है इस उपन्यास में आपको घटना के साथ ही अपनी संपूर्ण बौधिकता के साथ अलोचनात्मक होते हुए दो चार कदम आगे चलना होगा और आगे चलते चलते वह गॉव भी आपको मिलेगा जो उपन्यास का कवल कथानक ही नहीं उसका नायक भी है तो वहां पहुंच कर मुझे बताइएगा जरूर कि वह गॉव आपको कैसा लगा, आपके उत्तर की प्रतीक्षा में।
धरती कथा- कुछ नोट
2021 प्रउत्तर प्रदेश का सबसे पिछड़ा जनपद सोनभद्र कई मायनो में कुछ विशेष किस्म के लोगों को बहुत ही विकसित दिख सकता है और यहां की विशाल काय चिमनियां उनके दिल दिमाग को बसंती बना सकती हैं, वे पूंजी की मादकता में गोते लगा सकते हैं पर सभी के लिए ऐसा नहीं है खासतौर से उन लोगों के लिए जो सोनभद्र के रहने वाले हैं। पूरे जनपद में विस्थापन का दर्द पसरा हुआ है तो उत्पीड़न और यातना के घृणित परिणाम भी हर हर तरफ गरीबी के रूप में पसरे हुए हैं। प्रस्तुत उपन्यास धरती कथा धरती से जुड़े हुए कानूनों एवं उसके पक्षपाती प्रबंधन पर जलते हुए सवालो के परिप्रेक्ष्य मे एक औपन्यासिक रचाव है। जाहिर है कथा में यथार्थ के साथ कल्पना का विस्तार भी कथा की मांग के अनुरूप है। कथा जमीन से जुड़े मालिकाना अधिकार से शुरू होती है और और उसी पर जाकर खत्म हो जाती है। जमीन पर मालिकाना का अधिकार किसका? किस सीमा तक यह एक ऐसा सवाल बन जाता है जो खून खराबा कत्ल और बलबा तक जा पहुंचता हैं । जमीन कब्जा करने के लिए गांव में योजनाबद्ध तरीके से कुछ लोग आते हैं और 10 निरीह आदिवासियों की हत्या कर देते हैं। हल्दीघाटी नाम का एक गांव (बदला हुआ नाम) है जो जंगल का समीपवर्ती है और यहां पर दलित आदिवासी सैकड़ों साल से खेती किसानी करते हुए आबाद है। इसी गांव की जमीन का विवाद है कि यह जमीन किसकी? राजस्व अदालत में मुकदमा भी चल रहा है पर मुकदमे का कोई विधिक समाधान नहीं निकलता फलस्वरूप विवाद बना रह जाता है और यह विवाद कत्ल तक जा पहुंचता है। कथा यहां से प्रारंभ लेती है आजादी के 70,72 साल बाद गांव में एक एनजीओ वाला आता है और कहता है की यह जमीन उसकी है उसने इसका रजिस्टर्ड बैनामा करा लिया है। गांव वाले आदिवासी हैं प्रताड़ित है दमित है तथा विस्थापित है। वे कहते हैं की यह जमीन उनकी है। राजा बड़हर ने उन्हें दान में दिया है तब वे यहां के राजा थे अब नहीं है। उक्त एनजीओ वाला उस जमीन को एक ऐसे आदमी को बेच देता है जो स्थानीय है तथा शासन प्रशासन में पर्याप्त दखल रखता है। वही आदमी अपने सैकडो सहयोगियों के साथ मौके पर जमीन कब्जाने के लिए बंदूके चलाता है मारपीट करता है आदिवासी भी प्रतिरोध करते हैं और वे मारे जाते हैं फिर शुरू होता है शासन-प्रशासन का खेल जो मुआवजा तक पहुंचता है। पोस्टमार्टम से लेकर मुआवजा देने तक सारा प्रकरण किसी खेल की तरह दिखता है । विपक्ष की एक बडी नेत्री का भी उस गांव में आगमन होता है उसके तरफ से भी आदिवासियों को मुआवजा दिया जाता है। गांव के विकास के लिए कई तरह की योजनाएं लागू कर दी जाती है सब देखते देखते होने लगता है एक तरह से गांव में 10 आदिवासियों की हत्या कर दिए जाने के बाद प्रशासन की मदद से स्वर्ग उतर आता है गलियां खड़ंजा मय हो जाती है, दमितों के कच्चे मकान पक्के बन जाते हैं, गली गली खाद्यान्न बटता हुआ दिखाई देने लगता है गोया सब कुछ ठीक-ठाक होने लगता है असंभव संभव बन जाता है पर यह सब होता है 10 आदिवासियों की हत्या के बाद । विडंबना यही यही कथा का मुख्य विषय भी है। सबसे महत्वपूर्ण अंश कथा का यह है कि पूरे गांव की जमीन को नए ढंग से बंदोबस्ती के लिए आदेश दे दिया जाता है और पुरानी बंदोबस्ती को निरस्त कर दिया जाता है नए तरह से बंदोबस्ती शुरू हो जाती है।
बहुत कम समय में जमीन की बंदोबस्ती कर भी दी जाती है। कथा का असली मकसद यहां से शुरू होता है इस बंदोबस्ती मे मारे गए आदिवासियों को वह जमीन नहीं मिलती जिसके लिए बलवा हुआ था बल्कि वह जमीन दे दी जाती है जिस जमीन से उनका कभी भी कोई नाता नहीं था जो अच्छी जमीन थी जोत कोड वाली थी जिस पर वे खेती करते थे। जाहिर है प्रताड़ित इस नई बंदोबस्ती को क्यों मानते वे आंदोलन रत हो जाते हैं और कचहरी पर धरना प्रदर्शन करते और उन्हें वही मारा पीटा जाता है तथा गिरफ्तार कर लिया जाता है। इसी दौरान कोरोना की घोषणा ह़ो जाती है और लॉकडाउन हो जाता है आंदोलन करने वाले आदिवासियों को गिरफ्तार कर लिए जाने के तत्काल बाघ कुछ ही घंटे बाद ही शासन के आदेश पर उन्हें मुक्त भी कर दिया जाता है। खेल यहां से शुरू होता है और कोरोना के बहाने पूरे गांव को सील कर दिया जाता है आदिवासियों की मांग थी कि हमें वही जमीन बंदोबस्त की जाए जिस जमीन पर हमारा पुश्तैनी कब्जा दखल चलता आ रहा है। किसे नहीं मालूम कि प्रशासन प्रशासन होता है किसी ने किसी बहाने शासन को भी ठेंगा दिखा देता है। वही हुआ हल्दीघाटी गांव में भी, बंदोबस्ती में लेन देन का खेल चला और उर्वरक जमीन उन्हें दे दी गई जिन्होंने प्रशासन की सेवा की। धरती कथा उपन्यास की कथा ही कथा का नायक है और घटना भी। औपन्यासिक रचाव के लिए कुछ पात्रों का होना जरूरी है वे पात्र भी सरवन बबुआ खेलावन सुमेरन के नाम से है तथा सुगनी बिफनी जैसी नारी पात्र भी है। वेअनुरोध करती हैं तो प्रतिरोध भी। उपन्यास खत्म हो जाता है उस बिंदु पर जब आदिवासी नई बंदोबस्ती का विरोध करते हैं और प्रतिरोध में खड़े हो जाते हैं उपन्यास में हल नहीं निकलता की आदिवासियों को अपने प्रतिरोध में क्या मिला इसे पाठकों के हवाले छोड़ दिया गया है तथा बताने का प्रयास किया गया है यह जो भूमि प्रबंधन है कितना प्रपंच भरा है। धरती प्रबंधन का जो खेल है वह पूरे सोनभद्र को परेशान किए हुए आज कचहरी में लगभग 70 प्रतिशत मुकदमे भूमि विवाद के हैं इनका त्वरित ढंग से निस्तारण नहीं हो पा रहा है केवल तारीखें पडती रहती है मुकदमे में। जमीन का मामला भी मुकदमे में जाकर अटका हुआ है भले ही नई बंदोबस्ती कर दी गई है फिर भी कथा का दर्द यही है इसीलिए यह कथा भी । सबसे मजेदार बात यह है कि यह सब तमाशा धरती भाई देख रही है और सुन रही है और पृथ्वी से स्वर्ग लोक जाने की तैयारी में है। अब नहीं रहना पृथ्वी पर पृथ्वी पुत्रों के साथ।
पहला अंश----
‘पैर तो जमीन पर ही चलेंगे!
चलिए, चलते हैं कुछ दूर धरती कथा के साथ...’
‘गॉव के दस लोगों के मारे जाने के बाद गॉव खामोश हो गया है, कोई नहीं रह गया है गॉव में, सभी लाशों के पास मुह बाये खड़े हैं। क्या छोटे क्या बड़े क्या औरत क्या मर्द, सभी खामोश और चकित हैं। खामोश तो धरती-माई भी हैं आखिर क्या हो गया गॉव में? क्या ऐसा ही समय देखने के लिए वे उतरीं थी धरती पर, यह समय का हेर-फेर है, कोई क्रीड़ा-कौतुक है, क्या है यह आखिर? धरती-माई अपना माथा पकड़ कर चिन्तन की दुनिया में चली जाती हैं...चिन्तन की दुनिया में तो अन्धेरा है, सन्नाटा है, चित्त कहीं और धक्के खा रहा है तो चेतना किसी गटर में बज-बजा रही है। वे भावुकता के परतीय क्षेत्रा की तरफ लौटती हैं फिर तो उनकी ऑखें भर भर जाती हैं...उन्हें कुछ साफ साफ नहीं दिख रहा, वे ऑचल से ऑखें पोंछती हैं फिर भी...ऑखों से लोर बह जाने के बाद अचानक उनकी ऑखों में हिलोरें उठ जाती हैं हर तरफ खून ही खून, वे कॉप जाती हैं... वे तो धरती पर अवतरित हुईं थीं धरती को हरा-भरा बनाने के लिए, पेड़-पौधे उगवाने के लिए, अन्न उपजवाने के लिए, भूख और भोजन की दूरी पाटने कि लिए पर यहां तो खून हो रहा है, कतल हो रहा है, सभ्यता का यह कैसा खेल है? धरती-माई गुम-सुम हो गयी हैं, आइए चलते हैं...धरती-कथा के साथ....’
इस धरती कथा के दो पुराने पात्र हैं, दोनों बूढ़े हैं सोमारू व बुझावन, वे पड़े हुए हैं अपनी खटिया पर। वे कराह रहे हैं, रो रहे हैं, चाह कर भी नहीं जा सकते घटना स्थल पर सो खुद पर रोते हुए अपने बाल-बुतरूओं को कोस रहे हैं सोमारू..
‘हम तऽ पहिलहीं से बोल रहे थे, छोड़ दो गॉव चलो कहीं दूसरी जगह चलें वहीं बस जायेंगे इहां का धरा है। मर मुकदमा जीन लड़ो पर नाहीं मुकदमा लड़ेंगे...’
बुझावन भी गुस्से में हैं...
‘हम जानते थे कि कउनो दिन कतल होगा हमरे गॉयें में। जमीन ओकर होती है जेकरे हाथ में लाठी होती है, ओकर नाहीं जो खाये बिना मर रहा है, जेकरे घरे में चूल्हा जलना मुहाल है।’
‘अब भोगो, दस लाल लील गई यह धरती। अउर जोतो जमीन, खेती करो, जेकरे पास जॉगर है वोके का कमी है, जहां पसीना बहाओ वहीं कुछ न कुछ मिलेगा। जाने कहां सब मरि गये कउनो देखाई नाहीं दे रहे हैं, अरे! हमहूॅ के ले चलो लालों के पास। उहां ले चलो जहां धरती माई ने खून पिया है हमरे लालों का, केतनी पियासी है यह धरती?’
पर वहां है कौन जो उन्हें लाशों की तरफ ले जायेगा। सभी तो लाशों के पास
हैं। जहां लाशें गिरी हैं। वह खेत दो किलोमीटर दूर है गॉव से, कई ढूह पार करो, ऊबड़, खाबड़ जमीन नापो तब पहुंचो वहां। वे तो खुद वहां जाने में समर्थ हैं नहीं, सो पड़े हुए हैं खटिया पर कराहते और सिसकते हुए नाहीं तऽ ओहीं जातेे।
खटिया पर बैठे हुए वे चिल्ला रहे हैं...
‘अरे हमहूं के ले चलो लालों के पास ओनकर मुहवा तऽ देख लें’ पर कोई नहीं सुन रहा उनकी, वहां है ही कौन?
