विकिपुस्तक hiwikibooks https://hi.wikibooks.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%96%E0%A4%AA%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A0 MediaWiki 1.45.0-wmf.5 first-letter मीडिया विशेष वार्ता सदस्य सदस्य वार्ता विकिपुस्तक विकिपुस्तक वार्ता चित्र चित्र वार्ता मीडियाविकि मीडियाविकि वार्ता साँचा साँचा वार्ता सहायता सहायता वार्ता श्रेणी श्रेणी वार्ता रसोई रसोई वार्ता विषय विषय चर्चा TimedText TimedText talk मॉड्यूल मॉड्यूल वार्ता कथा आलोचना यानि कथा का समाजशास्त्र 0 11399 82580 2025-06-15T05:43:05Z Ramnathshivendra 15902 ''''कथा आलोचना यानि''' '''कथा का समाजशास्त्र''' [[File:Katha ka samajstra jpg.jpg|thumb|कथा का समाजशास्त्र]] [[File:2025Rnathshivedra46.jpg|thumb|in a seminar]] '''प्रकृति की कथा यानि कथा की प्रकृति''' रामनाथ शिवेंद्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया 82580 wikitext text/x-wiki '''कथा आलोचना यानि''' '''कथा का समाजशास्त्र''' [[File:Katha ka samajstra jpg.jpg|thumb|कथा का समाजशास्त्र]] [[File:2025Rnathshivedra46.jpg|thumb|in a seminar]] '''प्रकृति की कथा यानि कथा की प्रकृति''' रामनाथ शिवेंद्र कहानियों के बारे में बातंे होते ही अतीत की रहस्यमयी परतें खुलने लगती हैं, लगता है कि कहानी कहन का चलन बहुत पुराना है जो भले ही पहले की तरह नहीं पर आज तक चल रहा है। अतीत की परतें खुलते ही अतीत ही नहीं हमारा वर्तमान भी कलैया खाने लगता है, फिर तो अतीत और वर्तमान के बीच अपने पुरखों को लटकता हुआ देख कर मन बेचैन हो जाता है। कभी दादी की याद आती है तो कभी नानी की, पर दादा तथा नाना याद आते ही नही, याद आती हैं नानी और दादी। लगता है कि अतीत या वर्तमान की मानव सभ्यता में कहानियों से जितना मधुर रिश्ता नानी और दादी के रूप में नारियों का रहा है उतना नर रूपी जीव नाना और दादा का नहीं। कहानी कहन के मामलों में चाहे वह अतीत हो या वर्तमान नर विलुप्त दिखता है। कहानियों के प्रतिनिधि के रूप में नानी तथा तथा दादी का ही दिखना तथा उनमें से दादा तथा नाना का गायब होना, पुरुष समर्थित लिंगभेद का भी मामला हो सकता है। वैसे तो कहानियों के कहन का चलन अब कहीं नहीं दिख रहा है। नानी हों या दादी अब कहानियां नहीं कह रहीं, लोरियां नहीं सुना रहीं, इस तथ्य को इस तर्क से संतुष्ट नहीं किया जा सकता कि लोगों के पास समय ही नहीं, समय है भी तो वे कहानी कहन को अपनी कार्यसूची में नहीं डाल रहे। समान्य जीवन से कहानियों का विलुप्त होना और साहित्य में कविताओं के समानान्तर या उससे बढ़ कर कहानियों का स्थापित होना मानव सभ्यता के कई कोणों की ओर संकेत देता है। पर सामान्य जीवन से कहानियों का गायब होना विचारने वाली बात है? कहानियों की तरह ही हम विभिन्न संस्कारों के अवसर पर गाये जाने वाले गीतों व गेय गारियों आदि को विलुप्त होता देख रहे हैं। साहित्य में कहानियों का स्थापित होना यह तो शुभ संकेत है पर सामान्य जनजीवन से इसका विलुप्त होना चिन्तनीय है। अगर हम परंपरा की बात करें तो हमें विचारना होगा कि कहानियों से जुड़ाव के मामलों में नारियों की तुलना में नर पीछे क्यों है? यह कभी नहीं सुना गया कि कोई नर बच्चों को सुलाने, बहलाने के लिए लोरी सुनाता है या उसे यह समझ है कि बच्चों को सुलाने के लिए उसे लोरी या उसके समकक्ष कोई चीज गा कर सुनाना है। जाहिर है उसके पास कंठ होता ही नहीं फिर वह क्या गुनगुनाएगा बच्चों को सुलाने के लिए जबकि नारी के पास कंठ होता है। नर का सामान्य जीवन तो पेट के अगल बगल ही घूमता और डोलता रहता है। नर सदैव अपने पेट के सहारे या उसे भरने के लिए ही समय का मूल्यांकन करता है और समय के साथ उसी के अनुसार छेड़, छाड़ भी। नारी ऐसा नहीं करती। नारी का सारा जीवन कंठ और पेट दोनों के अगल बगल घूमता और डोलता रहता है। अगर हम मनोविज्ञान का सहारा लें तो यह बात साफ हो जायेगी कि राग तभी निकलते हैं जब पेट और कंठ दोनों में हलचल हो, दोनों में संगति हो और दोनों में खुद को अभिव्यक्त करने की लालसा हो। कंठ की बेचैनी और पेट की जलन का विलीनीकरण या आत्मसातीकरण ही लोरी की धुनों व रागों का सर्जक हो सकता है, अन्य कोई बात नहीं। यही बात नानी और दादी को कहानियां कहने पर विवश करती थी। मेरा मानना है कि सामान्य जीवन से कहानियां गायब हो चुकी हैं और अब कहीं नहीं है, घुर से घुर देहात में भी कहानियां नहीं हैं, छठ्ठ,अन्नपं्रासन, और जिउतिया जैसे संस्कार अवसरों पर भी कहानियां नहीं कही जा रहीं। कहानियां किताबों की सामग्री बनती जा रही हैं शायद यही हमारी नियति भी है। बहरहाल ऐसा क्यों हो रहा है इस पर हमें विचार कर करना चाहिए। आज का समय न केवल जटिल है वरन क्रूर भी है, आज के समय में सामान्य को असामान्य में, सरल को जटिल में, सहज को असहज में, खंडन को विखंडन में तब्दील करने और करते रहने का चलन जीवन के सभी क्षेत्रों में विस्मयकारी ढंग से बढ़ रहा है और आदमी है कि खुद से संतुष्ट (आत्म मुग्ध नहीं) रहने की आदिम कला को भी नहीं जानता गोया वह अपनी प्रकृति के विपरीत जाने का अभ्यासी होता जा रहा है। कहानियों का नाता एक तरह से नारियों से साफ साफ दिखता है, इसका अर्थ यह नहीं कि कहानियां केवल स्त्रैणमना होती हैं और उनमें नर वाला प्रतिरोध नहीं होता, कहानियां चाहे जब की हों उनमें करुणा, दया, प्रेम, त्याग, वलिदान आदि ही नहीं प्रतिरोध व प्रतिकार भी होते हैं और उसे होना भी चाहिए। समकालीन हिन्दी कहानियों की बात करें तो सारा कुछ अन्धकार और प्रकाश के खेलों में उलझा दीख रहा है, आज की कहानी दृश्य श्रव्य माध्यमों के अराजक करतबों में उलझ कर अपना अस्तित्व तलाश रही है। कहानियों के हमारे प्रिय लेखक प्रेमचन्द के आदर्श व सिद्धान्त आज की कहानियों एवं उपन्यासों से गांधी के सिद्धान्तों की तरह गायब हो चुके हैं। आज राजनीति में गांधी के तस्वीर की पूजा ही प्रमुख है उनके विचारों या शिक्षाओं का अनुपालन नहीं। तो यह हाल है आज की कहानियों का। आज की कहानियों की जमीन ऐसी नहीं जिस पर पांव रख कर दो कदम भी चला जा सके, वहां बैठने सुस्ताने की बात सोचना बेवकूफी होगी। प्रेमचन्द के समय में यानि आजादी के पूर्व की कहानियों की जमीन देख लीजिए उसमें न केवल वह समय होगा बल्कि समय से प्रतिरोध करने की ऊर्जा भी होगी। कहा जा सकता है कि वह समय आजादी के संघर्षोे का था, सो कहानियां भी उसी मिजाज और तेवर की हुआ करती थीं जबकि आज का समय वैसा नहीं है। अब तो हम आजाद हैं सो हमारी कहानियों की जमीन भी आजादी वाली ही होगी, कुछ दूसरी होगी पर कैसी होगी? या कैसी होनी चाहिए, इस पर आप बहस करके देख लीजिए मुंहकी खानी पड़ेगी, चारो खाने चिŸा हो कर गिरने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचेगा। आजादी के संघर्षों के दौरान कहानियों ने प्रतिरोध वाली जमीन को कहानियों का आधार बनाया था और साबित किया था कि कहानियों का अस्तित्व किसी मायने में कविताओं से कम नहीं। कहानियों को लोकसम्मान भी मिला, फलस्वरूप कहानियां कविताओं की तुलना में कुछ अधिक सम्मान पाने लगीं। लोगों ने कहानियों को चूमना चाटना शुरू किया और कविताओं को अपने दिलों से थोड़ा अलगिया दिया। हालांकि उस दौर की कवितायें भी प्रतिरोधी जमीन पर खड़ी थीं। बिना प्रतिरोध के तब साहित्य का कोई मतलब ही नहीं था। आज के समय में अनुरोध एवं प्रतिरोध दोनों वैश्विक हो गये हैं और बाजार के द्वारा चलाए जा रहे हैं। आज का समय अन्य बातों के अलावा इसलिए भी खतरनाक एवं जटिल है कि हमें क्या करना है और क्या करना चाहिए यह सारा कुछ बाजार द्वारा तय किया जा रहा है। बाजार का साहित्य पर खासतौर से कहानियों पर कैसा असर है इसे इस तथ्य से समझा जा सकता है कि आज की भारतीय कहानियों से सारी दुनिया के तीन प्रमुख सवाल जमीन के सवाल, संपत्ति के सवाल तथा नारी के सवाल ही गायब हो चुके हैं। आज कहानियां दूसरे तरह के रहस्यमयी सवालों को उद्घाटित करने में अपनी सारी ऊर्जा का प्रयोग कर रही हैं। कम से कम भारतीय परिवेश में तो इन सवालों को कहानियों के माध्यम से प्रकाश में नहीं लाया जा रहा और कहीं लाया भी जा रहा तो उसे साहित्य के केन्द्र में नहीं, हासिए पर रखा जा रहा है, किसी कूड़ा करकट की तरह। आज बाजार ने कहानियों के बाजार के लिए नारी तन को नीति निर्देशक तत्व की तरह स्थापित कर दिया है। अभिव्यक्ति के सारे माघ्यमों में हम नारी तन के कत्थक नृत्य को देख भी रहे हैं, तथा उन दृश्यों को देखने के लिए विवश किए जा रहे हैं। क्या उसके प्रतिरोध में हम कुछ कर सकते हैं? लगता है कि जमीन, संपत्ति ,(property) तथा नारी के सवालों पर बेहद कमजोर किस्म के जो कानून बनाए गए हैं उसे साहित्यि की जनता ने पर्याप्त मान लिया और महसूस कर लिया कि समाज के सारे अन्तरविरोध खुद बखुद समाप्त हो जाएंगे पर ऐसा हुआ नहीं। सारा कुछ पहले की तरह ही चल रहा है बिना किसी बदलाव के। यह समझना थोड़ा चौंकाने वाला हो सकता है कि जब जमीनदारी विनाश हो गया, जब घरेलू हिन्सा का कानून आ गया फिर साम्राज्यवादी व्यवस्था वाले बवाल क्यों रहेंगे, साथ ही साथ मानवाधिकार का कानून भी आ गया इतना ही नहीं सूचना का अधिकार भी आ गया, बाल शिक्षा को अनिवार्य बना दिया गया ऐसे में तो सारा कुछ ठीक ठाक और सबका राज्य वाले वसूलों से चलना चाहिए पर क्या ऐसा है? और बतौर साहित्यकार हमें भी समझ और अनुभूति के दोनों संस्तरों पर ऐसा ही मान व जान लेना चाहिए? इतना सारा कुछ होने के बाद का जो रहस्य है, और हम वाजिब समानता से भी जो काफी दूर हैं उन कारणों पर हमारी साहित्यिक जनता सोच व गुन ही नही रही। प्रेमचन्द हमारे लिए अविस्मरणीय हैं और आदर्श भी, पर क्या हम उनसे कुछ सीख पा रहे हैं। अपने समय के खतरनाक सवालों से हम प्रेमचंद जी की तरह क्यों नहीं टकरा रहे? हमारे मन में आज के खतरनाक समय से टकराने की आवश्यक बेचैनी क्यों नहीं है? हम क्यों खुद को बाजार के चकाचौंध में झोंक रहे हैं। हमें सोचना होगा। एक साहित्यकार के नाते बाजार के कार्टूनों में बन्द होना हमारी कार्य सूची नहीं होनी चाहिए। हालांकि यह सच है कि कहानियों का भी मुकम्मिल बाजार है और कहानियों को बाजारू बनाने वाली ताकतें भी काफी मजबूत हैं फिर भी एक साहित्यकार के नाते हमारा कर्तव्य क्या होना चाहिए, कुछ न कुछ तो निर्णय लेना ही होगा भले ही वह निर्णय आत्घाती किस्म का ही क्यों न हो। निश्चित है कि बाजार से टकराने पर बाजार के सारे उपभोगवादी संस्कारों से मुक्तिवोध की तरह या प्रेमचंद की तरह खुद को अलगियाना होगा यानि खुद को बदलना होगा और उस रूप में आना होगा जो बाजार के सारे कौशलों को ठेंगा दिखाने की क्षमता रखता हो। यही प्रकृति के करीब जाना होगा तभी होरी से मुलाकात हो सकती है, तभी कोई गोदान जन्म ले सकता है। बाजार की छतरी ओढ़ कर आत्ममुग्ध तो हुआ जा सकता है और तमाम तरह के आकर्षक मंचों पर बैठा जा सकता है पर जीवन के सच के करीब कभी भी नहीं जाया जा सकता है। जीवन का सच तो वहां है जहां प्रकृति है, जहां वे लोग है जो जीवन जीने की सारी ऊर्जा पेड़, पौधों, नदी नालों से प्राप्त करते हैं। उनके लिए बाजार कोई अर्थ नहीं रखता। कहानी के लिए कहानी के विषय का चुनाव खुद को खोलना है और बताना है कि आप बाजार के हसीन करतबों में गोता लगाने वाले हैं या लुकाठी हाथ में ले कर खुद का घर जलाने वाले हैं। आप कबीर हैं या दिल्ली के अकादमिहा हीरो। यह जो कहानी के विषय के चुनाव का मामला है, बहुत ही जहरीला है इसके जहर को भविष्य कभी माफ नहीं करता, वह अदालती कटघरे में खड़ा कर देता है और साफ साफ पूछता है ‘पार्टनर तुम्हारी राजनीति क्या है?’ खैर अभी उस तरह का समय नहीं है कि प्रकृति के करीब रहने वाले बाजारू लोगों के बाजार में खड़े होकर आदेश दे सकें... ‘तय करो किस ओर हो तुम।’ यह जो ‘ओर’(side) वाला मामला है वह कहानी के विषय वस्तु से ले कर पात्रों के चयन तक का है और पात्रों की पात्रता बरतने तक का भी। कहानीकार तो सर्जक होता है वह मनचाहा सृजन के लिए स्वतंत्र होता है पर उसकी लिखी कहानी तो स्वतंत्र होती नहीं, वह पाठकों की गुलाम होती है। पाठक उसका विश्लेषण अपनी समझ और लोकनिष्ठा के अनुसार करता है। कभी वह अनुभूति को ही समझ मान लेता है जबकि समझ, समझ है और अनुभूति अनुभूति है, दोनों में किसी भी तरह की समानता नहीं, दोनों दो छोर हैं। गनीमत है कि दोनों एक दूसरे पर जानलेवा हमला नहीं करते। यह साहित्य के लिए बहुत ही खतरनाक स्थिति है, अब ऐसे में कहानीकार करे क्या क्योंकि उसके पास भी अपनी अनुभूति और समझ दोनों होती है, यहीं लेखन का द्वन्द उपस्थित हो जाता है। अगर साहित्यकार अपनी समझ एवं अनुभूति को लोक अनुभूति और समझ से नहीं जोड़ता या जोड़ पा रहा तो निश्चितरूप से वह यह तय नहीं कर सकता कि वह किस ओर है। मेरा मानना है कि कहानीकार को उस लोक की तरफ जाना ही होगा जिस लोक के लोग सारे संसाधनों से वंचित हैं, उपेक्षित हैं, जो प्रकृति की नाच से जीवन जीने की ऊर्जा पाते हैं वे ही तो प्रकृति के उत्पाद हैं। जो प्रकृति के साथ हैं, वहीं प्रकृति का असली लोक है। प्रकृति के साथ चलने वाली रचना ही कृति हो सकती है इस लिए चाहेे कहानी हो या कविता उसे प्रकृति की कृति बनना ही होगा। ऐसा नहीं है कि समकालीन कहानियां प्रकृति के बुनियादी सवालों जमीन, संपत्ति तथा नारी से नहीं टकरा रहीं, वे टकरा रही हैं पर उन्हें जिस प्रतिरोधी चेतना के साथ इन सवालों से टकराना चाहिए, नहीं टकरा रहीं। लगता है आज के समय में जो प्रतिरोधी चेतना है वह भी सुविधावादी इच्छाओं की शिकार हो गई है। कथाकारों को आज के बाजारवादी व उपभोक्तावादी समय से टकराने के लिए पूंजीमूल्यवोधों वाली चेतना से अलग हटकर लोकमूल्य वोध वाली चेतना की तरफ जाना होगा, नहीं तो पूंजी के द्वारा ही गढ़े गये औजारों के द्वारा आज के समय से नहीं टकराया जा सकता। उदाहरण के लिए अगर आप ग्रामीण संस्कृति बचाने के लिए चिंतित हैं तो आपको विचाराना होगा कि आज का जो ग्राम है वह पहले वाला ग्राम नहीं है। ग्राम की पूरी सामाजिक संरचना को पूंजीमूल्यवोध वाली सŸाा ने बदल दिया है। अब वहां परधान जी हैं, सेक्रेटरी हैं, लेखपाल हैं, जो पूरी तरह से पूंजीमूल्य वोध वाली चेतना के प्रायोगिक प्रतिनिधि हैं। ये सभी लोग सुविधावादी इच्छाओं की पूर्ति के लिए मर मिटने वाले लोग हैं, इनके लिए जीवन का मतलब एकला चलो है, पूंजी के बिछौने पर सोने की कामना है, संपत्ति के विविध रूपों को चूमना चाटना है। ये पूंजी की कुटिल चेतना द्वारा संस्कारित किये गये लोग हैं, ये नहीं जानते हैं कि समाज क्या होता है, समानता क्या होती है? सहभागिता क्या होती है? पूंजी तो वैसे भी ‘आपन भला सकल जग माही’ की कुटिल चेतना वाली होती है, सो वे अपने विकास को समाज तथा देश का विकास मानते हैं। अगर आज के ग्राम को अगर कहानी का विषय बनाना है तो कथाकारों के लिए आवश्यक होगा कि वे परधान, सेक्रेटरी, लेखपाल आदि की पूंजीमूल्यवोध वाली चेतनाओं से टकराने के लिए गांवों में लोकचेतना वाले प्रतिरोधों को सृजित करें, तभी उनसे टकराया जा सकेगा नहीं तो नहीं। '''कथा के संदर्भ में नारी विमर्श''' रामनाथ शिवेंद्र नारी अस्मिता के सवालों पर वौद्धिकों की चिताएं पसीना बहाने वाली कम हसाने वाली अधिक साबित हो रही हैं। नारी मुद्दों पर पुरूष मन की आक्रामकता कब और कैसे पगलाई हरकतें करने लगती हैं इसका आभास उसे तो होता ही नहीं जो प्रतिक्रिया कर रहा होता है। आभास होता तो गंगा में से नहा कर निकली नारियों के पवित्र रूपों को सिरजने वाले पगलाये वौद्धिक, पुरूष मन की खूनी आक्रामता वाली सोच व चेतना के मकड़जाल में नहीं उलझते। वे उन्हें नहीं गरियाते जो नारियों को बराबरी के स्तर पर सम्मानित करते हुए लोकसंघर्ष की लड़ाकू भूमिका में देखना चाहते हैं। जरा ठहर कर सोचिए, हालांकि नारीविमर्श में शामिल होने वाले सभी वौद्धिक एक ही तरह की सोच व संचेतना के उत्पाद नहीं हैं, कुछ तो ऐसे हैं ही जो नारियों के बारे में बुर्के में ढकी बातें नहीं कर रहे हैं, उनकी बातें नारीविमर्श के बारे में नर और नारी के मित्रतापूर्ण सहसंबधों की ओर प्रस्थान करती हुई हैं। दिक्कत हमारी सामाजिक संरचना से गढ़ी हुई मर्दवादी सोच में है। सवाल पुरुष सोच का है, दिक्कत ऐसे पितृ सत्ता वाले चिंतकों से है जो नारीविमर्श को कथित शुचिता और सुभाषितों के मर्दवादी जड़ धारणाओं के सहारे खुद को न बदलने की तर्ज पर आगे बढ़ा रहे हैं। नारी स्वतंत्रता केे कथित आकांक्षियों के प्रदर्शनों व अभिव्यक्तियों से साफ दिखता है कि वे अपना कुछ खोना नहीं चाहते तथा अतीत का सहारा लेकर आदर्श, नैतिकता, शुचिता आदि की बातों के सहारे सुभाषितों को गढ़ रहे हैं। वैसे भी हमारे अतीत में नारी महिमामंडन व उनके देवीकरण की तमाम बातें बतौर मिसाल हैं पर व्यवहार में हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा है। सवाल है आखिर सामाजिक संरचना के इस नारी रूपी आधे हिस्से को सुभाषितों के सहारे भला कब तक चलाया जा सकता है और उन्हें कब तक मानसिक पराधीनता का शिकार बनाया जा सकता है? कुछ तो बोलना ही होगा आज के समय की जागरूक व जिम्मेवार नारियों को, और वे बोल भी रही हैं। अपनी अस्मिता का पक्ष न रखना भी तो अपराध है। वैसे मर्दवादी सोच के बारे में बोलना और अपनी अस्मिता जिसे नारीविमर्श कहते हैं, उसके लिए मन की गांठों को खोलना दोनों अलग अलग बातें हैं, कम से कम नारियां तो अपने को अभिव्यक्त नहीं ही कर पा रही हैं, वे इतनी करुणामय होती हैं कि क्रिया की प्रतिक्रिया नही जानतीं। यह एक व्यवहारिक संकट है, इसी संकट के कारण नारियां मर्दवादी आख्यानों का हिस्सा बन जाया करती हैं। नारी खुद अपने बारे में बोल नहीं रही और मर्द हैं कि लगातार उनके बारे में हितोपदेश दिए जा रहे हैं। काश नारियां बोलने लगतीं और पुरुष सत्ता की जकड़नों से परिवार के स्तर पर, मान्यताओं के स्तर पर, संपत्ति में हिस्सेदारी के स्तर पर टकराने का काम करतीं। परेशानी यही है, नारीविमर्श के मुद्दों को भी पुरुष वौद्धिकता ने तमाम दूसरे मुद्दों की तरह जैसे संपत्ति में हिस्सेदारी, संसाधनों में हिस्सेदारी, समान काम के लिए समान वेतन, राजनीतिक समानता, कानूनी समानता, सामाजिक समानता के मुद्दों की तरह कब्जिया लिया है। देखा जा रहा है कि आज के बदले हुए लोतांत्रिक समय में भी पुरुषों का सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक ही नहीं ज्ञान तथा लेखन के भी सभी क्षेत्रों, उप क्षेत्रों पर निष्ठुर और एक तरफा कब्जा है। अभी वह दिन बहुत दूर है जब नारियों के बारे में नारियों की बातें सुनी और गुनी जाएंगी फिलहाल तो ऐसा नहीं जान पड़ रहा। कथासाहित्य में भी नारियांे को अपने पैरों पर नहीं खड़ा होने दिया जा रहा। वहां तो उन्हें संघर्ष का प्रतिनिधि बनाया जा सकता है पर नहीं, ऐसा नहीं हो रहा। नारियों को अपनी अस्मिता की सुरक्षा के लिए संघर्षमय प्रयास करने होंगे और उन्हें हर स्तर पर पुरुषों के द्वारा गढ़े गये आख्यानों को आलोचनात्मक ढंग से विश्लेषित करते हुए संघर्ष को व्यावहारिक रूप देना होगा। केवल जुबानी जमा खर्च नहीं। सच यह है कि चाहे गरीबों की गरीबी मिटाने का मामला हो या नारियों के मान सम्मान की बातें हो गरीबांे तथा नारियों दोनों को बोलने और खुद को खोलने के मौके ही नहीं दिए जा रहे। मौके दिये भी नहीं जायेंगे। दिक्कत यह है कि गरीब या नारियां खुद अपने बारे में क्या बोलना चाह रही हैं, उन्हें नैतिकता, पूर्वजन्म, दैवी प्रतिफलों के हवाले देकर बोलने से रोक दिया जा रहा है। उन्हें नैतिकता तथा सामाजिक संरचना के जकड़नों में बाध दिया गया है, ऐसे में यदि वे बोलें तथा मन की गांठों को खोले भी तो उसे हसीन मजाक बना दिया जाता है। नारियों के मन में उपजने वाले तमाम सवालों को बतौर उद्धरण देखा जाना चाहिए जैसे यही कि वे विवाह क्यों करंे? अगर वे पत्नी बनने से इनकार कर रही हैं, बच्चा पैदा करने से इनकार कर रही हैं फिर उस पर चिल्ल पों किस नैतिकता या सुभाषित के आधार पर किया जा रहा? वे पत्नी के बजाय अगर मैत्री संबध चाह रही हैं तो इसमें क्या बुराई है?क्या हमारी सभ्यता में लिंगभेद प्रभावी नहीं है? अगर है तो फिर नारियों के लिंगभेद विरोध पर काहे के लिए नाक फुलाना? पुरुष सत्ता अपनी आलोचना सुनने एवं गुनने की सहनशीलता क्यों नहीं दिखाती? नारीविमर्श की पैरोकार अमेरिकी महिला एड्रियन रिच तभी तो बिना लाग लपेट के साफ साफ बोलती हैं... ‘पुरुष जब भी अपनी वस्तुएं, विषय और भाषा चुनते हैं उनके विचार में कभी भी स्त्रियां या स्त्रियों द्वारा की जाने वाली आलोचना नहीं होती’ ‘हमें स्त्रीवादी दृष्टिकोण से पुरुष केन्द्रित एन्ड्रोसैन्ट्रिक) पुस्तकों और तकनीकों का पुनरावलोकन करना होगा ऐसा करने से हम लिंगभेद की राजनीति को उजागर कर पायेंगे। जिसका काम स्त्रियों को भाषा और साहित्य से दूर रखना और अक्षम बनाये रखना है ताकि वे उनका इस्तेमाल अपने अन्दर और बाहर चल रहे द्वन्दों को व्यक्त करने में न कर सकंे। पुरुष केन्द्रत किताबों की समीक्षा होनी चाहिए ताकि स्त्रियों को अपनी बात रखने का मौका मिल सके।’ बात साफ है कि नारियां अपने बारे में क्या सोचती हैं, गुनती हैं, विमर्श का मामला यह है, न कि वह जिसे पुरुष अपने पतित्वता वाले पति परमेश्वर के भाव से उनके बारे में सोचता, गुनता, लिखता या व्याख्यान देता है। ऐसे भावों से नारियों के बारे में सोचने का मतलब तो उनके खिलाफ खतरनाक साजिश ही कही जा सकती है और कुछ नहीं। आखिर नारियों को आप किस भाव या रूप में देख रहे हैं, एक पत्नी के रूप में, मित्र के रूप में, प्रेमिका के रूप में, भोग, संभोग के प्रतीक के रूप में, बाजार की वस्तु के रूप में, सेक्स सिम्बल के रूप में, तय यही करना है कि नारियों को आप किस कोण से देख रहे हैं? वैसे तो नारियों के अन्य कई रूप भी है। स्त्रियां अपने स्त्रैणता के लिए जानी जाती हैं, करुणा, प्रेम, संवेदना, मातृत्व आदि के लिए भी, जिसके लिए उन्हें समादृत करने की भी परंपरा रही है पर ऐसी सारी सोच मर्दवाद की अभिव्यक्ति भर बन कर रह जाती है और पुरुष अपने मर्द होने को प्रमाणित करने के लिए जिसे मर्द पुरुषार्थ मानता है उसकी गोद में चला जाता है। स्त्री और मर्द का फर्क यह भी है कि मर्द का मतलब विजेता, पराक्रमी और स्त्री का मतलब, कमजोर, सब कुछ हार जाने वाली, पराधीन यानि स्वाधीनता और पराधीनता के द्वन्दों में फसी महज एक वस्तु, या तो कन्यादान के लिए या वलिदान के लिए। सामाजिक संरचना में आज के समय का यह जो लिंग भेद है उसका एक अर्थ यह भी है कि नारी पराधीनता की प्रतीक है जबकि पुरुष वह तो जन्मना ही स्वाधीन है। स्वाधीनता वाले घमंडी मनोभावों से पुरुषों का निकलना लगभग लगभग मुश्किल है। तभी तो अमरिकी लेखिका रिच पुरुष लेखन के पुनरावलोकन करने की बातें करती हैं, और स्त्रियों को पराधीनता वाले मनोभावों से बाहर निकलने का आग्रह भी। नारी विमर्श का मुद्दा आजकल कम से कम पुरुष वौद्धिकों की चिंतन की दुनिया में, कविताओं व कथाओं के माध्यम से, कई रंगांे में रंगा हुआ किताबों के पन्नों पर चमकता और थिरकता हुआ दीख रहा है। नारीविमर्श की तरह ही गरीबी मिटाने का मामला भी आजादी के बाद से ही भारत में चुनावी नारा बना हुआ है और यह मामला अपने कुछ बदले रूपों में अंग्रेजों के जमाने से ही नारों की शक्ल में अब तक चला आ रहा है। गरीबी मिटाने की तरह ही नारी सशक्तीकरण का मुद्दा भी गरमाया हुआ है, और किसी हसीन नारे की तरह सभी जगह थिरक रहा है। पत्रिकाओं में तो नारीविमर्श के नाम पर मर्दवादी वौद्धिकों द्वारा कुछ अलग और नारी विमर्शकारों द्वारा कुछ अलग कहा सुना जा रहा है। कहा जाना चाहिए कि भारत में तो नारी विमर्श मत भिन्नताओं का शिकार है। विमर्शो से पता चलता है कि नारियां जैसे कोई पोस्टर हों, पंफलेट हों और जिसे नैतिकता की दिवालों पर चिपकाया जाना जरूरी हो। जाने क्या, क्या छपने लगा है, क्या छपना चाहिए और क्या नहीं छपना चाहिए, दोनों के अन्तरों को वौद्धिकता का रोलर चलवा कर पाट दिया जा रहा है। नारी विमर्श से अलग अगर गरीबों की बात करें तो बी.पी.एल. जैसी अद्भुत किस्म की उनकी श्रेणी ही बना दी गई है जो अर्थशास्त्र की बहसों को रोचक बनाने का काम करती है। भारतीय सामाजिक संरचना में बी.पी.एल. नाम की एक अलग कोटि गढ़ और बना कर हमारे अर्थशास्त्री जाने किसी लोककल्याण की बात कर रहे हैं? बात समझ में आने लायक नहीं है। उसी तरह नारी के बारे में भी जो नारे गढ़े और रचे जा रहे हैं यह भी समझ से बाहर की चीज है। आखिर इससे बड़ा और क्या मजाक हो सकता है कि जिस समाज में पुरूषों के लिए देह और दिमाग दोनों बेचने और खरीदने की खुली आजादी हो उस समाज में नारी देह और दिमाग के बारे में शुचिता और नैतिकता की बातें कहां से उठनी चाहिए। पुरूष तो देह और दिमाग दोनों बेच लेने में ही बहादुरी के गीतों को गा गा कर मस्त हो रहा है। अपने देह और दिमाग दोनों को बेच कर पुरूष जिस नई और विकसित दुनिया का सृजन कर रहा है उस दुनिया के बारे में नहीं सोच रहा कि उसकी वैयक्तिक संप्रभुता को कुछ रुपयों के बदले लील लिया जा रहा है। जबकि भारतीय चिंतन तो उस व्यक्ति को सफल मानता है जो वैयक्तिक स्वतंत्रताओं को सुरक्षित बचा पाये चाहे जैसे भी। पर आज के समय में तो अपनी स्वतंत्रताओं को बेचने का काम चल रहा है। वैयक्तिक संप्रभुताओं को बिकने के लिए कई तरह के बाजार हैं, हाई प्रोफाइल नौकरीशाही से लेकर वौद्धिकता के तमाम विश्वविद्यालयीय संस्थानों व एकेडेमियों के रूप में। व्यक्ति मनोवैज्ञानिक रूप से इतना कमजोर बनाया जा चुका होता है कि वह इन संस्थानों में बिकना अपने अनुकूल मानने लगता है और बिना देर किए बिक जाता है। और जब वही काम नारियां करने लगती हैं, तो उसे बुरा कहा जाने लगता है। आखिर मर्दवादी विमर्शकार नारियों को किस काटि में रखना चाह रहे हैं? उन्हें कैसे पता चलेगा कि समाज में फैला हुआ यह जो क्रूर तथा घृणित लिंग भेद है उसे समाप्त किए बिना मानव सभ्यता कभी भी हसीन और खूबसूरत नहीं हो सकती। समझना यह है कि प्रकृति ने मानव सत्ता को अद्भुत वरदान दिया है देह और दिमाग के रूप में। दिमाग का बिकना या गुलाम होना इसे कभी भी नैतिकता और शुचिता के दायरों में नहीं रखा जाता जबकि देह को कम से कम नारियों के संदर्भों में कथित शुचिता और नैतिकता के मकड़जालों में फसा दिया जाता है। नारी विमर्श का मामला भी एक हद तक नारी देह का विमर्श ही बना दिया गया है, सारी बातें नारी के देह पर सुभाषितों की तरह लिखी जाने लगी हैं आखिर इससे मर्दवादी सोच वाले क्या साबित करना चाहते हैं? आज के समय की नारियां अगर पुरुष पराधीनताओं से अलग होकर अपनी स्वाधीनताओं को प्रमाणित करना चाहती हैं तो इसमें बुराई क्या है? वे पत्नित्व न स्वीकार कर मैत्री संबध चाहती हैं तो कौन सा पहाड़ टूट कर गिर जाएगा। संबधों की बात करें तो जाहिर है कि मर्दवादी सोच वालों के लिए नारियों का प्रचलित रूप जो मां वाला है, बेटी वाला है, कभी नहीं अखरता पर वह जो पत्नी वाला उनका रूप है, सारा विमर्श उसी पर केन्द्रित हो जाता है। नारियों का पत्नी बनने से इनकार ही उन्हें मर्दवादी जनों के लिए मुख्य चिंता का विषय है। और कोई दूसरी चिन्ता नहीं। पत्नी बनने से इनकार का मामला बच्चा जनने से इनकार से भी जुड़ा हुआ है। कल्पना करनी चाहिए कि तब क्या होगा इस हसीन दुनिया का जब नारियां एक जुट हो कर बच्चा जनने से ही इनकार कर देंगी, फिर किस आधार पर पुरुष सत्ता अपने पुरुषार्थ की मादकता में झूमेगी? क्या आपको उत्तराधिकारी विहीन पुरुष निरीह नहीं जान पड़ता? पति पत्नी संबधों से अलग पुरुषमुक्त स्त्री समलैंगिकता का मामला हो या स्त्री मुक्त पुरुष समलैंगिकता का दोनों मामले आज के समय में नैतिकता विरोधी खानों में रख दिए गये हैं। ऐसा करना अनायास नहीं है। ये दोनों मामले पुरुष सत्ता के वर्चस्वों को काफी तीक्ष्णता व उग्रता से खंडित करते हैं। ऐसे खंडनों के जरिए पुरुष सत्ता को जान पड़ता है कि उनके द्वारा सृजित यह जो पुरुषवादी समाज है, जो वसीयत और विरासत के आधारों पर आज तक टिका हुआ है, उसकी चूलंे हिल रही हैं। अगर ऐसा हो गया तो उनका उत्तराधिकारी कहां से आएगा जो उनके द्वारा जायज, नाजायज तरीके से अर्जित संपदा का उत्तराधिकारी होगा। वह कहां से गढ़ा जाएगा? स्त्रियों द्वारा मातृत्व का इनकार तथा खुद की अस्मिता बचा लेने की इच्छाएं भी उन्हें स्त्री समलैंगिकता की तरफ ले जा कर पुरुष सत्ता को चुनौती देती हुई सी प्रतीत होती हैं। पुरुष सत्ता का संकट है कि नारियां किस औकात से पुरुषस सत्ता के विरोध में खड़ी हो रही हैं। पुरुषस सत्ता इस विन्दु पर हताश और निराश ही नहीं विकल्पहीन भी है। उसे लगता है कि उसकी बनी बनाई सत्ता ध्वस्त हो रही है जिसे बनाने में हजारों साल लगे होंगे। तो नारीविमर्श का मामला उत्तराधिकार के विमर्श का भी गंभीर मामला है। संपत्ति के उपयोग, उपभोग व प्रबंधन का भी मामला है और यह एक ऐसा मामला है जो दुनिया की पुरुष प्रधान सत्ता को ठेंगा दिखाने वाला है। इसी लिए पुरुष सत्ता हमेशा हमारे भारतीय समाज को जाति और योनि के दो कटघरों में अतीत से ले कर आज तक बांटती रही है। हजारों साल से चली आ रही व्यवस्था का खंडन चाहे नारियां करें या गरीब दोनों समान रूप से समाज के विपथगामी माने जाते हैं। जाति और योनि के दोनों कटघरों ने कभी भी गरीबों को गरीबों की तरह और नारियों को नारियों की तरह अपनी अपनी अस्मिता के बारे में सोचने ही नहीं दिया। काश गरीबों में गरीबी की भूख जग जाती और नारियों में उनके बाबत फैलाए गये नारों से टकराने की हिम्मत आ जाती तो दुनिया बहुत ही हसीन और रंजक बन जाती। दिक्कत यह भी है कि गरीब अपनी उपयोगिताओं से गुंथित खुद की अनिवार्यताओं को नहीं रच पा रहा है। वह जहां खड़ा है, तटस्थ हो कर सूरज उगने की प्रतीक्षा कर रहा है, उसी तरह नारियां भी अपनी ताकतों को नहीं पहचान पा रहीं, न ही अपनी उत्पादकता को संभाल पा रहीं हैं। नारियां तो खुद को भुला दे रहीं है मां और बेटी का सम्मान पा कर जबकि वे हर समय और हर जगह केवल मां और बेटी ही नहीं होतीं। यह रिश्ता तो आज के समय में अपवाद की तरह है, उन गरीबों की मर्यादा की तरह जिनके घर जा कर बड़े बड़े नेता वोट पाने के लिए पानी पी लिया करते हैं या खाना खा लिया करते हैं। इसे मर्यादा की किस कोटि में रखा जा सकता है? यह मान कर चलना होगा कि यह मर्यादा नहीं है, एक धोखा है, नारियों के साथ धोखे किए जा रहे हैं। धोखा है उनके साथ मित्रता पूर्ण व्यवहार न किए जाने का। मुझे तो लगता है कि निश्चितरूप से नारियों ने अतीत में भी किसी समय पुरुष सत्ता को चुनौती देते हुए बच्चा जनने से इनकार किया होगा फिर पुरुष सत्ता ने उन्हंे मनाने और समझाने का प्रयास किया होगा, उन्हें देवी का रूप दिया होगा, उनकी पूजा अर्चना शुरू की होगी और जैसे जैसे पुरुष ताकतवर होता गया उसने नारियों को एक वस्तु में तब्दील करना शुरू कर दिया। नारियों को बाजार में खड़ा कर बेचने और खरीदने लगा। हमारे अतीत को जिस तरह से नारियों के मान सम्मान और मर्यादा को पूजने वाला दिखाया जाता है, वह छल का ही एक रूप है। एक खूबसूरत धोखा है। पहले भी व्यवहार में ऐसा कुछ नहीं था। हमल और हमलों पर टिका इतिहास कभी भी मानव सभ्यता को नर, नारी की समानता का पाठ पढ़ा ही नहीं सकता। नारियां हमल झेलती रही हैं तो जनता हमले, इसके अलावा इतिहास में है ही क्या? वैसे भी यह सुनिश्चित है जो सभ्यता जातिभेद नहीं पाट सकती, वह भला योनिभेद कैसे मिटा सकती है? नारियों के साथ मित्रता का व्यवहार कैसे दे सकती है? योनिभेद तथा जातिभेद दोनों दिखने में अलग अलग दिखते हैं, पर दोनों हैं एक दूसरे के पूरक, एक के बिना दूसरा जीवित नहीं रह सकता। दोनों सम्मिलित रूप से एक दूसरे के औचित्य को प्रमाणित करते हैं। पुरुष सत्ता के कृत्रिम मानसिक विभेदों व प्राकृतिक भिन्नताओं के कारण नारी भले ही पुरुष से अलग योनि की कोटि में होती है फिर भी उसे सायास जाति में तब्दील कर दिया जाता है। इसलिए जातिभेद है तो योनिभेद भी है, और यही योनिभेद आज के समय का लिंगभेद है। सामाजिक संबधों में जो लिंगभेद है उसको हम चाहें तो भाषा और बोलियों के विभिन्न क्रिया रूपों में भी देख सकते हैं। हिन्दी की बात करें तो इस भाषा के क्रियारूपों में लिंगभेद काफी गहरा है, यह भेद संस्कृत में भी है। तो कहा जाना चाहिए कि पुरुष सत्ता ने लिंगभेद को कायम रखने के लिए बोलियों एवं भाषाओं तक को नहीं छोड़ा। वैसे बांग्ला जैसी कुछ भाषाएं/बोलियां ऐसी हैं जिनके क्रियारूपों में योनिभेद या लिंगभेद नहीं पाया जाता है। अंग्रेजी भाषा/बोली में भी यह भेद नहीं दिखेगा। भाषा या बोली के स्तर पर कई ऐसी तमाम भाषाएं या बोलियां हो सकती हैं जिनके क्रियारूपों में लिंगभेद नहीं होगा। उन भाषाओं एवं बोलियों पर गहन अघ्ययन किया जाना चाहिए जिनमें नर और नारी दोनों के लिए एक ही क्रियारूप हों। बांग्ला तथा अंग्रेजी मातृ बोली वाले समान क्रियारूपों वाले समाजों में अन्य मातृ बोली व असमान क्रियारूपों वाले समाजों की तुलना में सामाजिक रूप से लिंगभेद का फर्क नहीं दिखता है या बहुत कम दिखता है। ऐसा क्यों है? सोचने की बात है। भाषा एवं बोली के स्तर पर यह जो लिंगभेद है, कहीं वही भेद व्यापक स्तर पर सामाजिक संबधों को तो नहीं प्रभावित कर रहा? सोनभद्र के आदिवासी समाजों में भी धांगरी बोली प्रचलित है, धांगरी बोली के क्रियारूपों में भी लिंगभेद नहीं दिखता। नर और नारी दोनों एक ही तरह के क्रियारूपों का प्रयोग करते हैं। भाषागत एवं बोलीगत कारणों की परख भी लिंगभेद के कारणों के बारे में सोच को नई दिशा प्रदान कर सकती है। इस आलेख के अंत में मैं विनोदशाही जी के विचारों का भी संदर्भ देना आवश्यक समझता हूं। उनका मानना है.... ‘हिन्दी आलोचना में अभी ‘स्त्री विमर्श’ को ‘सभ्यता विमर्श’ की तरह सोचने समझने की कोशिश करने वाली सजगता नहीं दिखायी देती। हमारा (भारतीय) यह विमर्श गोया अभी ‘स्त्री’ देह के आस पास ही केन्द्रित हुआ पड़ा है। यहां से आगे जाने के लिए रास्ते और दिशाएं तो स्पष्ट हैं पर उन पर कम लोग ही चलना चाह रहे हैं। दर असल यह जो आगे जाने वाला रास्ता है स्त्री से ‘स्त्रैण’ में और फिर ‘स्त्रैण से सभ्यता में’ छलांग लगाने से आगे खुलता है।’ यानि हम पहले देह से ‘मानसिकता’ में उतरते हैं फिर वहां से ‘सामूहिक चेतना’ में परन्तु हमारे यहां गहराइयों को अमूर्त कह कर खारिज कर देने का रिवाज जैसे एक अपसंस्कृति की तरह पनपता और डसता जाता है।’ जाहिर है भारतीय चिंतक विनोदशाही जी भी भारतीय नारी विमर्श के तौर तरीकों पर सवाल खड़ा करते हैं और कहते हैं कि जब तक नारी विमर्श को सभ्यता विमर्श की तरह मूल्यांकित और प्रतिष्ठित नहीं किया जाता तब तक नारीविमर्श मात्र देह का विमर्श बना ही रहेगा और वही हो रहा है।’ नारीविमर्श को हमें निश्चित रूप से नारी देह के कौतुकों, रहस्यों, देह से उभरने वाले प्रतीकों की मानसिकताओं से तथा नारी को नारा बनाने वाले नारों से बिल्कुल अलग, उन्हें प्रकृति का एक बेहतर उत्पाद मानकर ही आगे बढ़ाना होगा। इतना ही नहीं नारी विमर्श को मानव सभ्यता का विमर्श बनाना ही होगा। सभ्यता के विमर्श के द्वारा ही यह बात निकल सकती है कि नर, नारी संबधों में यह जो पति, पत्नी वाला रूप है, यह जो परिवार गढ़ने वाली वैवाहिक रीतियां हैं, क्या वे नर, नारी के मित्रतापूर्ण रिश्तों के लिए उपयुक्त हैं? अगर नहीं तो विमर्श सभ्यता पर ही तो होना चाहिए न कि नारियों द्वारा लगातार अर्जित की जाने वाली स्वतंत्रताओं पर। आखिर यह जो स्वतंत्रताओं का आकाश है, स्वतंत्रताओं की आकांक्षाएं हैं, केवल नर के लिए ही तो नहीं हैं वे सभी के लिए हैं यानि नारियों के लिए भी तो हैं। इस लिए जरूरी है कि मर्दवादी नारों में किकुड़ियाये नारी विमर्श को खुली हवा में लाया जाये। यही समय की मांग है और जरूरत भी। '''कथा विमर्श और आज के जरूरी सवाल''' '''रामनाथ शिवेंद्र''' दुनिया बदली है और उसके साथ हमारे चिन्तन और विमर्श के आयाम भी बदले हैं। इन बदलावों ने मानव सभ्यता को दिया क्या है, यही सोचने की बात है। ज्ञानमीमांसा के सारे क्षेत्र जो समाजनीति, अर्थनीति, शिक्षानीति, राजनीति और विज्ञान जैसे वौद्धिक क्षेत्रों के उत्पाद हैं, हम देख रहे हैं कि ये सारे के सारे हमारे सिर को छूते हुए निकलते जा रहे हैं। हम पहले भी सत्य की खोज में लगे थे यही सत्य की खोज ने ज्ञानमीमांसा का विषय और चिंतन के रूप में विस्तार किया है। दुख है कि हम आज तक सत्य और परम सत्य की खोज नहीं कर पाये हैं। जगत मिथ्या वाला सत्य तो कब का अपनी आध्यात्मिक व्याख्याओं की खोह में दुबक चुका है। चरम भौतिकता के दौर में उस सत्य का कोई मतलब भी नहीं। आज जो सत्य हमारे सामने मुह बाए खड़ा है, वह है अपनी पीठ ठोंकने वाला, अपने में डूबने वाला, अपना ही भला चाहने वाला। आज के सत्यज्ञानियों और सत्यखोजियों द्वारा हमें बताया जा रहा है कि हम बाजारवाद और वैश्वीकरण के गिरफ्त में हैं और पूंजी के क्रीड़ा कौतुक बनते जा रहे हैं पर क्या इतना ही सच है। दर असल यह जो ज्ञान मीमांसा का मामला है यह है क्या आखिर? यह समाज को किस तरह से प्रभावित करता है या अपनी गिरफ्त में लेता है, क्या आज के दौर में हम पहले से प्रभावी ज्ञानमीमांसाओं से या दूसरे शब्दों में अतीत से खुराक नहीं ले रहे जिनमें हमारे पुरखों के कथात्मक तथा काव्यात्मक वर्णन हैं, शौर्यगाथा या शोक गाथा के रूप में। क्या हम उसे थोड़़ा आधुनिक तथा अपने अनुकूल बना कर उसी में गोते नहीं लगा रहे? क्या ल्योतार ने महाख्यानों के अंत की बात बदलती दुनिया को और बदल जाने तथा मानवीय समीपताओं की सारी सीमाओं को फलांग जाने के कारण कहा है। इन बातों को समझने के लिए हम कथासाहित्य के विमर्शों को आधार बना सकते हैं और समझ सकते हैं कि महाख्यानों वाली दुनिया से हमारा कथासाहित्य कितना दूर और कितना करीब है? पहली बात तो यह समझना और बूझना जरूरी है कि महाख्यान है क्या चीज? महाख्यान को हम इसके सरलीकृत व्याख्या के आधार पर समझ सकते हैं कि ऐसे वौद्धिक करतब, सिद्धांत, राजनीतिक कार्य पद्धतियां जिसने सारी दुनिया को हिलाने का काम किया हो, वही महाख्यान है। इस संदर्भ में हम मार्क्सवाद को उद्धृत कर सकते हैं। अपने समय से लेकर आज तक मार्क्सवाद सारे वौद्धिकों को उद्वेलित करता रहा है। इसके अलावा महाख्यान का एक रूप विज्ञान के कौतुकों में भी दीखता है। वैज्ञानिक करतबों ने भी दुनिया को हिलाने डुलाने का का काम किया है। विज्ञान के किसिम किसिम के उत्पादों ने दुनिया में आशा बढ़ाई है कि यह जो दुनिया है बदल सकती है पर दुनिया किस तरह से बदलेगी और किनके लिए बदलेगी, इसके बारे में सारे ज्ञानमीमांसी खामोशी साध लेते हैं और वौद्धिकता की गुफा में घुस जाते हैं। ऐसे बदलावों से हमारा कथासाहित्य भी गहरे तक प्रभावित रहा है। कहानियां जो भी चर्चित र्हुइं उनमें बाजार, विज्ञान तथा मार्क्सवाद के कौतुकों को देखा जा सकता है पर उन बिन्दुओं को चर्चित कहानियों में नहीं देखा जा सकता जो आज जनान्दोलन का रूप घर रहे हैं और कदाचित उन्हें कथाविमर्श का आधार बनाया गया भी तो उनमें आज के जरूरी सवाल जो महाख्यानों के पूर्व भी मानव सभ्यता के लिए जरूरी थे जैसे संपत्ति के सवाल, भूमि के सवाल, और नारी के सवाल इन्हें विमर्श में शामिल नहीं किया गया। इन्हें प्रतिआख्यान की श्रेणी में डाल कर हासिए पर फेंक दिया गया। मार्क्सवाद हालांकि द्वन्दात्मक भौतिकवाद की बात अवश्य करता है पर दुनिया कैसे बदलेगी इसके लिए वह जिन तरीकों की बात करता है वह मानव सभ्यता के मानसिक बुनावट के अनुकूल नहीं लगता। मनुष्य को मशीन की तरह नहीं चलाया जा सकता और किसी ऐसे काम में नहीं लगाया जा सकता जो मानसिक गतिविधियों, मन के आग्रहों और धारणाओं के विपरीत हों। मन तो स्वमेव अहिन्सात्मक होता है और मानवीय समीपता का पक्षधर भी सो वह एकांगी हो कर किसी मशीनी कार्यप्रणाली का पक्षधर नहीं हो सकता। किसी काल्पनिक समानता के लिए अकाल्पनिक कार्यप्रणालियों को नहीं स्वीकार कर सकता। भौतिकता का दर्शन अधि-आत्मिक मानस को लम्बे समय तक मशीनी कार्यपद्धतियों की तरफ नहीं टहला सकता। और इसी बिन्दुपर मार्क्सवाद आलोचना का शिकार हो जाता है वैसे यह सच है कि मानवीय समीपता के लिए राजनतिक व सामाजिक दोनों रूपों के द्वारा प्रयास किये जा सकते हैं, जो किये ही नहीं गये और नही किये जा रहे हैं। यही बिडंबना है। हमारे कथासाहित्य में मार्क्सवाद तथा विज्ञानवाद दोनों दीख पड़ते हैं, पर वे दोनों पुरुषवाद के पनाहगाह में हसियां हसते, गाते और नाचते ही दीखते हैं। पुरुषवाद की मांद में छिप कर सारे कथातत्वों को कहीं से उठा कर कहीं चस्पा कर देना वैसे भी आसान होता है। कथानायक या नायिका दोनों चाहे जितनी भी विषम परिस्थितियों का प्रतिनिधित्व कर रहे हों पर वे पुरुषवाद के बाहर कभी निकल ही नहीं पाते उसी में चक्कर लगाते दीखते हैं। पुरुषवाद का जहर परिवारवाद के मुॅह से निकलता है और यही पुरुषवाद पूंजीवाद से खुराक हासिल कर सामन्ती चरित्र का बन जाता है। जैसा कि पता है कि यह जो सामंतवाद है दुनिया का सबसे भयानक रोग है जो व्यक्ति को व्यक्ति तो बना देता है पर मनुष्य नहीं बने रहने देता। व्यक्तिवाद मनुष्यता लीलने के सबसे सुगम रास्ते का निर्माण करता है जो सभी को प्यारा भी लगता है। पुरुषवाद की व्याख्या व्यक्तिवाद में छिपी होती है और इसी व्यक्तिबाद के भीतर जनकल्याण लोककल्याण की तमाम लुभावनी बातें टहलती रहती हैं। यह जो परोपकार वाला मामला है बहुत सरल और आसान नहीं है बहुत ही जटिल और गड़बड़ है। ऐसा इसलिए है कि परोपकार को व्यक्ति के मूल्यांकन का जाने अनजाने हम आधार बना लेते हैं। भावुकता में डूब जाते हैं। ऐसी भावुकताओं से परिपूर्ण परोपकारी, दुख हरण, मनोवैज्ञानिक रूप से संवेदित करने वाली कहानियों को हम पढ़ रहे हैं और ऑसू बहा रहें हैं पर नहीं सोच पा रहे कि आदमी इतना समर्थ कैसे हो गया जो परोपकार करने लगा आखिर वह किसकी और किस तरह की पूंजी पर कुण्डली मार कर बैठा हुआ है? परोपकार, दुत्कार या तिरस्कार सभी समर्थ आदमी के अमानवीय करतब हैं जिसके विरूद्ध हम कुछ कर सकने में समर्थ नहीं होते। इतना ही नहीं अपनी पूंजी की सुरक्षा के लिए पुरुषवाद नेे तमाम तरह के प्राकृतिक दिखने वाली व्यवस्थाओं को भी सृजित कर लिया है। उसी में हम पिस रहे हैं। राजा का बेटा राजा, बाभन का बेटा बाभन, बनिया का बेटा बनिया और आधनिक दौर में कलक्टर का बेटा कलक्टर, मुख्यमंत्री का बेटा मुख्यमंत्री आदि व्यवहारों के अलावा भी यह जो वसीयत या उत्तराधिकार का मामला है आखिर यह मानव सभ्यता में कैसे शामिल हो गया क्या इसे पुरुषवाद का मजबूत औजार नहीं माना जाना चाहिए अगर ऐसा मान लिया जाता है फिर तो कहानियों को कथित उत्तराधिकार की साजिश का पर्दाफास भी करना चाहिए पर ऐसा नहीं हो रहा। कहानियों के माध्यम से भूमि के अधिकारों के बारे में भी सवाल नहीं किये जा रहे और जो सवाल उठाये भी जा रहे है वे ‘सभै भूमि गोपाल की’ अवधारणा से बाहर के हैं ‘रुपया हाथ का मैल है’ यह तो आज के समय के लिए एक भूली हुई कहावत भर है। कहानियों के वौद्धिक विमर्श नारी देह पर बौद्धिक लेप लगा रहे हैं और उनकी आजादी की बात कर रहे हैं, नारी के मन और तन दोनों की आजादी की पैरवी कर रहे है उन्हें पता होना चाहिए कि नारी तब तक आजाद नहीं हो सकती जब तक पुरुषवाद का घातक औजार उत्तराधिकार सामाजिक व कानूनी रूप से प्रभावी है। टकराना हो तो पार्टनर! उत्तराधिकार जैसे रोग से टकराओ जो पुरुष को प्रकृति से अलग आधुनिक पुरुष बनाता है। यही उत्तराधिकार आज के समय का भयानक रोग बन चुका है, इसी उत्तराधिकार ने पहले भी मानवीय समीपता के तमाम कारकों का सफाया किया था और आज भी कर रहा है वर्ना आदमी तो पहले भी आदमी था पर जब वह उत्तराधिकार विशेषाधिकार जैसे निष्ठुर और अप्राकृतिक तथा ताकत के बल पर प्राप्त किये गये अधिकारों से लैश होता है फिर तो वह आदमी ही नहीं रह जाता। पुरुष को तो प्रकृति वैसे भी अपने आप बहुत कुछ दे दिया करती है, प्रकृति और पुरुष के रिश्ते को वैसे भी विशेषाधिकार तथा उत्तराधिकार जैसे मानव सृजित कुटिल अधिकारों की कोई आवश्यकता ही नहीं होती। यही तो आज के समय के पूंजीवाद की साजिश है जिसे समझना चाहिए। पूंजीवाद अपने औजारों को समय के अनुसार लगातार धार देता रहता है। वह धार देता है लोककल्याण के नाम पर, जनहित के नाम पर, इतना ही नहीं वह लोकतंत्र के नाम पर भी आपने प्रिय होने की धार चढ़ाता रहता है। इस धार को आसानी से समझा जा सकता है कि लोकतंत्र, किसका लोकतंत्र, संसद में बैठे हुए कुछ लोगों का, बड़ी बड़ी कंपनियां चलाने वालों का, संसदीय प्रणालियों द्वारा अपने हितों की सुरक्षा के लिए कानून बनवा लेने वालों का या मनचाहे ढंग से चुनी हुई सरकारों को गिरवा देने वालों का। चुनाव संपन्न हो जाने तथा सरकार गठित हो जाने के बाद हाथ मलती जनता आज के समय में मौजूदा लोकतंत्र के किस बिस्तरे पर अपना हाथ पैर फैलाये इसके बारे में कौन जबाब देगा? इस बात का भी कौन जबाब देगा कि यह जो आदमी और आदमी के बीच आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक रूप से भयानक खांई है इसके लिए कौन उत्तरदायी है? क्या जनता खुद या जनता पर राज करने वाले लोग। बहुमत कितनी कलात्मकता के साथ अल्पमत में बदल जाता है और एक खेल की शक्ल ले लेता है इसे आपातकाल वाले दौर में देखा जा चुका है। इसे उन घोटालों की शक्ल में भी देखा जा सकता है जिसे लोकतंत्र के बरगद के नीचे किया गया और नये किस्म के घोटालों के लिए जमीन भी तैयार की गई। सारे घोटाले अल्पमत की बहुमत पर जीत की तरह होते हैं, घोटालों और भ्रष्टाचारों के आगे बहुमत पानी भरता दीखता है। क्या कर लेगा बहुमत देश में होने वाले घोटालों के बाबत। अफसोस इस बात का है कि यह जो आज के समय का सच है वह कहानियों में नहीं आ रहा, कहानियों के माध्यम से नहीं बताया जा रहा कि बहुमत तो केवल देखने की चीज है, असल मामला अल्पमत का है। निर्णयात्मक क्षमताओं से लैश अल्पमत का निर्माण किसी नाटकीय परिघटना की तरह है जो अपने असली रूप में ब्यक्ति केन्द्रित हो जाता है और कल्माड़ी जैसा आरोपी उत्पादित करता है। घोटाले की राजनीति बहुमत पर संविधान सम्मत ताकतवर अल्पमत (मंत्री, प्रंधानमंत्री, कलक्टर आदि सभी अल्पमत के प्रतिनिधि हैं) की जीत है। बहुमत के पास तो सिवाय वोट देने के कोई दूसरी ताकत तो होती ही नहीं, उसके पास कोई विशेषाधिकार नहींे होते और वोट देने या चुनाव कराने का जो मामला है वह भी बहुमत की मर्जी का नहीं है। तमाम देशों में देखा जा रहा है कि चुनाव को ही खारिज कर दिया जा रहा है यानि लोकतंत्र में भी तानाशाह बनने की प्रवृत्ति कहीं न कहीं मौजूद रहती है। लोकतंत्र में उपजने वाली लोकशाही जो अप्रत्यक्ष रूप से तानाशाही की बिरादरी की ही होती है उसे कैसे रोका जा सकता है, इसे भी कहानियों का विषय बनाया जाना चाहिए। विषय तो प्रेम को भी बनाया जाना चाहिए जिसका अंत पुरूषवाद की जटिल परंपरा विवाह में जा कर होता है और घर से पलायन करने वाले नायक और नायिकाओं को अंत में परिवार में ही शरणागत होना पड़ता है, उन्हें भी जाति बिरादरी, मॉ बाप आदि का आशीर्वाद लेना पड़ता है फिर यह जो घर से भागना है वही क्यों? प्रेम तो किसी भी सामाजिक वर्जना को नहीं स्वीकारता फिर भी वर्जनाओं के कटघरों में खड़ी कहानियों से उसका लेखक अखिर क्या निष्कर्ष निकालना चाहता है, सोचना होगा। प्रेम में जो सेक्स का मामला है वह तो होगा ही, वह कहानियों में किस तरह से आ रहा है और किस तरह से उसे आना चाहिए हालांकि इस पर बहसें हो रही है और अद्भुत किस्म की कहानियां भी रची जा रही हैं पर बेजान तब हो जाती है जब उन्हें जातिवादी, परिवार वादी बिडंबनाओं में झोंक दिया जाता है। लगता है प्रेम की प्राचीन व्याख्या के लिए ऐसा किया जाता है, जब कि प्रेम को कथातत्वों तथा परिस्थितियों द्वारा निहायत आधुनिक बनाया जाता है। लगता है कि प्रेम किया नहीं जाता है, हो जाता है, प्रेम में तन नहीं होता केवल मन होता है। जाहिर है प्रेम और विवाह दोनों दो चीजे हैं उन्हें एक में गूंथा नहीं जा सकता। विवाह एक सामाजिक व्यवस्था है, जो पुरुषवाद का एक सशक्त औजार है। जो परिवारवाद तथा वंशवाद का सृजन करता है उसी से जुड़ा हुआ है उत्तराधिकार का कानूनी व सामाजिक रूप। अगर महाख्यानों का अंत हो चुका होता तो यह जो प्रेम है उसका आखिरी पड़ाव विवाह नहीं होता वह परिवारवाद या वंशवाद का मुखापेक्षी नहीं होता। जाहिर है हम आज भी महाख्यानों के दौर में हैं और पूंजी के क्रीड़ा कौतुकों के खिलाड़ी हैं। उसी खेल में हम राजनीति के तमाशा हैं तो कहानियों के शीर्षक और कविताओं के भावार्थ हैं। हमारा अपना कुछ नहीं जो हमारी कृति को प्रकृति से जोड़ता हो। हम आज भी संपत्ति के करिश्माई खेलों उससे उपजे अधिकारों, विशेषाधिकारों के नरम बिस्तरों पर नाचने के आकांक्षी है और जन से जुड़े, जाति, मजहब, संपत्ति आदि के सवालों पर खामोश हैं तथा हमारा रिश्ता ऐसे आन्दोलनों या अभियानों से तो कत्तई नहीं है जो मानवीय समीपताओं के लिए चलाये जा रहे हैं। काश! हम मानवीय समीपताओं के पक्ष में अपनी कहानियों को खड़ी कर सकते और भूमि, संपत्ति तथा नारी के सवालों से टकराते हुए यह जो पूंजी का मामला है उसके जालों को काट पाते और एक नये तरह का महाख्यान रच पाते। पर हमें लगता है आज भी वारेनहेस्टिंग्स का सॉड़ बिना रोक टोक कहानियों एवं उपन्यासों के रथ पर सवार हो कर हमारी निगरानी कर रहा है। '''कथा का समाजशास्त्र और तीसरी दुनिया''' रामनाथ शिवेंद्र साहित्य और समाज के रिश्तों पर सवाल उठाना न तो पहले जायज था और न आज ही है पर अब सवाल उठाना जायज हो गया है, क्योंकि आज का समाज पहले वाला समाज नहीं है। आज के समाज का जो ताना,बाना है, इसे संचालित करने, निर्देशित करने की व्यवस्था है, उस व्यवस्था को कुदरती प्रबंधन से जबरिया छीन कर एक ऐसे मानवकृत प्र्रबंधन में डाल दिया गया है जिसे सामान्य रूप से राजनीतिक प्रबंधन कहा जाता है। अब समाज राजनीतिक प्रबंधन में है। यही राजनीति, समाज को चालित संचालित, निर्देशित भी कर रही है। मनुष्यों के लिए किसिम किसिम की मनमानी नीतियों को लागू करते हुए सर्वकल्याण की धोखेपूर्ण बातें भी कर रही है। फिर तो उस राजनीति को समझने के लिए हमें उस ग्रामगणराज्य समाजप्रबंधन को समझना होगा जो भारत के लिए अब अतीत का विषय हो चुका है। हमें ध्यान रखना होगा कि हमारा अतीत लोककथाओं, लोककलाओं, लोकविद्या तथा लोकसंस्कृति वाला था और उस समय का लोकसाहित्य, लोकसंगीत, समाज के सहसंबधों का दस्तावेज हुआ करता था यानि तब सहभागी समाज व्यवस्था पर किसी मानव रचित व गढ़ित राजनीति का प्रभाव नहीं था। कुल मिला कर उस दौर में मानव संसाधनों व कुदरती संसाधनों के दोहन के लिए तकनीकी कौशलों से युक्त संस्थान नहीं हुआ करते थे। सारे कुदरती संसाधन, नदी, पहाड़, जंगल, हवा, पानी सारा कुछ समाज के आधिपत्य में हुआ करता था पर अब वैसा समय नहीं रह गया है। आज तो सारे कुदरती संसाधनों पर किसी न किसी निजी कंपनी या कंपनियों को राज्याश्रित कानूनों द्वारा संरक्षित मालिकाना दे दिया गया है। मानवसभ्यता का द्वन्द यही है कि कुदरती संसाधनों पर मालिकाना किसका रहे।? मालिकाना के संस्थापन को कथित विकास के नाम पर आज के समय में कुदरती (मिथक की तरह) बना दिया गया है, जैसे विकास तथा मालिकाना दोनों एक दूसरे के अन्योन्याश्रित ही नहीं पर्याय भी हों। तो ऐसे कठिन समय में जब खुलेआम कुदरती संसाधनों पर निजी मालिकाना स्थापित कराये जा रहे हों, तकनीकी कौशलों को कुदरती संसाधनों के अधिकतम दोहन के लिए जरूरी बताया जा रहा हो, सार्वजनिक रूप से मानवजनित कौशलों व क्षमताओं को नकारा जा रहा हो फिर तो साहित्य के लिए अनिवार्य रूप से अनिवार्य है कि वह समाज को व्याख्यायित करने के लिए राजनीति की खोल में दुबकी सत्ताव्यवस्था की सारी पर्तों को खोले और राजनीतिक प्रबंधन में उगने वाली समाज की विडंबनापूर्ण स्थितियों, परिस्थितियों का खुलासा करे। क्योंकि आज के समय में चाहे मालिकाना स्थापित करने के सवाल हों या मालिकाना से बेदखल करते हुए सामान्य जन को उजाड़ने के सवाल हों, देशी विदेशी कंपनियों को कानूनी बना कर कुदरती संसाधनों के दोहन करने के अधिकार देने के सवाल हों, ये सब सत्ता के ही क्रीड़ा कौतुक हैं। तो यह जो सत्ता है, आज वही समाज को चालित संचालित कर रही है और समाज उसके प्रबंधन में रहने के लिए अभिशप्त हो चुका है। साहित्य के प्रति समर्पण के नाते हमें ऐसा करना भी चाहिए, आज के कठिन समय में हमारे साहित्य का समाजशास्त्र बदल चुका है, चाहे सवाल कथा का हो या कविता का, इतना ही नहीं आलोचना का समाजशास्त्र भी बदल चुका है। साहित्य के बदले हुए समाजशास्त्र के बारे में हम यहां बात करना चाहेंगे तथा उन जटिल परिस्थितियों की तरफ संकेत भी जो हमारे देश के साहित्य के लिए अनिवार्य रूप से अनिवार्य हैं। जाहिर है कि तकनीक की बारीक पर्तों, दर पर्तों को खोल लेने के दावे करने वाली आज की दुनिया, वसुधैव कुटुम्बकम् तो बहुत दूर चित्त और चेतना, विचार और व्यवहार, लक्ष्य और साधन, प्रकृति और पुरुष, तन और मन, समय और समाज आदि संदर्भों में मानवीय समीपता की पक्षधर तो कम से कम नहीं दीख रही है, और न ही मानवीय आदर्शों के प्रति दिखावटी ही सही आग्रही ही दीख रही है। आज की दुनिया संसाधनों व सुविधाओं की गुलामी में उलझी हुई अपनी वैयक्तिक संप्रभुता के कुत्सित फैलावों में जुटी हुई मानवीय समीपता के सर्वग्राही कुदरती नियमों को प्रतिस्पर्धाओं के बहाने निरंतर ठेंगा दिखा रही है। ‘एकला चलो’ वाली हमारी दार्शनिक संस्कृति अचानक ‘मैं’ के रूप में बदल जाएगी इसका आभास दूर दूर तक नहीं था। ‘मैं’ केवल ‘मैं’, मेरा काम, मेरा लाभ, मेरा हित ऐसा किसी भी मानव सभ्यता के अतीत में प्रस्तावित नहीं था, जो था, जो है सारा कुछ सभी का है सभी के लिए है, इसी बुनियाद पर समाज की नींव डाली गई थी, फिर कुटुम्ब बना था, कुटुम्बों के संगठन वाली सहयोगी व सहभागी संरचना से दुनिया की तस्वीर बनी थी, पर हाय रे दुनिया! आज वह दुनिया नहीं है। आज की दुनिया ‘मैं’ के घृणित आभामंडल में खुद को चॉद सितारा बना लेने के प्रयासों में सर्वसमाज की पीठ पर भाई चारे के पाठों के पोस्टर चिपका रही है। आज की दुनिया कम से कम दो खानों में तो निश्चितरूप से विभक्त है पहला खाना है एक ऐसी दुनिया का जिसमें मानव संसाधनों के समुचित व बराबरी के स्तर पर उपयोगों के बारे में सत्ता प्रबंधन की तरफ से निराशाजनक उदासीनता है तथा उपेक्षा है, तो दूसरा खाना है एक ऐसी दुनिया का जो अपने से इतर दुनिया के सारे मानव समाजों को तकनीकी संहारक कौशलों के द्वारा भयभीत कर अपने आधिपत्य को पोख्ता बनाए रखने के प्रयासों में सारे तकनीकी कौशलों को आजमा रही है। गोया आज की दुनिया का माहौल पहले वाला सर्वहितकारी, सहयोगी व सहभागितापूर्ण नहीं है जिसे वसुधैव कुटुुम्बकम्् के रूप में हम जानते हैं। आज हमारे सामने एक ऐसी कथित विकसित दुनिया है जो किसिम, किसिम के जनसंहारक हथियारों से लैश होकर अपनी संहारक क्षमताओं के प्रदर्शनों के उत्सवों को चॉद पर मनाने के लिए बेचैन है तथा इसे प्रमाणित करने के लिए हमारे जैसे देशों (तीसरी दुनिया के देशों) का चयन किया करती है तथा कर रही है। जाहिर है उसे ऐसे ही देश या भूगोल अनिवार्य रूप से चाहिए होते हैं जो अपने प्राकृतिक संसाधनों का ही नहीं, अपने मानव संसाधनों का भी समुचित प्रयोग तो दूर आंशिक प्रयोग भी अपनी जनता के हितों के लिए नहीं कर पाते हैं या कर पा रहे हैं। हमारा आशय तीसरी दुनिया के देशों से है खासतौर से उन देशों से जहां आज भी भूख और कर्ज से दबे किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं, बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं, वे पढ़ाई करने के बजाय अपने मां बाप के कामों में सहायता करने के लिए विवश हैं। एक ऐसा हताश देश जहां मतदान करने की अनिवार्यता के बारे में लोगों को सिखाने पढ़ाने की आवश्यकता पड़ रही हो, जहां आजादी के सातवंे दशक में भोजन का अधिकार, सूचना का अधिकार व शिक्षा का अधिकार दिखावटी तौर पर विधिक बनाया जा रहा हो। एक ऐसा देश जहां आज भी शिक्षा का स्तर केवल साक्षर होना हो और जीवन निर्वाह के लिए पेट की आग में झुलसती जनता को घृणित मात्रा में सरकारी संस्थानों द्वारा खाद्यान्न वितरण योजनांए चलाई जा रही हों। जहां चालीस फीसदी घरों में आज भी दो जून का खाना नहीं पक रहा हो। जाहिर है, एक ऐसा देश जहां मानव संसाधन के उपयोग को पूरी तरह से नकारा जा रहा हो तथा विकास के एकांगी लक्ष्यों को मशीनी कुशलता से पूरा करने के प्रयास किए जा रहे हों। परोक्ष रूपसे मानव संसाधन को बेरोजगार बना कर उनकी कार्य क्षमताओं को विकलांग बनाया जा रहा हो। कुल मिला कर ऐसे देश की तस्वीर पर आप चाहें भी तो कोई रंग नहीं लगा सकते, वसंती वाला, फागुन वाला या कजरी वाला कोई भी। ऐसी कुत्सित सामाजिकता पर रंग लगाने के लिए किसी खास तथा प्रिय रंग का चुनाव आप नहीं कर पायेंगे। जाहिर है हम ऐसे ही भूगोल तथा देश के लोग हैं जहां मौसम के हसीन करतबों के सहारे ही खुद को जीवित बचाए रखना है और अपने अतीत को पीठ पर बांधे हुए शौर्य तथा वलिदान के गीतों को गाते रहना है। शायद हम ऐसा कर भी रहे हैं। हम एक ऐसे देश के लोग हैं जहां एक पहाड़ी की कीमत हजारों लाखों मनुष्यों से कहीं अधिक है, नदी का पानी हमारे ऑसुओं से कीमती है क्योंकि वह कुदरती संसाधन है, पहाड़ी के भीतर छिपा खनिज हमारे कलेजे और किडनी से कीमती है। सो हम किसी शोकगाथा की तरह हताश और निराश हैं तथा मनुष्य होने के बोझ से दबे हुए विकल्पहीन हैं, हमारे लिए जीवन जीने और जीते रहने के सुलभ विकल्पों की कोई चादर नहीं है। फिर भी मनुष्य जीवन जीने और जीते रहने के संभव समाधानों से खुद को अलगिया कर अपनी इहलीला समाप्त करने की योजना नहीं बनाता। वह जीवन जीते रहने के सपने देखता है क्योंकि वह खुद कहानी होता है। इसीलिए अपनी कहानीपना की हिफाजत में नाना प्रकार के सपने भी देखा करता है, वह सपने देखता है, समाज के बारे में तो कभी खुद के बारे में कि उसे समाज के साथ किस तरह के रिश्तों का निर्वहन करना चाहिए तथा खुद को किस तरह से संवारना व दुलारना चाहिए। ऐसा करते हुए वह अपना सारा जीवन दुखों से लड़ता हुआ, रोता, चीखता, चिल्लाता हुआ या तकलीफों में गोते लगाता हुआ या सुखों के अपने रचे गढ़े मानकों को निर्मित करता हुआ गुजार देता है। पर खुद को संभाले रखने या समय के साथ टकराने के जितने कौशलों का प्रयोग वह करता रहता है, उससे कितना आश्वस्त रहता है इसका उसके पास कोई गंभीर मूल्यांकन नहीं होता। यही है तीसरी दुनिया के मनुष्यों का सच। ऐसा मनुष्य अपनी दयनीयता, निरीहता व असमर्थता को दैवीलीला मानने से भी खुद को नहीं रोक पाता, जो किस्मत में लिखा होता है वही मिलता है या उसे भोगना ही पड़ता है। इसी सारतत्व में गोते लगाता हुआ समानता, स्वतंत्रता, बन्धुत्व के नारों में फसा तीसरी दुनिया का आदमी अपना जीवन बिताने के लिए विवश है। मनोवैज्ञानिक विश्लेषणों, निष्कर्षों तथा समाधानों को परखने के आधार पर कहा जा सकता है कि मनुष्य के चेतन तथा अचेतन मन में जाने अनजाने अंखुआने वाले सपने जो कहानी की शक्लधारी होते हैं, बिना किसी प्रयास के जड़ जमाए रहते हैं। वे सपने आभासी मात्र नहीं होते, कभी कभी सकारात्मक परिणामों व उपलब्धियों के हेतु बनते भी दिख जाते हैं सवाल है कि सपनों के रूप में ये कहानियां मनुष्य के मन में कैसे प्रवेश कर जाती है? सवाल यह भी है कि क्या उन कहानियों से मनुष्य का कोई रिश्ता बनता है जो उसे प्रभावित करती हैं। शायद इस तरह से सपनों को विश्लेषित करते हुए सामाजिक सरोकारों से जोड़ने का काम मानव सभ्यता करती रही है। आज के जटिल