विकिपुस्तक
hiwikibooks
https://hi.wikibooks.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%96%E0%A4%AA%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A0
MediaWiki 1.45.0-wmf.7
first-letter
मीडिया
विशेष
वार्ता
सदस्य
सदस्य वार्ता
विकिपुस्तक
विकिपुस्तक वार्ता
चित्र
चित्र वार्ता
मीडियाविकि
मीडियाविकि वार्ता
साँचा
साँचा वार्ता
सहायता
सहायता वार्ता
श्रेणी
श्रेणी वार्ता
रसोई
रसोई वार्ता
विषय
विषय चर्चा
TimedText
TimedText talk
मॉड्यूल
मॉड्यूल वार्ता
हिंदी कथा साहित्य/रामनाथ शिवेंद्र का उपन्यास "पट्टाचरित"
0
11415
82633
82609
2025-06-30T15:33:33Z
CommonsDelinker
34
Removing [[:c:File:Pattacharit_Novel.jpg|Pattacharit_Novel.jpg]], it has been deleted from Commons by [[:c:User:Krd|Krd]] because: No permission since 21 June 2025.
82633
wikitext
text/x-wiki
[[File:2025Rnathshivedra46.jpg|thumb|in a seminar]]
पट्टाचरित
उपन्यास
रामनाथ शिवेन्द्र
मनीष पब्लिकेशन्स
A block471/10 Part-2
Sonia Bihar Dilly
Email..manishpublications@gmail.com
दिल्ली-110090
ISBN : 978-93-81435-06-9
© रामनाथ शिवेन्द्र
Pattacharit ...Novel
By. RAM NATH SHIVENDRA
अपनी बात
पट्टा चरित उपन्यास के बारे में कुछ कहना, न कहना दोनों बराबर है। उपन्यास खुद आपसे संवाद करेगा, संवाद ही नहीं प्रतिवाद भी करेगा तथा अपने सृजन के बारे में बाजिब बयान भी देगा तथा बताएगा कि मौजूदा शदी में भी इस उपन्यास की जरूरत क्या है? वैसे यह बता देना लेखकीय औचित्य है कि इसकी कथा आठवें दशक में ही उपन्यास का रूप धर कर ‘सहपुरवा’ उपन्यास के नाम से मेरे मित्रों के सहयोग से प्रकाशित हो चुकी थी। वह मेरा पहला औपन्यासिक प्रयास था। इसमें पात्रों के संवाद की भाषा हिन्दी तथा भोजपुरी बलिया, गोरखपुर, आजमगढ़, जौनपुर वाली नहीं थी बल्कि ठेठ बनारसी या बिजयगढ़िया थी। संवाद के अलावा सारा कुछ खड़ी बोली में था।
तो कथा पुरानी है आपात काल के आस पास की। सवाल है कि पुरानी कथा को फिर से क्यों? आठवें दशक से लेकर अब तक के गॉवों की जॉच पड़ताल कर लीजिए और एक झटके से आपात काल को फलांग कर इक्कीसवीं शताब्दी में घुस आइए फिर देखिए कि क्या गॉव बदल गये? गॉवों की संस्कृति बदल गई? और गॉव ऐसे हो गये कि बिना संकोच ‘अहा ग्राम्य’ कहा जा सके, हॉ गॉवों से पोखर गायब हो गये, पनघट गायब हो गये, आजादी मिलते ही किसिम किसिम के विस्थापित पैदा हो गये, कुछ कारखानों के निर्माण के कारण, कुछ सड़कांे, नहरों के निर्माण के कारण तो अधिकांश वन प्रबंधन की दादागिरी और वनअधिनियम की धारा 4 तथा 20 के कारण। तो गॉवों में अब जो निवसित हैं वे या तो विस्थापित हैं या ऐसे है जो शहर में कहीं खप नहीं सकते।
होमगार्ड से लेकर स्कूल के मास्टर तक, चपरासी से लेकर बड़े ओहदे तक का पदाधिकारी बना कर तन बल तथा वुष्द्वि बल वाले व्यक्ति को गॉवों से छीन लिया गया है, कोशिश की गई है और की जा रही है कि वे गॉव में रहने न पाये, उन्हें किसी भी तरह से सत्ता प्रबंधन से जोड़ लिया जाये। वही हुआ। आज के समय में गॉव में वही बचे हुए है जिनके पास जीवन जीने के लिए कहीं कोई ठौर नहीं तथा वे चौदह दिन की हवालात की योग्यता वाले हैं। इनसे गॉव तो नहीं बचेगा।
इस उपन्यास का केन्द्रीय विषय है भूमिहीन गरीबों को भूमि आवंटन। आपात काल
के दौरान कांग्रेस का यह प्रशंसनीय अभियान था जिसे बाद में किसी ने लागू
नहीं करवाया।अभियान तो ठीक था पर जो तत्कालीन सामंत थे उनके लिए यह अभियान महज राजनीतिक खेल था। प्रस्तुत उपन्यास में सवालों दर सवालों से गुंथी वही कहानी दुहराइ गई है कि आजादी के बाद कितनी आजादी मिली लोगों को, सन्दर्भ आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक या राजनीतिक किसी भी तरह का हो। एक भूमिहीन व्यक्ति गॉव में कैसे निवसे, किस तरह से रहे? रहे तो किस किस को सलाम करे यह सवाल जैसे पहले था वैसे आज भी है।
यह तो नहीं कहा जा सकता कि गॉव नहीं बदले, गॉव बदले हैं पर गरीबी का प्रतिशत जिन जिन क्षेत्रों में जैसे पहले था वैसे ही आज भी है। इसी लिए कहा जाना चाहिए कि गरीबी पूॅजीवादी सत्ता प्रबंधन का आर्थिक उत्पादन है और आज तो गरीबीे उत्पादन में वृद्धि हो चुकी है। आखिर किसे पड़ी जो जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी इस पर गुने जाहिर है कि गरीबी पूॅजीवादी सत्ता प्रबंधन की रहस्यमय आर्थिक प्रक्रिया है गरीबी रहेगी तभी तो अमीरी रहेगी। हॉ गरीबी की उग्र भूख गरीबों में पैदा न होने पाये इसके समाधान के लिए पूॅजीवादी सत्ता प्रबंधन सभी को भोजन का अधिकार, सभी को शिक्षा का अधिकार, सभी को बुनियादी आय तथा कुछ मामलों में सब्सिडी जैसी रियायतें प्रदान किया करती है जिससे सरकार की छवि लोकतांत्रिक बनी रह सके। पर इससे क्या होगा?
होगा तो तब जब यह पता लगाया जाये कि महज दस फीसदी लोग देश की समस्त कुदरती संपदा पर काबिज कैसे हैं, कौन कौन से कानून है जो उन्हें अमीर बनाते हैं। हमारे कानूनों में कहॉ कहॉ दरारे है जिनमें से इस कथा के रामभरोस जैसे लोग सभी की छाती पर कोदो दरकर उग जाया करते हैं जिनके दमन से फेकुआ, सुमिरनी, औतार, जोखू तथा बिफना को गॉव से भागने के लिए विवश होना पड़ता है। प्रस्तुत उपन्यास का यही आशय है कि हम पता लगा सकें कानूनी दरारों को जिनसे होेते हुए दमन हमारे ग्राम्य संस्कृति तथा जीवन को लील रहा है। चिमनियॉ चाहे जितनी उग जॉये पर गॉव की हरियाली तथा पनघट की मोहकता नहीं पैदा कर सकतीं। जीवन तो गॉवों में है क्योंकि वहॉ अनाज के दाने हैं, दानों पर मन के संगीत लिपे पुते हैं, उसे मन के राग संवारते हैं पोंछते है, बीनते हैं। आइए गॉव बचायें गॉव के लिए कुछ करें। आशा है प्रस्तुत उपन्यास पाठकों की कुदरती प्रतिक्रियाओं को हकदार बनेगा। इसी आशा में....
रावर्ट्सगंज,सोनभद्र 2019
----------------------------------------------------------
‘जुबान काट दी जांए, संप्रभुतांए
छीन ली जांए फिर भी कथाएं नहीं मरतीं
आइए कथा के साथ चलें कुछ दूर ही सही, पर चलें’
‘का रे! बिफना रापटगंज में कवि सम्मेलन है, चलना है कि नाहीं, चलो बुड़बक! हमहूं चलेंगे। बुल्लू के बिरहवा में परसाल बहुत मजा आया था। कवि सम्मेलन में तो और भी मजा आएगा।’
‘का सोच रहे हो यार! बोलते काहे नाहीं, कुछ तो बोलो’
हल जोतते हुए फेकुआ ने बिफना से पूछा। उसके साथ बिफना भी हल जोत रहा था। हल जोतते हुए बिफना कैसे बोले। हल जोतना और बतियाना दोनों संभव नहीं। उसने हल हांकना बन्द कर दिया और मेड़ की तरफ बैलों की जोड़ी खड़ा कर बैलों को सहेजा..
‘होर्र होर्र... यानि रुक जाओ, यहीं खड़े रहो। बैल भी किसी आज्ञाकारी की तरह खेत के एक किनारे खड़े हो गये जहां फेकुआ ने हल चलाना बन्द कर दिया था।
‘संघी लोग अइसहीं खड़ा रहो, कहीं भागना नहीं’
हल में नधे बैलों को उसने दुबारा सहेजा और जेब से सुर्ती, चूना निकाल उसे मलने लगा। सुर्ती मलते हुए उसने बिफना से पूछा....
‘हां रे बिफना! परउ साल तऽ कवि सम्मेलन भया था रापटगंज में। जोखुआ बता रहा था कि बहुत मजा आया था। चलो ए साल हमहूं चलेंगे, तूं भी चलेगा नऽ।’
तीन चार बार सुर्ती ठोंक ठाक कर बिफना ने सुर्ती वाली हाथ की गदोरी फेकुआ की तरफ बढ़ा दिया। बिफना की गदोरी में से फेकुआ सुर्ती निकाल ही रहा था कि गॉव के जाने माने मुखिया रामभरोस वहीं आ गये। रामभरोस खेतों की निगरानी के लिए निकले थे। काम की निगरानी करने के लिए वे अक्सर शाम को खेत की तरफ निकल जाते हैं।
सुर्ती मुंह में डाल कर फेकुआ ने रामभरोस से पूछा, वह उन्हें चिढ़ाना चाहता था। अब पहिले वाला जमाना नाहीं है कि मजूरों को हंका दिया और काम शुरू, चाहे जोतनी हो, लवनी या कुछ भी।
‘सरकार! आप की जोतनी नाहीं हो रही है का?’
‘नाहीं रे! आज काम बन्द है, साले एक भी काम पर नहीं आए, सब बउराय गये हैं। गांड़ मोटा गई है सालों की। सालों को इनिरा ने पट्टा का दिला दिया कि सभी का दिमाग सिकहरे चढ़ि गया है। जब देखो साले काम बन्द कर देते हैं। कातिक का महीना है और हमारी जोतनी बन्द है। खेतवा उखड़ जाएगा तब का होगा? राड़ कूटने तथा चाम पीटने पर ही ठीक रहते हैं। ठीक रखने के लिए पीटना दोनों को पड़ता है। राड़ को भी तथा चाम को भी।’
रामभरोस ने बिफना व फेकुआ को ही नहीं पूरी हरिजन बिरादरी को उलाहा। जैसे पूरी बिरादरी ही हरामी हो। रामभरोस जैसे सामंत हरिजनों को हरामी मानते भी हैं, उनकी सभ्यता ने उन्हें इसी निरर्थक सोच से गढ़ा हुआ है।
सोनभद्र में बहुत पहले से ही हल जोतने का काम हरिजन किया करते हैं। उनकी आबादी भी सोनभद्र में उल्ल्ेखनीय है। वैसे दलितों में कोल, धांगर चेरो आदि जैसी अन्य दलित जातियां भी सोनभद्र में बसती हैं जो हल जोतने का काम पारंपरिक रूप से करती चली आ रही हैं। पर हल जोतने वालों में हरिजन ही प्रमुख हैं। एक तरह से हल जोतने के काम में वंशवाद, पहले बाप हल जोतता था, फिर बेटा और बेटे के बाद बेटा। सवर्ण लोग हल जोतने के काम को वंश्षवादी रोग नहीं मानते हैं। राजाओं के वंश्षवाद को लोकतांत्रिक सभ्यता ने प्रमाणित कर उसे खतम भी कर दिया है। अब कोई राजा का बेटा राजा नहीं रह गया है पर मजूरों में चल रहे वंश्षवाद को सायास बचाए रखा गया है।
मजूर का बेटा मजूरी नहीं करेगा तो क्या कलक्टर बनेगा? आज के समय का मजूर एक जाति में बदल चुका है, जैसे बाभन का बेटा बाभन, बनिया का बेटा बनिया, ठाकुर का बेटा ठाकुर, वैसे ही मजूर का बेटा मजूर। मजूर बनने तथा बनते जाने की विवशता पर कोई नहीं सोच रहा बल्कि लोग तो मजूरी की परंपरांए बचाए रखने के बारे में ही किसिम किसिम के नारे लगा रहे हैं।
यह जो हल जोतने की वंश परंपरा है राजाओं व जमीनदारों की वंश परंपरा से मिलती जुलती है। राजपरंपरा को तोड़ दिया गया ताकि जो खानदानी राजा नहीं हैं वे लोकतंत्रा के राजा बन सकें। पर हलवाही की वंशपरंपरा को कौन तोड़ेगा, शायद कभी टूटेगा भी नहीं अगर इस परंपरा को तोड़ दिया गया फिर मजूरी कौन करेगा? संसद में बैठने वाले हों या कारखाने चलाने वाले हों सभी को खाना बनाने वाला रसोइयां, कार चलाने वाला ड्राइबर, महलों में टहल करने वाला मजूर तो चाहिए ही चाहिए। मालिकों का हर हाल में मजूरों के मजबूत हाथ चाहिए और उनकी देह भी।
फेकुआ की अपनी बिरादरी हल जोतने वालों की थी। उसके बपई हल जोतते थे तो उसके दादा भी हल जोतते थे। लोग बताते हैं कि उसके दादा हल जोतने में माहिर थे। एक से एक नखनहा बैलों को जूए में वे नाध लिया करते थे। उनके पास नखनहा बैलों को ठीक कराने के लिए लोग आया करते थे। दो चार दिन वे नखनहा बैलों को हल में नाध कर जोतते थे फिर बैल अपने आप ठीक हो जाया करते थे और आज्ञाकारी की तरह हल में चलने लगते थे। पता नहीं कैसा जादू था उनके पैने में और डांट में। जहां तक उसे मालूम है हल जोतने का काम उसके घर में ही नहीं नाते-रिश्ष्तों में भी चलता रहा है। और आज भी चल रहा है।
