विकिपुस्तक hiwikibooks https://hi.wikibooks.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%96%E0%A4%AA%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A0 MediaWiki 1.45.0-wmf.5 first-letter मीडिया विशेष वार्ता सदस्य सदस्य वार्ता विकिपुस्तक विकिपुस्तक वार्ता चित्र चित्र वार्ता मीडियाविकि मीडियाविकि वार्ता साँचा साँचा वार्ता सहायता सहायता वार्ता श्रेणी श्रेणी वार्ता रसोई रसोई वार्ता विषय विषय चर्चा TimedText TimedText talk मॉड्यूल मॉड्यूल वार्ता भाषा और आधुनिकता 0 11414 82606 2025-06-17T07:11:48Z VIKRAM47 16004 भाषा और आधुनिकता का एक नया लेख जोड़ा हैं | 82606 wikitext text/x-wiki ==लेखक== प्रोफेसर जी सुंदर रेड्डी का जन्म 1919 ई0 में [https://hi.wikipedia.org/wiki/आन्ध्र_प्रदेश आन्ध्र प्रदेश] के बेल्लूर जनपद के बत्तुलपल्ली नामक ग्राम में हुआ था| वे '''''श्रेष्ठ'' ''विचारक'', ''समालोचक'' ''एवं'' ''निबंधकार''''' हैं| इनका व्यक्तित्व और कृतित्व अत्यंत प्रभावशाली है| कई वर्षों यह ये '''आंध्र प्रदेश विश्व विद्यालय''' के हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे है| ये वहां के स्नातकोत्तर अध्ययन एवं अनुसंधान विभाग के अध्यक्ष एवं अनुसंधान विभाग के अध्यक्ष एवं प्रोफेसर भी रहे है| इनके निर्देशन में हिंदी और तेलुगु साहित्य के विविध प्रश्नों के तुलनात्मक अध्ययन पर शोध कार्य भी हुआ है इनका निधन 2005 ई0 में हो गया| ==निबंध== किसी क्षेत्र में रमणीयता लाने के लिए नित्य नूतनता की आवश्यकता होती है, इसी को दृष्टि के रखकर ही माघ ने कहा होगा : '''''''क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः ''''''' '''अर्थ-''' जो क्षण क्षण में नवीनता को प्राप्त हो, वही तो रमणीयता है अर्थात सुंदरता है <ref>[https://in.pinterest.com/pin/760967668286123953/ संस्कृत का अर्थ हिंदी में ], </ref> <big>रमणीयता और नित्य नूतनत अन्योन्यश्रित है, रमणीयता के अभाव में कोई भी चीज मान्य नहीं होती| नित्य नूतनता किसी भी सर्जक की मौलिक उपलब्धि की प्रामाणिकता सूचित करती हैं | और उसकी अनुपस्थिति में कोई चीज वस्तुत: जनता व समाज के द्वारा स्वीकार्य नहीं होती| सड़ी-गली मान्यताओं से जकड़ा हुआ समाज जैसे आगे बढ़ नहीं पाता, वैसे ही पुरानी रीतियों और शैलियों की परम्परागत लीक पर चलने वाली भाषा भी जन-चेतना को गति देने में प्राय: असमर्थ ही रह जाती हैं भाषा समूची युग-चेतना की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है और इसी सशक्तता वह तभी अर्जित कर सकती हैं, जब वह अपने युगानुकुल सही मुहावरों को ग्रहण कर सके |<ref>[https://up-board.vertexal.in/bhasha-aur-aadhunikta-class-12// भाषा और आधुनिकता कक्षा 12 गद्य पाठ 4],</ref> भाषा सामाजिक भाव-प्रकटीकरण की सुबोधता के लिए ही उच्छिष्ट है, इसके अतिरिक्त उसकी जरूरत ही सोची नहीं जाती | इस उपयोगिता की सार्थकता सम-सामयिक सामाजिक चेतना में प्राप्त(द्रष्टव्य) अनेक प्रकारों की संश्लिष्टताओं की दुरूहता का परिहार करने में ही निहित है | कभी-कभी अन्य संस्कृतियों के प्रभाव से और अन्य जातियों के संसर्ग से भाषा में नए शब्दों का प्रवेश होता है और इन शब्दों