समय में देश तथा उससे जुड़ी राष्ट्रीयता किसी सपने की तरह नहीं जान पड़ सकती है पर कभी यही राष्ट्रीयता सपना थी, इसी सपने को हासिल करने के लिए हम अपने पुरखों के परिणामकारी प्रयासों को कŸाई नहीं भूल सकते और भूलना भी नहीं चाहिए। यही राष्ट्रीयता का सपना हमें अपने अतीत की तरफ ले जाता है जो काफी संघर्षपूर्ण व उलझन भरा रहा है। हमारे पुरखों ने राष्ट्रीयता के सपने को सच करने के लिए उस समय के खतरनाक जनसंघर्षाें को जिस तरह से गतिमान किया या संचालित किया वह दुनिया के लिए किसी उदाहरण से कम नही। यानि वह वही समय था जब मनुष्य अपने सपनों को चरितार्थ करने के लिए तत्कालीन सत्ता प्रबंधन से टकाराते हुए खुद कहानी बन रहा था। यही कहानी आने वाले समय के लिए प्रेरक बन जाएगी हमारे पुरखों को पता भी था या नहीं साफ साफ नहीं कहा जा सकता। वैसे भी आने वाले समय के लिए हमारे पुरखे जो कहानी बन रहे होते थे वे आजकल के प्रायोजित मानवों की तरह होते ही नहीं थे, वे तो अपने सपनों के लिए लड़ रहे होते थे, भला ऐसे में उन्हें क्या पता होगा कि उनकी कहानी का क्या होगा? वैसे भी आज के समय में तो सारे सपने खुद की पीठ पर टंगे हुए होते हैं। समाज की राष्ट्रीयता जैसी तस्वीर रचने व गढ़ने वाले सपने अब होते ही कहां हैं? दुखद है कि हम आज ऐसे समय में है जब हम उन्हीं सपनों में गोते लगा रहे हैं जो हमें हर समय चूमते चाटते रहें तथा विपरीत परिस्थितियों में भी आज्ञाकारी बने रहें। सपनों को भी आज्ञाकारिता व अनुशासन के दायरों से बाहर न निकलने देने वाला हमारा समय कई मायनों में हमारे लिए किसी शोकगाथा से कम नहीं होता पर हमारी अभिशप्तता उसे महसूसने ही नहीं देती। आजादी के दौर वाले सपनों की बात करें तो उस समय हमारे पुरखों के सामने खुद तथा राष्ट्र को मुक्त कराने के अनिवार्य व महत्वपूर्ण कार्यभार थे पर आज हमारे सामने किस तरह के सपने हैं, और अगर सपने हैं भी तो क्या हम उसके बारे में जानते हैं? क्या हम अपने सपनों का मूल्यांकन करते हुए सपनों के साथ गतिमान रहने की कला जानते हैं? इस बारे में हमें सोचना व गुनना होगा। तो यह है आज के समय की कथा का समाजशास्त्र। ऐसा नहीं हैं कि हम आज के वैयक्तिक कुटिल प्रतिस्पर्धा वाले समय में सपने देखने की आदतें खो चुके हैं, ऐसा कŸाई नहीं है, ऐसा गुनना अप्राकृतिक होगा, ऐसा हो ही नहीं सकता। मनुष्य है तो वह सपने देखेगा ही और हम सपने देख भी रहे हैं पर आजादी के पहले वाले सपनों और आज के समय के सपनों में बेमेल घालमेल हो गया है। किसिम किसिम के वैचारिक रसायनों ने सपनों की प्रवृŸति व प्रकृति को बदल दिया है। आधी सदी गुजर चुकी है पर हम आने वाले समय से टकराने के बाबत सावधान नहीं हैं। हमें यह भी नहीं पता कि राष्ट्र के सवाल पर, केवल राष्ट्र के भूगोल को बचा लेने का काम ही राष्ट्र को बचाना नहीं होता, ठीक है बचाना तो भूगोल को भी पड़ता है पर यह भी सच है कि राष्ट्र के नागरिकों को बचाना राष्ट्र के भूगोल को बचाने से अनिवार्य रूप से अधिक जरूरी है। पर हम अपने देश के नागरिकों को बचाने के सवाल पर कितने गंभीर हैं या उत्साहित हैं इसके प्रमाण तो बिरले ही दीखते हैं। देखा जा रहा है कि हमारे वौद्धिक कारीगर भूगोल बचाने की मार्मिक सीखों के आधार पर कभी संस्कृति बचाने की बातें करते हैं तो कभी इतिहास बचाने की, वौद्धिक कारीगरों की बातों को रट, रटा कर हमारे नेता भी दिखावे के तौर पर संस्कृति बचाने लगते हैं तो कभी इतिहास बचाने लगते हैं। पर बचाना क्या है इस सवाल से वे परेशान नहीं हालांकि वे जानते होते हैं कि भूगोल, व इतिहास बचा लेने से मनुष्यों को नहीं बचाया जा सकता, मनुष्यों को तो तभी बचाया जा सकता है जब सत्ता प्रबंधन को मानवीय समीपता के सूत्रों से रचा गढ़ा जाएगा, सामाजिक संरचना की खाईं को सामाजिक बराबरी की तरफ ले जाने के लिए आर्थिक बराबरी के परिणामकारी प्रयासों को क्रियान्वित कराया जायेगा, जबकि वैसा किया नहीं जा रहा, यही तीसरी दुनिया का संकट है। सो बार बार इतिहास व संस्कृति बचाने की बातें सत्ता प्रभुओं द्वारा की जाती हैं। विडंबना है कि मनुष्य बचाने की बातें नहीं की जा रहीं जो प्रकृति की अद्भुत कृति है। अरे! भाई थोड़ी शर्म करो और यह बात साफ कर लो कि इतिहास और संस्कृति से मनुष्य नहीं पैदा होता, मनुष्य से संस्कृतियां जनमती हैं, इतिहास जनमता है, तो मनुष्य बचाने की बातें क्यों नहीं करते? मनुष्य ही जब नहीं बचेगा फिर इतिहास और संस्कृति कैसे बचेगी? आज के समय में हमारे सपनों को निश्चितरूप से मनुष्य बचाने के सवालों के आधार पर ही अपनी कथा चुनना होगा। ऐसी कथाओं का समाजशास्त्र ही सत्ता विकल्पों के बन्द दरवाजों को खोलेगा तभी मनुष्य केन्द्रित सत्ता का सर्वसमाजीरूप उभार पा सकेगा फिलवक्त तो सत्ता प्रबंधन पर भाषा, भूषा, भवन, भोजन पर कुंडली मारे हुए लोगों का कब्जा है। आज की संसद में कोई गरीब पहुंच ही नहीं सकता, आंकड़े बताते हैं कि करीब तीन सौ से अधिक सांसद करोड़पति हैं। समझ में नहीं आ पाता कि इन करोड़पतियों से हमें किस सत्ता विकल्प की आशा करनी चाहिए, क्या ऐसे लोग मनुष्य केन्द्रित सत्ता विकल्पों की तरफ एक कदम भी आगे चल सकेंगे? कत्तई नहीं। ये लोग तो समाज कल्याण के नाम पर कभी केशरिया, तो कभी हरा, गुलाबी, पीला रंगरोगन ही कर सकते हैं, इससे अधिक कुछ नहीं। इसलिए इनके आधार पर सिरजी गई कथाओं को किसी न किसी दिन गहरी खांई में गिरकर छटपटाना ही होगा। सो यह जो तीसरी दुनिया की बेढंगी राजनीति से उपजा समाजशास्त्र है, वह कभी भी चेतन व जागृतकथा का समाजशास्त्र नहीं हो सकता। इतिहास और संस्कृति रूपी कामधेनु से निकलने वाले दूध में नहाने वाली सत्ता के लिए तो मनुष्य केवल शासित होने के लिए होते हैं जिनकी पीठ और पेट पर कानून की धाराएं लिखी जाती हैं सो उन्हें तथा उनकी मनुष्यता बचाने की क्या आवश्यकता? वे जाएंगे कहां, रहेंगे तो शासकों के द्वारा रचे गढ़े कानूनों व भूगोलों के दायरे में ही, यही तीसरी दुनिया का संकट है। वह जो पहले वाली दुनिया है अपने द्वारा गढ़े गये सूत्रों के आधार पर खुद को सभ्यता के शिखर पर बैठा हुआ मनवाना चाहती है। उसकी मुस्कराहट से सत्ता प्रबंधन के गुर सीखने वाले तीसरी दुनिया के नीतिकार नहीं जानते कि वे गले में फासी का फन्दा डाल रहे हैं। दिक्कत सिर्फ यही नहीं है कि हमारी राजनीति उस सत्ता प्रबंधन की नकल कर रही है, जिसकी नीतियों में मनुष्य मनुष्य होता ही नहीं, वह उपभोक्ता होता है, एक वस्तु होता है, एक बाजार होता है, तथा सत्ता प्रबंधन का आज्ञाकारी उत्पाद होता है, दिक्कत यह है कि हम साहित्यिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी नकल कर रहे हैं और मनुष्यता विरोधी सत्ता प्रबंधन की प्रतिलिपि बनते जा रहे हैं। जाहिर है हम तीसरी दुनिया के लोग हैं और हमारे सामने उस कथित सभ्य दुनिया की तुलना में समय, समाज एवं साहित्य के स्तर भी दूसरे तरह की चुनौतियां व विमर्श हैं सो हमारी कवितायें व कहानियां भी अलग हैं, अतीत बचाने से किसी को रोटी नहीं मिलने वाली, साबित हो चुका है कि तकनीकी कौशलों से संवरित कारखाने हमें रोटी नहीं दे सकते, हर हाथ को काम नहीं दे सकते। ये कारखाने तो व्यक्तिगत लाभ के सूत्रों पर आधारित कुदरती संसाधनों के दोहन के महज कानूनी संस्थान हैं। केन्द्रीयकृत और तकनीकी उत्पादन व्यवस्था कभी भी कुटीर उद्योगों के लक्ष्य को नहीं हासिल कर सकती। हमारे जैसे देश में जहां आबादी का घनत्व प्रति किलोमीटर पांच सौ से अधिक मनुष्यों का है, उसके लिए विशाल तकनीकी ढांचों वाले कारखानों का कोई प्रयोजन नहीं। यहां तो हर हाथ को काम चाहिए। हम चाहें तो कारखानों के उत्पादन लक्ष्यों को कुटीर उद्योगों के द्वारा भी हासिल कर सकते हैं। तीसरी दुनिया का कार्यभार होना चाहिए मनुष्य बचाने का न कि बाजार के उपभोक्ता को बचाने का। हमारे यहां मनुष्य, मनुष्य होता है, वस्तु नहीं, हम सामाजिक सहभागी कल्याणकारी सŸााप्रबंधन के लोग हैं, न कि बमों व बन्दूकों की बारूद में नहाए हुए आज्ञाकारी, दण्डित किए जा सकने वाले लोग। हम ‘पीर पराई जानने’ वाले लोग हैं, न कि पीर का मजाक बनाने वाले लोग। मानवीयता बचाने व सुरक्षित रखने का संदर्भ अन्ततः मनुष्यों को ही बचाना है, नागरिकों को ही बचाना है, पर कैसे बचेगी मनुष्यता आज के उपभोक्तावादी समय में? मनुष्य को मनुष्य बचाए रखने के लिए सत्ता के करतबों को कितना लचीला और मानवीय बनाना होगा, मनुष्य को उपभोक्ता बनने से कैसे रोकना होगा, मनुष्य को बाजार का बाजारू पोस्टर व कार्टून बनने से कैसे रोका जाये यही सारे सवाल तीसरी दुनिया के लिए विचारण के मामले हैं। सभी को पता है कि अधिक भू क्षेत्रफलों व कम आबादी वाले देशों के लिए तकनीकी कौशलों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया जाना अनिवार्य रूप से अनिवार्य है पर क्या सीमित और आधे एकड़ से भी कम प्रतिव्यक्ति भू क्षेत्रफल वाले भारत जैसे देशों के लिए भी प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए मानव ऊर्जा के स्थान पर तकनीकी कौशलों की ऊर्जा का प्रयोग किया जाना चाहिए? भारत जैसे क्षेत्रों के लिए जहां आबादी का घनत्व प्रति वर्ग किलोमीटर 400 व्यक्ति से अधिक है, यहां के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए अनिवार्यरूप से मानव संसाधनों पर ही आश्रित होना चाहिए न कि तकनीकी कौशलों पर, पर हो उल्टा रहा है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि तकनीकी कौशल के युग में आबादी के कम दबाव वाले क्षेत्र आज पूरी तरह से सुरक्षित क्षेत्र हैं तथा वीजा जैसे कानूनों के खोल में दुबके हुए हैं। समझना चाहिए कि क्या वीजा जैसा कानून मानवीयता के दर्दों को परिभाषित कर सकता है? आखिर मनुष्य तथा मनुष्य के बीच यह वीजा क्यों? आज की दुनिया एक तरफ तकनीकी कौशलों के बोझ से दब कर कराह रही है तो दूसरी तरफ मानव संसाधानों की कार्यक्षमता के उपयोग हीनता से तड़प रही है। मानव सभ्यता को आपस में बांटने का काम जिस प्रकार से जाति, गोत्र, रंग, धर्म आदि ने किया है उसी तरह आज के समय के कथित‘वीजा’ जैसे औपनिवेशी कानूनों ने भी मनुष्यता को बांटने का काम किया है। आखिर यह क्या है कि एक आदमी जो सिर्फ आदमी है वह दुनिया के इच्छित देशों में नहीं जा सकता, उसके लिए वीजा या पासपोर्ट की अनिवार्यता किस लिए, वह भी तब जब दुनिया के सारे सत्ता प्रतिष्ठान आदमी को बचाने की चिन्ताओं के रंगीन दावे करते हैं। मानव विवेक, चिंतन तथा धर्म तो सभै भूमि गोपल की मानता है पर वीजा जैसे कानून उनकी धज्जियां उड़ाते हैं। ऐसा किया जाना अनायास नहीं है अबादी के कम घनत्व व जरूरत से अधिक भू क्षेत्रफल वाले देश मानव जाति को अपने इच्छित स्थानों पर आबाद हो कर मानव सभ्यता के लिए काम करने की आजादी कभी नहीं देंगे। ऐसे सत्ता प्रतिष्ठानों की अनिवार्य चिन्ताओं में केवल भूगोल बचाना है, उनके यहां नागरिकरूपी मनुष्यता बचाने की चिन्ता ही नहीं है। मानव सभ्यता के स्तर पर मनुष्यता और नागरिकता का यही द्वन्द है। किसे नहीं पता कि नागरिकता एक खूबसूरत शब्द होते हुए भी किसी संप्रभु देश की संप्रभुता की मानव निर्मित सीमाओं में कैद होती है, जबकि मनुष्यता किसी भी जायज या नाजायज संप्रभुता संपन्न भूगोल में कैद की ही नहीं जा सकती। एक आदमी भूख से भारत में मरे चाहे कहीं भी मरे उसकी मृत्यु पर सारी दुनिया को शर्मशार होना चाहिए। इससे पूरी मानवता कलंकित व अपमानित होती है। पर ऐसी अनुभूति आज के कथित रूप से विश्वग्राम वाली अवधारणा में कहीं नहीं है। यह साफ है कि अगर भारत में भूख से मौतें हो रही है तो उन मौतों से अमेरिका जैसे सत्ता प्रतिष्ठानों से कुछ लेना देना नहीं। आज की दुनिया इतनी बेदर्द और बेरहम हो गई है कि उसने न केवल भूक्षेत्रों को वरन् भूख व जघन्य गरीबी से आहत मनुष्यता को भी भूगोलों में बांट दिया है। ऐसे मनुष्यता विरोधी कृत्यों पर तीसरी दुनिया के चिंतकों, विचारकों को चिन्तन, मनन करना चाहिए। साथ ही साथ न्यायशास्त्र पर भी गंभीर विचारण करते हुए उसे कुदरती न्याय की सार्वभौम मान्यताओं की तरफ ले जाने के लिए सार्थक पहल करना चाहिए। यह प्राकृतिक न्याय की अवधारणा ही है जो पारंपरिक रूप से जन, जन में रची बसी हुई है उसे गढ़ना या रचना नहीं होता। गढ़ना, रचना, सिरजना तो मानवरोधी कानूनों को होता है, जो लगातार जनहित, लोकहित के नाम पर गढे जा रहे हैं। कुदरती न्याय का संदर्भ आते ही कुदरती संसाधनों की उपयोगिता के बारे में भी सवाल खड़े हो जाते हैं।इस तरह हम देख रहे हैं कि आज के कठिन दौर में कथा का वांक्षित समाजशास्त्र बदल चुका है। आज पहले की तरह की कहानियों का कोई मतलब नहीं, आज की कहानियों में मनुष्य को बचाने की चिन्ता होनी चाहिए, मनुष्य बचेगा तभी कहानियां भी बचेंगी। आज भी भारतेन्दु जी के सवाल का उत्तर दिया जाना शेष है.. ‘होय मनुष्यहिं क्यों भये हम गुलाम ये भूप’ कथासाहित्य के लिए अनिवार्य है कि इसका उत्तर दंे और मनुष्य केन्द्रित कथा का समाज शास्त्र सृजित करे। '''राजव्यवस्था व स्वामित्व, कथा के संदर्भ में''' रामनाथ शिवेंद्र कानून, राजनीति और संपत्ति के अर्न्तसंबन्धों को आज तक मानवीय वुद्धि ने विविध तरीकों से समझने का प्रयास किया है, अनेक चर्चित अचर्चित किताबें प्रकाशित की हैं फिर भी इनके अर्न्तसंबधों की कोई सर्वस्वीकार्य धारा नहीं बहायी जा सकी है। सारी सामाजिक व्यवस्था तो तभी से गड़बड़ाने लगी जब संपत्ति के स्वामित्व के अगल बगल धर्म, राजनीति तथा कानूनों को घुमाया जाने लगा और संपत्ति को स्वामित्व की धारा में ला कर, उसे कानूनी बना कर, समाज के अस्तित्व को को डुबो दिया गया। हमें इस गड़बड़ी को कथाओं के सृजन में अनिवार्यरूप से लाने का प्रयास करना चाहिए। मुझे जान पड़ता है कि भूमि, संपत्ति और स्त्री के सवाल जो आज के समय में जितने जरूरी हैं उतने पहले भी थे, पर इस विमर्श से वौद्धिक भागते हुए जान पड़ते हैं। आज का वैश्वीकरण, उदारवाद और बाजारवाद या वैश्विक पूंजीवाद की कूटरचना उन्हें विमर्श करने ही नहीं देगी। मेरा मानना है ऐसा है भी। हम मूलरूप से समस्याओं की जड़ों तक पहुंचने वाले लोग हैं ही नहीं, हमारा समाज फुनगी बाज है, हवा में लहराने वाला, आज्ञाओं और आदेशों को मानने वाला और अपनी पीठ पर कानून की धाराओं को स्वर्णाक्षरों में लिखवाने वाला। हमारे देश का आदिवासी, वनवासी समूह जिन्हें मूलनिवासी कहा जाना चाहिए, उन्हें देख कर, उनके साथ रह कर यह तथ्य भलीभंाति समझा जा सकता है कि कानूनी और राजनीतिक खेलों को कैसे खेला गया। यह जो अधिकार का मामला है, इस बाबत विचारों व चिंतनों में सदैव एकरूपता का अभाव ही रहा है। इसे बिडंबना ही कहा जायेगा कि कानून और राजनीति की एकात्मकता पर पुराने काल से लेकर आज तक के वौद्धिक लगातार टिप्पड़ियां करते रहे हैं, और मानते रहे हैं कि कानून के साथ राजनीति का गठजोड़ हर हाल में समाज की सहिष्णुता तथा समीपता को लीलता रहा है और लीलता रहेगा तथा एक नये किस्म का अधिकारवादी वर्ग समूह पैदा करता रहेगा। कानून और राजनीति के संबन्धों को समझने के लिए आवश्यक है कि कानून तथा राजनीति की अवधरणा को समझ लिया जाये फिर देखा जाये िक ये दोनों कितने करीब हैं और कितने दूर? इन दोनों में कोई संबन्ध है भी या नहीं है और संबन्ध है भी तो क्या ये दोनों विपरीत धाराओं में चलने वाली व मानव समाज को नियंत्रित करने वाली विरोधी प्रणालियां है? या पूरक? या आज के आधुनिक समाज को इन दोनों की उपस्थिति की आवश्यकता ही नहीं, इन दोनों ने अपनी उपयोगिता स्वयं नष्ट कर दिया है? कानून तथा राजनीति के सवाल पर पहले की तरह ही आज भी मतभिन्नतायें हैं। कानून अपने प्रारंभिक स्थापनाकाल से ही अन्तर्द्वन्दों में उलझा रहा है, इसके क्रियान्वयन को लेकर उदारता और कट्टरता के संघर्ष लगातार चलते रहे हैं। उदारधारा हमेशा प्रयास करती रही है कि कानून समाज के उत्थान ही नहीं मानवीय समीपता का बाहक बने और मनुष्य की संप्रभुता की हिफाजत करे। पर राजनीति तो अपनी चाल चलती है और सर्वग्राह्य कानूनों में भी बदलाव करती रहती है। कानून की व्यावहारिक व्यापकता जो पीर पराई की अनुभूति वाली है, वहां तक इसकी पहुंच कल्पना की बात है, परिणामतः कानून लगातार अपनी उपयोगिता को शिथिल करता रहा है तथा समाज को वैयक्तिकता के उत्सवों में जकड़ता रहा हैं यानि मेरी भूमि, मेरा मकान, मेरी पूंजी आदि आदि। कानून का आदि और अन्तिम पवित्र लक्ष्य होता है मानवीय समीपता की स्थापना तथा वैयक्तिक संप्रभुता की हिफाजत करना जिसका समान्य अर्थ होता है अभिन्न समाज की स्थापना और उसका जागरण यानि कि यह जो आदमी और आदमी के बीच की दूरी व भिन्नता है वह कानून के बुनियादी आधारों के लिए स्वीकार्य नहीं अगर ऐसा है तो कहीं न कहीं कानून अपनी विश्वसनीयता खो रहा है। कानून तो आचरण है, ऐसा नहीं कि जब चाहा बदल लिया। वन अधिनियम 1927 के द्वारा आखिर क्या किया गया? सोनभद्र के लाखों गरीब आदिवासियों को उनके सारे संसाधनों एवं जमीन के कब्जों से बेदखल कर दिया गया। यहां कानून का ऐसा खेल खेला गया जिसने प्राकृतिक न्याय की अवधारणा को भी धत्ता पढ़ा दिया। इस कानून को भारतीय लोकतंत्र ने अंग्रेजों के 1878 वाले कानून से उधार लिया था जिसका खुला अर्थ था सारे वनक्षेत्रों को अंग्रेजी राज्य के स्वामित्व में लाना और उन्हें सफलता भी मिली। 1878 वाला कानून तो अंग्रेजों ने सिर्फ इस लक्ष्य से बनाया था जिससे वे बिना किसी परेशानी के सारे वनक्षेत्रों को राजाओं की अधीनता से बाहर निकाल लें और उस पर अंग्रजी सत्ता स्थापित कर लें। अंग्रेजों का तर्क देखिए कितना प्राकृतिक था, तर्क था कि वन क्षेत्र तो प्रकृति का उत्पाद है, इस पर किसी का अधिकार कैसे हो सकता है? इस पर तो राज्य का ही अधिकार न्याय सम्मत है। राजाओं के पास अंग्रेजों के इस तर्क का कोई जबाब नहीं था वैसे भी वे विवश थे, वे अंग्रेजों के सामने नतमस्तक होने के अलावा कुछ कर नहीं सकते थे। कानून की सहज अभिव्यक्ति तथा आशय है पीर पराई जानने वाली, पराई पीर को अपनी पीर समझने वाली। मेरा मानना है कि आज के जटिल समय में कानून की परिभाषा पर बात करने की आवश्यकता नहीं है, आवश्यकता है उसे समाजोपयोगी बनाने की, सभी इसके बारे में जानते हैं कि इसकी उपस्थिति सदैव रही है, भले ही छीजती रही है। तो क्या आज हम जिसे राजनीति कहते और जानते हैं, यह भी आदिकाल से ही है? यानि कि मानवीय सभ्यता के प्रारंभ से ही? कबीलाई समाज वाले युग से। यह बहुत ही पेचीदा सवाल है, शायद ही इसे प्रमाणित किया जा सके कि हमारे समाज में कौन पहले स्थापित हुआ कानून या राजनीति या दोनों साथ साथ आये। राजनीति को तो राज से जोड़ कर ही देखना चाहिए, राज और राजनीति दोनों वैसे भी एक दूसरे से इतने घुले मिले हुए हैं कि इन्हें अलग अलग देखना मूर्खता ही होगी। मेरा मानना है कि राज को समझ लेना राजनीति को समझ लेना होगा, अगर यह सवाल हल हो सके कि भारत ही नहीं सारी दुनिया में राज्यों की स्थापनायें कब और कैसे हुईं? उनके कारक क्या थे तो राजनीति को समझा जा सकता है। जहां तक भारत का सवाल है वैदिक काल में हमें राज्यों के अस्तित्व नहीं दिखते। वैदिक काल के बाद से ही हमारे यहां राज्य के अस्तित्व देखने में आते हैं। राज्यों की स्थापनाओं के बाद राज्यों की सुरक्षा एवं उसकी संप्रभुता का दूसरा चरण प्रारंभ होता है जो आज तक किसी न किसी रूप में चला आ रहा है। राज्यों की सुरक्षा और संप्रभुता तथा राज्यों पर सत्ता धिकार आदि कुछ ऐसे तत्व हैं जो वैचारिक रूप से राजनीति को जन्माते हैं, कहा जाना चाहिए कि राज है तो उसकी राजनीति भी है। यहां हम इसी राजनीति की चर्चा कर रहे हैं जिसका अस्तित्व राज की स्थापना पर टिका होता है, राज के अलावा इसका कोई अस्तित्व ही नहीं और राज बिना कानूनों के चल नहीं सकता। अच्छा राज उसे ही कहा जा सकता है जिसे संचालित करने के लिए कानूनी उदारतायें व्यापक हों, पर ऐसा सोनभद्र में नहीं हुआ। अगर ऐसा हुआ होता तो सोनभद्र जो आदिवासी बहुल परिक्षेत्र है यहां पर संविधान की अनुसूची पांच के नियम चल रहे होते। सोनभद्र में तो राजनीतिक षडयंत्र के तहत आदिवासियों की सही गणना भी नहीं की गई। अधिकांश आदिवासी जन जातियों को अनुसूचित जाति में बदल दिया गया और इस परिक्षेत्र को संविधान की अनुसूची पांच का लाभ लेने से वंचित कर दिया गया। सोनभद्र की इस घटना को हम राजनीति और कानून के उलट पुलट का उदाहरण मान सकते हैं। आज के जटिल समय में कानून तथा राजनीति के बुनियादी फर्क को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा और कोशिश की जा रही कि जो थोड़े बहुत फर्क बचे भी हैं उन्हें समाप्त कर दिये जायें यानि कि राजनीति और कानून को रासायनिक विलयन बना दिया जाये, राजनीति तथा कानून दोनों को एक माना जाये, दोनों को अलग अलग ढंग से न देखा जाये। इस तरह के विलयनों को हम बौद्धकाल की राजव्यवस्थाओं में देख सकते हैं। बाद के कालों में भी ऐसे विलयनों के अनेक उदाहरण हमारे अतीत में रहे हैं पर उन विलयनों तथा रसायनों ने मानवीय समीपता के परम लक्ष्यों को हासिल कर लिया ऐसा नहीं कहा जा सकता। उससे सामाजिक समरसता खंडित हुई है तथा समाज कई कई खानों में बंटा है। आज यह प्रमाणित किया जाना शेष नहीं है कि जब समाज का अंकुश राज पर नहीं रहेगा तब न तो राज रहेगा न ही समाज दोनों को क्षतिग्रस्त होने से कोई ताकत बचा नहीं सकती। आज वही हर ओर देखा जा रहा है कि राज पर समाज का अंकुश नहीं रह गया है, इसके ठीक उलट राज का ही एकतरफा अंकुश समाज पर हो गया है और समाज है कि राज द्वारा बनाये गये कानूनों के मकड़जाल में मछली की तरह फड़फड़ा रहा है। कहने को तो कहा जा रहा है कि लोकतंत्र है, जनता का राज है पर आज की राजव्यवस्था में सिर्फ राज है और जन का कहीं अता पता नहीं। होना तो यह चाहिए था कि जन, मन हर हाल में राज के तंत्र पर प्रभावकारी ढंग से शासन करता दिखे तथा जन भी महसूस करे कि वही राज को चला रहा। पर ऐसी स्थिति को किसी कवि की कल्पना साबित कर खारिज भी किया जा सकता है भला ऐसा कहां संभव है? हमारे समाज में ऐसी अवधारणाओं की कमी भी नही,ं लोग साफ बोलते और कहते हैं कि सभी राजा तो हो नहीं सकते, राजा तो कोई एक ही होगा जिसके भाग्य में होगा। यानि कि राज और राजा दोनों मानवीय कुशलताओं के परिणाम नहीं, वरन् दैवीय परिणाम हैं। हमें ध्यान रखना होगा कि राज की स्थापनायें वौद्धिक कुशलताओं के परिणाम हैं वरना हम आज भी राज पूर्व वाली व्यवस्थाओं के जीव होते। कबीलाई समाज तक आते आते हम समूह से स्व मोह तक उतरते गये यानि कि हमारा समूह, हमारा कबीला, तब कबीला ही हमारा देश था। कबीलाई समाज तक भी कहीं न कहीं सहभागी प्रबंधन के रूप, सामूहिक रहवास, सामूहिक भोजन, सामूहिक श्रम तथा उत्पादन के मौलिक गुण दिखते हैं पर कबीलाई समाज के राज में रूपांतरण के बाद तो सामूहिकता तथा सहभागिता पूरी तरह से छिन्न भिन्न हो गयी। इस स्तर तक आते आते हम समाज से बहुत दूर छिटक कर स्व में केन्द्रित होते चले गये। इस तरह व्यक्ति और समाज पर अंकुश रखने के लिए एक नया घटक राज भी धर्म की तरह हमारी सभ्यता का अनिवार्य हिस्सा बन गया और पूरी सभ्यता धर्म के आचरण तथा राज के कानूनों के झगड़ों में उलझ कर छटपटाने लगी। किसे नहीं मालूम कि आचरण आत्मानुभूति का अंग है जबकि कानून आत्मानुभूति से बाहर सत्ता के दंड विधानों की उपज। आचरण व कानून में दूर दूर तक समानता के तत्व नहीं। जब हमारा समाज लिखित कानूनों की दुनिया से बाहर था तब धार्मिक व सांस्कृतिक विधि व विधान ही हमें नियंत्रित किया करते थे। तब हमारा आचरण हमें नियंत्रित किया करता था। आज तो स्थिति यह है कि हम कल्पना तक नहीं कर सकते कि कोई सभ्यता राजविहीन यानि कानून विहीन भी हो सकती है। व्यक्ति तथा समाज ही आचरण के आत्मानुभूति के सहारे एक दूसरे को अनुशासित करने के लिए पर्याप्त हैं, मानव सभ्यता के लिए राज जैसे दण्ड उत्पादित करने वाले घटक की आवश्यकता ही नहीं। पहले तो व्यक्ति तथा समाज के बीच परंपरा, संस्कृति, रीति रिवाज आदि के अनुशासन प्रभावी थे, संपत्ता तथा स स्वामित्व के मामले सहभागिता पर केन्द्रित थे। किसी व्यक्ति के अधिकार में कुछ नहीं होता था, सारे निर्णय सामूहिक हुआ करते थे। जबकि आज राज के अनुशासनों ने पहले के सारे अनुशासनों को रौंद दिया है। राजव्यवस्था हमेशा इस बात का दंभ भी भरती रही है कि उसी का ही अनुशासन प्रभावी है, पर ऐसा है नहीं, अगर ऐसा होता तब तो झगड़ा ही नहीं था। संपत्ति पर स्वामित्व के मिथक ने ही सोनभद्र के आदिवासियों को उनके पुश्तैनी जमीनों से बेदखल कर दिया है। निश्छल आदिवासियों के पास कब्जे वाली जमीन के कागज कहां थे, उन्हें तो पता ही नहीं था कि कब्जों के कागज भी होते हैं। ऐसे आदिवासी समूहों से जमीन के स्वामित्व के कागज मांगे गये पर वे बेचारे जमीन के स्वामित्व का कागज कहां से देते। स्वामित्व का मामला तो उनकी संस्कृति में था ही नहीं। अंग्रेजों ने लिखित कानूनों के द्वारा स्वामित्व के मुद्दे को महिमामंडित किया फिर उसी राह पर हमारी देशी हुकूमत भी चलने लगी। हमारे सोनभद्र में वन अधिनियम की धारा 4 और 20 का जैसा उपयोग हमारी तत्कालीन सरकार ने किया वैसा उपयोग शायद देश में कहीं नहीं हुआ होगा। लाखों आदिवासियों तथा वनवासियों को उनकी पुश्तैनी जमीनों से विस्थापित कर दिया गया और बताया गया कि उनके वन की जमीनों पर कब्जे अवैध थे। कभी राजनीति, धार्मिकीकरण के जाल में थी पर आज देखा जा रहा है कि राजनीति, धार्मिकीकरण के साथ साथ जातीयकरण की जाल में है। लोकतंत्र के उदारवादी विधानों के तहत जातियां, जातिगत राजनीति के ध्रुवीकरण की तरफ बढ़ रही हैं। जातीयकरण के बूते सरकारें भी बनने लगी हैं जहां तक राजनीति के धार्मिकीकरण की बात है, वह प्रयोग भी फेल कर चुका है। फेल इसलिए हुआ क्योंकि उसका हिन्दूकरण या इस्लामीकरण किए जाने का अपवित्र लक्ष्य रखा गया। अगर केवल धार्मिकीकीरण का ही लक्ष्य रखा गया होता तो शायद ठीक होता, अगर वैसा हुआ होता तब सत्य, अहिंसा, अचौर्य, अपरिग्रह, दया, सहिष्णुता, सहकार, प्रेम व वंधुत्व आदि समाज के साथ साथ व्यक्ति के गुण बन जाते पर ऐसा हुआ ही कहां? और नही दूर भविष्य में ऐसा होने वाला है। डा. लोहिया ने धर्म तथा राजनीति को परिभाषित करते हुए कहा है कि ‘धर्म दूरगामी राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म।’ गांधी और लोहिया दोनों राजनीति को अल्पकालीन धर्म की तरह मानते थे तथा उसे तात्कालिकता का कर्म समझते थे। राजनीति में अवकाश है ही नहीं, सदैव कर्म करते रहना है, वह भी निष्काम कर्म, फलहीन। आज की सत्ताकांक्षी राजनीति की तरह नहीं। समाजिक विषमताओं के सवालों पर, उसे मिटाने के लिए जनतांत्रिक हस्तक्षेपों के माध्यम से आत्मवलिदान का संकल्प लेना यह अल्पकालीन धर्म है। धर्म पूजा, पाठ, आराधना में लीन रहना तथा समाज लुटता रहे, उसकी लूट के प्रति निर्पेक्ष रहना तथा केवल अपने हित अहित के लिए चिन्तित रहना यह क्रियाशील समाज के लक्षण नहीं है, न ही संस्कृति है, संस्कृति तो विषमताओं से टकराने का एक सगुण माध्यम है। यही जीवन का सच है। हमारे संत और ऋषियों ने भी तो यही किया। उन्होंने सहभागिता पूर्ण सामाजिक वातावरण पर जोर दिया तो व्यक्ति की सत्ता व महत्ता पर भी। सहभागितापूर्ण वातावरण पर जोर देते हुए ऋषियों ने जनसंगठन के अभूतपूर्व सिद्धांतों की भी खोजें कीं और बताया कि राजव्यवस्था पर हर हाल में समाज का अंकुश रहना ही चाहिए, उन्होंने समाज का सत्ता पर नियंत्रण रखने के लिए हर संभव प्रयास किये। समाज का एक अर्थ जनसंगठन भी होता है। कोई भी निरंकुश राजव्यवस्था जनहितकारी नहीं हो सकती। संत तथा ऋषि दोनों सत्ता और समाज के बीच हमेशा संतुलन स्थापित करने के प्रयास करते रहे तभी संत कहलाये, जनता आक्रामक हुई तो उसे रोका, सत्ता जन विरोधी हुई तो उस पर अंकुश लगाया। आज ऐसा कहां है? वैसा समाज तो तब होता जब राज व्यवस्था निश्चित रूप से सभी को बिना भेदभाव के रोजी, रोटी, रोजगार तथा शिक्षा देती और अपने नागरिकों के साथ पुत्रवत व्यवहार करती। राजव्यवस्था की स्थापना के तथा उसका बचाव के प्रयास दो ऐसे कारक हैं जो समाज में कई तरह की विषमताओं को उत्पादित करते हैं। यह माना हुआ सच है कि संपूर्ण सृष्टि प्राकृतिक उपहार है, मनुष्य से लेकर जीव जन्तु, वनस्पतियां, नदी नाले, पर्वत पहाड़ यानि की जो कुछ भी धरती पर दृश्य या अदृश्य है सारा कुछ। हमें समझना चाहिए कि प्रकृति के ऐसे उपहारों पर यह जो स्वामित्व वाला मामला है वह कैसे स्थापित हो गया? कहां से आगया स्वमित्व? राजव्यवस्था ने अपनी स्थापना के लिए अपने हितैषियों एवं शुभचिंतकांे को प्राकृतिक संसाधनों पर स्वमित्व देकर पूरी सभ्यता को कई कई खानों में विभक्त कर दिया। एक खाना संसाधनों के मालिकों वाला तो दूसरा खाना संसाधनों के मालिकाने से वंचितों का। जाहिर है राजव्यवस्था अपनी स्थापना ही नहीं अपना बचाव भी बहुत बारीकी से करती है, हम इसे अपने देश में देख सकते है कि संसद में क्या हो रहा? हमारे यहां सरकार बचाने या चलती सरकार गिराने के लिए कैसे कैसे प्रयास किये जा रहे हैं, संसद में पहुंचने के लिए नये नये तरीकों की खोजें की जा रही हैं, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए लोकपाल विधेयक की मांग की जा रही है (अब नहीं) सूचना पाने वाले अधिकार या अनिवार्य शिक्षा वाले कानूनों के परिणामों को देख कर आखिर क्या आशा रखनी चाहिए? लोकपाल विधेयक के बारे में अन्ना हजारे साहब क्या गलत बोल रहे थे, सरकार से वे ऐसा क्या मांग रहे थे? वे तो यही मांग रहे थे कि सिविल सोसाइटी के लोगों की भागीदारी विधेयक बनाने के संदर्भ में दो। यह कोई असंगत मांग है क्या? जिसे सरकार को मान लेने में पसीना छूटने लगा था। दरअसल लोकराज का भयानक रोग है आदिम शासकों का रूप धर लेना, वे भूल जाते हैं कि वे भी अन्ना जी की तरह ही एक आम जन हैं। लोकसेवक का लोकशासक में रूपांतरण बहुत ही घातक होता लोकशासक को समझना चाहिए कि वे शासक नहीं, शासक तो अतीत में दफनाये जा चुके हैं। पर ऐसा नहीं है, शासकों के नये अवतार लोकतंत्रात्मक शासन सत्ता व्यवस्था में हर ओर होने लगे हैं और जनता ऐसे शासकों के दमन से पीड़ित है। वुद्धिजीवी मानते हैं कि भारत में नये कानूनों को बनाने की उतनी आवश्यकता नहीं है जितनी उनके अनुपालन और क्रियान्वयन की है, लेकिन वुद्धिजीवियों की सुनता कौन है? कहा जा रहा है कि कानून और राजनीति का हमारे देश में गठजोड़ हो चुका है, और समाज के बहुजनों को हाशिए पर धकेल दिया गया है। राजनीति को जातिगत बनाया जा रहा है? राजनीति तो राजनीति होती है, एक ऐसा आचरण जो जड़ तथा चेतन सभी के प्रति जबाबदेह होती है फिर क्या जाति, उपजाति, क्या वर्ण क्या अवर्ण, इस तरह के घृणित बटवारे के क्या मायने? समझना मुश्किल। पहले आदमी के अस्तित्व को पिछड़ा, आदिवासी, दलित, सभ्य, असभ्य, राजपोषित, कुपोषित, अधिकारी, विशेषाधिकारी के खानों में बांटा गया और अब राजनीति को भी बांटा जा रहा है। अल्पमत तथा बहुमत का डंका बजा कर जिस लोकराज की स्थापना की गयी है क्या इस लोकराज में 60 फीसदी से अधिक बहुमत वाले गरीबों की भी चल रही? दो फीसदी से भी कम अंग्रेजी बोलने वालों तथा देश के 80 फीसदी संसाधनों पर अप्राकृतिक ढंग से कब्जेदारों की ही क्यों चल रही? बहुमत तो 60 फीसदी से अधिक गरीबों का है, क्या उन्हें मतदान के अधिकार और आरक्षण के लाली पाप से अलग हट कर संसाधनों के स्वामित्व में भी हिस्सेदारी देने की कूबत लोकतांत्रिक सरकार में है? उनका हिस्सा क्या यहां के संसाधनों में नहीं है? जाहिर है ऐसी कूबत लोकतंत्र की खाल ओढ़े भेड़ियों की सरकार में नहीं हो सकती। हमें नहीं भूलना चाहिए कि पूरा देश एक बार लोकतंत्र की तानाशाही क्रूरता का दमन आपात काल के दोरान भुगत चुका है। राजनीति तो कहती है, सभै भूमि गोपाल की जिसका समर्थन हमारी संस्कृति भी करती है, फिर संसाधनों पर मालिकाना कैसे स्थापित कर दिया गया? बात साफ है राजव्यवस्था को वैयक्तिक सत्ता में रूपातंरित करना अलग बात है पर राजनीति को संस्कृति के आधारभूत तत्वों से समायोजित करके राजनीति को शुचितापूर्ण बनाना अलग बात। बांटो तथा राज करो कि व्यवस्था पर टिकी राज सत्ता से हमें ऐसी आशा करनी भी नहीं चाहिए कि वह स्वामित्व के वैयक्तिक अधिकारों को स्थापित करने के बजाय सामाजिक सत्ता को स्थापित करने का काम करेगी। अगर ऐसा हुआ होता तो आज हमारे देश का आदिवासी, वनवासी चीख नहीं रहा होता। बतौर कथाशिल्पी हमें इन सवालों से सकारात्मक ढंग से टकराने की आवष्यकता है। '''कुदरती कथाभूमि की उर्वरता का सवाल''' रामनाथ शिवेंद्र मौजूदा समय में कथासाहित्य अपनी जीवंतता तथा प्रभावोत्पादकता के कारण साहित्य की सभी जनप्रिय विधाओं में विशेष दर्जे का अधिकारी बन चुका है। इस लिए अनिवार्य हो जाता है कि देशज कथाभूमि को आयातीत चिंतनों व विचारणों से बंजर बनाने की कुटिल चालों की रोकथाम किया जाये तथा कथा के सभी आयामों को देशी भूमि पर समत्वम् वाले बीज से हरा भरा किया जाये। वैसे तो समकालीन कथा के पाठक भी अन्य साहित्यिक विधाओं के पाठकों की तुलना में अपने सयानेपन पर ज्यादा मुग्ध दीख रहे हैं। यही हालत कथासाहित्य के कृतिकारों का भी है। समता, सहकार, सहयोग, भाईचारा और सामजिक हितों को बचाने के लिए अहिंसक प्रतिरोध बुनियादी रूप से कथासाहित्य के लिए प्रस्तावित थे, मानवीय समीपताओं को स्थापित करना कराना भी प्रस्तावित था, पर समकालीन कथासाहित्य का जो विकास क्रम है क्या वह अपने विषय, भाषा व प्रस्तुतीकरण के द्वारा मानवीय समीपताओं तक पहुंच सका है या सामाजिक बदलावों के लिए जो अहिंसक जनप्रतिरोध अभिष्ट थे उसे हासिल कर पाने में इसकी कोशिशें उल्लेखनीय हैं। मुझे लगता है कि आज के बाजारवादी तथा उपयोगितावादी समय ने हमारी समझ और चेतना दोनों को इतना कुन्द कर दिया है कि हम उन रास्तों पर नहीं चल पा रहे हैं जो सामाजिक तथा राजनीतिक बदलावों के लिए प्रस्तावित थे। साहित्य समाज का दर्पण है, हम जानते व मानते हैं इसी दर्पण को तोड़ने में क्या हम सभी की अचेतन भागीदारी नहीं है? सोचना यही है। आइए समकालीन कथासाहित्य के रूप और प्रवृत्तियों को जनमूलक और कुदरती जमीन से उपजने वाली आदिम कथाओं से तुलना करने का प्रयास करें और यह भी पता लगाने का प्रयास करें कि समकालीन कथायें मानवीय समीपताओं के व्यवस्थापन के लिए कल्पित श्रमसंबधों में समत्वम् स्थापित कराने के लिए किस तरह से प्रयासरत हैं। जाहिर है सारी दुनिया श्रमसंबधों के कुदरती व्यवहारों से ही चालित होती रही है। मानवीय सभ्यताओं ने श्रम संबधों के द्वारा उपजने वाले परस्पर संवाद के लिए ही भाषाओं के विविध रूपों को सृजित किया है, हमें जानना चाहिए कि कथायें भी मानव समाज में श्रम संबधों की अभिव्यक्ति होती हैं और मन के बहुत गहरे में जा कर संवाद स्थापित करते हुए अपने लिए कथाभाषा सिरजती हैं। यहीं कथाभाषा कथा विषय का चयन करते हुए कुदरतीभाषा से तालमेल बिठाते हुए अपने विषय के साथ पाठकों से अंतःक्रियायें करती हुई आगे का रास्ता तय करती हैं। यह अलग बात है कि पाठक उस कथावस्तु को किस तरह से पाठवोध में तब्दील करता है। देखना है कि समकालीन कथाभाषा ने खुद को कितना पेट के करीब रखा हुआ है और कितना कंठ के। जाहिर है पेट की भाषा कुदरती होती है, और कंठ की भाषा बनावटी और सजावटी। पेट की भाषा ‘भूख’ से सनी होती है और कंठ की भाषा सत्ता व्यवस्थापन’ के रंगों में रंगी होती है। आज के बाजारवादी व उपयोगितावादी समय में हमारा यह जो कथासमय है, कथा की भाषा है, कथा की शक्ति है, इसमें छलछलाता हुआ सेक्स है, क्या ये सब कुदरती जमीन पर उगने वाली कथा की पगडंडियों पर चल रहे हैं, इनमें प्रकृति की एकाग्रता व समत्वम् का कुछ है, समकालीन कथाओं के पात्रों के चित्त और चेतना में प्रकृति के साथ एकाकार होने की क्षमता है? इन सवालों पर सोचते हुए विचारण करना होगा कि यह जो मानव सभ्यता का विकास क्रम है क्या उसे मानव और प्रकृति की एकाकारिता कबूल नहीं। आज की सभ्यता में अवकाश ही नहीं कि मानव अपने चित्त और चेतना को व्यक्तिगत से अलग कर समूहगत बना सके। ऐसा सोचना ही किसी कपोल कल्पना में गोते लगाना है और हम गोते लगा रहे हैं। हम पैर से ले कर सिर तक ‘निजता’ के दलदल में डूबे हुए हैं। क्या हमारी मानव सभ्यता उस दौर में भी ऐसी ही थी जब हम श्रमसंबधों की अन्तःक्रियाओं से उपजी संवाद की भाषा रचने का प्रयास कर रहे थे, एक दूसरे को समझने के लिए संवाद करने के प्रयासों में थे, इशारों व संकेतों से अलग। कथाएं, कथावस्तु और रूप के अनुसार जिस पाठवोध का रचाव करती हैं उससे परिवार की संरचना का पता चलता है, रिश्तों की सूचना मिलती है, रिश्तों को बनाये जाने के कथानक का ज्ञान होता है। आधुनिक कथायें तो तरह तरह का पारिवारिक माहौल बनाते हुए दीखती हैं, ये कथायें ही हैं जिसने हमें बताया कि अब कथायें संयुक्त परिवार से होते हुए एकल परिवार की दुर्गम यात्रा पर हैं। कई कई कथाओं ने परिवार के टूटन को आधार बना कर खूब नाम भी कमाया है। कथाओं की दुनिया से परिवार की छोटी से छोटी बात भी नहीं छूट पायी है, चाहे वह संदर्भ पिता का हो, मां का हो, चाचा, चाची, भाई दोस्त किसी का भी हो, सभी रिश्तों पर किसिम किसिम की कथायें हैं, प्रेमसंबधों को ले कर तो कथाओं का एक अलग संसार ही रच बस गया है। प्रेम को प्रेम की तरह, देह से अलग, वाले संबधों की कथायें कथा संसार में कम जगह पा पायी हैं, प्रेम को तन से जोड़ कर मन को कहीं कोने में पटक देने की प्रवृित्तयों समकालीन कथाओं में हर तरफ देखी जा सकती हैं। वे कथायें चर्चित और प्रशसित भी हैं फिर भी लगता है कि कथाओं का काम पूरा नहीं हो पाया है, उन कथाओं से कथाओं का काम पूरा हो भी नहीं सकता। कथाओं का काम है, निजता को समूहगत बनाना, व्यक्त से अव्यक्त तक पहुंचना, चित्त और चेतना को संतुलित करना, पराई पीर को अपनी पीर मानना, पर क्या ऐसा हो पाया? मानवीय संवेदनशीलता को किसी कथा में ढालना बहुत ही अच्छी बात है पर कथा को व्यवहार से अलग केवल किताबों में दर्ज करा देना इसे तो अच्छा नहीं कहा जा सकता। कृति और कृतिकार दोनों में प्रकृति के ‘समत्वम्’ का कुछ तो शामिल होना ही चाहिए। दोनों को एक में गुंथा दिखना भी चाहिए, चाहे कृति पढ़ो चाहे कृतिकार को। हवाई जहाज से धरती की सतह नापना यह कुदरती कथा का काम नहीं। इस संदर्भ में कुछ उन कथाओं पर हमें विचार करना होगा जिन्हें साहित्यिक सरोकारों से विशेष धर्म द्वारा समादृत होने के कारण अलग कर दिया गया है, उन कथाओं को छुआछूत की बिमारी की तरह माना जाता है। पर कथासाहित्य की कुदरती परंपराओं पर वे कथायें जैसा प्रभाव छोड़ती हैं वैसी प्रभावोन्वति समकालीन कथाओं में देखना खुद का माथा फोड़ना होगा। हम जानते हैं कि हमारे समाज में राम और कृष्ण की कथाओं की तुलना में कोई कथा जनप्रिय नहीं है। आइए उन कथाओं को समकालीनता के संदर्भ में देखें.. कृष्ण की बात करें तो.. उन कथाओं में कृष्ण कथापात्र भर हैं, वे रहने वाले द्वारिका के हैं पर जाने जाते हैं मथुरा से, वे रूक्मणी के पति हैं पर रूक्मणी कृष्ण के नाम से उतना नहीं जाने जाते हैं जितना कि राधा कृष्ण के नाम से, वे एक ऐसे कथापात्र हैं जो देवकी नंदन से यषोदा नंदन बन जाते हैं, तो ये जो कृष्ण हैं किसी समय के कथापात्र हैं, जिनके दो दो रूप हैं, दो दो जन्म स्थान हैं, दो दो मॉ हैं इसी तरह एक कथा पात्र और उसके दो दो रूप। दोनों रूपों में कही भेद नहीं, पूरी तरह एक में एकाकार यानि प्रकृति से इतना एकाकार कि वे जहां रहते हैं, जिसके साथ रहते हैं उसी के हो जाते हैं। इतना समत्वम्, तो यह है कथा के जनमूलक या कुदरती होने की स्थिति। कृष्ण का यह जो समत्वम् वाला रूप है उससे समकालीन कथाकार सार्थक निष्कर्ष निकाल सकते हैं पर चाहें तब। कृष्ण का सारथी वाला रूप अगर गंभीरता से देखा जाये तो श्रमसंबधों को सम्मान देने वाला रूप है, ध्यान रहे कृष्ण भी नरेश हैं, अर्जुन और दुर्योधन से कम नहीं, वे सारथी हैं महाभारत के युद्ध में, सारथी यानि केवल रथ खींचने वाला एक श्रमिक, कृष्ण रूपी श्रमिक पूरी व्यवस्था खींचने और चलाने वाला बना हुआ है। पर आज क्या ऐसी कथायें रची जा सकती हैं। क्या हमें सारथी बन कर समाज का रथ खींचने काम किसी समकालीन कथा में किया? कृष्ण के सारथी वाले चरित्र से अलग उनका एक रूप प्रेम वाला भी है, उनका प्यार है रूक्मणी से, वे प्रेम करते हैं राधा से, वे यषोदा के दुलरूआ हैं और देवकी के कलेजे का टुकड़ा हैं, द्रोपदी भी उनके प्रेम की परिणति हैं, उसे वे सुभद्रा से कम नहीं मानते, तो ये हैं कृष्ण, बहुआयामी, सभी के, सभी उन्हें अपना मानते हैं, अपना ही नहीं सभी उनमें अपनापन देखते हैं। कृष्ण का प्यार प्रायोजित नहीं, स्वस्फूर्त है। कृष्ण इतना खुले हुए हैं कि उनको खोलना नहीं पड़ता, वे प्रकृति की तरह प्रकृतिमय हैं, पूरी तरह से खुले हुए, उनके खुलने के लिए खुलने लायक परिस्थितियां निर्मित नहीं करनी पड़तीं। महाभारत का कथानक ऐतिहासिक हो न हो, उसमें रचा गया कृष्ण का चरित्र तो निश्चितरूप से ऐतिहासिक और अभूतपूर्व है। वे महाभारत युद्ध के भागीदार नहीं हैं, तत्कालीन सत्ता संघर्ष का उनके लिए कोई व्यक्तिगत प्रयोजन नहीं, प्रयोजन है, मानव सभ्यता का, पथभ्रष्ट होती सत्ता के बदल का, वे तटस्थता का अपराध नहीं कर सकते थे फिर भी तटस्थ रहते हुए युद्ध का साक्षी बनते हैं। वे अर्जुन से जिन परिस्थितियों में संवाद करते हैं हमें उस तरफ लौटना होगा, परिस्थिति युद्ध की है और अर्जुन किंकर्तव्यविमूढ़ हैं, युद्ध लड़ना चाहिए या नहीं, इसे वे तय नहीं कर पा रहे हैं, कृष्ण जो युद्ध के प्रति तटस्थ हैं वे संवाद में वहां सक्रिय हैं, अर्जुन को रास्ता दिखाते हैं, रास्ता भी ऐसा जो किसी रहस्यलोक की तरफ नहीं ले जाता है, वह रास्ता है वैज्ञानिकता का यानि पूरी सृष्टि नश्वर है फिर किस बात की चिंता? मानवीय समीपताओं की सुरक्षा के लिए युद्ध किया जाना समय की जरूरत है। महाभारत का युद्ध युद्धकालीन परंपरा का प्रतीक है, युद्धों को ही तब सत्ता बदल का उपयोगी तरीका माना जाता था। उस समय युद्ध के अलावा सत्ताबदल का कोई दूसरा विकल्प भी नहीं था। एक तरह से युद्ध का समर्थन कृष्ण के व्यक्तित्व पर सवाल की तरह है पर उस समय कृष्ण कर भी क्या सकते थे, जो कर सकते थे वही किया कृष्ण ने, यानि तात्कालिकता का कर्म, तात्कालिकता का कर्म वर्तमान के द्वारा स्वस्फूर्त ढंग से चालित होता है, योजनावद्धता के लिए वहां अवसर कहां? समकालीन कथाओं की दुनिया भूख और भोजन, तन और मन, चित्त और चेतना, कृति और प्रकृति, व्यक्ति और अभिव्यक्ति, सŸाा और समाज, परंपरा और कानून, व्यवस्था व अव्यवस्था, न्याय और सामाजिक न्याय, अधिकार और मानवाधिकार आदि रंगीन शब्दों के अर्थों को खोलने में आतुरता तो दिखाती है पर क्या उन आतुरताओं के पीछे वर्चस्वी वर्गों की ऐसी दुनिया काम नहीं कर रही होती है जो न केवल शब्दों को विखंडित करती है वरन् उसकी भाषा को भी बाजार के चौराहों पर बिकने के लिए खड़ा कर देती है। जाहिर है भूख और भोजन के बीच ही सभ्यतायें पसरी होती हैं, उसी से सभ्यता के विकास का क्रम आगे बढ़ता है। अगर हम आदिम समाजों की तरफ देखें जिनमें कभी वर्ग भेद नहीं था तो साफ पता चलता है कि उस समय जो भीतरी और बाहरी प्रकृति से तालमेल, संयोजन, व रिश्ता रखने वाले लोग थे, वे ही सभ्यता के विकास क्रम में पिछड़ गये थे, विकास की पगलाई रेस में पिछड़ जाने के कारण वे दमित और शोषित हो जाने के लिए अभिशप्त थे सो उन्हें विकसित लोगों की सेवा करनी पड़ती थी। उन्हें वर्चस्वी वर्ग सेवा के काम में लगा लिया करता था वह भी बमुश्किल तमाम और प्राकृतिक मान्यताओं व नियमों से अलग एक अलग किस्म का वर्ग समाज बन जाता है। और यहीं से विकसित समाज आदिम समाजों की पूरी संस्कृति ही लीलने लग जाता है। उनकी कथाओं, गीतों, संगीतों आदि को असभ्यों की संस्कृति साबित कर खुद से अलग करने लगता है। तथा खुद को सभ्यता का कोतवाल मानने लगता है। विकास के इस क्रम ने श्रमसंबधों को सेवक और स्वामी के दो अलग अलग खानों में बांट दिया। यहीं से प्रारंभ हुआ कुदरती समाज का विघटन, यानि शोषित, दमित, प्रताड़ित और नियोजित समाज और शासक, मालिक, शोषक का अप्राकृतिक स्वरूप। वर्चस्वी वर्ग के लोग ताकत के बल पर सेवा में लगे लोगों को समाज से अलग एक खाने में फेंक देते हैं, वे प्रकृति के करीब जीवन जीने वाले लोगों को उनसे प्रकृति के सारे उपहारों को छीन कर श्रमिक आदि बना देते हैं। यह एक विस्मयकारी कथा है यह सब मानव सभ्यता के विकास क्रम में ही हुआ है, जो कि पूरी तरह से अप्राकृतिक है। तो यह है मानव सभ्यता के विकास क्रम का अतीत। हम चाहे तो अतीत से कुछ अनिवार्य सबक ले सकते हैं और वर्तमान सभ्यता के मूल्यांकन में उस सबक का उपयोग कर सकते हैं। मानव सभ्यता के दौर में यह सब किया गया सामाजिक प्रबंधन और व्यवस्थापन के नाम पर, पर क्या यह जो व्यवस्थापन किया गया मानवीय समीपता के संदर्भ में उसके परिणाम सकारात्मक निकले, हमें पता है कि आदिम समाजों में आज के सभ्य समाज वालों को जो अव्यवस्था दीखती है वह उस समय की व्यवस्था थी, आत्म चेतना वाली समूहगत व्यक्तिगत कत्तई नहीं। व्यवस्था भी अव्यवस्था हो सकती है, जबकि अव्यवस्था हर हाल में अव्यवस्था नहीं होती। प्रकृति से एकाकारिता के कारण आदिम समूहों के लोग प्रकृति से अलग नहीं हो सकते थे जबकि सभ्यता के नाम पर उनकी प्रकृति से खिलवाड़ किया जा रहा था। ऐसे में जीवन जीने के लिए वे प्रकृति में ही जीवन जीने के संवेगों व ऊर्जा की तलाश करते हैं ऐसा करने में वे खुद को जीवित बनाये रखने के लिए कल्पित देवताओं की तलाश, पेड़ों, झाड़ियों, पहाड़ों आदि में करने लगते हैं, जीवन तो जीवन होता है, वे वन में थे और वन ही उनका जीवन था। वन में ही वे अपने देवी देवता भी सिरज लेते हैं, झाड़, फूंक ओझइती आदि करने लगते हैं। तो यह है वन्य समाज का प्रकृतिमूलक उदय और दूसरी तरफ एक ऐसे समाज का गठन जो पूरी तरह बनावटी, सजावटी और कृत्रिम तथा प्रकृति विरोधी होते हुए भी खुद को सभ्य प्रमाणित करवाने वाला और वैज्ञानिकता से ओतप्रोत बताने वाला। क्षमा चाहूंगा कृष्ण की कथा का संदर्भ लेने के लिए खासतौर से उन लोगों से जो कृष्ण को धर्म से जोड़ते हैं, पर कृष्ण धार्मिक यानि पारलौकिक कम लौकिक अधिक हैं। और कुदरती कथापरंपरा के नायक हैं। कृष्ण की कथा से अलग एक जनकथा के माध्यम से मैं अपनी बात रखने का प्रयास कर रहा हूं। बात बहुत सरल है पर वह कुदरती जमीन पर किस तरह से उपजती हैं सोचना यही है, मुझे नहीं पता कि इस जनकथा को किसने कहा, कब कहा पर मैं इस कथा को कुदरती जमीन से उपजी हुई कथा मानता हूं। कथा बहुत ही सामान्य है.. इसे कथा होने पर भी सवाल दागा जा सकता है। फिर भी आइए कथा के साथ दो कदम चलें.. ‘किसी जंगल में एक सियार रहता था। वह कुआंरा था, उसकी उम्र के दूसरे नर सियारों की शादियां हो चुकी थी, उसकी शादी के लिए प्रस्ताव नहीं आते थे। उसके मॉ बाप परेशान थे। वह भी परेशान था। एक दिन वह जंगल में घूम रहा था कि उसे रास्ते में पड़ा हुआ अखबार दिखाई दिया। उसमें एक फोटो छपी थी जो उसकी तरह दीख रही थी फिर क्या था, खुशी के मारे वह उछल पड़ा। अखबार में छपी अपनी जैसी फोटो देख कर उसे लगा कि अब उसका काम हो जाएगा। उसी वक्त एक दूसरे रास्ते से एक सियारिन भी आ गयी। सियार ने उसे रोका.. ‘कहां जा रही हो, थोड़ा रुको, देखो अखबार में मेरी फोटो छपी है।’ सियारिन ने अखबार देखा.. उसने अखबार कभी देखा नहीं था, सो उसने पूछा.. ‘यह किस पेड़ का पत्ता है?’ उसे क्या पता कि अखबार क्या होता है? ‘पागल कहीं की, यह पत्ता नहीं है, अखबार है। पर तूं का जाने अखबार के बारे में मूरख कहीं की। उसने उसे अखबार के बारे में बताया कि इसमें खबरे छपती हैं और वे सच होती हैं। जंगल के उस पार जो आदमियों की शक्ल में जानवर रहते हैं उनके लिए अखबार छपता है, इसमें देश दुनिया की खबरें छपती हैं, सरकार के बारे में छपता है, राजा के बारे में छपता है’ ‘तो का हुआ, अखबार है तो है, छपा करे उसमें राजा रानी के बारे में, हमैं ओसे का लेना देना, हमें अखबार काहे दिखा रहे हो?’ ‘मतलब है, सो दिखा रहा हूं, मुझे जंगल ही नहीं जंगल के बाहर रहने बसने वाले आदमियों का इस गजट के द्वारा राजा बना दिया गया है, अब मेरा हुकुम जंगल और गांवों दोनों जगहों पर चलेगा।’ सियारिन अखबार देखने लगी, उसे भी जान पड़ा कि सियार सच बोल रहा है, फोटो तो इसी की लगती है। सियारिन ने सियार को गंभीरता से देखा। उसके मन में सियार के प्रति आकर्षण हुआ जो प्रेम का एक रूप था। सियार ने सियारिन को बाहों में भर लिया। बात आगे बढ़ी, सियार ने सियारिन के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा, उसे सियारिन ने सहर्ष स्वीकार लिया फिर दोनों की शादी हो गयी। समय बीतने लगा। एक दिन दोनों का मन हुआ जंगल से बाहर निकल कर घूमने का। दोनों जंगल से बाहर निकल गये। जब दोनों गांवों की तरफ गये तब देखा कि एक खेत में ईख लहलहा रही है। सियार का मन ईख देख कर ललच गया। दोनों खेत में घुस कर ईख तोड़ कर चूसने लगे। तभी खेत के मालिक ने उन्हें देख लिया फिर क्या था मालिक ने उन्हें हंका लिया। दोनों बिना देर किए जंगल की तरफ भागे, खेत का मालिक उन्हें हंकाता हुआ उनके पीछे पीछे दोड़ रहा था। कुछ दूर भागने के बाद सियार ने पीछे देखा, मालिक लौट चुका था। उसने सियारिन से कहा.. ‘अब सुस्ता लेते हैं, लगता है गांव वाले वापस हो चुके हैं’, दोनों थक भी गये थे..सियारिन चालाक थी.. ‘तुम भागे क्यों, तुम तो जंगल और गांवों के राजा हो, भला राजा अपनी परजा से डर कर भागता है?’ ‘चुप रहो! तूं का जानो राज काज’‘काहे हम नाहीं जानते हैं का राज काज। तूं तो चोर की तरह भाग रहे थे। जब तूं राजा हो, भागे काहे? कहा जाता है कि राजा तो परजा का प्यारा होता है, फिर परजा से काहे का डर’‘अरे तूं का जानेगी औरत जात, चूल्हा चौका करने वाली, तूं का जानेगी गांव वालों के बारे में, वह मेरी मूरख परजा है, उजड्ड, अशिक्षित और असभ्य और जंगल की परजा तो बुद्धिमान और आज्ञाकारी है। राजा तो हम हैं ही, तूं नहीं जानती कुछ भी, राजनीति कहती है कि समझदार राजा को मूरख परजा से बच कर रहना चाहिए, मूरख परजा गुस्से में किसी को नहीं पहचानती, चाहे वह राजा ही क्यों न हो। मारने पीटने पर उतर जाती है इसी लिए तो हमने गांव की मूरख परजा को अपने जंगल में आने से रोक दिया है। हमें पता है कि गांव वाले जंगल में आ कर हमारी सभ्यता खतम कर देंगे और जंगल में अराजकता फैला देंगे। यहां की एक एक ईच जमीन पर अपना मालिकाना बना लेंगे, तुझे तो पता है कि जंगल हम सभी का है, यहां रहने बसने वालों के जंगल पर बराबर बराबर अधिकार हैं। जंगल की हमारी लोकतांत्रिक सभ्यता के बारे में कम पढ़े लिखे, असभ्य, गंवार गांव वाले का जानें।’सियारिन मुस्कराने लगी, उसे अपने पति पर प्यार आ गया फिर तो वह उससे लिपट गयी। उसे लगा कि उसका पति झूठ नहीं बोल रहा।’ तो यह है एक सामान्य सी पर उल्लेखनीय कुदरती कथा। ध्यान देने की बात है, अखबार, राजा, मूरख परजा, व्यवस्था, राज काज ये शब्द इस कथा में आते हैं हमें विचार करना है कि क्या इन शब्दों के अर्थोंं को खोलने में यह जो कुदरती कथा है, बिना बनावट वाली, समर्थ नहीं है। इसे समझने के लिए हमें आयातीत विचारणों की जरूरत है, क्या इसकी तुलना में हम किसी समकालीन कथा को उद्धृत कर सकते हैं, जो राजा, और परजा के बीच पसरे अर्थों के एक एक रेशे की सहज व्याख्या कर सकती हो। तो यह है कुदरती कथाभाषा का एक रूप जिसे हम संवाद मानते हैं। इस कथा में संवाद साफ साफ है, पर्दे में ढका छुपा नहीं। इस कथा में अखबार ही नहीं मूरख परजा और आज्ञाकारी परजा, सभ्य और असभ्य, राज काज का भी रूप खुलता है, राजा तो खुलता ही है। इस तरह यह जो राजा है या राजा बनाये जाने की प्रवृत्तयां हैं वह भी खुल जाती हैं। क्या आपको नहीं लगता कि ऐसी कथाओं में पाठ वस्तु और पाठ वोध में पूरी तरह समत्वम् का अर्थवोध होता है। हमें गुनना होगा कि कहीं हमारा चिंतन और विवेक सियारिन वाला तो नहीं? और हम सियार जैसे स्वघोषित राजाओं और राजप्रबंधन के मकड़जाल में तो नहीं? साफ है कि हमारे चिंतन और विचारण की जमीन कुदरती रही है, सभै भूमि गोपाल वाली, रुपया हाथ का मैल है, हमारे कुदरती चिंतन में चित्त और चेतना दोनों अलग अलग नहीं ‘समत्वम्’ वाले भाव में हुआ करते हैं। वैसे भी जहां चित्त कुदरती हो चेतना कुदरती हो ही जाती है फिर तो व्यक्ति और समष्टि में, कृति और प्रकृति में, व्यक्ति और अभिव्यक्ति मंर फर्क नहीं रहता। ये सारे बुनियादी तत्व एकमेक होते हैं, एक दूसरे में यौगिक की तरह यह जो मानव और मानव में फर्क आगया है वह तो मौजूदा समय के राजनीतिक और सामाजिक संबधों में श्रमसंबधों की अवमानना के कारण। हमें पता है कि हमारी कथाभूमि कभी बाजारभूमि नहीं रही ह,ै इसी लिए कभी भी हम बाजार का विश्वास जीतने का प्रयास नहीं करते थे और हमें करना भी नहीं चाहिए। जबकि आज के समय में हम बाजार का विश्वास जीतने का ही प्रयास कर रहे हैं। वैसे सच है कि आज हम बाजार में हैं फिर भी हमें प्रयास करना होगा लुकाठी ले कर बाजार में खड़े होने की, पर हाथ में लुकाठी लेना तो हमें प्राच्यवादी बना देगा। और प्राच्यवादी बनना आधुनिक सभ्यता में शर्मनाक बिमारी की तरह है। हम आगे देखें कि पीछे देखें इसमें फसे हुए हैं इस देखने के बारे में लियोनार्दो की प्रसिद्ध पंक्ति है ‘हमें जो दिखायी देता है, उस पर यकीन नहीं करना चाहिए; अपितु जो दिखायी देता है उसे समझना चाहिए’ दिक्कत यही है हमारे दिल, दिमाग में सदैव बाजार के करतब नाचते रहते हैं और हम वफादार उपभोक्ता की तरह बाजार में खड़े होने तथा कोई पैकेट बनने की चाह में उलझे हुए बाजार का विश्वास जीतने की प्रतिस्पर्धा की तैयारियों में लग जाते हैं। तो जैसा कि लियोनार्दो ने कहा है कि हमें जो आज का राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक बाजार दिखायी देता है उस पर यकीन नहीं कर लेना चाहिए उसे समझना चाहिए, तो यह जो समझ का मामला है दरअसल वह है क्या? कथा की जमीनी दुनिया में कथाकारों के लिए आवश्यक हो जाता है कुदरती आवश्यकताओं की झील में उतरना, वहां जो कुदरती रत्न जैसे समता, भाई चारा, सहभागिता जैसे यथार्थ दफन किए जा चुके हैं, उनकी तलाश करना उनके सहारे अपनी कथाभाषा सृजित करना उसी अनुरूप की कथावस्तु के द्वारा दुनिया से संवाद करना ही सार्थक प्रयास होगा। जरूरी कथा सृजन के लिए अतीत को पुनः आविष्कृत करना तथा उसे वर्तमान से संयुक्त कर भविष्योन्मुख बनाना भी तो एक जरूरी कार्यभार है। हमें यह मान कर चलना होगा कि समकालीन सत्ता व्यवस्था और बाजार का प्रबंधतंत्र दोनों एक दूसरे में एकाकार हैं, दोनों में परिचालन संबधी समरूपता होती है, दोनों का अपना तंत्र होता है इसी लिए वे एक दूसरे के सहयोगी भी होते हैं, एक दूसरे के हितों के रखवाले भी होते है। ऐसे जटिल समय में कथा कार के लिए आसान नहीं है कुदरती जमीन पर पांव रखने भर की जमीन भी तलाश लेना सो वह विवश है उसी जमीन पर पांव रखने के लिए जिसे सत्ता या बाजार उसे उपलब्ध कराता है यानि बतौर कथाकार हमारे सामने संकट बहुत हैं फिर भी हमें उन संकटों से तथा उनके प्रायोजित घेरों से बाहर निकलना होगा। हमें कथा की उस भूमि से खुद को हर हाल में अलग करना होगा जिसे बाजार और सत्ता पुरस्कार, सम्मान व पद जैसे पट्टे पर उपलब्ध कराती है। बाजार का हमारे लिए सुभाषित है कि ‘लिखो ऐसा लिखो जिसके खरीददार हों, जो हाथों हाथों बिके।’ हमें अकर्मण्यता और मूढ़ता के आरोपों से निकलना होगा कि हम वही लिख सकते हैं जो हमसे लिखवाया जाता है, हम वही समझ सकते हैं जो हमसे समझवाया जाता है, तो क्या हम बाजारवादी तंत्र में उलझे हुए प्रकाशकों के चौखटों पर माथा नवाने की ही योग्यता वाले लोग हैं और मूढ़ नहीं हैं। यह सवाल हमें खुद से पूछना होगा और उस जाल से बाहर निकलना होगा जिसे सत्ता और बाजार तंत्र ने अपने बफादार आलोचकों, समीक्षकों या चिंतकों के गठजोड़ से बनाया हुआ है। जाहिर है चुनौतियां बहुत हैं फिर भी हताशा या माथा फोड़ लेने से काम नहीं चलने वाला। काम तो तब चलेगा जब हम कुदरती कथा को अपने जीवन की कथा बना लेंगे और उन चीजों से दूर रहने का प्रयास करेंगे जो हमसे हमारा चित्त और चेतना दोनों छीन लेने के लिए किसिम किसिम के तंत्र विकसित कर रहे हैं। निश्चित रूप से हमें कुदरती कथाभूमि को बंजर बनने से रोकने के लिए भारतीय परिवेश के कथाबीजों को कथाखेती के लिए आविष्कृत करना होगा। जाहिर है ऐसा करने के लिए हमें सामाजिक संरचना के ताने, बाने को गंभीरता से जांचना परखना होगा। दर असल आज का समय प्रकृतिमयता से बहुत दूर कृत्रिमता की तरफ भागने वाला है। ऐसे समय में बाजार या सत्ताप्रबंधन से जुड़ी ताकतें समाज की उभरती या उभर सकने वाली प्र्रतिरोधी चेतना से लैश ताकतों का विलीनीकरण सत्ताप्रबंधन में किसी न किसी प्रकार से कर लिया करती हैं फिर जो ग्रामीण चेतना या प्रकृति की चेतना के पोषक होते हैं वे भी सत्ताप्रबंधन के मुलायम कालीनों पर आसन जमाने की लालच में पड़ जाया करते है ऐसी स्थिति में हमें सावधान रहना होगा कि सामाजिक चेतना की समानधर्मा ताकतों का विलीनीकरण सत्ताप्रबंधन की बाजारू संस्कृति में न होने पाये जिनकी पात्रता हमारे कथासाहित्य तथा कथाभाषा दोनों के लिए अनिवार्य है। '''कौन लिखेगा पुरखों पर कहानियां''' रामनाथ शिवेंद्र आज के जटिल समय में पुरखों को कहानियों में जगह नहीं मिल रही, मिलनी चाहिए कि नही विमर्श का विषय है। पुरखे यानि वरिष्ठ नागरिक ये न केवल अपने बनाये घर, मकान से बेदखल किये जा रहे हैं वरन् कहानियों, लेखों, संस्मरणों आदि से भी बेदखल किये जा रहे हैं। पुरखों पर कहानियॉ लिखने का प्रचलन नहीं के बराबर है। जबकि पुरखों के मुद्दे पर चर्चा करना, उन्हें कथाओं में लाना, एक तरह से मानव सभ्यताओं द्वारा अपनाये गये सत्ता कौतुकों के विमर्श का ही मामला है। पुरखे किसी टापू से प्रकट हुए अनजाने व्यक्ति नहीं हैं, किसी दूसरी सभ्यता का यात्री नहीं, बल्कि हमारे अपने पारिवार के मुखिया ही हैं। ये वही व्यक्ति हैं जिनकी गोदी में खेलते कूदते, चूमते, चाटते हम समझदार हुए हैं। ये वही मुखिया हैं जिनका बहुत ही कूट चालाकी से वरिष्ठ नागरिक में रूपांतरण किया जा चुका है या किया जा रहा है। हमें बहुत ही गंभीरता से परिवार के मुखिया यानि हमारे पुरखों का यह जो वरिष्ठ नागरिक के रूप में रूपांतरण है उसे समझना, व बूझना होगा। ऐसा अचानक नहीं हुआ है, इस रूपांतरण का सिलसिला बहुत पहले से ही आदिवासी से वनवासी, दलितों से अनुसूचित जाति आदि से प्रारंभ हो चुका है जिसके अपने विशेष अर्थ हैं। शब्दों के रूपांतरण पर बात करें तो साफ पता चलता है कि मामला हत्या का वध में रूपांतरण जैसा है। हत्या एक अपराध है जो सही तथा मान्य है पर वध को राजनीतिक जरूरत बताया जा रहा है जबकि हत्या और वध दोनों में ताकत से जीवन छीन लेने का ही काम किया जाता है। रावण का वध होता है, हत्या नहीं, कंश का वध होता है हत्या नहीं, यानि कि एक ऐसी हत्या जो समय (राजनीति) की जरूरत है वध है, वह हत्या नहीं है। तो यह जो परिवार के मुखिया का मामला है जिसे वरिष्ठ नागरिक में रूपांतरित किया जा रहा है उसे समझने के लिए हमें मानव सभ्यता के द्वारा स्थापित कराये गये परिवार की अवधारणाओं को समझना होगा। इसे समझने के लिए मुखिया से वरिष्ठ नागरिक के रूपांतरण की यात्रा पर निकल कर हमें देखना होगा कि यह जो वरिष्ठ नागरिक है, सभ्यता के किस पायदान पर है। मुखिया से वरिष्ठ नागरिक के पदस्थापन में उसे क्या, क्या हासिल होने वाला है तथा उससे क्या, क्या छिन जाने वाला है? साथ ही साथ यह भी समझना होगा कि क्या उसे कहानियों में वर्णित क्यों नहीं किया जा रहा? मानव सभ्यता लगातार कुदरतीतौर पर समय के साथ संघर्ष करती व उसे छलांगते हुए नये नये किस्म की अवधारणाओं व विचारों को सृजित करती रही है। अधुनातन बनने के क्रम में उसे अक्सर प्रचलित मान्यताओं, परंपराओं व रीति, रिवाजों से दो चार होने के लिए विवश होना पड़ा है। मानव सभ्यता जड़ परंपराओं के पोषण के बजाय संस्कृति के विभिन्न आयामों को अपनाते व तोड़ते हुए सामाजिक रिश्तों के गठन का कार्यभार संभालती रही है। अगर हम बीते समय के अनुमानों ( जिस पर ऐतिहासिकता का लेप चढ़ाया जा चुका है) को विश्लेषित करना चाहें तो साफ, साफ दिखेगा कि गुफा व जंगलों के बसावों वाला आदमी आज कहीं नहीं दिख रहा है, न उसकी संस्कृति दिख रही है और न ही उसका आचरण दिख रहा है। मानव तो तब भी मानव था, उसकी जरूरतें थीं, उसका अपना समाज था। जरूरतों को पूरित करने के लिए हमारे पुरखों ने तत्कालीन समय से मुठभेड़ करते हुए जिन जिन प्रारंभिक खोजों, आग, जल, कुदाल, गुफा, खाद्यान्न आदि को खोजा था वे आज भी उदाहरण हैं। आज हमारे पास अपने पुरखों के समय के साथ लगातार कठिन मुठभेड़ों तथा टकराहटों की क्षमताओं को देख व जान सकने के लिए न कोई साधन हैं और नही औजार हैं, हां आधे अधूरे अनुमान हैं जिसके आधार पर हम यह जान सकते हैं कि हमारे पुरखों ने कैसे आग, व खाद्यान्न आदि को खोजा होगा। अगर हम उस समय में उतरना चाहें तो कई तरह के सवाल खुद खड़े हो जाते हैं जैसे यही कि क्या आज जो मानव संबधों में रिश्तों की सबल बुुनावट है वह उस समय भी थी या वह दुनिया पशुवत रिश्तों की तरह थी पूरी तरह से उन्मुक्त, वर्जनाओं से परे। हमें पुराने समय में उतरने के पहले यह जान लेना आवश्यक होगा कि हम जो आज मानव संबधों के पतन के बारे में चिन्तित हैं, हमें कहीं न कहीं लगता है कि हम लगातार पतित होते जा रहे हैं। हमारे समाज के पवित्र और शुचितापूर्ण रिश्तों में गिरावट आती जा रही है। हम अब मानव समीपता से कोशों दूर हो चुके हैं। हमारे लिए सहभागिता और सहकार बेमतलब के शब्द हैं। रिश्तों के बनावट की बात करें तो हमारे समाज में उसकी शुरुआत परिवार से शुरू होती है। ज्योंही हम परिवार की अवधारणाओं पर मंथन करते हैं त्योंही हमारा मन रिश्तों की शुचिता से पवित्र हो जाता है। मॉ दिखने लगती है, पिता दिखने लगते हैं, भाई दिखने लगते हैं, बहन राखी बांधने लगती है और सामने पत्नी का किकुड़िया चेहरा प्रकट हो जाता है, बच्चे किलकारियां भरने लगते हैं। उस समय दृश्य की अद्भुत दुनिया में हमें चले जाना होता है और ऐसा अचानक या आकस्मिक नहीं होता है। इसके लिए निश्चितरूप से हमारे पुरखों ने जी जान लगा दिया होगा फिर रिश्तों की पवित्रताओं को कायम करा सके होंगे। कुदरती तौर पर देखा जाये तो पशु और मानव में कई तरह के फर्क होते हुए भी कुछ मामलों में फर्क नहीं दिखता, खासतौर से नर और मादा वाले संबधों में। मानव सभ्यता के विकास क्रम में संभव है मानव, पशुओं की तरह ही रहा हो, उनमें रिश्तों की वर्जनांए न रही हों क्योंकि कुदरत तो केवल नर और मादा को ही सिरजती है, तो बहुत हद तक संभव है कि मानव भी सेक्स संबधों के मामलों में केवल नर और मादा ही रहा हो। नर और मादा वाले अव्यवस्थित कुदरती संबधों को व्यवस्थित करने के क्रम में हमारे पुरखे काफी जद्दो जेहद करते हुए परिवार और कबीले की अवधारणा तक पहुंचे होंगे फिर परिवार अस्तित्व में आये होंगे। फिर नर और मादा के रहने के तौर तरीकों में वर्जनायें आई होंगी, निषेध आये होंगे, यह सोचना कि परिवर तो यूं ही हमारे जीवन में रच, बस गये होंगे गलत है। आज हम जिस खुलेपन की बातें कर रहे है उसमें कहीं न कहीं परिवार के अस्तित्व का इनकार भी है, संबधों में चल रहे वर्जनाओं का इनकार है। आज की सभ्यता अपनी तरह से स्वीकार और अस्वीकार को सिरज रही है, रिश्तों की वर्जनाओं को नकार रही है। हम जानते व मानते हैं कि परिवार की अवधारणा में रिश्तों की वर्जनाओं का पवित्र गुंथन होता है, वर्जनायें टूटी नहीं कि परिवार की पवित्रता खतम। मानव सभ्यता अपने अस्तित्व काल से ही कहीं न कहीं लिंगभेद का शिकार रही है। यह जो लिंगभेद वाला मामला है, बहुत ही गंभीर मामला है जो सीधे , सत्ता व ताकत से जुड़ा होता है जिसके कारण अलग तरह की हमारी सामाजिक तस्वीर बनती है हालांकि कोशिशें लगातार की जा रही हैं कि मानव सभ्यता की तस्वीर कुरूप न होने पाये पर वास्तव में है कुरूप ही। मानव संबधों में रिश्तों का आधार परिवार है, जिसे हम आज टूटता और खंडित होता देख रहे हैं। हमारी सभ्यता ने जिस संयुक्त परिवार को सामाजिक संबधों का आधार बनाया था, वह आज के समय में बुरी तरह टूट रहा है, हम लगातार संयुक्त परिवार से एकल परिवार की संरचना को अपनाने लगे हैं जिसका मतलब होता है पति पत्नी और बेटे वाला परिवार, ऐसे परिवार में चाचा, चाची, भाई भाभी, मॉ, बाप आदि को शामिल नहीं किया जाता, उन्हें परिवार के एक अलग और विभत्स खाने में छोड़ दिया जाता है। यहीं से आरंभ होता है, एक नये किस्म का संकट, इस संकट के सबसे अधिक प्रताड़ित मॉ, बाप आदि होते हैं, जिन्हें परिवार का मुखिया कहा जाता था। ऐसा तब होता है जब वे उमर के आखिरी पड़ाव पर पहुंच चुके होते हैं। निरीह और असहाय हो चुके रहते हैं। संयुक्त परिवार से एकल परिवार तक की यात्रा अचानक नहीं है इसे पूंजीमूल्यवोधों ने रचा है जो निजता को बढ़ावा देती है सामाजिकता को नहीं। हमारी विधिक सभ्यता ने कानूनी रूप से ऐसे जनों के लिए एक शब्द उपहारित किया हुआ है जिसे ‘वरिष्ठ नागरिक’ कहा जाता है। दर असल समझना यह है कि यह जो वरिष्ठ नागरिक है जिसे काननू का भी समर्थन मिला हुआ है, वह आज के समय में क्या चीज है? वरिष्ठ नागरिक की बात करें तो यह जो शब्द ‘वरिष्ठ’ है बहुत ही चित्ताकर्षक है, मन को छूने वाला, सम्मान का प्रतीक पर क्या ऐसा है? कत्तई नहीं। पहले के समय में यही वरिष्ठ परिवार का मुखिया हुआ करता था, मुखिया यानि ‘मुखिया मुख सो चाहिए, खान पान को एक’ वाला, मुखिया माने परिवार का सत्ता प्रमुख। पर समय के साथ मुखिया तथा परिवार दोनों की अवधारणायें विखंडित हुई जिन्हें विखंडित होना ही था। आज का हमारा समय वैसे भी सत्ता तथा सत्ताओं के विखंडन वाला है। समाज हो, देश हो, चाहे किसी भी तरह की सामाजिक संरचना हो हर जगह सत्ता के अलग अलग केन्द्र उत्पादित होते जा रहे हैं, कुल मिला कर सत्ता की केन्द्रीयता आज संकट की स्थिति में है। इस संकट की प्रारंभिक पाठशाला हमारी पारिवारिक संरचना है जाहिर है इसे देश स्तर तक भी जाना है। सत्ता की केन्द्रीयता का विघटन आज के समय के लिए एक तरह से जरूरी होता जा रहा है। केन्द्रीय सत्ता के विघटन को हम अपने देश की राजनीतिक सत्ता प्रबधन में देख सकते हैं। ऐसा होना अनायास नहीं है। यह जो संयुक्त परिवार से एकल परिवार की यात्रा है, इसी में छिपे हुए हैं सत्ता के विघटन के कीटाड़ु जिसे आज के समय का वायरस कहा जाना चाहिए। यहां यह बहस बेमानी है कि क्या सत्ता केन्द्रों के विघटन का मामला जनहित के विपरीत है? समाज के विपरीत है? सवाल जनहित तथा समाजहित का नहीं है, सवाल है महिमामंडित किए जाने वाले वरिष्ठ नागरिक का, इस वरिष्ठ नागरिक का क्या होने वाला है? पारिवारिक स्तर पर, समाज के स्तर पर, देश के स्तर पर। मेरा मानना है कि यह जो आज के समय का वरिष्ठ नागरिक है, उसे एक ऐसा निरीह व्यक्ति बना दिया जा रहा है जिससे कत्तई प्रमाणित नहीं होता कि उसका भी अपना कोई परिवार है या था। नागरिकता वैसे भी पारिवारिकता के विपरीत होती है, उसमें वह सुगंध नहीं जो भाई, गोती में होती है। आज की दुनिया भाई, गोती से बाहर निकल चुकी है, वह पार्टनर व मेम्बर तक जा पहुंची है, थोड़ा आगे बढ़ कर नागरिकता तक। नागरिकता से पारिवारिकता का लगाव या स्नेह का दूर दूर तक कोई नाता नहीं। यह तो महज एक विधिक प्रपंच है। इससे परिवार को वोध नहीं होता, नागरिक तो महज नागरिक होता है, मत देने वाला एक व्यक्ति, कानूनों को अपनी पीठ पर चिपका कर चलने वाला एक निरीह और शारीरिक रूप से कमजोर। परिवार के मुखिया का वरिष्ठ नागरिक में रूपांतरण उसकी पारिवारिकता छीन कर उसकी पूरी मर्यादा को लील लेता है। अब तो राजनीतिक खेलों की माहिर कुछ आत्ममुग्ध सरकारें साफ साफ बोल रही हैं कि जो साठ के पार हैं, वे बेकार हैं। साठ साल के बाद रिटायर होने वाले राज्य कर्मचारियों की तरह। गोया यह जो साठ साल वाला मामला है, व्यक्ति की उपयोगिता के समापन की खुले आम विधिक घोषणा है। एक आदमी की उपयोगिता को साठ साल की उमर के आधार पर तोलने वाला समाज आखिर यह जो वरिष्ठ नागरिक है उसे क्यों और किस लिए सम्मान देगा? उसका सम्मान तो उसके साठ साल समाप्त होने के साथ चला गया। वह तो साठ साल के बाद विलुप्त हुआ एक आदमी भर है, जो जीवित है। उसका जीवित रहना और जीते रहना एक विडंबना है। वरिष्ठता एक प्रकार से सत्ता से वनवास का भी मामला है, वनवास कम से कम हम भारतीयों को तो भली भांति पता है, यह जो वनगमन का संदर्भ है वह हमें अरण्यक सभ्यता तक ले जाता है जो पूरी तरह से नागर सभ्यता से अलग तरह का संदर्भ देता है। आज तो पता ही नहीं चल रहा है यह जो वरिष्ठ नागरिक है वह किस सभ्यता का सदस्य है, अरण्यक या नागर। इन दोनों सभ्यताओं में वरिष्ठ नागरिक सत्ता व आकांक्षा विहीन महज एक व्यक्ति होता है, चाहे तो जिए या मर जाये। वैसे भी वरिष्ठ नागरिक बढ़ती उम्र के अन्तर्विरोधों व विसंगतियों के कारण पारिवारिक सत्ता प्रबंधन को संभाल सकने में उतना समर्थ नहीं हो सकता जितना कि परिवार के दूसरे अल्पायु वाले होते हैं। यहां मामला राम की खड़ाऊ वाला नहीं है। वह त्रेता का काल था राम की खड़ाऊं को सिहासन पर सुशोभित करा दिया गया था मान कर कि राम नहीं हैं तो क्या हुआ उनका खड़ाऊं तो है ही। आज तो सभी को सत्ता चाहिए, प्रदेश देश की नहीं तो कम से कम परिवार व गांव की तो मिले। हमें पता है कि परिवार भी सŸाा का केन्द्र ही होता है, कुछ अपवादों को छोड़ कर इस परिवार सत्ता पर नर ही काबिज हैं। यहां खुले आम लिंगभेद के कारकों को देखा जा सकता है। भारतीय समाज में वरिष्ठ नागरिकों के प्रति छीजते जा रहे शुचिता पूर्ण रिश्तों के लिए सत्ता विघटन एक महत्व पूर्ण कारक है क्योंकि सत्ता अधिग्रहण में रिश्ते नहीं चला करते, सत्ता महज सत्ता होती है, वह मॉ बाप, भाई बहन आदि नहीं देखा करती, सत्ता के लिए तो हर व्यक्ति (नागरिक) महज एक शासित होता है चाहे वह बाप हो मॉ हो या कोई भी। सत्ता पर बैठा आदमी शासक में तब्दील हो कर हुकूमत के दांव पेंचों को खेलने लगता है। वरिष्ठ व्यक्ति अपने घर में ही, जिसने उसे खुद बनाया और गढ़ा होता है अनजाना हो जाता है, वह अपने ही लोगों के बीच जिनसे उसका रक्तसंबध होता है सत्ता का प्रतिपक्ष बन जाता है, उससे आर्थिक ही नहीं सामाजिकप्रबंधन के सारे अधिकार बिना देर किए छीन लिए जाते हैं फिर तो उसका अपना घर भी अपना नहीं रह जाता, उसका अपना बेटा, बेटा नहीं रह जाता, वे सारे के सारे सत्ता के नियामक बन जाते हैं, उनके बनाए कानून घर में लागू किए जाने लगते हैं और वरिष्ठ नागरिक किसी आराध्य की प्रार्थना में खुद को डुबो लेने के लिए विवश हो जाता है। तो यह है वरिष्ठ नागरिक निरीहता की पीठ पर सवार, सत्ता का विकलांग जो अपने द्वारा सृजित परिवार को केवल देख व सुन सकता है, पर कुछ बोल नहीं सकता। इतना ही नहीं वह अपने उत्तराधिकारियों के सत्ता कौतुकों पर न रो सकता है और नही गुनगुना सकता है। जीवन के आखिरी पड़ाव पर जब सारा कुछ उससे छीना जा चुका होता है उसे समझ में आने लगता है कि ‘सब धन धूरि समान’ गलत नहीं कहा गया है जिसे एकत्र करने के लिए उसने क्या क्या नहीं किया। ऐसा उसके साथ क्यों किया जा रहा है, इसका उत्तर वह खुद से भी नहीं पूछ सकता, इसका उत्तर तो उसके उत्तराधिकारियों के पास है, भला उत्तराधिकारी इसका उत्तर क्यों देंगे। ऐसे पुरखों की वेदनाओं, विडंबनाओं को कहानियों में ढालना कथाकारों के लिए किसी चुनौती से कम नहीं। हमें आशा करनी चाहिए कि कथाकार पुरखों के बारे में गुनेंगे। '''वनवासी राम के बहाने समकालीन कथासाहित्य पर कुछ बातें''' रामनाथ शिवेंद्र तमाम बिडंबनाओं के बावजूद हमें ‘राम, कृष्ण और शिव’ की चर्चित कथायें सदैव प्रभावित करती रही हैं। इन कथाओं के अलावा दुनिया के लोग शायद ही किसी दूसरी कथा को जानते होंगे जो इन कथाओं के मर्म को फलांग सकंे। इन कथाओं के अपूर्व होने पर मुझे सन्देह नहीं। ‘राम’ का वनवासी रूप हमें आज के भौतिकवादी समय में जितना प्रभावित करता है उतना किसी और कथापात्र का नहीं। कथा पढ़ते या सुनते ही सांसें फूलने लगती हैं। लगता है कि कोई ऐसा व्यक्ति हो ही नहीं सकता जो मर्यादा के बंधन में खुद को जकड़ ले क्योंकि बंधन कुदरती नहीं होता है। व्यक्ति सदैव स्वतंत्र रहने का आकांक्षी होता है। यह बात अलग है कि उसकी स्वतंत्रतायें बाधित कर दी जांयें या छीन ली जायें, जैसा कि हुकूमतें हर काल में किया करती रही हैं। मानव सभ्यता के विकासक्रम में कोई ऐसा काल नहीं जब मानव सभ्यता की कुदरती आजादी को तमाम पाबन्दियों में न रखा गया हो, भले ही वह काल दीर्घ न रहा हो, अल्प ही रहा हो। सत्ता तो हर काल में व्यवस्था और शान्ति स्थापनाओं के नाम पर तमाम तरह के रंगीन कानूनों के द्वारा अपने नागरिकों को आच्छादित करती रही है। बहरहाल यह प्रसंग सत्ता कौतुकों के विमर्श की तरफ ले जाता है जिसे यहां प्रस्तुत करना प्रासंगिक नहीं होगा। समझना होगा कि यह जो राम का मर्यादा वाला रूप है, खुद को नियंत्रित व प्रतिबंधित करने वाला (राम तो राज कुमार थे, उनकी आजादी को भला कौन बांध सकता था) क्या सरल और तरल है, क्या उसे बचाने में एक मनुष्य के नाते राम की जो स्वतंत्रतायें थीं, वे छिन नहीं गयीं? या उन्हांेने खुद से अपनी स्वतंत्रताओं का परित्याग नहीं किया? क्या यह अचरज नहीं है कि ‘राम’ अपनी वैयक्तिक स्वतंत्रताओं के त्याग के बाद भी पूरी मानवीय गरिमा के साथ सामान्य मनुष्य की तरह कथासमय के साथ भाग रहे हैं, यह जो राम की समान्यता है, राजा से परजा बनने की तरफ की छलांग है, विचारणीय है, जबकि ऐसा होता नहीं। लोग तो खुद को समाज के विशेषाधिकार प्राप्त खानों में स्थापित करने के लिए ही लालायित व उत्सुक रहते हैं। पर ‘राम’ ऐसा नहीं करते, वे तो राजा से परजा की तरफ छलांग लगाते हैं। आखिर खुद को नियंत्रित कर सामान्य बने रहने का चयन ‘राम’ ने क्यों किया? उनका काल था त्रेता वाला, सत्युग के ठीक बाद वाला, कहीं उसका प्रभाव तो ‘राम’ पर नहीं था? माना जाता है कि सत्युग का काल संपूर्ण मानवीय स्वतंत्रता व समत्व वाला काल था। उसके बाद के काल का नायक भी तो सत्गुण वाला ही होगा भला वह तामस प्रवृत्ति का कैसे हो सकता है? ‘राम’ का वनगमन दुनिया के इतिहास में एक असाधारण घटना है। वे वनगमन का चयन करके वनवासी हो जाते हैं पर सत्ता व्यवस्थापन पर सवाल नहीं उठाते, अपने सामान्य से अधिकारों के लिए भी सवाल नहीं उठाते, कम से कम इतना तो सत्ता व्यवस्था से पूछ ही सकते थे कि उन्हें वन में क्यों निर्वासित किया जा रहा है या उनके उŸाराधिकार को क्यों छीना जा रहा है, वह भी बिना कारण बताये। ‘राम’ का वनवास या निर्वासन तत्कालीन सत्ता व्यवस्था पर सवाल की तरह चिपका हुआ है। थोड़ा गंभीरता से सोचने पर स्पष्ट हो जाता है कि हर काल का सत्ता प्रबंधन एक ही तरह से काम करता रहा है, भले ही वह काल राम का ही क्यों न रहा हो। सत्ता प्रबंधन से जुडी कैकेई की इच्छा राज्यादेश में तब्दील हो जाती है। किसी व्यक्ति की इच्छा का राज्यादेश में तब्दील होने का यह एक चिंतित करने वाला उदाहरण है। मजा यह कि राम उस आदेश को सहर्ष स्वीकर लेते हैं और वनगमन कर जाते हैं, वे प्रतिकार नहीं करते उनके सामने मर्यादा का सवाल था, वे किसी भी हाल में मर्यादा नहीं तोड़ सकते थे। मर्यादा और अधिकार पर विमर्श का एक जरूरी आधार राम वनगमन के द्वारा छोड़ जाते हैं। सवाल है मर्यादा और अधिकार के बीच के फर्क का। मर्यादा क्या होती है और कैसे बनती है, यह सारा कुछ वैयक्तिक होता है, व्यक्ति उसका खुद मानक और प्रमाण होता है। मर्यादा निजता के अन्तर्वोध की उपज होती है, जहां चित्त और चेतना एकाकार हो कर समूहगत हो जाती हैं, वहां ‘निज’ जैसा कुछ नहीं होता। जबकि अधिकार तो सत्ता प्रबंधन द्वारा प्रदान किया गया महज एक औजार होता है जो सामन्य से विशेष की तरफ ले जा कर वगीकृत करता है। आज की उपभोक्तावादी समय में मर्यादा और अधिकार में से किसी एक का चयन करना हो तो अधिकार का पक्ष ही चुना जायेगा मर्यादा का नहीं, पर राम के लिए संकट है। वे मर्यादा का चयन करते हैं और वनगमन कर जाते हैं, वे प्रतिवाद नहीं करते। वे अपने अधिकारों को मर्यादा से ऊपर नहीं रखते। तो ये हैं राम, जो स्वेच्छया अपने कुदरती अधिकारों का परित्याग करते हैं और मर्यादा के कठिन और जटिल रास्तों पर निकल पड़ते हैं। वनगमन के अलावा आप देखें पूरी रामकथा में सीता का अपहरण एक ऐसी दूसरी परिघटना है जो राम के संपूर्ण व्यक्तित्व को खोलने का काम करती है और इस घटना के घटने का कारण होता है राज्यादेश के अनुपालन के लिए राम का वनगमन। तो यह जो राम का वनगमन है पूरी दुनिया के लिए एक कथानक के रूप में अपूर्व और अद्भुत है। ऐसे वनगमन का कथानक दुनिया के किसी सभ्यता में नहीं है। राम चाहते तो अयोध्या छोड़ कर किसी दूसरे राज्य में जा कर अपना आश्रय तलाश कर सकते थे, उन्हें उस समय का कोई राज्य राज्याश्रय दे ही देता। पर राम ऐसा नहीं करते। राज्यादेश के अनुपालना में वे सहर्ष वनगमन करते हैं, तो हमें देखना है कि यह जो राम के द्वारा लिया गया वनगमन का निर्णय है, वह क्या रामकथा को आगे छलांग लगाने भर का निर्णय है या इसके अर्थ कुछ दूसरे हैंं। जहां तक मुझे पता है राम के वन गमन वाले निर्णय पर गंभीरता से विचार ही नहीं किया गया है, जबकि पूरी रामकथा में यह जो राम का वनगमन है अपूर्व और अद्भुत कथानक है। ऐसी कथा मानव सभ्यता के इतिहास में कहीं नहीं है। किसी संभावित राजा के वनगमन का निर्णय सरल नहीं है आखिर वन ही क्यों? राम तो नागर समाज के थे पर हमें ध्यान देना है कि राम मर्यादा पुरुष हैं, मर्यादा के बंधन से बंधे हुए हैं, वे जानते हैं कि उनके लिए वन ही वह स्थान है जहां वे अपने चिŸा और चेतना दोनों को नियंत्रित रख सकते हैं। वन एक ऐसा स्थान है जहां सामाजिक व राजनीतिक प्रबंधन में कोई घालमेल नहीं है, रिश्तों में चालाकियां और कलाबाजियां नहीं होती हैं, वन के लिए नागर और अरण्यक का कोई अर्थ नहीं। सो वे वनगमन करते हैं। यह जो राम का वनगमन है, रामकथा के शुभेच्छुओं के लिए चिंतन मनन के कई दरवाजे खोल सकता है, अगर वे चाहें तब। वे मानवीय भिन्नता के भेदों के रहस्यों तक भी इस कथा के माध्यम से पहुंच सकते हैं, समझ सकते है कि आदमी और आदमी में भेद नहीं होता। हर आदमी प्रकृति का बेहतर उत्पाद होता है। राम वनगमन न करते तो सीता का अपहरण नहीं होता, बालि नहीं मारा जाता, उन्हें हनुमान जैसा भक्त भी नहीं मिलता और नही लंका विजय होता। तो ये सारे घटनाक्रम राजप्रबंधन से जुड़े हुए हैं पर जो शबरी वाला प्रसंग है वह तो दूसरी कथा के रूप में रामकथा में महत्वपूर्ण स्थान पाता है जो राम के वनवासी होने के रूप को उद्घाटित करता है। वनवासी राम और अयोध्या के राम में कोई तुलना नहीं क्योंकि अयोध्या के राम के लिए तो कुछ करना ही नहीं था। एक राजा की तरह वे उŸाराधिकार का ही तो वे सुख भोग सकते थे। जबकि वनवासी होकर राम पूरी तरह अरण्यक सभ्यता के नागरिक बन जाते हैं अरण्यक यानि आदिवासी सभ्यता, वन की सभ्यता, जो कुदरती होती है, कुदरती जमीन पर उगती है, जहां स्वामित्व और नियंत्रण के रोग नहीं होते पूरी तरह समत्व पर आधारित एक ऐसी सभ्यता जिसका जीवन ही वन हो, वन की तरह हरा भरा, उन्मुक्त, जीवन के रागों को गुनगुनाता। आदिवासियों के बीच राम का जो रूप है वह अयोध्या वाला नहीं है, वे वहां राजा नहीं हैं, वनवासी हैं, सबके प्रिय हैं, चित्त और चेतना के साधक हैं, प्रकृति की तरह प्रकृतिमय है। आदिवासियों की लोककथाओं में सीता के अपहरण का प्रसंग बहुत ही अश्रुपूर्ण है, उनकी लोक कथाओं से यह मालूम नहीं होता कि रावण विद्वान था केवल इतना पता चलता है कि रावण अत्याचारी था और उसने छल करके सीता का अपहरण किया था। यह भी मिलता है कि रावण लंका का राजा था। धांगरों और खरवार जनजातियों में एक गीत गाया जाता है जिसके बीच में आता है.. ‘सीता मइया के भगाय ले गयल बभना हो, उहै बभना जवन देलेस भगाय, बिभीसन के रजवा (राज्य) से हो। सीता के अपहरण का कथानक आदिवासियों के गीतों में कई तरह से ढला हुआ है। यहां यह ध्यान देने लायक है कि उनके गीतों में रावण को राजा के रूप में नहीं देखा जाता है, रावण उनके गीतों में उपस्थित है एक ब्राह्मण के रूप में। इससे यह पता चलता है कि आदिवासियों में सत्ता प्रबंधन या राजा के बारे में कोई विमर्श नही था, वहां विमर्श है जाति पर। ऐसा लगता है कि राम के काल में भी जाति के सवाल मौजूद रहे हैं भले ही वे प्रमुख न रहे हों, पर रहे हैं। इस गीत से दूसरी सूचना मिलती है कि वनवासी राम आदिवासियों में वनप्रसंगों के कारण अधिक लोकप्रिय हैं, इसका अर्थ यह नहीं कि वे अयोध्या के राम के रूप में कम लोकप्रिय हैं। आदिवासियों के विस्थापन की कहानियां किसे नहीं मालूम। राम भी अयोध्या से विस्थापित किये गये थे। संभव है नागर सभ्यता के पोषकों ने उस समय भी तमाम अवोध व कमजोर लोगों को विस्थापित किया हो। और जंगल में विस्थापितों का ही वर्गसमूह निवास करता रहा हो, वे भला राम को क्यों नहीं मान, सम्मान देंगे? हम जानते है कि आधुनिक सभ्यता ने कारखाना बनाने के नाम पर मुख्यतः आदिवासियों, वनवासियों को ही विस्थापित किया है, उनसे सरकारों ने वन की अंतरंगता को छीन लिया है, विस्थापन की इस स्थिति पर एक आदिवासी गीत देखें जो राम को समर्पित है... ‘जनमवा काहे देला राम! भात भात लरिका नरियांय, बनिया मांगे दाम.. जनमवा काहे देला राम! करजा काढि खेतवा रोपली, उहो गयल झुराय, बरधा बेचि के दरोगवा के देहली, बनवा से देलेस निकाल। जनमवा काहे देला राम!’ राम को समर्पित इस गीत से स्पष्ट है कि आदिवासी समूहों में राम उनके यहां भी उनके अन्य राजा लाखन, मघन्त, दूल्हा देव, बड़ा, भासुरिया, भैरव माता, आदि देवी देवताओं की तरह पूज्य हैं। पूज्य तो उनके गीतों व पारंपरिक पूजाओं में हनुमान, काली माई आदि भी हैं। सामान्यतया आज के आदिवासी पहले वाले नागर और अरण्यक सभ्यता में विखंडित आदिवासी नहीं हैं, वे अब मुख्य धारा की तरफ लौटते हुए लोगों में हैं, वे बदल रहे है, पूजा और आराधना के क्षेत्रों में तो उनमें उल्लेखनीय बदलाव हुए हैं। हां वे आर्थिक रूप से भी बदलना चाह रहे है पर यह जो स्वामित्व और पूंजी पर टिकी सŸाा है उनके बदलावों के प्रति उदार नहीं है। जहां तक आदिवासी समाज में राम की उपस्थिति का सवाल है वह एक अलग तरह का सवाल है। राम तो सभी के हैं, राम के लिए नागर और अरण्यक का कोई मतलब नहीं। पूरी रामकथा चाहे वह जिस किसी के द्वारा लिखी गयी हो उसमें वर्णित राम को किसी जाति विशेष के खानों में नहीं बांटा जा सकता। राम की असल कथा तो वनगमन से प्रारंभ होती है। वे वनगमन के बाद ही शबरी से मिल पाते हैं, वनगमन के बाद ही उन्हें पता चलता है बालि के बारे में। तो यह जो बाली और सुग्रीव है, यह जो शबरी है, सभी आदिवासी हैं। राम कथा प्रसंगों में निषाद, राक्षस, शबर, वानर, नाग आदि जैसी जन जाति का संदर्भ आता है, जाहिर है राम का संपूर्ण मानवीय कर्म वन में ही फलित होता है। अयोध्या का लंका तक का फैलाव उस और में कोई साधारण कार्य भार नहीं था पहले तो अयोध्या केवल अयोध्या था उसका फैलाव लंका तक नहीं था। इस संदर्भ में यहां डा. लोहिया को उल्लिखित करना आवश्यक है। ये वही लोहिया जी हैं जोे रामायण मेले का आयोजन अयोध्या में करवाते रहे हैं। पहली बार किसी राजनेता ने राम कथा को राजनीति की कथा की तरह देखा था, और कहा था.. ‘धर्म दूरगामी राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म’ ‘राम का जीवन बिना हड़पे (राज्य) हुए ही फैलने की कहानी है। उनका निर्वासन देष को एक षक्तिकेन्द्र के अन्दर बांधने का एक मौका था। इसके पहले प्रभुत्व के दो प्रतिस्पर्धी केन्द्र थे, अयोध्या और लंका। अपने प्रवास में राम अयोध्या से दूर लंका की ओर गये। रास्ते में अनेक राज्य और राजधानियां थीं जो एक या दूसरे केन्द्र की मातहत थीं। मर्यादित पुरुष राम की नीति निपुणता की सबसे अच्छी अभिव्यक्ति तब हुई जब राम ने रावण के राज्यों में एक बड़े राज्य को जीता, उसका राजा बालि था। बालि से उसके भाई सुग्रीव, और सेनापति हनुमान दोनों अप्रसन्न थे, वे रावण के राज्य से निकल कर राम की मित्रता और सेवा में आना चाहते थे।’^भारत माता धरती माता, डा.. राममनोहर लोहिया पृ. 69 तो यह है राम का सार्वभौम मानवीय व्यक्तित्व। वे अयोघ्या का फैलाव लंका तक कर जाते हैं पर बिना किसी साम्रज्यवादी क्रूरता से। राम सुग्रीव की व्यथा का साक्षी बनते हैं और उन्हें ही बालि के जीते हुए राज्य का राजा बना देते हैं। ये वही सुग्रीव हैं जो लंका विजय अभियान में पूरी निष्ठा के साथ राम का सहयोग करते हैं। और हनुमान, जो कभी सुग्रीव के सेनापति हुआ करते थे वे तो राम के अपूर्व भक्त हो ही जाते हैं तो ये हैं राम, अपनत्व के प्रतीक, जो भी उनके करीब आया उनका हो गया। यहां विभीषण का उल्लेख करना भी आवश्यक है, राम पूरी आत्मीयता और सहृदयता से विभीषण का साथ देते हैं और लंका विजय के बाद उन्हें लंका का राजा बनवा देते हैं। पूरे निर्वासन के दौरान हुए संघर्षों से पाया हुआ कोई भी चीज राम अयोध्या नहीं ले आते सब वहीं छोड़ देते हैं, चाहे लंका का संदर्भ हो चाहे बालि के राज्य का, दोनों राज्यों को राम स्वतंत्र छोड़ देते हैं, उन्हें पराधीन नहीं बनाते, कुल मिला कर अयोध्या में नहीं मिलाते जैसा कि साम्राज्यवादी ताकतें किया करती हैं। राम ऐसा नहीं करते। जाहिर है कि राम पराधीनता का दर्द जानते थे सो वे लंका और सुग्रीव के राज्य को स्वतंत्र ही रहने देते हैं उन्हें अयोध्या में विलीन नहीं कराते। तो यह है राम के कृत्रित्व की मानवीय समीपता। राम दूसरे राजाओं से जिस मैत्रीपूर्ण रिश्ते का निर्वहन करते हैं और जिस तौर तरीके से करते हैं उसे कम से कम उन देशों को नकल करने की आवश्यकता है जो राज्यों को हड़प करना आपना कर्तव्य मानते व जानते हैं, पर क्या ऐसा हो सकेगा? राम के वनगमन के कथानक की स्वीकार्यता का सवाल पूरी सभ्यता के स्वीकार्यता से जुड़ा हुआ है। शबरी के जूठे बैर खाने वाला कथानक तो अपने आप में एक अपूर्व उदाहरण हैं जिससे संभावना बनती है कि राम और शबरी में निश्चित रूप से कोई विशेष लगाव या बंधन रहा होगा नहीं तो समान्यतया कोई किसी का जूठा नहीं खाता। बंधन और लगाव के संदर्भ में यह प्रसंग विचारणीय है। रामकथा या केवल राम को आदिवासियों की स्वीकार्यता से परखने का प्रयास करना मानवीयता के दायरों की सीमाओं का अतिक्रमण करना होगा। राम सभी के हैं। हम जानते हैं कि बाल्मिकी रामायण के सृजन की कथा ही क्रौंच वध से शुरू होती है, क्रौंच का वध करने वाला एक निषाद था। राम के वनगमन और वनप्रवास का कथानक ही आदिवासियों के लिए प्रिय बन जाता है। आदिवासियों के लिए भी राम की कथा एक पवित्र कथा है उनके यहां दूसरी ‘करमा’ आदि कथाओं की तरह। फिर भी यह सच है कि आदिवासी समूहों में वनवासी राम ही अधिक प्रिय हैं, अयोध्या के राम नहीं। हमें सोचना होगा कि राम की कथा आज भी लोकमन का हिस्सा क्यों है, क्या सिर्फ इस लिए कि राम के चरित्र का दैवीकरण कर दिया गया है। केवल इतना भर नहीं है, संभव है कि राम के चरित्र के दैवीकरण का भी लोकमन पर प्रभाव पड़ा हो पर केवल ऐसा ही नहीं है। रामकथा का लोकमन पर जो प्रभाव आज भी कायम है वह उनका लोकसंघर्ष है, वे समय की अराजक सŸााव्यवस्था से निष्काम ढंग से टकराते हैं तथा प्रमाणित करते हैं कि उनके लिए राजा बनने का जो उत्तराधिकार है उसका कोई मतलब नहीं। वे इस प्रकार से उत्तराधिकार को खारिज करते हैं कुल मिला कर रामकथा में सत्ताप्रबंधन का मानवीय समीपता के कारकों वाला द्वन्द भी है। आधुनिक कथा साहित्य के लिए राम का वन्य जीवन, वहां का संघर्ष आदर्श हो सकता है। ogcxu2comk6nq0roh4e3eavsakgweig भारत का सांस्कृतिक इतिहास/भारत की सभ्यताएँ 0 11400 82581 2025-06-15T06:08:45Z Baap8969 16001 'भारत का इतिहास अत्यंत प्राचीन और समृद्ध है। यह विश्व की उन गिनी-चुनी सभ्यताओं में से एक है जहाँ मानव सभ्यता की शुरुआत बहुत पहले हुई थी और जो आज भी जीवित है। भारतीय उपमह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया 82581 wikitext text/x-wiki भारत का इतिहास अत्यंत प्राचीन और समृद्ध है। यह विश्व की उन गिनी-चुनी सभ्यताओं में से एक है जहाँ मानव सभ्यता की शुरुआत बहुत पहले हुई थी और जो आज भी जीवित है। भारतीय उपमहाद्वीप में अनेक महान सभ्यताओं का विकास हुआ, जिन्होंने समाज, संस्कृति, धर्म, विज्ञान, और राजनीति के क्षेत्र में विश्व को नई दिशा दी। == १. सिन्धु घाटी सभ्यता (Indus Valley Civilization) == === संक्षिप्त परिचय === सिन्धु घाटी सभ्यता को *हड़प्पा सभ्यता* के नाम से भी जाना जाता है। यह भारत की सबसे प्राचीन नगरीकृत सभ्यता मानी जाती है, जो लगभग 2500 ईसा पूर्व से 1900 ईसा पूर्व के बीच फली-फूली। इस सभ्यता के प्रमुख स्थल आज के पाकिस्तान और भारत के पश्चिमी भागों (पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात) में स्थित हैं। === प्रमुख विशेषताएँ === * सुव्यवस्थित नगर योजना – सीधी सड़कों, जल निकासी व्यवस्था, और पक्के मकानों का निर्माण। * ग्रैनरी (अन्न भंडारण गृह), स्नानागार (Great Bath), और सभागार। * व्यापार – मेसोपोटामिया और अन्य स्थानों से व्यापारिक संबंध। * लिपि – अभी तक पूरी तरह पढ़ी नहीं जा सकी। * धर्म – पशुपति, मातृदेवी की मूर्तियाँ, अग्निपूजन के संकेत। === प्रमुख स्थल === - '''हड़प्पा (पाकिस्तान)''' * यह स्थल 1921 में खोजा गया था और इसके नाम पर ही पूरी सभ्यता को "[[हड़प्पा सभ्यता]]" कहा जाने लगा। * यहाँ से मिली ईंटों की बनी इमारतें, अन्न भंडारण गृह (Granaries), और तांबे के औजार इस नगर की समृद्धि को दर्शाते हैं। * यहाँ मिट्टी की मुहरें, चित्रलिपि, मानव और पशु की मूर्तियाँ, तथा नालियों की अद्भुत योजना पाई गई है। - '''मोहनजोदड़ो (सिंध, पाकिस्तान)''' * इसका अर्थ होता है "मृतकों का टीला"। * यह सबसे व्यवस्थित नगरों में से एक था। * विशाल स्नानागार (Great Bath), सभा भवन, नालियों की व्यवस्था, और जल प्रबंधन प्रणाली इसकी पहचान हैं। * प्रसिद्ध "नृत्य करती युवती की कांस्य मूर्ति" (Dancing Girl) और पुजारी की मूर्ति यहीं से प्राप्त हुई है। - '''लोथल (गुजरात) – एक प्रमुख बंदरगाह''' * लोथल एक प्रमुख बंदरगाह नगर था, जो अरब सागर से व्यापार करता था। * यहाँ से एक डॉकयार्ड (Dockyard) मिला है – जो विश्व के सबसे पुराने जल बंदरगाहों में से एक माना जाता है। * यहाँ से सीपों की वस्तुएँ, आभूषण, मिट्टी के खिलौने, और वजन नापने के उपकरण मिले हैं। * लोथल का मानचित्र (Town Plan) दर्शाता है कि यह नगर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से जुड़ा हुआ था। - '''कालीबंगा (राजस्थान)''' * इसका अर्थ है "काली चूड़ियों वाला स्थान"। * यहाँ से दो प्रकार की बस्तियाँ मिलीं: प्री-हड़प्पन और हड़प्पन काल की। * यहाँ सिंचाई की प्रणाली और हल चलाने के अवशेष (ploughed fields) मिले हैं जो दर्शाते हैं कि कृषि एक प्रमुख गतिविधि थी। * अग्निकुंडों और यज्ञ-विधियों के अवशेष भी यहाँ पाए गए हैं। - '''राखीगढ़ी (हरियाणा) – हाल की खुदाई में बहुत महत्वपूर्ण।''' * यह वर्तमान में हड़प्पा सभ्यता का सबसे बड़ा स्थल माना जाता है। * यहाँ से मानव कंकाल, मिट्टी के बर्तन, चित्रलिपि वाली मुहरें और मृदभांड मिले हैं। * यह स्थल इस बात का प्रमाण देता है कि हड़प्पा सभ्यता का विस्तार केवल सिंधु नदी तक सीमित नहीं था, बल्कि हरियाणा और आसपास के इलाकों तक फैला हुआ था। == २. वैदिक सभ्यता == '''वैदिक सभ्यता''' भारतीय उपमहाद्वीप की वह ऐतिहासिक सभ्यता है जिसका आधार मुख्यतः '''वेदों''' पर है। यह सभ्यता आर्यों के आगमन के साथ '''उत्तर-पश्चिम भारत में विकसित हुई''' और आगे चलकर '''गंगा-यमुना के मैदानों में फैल गई।''' वैदिक काल को सामान्यतः '''दो भागों में विभाजित किया जाता है:''' * आरंभिक वैदिक काल (1500–1000 ई.पू.) * उत्तर वैदिक काल (1000–600 ई.पू.) === आरंभिक वैदिक काल (1500–1000 ई.पू.) === - '''ऋग्वैदिक संस्कृति और जीवन''' आरंभिक वैदिक काल को ऋग्वैदिक काल भी कहा जाता है क्योंकि इसका प्रमुख ग्रंथ ऋग्वेद है। यह सभ्यता मुख्यतः सात नदियों — सिंधु, सरस्वती, झेलम, रावी, ब्यास, सतलज, और चेनाब — के किनारे फली-फूली। इस काल में लोग मुख्यतः ग्राम-प्रधान जीवन जीते थे और उनके जीवन का केंद्र प्रकृति और यज्ञ थे। ऋग्वेद में देवताओं की स्तुति के रूप में रचित मंत्रों के माध्यम से उनकी आस्था और जीवनदृष्टि का परिचय मिलता है। इंद्र को सबसे बड़ा देवता माना गया, जो युद्ध और वर्षा के देवता थे। अग्नि, वरुण, वायु, सूर्य, उषा, आदि अन्य प्रमुख देवता थे। मूर्ति पूजा का कोई उल्लेख नहीं मिलता, बल्कि यज्ञों और हवनों द्वारा देवताओं को प्रसन्न किया जाता था। '''समाज और परिवार''' समाज जनों (tribes) में विभक्त था और ‘जन’ ही सामाजिक इकाई थी। प्रत्येक जन का एक राजा होता था, जो सीमित शक्तियों के साथ शासन करता था। राजा की सहायता के लिए सभा और समिति नामक दो संस्थाएँ थीं, जो उसकी नीतियों की समीक्षा करती थीं। स्त्रियों को भी समाज में सम्मान प्राप्त था। वे यज्ञों में भाग लेती थीं और कुछ महिलाएँ जैसे गार्गी, लोपामुद्रा, अपाला आदि ऋषिकाएँ थीं जिन्होंने वेदों की रचना में योगदान दिया। विवाह प्रथा सामान्य थी और बहुपत्नी प्रथा भी सीमित रूप में प्रचलित थी। '''आर्थिक जीवन''' आर्थिक जीवन का आधार पशुपालन था, विशेषतः गायें सबसे मूल्यवान संपत्ति मानी जाती थीं। यही कारण है कि ‘गौ’ शब्द का प्रयोग धन, समाज और बल के लिए किया जाता था। कृषि धीरे-धीरे प्रारंभ हो रही थी लेकिन यह मुख्य व्यवसाय नहीं था। वस्तु-विनिमय प्रणाली (Barter System) प्रचलित थी और मुद्रा का कोई उल्लेख नहीं मिलता। लोग ऊन और कपास से बने वस्त्र पहनते थे। उनके आभूषण, हथियार, और दैनिक उपयोग की वस्तुएँ धातु (मुख्यतः तांबा और कांसा) से बनी होती थीं। === उत्तर वैदिक काल (1000–600 ई.पू.) === '''भौगोलिक और राजनीतिक विस्तार''' '''उत्तर वैदिक काल''' में वैदिक सभ्यता का विस्तार पंजाब से गंगा-यमुना के मैदानों तक हो गया था। इस काल में स्थायी राज्य और महाजनपदों का उदय हुआ। अब जनों की जगह स्थायी राजनैतिक इकाइयाँ बनने लगीं। '''राजाओं की शक्ति में वृद्धि हु'''ई और वे अब '''देवताओं के प्रतिनिधि''' माने जाने लगे। राजा के अधिकारों को धार्मिक आधार पर मान्यता दी जाने लगी। राजसूय, अश्वमेध, और हिरण्यगर्भ जैसे यज्ञों ने राजा को देवतुल्य बना दिया। राज्य अब वंशानुगत होने लगे और वंशों का विकास हुआ। '''समाज व्यवस्था और वर्ण प्रणाली''' इस काल में वर्ण व्यवस्था अधिक कठोर और जन्म आधारित हो गई। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – ये चार प्रमुख वर्ण स्थापित हुए। ब्राह्मणों ने यज्ञ-कर्म और वेद अध्ययन पर अपना विशेषाधिकार स्थापित किया। क्षत्रिय राज्य की रक्षा करते थे, वैश्य व्यापार और कृषि करते थे, और शूद्रों को सेवा कार्यों तक सीमित कर दिया गया। स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आई। उन्हें अब वेद अध्ययन और यज्ञ में भाग लेने से वंचित किया जाने लगा। विवाह और अन्य सामाजिक संस्थाएँ अधिक पितृसत्तात्मक हो गईं। '''धर्म और दर्शन''' उत्तर वैदिक काल में यज्ञ और कर्मकांड अत्यधिक जटिल हो गए। ब्राह्मणों का प्रभुत्व बढ़ा और वे धार्मिक क्रियाओं के एकमात्र अधिकारी बन बैठे। परंतु इसी समय कुछ विचारकों ने यज्ञ-कर्मकांड के स्थान पर ज्ञान और ध्यान को प्रमुखता दी। इस काल में उपनिषदों का जन्म हुआ – जिन्होंने आत्मा, ब्रह्म, मोक्ष, पुनर्जन्म आदि विषयों पर गहन दर्शन प्रस्तुत किया। ध्यान, साधना, आत्मा की खोज, और अध्यात्मिक मुक्ति जैसे विषयों पर चर्चा होने लगी। यह काल भारतीय दर्शन की नींव डालता है – जिसे आगे चलकर बौद्ध और जैन धर्मों ने भी प्रभावित किया। '''अर्थव्यवस्था और कृषि विकास''' अब कृषि मुख्य व्यवसाय बन चुकी थी। हल, बैल, और सिंचाई की तकनीकों में सुधार हुआ। लोहा इस काल में प्रयुक्त होने लगा, जिससे कृषि उपकरण और हथियार अधिक मजबूत बन पाए। धातु उद्योग, बुनाई, कुम्हारी, और व्यापार का विस्तार हुआ। व्यापारी वर्ग का उदय हुआ – सेठ, श्रेणी, सार्थवाह जैसे शब्द इस समय प्रचलन में आए। मुद्रा का आरंभिक प्रयोग ‘निष्क’ और ‘शतमान’ के रूप में शुरू हुआ। '''शिक्षा और साहित्य''' उत्तर वैदिक काल में गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ। बालक गुरु के आश्रम में रहकर वेद, वेदांग, धर्मशास्त्र, गणित, ज्योतिष, युद्ध कला आदि विषयों की शिक्षा लेते थे। उपनयन संस्कार शिक्षा का प्रारंभिक बिंदु था। इस काल में ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक, और उपनिषद जैसे ग्रंथों की रचना हुई। ये ग्रंथ केवल धार्मिक न होकर दार्शनिक, सामाजिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को भी प्रस्तुत करते हैं। == ३. महाजनपद और शास्त्रीय सभ्यताएँ == '''वैदिक काल''' की समाप्ति के बाद भारत में एक नए युग की शुरुआत हुई जिसे महाजनपद युग कहा जाता है। यह काल लगभग 600 ईसा पूर्व से 300 ईसा पूर्व के मध्य माना जाता है। इस युग में छोटे-छोटे जनों (tribes) की जगह स्थायी और संगठित राज्यों (महाजनपदों) का उदय हुआ। इसी काल को हम शास्त्रीय सभ्यता (Classical Civilization) का प्रारंभिक चरण भी मान सकते हैं, क्योंकि इस समय साहित्य, शासन व्यवस्था, नगर योजना, कूटनीति, युद्ध नीति, व्यापार, धर्म और दर्शन ने अधिक परिपक्व रूप धारण किया। '''- महाजनपद काल: एक परिचय''' '''‘महाजनपद’''' दो शब्दों से मिलकर बना है — '''"महा" अर्थात बड़ा''' और '''"जनपद" अर्थात जनों का निवास स्थान या राज्'''य। वैदिक काल के 'जन' अब संगठित होकर बड़े-बड़े राज्यों के रूप में स्थापित हो गए जिन्हें महाजनपद कहा गया। ''' - 16 महाजनपदों की सूची''' {| class="wikitable" style="text-align:center;" ! महाजनपद !! आधुनिक क्षेत्र |- | अंग || भागलपुर (बिहार) |- | मगध || पटना व गया (बिहार) |- | काशी || वाराणसी (उत्तर प्रदेश) |- | कोशल || फैज़ाबाद व अयोध्या (उत्तर प्रदेश) |- | वज्जि || वैशाली (बिहार) |- | मल्ल || गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) |- | वत्स || कौशांबी (उत्तर प्रदेश) |- | कुरु || हरियाणा व दिल्ली |- | पांचाल || रुहेलखंड (उत्तर प्रदेश) |- | शूरसेन || मथुरा (उत्तर प्रदेश) |- | अश्मक || गोदावरी क्षेत्र (तेलंगाना/महाराष्ट्र) |- | अवंती || उज्जैन (मध्य प्रदेश) |- | गांधार || पाकिस्तान व अफगानिस्तान का हिस्सा |- | कम्बोज || पंजाब/कश्मीर के आसपास |} '''- अर्थव्यवस्था का विकास''' महाजनपद युग में कृषि का व्यापक विकास हुआ। सिंचाई, हल-बैल, लोहे के औजार, और भंडारण तकनीकों के कारण उत्पादन में वृद्धि हुई। अधिक कृषि उपज ने व्यापार और नगरीकरण को जन्म दिया। व्यापार के लिए मुद्रा का प्रचलन भी इसी काल में प्रारंभ हुआ — पंचमार्क (punch-marked coins) नामक चांदी की मुद्राएँ चलन में थीं। भारत का व्यापार पश्चिम एशिया और मध्य एशिया तक विस्तृत हुआ। '''नगरीकरण और नगरों का विकास''' इस युग में कई महत्वपूर्ण नगर विकसित हुए, जैसे: '''राजगृह (राजगीर)''' – मगध की राजधानी '''श्रावस्ती''' – कोशल की राजधानी '''कौशांबी''' – वत्स की राजधानी '''कांची''' – दक्षिण भारत में उभरता नगर '''तक्षशिला''' – गांधार का प्रमुख शिक्षा और व्यापार केंद्र इन नगरों में सड़कों की योजना, किलेबंदी, दुर्ग, तालाब, बाजार, और धार्मिक स्थल आदि प्रमुख रूप से बनाए गए। नगर योजना और स्थापत्य कला इस काल की विशेषता बनी। '''शास्त्रीय सभ्यता का आरंभ''' '''शास्त्रीय सभ्यता का अर्'''थ है — वह काल जब भारत में ज्ञान, कला, साहित्य, शासन व्यवस्था, तथा दर्शन का उच्चतम विकास हुआ। महाजनपद युग इसी शास्त्रीय परंपरा की नींव रखता है। इस काल में: '''धर्म और दर्शन:''' बुद्ध और महावीर का उदय हुआ। बौद्ध व जैन धर्म का विकास हुआ। '''शिक्षा और विद्या केंद्र:''' तक्षशिला, नालंदा (बाद में), उज्जैन आदि शिक्षा के केंद्र बने। '''साहित्य:''' संस्कृत, पालि, प्राकृत भाषाओं में ग्रंथ रचे गए। '''राजनीति:''' कौटिल्य (चाणक्य) द्वारा अर्थशास्त्र की रचना हुई — जो राजनीति और प्रशासन पर अद्वितीय ग्रंथ है। दंड नीति और धर्मशास्त्र की अवधारणा का विकास हुआ। == ४. दक्षिण भारत की सभ्यताएँ == जब उत्तर भारत में वैदिक सभ्यता और महाजनपदों का विकास हो रहा था, उसी समय दक्षिण भारत में भी एक अत्यंत समृद्ध और स्वतंत्र सांस्कृतिक विकास हो रहा था। दक्षिण भारत की सभ्यताएँ — विशेषकर द्रविड़ सभ्यता, संगम युग, और बाद में चोल, चेर और पांड्य राज्यों की परंपराएँ — भारत के सांस्कृतिक इतिहास में एक अत्यंत महत्वपूर्ण अध्याय हैं। यहां की भाषाएँ, लिपियाँ, धर्म, स्थापत्य, कला और समाज व्यवस्था ने एक अलग पहचान बनाई। '''प्रारंभिक सभ्यता और द्रविड़ परंपरा''' दक्षिण भारत की प्राचीनतम पहचान '''द्रविड़ सभ्यता''' से जुड़ी है। ऐसा माना जाता है कि द्रविड़ लोग मूलतः सिन्धु घाटी सभ्यता से संबंधित थे, जो आर्यों के आगमन के बाद दक्षिण भारत में बस गए। द्रविड़ भाषाएँ — जैसे तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम — इसी परंपरा की देन हैं। इन भाषाओं का विकास वैदिक संस्कृत से स्वतंत्र रूप से हुआ, और आज भी ये भाषाएँ दक्षिण भारत की सांस्कृतिक पहचान हैं। '''- संगम युग (300 ई.पू. – 300 ई.)''' दक्षिण भारत के इतिहास में संगम युग एक अत्यंत महत्वपूर्ण युग था। "संगम" का अर्थ है विद्वानों की सभा। तमिलनाडु में तीन प्रमुख संगम (literary assemblies) आयोजित हुए, जिनमें साहित्य, राजनीति, धर्म और समाज पर विस्तृत चर्चा और लेखन हुआ। '''संगम युग के प्रमुख राज्य: * चोल (Chola) – कावेरी नदी के तटीय क्षेत्र में * चेर (Chera) – आधुनिक केरल क्षेत्र में * पांड्य (Pandya) – मदुरै और तिरुनेलवेली क्षेत्र में इन राज्यों ने व्यापार, कृषि, जल-संरचना, शिक्षा और युद्ध कौशल में उच्च स्तर प्राप्त किया था। '''सामाजिक और आर्थिक जीवन''' '''सामाजिक ढांचा:''' संगम युग में समाज जाति पर आधारित न होकर व्यवसाय आधारित था। ब्राह्मणों के अलावा व्यापारी, कृषक, योद्धा, शिल्पकार, नर्तक, गायनकार आदि सभी को सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त थी। महिलाओं को शिक्षा, साहित्य और कला में भाग लेने का पूरा अधिकार था। '''आर्थिक व्यवस्था:''' दक्षिण भारत समुद्री व्यापार का केंद्र था। रोम, मिस्र, अरब और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ व्यापार होता था। सुनार, कुम्हार, बुनकर, मछुआरे, आदि शिल्पकर्मी समाज का अभिन्न हिस्सा थे। नदियों और मानसून आधारित सिंचाई प्रणालियों ने कृषि को समृद्ध किया। '''धान, काली मिर्च, मसाले, रत्न, हाथी-दाँत''' आदि प्रमुख उत्पाद थे। '''युद्ध और समुद्री शक्ति''' दक्षिण भारत की सभ्यताएँ समुद्र के प्रति विशेष रूप से जागरूक थीं। चोलों की नौसेना बहुत शक्तिशाली थी और उन्होंने श्रीलंका, मलेशिया, सुमात्रा जैसे क्षेत्रों तक आक्रमण कर विजय प्राप्त की। वे समुद्र के रास्ते व्यापार के साथ-साथ सांस्कृतिक प्रभाव भी फैलाते थे। == ५. उत्तर-पूर्व और हिमालयी सभ्यताएँ == भारत का उत्तर-पूर्व और हिमालयी क्षेत्र न केवल भौगोलिक दृष्टि से अद्वितीय है, बल्कि यहां की सभ्यताएँ, जनजातियाँ, धार्मिक परंपराएँ और सांस्कृतिक विरासत भी अत्यंत विशिष्ट रही हैं। इस क्षेत्र में प्राकृतिक सौंदर्य के साथ-साथ प्राचीनता, विविधता और जीवंत परंपराओं का गहन मिश्रण मिलता है। यहाँ की सभ्यताएँ मुख्य रूप से जनजातीय समाज, बौद्ध और बौद्ध पूर्व धर्म, स्थानीय देवी-देवता पूजा, तिब्बती प्रभाव, और भारत-तिब्बत-म्यांमार के बीच के सांस्कृतिक आदान-प्रदान पर आधारित रही हैं। '''भौगोलिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि''' उत्तर-पूर्व भारत में प्रमुखतः सात राज्य (जिसे 'सात बहनें' कहा जाता है) आते हैं — असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और त्रिपुरा, साथ ही सिक्किम और उत्तरी पश्चिम बंगाल (दार्जिलिंग, कालिम्पोंग) भी सांस्कृतिक रूप से इस क्षेत्र से जुड़ते हैं। हिमालयी क्षेत्र में मुख्यतः लद्दाख, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और सिक्किम आते हैं, जहाँ बौद्ध, हिंदू, और स्थानीय परंपराओं का गहन मिश्रण देखने को मिलता है। '''उत्तर-पूर्व भारत की सभ्यताएँ''' '''(A) असम और ब्रह्मपुत्र घाटी''' * असम की सभ्यता प्राचीन कामरूप राज्य से जुड़ी है, जिसका उल्लेख महाभारत और पुराणों में मिलता है। * यहाँ कामाख्या मंदिर जैसी शक्तिपीठ है जो शाक्त धर्म का केंद्र है। * बोडो, मिशिंग, करबी, डिमासा जैसे समुदायों ने अपनी विशिष्ट संस्कृतियाँ विकसित कीं। * असम में अहोम वंश (13वीं सदी से 19वीं सदी तक) ने दीर्घकाल तक शासन किया और अद्वितीय प्रशासन और संस्कृति की नींव रखी। '''(B) मणिपुर की सभ्यता''' * मणिपुर की संस्कृति का मूल आधार वैष्णव धर्म और स्थानीय मीतेई (Meitei) परंपरा है। * मणिपुरी नृत्य (रासलीला) की जड़ें गहरी हैं। * यहाँ के लोग संजेंबा, लाइहरोबा जैसे पारंपरिक त्योहार मनाते हैं। '''(C) नागालैंड, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश''' * इन राज्यों में मुख्यतः आदिवासी जनजातियाँ निवास करती हैं — जैसे नागा, मिजो, अपतानी, गालो, न्याशी, आदि। * उनकी जीवनशैली प्रकृति, खेती, बांस कला, शिकार, और पर्व-उत्सवों से जुड़ी होती है। * जनजातीय विश्वासों में पितृ पूजा, प्रकृति पूजा, और बाद में ईसाई धर्म का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखता है। == निष्कर्ष == भारत की सभ्यताओं ने न केवल एक सशक्त सामाजिक ढांचा तैयार किया, बल्कि विज्ञान, खगोलशास्त्र, गणित, योग, आयुर्वेद, और दर्शन जैसे क्षेत्रों में भी अमूल्य योगदान दिया। इन सभी सभ्यताओं की एक विशेषता रही है – *समावेशिता और सहिष्णुता*, जो भारत की आत्मा है। hjr5sbqa847gmeoz6mvyw1xrr9cthlr 82582 82581 2025-06-15T06:09:51Z Baap8969 16001 82582 wikitext text/x-wiki भारत का इतिहास अत्यंत प्राचीन और समृद्ध है। यह विश्व की उन गिनी-चुनी सभ्यताओं में से एक है जहाँ मानव सभ्यता की शुरुआत बहुत पहले हुई थी और जो आज भी जीवित है। भारतीय उपमहाद्वीप में अनेक महान सभ्यताओं का विकास हुआ, जिन्होंने समाज, संस्कृति, धर्म, विज्ञान, और राजनीति के क्षेत्र में विश्व को नई दिशा दी। == १. सिन्धु घाटी सभ्यता (Indus Valley Civilization) == === संक्षिप्त परिचय === सिन्धु घाटी सभ्यता को *हड़प्पा सभ्यता* के नाम से भी जाना जाता है। यह भारत की सबसे प्राचीन नगरीकृत सभ्यता मानी जाती है, जो लगभग 2500 ईसा पूर्व से 1900 ईसा पूर्व के बीच फली-फूली। इस सभ्यता के प्रमुख स्थल आज के पाकिस्तान और भारत के पश्चिमी भागों (पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात) में स्थित हैं। === प्रमुख विशेषताएँ === * सुव्यवस्थित नगर योजना – सीधी सड़कों, जल निकासी व्यवस्था, और पक्के मकानों का निर्माण। * ग्रैनरी (अन्न भंडारण गृह), स्नानागार (Great Bath), और सभागार। * व्यापार – मेसोपोटामिया और अन्य स्थानों से व्यापारिक संबंध। * लिपि – अभी तक पूरी तरह पढ़ी नहीं जा सकी। * धर्म – पशुपति, मातृदेवी की मूर्तियाँ, अग्निपूजन के संकेत। === प्रमुख स्थल === - '''हड़प्पा (पाकिस्तान)''' * यह स्थल 1921 में खोजा गया था और इसके नाम पर ही पूरी सभ्यता को "[[हड़प्पा सभ्यता]]" कहा जाने लगा। * यहाँ से मिली ईंटों की बनी इमारतें, अन्न भंडारण गृह (Granaries), और तांबे के औजार इस नगर की समृद्धि को दर्शाते हैं। * यहाँ मिट्टी की मुहरें, चित्रलिपि, मानव और पशु की मूर्तियाँ, तथा नालियों की अद्भुत योजना पाई गई है। - '''मोहनजोदड़ो (सिंध, पाकिस्तान)''' * इसका अर्थ होता है "मृतकों का टीला"। * यह सबसे व्यवस्थित नगरों में से एक था। * विशाल स्नानागार (Great Bath), सभा भवन, नालियों की व्यवस्था, और जल प्रबंधन प्रणाली इसकी पहचान हैं। * प्रसिद्ध "नृत्य करती युवती की कांस्य मूर्ति" (Dancing Girl) और पुजारी की मूर्ति यहीं से प्राप्त हुई है। - '''लोथल (गुजरात) – एक प्रमुख बंदरगाह''' * लोथल एक प्रमुख बंदरगाह नगर था, जो अरब सागर से व्यापार करता था। * यहाँ से एक डॉकयार्ड (Dockyard) मिला है – जो विश्व के सबसे पुराने जल बंदरगाहों में से एक माना जाता है। * यहाँ से सीपों की वस्तुएँ, आभूषण, मिट्टी के खिलौने, और वजन नापने के उपकरण मिले हैं। * लोथल का मानचित्र (Town Plan) दर्शाता है कि यह नगर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से जुड़ा हुआ था। - '''कालीबंगा (राजस्थान)''' * इसका अर्थ है "काली चूड़ियों वाला स्थान"। * यहाँ से दो प्रकार की बस्तियाँ मिलीं: प्री-हड़प्पन और हड़प्पन काल की। * यहाँ सिंचाई की प्रणाली और हल चलाने के अवशेष (ploughed fields) मिले हैं जो दर्शाते हैं कि कृषि एक प्रमुख गतिविधि थी। * अग्निकुंडों और यज्ञ-विधियों के अवशेष भी यहाँ पाए गए हैं। - '''राखीगढ़ी (हरियाणा) – हाल की खुदाई में बहुत महत्वपूर्ण।''' * यह वर्तमान में हड़प्पा सभ्यता का सबसे बड़ा स्थल माना जाता है। * यहाँ से मानव कंकाल, मिट्टी के बर्तन, चित्रलिपि वाली मुहरें और मृदभांड मिले हैं। * यह स्थल इस बात का प्रमाण देता है कि हड़प्पा सभ्यता का विस्तार केवल सिंधु नदी तक सीमित नहीं था, बल्कि हरियाणा और आसपास के इलाकों तक फैला हुआ था। == २. वैदिक सभ्यता == '''वैदिक सभ्यता''' भारतीय उपमहाद्वीप की वह ऐतिहासिक सभ्यता है जिसका आधार मुख्यतः '''वेदों''' पर है। यह सभ्यता आर्यों के आगमन के साथ '''उत्तर-पश्चिम भारत में विकसित हुई''' और आगे चलकर '''गंगा-यमुना के मैदानों में फैल गई।''' वैदिक काल को सामान्यतः '''दो भागों में विभाजित किया जाता है:''' * आरंभिक वैदिक काल (1500–1000 ई.पू.) * उत्तर वैदिक काल (1000–600 ई.पू.) === आरंभिक वैदिक काल (1500–1000 ई.पू.) === - '''ऋग्वैदिक संस्कृति और जीवन''' आरंभिक वैदिक काल को ऋग्वैदिक काल भी कहा जाता है क्योंकि इसका प्रमुख ग्रंथ ऋग्वेद है। यह सभ्यता मुख्यतः सात नदियों — सिंधु, सरस्वती, झेलम, रावी, ब्यास, सतलज, और चेनाब — के किनारे फली-फूली। इस काल में लोग मुख्यतः ग्राम-प्रधान जीवन जीते थे और उनके जीवन का केंद्र प्रकृति और यज्ञ थे। ऋग्वेद में देवताओं की स्तुति के रूप में रचित मंत्रों के माध्यम से उनकी आस्था और जीवनदृष्टि का परिचय मिलता है। इंद्र को सबसे बड़ा देवता माना गया, जो युद्ध और वर्षा के देवता थे। अग्नि, वरुण, वायु, सूर्य, उषा, आदि अन्य प्रमुख देवता थे। मूर्ति पूजा का कोई उल्लेख नहीं मिलता, बल्कि यज्ञों और हवनों द्वारा देवताओं को प्रसन्न किया जाता था। '''समाज और परिवार''' समाज जनों (tribes) में विभक्त था और ‘जन’ ही सामाजिक इकाई थी। प्रत्येक जन का एक राजा होता था, जो सीमित शक्तियों के साथ शासन करता था। राजा की सहायता के लिए सभा और समिति नामक दो संस्थाएँ थीं, जो उसकी नीतियों की समीक्षा करती थीं। स्त्रियों को भी समाज में सम्मान प्राप्त था। वे यज्ञों में भाग लेती थीं और कुछ महिलाएँ जैसे गार्गी, लोपामुद्रा, अपाला आदि ऋषिकाएँ थीं जिन्होंने वेदों की रचना में योगदान दिया। विवाह प्रथा सामान्य थी और बहुपत्नी प्रथा भी सीमित रूप में प्रचलित थी। '''आर्थिक जीवन''' आर्थिक जीवन का आधार पशुपालन था, विशेषतः गायें सबसे मूल्यवान संपत्ति मानी जाती थीं। यही कारण है कि ‘गौ’ शब्द का प्रयोग धन, समाज और बल के लिए किया जाता था। कृषि धीरे-धीरे प्रारंभ हो रही थी लेकिन यह मुख्य व्यवसाय नहीं था। वस्तु-विनिमय प्रणाली (Barter System) प्रचलित थी और मुद्रा का कोई उल्लेख नहीं मिलता। लोग ऊन और कपास से बने वस्त्र पहनते थे। उनके आभूषण, हथियार, और दैनिक उपयोग की वस्तुएँ धातु (मुख्यतः तांबा और कांसा) से बनी होती थीं। === उत्तर वैदिक काल (1000–600 ई.पू.) === '''भौगोलिक और राजनीतिक विस्तार''' '''उत्तर वैदिक काल''' में वैदिक सभ्यता का विस्तार पंजाब से गंगा-यमुना के मैदानों तक हो गया था। इस काल में स्थायी राज्य और महाजनपदों का उदय हुआ। अब जनों की जगह स्थायी राजनैतिक इकाइयाँ बनने लगीं। '''राजाओं की शक्ति में वृद्धि हु'''ई और वे अब '''देवताओं के प्रतिनिधि''' माने जाने लगे। राजा के अधिकारों को धार्मिक आधार पर मान्यता दी जाने लगी। राजसूय, अश्वमेध, और हिरण्यगर्भ जैसे यज्ञों ने राजा को देवतुल्य बना दिया। राज्य अब वंशानुगत होने लगे और वंशों का विकास हुआ। '''समाज व्यवस्था और वर्ण प्रणाली''' इस काल में वर्ण व्यवस्था अधिक कठोर और जन्म आधारित हो गई। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – ये चार प्रमुख वर्ण स्थापित हुए। ब्राह्मणों ने यज्ञ-कर्म और वेद अध्ययन पर अपना विशेषाधिकार स्थापित किया। क्षत्रिय राज्य की रक्षा करते थे, वैश्य व्यापार और कृषि करते थे, और शूद्रों को सेवा कार्यों तक सीमित कर दिया गया। स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आई। उन्हें अब वेद अध्ययन और यज्ञ में भाग लेने से वंचित किया जाने लगा। विवाह और अन्य सामाजिक संस्थाएँ अधिक पितृसत्तात्मक हो गईं। '''धर्म और दर्शन''' उत्तर वैदिक काल में यज्ञ और कर्मकांड अत्यधिक जटिल हो गए। ब्राह्मणों का प्रभुत्व बढ़ा और वे धार्मिक क्रियाओं के एकमात्र अधिकारी बन बैठे। परंतु इसी समय कुछ विचारकों ने यज्ञ-कर्मकांड के स्थान पर ज्ञान और ध्यान को प्रमुखता दी। इस काल में उपनिषदों का जन्म हुआ – जिन्होंने आत्मा, ब्रह्म, मोक्ष, पुनर्जन्म आदि विषयों पर गहन दर्शन प्रस्तुत किया। ध्यान, साधना, आत्मा की खोज, और अध्यात्मिक मुक्ति जैसे विषयों पर चर्चा होने लगी। यह काल भारतीय दर्शन की नींव डालता है – जिसे आगे चलकर बौद्ध और जैन धर्मों ने भी प्रभावित किया। '''अर्थव्यवस्था और कृषि विकास''' अब कृषि मुख्य व्यवसाय बन चुकी थी। हल, बैल, और सिंचाई की तकनीकों में सुधार हुआ। लोहा इस काल में प्रयुक्त होने लगा, जिससे कृषि उपकरण और हथियार अधिक मजबूत बन पाए। धातु उद्योग, बुनाई, कुम्हारी, और व्यापार का विस्तार हुआ। व्यापारी वर्ग का उदय हुआ – सेठ, श्रेणी, सार्थवाह जैसे शब्द इस समय प्रचलन में आए। मुद्रा का आरंभिक प्रयोग ‘निष्क’ और ‘शतमान’ के रूप में शुरू हुआ। '''शिक्षा और साहित्य''' उत्तर वैदिक काल में गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ। बालक गुरु के आश्रम में रहकर वेद, वेदांग, धर्मशास्त्र, गणित, ज्योतिष, युद्ध कला आदि विषयों की शिक्षा लेते थे। उपनयन संस्कार शिक्षा का प्रारंभिक बिंदु था। इस काल में ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक, और उपनिषद जैसे ग्रंथों की रचना हुई। ये ग्रंथ केवल धार्मिक न होकर दार्शनिक, सामाजिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को भी प्रस्तुत करते हैं। == ३. महाजनपद और शास्त्रीय सभ्यताएँ == '''वैदिक काल''' की समाप्ति के बाद भारत में एक नए युग की शुरुआत हुई जिसे महाजनपद युग कहा जाता है। यह काल लगभग 600 ईसा पूर्व से 300 ईसा पूर्व के मध्य माना जाता है। इस युग में छोटे-छोटे जनों (tribes) की जगह स्थायी और संगठित राज्यों (महाजनपदों) का उदय हुआ। इसी काल को हम शास्त्रीय सभ्यता (Classical Civilization) का प्रारंभिक चरण भी मान सकते हैं, क्योंकि इस समय साहित्य, शासन व्यवस्था, नगर योजना, कूटनीति, युद्ध नीति, व्यापार, धर्म और दर्शन ने अधिक परिपक्व रूप धारण किया। '''- महाजनपद काल: एक परिचय''' '''‘महाजनपद’''' दो शब्दों से मिलकर बना है — '''"महा" अर्थात बड़ा''' और '''"जनपद" अर्थात जनों का निवास स्थान या राज्'''य। वैदिक काल के 'जन' अब संगठित होकर बड़े-बड़े राज्यों के रूप में स्थापित हो गए जिन्हें महाजनपद कहा गया। ''' - 16 महाजनपदों की सूची''' {| class="wikitable" style="text-align:center;" ! महाजनपद !! आधुनिक क्षेत्र |- | अंग || भागलपुर (बिहार) |- | मगध || पटना व गया (बिहार) |- | काशी || वाराणसी (उत्तर प्रदेश) |- | कोशल || फैज़ाबाद व अयोध्या (उत्तर प्रदेश) |- | वज्जि || वैशाली (बिहार) |- | मल्ल || गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) |- | वत्स || कौशांबी (उत्तर प्रदेश) |- | कुरु || हरियाणा व दिल्ली |- | पांचाल || रुहेलखंड (उत्तर प्रदेश) |- | शूरसेन || मथुरा (उत्तर प्रदेश) |- | अश्मक || गोदावरी क्षेत्र (तेलंगाना/महाराष्ट्र) |- | अवंती || उज्जैन (मध्य प्रदेश) |- | गांधार || पाकिस्तान व अफगानिस्तान का हिस्सा |- | कम्बोज || पंजाब/कश्मीर के आसपास |} '''- अर्थव्यवस्था का विकास''' महाजनपद युग में कृषि का व्यापक विकास हुआ। सिंचाई, हल-बैल, लोहे के औजार, और भंडारण तकनीकों के कारण उत्पादन में वृद्धि हुई। अधिक कृषि उपज ने व्यापार और नगरीकरण को जन्म दिया। व्यापार के लिए मुद्रा का प्रचलन भी इसी काल में प्रारंभ हुआ — पंचमार्क (punch-marked coins) नामक चांदी की मुद्राएँ चलन में थीं। भारत का व्यापार पश्चिम एशिया और मध्य एशिया तक विस्तृत हुआ। '''नगरीकरण और नगरों का विकास''' इस युग में कई महत्वपूर्ण नगर विकसित हुए, जैसे: '''राजगृह (राजगीर)''' – मगध की राजधानी '''श्रावस्ती''' – कोशल की राजधानी '''कौशांबी''' – वत्स की राजधानी '''कांची''' – दक्षिण भारत में उभरता नगर '''तक्षशिला''' – गांधार का प्रमुख शिक्षा और व्यापार केंद्र इन नगरों में सड़कों की योजना, किलेबंदी, दुर्ग, तालाब, बाजार, और धार्मिक स्थल आदि प्रमुख रूप से बनाए गए। नगर योजना और स्थापत्य कला इस काल की विशेषता बनी। '''शास्त्रीय सभ्यता का आरंभ''' '''शास्त्रीय सभ्यता का अर्'''थ है — वह काल जब भारत में ज्ञान, कला, साहित्य, शासन व्यवस्था, तथा दर्शन का उच्चतम विकास हुआ। महाजनपद युग इसी शास्त्रीय परंपरा की नींव रखता है। इस काल में: '''धर्म और दर्शन:''' बुद्ध और महावीर का उदय हुआ। बौद्ध व जैन धर्म का विकास हुआ। '''शिक्षा और विद्या केंद्र:''' तक्षशिला, नालंदा (बाद में), उज्जैन आदि शिक्षा के केंद्र बने। '''साहित्य:''' संस्कृत, पालि, प्राकृत भाषाओं में ग्रंथ रचे गए। '''राजनीति:''' कौटिल्य (चाणक्य) द्वारा अर्थशास्त्र की रचना हुई — जो राजनीति और प्रशासन पर अद्वितीय ग्रंथ है। दंड नीति और धर्मशास्त्र की अवधारणा का विकास हुआ। == ४. दक्षिण भारत की सभ्यताएँ == जब उत्तर भारत में वैदिक सभ्यता और महाजनपदों का विकास हो रहा था, उसी समय दक्षिण भारत में भी एक अत्यंत समृद्ध और स्वतंत्र सांस्कृतिक विकास हो रहा था। दक्षिण भारत की सभ्यताएँ — विशेषकर द्रविड़ सभ्यता, संगम युग, और बाद में चोल, चेर और पांड्य राज्यों की परंपराएँ — भारत के सांस्कृतिक इतिहास में एक अत्यंत महत्वपूर्ण अध्याय हैं। यहां की भाषाएँ, लिपियाँ, धर्म, स्थापत्य, कला और समाज व्यवस्था ने एक अलग पहचान बनाई। '''प्रारंभिक सभ्यता और द्रविड़ परंपरा''' दक्षिण भारत की प्राचीनतम पहचान '''द्रविड़ सभ्यता''' से जुड़ी है। ऐसा माना जाता है कि द्रविड़ लोग मूलतः सिन्धु घाटी सभ्यता से संबंधित थे, जो आर्यों के आगमन के बाद दक्षिण भारत में बस गए। द्रविड़ भाषाएँ — जैसे तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम — इसी परंपरा की देन हैं। इन भाषाओं का विकास वैदिक संस्कृत से स्वतंत्र रूप से हुआ, और आज भी ये भाषाएँ दक्षिण भारत की सांस्कृतिक पहचान हैं। '''- संगम युग (300 ई.