अपनी बिरादरी के बारे में रामभरोस की अपमानजनक बातें सुन कर फेकुआ को बुरा लगा। पर वह कर ही क्या सकता था रामभरोस का। हालांकि उसे पता था कि मजूर जनम से मजूर नहीं होते। मजूरों के पास खेती के लिए खेत नहीं है, कोई दूसरा काम उन्हें आता नहीं है, फिर वे का करेंगे हल जोतने के अलावा। भूख की आग बुझाने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही होगा। फैकुआ समझने लगा है कि मजूर जनम से मजूर नहीं होते। उन्हें मजूर बनाया जाता है। उसने रामभरोस की बात में बात जोड़ा...कृकृ
‘हां सरकार! आप सही बोल रहे हैं। ई हरिजन, हरिजनै रहि जांएगे, ई बिरादरियय अइसन है, अपनै हथवैं हरवा काहे नाही जोत लेते सरकार! फिर लतियाइए हरिजनों को। बनी मजूरी भी बच जाएगी। एक बात बोलैं सरकार! आपन काम अपने हाथय करना भी चाहिए, गलत तो नाहीं बोल रहे सरकार।’
‘यह साला मजूर हमें समझाय रहा है’ रामभरोस सोच में पड़ गये
रामभरोस को फेंकुआ की बातें बुरी लगीं। लगतीं भी क्यों नहीं, मजूर होते काहे के लिए हैं? मजूरी करने के लिए ही तो होते हैं।’
फेकुआ की बातें रामभरोस काहे सह पाते? हालांकि फेकुआ ने कुछ गलत नहीं कहा था। तमाम सुभाषितों की बातें भी तो यही हैं कि आदमी को अपना काम खुद करना चाहिए पर रामभरोस तो रामभरोस थे अपना काम भी करने की संस्कृति से अलग। अपना काम भी करना उनके लिए शर्मनाक बीमारी की तरह लगता है। अपना काम करेंगे तो उनकी इज्जत भहरा जाएगी। उनकी बखरी पर हर काम के लिए अलग अलग नौकर हैं। कोई पानी पिलाने वाला है तो, कोई गाय, भैंस चराने वाला है तो कोई ट्रेक्टर चलाने वाला है। बखरी के भीतर भी किसिम किसिम की नोकरानियां हैं। बर्तन साफ करने वाली अलग, तेल मालिश करने वाली अलग, मलिकिनों की टहल करने वाली अलग। रामभरोस की बखरी नौकरों के पसीने से न नहाए तो उसकी चमक फीकी पड़ जाए। बखरियॉ तो तब चमकती हैं जब उनके भीतर मजूरों के पसीने नाचते रहते हैं बिना खाए पिए।
‘साले का मन बढ़ गया है, हमरे मुह लग रहा है’
मन में गरियाया रामभरोस ने फकुआ को। कोई दूसरी जगह होती तो रामभरोस फेकुआ को लतियाना शुरू कर देते। मजूरों को लतियाना तथा लतियाते रहना वे अपना पारंपरिक अधिकार मानते हैं पर जगह सिवान की थी। वहां रामभरोस अकेले थे, सिवान में फेकुआ को मारते तो जाने का होता। फेकुआ भी उनसे गुत्थम गुत्था हो सकता था। समय भी तो बदल रहा था। मजूरों को तमाम कानूनी अधिकार दिए जा रहे थे। रामभरोस जानते थे कि अब उनके करतब थाने की निगरानी में हैं, प्रष्शासन की ऑखें जमीनदारों पर अब तनेन भी रहने लगी हैं।
वे प्रत्यशिात डर के कारण चुप हो गए थे।
रामभरोस को पहले से ही पता था कि फेकुआ रियाज मारता है। कुश्ती लड़ता है, शरीर से गठा हुआ है। एक दो आदमी को निपटा सकता है फेकुआ। रामभरोस ने थोड़ा मुड़ कर उसका गठा हुआ शरीर देखा और सहम गये। उन्हें निराशा हुई, फेकुआ की तरह गठे हुए शरीर का एक भी लड़का उन्हें अपनी बिरादरी में नहीं दिखा। परमात्मा भी जाने का करते हैं।
‘साला जाने का खाता है? अरे! का खाता होगा, भात और ‘सिलहट’ (नमक व मिर्चा एक में बारीकी से पिसा हुआ) की तरकारी, बहुत हुआ तो नून रोटी, या नून भात, और का मिलेगा सालों को खाने के लिए फिर भी सालों की ऐसी देह।’
‘जाने का बोल गया साला! अब यही रह गया कि रामभरोस हल जोतें। उनके लड़के हल जोतें। साले ये राड़, रहकार फिर का करेंगे, गद्दी पर बैठेंगे। ठीक है, जमाना बदल रहा है पर इसका का मतलब? कउआ हंस हो जाएगा, बाघ घांस खाएगा।’
उनके मुह से वंशपरंपरा की पगलाई आवाज मन के गहरे में गूंज गई।
रामभरोस काहे हल जोतेंगे? उनके घर में काहे की कमी है। पूरा गॉव उनका है, ठीक है जमीनदारी टूट गई है पर उन्होंने आज भी तीन चार सौ बीघे जमीन कुत्तों, बिल्लियों के नाम से करवाके बचा लिया है। आलीशान बखरी है, जवान बेटा है जो बाहर के अच्छे स्कूल में पढ़ रहा है। गॉव के वे परधान हैं, कांग्रेसी हैं। बी.डी.ओ. से लेकर दारोगा तक जान पहचान है। जिले का कोई भी आला हाकिम जब भी उनके गॉव की तरफ आता है, उनकी बखरी पर नाश्ता लिए बिना मुख्यालय वापस नहीं लौटता। कौन नहीं जानता कि कलक्टर साहब भूमि आवंटन के सिलसिले में पिछले साल पूरे लहसन के साथ रामभरोस की बखरी पर पधारेे थे। उनकी जोरदार दावत हुई थी। अधिकारी भी दावत का इन्तजाम देख कर अविभूत हो गये थे।
‘और यह फेकुआ!’
रामभरोस से हल जोतने के लिए बोल रहा है। उसे नहीं पता कि रामभरोस ही ऐसे किसान हैं जिन पर सीलिंग का मुकदमा चला था। उन्हीं की पुश्तैनी जमीन पर सहपुरवा ही नहीं कई गॉव आबाद हैं। जमीनदारी न टूटी होती तो किसी गरीब को एक धूर भी जमीन नहीं मिली होती। वैसे भी कई तरह की बातें हैं जो रामभरोस को ‘सरकार’ कहलवाती हैं। ऐसा केवल परंपराओं के कारण ही नहीं तमाम अन्य कारणों से भी हैं। जैसे इलाके में सबसे अधिक धनी-मानी होना, सबसे अधिक जमीन और जोत वाला होना, अधिकारियों का उनकी बखरी पर रोज रोज की दावतें लेना, दबंग होना और हमेशा लठैतों से घिरे रहना। बात बात पर किसी को भी लतिया देना आदि आदि। यही सारी बातें रामभरोस को लोगों से ‘सरकार’ कहलवाती हैं। रामभरोस उस समय फेकुआ से कुछ बोल नहीं पाये पर उनकी भीतरी ऐंठन भी न खुले ऐसा संभव नहीं। उनकी ऐंठन खुली.... जिसेे खुलना ही था, सामंती संस्कृति को भला रामभरोस खण्ड खण्ड टूटने व विखरने कैसे देते।
‘का रे फेकुआ! आज कल ज्यादा रियाज मार रहे हो का? देख रहा हूं कि तोरे देंही पर काफी मांस चढ़ गया है चलो यह ठीक है पर, दिमाग तो नहीं खराब हुआ है नऽ, अगर दिमाग भी खराब हो चुका हो तो बताओकृ.’
अधपकी मूंछें और सुर्ख ऑखों से मिलीजुली रामभरोस की आकृति भयानक हो गईं। उनके चेहरे को सैकड़ों साल के रोब-दाब ने जकड़ लिया। फिर तो उनका चेहरा जो गब गब गोरा था लाल हो गया। एकदम से डरावना। उनका चेहरा देख कर फेकुआ फक्क रह गया। उसके देह की ऐंठन रामभरोस की एक ही घुड़की में खतम हो गई। फेकुआ को अपने कहे पर अफसोस होने लगा। फिर तो कई डरावने देखे दृश्य उसकी ऑखों में तैरने लगे।कृ
फेकुआ की ऑखें उन दृश्यों से भर गईं जब रामभरोस ने रामगढ़ अस्पताल के सामने रमदिनवा हरिजन को बुरी तरह पीटा था। वह गरीब दवा दारू भी नहीं करा पाया। घर में कुछ था ही नहीं, तीन चार दिन बाद मर गया था। दवाई कराता भी कौन, गॉव में किसी की हैसियत ही नही थी जो रामभरोस द्वारा पिटवाए गये आदमी की दवाई करवाये। रामभरोस की बखरी से भी रमदिनवा को कुछ मिलना जुलना नहीं था, बखरी नाराज तो नाराज फिर किसकी हिम्मत जो एक कदम भी आगे बढ़ कर उस बेचारे की मदत करता। बेचारा रमदिनवा तड़प तड़प कर मर गया।
रमदिनवा ही क्यों बहुत सारे लोगों को रामभरोस ने खुद मारा पीटा है, या तो अपने लठैतों से मरवाया पिटवाया है। किसी को भी मरवाने पिटवाने के लिए रामभरोस का इशारा ही काफी है।
कुछ दिन पहले की ही तो बात है। रमचेलवा के खेत का धान जबरी लवा ले गये, अपने खलिहान में दवां भी लिए। वह बेचारा हिम्मत जुटा कर थाने पर गया, उसे लगा कि थाना उसके साथ हुए अन्याय का इलाज करेगा पर थाना तो अपनी गंध पीने में मस्त था। थाने को क्या पड़ी कि वह गॉव में होने वाले कुकृत्यों का इलाज करे। ऐसा तो होता रहता है।
रमदिनवा गॉव गॉव घूमकर चिल्लाता रहा, चीखता रहा, कोई तो बचाए पर वहां बचाने वाला कौन था। सभी के माथे पर रामभरोस की लाठियॉ चिपकी हुई थीं। रामभरोस जस के तस, उनका रोआं तक टेढ़ा नहीं हुआ। किसे नहीं मालूम कि रामभरोस जब जैसा चाहते हैं कर गुजरते हैं। परधान के चुनाव में शोभनाथ पंडित उनके खिलाफ खड़े क्या हो गये कि आफत आ गई। बेचारे का घर-बार ही उजड़वा दिया रामभरोस ने। उनके भाइयों में बटवारा करा दिया। इतने से रामभरोस का जब मन नहीं ठंडा हुआ तो उन्होंने एक दिन शोभनाथ का खलिहान आग के हवाले करवा दिया। सारा अनाज जल कर भसम हो गया। पूरा गॉव तमाशा देख रहा था और शोभनाथ पडित का खलिहान जल रहा था। शायद गॉव वालों को पता नहीं था कि वे जिस तमाशे को देख रहे हैं वह तमाशा उनकी खामोशी का है। उनकी तटस्थता का है। यह तमाशा केवल शोभनाथ पंडित के घर का ही नहीं सभी के घरों का है, आज शोभनाथ का खलिहान जलवाया है तो कल किसी दूसरे का।
गॉव में कोई माई का लाल नहीं जो रामभरोस की मर्जी के खिलाफ उनके सामने ही नहीं पीठ पीछे भी बोल दे। सभी उनकी ‘जय’ ‘जय’ बोलते हैं।
रामभरोस के आतंक के दृश्ष्यों ने फेकुआ को पसीना पसीना कर दिया, वह कॉपने लगा। उसे पसीना पसीना होना ही था। वह बीसवीं शदी का आदमी था फिर भी उसे अपना मूलाधिकार हासिल करने की कला नहीं आती थी। उसे केवल इतना पता था कि राजाओं का राज खतम हो चुका है, जनता का राज आ गया है, जनता के राज में न कोई बड़ा होता है न छोटा होता है। उसे क्या पता कि यह सब अभी केवल कागज पर ही है। कागज ही उड़ रहे हैं देश में, कागज उड़ रहे हैं थाने पर, कागज उड़ रहे हैं गॉव की पंचायत में, सभी जगहों पर कागज ही तो उड़ रहे हैं। उसे कागज पढ़ना नहीं आता। कागजों पर वह अॅगूठा लगाता है। वह अॅगूठा लगाता है साहूकार के कागज पर, मालिकों के कागज पर। अॅगूठा लगाना ही वह जानता है, उसे पढ़ना नही आता कि कागज पर का लिखा है। कागज पढ़ना उसे आता तो बात दूसरी थीकृ उसे अपनी गलती का आभास हुआ फिर वह सोलहवीं शताब्दी में चला गया।
‘सरकार हमसे गलती हो गई, आप बड़हर अदमी, भला आप काहे हल जोतेंगे, हमरे गलती पर धियान जीन देंगे सरकार! आप तो कागज जोतकर ही काफी कमा लेते हैं। कागज जोतने से ही आपको फुर्सत नहीं फिर कैसे जातेंगे हल सरकार।’
बिफना पास ही में था। वह भी रामभरोस से माफी मांगने लगा पर रामभरोस का माथा काहे ठंडा होता। वे गरम हो गये और भावी दुर्घटनाओं की तरफ इशारा करने लगे। समूचा लील जाने के तर्ज पर उन्होंने फेकुआ को देखा जबकि फेकुआ और बिफना दोनों सम्मिलित रूप से माफी मांग रहे थे।
रामभरोस तो रामभरोस थे, समय को मुठ्ठी में बांध कर रखने वाले। उस समय कुछ नहीं बोले, रास्ता पकड़े और सीधे बखरी की ओर वापस हो लिए तमाम तरह के गुस्सों को पीते और समय को गरियाते हुए।
‘यह जो समय है नऽ जाने किस तरफ मुह घुमा रहा है? जिनके मुह में जीभ नहीं थी, वे कम्युनिस्टों की जीभ मुह में डाल कर बोलने लगे हैं।’
रामभरोस के लौट जाने के बाद फेकुआ को बिफना सीख देने लगा, वही सीख जिसे उसने बाप दादों से सीखा था। उसने सीखा था कि बड़ों से ऐंठ कर नहीं बोलना, बतियाना चाहिए। बिफना ने फेकुआ को डांटा....कृ
‘कुछ बूझता क्यों नहीं है बे! भला ‘सरकार’ से अइसे बात की जाती है, तोसे का मतलब बे!, ऊ हल जोतंय चाहे न जोतंय, ओन्हय तूं पढ़ाएगा? तोके अपनी पीठ नहीं दिखती है का रे! उस पर कोड़े बरसने लगेंगे तब सब कुछ भूल जाएगा। वे मालिक हैं, ‘सरकार’ हैं। मालिक लोग हम मजूरों के पीठ पर हल जोतते हैं, पेट पर हल जोतते हैं, जमीन पर वे लोग हल नहीं जोतते बे! एतना भी तूं नहीं जानता।’
फेकुआ का करता, उसे जो बोलना था बोल चुका था। बोली और गोली वापस तो होती नहीं। अपराधी की तरह बिफना की खरी खोटी सुनता रहा बाद में उसने अपना गुस्सा बैलों पर उतारा। पैना दर पैना पीटने लगा बैलों को। उसे सुख मिला कि वह हल में जुते बैलों को नहीं रामभरोस को पीट रहा है। सुरूज देवता के ढलान पर होते ही दोनों ने हल जोतना बन्द कर दिया तथा घर की ओर वापस हो लिए। फेकुआ को लगा कि घर का आसमान लाल नहीं होगा, वहां हसियां होगीं और अइया बपई का दुलार होगा।