सोमारू और बुझावन दोनों अपनी उमर जी चुके हैं। पिछले साल ही सोमारू को लकवा मार गया है और बुझावन को टी.बी. ने जकड़ लिया है। खॉसते रहते हैं हरदम, खॉसते खांसते बलगम निकल जाता है, पूरी बोरसी भर जाती है दिन-रात में। ऊ तो उनकी छोटकी पतोहिया है कि रोज बोरसी साफ कर दिया करती है और गोइठे की राख भर दिया करती है उसमें। उनका छोटका बेटवा बबुआ खूब खूब है वह बुझावन को खटिया पर छोड़ कर कमाने के लिए कहीं बाहर नहीं गया न कभी जायेगा। उनके दो लड़के तो चले गये हैं गुजरात, वहीं कहीं कारखाने में काम करते हैं। बुझावन कहते भी हैं मेरे छोटका लड़िकवा को देखो वह साक्षात सरवन कुमार है।
सोमारू और बुझावन दोनों जनों को नहीं पता है कि भयानक गोलीकाण्ड में का हुआ है, कौन कौन मरे हैं। दोनों शक कर रहे हैं अपने लड़कों के बारे में। सोमारू तो मान कर चल रहे हैं कि उनका सरवन ही मारा गया होगा, बहुत बोलाक है, दतुइन-कुल्ला कर सीधे भागा था खेत की तरफ। वे पूछते रह गये थे उससे..
‘कहां जाय रहे हो सबेरे सबेरे, पर नहीं बताया था कुछ भी और दौड़ पड़ा था खेत की तरफ।’
बुझावन अपनी कहानी लेकर बैठे हुए थे। उनका छोटका लड़का ही तो मुकदमा लड़ रहा था सरवन के साथ, वही दोनों गॉव को गोलबन्द किए हुए थे। उन्हें निशाने पर लिया होगा हत्यारों ने।’
कई बार बुझावन ने उसे रोका था ....
‘देखो मर मुकदमा के चक्कर में जीन पड़ो, गरीब आदमी मुकदमा नाहीं लड़ते, ई जो नियाव है नऽ वह गरीबों के लिए नाहीं होता है। गरीब आदमी का तो एक्कै काम है बड़े लोगों को सलाम करना अउर उनकी सेवा-टहल करना। पर नाहीं माना, बोलता है कि अब कउनो राजा कऽ राज है, अब तो ‘लोकतंतर’ है। हमहू आदमी हैं सो काहे डरंे केहू से, हम मुकदमा लड़ेंगे अउर हाई कोरट तक लड़ेंगे।’
अचानक बुझावन पूरी तरह से उतर गयेे गॉव की गाथा में। उन्हें याद आने लगे हैं उनके बपई। जो गोड़ बिरादरी के चौधरी थे, बहुत ही रोब-दाब था उनका। क्या मजाल था कि उनकी बिरादरी का कोई आदमी उनका हुकुम टाल दे। गॉव-घर में गलती-सलती करने पर जाने कितनों को पेड़ से बंधवा कर मारा करतेे थे पर थे सही आदमी। नियाव के लिए कुछ भी कर जाते थे, डरते तो किसी से नहीं थे चाहे मैदान का राजा उनके सामने आ जाये या जंगल का राजा शेर, भिड़ जाते थे दोनों से।’
गॉव के खातिर वे भिड़ गये थे बड़हर महाराज से। याद आ रहा है सारा कुछ बुझावन को। बड़हर रियासत का मनीजर गॉव में आया था घोड़े पर सवार हो कर ‘खरवन’ वसूलने। उससे भिड़ गये थे बुझावन के बपई...
‘ई का हो रहा है साहेब? का वसूल रहे हैं, हम लोग एक छटांग भी नाहीं देंगे ‘खरवन’ में, ई गॉव हमलोगों को महाराज ने माफी में दिया है फेर काहे का खरवन दें हमलोग।’
तूॅ तूॅ मैं मैं होने लगी थी। बिरादरी के सभी छोटे बड़े गोलबन्द हो गये थे, का करते मनीजर भाग चले रियासत की ओर।
बुझावन को याद है कि ‘जब जब तक बड़का महाराज थे उनके बाद छोटका महाराज राजा बनेे उनके जमाने में भी गॉव से एक छदाम भी ‘खरवन’ के नाम पर नाहीं गया था रियासत में। फेर बाद में जाने का हुआ के रियासत को ‘खरवन’ दिया जाने लगा। वही नेम चलता रहा बपई के जमाने तक। जो आज तक चल रहा है।’
‘ओ समय गॉये गॉये गॉधी बाबा का जोर था। हमरहूं गॉये में कंग्रेसी नेता-परेता आया-जाया करते थे। एक बार तो हमरे बिरादरी का भी नेता आया था हमरे गॉयें में जो म.प्र. के आदिवासी सटेट का राजा था। हमरे राजा साहेबओकरे संघे थे। वे लोग नारा लगवाया करते थे। संघे संघे हमहूं लोग नारा लगाया करते थे...’
‘सुराज आयेगा सुराज आयेगा’ ‘जनता कऽ राज होगा, अब परजा ही राजा होगी, कोई रेयाया नहीं होगा।’
‘गॉधी बाबा की जय’ अउर न जाने का का नारा लगाया करते थे हमहूं लोग,लइकई कऽ बात है खियाल नाहीं पड़ि रहा कुलि नरवा।
एक दिन बड़हर राजा का करिन्दा हमरे गॉये आया उसके साथ कई आदमी थे। सारे आदमी ‘पटेवा’ लिए हुए थे। ‘पटेवा’ पर मिठाइयों की भरी ‘दौरी’ थी, करिन्दा गॉव वालों को बुला कर मिठाइयॉ बांटने लगा।
‘काहे मिठाइयॉ बाट रहे हो करिन्दा साहेब...’पूछा था बपई ने
‘नाहीं जानते का...?’
‘आजु हमार देश आजाद हो गया है, अंग्रेजवा भाग गये हैं, अब हमरे देश के लोगन की हुकूमत होयगी, आपन राज होगा, हमरे पर कोई जोर-जबर नाहीं करेगा।’
‘पहिले का था हो करिन्दा साहेब...?’ पूछा था गॉव वालों ने कारिन्दा से
‘पहिले गुलाम था नऽ हमार देश, हमलोगन पर हकूमत अंग्रेजों की थी’
‘कइसन गुलाम हो करिन्दा साहेब...?’
‘हमलोग तऽ कुछु नाहीं जानते, केके बोलते हैं गुलामी अउर के के बोलते हैं अजादी।’
करिन्दा साहब से पूछ बैठे नन्हकू काका, वे हमरे बपई के छोटका भाई थे। थे तो बहुत बातूनी अउर सवाल खूब पूछा करते थे। बाद में पता चला कि ननकू काका जानते ही नहीं थे कि गुलामी का होती है। ऊ जमनवो तऽ उहय था कोई पढ़ा लिखा था नाही गॉयें में, अब ससुर के जाने का होती है गुलामी अउर का होती है आजादी। ओ समय हम लोगन कऽ जिनगी राजा साहेब से शुरू होती थी अउर राजा साहेब पर जा कर खतम जाती थी। राजा साहब का हुकूम हमलोगन के सर-माथे पर हुआ करता था।
‘ओ दिना हमलोग जाने के हमार देश आजाद हो गया है। पहिले तऽ हमलोग जानते थे कि बड़हर राजा ही हमरे राजा हैं, हमलोगन के का मालूम के हमरे राजा भी अंग्रजों के गुलाम ही थे। अंग्रेज ही देश के राज-महाराजा थे।’
‘साल दुई साल गुजरा होगा कि गॉये गॉये हल्ला मच गया। ई जो खेत कियारी है नऽ, खेती बारी कऽ जमीन है नऽ, ऊ सब ओकर है जे एके जोतत होय... जेकर जमीन पर कब्जा होय, जोतै वाले के नामे से जमीन होय जायेगी, तब हमैं खियाल आया पहिले का एक नारा..
‘जे जमीन के जोतेय कोड़य ऊ जमीन कऽ मालिक होवै’
कंग्रेसी सरकार ने ई ऐलान कर दिया है, अब न कोई राजा रहेगा न परजा, सब बराबर होय गये हैं, सब कर जगह-जमीन पर बराबर कऽ हक है।’
‘ओ समय लोग कहते थे कि सब की रियासत टूट गई जमीनदारी टूट गई। अब जे खेत का जोतदार है उहै ओकर मालिक है, अब ‘लगान’, ‘खरवन’, ‘चौथा’ राजा को नाहींें देना पड़ेगा, कानून बनि गया है।’ हमरे बाप-दादा खबर सुन कर मस्त होय गये थे कि अब राजा के मनीजर को जो ‘खरवन’ दिया जाता है नाहीं देना पड़ेगा अउर साल में एक गाय अउर बछवा भी नाहीं देना पड़ेगा। खेती-बारी के समय माफी में दस दिन बिना मजूरी काम नाहीं करना पड़ेगा। बाद में जाने का हुआ के कागजों के हेर-फेर में एक दूसरे आदमी आ गये गॉयें में कहने लगे कि गॉव की सारी जमीन अब उनके नाम से हो गई है। कांग्रेसी सरकार ने उनकी संसथा के नाम से गॉये कऽ कुल जमीन कर दिया है, अउर संसथा को गरीबों आदिवासियों के विकास के लिए नई सरकार ने बनाया है। पूरा गॉव घबरा गया था सुन कर, आसमान से गिरे अउर खजूर पर लटकि गये। लो अब संसथा वाले आय गये! राजा साहब कउन खराब थे, ओनसे तो निभ गई थी अब एनसे कैसे निभेगी? अउर तब हम आजाद कहां हुए, हम तऽ रहि गये गुलाम के गुलाम।’
पूरा गॉव भागा भागा गया था महराज के ईहां, उहां हाजिरी लगाया...
‘ई का सुनाय रहा है महाराज! एक संसथा वाला आया था बोल रहा था कि हमहन कऽ गॉव ओकरे नामे से होय गया है अब ओके खरवन देना होगा, खेती करने के बदले। का बात है महाराज आप सही सही बतायें हुजूर।’
‘हॉ हो तूं लोग सही सुने हो, जमीनदारी टूट गई है नऽ, हमहूं अब राजा नाहीं रहि गये। हमरौ सब जमीन छिना गई है, जउने जमीनियन पर हमार जोत-कोड़ है यानि सीर है बस ओतनै हमरे नामे से रहेगी नाहीं तऽ बाकी सब सरकार ने छीन लिया है। ऊ ओकरे नामे से होय गई है जेकर जोत-कोड़ था ओ जमीनी पर।’
‘महाराज जोत-कोड़ तऽ हमलोगों का है फेर हमहन के जोत-कोड़ पर संसथा का नाम कैसे होय गया। ईहै तो समझ में नाहीं आय रहा है...’
महाराज खामोश हो गये, उनके पास कोई जबाब नहीं था। उन्हें खुद समझ में नहीं आ रहा था कि जमीनदारी तोड़ने की क्या प्रक्रिया है, वे लगातार अधिकारियों के संपर्क में थे ताकि जमीनदारी बचाई जा सके।’
महाराज ने अनुमान लगाया कि जमीनदारी टूटते समय ही संसथा वालों ने हेर-फेर करके संस्था का नाम चढ़वा लिया होगा। वैसे राजा ने भी संस्था वालों के नाम से कुछ बीघे जमीन का पट्टा संस्था वालों के पक्ष में पहले ही कर दिया था पर आदिवासियों की जमीनों को छोड़ दिया था।
महाराज तो खुद टूटे हुए थे। उनकी रियासत तोड़ दी गई थी, वे परजा बन चके थे। जमीनदारी तोड़े जाने के खिलाफ वे मुकदमा दाखिल करने के फिराक में थे। बडे़ बड़े वकीलांे से सलाह-मशविरा कर रहे थे।
नन्हकू काका थे तो बातूनी पर चालाक भी बहुत थे। थोड़ा बहुत कागजों के खेल के बारे में जानते थे। उन्हें पता था कि नई दुनिया कागजों वाली है। जमीन पर जिसका जोत-कोड़ होता है उसके नाम से ही कागज बनता है। अंग्रेज एक बिस्वा जमीन का भी कागज बनवाया करते थे। उनका गॉव राजा साहब की जमीनदारी का गॉव था सो उसका कागज राजा साहब के नाम था। राजा साहब ने आदिवासियों को जो जमीन दिया था उसका रियासती पट्टा कर दिया था। अंग्रेज बिना कागज के कुछ काम नहीें करते थे।
नन्हकू काका रियासत से अपने गॉव लौट आये और जमीन का कागज तलाशने लगे। पूरे गॉव में खबर फैल गई कि अब जमाना कागजों वाला है सो राजा साहब ने जो पट्टा दिया था उसका कागज खोजो...