पू. – 300 ई.)''' दक्षिण भारत के इतिहास में संगम युग एक अत्यंत महत्वपूर्ण युग था। "संगम" का अर्थ है विद्वानों की सभा। तमिलनाडु में तीन प्रमुख संगम (literary assemblies) आयोजित हुए, जिनमें साहित्य, राजनीति, धर्म और समाज पर विस्तृत चर्चा और लेखन हुआ। '''संगम युग के प्रमुख राज्य: * चोल (Chola) – कावेरी नदी के तटीय क्षेत्र में * चेर (Chera) – आधुनिक केरल क्षेत्र में * पांड्य (Pandya) – मदुरै और तिरुनेलवेली क्षेत्र में इन राज्यों ने व्यापार, कृषि, जल-संरचना, शिक्षा और युद्ध कौशल में उच्च स्तर प्राप्त किया था। '''सामाजिक और आर्थिक जीवन''' '''सामाजिक ढांचा:''' संगम युग में समाज जाति पर आधारित न होकर व्यवसाय आधारित था। ब्राह्मणों के अलावा व्यापारी, कृषक, योद्धा, शिल्पकार, नर्तक, गायनकार आदि सभी को सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त थी। महिलाओं को शिक्षा, साहित्य और कला में भाग लेने का पूरा अधिकार था। '''आर्थिक व्यवस्था:''' दक्षिण भारत समुद्री व्यापार का केंद्र था। रोम, मिस्र, अरब और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ व्यापार होता था। सुनार, कुम्हार, बुनकर, मछुआरे, आदि शिल्पकर्मी समाज का अभिन्न हिस्सा थे। नदियों और मानसून आधारित सिंचाई प्रणालियों ने कृषि को समृद्ध किया। '''धान, काली मिर्च, मसाले, रत्न, हाथी-दाँत''' आदि प्रमुख उत्पाद थे। '''युद्ध और समुद्री शक्ति''' दक्षिण भारत की सभ्यताएँ समुद्र के प्रति विशेष रूप से जागरूक थीं। चोलों की नौसेना बहुत शक्तिशाली थी और उन्होंने श्रीलंका, मलेशिया, सुमात्रा जैसे क्षेत्रों तक आक्रमण कर विजय प्राप्त की। वे समुद्र के रास्ते व्यापार के साथ-साथ सांस्कृतिक प्रभाव भी फैलाते थे। == ५. उत्तर-पूर्व और हिमालयी सभ्यताएँ == भारत का उत्तर-पूर्व और हिमालयी क्षेत्र न केवल भौगोलिक दृष्टि से अद्वितीय है, बल्कि यहां की सभ्यताएँ, जनजातियाँ, धार्मिक परंपराएँ और सांस्कृतिक विरासत भी अत्यंत विशिष्ट रही हैं। इस क्षेत्र में प्राकृतिक सौंदर्य के साथ-साथ प्राचीनता, विविधता और जीवंत परंपराओं का गहन मिश्रण मिलता है। यहाँ की सभ्यताएँ मुख्य रूप से जनजातीय समाज, बौद्ध और बौद्ध पूर्व धर्म, स्थानीय देवी-देवता पूजा, तिब्बती प्रभाव, और भारत-तिब्बत-म्यांमार के बीच के सांस्कृतिक आदान-प्रदान पर आधारित रही हैं। '''भौगोलिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि''' उत्तर-पूर्व भारत में प्रमुखतः सात राज्य (जिसे 'सात बहनें' कहा जाता है) आते हैं — असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और त्रिपुरा, साथ ही सिक्किम और उत्तरी पश्चिम बंगाल (दार्जिलिंग, कालिम्पोंग) भी सांस्कृतिक रूप से इस क्षेत्र से जुड़ते हैं। हिमालयी क्षेत्र में मुख्यतः लद्दाख, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और सिक्किम आते हैं, जहाँ बौद्ध, हिंदू, और स्थानीय परंपराओं का गहन मिश्रण देखने को मिलता है। '''उत्तर-पूर्व भारत की सभ्यताएँ''' '''(A) असम और ब्रह्मपुत्र घाटी''' * असम की सभ्यता प्राचीन कामरूप राज्य से जुड़ी है, जिसका उल्लेख महाभारत और पुराणों में मिलता है। * यहाँ कामाख्या मंदिर जैसी शक्तिपीठ है जो शाक्त धर्म का केंद्र है। * बोडो, मिशिंग, करबी, डिमासा जैसे समुदायों ने अपनी विशिष्ट संस्कृतियाँ विकसित कीं। * असम में अहोम वंश (13वीं सदी से 19वीं सदी तक) ने दीर्घकाल तक शासन किया और अद्वितीय प्रशासन और संस्कृति की नींव रखी। '''(B) मणिपुर की सभ्यता''' * मणिपुर की संस्कृति का मूल आधार वैष्णव धर्म और स्थानीय मीतेई (Meitei) परंपरा है। * मणिपुरी नृत्य (रासलीला) की जड़ें गहरी हैं। * यहाँ के लोग संजेंबा, लाइहरोबा जैसे पारंपरिक त्योहार मनाते हैं। '''(C) नागालैंड, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश''' * इन राज्यों में मुख्यतः आदिवासी जनजातियाँ निवास करती हैं — जैसे नागा, मिजो, अपतानी, गालो, न्याशी, आदि। * उनकी जीवनशैली प्रकृति, खेती, बांस कला, शिकार, और पर्व-उत्सवों से जुड़ी होती है। * जनजातीय विश्वासों में पितृ पूजा, प्रकृति पूजा, और बाद में ईसाई धर्म का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखता है। == निष्कर्ष == भारत की सभ्यताओं ने न केवल एक सशक्त सामाजिक ढांचा तैयार किया, बल्कि विज्ञान, खगोलशास्त्र, गणित, योग, आयुर्वेद, और दर्शन जैसे क्षेत्रों में भी अमूल्य योगदान दिया। इन सभी सभ्यताओं की एक विशेषता रही है – समावेशिता और सहिष्णुता, जो भारत की आत्मा है। 6oj0x7an5dvld2es4wj4lcmviwjcsw3 भारत का सांस्कृतिक इतिहास/वेद और उपनिषद 0 11401 82583 2025-06-15T06:53:39Z Baap8969 16001 '=== '''प्रस्तावना'''=== भारत की सांस्कृतिक यात्रा की नींव जिन ग्रंथों पर टिकी हुई है, वे हैं '''वेद और उपनिषद'''। यह ग्रंथ न केवल '''धार्मिक आस्था''' के प्रतीक हैं, बल्कि उन्होंने '''...' के साथ नया पृष्ठ बनाया 82583 wikitext text/x-wiki === '''प्रस्तावना'''=== भारत की सांस्कृतिक यात्रा की नींव जिन ग्रंथों पर टिकी हुई है, वे हैं '''वेद और उपनिषद'''। यह ग्रंथ न केवल '''धार्मिक आस्था''' के प्रतीक हैं, बल्कि उन्होंने '''दर्शन, भाषा, शिक्षा, संगीत, राजनीति, समाज और नैतिक मूल्यों''' को आकार दिया है। भारत के आध्यात्मिक चिंतन और बौद्धिक परंपरा की शुरुआत इन्हीं से मानी जाती है। '''वेद''', जिन्हें श्रुति ग्रंथ कहा जाता है, ज्ञान के सबसे प्राचीन स्रोत हैं। इनका स्वरूप यज्ञों, देवताओं की स्तुति, प्राकृतिक शक्तियों की आराधना तथा कर्मकांडों से जुड़ा रहा। वहीं '''उपनिषद''', वेदों का अंतिम और गूढ़ हिस्सा हैं, जो आत्मा, ब्रह्म, मोक्ष और अस्तित्व जैसे प्रश्नों पर चिंतन करते हैं। इनका रुझान '''ज्ञानमार्ग, तर्क''', और '''आध्यात्मिक अनुभूति''' की ओर है। इस अध्याय में हम जानेंगे कि वेदों और उपनिषदों का भारत की संस्कृति पर क्या प्रभाव पड़ा, उनकी रचना-परंपरा क्या रही, उनकी मुख्य शिक्षाएं, और वे कैसे आज भी प्रासंगिक हैं। यह अध्याय न केवल प्राचीन भारत की धार्मिक नींव को उजागर करता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि कैसे वेद और उपनिषद भारतीय संस्कृति के शाश्वत मूल्यों और जीवन-दृष्टि को परिभाषित करते हैं। ==='''वेद का शाब्दिक और दार्शनिक अर्थ'''=== '''"वेद"''' शब्द संस्कृत की धातु "विद्" से बना है, जिसका अर्थ होता है – जानना, ज्ञान, बोध या समझ। अतः वेद का तात्पर्य है — वह ज्ञान जो सार्वभौमिक, सनातन और अनादि है। भारतीय परंपरा में वेदों को ईश्वर-प्रदत्त माना गया है, जिसे प्राचीन ऋषियों ने ध्यान, तपस्या और अंतर्दृष्टि द्वारा श्रवण के माध्यम से प्राप्त किया, इसलिए इन्हें श्रुति ग्रंथ कहा जाता है। '''वेदों की संख्या और उनका स्वरूप''' '''भारतीय परंपरा में चार वेद माने गए हैं:''' '''ऋग्वेद''' – यह सबसे प्राचीन वेद है, जिसमें 10 मंडलों में विभाजित कुल 1,028 सूक्त हैं। यह देवताओं की स्तुति, प्रकृति पूजा, यज्ञ, समाज और दार्शनिक विचारों का भंडार है। '''यजुर्वेद''' – यह यज्ञों में प्रयुक्त होने वाले मंत्रों और विधियों से संबंधित है। इसमें कर्मकांड और अनुष्ठानों की विस्तृत जानकारी दी गई है। इसे शुक्ल और कृष्ण यजुर्वेद में बाँटा गया है। '''सामवेद''' – यह गान और संगीत से संबंधित वेद है। ऋग्वेद की ऋचाओं को संगीतबद्ध रूप में प्रस्तुत करने के लिए सामवेद का विकास हुआ। यह भारत की संगीत परंपरा की नींव है। '''अथर्ववेद''' – यह जीवन के दैनिक और व्यावहारिक पक्षों को समाहित करता है, जैसे कि औषध, तंत्र, मन्त्र, रोग-निवारण, गृहस्थ जीवन, नीति आदि। इसे "लोक जीवन का वेद" भी कहा जाता है। '''वेदों का आंतरिक विभाजन''' '''प्रत्येक वेद के भीतर चार प्रमुख भाग होते हैं:''' '''संहिता''' – यह मंत्रों और सूक्तों का मूल संग्रह है। '''ब्राह्मण''' – ये ग्रंथ कर्मकांड, यज्ञ-विधियों और तात्त्विक अर्थों का विवरण देते हैं। '''आरण्यक''' – ये ग्रंथ वनवास में अध्ययन के लिए बनाए गए थे और ध्यान, प्रतीकवाद तथा दर्शन से संबंधित होते हैं। '''उपनिषद''' – ये ज्ञान का अंतिम और गूढ़ स्वरूप हैं, जो ब्रह्म और आत्मा की चर्चा करते हैं। इन्हें वेदांत भी कहा जाता है। '''वेदों की मौखिक परंपरा और संरक्षण''' वेदों की सबसे बड़ी विशेषता है – इनका '''मौखिक संरक्षण'''। हजारों वर्षों तक, इनका गुरुकुल परंपरा के माध्यम से स्मृति और उच्चारण के नियमों के साथ पठन-पाठन हुआ। "पदपाठ", "क्रमपाठ", "जटापाठ" जैसी विधियों के माध्यम से शुद्धता बनाए रखी गई। यह विश्व में किसी भी मौखिक साहित्य के सबसे सटीक संरक्षण का उदाहरण है। ==='''उपनिषदों की भूमिका: भारतीय दर्शन का शिखर'''=== '''उपनिषद''' वेदों के अंतिम और सबसे गूढ़ भाग हैं। इन्हें '''वेदांत''' भी कहा जाता है — अर्थात् वेदों का अंतिम (परंतु सर्वोच्च) ज्ञान। जहां वेदों के पहले भाग (संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक) मुख्यतः कर्मकांड और यज्ञ-परंपरा पर केंद्रित थे, वहीं उपनिषदों का लक्ष्य है — ज्ञान, विवेक और आत्मा-ब्रह्म के अद्वैत बोध की प्राप्ति। उपनिषदों की विचारधारा केवल धार्मिक नहीं, अपितु गहन दार्शनिक, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से युक्त है। यह ग्रंथ मानव जीवन के सबसे मौलिक प्रश्नों का उत्तर खोजते हैं — "मैं कौन हूँ?", "मृत्यु के बाद क्या?", "क्या आत्मा अमर है?", "ईश्वर क्या है?", और "सत्य का स्वरूप क्या है?" '''उपनिषद: नाम, संख्या और स्वरूप''' यह सूची मुक्तिका उपनिषद (Muktikā Upaniṣad) में वर्णित उपनिषदों के क्रमानुसार है। # इश उपनिषद (Isha Upaniṣad) # केन उपनिषद (Kena Upaniṣad) # कठ उपनिषद (Katha Upaniṣad) # प्रश्न उपनिषद (Prashna Upaniṣad) # मुण्डक उपनिषद (Mundaka Upaniṣad) # माण्डूक्य उपनिषद (Mandukya Upaniṣad) # तैत्तिरीय उपनिषद (Taittiriya Upaniṣad) # ऐतरेय उपनिषद (Aitareya Upaniṣad) # चाँदोग्य उपनिषद (Chandogya Upaniṣad) # बृहदारण्यक उपनिषद (Brihadaranyaka Upaniṣad) # ब्रह्म उपनिषद (Brahma Upaniṣad) # कैवल्य उपनिषद (Kaivalya Upaniṣad) # जाबाल उपनिषद (Jabala Upaniṣad) # श्वेताश्वतर उपनिषद (Shvetashvatara Upaniṣad) # हंस उपनिषद (Hamsa Upaniṣad) # अरुणेय उपनिषद (Aruneya Upaniṣad) # गर्भ उपनिषद (Garbha Upaniṣad) # नारायण उपनिषद (Narayana Upaniṣad) # परमाहंस उपनिषद (Paramahamsa Upaniṣad) # अमृतबिन्दु उपनिषद (Amritabindu Upaniṣad) # अमृतनाद उपनिषद (Amritanada Upaniṣad) # अथर्वशिर उपनिषद (Atharvashiras Upaniṣad) # अथर्वशिखा उपनिषद (Atharvashikha Upaniṣad) # मैत्रायणीय उपनिषद (Maitrayaniya 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(Mandala-brahmana Upaniṣad) # दक्षिणामूर्ति उपनिषद (Dakshinamurti Upaniṣad) # शराब्ह उपनिषद (Sharabha Upaniṣad) # स्कन्द उपनिषद (Skanda Upaniṣad) # महानारायण उपनिषद (Mahanarayana Upaniṣad) # अद्वयतात्त्रक उपनिषद (Advayataraka Upaniṣad) # रामरहस्य उपनिषद (Rama Rahasya Upaniṣad) # रामतापिनी उपनिषद (Rama Tapaniya Upaniṣad) # वासुदेव उपनिषद (Vasudeva Upaniṣad) # मुड़्गल उपनिषद (Mudgala Upaniṣad) # शाण्डिल्य उपनिषद (Shandilya Upaniṣad) # पैङ्गल उपनिषद (Paingala Upaniṣad) # भिक्षुक उपनिषद (Bhikshuka Upaniṣad) # मह उपनिषद (Maha Upaniṣad) # शारीरक उपनिषद (Sariraka Upaniṣad) # योगशिखा उपनिषद (Yogashikha Upaniṣad) # तुरीयातीतावधूता उपनिषद (Turiyatitavadhuta Upaniṣad) # ब्रहत्सन्न्यास उपनिषद (Brihat-Sannyasa Upaniṣad) # परमाहंसपरिव्राजक उपनिषद (Paramahamsa Parivrajaka Upaniṣad) # अक्षमालिका उपनिषद (Akshamalika Upaniṣad) # अव्यक्त उपनिषद (Avyakta Upaniṣad) # एकाक्षर उपनिषद (Ekakshara Upaniṣad) # अन्नपूर्णा उपनिषद (Annapurna Upaniṣad) # सूर्य उपनिषद (Surya Upaniṣad) # अक्षि उपनिषद (Akshi Upaniṣad) # अध्यात्म उपनिषद (Adhyatma Upaniṣad) # कुण्डिका उपनिषद (Kundika Upaniṣad) # सावित्री उपनिषद (Savitri Upaniṣad) # आत्म उपनिषद (Atma Upaniṣad) # पाशुपतब्रह्म उपनिषद (Pashupatabrahma Upaniṣad) # परब्रह्म उपनिषद (Parabrahma Upaniṣad) # अवधूता उपनिषद (Avadhuta Upaniṣad) # त्रिपुरातपिनी उपनिषद (Tripuratapini Upaniṣad) # देवी उपनिषद (Devi Upaniṣad) # त्रिपुरा उपनिषद (Tripura Upaniṣad) # कठश्रुति उपनिषद (Kathashruti Upaniṣad) # भावना उपनिषद (Bhavana Upaniṣad) # रुद्रहृदय उपनिषद (Rudrahridaya Upaniṣad) # योगाकुण्डलिनी उपनिषद (Yoga-Kundalini Upaniṣad) # भस्म उपनिषद (Bhasma Upaniṣad) # रुद्राक्ष उपनिषद (Rudraksha Upaniṣad) # गणपति उपनिषद (Ganapati Upaniṣad) # दर्शन उपनिषद (Darshana Upaniṣad) # तारसारा उपनिषद (Tarasara Upaniṣad) # महावाक्य उपनिषद (Mahavakya Upaniṣad) # पञ्चब्रह्म उपनिषद (Panchabrahma Upaniṣad) # प्राणाग्निहोत्र उपनिषद (Pranagnihotra Upaniṣad) # गोपालतापिनी उपनिषद (Gopala Tapani Upaniṣad) # कृष्ण उपनिषद (Krishna Upaniṣad) # याज्ञवल्क्य उपनिषद (Yajnavalkya Upaniṣad) # वराह उपनिषद (Varaha Upaniṣad) # शाट्यायनिया उपनिषद (Shatyayaniya Upaniṣad) # हयग्रीव उपनिषद (Hayagriva Upaniṣad) # दत्तात्रेय उपनिषद (Dattatreya Upaniṣad) # गरुड़ उपनिषद (Garuda Upaniṣad) # काली-संतारणा उपनिषद (Kali-Santarana Upaniṣad) # जाबली उपनिषद (Jabali Upaniṣad) # सौभाग्यलक्ष्मी उपनिषद (Saubhagyalakshmi Upaniṣad) # सरस्वतीरहस्य उपनिषद (Sarasvati-rahasya Upaniṣad) # बह्वृच उपनिषद (Bahvricha Upaniṣad) # मुक्तिका उपनिषद (Muktikā Upaniṣad) '''उपनिषदों की प्रमुख शिक्षाएँ''' '''1. अद्वैतवाद (Non-dualism)''' '''ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः''' — उपनिषदों का यह प्रसिद्ध सिद्धांत कहता है कि ब्रह्म ही सत्य है, संसार माया है, और जीव वास्तव में ब्रह्म ही है। आत्मा और ब्रह्म में कोई भिन्नता नहीं है, बस अज्ञान (अविद्या) के कारण हमें भेद प्रतीत होता है। '''2. आत्मा की अमरता''' '''न जायते म्रियते वा कदाचित्''', अर्थात आत्मा न कभी जन्म लेती है, न कभी मरती है। आत्मा शाश्वत, अजन्मा, अजर और अविनाशी है। '''3. ‘तत्त्वमसि’ (Thou art that)''' '''छांदोग्य उपनिषद''' में यह महावाक्य आता है – '''“तत्त्वमसि”''' – अर्थात् तू वही है। यह आत्मा और ब्रह्म के अद्वैत संबंध को दर्शाता है। '''4. ‘अहं ब्रह्मास्मि’ (I am Brahman)''' '''बृहदारण्यक उपनिषद''' का यह महावाक्य आत्मसाक्षात्कार की पराकाष्ठा है। यह आत्मज्ञान का चरम है कि "मैं ही ब्रह्म हूँ"। '''5. ज्ञानी ही मुक्त होता है''' '''उपनिषदों''' में यह शिक्षा दी गई है कि कर्मों से नहीं, अपितु ज्ञान (आत्मबोध) से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह ज्ञान – आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जानकर ही मिलता है। '''निष्कर्ष''' '''उपनिषद''' केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, वे '''ब्रह्मांड, आत्मा और चेतना''' के रहस्यों को जानने की एक खोज हैं। वे मानवता को यह सिखाते हैं कि सच्चा ज्ञान वह है जो '''स्वयं की पहचान''' से शुरू होता है। उपनिषदों की अद्वैतवादी दृष्टि ने भारतीय संस्कृति को वह गहराई और उदात्तता दी, जिसकी तुलना विश्व के किसी भी दार्शनिक प्रणाली से की जा सकती है। ''आज जब मानवता बाह्य सुखों में खो रही है, तब उपनिषद हमें आंतरिक शांति और आत्मज्ञान की ओर बुलाते हैं।'' ==='''वेद–उपनिषद का भारतीय संस्कृति पर प्रभाव'''=== '''भारतीय संस्कृति''' विश्व की प्राचीनतम और निरंतर विकसित होती हुई संस्कृतियों में से एक है। इसकी जड़ें अत्यंत गहराई तक फैली हुई हैं, और इन जड़ों का पोषण '''वेदों और उपनिषदों''' से हुआ है। वेद जहाँ भारतीय संस्कृति के सृजन और मूल आधार हैं, वहीं उपनिषदों ने इसके दर्शन, ज्ञान और चेतना को दिशा दी। दोनों ने मिलकर भारतीय समाज, जीवन-दृष्टि, विचारधारा और जीवन-मूल्यों की रूपरेखा तैयार की। '''धार्मिक और आध्यात्मिक प्रभाव''' वेदों ने भारत में '''धर्म और आध्यात्म''' की आधारशिला रखी। वेदों के मंत्रों और सूक्तों ने ईश्वर, प्रकृति, यज्ञ, मंत्र और आत्मा के स्वरूप की गूढ़ व्याख्या की। वहीं उपनिषदों ने आत्मा और ब्रह्म के अद्वैत संबंध को स्पष्ट कर '''आत्मज्ञान को मोक्ष का साधन''' बताया। उदाहरणस्वरूप: '''"अहं ब्रह्मास्मि"''' (मैं ब्रह्म हूँ) "तत्त्वमसि"''' (तू वही है) इन जैसे महावाक्यों ने भारतीय संस्कृति को आध्यात्मिक सार्वभौमिकता का दृष्टिकोण दिया। '''नैतिक और जीवन मूल्य''' वेद–उपनिषदों ने केवल धार्मिक जीवन की बात नहीं की, बल्कि नैतिक मूल्यों की भी स्थापना की। सत्य, अहिंसा, करुणा, तप, क्षमा, दया, संयम जैसे गुणों को जीवन का आवश्यक अंग बताया गया। उपनिषदों में स्पष्ट कहा गया है – <div style="background-color:whitesmoke; border-left: 4px solid blue; border-radius:10px; padding-left:10px;> "सत्यमेव जयते" (सत्य की ही जीत होती है)<br> "धर्मं चर, सत्यं वद" (धर्म का पालन करो, सत्य बोलो)<br> ये विचार आज भी भारतीय समाज में नैतिक आदर्श के रूप में मौजूद हैं। </div> '''शिक्षा और ज्ञान पर प्रभाव''' वेद–उपनिषद भारतीय शैक्षिक परंपरा के मूल स्रोत हैं। गुरुकुल प्रणाली, गुरु-शिष्य परंपरा, स्मृति और मनन पर आधारित शिक्षा विधि — सब वेदों से उत्पन्न हुईं। उपनिषदों की संवाद शैली ने भारतीय शिक्षा को प्रश्नोत्तर आधारित चिंतनशील प्रणाली में बदला। शिक्षा को मात्र रटने नहीं, बल्कि '''आत्म-बोध और विवेकपूर्ण जीवन जीने की प्रक्रिय'''ा माना गया। '''समाज व्यवस्था पर प्रभाव''' वेदों ने समाज को संगठित करने के लिए वर्ण व्यवस्था और आश्रम व्यवस्था की परिकल्पना की थी। '''वर्ण व्यवस्था''' का उद्देश्य सामाजिक विभाजन नहीं बल्कि कार्य-विभाजन था। '''आश्रम व्यवस्था''' ने व्यक्ति के जीवन को चार चरणों – '''ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास''' – में विभाजित कर उसे संतुलन सिखाया। वेदों ने स्त्रियों को भी ज्ञान प्राप्ति, यज्ञ, ऋचाओं के उच्चारण तक की स्वतंत्रता दी थी। '''विज्ञान, चिकित्सा और पर्यावरण के क्षेत्र में प्रभाव''' '''अथर्ववेद''' में औषधियों, चिकित्सा, शरीर रचना और रोगों की जानकारी दी गई है। '''ऋग्वेद''' में पर्यावरण, जल, अग्नि, वायु, आकाश जैसे पंचतत्त्वों की पूजा का वर्णन है, जिससे भारतीय संस्कृति में '''प्राकृतिक संतुलन और पर्यावरण संरक्षण''' की भावना जन्मी। '''उपनिषदों''' में चेतना और मन के स्तरों का गहन विश्लेषण मिलता है, जो आज के मनोविज्ञान से मेल खाता है '''सांस्कृतिक और कलात्मक प्रभाव''' '''सामवेद''' से भारतीय संगीत की नींव रखी गई। '''वेदों में वर्णित यज्ञ''' और '''अनुष्ठान से नाट्य,''' '''नृत्य और चित्रकला''' की उत्पत्ति हुई। '''उपनिषदों की प्रतीकात्मकता''' ने कला और साहित्य में गहराई और भाव-समृद्धि जोड़ी। नाट्यशास्त्र, भरतनाट्यम, कथक, और भारतीय वास्तुकला पर भी वेद–उपनिषदों का सूक्ष्म प्रभाव देखा जा सकता है। ==='''निष्कर्ष'''=== '''वेद''' और '''उपनिषद''' केवल धर्मग्रंथ नहीं हैं – ये भारत की '''आध्यात्मिक आत्मा, बौद्धिक धरोहर, और सांस्कृतिक मूलधारा के स्तंभ''' हैं। आज जब दुनिया पर्यावरण, शांति, ध्यान और योग की ओर लौट रही है, तब भारत की वैदिक विरासत को समझना और अपनाना पहले से अधिक आवश्यक हो गया है। snrr4kp5ipv1fxl3mpu5936m9devb0o भारत का सांस्कृतिक इतिहास 0 11402 82584 2025-06-15T06:58:55Z Baap8969 16001 '= भारत का सांस्कृतिक इतिहास = यह पुस्तक भारत की समृद्ध और विविध सांस्कृतिक परंपराओं, इतिहास, और विरासत को समझने के लिए समर्पित है। == अध्याय सूची == # [[/भारत की सभ्यताएँ/]] # ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया 82584 wikitext text/x-wiki = भारत का सांस्कृतिक इतिहास = यह पुस्तक भारत की समृद्ध और विविध सांस्कृतिक परंपराओं, इतिहास, और विरासत को समझने के लिए समर्पित है। == अध्याय सूची == # [[/भारत की सभ्यताएँ/]] # [[/वेद और उपनिषद/]] # [[/बौद्ध और जैन धर्म/]] # [[/मौर्य और गुप्त साम्राज्य/]] # [[/मध्यकालीन भारत/]] # [[/भक्ति आंदोलन/]] # [[/मुगलकाल/]] # [[/ब्रिटिश राज/]] # [[/स्वतंत्रता संग्राम/]] # [[/आधुनिक भारत/]] # [[/त्योहार और परंपराएं/]] # [[/भाषा और साहित्य/]] # [[/कला और स्थापत्य/]] # [[/भारतीय दर्शन/]] # [[/भारत की विविधता/]] 999pzv2m2q25vpl38xinhopfwxigulp 82602 82584 2025-06-15T10:36:47Z Baap8969 16001 82602 wikitext text/x-wiki <div style="background: linear-gradient(to right, #fffaf0, #f0e6d2); border:4px solid #a0522d; padding:25px; border-radius:15px; box-shadow: 2px 2px 10px #ccc; font-family: 'Segoe UI', 'Noto Sans Devanagari', sans-serif;"> <center> <span style="font-size:300%; font-weight:bold; color:#8b0000; text-shadow: 1px 1px 2px #d2b48c;">📘 भारत का सांस्कृतिक इतिहास 📘</span> <br> <span style="font-size:140%; color:#5a3d1e;"><i>(A Cultural History of India)</i></span> </center> <hr style="border:1px solid #a0522d;"> <p style="font-size:125%; line-height:1.8; color:#000000; margin: 10px 0 20px 0;"> <b>भारत</b>की संस्कृति कोई स्थिर और सीमित परंपरा नहीं, बल्कि एक <span style="color:#8b0000;"><b>सतत प्रवाहमान सभ्यताओं की धारा है,</b></span> जो सिंधु घाटी की नगर सभ्यता से लेकर आज के डिजिटल भारत तक, अनगिनत सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और दार्शनिक आंदोलनों से होकर गुज़री है। इसकी विशेषता यह है कि यह न तो केवल प्राचीन ग्रंथों में सीमित है, न ही किसी एक धर्म, जाति या भाषा की बपौती। यह संस्कृति वास्तव में एक सर्वसमावेशी चेतना है, जो विविधताओं को आत्मसात कर उसे अपनी शक्ति में बदलती है।<br><br> भारतीय संस्कृति में धर्म और दर्शन केवल पूजा-पद्धतियाँ या मत-मतांतर नहीं हैं, बल्कि जीवन जीने की शैली हैं। वेदों की ऋचाओं से लेकर उपनिषदों की गूढ़ विचारधाराओं तक, जैन और बौद्ध दर्शन की अहिंसा की भावना से लेकर भगवद्गीता के कर्मयोग तक — सबने भारतीय जीवन की सोच को आकार दिया है।<br><br> कला और स्थापत्य ने इस संस्कृति को दृश्य रूप दिया। अजन्ता-एलोरा की गुफाओं की चित्रकला, कोणार्क और खजुराहो के मंदिरों की वास्तुकला, मीनाक्षी मंदिर की नक्काशी, और मुग़लकालीन इमारतों की भव्यता — यह सब मिलकर दर्शाते हैं कि भारत की संस्कृति श्रृंगार, भक्ति, नीति और सौंदर्य का अद्भुत संगम है।<br><br> संगीत और नृत्य, चाहे वह उत्तर भारत का हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत हो या दक्षिण भारत का कर्नाटिक संगीत, भरतनाट्यम, कथक, ओडिसी या कुचिपुड़ी — यह सभी केवल कला नहीं, बल्कि आध्यात्मिक अनुशासन का माध्यम हैं। वे आत्मा की गहराइयों तक पहुँचने का साधन हैं।<br><br> साहित्य और भाषा में भी भारत की सांस्कृतिक विविधता स्पष्ट है। संस्कृत, तमिल, पाली, ब्रज, अवधी, उर्दू, हिंदी, मराठी, बंगाली, असमिया से लेकर आधुनिक भारतीय भाषाओं तक — हर भाषा ने अपनी-अपनी कालजयी कृतियों से भारत की सांस्कृतिक आत्मा को स्वर दिया है। तुलसीदास की रामचरितमानस, कालिदास के नाटक, कबीर और सूर के पद, रवींद्रनाथ ठाकुर की कविताएँ, प्रेमचंद की कहानियाँ — सबमें भारत की विविध परतें छिपी हैं।<br> त्योहार और परंपराएँ केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं हैं, वे जीवन की लय हैं — ऋतुओं के अनुसार, कृषि के अनुसार, जीवनचक्र के अनुसार। होली, दिवाली, ईद, बैसाखी, पोंगल, ओणम, बुढ़ी दीपावली, छठ, संक्रांति, लोहड़ी — हर त्योहार केवल एक पर्व नहीं, बल्कि सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का उत्सव है।<br><br> भारत की संस्कृति की सबसे अनोखी बात यह है कि इसमें विरोधाभास भी सह-अस्तित्व में रहते हैं। यहाँ चार्वाक जैसे नास्तिक दर्शन भी हैं, और वेदांत की अतिआध्यात्मिकता भी; यहाँ भक्ति आंदोलन की सहजता भी है और योग की कठोर साधना भी। यहाँ धर्म और अधर्म का संघर्ष केवल महाभारत में नहीं, बल्कि समाज के हर स्तर पर चलता रहा है — और यह संघर्ष ही संस्कृति को दिशा देता है।<br> <span style="color:#8b0000;"><b>भारत एक राष्ट्र नहीं, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक महागाथा है </b></span> — क्योंकि इसकी मिट्टी में कहानियाँ हैं, इसकी हवाओं में संगीत है, इसकी भूमि पर पग-पग पर तीर्थ हैं, और इसकी आत्मा में एक सार्वभौमिक मानवतावाद बसता है। </p> <div style="background-color:#fffbe0; border-left:6px solid #d2691e; padding:15px; font-size:115%; border-radius:10px;"> <b>पुस्तक का उद्देश्य:</b> भारत की सांस्कृतिक जड़ों, विविधताओं और विकास यात्रा को समग्रता में समझना और प्रस्तुत करना। यह पुस्तक विशेषकर छात्रों, शिक्षकों, शोधार्थियों और भारतीय संस्कृति में रुचि रखने वालों के लिए उपयोगी है। </div> <hr style="border:1px dashed #8b0000; margin-top:30px;"> == <span style="color:#d2691e; font-size:140%;"> अध्याय सूची</span> == <div style="background-color:#f9f3e3; border:2px solid #deb887; padding:15px 30px; border-radius:10px; font-size:120%; line-height:1.8; box-shadow: 1px 1px 5px #ccc;"> # [[/भारत की सभ्यताएँ/|भारत की सभ्यताएँ]] # [[/वेद और उपनिषद/|वेद और उपनिषद]] # [[/बौद्ध और जैन धर्म/|बौद्ध और जैन धर्म]] # [[/मौर्य और गुप्त साम्राज्य/|मौर्य और गुप्त साम्राज्य]] # [[/मध्यकालीन भारत/|मध्यकालीन भारत]] # [[/भक्ति आंदोलन/|भक्ति आंदोलन]] # [[/मुगलकाल/|मुगलकाल]] # [[/ब्रिटिश राज/|ब्रिटिश राज]] # [[/स्वतंत्रता संग्राम/|स्वतंत्रता संग्राम]] # [[/आधुनिक भारत/|आधुनिक भारत]] # [[/त्योहार और परंपराएं/|त्योहार और परंपराएं]] # [[/भाषा और साहित्य/|भाषा और साहित्य]] # [[/कला और स्थापत्य/|कला और स्थापत्य]] </div> <hr style="border:1px dotted #8b0000; margin-top:30px;"> == <span style="color:#4b0082; font-size:135%;"> लक्ष्य और विशेषताएँ</span> == <ul style="font-size:115%; color:#333333; line-height:1.6;"> <li> भारत के सांस्कृतिक इतिहास का कालक्रमानुसार विश्लेषण</li> <li> धर्म, कला, संगीत, स्थापत्य, त्योहारों और दर्शन का समावेश</li> <li> शिक्षण, प्रतियोगिता परीक्षा और शोध के लिए उपयोगी स्रोत</li> <li> हर अध्याय में चित्र, संदर्भ, तालिकाएँ, और उदाहरण</li> </ul> <hr style="border:1px solid #a0522d;"> <div style="background-color:#fff0f5; padding:15px 20px; border-left:6px solid #8b0000; border-radius:8px; font-size:115%; font-style:italic; box-shadow: 1px 1px 5px #aaa;"> <b>विशेष उद्धरण:</b> <br> <center> “संस्कृति मनुष्य के व्यवहार, विश्वास और मूल्यों का आईना है। भारत की संस्कृति विश्व में अद्वितीय है क्योंकि इसमें सहिष्णुता, विविधता और आध्यात्मिकता का संगम है।” </center> </div> </div> oex6pbe8ufr774hw6w6i3d6ckjvohjo 82603 82602 2025-06-15T10:38:56Z Baap8969 16001 82603 wikitext text/x-wiki <div style="background: linear-gradient(to right, #fffaf0, #f0e6d2); border:4px solid #a0522d; padding:25px; border-radius:15px; box-shadow: 2px 2px 10px #ccc; font-family: 'Segoe UI', 'Noto Sans Devanagari', sans-serif;"> <center> <span style="font-size:300%; font-weight:bold; color:#8b0000; text-shadow: 1px 1px 2px #d2b48c;">📘 भारत का सांस्कृतिक इतिहास </span> <br> <span style="font-size:140%; color:#5a3d1e;"><i>(A Cultural History of India)</i></span> </center> <hr style="border:1px solid #a0522d;"> <p style="font-size:125%; line-height:1.8; color:#000000; margin: 10px 0 20px 0;"> <b>भारत</b>की संस्कृति कोई स्थिर और सीमित परंपरा नहीं, बल्कि एक <span style="color:#8b0000;"><b>सतत प्रवाहमान सभ्यताओं की धारा है,</b></span> जो सिंधु घाटी की नगर सभ्यता से लेकर आज के डिजिटल भारत तक, अनगिनत सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और दार्शनिक आंदोलनों से होकर गुज़री है। इसकी विशेषता यह है कि यह न तो केवल प्राचीन ग्रंथों में सीमित है, न ही किसी एक धर्म, जाति या भाषा की बपौती। यह संस्कृति वास्तव में एक सर्वसमावेशी चेतना है, जो विविधताओं को आत्मसात कर उसे अपनी शक्ति में बदलती है।<br><br> भारतीय संस्कृति में धर्म और दर्शन केवल पूजा-पद्धतियाँ या मत-मतांतर नहीं हैं, बल्कि जीवन जीने की शैली हैं। वेदों की ऋचाओं से लेकर उपनिषदों की गूढ़ विचारधाराओं तक, जैन और बौद्ध दर्शन की अहिंसा की भावना से लेकर भगवद्गीता के कर्मयोग तक — सबने भारतीय जीवन की सोच को आकार दिया है।<br><br> कला और स्थापत्य ने इस संस्कृति को दृश्य रूप दिया। अजन्ता-एलोरा की गुफाओं की चित्रकला, कोणार्क और खजुराहो के मंदिरों की वास्तुकला, मीनाक्षी मंदिर की नक्काशी, और मुग़लकालीन इमारतों की भव्यता — यह सब मिलकर दर्शाते हैं कि भारत की संस्कृति श्रृंगार, भक्ति, नीति और सौंदर्य का अद्भुत संगम है।<br><br> संगीत और नृत्य, चाहे वह उत्तर भारत का हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत हो या दक्षिण भारत का कर्नाटिक संगीत, भरतनाट्यम, कथक, ओडिसी या कुचिपुड़ी — यह सभी केवल कला नहीं, बल्कि आध्यात्मिक अनुशासन का माध्यम हैं। वे आत्मा की गहराइयों तक पहुँचने का साधन हैं।<br><br> साहित्य और भाषा में भी भारत की सांस्कृतिक विविधता स्पष्ट है। संस्कृत, तमिल, पाली, ब्रज, अवधी, उर्दू, हिंदी, मराठी, बंगाली, असमिया से लेकर आधुनिक भारतीय भाषाओं तक — हर भाषा ने अपनी-अपनी कालजयी कृतियों से भारत की सांस्कृतिक आत्मा को स्वर दिया है। तुलसीदास की रामचरितमानस, कालिदास के नाटक, कबीर और सूर के पद, रवींद्रनाथ ठाकुर की कविताएँ, प्रेमचंद की कहानियाँ — सबमें भारत की विविध परतें छिपी हैं।<br> त्योहार और परंपराएँ केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं हैं, वे जीवन की लय हैं — ऋतुओं के अनुसार, कृषि के अनुसार, जीवनचक्र के अनुसार। होली, दिवाली, ईद, बैसाखी, पोंगल, ओणम, बुढ़ी दीपावली, छठ, संक्रांति, लोहड़ी — हर त्योहार केवल एक पर्व नहीं, बल्कि सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का उत्सव है।<br><br> भारत की संस्कृति की सबसे अनोखी बात यह है कि इसमें विरोधाभास भी सह-अस्तित्व में रहते हैं। यहाँ चार्वाक जैसे नास्तिक दर्शन भी हैं, और वेदांत की अतिआध्यात्मिकता भी; यहाँ भक्ति आंदोलन की सहजता भी है और योग की कठोर साधना भी। यहाँ धर्म और अधर्म का संघर्ष केवल महाभारत में नहीं, बल्कि समाज के हर स्तर पर चलता रहा है — और यह संघर्ष ही संस्कृति को दिशा देता है।<br> <span style="color:#8b0000;"><b>भारत एक राष्ट्र नहीं, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक महागाथा है </b></span> — क्योंकि इसकी मिट्टी में कहानियाँ हैं, इसकी हवाओं में संगीत है, इसकी भूमि पर पग-पग पर तीर्थ हैं, और इसकी आत्मा में एक सार्वभौमिक मानवतावाद बसता है। </p> <div style="background-color:#fffbe0; border-left:6px solid #d2691e; padding:15px; font-size:115%; border-radius:10px;"> <b>पुस्तक का उद्देश्य:</b> भारत की सांस्कृतिक जड़ों, विविधताओं और विकास यात्रा को समग्रता में समझना और प्रस्तुत करना। यह पुस्तक विशेषकर छात्रों, शिक्षकों, शोधार्थियों और भारतीय संस्कृति में रुचि रखने वालों के लिए उपयोगी है। </div> <hr style="border:1px dashed #8b0000; margin-top:30px;"> == <span style="color:#d2691e; font-size:140%;"> अध्याय सूची</span> == <div style="background-color:#f9f3e3; border:2px solid #deb887; padding:15px 30px; border-radius:10px; font-size:120%; line-height:1.8; box-shadow: 1px 1px 5px #ccc;"> # [[/भारत की सभ्यताएँ/|भारत की सभ्यताएँ]] # [[/वेद और उपनिषद/|वेद और उपनिषद]] # [[/बौद्ध और जैन धर्म/|बौद्ध और जैन धर्म]] # [[/मौर्य और गुप्त साम्राज्य/|मौर्य और गुप्त साम्राज्य]] # [[/मध्यकालीन भारत/|मध्यकालीन भारत]] # [[/भक्ति आंदोलन/|भक्ति आंदोलन]] # [[/मुगलकाल/|मुगलकाल]] # [[/ब्रिटिश राज/|ब्रिटिश राज]] # [[/स्वतंत्रता संग्राम/|स्वतंत्रता संग्राम]] # [[/आधुनिक भारत/|आधुनिक भारत]] # [[/त्योहार और परंपराएं/|त्योहार और परंपराएं]] # [[/भाषा और साहित्य/|भाषा और साहित्य]] # [[/कला और स्थापत्य/|कला और स्थापत्य]] </div> <hr style="border:1px dotted #8b0000; margin-top:30px;"> == <span style="color:#4b0082; font-size:135%;"> लक्ष्य और विशेषताएँ</span> == <ul style="font-size:115%; color:#333333; line-height:1.6;"> <li> भारत के सांस्कृतिक इतिहास का कालक्रमानुसार विश्लेषण</li> <li> धर्म, कला, संगीत, स्थापत्य, त्योहारों और दर्शन का समावेश</li> <li> शिक्षण, प्रतियोगिता परीक्षा और शोध के लिए उपयोगी स्रोत</li> <li> हर अध्याय में चित्र, संदर्भ, तालिकाएँ, और उदाहरण</li> </ul> <hr style="border:1px solid #a0522d;"> <div style="background-color:#fff0f5; padding:15px 20px; border-left:6px solid #8b0000; border-radius:8px; font-size:115%; font-style:italic; box-shadow: 1px 1px 5px #aaa;"> <b>विशेष उद्धरण:</b> <br> <center> “संस्कृति मनुष्य के व्यवहार, विश्वास और मूल्यों का आईना है। भारत की संस्कृति विश्व में अद्वितीय है क्योंकि इसमें सहिष्णुता, विविधता और आध्यात्मिकता का संगम है।” </center> </div> </div> hvh732avwv2d7t3vm10pfvwc7azt1br भारत का सांस्कृतिक इतिहास/बौद्ध और जैन धर्म 0 11403 82585 2025-06-15T07:17:56Z Baap8969 16001 '== बौद्ध और जैन धर्म == === प्रस्तावना === छठी शताब्दी ईसा पूर्व का भारत गहन सामाजिक, धार्मिक और वैचारिक उथल-पुथल से गुजर रहा था। वैदिक धर्म की जटिलता, ब्राह्मणवाद की श्रेष्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया 82585 wikitext text/x-wiki == बौद्ध और जैन धर्म == === प्रस्तावना === छठी शताब्दी ईसा पूर्व का भारत गहन सामाजिक, धार्मिक और वैचारिक उथल-पुथल से गुजर रहा था। वैदिक धर्म की जटिलता, ब्राह्मणवाद की श्रेष्ठता की भावना, यज्ञ-कर्मकांडों का प्रचलन, और समाज में व्याप्त जातिगत असमानता ने जनमानस में असंतोष पैदा कर दिया था। यह समय एक ऐसे धार्मिक परिवर्तन की मांग कर रहा था जो सरल, नैतिक और जनसामान्य के लिए सुलभ हो। ऐसे परिवेश में दो महान धार्मिक और दार्शनिक विचारधाराओं – बौद्ध धर्म और जैन धर्म – का जन्म हुआ। इन धर्मों ने आत्मज्ञान, करुणा, अहिंसा, तप और आचार की शुद्धता पर बल देकर भारतीय संस्कृति को एक नई दिशा प्रदान की। === बौद्ध धर्म === ==== संस्थापक: महात्मा बुद्ध ==== महात्मा बुद्ध, जिनका वास्तविक नाम सिद्धार्थ गौतम था, का जन्म 563 ई.पू. में लुंबिनी (वर्तमान नेपाल) में हुआ था। वे शाक्य गणराज्य के राजा शुद्धोधन और महारानी महामाया के पुत्र थे। बचपन से ही वे एक संवेदनशील और जिज्ञासु प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। जब उन्होंने जीवन के चार महान सत्य – जन्म, वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु – को देखा तो उन्हें संसार की नश्वरता का बोध हुआ। 29 वर्ष की आयु में उन्होंने घर-परिवार का त्याग कर महाभिनिष्क्रमण किया और सत्य की खोज में निकल पड़े। छह वर्षों तक उन्होंने कठोर तप किया, परंतु जब उन्हें ज्ञात हुआ कि अत्यधिक तप या भोग दोनों ही मोक्ष के लिए उपयुक्त नहीं हैं, तब उन्होंने मध्यम मार्ग का अनुसरण किया। बोधगया (बिहार) में पीपल वृक्ष के नीचे ध्यान करते हुए उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे बुद्ध (बुद्धिमान/जाग्रत) कहलाए। ==== प्रमुख सिद्धांत ==== बुद्ध ने जो सत्य प्रतिपादित किए, वे चार महान सिद्धांतों में वर्णित हैं जिन्हें चार आर्य सत्य कहा जाता है। ये सिद्धांत बौद्ध धर्म का मूल आधार हैं: ===== चार आर्य सत्य ===== '''दुःख''' – संसार में सभी प्राणी दुःख से ग्रसित हैं। जन्म, मरण, रोग, वियोग, नापसंद को झेलना आदि सभी दुःख हैं। '''दुःख का कारण तृष्णा''' – इच्छाएं, वासनाएं, और मोह ही दुःख का कारण हैं। मनुष्य की अतृप्त तृष्णा ही उसे बार-बार जन्म देती है। '''दुःख का निरोध संभव है''' – यदि तृष्णा का अंत कर दिया जाए तो दुःख का भी अंत हो सकता है। इसे निर्वाण कहते हैं। '''दुःख के निरोध का मार्ग''' – अष्टांगिक मार्ग – इस मार्ग के पालन से मनुष्य तृष्णा से मुक्त हो सकता है। ===== अष्टांगिक मार्ग ===== सम्यक दृष्टि – सत्य को सही रूप में देखना। सम्यक संकल्प – बुरे कार्यों से बचने और अच्छे कार्य करने का संकल्प। सम्यक वाक् – मधुर, सत्य और प्रिय वाणी बोलना। सम्यक कर्म – नैतिक और शुद्ध आचरण करना। सम्यक आजीविका – ऐसी जीविका अपनाना जो किसी को हानि न पहुँचाए। सम्यक प्रयास – सत्कर्मों की ओर निरंतर प्रयास करना। सम्यक स्मृति – विचारों व कृत्यों पर सजग रहना। सम्यक समाधि – एकाग्रचित्त होकर ध्यान में लीन होना। ==== अहिंसा और करुणा ==== बौद्ध धर्म में अहिंसा केवल बाह्य हिंसा से बचने का निर्देश नहीं देती, बल्कि यह मानसिक क्रोध, द्वेष, घृणा, और प्रतिशोध की भावना से भी मुक्ति पाने पर बल देती है। बुद्ध ने करुणा को धर्म का मूल बताया। उनका मानना था कि सभी प्राणी दुःख से मुक्ति पाना चाहते हैं और उन्हें समान दया और सम्मान मिलना चाहिए। बौद्ध भिक्षु और अनुयायी सभी जीवों के प्रति करुणा, क्षमा और मित्रता का व्यवहार करते थे। यही गुण बौद्ध धर्म को विश्व में स्वीकार्य और प्रिय बनाते हैं। ==== बौद्ध संप्रदाय ==== '''हीनयान''' – यह संप्रदाय बुद्ध को केवल एक महान शिक्षक मानता है, न कि ईश्वर। मोक्ष प्राप्ति को केवल व्यक्तिगत प्रयासों द्वारा संभव मानता है। इसके अनुयायी कठोर आचरण और भिक्षु जीवन का पालन करते हैं। यह संप्रदाय श्रीलंका, बर्मा, थाईलैंड आदि में प्रचलित है। '''महायान''' – यह बुद्ध को ईश्वर स्वरूप मानता है और उसकी पूजा करता है। इसमें बोधिसत्वों की उपासना की जाती है जो दूसरों के उद्धार के लिए स्वयं मोक्ष नहीं लेते। यह चीन, जापान, कोरिया और नेपाल में अधिक प्रचलित है। '''वज्रयान''' – यह महायान से विकसित संप्रदाय है जिसमें तंत्र, मन्त्र और योग का विशेष स्थान है। यह तिब्बत में प्रचलित है और लामा परंपरा से जुड़ा हुआ है। ==== बौद्ध धर्म का प्रसार ==== '''बौद्ध धर्म''' का प्रसार भारत में ही नहीं, बल्कि एशिया के अन्य कई देशों में भी हुआ। इसका विस्तार कई कारणों से संभव हुआ: '''महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं की सरलता:''' बुद्ध की वाणी जनसामान्य की भाषा (पाली) में थी, जिसमें कोई जटिलता नहीं थी। उन्होंने जीवन की वास्तविक समस्याओं को पहचाना और उनके समाधान दिए। '''मौर्य सम्राट अशोक का योगदान:''' सम्राट अशोक (268–232 ई.पू.) ने कलिंग युद्ध के बाद बौद्ध धर्म को अपनाया और इसके प्रचार-प्रसार को राज्याश्रय प्रदान किया। उन्होंने भारत के विभिन्न भागों में स्तूप, विहार और शिलालेख बनवाए तथा अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका में धर्मप्रचार के लिए भेजा। '''बौद्ध संघों की स्थापना:''' बौद्ध भिक्षु संघों ने व्यवस्थित ढंग से धर्म का प्रचार किया। वे विभिन्न क्षेत्रों में जाकर लोगों को बौद्ध धर्म की शिक्षाएँ देते थे। '''शिक्षा और विहारों की भूमिका:''' नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला जैसे प्रसिद्ध बौद्ध विश्वविद्यालयों ने धर्म और दर्शन के अध्ययन को बढ़ावा दिया। इन संस्थानों में भारत ही नहीं, बल्कि तिब्बत, चीन, जापान और दक्षिण एशिया से छात्र आते थे। '''सांस्कृतिक और व्यापारिक संपर्क:''' व्यापारियों और बौद्ध भिक्षुओं के माध्यम से यह धर्म चीन, तिब्बत, जापान, कोरिया, थाईलैंड, म्यांमार, कंबोडिया, वियतनाम, श्रीलंका आदि देशों में फैला। '''बौद्ध धर्म की उदारता:''' यह धर्म किसी जाति या वर्ण की श्रेष्ठता को नहीं मानता था। यह सभी के लिए खुला था। इसमें भिक्षुओं और गृहस्थों दोनों के लिए स्थान था। '''बोधिसत्वों की अवधारणा (महायान परंपरा में):''' लोगों ने बोधिसत्वों को सहायक मार्गदर्शक के रूप में स्वीकार किया, जिससे धार्मिक भावना में गहराई आई। '''शांति और सह-अस्तित्व का संदेश:''' युद्ध और सामाजिक तनाव से ग्रस्त समाजों ने बौद्ध धर्म के शांति, अहिंसा और सह-अस्तित्व के संदेश को सहजता से अपनाया। ''इस प्रकार, बौद्ध धर्म एक वैश्विक धर्म बना और आज भी यह विश्व के कई हिस्सों में प्रमुख धर्म के रूप में स्थापित है।'' === जैन धर्म === ==== संस्थापक: महावीर स्वामी ==== जैन धर्म के प्रवर्तक ऋषभदेव माने जाते हैं, जिन्हें पहले तीर्थंकर के रूप में जाना जाता है। परंतु जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक के रूप में 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर को विशेष स्थान प्राप्त है। महावीर का जन्म 599 ई.पू. में वैशाली गणराज्य के कुंडग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था। 30 वर्ष की आयु में उन्होंने वैराग्य ग्रहण कर कठिन तपस्या की और 12 वर्षों के बाद उन्हें केवल ज्ञान (कैवल्य ज्ञान) की प्राप्ति हुई। ==== जैन धर्म के मुख्य सिद्धांत ==== '''अहिंसा (Non-violence)''' – जैन धर्म का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत है। हिंसा का त्याग केवल शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक और वाणी की हिंसा से भी है। '''अनेकांतवाद (Multiplicity of Truth)''' – सत्य को अनेक दृष्टिकोणों से देखने की परंपरा है। यह दृष्टिकोण सहिष्णुता और संवाद को बढ़ावा देता है। '''अपरिग्रह (Non-possessiveness)''' – अत्यधिक भोग-विलास और संपत्ति के संग्रह को त्याज्य माना गया है। '''त्रिरत्न (Three Jewels)''' – सम्यक दर्शन (सही दृष्टिकोण), सम्यक ज्ञान (सही ज्ञान), और सम्यक चरित्र (सही आचरण) को मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक बताया गया है। ==== जैन संन्यास परंपरा ==== जैन धर्म में कठोर संन्यास परंपरा है। मुनियों के लिए ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, सत्य, अहिंसा और अस्तेय जैसे पंचमहाव्रतों का पालन आवश्यक है। वे वस्त्र, घर और परिवार का त्याग कर तप, ध्यान और आत्मशुद्धि के मार्ग पर चलते हैं। गृहस्थों के लिए भी अनुशासन और संयम के साथ जीवन जीने की शिक्षा दी गई है। ==== जैन धर्म का साहित्य ==== जैन धर्म का प्रमुख साहित्य आगम कहलाता है, जो भगवान महावीर की वाणी पर आधारित है। श्वेतांबर और दिगंबर संप्रदायों में ग्रंथों की व्याख्या और रचना भिन्न है। प्रसिद्ध ग्रंथों में "आचारांग सूत्र", "सूतकृतांग सूत्र", और "उत्ताराध्ययन सूत्र" प्रमुख हैं। ==== जैन धर्म का प्रभाव और प्रसार ==== जैन धर्म का प्रभाव मुख्यतः भारत में रहा है, विशेषकर गुजरात, राजस्थान, कर्नाटक, महाराष्ट्र और मध्य भारत में। व्यापारिक वर्ग और नगरीय समाज में जैन धर्म ने व्यापक स्वीकृति प्राप्त की। यह धर्म भी बौद्ध धर्म की भांति जाति-पाति से ऊपर उठकर मोक्ष और आत्मकल्याण की बात करता है। जैन मंदिरों की स्थापत्य कला, जैसे '''श्रवणबेलगोला, पालिताना, रणकपुर''', आदि भारतीय संस्कृति के गौरवशाली प्रतीक हैं। === बौद्ध और जैन धर्म का समाज पर प्रभाव === '''बौद्ध और जैन धर्मों''' ने भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव डाला। इन दोनों धर्मों ने उस समय की रूढ़िवादी ब्राह्मणवादी व्यवस्था को चुनौती दी और समाज में नैतिक मूल्यों, समानता, और अहिंसा की भावना को बल दिया। '''जातिवाद का विरोध''' – बौद्ध और जैन धर्म दोनों ने जातिव्यवस्था के कठोर नियमों का विरोध किया। इन धर्मों में प्रवेश सभी वर्गों के लोगों के लिए खुला था, जिससे निम्न वर्ग के लोगों को भी आत्मसम्मान और मुक्ति का मार्ग प्राप्त हुआ। '''अहिंसा और करुणा की स्थापना''' – दोनों धर्मों ने हिंसा का कड़ा विरोध किया और करुणा, सह-अस्तित्व, और सभी जीवों के प्रति समान भाव रखने की शिक्षा दी। यह शिक्षा समाज में पशुबलि, युद्ध, और हिंसक प्रवृत्तियों के विरुद्ध एक नैतिक आंदोलन बनी। '''नारी की स्थिति''' – यद्यपि प्रारंभिक काल में बौद्ध और जैन धर्मों में महिलाओं के लिए कुछ सीमाएं थीं, फिर भी इन धर्मों ने नारी को आध्यात्मिक उन्नति का अधिकार प्रदान किया। बौद्ध धर्म में भिक्षुणी संघ की स्थापना और जैन धर्म में आर्यिकाओं की परंपरा इसके उदाहरण हैं। '''धार्मिक सहिष्णुता और संवाद''' – अनेकांतवाद (जैन धर्म) और मध्यम मार्ग (बौद्ध धर्म) ने विचारों की विविधता को स्थान दिया और धार्मिक संवाद को प्रोत्साहित किया, जिससे सामाजिक सौहार्द्र और विवेकशीलता को बढ़ावा मिला। '''शिक्षा और भाषा''' – बौद्ध और जैन धर्मों ने संस्कृत के स्थान पर पाली और प्राकृत भाषाओं को माध्यम बनाकर आम जन तक धार्मिक ज्ञान पहुँचाया। इससे शिक्षा का जनसामान्यीकरण हुआ और जनमानस में बौद्धिक जागरण आया। '''कला और स्थापत्'''य – दोनों धर्मों ने मूर्तिकला, चित्रकला, स्तूप, विहार, मंदिर, और गुफा स्थापत्य की परंपरा को जन्म दिया। यह कला धार्मिक भावना के साथ-साथ सांस्कृतिक एकता को भी दर्शाती है। '''आर्थिक और सामाजिक प्रभाव''' – बौद्ध विहार और जैन तीर्थक्षेत्र व्यापारिक मार्गों के पास विकसित हुए, जिससे ये धार्मिक स्थल व्यापार, सांस्कृतिक संपर्क और शांति के केंद्र बने। दोनों धर्मों ने शोषणमुक्त समाज की कल्पना प्रस्तुत की। इन सभी प्रभावों ने भारतीय समाज को अधिक उदार, नैतिक, शिक्षित और समतावादी दिशा में अग्रसर किया। बौद्ध और जैन धर्म आज भी अपने मूल्यों के साथ भारत की सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न अंग हैं। === निष्कर्ष === बौद्ध और जैन धर्मों का उद्भव केवल धार्मिक सुधार की प्रक्रिया नहीं थी, बल्कि यह एक सामाजिक क्रांति भी थी, जिसने तत्कालीन भारतीय समाज की जड़ता और असमानता को चुनौती दी। इन धर्मों ने तर्क, नैतिकता और आत्मानुशासन को प्राथमिकता देकर अध्यात्म को लोकहित से जोड़ा। जातिवाद, अंधविश्वास और हिंसा के विरुद्ध उनका आंदोलन एक विवेकशील और मानवीय समाज की ओर पहला कदम था। बौद्ध धर्म के माध्यम से करुणा, मध्यम मार्ग और जनसामान्य को सुलभ शिक्षा का मार्ग खुला। वहीं जैन धर्म ने आत्मशुद्धि, तप और अनेकांतवाद के माध्यम से जीवन को अनुशासित और सहिष्णु बनाने की प्रेरणा दी। इन दोनों धर्मों की शिक्षाएं आज भी नैतिकता, शांति और पर्यावरण संतुलन के संदर्भ में अत्यंत प्रासंगिक हैं। भारतीय संस्कृति में इन धर्मों ने दर्शन, कला, स्थापत्य, भाषा और जीवनशैली के स्तर पर व्यापक योगदान दिया। इनकी शिक्षाओं ने न केवल भारत बल्कि एशिया के अन्य देशों में भी आध्यात्मिक चेतना और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को जन्म दिया। अतः निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि बौद्ध और जैन धर्म भारत के सांस्कृतिक इतिहास की अनमोल धरोहर हैं, जिन्होंने न केवल आध्यात्मिक दिशा दी, बल्कि समाज को अधिक मानवीय, समतामूलक और विवेकपूर्ण बनाने की नींव रखी। o5olwbzthnu80vegy1h28pkustwe0ee भारत का सांस्कृतिक इतिहास/मौर्य और गुप्त साम्राज्य 0 11404 82586 2025-06-15T07:28:14Z Baap8969 16001 '== अध्याय 4: मौर्य और गुप्त साम्राज्य == === प्रस्तावना === मौर्य और गुप्त साम्राज्य प्राचीन भारत के इतिहास में ऐसे दो महत्वपूर्ण युग हैं जिन्होंने भारत को न केवल राजनीतिक र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया 82586 wikitext text/x-wiki == अध्याय 4: मौर्य और गुप्त साम्राज्य == === प्रस्तावना === मौर्य और गुप्त साम्राज्य प्राचीन भारत के इतिहास में ऐसे दो महत्वपूर्ण युग हैं जिन्होंने भारत को न केवल राजनीतिक रूप से संगठित किया, बल्कि सांस्कृतिक, आर्थिक और वैज्ञानिक क्षेत्रों में भी उल्लेखनीय प्रगति प्रदान की। मौर्य साम्राज्य भारत का प्रथम सुव्यवस्थित और केंद्रीयकृत साम्राज्य था, जिसकी स्थापना चंद्रगुप्त मौर्य और चाणक्य ने मिलकर की। वहीं, गुप्त साम्राज्य को भारतीय इतिहास का 'स्वर्ण युग' कहा जाता है, क्योंकि इस काल में कला, साहित्य, विज्ञान और धर्म के क्षेत्रों में अभूतपूर्व विकास हुआ। यह अध्याय हमें मौर्य और गुप्त साम्राज्यों की प्रशासनिक संरचना, सांस्कृतिक विरासत, धार्मिक प्रवृत्तियों और सामाजिक प्रभावों की विस्तृत जानकारी देता है। === मौर्य साम्राज्य === ==== चंद्रगुप्त मौर्य और मौर्य साम्राज्य की स्थापना ==== मौर्य साम्राज्य की स्थापना लगभग 321 ईसा पूर्व में चंद्रगुप्त मौर्य ने की थी। चंद्रगुप्त एक साधारण परिवार से थे, लेकिन उनमें नेतृत्व क्षमता और युद्ध कौशल अत्यंत प्रभावशाली था। उन्होंने महान राजनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री चाणक्य (कौटिल्य) की सहायता से तत्कालीन शक्तिशाली नंद वंश का अंत किया। चंद्रगुप्त ने मौर्य साम्राज्य की नींव पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) में रखी। इसके पश्चात उन्होंने पश्चिमोत्तर भारत पर आक्रमण कर सेल्यूकस निकेटर को पराजित किया और उसे अपनी पुत्री की शादी तथा राजनयिक संबंधों के साथ एक बड़ा भू-भाग सौंपने के लिए विवश कर दिया। इस विजय से चंद्रगुप्त का साम्राज्य भारत के एक बड़े भूभाग में फैल गया। ==== चाणक्य और अर्थशास्त्र ==== चंद्रगुप्त मौर्य के शासन की सफलता का एक महत्वपूर्ण स्तंभ थे चाणक्य। चाणक्य न केवल एक नीतिज्ञ थे, बल्कि उन्होंने 'अर्थशास्त्र' नामक महान ग्रंथ की रचना की जो उस समय के शासन, प्रशासन, सैन्य संगठन, कर व्यवस्था, दंड नीति और गुप्तचर प्रणाली पर विस्तृत प्रकाश डालता है। यह ग्रंथ आज भी प्रशासनिक सिद्धांतों और रणनीति का आधार माना जाता है। चाणक्य ने एक ऐसी शासन व्यवस्था की नींव रखी जिसमें राजा की शक्ति को सीमित कर के एक नैतिक और प्रजा केंद्रित शासन को प्राथमिकता दी गई। ==== बिंदुसार ==== चंद्रगुप्त मौर्य के उत्तराधिकारी उनके पुत्र बिंदुसार बने, जिन्होंने लगभग 297 ईसा पूर्व से 273 ईसा पूर्व तक शासन किया। बिंदुसार के शासनकाल में मौर्य साम्राज्य की सीमाएँ दक्षिण भारत तक विस्तार को प्राप्त हुईं। यूनानी इतिहासकारों के अनुसार, बिंदुसार ने यूनानी शासकों से संपर्क बनाए रखे और कई विदेशी दूतों को अपने दरबार में आमंत्रित किया। बिंदुसार का शासनकाल तुलनात्मक रूप से शांतिपूर्ण और प्रशासनिक रूप से संगठित था। ==== सम्राट अशोक ==== बिंदुसार के बाद अशोक ने मौर्य साम्राज्य का शासन संभाला। उनका प्रारंभिक शासन विस्तारवादी था, जिसका उदाहरण 261 ईसा पूर्व का कलिंग युद्ध है। कलिंग युद्ध की विभीषिका ने अशोक को आंतरिक रूप से झकझोर दिया और उन्होंने युद्ध से विरक्ति लेकर बौद्ध धर्म को अपनाया। बौद्ध धर्म की शिक्षाओं से प्रभावित होकर अशोक ने 'धम्म' के प्रचार-प्रसार का कार्य प्रारंभ किया। उन्होंने शिलालेखों, स्तंभों और गुफा लेखों के माध्यम से नैतिक मूल्यों, अहिंसा, करुणा और धार्मिक सहिष्णुता के सिद्धांतों का प्रचार किया। उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए मिशनरियों को श्रीलंका, मध्य एशिया और दक्षिण भारत तक भेजा। अशोक का शासन सामाजिक कल्याण और धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक बन गया। === मौर्य प्रशासन और उसकी विशेषताएँ === मौर्य शासन प्रणाली अपने समय की सबसे संगठित और प्रभावशाली प्रशासनिक व्यवस्था थी। इसके प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं: '''केन्द्रीय शासन व्यवस्था:''' मौर्य शासन एक केंद्रीकृत प्रणाली थी जहाँ सम्राट सर्वोच्च था। सम्राट के अधीन मंत्रिपरिषद कार्य करती थी, जिसमें प्रधानमंत्री, सेनापति, पुरोहित, और अन्य उच्च अधिकारी सम्मिलित होते थे। '''प्रांतों का विभाजन:''' सम्पूर्ण साम्राज्य को प्रांतों में विभाजित किया गया था, जिनके प्रमुख को 'कुमारामात्य' या 'राजुक' कहा जाता था। वे सम्राट के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते थे। '''नगर प्रशासन:''' नगरों का संचालन 'नागरक' नामक अधिकारी द्वारा किया जाता था। मौर्य प्रशासन में पाटलिपुत्र का विशेष स्थान था, जहाँ एक समिति नगर व्यवस्था की निगरानी करती थी। '''गुप्तचर व्यवस्था:''' मौर्य शासन में गुप्तचर व्यवस्था अत्यंत प्रभावी थी। चाणक्य द्वारा संगठित गुप्तचर तंत्र राजकीय सुरक्षा, षड्यंत्रों की सूचना, और राजद्रोह की निगरानी करता था। '''कर और राजस्व प्रणाली:''' जनता से विभिन्न प्रकार के कर लिए जाते थे, जैसे भूमि कर, सिंचाई कर, व्यापार कर, आदि। कर वसूली के लिए विशेष विभाग थे। '''न्याय व्यवस्था:''' दंड नीति कठोर थी। 'दंडनीति' के माध्यम से शांति और अनुशासन बनाए रखने का प्रयास किया जाता था। '''सार्वजनिक निर्माण कार्य:''' शासन द्वारा सड़कों का निर्माण, सिंचाई व्यवस्था, कुएँ, धर्मशालाएँ आदि का निर्माण करवाया जाता था। '''सेना और युद्धनीति:''' मौर्य साम्राज्य की सेना बहुत संगठित और शक्तिशाली थी। सेना में पैदल, घुड़सवार, हाथी और रथ इकाइयाँ थीं। चंद्रगुप्त और अशोक ने इस सेना का प्रयोग साम्राज्य विस्तार के लिए किया। === गुप्त साम्राज्य === ==== गुप्त साम्राज्य की स्थापना और प्रारंभिक विस्तार ==== गुप्त साम्राज्य की स्थापना तीसरी शताब्दी के अंत या चौथी शताब्दी की शुरुआत में महाराज श्रीगुप्त द्वारा की गई। प्रारंभिक शासकों में घटोत्कच और फिर चंद्रगुप्त प्रथम प्रमुख थे। चंद्रगुप्त प्रथम (लगभग 319-335 ई.) ने गुप्त वंश को एक सशक्त साम्राज्य का स्वरूप दिया और मगध, प्रयाग तथा उत्तर भारत के अन्य भागों पर अपना अधिकार स्थापित किया। उन्होंने लिच्छवि कुल की राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह किया, जिसने गुप्तों की राजनीतिक स्थिति को और भी मज़बूत बनाया। ==== समुद्रगुप्त और साम्राज्य का उत्कर्ष ==== चंद्रगुप्त प्रथम के पुत्र समुद्रगुप्त (लगभग 335-375 ई.) को गुप्त साम्राज्य का 'नेपोलियन' कहा जाता है। उन्होंने दक्षिण और उत्तर भारत में अनेक सफल युद्ध अभियान चलाए, जिनका वर्णन प्रयाग प्रशस्ति में मिलता है जिसे हरिषेण नामक कवि ने लिखा। समुद्रगुप्त की नीति थी – पराजित राजाओं को आत्मसमर्पण के बाद पुनः सत्ता देना, जिससे साम्राज्य का विस्तार बिना विद्रोह के संभव हो सका। वे केवल योद्धा ही नहीं, बल्कि कवि, संगीतज्ञ और कला प्रेमी भी थे। ==== चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) ==== समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारी चंद्रगुप्त द्वितीय (लगभग 375-415 ई.) को 'विक्रमादित्य' की उपाधि मिली। उनके शासनकाल में गुप्त साम्राज्य सांस्कृतिक और वैज्ञानिक दृष्टि से चरम पर पहुँचा। उन्होंने शक्तिशाली शक राजाओं को पराजित कर पश्चिमी भारत को अपने अधीन किया। उनके शासनकाल में उज्जयिनी एक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक केंद्र बन गया। कालिदास, वराहमिहिर, आर्यभट, और अमरसिंह जैसे विद्वान उनके दरबार की शोभा थे। ==== गुप्त प्रशासन और शासन प्रणाली ==== राजा की भूमिका: गुप्त शासक ईश्वर के प्रतिनिधि माने जाते थे। वे धर्म, न्याय और दान के संरक्षक थे। प्रांत और जिला प्रशासन: साम्राज्य को विभिन्न भागों में बाँटा गया था – 'भुक्ति' (प्रांत), 'विषय' (जनपद), 'ग्राम' (गाँव)। प्रत्येक स्तर पर अधिकारी नियुक्त किए जाते थे। कर व्यवस्था: कृषकों से भूमि कर लिया जाता था। व्यापारियों से भी कर वसूला जाता था। टैक्स प्रणाली तुलनात्मक रूप से सरल थी। न्याय प्रणाली: राजा सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। ग्राम स्तर पर भी पंचायतें कार्य करती थीं। दंड की अपेक्षा सुधार पर बल दिया जाता था। ==== गुप्त कालीन समाज और संस्कृति ==== धर्म: गुप्त काल में हिंदू धर्म को राज्य संरक्षण प्राप्त हुआ, विशेषकर वैष्णव परंपरा को। साथ ही बौद्ध और जैन धर्म भी प्रचलन में थे। धार्मिक सहिष्णुता गुप्त युग की विशेषता थी। शिक्षा: इस काल में तक्षशिला और नालंदा जैसे शिक्षा केंद्र प्रसिद्ध हुए। वेद, उपनिषद, आयुर्वेद, गणित और खगोलशास्त्र पढ़ाए जाते थे। साहित्य: कालिदास इस युग के महान कवि और नाटककार थे। उनकी रचनाएँ – मेघदूत, रघुवंश, कुमारसंभव और अभिज्ञान शाकुंतलम् – आज भी अमूल्य धरोहर मानी जाती हैं। विज्ञान और गणित: आर्यभट ने इस काल में 'आर्यभटीय' नामक ग्रंथ लिखा, जिसमें उन्होंने शून्य की अवधारणा, ग्रहों की गति और पाई (π) का मूल्य बताया। कला और स्थापत्य: इस काल में गुफाएँ, मंदिर और मूर्तिकला का उच्च विकास हुआ। अजंता की गुफाएँ, एलोरा और देओगढ़ के मंदिर इसकी मिसाल हैं। ==== गुप्त युग की विशेषताएँ ==== स्वर्ण मुद्रा और व्यापार: गुप्त काल में सोने की मुद्राएँ जारी की गईं, जो व्यापार और आर्थिक समृद्धि का प्रतीक थीं। राजकीय संरक्षण: कला, साहित्य, विज्ञान को शासकों से संरक्षण मिला। सामाजिक व्यवस्था: वर्ण व्यवस्था कड़ी हो गई थी, लेकिन सामाजिक स्थायित्व बना रहा। स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आने लगी थी। धार्मिक सहिष्णुता: सभी धर्मों को सहिष्णु दृष्टिकोण से देखा गया। धार्मिक संघर्ष न्यूनतम थे। ==== निष्कर्ष ==== गुप्त साम्राज्य एक ऐसा काल था जिसमें भारत ने राजनीतिक स्थायित्व, सांस्कृतिक उत्कर्ष, आर्थिक समृद्धि और वैज्ञानिक उन्नति का अनूठा संगम देखा। यह युग भारतीय सभ्यता के उन उच्च आदर्शों का प्रतीक है जो आज भी प्रेरणा का स्रोत हैं। ip52amsyx76h8z74ut2fo5y8df137uc भारत का सांस्कृतिक इतिहास/मध्यकालीन भारत 0 11405 82587 2025-06-15T07:37:15Z Baap8969 16001 '=== प्रस्तावना === मध्यकालीन भारत (लगभग 8वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक) भारतीय इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण कालखंड है जिसमें राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्ट...' के साथ नया पृष्ठ बनाया 82587 wikitext text/x-wiki === प्रस्तावना === मध्यकालीन भारत (लगभग 8वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक) भारतीय इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण कालखंड है जिसमें राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टिकोण से गहरे परिवर्तन हुए। इस काल में अनेक राजवंशों का उदय और पतन हुआ तथा भारत पर इस्लामी आक्रांताओं और मुग़ल शासकों का प्रभुत्व रहा। यह युग जहां एक ओर धार्मिक आंदोलनों – जैसे भक्ति और सूफी आंदोलन – के लिए जाना जाता है, वहीं दूसरी ओर इस काल में स्थापत्य कला, साहित्य, संगीत और प्रशासनिक व्यवस्थाओं का भी अद्वितीय विकास हुआ। यह अध्याय मध्यकालीन भारत की प्रमुख विशेषताओं, शासकों, धार्मिक आंदोलनों, सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक उपलब्धियों का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करता है। === 1. राजनैतिक परिप्रेक्ष्य === ==== 1.1 अरब और तुर्क आक्रमण ==== 8वीं शताब्दी में मोहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में सिंध पर अरबों का आक्रमण भारत में इस्लामी प्रभाव की शुरुआत का प्रतीक था। इसके पश्चात् 11वीं शताब्दी में महमूद गज़नवी और फिर 12वीं शताब्दी में मुहम्मद गौरी के आक्रमणों ने भारत में तुर्की सत्ता की नींव रखी। मुहम्मद गौरी की विजय के बाद उसके सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली सल्तनत की स्थापना की। ==== 1.2 दिल्ली सल्तनत (1206–1526) ==== दिल्ली सल्तनत भारत में स्थापित प्रथम इस्लामी साम्राज्य था जो पाँच वंशों – गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैयद वंश और लोदी वंश – द्वारा शासित हुआ। इस काल में भारत में केंद्रीय प्रशासन, भूमि कर प्रणाली और सैन्य संगठन को एक नई दिशा मिली। ==== 1.3 बहमनी और विजयनगर साम्राज्य ==== दक्षिण भारत में बहमनी (1347–1527) और विजयनगर (1336–1646) साम्राज्य का उदय हुआ। विजयनगर साम्राज्य हिन्दू पुनर्जागरण का प्रतीक था। इन राज्यों ने सांस्कृतिक समन्वय, स्थापत्य और संगीत के क्षेत्र में बड़ी उपलब्धियाँ अर्जित कीं। ==== 1.4 मुग़ल साम्राज्य (1526–1707) ==== बाबर ने 1526 में पानीपत की पहली लड़ाई में इब्राहीम लोदी को हराकर मुग़ल साम्राज्य की नींव रखी। अकबर (1556–1605) के शासनकाल को मुग़ल काल का स्वर्ण युग कहा जाता है। उन्होंने दीन-ए-इलाही, धार्मिक सहिष्णुता, प्रशासनिक सुधार, और कला का भरपूर विकास किया। जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगज़ेब के शासनकाल में साम्राज्य का विस्तार हुआ लेकिन अंततः धार्मिक असहिष्णुता, आंतरिक विद्रोहों और यूरोपीय उपनिवेशवाद के कारण इसकी गिरावट शुरू हुई। === 2. प्रशासनिक संरचना और शासन प्रणाली === मध्यकालीन भारत में प्रशासन का ढांचा शासकों के अनुसार भिन्न-भिन्न था। दिल्ली सल्तनत में प्रशासन: सुल्तान सर्वोच्च होता था, जो दीवान-ए-विजारत (वित्त), दीवान-ए-अर्श (सेना), और दीवान-ए-रसालत (विदेश नीति) जैसे विभागों द्वारा शासित होता था। मुग़ल प्रशासन: अकबर द्वारा अपनाया गया 'मानसबदारी प्रणाली' एक विशेष सैन्य व प्रशासनिक संरचना थी। भू-राजस्व के लिए टोडरमल की व्यवस्था प्रसिद्ध है। स्थानीय शासन: ग्राम पंचायतें और ज़मींदार व्यवस्था ग्रामीण प्रशासन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। === 2. प्रशासनिक संरचना और शासन प्रणाली === मध्यकालीन भारत में प्रशासन का ढांचा शासकों के अनुसार भिन्न-भिन्न था। दिल्ली सल्तनत में प्रशासन: सुल्तान सर्वोच्च होता था, जो दीवान-ए-विजारत (वित्त), दीवान-ए-अर्श (सेना), और दीवान-ए-रसालत (विदेश नीति) जैसे विभागों द्वारा शासित होता था। मुग़ल प्रशासन: अकबर द्वारा अपनाया गया 'मानसबदारी प्रणाली' एक विशेष सैन्य व प्रशासनिक संरचना थी। भू-राजस्व के लिए टोडरमल की व्यवस्था प्रसिद्ध है। स्थानीय शासन: ग्राम पंचायतें और ज़मींदार व्यवस्था ग्रामीण प्रशासन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। === 3. समाज और संस्कृति === ==== 3.1 सामाजिक संरचना ==== मध्यकालीन भारत की सामाजिक संरचना विविध, जटिल और गहराई से धार्मिक और जातिगत प्रभावों से युक्त थी। हिंदू समाज में वर्ण व्यवस्था अधिक कठोर हो गई थी, जिससे समाज में जातिगत भेदभाव, छुआछूत और सामाजिक विषमता बढ़ गई। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – ये चार वर्ण अपने-अपने कर्तव्यों और अधिकारों में बँधे हुए थे। शूद्रों की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। वे शारीरिक श्रम के कार्य करते थे और सामाजिक बहिष्कार का शिकार थे। महिलाओं की स्थिति में गिरावट देखी गई। पर्दा प्रथा, बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा पुनर्विवाह निषेध जैसी कुरीतियाँ समाज में प्रचलित हो गई थीं। शिक्षा और धार्मिक अनुष्ठानों में महिलाओं की भागीदारी सीमित थी। हालांकि, कुछ क्षेत्रों में जैसे भक्ति आंदोलन, महिलाओं ने सक्रिय रूप से भाग लिया – मीराबाई इसका प्रमुख उदाहरण हैं। मुस्लिम समाज में भी वर्ग आधारित विभाजन था। 'अशराफ' (शुद्ध अरबी, तुर्क या पठान वंशज), 'अजलाफ' (स्थानीय परिवर्तित मुस्लिम), और 'अर्दज़ल' (निम्न वर्ग के मुस्लिम) – ये वर्ग मुस्लिम समाज में सामाजिक और आर्थिक असमानता को दर्शाते थे। धार्मिक विद्वान 'उलेमा' समाज में विशेष प्रभाव रखते थे। जातीय और धार्मिक विविधता के बावजूद, मध्यकालीन समाज में एक प्रकार की सामाजिक सहिष्णुता और समन्वय भी देखने को मिलता है। व्यापार, शिल्प, कृषि, और नगरों के विकास ने विभिन्न जातियों और धर्मों को एक-दूसरे के निकट लाया। ==== 3.2 सांस्कृतिक जीवन ==== मध्यकालीन भारत की संस्कृति बहुधर्मी, बहुभाषी और बहुजातीय थी। इस काल में हिन्दू, मुस्लिम, जैन, बौद्ध और सिख परंपराओं का आपसी प्रभाव देखने को मिलता है। धार्मिक और सांस्कृतिक मेल-जोल के कारण नई भाषाएँ, साहित्यिक शैलियाँ, संगीत परंपराएँ और स्थापत्य कला का उदय हुआ। '''भाषाएँ और साहित्य:''' इस युग में क्षेत्रीय भाषाओं का विकास हुआ – हिंदी, उर्दू, बंगाली, तमिल, तेलुगु, मराठी, कन्नड़ आदि। हिन्दी में तुलसीदास, सूरदास, कबीर, रैदास, रहीम आदि ने सामाजिक और धार्मिक विषयों पर काव्य रचना की। उर्दू भाषा का जन्म भी फारसी और स्थानीय बोलियों के मिश्रण से हुआ। फारसी दरबारी भाषा बनी रही और बाबरनामा, अकबरनामा जैसी रचनाएँ इसी में लिखी गईं। ''' धार्मिक आंदोलन:''' भक्ति और सूफी आंदोलन ने सामाजिक समरसता को बढ़ावा दिया। भक्ति संतों ने जाति-भेद और धार्मिक कट्टरता का विरोध किया और प्रेम, भक्ति और सेवा को जीवन का उद्देश्य बताया। सूफी संतों ने भी प्रेम, सहिष्णुता और आध्यात्मिक एकता पर बल दिया। '''कला और संगीत:''' हिन्दुस्तानी संगीत का विकास मुग़ल दरबारों में हुआ। राग, ताल, और गायन शैलियों में विविधता आई। तानसेन जैसे संगीतज्ञों ने दरबारी संगीत को लोकप्रिय बनाया। लोक संगीत और भक्ति संगीत ने ग्रामीण समाज को जोड़े रखा। '''लोक जीवन और पर्व:''' त्योहार, मेले, विवाह, और धार्मिक उत्सव सामाजिक जीवन का अभिन्न हिस्सा बने। रामलीला, कव्वाली, कीर्तन जैसे आयोजन जनमानस को जोड़ते थे। '''सांस्कृतिक समन्वय:''' हिंदू-मुस्लिम सांस्कृतिक समन्वय के उदाहरण स्थापत्य कला, संगीत, भाषा और पोशाक में देखे जा सकते हैं। फतेहपुर सीकरी, ताजमहल, शेरशाह की मीनारें सांस्कृतिक संगम की प्रतीक रचनाएँ हैं। इस प्रकार, मध्यकालीन भारत का समाज और संस्कृति विविधता में एकता का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। जातिगत असमानताओं और सामाजिक कुरीतियों के बावजूद, इस युग ने धार्मिक सहिष्णुता, सांस्कृतिक समन्वय, और सामाजिक परिवर्तन के माध्यम से भारतीय संस्कृति की नींव को और सुदृढ़ किया। === 4. कला, स्थापत्य और साहित्य === === 4. कला, स्थापत्य और साहित्य === मध्यकालीन भारत की कला, स्थापत्य और साहित्यिक उपलब्धियाँ इस काल की सांस्कृतिक समृद्धि का प्रमाण हैं। इस काल में धार्मिक, दरबारी और लोक कलाओं का अद्वितीय विकास हुआ। ==== 4.1 कला ==== मध्यकालीन भारत में चित्रकला, मूर्तिकला और संगीत की कलाओं का विशेष विकास हुआ। इस काल में विशेष रूप से दो प्रकार की चित्रकला प्रमुख थीं: राजस्थानी और पहाड़ी चित्रकला – यह चित्रकला शैलियाँ हिंदू पौराणिक कथाओं, राग-रागिनियों और प्रेम कथाओं को दर्शाने के लिए जानी जाती हैं। मुग़ल चित्रकला – यह फारसी शैली से प्रभावित थी और दरबारी जीवन, युद्ध, शिकार, और प्रकृति को दर्शाती थी। मुग़ल चित्रकला के महान उदाहरण अकबरनामा, हमज़ानामा आदि हैं। संगीत की बात करें तो इस काल में हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का रूप विकसित हुआ। तानसेन जैसे संगीतज्ञों ने दरबारी संगीत को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। नए रागों और गायन शैलियों का विकास हुआ। ==== 4.2 स्थापत्य कला ==== मध्यकालीन भारत की स्थापत्य कला विशेष रूप से मस्जिदों, मकबरों, किलों और मंदिरों के निर्माण में दृष्टिगोचर होती है। इस्लामी स्थापत्य में गुम्बद, मेहराब, मीनार और जालीदार खिड़कियाँ प्रमुख रहीं। हिंदू स्थापत्य में नक़्क़ाशीदार स्तंभ, मंडप और गर्भगृह की प्रधानता रही। मुग़ल स्थापत्य – शाहजहाँ का ताजमहल स्थापत्य कला का सर्वोच्च उदाहरण है। अकबर का फतेहपुर सीकरी, लाल किला, बुलंद दरवाज़ा आदि भव्य स्थापत्य कृतियाँ हैं। दक्षिण भारत का स्थापत्य – विजयनगर साम्राज्य के मंदिर, जैसे हम्पी के विट्ठल मंदिर, बड़े गोपुरम और विस्तृत मंडप स्थापत्य कौशल के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। मध्य भारत और राजस्थान में किलों का निर्माण – ग्वालियर, चित्तौड़, कुम्भलगढ़ आदि दुर्गों ने सैन्य और स्थापत्य कौशल दोनों का प्रदर्शन किया। ==== 4.3 साहित्य ==== मध्यकालीन साहित्य धार्मिक, भक्ति, ऐतिहासिक और दार्शनिक विषयों से समृद्ध रहा। इस काल में संस्कृत के साथ-साथ फारसी, हिंदी, तमिल, तेलुगु, बांग्ला आदि भाषाओं में भी साहित्य रचा गया। भक्ति साहित्य – तुलसीदास (रामचरितमानस), सूरदास, कबीर, मीराबाई आदि संत कवियों ने धार्मिकता, सामाजिक समरसता और मानवता पर बल देते हुए रचनाएँ कीं। सूफी साहित्य – अमीर खुसरो जैसे कवियों ने प्रेम, भक्ति और सौहार्द्र पर आधारित काव्य रचना की। फारसी साहित्य – बाबरनामा, अकबरनामा, आईन-ए-अकबरी आदि ऐतिहासिक ग्रंथों का लेखन फारसी में हुआ। दक्षिण भारतीय साहित्य – तमिल में अलवार और नयनार संतों की रचनाएँ, तेलुगु में अन्नमाचार्य और कन्नड़ में कुमार व्यास का योगदान महत्त्वपूर्ण रहा। इस प्रकार, मध्यकालीन भारत की कला, स्थापत्य और साहित्य न केवल सौंदर्यबोध और आध्यात्मिकता के प्रतीक थे, बल्कि वे समाज की संस्कृति, जीवनशैली और भावनात्मक चेतना के वाहक भी रहे। === 5. धार्मिक सहिष्णुता और समन्वय === अकबर की धार्मिक नीति, दीन-ए-इलाही और इलाही दफ्तर जैसे प्रयासों ने हिन्दू-मुस्लिम समन्वय को बढ़ावा दिया। सूफी और भक्ति आंदोलनों ने मिलकर भारतीय समाज में धार्मिक एकता और सहिष्णुता का आधार मजबूत किया। यह युग सामाजिक समरसता और संस्कृति के आपसी प्रभाव का काल बना। === 6. आर्थिक जीवन === मध्यकाल में कृषि प्रमुख आर्थिक गतिविधि थी। किसानों से भूमि कर लिया जाता था। व्यापार – खासकर मसाले, कपड़ा, हीरे, और शिल्प का – बहुत प्रचलित था। भारत के बंदरगाहों से अरब, यूरोप और दक्षिण-पूर्व एशिया से व्यापार होता था। मुग़ल काल में दस्तकारी और कुटीर उद्योग का विकास हुआ। दिल्ली, लाहौर, आगरा जैसे नगर व्यापार और शिल्प के प्रमुख केंद्र थे। === निष्कर्ष === मध्यकालीन भारत का इतिहास एक ऐसा युग है जिसमें विविधता, समन्वय, संघर्ष और सांस्कृतिक उत्कर्ष का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। भले ही यह काल विदेशी शासन से जुड़ा हो, फिर भी भारतीय जनमानस ने अपने मूल्यों, संस्कृति और रचनात्मकता को जीवंत बनाए रखा। भक्ति और सूफी आंदोलनों ने सामाजिक क्रांति की भूमिका निभाई, जबकि स्थापत्य और कला ने भारत को विश्वगुरु की ओर अग्रसर किया। यह युग आज भी भारत की सांस्कृतिक एकता, सहिष्णुता और विरासत का प्रेरणास्रोत बना हुआ है। 2r8nhl3o7tzbzx81q2chlfvujbeecgx भारत का सांस्कृतिक इतिहास/भक्ति आंदोलन 0 11406 82588 2025-06-15T07:58:39Z Baap8969 16001 '=== प्रस्तावना === भक्ति आंदोलन भारत के मध्यकालीन इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक आंदोलन था, जिसकी शुरुआत दक्षिण भारत में लगभग 6वीं से 8वीं शताब्दी...' के साथ नया पृष्ठ बनाया 82588 wikitext text/x-wiki === प्रस्तावना === भक्ति आंदोलन भारत के मध्यकालीन इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक आंदोलन था, जिसकी शुरुआत दक्षिण भारत में लगभग 6वीं से 8वीं शताब्दी के बीच मानी जाती है और जो 15वीं से 17वीं शताब्दी में उत्तर भारत में व्यापक रूप से फैल गया। यह आंदोलन न केवल धार्मिक सुधार की प्रक्रिया थी, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषाई दृष्टिकोण से भी क्रांतिकारी था। भक्ति आंदोलन ने धर्म के नाम पर चल रहे आडंबर, जाति-व्यवस्था, छुआछूत, और धार्मिक एकाधिकार को चुनौती दी। इस आंदोलन के माध्यम से भारतीय समाज में समरसता, समानता और मानवता की एक नई लहर आयी। भक्ति आंदोलन की जड़ें भारत की वैदिक और पुराणिक परंपरा में विद्यमान भक्ति भावना में थीं, लेकिन मध्यकालीन भारत में यह एक समर्पित सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन के रूप में उभरा। इसमें संतों, कवियों, और विचारकों ने व्यक्तिगत भक्ति, आत्मज्ञान, और सामाजिक न्याय को केंद्र में रखा। === 1. भक्ति आंदोलन की उत्पत्ति और पृष्ठभूमि === भक्ति आंदोलन की उत्पत्ति दक्षिण भारत से हुई, जहाँ आलवार (विष्णु भक्त) और नायनार (शिव भक्त) संतों ने धार्मिक कर्मकांडों, संस्कृत आधारित धार्मिक एकाधिकार, और जातिवाद का विरोध करते हुए व्यक्तिगत भक्ति को सर्वोपरि माना। आलवारों ने विष्णु की भक्ति में डूबकर तमिल भाषा में भक्ति रचनाएँ कीं, जिससे यह आंदोलन आम जनमानस से जुड़ सका। नायनार संतों ने शिव भक्ति के माध्यम से ब्राह्मणवादी वर्चस्व को चुनौती दी। उन्होंने मंदिरों की बजाय अपने अनुभवों और आस्था को महत्व दिया। इन संतों की रचनाओं में आत्मा और परमात्मा के मिलन की उत्कंठा और सामाजिक समानता की भावना झलकती है। उत्तर भारत में इस आंदोलन ने 13वीं से 17वीं शताब्दी के मध्य व्यापक रूप लिया। इस दौर में दिल्ली सल्तनत और मुग़ल शासन के समय धार्मिक असहिष्णुता, सामाजिक शोषण, और जाति व्यवस्था चरम पर थी। ऐसे समय में भक्ति संतों ने निर्गुण और सगुण दोनों रूपों में भक्ति का प्रचार करते हुए समाज में सुधार की लहर चलाई। === 2. प्रमुख विशेषताएँ === '''व्यक्तिगत भक्ति की प्रधानता''' – भक्ति आंदोलन की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि इसमें '''ईश्वर के प्रति व्यक्तिगत भक्ति''' को सर्वोपरि माना गया। '''संतों''' ने यह स्पष्ट किया कि ईश्वर को प्राप्त करने के लिए न तो किसी ब्राह्मण पुजारी की आवश्यकता है और न ही किसी मौलवी या धार्मिक संस्थान की। उन्होंने आत्मा और परमात्मा के सीधा संबंध को बल दिया और कहा कि कोई भी व्यक्ति चाहे वह किसी भी जाति, लिंग या वर्ग का हो, सीधे भक्ति के माध्यम से ईश्वर की प्राप्ति कर सकता है। इससे '''धर्म का लोकतांत्रिकरण''' हुआ और धार्मिक अनुभव को आम जनमानस तक पहुँचाया गया। '''भाषाई सरलता''' – भक्ति आंदोलन के संतों ने धार्मिक शिक्षाओं और आध्यात्मिक भावनाओं को जन-जन तक पहुँचाने के लिए स्थानीय और जनभाषाओं का प्रयोग किया। उन्होंने संस्कृत, अरबी या फारसी जैसी '''शास्त्रीय भाषाओं की बजाय अवधी, ब्रज, तमिल, तेलुगु, मराठी आदि भाषाओं में रचनाएँ कीं'''। इससे आम जनता को न केवल धर्म समझ में आने लगा, बल्कि वे सक्रिय रूप से आध्यात्मिक संवाद में भाग लेने लगे। इस भाषाई सरलता ने भक्ति साहित्य को व्यापक लोकप्रियता और प्रभाव प्रदान किया। '''जात-पात का विरोध''' – उस समय जब समाज जातिवाद और ऊँच-नीच की भावना से ग्रस्त था, भक्ति आंदोलन ने सभी जातियों को समान रूप से ईश्वर की भक्ति का अधिकार दिया। संत रैदास, कबीर, और नामदेव जैसे कई संत स्वयं निम्न जातियों से थे, और उन्होंने अपने जीवन और रचनाओं के माध्यम से जाति व्यवस्था की कटु आलोचना की। संतों ने यह सिखाया कि ईश्वर के सामने सभी प्राणी समान हैं और केवल भक्ति तथा अच्छे कर्मों से ही मोक्ष संभव है, न कि जन्म से। '''नारी सम्मान''' – उस काल में महिलाओं को धार्मिक और सामाजिक रूप से पुरुषों से निम्नतर माना जाता था। भक्ति आंदोलन के संतों ने इस परंपरा को तोड़ते हुए नारी की भक्ति, साधना और आत्मबोध को स्वीकार और सम्मान दिया। '''मीराबाई, अक्का महादेवी''' जैसी संत कवयित्रियों ने अपनी भक्ति और साहित्यिक योगदान से यह सिद्ध किया कि स्त्रियाँ भी आध्यात्मिक मार्ग में पुरुषों के समान अग्रणी हो सकती हैं। संतों ने स्त्रियों को ईश्वर प्राप्ति की समान स्वतंत्रता प्रदान की और सामाजिक बंधनों के विरुद्ध उनकी आवाज़ को समर्थन दिया। '''धार्मिक सहिष्णुता''' – भक्ति आंदोलन ने विभिन्न धर्मों के बीच सामंजस्य और सहिष्णुता की भावना को बढ़ावा दिया। '''कबीर और गुरु नानक जैसे संतों''' ने हिंदू और मुस्लिम दोनों धार्मिक विचारों को मिलाकर एक '''समन्वित धार्मिक दृष्टिकोण प्रस्तुत''' किया। उन्होंने यह सिखाया कि ईश्वर एक है और उसे किसी एक धर्म, संप्रदाय या जाति में सीमित नहीं किया जा सकता। यह दृष्टिकोण भारत में धर्मनिरपेक्षता और आपसी सद्भाव के बीज बोने में सहायक हुआ। '''कर्मकांड और बाह्य आडंबर का विरोध''' – भक्ति आंदोलन ने धार्मिक कर्मकांड, यज्ञ, बलि, मूर्ति पूजा जैसी बाह्य गतिविधियों की आलोचना की। संतों ने आडंबरपूर्ण पूजा-पद्धति के स्थान पर हृदय की शुद्धता, सत्य, सेवा और प्रेम को धर्म का मूल बताया। उन्होंने यह बताया कि सच्चा धर्म ईश्वर से प्रेम, मानव सेवा और सत्य आचरण में है, न कि विधियों और रस्मों के पालन में। इससे धर्म को एक सजीव और आत्मिक अनुभव के रूप में प्रस्तुत किया गया। == 3. प्रमुख संत और उनके विचार (विस्तृत विवरण) == भक्ति आंदोलन के केंद्र में वे संत और कवि थे जिन्होंने सामाजिक असमानता, धार्मिक पाखंड, और जातिगत भेदभाव को चुनौती दी। इन संतों ने विभिन्न भाषाओं में रचनाएँ कीं और एक ऐसे आध्यात्मिक मार्ग को प्रस्तुत किया, जिसमें प्रेम, करुणा, और व्यक्तिगत भक्ति सर्वोपरि थी। उनके विचारों ने न केवल धार्मिक दृष्टिकोण बदला, बल्कि समाज के सभी वर्गों को आत्मसम्मान और आध्यात्मिक मुक्ति की राह दिखाई। === 3.1 दक्षिण भारत के संत === ====आलवार और नायनार (6वीं–9वीं शताब्दी)==== आलवार विष्णु भक्त संत थे, जिन्होंने तमिल भाषा में भक्ति रचनाएँ लिखीं। इनकी कविताएँ ‘नालायरा दिव्य प्रबंधम’ में संकलित हैं। उन्होंने भगवान को एक प्रियतम की तरह पूजा और उनके प्रति प्रेम को सर्वोच्च माना। जातिवाद का विरोध इनकी रचनाओं में स्पष्ट है। '''नायनार''' शिव भक्त संत थे, जिन्होंने कर्मकांड और ब्राह्मणवादी वर्चस्व के विरुद्ध आवाज उठाई। वे भक्तों की निष्कलंक भक्ति और समाज में समानता को महत्वपूर्ण मानते थे। ====रामानुजाचार्य (11वीं शताब्दी)==== रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैत वेदांत का प्रतिपादन किया। वे मानते थे कि आत्मा और परमात्मा एक नहीं हैं, लेकिन आत्मा परमात्मा का ही अंश है। उन्होंने भक्ति को मोक्ष का मार्ग बताया और शूद्रों और स्त्रियों को भी वैदिक शिक्षाओं का अधिकार दिया। ====मध्वाचार्य (13वीं शताब्दी)==== मध्वाचार्य द्वैत दर्शन के प्रवर्तक थे। उन्होंने विष्णु को सर्वोच्च सत्ता माना और यह कहा कि जीव और ब्रह्म सदा भिन्न रहते हैं। उनके अनुसार, भक्ति ही ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग है। ====बसवेश्वर (12वीं शताब्दी)==== कर्नाटक के लिंगायत आंदोलन के प्रमुख संत। उन्होंने जाति और लिंग भेद के विरुद्ध आवाज उठाई। बसवेश्वर के अनुसार, कार्य ही पूजा है और शिव ही एकमात्र आराध्य हैं। उन्होंने ‘वचन’ साहित्य की रचना की, जिसमें सरल भाषा में सामाजिक क्रांति का संदेश था। === 3.2 उत्तर भारत के संत === ====कबीर (15वीं शताब्दी)==== कबीर एक जुलाहा जाति से थे और निर्गुण भक्ति के समर्थक थे। वे किसी धर्म के बंधन में नहीं बंधे और ईश्वर को ‘निर्गुण निराकार’ के रूप में पूजते थे। उनके दोहे सामाजिक अन्याय, धार्मिक आडंबर, जातिवाद, और कर्मकांडों के विरुद्ध कटाक्ष करते हैं। उदाहरण: "पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।<br> ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।" ====गुरु नानक (1469–1539)==== सिख धर्म के प्रवर्तक। उन्होंने ईश्वर को एक निराकार सत्ता के रूप में माना जिसे ‘एक ओंकार’ कहा जाता है। उनका सन्देश था: नाम जपो, कीरत करो, वंड छको। उन्होंने जाति, धर्म, और लिंग के भेदभाव का विरोध किया और मानवीय मूल्यों को सर्वोपरि बताया। ====संत रैदास (15वीं शताब्दी)==== एक चर्मकार जाति से आने वाले रैदास ने सामाजिक समानता और मानवता की बात की। उनके अनुसार, ईश्वर प्रेम और सेवा से प्राप्त होता है। उनकी वाणी ब्रह्मा से नहीं, अनुभव से जन्मी थी। उन्होंने दलित वर्ग को आत्मगौरव का अहसास कराया। ====मीरा बाई (15वीं–16वीं शताब्दी)==== राणा सांगा के पुत्र भोजराज की पत्नी थीं। मीरा ने कृष्ण को अपना पति और आराध्य माना। उनके पदों में भक्तिपूर्ण समर्पण, दर्द, विरह और आनंद का अनूठा संगम है। उन्होंने पितृसत्तात्मक समाज और कुल मर्यादा के बंधनों को तोड़ते हुए स्त्री स्वतंत्रता की आवाज बुलंद की। ====तुलसीदास (1532–1623)==== तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की, जो सगुण भक्ति का अद्भुत उदाहरण है। उन्होंने राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में प्रस्तुत किया। उनकी भाषा अवधी थी, जो आम जनता तक पहुँच सकी। उन्होंने लोकधर्म और सामाजिक आदर्शों को भक्ति से जोड़ा। ====सूरदास (15वीं–16वीं शताब्दी)==== सूरदास ने ब्रजभाषा में श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं पर केंद्रित ‘सूर सागर’ की रचना की। उन्होंने भगवान के सगुण रूप की भक्ति को सरस कविताओं और पदों के माध्यम से व्यक्त किया। वे अष्टछाप के प्रसिद्ध कवियों में से एक थे। ====नामदेव (13वीं शताब्दी)==== नामदेव महाराष्ट्र के संत थे और निर्गुण भक्ति के पक्षधर। उनकी रचनाओं में सामाजिक विषमता और जातिगत शोषण के विरुद्ध विरोध देखने को मिलता है। उन्होंने पंढरपुर के विट्ठल की भक्ति को जन-जन तक पहुँचाया। ====तुकाराम (17वीं शताब्दी)==== तुकाराम मराठी संत कवि थे, जिन्होंने सामाजिक न्याय, समता और भक्तिपूर्ण जीवन की वकालत की। उनकी ‘अभंग’ रचनाएँ आज भी महाराष्ट्र में अत्यधिक लोकप्रिय हैं। उन्होंने कर्मकांडों और पाखंडों का खंडन करते हुए भक्ति को सरल और सच्चा मार्ग बताया। ====दादू दयाल (राजस्थान)==== इन्होंने निर्गुण ईश्वर की भक्ति को अपनाया और जात-पात, धर्म भेद, और धार्मिक कट्टरता का विरोध किया। उनके अनुयायी ‘दादूपंथी’ कहलाते हैं। वे कबीर से प्रभावित थे और प्रेम तथा सेवा को धर्म का मूल माना। === 4. भक्ति आंदोलन का प्रभाव === भक्ति आंदोलन का भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा। इसने सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और भाषाई स्तरों पर अनेक सकारात्मक परिवर्तन किए। यह आंदोलन एक धार्मिक क्रांति के साथ-साथ एक सामाजिक सुधार आंदोलन भी बन गया। इसके प्रमुख प्रभाव निम्नलिखित हैं: सामाजिक समरसता और समानता: भक्ति आंदोलन ने जातिवाद, छुआछूत और सामाजिक ऊँच-नीच को चुनौती दी। सभी वर्गों, विशेषकर निम्न जातियों और महिलाओं को धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में स्थान मिला। इससे समाज में समरसता की भावना का विकास हुआ। धार्मिक सुधार और आध्यात्मिकता का विस्तार: इस आंदोलन ने धर्म को कर्मकांडों और बाहरी आडंबरों से मुक्त कर सच्ची आध्यात्मिकता की ओर मोड़ा। धार्मिक अनुभवों को व्यक्तिगत बनाया गया, जिससे हर व्यक्ति आत्मानुभूति के माध्यम से ईश्वर से जुड़ सका। भाषाई विकास और साहित्यिक समृद्धि: भक्ति संतों ने क्षेत्रीय भाषाओं में रचनाएँ कीं, जिससे भाषाओं का विकास हुआ। ब्रज, अवधी, तमिल, मराठी, कन्नड़, तेलुगु जैसी भाषाओं में उच्च कोटि का साहित्य सृजित हुआ, जो आज भी धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर के रूप में माना जाता है। धार्मिक सहिष्णुता और समन्वय: हिंदू-मुस्लिम संतों ने धार्मिक एकता और सहिष्णुता को बढ़ावा दिया। इससे समाज में एकता की भावना विकसित हुई, जो आगे चलकर भारतीय राष्ट्रवाद की नींव बनी। नारी जागरण: महिला संतों के योगदान और भक्ति के माध्यम से नारी की भूमिका को समाज में नई पहचान मिली। उन्हें धार्मिक और सामाजिक दृष्टि से सम्मान प्राप्त हुआ। राजनीतिक प्रभाव: भक्ति आंदोलन की शिक्षा और विचारों का असर शासकों पर भी पड़ा। कई शासकों ने संतों को संरक्षण दिया और उनके विचारों को राज्य नीति में सम्मिलित किया, जिससे शासन में उदारता और जनता से जुड़ाव बढ़ा। आर्थिक प्रभाव: मंदिरों और मठों के माध्यम से शिक्षा, कला और सामाजिक सेवा का कार्य होने लगा, जिससे आर्थिक रूप से भी समाज में संतुलन आया। ===निष्कर्ष=== भक्ति आंदोलन को केवल धार्मिक पुनर्जागरण कहना उचित नहीं होगा। यह एक समग्र सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति थी जिसने भारत को धर्म, समाज, भाषा, और संस्कृति के स्तर पर गहराई से प्रभावित किया। यह आंदोलन उस युग की एक ऐसी लहर थी जिसने तमाम धार्मिक, सामाजिक, और भाषाई बाधाओं को पार करते हुए "सर्वे भवन्तु सुखिनः" की भावना को समाज में स्थापित किया। आज के भारत में भी, जब हम धार्मिक सहिष्णुता, सामाजिक समरसता, और आध्यात्मिक जागरूकता की बात करते हैं, तो भक्ति आंदोलन की शिक्षाएँ और संतों के विचार हमें मार्गदर्शन देते हैं। यह आंदोलन एक जीवंत परंपरा है, जो वर्तमान समय में भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी मध्यकाल में थी। oewo5mo9ad0eb1eckuy5rm042uqlc0r 82589 82588 2025-06-15T08:01:22Z Baap8969 16001 82589 wikitext text/x-wiki === प्रस्तावना === भक्ति आंदोलन भारत के मध्यकालीन इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक आंदोलन था, जिसकी शुरुआत दक्षिण भारत में लगभग 6वीं से 8वीं शताब्दी के बीच मानी जाती है और जो 15वीं से 17वीं शताब्दी में उत्तर भारत में व्यापक रूप से फैल गया। यह आंदोलन न केवल धार्मिक सुधार की प्रक्रिया थी, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषाई दृष्टिकोण से भी क्रांतिकारी था। भक्ति आंदोलन ने धर्म के नाम पर चल रहे आडंबर, जाति-व्यवस्था, छुआछूत, और धार्मिक एकाधिकार को चुनौती दी। इस आंदोलन के माध्यम से भारतीय समाज में समरसता, समानता और मानवता की एक नई लहर आयी। भक्ति आंदोलन की जड़ें भारत की वैदिक और पुराणिक परंपरा में विद्यमान भक्ति भावना में थीं, लेकिन मध्यकालीन भारत में यह एक समर्पित सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन के रूप में उभरा। इसमें संतों, कवियों, और विचारकों ने व्यक्तिगत भक्ति, आत्मज्ञान, और सामाजिक न्याय को केंद्र में रखा। === 1. भक्ति आंदोलन की उत्पत्ति और पृष्ठभूमि === भक्ति आंदोलन की उत्पत्ति दक्षिण भारत से हुई, जहाँ आलवार (विष्णु भक्त) और नायनार (शिव भक्त) संतों ने धार्मिक कर्मकांडों, संस्कृत आधारित धार्मिक एकाधिकार, और जातिवाद का विरोध करते हुए व्यक्तिगत भक्ति को सर्वोपरि माना। आलवारों ने विष्णु की भक्ति में डूबकर तमिल भाषा में भक्ति रचनाएँ कीं, जिससे यह आंदोलन आम जनमानस से जुड़ सका। नायनार संतों ने शिव भक्ति के माध्यम से ब्राह्मणवादी वर्चस्व को चुनौती दी। उन्होंने मंदिरों की बजाय अपने अनुभवों और आस्था को महत्व दिया। इन संतों की रचनाओं में आत्मा और परमात्मा के मिलन की उत्कंठा और सामाजिक समानता की भावना झलकती है। उत्तर भारत में इस आंदोलन ने 13वीं से 17वीं शताब्दी के मध्य व्यापक रूप लिया। इस दौर में दिल्ली सल्तनत और मुग़ल शासन के समय धार्मिक असहिष्णुता, सामाजिक शोषण, और जाति व्यवस्था चरम पर थी। ऐसे समय में भक्ति संतों ने निर्गुण और सगुण दोनों रूपों में भक्ति का प्रचार करते हुए समाज में सुधार की लहर चलाई। === 2. प्रमुख विशेषताएँ === '''व्यक्तिगत भक्ति की प्रधानता''' – भक्ति आंदोलन की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि इसमें '''ईश्वर के प्रति व्यक्तिगत भक्ति''' को सर्वोपरि माना गया। '''संतों''' ने यह स्पष्ट किया कि ईश्वर को प्राप्त करने के लिए न तो किसी ब्राह्मण पुजारी की आवश्यकता है और न ही किसी मौलवी या धार्मिक संस्थान की। उन्होंने आत्मा और परमात्मा के सीधा संबंध को बल दिया और कहा कि कोई भी व्यक्ति चाहे वह किसी भी जाति, लिंग या वर्ग का हो, सीधे भक्ति के माध्यम से ईश्वर की प्राप्ति कर सकता है। इससे '''धर्म का लोकतांत्रिकरण''' हुआ और धार्मिक अनुभव को आम जनमानस तक पहुँचाया गया। '''भाषाई सरलता''' – भक्ति आंदोलन के संतों ने धार्मिक शिक्षाओं और आध्यात्मिक भावनाओं को जन-जन तक पहुँचाने के लिए स्थानीय और जनभाषाओं का प्रयोग किया। उन्होंने संस्कृत, अरबी या फारसी जैसी '''शास्त्रीय भाषाओं की बजाय अवधी, ब्रज, तमिल, तेलुगु, मराठी आदि भाषाओं में रचनाएँ कीं'''। इससे आम जनता को न केवल धर्म समझ में आने लगा, बल्कि वे सक्रिय रूप से आध्यात्मिक संवाद में भाग लेने लगे। इस भाषाई सरलता ने भक्ति साहित्य को व्यापक लोकप्रियता और प्रभाव प्रदान किया। '''जात-पात का विरोध''' – उस समय जब समाज जातिवाद और ऊँच-नीच की भावना से ग्रस्त था, भक्ति आंदोलन ने सभी जातियों को समान रूप से ईश्वर की भक्ति का अधिकार दिया। संत रैदास, कबीर, और नामदेव जैसे कई संत स्वयं निम्न जातियों से थे, और उन्होंने अपने जीवन और रचनाओं के माध्यम से जाति व्यवस्था की कटु आलोचना की। संतों ने यह सिखाया कि ईश्वर के सामने सभी प्राणी समान हैं और केवल भक्ति तथा अच्छे कर्मों से ही मोक्ष संभव है, न कि जन्म से। '''नारी सम्मान''' – उस काल में महिलाओं को धार्मिक और सामाजिक रूप से पुरुषों से निम्नतर माना जाता था। भक्ति आंदोलन के संतों ने इस परंपरा को तोड़ते हुए नारी की भक्ति, साधना और आत्मबोध को स्वीकार और सम्मान दिया। '''मीराबाई, अक्का महादेवी''' जैसी संत कवयित्रियों ने अपनी भक्ति और साहित्यिक योगदान से यह सिद्ध किया कि स्त्रियाँ भी आध्यात्मिक मार्ग में पुरुषों के समान अग्रणी हो सकती हैं। संतों ने स्त्रियों को ईश्वर प्राप्ति की समान स्वतंत्रता प्रदान की और सामाजिक बंधनों के विरुद्ध उनकी आवाज़ को समर्थन दिया। '''धार्मिक सहिष्णुता''' – भक्ति आंदोलन ने विभिन्न धर्मों के बीच सामंजस्य और सहिष्णुता की भावना को बढ़ावा दिया। '''कबीर और गुरु नानक जैसे संतों''' ने हिंदू और मुस्लिम दोनों धार्मिक विचारों को मिलाकर एक '''समन्वित धार्मिक दृष्टिकोण प्रस्तुत''' किया। उन्होंने यह सिखाया कि ईश्वर एक है और उसे किसी एक धर्म, संप्रदाय या जाति में सीमित नहीं किया जा सकता। यह दृष्टिकोण भारत में धर्मनिरपेक्षता और आपसी सद्भाव के बीज बोने में सहायक हुआ। '''कर्मकांड और बाह्य आडंबर का विरोध''' – भक्ति आंदोलन ने धार्मिक कर्मकांड, यज्ञ, बलि, मूर्ति पूजा जैसी बाह्य गतिविधियों की आलोचना की। संतों ने आडंबरपूर्ण पूजा-पद्धति के स्थान पर हृदय की शुद्धता, सत्य, सेवा और प्रेम को धर्म का मूल बताया। उन्होंने यह बताया कि सच्चा धर्म ईश्वर से प्रेम, मानव सेवा और सत्य आचरण में है, न कि विधियों और रस्मों के पालन में। इससे धर्म को एक सजीव और आत्मिक अनुभव के रूप में प्रस्तुत किया गया। == 3. प्रमुख संत और उनके विचार (विस्तृत विवरण) == भक्ति आंदोलन के केंद्र में वे संत और कवि थे जिन्होंने सामाजिक असमानता, धार्मिक पाखंड, और जातिगत भेदभाव को चुनौती दी। इन संतों ने विभिन्न भाषाओं में रचनाएँ कीं और एक ऐसे आध्यात्मिक मार्ग को प्रस्तुत किया, जिसमें प्रेम, करुणा, और व्यक्तिगत भक्ति सर्वोपरि थी। उनके विचारों ने न केवल धार्मिक दृष्टिकोण बदला, बल्कि समाज के सभी वर्गों को आत्मसम्मान और आध्यात्मिक मुक्ति की राह दिखाई। === 3.1 दक्षिण भारत के संत === ====आलवार और नायनार (6वीं–9वीं शताब्दी)==== आलवार विष्णु भक्त संत थे, जिन्होंने तमिल भाषा में भक्ति रचनाएँ लिखीं। इनकी कविताएँ ‘नालायरा दिव्य प्रबंधम’ में संकलित हैं। उन्होंने भगवान को एक प्रियतम की तरह पूजा और उनके प्रति प्रेम को सर्वोच्च माना। जातिवाद का विरोध इनकी रचनाओं में स्पष्ट है। '''नायनार''' शिव भक्त संत थे, जिन्होंने कर्मकांड और ब्राह्मणवादी वर्चस्व के विरुद्ध आवाज उठाई। वे भक्तों की निष्कलंक भक्ति और समाज में समानता को महत्वपूर्ण मानते थे। ====रामानुजाचार्य (11वीं शताब्दी)==== रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैत वेदांत का प्रतिपादन किया। वे मानते थे कि आत्मा और परमात्मा एक नहीं हैं, लेकिन आत्मा परमात्मा का ही अंश है। उन्होंने भक्ति को मोक्ष का मार्ग बताया और शूद्रों और स्त्रियों को भी वैदिक शिक्षाओं का अधिकार दिया। ====मध्वाचार्य (13वीं शताब्दी)==== मध्वाचार्य द्वैत दर्शन के प्रवर्तक थे। उन्होंने विष्णु को सर्वोच्च सत्ता माना और यह कहा कि जीव और ब्रह्म सदा भिन्न रहते हैं। उनके अनुसार, भक्ति ही ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग है। ====बसवेश्वर (12वीं शताब्दी)==== कर्नाटक के लिंगायत आंदोलन के प्रमुख संत। उन्होंने जाति और लिंग भेद के विरुद्ध आवाज उठाई। बसवेश्वर के अनुसार, कार्य ही पूजा है और शिव ही एकमात्र आराध्य हैं। उन्होंने ‘वचन’ साहित्य की रचना की, जिसमें सरल भाषा में सामाजिक क्रांति का संदेश था। === 3.2 उत्तर भारत के संत === ====कबीर (15वीं शताब्दी)==== कबीर एक जुलाहा जाति से थे और निर्गुण भक्ति के समर्थक थे। वे किसी धर्म के बंधन में नहीं बंधे और ईश्वर को ‘निर्गुण निराकार’ के रूप में पूजते थे। उनके दोहे सामाजिक अन्याय, धार्मिक आडंबर, जातिवाद, और कर्मकांडों के विरुद्ध कटाक्ष करते हैं। उदाहरण: "पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।<br> ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।" ====गुरु नानक (1469–1539)==== सिख धर्म के प्रवर्तक। उन्होंने ईश्वर को एक निराकार सत्ता के रूप में माना जिसे ‘एक ओंकार’ कहा जाता है। उनका सन्देश था: नाम जपो, कीरत करो, वंड छको। उन्होंने जाति, धर्म, और लिंग के भेदभाव का विरोध किया और मानवीय मूल्यों को सर्वोपरि बताया। ====संत रैदास (15वीं शताब्दी)==== एक चर्मकार जाति से आने वाले रैदास ने सामाजिक समानता और मानवता की बात की। उनके अनुसार, ईश्वर प्रेम और सेवा से प्राप्त होता है। उनकी वाणी ब्रह्मा से नहीं, अनुभव से जन्मी थी। उन्होंने दलित वर्ग को आत्मगौरव का अहसास कराया। ====मीरा बाई (15वीं–16वीं शताब्दी)==== राणा सांगा के पुत्र भोजराज की पत्नी थीं। मीरा ने कृष्ण को अपना पति और आराध्य माना। उनके पदों में भक्तिपूर्ण समर्पण, दर्द, विरह और आनंद का अनूठा संगम है। उन्होंने पितृसत्तात्मक समाज और कुल मर्यादा के बंधनों को तोड़ते हुए स्त्री स्वतंत्रता की आवाज बुलंद की। ====तुलसीदास (1532–1623)==== तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की, जो सगुण भक्ति का अद्भुत उदाहरण है। उन्होंने राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में प्रस्तुत किया। उनकी भाषा अवधी थी, जो आम जनता तक पहुँच सकी। उन्होंने लोकधर्म और सामाजिक आदर्शों को भक्ति से जोड़ा। ====सूरदास (15वीं–16वीं शताब्दी)==== सूरदास ने ब्रजभाषा में श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं पर केंद्रित ‘सूर सागर’ की रचना की। उन्होंने भगवान के सगुण रूप की भक्ति को सरस कविताओं और पदों के माध्यम से व्यक्त किया। वे अष्टछाप के प्रसिद्ध कवियों में से एक थे। ====नामदेव (13वीं शताब्दी)==== नामदेव महाराष्ट्र के संत थे और निर्गुण भक्ति के पक्षधर। उनकी रचनाओं में सामाजिक विषमता और जातिगत शोषण के विरुद्ध विरोध देखने को मिलता है। उन्होंने पंढरपुर के विट्ठल की भक्ति को जन-जन तक पहुँचाया। ====तुकाराम (17वीं शताब्दी)==== तुकाराम मराठी संत कवि थे, जिन्होंने सामाजिक न्याय, समता और भक्तिपूर्ण जीवन की वकालत की। उनकी ‘अभंग’ रचनाएँ आज भी महाराष्ट्र में अत्यधिक लोकप्रिय हैं। उन्होंने कर्मकांडों और पाखंडों का खंडन करते हुए भक्ति को सरल और सच्चा मार्ग बताया। ====दादू दयाल (राजस्थान)==== इन्होंने निर्गुण ईश्वर की भक्ति को अपनाया और जात-पात, धर्म भेद, और धार्मिक कट्टरता का विरोध किया। उनके अनुयायी ‘दादूपंथी’ कहलाते हैं। वे कबीर से प्रभावित थे और प्रेम तथा सेवा को धर्म का मूल माना। === 4. भक्ति आंदोलन का प्रभाव === भक्ति आंदोलन का भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा। इसने सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और भाषाई स्तरों पर अनेक सकारात्मक परिवर्तन किए। यह आंदोलन एक धार्मिक क्रांति के साथ-साथ एक सामाजिक सुधार आंदोलन भी बन गया। इसके प्रमुख प्रभाव निम्नलिखित हैं: सामाजिक समरसता और समानता: भक्ति आंदोलन ने जातिवाद, छुआछूत और सामाजिक ऊँच-नीच को चुनौती दी। सभी वर्गों, विशेषकर निम्न जातियों और महिलाओं को धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में स्थान मिला। इससे समाज में समरसता की भावना का विकास हुआ। धार्मिक सुधार और आध्यात्मिकता का विस्तार: इस आंदोलन ने धर्म को कर्मकांडों और बाहरी आडंबरों से मुक्त कर सच्ची आध्यात्मिकता की ओर मोड़ा। धार्मिक अनुभवों को व्यक्तिगत बनाया गया, जिससे हर व्यक्ति आत्मानुभूति के माध्यम से ईश्वर से जुड़ सका। भाषाई विकास और साहित्यिक समृद्धि: भक्ति संतों ने क्षेत्रीय भाषाओं में रचनाएँ कीं, जिससे भाषाओं का विकास हुआ। ब्रज, अवधी, तमिल, मराठी, कन्नड़, तेलुगु जैसी भाषाओं में उच्च कोटि का साहित्य सृजित हुआ, जो आज भी धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर के रूप में माना जाता है। धार्मिक सहिष्णुता और समन्वय: हिंदू-मुस्लिम संतों ने धार्मिक एकता और सहिष्णुता को बढ़ावा दिया। इससे समाज में एकता की भावना विकसित हुई, जो आगे चलकर भारतीय राष्ट्रवाद की नींव बनी। नारी जागरण: महिला संतों के योगदान और भक्ति के माध्यम से नारी की भूमिका को समाज में नई पहचान मिली। उन्हें धार्मिक और सामाजिक दृष्टि से सम्मान प्राप्त हुआ। राजनीतिक प्रभाव: भक्ति आंदोलन की शिक्षा और विचारों का असर शासकों पर भी पड़ा। कई शासकों ने संतों को संरक्षण दिया और उनके विचारों को राज्य नीति में सम्मिलित किया, जिससे शासन में उदारता और जनता से जुड़ाव बढ़ा। आर्थिक प्रभाव: मंदिरों और मठों के माध्यम से शिक्षा, कला और सामाजिक सेवा का कार्य होने लगा, जिससे आर्थिक रूप से भी समाज में संतुलन आया। ===निष्कर्ष=== भक्ति आंदोलन न केवल मध्यकालीन भारत का एक धार्मिक आंदोलन था, बल्कि यह एक सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषाई और दार्शनिक क्रांति भी था। इसने धर्म के क्षेत्र में व्याप्त जड़ता, पाखंड, कर्मकांड और जातिवाद जैसे दोषों को चुनौती दी और व्यक्तिगत ईश्वर-भक्ति के मार्ग को सरल, सुलभ और आत्मिक बनाया। यह आंदोलन एक ऐसे समय में उभरा जब भारत राजनीतिक अस्थिरता, धार्मिक असहिष्णुता, सामाजिक भेदभाव और विदेशी शासन की चुनौतियों से जूझ रहा था। इन स्थितियों में भक्ति आंदोलन ने भारतीय समाज को एक नई नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि दी। इसने धार्मिक अनुभव को जन-जन तक पहुँचाया, क्षेत्रीय भाषाओं को समृद्ध किया, सामाजिक भेदभाव को मिटाने की दिशा में क्रांतिकारी कार्य किया और धार्मिक सहिष्णुता की भावना को बल दिया। महत्वपूर्ण बात यह भी है कि इस आंदोलन ने नारी शक्ति को भी स्वर प्रदान किया, उनके आध्यात्मिक अनुभवों को मान्यता दी और उन्हें सामाजिक बंधनों से मुक्त करने में भूमिका निभाई। भक्ति आंदोलन ने धर्म को मानवीय मूल्यों से जोड़ा, जहाँ प्रेम, सेवा, करुणा, और सत्य जैसे आदर्शों को सर्वोपरि माना गया। आज भी जब हम धार्मिक सहिष्णुता, सामाजिक समरसता और मानवतावाद की बात करते हैं, तो भक्ति संतों के विचार और उनकी रचनाएँ हमें मार्गदर्शन देती हैं। '''भक्ति आंदोलन''' की देन को केवल धार्मिक दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि एक सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसकी प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है जितनी उस समय थी। [[Category:मध्यकालीन भारत]] [[Category:भक्ति आंदोलन]] [[Category:इतिहास]] 6otcnt51mpar06oekhpmxosxhxz849q भारत का सांस्कृतिक इतिहास/मुगलकाल 0 11407 82590 2025-06-15T08:07:46Z Baap8969 16001 ' === प्रस्तावना === मुग़लकाल (1526 – 1857 ई.) भारतीय इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और परिवर्तनकारी युग रहा। इस कालखंड में भारत में एक सशक्त केंद्रीकृत शासन प्रणाली का विकास हु...' के साथ नया पृष्ठ बनाया 82590 wikitext text/x-wiki === प्रस्तावना === मुग़लकाल (1526 – 1857 ई.) भारतीय इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और परिवर्तनकारी युग रहा। इस कालखंड में भारत में एक सशक्त केंद्रीकृत शासन प्रणाली का विकास हुआ, जिसने न केवल राजनीतिक स्थायित्व प्रदान किया बल्कि भारत की कला, साहित्य, स्थापत्य, धार्मिक विविधता, सांस्कृतिक परंपराओं और प्रशासनिक ढांचे को भी गहराई से प्रभावित किया। इस युग की शुरुआत बाबर ने पानीपत की पहली लड़ाई (1526) में इब्राहिम लोदी को हराकर की। बाबर तैमूर और चंगेज़ ख़ान की वंशावली से था और मध्य एशिया से भारत आया था। मुग़ल साम्राज्य लगभग 300 वर्षों तक भारतीय उपमहाद्वीप पर एक प्रभावशाली शक्ति बना रहा। इस काल में शासकों की नीतियों और कार्यप्रणाली ने भारत की सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध किया। जहाँ अकबर जैसे उदारवादी और सहिष्णु शासकों ने धार्मिक सहिष्णुता और समावेशी शासन को बढ़ावा दिया, वहीं औरंगज़ेब जैसे रूढ़िवादी शासकों की नीतियाँ विवादास्पद रहीं। मुग़ल काल को स्थापत्य, चित्रकला, साहित्य और प्रशासनिक सुधारों का स्वर्ण युग कहा जा सकता है। === 1. मुग़ल साम्राज्य की स्थापना === 1526 में बाबर ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को पानीपत की पहली लड़ाई में पराजित कर भारत में मुग़ल साम्राज्य की नींव रखी। बाबर एक अत्यंत कुशल सेनानायक था, जिसने खानवा (1527), चंदेरी (1528), और घाघरा (1529) की लड़ाइयों में विजय प्राप्त कर अपनी सत्ता को सुदृढ़ किया। बाबर के बाद उसका पुत्र हुमायूँ गद्दी पर बैठा। लेकिन वह शेरशाह सूरी से हार गया और उसे निर्वासन में जाना पड़ा। कई वर्षों के संघर्ष के बाद, हुमायूँ ने पुनः दिल्ली पर अधिकार किया लेकिन शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद उसका पुत्र अकबर सिंहासन पर बैठा जिसने मुग़ल साम्राज्य को सुदृढ़ और विस्तारित किया। === 2. प्रमुख शासक और उनकी नीतियाँ === ==== बाबर (1526–1530) ==== * बाबर एक लेखक, योद्धा और बागवानी प्रेमी था। उसने 'तुज़ुक-ए-बाबरी' नामक आत्मकथा लिखी जो उस समय की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों का वर्णन करती है। * बाबर ने भारत में तुर्क-मंगोल संस्कृति का परिचय दिया और मस्जिदों तथा बागानों का निर्माण करवाया। ==== हुमायूँ (1530–1540, 1555–56) ==== * हुमायूँ को शेरशाह सूरी ने पराजित किया और वह ईरान चला गया। * वहां से उसने फारसी संस्कृति और कला को भारत में पुनः लाने का प्रयास किया। * उसका शासनकाल अस्थिर रहा लेकिन उसने अपने पुत्र अकबर के लिए साम्राज्य की पुनर्स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। ==== अकबर (1556–1605) ==== * अकबर का शासन मुग़ल काल का स्वर्ण युग था। * उसने धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा दिया और हिंदू-मुस्लिम एकता की नीति अपनाई। * उसने राजपूतों से वैवाहिक संबंध बनाए और उन्हें प्रशासन में महत्वपूर्ण स्थान दिया। * 'इबादतख़ाना' की स्थापना की जहाँ विभिन्न धर्मों के विद्वानों से संवाद होता था। * उसने 'दीन-ए-इलाही' नामक एक नया धर्म चलाया, जिसमें विभिन्न धर्मों की अच्छाइयों को सम्मिलित किया गया। * अकबर ने मानसबदारी और ज़ब्ती प्रणाली लागू कर प्रशासन को संगठित किया। ==== जहाँगीर (1605–1627) ==== * जहाँगीर न्यायप्रिय शासक था और 'न्याय की जंजीर' का प्रचलन उसी ने किया। * उसने चित्रकला और ललित कलाओं को प्रोत्साहित किया। * उसकी पत्नी नूरजहाँ का शासन पर गहरा प्रभाव था। ==== शाहजहाँ (1628–1658) ==== * शाहजहाँ के काल को स्थापत्य का स्वर्ण युग माना जाता है। * उसने ताजमहल, लाल किला, जामा मस्जिद आदि भव्य इमारतों का निर्माण करवाया। * साहित्य और चित्रकला में भी प्रगति हुई। ==== औरंगज़ेब (1658–1707) ==== * औरंगज़ेब ने इस्लामी रूढ़ियों को अपनाया और जज़िया कर पुनः लागू किया। * उसने मंदिरों को ध्वस्त किया और धार्मिक असहिष्णुता को बढ़ावा दिया। * दक्षिण भारत में विस्तार की नीति अपनाई, परंतु वह प्रशासन को सुदृढ़ बनाए रखने में असफल रहा। === 3. प्रशासनिक व्यवस्था === मुग़लों ने अत्यधिक केंद्रीकृत प्रशासनिक प्रणाली विकसित की। प्रमुख व्यवस्थाएँ: * **मानसबदारी प्रणाली**: यह एक प्रकार की सैन्य और नागरिक रैंक प्रणाली थी जिसमें अधिकारियों को उनकी योग्यता और जिम्मेदारी के अनुसार रैंक दी जाती थी। * **ज़ब्ती प्रणाली**: टोडरमल द्वारा विकसित यह भूमि राजस्व प्रणाली उपज और क्षेत्र के अनुसार कर निर्धारण करती थी। * अन्य प्रशासनिक पदों में दीवान (राजस्व मंत्री), बख्शी (सेना प्रमुख), सादर (अनुशासन निरीक्षक), और फौजदार (प्रांत अधिकारी) शामिल थे। === 4. धर्म और धार्मिक नीतियाँ === मुग़ल शासकों की धार्मिक नीतियाँ समयानुसार बदलती रहीं: * अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा दिया और हिंदू मंदिरों को संरक्षण दिया। * दीन-ए-इलाही के माध्यम से धार्मिक एकता का प्रयास किया गया। * जहाँगीर और शाहजहाँ तुलनात्मक रूप से परंपरागत थे लेकिन उन्होंने धार्मिक दमन नहीं किया। * औरंगज़ेब ने कट्टर इस्लामी नीतियाँ अपनाईं, जिससे धार्मिक तनाव बढ़ा। === 5. कला, स्थापत्य और साहित्य === ==== स्थापत्य कला ==== * शाहजहाँ के शासन में स्थापत्य कला का उत्कर्ष हुआ। ताजमहल इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। * लाल किला, आगरा किला, मोती मस्जिद, और फतेहपुर सीकरी जैसी इमारतें इस काल की स्थापत्य विरासत हैं। ==== चित्रकला ==== * अकबर के समय में चित्रकला विशेष रूप से विकसित हुई। * जहाँगीर ने यथार्थवादी चित्रकला को बढ़ावा दिया। * चित्रकला में पशु-पक्षी, प्राकृतिक दृश्य और दरबारी जीवन को दर्शाया गया। ==== साहित्य ==== * फारसी भाषा में इतिहास, जीवनी और काव्य की अनेक रचनाएँ हुईं। * अबुल फज़ल की 'आइन-ए-अकबरी' और 'अकबरनामा' उल्लेखनीय हैं। * हिंदी, ब्रज और उर्दू में भी रचनाएँ हुईं। तुलसीदास, रहीम, रसखान जैसे कवियों का समय। === 6. समाज और संस्कृति === मुग़लकालीन समाज बहुस्तरीय था। इसमें शासक वर्ग, सैन्य अधिकारी, व्यापारी, कारीगर, किसान और श्रमिक वर्ग शामिल थे। * **नारी की स्थिति**: पर्दा प्रथा का चलन था, परंतु शाही महिलाएँ राजनीतिक निर्णयों में भाग लेती थीं। * **भोजन और पोशाक**: फारसी और भारतीय भोजन शैलियों का समन्वय हुआ। * **त्योहार और संगीत**: हिन्दू-मुस्लिम त्योहारों का संयुक्त रूप से आयोजन होता था। संगीत, विशेषकर दरबारी संगीत, अत्यंत लोकप्रिय था। === 7. मुग़ल साम्राज्य का पतन === औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार का संकट उत्पन्न हुआ। कई कमजोर शासक सत्ता में आए। * दरबारी षड्यंत्र, भ्रष्टाचार और प्रशासनिक अराजकता बढ़ी। * मराठा, जाट, सिख और अन्य स्थानीय शक्तियाँ उभरने लगीं। * अंग्रेजों का प्रभाव और नियंत्रण बढ़ता गया। * 1857 की क्रांति के बाद बहादुर शाह ज़फ़र को गिरफ्तार कर मुग़ल साम्राज्य का अंत कर दिया गया। === निष्कर्ष === मुग़लकाल भारतीय इतिहास का एक सांस्कृतिक, राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टि से समृद्ध युग था। इस काल में धार्मिक सहिष्णुता, स्थापत्य, चित्रकला और साहित्य का अभूतपूर्व विकास हुआ। यद्यपि कालांतर में शासन की कमजोरियों और सामाजिक विद्रूपताओं के कारण साम्राज्य का पतन हुआ, फिर भी मुग़लकालीन धरोहरें आज भी भारत की सांस्कृतिक पहचान का अभिन्न अंग हैं। === श्रेणी: इतिहास === d9essez264l82tohuckordlbtwgthra 82591 82590 2025-06-15T08:09:29Z Baap8969 16001 82591 wikitext text/x-wiki === प्रस्तावना === मुग़लकाल (1526 – 1857 ई.) भारतीय इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और परिवर्तनकारी युग रहा। इस कालखंड में भारत में एक सशक्त केंद्रीकृत शासन प्रणाली का विकास हुआ, जिसने न केवल राजनीतिक स्थायित्व प्रदान किया बल्कि भारत की कला, साहित्य, स्थापत्य, धार्मिक विविधता, सांस्कृतिक परंपराओं और प्रशासनिक ढांचे को भी गहराई से प्रभावित किया। इस युग की शुरुआत बाबर ने पानीपत की पहली लड़ाई (1526) में इब्राहिम लोदी को हराकर की। बाबर तैमूर और चंगेज़ ख़ान की वंशावली से था और मध्य एशिया से भारत आया था। मुग़ल साम्राज्य लगभग 300 वर्षों तक भारतीय उपमहाद्वीप पर एक प्रभावशाली शक्ति बना रहा। इस काल में शासकों की नीतियों और कार्यप्रणाली ने भारत की सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध किया। जहाँ अकबर जैसे उदारवादी और सहिष्णु शासकों ने धार्मिक सहिष्णुता और समावेशी शासन को बढ़ावा दिया, वहीं औरंगज़ेब जैसे रूढ़िवादी शासकों की नीतियाँ विवादास्पद रहीं। मुग़ल काल को स्थापत्य, चित्रकला, साहित्य और प्रशासनिक सुधारों का स्वर्ण युग कहा जा सकता है। === 1. मुग़ल साम्राज्य की स्थापना === 1526 में बाबर ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को पानीपत की पहली लड़ाई में पराजित कर भारत में मुग़ल साम्राज्य की नींव रखी। बाबर एक अत्यंत कुशल सेनानायक था, जिसने खानवा (1527), चंदेरी (1528), और घाघरा (1529) की लड़ाइयों में विजय प्राप्त कर अपनी सत्ता को सुदृढ़ किया। बाबर के बाद उसका पुत्र हुमायूँ गद्दी पर बैठा। लेकिन वह शेरशाह सूरी से हार गया और उसे निर्वासन में जाना पड़ा। कई वर्षों के संघर्ष के बाद, हुमायूँ ने पुनः दिल्ली पर अधिकार किया लेकिन शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद उसका पुत्र अकबर सिंहासन पर बैठा जिसने मुग़ल साम्राज्य को सुदृढ़ और विस्तारित किया। === 2. प्रमुख शासक और उनकी नीतियाँ === ==== बाबर (1526–1530) ==== * बाबर एक लेखक, योद्धा और बागवानी प्रेमी था। उसने 'तुज़ुक-ए-बाबरी' नामक आत्मकथा लिखी जो उस समय की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों का वर्णन करती है। * बाबर ने भारत में तुर्क-मंगोल संस्कृति का परिचय दिया और मस्जिदों तथा बागानों का निर्माण करवाया। ==== हुमायूँ (1530–1540, 1555–56) ==== * हुमायूँ को शेरशाह सूरी ने पराजित किया और वह ईरान चला गया। * वहां से उसने फारसी संस्कृति और कला को भारत में पुनः लाने का प्रयास किया। * उसका शासनकाल अस्थिर रहा लेकिन उसने अपने पुत्र अकबर के लिए साम्राज्य की पुनर्स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। ==== अकबर (1556–1605) ==== * अकबर का शासन मुग़ल काल का स्वर्ण युग था। * उसने धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा दिया और हिंदू-मुस्लिम एकता की नीति अपनाई। * उसने राजपूतों से वैवाहिक संबंध बनाए और उन्हें प्रशासन में महत्वपूर्ण स्थान दिया। * 'इबादतख़ाना' की स्थापना की जहाँ विभिन्न धर्मों के विद्वानों से संवाद होता था। * उसने 'दीन-ए-इलाही' नामक एक नया धर्म चलाया, जिसमें विभिन्न धर्मों की अच्छाइयों को सम्मिलित किया गया। * अकबर ने मानसबदारी और ज़ब्ती प्रणाली लागू कर प्रशासन को संगठित किया। ==== जहाँगीर (1605–1627) ==== * जहाँगीर न्यायप्रिय शासक था और 'न्याय की जंजीर' का प्रचलन उसी ने किया। * उसने चित्रकला और ललित कलाओं को प्रोत्साहित किया। * उसकी पत्नी नूरजहाँ का शासन पर गहरा प्रभाव था। ==== शाहजहाँ (1628–1658) ==== * शाहजहाँ के काल को स्थापत्य का स्वर्ण युग माना जाता है। * उसने ताजमहल, लाल किला, जामा मस्जिद आदि भव्य इमारतों का निर्माण करवाया। * साहित्य और चित्रकला में भी प्रगति हुई। ==== औरंगज़ेब (1658–1707) ==== * औरंगज़ेब ने इस्लामी रूढ़ियों को अपनाया और जज़िया कर पुनः लागू किया। * उसने मंदिरों को ध्वस्त किया और धार्मिक असहिष्णुता को बढ़ावा दिया। * दक्षिण भारत में विस्तार की नीति अपनाई, परंतु वह प्रशासन को सुदृढ़ बनाए रखने में असफल रहा। === 3. प्रशासनिक व्यवस्था === मुग़लों ने अत्यधिक केंद्रीकृत प्रशासनिक प्रणाली विकसित की। प्रमुख व्यवस्थाएँ: * **मानसबदारी प्रणाली**: यह एक प्रकार की सैन्य और नागरिक रैंक प्रणाली थी जिसमें अधिकारियों को उनकी योग्यता और जिम्मेदारी के अनुसार रैंक दी जाती थी। * **ज़ब्ती प्रणाली**: टोडरमल द्वारा विकसित यह भूमि राजस्व प्रणाली उपज और क्षेत्र के अनुसार कर निर्धारण करती थी। * अन्य प्रशासनिक पदों में दीवान (राजस्व मंत्री), बख्शी (सेना प्रमुख), सादर (अनुशासन निरीक्षक), और फौजदार (प्रांत अधिकारी) शामिल थे। === 4. धर्म और धार्मिक नीतियाँ === मुग़ल शासकों की धार्मिक नीतियाँ समयानुसार बदलती रहीं: * अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा दिया और हिंदू मंदिरों को संरक्षण दिया। * दीन-ए-इलाही के माध्यम से धार्मिक एकता का प्रयास किया गया। * जहाँगीर और शाहजहाँ तुलनात्मक रूप से परंपरागत थे लेकिन उन्होंने धार्मिक दमन नहीं किया। * औरंगज़ेब ने कट्टर इस्लामी नीतियाँ अपनाईं, जिससे धार्मिक तनाव बढ़ा। === 5. कला, स्थापत्य और साहित्य === ==== स्थापत्य कला ==== * शाहजहाँ के शासन में स्थापत्य कला का उत्कर्ष हुआ। ताजमहल इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। * लाल किला, आगरा किला, मोती मस्जिद, और फतेहपुर सीकरी जैसी इमारतें इस काल की स्थापत्य विरासत हैं। ==== चित्रकला ==== * अकबर के समय में चित्रकला विशेष रूप से विकसित हुई। * जहाँगीर ने यथार्थवादी चित्रकला को बढ़ावा दिया। * चित्रकला में पशु-पक्षी, प्राकृतिक दृश्य और दरबारी जीवन को दर्शाया गया। ==== साहित्य ==== * फारसी भाषा में इतिहास, जीवनी और काव्य की अनेक रचनाएँ हुईं। * अबुल फज़ल की 'आइन-ए-अकबरी' और 'अकबरनामा' उल्लेखनीय हैं। * हिंदी, ब्रज और उर्दू में भी रचनाएँ हुईं। तुलसीदास, रहीम, रसखान जैसे कवियों का समय। === 6. समाज और संस्कृति === मुग़लकालीन समाज बहुस्तरीय था। इसमें शासक वर्ग, सैन्य अधिकारी, व्यापारी, कारीगर, किसान और श्रमिक वर्ग शामिल थे। * **नारी की स्थिति**: पर्दा प्रथा का चलन था, परंतु शाही महिलाएँ राजनीतिक निर्णयों में भाग लेती थीं। * **भोजन और पोशाक**: फारसी और भारतीय भोजन शैलियों का समन्वय हुआ। * **त्योहार और संगीत**: हिन्दू-मुस्लिम त्योहारों का संयुक्त रूप से आयोजन होता था। संगीत, विशेषकर दरबारी संगीत, अत्यंत लोकप्रिय था। === 7. मुग़ल साम्राज्य का पतन === औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार का संकट उत्पन्न हुआ। कई कमजोर शासक सत्ता में आए। * दरबारी षड्यंत्र, भ्रष्टाचार और प्रशासनिक अराजकता बढ़ी। * मराठा, जाट, सिख और अन्य स्थानीय शक्तियाँ उभरने लगीं। * अंग्रेजों का प्रभाव और नियंत्रण बढ़ता गया। * 1857 की क्रांति के बाद बहादुर शाह ज़फ़र को गिरफ्तार कर मुग़ल साम्राज्य का अंत कर दिया गया। === निष्कर्ष === मुग़लकाल भारतीय इतिहास का एक सांस्कृतिक, राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टि से समृद्ध युग था। इस काल में धार्मिक सहिष्णुता, स्थापत्य, चित्रकला और साहित्य का अभूतपूर्व विकास हुआ। यद्यपि कालांतर में शासन की कमजोरियों और सामाजिक विद्रूपताओं के कारण साम्राज्य का पतन हुआ, फिर भी मुग़लकालीन धरोहरें आज भी भारत की सांस्कृतिक पहचान का अभिन्न अंग हैं। [[श्रेणी:मध्यकालीन भारत का इतिहास]] [[श्रेणी:भारतीय इतिहास]] [[श्रेणी:मुग़ल साम्राज्य]] [[श्रेणी:भारतीय संस्कृति]] [[श्रेणी:प्राचीन भारतीय स्थापत्य]] [[श्रेणी:भारतीय चित्रकला]] [[श्रेणी:धार्मिक इतिहास]] [[श्रेणी:भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था]] [[श्रेणी:इतिहास की पुस्तकें]] [[श्रेणी:हिन्दी विकिपुस्तक]] [[श्रेणी:भारतीय साहित्य का इतिहास]] n59j97bc4mnlk6m47cud368u7zhr05a भारत का सांस्कृतिक इतिहास/ब्रिटिश राज 0 11408 82592 2025-06-15T08:57:52Z Baap8969 16001 ''''ब्रिटिश राज''' (1858 से 1947) भारत के इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और निर्णायक काल था, जब भारत पर प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटेन की महारानी के शासन की स्थापना हुई। इस काल में न के...' के साथ नया पृष्ठ बनाया 82592 wikitext text/x-wiki '''ब्रिटिश राज''' (1858 से 1947) भारत के इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और निर्णायक काल था, जब भारत पर प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटेन की महारानी के शासन की स्थापना हुई। इस काल में न केवल भारत की राजनीतिक संरचना बदली, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और शैक्षणिक क्षेत्रों में भी गहरे परिवर्तन हुए। यह अध्याय ब्रिटिश राज की स्थापना से लेकर भारत की स्वतंत्रता तक की सम्पूर्ण यात्रा का विश्लेषण करता है। === 1. ब्रिटिश शासन की पृष्ठभूमि === ब्रिटिश राज की नींव 18वीं शताब्दी में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भारत में व्यापार के बहाने डाले गए कदमों से पड़ी। ईस्ट इंडिया कंपनी ने धीरे-धीरे अपने सैन्य, आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाकर भारतीय राजाओं को पराजित किया। प्रमुख युद्ध जैसे प्लासी (1757) और बक्सर (1764) ने ब्रिटिशों को बंगाल की दीवानी दिलाई, जिससे उन्हें राजस्व वसूलने का अधिकार मिला। ईस्ट इंडिया कंपनी ने 'डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स' और 'सब्सिडियरी एलायंस' जैसी नीतियों के माध्यम से कई रियासतों को हड़प लिया। लेकिन उनकी असंवेदनशील नीतियों के कारण असंतोष बढ़ा, जो 1857 की क्रांति के रूप में फूटा। === 2. 1857 की क्रांति और इसके परिणाम === 1857 का विद्रोह भारत की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में जाना जाता है। इसके प्रमुख कारण थे: सैनिक असंतोष – एनफ़ील्ड राइफल के कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी का प्रयोग सामाजिक-धार्मिक हस्तक्षेप – सती प्रथा, बाल विवाह पर रोक, विधवा पुनर्विवाह आदि का विरोध भूमि नीति – स्थायी बंदोबस्त, तालुकेदारी प्रणाली से किसानों का शोषण भारतीय राजाओं का अपमान – झांसी, अवध, नागपुर जैसे राज्य हड़पना प्रमुख नेता: बहादुर शाह ज़फर (दिल्ली) रानी लक्ष्मीबाई (झांसी) नाना साहेब (कानपुर) तात्या टोपे परिणाम: ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त हुआ। 