घर बहुत दूर नहीं था, दोनों कुछ ही देर में घर पहुंच गये। अभी सूरज डूबा नहीं था सो थोड़ा उजाला था। पर फेकुआ के विचारों का सूरज तो डूब रहा था, उसके मन में अन्धेरा गाढ़ा होने लगा थाकृबपई और अइया दोनों बहुत भला-बुरा कहेंगे। उन्हें भला बुरा कहना ही था। वे भला बुरा कहना ही जानते थे।
देश में होने वाले बदलावों की बातें उनकी सोच में नहीं थीं। उनकी सोच तो आजादी के पहले वाली ही थी, गुलामी वाली। वे इतना ही जानते थे कि धरती पर दो तरह की दुनिया होती है, एक दुनिया है मालिकों व शासकों वाली दूसरी दुनिया है उनकी सेवा व मजूरी करने वालों तथा पीठ पर कोड़े खाने वालों की। आजादी के पहले तथा आजादी के बाद के उछलकूद करने वाले नारों के बारे में उन्हें जानकारी नहीं थी। जबकि देश के हर हिस्से में मजूरों, किसानों के विकास से जुड़े किसिम किसिम के नारे उछल रहे थे कि देश के आजाद होते ही मजूरों व किसानों को पूरा अधिकार मिल जाएगा। हर हाथ को काम मिलेगा तथा हर खेत को पानी मिलेगा। सभी को जमीन में हिस्सेदारी मिलेगी, निःश्षुल्क शिक्षा होगी, निःश्षुल्क चिकित्सा होगी। औतार नारों के बीच कभी नहीं थे उन्हें इस तरह के नारे कभी सहला नहीं पाए थे सो वे तत्कालीन सभ्यता के हल जोतने वाले श्रमिक की तरह का महज एक उत्पाद भर थे। सो उन पर दमन की यातनादायी संस्कृति सदैव नाचती रहती थी। उन्हें क्या पता था कि फेकुआ रामभरोस सरकार से उलझ गया था।
बिफना फेकुआ का दोस्त था वह सोच नहीं सकता था कि फेकुआ का अहित हो सो उसने पूरी घटना को फेकुआ के बपई औतार से बता दिया। रामभरोस का क्या कब गरम हो जांए, कब लाठियॉ उठालें, कब फेकुआ को पिटवा दें फिर का होगा? औतार कक्का फेकुआ को डांट देंगे तो ठीक रहेगा आइन्दा वह कभी गलती नहीं करेगा।
औतार भी तो पुराने जमाने के थे, अपने मुह पर ताला लगाकर चलने वाले। उन्हें जिन्दगी ने सिखाया था कि मालिकों से डर कर रहना चाहिए। अदब से रहने पर खतरे कम होते हैं या नहीं के बराबर होते हैं पर मालिकों की हुकूम उदूली तो विपत्तियां ही लाती हैं। वैसे भी विपत्तियां नेवता देकर तो आती नहीं, चली आती हैं दौड़ती उछलती। फिर तो औतार फेकुआ पर लाल लाल हो गये। उन्हें लाल लाल होना ही था।
‘तुमने रामभरोस ‘सरकार’ से अपना काम खुद करने के लिए बोला, इसका मतलब क्या कि वह हल जोतें, बैल चरांए, यही नऽ। तोहार मजाल है उनसे ऐसी बात करने की। तूं ससुर इहय करोगे। घर भर को मरवाओगे। नहीं जानते का कि ‘सरकार’ केतना प्रतापी हैं? तनिक रियाज का मारि लिए कि पगलाय गये। ई ससुरा का मजाल देखोकृकहता है कि हमार माई अब नार नाहीं काटेगी। तब का करेगी तोहार माई। एकरे बारे में सोचा है, गॉव में वह रह पाएगी का बिना नार काटे, मालिकों की गुलामी किए बिना।’
‘अरे! ससुर तोहके का मालूम, कमर झुका कर पालागी बोलने पर पर तो ‘सरकार’ रिसिआये रहते हैं। अउर उनका हुकूम न मानने पर जाने का करेंगे। कब घर फुंकवा देंगे, कब पीठ पर डन्डा बरसवा देंगे का मालूम।’
औतार एक आम आदमी, गालियों की दुनिया में ही पैदा हुए, बात बात पर गाली, एक तरह से संबोधन ही गालियों का किसिम किसिम की गालियां, गालियों के लिए हर वह पात्रा है जो रामभरोस के अनुसार टेढ़ा चलता है। रामभरोस को तो कोई कहीं छिप कर भी गाली नहीं दे सकता। रामभरोस को मालूम हो जाता है। गालियां कहीं भी दी जांए उनके कान तक पहुंच जाती हैं। उनके कान और मुह हमलोगों माफिक नहीं हैं। उनके कान में अदब की सुरंग है और मुह में आग।
सुबह का समय था और औतार थे कि सुबह की नरम धूप से बाहर थे। उन्हें सूरज का उजाला नहीं दिख रहा था। उनके सामने तो रामभरोस की बखरी हुंकार भरती हुई खड़ी थी, गालियां देती हुई, वही दिख रही थी। सूरज के सारे उजाले को वह लील जाती थी बखरी के लीलने से उजाला बचे तब तो औतार के पास आए फिर वे उसे देखें या महसूसें।
रामभरोस की बखरी की तरह तमाम बखरियां हैं जो फैली हुई हैं पूरे जिले में। कोई चार कोस दूर हैं तो कोई दस कोस दूर। बखरी तो राजा साहब वाली भी है पर वे बेचारे बनारस में रहते हैं। रियासत क्या टूटी कि वे बखरी ही छोड़ दिए। राजा साहब बखरी काहे छोड़ दिए औतार नहीं जानते थे। रामभरोस की तरह यहां रह कर वे भी हुकूम चला सकते थे।
इस तरह की सोचों से अलग औतार अपनी यादों में थे। उन्हें भूला नहीं है अब तक.... जवानी में रामभरोस ने उन्हें खंभे से बांध कर खूब मारा-पीटा था वह भी बिना किसी गलती के। एक महीने तक दवा दारू करना पड़ा था। और सुगिया की बात उसे कैसे भूल सकते हैं औतार कि रामभरोस नेअपने लठैतों द्वारा घर में से ही उसे उठवा लिया था। नुची, चुथी, लुटी, सुगिया तीन दिन बाद घर वापसआई थी। सुगिया को घर से उठाए जाने की खबर सहपुरवा के सारे लोगों को थी। सभी कान में तेल डाल कर अपनी ऑखें ढाप लिए थे। जैसे कान सुनने के लिए नहीं होते और ऑखें देखने के लिए नहीं होतीं मुह तो बोलने के लिए होते ही नहीं।
‘गूंगा तथा अन्धा रहने में ही भलाई है’, कौन रामभरोस से झगड़ा मोल ले। औतार ने खुद को गूंगा बना लिया था। वे दिन का उजाला देखते हुए भी उसे न देख पाते थे। वे उजाला देखने की कोशिश करते तब उन्हें लगता कि वे भयानक किस्म के अन्धेरों में डूब गए हैं जिससे बाहर निकलना संभव नहीं। दरअसल अन्धेरा तो था ही उसी अन्धरों ने उनके घर को जकड़ लिया था। घर की माटी की दीवारें, फूस के छाजन सबके सब अन्धेरे में डूब गए थे। वैसे भी सुगिया को घर से उठवा लेना किसी अन्धेरे से कम कैसे था?
रामभरोस के लठैतों द्वारा सुगिया को उठा ले जाने की घटना को सहपुरवा के लोगों ने किसी दुर्घटना की तरह माना। दुर्घटना का क्या है वह तो संयोग का खेल है, घटती रहती है। जो किस्मत में लिखा होता है वह तो होता ही है। सुगिया के साथ भी हो गया और क्या? वे खामोश थे, वे खामोशी से बाहर निकलना नहीं जानते थे। दिक्कत यह नहीं थी कि वे खामोश थे दिक्कत यह थी कि वे नहीं जानते थे कि उनकी खामोशी उनकी मनुश्यता छीन कर उन्हें जानवर बना देगी।
वैसे भी इस तरह की घटनाएं केवल सहपुरवा की ही नहीं थी बल्कि पूरे विजयगढ़ और जसौली की थीं। पूरी मानव सभ्यता उत्पीड़नों के गाथाओं पर ही निर्मित की गई है। मालिकों के रूप में उत्पीड़ितों का संगठित गिरोह पूरी धरती पर है, धरती माता भी कॉपती हैं उनसे। मालिकों की सूरतें समय समय पर अपना रूप, रंग बदलती रहती हैं। इच्छाधारी होती हैं मालिकों की सूरतें, जरूरत पड़ने पर अपनी सूरतें बदल लेने मंे माहिर होती हैं। उत्पीड़ितों के बीच सहज स्वीकृति होती है कि ऐसा तो होता रहता है। वे मालिक हैं जब चाहें अपना रूप रंग बदल सकते हैं। भला उन्हें कौन रोक सकता है रूप, रंग बदलने से।
गॉव भर देख रहा था कि सुगिया जवान हो रही है। उसके देह के उतार चढ़ाव मनोरम लगने लगे हैं। सुगिया बोले बतियाए भले नहीं पर उसकी देह हमेशा बोलती और गुदगुदाती रहती है। जवान लड़के तो उसे देखकर अपनी दृढ़तायें नहीं रोक पाते थे। खासतौर से सवर्ण जवान लड़के। वे समझते थे कि सुगिया गॉव की सार्वजनिक संपत्ति है जो उनके लिए भोग की वस्तु है उस पर उनका कुदरती हक है। सो वे पारंपरिकरूप से इन मामलों में नैतिक दृढ़ताओं को पाले रखने के विरोधी थे।
सुगिया केवल सवर्ण जवान लड़कों के लिए ही नहीं उन लोगों के लिए भी मनोरम दीखती थी जिनकी बेटियां सुगिया की हमउम्र थीं। गोया सबकी नजर सांवली, पतली, इकहरी बदन वाली सुगिया पर थी और सुगिया थी कि अपनी देह के करतबों से अजान थी। उसे पता ही नहीं था कि वह किसी कुसंयोग का बेहूदा प्रस्ताव है। सुगिया अपने में डूबी हुई, दिन रात के करतबों में गोता लगाती हुई, छोटी छोटी बातों में भी खुष्शियां तलाश लेने वाली। सुगिया नहीं देख पाती थी उन नजरों को जो उसे बेध रही होती थीं। देख भी लेती थी तो समझ-बूझ नहीं पाती थी कि लोगों की बेधक नजरें उसे चीर रही हैं। पोर पोर काट रही हैं। वैसे भी उसका साबिका देह को दाह बना देने वाली नजरों से कभी नहीं पड़ा था। वह तो अपनी देह के बदलावों व कुदरती गठन को कुदरत की लीला मानती थी। उसे क्या पता था कि उसकी देह में कोई जादुई ताकत है जो लोगों को पागल बना रही है।
रामभरोस भी सहपुरवा के थे। वे सामंत थे, उनकी ऑखें सामन्त थीं, उनका दिल-दिमाग भी सामंत था। वे सामंती परंपरा की निकृष्ट चेतना के अनुसार सुगिया को अपने बिस्तरे पर देखना चाहते थे। दया, प्रेम, आदर जैसी दूसरी सामंती पंरंपराओं से उनका कुछ लेना देना नहीं था।
गॉव के दूसरे तो सुगिया को देख कर ही मनोरम पीते थे और खुश रहते थे। पर रामभरोस ने तो योजना ही बना लिया था कि किसी भी तरह से सुगिया को हासिल करना है। इस हासिल को वे प्यार मानते थेे। प्यार की उनकी यह अपनी परिभाषा थी। वे प्यार करते थे, बिस्तरा बना कर, संपत्ति बना कर, कब्जा जमा कर। रामभरोस औरतों को संपत्ति समझते थे। आखिर उनकी संपत्ति कौन कब्जिया सकता है, वे कमजोर तो थे नहीं। रामभरोस का मनमिजाज ताकत के प्रदर्शनों से बना हुआ था। तमाम तरह की निन्दनीय वीरगाथांए उनके चिंतन का हिस्सा थीं। वे मानते थे ‘वीर भोग्या वसुन्धरा’ वसुन्धरा को भोगने का अधिकार केवल वीरों को है और वे ही बीसवीं शदी के वीर है। किसे पड़ी कि रामभरोस को समझाए, वीर वह नहीं होता जो दूसरों को सताता है, वीर तो वह होता है जो दूसरों की हर तरह से रक्षा करता है। रामभरोस तो रामभरोस थे शास्त्रों के तमाम कथनों को अपने तरीके से व्याख्यायित व परिभाश्षित करने वाले फिर वह किसी की काहे सुनते।
रामभरोस के प्यार करने का तरीका भी अपना था। वे इस मामले में तमाम लोगों से अलग हैं, वे प्यार करने के लिए पनघट पर नहीं जाते थेे, पनघट को ही घर पर उठा लाते थे। वे रीति और रति दोनों को अपने अनुसार रचते थे। सुगिया उन्हें जंच गई तो जंच गई, अब यह क्या है कि वे सुगिया के पास प्रणय निवेदन भेजें, नहीं, नहीं ऐसा वे नहीं करेंगे।
औतार को रामभरोस ने अपना असामी बना लेना उनके प्यार करने की योजना में था। असामी बन जाने के बाद तो औतार वही करेगा जो वे चाहते हैं। इसी सूत्रा के आधार पर रामभरोस के प्यार को हरियाना तथा लहराना था। सूत्रा था असामी वाला, औतार असामी तो सुगिया भी उनकी असामी फिर तो सुगिया की देह भी असामी। औतार पहले शोभनाथ के असामी थे। औतार को असामी बना लेने के बाद कई तरह की अतिरिक्त सुविधांयें भी रामभरोस ने औतार को दे दिया जिससे सुगिया से उनका कथित प्यार हवा में लहरा सके। दो बीधा खेत उन्होंने माफी में औतार को दे दिया, उसका लगान भी माफ कर दिया। बीज बंेगा वे बखरी से दिला देंगे इस प्रकार कई तरह के प्रलोभन।
रामभरोस जानते थे कि असामी होने के नाते औतार का आना जाना बखरी पर रहेगा ही, उसके साथ सुगिया भी आती जाती रहेगी। ऐसा करने से ही सुगिया के करीब पहुंचा जा सकता है। रामभरोस का मानना था कि सुगिया उनकी देह से क्यों घिनाएगी?