के सही पर्यायवाची शब्द अपनी भाषा में न प्राप्त हो तो उन्हें वैसे ही अपनी भाषा में स्वीकार करने में किसी भाषा-भाषी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए | यही भाषा की आधुनिकता होती है | भाषा की सजीवता इस नवीनता को पूर्णतः आत्मसात् करने पर ही निर्भर करती है | भाषा 'म्यूजियम' की वस्तु नहीं हैं, उसकी स्वत: सिद्ध एक सहज गति है, जो सदैव नित्य नूतनता को ग्रहण कर चलनेवाली है | भाषा स्वयं संस्कृति का एक अटूट अंग है | संस्कृति परंपरा से निःसृत होने पर भी, परिवर्तनशील और गतिशील है | उसकी गति विग्रह की प्रगति के साथ जोड़ी जाती हैं | वैज्ञानिक आविष्कारों के प्रभाव के प्रभाव के कारण उद्भूत नयी सांस्कृतिक हलचलों को शाब्दिक रूप देने के लिए भाषा के परंपरागत प्रयोग पर्याप्त नहीं हैं | इसके लिए नए प्रयोगों की, नई भाव-योजनाओं को व्यक्त करने के लिए न्यायेशवादों की खोज की महती आवश्यकता है | <ref>[https://up-board.vertexal.in/bhasha-aur-aadhunikta-class-12// भाषा और आधुनिकता कक्षा 12] </ref> अब प्रश्न यह है कि भाषा में ये परिवर्तन कैसे संभव हैं? यत्नसाध्य अथवा सहजसिद्ध? यत्नसाध्य से हमारा तात्पर्य यह है कि भाषा को युगानुकूल बनाने के पीछे किसी व्यक्ति-विशेष अथवा व्यक्ति-समूह का प्रयत्न होना ही चाहिए। सहजसिद्ध से आशय इतना ही है कि भाषा की यह गति स्वाभाविक होने के कारण यह किसी प्रयत्न-विशेष की अपेक्षा नहीं रखती है। यदि उपलब्ध भाषण वैज्ञानिक आधारों का पर्याप्त अनुशीलन करें, तो पहली बात ही सत्य सिद्ध होगी। अठारहवीं शती में अंग्रेजी भाषा ने और बीसवी शती में जापानी भाषा ने इस नवीनीकरण की पद्धति को अपनी कोशिशों से सम्पन्न बनाया। हर भाषा की अपनी खास प्रवृत्ति होती है. शब्द-निर्माण तथा अर्थग्रहण की दिशा में उसका अपना अलग रुख होता है। उस विशेष प्रवृत्ति के रुख को ध्यान में रखकर ही, बिना उस भाषा की मूल आत्मा को विकृत बनाये हम अन्य भाषागत शब्दों को स्वीकार कर सकते हैं, चंद रूपगत परिवर्तनों के साथ। यह काम एशिया और अफ्रीका जैसे वैज्ञानिक साहित्य-सृजन की दिशा में पिछड़े हुए देशों में और भी सत्वर होना चाहिए और इसकी अत्यन्त आवश्यकता है। भाषा की साधारण इकाई शब्द है, शब्द के अभाव में भाषा का अस्तित्त्व ही दुरूह है। यदि भाषा में विकसनशीलता शुरू होती है तो शब्दों के स्तर पर ही। दैनंदिन सामाजिक व्यवहारों में हम कई ऐसे नवीन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, जो अंग्रेजी, अरबी, फारसी आदि विदेशी भाषाओं से उधार लिये गये हैं। वैसे ही नये शब्दों का गठन भी अनजाने में अनायास ही होता है। ये शब्द अर्थात् उन विदेशी भाषाओं से सीधे अविकृत ढंग से उधार लिये गये शब्द, भले ही कामचलाऊ माध्यम से प्रयुक्त हों, साहित्यिक दायरे में कदापि ग्रहणीय नहीं। यदि ग्रहण करना पड़े तो उन्हें भाषा की मूल प्रकृति के अनुरूप साहित्यिक शुद्धता प्रदान करनी पड़ती है। यहाँ प्रयत्न की आवश्यकता प्रतीत होती है।