पूरा गॉव कागज खोजने लगा... कागजों की खोज में गॉव पसीना बहा रहा है.गॉव था ही कितना बड़ा यही कोई चार पॉच घरों की बस्ती। फूस के मकान, फूस की दिवालें...और करइल माटी की जमीन। फूस के घेरों से बने घर, घर क्या किसी के पास एक कमरा तो किसी के पास दो कमरा। किसी के पास बांस की चारपाई तो किसी के पास वह भी नहीं। लेवनी, फटे कंबल, कथरा, एक दो चादर ओढ़ने व बिछाने के नाम पर बस इतना ही... और सामान रखने के लिए...टीन के छोटे बक्से किसी घर में वह भी नहीं, वैसे रखना भी क्या था, क्या था ही आदिवासियों के पास। जंगली गॉव था, लेन-देन की परंपरा थी, कोइरी अनाज ले कर तरकारी दे दिया करता था, बनिया अनाज लेकर कपड़ा और परचून का सामान दे दिया करता था। कुछ लोग ऐसे भी होते थे जो रोजाना गॉव आते थे और दारू खरीदते थेे। दारू से कुछ कमाई हो जाया करती थी गॉव वालों की। इसी कमाई से आदिवासियों का गुजारा होता था।
पूरा गॉव दारू चुआने में माहिर था। हर घर में एक अड़ार था। बर्तन में महुआ सड़ रहा होता था, खमीर उठने पर दारू चुआना शुरू होता था।
गॉव की यह ब्यवस्था जो सरकारी तो नहीं थी पर समझदारी से पूर्ण थी वह थी आपसी सहयोग की। एक दिन में एक ही घर में दारू चुआई जाती थी दूसरे घर में नहीं। पूरे साल यही क्रम चलता था। बारी से बारी से दारू चुआना और उसे बेचना यह कुटीर उद्योग की तरह था। यह कब से था किसी को नहीं मालूम। वहां की दारू का गुण-गान गरीब गुरबा ही नहीं जमीनदार किसिम के रईस भी किया करते थे। लोग बताते हैं कि होली, दशहरा के पहले वहां की दारू खरीदने के लिए मारा-मारी तक हो जाया करती थी। इलाके के लोग खास त्याहारों के लिए वहीं से दारू खरीदा करते थे।
घरों के सारे बर्तन देख लिये गये, एक दो जो बक्से थे वे जाने कितनी बार देखे गये पर कहीं पट्टा वाला कागज नहीं मिला। कागज होता तो मिलता, कागज तो था ही नहीं फिर मिलता कैसे।
नन्हकू काका को सिर्फ इतना मालूम है कि राजा साहब का कारिन्दा पट्टा का कोई कागज बहुत पहले दे गया था। कागज देने के बदले में एक बकरा भी हॉक ले गया था और दो बोतल दारू उपरौढ़ा से लिया था। उस कागज को किसने रखा यह उन्हें याद नहीं। वह जमाना कागजों वाला था भी नहीं, जुबान वाला था, गर्दन कट जाये भले पर जुबान न कटने पाये। नन्हकू काका माथ पकड़ कर बैठ गये।
वैसे नन्हकू काका थक-हार कर बैठने वालों में नहीं थे। दारू बेचने का अगवढ़ ले कर वे एक दिन मीरजापुर पहुंच गये, मीरजापुर ही तब जिला था।
नन्हकू काका दूसरी बार मीरजापुर आये थे। एक बार तब आये थे जब उन्हें माई के दर्शन के लिए विन्ध्याचल धाम जाना था और फिर इस बार कागज तलाशने। मीरजापुर पहुंचने पर उन्हें ख्याल आया एक वकील का, जो कुछ महीने पहले ही उनके गॉव आया था और हिरन की खाल के लिए रिरिया रहा था। हिरन की खाल किसी ने उसे नहीं दिया सभी ने बोल दिया कि नहीं है खाल। ये नन्हकू काका ही थे जो उसकी रिरियाहट से पसीज गये थे और वकील को हिरन की एक खाल इन्तजाम करके दिया था। वकील बहुत परेशान था उसका लड़का बीमार था किसी तांत्रिक ने उसे बताया था कि हिरन की खाल पर बैठ कर ही तंत्रा-साधना करनी होगी।
नन्हकू काका वकील का नाम याद करने लगे..कौन था वह वकील, का नाम था उसका, बहुत ही चाव से उनकी बनाई दारू पिया था और अपनी जीप में एक मटकी रख भी लिया था...
‘ऐसी दारू मिलती कहां है?’ उसने कहा था
कोई बात नाहीं, नाम नाहीं याद रहा तो का हुआ कचहरी में तो पहचना जायेगा ही, यही होगा कि उसे खोजना होगा पूरी कचहरी मंे।
नन्हकू काका कचहरी करीब बारह बजे पहुंचे। पैदल ही मीरजापुर जाना था कलवारी से होते हुए लालगंज फिर मीरजापुर। तीन दिन से पैदल ही चल रहे थे, पैर सूज गया था पर हिम्मत थी, सो तनेन थे और कड़क भी...कचहरी पहुंच कर लगे खोजने वकील को। तब कचहरी नाम में तो बड़ी थी पर आकार मेंआज के मुकाबिले बहुत ही छोटी थी। खोजते, खोजते नन्हकू काका जा पहुंचे वकील के पास...
वकील काका को न पहचान पाया, तीन साल पहले की बात थी वह भूल चुका था काका को। काका ने उसे याद दिलाया फिर उसे याद आया हिरन की खाल से। वकील चौंक गया...
‘अरे! नन्हकू तूॅ...’
‘ईहां काहे आये हो, का बात है...का कउनो काम आ गया कचहरी का..?’
‘हॉ सरकार तब्बै तो ईहां आया हूॅ’ नन्हकू ने बताया
‘का काम है हो, बताओ तो..’
नन्हकू काका ने वकील को काम बताया। जमीन कऽ काम है सरकार! राजा साहब ने हमारे खानदान वालों को जमीन पट्टा में दिया था। ऊ जमीन पर हमलोगों का नाम नाहीं चढ़ा है। ओ जमीनी केे हमरे बाप-दादों ने काट-पीट कर समतलियाया था, कियारियॉ गढ़ी थीं फिर खेती बारी शुरू हुई थी अउर आज भी हमलोग उसे जोत कोड़ रहे हैं। वह जमीन कउनो संस्था वाले के नाम से होय गई है। एही के पता लगाना है सरकार के हमलोगों के जोत-कोड़ वाली जमीनिया केकरे नामे होय गई!
‘ठीक है नन्हकू! हम आजै पता लगा लेते हैं पर ई बताओ एतना दिना कहां थे? जमीनदारी टूटे तो चार साल होय गया, ई सब काम तो वोही समय कर लेना चाहिए था।’
‘का बतावैं सरकार! हम लोग ठहरे जंगली, हम लोग का जानते हैं कानून-फानून के बारे में कि का होता है कानून। हम लोग का जानते साहेब ऊ तो संसथा के दो आदमी गॉव में आये थे। जमीन देखने लगे, खेती के बारे में पूछने लगे कौन कौन जोता कोड़ा है किसकी फसल है। हम लोगों ने सही सही बताय दिया और वे लोग उसे कागज पर उतार भी लिए। फिर बाद में पूछने लगे..राजा साहब को खरवन में केतना रुपिया देते हो तुम लोग?’
हमलोगों ने बता दिया कि पहिले एक पैसा बिगहा दिया जाता था अउर अब तीन आना बिगहा दिया जाता है।
‘तो अब वह खरवन तूॅ लोग हमारी संस्था को देना, इस गॉव की सारी जमीन हमलोगों की संस्था के नाम से होय गई है।’
‘ओही दिना हम लोग जाने सरकार कि जमीन का कागज बनता है। तब हम लोग पता करने लगे कि हमलोगों की जमीन का कागज बना है कि नाहीं।’
वकील चला गया कागज के बारे में पता करने किसी आफिस में, नन्हकू काका वहीं बैठे रहे। करीब एक घंटे बाद वकील वापस लौटा और नन्हकू काका को बताया। उससे काका हिल गये...
‘अब का होगा सरकार! कैसे चढ़ेगा हमलोगन कऽ नाम कागज पर। अगोरी से भाग कर तो बड़हर आये थे, राजा साहब ने बसाया था हम लोगों को, अब कहां जायेंगे इहां से उजड़ कर। पहिले तो जंगल काट कर जमीन बना लेते थे हम लोग अब तो जंगल का एक पत्ता भी नहीं तोड़ सकते। नन्हकू काका माथा पकड़ लिए।’
‘नन्हकू! तूॅ लोगों का नाम नाहींें लिखा है जमीन पर ओपर कउनो संस्था का नाम लिखा हुआ है, कहां की है यह संस्था, जानते हो का? एक काम करना तूॅ लोग जमीन पर से कब्जा कभी नाहीं छोड़ना, बूझ गये नऽ मेरी बात। जोत-कोड़ में संस्था वाले दखल करंेगे या मारपीट करेंगे तो तो सीधे चले आना मेरे पास। हम देख लेंगे संस्था वालों को। हम अजुएै एक दरखास लगाय देते हैं देखो का होता है ओमें...’
नन्हकू काका को को कुछ पता नहीं था कि कैसे कागज बन गया संसथा वालों का। जोत-कोड़ के हिसाब से कागज बनना था तो संसथा वालों का कैसे बन गया। वकील ने साफ बताया काका को कि घपला किया गया है कागज बनाने में।
मीरजापुर में ननकू काका ने एक मुकदमा दाखिल करा दिया...
‘साहब आप देखो हमलोगांे का मुकदमा, आपका खर्चा-पानी देने में कमी नाहीं करेंगे हमलोग।’ वकील से बोल-बतिया तथा मुकदमा दाखिल करा कर नन्हकूं काका वहां से गॉव लौटआये।
गॉव में सन्नाटा पसरा हुआ था जाने का हो मीरजापुर में। काका की बातें सुनकर गॉव सन्न हो गया...गॉव वालों ने पूछा काका से...
‘अब का होगा काका?’
‘का बतावैं हो, हमैं तऽ कुछ बुझाय नाहीं रहा है, एक बात है वकील ने कहा है कि जमीन पर से कब्जा न छोड़ना, तो समुझि लो के हमलोग कउनो तरह से कब्जा नाहीं छोड़ेंगे।’
यह आजाद भारत का नया कानून था कागजों पर लिखा हुआ जो नन्हकू काका को कुदरती जमीन से बेदखल करने वाला था। ऐसी जमीन से जिसे किसे ने नहीं बनाया, जिसे किसी ने नहीं रचा, उसे खेती करने लायक बनाया नन्हकू काका के पसीने ने, पसीने ने ही उसे समतल किया, कियारियां गढ़ीं। देश आजाद होते ही किसिम किसिम के मालिक उग गये धरती पर, किसिम किसिम की धरती-कथा लिखने लगे। पहिले के जमाने में धरती-कथा लिखने वाले जो राजा थे, मालिक थे, वे टूट रहे थे और दूसरे किसिम के लोग धरती-कथा लिख कर राजा बन रहे थे।
धरती-माई देख रही हैं मानव सभ्यता का कानूनी खेल, किस तरह की व्यवहार-संस्कृति उग रही है धरती पर झाड़-झंखाड़ की तरह। व्यवहार-संस्कृति के कागजी झाड़-झंखाड़ को कौन साफ करेगा? नन्हकू काका जैसे पसीना बहाने वाले तमाम लोग कागजों के राजनीतिक व कानूनी खेल में फंस गये हैं धरती में, धरती ने उन्हें लील लिया है। ऐसे लोग जो धरती पर अपनी जिन्दगी लिखते हैं, धरती को जो चूमते हैं। धरती की दरारों में पैर फंस जाने के बाद भी जो धरती को प्रणाम करते हैं, गरियाते नहीं हैं, इनका क्या होने वाला है? कौन बता सकता है? क्या धरती माई बोलेंगी कुछ इस बारे मे
'''वाम उग्रवाद पर केंद्रित शिवेंद्र का उपन्यास जंगल दंश'''
[[File:जंगल दंश jpg.jpg|thumb|वाम उग्रवाद पर केंद्रित शिवेंद्र का
उपन्यास जंगल दंश]]
अपनी बात----
‘जंगलदंश’ उपन्यास के बारे में कुछ कहने से अच्छा है, कुछ न कहा जाये तथा यह भी न बताया जाये कि जंगलदंश उपन्यास है या लम्बी कहानी है। पर इतना कहना जरूरी है कि आज के आलोचनात्मक व विखंडनवादी समय में, जहां कदम कदम पर कुदरती चिंतन तथ व्यवहार को ठेंगा दिखाया जा रहा हो, मानवीय समीपताओं को किसी भी तरह से नष्ट करने व मिटा देने के कूट प्रयास किये जा रहे हों, कृत्रिम संप्रभुताओं के द्वारा व्यक्ति की नैसर्गिक संप्रभुता को दमित व उत्पीड़ित किया जा रहा हो, जहां आदमी को आदमी की तरह जीने, मरने की कुदरती परिस्थितियां न उपलब्ध कराकर उसे उपभोक्ता वस्तु में तब्दील किया जा रहा हो, जहां चित्त, चेतना तथा चिंतन के हसीन बाजार हों और उस बाजार में विचार व दृष्टि को ( प्कमं ंदक अपेपवद ) बेचे तथा खरीदे जाने के कौशल दिखाये जारहे हों, ऐसे में ‘जंगलदंश’ की कुदरती कथा लिखना जरूरी था। ऐसे खतरनाक समय में कथा के माध्यम से यह देखना भी जरूरी था कि यह जो ‘जंगल में मंगल’ या‘अहा ग्राम्य जीवन’ की राग अलापने, किसानों को फसल की दुगनी आय दिला कर उनकी आत्महत्या रोकने वाली साहित्यिक व खासतौर से राजनीतिक व्यवहारलिपि है, उसमें इन दोनों ‘पदों’ का कितना मान, सम्मान व आदर है?