औतार को असामी बना कर वे सपने में डूब गए। रंगीन बदरियों वाले सपने, देह को फरफरा देने वाले सपने। सुगिया से एक बार मेल मिलाप का सिलसिला शुरू हो गया फिर काहे खतम होगा। तो ऐसा था रामभरोस के प्यार करने का सामंती तरीका। इसी लिए वे जमीन व बंेगा रूपी प्यार की वारिश औतार पर करा रहे थे जिससे औतार भींग जाए फिर तो सुगिया भींग ही जाएगी।
सामंती प्यार भी खूब नखड़े बाज होता है, नखड़े भी किसिम किसिम के बाजार की तरह, खुद अपना विज्ञापन भी करता है, करवाता है। बस पास आ जाओ, सारा कुछ मिलेगा। तुझे इतना मिलेगा जिसकी तूं कल्पना नहीं कर सकती। सामंती प्यार की सीफत होती है उदारता खरीदना, उस खरीद को प्यार में बदलना, रामभरोस इसी रास्ते पर चल रहे थे। वे सुगिया को ही नहीं उसके तन, मन दोनों को खरीद लेना चाहते थे चाहे दाम जो लगे। दाम की कमी तो थी नहीं उनके पास। इस तरह की खरीद बिक्री का मामला बाजार के विकास का प्राथमिक चरण वाला था। उस दौर में आदमी की खरीद बिक्री वस्तु के रूप में शुरू हो चुकी थी।
हुआ भी यही, सुगिया अक्सर औतार के साथ बखरी में आने जाने लगी पर रामभरोस सुगिया के आस पास तक नहीं पहुंच पाये। बखरी किसी आकर्षक बाजार की तरह खड़ी थी पर बखरी का बाजार सुगिया को आकर्षित नहीं कर पा रहा था। सो वह बाजार में काहे खड़ी होती। हालांकि रामभरोस सुगिया के पास जाने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे पर सुगिया रामभरोस से भी चालाक निकली, वह खुद को बचा कर उनसे दूर चली जाती थी। वह जानती थी कि रामभरोस आग हैं, वे तन ही नहीं मन भी जला डालेंगे, भसम कर देंगे पूरी देह। वह खुद को भसम करना नहीं चाहती थी। सुगिया आगे आगे जाती और रामभरोस का सामंती प्यार उसके पीछे पीछे जाता। प्यार में न चौरोहा होता है न ही तिराहा, जहां रामभरोस का प्यार गलबहिंया करता। रामभरोस का प्यार पहले भी तनहा था और औतार के असामी बन जाने के बाद भी तनहा रह गया था। वे ताकतवर थे और ताकत के बल पर अपने प्यार की तनहाई दूर करने की कोशिश में थे जिससे वे सुगिया के सौन्दर्य का अपने तरीके से लाभ उठा सकें जबकि जवानी की समझ होने के पहले से ही सुगिया रामभरोस जैसे मालिकों से सावधान रहा करती थी। मालिकों के प्यार का मतलब आग की भठ्ठी, गिरो तो भसम हो जाओ। उसे रामभरोस के प्यार की भठ्ठी में गिरना नहीं था, गिरना तो दूर उसके पास तक भी नहीं जाना था। सुगिया गॉव की थी उसे क्या पता कि रामभरोस की बखरी एक रंगीन बाजार भी है। बाजार में मेले ठेले लगते हैं, दूकानें सजती हैं, औरतों, लड़कियों को खरीदा बेचा जाता हैै। उसे पता भी होता तो क्या हो जाता, वह खुद को बिकने से कैसे रोक लेती। उसके बाप को असामी बना कर रामभरोस ने उसे भी बाजार में खड़ा कर दिया है। उसकी बिक्री चाहे जब हो यह समय की बात है।
उस समय रामभरोस बाप नहीं बने थे। बखरी में केवल उनकी जवान औरत ही रहती थी। रामभरोस के मां बाप कुछ साल पहले मर चुके थे। कोई भाई, वाई नहीं था। रामभरोस बाप के अकेले वारिस थे। बखरी बहुत बड़ी थी सो उसमें एकांत की कमी नहीं थी। उसी एकांत का लाभ लेने के लिए रामभरोस ने एक बार सुगिया से छेड़ छाड़ की थी पर सब बेकार चला गया। रामभरोस की पत्नी तथा सुगिया के सबल प्रतिरोध के कारण। रामभरोस मन मसोस कर रह गये थे। करते भी क्या? सुगिया के बचाव में उनकी पत्नी रणचण्डी की तरह खड़ी हो गईं रामभरोस के सामने। उसके बाद से तो उनकी पत्नी सुगिया के बचाव में सचेत रहने लगीं थीं। कभी भी गोशालेे या भुसउल की तरफ सुगिया को अकेली न जाने देतीं, उसके साथ खुद जातीं। उन्हें पता था कि यह जो बखरियों का एकांत होता है लड़कियों के मामले में एकांत नहीं होता बल्कि उनकी शुचिता का अंत होता है। सुगिया को भी बखरी में अकेली छोड़ना ठीक नहीं होगा। रामभरोस किसी भी तरह से उसके एकांत को कोई तुकांत कविता बना सकते हैं जो न तो सुगिया के लिए ठीक होगा न ही उनके लिए।
रामभरोस की बखरी में सुगिया के बहाने गुस्सैल तनाव पसर चुका था। रामभरोस अपनी पत्नी पर अपना आपा खो बैठते, उन्हें भला बुरा कहते। यह क्रम रुकने का नाम नहीं ले रहा था। पत्नी पर रामभरोस का गुस्सा दिनों दिन बढ़ता चला गया, रोज रोज बेवजह बेचारी पिटने लगी। उसके बाद तो रामभरोस अपने असफल प्रयत्न की प्रतिक्रिया में जीने लगे।
रामभरोस तो मानकर चल रहे थे कि सुगिया काम करने के लिए जैसे बखरी में आएगी वे उसे अपने माया जाल में फसा लेंगे पर ऐसा संभव नहीं हो पाया। रामभरोस के मन में सुगिया को हासिल करने के दूसरे तरीके भी थे जिन्हें वे आजमाना नहीं चाहते थे पर करते क्या, उन्हें तो हर हाल में अपने वांक्षित लक्ष्य तक पहंुचना ही था। हार मान कर रामभरोस दूसरे रास्ते पर चल पड़े।
रामभरोस के लिए दूसरा रास्ता आसान और आजमाया हुआ था। वह रास्ता खानदानी था। प्रलोभन देकर, औतार को असामी बना कर। उन्होंने औतार को असामी बना लिया, औतार को अतिरिक्त मजदूरी भी देने लगे, फिर भी वे सुगिया तक नहीं पहुंच पाए। अपनी गोदी में सुगिया को देखना उनके लिए जैसे पहले सपना था, वह सपना जस के तस बना रह गया था। आजमाए हुए खानदानी रास्ते पर चलते हुए रामभरोस ने एक दिन अपने दरबार के डण्डपेलुओं और लठैतों द्वारा सुगिया को उसके घर से ही उठवा लिया यह उनके लिए दूसरा तरीका था। ऐसा करना उनके लिए काफी लाभप्रद साबित हुआ। दूसरे रास्ते के प्रयोग में कहीं कोई बाधा न आने पाए सो उन्होंने अपनी पत्नी को मॉ विन्ध्यवासिनी के पूजन के लिए विन्ध्याचल भेज दिया था, साथ में साले को भी लगा दिया था। इस तरह की कला में रामभरोस को महारथ हासिल थी।
वह अवसर रामभरोस के लिए आश्वस्ति दायक और मनोरम बन गया। सुगिया उनके घर में थी, जहां ढेर सारा एकांत था और सुरक्षा भी खूब खूब थी। घर में एकांत ऐसा था कि कैसे सुगिया ने रामभरोस का माथा फोड़ दिया यह रामभरोस को पता ही नहीं चला। उनका माथा फूट गया, वे चीखने लगे। बखरी की मजबूत दीवारों ने भी उनकी चीखें नहीं सुना और न ही दीवारों से बाहर उनकी चींखें निकल पाईं। उनकी बखरी किसी बंकर माफिक हो गई थी। जहां सारी चीजें बन्द बन्द सी रहती हैं। उनके हाथ और देह को कई जगहों पर काट लिया सुगिया ने फिर भी रामभरोस अपने लक्ष्य से एक रत्ती भी बांए दांए नहीं हुए, उन्हें तो लक्ष्य हासिल करना था। सुगिया का करती, कैसे करती, कितना काटती रामभरोस को पर उसने रामभरोस को कई जगहों पर बुरी तरह से काटा। उसे क्या पता था कि यह जो उसकी बन्दी है कुछ घंटों के लिए नहीं दो तीन दिन के लिए है। कुछ निशान तो आज भी रामभरोस के चेहरे पर उनके करतबों की कहानी के रूप में दिखते हैं।
दो दिन बाद सुगिया को रामभरोस ने उसके घर भिजवा दिया क्योंकि उसी दिन उनकी पत्नी विन्ध्याचल से लौटने वाली थीं। औतार और फेकुआ की अइया को अचरज नहीं हुआ। अचरज था भी नहीं उन्हें गुस्सा आया पर वे रामभरोस का का कर लेते। इस तरह की घटनांए हरिजन बस्ती के लिए आम थीं। वह भी उस घर के लिए जिनमें जवान बेटियां पलती हों, गदराई और मांसल। भला हो रामभरोस का कि वे घर पर नहीं चढ़ आये, चढ़ भी आते और सुगिया के साथ अपना मुह काला करते तो उन्हें कौन रोक पाता,उनका कोई क्या बिगाड़ लेता, कौन उनका प्रतिरोध करता। मान लिया जाता कि ऐसा होता रहा है और आगे भी होता रहेगा। थाने पर रपट लिखाना भी तो आसान नहीं होता। रपट लिखा भी जाती तो दारोगा गवाही मांगता, गवाही कौन देता? कौन बोलता कि यह सब हमने देखा है फिर इतना ही थाने पर थोड़य होता, थाने पर तो रामभरोस से अधिक होता। थाना भी तो नामी और प्रतापी जगह है किसे नहीं मालूम कि प्रतापियों के ताप में बहुत आग होती है। थाना भी तो सुगिया की देह में अपना अधिकार देखने लगता, बेचारी को प्रशासनिक ताप में तपा देता। सुगिया बेचारी सोना तो थी नहीं जो प्रशासनिक ताप में तप कर खरा हो जाती, वह गल गल जाती, पिघल पिघल जाती।
दो दिन बाद सुगिया अपने घर वापस आ गई या भेज दी गई यह रहस्य माफिक था। औतार तथा फेकुआ की अइया को आश्ष्चर्य नहीं हुआ। वे पहले से ही जानते थे कि सुगिया कहां होगी। वे डर रहे थे कहीं सुगिया की हत्या न कर दी गई हो पर ऐसा नहीं हुआ था। सुगिया साबूत थी। हरिजन बस्ती के लिए यह आम बात थी। वे जानते थे कि मालिक लोगों के लिए औरतों की देह अछूत नहीं होती, अछूत तो केवल मरद होते हैं। औरतों की देह मालिकों को नहीं घिनाती, उन्हें गरीबों की औरतों में नए तरह का स्वर्ग दिखता है, खुद का बनाया हुआ स्वर्ग, ताकत के बल पर रचा गया स्वर्ग। अपने रचे हुए स्वर्ग कोे बनाने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं।
सुगिया टूट चुकी थी, उसकी सारी चंचलता व अल्हड़ता समाप्त हो चुकी थी। वह केवल एक देह भर रह गई थी जिसमें जीवन नाम की कोई चीज नहीं थी। वह केवल संासें ले सकती थी, कराह सकती थी तथा किस्मत पर रो सकती थी। सुगिया का घर बड़ा नहीं था। घर की दीवारें माटी की थीं तथा उस पर छान्हें टिकी हुई थीं। एक में औतार तथा उनकी पत्नी बैठी थीं जिसमें वे अक्सर बैठा करते थे। दूसरे में सुगिया जा कर बैठ गयी। दिन बीतते गये, बीतते गये, सुगिया तोड़ दी गयी, औतार तोड़ दिए गये, पर बिरादरी नहीं टूटी। बिरादरी टूटती भी नहीं।
सुगिया के घर वापस आते ही बिरादरी का कानून औतार के माथे पर चढ़ बैठा। थाने पर गवाही देने के नाम पर बिरादरी का कोई भी आदमी तैयार नहीं हुआ। औतार ने अपने लोगों को टटोला और मालूम किया तो मालूम हुआ जो पहले से ही मालूम था कि उनकी बिरादरी के लोग थाने पर गवाही नहीं देंगे कि रामभरोस ने सुगिया को उठवा लिया था और दो दिनों तक अपने घर में जबरन कैद कर रखा था। आखिर कौन बोलता, रामभरोस के आतंक के कारण सभी के मुह सिले हुए थे। औतार की बिरादरी वालों के पास केवल देह थी, उस देह में मुह न था, था भी तो गूंगा था, न ही ऑखें थीं, थीं भी तो अन्धी उनमें कुछ दिखता न था कान तो जैसे बहरे थे। वे सहपुरवा में रहते हुए गूंगे थे, बहरे थे, अन्धे थे। वे एक आक्रामक संस्कृति के मुर्दा प्रतीक भर थे।
बिरादरी के किसी आदमी ने गूं गा नहीं किया, किसी ने नहीं गुना कि सुगिया के साथ रामभरोस ने जो किया गलत किया। आखिर किस अधिकार से रामभरोस ने सुगिया को उसके घर के भीतर से उठवा लिया। पर बिरादरी की पंचायत कराने के लिए सभी उतावले हो चुके थे। पंचायत कराओ नहीं तो हुक्का पानी बन्द कर देने की धमकी देने लगे थे। औतार को भात, माड़ की सजा दिया जाना चाहिए। औतार थे कि बिरादरी से जानना चाह रहे थे कि किस बात के लिए वे पंचायत बुलवाएंगे। सुगिया को रामभरोस ने बेइज्जत किया है, यही थाने पर चल कर बोल दो। सुगिया के साथ जो हुआ वही थाने पर चल कर बता दो कि क्या और कैसे हुआ, किसने किया। उसी बात की तो भात माड़ ले रहे हो फिर थाने पर चल कर काहे नाही बोल रहे हो। नाहीं बोल सकते थाने पर फिर काहे के लिए भात माड़ ले रहे हो? काहे की सजा दे रहे हो? काहे की पंचायत करा रहे हो।
बिरादरी के एक एक जन से पूछा औतार ने पर सभी ने नकार दिया था। सभी की गर्दनें जमीन ताकनें लगीं थीं। कोई आगे नहीं आया, कई कदम नहीं एक कदम भी। सभी खामोशी ओढ़ लिए थे जैसे उन्हें पता ही न हो कि कि गलत क्या है और सही क्या है।
औतार जानते थे कि भात, माड़ नहीं देने पर बिरादरी से उन्हें निकाल दिया जाएगा। निकालना है तो निकाल दो बिरादरी से काहे धमकी दे रहे हो? रहेंगे तो हरिजनै ही, हरिजन से भी कोई छोटी बिरादरी होती है का? धमकी दे रहे हैं कि निकाल देंगे बिरादरी से, धमकियाओ मत निकाल दो बिरादरी से, अब क्या बचा है उनके पास इज्जत के नाम पर, इज्जत तो रामभरोस की बखरी में कराह रही है। लोगों की इज्जत उतारने के लिए ही तो बखरियॉ होती हैं। कहते कहते औतार आह भरने लगे थे।
‘गॉव का बूढ़ा पीपल क्या बोलता चरित्रा तथा
दुश्चरित्रा के बारे में और पंचायत! सुगिया राम आसरे
थी लड़की होने का अभिशाप झेलती और कराहती’कृ
सुगिया दो दिनों तक रामभरोस की बखरी में थी। कहां थी गॉव वालों को मालूम था पर रामभरोस से कोई कहने बोलने वाला नहीं था। रामभरोस बखरी वाले थे, बखरी के आतंक में सहपुरवा डूबा हुआ था। रामभरोस से भला गॉव का कौन वासिन्दा पूछता? बखरी गरजने लगती, सहपुरवा का पूरा आकषश लाल हो जाता, खून माफिक। कितनों के हाथ तोड़ दिए जाते, कितनों के पॉव। बिरादरी के कुछ बोलक्कड़ों ने आसान रास्ता पकड़ा और सुगिया को दुश्चरित्रा घोश्षित कर दिया। बोलक्कड़ों के लिए सुगिया का घर से बाहर होना उसे दुश्चरित्रा साबित करने के लिए काफी था। दूसरे सबूतों की जरूरत ही नहीं थी। सुगिया चिल्ला चिल्ला कर बोल रही थी गॉव में कि उसके साथ रामभरोस ने बलात्कार किया। बोलक्कड़ों को मसाला मिल गया बात को बात से जोड़ने वाला। बोलक्कडों के लिए सही क्या है गलत क्या है इससे मतलब नहीं था। उनका मतलब था कि रामभरोस पर ऑच न आए और औतार परेष्शान हो जांए। औतार की तरक्की बोलक्कड़ों को अखर रही थी जबकि उनकी तरक्की सिर्फ इतनी थी कि वे बाढ़ी (कर्ज) लेकर नहीं खाते थे, जितना कमाते थे उसी से सारा खर्चा चलाते थे। एक दिन भी काम पर नागा नहीं होने देते थे। जब तक कोई बर-बीमारी न हो।
रामभरोस ने गॉव की बिटिया के साथ बलात्कार किया बोलक्कड़ों के लिए चिन्ता की बात न थी। रामभरोस जमीनदार हैं तो क्या किसी के साथ बलात्कार करेंगे? बिरादरी के लोगों के लिए यह फालतू सवाल था। बिरादरी के सामने केवल सुगिया थी और औतार थे, जिन्हें दण्डित किया जा सकता था। औतार को दण्डित करवाने की ताकत बोलक्कड़ों के पास थी पर रामभरोस को दण्डित करवाने की ताकत उनमें नहीं थी। दण्डसंहिता भी तो ताकत का ही पोषण करती है, सजा भी तो कमजोर को ही मिलती है ताकतवर को नहीं। ताकतवर को भला कौन दण्डित कर सकता है?