1858 में भारत सरकार अधिनियम के तहत ब्रिटिश क्राउन ने प्रत्यक्ष शासन शुरू किया। बहादुर शाह ज़फर को बंदी बनाकर रंगून भेजा गया। === 3. ब्रिटिश प्रशासनिक व्यवस्था === 1858 के बाद ब्रिटिशों ने भारत में एक केंद्रीकृत प्रशासनिक प्रणाली स्थापित की। वायसराय की नियुक्ति: गवर्नर जनरल अब वायसराय कहलाया। सचिव भारत के लिए: ब्रिटिश कैबिनेट में एक मंत्री भारत मामलों के लिए नियुक्त किया गया। भारतीय सिविल सेवा (ICS): प्रशासनिक मशीनरी को सुचारु रखने के लिए अंग्रेजों को प्राथमिकता मिली। प्रांतीय प्रशासन: भारत को प्रांतों में बाँटा गया, जिनके मुखिया ब्रिटिश अधिकारी होते थे। === 4. न्यायिक और कानूनी परिवर्तन === 1861 का भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम: बॉम्बे, कलकत्ता और मद्रास में उच्च न्यायालयों की स्थापना। अंग्रेजी कानून प्रणाली की स्थापना: समान दंड संहिता (IPC) और प्रक्रिया संहिता लागू की गई। भारतीयों को न्यायपालिका में सीमित प्रवेश। === 5. ब्रिटिशों की आर्थिक नीतियाँ और उसका प्रभाव === ब्रिटिश शासन के दौरान भारत की आर्थिक संरचना में मूलभूत परिवर्तन लाए गए, जिनका उद्देश्य ब्रिटेन के आर्थिक हितों की पूर्ति करना था। इन नीतियों का भारत की पारंपरिक अर्थव्यवस्था पर अत्यंत नकारात्मक प्रभाव पड़ा। ==== (क) कृषि क्षेत्र में बदलाव ==== ब्रिटिशों ने भूमि कर प्रणाली में तीन प्रमुख प्रणालियाँ लागू की: स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement) – लॉर्ड कार्नवालिस द्वारा बंगाल, बिहार और ओडिशा में लागू की गई। इसमें ज़मींदारों को भूमि का स्वामी मानकर कर वसूली का अधिकार दिया गया। इससे किसानों पर शोषण बढ़ा और उन्हें अपनी भूमि से बेदखल कर दिया गया। रैयतवाड़ी व्यवस्था – मद्रास और बॉम्बे प्रेसीडेंसी में लागू की गई, जहाँ सरकार सीधे किसानों से कर वसूलती थी। यह प्रणाली भी किसानों के लिए घातक सिद्ध हुई क्योंकि अधिक कर वसूली, प्राकृतिक आपदाओं और फसल खराबी के बावजूद कर माफ नहीं होता था। महालवाड़ी व्यवस्था – उत्तर भारत में लागू की गई। इसमें पूरा गाँव या समुदाय कर का उत्तरदायी होता था। यहाँ भी किसानों पर दबाव और शोषण बना रहा। परिणामस्वरूप: कृषि उत्पादन में गिरावट हुई। बार-बार सूखा और अकाल पड़ा। प्रमुख अकाल – 1866 का ओडिशा अकाल, 1876-78 का दक्षिण भारत अकाल, 1899-1900 का बंगाल अकाल। किसानों में भारी कर्ज और आत्महत्या की घटनाएँ बढ़ीं। ==== (ख) पारंपरिक उद्योगों का विनाश ==== ब्रिटिश नीति का उद्देश्य भारत को एक कच्चे माल के आपूर्तिकर्ता और तैयार माल के बाजार के रूप में बदलना था। हस्तशिल्प और पारंपरिक कारीगरी का अंत: भारतीय कपड़ा उद्योग (मुसलिन, बनारसी सिल्क, चंदेरी) को ध्वस्त कर दिया गया। ब्रिटिश माल पर कोई शुल्क नहीं लगता था जबकि भारतीय वस्तुओं पर निर्यात शुल्क लगाया गया। लाखों कारीगर बेरोज़गार हो गए। ब्रिटिश मशीन उत्पादों की बाढ़: मैनचेस्टर और लंकाशायर के कपड़े भारत में सस्ते में बिकते थे। भारतीय उत्पाद प्रतिस्पर्धा में पिछड़ गए। औद्योगिक क्रांति का भारत पर प्रभाव: रेलवे द्वारा भारत के भीतरी भागों से कच्चा माल बंदरगाहों तक ले जाया जाने लगा। भारतीय बंदरगाहों का उपयोग केवल निर्यात के लिए हुआ। ==== (ग) व्यापार और वित्तीय नीति ==== भारत का व्यापारिक अधिशेष समाप्त कर दिया गया। भारत को ब्रिटिश साम्राज्य के अन्य उपनिवेशों के साथ जोड़ दिया गया। भारी मात्रा में "ड्रेन ऑफ वेल्थ" (संपत्ति का निष्कासन) हुआ। दादाभाई नौरोजी ने इसे अपने प्रसिद्ध ग्रंथों में स्पष्ट किया। भारत सरकार द्वारा लंदन में बैठने वाले अधिकारियों की तनख्वाह, सैन्य खर्च और ब्रिटिश युद्धों में सहायता के लिए भारी धनराशि भेजी जाती थी। ==== (घ) संचार और परिवहन का विकास ==== ब्रिटिशों ने भारत में संचार व्यवस्था का विस्तार किया: रेलवे – 1853 में पहली रेल मुंबई से ठाणे के बीच चली। 1900 तक भारत में 25,000 किमी से अधिक रेलवे नेटवर्क था। टेलीग्राफ, डाक और सड़कों का विकास हुआ, जिसका उद्देश्य मुख्यतः सैनिकों की आवाजाही और व्यापारिक हित था। बंदरगाहों का आधुनिकीकरण ब्रिटिश व्यापार को आसान बनाने हेतु किया गया। ==== (ङ) औपनिवेशिक पूंजीवाद का उदय ==== ब्रिटिश पूंजीपतियों ने भारत में चाय, कॉफी, नील, जूट, कपास आदि की खेती के लिए बागानों की स्थापना की, जहाँ भारतीय श्रमिकों को बहुत कम वेतन और कठोर श्रम के अधीन रखा गया। निष्कर्ष: ब्रिटिश आर्थिक नीति ने भारत को कृषि प्रधान, पराश्रित और कंगाल देश बना दिया। इसका उद्देश्य भारत की आत्मनिर्भरता को समाप्त कर ब्रिटिश हितों की पूर्ति करना था। === 6. सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव === ब्रिटिश शासन ने भारत की पारंपरिक सामाजिक संरचना में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया। कुछ सुधार सकारात्मक थे, लेकिन कई प्रभाव सामाजिक विभाजन और सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाले थे। ==== (क) धार्मिक-सामाजिक सुधार आंदोलन ==== ब्रिटिश शासनकाल में भारतीय समाज में कई सामाजिक बुराइयाँ व्याप्त थीं, जैसे सती प्रथा, बाल विवाह, जाति भेदभाव आदि। इनके विरुद्ध कई सुधार आंदोलनों ने जन्म लिया: राजा राममोहन राय – ब्रह्म समाज की स्थापना (1828)। सती प्रथा उन्मूलन (1829), विधवा पुनर्विवाह, महिला शिक्षा का समर्थन। ईश्वरचंद्र विद्यासागर – विधवा पुनर्विवाह अधिनियम (1856), बालिका शिक्षा का प्रचार। स्वामी दयानंद सरस्वती – आर्य समाज की स्थापना (1875)। वेदों की ओर लौटो का नारा, मूर्तिपूजा का विरोध। रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद – अद्वैत वेदांत का प्रचार, आत्मबल और भारतीय संस्कृति की पुनःस्थापना। ==== (ख) जाति और सामुदायिक संरचना पर प्रभाव ==== ब्रिटिशों ने जनगणनाओं में जातियों का वर्गीकरण किया, जिससे जातिगत पहचान को और कठोर बनाया गया। अंग्रेजों ने 'डिवाइड एंड रूल' की नीति अपनाई। हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिला। अल्पसंख्यकों को विशेष संरक्षण और आरक्षण देने की नीतियों से सामाजिक विभाजन गहराया। ==== (ग) ईसाई मिशनरी और धर्मांतरण ==== ब्रिटिश शासन के दौरान कई मिशनरी संस्थाएँ भारत आईं: मिशनरियों ने शिक्षा के क्षेत्र में योगदान दिया लेकिन साथ ही धर्मांतरण की कोशिशें भी कीं। आदिवासी और कमजोर वर्गों में बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हुआ। इससे सांस्कृतिक संघर्ष उत्पन्न हुआ। ==== (घ) महिला जागृति और सुधार ==== ब्रिटिश कानूनों और समाज सुधारकों के प्रयास से: सती प्रथा समाप्त (1829) विधवा पुनर्विवाह कानून (1856) बाल विवाह निषेध (1929) महिला शिक्षा के लिए स्कूलों की स्थापना ==== (ङ) भाषा, साहित्य और संस्कृति ==== अंग्रेजी भाषा का प्रसार हुआ, जिससे नई शिक्षित मध्यवर्ग का उदय हुआ। भारतीय भाषाओं में नवजागरण हुआ – हिंदी, बंगाली, मराठी, उर्दू साहित्य में नए विचारों का संचार हुआ। राममोहन राय, भारतेंदु हरिश्चंद्र, रवींद्रनाथ ठाकुर, प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों का उदय हुआ। ==== (च) प्रेस और जनमत ==== भारतीय प्रेस का विकास हुआ, जिसने जनमत तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाई। सरकार ने कई बार प्रेस पर नियंत्रण लगाने का प्रयास किया – जैसे वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट (1878)। === 7. भारतीय राष्ट्रवाद का उदय === ब्रिटिश राज के दौरान भारतीय समाज में जिस प्रकार आर्थिक शोषण, सांस्कृतिक अपमान और राजनीतिक अधीनता का अनुभव हुआ, उसी ने राष्ट्रवादी भावना को जन्म दिया। राष्ट्रवाद का यह उदय कई चरणों में विकसित हुआ — प्रारंभिक सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण, राजनीतिक संगठनों का निर्माण, और फिर जन आंदोलन। ==== प्रारंभिक राष्ट्रवादी चेतना ==== 19वीं सदी के उत्तरार्ध में राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे सुधारकों ने भारतीय समाज में जागृति लाने का प्रयास किया। इस पुनर्जागरण ने अंग्रेजी शिक्षा, आधुनिक विचारधाराओं और स्वतंत्रता की अवधारणा को जनमानस में पहुंचाया। ==== भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना (1885) ==== भारतीय राष्ट्रवाद के संगठनात्मक स्वरूप की शुरुआत 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से हुई। प्रारंभ में कांग्रेस एक उदार मंच था जो संवैधानिक सुधारों की मांग करता था, लेकिन धीरे-धीरे यह स्वतंत्रता आंदोलन का मुख्य मंच बन गया। ==== उग्र राष्ट्रवाद का उदय ==== बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल जैसे नेताओं ने 'स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है' जैसे नारों के साथ कांग्रेस में उग्र राष्ट्रवादी विचारधारा को जन्म दिया। उन्होंने ब्रिटिश विरोधी आंदोलनों में सक्रिय भाग लिया और विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार, स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग, और राष्ट्रीय शिक्षा का प्रसार किया। ==== विभाजन की नीति और विरोध ==== 1905 में बंगाल विभाजन ने राष्ट्रवाद को और तीव्र किया। देशभर में विरोध प्रदर्शन, रैलियां और बहिष्कार आंदोलन हुए। यह वह समय था जब राष्ट्रवादी आंदोलन जनता के बीच गहराई तक पैठ बनाने लगा। ==== क्रांतिकारी गतिविधियाँ ==== 1910 के दशक में चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल जैसे क्रांतिकारी युवाओं ने सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से ब्रिटिश शासन को चुनौती दी। हालांकि कांग्रेस की मुख्यधारा हिंसा से दूर रही, परंतु इन क्रांतिकारियों ने युवाओं में जोश और त्याग की भावना भर दी। === 8. गांधी युग और स्वतंत्रता संग्राम === ==== महात्मा गांधी का आगमन ==== 1915 में महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौटे और उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सत्याग्रह और अहिंसा को मुख्य हथियार बनाया। गांधीजी ने भारतीय राजनीति को गांव, गरीब और जन-जन से जोड़ा। ==== चंपारण, खेड़ा और अहमदाबाद ==== गांधीजी ने 1917-18 के दौरान चंपारण (नीलहे किसानों के लिए), खेड़ा (किसानों के कर माफ़ी के लिए), और अहमदाबाद (मजदूरों के अधिकारों के लिए) में सफल सत्याग्रह चलाए। इन आंदोलनों ने उन्हें जननेता बना दिया। ==== असहयोग आंदोलन (1920-22) ==== 1920 में गांधीजी ने असहयोग आंदोलन की शुरुआत की, जिसमें छात्रों ने स्कूल-कॉलेज छोड़े, वकीलों ने अदालतों से दूरी बनाई, विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार हुआ, और स्वदेशी अपनाने का आह्वान हुआ। हालांकि चौरी-चौरा कांड के बाद गांधीजी ने आंदोलन स्थगित कर दिया। ==== सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930) और नमक सत्याग्रह ==== 1930 में गांधीजी ने डांडी यात्रा के माध्यम से नमक कानून तोड़ा और अंग्रेजों को चुनौती दी। यह आंदोलन देशभर में फैल गया। गांधी-इरविन समझौता इस आंदोलन का परिणाम रहा, जिसमें गांधीजी ने गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया। ==== भारत छोड़ो आंदोलन (1942) ==== द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत छोड़ो आंदोलन गांधीजी का सबसे बड़ा आह्वान था। 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' नारे से पूरा देश गूंज उठा। इस बार आंदोलन का नेतृत्व युवा वर्ग ने किया और गांधीजी को जेल में डाल दिया गया। आंदोलन ने ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी। ==== कांग्रेस और मुस्लिम लीग ==== इस काल में मुस्लिम लीग ने अलग राष्ट्र की मांग को बढ़ावा देना शुरू किया। 1940 में पाकिस्तान प्रस्ताव पारित हुआ। कांग्रेस ने जहाँ अखंड भारत की बात की, वहीं जिन्ना ने द्विराष्ट्र सिद्धांत को आगे बढ़ाया। ==== नौसेना विद्रोह और अंतिम चरण ==== 1946 में मुंबई में नौसैनिकों ने विद्रोह कर दिया जो स्वतः स्फूर्त और ब्रिटिश विरोधी था। इसके साथ ही श्रमिक आंदोलनों और अंतर्राष्ट्रीय दबाव ने ब्रिटेन को भारत छोड़ने पर विवश कर दिया। ==== स्वतंत्रता और विभाजन ==== 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ, लेकिन इसके साथ ही भारत का विभाजन हुआ और पाकिस्तान एक अलग राष्ट्र बना। यह स्वतंत्रता लाखों लोगों के बलिदान, संघर्ष और त्याग का परिणाम थी। === 9. स्वतंत्रता और विभाजन === ब्रिटिश शासन के अंत की प्रक्रिया धीरे-धीरे 1940 के दशक में तेज़ हो गई थी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य दृष्टि से कमज़ोर हो गया था, और भारत में स्वतंत्रता की मांग अब एक व्यापक जनआंदोलन में बदल चुकी थी। इस समय स्वतंत्रता का प्रश्न भारतीय उपमहाद्वीप की एकता के साथ-साथ उसके विभाजन की आशंका को भी जन्म दे चुका था। ==== कैबिनेट मिशन योजना (1946) ==== ब्रिटेन ने भारतीय नेताओं से बातचीत के लिए 1946 में 'कैबिनेट मिशन' भेजा। इसका उद्देश्य स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त करना था। इस योजना में भारत को एकसंघीय ढांचे में रखने की बात की गई थी, लेकिन कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों इसके स्वरूप पर सहमत नहीं हो सके। ==== अंतरिम सरकार और दंगे ==== 1946 में एक अंतरिम सरकार का गठन किया गया जिसमें जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बने। लेकिन मुस्लिम लीग ने इस सरकार का समर्थन नहीं किया और 'प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस' का आह्वान किया, जिससे कोलकाता, बिहार, पंजाब, बंगाल, और अन्य क्षेत्रों में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे। ये दंगे विभाजन की भूमि तैयार कर रहे थे। ==== माउंटबेटन योजना (1947) ==== भारत के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने 3 जून 1947 को एक योजना प्रस्तुत की जिसमें भारत को दो राष्ट्रों में विभाजित करने का प्रस्ताव था – भारत और पाकिस्तान। इस योजना को कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने स्वीकार कर लिया, क्योंकि तत्कालीन परिस्थिति में यही एक व्यावहारिक समाधान माना गया। ==== भारत का विभाजन ==== 15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान दो स्वतंत्र राष्ट्र बने। भारत धर्मनिरपेक्ष गणराज्य बना और पाकिस्तान को एक मुस्लिम राष्ट्र के रूप में स्थापित किया गया। लेकिन यह विभाजन अत्यंत त्रासद और हिंसात्मक रहा। ==== विभाजन की पीड़ा और विस्थापन ==== भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौरान 10 से 15 मिलियन लोगों ने अपना घर छोड़ कर एक राष्ट्र से दूसरे में पलायन किया। पंजाब और बंगाल में व्यापक दंगे हुए, जिसमें अनुमानतः 10 लाख से अधिक लोग मारे गए। महिलाओं के साथ अत्याचार, बच्चों की हत्या, ट्रेनों पर हमले जैसी अमानवीय घटनाएँ आम हो गईं। यह भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी में से एक थी। ==== रियासतों का एकीकरण ==== स्वतंत्रता के समय भारत में 500 से अधिक देसी रियासतें थीं। इनमें से कुछ रियासतों, विशेषकर हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर, ने भारत में विलय का विरोध किया। सरदार वल्लभभाई पटेल और वी. पी. मेनन के प्रयासों से अधिकतर रियासतों का शांतिपूर्ण एकीकरण हुआ। हैदराबाद और जूनागढ़ में सैनिक हस्तक्षेप द्वारा भारत में विलय सुनिश्चित किया गया। ==== संविधान निर्माण की प्रक्रिया ==== 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता प्राप्त करने के साथ ही भारत ने एक संविधान सभा की स्थापना की, जिसका उद्देश्य स्वतंत्र भारत का संविधान बनाना था। डॉ. भीमराव अंबेडकर इसके प्रारूप समिति के अध्यक्ष बनाए गए। 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ और भारत एक गणराज्य बना। स्वतंत्रता और विभाजन का यह अध्याय भारतीय इतिहास का सबसे भावनात्मक और निर्णायक कालखंड था। यह कालखंड जहां एक ओर स्वतंत्रता की उपलब्धि को चिह्नित करता है, वहीं दूसरी ओर विभाजन की पीड़ा और मानवीय त्रासदी का भी स्मरण कराता है। === 10. निष्कर्ष === '''ब्रिटिश राज''' का कालखंड भारत के लिए एक दोधारी तलवार जैसा था। एक ओर जहाँ ब्रिटिश शासन ने प्रशासनिक, न्यायिक और आधुनिक शिक्षा प्रणाली जैसे ढांचागत सुधार लाए, वहीं दूसरी ओर इसने '''भारतीय समाज, अर्थव्यवस्था और संस्कृति पर गहरे और स्थायी घाव''' भी दिए। ब्रिटिशों की आर्थिक नीतियों ने भारत की पारंपरिक कृषि और उद्योग व्यवस्था को बर्बाद कर दिया तथा देश को निर्धनता, बेरोज़गारी और भुखमरी की ओर धकेल दिया। सामाजिक रूप से यह काल भारतीयों के लिए आत्मचिंतन और नवचेतना का समय बना। सुधार आंदोलनों के माध्यम से समाज ने अपनी बुराइयों को पहचाना और उनके विरुद्ध आवाज़ उठाई। शिक्षा के प्रसार ने एक नवयुवक वर्ग को जन्म दिया जिसने आगे चलकर राष्ट्रवाद की भावना को मजबूत किया। ब्रिटिशों की '''फूट डालो और राज करो''' नीति ने '''धार्मिक''' और '''जातिगत विभाजनों''' को बढ़ावा दिया, जिससे भारतीय समाज में दरारें आईं। लेकिन इसी पृष्ठभूमि में भारतीय राष्ट्रवाद का बीज भी अंकुरित हुआ। धीरे-धीरे स्वदेशी आंदोलन, असहयोग आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन जैसे जनांदोलनों ने स्वतंत्रता की नींव रखी। इस प्रकार, ब्रिटिश राज ने एक ओर जहाँ भारतीय समाज को आधुनिकता की ओर उन्मुख किया, वहीं दूसरी ओर उसने भारत के आर्थिक और सांस्कृतिक तानेबाने को तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। परंतु भारतीयों ने हर कठिनाई से सीखकर अपने '''आत्मसम्मान, सांस्कृतिक विरासत और स्वतंत्रता''' की भावना को जीवित रखा, जो अंततः भारत की स्वतंत्रता का आधार बना। === 11. श्रेणियाँ === [[श्रेणी:भारतीय इतिहास]] [[श्रेणी:आधुनिक भारत का इतिहास]] [[श्रेणी:औपनिवेशिक भारत]] [[श्रेणी:ब्रिटिश शासन]] [[श्रेणी:भारतीय स्वतंत्रता संग्राम]] [[श्रेणी:भारतीय समाज सुधार आंदोलन]] [[श्रेणी:भारतीय अर्थव्यवस्था का इतिहास]] [[श्रेणी:19वीं सदी का भारत]] [[श्रेणी:20वीं सदी का भारत]] 2n39i1z1a8xj9pz021j7459wp64t8cb 82593 82592 2025-06-15T08:58:46Z Baap8969 16001 82593 wikitext text/x-wiki '''ब्रिटिश राज''' (1858 से 1947) भारत के इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और निर्णायक काल था, जब भारत पर प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटेन की महारानी के शासन की स्थापना हुई। इस काल में न केवल भारत की राजनीतिक संरचना बदली, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और शैक्षणिक क्षेत्रों में भी गहरे परिवर्तन हुए। यह अध्याय ब्रिटिश राज की स्थापना से लेकर भारत की स्वतंत्रता तक की सम्पूर्ण यात्रा का विश्लेषण करता है। === 1. ब्रिटिश शासन की पृष्ठभूमि === ब्रिटिश राज की नींव 18वीं शताब्दी में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भारत में व्यापार के बहाने डाले गए कदमों से पड़ी। ईस्ट इंडिया कंपनी ने धीरे-धीरे अपने सैन्य, आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाकर भारतीय राजाओं को पराजित किया। प्रमुख युद्ध जैसे प्लासी (1757) और बक्सर (1764) ने ब्रिटिशों को बंगाल की दीवानी दिलाई, जिससे उन्हें राजस्व वसूलने का अधिकार मिला। ईस्ट इंडिया कंपनी ने 'डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स' और 'सब्सिडियरी एलायंस' जैसी नीतियों के माध्यम से कई रियासतों को हड़प लिया। लेकिन उनकी असंवेदनशील नीतियों के कारण असंतोष बढ़ा, जो 1857 की क्रांति के रूप में फूटा। === 2. 1857 की क्रांति और इसके परिणाम === 1857 का विद्रोह भारत की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में जाना जाता है। इसके प्रमुख कारण थे: सैनिक असंतोष – एनफ़ील्ड राइफल के कारतूसों में गाय और सुअर की चर्बी का प्रयोग सामाजिक-धार्मिक हस्तक्षेप – सती प्रथा, बाल विवाह पर रोक, विधवा पुनर्विवाह आदि का विरोध भूमि नीति – स्थायी बंदोबस्त, तालुकेदारी प्रणाली से किसानों का शोषण भारतीय राजाओं का अपमान – झांसी, अवध, नागपुर जैसे राज्य हड़पना प्रमुख नेता: बहादुर शाह ज़फर (दिल्ली) रानी लक्ष्मीबाई (झांसी) नाना साहेब (कानपुर) तात्या टोपे परिणाम: ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त हुआ। 1858 में भारत सरकार अधिनियम के तहत ब्रिटिश क्राउन ने प्रत्यक्ष शासन शुरू किया। बहादुर शाह ज़फर को बंदी बनाकर रंगून भेजा गया। === 3. ब्रिटिश प्रशासनिक व्यवस्था === 1858 के बाद ब्रिटिशों ने भारत में एक केंद्रीकृत प्रशासनिक प्रणाली स्थापित की। वायसराय की नियुक्ति: गवर्नर जनरल अब वायसराय कहलाया। सचिव भारत के लिए: ब्रिटिश कैबिनेट में एक मंत्री भारत मामलों के लिए नियुक्त किया गया। भारतीय सिविल सेवा (ICS): प्रशासनिक मशीनरी को सुचारु रखने के लिए अंग्रेजों को प्राथमिकता मिली। प्रांतीय प्रशासन: भारत को प्रांतों में बाँटा गया, जिनके मुखिया ब्रिटिश अधिकारी होते थे। === 4. न्यायिक और कानूनी परिवर्तन === 1861 का भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम: बॉम्बे, कलकत्ता और मद्रास में उच्च न्यायालयों की स्थापना। अंग्रेजी कानून प्रणाली की स्थापना: समान दंड संहिता (IPC) और प्रक्रिया संहिता लागू की गई। भारतीयों को न्यायपालिका में सीमित प्रवेश। === 5. ब्रिटिशों की आर्थिक नीतियाँ और उसका प्रभाव === ब्रिटिश शासन के दौरान भारत की आर्थिक संरचना में मूलभूत परिवर्तन लाए गए, जिनका उद्देश्य ब्रिटेन के आर्थिक हितों की पूर्ति करना था। इन नीतियों का भारत की पारंपरिक अर्थव्यवस्था पर अत्यंत नकारात्मक प्रभाव पड़ा। ==== (क) कृषि क्षेत्र में बदलाव ==== ब्रिटिशों ने भूमि कर प्रणाली में तीन प्रमुख प्रणालियाँ लागू की: स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement) – लॉर्ड कार्नवालिस द्वारा बंगाल, बिहार और ओडिशा में लागू की गई। इसमें ज़मींदारों को भूमि का स्वामी मानकर कर वसूली का अधिकार दिया गया। इससे किसानों पर शोषण बढ़ा और उन्हें अपनी भूमि से बेदखल कर दिया गया। रैयतवाड़ी व्यवस्था – मद्रास और बॉम्बे प्रेसीडेंसी में लागू की गई, जहाँ सरकार सीधे किसानों से कर वसूलती थी। यह प्रणाली भी किसानों के लिए घातक सिद्ध हुई क्योंकि अधिक कर वसूली, प्राकृतिक आपदाओं और फसल खराबी के बावजूद कर माफ नहीं होता था। महालवाड़ी व्यवस्था – उत्तर भारत में लागू की गई। इसमें पूरा गाँव या समुदाय कर का उत्तरदायी होता था। यहाँ भी किसानों पर दबाव और शोषण बना रहा। परिणामस्वरूप: कृषि उत्पादन में गिरावट हुई। बार-बार सूखा और अकाल पड़ा। प्रमुख अकाल – 1866 का ओडिशा अकाल, 1876-78 का दक्षिण भारत अकाल, 1899-1900 का बंगाल अकाल। किसानों में भारी कर्ज और आत्महत्या की घटनाएँ बढ़ीं। ==== (ख) पारंपरिक उद्योगों का विनाश ==== ब्रिटिश नीति का उद्देश्य भारत को एक कच्चे माल के आपूर्तिकर्ता और तैयार माल के बाजार के रूप में बदलना था। हस्तशिल्प और पारंपरिक कारीगरी का अंत: भारतीय कपड़ा उद्योग (मुसलिन, बनारसी सिल्क, चंदेरी) को ध्वस्त कर दिया गया। ब्रिटिश माल पर कोई शुल्क नहीं लगता था जबकि भारतीय वस्तुओं पर निर्यात शुल्क लगाया गया। लाखों कारीगर बेरोज़गार हो गए। ब्रिटिश मशीन उत्पादों की बाढ़: मैनचेस्टर और लंकाशायर के कपड़े भारत में सस्ते में बिकते थे। भारतीय उत्पाद प्रतिस्पर्धा में पिछड़ गए। औद्योगिक क्रांति का भारत पर प्रभाव: रेलवे द्वारा भारत के भीतरी भागों से कच्चा माल बंदरगाहों तक ले जाया जाने लगा। भारतीय बंदरगाहों का उपयोग केवल निर्यात के लिए हुआ। ==== (ग) व्यापार और वित्तीय नीति ==== भारत का व्यापारिक अधिशेष समाप्त कर दिया गया। भारत को ब्रिटिश साम्राज्य के अन्य उपनिवेशों के साथ जोड़ दिया गया। भारी मात्रा में "ड्रेन ऑफ वेल्थ" (संपत्ति का निष्कासन) हुआ। दादाभाई नौरोजी ने इसे अपने प्रसिद्ध ग्रंथों में स्पष्ट किया। भारत सरकार द्वारा लंदन में बैठने वाले अधिकारियों की तनख्वाह, सैन्य खर्च और ब्रिटिश युद्धों में सहायता के लिए भारी धनराशि भेजी जाती थी। ==== (घ) संचार और परिवहन का विकास ==== ब्रिटिशों ने भारत में संचार व्यवस्था का विस्तार किया: रेलवे – 1853 में पहली रेल मुंबई से ठाणे के बीच चली। 1900 तक भारत में 25,000 किमी से अधिक रेलवे नेटवर्क था। टेलीग्राफ, डाक और सड़कों का विकास हुआ, जिसका उद्देश्य मुख्यतः सैनिकों की आवाजाही और व्यापारिक हित था। बंदरगाहों का आधुनिकीकरण ब्रिटिश व्यापार को आसान बनाने हेतु किया गया। ==== (ङ) औपनिवेशिक पूंजीवाद का उदय ==== ब्रिटिश पूंजीपतियों ने भारत में चाय, कॉफी, नील, जूट, कपास आदि की खेती के लिए बागानों की स्थापना की, जहाँ भारतीय श्रमिकों को बहुत कम वेतन और कठोर श्रम के अधीन रखा गया। निष्कर्ष: ब्रिटिश आर्थिक नीति ने भारत को कृषि प्रधान, पराश्रित और कंगाल देश बना दिया। इसका उद्देश्य भारत की आत्मनिर्भरता को समाप्त कर ब्रिटिश हितों की पूर्ति करना था। === 6. सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव === ब्रिटिश शासन ने भारत की पारंपरिक सामाजिक संरचना में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया। कुछ सुधार सकारात्मक थे, लेकिन कई प्रभाव सामाजिक विभाजन और सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाले थे। ==== (क) धार्मिक-सामाजिक सुधार आंदोलन ==== ब्रिटिश शासनकाल में भारतीय समाज में कई सामाजिक बुराइयाँ व्याप्त थीं, जैसे सती प्रथा, बाल विवाह, जाति भेदभाव आदि। इनके विरुद्ध कई सुधार आंदोलनों ने जन्म लिया: राजा राममोहन राय – ब्रह्म समाज की स्थापना (1828)। सती प्रथा उन्मूलन (1829), विधवा पुनर्विवाह, महिला शिक्षा का समर्थन। ईश्वरचंद्र विद्यासागर – विधवा पुनर्विवाह अधिनियम (1856), बालिका शिक्षा का प्रचार। स्वामी दयानंद सरस्वती – आर्य समाज की स्थापना (1875)। वेदों की ओर लौटो का नारा, मूर्तिपूजा का विरोध। रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद – अद्वैत वेदांत का प्रचार, आत्मबल और भारतीय संस्कृति की पुनःस्थापना। ==== (ख) जाति और सामुदायिक संरचना पर प्रभाव ==== ब्रिटिशों ने जनगणनाओं में जातियों का वर्गीकरण किया, जिससे जातिगत पहचान को और कठोर बनाया गया। अंग्रेजों ने 'डिवाइड एंड रूल' की नीति अपनाई। हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिला। अल्पसंख्यकों को विशेष संरक्षण और आरक्षण देने की नीतियों से सामाजिक विभाजन गहराया। ==== (ग) ईसाई मिशनरी और धर्मांतरण ==== ब्रिटिश शासन के दौरान कई मिशनरी संस्थाएँ भारत आईं: मिशनरियों ने शिक्षा के क्षेत्र में योगदान दिया लेकिन साथ ही धर्मांतरण की कोशिशें भी कीं। आदिवासी और कमजोर वर्गों में बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हुआ। इससे सांस्कृतिक संघर्ष उत्पन्न हुआ। ==== (घ) महिला जागृति और सुधार ==== ब्रिटिश कानूनों और समाज सुधारकों के प्रयास से: सती प्रथा समाप्त (1829) विधवा पुनर्विवाह कानून (1856) बाल विवाह निषेध (1929) महिला शिक्षा के लिए स्कूलों की स्थापना ==== (ङ) भाषा, साहित्य और संस्कृति ==== अंग्रेजी भाषा का प्रसार हुआ, जिससे नई शिक्षित मध्यवर्ग का उदय हुआ। भारतीय भाषाओं में नवजागरण हुआ – हिंदी, बंगाली, मराठी, उर्दू साहित्य में नए विचारों का संचार हुआ। राममोहन राय, भारतेंदु हरिश्चंद्र, रवींद्रनाथ ठाकुर, प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों का उदय हुआ। ==== (च) प्रेस और जनमत ==== भारतीय प्रेस का विकास हुआ, जिसने जनमत तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाई। सरकार ने कई बार प्रेस पर नियंत्रण लगाने का प्रयास किया – जैसे वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट (1878)। === 7. भारतीय राष्ट्रवाद का उदय === ब्रिटिश राज के दौरान भारतीय समाज में जिस प्रकार आर्थिक शोषण, सांस्कृतिक अपमान और राजनीतिक अधीनता का अनुभव हुआ, उसी ने राष्ट्रवादी भावना को जन्म दिया। राष्ट्रवाद का यह उदय कई चरणों में विकसित हुआ — प्रारंभिक सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण, राजनीतिक संगठनों का निर्माण, और फिर जन आंदोलन। ==== प्रारंभिक राष्ट्रवादी चेतना ==== 19वीं सदी के उत्तरार्ध में राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे सुधारकों ने भारतीय समाज में जागृति लाने का प्रयास किया। इस पुनर्जागरण ने अंग्रेजी शिक्षा, आधुनिक विचारधाराओं और स्वतंत्रता की अवधारणा को जनमानस में पहुंचाया। ==== भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना (1885) ==== भारतीय राष्ट्रवाद के संगठनात्मक स्वरूप की शुरुआत 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से हुई। प्रारंभ में कांग्रेस एक उदार मंच था जो संवैधानिक सुधारों की मांग करता था, लेकिन धीरे-धीरे यह स्वतंत्रता आंदोलन का मुख्य मंच बन गया। ==== उग्र राष्ट्रवाद का उदय ==== बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल जैसे नेताओं ने 'स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है' जैसे नारों के साथ कांग्रेस में उग्र राष्ट्रवादी विचारधारा को जन्म दिया। उन्होंने ब्रिटिश विरोधी आंदोलनों में सक्रिय भाग लिया और विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार, स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग, और राष्ट्रीय शिक्षा का प्रसार किया। ==== विभाजन की नीति और विरोध ==== 1905 में बंगाल विभाजन ने राष्ट्रवाद को और तीव्र किया। देशभर में विरोध प्रदर्शन, रैलियां और बहिष्कार आंदोलन हुए। यह वह समय था जब राष्ट्रवादी आंदोलन जनता के बीच गहराई तक पैठ बनाने लगा। ==== क्रांतिकारी गतिविधियाँ ==== 1910 के दशक में चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल जैसे क्रांतिकारी युवाओं ने सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से ब्रिटिश शासन को चुनौती दी। हालांकि कांग्रेस की मुख्यधारा हिंसा से दूर रही, परंतु इन क्रांतिकारियों ने युवाओं में जोश और त्याग की भावना भर दी। === 8. गांधी युग और स्वतंत्रता संग्राम === ==== महात्मा गांधी का आगमन ==== 1915 में महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौटे और उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सत्याग्रह और अहिंसा को मुख्य हथियार बनाया। गांधीजी ने भारतीय राजनीति को गांव, गरीब और जन-जन से जोड़ा। ==== चंपारण, खेड़ा और अहमदाबाद ==== गांधीजी ने 1917-18 के दौरान चंपारण (नीलहे किसानों के लिए), खेड़ा (किसानों के कर माफ़ी के लिए), और अहमदाबाद (मजदूरों के अधिकारों के लिए) में सफल सत्याग्रह चलाए। इन आंदोलनों ने उन्हें जननेता बना दिया। ==== असहयोग आंदोलन (1920-22) ==== 1920 में गांधीजी ने असहयोग आंदोलन की शुरुआत की, जिसमें छात्रों ने स्कूल-कॉलेज छोड़े, वकीलों ने अदालतों से दूरी बनाई, विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार हुआ, और स्वदेशी अपनाने का आह्वान हुआ। हालांकि चौरी-चौरा कांड के बाद गांधीजी ने आंदोलन स्थगित कर दिया। ==== सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930) और नमक सत्याग्रह ==== 1930 में गांधीजी ने डांडी यात्रा के माध्यम से नमक कानून तोड़ा और अंग्रेजों को चुनौती दी। यह आंदोलन देशभर में फैल गया। गांधी-इरविन समझौता इस आंदोलन का परिणाम रहा, जिसमें गांधीजी ने गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया। ==== भारत छोड़ो आंदोलन (1942) ==== द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत छोड़ो आंदोलन गांधीजी का सबसे बड़ा आह्वान था। 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' नारे से पूरा देश गूंज उठा। इस बार आंदोलन का नेतृत्व युवा वर्ग ने किया और गांधीजी को जेल में डाल दिया गया। आंदोलन ने ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी। ==== कांग्रेस और मुस्लिम लीग ==== इस काल में मुस्लिम लीग ने अलग राष्ट्र की मांग को बढ़ावा देना शुरू किया। 1940 में पाकिस्तान प्रस्ताव पारित हुआ। कांग्रेस ने जहाँ अखंड भारत की बात की, वहीं जिन्ना ने द्विराष्ट्र सिद्धांत को आगे बढ़ाया। ==== नौसेना विद्रोह और अंतिम चरण ==== 1946 में मुंबई में नौसैनिकों ने विद्रोह कर दिया जो स्वतः स्फूर्त और ब्रिटिश विरोधी था। इसके साथ ही श्रमिक आंदोलनों और अंतर्राष्ट्रीय दबाव ने ब्रिटेन को भारत छोड़ने पर विवश कर दिया। ==== स्वतंत्रता और विभाजन ==== 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ, लेकिन इसके साथ ही भारत का विभाजन हुआ और पाकिस्तान एक अलग राष्ट्र बना। यह स्वतंत्रता लाखों लोगों के बलिदान, संघर्ष और त्याग का परिणाम थी। === 9. स्वतंत्रता और विभाजन === ब्रिटिश शासन के अंत की प्रक्रिया धीरे-धीरे 1940 के दशक में तेज़ हो गई थी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य दृष्टि से कमज़ोर हो गया था, और भारत में स्वतंत्रता की मांग अब एक व्यापक जनआंदोलन में बदल चुकी थी। इस समय स्वतंत्रता का प्रश्न भारतीय उपमहाद्वीप की एकता के साथ-साथ उसके विभाजन की आशंका को भी जन्म दे चुका था। ==== कैबिनेट मिशन योजना (1946) ==== ब्रिटेन ने भारतीय नेताओं से बातचीत के लिए 1946 में 'कैबिनेट मिशन' भेजा। इसका उद्देश्य स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त करना था। इस योजना में भारत को एकसंघीय ढांचे में रखने की बात की गई थी, लेकिन कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों इसके स्वरूप पर सहमत नहीं हो सके। ==== अंतरिम सरकार और दंगे ==== 1946 में एक अंतरिम सरकार का गठन किया गया जिसमें जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बने। लेकिन मुस्लिम लीग ने इस सरकार का समर्थन नहीं किया और 'प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस' का आह्वान किया, जिससे कोलकाता, बिहार, पंजाब, बंगाल, और अन्य क्षेत्रों में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे। ये दंगे विभाजन की भूमि तैयार कर रहे थे। ==== माउंटबेटन योजना (1947) ==== भारत के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने 3 जून 1947 को एक योजना प्रस्तुत की जिसमें भारत को दो राष्ट्रों में विभाजित करने का प्रस्ताव था – भारत और पाकिस्तान। इस योजना को कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने स्वीकार कर लिया, क्योंकि तत्कालीन परिस्थिति में यही एक व्यावहारिक समाधान माना गया। ==== भारत का विभाजन ==== 15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान दो स्वतंत्र राष्ट्र बने। भारत धर्मनिरपेक्ष गणराज्य बना और पाकिस्तान को एक मुस्लिम राष्ट्र के रूप में स्थापित किया गया। लेकिन यह विभाजन अत्यंत त्रासद और हिंसात्मक रहा। ==== विभाजन की पीड़ा और विस्थापन ==== भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौरान 10 से 15 मिलियन लोगों ने अपना घर छोड़ कर एक राष्ट्र से दूसरे में पलायन किया। पंजाब और बंगाल में व्यापक दंगे हुए, जिसमें अनुमानतः 10 लाख से अधिक लोग मारे गए। महिलाओं के साथ अत्याचार, बच्चों की हत्या, ट्रेनों पर हमले जैसी अमानवीय घटनाएँ आम हो गईं। यह भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी में से एक थी। ==== रियासतों का एकीकरण ==== स्वतंत्रता के समय भारत में 500 से अधिक देसी रियासतें थीं। इनमें से कुछ रियासतों, विशेषकर हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर, ने भारत में विलय का विरोध किया। सरदार वल्लभभाई पटेल और वी. पी. मेनन के प्रयासों से अधिकतर रियासतों का शांतिपूर्ण एकीकरण हुआ। हैदराबाद और जूनागढ़ में सैनिक हस्तक्षेप द्वारा भारत में विलय सुनिश्चित किया गया। ==== संविधान निर्माण की प्रक्रिया ==== 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता प्राप्त करने के साथ ही भारत ने एक संविधान सभा की स्थापना की, जिसका उद्देश्य स्वतंत्र भारत का संविधान बनाना था। डॉ. भीमराव अंबेडकर इसके प्रारूप समिति के अध्यक्ष बनाए गए। 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ और भारत एक गणराज्य बना। स्वतंत्रता और विभाजन का यह अध्याय भारतीय इतिहास का सबसे भावनात्मक और निर्णायक कालखंड था। यह कालखंड जहां एक ओर स्वतंत्रता की उपलब्धि को चिह्नित करता है, वहीं दूसरी ओर विभाजन की पीड़ा और मानवीय त्रासदी का भी स्मरण कराता है। === 10. निष्कर्ष === '''ब्रिटिश राज''' का कालखंड भारत के लिए एक दोधारी तलवार जैसा था। एक ओर जहाँ ब्रिटिश शासन ने प्रशासनिक, न्यायिक और आधुनिक शिक्षा प्रणाली जैसे ढांचागत सुधार लाए, वहीं दूसरी ओर इसने '''भारतीय समाज, अर्थव्यवस्था और संस्कृति पर गहरे और स्थायी घाव''' भी दिए। ब्रिटिशों की आर्थिक नीतियों ने भारत की पारंपरिक कृषि और उद्योग व्यवस्था को बर्बाद कर दिया तथा देश को निर्धनता, बेरोज़गारी और भुखमरी की ओर धकेल दिया। सामाजिक रूप से यह काल भारतीयों के लिए आत्मचिंतन और नवचेतना का समय बना। सुधार आंदोलनों के माध्यम से समाज ने अपनी बुराइयों को पहचाना और उनके विरुद्ध आवाज़ उठाई। शिक्षा के प्रसार ने एक नवयुवक वर्ग को जन्म दिया जिसने आगे चलकर राष्ट्रवाद की भावना को मजबूत किया। ब्रिटिशों की '''फूट डालो और राज करो''' नीति ने '''धार्मिक''' और '''जातिगत विभाजनों''' को बढ़ावा दिया, जिससे भारतीय समाज में दरारें आईं। लेकिन इसी पृष्ठभूमि में भारतीय राष्ट्रवाद का बीज भी अंकुरित हुआ। धीरे-धीरे स्वदेशी आंदोलन, असहयोग आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन जैसे जनांदोलनों ने स्वतंत्रता की नींव रखी। इस प्रकार, ब्रिटिश राज ने एक ओर जहाँ भारतीय समाज को आधुनिकता की ओर उन्मुख किया, वहीं दूसरी ओर उसने भारत के आर्थिक और सांस्कृतिक तानेबाने को तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। परंतु भारतीयों ने हर कठिनाई से सीखकर अपने '''आत्मसम्मान, सांस्कृतिक विरासत और स्वतंत्रता''' की भावना को जीवित रखा, जो अंततः भारत की स्वतंत्रता का आधार बना। === 11. श्रेणियाँ === [[श्रेणी:भारतीय इतिहास]] [[श्रेणी:आधुनिक भारत का इतिहास]] [[श्रेणी:औपनिवेशिक भारत]] [[श्रेणी:ब्रिटिश शासन]] [[श्रेणी:भारतीय स्वतंत्रता संग्राम]] [[श्रेणी:भारतीय समाज सुधार आंदोलन]] [[श्रेणी:भारतीय अर्थव्यवस्था का इतिहास]] [[श्रेणी:19वीं सदी का भारत]] [[श्रेणी:20वीं सदी का भारत]] nij5aza42vp75n9yambxt73dlueg7z9 भारत का सांस्कृतिक इतिहास/स्वतंत्रता संग्राम 0 11409 82594 2025-06-15T09:10:47Z Baap8969 16001 '=== प्रस्तावना === भारतीय स्वतंत्रता संग्राम एक दीर्घकालिक, बहुआयामी और बलिदानों से भरा आंदोलन था, जिसकी परिणति 15 अगस्त 1947 को भारत की स्वतंत्रता के रूप में हुई। यह संघर्ष...' के साथ नया पृष्ठ बनाया 82594 wikitext text/x-wiki === प्रस्तावना === भारतीय स्वतंत्रता संग्राम एक दीर्घकालिक, बहुआयामी और बलिदानों से भरा आंदोलन था, जिसकी परिणति 15 अगस्त 1947 को भारत की स्वतंत्रता के रूप में हुई। यह संघर्ष विभिन्न चरणों में चला जिसमें सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और सैन्य प्रयास सम्मिलित थे। इस संग्राम में किसानों, छात्रों, महिलाओं, बुद्धिजीवियों, नेताओं और आम जनता ने मिलकर अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ अपने स्वाभिमान, आत्मनिर्णय और स्वतंत्रता की भावना को अभिव्यक्त किया। === 1. प्रारंभिक विद्रोह और असंतोष (1757–1857) === 1757 के प्लासी युद्ध के पश्चात् भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने शासन की नींव रखी। इस युद्ध में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को हराकर कंपनी ने बंगाल में राजनीतिक नियंत्रण स्थापित कर लिया। इसके पश्चात बक्सर का युद्ध (1764) हुआ, जिसमें कंपनी ने मुग़ल सम्राट शाह आलम द्वितीय, अवध के नवाब शुजाउद्दौला और बंगाल के मीर क़ासिम को हराया। इसके परिणामस्वरूप कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी (राजस्व वसूली का अधिकार) प्राप्त हो गई। यह राजनीतिक व आर्थिक हस्तक्षेप शीघ्र ही भारतीय समाज में असंतोष का कारण बनने लगा। किसानों, दस्तकारों, और ज़मींदारों पर करों का बोझ बढ़ा। पारंपरिक उद्योग-धंधे समाप्त होने लगे। भारत की आर्थिक संरचना को तोड़ते हुए अंग्रेजों ने भारत को एक कच्चा माल उत्पादक उपनिवेश बना दिया। कई भारतीय शासकों और रजवाड़ों ने भी अंग्रेजों के विस्तार का विरोध किया। '''मैसूर के टीपू सुल्तान (1782–1799)''' ने अंग्रेजों के खिलाफ चार युद्ध लड़े, जिनमें चौथे युद्ध (1799) में उनकी मृत्यु हो गई। '''मराठों और अंग्रेजों के बीच तीन युद्ध''' हुए, जिसमें अंततः मराठा शक्ति का भी पतन हुआ। '''पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह''' ने अंग्रेजों को चुनौती दी, परंतु उनकी मृत्यु के पश्चात अंग्रेजों ने सिख राज्य को भी अपने नियंत्रण में ले लिया। '''स्थानीय स्तर पर अनेक किसान और जनजातीय विद्रोह भी हुए''' – जैसे कि संथाल विद्रोह (1855), कोल विद्रोह (1831–32), भील विद्रोह और चुआर विद्रोह। इन विद्रोहों का कारण था – भारी कर, जमीन से बेदखली, और अंग्रेजी प्रशासन द्वारा परंपरागत अधिकारों की अनदेखी। '''सैनिक''' असंतोष भी व्यापक हो रहा था। कंपनी के भारतीय सिपाहियों को वेतन, पदोन्नति और सामाजिक सम्मान की दृष्टि से भेदभाव का सामना करना पड़ता था। ईसाई धर्म में जबरन धर्म परिवर्तन की आशंकाएँ और धार्मिक भावनाओं का उल्लंघन, जैसे एनफील्ड राइफल में गाय और सूअर की चर्बी लगे कारतूसों का प्रयोग, इस असंतोष को और बढ़ाता गया। यह समस्त असंतोष 1857 के विद्रोह के रूप में फूट पड़ा जिसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भी कहा जाता है। यह विद्रोह मेरठ से शुरू हुआ और दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, झाँसी, ग्वालियर आदि प्रमुख केंद्रों तक फैल गया। मंगल पांडे, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, बेगम हज़रत महल, बहादुर शाह ज़फर जैसे नेताओं ने इस संघर्ष का नेतृत्व किया। यद्यपि यह विद्रोह अंततः असफल रहा, लेकिन इसने यह स्पष्ट कर दिया कि भारतवासी अब अंग्रेजों के अत्याचार के विरुद्ध लामबंद होने को तैयार हैं। इसके बाद ब्रिटिश शासन ने भारत को सीधे ब्रिटिश सरकार के अधीन कर दिया और '''ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त''' हो गया। इस विद्रोह ने आने वाले स्वतंत्रता आंदोलनों की नींव रखी। === 2. 1857 का विद्रोह – पहला स्वतंत्रता संग्राम === 1857 का विद्रोह भारत के इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण मोड़ था जिसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम, सिपाही विद्रोह, या भारत का प्रथम स्वतंत्रता युद्ध कहा जाता है। यह विद्रोह अंग्रेजी शासन के विरुद्ध एक संगठित विरोध के रूप में उभरा, जिसमें विभिन्न वर्गों के लोगों ने भाग लिया – सैनिक, किसान, ज़मींदार, राजघराने, धार्मिक नेता और आम जनमानस। यह विद्रोह यद्यपि विभिन्न स्थानों पर हुआ और विभिन्न कारणों से प्रेरित था, फिर भी इसका मूल उद्देश्य विदेशी शोषण और दमन के विरुद्ध भारतीय अस्मिता और स्वतंत्रता की रक्षा करना था। ==== विद्रोह के प्रमुख कारण ==== 1. राजनीतिक कारण: ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा 'डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स' (हड़प नीति) लागू की गई, जिसके अंतर्गत जिन भारतीय रियासतों में कोई जैविक उत्तराधिकारी नहीं था, उन्हें कंपनी में मिला लिया गया। इससे झाँसी, सतारा, नागपुर जैसी रियासतें प्रभावित हुईं। इसके अतिरिक्त अवध जैसे समृद्ध राज्यों का जबरन विलय किया गया, जिससे स्थानीय रियासतों में रोष व्याप्त हो गया। 2. सामाजिक और धार्मिक कारण: ब्रिटिश शासन द्वारा भारतीय परंपराओं और धार्मिक आस्थाओं का निरंतर उल्लंघन किया जा रहा था। अंग्रेजों द्वारा सती प्रथा, बाल विवाह जैसे सुधारों की आड़ में धर्मांतरण की आशंका ने हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों को असहज कर दिया। मिशनरियों की गतिविधियाँ और धर्म प्रचार ने यह भय उत्पन्न किया कि भारतीय समाज को ईसाई बनाया जा रहा है। 3. आर्थिक कारण: जमींदारी व्यवस्था, करों की अत्यधिक दर, पारंपरिक उद्योगों का पतन, कारीगरों की बेरोजगारी और कृषि संकट ने भारत के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने को तोड़ दिया। किसानों और शिल्पकारों का शोषण चरम पर था। आर्थिक असंतोष ने विद्रोह की भूमि तैयार की। 4. सैनिक कारण: भारतीय सिपाही ब्रिटिश सेना का आधार थे, लेकिन उन्हें वेतन, पदोन्नति और सम्मान में भेदभाव का सामना करना पड़ता था। सिपाहियों में यह भावना घर कर गई थी कि अंग्रेज उनके धर्म को भ्रष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं। एनफील्ड राइफल के कारतूसों को गाय और सूअर की चर्बी से ग्रीस किए जाने की अफवाह ने धार्मिक आक्रोश को जन्म दिया। मंगल पांडे ने खुले विद्रोह का बिगुल फूंका, जिससे मेरठ से विद्रोह की शुरुआत हुई। ==== विद्रोह की प्रमुख घटनाएँ और केंद्र ==== 1. मेरठ: 10 मई 1857 को मेरठ छावनी में सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया और अंग्रेज अधिकारियों की हत्या की। 2. दिल्ली: मेरठ के सिपाही दिल्ली पहुँचे और मुग़ल सम्राट बहादुर शाह ज़फ़र को भारत का सम्राट घोषित कर दिया। दिल्ली विद्रोह का मुख्य केंद्र बन गया। 3. कानपुर: नाना साहेब पेशवा के नेतृत्व में विद्रोह हुआ। तात्या टोपे और अजीमुल्ला खान ने ब्रिटिश सत्ता को गंभीर चुनौती दी। 4. झाँसी: रानी लक्ष्मीबाई ने 'मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी' की हुंकार भरते हुए अंग्रेजों से युद्ध किया। वे वीरगति को प्राप्त हुईं लेकिन भारतीय वीरता की प्रतीक बन गईं। 5. लखनऊ: बेगम हज़रत महल ने अवध में विद्रोह का नेतृत्व किया और नवाब के नाबालिग पुत्र के नाम पर शासन चलाया। 6. ग्वालियर: तात्या टोपे और रानी लक्ष्मीबाई ने यहाँ अंग्रेजों से निर्णायक युद्ध लड़ा। ==== विद्रोह की विफलता के कारण ==== एकीकृत नेतृत्व और समन्वय का अभाव आधुनिक हथियारों और संचार साधनों की कमी अंग्रेजों की सैन्य शक्ति और रणनीति श्रेष्ठ थी देशी रियासतों का कुछ स्थानों पर अंग्रेजों का समर्थन करना जनसाधारण में व्यापक स्तर पर संगठन की कमी ==== परिणाम ==== ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त कर भारत सीधे ब्रिटिश सरकार के अधीन आ गया। 1858 का भारत सरकार अधिनियम पारित हुआ, जिससे वायसराय की नियुक्ति हुई। भारतीयों को सेना और प्रशासन में सीमित रूप से स्थान देने की घोषणा हुई। ब्रिटिश शासन ने Divide and Rule की नीति अपनाई। मुस्लिम समुदाय पर संदेह करते हुए उन्हें नौकरियों से वंचित किया गया। ==== ऐतिहासिक महत्त्व ==== यद्यपि '''1857''' का विद्रोह सैन्य रूप से '''असफल रहा''', किंतु इसने '''भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन''' की नींव रखी। यह विद्रोह भारतीयों की '''राष्ट्रीय चेतना, सामूहिक प्रतिरोध और स्वतंत्रता''' की तीव्र आकांक्षा का प्रतीक बन गया। इस विद्रोह ने भारतीय समाज को यह सिखाया कि स्वतंत्रता केवल आंदोलनों और संघर्षों से ही प्राप्त की जा सकती है और भविष्य के लिए एक प्रेरणा बन गया। === निष्कर्ष === भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास केवल '''राजनीतिक आंदोलनों या ब्रिटिश शासन''' के विरुद्ध युद्धों की श्रृंखला नहीं था, बल्कि यह '''भारत के आत्मसम्मान''', '''सांस्कृतिक अस्मिता, सामाजिक पुनर्जागरण और समग्र चेतना का प्रतीक''' भी था। 1857 के विद्रोह से लेकर 1947 की स्वतंत्रता तक का यह संघर्ष निरंतर विकसित होने वाली उस '''राष्ट्रवादी भावना''' का परिणाम था, जो भारत को औपनिवेशिक दासता की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए हर कोने में सुलग रही थी। 1857 के विद्रोह को यद्यपि तत्काल सफलता नहीं मिली, लेकिन उसने एक चिंगारी को जन्म दिया जो धीरे-धीरे पूरे राष्ट्र में फैल गई। इस संघर्ष ने भारतीय जनमानस को यह अनुभव करा दिया कि ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी जा सकती है। इसके बाद के वर्षों में, '''दादाभाई नौरोजी, बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस''' जैसे नेताओं ने देश को एकजुट किया और जन-आंदोलनों के माध्यम से स्वतंत्रता की भावना को व्यापक जनसमुदाय तक पहुँचाया। यह संघर्ष न केवल राजनैतिक मुक्ति का अभियान था, बल्कि एक सामाजिक क्रांति भी थी। इसमें जाति, धर्म, भाषा और वर्ग से परे जाकर लोगों ने समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के आदर्शों को अपनाया। '''महिलाओं''' ने इसमें अभूतपूर्व योगदान दिया, '''दलित और वंचित वर्गों ने अपनी भूमिका निभाई''' और '''छात्रों, मजदूरों, किसानों तथा बुद्धिजीवियों''' ने इसे अपने-अपने स्तर पर आगे बढ़ाया। अंततः, यह निष्कर्ष निकालना उचित होगा कि स्वतंत्रता संग्राम भारत के इतिहास का वह स्वर्णिम अध्याय है जिसने न केवल देश को आजादी दिलाई, बल्कि उसे एक आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में पुनर्निर्मित करने की दिशा में मार्गदर्शन भी किया। यह अध्याय आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा और उन्हें यह सिखाएगा कि '''स्वतंत्रता केवल एक अधिकार नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी भी है।''' === श्रेणी: भारत का स्वतंत्रता संग्राम === [[श्रेणी: भारतीय इतिहास]] [[श्रेणी: स्वतंत्रता संग्राम]] [[श्रेणी: हिन्दी विकिपुस्तक]] psiisiqqheqjunqldfetmb69hgah6rd 82595 82594 2025-06-15T09:15:59Z Baap8969 16001 82595 wikitext text/x-wiki === प्रस्तावना === भारतीय स्वतंत्रता संग्राम भारतीय इतिहास का एक अत्यंत गौरवशाली और प्रेरणादायक अध्याय है, जो लगभग दो शताब्दियों तक चला। यह केवल एक राजनीतिक आंदोलन नहीं था, बल्कि यह भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और मानसिक स्वातंत्र्य का समग्र प्रयास था। इस संघर्ष की जड़ें 1757 की प्लासी की लड़ाई और 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में दिखाई देती हैं और इसकी शाखाएँ 1947 की स्वतंत्रता तक फैली हुई हैं। स्वतंत्रता संग्राम की प्रक्रिया में भारत के सभी वर्गों, जातियों, समुदायों और क्षेत्रों के लोगों ने भाग लिया। किसानों ने भूमि कर के विरोध में आंदोलन किए, मजदूरों ने शोषण के विरुद्ध संघर्ष किया, छात्रों ने स्कूल-कॉलेज छोड़कर आंदोलनों में भाग लिया, महिलाओं ने अपने घरों की सीमाएं पार कर संघर्ष में भागीदारी निभाई। यहाँ तक कि साधारण नागरिक भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस राष्ट्रीय जागरण का हिस्सा बने। इस संग्राम का स्वरूप समय के साथ बदलता गया – प्रारंभ में यह विद्रोह और असंतोष के रूप में सामने आया, फिर संविधान सम्मत माँगों और सुधारों के लिए संघर्ष किया गया, और अंततः यह एक व्यापक जन आंदोलन में परिवर्तित हो गया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, मुस्लिम लीग, क्रांतिकारी संगठन, समाज सुधारक समूह और अन्य अनेक संस्थाएं इस संघर्ष का हिस्सा बनीं। प्रत्येक वर्ग और विचारधारा ने इसमें अपनी भूमिका निभाई। महात्मा गांधी के नेतृत्व में यह आंदोलन पूर्णतः जनांदोलन का रूप ले सका, जिसमें सत्याग्रह, असहयोग, सविनय अवज्ञा और भारत छोड़ो आंदोलन जैसे अहिंसात्मक उपायों को अपनाया गया। इसके साथ ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा गठित आज़ाद हिंद फौज ने सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से भारत की स्वतंत्रता के लिए युद्ध छेड़ा। धार्मिक एकता, भाषाई विविधता और सांस्कृतिक बहुलता के बावजूद पूरे देश में स्वतंत्रता संग्राम एक साझा मंच बन गया। बंगाल का विभाजन विरोधी आंदोलन, पंजाब का गदर आंदोलन, दक्षिण भारत में वंदे मातरम् आंदोलन, उत्तर भारत में चौरी चौरा की घटना – ये सभी इस संग्राम की व्यापकता को दर्शाते हैं। इस संघर्ष की महत्ता केवल ब्रिटिश शासन को समाप्त करने में नहीं थी, बल्कि यह भारतीय समाज को आत्मबोध, आत्मगौरव और आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे बढ़ाने में भी सहायक बना। इसने महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में भागीदारी सिखाई, दलितों को सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी, और युवाओं को राष्ट्र निर्माण के लिए तैयार किया। अतः, स्वतंत्रता संग्राम केवल स्वतंत्रता प्राप्त करने का माध्यम नहीं था, बल्कि यह एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण, सामाजिक न्याय, राष्ट्रीय चेतना और लोकतांत्रिक मूल्यों की पुनःस्थापना का संग्राम भी था। इसकी प्रेरणा आज भी भारतीय लोकतंत्र की आत्मा में जीवित है और यह प्रत्येक भारतीय नागरिक को उसके कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति जागरूक करता है। === 1. प्रारंभिक विद्रोह और असंतोष (1757–1857) === 1757 के प्लासी युद्ध के पश्चात् भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने शासन की नींव रखी। इस युद्ध में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को हराकर कंपनी ने बंगाल में राजनीतिक नियंत्रण स्थापित कर लिया। इसके पश्चात बक्सर का युद्ध (1764) हुआ, जिसमें कंपनी ने मुग़ल सम्राट शाह आलम द्वितीय, अवध के नवाब शुजाउद्दौला और बंगाल के मीर क़ासिम को हराया। इसके परिणामस्वरूप कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी (राजस्व वसूली का अधिकार) प्राप्त हो गई। यह राजनीतिक व आर्थिक हस्तक्षेप शीघ्र ही भारतीय समाज में असंतोष का कारण बनने लगा। किसानों, दस्तकारों, और ज़मींदारों पर करों का बोझ बढ़ा। पारंपरिक उद्योग-धंधे समाप्त होने लगे। भारत की आर्थिक संरचना को तोड़ते हुए अंग्रेजों ने भारत को एक कच्चा माल उत्पादक उपनिवेश बना दिया। कई भारतीय शासकों और रजवाड़ों ने भी अंग्रेजों के विस्तार का विरोध किया। '''मैसूर के टीपू सुल्तान (1782–1799)''' ने अंग्रेजों के खिलाफ चार युद्ध लड़े, जिनमें चौथे युद्ध (1799) में उनकी मृत्यु हो गई। '''मराठों और अंग्रेजों के बीच तीन युद्ध''' हुए, जिसमें अंततः मराठा शक्ति का भी पतन हुआ। '''पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह''' ने अंग्रेजों को चुनौती दी, परंतु उनकी मृत्यु के पश्चात अंग्रेजों ने सिख राज्य को भी अपने नियंत्रण में ले लिया। '''स्थानीय स्तर पर अनेक किसान और जनजातीय विद्रोह भी हुए''' – जैसे कि संथाल विद्रोह (1855), कोल विद्रोह (1831–32), भील विद्रोह और चुआर विद्रोह। इन विद्रोहों का कारण था – भारी कर, जमीन से बेदखली, और अंग्रेजी प्रशासन द्वारा परंपरागत अधिकारों की अनदेखी। '''सैनिक''' असंतोष भी व्यापक हो रहा था। कंपनी के भारतीय सिपाहियों को वेतन, पदोन्नति और सामाजिक सम्मान की दृष्टि से भेदभाव का सामना करना पड़ता था। ईसाई धर्म में जबरन धर्म परिवर्तन की आशंकाएँ और धार्मिक भावनाओं का उल्लंघन, जैसे एनफील्ड राइफल में गाय और सूअर की चर्बी लगे कारतूसों का प्रयोग, इस असंतोष को और बढ़ाता गया। यह समस्त असंतोष 1857 के विद्रोह के रूप में फूट पड़ा जिसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भी कहा जाता है। यह विद्रोह मेरठ से शुरू हुआ और दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, झाँसी, ग्वालियर आदि प्रमुख केंद्रों तक फैल गया। मंगल पांडे, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, बेगम हज़रत महल, बहादुर शाह ज़फर जैसे नेताओं ने इस संघर्ष का नेतृत्व किया। यद्यपि यह विद्रोह अंततः असफल रहा, लेकिन इसने यह स्पष्ट कर दिया कि भारतवासी अब अंग्रेजों के अत्याचार के विरुद्ध लामबंद होने को तैयार हैं। इसके बाद ब्रिटिश शासन ने भारत को सीधे ब्रिटिश सरकार के अधीन कर दिया और '''ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त''' हो गया। इस विद्रोह ने आने वाले स्वतंत्रता आंदोलनों की नींव रखी। === 2. 1857 का विद्रोह – पहला स्वतंत्रता संग्राम === 1857 का विद्रोह भारत के इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण मोड़ था जिसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम, सिपाही विद्रोह, या भारत का प्रथम स्वतंत्रता युद्ध कहा जाता है। यह विद्रोह अंग्रेजी शासन के विरुद्ध एक संगठित विरोध के रूप में उभरा, जिसमें विभिन्न वर्गों के लोगों ने भाग लिया – सैनिक, किसान, ज़मींदार, राजघराने, धार्मिक नेता और आम जनमानस। यह विद्रोह यद्यपि विभिन्न स्थानों पर हुआ और विभिन्न कारणों से प्रेरित था, फिर भी इसका मूल उद्देश्य विदेशी शोषण और दमन के विरुद्ध भारतीय अस्मिता और स्वतंत्रता की रक्षा करना था। ==== विद्रोह के प्रमुख कारण ==== 1. राजनीतिक कारण: ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा 'डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स' (हड़प नीति) लागू की गई, जिसके अंतर्गत जिन भारतीय रियासतों में कोई जैविक उत्तराधिकारी नहीं था, उन्हें कंपनी में मिला लिया गया। इससे झाँसी, सतारा, नागपुर जैसी रियासतें प्रभावित हुईं। इसके अतिरिक्त अवध जैसे समृद्ध राज्यों का जबरन विलय किया गया, जिससे स्थानीय रियासतों में रोष व्याप्त हो गया। 2. सामाजिक और धार्मिक कारण: ब्रिटिश शासन द्वारा भारतीय परंपराओं और धार्मिक आस्थाओं का निरंतर उल्लंघन किया जा रहा था। अंग्रेजों द्वारा सती प्रथा, बाल विवाह जैसे सुधारों की आड़ में धर्मांतरण की आशंका ने हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों को असहज कर दिया। मिशनरियों की गतिविधियाँ और धर्म प्रचार ने यह भय उत्पन्न किया कि भारतीय समाज को ईसाई बनाया जा रहा है। 3. आर्थिक कारण: जमींदारी व्यवस्था, करों की अत्यधिक दर, पारंपरिक उद्योगों का पतन, कारीगरों की बेरोजगारी और कृषि संकट ने भारत के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने को तोड़ दिया। किसानों और शिल्पकारों का शोषण चरम पर था। आर्थिक असंतोष ने विद्रोह की भूमि तैयार की। 4. सैनिक कारण: भारतीय सिपाही ब्रिटिश सेना का आधार थे, लेकिन उन्हें वेतन, पदोन्नति और सम्मान में भेदभाव का सामना करना पड़ता था। सिपाहियों में यह भावना घर कर गई थी कि अंग्रेज उनके धर्म को भ्रष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं। एनफील्ड राइफल के कारतूसों को गाय और सूअर की चर्बी से ग्रीस किए जाने की अफवाह ने धार्मिक आक्रोश को जन्म दिया। मंगल पांडे ने खुले विद्रोह का बिगुल फूंका, जिससे मेरठ से विद्रोह की शुरुआत हुई। ==== विद्रोह की प्रमुख घटनाएँ और केंद्र ==== 1. मेरठ: 10 मई 1857 को मेरठ छावनी में सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया और अंग्रेज अधिकारियों की हत्या की। 2. दिल्ली: मेरठ के सिपाही दिल्ली पहुँचे और मुग़ल सम्राट बहादुर शाह ज़फ़र को भारत का सम्राट घोषित कर दिया। दिल्ली विद्रोह का मुख्य केंद्र बन गया। 3. कानपुर: नाना साहेब पेशवा के नेतृत्व में विद्रोह हुआ। तात्या टोपे और अजीमुल्ला खान ने ब्रिटिश सत्ता को गंभीर चुनौती दी। 4. झाँसी: रानी लक्ष्मीबाई ने 'मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी' की हुंकार भरते हुए अंग्रेजों से युद्ध किया। वे वीरगति को प्राप्त हुईं लेकिन भारतीय वीरता की प्रतीक बन गईं। 5. लखनऊ: बेगम हज़रत महल ने अवध में विद्रोह का नेतृत्व किया और नवाब के नाबालिग पुत्र के नाम पर शासन चलाया। 6. ग्वालियर: तात्या टोपे और रानी लक्ष्मीबाई ने यहाँ अंग्रेजों से निर्णायक युद्ध लड़ा। ==== विद्रोह की विफलता के कारण ==== एकीकृत नेतृत्व और समन्वय का अभाव आधुनिक हथियारों और संचार साधनों की कमी अंग्रेजों की सैन्य शक्ति और रणनीति श्रेष्ठ थी देशी रियासतों का कुछ स्थानों पर अंग्रेजों का समर्थन करना जनसाधारण में व्यापक स्तर पर संगठन की कमी ==== परिणाम ==== ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त कर भारत सीधे ब्रिटिश सरकार के अधीन आ गया। 