किसे नहीं पता कि जंगल में जंग है तो गॉव में जाति है, गोत्रा है, अगड़ा है, पिछड़ा है, मंडल है कमंडल है, इनके अपने अपने दांव हैं पर ‘अहा ग्राम्य जीवन’ तथा ‘मंगल’ कहीं नहीं है। हर तरफ जंग ही जंग हैं, दांव ही दांव हैं। जंगल में जंग हैं तो गॉव में दांव हैं। जंगल हैं, तो कारखानों के द्वारा उपजाये गये विस्थापन के दंश हैं, गॉव हैं तो जमीन है, जमीन है तो उसके होने न होने के कारण हैं, मालिकाना है, विरासत है, वसीयत है और कब्जे हैं तथा जब ये सब हैं तो थाना है, कचहरी है यानि बहुत कुछ है। जमीन, जोरू और जर(संपत्ति) का सीधा मतलब है झगड़ा, झगड़ा है तो थाना है कवहरी है, मुकदमा है। बाहरी दुनिया यानि प्रशासकों की दुनिया में विवेकाधिकार तथा विशेषधिकार हैं। गोया हर समाज बटा हुआ है चाहे नागर हो या ग्रामीण उसी के अनुसार मानवनिर्मित अधिकार भी विभाजित हैं समझना यही है कि ये विभाजन समतावादी समाज के अनुकूल हैं या समाज को पन्द्रहवी शताब्दी में ले जाने वाले हैं। अगर ऐसा ही है फिर हमारी सभ्यता किन अर्थों में आधुनिक है?
जमीन किसी ने जनमाया नहीं, उगाया नहीं, पहाड़ किसी ने रचा नहीं, नदियों को किसी ने बहाया नहीं। अब तो ये कुदरती सच सत्ताप्रबंधनके लिए जटिल सवाल बन कर किसिम किसिम की संस्कारलिपि भी रचने लगे हैं, खतरा इसी नये किस्म की संस्कारलिपि से है। दुखद है कि इस संस्कारलिपि से मानव समीपतायें कांप रही हैं, कांप तो जंगलदंश की कथा भी रही है, आइए देखते हैं, आगे क्या होाता है?
वैसे कथाओं का क्या है, चाहे जितनी कही जायें या सुनी जांये उनका सामाजिक बदलावों के सन्दर्भों में कुछ विशेष असर पड़ा हो ऐसा नहीं जान पड़ता। गोदान का होरी जीवित समाज का प्रतिनिधि बन गया हो नहीं देखा गया। अगर उस तरह के चरित्रा देखे भी गये तो उन्हें बाजार ने डस लिया, फिर वे होरी से बदल कर कुछ और हो गये। गायब हो गया होरी और बाजार की चमक में कहीं खो गया, अब उसे कौन गढ़े या रचे? पूंजीवादी सत्ता प्रबंधन ने उन्हें भलमानुष नहीं रहने दिया, उपभोक्ता संस्कृति ने उन्हें किसी कमोडिटी में बदल दिया। बाजार की कमोडिटी बने लोगों के बीच मानुष रहना आसान भी तो नहीं। आसान होगा भी कैसे, बाजार में तो किसी कार्टून की तरह इधर से उधर उड़ते रहना मजबूरी है।
जंगल दंश की कथा आपके सामने है, देखिए यह कथा आपको प्रभावित कर पाती है या नहीं। अगर इस कथा के माध्यम सेआप वामउग्रवाद के क,ख,ग, से वकिफ हो जाते हैं फिर तो यह सार्थक कथा होगी।
हिन्सा तथा अहिन्सा दो छोर हैं वामउग्रवाद को समझने के लिए। कम से कम
भारतीय संस्कृति किसी भी हाल में हिन्सा की वकालत नहीं करती। वामउग्रवादी
चिन्तन भारतीय व्यवहार संस्कृति की भाषा नहीं है। समाज बदल के लिए हिन्सा का सहारा लेना यह पद्धति भारत में मनोवैज्ञानिक व सामाजिक रूप से त्याज्य है, इस पद्धति में सामाजिकता तो हो ही नहीं सकती। आज के समय को सोलहवीं शदी में बदल देना या बदलने का प्रयास करना सिवाय बेवकूफी के और कुछ नहीं।
आशा है मेरे पिछले उपन्यासों की तरह प्रस्तुत उपन्यास को भी आपकी मुहब्बत मिलेगी। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतिक्षा में...
जून- 2019
राबर्ट्सगंज,सोनभद्र,उ.प्र.
भावना प्रकाशन
109-पटपड़गंज गॉव, दिल्ली-110091
मो...8800139684, 9312869947
प्रथम संस्करण 2022
मूल्य..400.00
जंगल दंश का पहला अश----
‘लाईन में लगना और लाइन बन जाना,
अलग अलग बातें हैं, यानि कथा आगे है’
मनीष देर रात तक घर लौटा। वह बाहर दोस्तों से घिर गया था। दोस्त उसे समझा रहे थे कि चुनाव में हार, जीत तो होती रहती है, उससे घबराना नहीं चाहिए, पर उसके घबराने का कारण दूसरा था, जिसे वह दोस्तों को बताना नहीं चाहता था।
मनीष घर में घुसते ही अवाक रह गया, उसे लगा जैसे वह अपने घर में न हो कर किसी दूसरे के घर में घुस गया हो, जहां होने का कोई मतलब नहीं... इस घर में तो वह कभी आया ही नहीं था। पता नहीं कैसे आ गया है। उसे विगत का सारा कुछ ख्याल आता जा रहा है, उसे भूलना चाहे तो भी नहीं भूल सकता, कुछ दूसरी भूल जाने लायक बातों की तरह, जिन्हें वह कबका भूल चुका है। उसकी यादें उसे नोचने चोथने लगी हैं, जबाब मांगने लगी हैं... यह पहला अवसर है जब वह अपनी यादों से मुठभेड़ करने की स्थिति में नहीं है। चार साल पहले ही उसने अपना घर बनवाया था, यह मानकर कि शहर में रहना हर हाल में ठीक होता है। किसे नहीं पता कि घर बनवाना आसान नहीं होता, वह भी शहर में, फिर भी मनीष ने शहर में घर बनवाया। कुमुद भी तो घर बनवाने के लिए जिद्द कर रही थी।
उसे पता था कि कुमुद गॉव मंें नहीं रह सकती, उसने गॉव देखा नहीं है। जब से उसने खुद को जानना और समझना शुरू किया है, तब से शहर में ही रह रही है। पढ़ाई लिखाई सारा कुछ, उसने शहर में ही किया है।
एक बार कुमुद किसी गॉव में गई थी, अपने पापा के साथ। गॉव में कोई मीटिंग होनी थी, विस्थापन का मामला था, एक प्राइवेट कारखाना बनवाने के लिए गॉव वालों को उजाड़ा जाना था। कारखाने को तीन सौ एकड़ जमीन चाहिए थी और सरकार ने उसे देने के लिए जो भी कानूनी प्रस्ताव वगैरह होते हैं, पास कर लिया था। सारा कार्यक्रम सरकार ने आनन फानन में तय कर लिया था और किसी को कानो कान खबर तक नहीं लगी थी। कुछ महीनों में ही गॉव वालों को उनकी जन्मभूमि तथा कर्मभूमि से उजाड़ दिया जाना था। यह सब करने में कमजोर से कमजोर सरकार भी बहुत मजबूत व ताकतवर हुआ करती है। चाहे वह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के मामलों में विश्वबैंक तथा संयुक्त राष्ट्रसंघ के सामने, किसी अनाथ की तरह हाथ जोड़े खड़ी रहती हो, इतना ही नहीं, सारी दुनिया में घूम घूम कर देश की सुरक्षा के नाम पर घातक हथियारों, मिजाइलों वगैरह की भीख मांगा करती हो फिर भी देश के आंतरिक मामलों जैसे गॉव के गरीब किसानों के विस्थापन संदर्भाें में या दूसरे तरह के शोषणों के मामलों में, भीख मांगने वाली सरकारें भी अपनी जनता के साथ जघन्य से जघन्य क्रूरताएं बरतती रहती हैं।
तकरीबन दस गॉवों को उजाड़ा जाना था, गॉवों के लोगों को विस्थापित किये जाने के औचित्य को साबित करने के लिए सरकार के पास ढेरों कानून थे। उन कानूनों में जो भी दरारें थीं उन्हें सरकार ने संसदीय सहमतियों, एवं विधिक संस्तुतियों से पाट लिया था। प्रशासन ने गॉवों को उजाड़े जाने की नोटिस भी तामिल करवा लिया था। नोटिस में साफ लिखा था कि जिन्हें आपŸिायां करनी हों, वे एक माह के भीतर करें नहीं तो माना लिया जायेगा कि किसी को कोई एतराज नहीं है, फिर सारे प्रकरण को एकतरफा ढंग से निपटा लिया जायेगा।
गॉव वालों को नोटिस वगैरह के बारे में कुछ पता नहीं था... नोटिस कब आई, किसने भेजा, सारा कुछ रहस्य था। अचानक एक दिन गॉव की नापी होने लगी, तब गॉव वालों को पता चला कि वे उजाड़े जांएगे।
विस्थापन वाले कामों को किये जाने की ऐसी ही परंपरा है। पहले नोटिस भेज दी जाती है। नोटिस के जबाब आते हैं। जिन्हें पता होता है कि जबाब दिया जाना है, वे जबाब दे देते हैं। जिन्हें नहीं पता होता वे जबाब नहीं दे पाते। जो जबाब आए होते हैं, कहा जाता है कि जबाबों के परिप्रेक्ष्य में नोटिस का निस्तारण होता है। जबकि जबाबों के निस्तारण की परंपरा ने कभी समाज को उल्लेखनीय लाभ नहीं पहुंचाया है। मान लिया जाता है कि सरकारें जो कुछ भी करती, कराती हैं वह सब राष्ट्र हित में समाज और अपनी जनता के लिए ही, फिर सरकारी काम से किसी को कैसे नुकसान हो सकता है?
कुमुद को जाने कैसे उस दिन गॉव अच्छा लगा था। वहां के लोग उसे सरल और सीधे लगे थे, पर उसे वहां गुस्सा भी खूब खूब आया था। ऐसे सरल और सहज लोगों को जाने कैसे उजाड़ने के बारे में सरकार निर्णय ले रही है? क्या तमाशा है, जो कई कई शहरों में काबिज हैं, कई कई धन्धों को हथियाए बैठे हैं, उन्हें नहीं उजाड़ रही? उजाड़ रही ऐसे लोगों को जिनके पास इस गॉव के अलावा कहीं शरण नहीं...
वह तो अपने पापा पर ही गुस्सा हो गई थी.....
‘पापा यह क्या है? आप मीटिंग करके यहां से लौटने के लिए सोच रहे हो। आपके मित्र कामरेड भी चले गये, उनमें से एक कामरेड तो कार्यक्रम के संयोजक से कार का किराया भी मांग रहे थे, बोल रहे थे, कार का किराया दे दो, दसके अलावा हमलोगों को कुछ नहीं चाहिए।’
‘अरे वही, जो लखनऊ विश्वविद्यालय वाले हैं, जिनका बहुत बड़ा नाम है, उनके साथ जो लेखक किस्म के एक आदमी थे, अभी उनकी एक किताब ‘खामोशी का वैश्वीकरण’ प्रकाशित हुई है, जिसकी समीक्षा मैंने साहित्य की चर्चित पक्षीनामधारी पत्रिका में पढ़ी है। वे मना कर रहे थे...