औतार को सारा कुछ मालूम था कि बिरादरी के बोलक्कड़ कितना पउंड़ सकते हैं? गॉव के पंचायती बोलक्कड़ बिरादरी की पंचायत न बुलायें संभव नहीं था। आनन फानन में पंचायत के सभी चौधरियों को सूचनांए भेज दी गईं। बिरादरी का सिपाही पंचायत की तैयारी में जुट गया। पंच तो जैसे तैयार बैठे थे कि पंचायत हो और हम सभी एक साथ जुट कर नियाव करें।
पंचायत के लोग निश्चित दिन पर जुट गये। पंचायत का जुटाव एक ऐसा अवसर होता है जब हरिजनों में एकता ही नहीं अनुशासन भी दिखाई पड़ता है। नहीं तो काहे का अनुशासन, काहे की एकता, काहे का संगठन। पंचायत तो इस आश में जुट जाती है कि किसी दिन भात माड़ कायदे से मिलेगा नहीं तो कौन किसे खिलाता है, घर में तो नून रोटी से ही काम चलाना होता है। माड़-भात की सजा में तो तरकारी, बरी, चटनी अंचार और भात मिलता है वह भी जितना खा सको।
गॉव में पीपर का एक पेड़ था, बहुत पुराना तथा काफी झकनार था। वह पंचायती पेड़ था। उसकी एक एक शाखा पर पंचायती फैसले लिखे हुए थे। उस पेड़ की गॉव वाले पूजा भी किया करते थे और उसी की छाया में पंचायत भी हुआ करती थी। पेड़ के नीचे पंचायत बैठ गई। यह पेड़ रामभरोस की शौर्यगाथा व दमन का गवाह भी था। आजादी के पहले विजयगढ़ राजा के सजावल भी इसी पेड़ के नीचे हुंकार भरा करते थे, गरीबों, बकाएदारों आदि को दण्डित किया करते थे। तमाम तरह के गॉव के झगड़ों-रगड़ों को निपटवाया करते थे। रियासतें खतम होने के बाद सजावल तो खतम हो गए पर रामभरोस जैसे स्वघोषित कई सजावल औतार ले लिए हैं और वे सजावल का काम करने लगे हैं। सजावल की तरह ही रामभरोस की हुकूमत पूरे गॉव में हुंकार भरने लगी है। यह वही पेड़ है जो अंग्रेजी व्यवस्था का गवाह है तो देशी व्यवस्था का भी गवाह है। रामभरोस के एक एक करनामें उस पेड़ की हरी हरी पत्तियों ने जाने कितनी बार सोखा है जिससे पत्तियों का हरापन गायब हुआ है। पर रामभरोस लगातार हरियाते रहे हैं।
इसी पेड़ के नीचे सुगिया की करुण वेदनाओं तथा क्रूर यातनाओं की पंचायत होनी थी। पेड़ के नीचे तीन चार टाट बिछाए गए थे। ये टाट दो तीन गॉवों की हरिजन बस्ती से मॉग कर लाए गए थे। इनका उपयोग व्याह के अवसरों पर तो होता ही था खासतौर से पंचायत के लिए भी होता था।
सुर्ती, तमाखू आदि लेकर पंचायत के चौधरीगण टाट पर आसीन हो गये। हरिजनों के बड़े चौधरी को विशेष तौर पर चौधरियों के बीच में बिठाया गया। अपने स्थान पर बैठते ही बड़े चौधरी पुनवासी ने बिरादरी के सिपाहियों (हर गॉव से चुने गए सुरक्षाकर्मी जिनका काम होता है बिरादरी के नियमों के विरूद्व चलने वालों की निगरानी करना तथा उनके बारे में पंचायत के चौधरी को बताना) को आदेशित किया....कृकृ
‘पंचायत के सामने सुगिया को हाजिर कराया जाए’
पुनवासी चौधरी का यह आदेश जमीनदारों के आदेशों की नकल की तरह था, हूबहू वैसा ही, बेचारे हरिजन क्या जानते कि यह जो न्यायशास्त्रा है वह है क्या चीज? क्या होता है न्याय और क्या होता है अन्याय, उन्हें क्या पता! वे तो पारंपरिक व कुदरती न्याय के प्रतीक थे सिर्फ इतना जानते थे कि जमीनदार गलत नहीं कर सकते।
पंचायत में सुगिया हाजिर नहीं थी। सुगिया घर पर थी। उसने तय कर लिया था कि उसे पंचायत में नहीं जाना है। उसके मन में आया था कि घर छोड़ कर कहीं भाग जाए पर उसे घर से भागना अच्छा नहीं लगा। पंचायत की डर से काहे भागना? वह जहां भी जाएगी पंचायत का कानून उसके पीछे पीछे लगा रहेगा। सो वह घर पर ही रहेगी। बिरादरी के सिपाही कुछ ही देर में सुगिया को उसके घर से पकड़ ले आए और सुगिया को पंचायत के सामने हाजिर करा दिए।
पुनवासी चौधरी ने सुगिया से साफ साफ पूछा, बिना लाग लपेट केकृकृ
‘तोहरे साथे का किए हैं रामरोस सरकार! साफ साफ बताओ’
यह अदालतों में होने वाली जिरह की तरह का सवाल था जिसका जबाब सुगिया को देना था जबकि इस सवाल का जबाब चौधरी जानता था फिर भी उसने पूछाकृ
‘उसके साथ जो हुआ था रामभरोस की बखरी में सुगिया ने साफ साफ बता दिया। साफ साफ में साफ था कि रामभरोस अपराधी हैं, और उन्हें गॉव से बाहर निकाल देना चाहिए।’
यह सुगिया और औतार का लक्ष्य था पर पंचायत का नहीं था। पंचायत का लक्ष्य था औतार को दण्डित करने का। रामभरोस को गॉव से बाहर निकालने का फैसला देने के लिए पंचायत नहीं हो रही थी। पंचायत का लक्ष्य तो औतार से भात, माड़ लेना था न कि क्या हुआ था सुगिया के साथ यह जानना और रामभरोस के विरूद्ध उचित कार्यवाही करना। औतार भरी पंचायत में रो रो कर रामभरोस की काली करतूत बताते रह गए थे पर किसी ने उनकी नहीं सुना। दोषी उन्हें ही माना गया। पीपर के पेड़ के नीचे एक अलग किस्म का न्यायशास्त्रा उसकी जड़ से लेकर शाखाओं तक पसरा हुआ था। उस न्यायशास्त्रा में पीड़ित को ही दोषी मानने का चलन सामंती रूप से था। पंचायत के चौधरी को अपने ही लोगों को दण्डित करने का अभ्यास था ताकतवरों को नहीं। यह मनुष्श्यों की अलग दुनिया का मामला था। पीपर का पेड़ जानता है कि सुहपुरवा गॉव के लोग किसी दूसरे समाज के लोग हैं जिस समाज में पीड़ितों को ही दण्ड का भागी माना जाता है। चौधरियों ने साफ कहा....कृ
‘देखो औतार तोहार बिटिया ही सरकार के यहां भाग कर गई होगी मुलायम बिस्तरा पर पसरने के लिए। जवानी में मर्दानी गंध सूंघने के लिए। वह खुद ही चली गई होगी सरकार की बखरी में, तूं गलत इलजाम लगाय रहे हो सरकार पर कि सरकार ने उसे घर से उठवा लिया था।’
का करते बेचारे औतार, वे तो विरोध करना जानते ही नहीं थे। उन्होंने अपने बपई को देखा था कि वे भी मालिकों का एक भी जूता पीठ पर से नीचे गिरने नहीं दिया करते थे। रोप लेते थे जूतों को अपनी पीठ पर यही हाल था उनके बपई का भी। वे तो बपई से भी आगे थे।
औतार को एक दरी तथा भात माड़ की सजा कबूल करनी पड़ी। पीड़ित समाज में भी कुछ अक्खड़ किस्म के लोग हुआ करते हैं, बिफना के बपई सुक्खू ने चौधरियों के इस अन्यायी फैसले की कड़ी आलोचना की....
‘अरे! चौधरी साहब! एमें सुगिया का का दोष है? ऊ कवन जुलूम किया है जुलूम तऽ रामभरोस किए हैं, ओनके सजा दीजिए, सुगिया को काहे सजाय दे रहे हैं? ऊ बेचारी तऽ घरे में सोई हुई थी। रामभरोस के लठैत ओके घरवै में से उठाय ले गए बखरी में। तीन दिना तक अपने बखरी में रखे रह गए थे। गांयें में कौन ऐसा है जो इस बात को नाहीं जानता है? आज जो पंच बने बैठे हैं उस दिन तमाशा देख रहे थे, अउर आज पंचायत कर रहे हैं। ई नियाव नाही है चौधरी साहब। अब ऐसा नाहीं चलेगा। हमलोग इस फैसले को नाहीं मानेंगे।’
पंचायत के वरिष्ठ चौधरी पुनवासी को सुक्खू पर गुस्सा आ गया। उन्हें पंचायत के मामलों में अक्सर गुस्सा आ ही जाया करता है। पुनवासी चौधरी भी जाति से हरिजन हैं पर बिरादरी का चौधरी बनते ही उन्हें लगने लगा है कि वे मालिकों की जमात में शामिल हो गए हैं। मालिकों की तरह ही वे बोलने बतियाने लगे हैं। लोग जानते हैं कि पुनवासी चौधरी के लिए गुस्सा एक ऐसी चीज है जिसे वे मालिकों की तरह हमेशा नाक पर धरे रहते हैं और जुबान पर मालिकों वाली सनातनी गालियां.मॉ, बहन वाली, वे भभक उठे....कृकृ
‘का बकते है रे सुखुआ हरामी की औलाद! तुम नाहीं जानते है हमार बिरादरी को कानून, हमारे अनियाव को बड़का, बुड़का सभै मानते हैं कि हमार पंचायत साफ साफ अनियाव करती है। तुम्हारी यह मजाल कि तुम बिरादरी के कानून को नाहीं मानो, हम जो चाहेंगे वोही करेंगे। गॉव में तो और भी लड़की लोग होते हैं उनको तो सरकार नाहीं उठवाय ले गए बखरी में। तुम का जानेगा सुक्खुआ, औतरवा साला ओनकर असामी है, सिरवही करता है। सरकार की बखरी में सुगिया का आना जाना था, ओकर सरकार से लस-पुस हो गया होगा। सरकार के बिस्तरा पर पसरने का ओकर मन हो गया होगा। येही कारण सरकार ओके उठवा ले गये। एम्मे औतरवा की चाल है, जौन हम बूझ रहे हैं, बिटिअयवय की कमाई औतरवा खाय रहा है, जब कमाई खाएगा सरकार की तब तो सरकार उठवा ही ले जांएगे ही, बोलो पंचों गलत तो नाही बोल रहा हूं नऽ....’