<ref>[https://eknazarpro.com/intermediate/bhash-aur-adhunikta/5278// एक नजर इंटरमीडिएट के पाठ भाषा और आधुनिकता ]</ref> और एक प्रश्न यह है कि कौन इस साहित्यिक शुद्धीकरण का जिम्मा अपने ऊपर ले सकते हैं? हिन्दी भाषा के नवीनीकरण (शुद्धीकरण) के लिए भारत सरकार ने अब तक काफी प्रयत्न किया है। इसके लिए सन् 1950 में शास्त्रीय एवं तकनीकी शब्दावली आयोग की स्थापना की गयी, जो विज्ञान की हर शाखा के लिए योग्य शब्दावली का निर्माण कर रही है। हिन्दी साहित्य सम्मेलन जैसी ऐच्छिक संस्थाओं ने भी इस दिशा में कुछ महत्त्वपूर्ण काम किया। राहुल सांकृत्यायन और डॉ० रघुवीर जैसे मूर्धन्य मनीषियों ने भी इस काम को पहले-पहल अपनी अभिरुचि के कारण अपने ऊपर लेकर, गतिशील बनाने की कोशिश की। अब तक इस दिशा में जो कुछ भी कार्य हुआ है, वह अपर्याप्त ही है। क्योंकि यह कार्य अपनी शैशवकालीन दशा से गुजरकर आगे बढ़ नहीं सकी। इसकी प्रगति के अवरोध में दो वर्ग बाधा डालते हैं। प्रणाम वह वर्ग, जो अपनी शुद्ध साहित्यिक कृष्टि के कारण आम प्रचलित उन पराये शब्दों को ययावत् ग्रहण करने में संकोच करता है। दूसरा वह वर्ग, जो अपने विषय के पारंगत होने पर भी साहित्यिक व भाषा वैज्ञानिक पृष्ठभूमि के अभाव में उन प्रयुक्त विदेशी शब्दों को मनमाने ढंग से विकृत कर अपनी मातृभाषा में बोपना चाहता है- आजकल कई प्रादेशिक सरकारों ने अपनी प्रांतीय भाषाओं में उच्च स्तरीय पाठ्य-पुस्तकों के निर्माण के लिए कई आयोगों की स्थापना की है। हम आशा करते हैं कि वे आयोग उपर्युक्त उन बाचित तत्त्वों से हटकर अपना काम सुचारु बना सकेंगे। विदेशी शब्द, जिन्हें अपनी प्रांतीय भाषाओं में ग्रहण करने की आवश्यकता है। खासतौर पर दो तरह के होते हैं- 1. वस्तुसूचक, 2. भावसूचक। विज्ञान की प्रगति के कारण नयी चीजों का निरंतर आविष्कार होता रहता है। जब कभी नया आविष्कार होता है, उसे एक नयी संज्ञा दी जाती है। जिस देश में उसकी सृष्टि की जाती है वह देश उस आविष्कार के नामकरण के लिए नया शब्द बताता है। वही शब्द प्रायः अन्य देशों में बिना परिवर्तन के वैसे ही प्रयुक्त किया जाता है। यदि हर देश उस चीज के लिए अपना-अपना नाम देता रहेगा तो उस चीज को समझने में ही दिक्कत होगी। जैसे रेडियो, टेलीविजन, स्यूतनिक। प्रायः सभी भाषाओं में इनके लिए एक केही शब्द प्रयुक्त है। और एक उदाहरण देखिए। 'सीढ़ी लगाना'। ऊपर चढ़ने के लिए अनादि काल से भारत में एक ही साधन मौजूद था- 'सीकी'। औद्योगिक क्रांति आदि ने आवश्यकता के अनुसार और भी कई तरह की सीढ़ियों का निर्माण किया, जैसे लिफ्ट, एलिवेटर, एस्कलेटर आदि। भारतीयों के लिए ये बिल्कुल नये शब्द हैं और इसलिए भारतीय भाषाओं में इसके लिए अलग-अलग नाम द्रष्टव्य नहीं होते। इस स्थिति में उन शब्दों को यथावत् ग्रहण करने में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। फ्रेंच और लैटिन भाषाओं से अंग्रेजी ने ऐसे ही कई शब्दों को आत्मसात् कर लिया और अंग्रेजी से रूसी ने। कभी-कभी एक ही भाव के होते हुए भी उसके द्वारा ही उसके और अन्य पहलू अथवा स्तर साफ व्यक्त नहीं होते। उस स्थिति में अपनी भाषा में ही उपस्थित विभिन्न पर्यायवाची शब्दों का सूक्ष्म भेदों के साथ प्रयोग करना पड़ता है। जैसे उष्मा एक भाव - है। जब किसी वस्तु की उष्णता के बारे में कहना हो तो हम 'ऊष्मा' कहते हैं और परिणाम के सन्दर्भ में उसी को हम 'ताप' कहते हैं। वस्तुतः अपनी मूल भाषा में उष्ण, ऊष्मा, ताप- इनमें उतना अंतर नहीं, जितना