‘जाने दो भाई, गॉव वाले रूपया कहां से देंगे। हमलोग आपस में खर्चा बांट लेंगे। तीन तीन सौ या चार चार सौ एक एक आदमी पर पड़ेगा और क्या। साथ ही साथ वे सभी लोगों को रोक भी रहे थे, काम तो यहां हैं, जनता के
बीच में, इनकी लड़ाई को आगे बढ़ाना है, फिर यहां से लौटने का क्या मतलब। बेचारे गॉव वाले क्या करेंगे, सरकार का विरोध करना आसान नहीं होता। सरकार के पास तमाम तरह की ताकतें होती हैं, जो जनता के मन को कमजोर तथा लचीला बना दिया करती हैं। फिर जनता किसी छुई मुई माफिक अपनी ही छुअन से डर कर, खुद को अपने अपने भाग्य के रहस्यों में डुबो लिया करती है।
मीटिंग में जो बाहरी लोग आए हुए थे वे गॉव में रुकने वाले नहीं थे। वे भाषणों को बेचने वाले सौदागर थे। ऐसे तिजारती लोग भला उस गॉव में रुक कर गॉव वालों के साथ लाठी डंडंे क्यों खाते। मीटिंग खत्म हुई और वे चले गये। कुमुद ने अपने पापा पर व्यंग्य किया....
‘पापा आपको जाना हो तो जाइए, मुझे इन गॉव वालों को इस हालत में छोड़ कर नहीं जाना’ कुमुद लड़ गई अपने पापा से..
पापा तो पापा, उन्हें अपने अनुभवों से हासिल ज्ञान पर गर्व था..
‘क्या बोल रही तूं, का करेगी इस गॉव में रुक कर, जानती है इस इलाके के बारे में, यह क्षेत्र नक्सलाइटों का है, यहां आदमी नहीं, बन्दूकें बोलती हैं, यहां बन्दूकें कहानियां और कवितायें लिखती हैं। यहां रुकना ठीक नहीं होगा और गॉव वालों को भी कुछ लाभ नहीं मिलेगा।’
‘पापा आप चाहे जो सोंचें, गुनें, पर मुझे इस गॉव से बाहर नहीं जाना। मैं जानती हूॅं कि गॉव वालों को इस समय मेरी आवश्यकता है, और अगर नहीं भी है तो मुझे मालूम है कि गॉव वालों के साथ रहने की आवश्यकताओं को मैं कैसे रच व गढ़ सकती हूॅं। इस परेशान गॉव में मैं अपनी उपयोगिता सिरज लूंगी’
‘तो तुम्हें वापस नहीं लौटना, तूं यहां रुक कर करेगी क्या? कोई प्लान है क्या तेरे पास?’
‘फिलहाल तो नहीं, प्लान पहले से बना कर क्या होगा? प्लान तो परिस्थितियों के आधार पर बनाना अच्छा होता है।’
‘पापा शहर लौटने के लिए आप कैसे बोल रहे हैं? आपने ही तो मुझे सिखाया है कि अत्याचारों से लड़ना हर समझदार के लिए आवश्यक है, चाहे अत्याचार खुद के या किसी गैर के ऊपर हो। अत्याचार तो सिर्फ अत्याचार होता है, अत्याचार का प्रतिकार न करना, खामोश रहना, यह अत्याचार करने से भी भयानक है। आपकी उस सीख का क्या हुआ पापा?
‘आप कहा करते थे, जनता की लड़ाई जनता के द्वारा, उसकी अगुआई भी जनता के द्वारा। प्रताड़ित किये जाने वाले लोगों को वुद्धिजीवियों द्वारा वैचारिक सहायता देनी चाहिए, जिससे लड़ाई की धारा अराजक न होने पाये। मैं तो आपके साथ नहीं लौटने वाली। गॉव वालों को असहाय छोड़ कर मैं नहीं जा सकती पापा।’
कुमुद की बातें प्रोफेसर आलोकनाथ को बहुत बुरी लगी थीं...
‘लगता है, कुमुद मनबढ़ होती जा रही है और अपने लिए हुए फैसलों के प्रति कट्टर भी।’
बहुत कुछ कुमुद के बारे में सोचने लगे थे आलोकनाथ। जैसे यही कि कुमुद को खुली सोचों का नागरिक नहीं बनने देना चाहिए था। यह तो अतुकांत कविता की तरह मर्यादा के नियंत्रणों को तोड़ रही है। इसे पता ही नहीं कि जीवन जीने के तरीकों में आत्मनियंत्रण की भूमिका होती है। अभी से ही मनमानी पर उतर आई है, बोल रही है, वापस नहीं लौटना। मेरी समझ में नहीं आ रहा यहां रुक कर करेगी क्या? क्या आन्दोलन चलाएगी? क्या करेगी आखिर यहां रुक कर?
‘नहीं तुझे मेरे साथ चलना ही होगा, मेरे बारे में सोचो न सोचो, कम से कम मनीष के बारे में तो सोचो, उसे बुरा लगेगा।’
सख्त हो गये थे आलोकनाथ, उनकी ऑखें लाल होने लगीं थीं और चेहरे पर लोहे सी गर्मी पसर आई थी। एक दम से लाल लाल, तपते तवा माफिक। होठ सूखने लगे थे, उंगलियां हरकत में आ गई थीं जैसे कुमुद को मार ही देंगे पर उन्हांेने कुमुद को कभी मारा नहीं था, मारना तो दूर गुस्सा कर डांटा भी नहीं था। जब कभी कुमुद की मॉ कुमुद की युवा शरारतों पर डांट दिया करती थीं, तब वे पत्नी पर बरस पड़ते थे। आलोकनाथ ने कुमुद की तेज तर्रार छाया में छरहरा जवान लड़का देखा था, समय से मुठभेड़ करने वाला तथा अपने पैरों पर खड़ा होकर आसमान में छेद करने वाला, साथ ही साथ अपने हित अहित के द्वन्दों को अनुकूलित करने वाला, पर यह कुमुद तो जाने क्या सोच व गुन रही है।
‘आन्दोलन करेगी, गिरफ्तारी देगी, नारे लगायेगी, इन गॉव वालों के साथ। इसने मुझसे कुछ नहीं सीखा। इसे तो यह भी नहीं मालूम कि लड़ाइयां विचारों के औजारों से लड़ी जाती हैं... लड़ाई लड़ने के लिए विचारों को जांचा परखा जाता है, फिर युद्ध की चुनौती स्वीकार की जाती है, तूं तो पहले ही चुनौती देने लग गई हो।’
आलोकनाथ छटपटाती सोचों में थे, कुमुद को दुबारा आदेशित किये...।
‘चल मेरे साथ, यहां नहीं रुकना है’
पर कुमुद को तो खुद को प्रमाणित करने वाली दुनिया दीख रही थी, शहादत वाली, वलिदान वाली, सिर्फ अपने लिए क्या जीना, जिया तो दूसरों के लिए जाता है। उसने आलोकनाथ से साफ बोल दिया कि उसे नहीं लौटना तो नहीं लौटना।
कुमुद तो अपने पापा के प्रति पहले से ही सचेत थी और उसने तय कर लिया था कि उसे क्या करना है तथा कैसे करना है? वह अपने पापा को लगातार समझने की कोशिश कर रही थी, पर समझा नहीं पा रही थी। कुछ समय बाद तो वह उनके बारे में बहुत कुछ जान गई थी।
वह उन कामरेडों को भी संदेह से देखने लगी थी, जो वैचारिक ज्ञान अर्जन के लिए उसके पापा के पास आया करते थे। क्या उन्हें नहीं पता है कि ये जो कामरेड आलोकनाथ हैं, वे अक्षरों के युद्धभमि के योद्धा हैं...। इनके तमाम भाषण कामरेडों के द्वारा संसदीय प्रणाली स्वीकार करने के बाबत थे। जो काफी महत्वपूर्ण तथा गंभीर थे। वे एक ऐसे कामरेड हैं जिनसे कोई माई का लाल तर्कों में जीत नहीं सकता। इनके पास बने बनाए तर्कों व मन्सौदों का खजाना है। संसदीय लाईन पर चलने के औचित्य को कामरेड आलोकनाथ ने तत्कालीन परिस्थितियों में अनिवार्य बताया था तथा उसे समाज बदल का कारगर औजार भी प्रमाणित किया था। देश भर में बिखरे कामरेडों को जान पड़ा था कि उनके बीच आलोकनाथ के रूप में कोई देवदूत है, फिर तो वे संसदीय लाईन को समाज बदल का कारगर तरीका मान लिये थे।
पढ़ाई के अन्तिम वर्ष में एक दिन कुमुद ने अपने पापा को छेड़ा था.....
‘पापा हरावल दस्ता क्या होता है? क्या आप कभी इस दस्ते में रहे हैं?’
आलोकनाथ पसीने से सरोबार हो गये थे, तत्काल उनका ज्ञान बौना पड़ गया था तथा उŸार देने में असमर्थ हो गये थे.
कुमुद ने दुबारा पूछा था...
‘पापा क्या होता है, हरावल दस्ता?’
‘इसे लड़कू दस्ता बोलते हैं बेटा’
‘कैसा लड़ाकू दस्ता?’
‘अरे उनका दस्ता जो क्रूर हुकूमत बदलने के लिए हिंसा का सहारा लेते है.. सामाजिक बदलाव की लड़ाई लड़ने वाले लड़ाकू दस्ते को, हरावल दस्ता बोलते हैं, पर यह सब तूं काहे पूछ रही है?’
‘बस ऐसे ही पापा, कोई खास बात नहीं, मैं जानना चाह रही थी कि आपकी लाईन क्या है? सुना है आप भी कभी भूमिगत थे और जनचेतना के हरावल दस्ते में रहे थे। अब आप संसदीय लाईन पर हैं, वैसा कुछ नहीं कर रहे हैं जिससे भूमिगत रहना पड़े, इसीलिए पूछ रही हूॅं पापा।’
आलोकनाथ कुमुद का चेहरा देखने लग गये थे। उन्हें समझ आ रहा था कि कुमुद कोई चुनमुन चिरैया नहीं है, इसकी ऑखों में तरतीब से जलने वाली आग है, ऐसी आग जो बनावटी तथा सजावटी चेहरों को भस्म कर दिया करती है। आलोकनाथ कुमुद के चेहरे पर अपनी ऑखें नहीं टिका पाये थेे। उन्हांेने अपना मुंह आलमारी में सजा कर रखी किताबों की तरफ घुमा लिया था।
आलमारी में ढेर सारी किताबें रखी हुई थीं। वहां ऐसी भी किताबें थीं जिसमें दुनिया में हो चुके सभ्यतागत बदलावों को विश्लेषित करने वाले खोजपूर्ण आलेख प्रकाशित थे। उनमें खास बात यह भी थी कि उन बदलावों के तरीकों के विशद वर्णन थे। आलोकनाथ उन वर्णनों को जब तब पढ़ा करते थे और अपनी मानसिक ऊर्जा बढ़ाया करते थे। उनमें कुछ आलेख ऐसे भी थे जिनमें उनके करतबों का प्रतिबिम्ब दिखता था। जिन्हें पढ़ कर वे घबरा जाया करते थे और आत्मपरीक्षण करने लगते थे।
‘नहीं,ं नहीं, वे संशोधनवादी नहीं हैं, संशोधनवादी तो उन्हें कहा जाना चाहिए जो सŸााप्रबंधन के समर्थक हों। ठीक है, वे हरावल दस्ते में नहीं हैं, समाज बदलने के लिए हिन्सा का समर्थन नहीं करते पर वैचारिक लड़ाई में तो वे किसी योद्धा से कम नहीं हैं। उन्हांेने सŸाा का कभी समर्थन नहीं किया।’
आलोकनाथ अकेले शहर लौटे, कुमुद आलोकनाथ के साथ नहीं लौटी, वह गॉव में ही रह गई। गॉव में गई तो गॉव वालों का बन कर रह गई। उनके आन्दोलन का सक्रिय कार्यकर्ता बन कर। वह मनीष के बारे में आश्वस्त थी कि उसे समझा लेगी, सो उसे मनीष की चिन्ता नहीं थी।
मनीष परेशान, परेशान था, आखिर कुमुद कहां चली गई? वह कभी इस तरह से बाहर कहीं नहीं रुका करती थी, चाहे जितनी रात हो जाये, घर अवश्य ही लौट आती थी। उसने आलोकनाथ को फोन मिलाया...