पंचायत के दूसरे चौधरियों कोे पुनवासी चौधरी के हॉ में हॉ मिलाना ही था और उनलोगों ने तत्काल हॉ में हॉ मिलाया भी।
‘नाहीं साहेब आप गलत नाही बोल रहे हो, औतरवा बिटियवय की कमाई खाता है।’
सुक्खू थोड़ा तनेन मिजाज वाले थे उन्हें पुनवासी की बात पर गुस्सा आ गयाकृ
‘तऽ का चौधरी असामी का काम करना, हलवाही करना अपनी बहिन बेटी बेच देना है। ई का बक बक कर रहे हैं चौधरी। कहीं रामभरोस ने आपको गठरी तो नाही थमाय दिया नऽ।’
सुक्खू औतार को जानते थे, सुगिया को जानते थे, सचाई जानते थे कि रामभरोस कुछ भी कर सकते हैं। सुघ्घर लड़की देख कर उसे हासिल करने के लिए अच्छा बुरा किसी भी तरह का करम कर सकते हैं। सुक्खू ने एकबार अपनी ऑखों से देखा था। सुगिया जंगल से लकड़ी का बोझ लिए घर वापस आ रही थी। रामभरोस ने उसे वहीं कहीं देख लिया था फिर क्या था। रामभरोस का स्त्राीयार्थ जाग उठा और उन्होंने सुगिया को पकड़ लिया। पकड़ छुड़ाकर किसी तरह से सुगिया भागी, पर कितना भागती, कहां जाती, सुनसान सिवान, एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक, हर तरफ सन्नाटा और मरघटी खामोशी। सुगिया रामभरोस की पकड़ छुड़ा कर भागी पर रामभरोस ने सुगिया को दुबारा पकड़ लिया फिर तो वह उनकी पकड़ में थी, कसमसाती, छटपटाती। सुगिया रामभरोस को जानती थी, कि वह फस गई है, रामभरोस उसे नहीं छोड़ेगा। सुरक्षा मिल जाए कहीं से वह चिल्लाने लगी। संयोग था कि सुक्खू भी जंगल से लकड़ी का बोझ लिए वापस आ रहे थे। सुक्खू को सुगिया की चीख साफ सुनाई पड़ी, वे चीख की ओर दौड़े, कौन हो सकता है जो इस समय चीख रहा है? चीख रहर के खेत में से आ रही थी पर वहां कोई दीख नहीं रहा था, वहां केवल आर्तनाक चीखें थीं जो साफ साफ किसी औरत की जान पड़ रही थीं। रामभरोस सुगिया को रहर के खेत के अन्तःपुर की ओर घसीटे जा रहे थे। नजदीक जाने पर सुक्खू ने देखा कि यह तो सुगिया है, औतार की बिटियवा, सुगिया हांफ रही थी हकर हकर। उसकी सांसें जहां थीं, वहीं टंगी हुई थीं, टंगी हुई दूसरी चीजों की तरह। सुगिया रामभरोस की पकड़ में मछली की तरह छटपटा रही थी। सुक्खू ने लकड़ी का गट्ठर पहले ही उतार दिया था तथा उसी गट्ठर में से एक सीधी लकड़ी डंडा माफिक हाथ में ले लिया था। यह मानकर कि इसकी जरूरत पड़ सकती है। उसकी जरूरत पड़ भी गई सुक्खू ने बिना आगा पीछे देखे, सोचे उसी लकड़ी से रामभरोस को पीटना शुरू कर दिया। इतना मारा कि उनका पलीदा निकल गया। तब जा कर सुगिया का कुंवारापन सुरक्षित रह सका था।
सुक्खू रामभरोस की असलियत जानते थे फिर काहे खामोश रहते...कृ
‘चौधरी साहब थोड़ा कम मुह निपोरिए। कुछ जानते भी हैं कि अइसहीं हवा में झार रहे हैं। हम आपसे जानना चाह रहे हैं कि सुगिया अगर आपकी बिटिया होती तब आप का इहै नियाव करते? औतरवा तऽ रामभरोस के ईहां मेहनत, मजूरी करता है तब जाके रामभरोस ओके बनी मजूरी देते हैं, फोकट में कुछ नाहीं देते हैं मुह देख कर। आप रामभरोस को जानो चाहे जीन जानो हम ओनके जानते हैं, आजु औतरवा के बिटिया संगे तऽ काल्हु तोहरे बिटिया संगे, तब जीन नरिआइएगा।’
पुनवासी चौधरी को बहुत ही खरी-खोटी सुक्खू ने सुनाया। सुक्खू की बातें पुनवासी चौधरी को पंचायत के अनुशाशन के प्रतिकूल जान पड़ीं।
‘सुक्खुआ साले की इतना मजाल’
पुनवासी चौधरी ने सिपाहियों को तुरन्त आदेश दियाकृ
‘बांध दो सुक्खुआ साले को पेड़ से और पचास जूते तथा पचास कोड़े मारो’
पुनवासी चौधरी के आदेश का अनुपालन बिरादरी के सिपाही काहे नाहीं करते, वे तत्काल उठे और सुक्खू को पकड़ने लगे।
उसी समय पंचायत में जोरदार हल्ला किसी बवन्डर की तरह उठा, वह भी अप्रायोजित, स्वस्फूर्त।
‘हमलोग भी देखते हैं कौन साला सुक्खू कक्का को पकड़ कर मारता है। जो भी सुक्खू कक्का को पकड़ेगा वह हमारे गॉव से साबिक नाहीं लौटेगा। उसे मार मार कर भर्ता बना देंगे हमलोग।’
यह गॉव के जागरूक युवकों की क्रोधभरी आवाज थी जो पहली बार सहपुरवा में किसी चौधरी के आदेश के खिलाफ उठी थी। युवकों की आवाज में चौधरी का आदेश कही बिला गया था।
पुनवासी चौधरी पंचायत वाले आदमी थे। वे छोटे बड़े सभी के यहां बैठकी किया करते थे वे समझते थे कि पंचायत में आग लग गई तो नहीं बुझाई जा सकती। इसे रोकना चाहिए। पुनवासी चौधरी अपने आसन से उठे और नेताओं की तरह हाथ जोड़ कर खड़े हो गए... लगे समझाने....कृ
‘भाइयों, आप हमारी बात धियान से सुनिएगा। यहां पंचायत सुगिया की हो रही है न कि सुक्खू की। सुक्खू को जो भला लगा बोल दिए ओसे पंचायत से का मतलब। आपलोग बूझ रहे हैं न हमारी बात...’
फिर तो पंचायत सुगिया के अपराध पर केंद्रित हो गई। पुनवासी चौधरी को भी यही ठीक जान पड़ा उनसे सुक्खू से क्या लेना देना। मामला तो सुगिया का है जो पंचायत के सामने है। सुक्खू को पंचायत में घसीटने से सुगिया का मामला भी हल नहीं होगा जबकि औतार कोे हर हाल में सजा देना है और उनसे भात, मांड़ और एक दरी लेना है। सुगिया के मामले की पंचायत शान्तिपूर्ण ढंग से निपट गई, उसमें हो हल्ला नहीं मचा। मचता भी नहीं, औतार ने बिरादरी को भात माड़ देना स्वीकार कर लिया, वे इसको प्रतिरोध कर भी नहीं सकते थे। झगड़ा करने से अच्छा है भात, मांड़ दे देना, सो उन्होंने भात, माड़ की सजा स्वीकार कर लिया।
सुक्खू को पंचायत का फैसला बेइमानी वाला लगा। उन्हें बुरा लगा कि गॉव के लड़के काहे चुप रह गए पंचायत में, उनके नाम पर तो बोलनेे लगे थे। तो क्या गॉव के लड़के चाहते हैं कि औतार को दण्ड दिया जाए। उन्होंने बस्ती में आकर गॉव के नौजवान लड़कों को खूब खूब फटकारा भी। गॉव के लड़के सुक्खू की फटकार सुनते ही चुप हो गए थे। उन्हें महसूस हुआ कि पंचायत में पुनवासी चौधरी के फैसले का विरोध करना चाहिए था। पंचायत ने गलत फैसला किया है, भला सुगिया की का गलती है इसमें? गलती तो रामभरोस की है। फिर औतार काहे भात-माड़ और दरी की सजा भुगतें। पर पंचायत तो हो चुकी थी और औतार सजा कुबूल कर चुके थे।
औतार जानते थे कि वे बिरादरी के विरोध में नहीं जा सकते थे, जाते भी नहीं, विकल्प ही नहीं था सुगिया का बियाह भी तो बिरादरी में ही करना था, उसका बियाह भी होगा बिरादरी में ही। बिरादरी के अलावा दूसरी जाति के लोग सुगिया से थौडै बियाह करेंगे। ऊंची जाति के लोग देहीं पर चाहे जेतना नाच कूद लें पर बियाह नाहीं करेंगे। औतार केवल एक ही काम कर सकते थे, रामभरोस का काम छोड़ सकते थे और उन्होंने वैसा किया भी। उन्होंने रामभरोस का काम छोड़ दिया। औतार अपने तरीके से सुगिया के बचाव में खड़े थे और उसके बियाह के बारे में गुनने लगे थे।
सहपुरवा कई महीने तक पुनवासी चौधरी की पंचायत वाली गंध पीता रहा। वैसे भी पंचायत की गंध पूरे जवार में फैल चुकी थी। गंध भी किसिम किसिम की, कुछ तो मादक तथा बेधक थी तो कुछ नाक-मुह सिकोड़ने वाली भी। नाक-मुह सिकोड़ने वाली गंध कुछ गिने चुने लोगों को परेशान किए हुए थी। वे समझ नहीं पा रहे थे कि यह जो आजादी मिली है वह किससे मिली है, किस बात और काम की आजादी मिली है। रामभरोस जैसे बाज तो आज भी आसमान में बिना अवरोध उड़ रहे हैं और जहां होता है वहीं झपट्टा मार दे रहे हैं। झपट्टा मार ही दिया रामभरोस ने औतार के घर पर और अपने पंजों में जकड़कर उठा ले गए सुगिया को अपनी बखरी में। बखरी में जिस तरह से उन्होंने लोकतंत्रा तथा आजादी की गांठें खोला उसे देखने परखने वाला कोई नहीं। आखिर जनता की, जनता के द्वारा और जनता के लिए वाली सरकार में रामभरोस ऐसा कैसे कर पा रहे हैं?
और पंचायत!कृ
उसका क्या कहना, हो गई पंचायत। सुगिया के बाप औतार को दण्डित कर दिया गया। न्यायशास्त्रा की किताब में सहपुरवा के न्याय का एक पन्ना और जुड़ गया। यही बीसवीं शताब्दी है, यही बदला हुआ देश्ष है, यही अंग्रेजमुक्त भारत है।देश अंग्रेजों से तो आजाद हो गया पर रामभरोस जैसे देशी अंग्रेजों से...! आजाद हुआ कि नहीं कौन बताएगा? क्या वह पीपर का बूढ़ा पेड़ या सहपुरवा के बरम बाबा बतांएगे? कोई नहीं बताएगा।
औतार पंचायत की गंध से कब तक बाहर निकल पाएंेगे उन्हें नहीं पता। शायद भात-माड़ और दरी देने के बाद। पर क्या वे सुगिया के साथ हुए बर्बर अत्याचार की कष्टप्रद पीड़ा से भी बाहर निकल पाएंगे? औतार के बाल पक चुके हैं, उन्होंने जिन्दगी को हसते देखा है तो रोते बिलखते भी देखा है। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि हर रोज होने वाली सुबह को किस तरह नमन करें और शाम को किस तरह से विदा करें। औतार क्रान्तिकारी चेतना से लैश होते तो शायद पंचायत के फैसले के खिलाफ लड जाते पर वे तो आदिम युग के आदमी थे अपने भीतर ही अपनी गलती निकालने वाले, हर घटित को भाग्य का फल मानने वाले। उनके लिए यही कम नहीं था कि वे अपना पक्ष किसी प्रकार से पंचायत में रख पाए थे। वे जानते थे कि तमाम सुखों में चुप रहना और खामोशी से उगते सूरज को निहारना बहुत बड़ा सुख होता है। वे बाल-बच्चे वाले हैं सो उन्होने खुद को समय के हवाले कर दिया है, जो करेगा समय ही करेगा। उनकी मुठ्ठी तो खाली खाली है।
पंचायत का दिन जो औतार के लिए भात-माड़ तथा दरी की सजा लेकर आया था, गुजर गया, उसे गुजरना ही था। भले ही कसमसाते और चीखते हुए ही गुजरा पर गुजर गया। औतार के जीवन का वह दिन अतीत बन चुका था पर औतार अतीत नहीं थे। वे कथित सभ्यता के प्रतीक व प्रतीत थे। अन्धेरा होते ही औतार उसमें डूबने लगे। अन्धेरे मंे भी राहत जैसी कोई बात औतार के लिए न थी। जब दिन ही लतियाते हुए आता है तब रात का क्या, जो आने ही वाली होती है वह तो किसिम किसिम का यातनादाई खेल लेकर ही आएगी। कैसे निपट पांऐगे औतार उससे। संभव है वह भी दिन की तरह ही आये और औतार को दण्डित करे। औतार रात के तमाम खतरों के डरों से कॉपने लगे, जैसे मलेरिया ने उन्हें जकड़ लिया हो।
औतार कर भी क्या सकते थे वे आगत के डरों से खुद को कैसे मुक्त कर सकते थे। वे पसीना पसीना हो गए। तभी फेकुआ की अइया उनके पास आ गईकृ
‘यह का हो रहा है आपको! आप तो पसीने से तरबतर हैं काहे पसीना हो रहा है आपको, गर्मी का महीना भी तो नाहीं है। लगता है बोखार है, चलिए घर में काहे ओसारे पर बैठे हुए हैं? दवाई की एक टिकिया घर में पड़ी है बोखार वाली, खा लीजिए उसे।’
फेकुआ की अइया औतार को ओसारे से घर के भीतर ले गई। घर के भीतर क्या था, वही माटी वाले फूस के छाजन वाले छोटे छोटे दो कमरे। उन कमरों में सहपुरवा के पाचास साल की उमर बराबर इधर उधर नाचा करती थी पर उस समय कमरे में उमर का नाचना छिन गया था। नाच की जगह पर सन्नाटा नाच रहा था। सन्नाटों ने कमरों की खुशियॉ लील लिया था। सन्नाटे भी सहज, सरल और तरल नहीं थे पूरी तरह डरावने थे। भीतर वाले कमरे में जाते ही औतार और कॉपने लगे, एक बार फिर उन्हें आतताई डरों ने जकड़ लिया।
‘भात-माड़ और दरी की सजा भुगत लेने के बाद भी उन्हें चैन से रहने दें रामभरोस तब नऽ, रामभरोस चुप बैठे रहने वालों में नहीं हैं।’
किसी तरह नमक मिला गीला भात कंठ से नीचे औतार ने पेट में उतारा। कंठ सिकुड़ चुका था, कंठ ने भात निगलना बन्द कर दिया था। एक एक कौर औतार के लिए कठिन हो गया था निगल पाना। फिर दवाई की टिकिया खाया और पसर गए लेवा पर, ऊपर से एक कथरी ओढ़ा दिया फेकुआ की मतारी ने। औतार नींद में जाने की कोशिश करने लगे पर नींद थी कि उनसे कोसों दूर थी। नींद को तो रामभरोस के आतंक ने उड़ा दिया था।
‘सुभाश्षितों के बीच कॉपता, हिलता कथा नायक
प्रतिनायक बन गया यानि कथा आगे बढ़ रही है, पढ़िए कैसे?’
वैसे भी लोकतांत्रिक देशों में रंगीन किस्म की पंचायतें पाई जाती हैं। ऐसी रंगीन पंचायतें सहपुरवा में ही नहीं सभी जगहों पर हुआ करती हैं भले किसी का साबिका उनसे पड़े न पड़े। देश की जो सबसे बड़ी पंचायत है उसमें भी तमाम लोगों के मुह सिले होते हैं रंगीन पंचायत वाले लोगों की तरह। व्यवस्था में अव्यवस्था नहीं होने पाए इस बाबत सुक्खू जैसे कुछ थोड़े से लोग ही तो बोल पाते हैं पंचायत में पर उनकी सुनता कौन है, वे वहां बोलें चाहे चिल्लाएं...