1858 का भारत सरकार अधिनियम पारित हुआ, जिससे वायसराय की नियुक्ति हुई। भारतीयों को सेना और प्रशासन में सीमित रूप से स्थान देने की घोषणा हुई। ब्रिटिश शासन ने Divide and Rule की नीति अपनाई। मुस्लिम समुदाय पर संदेह करते हुए उन्हें नौकरियों से वंचित किया गया। ==== ऐतिहासिक महत्त्व ==== यद्यपि '''1857''' का विद्रोह सैन्य रूप से '''असफल रहा''', किंतु इसने '''भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन''' की नींव रखी। यह विद्रोह भारतीयों की '''राष्ट्रीय चेतना, सामूहिक प्रतिरोध और स्वतंत्रता''' की तीव्र आकांक्षा का प्रतीक बन गया। इस विद्रोह ने भारतीय समाज को यह सिखाया कि स्वतंत्रता केवल आंदोलनों और संघर्षों से ही प्राप्त की जा सकती है और भविष्य के लिए एक प्रेरणा बन गया। === निष्कर्ष === भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास केवल '''राजनीतिक आंदोलनों या ब्रिटिश शासन''' के विरुद्ध युद्धों की श्रृंखला नहीं था, बल्कि यह '''भारत के आत्मसम्मान''', '''सांस्कृतिक अस्मिता, सामाजिक पुनर्जागरण और समग्र चेतना का प्रतीक''' भी था। 1857 के विद्रोह से लेकर 1947 की स्वतंत्रता तक का यह संघर्ष निरंतर विकसित होने वाली उस '''राष्ट्रवादी भावना''' का परिणाम था, जो भारत को औपनिवेशिक दासता की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए हर कोने में सुलग रही थी। 1857 के विद्रोह को यद्यपि तत्काल सफलता नहीं मिली, लेकिन उसने एक चिंगारी को जन्म दिया जो धीरे-धीरे पूरे राष्ट्र में फैल गई। इस संघर्ष ने भारतीय जनमानस को यह अनुभव करा दिया कि ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी जा सकती है। इसके बाद के वर्षों में, '''दादाभाई नौरोजी, बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस''' जैसे नेताओं ने देश को एकजुट किया और जन-आंदोलनों के माध्यम से स्वतंत्रता की भावना को व्यापक जनसमुदाय तक पहुँचाया। यह संघर्ष न केवल राजनैतिक मुक्ति का अभियान था, बल्कि एक सामाजिक क्रांति भी थी। इसमें जाति, धर्म, भाषा और वर्ग से परे जाकर लोगों ने समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के आदर्शों को अपनाया। '''महिलाओं''' ने इसमें अभूतपूर्व योगदान दिया, '''दलित और वंचित वर्गों ने अपनी भूमिका निभाई''' और '''छात्रों, मजदूरों, किसानों तथा बुद्धिजीवियों''' ने इसे अपने-अपने स्तर पर आगे बढ़ाया। अंततः, यह निष्कर्ष निकालना उचित होगा कि स्वतंत्रता संग्राम भारत के इतिहास का वह स्वर्णिम अध्याय है जिसने न केवल देश को आजादी दिलाई, बल्कि उसे एक आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में पुनर्निर्मित करने की दिशा में मार्गदर्शन भी किया। यह अध्याय आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा और उन्हें यह सिखाएगा कि '''स्वतंत्रता केवल एक अधिकार नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी भी है।''' === श्रेणी: भारत का स्वतंत्रता संग्राम === [[श्रेणी: भारतीय इतिहास]] [[श्रेणी: स्वतंत्रता संग्राम]] [[श्रेणी: हिन्दी विकिपुस्तक]] hpzbfqsw1l0drx9v19ifuuzqwybbvtu भारत का सांस्कृतिक इतिहास/आधुनिक भारत 0 11410 82596 2025-06-15T09:38:54Z Baap8969 16001 '=== प्रस्तावना === '''"आधुनिक भारत"''' का इतिहास केवल '''स्वतंत्रता''' प्राप्ति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक '''नवजागरण, सामाजिक चेतना, औद्योगिक विकास, लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया 82596 wikitext text/x-wiki === प्रस्तावना === '''"आधुनिक भारत"''' का इतिहास केवल '''स्वतंत्रता''' प्राप्ति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक '''नवजागरण, सामाजिक चेतना, औद्योगिक विकास, लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्थापना''' और '''एक समावेशी राष्ट्र निर्माण''' की कहानी भी है। यह अध्याय भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के इतिहास को प्रस्तुत करता है, जिसमें संविधान निर्माण, लोकतंत्र की जड़ें, आर्थिक योजनाएँ, सामाजिक सुधार, विज्ञान और तकनीकी प्रगति, वैश्विक संबंध, और समकालीन समस्याओं का समावेश है। '''भारत की स्वतंत्रता''' के साथ ही एक नए युग की शुरुआत हुई, जिसमें भारत ने अपनी '''राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दिशा को स्वदेशी दृष्टिकोण''' से पुनर्निर्धारित किया। '''1950 में संविधान लागू''' होने के साथ ही '''भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य बन गया।''' इस समयकाल में भारत को साम्प्रदायिकता, गरीबी, अशिक्षा, क्षेत्रीय असंतुलन, और जातीय भेदभाव जैसे मुद्दों से संघर्ष करना पड़ा, लेकिन इन चुनौतियों का समाधान करने हेतु मजबूत संस्थाओं और नेतृत्व का निर्माण भी हुआ। === 1. भारतीय संविधान और लोकतंत्र की स्थापना === भारत का संविधान न केवल देश का '''सर्वोच्च कानून''' है, बल्कि यह उस लोकतांत्रिक आदर्श का भी प्रतिनिधित्व करता है जिसकी स्थापना स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की गई। '''संविधान निर्माण की प्रक्रिया 1946 में प्रारंभ हुई''', जब भारत की संविधान सभा का गठन हुआ। यह सभा देश के विभिन्न हिस्सों से चुने गए प्रतिनिधियों का समूह थी, जिसमें सभी धर्मों, जातियों, वर्गों और भाषाओं के लोगों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया गया था। संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद थे और डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान निर्माण समिति के अध्यक्ष के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 2 वर्ष, 11 महीने और 18 दिनों में तैयार हुए इस संविधान को 26 नवम्बर 1949 को अंगीकृत किया गया और 26 जनवरी 1950 को भारत गणराज्य बना। भारत का संविधान विश्व का सबसे बड़ा '''लिखित संविधान''' है, जिसमें '''395 अनुच्छेद''', 22 भाग और 12 अनुसूचियाँ थीं (वर्तमान में संशोधन के पश्चात इनमें वृद्धि हुई है)। यह संविधान भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित करता है और इसके प्रत्येक नागरिक को न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की गारंटी देता है। '''भारतीय लोकतंत्र''' की स्थापना का अर्थ केवल चुनाव प्रणाली की शुरुआत से नहीं है, बल्कि यह उस प्रक्रिया का आरंभ था जिसमें प्रत्येक नागरिक को मताधिकार दिया गया। भारत में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार लागू किया गया, जिसमें 18 वर्ष या उससे अधिक आयु का कोई भी नागरिक बिना भेदभाव के मतदान कर सकता है। यह विश्व में सबसे बड़े लोकतंत्र की नींव बन गई। संविधान में '''शक्ति का विभाजन''' विधायिका, '''कार्यपालिका और न्यायपालिका''' के बीच किया गया है। यह व्यवस्था '''नियंत्रण और संतुलन (Checks and Balances)''' के सिद्धांत पर आधारित है, जिससे कोई भी संस्था निरंकुश न बन सके। '''भारतीय संविधान की कुछ प्रमुख विशेषताएँ:''' '''संप्रभुता''' – भारत किसी भी बाहरी सत्ता से स्वतंत्र है। '''धर्मनिरपेक्षता''' – राज्य का कोई धर्म नहीं होगा और सभी धर्मों को समान सम्मान मिलेगा। '''लोकतंत्र''' – जनता द्वारा चुनी हुई सरकार, जनता के लिए कार्य करती है। '''मौलिक अधिकार''' – प्रत्येक नागरिक को जीवन, स्वतंत्रता, समानता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धार्मिक स्वतंत्रता, शिक्षा आदि के अधिकार प्राप्त हैं। '''न्याय व्यवस्था''' – स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका जो संविधान की रक्षा करती है। संविधान में नागरिकों के कर्तव्यों का भी उल्लेख किया गया है जैसे – राष्ट्र की संप्रभुता की रक्षा करना, पर्यावरण की रक्षा करना, वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना, महिलाओं के सम्मान की रक्षा करना आदि। भारत में लोकतंत्र का मतलब केवल शासन की एक प्रणाली नहीं, बल्कि वह विचारधारा है जो नागरिकों को अपनी सरकार चुनने, आलोचना करने, विरोध करने, विचार व्यक्त करने और समान अवसर प्राप्त करने का अधिकार देती है। भारतीय लोकतंत्र की मजबूती इसके '''स्वतंत्र चुनाव आयोग''', सक्रिय मीडिया, स्वतंत्र न्यायपालिका और जागरूक नागरिक समाज में दिखाई देती है। अतः, भारतीय संविधान और लोकतंत्र की स्थापना केवल एक संवैधानिक दस्तावेज का निर्माण नहीं था, बल्कि यह भारतीय इतिहास की वह ऐतिहासिक घटना थी जिसने देश को एकजुट किया, लोगों को अधिकार और उत्तरदायित्व दिए, और भारत को विश्व का सबसे बड़ा और विविधतापूर्ण लोकतंत्र बनाया। === 2. पंचवर्षीय योजनाएँ: भारत का आर्थिक नियोजन === भारत की स्वतंत्रता के पश्चात्, आर्थिक विकास को एक संगठित दिशा देने के लिए पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत की गई। इन योजनाओं का उद्देश्य गरीबी उन्मूलन, औद्योगीकरण, कृषि विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, और आधारभूत संरचना को सशक्त करना था। भारत में समाजवाद प्रेरित मिश्रित अर्थव्यवस्था की अवधारणा को स्वीकारते हुए नियोजन आयोग की स्थापना 15 मार्च 1950 को की गई, जिसके पहले अध्यक्ष पं. जवाहरलाल नेहरू थे। ==== प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951–1956) ==== इस योजना का मुख्य लक्ष्य कृषि और सिंचाई पर आधारित था। योजना का उद्देश्य खाद्य उत्पादन बढ़ाना, कृषि को स्थायित्व देना, और पूंजी निर्माण करना था। इसमें बड़े बांधों और सिंचाई परियोजनाओं जैसे भाखड़ा-नांगल और हीराकुंड बांध का निर्माण किया गया। यह योजना अपेक्षाकृत सफल रही और भारत की अर्थव्यवस्था को स्थिरता मिली। ==== द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956–1961) ==== इस योजना को महालनोबिस मॉडल पर आधारित किया गया था, जिसमें भारी उद्योगों के विकास पर बल दिया गया। सार्वजनिक क्षेत्र को बढ़ावा दिया गया, इस्पात संयंत्र, मशीन निर्माण और ऊर्जा उत्पादन की ओर ध्यान केंद्रित किया गया। यह योजना औद्योगिकीकरण की दिशा में मील का पत्थर बनी। ==== तृतीय पंचवर्षीय योजना (1961–1966) ==== इस योजना का उद्देश्य आत्मनिर्भरता प्राप्त करना और कृषि तथा उद्योगों में संतुलित विकास करना था। किंतु 1962 का चीन युद्ध, 1965 का भारत-पाक युद्ध और 1966 का सूखा इस योजना की सफलता में बाधा बने। ==== वार्षिक योजनाएँ (1966–1969) ==== तीसरी योजना की असफलता के बाद तीन वार्षिक योजनाएं लागू की गईं जिन्हें योजना अंतराल कहा गया। इस दौरान स्थिरता और पुनर्गठन पर ध्यान दिया गया। ==== चतुर्थ पंचवर्षीय योजना (1969–1974) ==== इस योजना में 'ग्रोथ विद जस्टिस' पर बल दिया गया। गरीबी हटाओ (Garibi Hatao) के नारे के साथ सामाजिक न्याय और आर्थिक समानता को प्राथमिकता दी गई। ==== पंचम पंचवर्षीय योजना (1974–1979) ==== इस योजना का लक्ष्य गरीबी हटाना और आत्मनिर्भरता प्राप्त करना था। यह योजना राजनीतिक अस्थिरता के कारण समय से पहले समाप्त हो गई। ==== षष्ठम पंचवर्षीय योजना (1980–1985) ==== इस योजना में औद्योगिक और तकनीकी विकास के साथ-साथ जनसंख्या नियंत्रण पर ध्यान दिया गया। ==== सप्तम पंचवर्षीय योजना (1985–1990) ==== इस योजना में उत्पादकता बढ़ाने, रोजगार सृजन और तकनीकी उन्नयन पर बल दिया गया। ==== नवें दशक की योजनाएँ (1990–2000) ==== आठवीं योजना (1992–1997) आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के साथ शुरू हुई। विदेशी निवेश को प्रोत्साहन, निजीकरण और मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था की शुरुआत इसी समय हुई। ==== दसवीं से बारहवीं योजनाएँ (2002–2017) ==== इन योजनाओं में शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण सुरक्षा, तकनीकी नवाचार और समावेशी विकास को प्राथमिकता दी गई। बारहवीं योजना (2012–2017) के बाद नीति आयोग की स्थापना की गई और पारंपरिक पंचवर्षीय योजना प्रणाली को समाप्त कर दिया गया। ==== नीति आयोग का गठन ==== 2015 में योजना आयोग को समाप्त कर नीति आयोग (NITI Aayog) की स्थापना की गई। इसका उद्देश्य राज्य और केंद्र सरकार के बीच समन्वय को बढ़ाना और नीति निर्माण में भागीदारी को बढ़ावा देना है। यह टॉप-डाउन के बजाय बॉटम-अप दृष्टिकोण पर आधारित है। === 3. हरित क्रांति: भारत की कृषि में परिवर्तन === हरित क्रांति भारत के कृषि इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण घटना थी, जिसने खाद्यान्न उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि की और देश को खाद्यान्न संकट से उबारा। यह आंदोलन 1960 के दशक के उत्तरार्द्ध में शुरू हुआ, जब भारत में लगातार सूखा, अकाल और खाद्य संकट के चलते विदेशी अनाज पर निर्भरता बढ़ गई थी। ==== पृष्ठभूमि और आवश्यकता ==== 1950 और 60 के दशक में भारत की कृषि परंपरागत तरीके से चलती थी, जिसमें उत्पादकता कम थी। भारत को अमेरिका से PL-480 योजना के तहत गेहूं आयात करना पड़ता था। यह आत्मनिर्भरता के लिए खतरे की घंटी थी। ऐसे में कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक तरीकों को अपनाना आवश्यक हो गया। ==== प्रमुख विशेषताएँ ==== '''उच्च उत्पादकता वाली किस्मों (HYV Seeds) का उपयोग''' – विशेषकर गेहूं और चावल की। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का प्रयोग। '''सिंचाई सुविधाओं का विस्तार''' – नहर, ट्यूबवेल, डैम आदि। '''कृषि यंत्रीकरण''' – ट्रैक्टर, हार्वेस्टर आदि का उपयोग। '''सरकारी समर्थन''' – न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP), ऋण सहायता, अनुसंधान केंद्रों की स्थापना। ==== प्रमुख व्यक्ति ==== '''डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन''' – हरित क्रांति के जनक माने जाते हैं। उन्होंने HYV बीजों और वैज्ञानिक तरीकों को अपनाने में अग्रणी भूमिका निभाई। ==== परिणाम ==== * गेहूं और चावल के उत्पादन में भारी वृद्धि। * भारत खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बना। * पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हरित क्रांति का सबसे अधिक प्रभाव। * किसानों की आय में वृद्धि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का सशक्तिकरण। === 4. विज्ञान और अनुसंधान संस्थानों की स्थापना === * 1947 के बाद ISRO, DRDO, BARC, CSIR जैसी संस्थाओं की स्थापना हुई। * 1975 में आर्यभट्ट उपग्रह का प्रक्षेपण भारत की आत्मनिर्भरता का प्रमाण था। * भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) ने मंगलयान, चंद्रयान, PSLV और GSLV मिशनों के माध्यम से उल्लेखनीय उपलब्धियाँ प्राप्त कीं। === 5. आईटी क्रांति === * 1990 के बाद सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में भारत अग्रणी बना। * बेंगलुरु, हैदराबाद जैसे शहरों ने "सिलिकॉन वैली ऑफ इंडिया" की पहचान बनाई। * TCS, Infosys, Wipro जैसी कंपनियों ने भारत को वैश्विक पहचान दिलाई। === महिला सशक्तिकरण === * शिक्षा, कार्य और राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी। * बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ, सुकन्या समृद्धि योजना जैसी योजनाओं का प्रभाव। === दलित और पिछड़े वर्गों का उत्थान === * आरक्षण नीति, सामाजिक न्याय मंत्रालय की स्थापना। * पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जातियों/जनजातियों के लिए विशेष योजनाएँ। === निष्कर्ष === आधुनिक भारत का निर्माण एक जटिल, बहुआयामी और निरंतर चलने वाली प्रक्रिया रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत ने जिस प्रकार सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और वैज्ञानिक क्षेत्रों में संतुलित विकास किया, वह विश्व पटल पर उसकी पहचान को पुनः परिभाषित करता है। इस यात्रा की शुरुआत भारतीय संविधान की स्थापना से हुई, जिसने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी, लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में स्थापित किया। संविधान केवल एक दस्तावेज नहीं, बल्कि देश के नागरिकों के लिए उनके अधिकारों, कर्तव्यों और समानता की भावना का मार्गदर्शक बना। लोकतंत्र की स्थापना के साथ भारत ने एक समावेशी और उत्तरदायी शासन प्रणाली को अपनाया जिसमें प्रत्येक नागरिक की भागीदारी सुनिश्चित की गई। प्रत्येक पंचवर्षीय योजना भारत के विकास का एक चरण थी। ये योजनाएँ न केवल कृषि, उद्योग और बुनियादी ढाँचे के विकास में सहायक रहीं, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य और गरीबी उन्मूलन के माध्यम से समाज के कमजोर वर्गों को भी सशक्त करने का माध्यम बनीं। हरित क्रांति ने देश को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाया, जिससे अकाल और भुखमरी जैसी समस्याओं पर प्रभावी नियंत्रण पाया गया। औद्योगिकीकरण और विज्ञान-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना आधुनिक भारत की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) की उपलब्धियाँ, रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) की वैज्ञानिक उपलब्धियाँ और परमाणु ऊर्जा में आत्मनिर्भरता ने भारत को वैश्विक शक्तियों की श्रेणी में खड़ा किया। सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में भारत की सफलता ने न केवल आर्थिक प्रगति को बल दिया, बल्कि वैश्विक स्तर पर भारतीय युवा प्रतिभा की एक नई पहचान बनाई। शिक्षा के क्षेत्र में सरकार द्वारा चलाए गए कार्यक्रम जैसे सर्व शिक्षा अभियान, राष्ट्रीय शिक्षा नीति, माध्यमिक शिक्षा सुधार और तकनीकी शिक्षा का विस्तार देश को एक सशक्त ज्ञान-आधारित समाज में परिवर्तित कर रहे हैं। महिलाओं को शिक्षा, रोजगार, राजनीति और निर्णय प्रक्रिया में भागीदार बनाना भारतीय समाज के लिए एक क्रांतिकारी परिवर्तन रहा है। नारी सशक्तिकरण, लिंग समानता और सामाजिक समावेशन जैसे मूल्य धीरे-धीरे हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग बनते जा रहे हैं। भारत की विदेश नीति भी उल्लेखनीय रही है। शीत युद्ध काल में गुटनिरपेक्ष आंदोलन के माध्यम से भारत ने अपनी स्वतंत्र और संतुलित सोच को बनाए रखा। पंचशील सिद्धांतों ने वैश्विक शांति और सहयोग को बढ़ावा दिया। भारत संयुक्त राष्ट्र शांति अभियानों, पर्यावरणीय सम्मेलन, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मंच और द्विपक्षीय सहयोग में सक्रिय भूमिका निभाकर एक जिम्मेदार और विश्वसनीय राष्ट्र के रूप में उभरा है। आधुनिक भारत की सबसे बड़ी विशेषता उसकी विविधता में एकता है। धर्म, जाति, भाषा, संस्कृति और भौगोलिक विविधताओं के बावजूद भारत एकजुट होकर प्रगति की राह पर अग्रसर है। यह एक जीवंत लोकतंत्र है जिसमें बहस, असहमति और विचारों की विविधता को स्थान दिया गया है। भारत का भविष्य तकनीकी विकास, सतत ऊर्जा, डिजिटल अर्थव्यवस्था और सामाजिक न्याय जैसे क्षेत्रों में अपनी पकड़ मजबूत करते हुए एक वैश्विक शक्ति बनने की ओर अग्रसर है। युवाओं की ऊर्जा, किसानों की मेहनत, वैज्ञानिकों की सोच, शिक्षकों का मार्गदर्शन और नेतृत्वकर्ताओं की दूरदृष्टि मिलकर एक ऐसे भारत का निर्माण कर रही है जो न केवल अपने लिए, बल्कि समस्त मानवता के लिए एक प्रेरणास्रोत है। इस प्रकार, आधुनिक भारत की यात्रा केवल आर्थिक और भौतिक विकास की नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना, आत्मबल, सांस्कृतिक गौरव और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की यात्रा भी है। यह भारत की आत्मा को आधुनिक युग के अनुरूप ढालने की एक सतत प्रक्रिया है, जहाँ परंपरा और नवाचार का सुंदर समन्वय देखने को मिलता है। यही आधुनिक भारत की सच्ची तस्वीर है - विविधता में एकता, संस्कृति में आधुनिकता, और परंपरा में नवचेतना। [[Category:हिन्दी विकिबुक]] [[Category:भारतीय इतिहास]] [[Category:आधुनिक भारत]] [[Category:भारत का संविधान]] [[Category:भारतीय अर्थव्यवस्था]] f2a1lb3vdd1tuvrvibqz8xh11i0ly1g भारत का सांस्कृतिक इतिहास/त्योहार और परंपराएं 0 11411 82597 2025-06-15T09:59:39Z Baap8969 16001 ''''भारत का सांस्कृतिक इतिहास''' त्योहारों और परंपराओं के बिना अधूरा है। यह अध्याय भारतीय समाज में मनाए जाने वाले प्रमुख त्योहारों, उनके ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व, रीति-...' के साथ नया पृष्ठ बनाया 82597 wikitext text/x-wiki '''भारत का सांस्कृतिक इतिहास''' त्योहारों और परंपराओं के बिना अधूरा है। यह अध्याय भारतीय समाज में मनाए जाने वाले प्रमुख त्योहारों, उनके ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व, रीति-रिवाज, विविधता और क्षेत्रीय परंपराओं का गहराई से विश्लेषण करता है। === 1. भारतीय त्योहारों की विशेषताएँ (विस्तारित रूप) === भारत के त्योहारों की विशेषताएँ न केवल उनके धार्मिक या सांस्कृतिक महत्व में निहित हैं, बल्कि वे सामाजिक संरचना, लोकजीवन, जलवायु, कृषि चक्र, और मानव मूल्यों की अभिव्यक्ति भी हैं। इनकी कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं: ==== 1.1 धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक समन्वय ==== '''भारतीय त्योहारों''' की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि वे केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं हैं, बल्कि वे सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के विभिन्न पहलुओं को भी जोड़ते हैं। भारत जैसे बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक देश में, त्योहार एकता का सूत्र बनते हैं। धार्मिक दृष्टि से, प्रत्येक धर्म के त्योहारों का अपना विशेष महत्व है। उदाहरणस्वरूप, दीपावली हिन्दू धर्म का प्रमुख त्योहार है जो राम के अयोध्या लौटने की स्मृति में मनाया जाता है, वहीं ईद-उल-फित्र इस्लाम धर्म में रोज़ों के समापन का प्रतीक है। क्रिसमस ईसा मसीह के जन्म दिवस पर और गुरुपर्व गुरु नानक देव की जयंती पर मनाया जाता है। इन सभी पर्वों में ईश्वर के प्रति श्रद्धा, संयम, और परोपकार का भाव प्रमुख रहता है। सामाजिक दृष्टि से, त्योहार पारिवारिक और सामुदायिक संबंधों को मजबूत करते हैं। रक्षाबंधन भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक है, वहीं होली में सारे भेदभाव मिटाकर लोग आपस में रंग खेलते हैं। गणेश चतुर्थी और दुर्गा पूजा जैसे पर्व सार्वजनिक रूप से मनाए जाते हैं, जिससे समुदाय में सहभागिता और सामूहिकता की भावना प्रबल होती है। सांस्कृतिक दृष्टि से, त्योहारों के माध्यम से '''लोक नृत्य, संगीत, नाटक, व्यंजन, और परिधान''' आदि की परंपराएँ पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती हैं। '''गरबा, डांडिया, भांगड़ा, कव्वाली, कीर्तन, भजन आदि सांस्कृतिक रंग''' भरते हैं। बहुधार्मिक समाज में त्योहारों का समन्वय भी देखने को मिलता है। कई बार विभिन्न धर्मों के लोग एक-दूसरे के पर्वों में भाग लेते हैं, जैसे होली और दीपावली पर मुसलमान और ईसाई समुदायों की भागीदारी, या ईद की मिठाइयों में हिन्दू मित्रों का शामिल होना। यह आपसी भाईचारे और सामाजिक समरसता का परिचायक है। उदाहरणस्वरूप, केरल का ओणम पर्व हिन्दू मान्यता के अनुसार राजा महाबली की स्मृति में मनाया जाता है, परंतु इसे राज्य के सभी समुदाय मिलकर मनाते हैं। इसी प्रकार, महाराष्ट्र में गणेश चतुर्थी न केवल धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि सांस्कृतिक जागरूकता, सामाजिक मुद्दों पर आधारित झांकियाँ, और कला-साहित्य का उत्सव भी बन गया है। इस प्रकार, भारतीय त्योहार धार्मिक श्रद्धा, सामाजिक एकता और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का त्रिवेणी संगम प्रस्तुत करते हैं। ==== 1.2 ऋतु और प्राकृतिक चक्र से गहरा संबंध ==== भारत के त्योहार मौसम परिवर्तन और प्रकृति के बदलाव से गहराई से जुड़े होते हैं: वसंत पंचमी सरस्वती पूजा और वसंत ऋतु के आगमन का प्रतीक है। लोहड़ी और मकर संक्रांति शीत ऋतु के अंत और नए कृषि चक्र की शुरुआत को चिन्हित करते हैं। होली रंगों के माध्यम से जीवन में उमंग और प्रकृति की हरियाली का उत्सव है। ==== 1.3 कृषि और ग्रामीण जीवन का प्रतिबिंब ==== कई त्योहार ग्रामीण जीवन और कृषिपरक संस्कृति से जुड़े हैं: बैसाखी, पोंगल, ओणम, बीहू — ये सभी फसल कटाई के उत्सव हैं, जिनमें अन्न, पशु, और प्रकृति की पूजा की जाती है। यह परंपरा भारत के कृषि आधारित समाज की आभार-प्रदर्शन संस्कृति को दर्शाती है। ==== 1.4 पारिवारिक और सामाजिक संबंधों को सुदृढ़ करना ==== भारतीय त्योहारों में परिवार और समाज के सभी सदस्य शामिल होते हैं: रक्षाबंधन, भाई दूज जैसे पर्व भाई-बहन के रिश्ते को मजबूत करते हैं। करवा चौथ और तीज विवाहित जीवन और नारी शक्ति के आदर्श को उजागर करते हैं। गणेश चतुर्थी और नवरात्रि जैसे सामुदायिक पर्वों में सामूहिकता, सहयोग और सामूहिक संस्कार देखने को मिलते हैं। ==== 1.5 विविधता में एकता का भाव ==== भारत में विभिन्न भाषाओं, जातियों, धर्मों और संस्कृतियों के बावजूद त्योहार सबको एक साथ जोड़ते हैं: उदाहरणस्वरूप, होली पूरे उत्तर भारत में भले रंग और मस्ती से जुड़ा हो, लेकिन पश्चिम बंगाल में यह दोल उत्सव के रूप में राधा-कृष्ण की भक्ति से जुड़ा होता है। दुर्गा पूजा बंगाल में विशेष रूप से धार्मिक रूप से पूजी जाती है, जबकि गुजरात में यही नवरात्रि डांडिया और गरबा के रूप में सांस्कृतिक उत्सव का रूप लेती है। ==== 1.6 नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा ==== हर त्योहार अपने साथ कोई न कोई नैतिक सीख लेकर आता है: * दीपावली अंधकार पर प्रकाश की विजय है। * दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है (राम का रावण पर विजय)। * ईद संयम, धैर्य और भाईचारे का संदेश देती है। * बुद्ध पूर्णिमा और महावीर जयंती जैसे पर्व आत्मसंयम, अहिंसा, और करुणा के मूल्य सिखाते हैं। ==== 1.7 कलाओं और शिल्प का संरक्षण ==== त्योहारों के अवसर पर पारंपरिक कलाओं का संरक्षण होता है: रंगोली, आल्पना, दीप सज्जा, पठाखे निर्माण, हस्तशिल्प, लोक नृत्य, संगीत — ये सभी हमारी सांस्कृतिक विरासत के अंग हैं। नवरात्रि में गरबा और ओणम में पुलिकली जैसे नृत्य-नाट्य हमारी लोकपरंपराओं को जीवित रखते हैं। ==== 1.8 आधुनिकता और परंपरा का समन्वय ==== वर्तमान समय में त्योहारों ने आधुनिक तकनीक, सोशल मीडिया, और डिजिटल संस्कृति के साथ समन्वय स्थापित कर लिया है: ऑनलाइन ग्रीटिंग्स, डिजिटल पूजा, ई-शॉपिंग, वर्चुअल सांस्कृतिक कार्यक्रम अब सामान्य हो गए हैं। फिर भी लोग पारंपरिक परिधान पहनते हैं, रीति-रिवाज निभाते हैं, और सामूहिकता बनाए रखते हैं। ==== 1.9 पर्यावरणीय जागरूकता और बदलाव ==== समय के साथ-साथ त्योहारों को मनाने की विधियों में भी बदलाव आया है, खासकर पर्यावरणीय दृष्टिकोण से। पहले जहाँ कई त्योहारों में ध्वनि, प्रदूषण, और कचरा बढ़ाने वाली गतिविधियाँ देखी जाती थीं, वहीं अब समाज में पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ने लगी है। '''ईको-फ्रेंडली गणेश चतुर्थी:''' पहले प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी गणेश मूर्तियाँ नदियों में विसर्जित की जाती थीं, जिससे जल प्रदूषण होता था। अब लोग शुद्ध मिट्टी की मूर्तियाँ बनाते हैं जो आसानी से घुल जाती हैं और पर्यावरण को हानि नहीं पहुँचातीं। '''दीपावली में कम पटाखे:''' वायु और ध्वनि प्रदूषण को ध्यान में रखते हुए, दीपावली पर कम या नो-पटाखा अभियान चलाए जाते हैं। बच्चे अब रोशनी, रंगोली और पारंपरिक दीपों से त्योहार मनाना सीख रहे हैं। '''सामूहिक पूजा स्थलों की स्वच्छता:''' दुर्गा पूजा, छठ पूजा, और अन्य जल स्रोतों से जुड़े पर्वों में पूजा के बाद सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है। कई जगहों पर नगरपालिका और स्वयंसेवी संस्थाएँ मिलकर जागरूकता अभियान चलाती हैं। '''पुनः प्रयोज्य सजावट सामग्री:''' कागज, कपड़ा, मिट्टी, और बायोडिग्रेडेबल सामग्री से सजावट की जा रही है जिससे प्लास्टिक का प्रयोग कम हो रहा है। '''सार्वजनिक परिवहन और सामूहिक आयोजन:''' ट्रैफिक और ईंधन खपत को कम करने के लिए लोग अब सामूहिक रूप से एक ही स्थान पर एकत्र होते हैं और सामूहिक आयोजन को प्राथमिकता देते हैं। '''ऑनलाइन और डिजिटल उत्सव:''' महामारी के समय से लोगों में डिजिटल माध्यम से त्योहार मनाने की आदत बनी है, जिससे यात्रा और प्रदूषण में कमी आई है। यह बदलाव यह दर्शाते हैं कि भारतीय समाज अपनी परंपराओं का सम्मान करते हुए आधुनिक चुनौतियों का समाधान ढूंढ रहा है और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक स्वच्छ, सुंदर और संतुलित वातावरण बनाने की दिशा में अग्रसर है। === 2. धार्मिक त्योहार === भारत के धार्मिक त्योहार न केवल पूजा-पाठ या अनुष्ठानों तक सीमित होते हैं, बल्कि ये जीवन के विविध रंगों को समाहित करते हैं। ये त्योहार भारतीय समाज की आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक चेतना के परिचायक हैं। ==== 2.1 हिन्दू धार्मिक त्योहार ==== भारत में हिन्दू धर्म के सबसे अधिक त्योहार मनाए जाते हैं: '''दीपावली:''' यह पर्व भगवान राम के 14 वर्षों के वनवास के बाद अयोध्या लौटने की खुशी में मनाया जाता है। यह रोशनी, ज्ञान और अंधकार पर विजय का प्रतीक है। घरों में दीप जलाए जाते हैं, लक्ष्मी पूजा होती है और मिठाइयाँ बांटी जाती हैं। ''' होली:''' रंगों का त्योहार जो बुराई पर अच्छाई की विजय (होलिका दहन) और प्रेम के रंग में भीगने का प्रतीक है। यह सामाजिक समरसता का उत्सव है। '''रक्षाबंधन:''' भाई-बहन के प्रेम का पर्व, जिसमें बहनें अपने भाइयों की कलाई पर रक्षा-सूत्र बांधती हैं। '''नवरात्रि और दुर्गा पूजा:''' शक्ति की आराधना के नौ दिन, देवी दुर्गा के विभिन्न रूपों की पूजा होती है। बंगाल में दुर्गा पूजा अत्यंत भव्य रूप से मनाई जाती है। '''राम नवमी, जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, मकर संक्रांति, वसंत पंचमी, करवा चौथ, शिवरात्रि आदि अनेक पर्व धार्मिक आस्था''' और पौराणिक मान्यताओं से जुड़े हैं। ==== 2.2 इस्लामिक त्योहार ==== इस्लाम धर्म के अनुयायी दो प्रमुख पर्व मनाते हैं: '''ईद-उल-फित्र:''' रमज़ान के महीने के उपवास समाप्त होने पर यह पर्व मनाया जाता है। यह परस्पर प्रेम, भाईचारे और सहानुभूति का प्रतीक है। '''ईद-उल-अजहा (बकरीद):''' यह बलिदान का त्योहार है जो इस्लामिक परंपरा में हज़रत इब्राहीम की अपने पुत्र की कुर्बानी की भावना की याद में मनाया जाता है। ==== 2.3 ईसाई त्योहार ==== '''क्रिसमस:''' ईसा मसीह के जन्मदिवस (25 दिसम्बर) को यह पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। चर्चों में विशेष प्रार्थनाएँ, केरल और गोवा जैसे राज्यों में उत्सव का विशेष माहौल देखा जाता है। '''गुड फ्राइडे और ईस्टर:''' यीशु के बलिदान और पुनरुत्थान की स्मृति में मनाए जाने वाले पर्व हैं। ==== 2.4 सिख त्योहार ==== '''गुरु नानक जयंती (गुरुपर्व):''' सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव के जन्मदिवस पर मनाया जाता है। नगर कीर्तन, कीर्तन और लंगर जैसे आयोजन होते हैं। बैसाखी: सिखों के लिए यह नया साल भी है और खालसा पंथ की स्थापना का दिवस भी। ==== 2.5 बौद्ध और जैन त्योहार ==== '''बुद्ध पूर्णिमा:''' भगवान बुद्ध के जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण की स्मृति में वैशाख पूर्णिमा को मनाया जाता है। '''महावीर जयंती:''' जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी की जयंती पर धार्मिक जुलूस, प्रवचन और अहिंसा का प्रचार किया जाता है। ==== 2.6 पारसी और यहूदी पर्व ==== * '''नवरोज़:''' पारसी समुदाय का नववर्ष, जो सौहार्द, स्वच्छता और शांति का प्रतीक है। * हनुका, योम किप्पुर: भारत के यहूदी समुदाय द्वारा मनाए जाने वाले यहूदी पर्व। === 3. आधुनिक परिवर्तन और मीडिया === वर्तमान युग में विज्ञान और तकनीकी प्रगति ने त्योहारों के स्वरूप, आयोजन और अनुभव को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। मीडिया, सोशल नेटवर्किंग साइट्स, टेलीविजन, मोबाइल ऐप्स और ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म ने न केवल त्योहारों की दृश्यता बढ़ाई है, बल्कि उनकी पहुँच, सहभागिता और प्रस्तुति के स्वरूप को भी नया रूप दिया है। ==== 3.1 डिजिटल पूजा और आभासी आयोजन ==== अब बड़े मंदिरों और धार्मिक संगठनों द्वारा ऑनलाइन दर्शन, पूजा, और यज्ञ आयोजित किए जाते हैं जिन्हें लोग देश-विदेश से लाइव देख सकते हैं। COVID-19 महामारी के दौरान यह चलन और अधिक बढ़ा, जहाँ 'Zoom पूजा', 'Virtual Aarti', और 'Live Darshan' आम हो गए। बड़े आयोजन जैसे दुर्गा पूजा पंडाल, गणेशोत्सव आदि का आभासी भ्रमण (virtual tour) भी वेबसाइट्स और ऐप्स द्वारा संभव हुआ। ==== 3.2 सोशल मीडिया और त्योहार ==== त्योहारों पर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म जैसे फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर, और व्हाट्सएप पर शुभकामनाओं, फोटो, वीडियो और लाइव स्टोरीज की बाढ़ आ जाती है। हैशटैग आधारित अभियान (#Diwali2025, #HoliCelebration) से सामूहिक भागीदारी और जागरूकता को बढ़ावा मिलता है। त्योहारों पर होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों और मेले अब सोशल मीडिया पर प्रसारित होते हैं, जिससे दूरदराज़ के लोग भी इसमें भाग ले सकते हैं। ==== 3.3 टेलीविजन और रेडियो की भूमिका ==== टीवी चैनलों पर त्योहारों से संबंधित विशेष कार्यक्रम, धार्मिक फिल्में, लाइव कवरेज और विशिष्ट वार्ता प्रसारित होती हैं। रेडियो पर भक्ति संगीत, कथा, और त्योहार विशेष प्रसारण होते हैं जो विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में लोकप्रिय हैं। धार्मिक चैनल जैसे Aastha, Sanskar, और आध्यात्मिक कार्यक्रमों की माँग त्योहारों में अधिक हो जाती है। ==== 3.4 ई-कार्ड, डिजिटल उपहार और ई-कॉमर्स ==== पारंपरिक ग्रीटिंग कार्ड्स की जगह अब ई-कार्ड और डिजिटल विशिंग एप्स ने ले ली है। अमेज़न, फ्लिपकार्ट, और मिंत्रा जैसे ई-कॉमर्स प्लेटफ़ॉर्म त्योहारों पर विशेष छूट और 'Festival Sale' के ज़रिए ग्राहकों को जोड़ते हैं। उपहार भेजने के लिए ऑनलाइन गिफ्टिंग पोर्टल्स, वर्चुअल वॉउचर, और होम डिलीवरी ने त्योहारों की भौगोलिक सीमाएँ तोड़ दी हैं। ==== 3.5 त्योहारों का वैश्वीकरण ==== '''भारतीय प्रवासी समुदाय (NRI)''' और विदेशों में बसे भारतीय संगठनों द्वारा भी अब डिजिटल माध्यमों से भारत के त्योहारों को मनाया जाता है। यह वैश्वीकरण भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार करता है और भारत की 'सॉफ्ट पावर' को मज़बूत करता है। ==== 3.6 पर्यावरणीय और नैतिक बदलाव ==== मीडिया और ऑनलाइन अभियानों के ज़रिए 'ग्रीन दिवाली', 'इको-फ्रेंडली होली', और 'नो क्रैकर्स' जैसे आंदोलनों को बढ़ावा मिला है। डिजिटल जागरूकता से लोग अब अधिक सजग हो रहे हैं, जिससे उत्सवों का स्वरूप अधिक संवेदनशील और टिकाऊ बन रहा है। === 4. निष्कर्ष === भारतीय त्योहार विविधता में एकता के प्रतीक हैं। धार्मिक आस्था, सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक परंपरा, और आधुनिक तकनीकी विकास से समन्वित यह परंपरा भारत को एक 'उत्सवप्रिय राष्ट्र' बनाती है। त्योहार न केवल आनंद और उल्लास का माध्यम हैं, बल्कि पीढ़ियों के बीच सांस्कृतिक विरासत को भी संजोए रखते हैं। [[श्रेणी:भारतीय इतिहास विकिबुक]] [[श्रेणी:भारतीय त्योहार]] [[श्रेणी:ब्रिटिश राज और भारतीय समाज]] 45yni4lx8choqsjny1g7hmtls1vwdrk भारत का सांस्कृतिक इतिहास/भाषा और साहित्य 0 11412 82598 2025-06-15T10:11:13Z Baap8969 16001 ' '''भारत का सांस्कृतिक इतिहास''' केवल स्थापत्य, मूर्तिकला या त्योहारों तक सीमित नहीं है; इसका सबसे गहरा और प्रभावशाली पहलू है – '''भाषा और साहित्य'''। यह अध्याय भारतीय भाषा...' के साथ नया पृष्ठ बनाया 82598 wikitext text/x-wiki '''भारत का सांस्कृतिक इतिहास''' केवल स्थापत्य, मूर्तिकला या त्योहारों तक सीमित नहीं है; इसका सबसे गहरा और प्रभावशाली पहलू है – '''भाषा और साहित्य'''। यह अध्याय भारतीय भाषाओं के विकास, साहित्य की समृद्ध परंपरा और सामाजिक चेतना के निर्माण में इसके योगदान को 1000 से अधिक वर्षों के कालखंड में विस्तार से प्रस्तुत करता है। === 1. भारतीय भाषाओं का विकास === भारत में भाषाओं का विकास एक दीर्घकालिक और बहुस्तरीय प्रक्रिया रही है। यहां भाषाओं का उद्गम प्राचीनतम वैदिक काल से लेकर आज के आधुनिक भाषायी स्वरूप तक फैला हुआ है। भारत की भाषाई परंपरा न केवल ऐतिहासिक दृष्टिकोण से समृद्ध रही है, बल्कि यह विविधता में एकता का अद्भुत उदाहरण भी प्रस्तुत करती है। ==== 1.1 वैदिक और संस्कृत भाषा ==== भारत में भाषाई इतिहास की शुरुआत वैदिक संस्कृत से होती है, जो ईसा से लगभग 1500 वर्ष पूर्व की मानी जाती है। वेदों की भाषा को 'वैदिक संस्कृत' कहा जाता है जो ऋचाओं, मंत्रों और यज्ञों की भाषा थी। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद जैसे धार्मिक ग्रंथ इस भाषा में रचे गए। संस्कृत भाषा का व्याकरण पाणिनि द्वारा रचित 'अष्टाध्यायी' के रूप में सुव्यवस्थित हुआ। यह दुनिया का सबसे प्राचीन और वैज्ञानिक व्याकरण माना जाता है। संस्कृत न केवल धार्मिक ग्रंथों की भाषा रही, बल्कि उसने दर्शन, विज्ञान, गणित, चिकित्सा, खगोलशास्त्र और साहित्य के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। ==== 1.2 प्राकृत, पालि और अपभ्रंश भाषाएँ ==== बौद्ध और जैन परंपराओं के विकास के साथ-साथ प्राकृत और पालि भाषाओं का उद्भव हुआ। इन भाषाओं का प्रयोग आम जनता करती थी। प्राकृत भाषाओं में 'शौरसेनी', 'महाराष्ट्री', 'अर्धमागधी' जैसी बोलियाँ आती हैं, जिनमें जैन और बौद्ध साहित्य रचा गया। पालि भाषा में 'त्रिपिटक' और बौद्ध उपदेशों का विशाल संग्रह मौजूद है। यह भाषा बौद्ध संघों की आधिकारिक भाषा बन गई थी। वहीं, अपभ्रंश भाषाएं प्राकृत के बाद विकसित हुईं और इन्हीं से आगे चलकर हिंदी, गुजराती, मराठी, राजस्थानी जैसी आधुनिक भाषाओं का जन्म हुआ। ==== 1.3 आधुनिक भारतीय भाषाएँ ==== मध्यकाल और आधुनिक काल में क्षेत्रीय भाषाओं का तेजी से विकास हुआ। हिंदी, बांग्ला, उर्दू, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, मराठी, गुजराती, ओड़िया, पंजाबी, असमिया, कश्मीरी जैसी भाषाएं साहित्य और समाज की अभिव्यक्ति का माध्यम बनीं। भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में वर्तमान में 22 भाषाओं को मान्यता प्राप्त है। इनमें से अधिकांश भाषाओं की अपनी लिपियाँ, व्याकरण, साहित्यिक परंपराएं और समृद्ध इतिहास हैं। भाषाओं का यह विकास केवल साहित्यिक या भाषिक स्तर पर ही नहीं रहा, बल्कि इन भाषाओं ने भारत की एकता, सांस्कृतिक पहचान और राजनैतिक संघर्षों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज भारत में सैकड़ों भाषाएं और बोलियाँ प्रचलित हैं, जो अलग-अलग समुदायों, जनजातियों और क्षेत्रों की सांस्कृतिक विविधता को अभिव्यक्त करती हैं। भारत विश्व में सबसे अधिक भाषायी विविधता वाला देश है, और यह स्थिति हमारे ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अनुभवों का परिणाम है। === 2. भारतीय साहित्य का इतिहास === भारतीय साहित्य का इतिहास अत्यंत समृद्ध और विस्तृत है। यह हजारों वर्षों की सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक और सामाजिक परंपराओं का दर्पण रहा है। भारतीय साहित्य को broadly तीन कालखंडों में बाँटा जा सकता है: प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक साहित्य। प्रत्येक काल की अपनी भाषिक विशिष्टताएँ, साहित्यिक विधाएँ, सामाजिक चेतना और रचनात्मक स्वरूप रहा है। ==== 2.1 प्राचीन साहित्य ==== प्राचीन भारतीय साहित्य की नींव वेदों से शुरू होती है। वेद - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद - केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, अपितु दर्शन, खगोलशास्त्र, गणित, चिकित्सा, सामाजिक व्यवस्था और नीति का भंडार हैं। वेदों की भाषा वैदिक संस्कृत थी। इसके पश्चात उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक, स्मृति साहित्य जैसे मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति आदि ने सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था को संहिताबद्ध किया। महाकाव्य रामायण (वाल्मीकि) और महाभारत (व्यास) ने भारतीय जीवन, धर्म, कर्तव्य, नीति और समाज को चित्रित किया। महाभारत में ही भगवद्गीता शामिल है, जो दर्शन और नैतिकता का मूल स्त्रोत है। प्राचीन काल में संस्कृत नाटक और काव्य भी समृद्ध हुए। कालिदास को काव्यशास्त्र का शिखर माना जाता है। उनकी रचनाएँ जैसे ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’, ‘मेघदूत’, ‘रघुवंशम्’, ‘कुमारसंभव’ न केवल भारतीय साहित्य की धरोहर हैं बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी सराही गईं। भास, भवभूति, शूद्रक जैसे नाटककारों ने प्रेम, धर्म, राजनीति, और सामाजिक यथार्थ को केंद्र में रखकर नाट्य साहित्य की रचना की। तमिल साहित्य में संगम युग की कविताएँ, जैसे 'एट्टुत्तोगई', 'पट्टुपाट्टु', तथा 'तिरुक्कुरल' (तिरुवल्लुवर) आदि साहित्यिक और नैतिक उत्कृष्टता की मिसाल हैं। यह साहित्य सामाजिक जीवन, प्रेम, युद्ध और नीति का गहरा विश्लेषण प्रस्तुत करता है। ==== 2.2 मध्यकालीन साहित्य ==== मध्यकाल भारतीय साहित्य के भक्ति आंदोलन का युग था। यह साहित्य मुख्यतः प्रादेशिक भाषाओं में रचा गया और इसमें ईश्वर के प्रति प्रेम, सामाजिक समरसता और धार्मिक सहिष्णुता को अभिव्यक्त किया गया। '''हिंदी में तुलसीदास की 'रामचरितमानस'''' को जनमानस में ईश्वरभक्ति का स्रोत माना जाता है। सूरदास की 'सूरसागर' में कृष्णलीला का भावनात्मक चित्रण किया गया है। कबीर और रैदास जैसे संतों ने निर्गुण भक्ति की रचना की, जो धार्मिक पाखंड के विरुद्ध सामाजिक चेतना की मिसाल बनी। '''भक्ति काल में मीराबाई''' की पदावलियाँ, रसखान की कृष्ण भक्ति, और भक्त शिरोमणि गुरु नानक देव जी की वाणी (गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित) ने न केवल आध्यात्मिकता को बल दिया बल्कि मानवतावाद को भी फैलाया। '''दक्षिण भारत में नामदेव, तुकाराम, एकनाथ (मराठी), अन्नमाचार्य, त्यागराज (तेलुगु), पुरंदर दास (कन्नड़), अलवार और नायनार संतों''' की भक्ति रचनाएँ विशेष महत्व रखती हैं। इन रचनाओं में भक्ति के साथ-साथ समाज में व्याप्त असमानताओं के प्रति चेतना और विद्रोह के स्वर भी मिले। इस युग में सूफी साहित्य भी समृद्ध हुआ। अमीर खुसरो, बाबा बुल्ले शाह, वारिस शाह जैसे कवियों ने प्रेम, अलौकिकता, और सांप्रदायिक सद्भाव पर आधारित रचनाएँ दीं। रेख्ता (प्रारंभिक उर्दू) और फारसी में रचा गया सूफी साहित्य उत्तर भारत की धार्मिक समन्वय की मिसाल बना। ==== 2.3 आधुनिक साहित्य ==== आधुनिक भारतीय साहित्य का प्रारंभ 19वीं सदी में नवजागरण काल के साथ हुआ। यह काल अंग्रेजी शासन, सामाजिक सुधार आंदोलनों, प्रेस की स्वतंत्रता, और शिक्षा के प्रसार के कारण साहित्यिक दृष्टि से अत्यंत उर्वर रहा। हिंदी में '''भारतेंदु हरिश्चंद्र को आधुनिक हिंदी का जनक''' कहा जाता है। उनकी रचनाओं में सामाजिक, धार्मिक और राष्ट्रीय चेतना देखने को मिलती है। बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, और महावीरप्रसाद द्विवेदी जैसे लेखकों ने आधुनिक गद्य और काव्य को आधार दिया। 20वीं सदी में प्रेमचंद का साहित्य किसान, मजदूर, स्त्री, जाति और अन्याय जैसे विषयों को केन्द्र में लाता है। उनकी कहानियाँ और उपन्यास जैसे 'गोदान', 'सेवासदन', 'निर्मला', 'कफन' आदि यथार्थवादी धारा की मिसाल हैं। '''महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर प्रसाद, निराला''' जैसे कवियों ने 'छायावाद' को जन्म दिया, जिसमें भावुकता, सौंदर्य और आत्मा की खोज प्रमुख थी। इसी युग में प्रगतिशील लेखन आंदोलन का उदय हुआ। सज्जाद ज़हीर, फैज़, मंटो, भीष्म साहनी, रेणु, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल जैसे लेखक समाजवादी दृष्टिकोण से प्रेरित साहित्य का निर्माण करते हैं। स्त्री विमर्श, दलित चेतना और उत्तर-आधुनिकतावादी दृष्टिकोण के साथ-साथ समकालीन साहित्य में विविध धाराएँ विकसित हुईं। बांग्ला साहित्य में रवींद्रनाथ ठाकुर का योगदान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। उनकी रचनाओं में प्रकृति, मनुष्य, राष्ट्र, और दर्शन का अद्भुत संगम है। टैगोर को उनकी काव्य कृति 'गीतांजलि' के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। शरत चंद्र चट्टोपाध्याय, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय, माणिक बंद्योपाध्याय जैसे रचनाकारों ने बंगाली उपन्यास को जनजीवन से जोड़ा। मराठी में विष्णु सखाराम खांडेकर, पु. ल. देशपांडे, दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर; तमिल में सुब्रमण्य भारती; मलयालम में वल्लथोल, ओएनवी कुरुप, और उर्दू में मिर्ज़ा ग़ालिब, इक़बाल, जिगर मुरादाबादी, इस्मत चुगताई, अली सरदार जाफ़री आदि ने आधुनिक साहित्य को नई दिशा दी। === 3. भाषा और साहित्य का सामाजिक प्रभाव === भारतीय समाज में भाषा और साहित्य का प्रभाव केवल अभिव्यक्ति तक सीमित नहीं रहा है, बल्कि इसने सामाजिक संरचना, चेतना, आंदोलन, सुधार और राष्ट्रीयता के निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाई है। भाषा विचारों की वाहक होती है और साहित्य उन विचारों का सजीव चित्रण। भारत जैसे बहुभाषी देश में, जहाँ विभिन्न जातियाँ, समुदाय और धर्म एक साथ रहते हैं, वहाँ भाषा और साहित्य ने समन्वय, संवाद और समझ की परंपरा को जीवित रखा है। ==== 3.1 सामाजिक एकता और सांस्कृतिक समरसता ==== भारत में विभिन्न भाषाओं और साहित्यिक परंपराओं के बावजूद, साहित्य ने हमेशा सामाजिक एकता को बल दिया है। चाहे वह तुलसीदास का "रामचरितमानस" हो या गुरुनानक देव की "बाणी", या फिर कबीर और रैदास की दोहे — सभी ने भाषा के माध्यम से जाति, धर्म, संप्रदाय की दीवारों को तोड़ते हुए मानवीय मूल्यों की स्थापना की। साहित्य ने धार्मिक और सामाजिक विविधताओं को एक मंच पर लाने का कार्य किया। सूफी और भक्ति साहित्य ने हिन्दू-मुस्लिम एकता को प्रोत्साहित किया। सूफी संतों ने फारसी और स्थानीय भाषाओं को मिलाकर एक मिश्रित सांस्कृतिक वातावरण का निर्माण किया। अमीर खुसरो के काव्य में यह विशेष रूप से देखा जा सकता है। ==== 3.2 सामाजिक सुधार और आंदोलन ==== 19वीं और 20वीं शताब्दी में भारतीय साहित्य सामाजिक सुधारों का माध्यम बना। राजा राममोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, ज्योतिबा फुले, दयानंद सरस्वती जैसे समाज सुधारकों ने साहित्य के जरिए बाल विवाह, सती प्रथा, अस्पृश्यता, विधवा विवाह आदि कुरीतियों पर प्रहार किया। प्रेमचंद, टैगोर, शरत चंद्र और महादेवी वर्मा जैसे लेखकों ने सामाजिक यथार्थ को स्वर दिया। प्रेमचंद की कहानियाँ समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति की आवाज़ बनीं। “गोदान” में उन्होंने किसानों की व्यथा, “निर्मला” में स्त्री-शोषण और “सद्गति” में दलित उत्पीड़न का मार्मिक चित्रण किया। ==== 3.3 राष्ट्रीयता और स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका ==== भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में साहित्य और पत्रकारिता का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा। भाषा के माध्यम से लोगों में जागरूकता और देशभक्ति की भावना को जागृत किया गया। बाल गंगाधर तिलक ने मराठी में 'केसरी' अखबार निकाला, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने “वंदे मातरम्” की रचना की जो बाद में स्वतंत्रता संग्राम का नारा बन गया। मैथिलीशरण गुप्त की “भारत भारती”, रामधारी सिंह दिनकर की “रश्मिरथी” और सुभद्राकुमारी चौहान की “झाँसी की रानी” जैसी रचनाएँ जनमानस में उत्साह भरने वाली थीं। अंग्रेजों द्वारा भाषाई सेंसरशिप और प्रेस पर प्रतिबंधों के बावजूद, क्रांतिकारी साहित्य भूमिगत रूप से फैलता रहा। भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल आदि ने जेल से लेखन किया जिसने युवाओं को प्रेरित किया। ==== 3.4 स्त्री विमर्श और दलित चेतना ==== भारतीय साहित्य ने स्त्री जीवन की पीड़ा, आकांक्षा और संघर्ष को भी स्वर दिया है। महादेवी वर्मा, इस्मत चुगताई, अमृता प्रीतम, मन्नू भंडारी, कमला दास जैसी लेखिकाओं ने पितृसत्ता पर सवाल उठाए और स्त्री अस्मिता को केंद्र में रखा। इन रचनाओं ने समाज में स्त्रियों की स्थिति पर बहस छेड़ी और विमर्श की नई धाराओं को जन्म दिया। दलित साहित्य ने सदियों से शोषित वर्ग की पीड़ा को सशक्त अभिव्यक्ति दी। आंबेडकरवादी चेतना से प्रेरित दलित लेखक जैसे ओमप्रकाश वाल्मीकि, शरण कुमार लिंबाळे, कंवल भारती, और मराठी में बाबूराव बागुल, लक्ष्मण गायकवाड़ आदि ने साहित्य को एक नया सामाजिक आयाम दिया। इसने समाज में बराबरी, न्याय और आत्मसम्मान की माँग को मजबूत किया। ==== 3.5 शिक्षा और साक्षरता में योगदान ==== भारतीय भाषाओं के माध्यम से लिखे गए साहित्य ने शिक्षा को लोकप्रिय और सुलभ बनाने में अहम भूमिका निभाई। आधुनिक भारत में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रमों में स्थानीय भाषाओं के साहित्य को शामिल किया गया, जिससे विद्यार्थियों को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ने में सहायता मिली। ‘पंचतंत्र’, ‘हितोपदेश’, ‘अक्क महादेवी’ की कविताएँ, ‘बिरसा मुंडा’ की जीवनगाथा, गुरु नानक और कबीर की वाणियाँ – इन सभी ने बच्चों और युवाओं को नैतिक मूल्यों और सांस्कृतिक चेतना से परिचित कराया। ==== 3.6 भाषा के माध्यम से सामाजिक संवाद ==== साहित्य ने भारतीय समाज में विचार और भावनाओं के संवाद को सुदृढ़ किया है। हिन्दी, बंगला, मराठी, तमिल, तेलुगु जैसी भाषाओं में साहित्य ने व्यक्ति और समाज के बीच पुल का कार्य किया है। पिछले दशकों में मीडिया, थिएटर, सिनेमा, टेलीविजन और सोशल मीडिया के माध्यम से साहित्य का समाज पर प्रभाव और बढ़ा है। उपन्यासों पर आधारित फ़िल्में और नाट्य मंचन ने साहित्य को जन-जन तक पहुँचाया। ‘गॉडान’, ‘चित्रलेखा’, ‘देवदास’, ‘गोदान’ जैसे उपन्यासों को फिल्माया गया और उन्होंने समाज की मानसिकता को प्रभावित किया। ==== 3.7 भाषाई पहचान और सांस्कृतिक विविधता ==== भारतीय भाषाएँ केवल संवाद का माध्यम नहीं रहीं, बल्कि उन्होंने क्षेत्रीय पहचान और संस्कृति को भी संरक्षित किया है। भाषा आंदोलन (जैसे बंगला भाषा आंदोलन), राज्यों के भाषाई पुनर्गठन, मातृभाषा शिक्षा की माँग, आदि घटनाएँ बताती हैं कि भाषा सामाजिक चेतना और सांस्कृतिक आत्मसम्मान का केंद्र रही है। संविधान द्वारा भारत को बहुभाषी राष्ट्र का दर्जा दिया गया है, जिससे भाषा और साहित्य की विविधता को संस्थागत समर्थन मिला है। ==== 3.8 वैश्वीकरण और डिजिटल युग में साहित्य का प्रभाव ==== आज के डिजिटल युग में भारतीय भाषाओं का साहित्य सोशल मीडिया, ब्लॉग्स, ई-बुक्स और पॉडकास्ट के माध्यम से नवोन्मेषी तरीकों से सामने आ रहा है। आम व्यक्ति अपनी रचनात्मकता को इंटरनेट के माध्यम से अभिव्यक्त कर रहा है। हिंदी, तमिल, तेलुगु और अन्य भाषाओं में यूट्यूब चैनल, वेब सीरीज और डिजिटल पत्रिकाएँ साहित्य को नए पाठकों तक पहुँचा रही हैं। इससे भाषा और साहित्य का सामाजिक प्रभाव अब सीमाओं से परे पहुँच चुका है। === 4. निष्कर्ष === भारतीय भाषा और साहित्य केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना के निर्माण में एक सशक्त प्रेरक शक्ति रही है। भारत की विविध भाषाओं और समृद्ध साहित्यिक परंपराओं ने समाज को जोड़ा, चेतनशील बनाया और बदलते युगों में नई दृष्टि प्रदान की। वेदों की ऋचाओं से लेकर आधुनिक डिजिटल साहित्य तक की यात्रा भारतीय भाषा और साहित्य की अद्वितीय जीवंतता को दर्शाती है। इसने धर्म, दर्शन, इतिहास, समाजशास्त्र, और राजनीति जैसे विविध क्षेत्रों को गहराई से प्रभावित किया है। भाषाओं की विविधता भारत की ताकत रही है, और साहित्य ने इन भाषाओं के माध्यम से सामाजिक समरसता, समानता, प्रेम और करुणा को प्रकट किया है। कबीर, तुलसी, मीरा, रवींद्रनाथ ठाकुर, प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, मंटो, रेणु, नागार्जुन जैसे साहित्यकारों ने समाज के गहरे अंतर्विरोधों को उजागर किया और उनके समाधान का मार्ग प्रशस्त किया। साहित्य ने समाज के हाशिये पर खड़े वर्गों की आवाज़ को मंच दिया। दलित साहित्य, स्त्री लेखन और आदिवासी साहित्य ने नए विमर्शों को जन्म दिया और समाज में न्याय और समानता की भावना को प्रोत्साहित किया। आज के वैश्विक और डिजिटल युग में भी भारतीय भाषाएँ और साहित्य अपनी भूमिका को पुनर्परिभाषित कर रहे हैं। सोशल मीडिया, ई-पुस्तकें, वेब साहित्य और पॉडकास्ट जैसे नए माध्यमों ने अभिव्यक्ति के क्षेत्र को व्यापक बनाया है। अतः, यह स्पष्ट है कि भाषा और साहित्य भारत के सांस्कृतिक इतिहास का मूलाधार हैं। इनकी समृद्धि और विविधता को समझना और संरक्षित करना न केवल अतीत की विरासत को सम्मान देना है, बल्कि वर्तमान और भविष्य को एक सशक्त और संवेदनशील दिशा में ले जाना भी है। elrkc5mss929hdhlg66alxvpluws8ya भारत का सांस्कृतिक इतिहास/कला और स्थापत्य 0 11413 82599 2025-06-15T10:23:51Z Baap8969 16001 ''''भारत का सांस्कृतिक इतिहास''' केवल भाषा, साहित्य या त्योहारों तक सीमित नहीं है; इसमें '''कला और स्थापत्य''' की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। यह अध्याय भारतीय कला की वि...' के साथ नया पृष्ठ बनाया 82599 wikitext text/x-wiki '''भारत का सांस्कृतिक इतिहास''' केवल भाषा, साहित्य या त्योहारों तक सीमित नहीं है; इसमें '''कला और स्थापत्य''' की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। यह अध्याय भारतीय कला की विविध विधाओं, स्थापत्य की विकास यात्रा और उनके सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव का विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत करता है। भारतीय कला में धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों का प्रतिबिंब देखा जाता है। '''भारत का सांस्कृतिक इतिहास''' केवल भाषा, साहित्य या त्योहारों तक सीमित नहीं है; इसमें '''कला और स्थापत्य''' की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। यह अध्याय भारतीय कला की विविध विधाओं, स्थापत्य की विकास यात्रा और उनके सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव का विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत करता है। भारतीय कला में धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों का प्रतिबिंब देखा जाता है। === 1. प्राचीन भारतीय कला === प्राचीन भारतीय कला भारत की सभ्यता और सांस्कृतिक परंपराओं का मूल स्तंभ रही है। यह कला केवल सौंदर्य के लिए नहीं, बल्कि धार्मिक विश्वास, सामाजिक संरचना, जीवन शैली, ज्ञान-विज्ञान और राजनैतिक सन्देश का भी माध्यम रही है। प्राचीन काल की कला कई रूपों में मिलती है - जैसे गुफा चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला, शिल्पकला, और धार्मिक प्रतीकात्मकता से युक्त स्थापत्य। ==== 1.1 गुफा चित्रकला ==== भारत में गुफा चित्रकला का इतिहास पाषाण युग (Stone Age) से शुरू होता है। मध्य प्रदेश के '''भीमबेटका''' की गुफाएं इस बात का प्रमाण हैं कि मानव सभ्यता ने हजारों साल पहले ही चित्रकला के माध्यम से अपनी चेतना और अनुभव को अभिव्यक्त करना शुरू कर दिया था। भीमबेटका की चित्रकला में मुख्यतः शिकार, नृत्य, पशुपालन, धार्मिक अनुष्ठानों, हथियारों, और मानव आकृतियों का चित्रण है। यह चित्र आमतौर पर लाल और सफेद रंगों में हैं, जिनका निर्माण खनिजों और वनस्पति रंगों से किया गया था। इस चित्रकला से न केवल तत्कालीन मानव जीवन की जानकारी मिलती है, बल्कि यह मानव की रचनात्मकता और सामाजिक संगठन की झलक भी देती है। ==== 1.2 सिंधु घाटी सभ्यता की कला ==== भारत की सबसे पुरानी शहरी सभ्यता – '''सिंधु घाटी सभ्यता''' (2600–1900 ई.पू.) – कला और शिल्प में अत्यंत समृद्ध थी। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, चन्हूदड़ो जैसे स्थलों से प्राप्त '''कांस्य नर्तकी की मूर्ति''' इस काल की उच्चस्तरीय धातुकला का उदाहरण है। यह मूर्ति मात्र 10.5 सेंटीमीटर लंबी है, लेकिन इसकी बारीकता, मुद्रा और यथार्थता उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त, '''मुहरें''' (seals) भी इस काल की विशिष्ट कलाकृतियाँ हैं, जिन पर पशुपति की मुद्रा, बैल, गैंडा, हाथी, और अन्य जीव-जंतुओं के चित्र उत्कीर्ण हैं। ये मुहरें व्यापार, प्रशासनिक नियंत्रण और धार्मिक विश्वासों का द्योतक रही होंगी। '''टेराकोटा (मृत्तिका) की मूर्तियाँ''', जैसे मातृदेवी या देवी माँ की मूर्तियाँ, इस सभ्यता में मातृशक्ति पूजा के प्रमाण देती हैं। घरों की दीवारों पर अंकित चित्र, चूने की रंगाई, और बर्तन पर की गई सजावट से स्पष्ट है कि कला जीवन का अभिन्न हिस्सा थी। ==== 1.3 वैदिक और उत्तर-वैदिक काल की कला ==== वैदिक काल (1500–600 ई.पू.) में कला मुख्यतः मौखिक परंपरा, यज्ञ, वेदियों की सजावट, और धार्मिक प्रतीकात्मकता तक सीमित रही। इस काल की भौतिक कलाकृतियाँ दुर्लभ हैं, क्योंकि अधिकांश निर्माण लकड़ी और अन्य नाशवान सामग्रियों से होते थे। उत्तर-वैदिक काल में धर्म और समाज अधिक संगठित हुआ, और इसके साथ ही मूर्तिकला और स्थापत्य में भी विकास हुआ। अश्वमेध यज्ञ, राजसूय यज्ञ, यज्ञ मंडप आदि धार्मिक अनुष्ठान सामाजिक और कलात्मक केंद्र बन गए थे। ==== 1.4 मौर्य काल की कला (322–185 ई.पू.) ==== मौर्य साम्राज्य के शासनकाल में भारतीय कला ने एक नया मोड़ लिया। सम्राट अशोक के शासनकाल में '''स्तंभ निर्माण''', '''शिलालेखों''', और '''सारनाथ के सिंह स्तंभ''' जैसे स्मारकों का निर्माण हुआ। यह स्तंभ न केवल राजनीतिक घोषणाओं के लिए थे, बल्कि यह कला, धर्म और राज्य की नीति का प्रतीक भी थे। '''पॉलिश पत्थरों की मूर्तियाँ''' – जैसे यक्ष और यक्षिणी – उस काल की कला में यथार्थ और भव्यता दोनों का समावेश दर्शाती हैं। बाराबर की गुफाएँ (बिहार में) अशोक द्वारा आजीवक संप्रदाय को दान दी गई थीं, जिनमें सुंदर पॉलिश और वास्तुकला की उत्कृष्टता दिखाई देती है। ==== 1.5 शुंग, सातवाहन और कुशाण काल ==== मौर्यकाल के बाद '''शुंग काल''' में '''भारहुत स्तूप''' (मध्य प्रदेश) का विकास हुआ, जिसमें बुद्ध जीवन के दृश्य, जातक कथाएँ और सुंदर ब्रैकेट मूर्तिकला है। '''सातवाहन काल''' में '''अमरावती स्तूप''' और '''नासिक, कार्ले, और भाजा की गुफाएँ''' प्रसिद्ध हैं। इन गुफाओं में चैत्यगृह (पूजा स्थल) और विहार (मठ) बनाए गए जो बौद्ध स्थापत्य की उत्कृष्ट मिसाल हैं। '''कुशाण काल''' में '''मथुरा और गांधार स्कूल ऑफ आर्ट''' का उदय हुआ। गांधार शैली में यूनानी-रोमन प्रभाव था, जिसमें बुद्ध की मूर्तियाँ यूनानी चेहरों और वस्त्रों जैसी दिखती थीं। वहीं मथुरा शैली अधिक भारतीयकरण थी, जहाँ बुद्ध और जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ लाल बलुआ पत्थर में बनती थीं। ==== 1.6 गुप्त काल: भारतीय कला का स्वर्ण युग ==== गुप्त काल (4th–6th शताब्दी) को भारतीय कला का स्वर्णयुग कहा जाता है। इस युग में '''धार्मिक मूर्तिकला''', '''मंदिर स्थापत्य''', '''चित्रकला''' और '''धातुकला''' का अद्भुत विकास हुआ। गुप्त काल में पहली बार संगठित रूप से मंदिर स्थापत्य की शुरुआत हुई। देवगढ़ का दशावतार मंदिर (उत्तर प्रदेश) प्रारंभिक मंदिर वास्तुकला का श्रेष्ठ उदाहरण है। यह नागर शैली में बना है और इसकी दीवारों पर रामायण तथा महाभारत की कथाओं को उकेरा गया है। अजंता गुफाओं (महाराष्ट्र) की चित्रकला इस काल की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। इन चित्रों में जातक कथाएँ, बुद्ध की जीवन गाथा, और सम्राटों के जीवन को रंगों, भावनाओं और लय के साथ प्रस्तुत किया गया है। इन चित्रों की सबसे बड़ी विशेषता है – उनकी भावाभिव्यक्ति, अनुपातबद्धता, रंग संयोजन और सौंदर्य चेतना। धातु की मूर्तिकला भी इस काल में उत्कृष्ट थी। बुद्ध की कांस्य मूर्तियाँ, विष्णु, शिव और देवी-देवताओं की प्रतिमाएं धार्मिक आस्था और कलात्मक श्रेष्ठता का प्रतीक हैं। ==== 1.7 तमिल संगम साहित्य और कला ==== दक्षिण भारत में तमिल संगम युग (300 ई.