‘सर! कुमुद नहीं आई क्या अभी तक।’
‘हां वह वहीं गॉव में रुक गई है, उसे लगता है उसकी जरूरत गॉव में है।’
‘कब तक वापस लौटेगी? कुछ बताया है क्या?’
‘नहीं, इस बारे में उससे कोई बात नहीं हुई’
मनीष लगातार कुमुद को फोन मिला रहा था पर उसके मोबाइल का स्वीच आफ चल रहा था, परेशान हो कर उसने आलोकनाथ से पूछा था।
मनीष को अपने घर में भला नहीं लग रहा था। वह तो पहले से ही चुनाव की हार के गम में डूबा हुआ था। सारी जमा पूॅजी उसने चुनाव में फूंक दिया था, इतना ही नहीं गॉव की कुछ जमीन भी बिक गई थी। ऐसे तनाव भरे समय में उसके लिए कुमुद ही सहारा थी। वह मान कर चल रहा था कि वह जिन्दगी की सारी उलझनों को कुमुद के साथ रहते हुए सुलझा लेगा। देर रात तक वह कुमुद की प्रतिक्षा करता रहा था। नींद ने उसे कब जकड़ लिया, उसे पता ही नहीं चला। नींद खुलने पर उसने देखा कि घर के सारे दरवाजे खुले हुए हैं...
‘कोई अनहोनी नहीं हुई?’ मनीष दरवाजे बन्द करना भूल गया था।
कुमुद की प्रतिक्षा करते करते सात दिन गुजर गये। कुमुद का फोन नहीं आया और न ही उसका फोन मिल रहा था। मनीष घबड़ा गया, हुआ क्या आखिर? ऐसा तो कुमुद कभी नहीं करती थी, कहीं बीमार तो नहीं हो गई, गॉव का पानी लग गया होगा या मच्छरों ने काट लिया होगा।
मनीष अखबारों में लगातार पढ़ा करता था कि गॉव वालों के सक्रिय विरोध के कारण पहड़िया टोला में कारखाना बनना मुश्किल हो गया है। कई बार ग्रामीणों तथा पुलिस के बीच हिन्सात्मक झड़पें हो चुकी हैं। कई ग्रामीणों की गिरफ्तारियां भी की गई हैं। कहीं कुमुद भी गिरफ्तार तो नहीं हो गई?
मनीष ने एक दिन आलोकनाथ से कुमुद के बारे में दुबारा पूछा था पर उन्हें भी कुमुद के बारे में कुछ नहीं पता था। वे कुमुद से नाराज थे, सो उसका हाल अहवाल नहीं ले रहे थे। आलोकनाथ ने तो कुमुद को फटकार ही दिया था।
‘जा जो करना हो कर, तुझे मरना है तो मर। मैंने तो सोचा था कि किसी कालेज में लगवा दूंगा। कालेज के लिए लेक्चररों की नियुक्तियों वाले चयन समितियों में बहुत सारे लोग मेरे हैं। किसी को बोल दूंगा, पर नहीं, तुझे तो क्रान्तिकारी बनना है तो बन। तुझे कौन समझाए कि हमारे देश की समाजार्थिक परिस्थितियां क्रान्ति के अनुकूल नहीं हैं। सामाजिक क्रान्ति का अभियान चलाने के लिए यहां के लोगों में वह गुस्सा नहीं है जो होना चाहिए। किसी खास मुद्दे पर आकस्मिक ढंग से गुस्सा हो जाना तथा सामाजिक बदलाव के लिए सŸाा के प्रबंधकीय तकनीकों पर गुस्सा हो जाना, दोनों बातें अलग अलग होती हैं।... क्रान्ति के लिए सŸााप्रबंधन के तकनीकों पर गुस्सा आवश्यक है जो दूर दूर तक भारतीय समाज में नहीं दीख रहा। हम भारतीय लोग तटस्थता और मौन के सनातनी पूजक हैं, हम सारी चीजों को दैवीय मानते हैं।’
आलोकनाथ कुमुद के कारण तनाव में थे, तनाव में क्यों नहीं रहते, वही उनका सहारा थी। पर करते क्या कुमुद तो जुनूनी हो गई थी, जिसे आलोकनाथ एक गलत कार्यवाही मानते थे। कहते थे......
‘उŸोजना शुचितापूर्ण चेतना को लील कर व्यक्ति को अराजक बना देती है, जाहिर है, अराजकता से समाज बदल नहीं हुआ करता’
मनीष को कुमुद के बारे में आलोकनाथ से कोई जानकारी नहीं मिली। परेशान हो कर वह अपने गॉव चला गया, जहां आन्दोलन चल रहा था। वहां कुमुद नहीं थी। वह संतोष के साथ भूमिगत हो चुकी थी।
’यह संतोष कौन है?’
मनीष के लिए बहुत बड़ा सवाल था। संतोष के बारे में उसे जो जानकारी मिली वह चौंकाने वाली थी। मालूम हुआ कि संतोष बिहार का रहने वाला है और किसी भूमिगत संगठन का अगुआ है। संतोष के सक्रिय सहयोग व समर्थन के कारण गॉव वालों को अब तक नहीं उजाड़ा जा सका है। गॉव वालों की प्रशासन से कई बार आमने सामने की लड़ाइयां हो चुकी हैं और प्रशासन के लोग भाग खड़े हुए हैं...। लड़ाइयों के कारण प्रशासन ने फिलवक्त विस्थापन के काम को रोक दिया है।
संतोष के बारे में जानकारी जुटाना मनीष के लिए खतरनाक भी हो सकता था, क्योंकि गॉव के लोग गरम थे, एक महीने पहले ही तो गॉव वालों की वन प्रशासन से आमने सामने की झड़प हुई थी। गॉव वाले आग में जलने के लिए तैयार थे, लगता था कि वे आग में से तप कर निकले भी हैं। लगता उनके लिए सामाजिक व्यवस्था, कायदा, कानून तथा समरसता का मामला, महज कुछ शब्द भर हैं जो समय के साथ भोथरे तथा निष्प्रयोज्य हो चुके हैं...।
मनीष गॉव में जिस आदमी के घर पर था, वह भी खूब खूब डरा हुआ था। डरते हुए बताने लगा...
‘बबुआ जाने का हो इस गॉव का, सिपाहियों को मारना ऐसा तो हमने नाहीं सुना था न देखा था बबुआ! पर उहो देखना पड़ा हमैं... संतोष गुरुजी ने ललकार दिया फिर क्या था गॉव के लड़के सिपाहियों पर टूट पड़े। लात जूते बरसने लगे, सिपाहियों पर। दो बार तो पहले भी ऐसा हो चुका था बबुआ। बीसों लोग गॉव के गिरफ्तार हो चुके हैं। संतोष गुरुजी और उनके साथ रहने वाली मेम साहब जाने का लगती हैं, गुरु जी की? हमैं तो जान पड़ता है कि मेहरारू ही हांेगी। गॉव में मारपीट के बाद दोनों लोग जाने कहां भाग गये। उन दोनों लोगों का कहीं अता पता नाहीं है। हमरे गॉव के लड़कवे हैं न बाबूजी! संतोष गुरुजी को कउनो देवता बूझते हैं, ओन्हई के आगे पीछे लगे रहते हैं, लड़िकवन के कुछू बोलो तो गरम हो जाते हैं.....।
‘बोलते हैं कि ई सब हम लोगन कऽ राज है, वन हमार, पहाड़ हमार, नदी नाला, ईहां जौन कुछ है, सब हमार है। बाहरी लोगन के हम लोग ईहां नाहीं आने देंगे।’
‘जाने दो बबुआ का करोगे सब जानकर। हमार बात केहूॅ से जीन बताना, तोहैं भलमानुष बूझ कर हमने बताय दिए, नाहीं तो हम लोगन कऽ मॅुह सिलाय गया है। एक बात अउर है बबुआ! तूंहो ए गॉव से जल्दी भाग निकलो। पुलिस के लोग अगलै बगल होंगे। देख लेंगे तो तोहैं भी संतोष गुरुजी का साथी बूझ कर जेहल में डाल देंगे। भागो भागो बबुआ!’
मनीष उस गॉव वाले की बातें सुन कर अनिर्णय की स्थिति में था, आखिर यह संतोष कौन है और कुमुद का उससे क्या लेना देना है? उसे विगत ख्याल आने लगा...
वह भी तो पहले कुमुद को नहीं जानता था। हालांकि दोनों एक ही विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे। पर थे अलग अलग कालेजों में, अलग अलग विषयों में पोस्ट ग्रेजुएसन कर रहे थे। छात्र संघ के चुनाव के दौरान कुमुद उससे मिली थी, वह भी छात्र संघ की अध्यक्षी की प्रत्याशी थी। मनीष तो था ही। मनीष चुनाव जीत गया, उसे भारी समर्थन हासिल हुआ था। दूसरे नम्बर पर कुमुद थी। कुमुद ने मनीष को जीत की बधाई दी थी। फिर मिलने का सिलसिला जो चला तो चलता ही गया। दोनों साथ रहने लगे। साथ रहने में दोनों के सामने कोई दिक्कत नहीं थी, दोनों खुले दिमाग के थे और मानते थे कि नर और नारी के रिश्तों में सखी-सखा वाला मन ही आवश्यक होता है। दोनों वादाखिलाफी को बुरा मानते थे फिर तो उनके लिए विवाह का नाटक आवश्यक नहीं था। इसी सोच के कारण दोनों ने वस्तुतः विवाह भी नहीं किया। हां दोनों ने आलोकनाथ के चरण छू कर आशीर्वाद जरूर लिए थे और साथ साथ रहने लगे थे। कुछ दिनों में ही दोनों की सांसें व घड़कने एक दूसरे को सहलाने, चूमने लगीं थीं..।. जैसे उन्हें अलग होना ही नहीं है हालांकि वे अर्धनारीश्वर नहीं थे, पर थे, उसी के समरूप, एक दूसरे में विलयित।
मनीष का सोचना था कि जिस तरह उसने छात्रसंघ का चुनाव जीत लिया था अपने व्यवहार और विचार के आधार पर, उसी तरह विधायकी भी जीत लेगा, पर नहीं जीत सका और हार गया। हार भी पांचवें नम्बर की। कुमुद ने चुनाव में मनीष के लिए जी जान लगा दिया था। जितना वह कर सकती थी।
कुमुद के बारे में जानकारी लेकर मनीष शहर लौट आया, उसे लौटना ही था, का करता गॉव में... चार दिन बाद उसे एक चिठ्ठी मिली। वह चिठ्ठी पढ़ने लगा...
‘प्रिय मनीष!
मैंने तुझे गॉव में देखा, मुझे मालूम था कि तुम मुझे ढूढने जरूर आओगे, मैंने संतोष को तुम्हारे बारे में बता दिया था। संतोष तुझसे मिलना भी चाहता था पर सुरक्षा कारणों से हमलोग तुझसे नहीं मिल पाये। हम दोनों तुझे देख रहे थे तथा उस आदमी को भी, जो तुझसे बतिया रहा था।
तुम एक अच्छे आदमी हो मनीष! ऐसा मैं कई बार संतोष को बोल चुकी हूॅं, तुझसे बहुत कुछ सीखने और जानने का लाभ मुझे मिला है, जिसे मैं कभी भूल नहीं सकती। अब संतोष के साथ रहते हुए मुझे रोमांचक अनुभव मिल रहे हैं...