इस समय तो पूरे देश में आपात काल लगा हुआ है। आपातकाल लगाए जाने का निर्णय देश की बड़ी पंचायत ने ही किया है। उस पंचायत में भी कुछ लोग ऐसे होंगे ही जिनकी शक्लसूरत तथा विचार पुनवासी चौधरी से मिलते जुलते होंगे तथा वहां सुक्खू जैसे लोग भी होंगे। कुछ लोग देश की बड़ी पंचायत की कमान संभाले हुए हैं तो पुनवासी चौधरी सहपुरवा की पंचायत का। इसी तरह हर तरफ पंचायतें हो रही हैं, एक से बढ़ कर एक फैसले सुनाए जा रहे हैं, फैसलों को लागू करवाया जा रहा है। पंचायत का काम है नियमों की व्याख्या करना तथा व्याख्यायित नियमों को जनता के हितों के लिए जनता का नियम बनाना। और नियम लगातार बन रहे हैं। किसे पड़ी कि वह नियमों के बारे में गुने। कोई नहीं गुन रहा पंचायत के बनाए हुए नियमों तथा व्याख्याओं के बारे में....कृकृ
सहपुरवा के लोगों ने भी नहीं गुना पुनवासी चौधरी के फैसले के बारे में जो नियम की तरह लागू किया गया था। पुनवासी चौधरी का फैसला तो इतना बड़ा था कि उसकी अपील भी नहीं हो सकती थी। वैसे भी पुनवासी चौधरी फैसला करने वाले थे तो उसे लागू कराने वाले भी थे। फैसला और उसका क्रियान्वयन दोनों उनकी शक्ति में केन्द्रित था। ऐसे शक्तिवान हमारे देश में सर्वत्रा फैसला करते हुए दिखाई दे रहे हैं।
रामभरोस ने सुगिया के साथ जो कुकृत्य किया था इसकी जानकारी फेकुआ को सुन सुनाकर ही हुई थी। उस समय फेकुआ की उमर सात-आठ साल की थी। उस घटना को तो केवल औतार ही जानते थे, उन्होंने उस संत्रास को भोगा था, झेला था। गॉव भर की उलाहनाएं सुना था तथा रामभरोस के प्रकोपों को भी झेला था। पर रामभरोस के बारे में कोई कहने बोलने वाला नहीं था। गॉव का सारा आकाश खामोश हो गया था, गलियॉ सिकुड़ गई थीं। सिकुड़ने को तो वह पनघट भी सिकुड़ गया था जहां औतार जा कर नहाया करते थे।
सुक्खू और औतार दोनों हरिजन हैं पर उनमें बिरादरी का बारीक फर्क भी है, सुक्खू उतरहा हरिजन हैं तो औतार बड़हरिया। माना जाता है कि उतरहा हरिजनों का रियासत से सरोकार कभी नहीं रहा है और बड़हरियों का सरोकार सदैव से चन्देल राजाओं के साथ रहा है, चन्देल राजाओं के आने के साथ ही वे भी विजयगढ़ में आये थे।
सुक्खू और औतार की दोस्ती बचपन से ही है। हरिजन बस्ती में यही दोनों खानदान ऐसे हैं जो सहपुरवा में कई पीढ़ियों से आबाद हैं। दूसरे हरिजन जो सहपुरवा में रह रहे हैं वे सालाना इस गॉव से उस गॉव अपने डेरा तम्बू लगाते रहते हैं। उन्हें लगता है कि इस गॉव में गड़बड़ है, मालिक का अत्याचार है तो दूसरे गॉव में अच्छा रहेगा पर गॉव तो गॉव, मालिकों के जूते के नोकों पर खड़े और पड़े।
बिरादरी के सभी बड़े-बूढ़ों ने फेकुआ को भला बुरा कहा कि वह काहे के लिए रामभरोस से उलझ गया। उसे मालूम होना चाहिए कि रामभरोस सरकार हैं और उनके सामने सिर झुका कर रहना चाहिए। वे जो बोलंे, कहें उसे सुनो पर उस सुने को अनसुना कर दो, बोलना चाहो तो मुह सिल लो, इस तरह की सााधना जिसके पास नहीं वह सहपुरवा में रहने लायक नहीं।
फेकुआ हताश और निराश। फेकुआ थोपी हुई मर्यादाओं का आदमी नहीं था। सो उसे नहीं पता था कि मर्यादांए होती क्या हैं? कैसे बनती बिगड़ती हैं। वह सभी की बातें सुनता फिर भी नहीं समझ पाता कि उसने रामभरोस के साथ ऐसा क्या बोल दिया जिससे उनकी मर्यादा चोटिल हो गई। मर्यादा चोटिल करने वाली बात उसे नहीं बोलना चाहिए था। क्या वह नहीं बोल सकता कि ‘मालिक आपन हरवा खुदै जोत लिया करैं? अपना काम करना क्या बुरा होता है जो सभी उसे दोष दे रहे हैं।’ फेकुआ करता भी क्या, जो उसके मन में आया तत्काल बोल गया? बोला हुआ वापस भी तो नहीं हो सकता था।
औतार भी फेकुआ से कब तक गुस्साए रहते। आखिर कब तक एक बाप नाराज रह सकता है अपने बेटे से। किसी तरह औतार का गुस्सा ठंडा हुआ या उन्होंने खुद गुस्से को ठंडा किया पर उनका गुस्सा ठंडा हो गया। फेकुआ के माथे पर अपने मां बाप तथा दूसरे बड़े-बूढों की चेतावनियों का बोझ लद गया जबकि अपने माथे पर किसी प्रकार को बोझ लाद कर वह नहीं रहा करता था। बोझ के कारण वह रात भर नहीं सो पाया, करवटें बदलता रहा। वह जैसे जैसे करवटें बदलता उसकी नींद भी करवटें बदलने लगती। नींद कभी बांए तरफ जाती तो कभी दांए तरफ, नीद को बांए दांए के बीच में जाकर पसरना अच्छा नहीं लगता। नींद तो सदैव किनारों की तलाश में रहती है, किनारा हो सुख का, चैन का, आराम का, खुली और खिली सांसे लेने का। पर वहां किनारे कहां थे, वहां तो केवल सैलाब था, चेतावनियों का, आने वाले संभावित खतरों का।
फेकुआ को अपनी गलती समझ में नहीं आ रही थी आखिकार उसने किया क्या? ऐसा क्या बोल दिया रामभरोस से कि उनकी मर्यादा भरभरा कर गिर गई। क्या उनकी इज्जत इतनी कमजोर तथा भुरभुर है कि उसके कहने से भरभरा गई? उसे रह रह कर बिफना पर गुस्सा आता। उसने रामभरोस से हुई बात-चीत का हवाला उसके बपई से क्यों बता दिया? अगर नहीं बताया होता तो ऐसी नौबत ही नहीं आती फिर काहे के लिए उसका बपई नाराज होता उससे।
फेकुआ की दुनिया बहुत छोटी थी, वह मजूर था और बचपन से ही मजूरी के काम में लगा हुआ था। जब वह पॉच छह साल का था तब से पसीना बहा रहा है। चरवाही करते समय उसने कितना पसीना बहाया होगा उसका हिसाब उसके पास नहीं। चौदह पन्द्रह साल तक का होते होते तो उसने हल चलाना सीख लिया था फिर लगा था हलवाही करने। वह हलवाह है तो क्या हुआ उसके चित्त से उसका होना मरा नहीं था, उसके पास सपनों की पूंजी थी। उसका सपना था कि वह हलवाही करते करते असामी बनेगा। खूब कमाएगा अपना बैल खरीदेगा। असामी से कमाई कर लेने के बाद वह जमीन खरीदेगा, अपनी जमीन में मकान बनाएगा और अपने खेत में खेती करेगा। बेकार है हलवाही करना यानि मालिकों का हुकूम अपनी पीठ पर लाद कर चलना, उसके लिए मुश्ष्किल हो रहा है। जवान होते ही वह जान गया था कि जो बात उसे बुरी लगती है वह बात दूसरे को भी बुरी लगेगी। इस हिसाब से तो उसने रामभरोस से कुछ बुरा नहीं कहा, अपना काम खुद करने के लिए ही तो बोला था रामभरोस से फिर लोग उसे काहे दोष दे रहे हैं।
समय सुबह का था, फेकुआ निपटान के लिए गॉव से बाहर गया हुआ था। गॉव के बाहर ढूह वाला एक क्षेत्रा पड़ता था। वहां कई ढूहे थे, कुछ बहुत बड़े तो कुछ औसत आकार वाले। जिधर देखो उधर ही ढूहे। ढूहे बहुत बड़े व ऊॅचे नहीं थे फिर भी इतने बड़े थे कि उसके नीचे बैठे हुए आदमी का दिखना बन्द हो जाता था। यही ढूह वाला क्षेत्रा सहपुरवा के लोगों के लिए सार्वजनिक शौचालय था। औरतों के लिए गॉव के पूरब वाले ताल का भीठा था। बिफना भी ढूहे की तरफ गया हुआ था। बिफना को लौटता देख कर बीच रास्ते में ही उसका इन्तजार फेकुआ करने लगा। इन्तजार का गहन रिष्श्ता सुर्ती से होता है सो वह सुर्ती मलने लगा इसीर बीचबिफना भी वहीं आ गया।
‘का रे बिफना! ससुर तूं बड़ा काबिल बनते हो, रामभरोस वाली बात बपई से काहे बताय दिए रे! वैसे भी बोलो हम रामभरोस को का कह दिए थे जौने से ओनकर इज्जत गिर गई। फेर तोके का मिला बपई से वह सब बता कर?’ बिफना कुछ देर तक फेकुआ का चेहरा देखता रह गया, उसे लगा कि उसके कारण फेकुआ नाराज हो गया है और उस पर शक कर रहा है। उसने बहुत ही मुलायमियत से फेकुआ को समझाया....कृ
‘देख फेकुआ ई सब तोके नाहीं पता, केकरे से कइसे बोलना, बतियाना चाहिए। रामभरोस के बारे में तोके पता होता तो तूं खुदै उनसे वैसा न बोलते वे राक्षस हैं राक्षस, मारने पीटने लगते हैं। हम तो वोही दिन डेरा गए थे कहीं रामभरोस तोके मारने न लगें।’
फेकुआ निर्बुद्धि नहीं था, वह भी रामभरोस के बारे में बहुत कुछ जानता था। कई काण्ड रामभरोस ने उसके सामने किया कराया था। जिन्हें उसने बहुत पास से घटते हुए देखा था। हालात समझते हुए उसने बिफना से प्रतिवाद नहीं किया बल्कि आगे क्या करना चाहिए उसके बारे में जानना चाहा। जो बीत चुका था, बीत चुका था, उसे तो लौटना नहीं था। बिफना ने आष्श्वासनों के सहारे उसे समझाया बुझाया कि रामभरोस सहुरवा में सबसे नीच और खराब आदमी हैं, या यह कहो कि वे आदमी ही नहीं हैं। उनसे बेमतलब रार नहीं लेना चाहिए।
फेकुआ आशंकाओं में घिर गया जाने का करें रामभरोस। दैनिक क्रिया से निवृत्त हो कर दोनों अपने अपने घर लौट आये। रात में जो भोजन बना था उसे फेकुआ की अइया ने उसके सामने परोस दिया। फेकुआ सहजता से खाने लगा नहीं तो वह ताजा भात ही खाना चाहता है नून और मर्चा की चटनी के साथ। यह मौका फेकुआ की अइया के लिए अच्छा था, उन्हांेने उसे समझाना शुरू किया....कृकृ
‘बड़का अदमिन से तनिक नरम हो के बोला बतियाया जाता है रे। तूं नाहीं जानते, बड़का अदमिन का मन अउर दिमाग, दुन्नो जनमै से गरम होता है। उन लोगों के माथे से भाप निकलती है। ऐसे में नरमी से काम लेना चाहिए। बड़का लोगन का दिमाग गरम रहता ही है और तूॅ भी गरम हो गए तो मारै-पीट होगी नऽ।’
फेकुआ की अइया इतना ही बोल पाई थीं कि उन्हें सुगिया की याद आ गई, सुगिया की ही नहीं उसके साथ घटी घटना की भी। रोना रोकना चाहा पर नहीं रोक पाईं, मड़हा के अन्दर भाग कर चली गईं। अइया का बोलते बोलते रोना, बपई का डांटना सारा दृश्य फेकुआ को उलट पुलट गया, उसे लगा कि वह सिर के बल खड़ा है और धरती कांप रही है।
किसी भी आगत भय से फेकुआ कभी आतंकित नहीं हुआ था। यह पहली बार था कि अपनी पीठ पर डन्डे बरसता हुआ वह महसूस कर रहा था। हालांकि डरों में उसने कभी जीना नहीं सीखा था पर उसे लगा कि उसे डर कर रहना चाहिए पर कब तक! वह उथल-पुथल में था। कब तक का जबाब उसके पास नहीं था।
जोतनी पर उसे जाना था देर हो रही थी। जल्दी से वह घर से पैना लेकर बाहर निकला। उसे सन्देह था कि आज जरूर कुछ न कुछ होगा खेत पर, सभी लोग बेकार नहीं बोल रहे। रामभरोस करेंगे कुछ न कुछ। सामने से उसके मालिक चौथी गंवहा आ रहे थे जिनके यहां वह हलवाही करता था, फेकुआ को देखते ही गुसिया गए.