पू. – 300 ई.) में साहित्य और कला का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। इस काल के साहित्य – जैसे 'एट्टुत्तोगई', 'पट्टुपाट्टु', और 'तोल्काप्पियम' – में कला, युद्ध, प्रेम, नारी, समाज और प्रकृति का गहन चित्रण है। चोल और पांड्य काल में मंदिर वास्तुकला और मूर्तिकला का बड़ा विकास हुआ, जिसकी झलक हमें महाबलीपुरम (पल्लव कालीन रथ मंदिर), मदुरै, और तंजावुर के बृहदेश्वर मंदिर में मिलती है। ==== 1.8 धार्मिक विविधता और प्रतीकात्मकता ==== प्राचीन कला में धार्मिक प्रतीकात्मकता अत्यधिक महत्व रखती थी। बौद्ध धर्म में चक्र, अष्टमंगल, लोटस आदि प्रतीकों का प्रयोग हुआ। जैन धर्म में तीर्थंकरों की मूर्तियाँ विशेष मुद्रा और लक्षणों के साथ बनाई जाती थीं। हिन्दू धर्म में शिवलिंग, नंदी, गरुड़, कमल, त्रिशूल आदि धार्मिक प्रतीक कला का हिस्सा बने। === 2. शास्त्रीय कला और स्थापत्य === प्राचीन भारतीय कला के बाद भारतीय स्थापत्य और कलाएं एक अधिक संरचित, सौंदर्यपरक और धार्मिक दृष्टिकोण से संगठित स्वरूप में विकसित हुईं। इस काल को "शास्त्रीय कला और स्थापत्य" का युग कहा जाता है, जो लगभग गुप्त काल के उत्तरार्ध से शुरू होकर 8वीं शताब्दी तक फैला हुआ है। इसमें विशेषतः मंदिर वास्तुकला, मूर्तिकला, नाट्यकला (नाट्यशास्त्र), नृत्यकला (भरतनाट्यम, कथक), संगीत (शास्त्रीय संगीत), चित्रकला (अजंता-एलोरा), और धार्मिक कला की परिपक्वता देखी जाती है। ==== 2.1 मंदिर स्थापत्य की परंपरा ==== भारत में मंदिर निर्माण की परंपरा शास्त्रीय काल में पूर्ण रूप से विकसित हुई। इस काल में मंदिर न केवल पूजा का स्थान थे, बल्कि सांस्कृतिक, सामाजिक और कलात्मक गतिविधियों के केंद्र भी थे। मंदिर स्थापत्य में दो प्रमुख शैलियाँ विकसित हुईं: नागर शैली (उत्तर भारत): इस शैली की विशेषता ऊँचा शिखर (spire), गर्भगृह, मंडप और आम्रशिखर की संरचना है। देवगढ़ का दशावतार मंदिर और खजुराहो के मंदिर इस शैली के उदाहरण हैं। द्रविड़ शैली (दक्षिण भारत): इसमें गोपुरम (प्रवेश द्वार), विमाना (मुख्य मंदिर शिखर), गर्भगृह, प्रदक्षिणा पथ आदि शामिल हैं। महाबलीपुरम के रथ मंदिर, कांचीपुरम, और तंजावुर का बृहदेश्वर मंदिर इसके प्रतिनिधि हैं। इन दोनों शैलियों के मिश्रण से वेसर शैली (मध्य भारत) का विकास हुआ। ==== 2.2 मूर्तिकला का उत्कर्ष ==== शास्त्रीय काल की मूर्तिकला में गहराई, भाव-प्रदर्शन, प्रतीकात्मकता और धार्मिकता प्रमुख विशेषताएँ थीं। देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उनके वाहन, आयुध, मुद्रा और अभयमुद्रा जैसे तत्वों से युक्त होती थीं। विष्णु की चतुर्भुज प्रतिमा, शिव की नटराज मुद्रा, माँ दुर्गा की महिषासुर मर्दिनी मूर्ति आदि विशेष उदाहरण हैं। जैन मूर्तिकला में तीर्थंकरों को ध्यान मुद्रा में और लक्षणों (उष्णीष, लाक्षणिक चिन्ह) के साथ दिखाया गया। बौद्ध मूर्तिकला में बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं (ध्यान, धर्मचक्र प्रवर्तन, भिक्षाटन) का चित्रण हुआ। ==== 2.3 नाट्य और नृत्यकला ==== * भरत मुनि का नाट्यशास्त्र इस काल की सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसमें नाटक, अभिनय, नृत्य, संगीत, और रस-सिद्धांत का विस्तृत वर्णन है। * '''नाट्य:''' धार्मिक कथाओं, पुराणों और महाकाव्यों पर आधारित नाटकों का मंचन मंदिरों में होता था। संस्कृत नाटक जैसे कालिदास का 'अभिज्ञान शाकुंतलम्' प्रसिद्ध है। * '''नृत्य:''' भरतनाट्यम (तमिलनाडु), कथकली (केरल), मणिपुरी (मणिपुर), और कथक (उत्तर भारत) जैसी शास्त्रीय नृत्य शैलियों की नींव इसी काल में पड़ी। इन नृत्यों में अंग, भाव, रस, मुद्रा, और ताल का समन्वय होता है। ==== 2.4 संगीत: श्रुति और लय का सौंदर्य ==== भारतीय शास्त्रीय संगीत की आधारशिला इसी काल में रखी गई। दो प्रमुख परंपराएँ – हिंदुस्तानी (उत्तर भारत) और कर्नाटिक (दक्षिण भारत) विकसित हुईं। राग और ताल का वैज्ञानिक आधार विकसित हुआ। सप्तक, अष्टक, स्वर, गान शैली आदि का शास्त्र रूप में विकास हुआ। '''अनेक वाद्य यंत्रों''' – जैसे वीणा, बांसुरी, मृदंग, तबला, शंख – का प्रयोग धार्मिक और सामाजिक आयोजनों में होता था। ==== 2.5 चित्रकला का विकास ==== * अजंता (महाराष्ट्र) और एलोरा की गुफाओं की चित्रकला शास्त्रीय युग की महानतम कलाकृतियाँ हैं। * अजंता की चित्रकला में जातक कथाएँ, बुद्ध के जीवन प्रसंग, नृत्य, संगीत, समाज, स्त्रियाँ, और प्रकृति के चित्र अत्यंत भावनात्मक रूप से प्रस्तुत किए गए हैं। * चित्रों में प्राकृतिक रंगों, पत्थर की दीवारों पर चमकदार परत, बारीक रेखाओं और परिप्रेक्ष्य का उत्तम समन्वय है। * एलोरा की चित्रकला में हिंदू, बौद्ध और जैन विषयों का सामंजस्य है। ==== 2.6 स्थापत्य के धार्मिक आयाम ==== मंदिर केवल पूजा स्थल नहीं थे, बल्कि वे सामाजिक एकता, विद्या, नाट्य, संगीत, और शिल्प के केंद्र बन गए थे। हर मंदिर की स्थापत्य संरचना में धार्मिक दर्शन निहित होता था: * '''गर्भगृह:''' आत्मा या ब्रह्म का प्रतीक। * '''शिखर/विमान:''' मोक्ष की ओर बढ़ते चेतना का प्रतीक। * '''प्रदक्षिणा पथ:''' ब्रह्मांड की परिक्रमा। * '''मंडप:''' सामाजिक सहकार और सांस्कृतिक आयोजन का केंद्र। ==== 2.7 धातु और चित्रशिल्प कला ==== इस काल में कांस्य की मूर्तियाँ भी बड़ी संख्या में बनीं। विशेष रूप से दक्षिण भारत में चोल काल में नटराज की कांस्य मूर्ति (भगवान शिव की नृत्य मुद्रा) कलात्मक दृष्टि से अद्वितीय मानी जाती है। इन मूर्तियों में नयनाभिराम सौंदर्य, सजीवता और शास्त्रीय मुद्रा का उत्कृष्ट समावेश होता था। पंचधातु की मूर्तियाँ धार्मिक अनुष्ठानों में प्रयुक्त होती थीं। शास्त्रीय काल की कला ने न केवल धार्मिक आस्था को स्वरूप प्रदान किया, बल्कि लोकजीवन, संस्कृति, दर्शन, और समाज को कलात्मक रूप से जोड़ने का कार्य भी किया। === 3. मध्यकालीन कला और स्थापत्य === मध्यकालीन भारत (8वीं से 18वीं शताब्दी तक) में कला और स्थापत्य का विकास एक नए स्वरूप में हुआ, जो धार्मिक, राजनीतिक और क्षेत्रीय विविधताओं से प्रभावित था। यह युग मुस्लिम आक्रमणों, इस्लामी सल्तनतों और मुगलों के आगमन के कारण स्थापत्य और कलात्मक अभिव्यक्तियों में विविधता, समन्वय और नवीनता का युग बन गया। इस काल में हिन्दू, इस्लामी और मिश्रित शैलियों में वास्तुकला, चित्रकला और मूर्तिकला ने महत्वपूर्ण प्रगति की। ==== 3.1 इस्लामी स्थापत्य ==== इस्लामी स्थापत्य भारत में दिल्ली सल्तनत (13वीं सदी) के साथ शुरू हुआ और मुगल काल में अपने चरम पर पहुँचा। इसमें गुम्बद, मीनारें, मेहराबें, जालियाँ, और बाग़ निर्माण की परंपराएँ शामिल थीं। इस युग की प्रमुख कृतियाँ कुतुब मीनार, अलाई दरवाज़ा, लोधी मकबरे, हुमायूँ का मकबरा, और अंततः ताजमहल के रूप में विश्व धरोहर बन गईं। इस्लामी स्थापत्य में समरूपता, ज्यामितीय डिज़ाइन, संगमरमर और लाल बलुआ पत्थर का उपयोग तथा अरबी फ़ारसी लिपि में अलंकरण देखने को मिलता है। ==== 3.2 हिन्दू और जैन स्थापत्य का विकास ==== इस काल में दक्षिण और पश्चिम भारत में हिन्दू तथा जैन मंदिरों की परंपरा भी जारी रही। होयसला, काकतीय, विजयनगर और मराठा शासकों ने भव्य मंदिरों, गोपुरमों और मूर्तिकला का निर्माण किया। बेलूर, हलिबिड, हम्पी, और मदुरै के मंदिर इस स्थापत्य की श्रेष्ठ कृतियाँ हैं। मंदिरों में कथा-चित्रण, मिथकीय दृश्य, नृत्य मुद्रा वाली मूर्तियाँ, और विस्तृत नक्काशी इस युग की विशेषता थीं। ==== 3.3 मिश्रित स्थापत्य और क्षेत्रीय शैलियाँ ==== मध्यकालीन भारत में स्थापत्य का एक विशेष पहलू इसका सांस्कृतिक समन्वय था। राजपूत और मुगल स्थापत्य के समन्वय से अनेक महलों, किलों और उद्यानों की रचना हुई। फतेहपुर सीकरी, लाल किला, और आमेर का किला इसका उत्कृष्ट उदाहरण हैं। बंगाल, मलाबार, राजस्थान और कश्मीर जैसे क्षेत्रों में स्थानीय सामग्रियों और पारंपरिक तकनीकों के प्रयोग से अलग-अलग क्षेत्रीय स्थापत्य शैलियाँ उभरीं। ==== 3.4 चित्रकला का उत्कर्ष ==== मध्यकालीन काल में चित्रकला भी अत्यधिक विकसित हुई। '''मुगल दरबार में फारसी परंपरा''' से प्रेरित लघुचित्रों का निर्माण हुआ। अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ के शासन में इतिहास, जीवन शैली, प्रेम प्रसंगों और महाकाव्यों पर आधारित चित्र बनाए गए। इस काल में राजस्थानी, पहाड़ी, बुंदेलखंडी और मालवा चित्रशैलियाँ भी विकसित हुईं, जिनमें भारतीय विषयों, भावनाओं और रंगों को प्रमुखता दी गई। ==== 3.5 किले, महल और सार्वजनिक भवन ==== मध्यकाल में स्थापत्य केवल धार्मिक स्थानों तक सीमित नहीं रहा। अनेक किले, महल, बावड़ियाँ, सरायें, और जलाशय बनाए गए। किले जैसे ग्वालियर, गोलकोंडा, रायगढ़, चित्तौड़गढ़ आदि रक्षा, प्रशासन और वास्तुकला के उत्कृष्ठ उदाहरण हैं। इस प्रकार, '''मध्यकालीन कला''' और स्थापत्य ने भारत के सांस्कृतिक इतिहास को एक नई दृष्टि दी। यह युग धार्मिक विविधता, कलात्मक समन्वय और स्थापत्य नवाचार का प्रतीक बन गया। === 4. आधुनिक भारतीय कला === आधुनिक भारतीय कला ने भारत की सांस्कृतिक चेतना को एक नया आयाम दिया। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर वर्तमान तक, भारत में कला और स्थापत्य का स्वरूप तेजी से बदला है। यह परिवर्तन उपनिवेशवाद, राष्ट्रवाद, स्वतंत्रता संग्राम, और वैश्विक कलात्मक प्रवृत्तियों से प्रभावित रहा। इस काल में परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन बनाते हुए कलाकारों और स्थापत्यविदों ने नए प्रयोग किए। ==== 4.1 उपनिवेशकालीन प्रभाव और आरंभिक पुनर्जागरण ==== ब्रिटिश शासनकाल में भारत की पारंपरिक कलाओं को औपनिवेशिक दृष्टिकोण से देखा गया। यूरोपीय यथार्थवाद, परिप्रेक्ष्य तकनीक, और ऑइल पेंटिंग जैसी विधियाँ भारतीय कला शिक्षण में शामिल हुईं। इस काल में कला संस्थाओं की स्थापना हुई, जैसे कि 'सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स', बॉम्बे। राजा रवि वर्मा जैसे कलाकारों ने भारतीय विषयों को यूरोपीय शैली में चित्रित कर एक नई दृष्टि प्रस्तुत की। ==== 4.2 बंगाल स्कूल और स्वदेशी कला आंदोलन ==== 20वीं शताब्दी की शुरुआत में अवनींद्रनाथ ठाकुर, नंदलाल बोस और उनके सहयोगियों ने बंगाल स्कूल की स्थापना की। इस आंदोलन का उद्देश्य पश्चिमी प्रभाव से मुक्त होकर भारतीय परंपराओं, मिथकों और लोककलाओं को पुनर्जीवित करना था। यह कला आंदोलन स्वतंत्रता संग्राम से भी जुड़ा रहा और भारतीय आत्मा की अभिव्यक्ति का माध्यम बना। ==== 4.3 स्वतंत्रता के बाद की कला ==== स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय कलाकारों को वैश्विक मंच मिला। आधुनिकतावादी प्रवृत्तियाँ जैसे अमूर्त चित्रकला (Abstract Art), वैचारिक कला (Conceptual Art), और स्थापना कला (Installation Art) भारत में लोकप्रिय हुईं। मकबूल फिदा हुसैन, त्येब मेहता, एस.एच. रज़ा, अकबर पदमसी आदि कलाकारों ने आधुनिक भारतीय कला को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा दिलाई। ==== 4.4 समकालीन भारतीय कला ==== 21वीं सदी में भारतीय कला ने मीडिया, तकनीक और डिज़िटल माध्यमों के साथ गहरा संबंध स्थापित किया। समकालीन कलाकार सामाजिक, राजनीतिक, और पर्यावरणीय मुद्दों को अपनी कृतियों में स्थान देने लगे। वीडियो आर्ट, मल्टीमीडिया इंस्टॉलेशन, और स्ट्रीट आर्ट जैसे नए रूप लोकप्रिय हुए। महिला कलाकारों और दलित-आदिवासी कलात्मक अभिव्यक्तियों को भी नई पहचान मिली। ==== 4.5 आधुनिक स्थापत्य ==== आधुनिक भारत में स्थापत्य ने भी बड़े बदलाव देखे। प्रारंभ में ब्रिटिश औपनिवेशिक शैली में सरकारी भवन बने — जैसे विक्टोरिया टर्मिनस, बंबई। स्वतंत्रता के बाद आधुनिक भारतीय स्थापत्य का प्रमुख उदाहरण 'चंडीगढ़' है, जिसे प्रसिद्ध वास्तुविद ली कॉर्बुज़िए द्वारा डिज़ाइन किया गया। आज भारत में स्मार्ट सिटी योजना, पर्यावरण-हितैषी भवन, और सतत विकास उन्मुख वास्तुशिल्प पर ध्यान दिया जा रहा है। ==== 4.6 कला के संस्थान और संग्रहालय ==== भारत में कला के संरक्षण और प्रचार के लिए अनेक संस्थान जैसे ललित कला अकादमी, नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट, भारत भवन (भोपाल) आदि की स्थापना हुई। भारत के लगभग हर बड़े शहर में आधुनिक कला दीर्घाएँ, संग्रहालय और कलादीर्घाएँ मौजूद हैं, जो देश की समकालीन कलात्मक चेतना को दर्शाते हैं। इस प्रकार, आधुनिक भारतीय कला परंपरा और आधुनिकता, लोक और वैश्विक, आत्म और विश्व-बोध का अद्भुत समन्वय है। यह कला न केवल सौंदर्य का प्रतीक है, बल्कि सामाजिक परिवर्तन और चिंतन का माध्यम भी बन चुकी है। === 5. निष्कर्ष === === 5. निष्कर्ष === भारत की कला और स्थापत्य परंपरा केवल इमारतों, चित्रों या मूर्तियों तक सीमित नहीं रही, बल्कि वह भारत की सामाजिक चेतना, धार्मिक भावना, सांस्कृतिक समरसता और ऐतिहासिक विरासत की संवाहक रही है। इस अध्याय में हमने देखा कि कैसे प्राचीन गुफाओं से लेकर आधुनिक संग्रहालयों तक भारतीय कला का रूप और भाव निरंतर विकसित होता रहा है। प्राचीन काल में जहाँ गुफा चित्रों और मंदिर स्थापत्य ने धार्मिकता और प्रतीकात्मकता को मूर्त रूप दिया, वहीं शास्त्रीय युग में शिल्प, संगीत, नृत्य, चित्रकला और वास्तुकला का सुव्यवस्थित विकास हुआ। मध्यकाल में इस्लामी प्रभावों ने स्थापत्य की संरचनाओं को नया आकार दिया, जिसमें गुम्बद, मीनारें, जालियाँ और बाग़ निर्माण की शैली उभरी। इस युग में हिन्दू, इस्लामी और क्षेत्रीय शैलियों का समन्वय स्पष्ट रूप से स्थापत्य में देखा जा सकता है। आधुनिक युग में जहाँ उपनिवेशवाद ने यूरोपीय प्रभाव डाले, वहीं स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कला एक सांस्कृतिक हथियार बनी। बंगाल स्कूल जैसे आंदोलनों ने भारतीयता को पुनः स्थापित किया। स्वतंत्रता के बाद भारत में समकालीन कला, स्थापत्य और डिज़िटल अभिव्यक्तियों के माध्यम से कलाकारों ने नवाचार किए। कला और स्थापत्य का सामाजिक पक्ष भी उतना ही महत्वपूर्ण रहा है — चाहे वह धार्मिक स्थलों की एकजुटता हो, राष्ट्रीय स्मारकों के रूप में प्रेरणा देना हो, या पर्यावरण-संवेदनशील भवन निर्माण। अतः यह निष्कर्ष निकालना उचित होगा कि भारतीय कला और स्थापत्य न केवल एक ऐतिहासिक संपदा हैं, बल्कि वे वर्तमान और भविष्य के सांस्कृतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय विमर्श का अभिन्न हिस्सा हैं। इसके अध्ययन से हम न केवल भारत के अतीत को समझते हैं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी सांस्कृतिक आत्मबोध की दिशा में प्रेरित करते हैं। == श्रेणियाँ == [[Category:भारत का सांस्कृतिक इतिहास]] [[Category:भारतीय कला]] [[Category:भारतीय स्थापत्य]] [[Category:हिन्दी विकिबुक परियोजना]] li03r595uu4v28d2eob717abcbvn4dr 82600 82599 2025-06-15T10:24:32Z Baap8969 16001 82600 wikitext text/x-wiki '''भारत का सांस्कृतिक इतिहास''' केवल भाषा, साहित्य या त्योहारों तक सीमित नहीं है; इसमें '''कला और स्थापत्य''' की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। यह अध्याय भारतीय कला की विविध विधाओं, स्थापत्य की विकास यात्रा और उनके सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव का विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत करता है। भारतीय कला में धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों का प्रतिबिंब देखा जाता है। '''भारत का सांस्कृतिक इतिहास''' केवल भाषा, साहित्य या त्योहारों तक सीमित नहीं है; इसमें '''कला और स्थापत्य''' की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। यह अध्याय भारतीय कला की विविध विधाओं, स्थापत्य की विकास यात्रा और उनके सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव का विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत करता है। भारतीय कला में धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों का प्रतिबिंब देखा जाता है। === 1. प्राचीन भारतीय कला === प्राचीन भारतीय कला भारत की सभ्यता और सांस्कृतिक परंपराओं का मूल स्तंभ रही है। यह कला केवल सौंदर्य के लिए नहीं, बल्कि धार्मिक विश्वास, सामाजिक संरचना, जीवन शैली, ज्ञान-विज्ञान और राजनैतिक सन्देश का भी माध्यम रही है। प्राचीन काल की कला कई रूपों में मिलती है - जैसे गुफा चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला, शिल्पकला, और धार्मिक प्रतीकात्मकता से युक्त स्थापत्य। ==== 1.1 गुफा चित्रकला ==== भारत में गुफा चित्रकला का इतिहास पाषाण युग (Stone Age) से शुरू होता है। मध्य प्रदेश के '''भीमबेटका''' की गुफाएं इस बात का प्रमाण हैं कि मानव सभ्यता ने हजारों साल पहले ही चित्रकला के माध्यम से अपनी चेतना और अनुभव को अभिव्यक्त करना शुरू कर दिया था। भीमबेटका की चित्रकला में मुख्यतः शिकार, नृत्य, पशुपालन, धार्मिक अनुष्ठानों, हथियारों, और मानव आकृतियों का चित्रण है। यह चित्र आमतौर पर लाल और सफेद रंगों में हैं, जिनका निर्माण खनिजों और वनस्पति रंगों से किया गया था। इस चित्रकला से न केवल तत्कालीन मानव जीवन की जानकारी मिलती है, बल्कि यह मानव की रचनात्मकता और सामाजिक संगठन की झलक भी देती है। ==== 1.2 सिंधु घाटी सभ्यता की कला ==== भारत की सबसे पुरानी शहरी सभ्यता – '''सिंधु घाटी सभ्यता''' (2600–1900 ई.पू.) – कला और शिल्प में अत्यंत समृद्ध थी। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, चन्हूदड़ो जैसे स्थलों से प्राप्त '''कांस्य नर्तकी की मूर्ति''' इस काल की उच्चस्तरीय धातुकला का उदाहरण है। यह मूर्ति मात्र 10.5 सेंटीमीटर लंबी है, लेकिन इसकी बारीकता, मुद्रा और यथार्थता उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त, '''मुहरें''' (seals) भी इस काल की विशिष्ट कलाकृतियाँ हैं, जिन पर पशुपति की मुद्रा, बैल, गैंडा, हाथी, और अन्य जीव-जंतुओं के चित्र उत्कीर्ण हैं। ये मुहरें व्यापार, प्रशासनिक नियंत्रण और धार्मिक विश्वासों का द्योतक रही होंगी। '''टेराकोटा (मृत्तिका) की मूर्तियाँ''', जैसे मातृदेवी या देवी माँ की मूर्तियाँ, इस सभ्यता में मातृशक्ति पूजा के प्रमाण देती हैं। घरों की दीवारों पर अंकित चित्र, चूने की रंगाई, और बर्तन पर की गई सजावट से स्पष्ट है कि कला जीवन का अभिन्न हिस्सा थी। ==== 1.3 वैदिक और उत्तर-वैदिक काल की कला ==== वैदिक काल (1500–600 ई.पू.) में कला मुख्यतः मौखिक परंपरा, यज्ञ, वेदियों की सजावट, और धार्मिक प्रतीकात्मकता तक सीमित रही। इस काल की भौतिक कलाकृतियाँ दुर्लभ हैं, क्योंकि अधिकांश निर्माण लकड़ी और अन्य नाशवान सामग्रियों से होते थे। उत्तर-वैदिक काल में धर्म और समाज अधिक संगठित हुआ, और इसके साथ ही मूर्तिकला और स्थापत्य में भी विकास हुआ। अश्वमेध यज्ञ, राजसूय यज्ञ, यज्ञ मंडप आदि धार्मिक अनुष्ठान सामाजिक और कलात्मक केंद्र बन गए थे। ==== 1.4 मौर्य काल की कला (322–185 ई.पू.) ==== मौर्य साम्राज्य के शासनकाल में भारतीय कला ने एक नया मोड़ लिया। सम्राट अशोक के शासनकाल में '''स्तंभ निर्माण''', '''शिलालेखों''', और '''सारनाथ के सिंह स्तंभ''' जैसे स्मारकों का निर्माण हुआ। यह स्तंभ न केवल राजनीतिक घोषणाओं के लिए थे, बल्कि यह कला, धर्म और राज्य की नीति का प्रतीक भी थे। '''पॉलिश पत्थरों की मूर्तियाँ''' – जैसे यक्ष और यक्षिणी – उस काल की कला में यथार्थ और भव्यता दोनों का समावेश दर्शाती हैं। बाराबर की गुफाएँ (बिहार में) अशोक द्वारा आजीवक संप्रदाय को दान दी गई थीं, जिनमें सुंदर पॉलिश और वास्तुकला की उत्कृष्टता दिखाई देती है। ==== 1.5 शुंग, सातवाहन और कुशाण काल ==== मौर्यकाल के बाद '''शुंग काल''' में '''भारहुत स्तूप''' (मध्य प्रदेश) का विकास हुआ, जिसमें बुद्ध जीवन के दृश्य, जातक कथाएँ और सुंदर ब्रैकेट मूर्तिकला है। '''सातवाहन काल''' में '''अमरावती स्तूप''' और '''नासिक, कार्ले, और भाजा की गुफाएँ''' प्रसिद्ध हैं। इन गुफाओं में चैत्यगृह (पूजा स्थल) और विहार (मठ) बनाए गए जो बौद्ध स्थापत्य की उत्कृष्ट मिसाल हैं। '''कुशाण काल''' में '''मथुरा और गांधार स्कूल ऑफ आर्ट''' का उदय हुआ। गांधार शैली में यूनानी-रोमन प्रभाव था, जिसमें बुद्ध की मूर्तियाँ यूनानी चेहरों और वस्त्रों जैसी दिखती थीं। वहीं मथुरा शैली अधिक भारतीयकरण थी, जहाँ बुद्ध और जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ लाल बलुआ पत्थर में बनती थीं। ==== 1.6 गुप्त काल: भारतीय कला का स्वर्ण युग ==== गुप्त काल (4th–6th शताब्दी) को भारतीय कला का स्वर्णयुग कहा जाता है। इस युग में '''धार्मिक मूर्तिकला''', '''मंदिर स्थापत्य''', '''चित्रकला''' और '''धातुकला''' का अद्भुत विकास हुआ। गुप्त काल में पहली बार संगठित रूप से मंदिर स्थापत्य की शुरुआत हुई। देवगढ़ का दशावतार मंदिर (उत्तर प्रदेश) प्रारंभिक मंदिर वास्तुकला का श्रेष्ठ उदाहरण है। यह नागर शैली में बना है और इसकी दीवारों पर रामायण तथा महाभारत की कथाओं को उकेरा गया है। अजंता गुफाओं (महाराष्ट्र) की चित्रकला इस काल की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। इन चित्रों में जातक कथाएँ, बुद्ध की जीवन गाथा, और सम्राटों के जीवन को रंगों, भावनाओं और लय के साथ प्रस्तुत किया गया है। इन चित्रों की सबसे बड़ी विशेषता है – उनकी भावाभिव्यक्ति, अनुपातबद्धता, रंग संयोजन और सौंदर्य चेतना। धातु की मूर्तिकला भी इस काल में उत्कृष्ट थी। बुद्ध की कांस्य मूर्तियाँ, विष्णु, शिव और देवी-देवताओं की प्रतिमाएं धार्मिक आस्था और कलात्मक श्रेष्ठता का प्रतीक हैं। ==== 1.7 तमिल संगम साहित्य और कला ==== दक्षिण भारत में तमिल संगम युग (300 ई.पू. – 300 ई.) में साहित्य और कला का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। इस काल के साहित्य – जैसे 'एट्टुत्तोगई', 'पट्टुपाट्टु', और 'तोल्काप्पियम' – में कला, युद्ध, प्रेम, नारी, समाज और प्रकृति का गहन चित्रण है। चोल और पांड्य काल में मंदिर वास्तुकला और मूर्तिकला का बड़ा विकास हुआ, जिसकी झलक हमें महाबलीपुरम (पल्लव कालीन रथ मंदिर), मदुरै, और तंजावुर के बृहदेश्वर मंदिर में मिलती है। ==== 1.8 धार्मिक विविधता और प्रतीकात्मकता ==== प्राचीन कला में धार्मिक प्रतीकात्मकता अत्यधिक महत्व रखती थी। बौद्ध धर्म में चक्र, अष्टमंगल, लोटस आदि प्रतीकों का प्रयोग हुआ। जैन धर्म में तीर्थंकरों की मूर्तियाँ विशेष मुद्रा और लक्षणों के साथ बनाई जाती थीं। हिन्दू धर्म में शिवलिंग, नंदी, गरुड़, कमल, त्रिशूल आदि धार्मिक प्रतीक कला का हिस्सा बने। === 2. शास्त्रीय कला और स्थापत्य === प्राचीन भारतीय कला के बाद भारतीय स्थापत्य और कलाएं एक अधिक संरचित, सौंदर्यपरक और धार्मिक दृष्टिकोण से संगठित स्वरूप में विकसित हुईं। इस काल को "शास्त्रीय कला और स्थापत्य" का युग कहा जाता है, जो लगभग गुप्त काल के उत्तरार्ध से शुरू होकर 8वीं शताब्दी तक फैला हुआ है। इसमें विशेषतः मंदिर वास्तुकला, मूर्तिकला, नाट्यकला (नाट्यशास्त्र), नृत्यकला (भरतनाट्यम, कथक), संगीत (शास्त्रीय संगीत), चित्रकला (अजंता-एलोरा), और धार्मिक कला की परिपक्वता देखी जाती है। ==== 2.1 मंदिर स्थापत्य की परंपरा ==== भारत में मंदिर निर्माण की परंपरा शास्त्रीय काल में पूर्ण रूप से विकसित हुई। इस काल में मंदिर न केवल पूजा का स्थान थे, बल्कि सांस्कृतिक, सामाजिक और कलात्मक गतिविधियों के केंद्र भी थे। मंदिर स्थापत्य में दो प्रमुख शैलियाँ विकसित हुईं: नागर शैली (उत्तर भारत): इस शैली की विशेषता ऊँचा शिखर (spire), गर्भगृह, मंडप और आम्रशिखर की संरचना है। देवगढ़ का दशावतार मंदिर और खजुराहो के मंदिर इस शैली के उदाहरण हैं। द्रविड़ शैली (दक्षिण भारत): इसमें गोपुरम (प्रवेश द्वार), विमाना (मुख्य मंदिर शिखर), गर्भगृह, प्रदक्षिणा पथ आदि शामिल हैं। महाबलीपुरम के रथ मंदिर, कांचीपुरम, और तंजावुर का बृहदेश्वर मंदिर इसके प्रतिनिधि हैं। इन दोनों शैलियों के मिश्रण से वेसर शैली (मध्य भारत) का विकास हुआ। ==== 2.2 मूर्तिकला का उत्कर्ष ==== शास्त्रीय काल की मूर्तिकला में गहराई, भाव-प्रदर्शन, प्रतीकात्मकता और धार्मिकता प्रमुख विशेषताएँ थीं। देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उनके वाहन, आयुध, मुद्रा और अभयमुद्रा जैसे तत्वों से युक्त होती थीं। विष्णु की चतुर्भुज प्रतिमा, शिव की नटराज मुद्रा, माँ दुर्गा की महिषासुर मर्दिनी मूर्ति आदि विशेष उदाहरण हैं। जैन मूर्तिकला में तीर्थंकरों को ध्यान मुद्रा में और लक्षणों (उष्णीष, लाक्षणिक चिन्ह) के साथ दिखाया गया। बौद्ध मूर्तिकला में बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं (ध्यान, धर्मचक्र प्रवर्तन, भिक्षाटन) का चित्रण हुआ। ==== 2.3 नाट्य और नृत्यकला ==== * भरत मुनि का नाट्यशास्त्र इस काल की सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसमें नाटक, अभिनय, नृत्य, संगीत, और रस-सिद्धांत का विस्तृत वर्णन है। * '''नाट्य:''' धार्मिक कथाओं, पुराणों और महाकाव्यों पर आधारित नाटकों का मंचन मंदिरों में होता था। संस्कृत नाटक जैसे कालिदास का 'अभिज्ञान शाकुंतलम्' प्रसिद्ध है। * '''नृत्य:''' भरतनाट्यम (तमिलनाडु), कथकली (केरल), मणिपुरी (मणिपुर), और कथक (उत्तर भारत) जैसी शास्त्रीय नृत्य शैलियों की नींव इसी काल में पड़ी। इन नृत्यों में अंग, भाव, रस, मुद्रा, और ताल का समन्वय होता है। ==== 2.4 संगीत: श्रुति और लय का सौंदर्य ==== भारतीय शास्त्रीय संगीत की आधारशिला इसी काल में रखी गई। दो प्रमुख परंपराएँ – हिंदुस्तानी (उत्तर भारत) और कर्नाटिक (दक्षिण भारत) विकसित हुईं। राग और ताल का वैज्ञानिक आधार विकसित हुआ। सप्तक, अष्टक, स्वर, गान शैली आदि का शास्त्र रूप में विकास हुआ। '''अनेक वाद्य यंत्रों''' – जैसे वीणा, बांसुरी, मृदंग, तबला, शंख – का प्रयोग धार्मिक और सामाजिक आयोजनों में होता था। ==== 2.5 चित्रकला का विकास ==== * अजंता (महाराष्ट्र) और एलोरा की गुफाओं की चित्रकला शास्त्रीय युग की महानतम कलाकृतियाँ हैं। * अजंता की चित्रकला में जातक कथाएँ, बुद्ध के जीवन प्रसंग, नृत्य, संगीत, समाज, स्त्रियाँ, और प्रकृति के चित्र अत्यंत भावनात्मक रूप से प्रस्तुत किए गए हैं। * चित्रों में प्राकृतिक रंगों, पत्थर की दीवारों पर चमकदार परत, बारीक रेखाओं और परिप्रेक्ष्य का उत्तम समन्वय है। * एलोरा की चित्रकला में हिंदू, बौद्ध और जैन विषयों का सामंजस्य है। ==== 2.6 स्थापत्य के धार्मिक आयाम ==== मंदिर केवल पूजा स्थल नहीं थे, बल्कि वे सामाजिक एकता, विद्या, नाट्य, संगीत, और शिल्प के केंद्र बन गए थे। हर मंदिर की स्थापत्य संरचना में धार्मिक दर्शन निहित होता था: * '''गर्भगृह:''' आत्मा या ब्रह्म का प्रतीक। * '''शिखर/विमान:''' मोक्ष की ओर बढ़ते चेतना का प्रतीक। * '''प्रदक्षिणा पथ:''' ब्रह्मांड की परिक्रमा। * '''मंडप:''' सामाजिक सहकार और सांस्कृतिक आयोजन का केंद्र। ==== 2.7 धातु और चित्रशिल्प कला ==== इस काल में कांस्य की मूर्तियाँ भी बड़ी संख्या में बनीं। विशेष रूप से दक्षिण भारत में चोल काल में नटराज की कांस्य मूर्ति (भगवान शिव की नृत्य मुद्रा) कलात्मक दृष्टि से अद्वितीय मानी जाती है। इन मूर्तियों में नयनाभिराम सौंदर्य, सजीवता और शास्त्रीय मुद्रा का उत्कृष्ट समावेश होता था। पंचधातु की मूर्तियाँ धार्मिक अनुष्ठानों में प्रयुक्त होती थीं। शास्त्रीय काल की कला ने न केवल धार्मिक आस्था को स्वरूप प्रदान किया, बल्कि लोकजीवन, संस्कृति, दर्शन, और समाज को कलात्मक रूप से जोड़ने का कार्य भी किया। === 3. मध्यकालीन कला और स्थापत्य === मध्यकालीन भारत (8वीं से 18वीं शताब्दी तक) में कला और स्थापत्य का विकास एक नए स्वरूप में हुआ, जो धार्मिक, राजनीतिक और क्षेत्रीय विविधताओं से प्रभावित था। यह युग मुस्लिम आक्रमणों, इस्लामी सल्तनतों और मुगलों के आगमन के कारण स्थापत्य और कलात्मक अभिव्यक्तियों में विविधता, समन्वय और नवीनता का युग बन गया। इस काल में हिन्दू, इस्लामी और मिश्रित शैलियों में वास्तुकला, चित्रकला और मूर्तिकला ने महत्वपूर्ण प्रगति की। ==== 3.1 इस्लामी स्थापत्य ==== इस्लामी स्थापत्य भारत में दिल्ली सल्तनत (13वीं सदी) के साथ शुरू हुआ और मुगल काल में अपने चरम पर पहुँचा। इसमें गुम्बद, मीनारें, मेहराबें, जालियाँ, और बाग़ निर्माण की परंपराएँ शामिल थीं। इस युग की प्रमुख कृतियाँ कुतुब मीनार, अलाई दरवाज़ा, लोधी मकबरे, हुमायूँ का मकबरा, और अंततः ताजमहल के रूप में विश्व धरोहर बन गईं। इस्लामी स्थापत्य में समरूपता, ज्यामितीय डिज़ाइन, संगमरमर और लाल बलुआ पत्थर का उपयोग तथा अरबी फ़ारसी लिपि में अलंकरण देखने को मिलता है। ==== 3.2 हिन्दू और जैन स्थापत्य का विकास ==== इस काल में दक्षिण और पश्चिम भारत में हिन्दू तथा जैन मंदिरों की परंपरा भी जारी रही। होयसला, काकतीय, विजयनगर और मराठा शासकों ने भव्य मंदिरों, गोपुरमों और मूर्तिकला का निर्माण किया। बेलूर, हलिबिड, हम्पी, और मदुरै के मंदिर इस स्थापत्य की श्रेष्ठ कृतियाँ हैं। मंदिरों में कथा-चित्रण, मिथकीय दृश्य, नृत्य मुद्रा वाली मूर्तियाँ, और विस्तृत नक्काशी इस युग की विशेषता थीं। ==== 3.3 मिश्रित स्थापत्य और क्षेत्रीय शैलियाँ ==== मध्यकालीन भारत में स्थापत्य का एक विशेष पहलू इसका सांस्कृतिक समन्वय था। राजपूत और मुगल स्थापत्य के समन्वय से अनेक महलों, किलों और उद्यानों की रचना हुई। फतेहपुर सीकरी, लाल किला, और आमेर का किला इसका उत्कृष्ट उदाहरण हैं। बंगाल, मलाबार, राजस्थान और कश्मीर जैसे क्षेत्रों में स्थानीय सामग्रियों और पारंपरिक तकनीकों के प्रयोग से अलग-अलग क्षेत्रीय स्थापत्य शैलियाँ उभरीं। ==== 3.4 चित्रकला का उत्कर्ष ==== मध्यकालीन काल में चित्रकला भी अत्यधिक विकसित हुई। '''मुगल दरबार में फारसी परंपरा''' से प्रेरित लघुचित्रों का निर्माण हुआ। अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ के शासन में इतिहास, जीवन शैली, प्रेम प्रसंगों और महाकाव्यों पर आधारित चित्र बनाए गए। इस काल में राजस्थानी, पहाड़ी, बुंदेलखंडी और मालवा चित्रशैलियाँ भी विकसित हुईं, जिनमें भारतीय विषयों, भावनाओं और रंगों को प्रमुखता दी गई। ==== 3.5 किले, महल और सार्वजनिक भवन ==== मध्यकाल में स्थापत्य केवल धार्मिक स्थानों तक सीमित नहीं रहा। अनेक किले, महल, बावड़ियाँ, सरायें, और जलाशय बनाए गए। किले जैसे ग्वालियर, गोलकोंडा, रायगढ़, चित्तौड़गढ़ आदि रक्षा, प्रशासन और वास्तुकला के उत्कृष्ठ उदाहरण हैं। इस प्रकार, '''मध्यकालीन कला''' और स्थापत्य ने भारत के सांस्कृतिक इतिहास को एक नई दृष्टि दी। यह युग धार्मिक विविधता, कलात्मक समन्वय और स्थापत्य नवाचार का प्रतीक बन गया। === 4. आधुनिक भारतीय कला === आधुनिक भारतीय कला ने भारत की सांस्कृतिक चेतना को एक नया आयाम दिया। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर वर्तमान तक, भारत में कला और स्थापत्य का स्वरूप तेजी से बदला है। यह परिवर्तन उपनिवेशवाद, राष्ट्रवाद, स्वतंत्रता संग्राम, और वैश्विक कलात्मक प्रवृत्तियों से प्रभावित रहा। इस काल में परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन बनाते हुए कलाकारों और स्थापत्यविदों ने नए प्रयोग किए। ==== 4.1 उपनिवेशकालीन प्रभाव और आरंभिक पुनर्जागरण ==== ब्रिटिश शासनकाल में भारत की पारंपरिक कलाओं को औपनिवेशिक दृष्टिकोण से देखा गया। यूरोपीय यथार्थवाद, परिप्रेक्ष्य तकनीक, और ऑइल पेंटिंग जैसी विधियाँ भारतीय कला शिक्षण में शामिल हुईं। इस काल में कला संस्थाओं की स्थापना हुई, जैसे कि 'सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स', बॉम्बे। राजा रवि वर्मा जैसे कलाकारों ने भारतीय विषयों को यूरोपीय शैली में चित्रित कर एक नई दृष्टि प्रस्तुत की। ==== 4.2 बंगाल स्कूल और स्वदेशी कला आंदोलन ==== 20वीं शताब्दी की शुरुआत में अवनींद्रनाथ ठाकुर, नंदलाल बोस और उनके सहयोगियों ने बंगाल स्कूल की स्थापना की। इस आंदोलन का उद्देश्य पश्चिमी प्रभाव से मुक्त होकर भारतीय परंपराओं, मिथकों और लोककलाओं को पुनर्जीवित करना था। यह कला आंदोलन स्वतंत्रता संग्राम से भी जुड़ा रहा और भारतीय आत्मा की अभिव्यक्ति का माध्यम बना। ==== 4.3 स्वतंत्रता के बाद की कला ==== स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय कलाकारों को वैश्विक मंच मिला। आधुनिकतावादी प्रवृत्तियाँ जैसे अमूर्त चित्रकला (Abstract Art), वैचारिक कला (Conceptual Art), और स्थापना कला (Installation Art) भारत में लोकप्रिय हुईं। मकबूल फिदा हुसैन, त्येब मेहता, एस.एच. रज़ा, अकबर पदमसी आदि कलाकारों ने आधुनिक भारतीय कला को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा दिलाई। ==== 4.4 समकालीन भारतीय कला ==== 21वीं सदी में भारतीय कला ने मीडिया, तकनीक और डिज़िटल माध्यमों के साथ गहरा संबंध स्थापित किया। समकालीन कलाकार सामाजिक, राजनीतिक, और पर्यावरणीय मुद्दों को अपनी कृतियों में स्थान देने लगे। वीडियो आर्ट, मल्टीमीडिया इंस्टॉलेशन, और स्ट्रीट आर्ट जैसे नए रूप लोकप्रिय हुए। महिला कलाकारों और दलित-आदिवासी कलात्मक अभिव्यक्तियों को भी नई पहचान मिली। ==== 4.5 आधुनिक स्थापत्य ==== आधुनिक भारत में स्थापत्य ने भी बड़े बदलाव देखे। प्रारंभ में ब्रिटिश औपनिवेशिक शैली में सरकारी भवन बने — जैसे विक्टोरिया टर्मिनस, बंबई। स्वतंत्रता के बाद आधुनिक भारतीय स्थापत्य का प्रमुख उदाहरण 'चंडीगढ़' है, जिसे प्रसिद्ध वास्तुविद ली कॉर्बुज़िए द्वारा डिज़ाइन किया गया। आज भारत में स्मार्ट सिटी योजना, पर्यावरण-हितैषी भवन, और सतत विकास उन्मुख वास्तुशिल्प पर ध्यान दिया जा रहा है। ==== 4.6 कला के संस्थान और संग्रहालय ==== भारत में कला के संरक्षण और प्रचार के लिए अनेक संस्थान जैसे ललित कला अकादमी, नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट, भारत भवन (भोपाल) आदि की स्थापना हुई। भारत के लगभग हर बड़े शहर में आधुनिक कला दीर्घाएँ, संग्रहालय और कलादीर्घाएँ मौजूद हैं, जो देश की समकालीन कलात्मक चेतना को दर्शाते हैं। इस प्रकार, आधुनिक भारतीय कला परंपरा और आधुनिकता, लोक और वैश्विक, आत्म और विश्व-बोध का अद्भुत समन्वय है। यह कला न केवल सौंदर्य का प्रतीक है, बल्कि सामाजिक परिवर्तन और चिंतन का माध्यम भी बन चुकी है। === 5. निष्कर्ष === भारत की कला और स्थापत्य परंपरा केवल इमारतों, चित्रों या मूर्तियों तक सीमित नहीं रही, बल्कि वह भारत की सामाजिक चेतना, धार्मिक भावना, सांस्कृतिक समरसता और ऐतिहासिक विरासत की संवाहक रही है। इस अध्याय में हमने देखा कि कैसे प्राचीन गुफाओं से लेकर आधुनिक संग्रहालयों तक भारतीय कला का रूप और भाव निरंतर विकसित होता रहा है। प्राचीन काल में जहाँ गुफा चित्रों और मंदिर स्थापत्य ने धार्मिकता और प्रतीकात्मकता को मूर्त रूप दिया, वहीं शास्त्रीय युग में शिल्प, संगीत, नृत्य, चित्रकला और वास्तुकला का सुव्यवस्थित विकास हुआ। मध्यकाल में इस्लामी प्रभावों ने स्थापत्य की संरचनाओं को नया आकार दिया, जिसमें गुम्बद, मीनारें, जालियाँ और बाग़ निर्माण की शैली उभरी। इस युग में हिन्दू, इस्लामी और क्षेत्रीय शैलियों का समन्वय स्पष्ट रूप से स्थापत्य में देखा जा सकता है। आधुनिक युग में जहाँ उपनिवेशवाद ने यूरोपीय प्रभाव डाले, वहीं स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कला एक सांस्कृतिक हथियार बनी। बंगाल स्कूल जैसे आंदोलनों ने भारतीयता को पुनः स्थापित किया। स्वतंत्रता के बाद भारत में समकालीन कला, स्थापत्य और डिज़िटल अभिव्यक्तियों के माध्यम से कलाकारों ने नवाचार किए। कला और स्थापत्य का सामाजिक पक्ष भी उतना ही महत्वपूर्ण रहा है — चाहे वह धार्मिक स्थलों की एकजुटता हो, राष्ट्रीय स्मारकों के रूप में प्रेरणा देना हो, या पर्यावरण-संवेदनशील भवन निर्माण। अतः यह निष्कर्ष निकालना उचित होगा कि भारतीय कला और स्थापत्य न केवल एक ऐतिहासिक संपदा हैं, बल्कि वे वर्तमान और भविष्य के सांस्कृतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय विमर्श का अभिन्न हिस्सा हैं। इसके अध्ययन से हम न केवल भारत के अतीत को समझते हैं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी सांस्कृतिक आत्मबोध की दिशा में प्रेरित करते हैं। == श्रेणियाँ == [[Category:भारत का सांस्कृतिक इतिहास]] [[Category:भारतीय कला]] [[Category:भारतीय स्थापत्य]] [[Category:हिन्दी विकिबुक परियोजना]] 3k8opzt2vij7tnbg7kxbyx5gq2m6jif 82601 82600 2025-06-15T10:25:10Z Baap8969 16001 82601 wikitext text/x-wiki '''भारत का सांस्कृतिक इतिहास''' केवल भाषा, साहित्य या त्योहारों तक सीमित नहीं है; इसमें '''कला और स्थापत्य''' की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। यह अध्याय भारतीय कला की विविध विधाओं, स्थापत्य की विकास यात्रा और उनके सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव का विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत करता है। भारतीय कला में धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों का प्रतिबिंब देखा जाता है । '''भारत का सांस्कृतिक इतिहास''' केवल भाषा, साहित्य या त्योहारों तक सीमित नहीं है; इसमें '''कला और स्थापत्य''' की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। यह अध्याय भारतीय कला की विविध विधाओं, स्थापत्य की विकास यात्रा और उनके सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव का विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत करता है। भारतीय कला में धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों का प्रतिबिंब देखा जाता है। === 1. प्राचीन भारतीय कला === प्राचीन भारतीय कला भारत की सभ्यता और सांस्कृतिक परंपराओं का मूल स्तंभ रही है। यह कला केवल सौंदर्य के लिए नहीं, बल्कि धार्मिक विश्वास, सामाजिक संरचना, जीवन शैली, ज्ञान-विज्ञान और राजनैतिक सन्देश का भी माध्यम रही है। प्राचीन काल की कला कई रूपों में मिलती है - जैसे गुफा चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला, शिल्पकला, और धार्मिक प्रतीकात्मकता से युक्त स्थापत्य। ==== 1.1 गुफा चित्रकला ==== भारत में गुफा चित्रकला का इतिहास पाषाण युग (Stone Age) से शुरू होता है। मध्य प्रदेश के '''भीमबेटका''' की गुफाएं इस बात का प्रमाण हैं कि मानव सभ्यता ने हजारों साल पहले ही चित्रकला के माध्यम से अपनी चेतना और अनुभव को अभिव्यक्त करना शुरू कर दिया था। भीमबेटका की चित्रकला में मुख्यतः शिकार, नृत्य, पशुपालन, धार्मिक अनुष्ठानों, हथियारों, और मानव आकृतियों का चित्रण है। यह चित्र आमतौर पर लाल और सफेद रंगों में हैं, जिनका निर्माण खनिजों और वनस्पति रंगों से किया गया था। इस चित्रकला से न केवल तत्कालीन मानव जीवन की जानकारी मिलती है, बल्कि यह मानव की रचनात्मकता और सामाजिक संगठन की झलक भी देती है। ==== 1.2 सिंधु घाटी सभ्यता की कला ==== भारत की सबसे पुरानी शहरी सभ्यता – '''सिंधु घाटी सभ्यता''' (2600–1900 ई.पू.) – कला और शिल्प में अत्यंत समृद्ध थी। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, चन्हूदड़ो जैसे स्थलों से प्राप्त '''कांस्य नर्तकी की मूर्ति''' इस काल की उच्चस्तरीय धातुकला का उदाहरण है। यह मूर्ति मात्र 10.5 सेंटीमीटर लंबी है, लेकिन इसकी बारीकता, मुद्रा और यथार्थता उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त, '''मुहरें''' (seals) भी इस काल की विशिष्ट कलाकृतियाँ हैं, जिन पर पशुपति की मुद्रा, बैल, गैंडा, हाथी, और अन्य जीव-जंतुओं के चित्र उत्कीर्ण हैं। ये मुहरें व्यापार, प्रशासनिक नियंत्रण और धार्मिक विश्वासों का द्योतक रही होंगी। '''टेराकोटा (मृत्तिका) की मूर्तियाँ''', जैसे मातृदेवी या देवी माँ की मूर्तियाँ, इस सभ्यता में मातृशक्ति पूजा के प्रमाण देती हैं। घरों की दीवारों पर अंकित चित्र, चूने की रंगाई, और बर्तन पर की गई सजावट से स्पष्ट है कि कला जीवन का अभिन्न हिस्सा थी। ==== 1.3 वैदिक और उत्तर-वैदिक काल की कला ==== वैदिक काल (1500–600 ई.पू.) में कला मुख्यतः मौखिक परंपरा, यज्ञ, वेदियों की सजावट, और धार्मिक प्रतीकात्मकता तक सीमित रही। इस काल की भौतिक कलाकृतियाँ दुर्लभ हैं, क्योंकि अधिकांश निर्माण लकड़ी और अन्य नाशवान सामग्रियों से होते थे। उत्तर-वैदिक काल में धर्म और समाज अधिक संगठित हुआ, और इसके साथ ही मूर्तिकला और स्थापत्य में भी विकास हुआ। अश्वमेध यज्ञ, राजसूय यज्ञ, यज्ञ मंडप आदि धार्मिक अनुष्ठान सामाजिक और कलात्मक केंद्र बन गए थे। ==== 1.4 मौर्य काल की कला (322–185 ई.पू.) ==== मौर्य साम्राज्य के शासनकाल में भारतीय कला ने एक नया मोड़ लिया। सम्राट अशोक के शासनकाल में '''स्तंभ निर्माण''', '''शिलालेखों''', और '''सारनाथ के सिंह स्तंभ''' जैसे स्मारकों का निर्माण हुआ। यह स्तंभ न केवल राजनीतिक घोषणाओं के लिए थे, बल्कि यह कला, धर्म और राज्य की नीति का प्रतीक भी थे। '''पॉलिश पत्थरों की मूर्तियाँ''' – जैसे यक्ष और यक्षिणी – उस काल की कला में यथार्थ और भव्यता दोनों का समावेश दर्शाती हैं। बाराबर की गुफाएँ (बिहार में) अशोक द्वारा आजीवक संप्रदाय को दान दी गई थीं, जिनमें सुंदर पॉलिश और वास्तुकला की उत्कृष्टता दिखाई देती है। ==== 1.5 शुंग, सातवाहन और कुशाण काल ==== मौर्यकाल के बाद '''शुंग काल''' में '''भारहुत स्तूप''' (मध्य प्रदेश) का विकास हुआ, जिसमें बुद्ध जीवन के दृश्य, जातक कथाएँ और सुंदर ब्रैकेट मूर्तिकला है। '''सातवाहन काल''' में '''अमरावती स्तूप''' और '''नासिक, कार्ले, और भाजा की गुफाएँ''' प्रसिद्ध हैं। इन गुफाओं में चैत्यगृह (पूजा स्थल) और विहार (मठ) बनाए गए जो बौद्ध स्थापत्य की उत्कृष्ट मिसाल हैं। '''कुशाण काल''' में '''मथुरा और गांधार स्कूल ऑफ आर्ट''' का उदय हुआ। गांधार शैली में यूनानी-रोमन प्रभाव था, जिसमें बुद्ध की मूर्तियाँ यूनानी चेहरों और वस्त्रों जैसी दिखती थीं। वहीं मथुरा शैली अधिक भारतीयकरण थी, जहाँ बुद्ध और जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ लाल बलुआ पत्थर में बनती थीं। ==== 1.6 गुप्त काल: भारतीय कला का स्वर्ण युग ==== गुप्त काल (4th–6th शताब्दी) को भारतीय कला का स्वर्णयुग कहा जाता है। इस युग में '''धार्मिक मूर्तिकला''', '''मंदिर स्थापत्य''', '''चित्रकला''' और '''धातुकला''' का अद्भुत विकास हुआ। गुप्त काल में पहली बार संगठित रूप से मंदिर स्थापत्य की शुरुआत हुई। देवगढ़ का दशावतार मंदिर (उत्तर प्रदेश) प्रारंभिक मंदिर वास्तुकला का श्रेष्ठ उदाहरण है। यह नागर शैली में बना है और इसकी दीवारों पर रामायण तथा महाभारत की कथाओं को उकेरा गया है। अजंता गुफाओं (महाराष्ट्र) की चित्रकला इस काल की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। इन चित्रों में जातक कथाएँ, बुद्ध की जीवन गाथा, और सम्राटों के जीवन को रंगों, भावनाओं और लय के साथ प्रस्तुत किया गया है। इन चित्रों की सबसे बड़ी विशेषता है – उनकी भावाभिव्यक्ति, अनुपातबद्धता, रंग संयोजन और सौंदर्य चेतना। धातु की मूर्तिकला भी इस काल में उत्कृष्ट थी। बुद्ध की कांस्य मूर्तियाँ, विष्णु, शिव और देवी-देवताओं की प्रतिमाएं धार्मिक आस्था और कलात्मक श्रेष्ठता का प्रतीक हैं। ==== 1.7 तमिल संगम साहित्य और कला ==== दक्षिण भारत में तमिल संगम युग (300 ई.पू. – 300 ई.) में साहित्य और कला का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। इस काल के साहित्य – जैसे 'एट्टुत्तोगई', 'पट्टुपाट्टु', और 'तोल्काप्पियम' – में कला, युद्ध, प्रेम, नारी, समाज और प्रकृति का गहन चित्रण है। चोल और पांड्य काल में मंदिर वास्तुकला और मूर्तिकला का बड़ा विकास हुआ, जिसकी झलक हमें महाबलीपुरम (पल्लव कालीन रथ मंदिर), मदुरै, और तंजावुर के बृहदेश्वर मंदिर में मिलती है। ==== 1.8 धार्मिक विविधता और प्रतीकात्मकता ==== प्राचीन कला में धार्मिक प्रतीकात्मकता अत्यधिक महत्व रखती थी। बौद्ध धर्म में चक्र, अष्टमंगल, लोटस आदि प्रतीकों का प्रयोग हुआ। जैन धर्म में तीर्थंकरों की मूर्तियाँ विशेष मुद्रा और लक्षणों के साथ बनाई जाती थीं। हिन्दू धर्म में शिवलिंग, नंदी, गरुड़, कमल, त्रिशूल आदि धार्मिक प्रतीक कला का हिस्सा बने। === 2. शास्त्रीय कला और स्थापत्य === प्राचीन भारतीय कला के बाद भारतीय स्थापत्य और कलाएं एक अधिक संरचित, सौंदर्यपरक और धार्मिक दृष्टिकोण से संगठित स्वरूप में विकसित हुईं। इस काल को "शास्त्रीय कला और स्थापत्य" का युग कहा जाता है, जो लगभग गुप्त काल के उत्तरार्ध से शुरू होकर 8वीं शताब्दी तक फैला हुआ है। इसमें विशेषतः मंदिर वास्तुकला, मूर्तिकला, नाट्यकला (नाट्यशास्त्र), नृत्यकला (भरतनाट्यम, कथक), संगीत (शास्त्रीय संगीत), चित्रकला (अजंता-एलोरा), और धार्मिक कला की परिपक्वता देखी जाती है। ==== 2.1 मंदिर स्थापत्य की परंपरा ==== भारत में मंदिर निर्माण की परंपरा शास्त्रीय काल में पूर्ण रूप से विकसित हुई। इस काल में मंदिर न केवल पूजा का स्थान थे, बल्कि सांस्कृतिक, सामाजिक और कलात्मक गतिविधियों के केंद्र भी थे। मंदिर स्थापत्य में दो प्रमुख शैलियाँ विकसित हुईं: नागर शैली (उत्तर भारत): इस शैली की विशेषता ऊँचा शिखर (spire), गर्भगृह, मंडप और आम्रशिखर की संरचना है। देवगढ़ का दशावतार मंदिर और खजुराहो के मंदिर इस शैली के उदाहरण हैं। द्रविड़ शैली (दक्षिण भारत): इसमें गोपुरम (प्रवेश द्वार), विमाना (मुख्य मंदिर शिखर), गर्भगृह, प्रदक्षिणा पथ आदि शामिल हैं। महाबलीपुरम के रथ मंदिर, कांचीपुरम, और तंजावुर का बृहदेश्वर मंदिर इसके प्रतिनिधि हैं। इन दोनों शैलियों के मिश्रण से वेसर शैली (मध्य भारत) का विकास हुआ। ==== 2.2 मूर्तिकला का उत्कर्ष ==== शास्त्रीय काल की मूर्तिकला में गहराई, भाव-प्रदर्शन, प्रतीकात्मकता और धार्मिकता प्रमुख विशेषताएँ थीं। देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उनके वाहन, आयुध, मुद्रा और अभयमुद्रा जैसे तत्वों से युक्त होती थीं। विष्णु की चतुर्भुज प्रतिमा, शिव की नटराज मुद्रा, माँ दुर्गा की महिषासुर मर्दिनी मूर्ति आदि विशेष उदाहरण हैं। जैन मूर्तिकला में तीर्थंकरों को ध्यान मुद्रा में और लक्षणों (उष्णीष, लाक्षणिक चिन्ह) के साथ दिखाया गया। बौद्ध मूर्तिकला में बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं (ध्यान, धर्मचक्र प्रवर्तन, भिक्षाटन) का चित्रण हुआ। ==== 2.3 नाट्य और नृत्यकला ==== * भरत मुनि का नाट्यशास्त्र इस काल की सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसमें नाटक, अभिनय, नृत्य, संगीत, और रस-सिद्धांत का विस्तृत वर्णन है। * '''नाट्य:''' धार्मिक कथाओं, पुराणों और महाकाव्यों पर आधारित नाटकों का मंचन मंदिरों में होता था। संस्कृत नाटक जैसे कालिदास का 'अभिज्ञान शाकुंतलम्' प्रसिद्ध है। * '''नृत्य:''' भरतनाट्यम (तमिलनाडु), कथकली (केरल), मणिपुरी (मणिपुर), और कथक (उत्तर भारत) जैसी शास्त्रीय नृत्य शैलियों की नींव इसी काल में पड़ी। इन नृत्यों में अंग, भाव, रस, मुद्रा, और ताल का समन्वय होता है। ==== 2.4 संगीत: श्रुति और लय का सौंदर्य ==== भारतीय शास्त्रीय संगीत की आधारशिला इसी काल में रखी गई। दो प्रमुख परंपराएँ – हिंदुस्तानी (उत्तर भारत) और कर्नाटिक (दक्षिण भारत) विकसित हुईं। राग और ताल का वैज्ञानिक आधार विकसित हुआ। सप्तक, अष्टक, स्वर, गान शैली आदि का शास्त्र रूप में विकास हुआ। '''अनेक वाद्य यंत्रों''' – जैसे वीणा, बांसुरी, मृदंग, तबला, शंख – का प्रयोग धार्मिक और सामाजिक आयोजनों में होता था। ==== 2.5 चित्रकला का विकास ==== * अजंता (महाराष्ट्र) और एलोरा की गुफाओं की चित्रकला शास्त्रीय युग की महानतम कलाकृतियाँ हैं। * अजंता की चित्रकला में जातक कथाएँ, बुद्ध के जीवन प्रसंग, नृत्य, संगीत, समाज, स्त्रियाँ, और प्रकृति के चित्र अत्यंत भावनात्मक रूप से प्रस्तुत किए गए हैं। * चित्रों में प्राकृतिक रंगों, पत्थर की दीवारों पर चमकदार परत, बारीक रेखाओं और परिप्रेक्ष्य का उत्तम समन्वय है। * एलोरा की चित्रकला में हिंदू, बौद्ध और जैन विषयों का सामंजस्य है। ==== 2.6 स्थापत्य के धार्मिक आयाम ==== मंदिर केवल पूजा स्थल नहीं थे, बल्कि वे सामाजिक एकता, विद्या, नाट्य, संगीत, और शिल्प के केंद्र बन गए थे। हर मंदिर की स्थापत्य संरचना में धार्मिक दर्शन निहित होता था: * '''गर्भगृह:''' आत्मा या ब्रह्म का प्रतीक। * '''शिखर/विमान:''' मोक्ष की ओर बढ़ते चेतना का प्रतीक। * '''प्रदक्षिणा पथ:''' ब्रह्मांड की परिक्रमा। * '''मंडप:''' सामाजिक सहकार और सांस्कृतिक आयोजन का केंद्र। ==== 2.7 धातु और चित्रशिल्प कला ==== इस काल में कांस्य की मूर्तियाँ भी बड़ी संख्या में बनीं। विशेष रूप से दक्षिण भारत में चोल काल में नटराज की कांस्य मूर्ति (भगवान शिव की नृत्य मुद्रा) कलात्मक दृष्टि से अद्वितीय मानी जाती है। इन मूर्तियों में नयनाभिराम सौंदर्य, सजीवता और शास्त्रीय मुद्रा का उत्कृष्ट समावेश होता था। पंचधातु की मूर्तियाँ धार्मिक अनुष्ठानों में प्रयुक्त होती थीं। शास्त्रीय काल की कला ने न केवल धार्मिक आस्था को स्वरूप प्रदान किया, बल्कि लोकजीवन, संस्कृति, दर्शन, और समाज को कलात्मक रूप से जोड़ने का कार्य भी किया। === 3. मध्यकालीन कला और स्थापत्य === मध्यकालीन भारत (8वीं से 18वीं शताब्दी तक) में कला और स्थापत्य का विकास एक नए स्वरूप में हुआ, जो धार्मिक, राजनीतिक और क्षेत्रीय विविधताओं से प्रभावित था। यह युग मुस्लिम आक्रमणों, इस्लामी सल्तनतों और मुगलों के आगमन के कारण स्थापत्य और कलात्मक अभिव्यक्तियों में विविधता, समन्वय और नवीनता का युग बन गया। इस काल में हिन्दू, इस्लामी और मिश्रित शैलियों में वास्तुकला, चित्रकला और मूर्तिकला ने महत्वपूर्ण प्रगति की। ==== 3.1 इस्लामी स्थापत्य ==== इस्लामी स्थापत्य भारत में दिल्ली सल्तनत (13वीं सदी) के साथ शुरू हुआ और मुगल काल में अपने चरम पर पहुँचा। इसमें गुम्बद, मीनारें, मेहराबें, जालियाँ, और बाग़ निर्माण की परंपराएँ शामिल थीं। इस युग की प्रमुख कृतियाँ कुतुब मीनार, अलाई दरवाज़ा, लोधी मकबरे, हुमायूँ का मकबरा, और अंततः ताजमहल के रूप में विश्व धरोहर बन गईं। इस्लामी स्थापत्य में समरूपता, ज्यामितीय डिज़ाइन, संगमरमर और लाल बलुआ पत्थर का उपयोग तथा अरबी फ़ारसी लिपि में अलंकरण देखने को मिलता है। ==== 3.2 हिन्दू और जैन स्थापत्य का विकास ==== इस काल में दक्षिण और पश्चिम भारत में हिन्दू तथा जैन मंदिरों की परंपरा भी जारी रही। होयसला, काकतीय, विजयनगर और मराठा शासकों ने भव्य मंदिरों, गोपुरमों और मूर्तिकला का निर्माण किया। बेलूर, हलिबिड, हम्पी, और मदुरै के मंदिर इस स्थापत्य की श्रेष्ठ कृतियाँ हैं। मंदिरों में कथा-चित्रण, मिथकीय दृश्य, नृत्य मुद्रा वाली मूर्तियाँ, और विस्तृत नक्काशी इस युग की विशेषता थीं। ==== 3.3 मिश्रित स्थापत्य और क्षेत्रीय शैलियाँ ==== मध्यकालीन भारत में स्थापत्य का एक विशेष पहलू इसका सांस्कृतिक समन्वय था। राजपूत और मुगल स्थापत्य के समन्वय से अनेक महलों, किलों और उद्यानों की रचना हुई। फतेहपुर सीकरी, लाल किला, और आमेर का किला इसका उत्कृष्ट उदाहरण हैं। बंगाल, मलाबार, राजस्थान और कश्मीर जैसे क्षेत्रों में स्थानीय सामग्रियों और पारंपरिक तकनीकों के प्रयोग से अलग-अलग क्षेत्रीय स्थापत्य शैलियाँ उभरीं। ==== 3.4 चित्रकला का उत्कर्ष ==== मध्यकालीन काल में चित्रकला भी अत्यधिक विकसित हुई। '''मुगल दरबार में फारसी परंपरा''' से प्रेरित लघुचित्रों का निर्माण हुआ। अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ के शासन में इतिहास, जीवन शैली, प्रेम प्रसंगों और महाकाव्यों पर आधारित चित्र बनाए गए। इस काल में राजस्थानी, पहाड़ी, बुंदेलखंडी और मालवा चित्रशैलियाँ भी विकसित हुईं, जिनमें भारतीय विषयों, भावनाओं और रंगों को प्रमुखता दी गई। ==== 3.5 किले, महल और सार्वजनिक भवन ==== मध्यकाल में स्थापत्य केवल धार्मिक स्थानों तक सीमित नहीं रहा। अनेक किले, महल, बावड़ियाँ, सरायें, और जलाशय बनाए गए। किले जैसे ग्वालियर, गोलकोंडा, रायगढ़, चित्तौड़गढ़ आदि रक्षा, प्रशासन और वास्तुकला के उत्कृष्ठ उदाहरण हैं। इस प्रकार, '''मध्यकालीन कला''' और स्थापत्य ने भारत के सांस्कृतिक इतिहास को एक नई दृष्टि दी। यह युग धार्मिक विविधता, कलात्मक समन्वय और स्थापत्य नवाचार का प्रतीक बन गया। === 4. आधुनिक भारतीय कला === आधुनिक भारतीय कला ने भारत की सांस्कृतिक चेतना को एक नया आयाम दिया। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर वर्तमान तक, भारत में कला और स्थापत्य का स्वरूप तेजी से बदला है। यह परिवर्तन उपनिवेशवाद, राष्ट्रवाद, स्वतंत्रता संग्राम, और वैश्विक कलात्मक प्रवृत्तियों से प्रभावित रहा। इस काल में परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन बनाते हुए कलाकारों और स्थापत्यविदों ने नए प्रयोग किए। ==== 4.1 उपनिवेशकालीन प्रभाव और आरंभिक पुनर्जागरण ==== ब्रिटिश शासनकाल में भारत की पारंपरिक कलाओं को औपनिवेशिक दृष्टिकोण से देखा गया। यूरोपीय यथार्थवाद, परिप्रेक्ष्य तकनीक, और ऑइल पेंटिंग जैसी विधियाँ भारतीय कला शिक्षण में शामिल हुईं। इस काल में कला संस्थाओं की स्थापना हुई, जैसे कि 'सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स', बॉम्बे। राजा रवि वर्मा जैसे कलाकारों ने भारतीय विषयों को यूरोपीय शैली में चित्रित कर एक नई दृष्टि प्रस्तुत की। ==== 4.2 बंगाल स्कूल और स्वदेशी कला आंदोलन ==== 20वीं शताब्दी की शुरुआत में अवनींद्रनाथ ठाकुर, नंदलाल बोस और उनके सहयोगियों ने बंगाल स्कूल की स्थापना की। इस आंदोलन का उद्देश्य पश्चिमी प्रभाव से मुक्त होकर भारतीय परंपराओं, मिथकों और लोककलाओं को पुनर्जीवित करना था। यह कला आंदोलन स्वतंत्रता संग्राम से भी जुड़ा रहा और भारतीय आत्मा की अभिव्यक्ति का माध्यम बना। ==== 4.3 स्वतंत्रता के बाद की कला ==== स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय कलाकारों को वैश्विक मंच मिला। आधुनिकतावादी प्रवृत्तियाँ जैसे अमूर्त चित्रकला (Abstract Art), वैचारिक कला (Conceptual Art), और स्थापना कला (Installation Art) भारत में लोकप्रिय हुईं। मकबूल फिदा हुसैन, त्येब मेहता, एस.एच. रज़ा, अकबर पदमसी आदि कलाकारों ने आधुनिक भारतीय कला को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा दिलाई। ==== 4.4 समकालीन भारतीय कला ==== 21वीं सदी में भारतीय कला ने मीडिया, तकनीक और डिज़िटल माध्यमों के साथ गहरा संबंध स्थापित किया। समकालीन कलाकार सामाजिक, राजनीतिक, और पर्यावरणीय मुद्दों को अपनी कृतियों में स्थान देने लगे। वीडियो आर्ट, मल्टीमीडिया इंस्टॉलेशन, और स्ट्रीट आर्ट जैसे नए रूप लोकप्रिय हुए। महिला कलाकारों और दलित-आदिवासी कलात्मक अभिव्यक्तियों को भी नई पहचान मिली। ==== 4.5 आधुनिक स्थापत्य ==== आधुनिक भारत में स्थापत्य ने भी बड़े बदलाव देखे। प्रारंभ में ब्रिटिश औपनिवेशिक शैली में सरकारी भवन बने — जैसे विक्टोरिया टर्मिनस, बंबई। स्वतंत्रता के बाद आधुनिक भारतीय स्थापत्य का प्रमुख उदाहरण 'चंडीगढ़' है, जिसे प्रसिद्ध वास्तुविद ली कॉर्बुज़िए द्वारा डिज़ाइन किया गया। आज भारत में स्मार्ट सिटी योजना, पर्यावरण-हितैषी भवन, और सतत विकास उन्मुख वास्तुशिल्प पर ध्यान दिया जा रहा है। ==== 4.6 कला के संस्थान और संग्रहालय ==== भारत में कला के संरक्षण और प्रचार के लिए अनेक संस्थान जैसे ललित कला अकादमी, नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट, भारत भवन (भोपाल) आदि की स्थापना हुई। भारत के लगभग हर बड़े शहर में आधुनिक कला दीर्घाएँ, संग्रहालय और कलादीर्घाएँ मौजूद हैं, जो देश की समकालीन कलात्मक चेतना को दर्शाते हैं। इस प्रकार, आधुनिक भारतीय कला परंपरा और आधुनिकता, लोक और वैश्विक, आत्म और विश्व-बोध का अद्भुत समन्वय है। यह कला न केवल सौंदर्य का प्रतीक है, बल्कि सामाजिक परिवर्तन और चिंतन का माध्यम भी बन चुकी है। === 5. निष्कर्ष === भारत की कला और स्थापत्य परंपरा केवल इमारतों, चित्रों या मूर्तियों तक सीमित नहीं रही, बल्कि वह भारत की सामाजिक चेतना, धार्मिक भावना, सांस्कृतिक समरसता और ऐतिहासिक विरासत की संवाहक रही है। इस अध्याय में हमने देखा कि कैसे प्राचीन गुफाओं से लेकर आधुनिक संग्रहालयों तक भारतीय कला का रूप और भाव निरंतर विकसित होता रहा है। प्राचीन काल में जहाँ गुफा चित्रों और मंदिर स्थापत्य ने धार्मिकता और प्रतीकात्मकता को मूर्त रूप दिया, वहीं शास्त्रीय युग में शिल्प, संगीत, नृत्य, चित्रकला और वास्तुकला का सुव्यवस्थित विकास हुआ। मध्यकाल में इस्लामी प्रभावों ने स्थापत्य की संरचनाओं को नया आकार दिया, जिसमें गुम्बद, मीनारें, जालियाँ और बाग़ निर्माण की शैली उभरी। इस युग में हिन्दू, इस्लामी और क्षेत्रीय शैलियों का समन्वय स्पष्ट रूप से स्थापत्य में देखा जा सकता है। आधुनिक युग में जहाँ उपनिवेशवाद ने यूरोपीय प्रभाव डाले, वहीं स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कला एक सांस्कृतिक हथियार बनी। बंगाल स्कूल जैसे आंदोलनों ने भारतीयता को पुनः स्थापित किया। स्वतंत्रता के बाद भारत में समकालीन कला, स्थापत्य और डिज़िटल अभिव्यक्तियों के माध्यम से कलाकारों ने नवाचार किए। कला और स्थापत्य का सामाजिक पक्ष भी उतना ही महत्वपूर्ण रहा है — चाहे वह धार्मिक स्थलों की एकजुटता हो, राष्ट्रीय स्मारकों के रूप में प्रेरणा देना हो, या पर्यावरण-संवेदनशील भवन निर्माण। अतः यह निष्कर्ष निकालना उचित होगा कि भारतीय कला और स्थापत्य न केवल एक ऐतिहासिक संपदा हैं, बल्कि वे वर्तमान और भविष्य के सांस्कृतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय विमर्श का अभिन्न हिस्सा हैं। इसके अध्ययन से हम न केवल भारत के अतीत को समझते हैं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी सांस्कृतिक आत्मबोध की दिशा में प्रेरित करते हैं। == श्रेणियाँ == [[Category:भारत का सांस्कृतिक इतिहास]] [[Category:भारतीय कला]] [[Category:भारतीय स्थापत्य]] [[Category:हिन्दी विकिबुक परियोजना]] obw0ortilp96apa7g1q0ogrmrdmuzo6