जंगल, नदी, नाले, पहाड़, पेड़, झाड़ियंा और चौड़े चौड़े हरियाई धरती के विशाल भूखण्ड, पŸाों का हरापन, उनका सरसराना, मादकता में डूब कर झूमना सारा कुछ देखो तो देखते रह जाओ। शायद तुमने पŸिायों से लदी टहनियों को, झूम झूम कर आपस में बोलते बतियाते देखा और महसूसा होगा। जंगल की मादकता में डूबना मुझे तो बहुत ही अच्छा लगता है।
जानते हो मनीष! यह पत्र लिखते समय मैं पहाड़ की एक चोटी पर बैठी हुई हूॅं, इसे हिमगिरि का उŸाुंग शिखर समझ सकते हो, संतोष मुझे भीगे नयनों से देख रहा है, मैं शीतल प्रवाह की तरह संतोष को खुद में बहाए जा रही हूॅं, मजा यह कि वह भी मेरे प्रवाह के साथ बह रहा है।
मनीष याद करो वे दिन, जब मैं तुम्हारे साथ तुम बन गई थी और तुम मैं बन कर मुझे दिल की अतल गहराई में डुबोए जा रहे थे फिर उस गहराई में अचानक हमदोनों तैरने लगे थे। याद हैं न वे दिन। क्षमा करना मनीष! मैं तुमसे बिना कुछ बताए ही यहां आ गई, मैं जानती हूॅं कि मुझे तुमको बता देना चाहिए था। यहां आने पर संतोष मिला तथा गॉव के लोग, जो परेशान हैं जिन्हें विस्थापित किया जाना है। मुझे लगता है कि गॉव वालों के लिए मैं कुछ कर सकती हूॅं। विस्थापन के खिलाफ एक सक्रिय मोर्चा बना सकती हूॅं, यानि कि एक लड़ाई लड़ी जा सकती है, सरकार की जनविरोधी नीतियों एवं कार्यक्रमों के खिलाफ। कुछ ऐसी ही ऊर्जां संतोष में भी मैं देख रही हूॅ... यही ऊर्जा हासिल करने के लिए जाने कब से परेशान परेशान थी मैं...।
‘बुरा मत मानना मनीष! समाजबदल की ऊर्जा से तो तुम भी लबालब हो पर तुम्हारी ऊर्जा में संभ्रांतता का घोल है। जिसमें दिमाग और कंठ का मिश्रण है, जबकि संतोष की ऊर्जा में पेट ही पेट है। पेट की धधकती आग है, वही आग जो मुझे चिनगारी बनने के लिए प्रेरित करती है, वही मैं संतोष की चेतना में देख रही हूॅं, पर एक बात साफ है कि आजादी पूर्वक जीवन जीने का रास्ता तुमने ही मुझे सिखाया है। जिसका परिणाम है कि मैं इस पत्र में वह सब लिख पा रही हूॅं जो मुझे नहीं लिखना चाहिए था, पर मुझे यकीन है कि तुम एक सचेतन आदमी हो, दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना जानते हो, यही तुम्हारी आदत तुम्हें मुझ पर नाराज होने से रोकेगी। तुम खुद को नियंत्रित कर यह प्रमाणित भी कर सकोगे कि तुम आजादी का सम्मान करना जानते हो, तथा समानधर्मा रिश्तों का निर्वहन भी।
‘सच बताऊं मनीष! आज जिस लाईन का चुनाव मैं कर सकी हूॅं, वह तुम्हारी ही सीख है। तूंने ही सिखाया है कि मित्रता में झूठ बोलना अपराध होता है, सो सच सच बोल रही हूॅ...
हम इस समय ऐसे मोड़ पर हैं, जहां तमाम तरह के आकस्मिक निर्णयों के लिए सलाह मशविरे की जरूरत पड़ती है। मेरे साथ तुम्हारा न होना काफी अखर रहा है, पर मैं तुम्हारी प्राथमिकताओं को जानती हूॅ...। सो तुमसे यह नहीं बोलूंगी कि तुम भी हमारे साथ जुड़ जाओ, फिर हम एक साथ मिल कर नया सबेरा देखने की कोशिश करंे...।
खैर क्षमा करना साथी! और उस समय को भूलने की कोशिश भी, जिसे हम दोनों ने एक दूसरे में विलयित हो कर जिया था। संभव है कि अब तुमसे मुलाकात न हो, मैं जिस रास्ते पर चल पड़ी हूॅं उसके हर कदम पर मृत्यु थिरकती रहती है।
एक निवेदन यह भी है कि हमारे बीच संबधों का जो अन्तर्लयन था, उसे प्रलय न समझना तथा प्रकृतिस्थ होने के संभव उपायों को आजमाते रहना। यहां मैं तुम्हारी स्मृतियों के मनोरम कौतुकों में गोते लगाती रहूॅंगी। हो सके तो पापा का भी ध्यान रखना।’
पत्र लम्बा था, पत्र के एक एक शब्द मनीष को टुकड़ों में बांट रहे थे। मनीष विखंडित हो कर किसी कठिन कविता का हिस्सा बनता जा रहा था। उसे आने वाले समय के साथ कुमुद से जुड़ी यादों की संगति बिठाने का काम करना था तथा मान कर चलना था कि समय उससे आगे निकल चुका है। वह बीते समय में अब नहीं लौट सकता, उसके सारे दरवाजे बन्द हो चुके हैं...।
पत्र पढ़ लेने के बाद मनीष चौंक गया...
‘तो क्या कुमुद जिस ‘लाईन’ की बातें, बात बात में किया करती थी, वह ‘लाईन’ यही है। इसी लाईन पर वह चलना चाहती थी, यानि कि संतोष की लाईन। संतोष की लाईन ही अगर कुमुद को पसंद थी तो मुझसे जुड़ने का मतलब?’ क्या उसे नहीं पता कि ‘लाइन’ में लगना और ‘लाइन’ बन जाना अलग अलग बातें होती हैं’
‘मुझसे वह जुड़ी तो उसे पता था कि मेरी लाईन का बाजार है और मैं छात्रसंघ का चुनाव जीत चुका हूॅ, वह विजेता के साथ थी, पराजित के साथ नहीं। अब तो मैं हारा हुआ, औसत दर्जे का आदमी भर ही हूॅ। भला मेरे साथ कुमुद कैसे रह सकती है? अगर उसे कहीं जाना था, तो चली जाती, यह क्या है कि बिना बताये ही चली गई। कुमुद को समझना चाहिए था कि ’आज का राजनीतिक समय पहले वाला नहीं है, आज तो केन्द्र की सरकार ही नहीं प्रदेशों की सरकारें भी वामपंथियों तथा जनवादियों के विचारों के खिलाफ हैं। वामपंथी व जनवादी शाक्तियों को जनता ने मौजूदा चुनावों में नकार दिया है।
मनीष परेशान था। वह दोस्तों से कुमुद के बारे में क्या बताता, कि वह उसे छोड़कर चली गई है अपनी ‘लाइन’ बनाने के लिए।
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कौन लिखेगा पुरखों पर कहानियां
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2025-06-13T04:39:27Z
Ramnathshivendra
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' '''कौन लिखेगा पुरखों पर कहानियां''' '''रामनाथ शिवेंद्र''' [[File:2025Rnathshivedra46.jpg|thumb|in a seminar]] आज के जटिल समय में पुरखों को कहानियों में जगह नहीं मिल रही, मिलनी चाहिए क...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
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text/x-wiki
'''कौन लिखेगा पुरखों पर कहानियां'''
'''रामनाथ शिवेंद्र'''
[[File:2025Rnathshivedra46.jpg|thumb|in a seminar]]
आज के जटिल समय में पुरखों को कहानियों में जगह नहीं मिल रही, मिलनी चाहिए कि नही विमर्श का विषय है। पुरखे यानि वरिष्ठ नागरिक ये न केवल अपने बनाये घर, मकान से बेदखल किये जा रहे हैं वरन् कहानियों, लेखों, संस्मरणों आदि से भी बेदखल किये जा रहे हैं। पुरखों पर कहानियॉ लिखने का प्रचलन नहीं के बराबर है। जबकि पुरखों के मुद्दे पर चर्चा करना, उन्हें कथाओं में लाना, एक तरह से मानव सभ्यताओं द्वारा अपनाये गये सŸाा कौतुकों के विमर्श का ही मामला है। पुरखे किसी टापू से प्रकट हुए अनजाने व्यक्ति नहीं हैं, किसी दूसरी सभ्यता का यात्री नहीं, बल्कि हमारे अपने पारिवार के मुखिया ही हैं। ये वही व्यक्ति हैं जिनकी गोदी में खेलते कूदते, चूमते, चाटते हम समझदार हुए हैं। ये वही मुखिया हैं जिनका बहुत ही कूट चालाकी से वरिष्ठ नागरिक में रूपांतरण किया जा चुका है या किया जा रहा है। हमें बहुत ही गंभीरता से परिवार के मुखिया यानि हमारे पुरखों का यह जो वरिष्ठ नागरिक के रूप में रूपांतरण है उसे समझना, व बूझना होगा। ऐसा अचानक नहीं हुआ है, इस रूपांतरण का सिलसिला बहुत पहले से ही आदिवासी से वनवासी, दलितों से अनुसूचित जाति आदि से प्रारंभ हो चुका है जिसके अपने विशेष अर्थ हैं। शब्दों के रूपांतरण पर बात करें तो साफ पता चलता है कि मामला हत्या का वध में रूपांतरण जैसा है। हत्या एक अपराध है जो सही तथा मान्य है पर वध को राजनीतिक जरूरत बताया जा रहा है जबकि हत्या और वध दोनों में ताकत से जीवन छीन लेने का ही काम किया जाता है। रावण का वध होता है, हत्या नहीं, कंश का वध होता है हत्या नहीं, यानि कि एक ऐसी हत्या जो समय (राजनीति) की जरूरत है वध है, वह हत्या नहीं है। तो यह जो परिवार के मुखिया का मामला है जिसे वरिष्ठ नागरिक में रूपांतरित किया जा रहा है उसे समझने के लिए हमें मानव सभ्यता के द्वारा स्थापित कराये गये परिवार की अवधारणाओं को समझना होगा। इसे समझने के लिए मुखिया से वरिष्ठ नागरिक के रूपांतरण की यात्रा पर निकल कर हमें देखना होगा कि यह जो वरिष्ठ नागरिक है, सभ्यता के किस पायदान पर है। मुखिया से वरिष्ठ नागरिक के पदस्थापन में उसे क्या, क्या हासिल होने वाला है तथा उससे क्या, क्या छिन जाने वाला है? साथ ही साथ यह भी समझना होगा कि क्या उसे कहानियों में वर्णित क्यों नहीं किया जा रहा? मानव सभ्यता लगातार कुदरतीतौर पर समय के साथ संघर्ष करती व उसे छलांगते हुए नये नये किस्म की अवधारणाओं व विचारों को सृजित करती रही है। अधुनातन बनने के क्रम में उसे अक्सर प्रचलित मान्यताओं, परंपराओं व रीति, रिवाजों से दो चार होने के लिए विवश होना पड़ा है। मानव सभ्यता जड़ परंपराओं के पोषण के बजाय संस्कृति के विभिन्न आयामों को अपनाते व तोड़ते हुए सामाजिक रिश्तों के गठन का कार्यभार संभालती रही है। अगर हम बीते समय के अनुमानों ( जिस पर ऐतिहासिकता का लेप चढ़ाया जा चुका है) को विश्लेषित करना चाहें तो साफ, साफ दिखेगा कि गुफा व जंगलों के बसावों वाला आदमी आज कहीं नहीं दिख रहा है, न उसकी संस्कृति दिख रही है और न ही उसका आचरण दिख रहा है। मानव तो तब भी मानव था, उसकी जरूरतें थीं, उसका अपना समाज था। जरूरतों को पूरित करने के लिए हमारे पुरखों ने तत्कालीन समय से मुठभेड़ करते हुए जिन जिन प्रारंभिक खोजों, आग, जल, कुदाल, गुफा, खाद्यान्न आदि को खोजा था वे आज भी उदाहरण हैं। आज हमारे पास अपने पुरखों के समय के साथ लगातार कठिन मुठभेड़ों तथा टकराहटों की क्षमताओं को देख व जान सकने के लिए न कोई साधन हैं और नही औजार हैं, हां आधे अधूरे अनुमान हैं जिसके आधार पर हम यह जान सकते हैं कि हमारे पुरखों ने कैसे आग, व खाद्यान्न आदि को खोजा होगा। अगर हम उस समय में उतरना चाहें तो कई तरह के सवाल खुद खड़े हो जाते हैं जैसे यही कि क्या आज जो मानव संबधों में रिश्तों की सबल बुुनावट है वह उस समय भी थी या वह दुनिया पशुवत रिश्तों की तरह थी पूरी तरह से उन्मुक्त, वर्जनाओं से परे।