अब समझा जाता है। पहले अभ्यास की कमी = के कारण जो शब्द कुछ कटु या विपरीत से प्रतीत हो सकते हैं, वे ही कालांतर में मामूली शब्द बनकर सर्वप्रचलित होते हैं।' नवीनीकरण कित कितना ही प्रशस्त कार्य क्यों न हुआ हो, उस प्रक्रिया में यह भूलना नहीं चाहिए कि भाषा का मुख्य कार्य सुस्पष्ट अभिव्यक्ति है। यदि सुस्पष्टता एवं निर्दिष्टता से कोई भी भाषा वंचित रहे तो वह भाषा चिरकाल तक जीवित नहीं रह सकेगी। नये शब्दों के निर्माण में भी यही बात सोचनी चाहिए। इस सन्दर्भ में यह भी याद रखना चाहिए कि हम पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर उस शब्द की मूल आत्मा तथा सार्थकता पर उन्मुक्त विचार कर सकें। अंग्रेजी भाषा शासकों की भाषा रही और भाव-दासता की निशानी है-ऐसा सोचकर यदि हम नये शब्दों का निर्माण करने में लग जायें तो नुकसान हमारा ही होगा, अंग्रेजों का नहीं। उर्दू में प्रयुक्त अरबी और फारसी के शब्दों को जो इस्लाम धर्म को ज्ञापित करनेवाले हैं, हिन्दीवाले त्यागना आरम्भ करें तो हिन्दी-भाषा सहज भाषा न रहकर एकदम बनावटी बनेगी। यदि यह नवीनीकरण सिर्फ कुछ पंडितों की व आचार्यों की दिमागी कसरत ही बनी रहे तो भाषा गतिशील नहीं होती। भाषा का सीधा संबंध प्रयोग से है और जनता से है। यदि नये शब्द अपने उद्गम स्थान में ही अड़े रहे और कहीं भी उनका प्रयोग किया नहीं जाय तो उसके पीछे के उद्देश्य पर ही कुठाराघात होगा। इसके लिए यूरोपीय देशों में प्रेषक के कई माध्यम हैं: श्रव्य-दृश्य विधान, वैज्ञानिक कथा-साहित्य आदि। हमारी भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक कथा-साहित्य प्रायः नहीं के बराबर है। किसी भी नये विधान की सफलता अंततः जनता की सम्मति व असम्मति के आधार पर निर्भर करती है और जनता में इस चेतना को उजागर करने का उत्तरदायित्व शिक्षित समुदाय एवं सरकार का होना चाहिए। भाषा में आधुनिकता लाने के लिए व्यावहारिक भाषा के स्वरूप का मानकीकरण करने के साथ-साथ लिपि संबंधी सुधार भी आवश्यक है। भाषा के प्रयोग और उपयोग के साथ इन समस्याओं का समाधान जुड़ा हुआ है। संक्षेप में, नये शब्द, नये मुहावरे एवं नयी रीतियों के प्रयोगों से युक्त भाषा को व्यावहारिकता प्रदान करना ही भाषा में आधुनिकता लाना है। दूसरे शब्दों में केवल आधुनिक युगीन विचारधाराओं के अनुरूप नये शब्दों के गढ़ने मात्र से ही भाषा का विकास नहीं होता वरन् नये पारिभाषिक शब्दों को एवं नूतन शैली-प्रणालियों को व्यवहार में लाना ही भाषा को आधुनिकता प्रदान करना है। क्योंकि व्यावहारिकता ही भाषा का प्राण-तत्त्व है। नये शब्द और नये प्रयोगों का पाठ्य-पुस्तकों से लेकर साहित्यिक पुस्तकों तक एवं शिक्षित व्यक्तियों से लेकर अशिक्षित व्यक्तियों तक के सभी कार्यकलापों में प्रयुक्त होना आवश्यक है। इस तरह हम अपनी भाषा को अपने जीवन की सभी आवश्यकताओं के लिए जब प्रयुक्त कर सकेंगे तब भाषा में अपने-आप आधुनिकता आ जायेगी। ''' --- प्रो0 जी0 सुंदर रेड्डी </big><big></big> == संदर्भ == <references /> == बाहरी कड़ियां == [https://hi.wikipedia.org/wiki/सदस्य:VIKRAM47/प्रयोगपृष्ठ प्रोफेसर गुंडवरप्पु सुंदर रेड्डी का जीवन परिचय] (विकिपीडिया) pge3vgyarxzuw417m443q94xyh6zqt8