हमें पुराने समय में उतरने के पहले यह जान लेना आवश्यक होगा कि हम जो आज मानव संबधों के पतन के बारे में चिन्तित हैं, हमें कहीं न कहीं लगता है कि हम लगातार पतित होते जा रहे हैं। हमारे समाज के पवित्र और शुचितापूर्ण रिश्तों में गिरावट आती जा रही है। हम अब मानव समीपता से कोशों दूर हो चुके हैं। हमारे लिए सहभागिता और सहकार बेमतलब के शब्द हैं। रिश्तों के बनावट की बात करें तो हमारे समाज में उसकी शुरुआत परिवार से शुरू होती है। ज्योंही हम परिवार की अवधारणाओं पर मंथन करते हैं त्योंही हमारा मन रिश्तों की शुचिता से पवित्र हो जाता है। मॉ दिखने लगती है, पिता दिखने लगते हैं, भाई दिखने लगते हैं, बहन राखी बांधने लगती है और सामने पत्नी का किकुड़िया चेहरा प्रकट हो जाता है, बच्चे किलकारियां भरने लगते हैं। उस समय दृश्य की अद्भुत दुनिया में हमें चले जाना होता है और ऐसा अचानक या आकस्मिक नहीं होता है। इसके लिए निश्चितरूप से हमारे पुरखों ने जी जान लगा दिया होगा फिर रिश्तों की पवित्रताओं को कायम करा सके होंगे। कुदरती तौर पर देखा जाये तो पशु और मानव में कई तरह के फर्क होते हुए भी कुछ मामलों में फर्क नहीं दिखता, खासतौर से नर और मादा वाले संबधों में। मानव सभ्यता के विकास क्रम में संभव है मानव, पशुओं की तरह ही रहा हो, उनमें रिश्तों की वर्जनांए न रही हों क्योंकि कुदरत तो केवल नर और मादा को ही सिरजती है, तो बहुत हद तक संभव है कि मानव भी सेक्स संबधों के मामलों में केवल नर और मादा ही रहा हो। नर और मादा वाले अव्यवस्थित कुदरती संबधों को व्यवस्थित करने के क्रम में हमारे पुरखे काफी जद्दो जेहद करते हुए परिवार और कबीले की अवधारणा तक पहुंचे होंगे फिर परिवार अस्तित्व में आये होंगे। फिर नर और मादा के रहने के तौर तरीकों में वर्जनायें आई होंगी, निषेध आये होंगे, यह सोचना कि परिवर तो यूं ही हमारे जीवन में रच, बस गये होंगे गलत है। आज हम जिस खुलेपन की बातें कर रहे है उसमें कहीं न कहीं परिवार के अस्तित्व का इनकार भी है, संबधों में चल रहे वर्जनाओं का इनकार है। आज की सभ्यता अपनी तरह से स्वीकार और अस्वीकार को सिरज रही है, रिश्तों की वर्जनाओं को नकार रही है। हम जानते व मानते हैं कि परिवार की अवधारणा में रिश्तों की वर्जनाओं का पवित्र गुंथन होता है, वर्जनायें टूटी नहीं कि परिवार की पवित्रता खतम। मानव सभ्यता अपने अस्तित्व काल से ही कहीं न कहीं लिंगभेद का शिकार रही है। यह जो लिंगभेद वाला मामला है, बहुत ही गंभीर मामला है जो सीधे , सत्ता व ताकत से जुड़ा होता है जिसके कारण अलग तरह की हमारी सामाजिक तस्वीर बनती है हालांकि कोशिशें लगातार की जा रही हैं कि मानव सभ्यता की तस्वीर कुरूप न होने पाये पर वास्तव में है कुरूप ही।
मानव संबधों में रिश्तों का आधार परिवार है, जिसे हम आज टूटता और खंडित होता देख रहे हैं। हमारी सभ्यता ने जिस संयुक्त परिवार को सामाजिक संबधों का आधार बनाया था, वह आज के समय में बुरी तरह टूट रहा है, हम लगातार संयुक्त परिवार से एकल परिवार की संरचना को अपनाने लगे हैं जिसका मतलब होता है पति पत्नी और बेटे वाला परिवार, ऐसे परिवार में चाचा, चाची, भाई भाभी, मॉ, बाप आदि को शामिल नहीं किया जाता, उन्हें परिवार के एक अलग और विभत्स खाने में छोड़ दिया जाता है। यहीं से आरंभ होता है, एक नये किस्म का संकट, इस संकट के सबसे अधिक प्रताड़ित मॉ, बाप आदि होते हैं, जिन्हें परिवार का मुखिया कहा जाता था। ऐसा तब होता है जब वे उमर के आखिरी पड़ाव पर पहुंच चुके होते हैं। निरीह और असहाय हो चुके रहते हैं। संयुक्त परिवार से एकल परिवार तक की यात्रा अचानक नहीं है इसे पूंजीमूल्यवोधों ने रचा है जो निजता को बढ़ावा देती है सामाजिकता को नहीं। हमारी विधिक सभ्यता ने कानूनी रूप से ऐसे जनों के लिए एक शब्द उपहारित किया हुआ है जिसे ‘वरिष्ठ नागरिक’ कहा जाता है। दर असल समझना यह है कि यह जो वरिष्ठ नागरिक है जिसे काननू का भी समर्थन मिला हुआ है, वह आज के समय में क्या चीज है?
वरिष्ठ नागरिक की बात करें तो यह जो शब्द ‘वरिष्ठ’ है बहुत ही चित्ताकर्षक है, मन को छूने वाला, सम्मान का प्रतीक पर क्या ऐसा है? कत्तई नहीं। पहले के समय में यही वरिष्ठ परिवार का मुखिया हुआ करता था, मुखिया यानि ‘मुखिया मुख सो चाहिए, खान पान को एक’ वाला, मुखिया माने परिवार का सत्ता प्रमुख। पर समय के साथ मुखिया तथा परिवार दोनों की अवधारणायें विखंडित हुई जिन्हें विखंडित होना ही था। आज का हमारा समय वैसे भी सत्ता तथा सत्ताओं के विखंडन वाला है। समाज हो, देश हो, चाहे किसी भी तरह की सामाजिक संरचना हो हर जगह सत्ता के अलग अलग केन्द्र उत्पादित होते जा रहे हैं, कुल मिला कर सत्ता की केन्द्रीयता आज संकट की स्थिति में है। इस संकट की प्रारंभिक पाठशाला हमारी पारिवारिक संरचना है जाहिर है इसे देश स्तर तक भी जाना है। सत्ता की केन्द्रीयता का विघटन आज के समय के लिए एक तरह से जरूरी होता जा रहा है। केन्द्रीय सत्ता के विघटन को हम अपने देश की राजनीतिक सत्ता प्रबधन में देख सकते हैं। ऐसा होना अनायास नहीं है। यह जो संयुक्त परिवार से एकल परिवार की यात्रा है, इसी में छिपे हुए हैं सत्ता के विघटन के कीटाड़ु जिसे आज के समय का वायरस कहा जाना चाहिए। यहां यह बहस बेमानी है कि क्या सत्ता केन्द्रों के विघटन का मामला जनहित के विपरीत है? समाज के विपरीत है?
सवाल जनहित तथा समाजहित का नहीं है, सवाल है महिमामंडित किए जाने वाले वरिष्ठ नागरिक का, इस वरिष्ठ नागरिक का क्या होने वाला है? पारिवारिक स्तर पर, समाज के स्तर पर, देश के स्तर पर। मेरा मानना है कि यह जो आज के समय का वरिष्ठ नागरिक है, उसे एक ऐसा निरीह व्यक्ति बना दिया जा रहा है जिससे कत्तई प्रमाणित नहीं होता कि उसका भी अपना कोई परिवार है या था। नागरिकता वैसे भी पारिवारिकता के विपरीत होती है, उसमें वह सुगंध नहीं जो भाई, गोती में होती है। आज की दुनिया भाई, गोती से बाहर निकल चुकी है, वह पार्टनर व मेम्बर तक जा पहुंची है, थोड़ा आगे बढ़ कर नागरिकता तक। नागरिकता से पारिवारिकता का लगाव या स्नेह का दूर दूर तक कोई नाता नहीं। यह तो महज एक विधिक प्रपंच है। इससे परिवार को वोध नहीं होता, नागरिक तो महज नागरिक होता है, मत देने वाला एक व्यक्ति, कानूनों को अपनी पीठ पर चिपका कर चलने वाला एक निरीह और शारीरिक रूप से कमजोर। परिवार के मुखिया का वरिष्ठ नागरिक में रूपांतरण उसकी पारिवारिकता छीन कर उसकी पूरी मर्यादा को लील लेता है। अब तो राजनीतिक खेलों की माहिर कुछ आत्ममुग्ध सरकारें साफ साफ बोल रही हैं कि जो साठ के पार हैं, वे बेकार हैं। साठ साल के बाद रिटायर होने वाले राज्य कर्मचारियों की तरह। गोया यह जो साठ साल वाला मामला है, व्यक्ति की उपयोगिता के समापन की खुले आम विधिक घोषणा है। एक आदमी की उपयोगिता को साठ साल की उमर के आधार पर तोलने वाला समाज आखिर यह जो वरिष्ठ नागरिक है उसे क्यों और किस लिए सम्मान देगा? उसका सम्मान तो उसके साठ साल समाप्त होने के साथ चला गया। वह तो साठ साल के बाद विलुप्त हुआ एक आदमी भर है, जो जीवित है। उसका जीवित रहना और जीते रहना एक विडंबना है।
वरिष्ठता एक प्रकार से सत्ता से वनवास का भी मामला है, वनवास कम से कम हम भारतीयों को तो भली भांति पता है, यह जो वनगमन का संदर्भ है वह हमें अरण्यक सभ्यता तक ले जाता है जो पूरी तरह से नागर सभ्यता से अलग तरह का संदर्भ देता है। आज तो पता ही नहीं चल रहा है यह जो वरिष्ठ नागरिक है वह किस सभ्यता का सदस्य है, अरण्यक या नागर। इन दोनों सभ्यताओं में वरिष्ठ नागरिक सत्ता व आकांक्षा विहीन महज एक व्यक्ति होता है, चाहे तो जिए या मर जाये। वैसे भी वरिष्ठ नागरिक बढ़ती उम्र के अन्तर्विरोधों व विसंगतियों के कारण पारिवारिक सत्ता प्रबंधन को संभाल सकने में उतना समर्थ नहीं हो सकता जितना कि परिवार के दूसरे अल्पायु वाले होते हैं। यहां मामला राम की खड़ाऊ वाला नहीं है। वह त्रेता का काल था राम की खड़ाऊं को सिहासन पर सुशोभित करा दिया गया था मान कर कि राम नहीं हैं तो क्या हुआ उनका खड़ाऊं तो है ही। आज तो सभी को सत्ता चाहिए, प्रदेश देश की नहीं तो कम से कम परिवार व गांव की तो मिले। हमें पता है कि परिवार भी सŸाा का केन्द्र ही होता है, कुछ अपवादों को छोड़ कर इस परिवार सत्ता पर नर ही काबिज हैं। यहां खुले आम लिंगभेद के कारकों को देखा जा सकता है।
भारतीय समाज में वरिष्ठ नागरिकों के प्रति छीजते जा रहे शुचिता पूर्ण रिश्तों के लिए सत्ता विघटन एक महत्व पूर्ण कारक है क्योंकि सत्ता अधिग्रहण में रिश्ते नहीं चला करते, सत्ता महज सत्ता होती है, वह मॉ बाप, भाई बहन आदि नहीं देखा करती, सत्ता के लिए तो हर व्यक्ति (नागरिक) महज एक शासित होता है चाहे वह बाप हो मॉ हो या कोई भी। सत्ता पर बैठा आदमी शासक में तब्दील हो कर हुकूमत के दांव पेंचों को खेलने लगता है। वरिष्ठ व्यक्ति अपने घर में ही, जिसने उसे खुद बनाया और गढ़ा होता है अनजाना हो जाता है, वह अपने ही लोगों के बीच जिनसे उसका रक्तसंबध होता है सत्ता का प्रतिपक्ष बन जाता है, उससे आर्थिक ही नहीं सामाजिकप्रबंधन के सारे अधिकार बिना देर किए छीन लिए जाते हैं फिर तो उसका अपना घर भी अपना नहीं रह जाता, उसका अपना बेटा, बेटा नहीं रह जाता, वे सारे के सारे सत्ता के नियामक बन जाते हैं, उनके बनाए कानून घर में लागू किए जाने लगते हैं और वरिष्ठ नागरिक किसी आराध्य की प्रार्थना में खुद को डुबो लेने के लिए विवश हो जाता है। तो यह है वरिष्ठ नागरिक निरीहता की पीठ पर सवार, सत्ता का विकलांग जो अपने द्वारा सृजित परिवार को केवल देख व सुन सकता है, पर कुछ बोल नहीं सकता। इतना ही नहीं वह अपने उत्तराधिकारियों के सत्ता कौतुकों पर न रो सकता है और नही गुनगुना सकता है। जीवन के आखिरी पड़ाव पर जब सारा कुछ उससे छीना जा चुका होता है उसे समझ में आने लगता है कि ‘सब धन धूरि समान’ गलत नहीं कहा गया है जिसे एकत्र करने के लिए उसने क्या क्या नहीं किया। ऐसा उसके साथ क्यों किया जा रहा है, इसका उत्तर वह खुद से भी नहीं पूछ सकता, इसका उत्तर तो उसके उत्तराधिकारियों के पास है, भला उत्तराधिकारी इसका उत्तर क्यों देंगे। ऐसे पुरखों की वेदनाओं, विडंबनाओं को कहानियों में ढालना कथाकारों के लिए किसी चुनौती से कम नहीं। हमें आशा करनी चाहिए कि कथाकार पुरखों के बारे में गुनेंगे।
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