‘अबहीं तोहार बेला भयी है ससुर, बिफना कब्बइ काम पर निकल गया अउर तूं अबहीं हर जोतने जाय रहे हो। न काम का पता’ न बाप का पता, इहै हाल है ससुर तोहार।’
रामभरोस ने तो फेकुआ को उतना बुरा नहीं कहा था जितना चौथी गवहां सरपट बोल गए एक ही सांस में बाप तक चले गए। कुछ भी नहीं छोड़ेे। उसे लगा कि चौथी गवहां तो रामभरोस से भी आगे हैं। फेकुआ इन सभी बातों को आज से ही नहीं सुन रहा है, खेलने कूदने से लेकर गाय गोरू की चरवही करने तक, वह यही सब तो सुन रहा है। अभी दो ही साल तो हुए होंगे जब चौथी गंवहां ने उसे हलवाही पर लगाया था। उसके बाप औतार ने कोले के रूप में दो बिगहे खेत की मांग किया था चौथी गवहां से, पर चौथी गवहां ने औतार की बात पर विचार नहीं किया, एक तरह से नहीं माना।
चौथी गवहां ऐसे वैसे आदमी तो हैं नहीं, हिसाबी आदमी हैं, बातों का वजन तौल कर चलने वाले, उन्हें सौदा महंगा जान पड़ा। वे पहले बड़े जोतदारों की जमीन बटाई पर ले कर खेती किया करते थे, छोटी आमदनी थी, उसी में से बचाकर बाढ़ी-डेढ़ा का कारोबार करने लगे। कारोबार चल निकला। उन्नीस सौ छाछठ का अकाल आते ही उनकी किस्मत चमक गई। बाढ़ी डेढ़ा के उनके कारोबार ने उन्हें फटाफट धनी बना दिया। अकाल के समय हर कोई उनके पास चावल, गेहूॅ, दाल के लिए जाता और बाढ़ी डेढ़ा पर खाद्यान्न लेता, मान कर चलता कि दुगना ही तो देना पड़ेगा नऽ, बालबुतरू कम से कम भूखे तो नहीं मरेंगे।
गॉव में चौथी नाम से जाने जाने वाले चौथी, चौथी गवहां हो गये। हजारों रुपया बैंक में जमा हो गया, जमीन खरीद ली, पक्का मकान बनवा लिया। उनके घर में कितना गल्ला है किसी के लिए थाह लगाना मुष्किल। चौथी गवहां ने हिसाब लगा कर फेकुआ को अधारा पर रख लिया क्योंकि वह अकेला था, मेहरारू होती तो पूरे पर रखते, अधारा पर नहीं, फिर पूरा कोला भी देना पड़ता।
फेकुआ काम पर देर से आने का कारण चौथी गवहां को जरूर बताता पर कहीं शिष्टाचार में कोई कमी न रह जाए इसलिए महटिया गया। रामभरोस के नाराज होने का मतलब गाली गलौज, मारपीट आदि आदि और चौथी गवहां के नाराज होने का मतलब भूख, प्यास। चूल्हा ही नहीं जल सकता, पेट में जाने का का दोड़ने कूदने लगंे। रामभरोस से दूसरे किस्म का डर था और चौथी से दूसरे किस्म का पर दोनों डरों का रिश्ता केवल और केवल भूख वाली गरीबी से ही जुड़ता था। गरीबी से जुड़ने वाली और भी तमाम बातें सहपुरवा में थीं। जिन्हें धीरे धीरे फेकुआ बूझने लगा था। वह यह भी बूझने लगा था कि उसके अइया बपई मुह सिल लेने तथा कान बन्द रखने की नसीहतें उसे क्यों दिया करते हैं।
फेकुआ सीधे बैलों की तरफ गया जिन्हें चौथी गवहां का लड़का चरा रहा था। उसने बैलों को हल में नाधा यह सोचते हुए कि क्या कभी वह रामभरोस और चौथी गवहां को भी बराबरी के जूए में नाध सकता है इन बैलों की तरह। उसे खुद पर गुस्सा आया...एक गरीब हरिजन भला ऐसा कैसे सोच सकता है? उसके नसीब में तो बराबर गालियॉ ही लिखी होती हैं।
बिफना हल जोत रहा था, फेकुआ की इन्तजारी में कि फेकुआ आये और बैलों को नाधे। फेकुआ ने नधे बैलों को बिफना के पीछे लगा दिया। हल जोतते हुए ही बिफना ने भी फेकुआ को भला बुरा कहा। उसने पहले जो कुछ भी फेकुआ से कहा था उससे उसका पेट नहीं भरा था। रामभरोस के पुराने करतबों ने उसके मन को भयातुर बना दिया था। वह बराबर डर पीने लगा था। फेकुआ के साथ कुछ भी कर सकते हैं रामभरोस फिर तो पूरी गृहस्थी ही औतार कक्का की बैठ जाएगी और फेकुआ का हाथ पैर टूटेगा अलग से। बिफना अपने दोस्त को हर हाल में बचाना चाहता था सो वह उसे डांट रहा था। फेकुआ खामोश था तथा हल में नधे बैलों के थूथुन पर सारा गुस्सा उतारने लगा था। हालांकि फेकुआ डरा हुआ था पर डर कर घुटने वाला नहीं था सो रामभरोस व चौथी के लिए मन के भीतर जमी हजारों किस्म की गालियांे को वह अबोल बैलों पर उतार रहा था। जबकि उसे पता था कि इन अबोलता बैलों का दोष नहीं है? इन्हें नहीं मारना चाहिए। फिर भी फेकुआ उन्हें मारे जा रहा था। बहुत मुष्किल होता है गुस्से को रोक पाना, जिसने गुस्सा रोक लिया, खुद को संतुलित कर लिया उसने जीवन साध लिया। अभी फेकुआ की उमर ही क्या थी जो वह खुद को साध लेता। उसे गुस्सा अपने लोगों पर आ रहा था, जो उसे दोष दे रहे थे। अचानक उसकी समझ में आया कि लोग तो उसे ही दोष देंगे रामभरोस को कौन दोष दे सकता है भला। यह दुनिया ही ऐसी है हर हाल में मारा जाता है कमजोर आदमी ही, गरीब आदमी ही। ताकतवरों को मारने पीटने की किसी में औकात नहीं होती। रामभरोस ताकतवर हैं उनसे निपटने की ताकत किसी में नहीं।
फेकुआ अपनी सोच से बाहर निकला उसे समझ में आया कि अबोलता बैलों को मार कर उसने गलती किया है। बैलों को नहीं मारना चाहिए था। फिर वह बैलों को सहलाने लगा, पुचकारने लगा जो बैलों से माफी मॉगने माफिक था। बैल भी गर्दन हिलाने लगे और मस्त हो कर पगुरी करने लगे। बैलों को पगुरी करता देख फेकुआ का मन हरा हो गया जैसे प्रकृति के हरे पन में उसका मन कैद हो गया हो। पर उसके मन में उसी समय एक सवाल ने भी जनम ले लिया...कृ
उसे तो समझ आ गई कि अबोलता बैलों को नहीं मारना-पीटना चाहिए, क्या ऐसी समझ रामभरोस को भी आएगी? उनके सामने तो पूरा सहपुरवा ही अबोलता है फिर भी वे अबोलतों को सदैव मारते-पीटते रहते हैं। पर उन्हें कभी भी समझ नहीं आएगी कि अबोलतों को नहीं मारना-पीटना चाहिए।
‘विवेकहीन कथाचरित्रा भले ही उल्लेखनीय न हो
पर कथा विषय की प्रभावोन्वति को कुदरती ताकत तो देते ही हैं’
कुर्सी पर बैठे हुए रामभरोस चाय की चुस्की ले रहे थे। चाय की चुस्की में गॉव था, गॉव के होने का मूल्यांकन भी चाय की प्याली में तैर रहा था। उनका दबदबा चाय की भाप के साथ उड़ रहा था पर भाप थी कि उनके मुह पर पसर पसर जाया करती थी। भाप का वे क्या बिगाड़ लेते? भाप तो किसी से नहीं डरती और न ही उसे अदब में रहना आता है। सो उनके चेहरे को ढक लिया करती थी इसीलिए फूॅंक फूॅक कर वे चाय पी रहे थे जिससे उनके चेहरे को भाप ढकना बन्द कर दे। पर नहीं भाप थी कि मानने वाली नहीं थी और उनके चेहरे पर मडरा रही थी।
चौथी गवहां हरिजन बस्ती से लौट कर अपने घर न जाकर रामभरोस की बखरी पर जा पहुंचेे। उन्होंने देखा कि चाय की भाप में रामभरोस जी घिरे हुए हैं. यानि उनका मूड ठीक है तभी तो चाय की भाप से प्यार कर रहे हैं।
‘पा लागी सरकार!’ चौथी गवहां ने हाथ जोड़ कर उनका अभिवादन किया जो किसी प्रार्थना माफिक था।
‘खुष्श रहो, केहर से आ रहे हो चौथी? बदलुआ तोहरे कीहें नाहीं गया था का?’ रामभरोस ने चौथी गवहां से पूछा
‘गया था सरकार!’ चौथी गवहां ने जबाब दिया
‘अच्छा, अच्छा बइठो’
रामभरोस ने चौथी गवहां को बैठने के लिए संकेत किया। चौथी गवहां रामभरोस की कुर्सी से दो हाथ की दूरी पर रखे गये मोढ़े पर बैठ गये। रामभरोस के पास रखी कुर्सी पर बैठने की योग्यता चौथी गवहां में न थी। अगर बैठ जाते तो रामभरोस का माथा ठनक जाता। चौथी जैसे तमाम लोगों का रिष्ता केवल मोढ़े से ही हो सकता था और वह बराबर बना हुआ था। जो रामभरोस की कुर्सी से दूर कहीं रखा होता था। कुर्सी और मोढ़े के द्वन्द ने कभी भी चौथी को विचलित नहीं किया था। वे विचलित होते भी क्यों? बैठना तो मोढ़े या कुर्सी दोनों पर ही होता है, बैठा तो जमीन पर भी जा सकता है, उकड़ू पल्थी मारकर पद्मासन की मुद्रा में भी। यह कम नहीं कि वे रामभरोस के सामने मोढ़े पर बैठते हैं, उनसे हस हस कर बतियाते हैं। चौथी को क्या पड़ी कि वे मोढ़े, कुर्सी या जमीन पर बैठने की सांस्कृतिक परंपरा का पता लगाएं कि ऐसी परंपरा कब से है? किसने चालू करवाया है इस परंपरा को। इस परंपरा के अतीत के बारे में तो उन्हें नहीं पता पर इतना पता है कि बराबरी दर्जे काआदमी ही कुर्सी पर बैठता है। उससे कम दर्जे का आदमी मोढ़े पर बैठता है और जो दर्जाविहीन होता है वह जमीन पर बैठता है या खड़ा रहता है। बाप दादों के जमाने से ही वे जैसा देखते आ रहे हैं वैसा ही कर रहे हैं। मोढ़े पर बैठते ही उन्होंने विनम्रता पूर्वक रामभरोस से पूछा....कृ
‘का हुकुम है सरकार! काहे बलाव भेजे थे?
चाय की प्याली कुछ इस तरह से रामभरोस ने मेज पर रखा जैसे वे अपना पूरा दबदबा मेज पर रख रहे हों जिसे चौथी देख लें। चौथी ने उसे देखा भी। उसे न भी देख पाते चौथी तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता। चौथी हरिजन बस्ती से जब वापस आ रहे थे रामभरोस की बखरी की तरफ, तभी से बखरी का दबदबा उनके पीछे पीछेे आने लगा था। चौथी एक कदम आगे चलते तो ठीक उनके पीछे बखरी का दबदबा होता। दोनों की संयुक्त चाल पगडन्डी की धूल उड़ा देती। चाय खतम होने के बाद रामभरोस ने चौथी से जानना चाहा..कृ
कोई बात है का कि सुबह के समय ही चौथी चला आया बखरी पर, बाद में आराम से आता, क्या किसी खबर की गंध फैलने वाली है सहपुरवा में या ऐसे ही चला आया। रामभरोस तमाम बड़े लोगों की तरह भूल चुके थे कि उन्होंने चौथी को बुलवाया था अचानक उन्होंने खुद को संयत कर लिया फिर वे चौथी से हाल-चाल पूछने लगे....कृ
‘अइसहीं तोहके बुलाए थे हो! कोई खास बात नाही है, थोड़ी सुर्ती गाठों चौथी। जोतनी का का हाल-चाल है?’ रामभरोस ने पूछा चौथी से
‘अबहीं पछड़ी है सरकार!, पांच छह दिन तो चलबै करेगी, आपके सीलिंग वाले मुकदमवा में का हुआ सरकार?’
अभिमान जताते हुए रामभरोस जबबिआए....कृ
‘अरे! चौथी तूं का बूझता है रे बुड़बक, हमारी जमीन सरकार निकाल पाएगी, मजाक है का? जब तक हम रहेंगे, जमीन नाहीं निकलने देंगे। ओके तो हमैं ही जोतना है। तोहार छोटका सरकार हमरे बाद चाहे जौन करैं।’
कुछ ख्याल करके रामभरोस फिर बोले जैसे कुछ भूल गए हों..कृ
‘अरे हां चौथी! तनिक ई बताओ कि आज कल किसका काम-काज कर रहा है फेकुआ?
चौथी गवहां को अचरज हुआ, रामभरोस एक असाधारण आदमी हैं, घर घर की खबर रखते हैं। पूरे क्षेत्रा की खबरें इनके यहां सुबह शाम सलाम बजाया करती हैं और इन्हें फेकुआ के बारे में जानकारी नहीं कि वह किसका काम कर रहा है? निश्ष्चित ही कोई गंभीर बात है या होने वाली है वर्ना फेकुआ के बारे में रामभरोस हमसे नाहीं पूछते। कुछ न कुछ तो विशेष चल रहा है रामभरोस के दिमाग में। बहरहाल चौथी गवहां ने उत्तर दिया। उन्हें उत्तर देना ही था, बिना उत्तर दिये रामभरोस के प्रकोप से वे बच नहीं सकते थे।
‘सरकार! ऊ तऽ असउं हमरय काम कर रहा है। मेहर लइका नाहीं हैं, अधारा पर है।‘
‘अधारै पर हो’
आश्चर्य चकित होने की नौटंकी रामभरोस ने की जैसे उन्हें कुछ पता ही न हो पर ऐसा नहीं था उन्हें तो फेकुआ के बारे में सारा कुछ पहले से ही मालूम था।
‘हं सरकार!’ चौथी गवहां ने रामभरोस की हां में हां मिलाया। रामभरोस ने एक खखार लिया और मुंह में दबी सुर्ती वहीं कुर्सी के बगल में अखच दिया जिसे देख कर किसी को भी उल्टी हो जाती पर चौथी गवहां रामभरोस के दरवाजे पर कैसे घिनाते, उल्टी करने का तो सवाल ही नहीं था। रामभरोस उल्टी करें, पर-पाखाना करें किस बात की घिन। रामभरोस सरकार जैसे लोग तो कहने के लिए देहधारी होते है पर असल में विदेह होते हैं, न तो उनकी उल्टी में बदबू होती है न ही उनके पाखाने में, उनकी गालियों में सभ्यता के सुभाशितों वाले तत्व होते हैं सो उनकी गालियां भी प्राचीन सभ्यता के प्रसाद माफिक होती हैं। चौथी गवहां ने खुद को संयमित किया और मन में उपजी घिन को दबा लिया। वैसे भी बड़े लोगों के व्यवहारों में घिन तो होती नहीं, होगी भी अगर तो उससे क्या घिनाना। रामभरोस अपने दरवाजे पर या गॉव में कहीं भी, कुछ भी करें, उन्हें कोई रोकने टोकने वाला तो था नहीं।
मुंह में दबी सुर्ती खखार कर रामभरोस ने चौथी गवहां से पूछा....कृ
‘का हो चौथी! फेकुआ कऽ कोला (हलवाहों को हलवाही के एवज में दिया जाने वाला खेत का छोटा टुकड़ा) अबहीं लवाया (कटाया) के नाहीं?’
चौथी गवहां ने सिर हिला कर नकारा और बताया...कृकृ
‘नाहीं सरकार अबहीं नाहीं लवाया है!’
रामभरोस की हर बात मतलब वाली होती है, उसका प्रयोजन होता है, एक ऐसा प्रयोजन जो भले ही देर में पूरा किया जाए पर उसे निष्चित ही पूरा किया जाना है। उन्होंने साफ साफ निर्देश दिया....कृ
‘देखो चौथी! ओकर कोला तूं लवाय लो, ओके जीन लवने दो। ओकरे कोला का सारा डांठ अपने खरिहाने रखवाओ, बूझ गए के नाहीं फिर दवांय भी लो। इसमें देरी नहीं होनी चाहिए।’
‘अरे सरकार! आप ई का बोल रहे हैं, आज कल हरिजनों का कोला कौन लवाएगा, हरिजनों के लिए सारा कुछ कर रही है सरकार। पूरा थाना आ जाएगा, हम गरीब आदमी पिसाय जाएंगे, जेहल होय जाएगी, हमार बाल बुतरू अनाथ जांएगे सरकार! ई कैसा हुकूम दे रहे हैं आप!’
पूरी बात भी चौथी नहीं कह पाए थे कि रामभरोस की पुतलियां नाचने लगीं। दो तीन बार कुर्सी से उठे और बैठे। यह रामभरोस के गुस्से की जानी पहचानी पहचान थी। वे जब दो तीन बार कुर्सी से उठते बैठते थे तब उनके सामने बैठने वालों को पता चल जाता था कि रामभरोस गुसिया गए हैं। गुस्से की स्थिति में वे क्या कर जाएंगे यह समय को भी भी नहीं पता होता। चौथी का माथा ठनका....
‘जाने का होने वाला है, लगता है सरकार गुसियाय गए हैं?’
रामभरोस के सामने चौथी गवहां का मान-सम्मान अर्थहीन था। उन्हें लगा कि उनकी धन-पूंजी बेकार है और वे एक ऐसे आदमी हैं जो केवल रामभरोस की ‘हां’ में ‘हां’ ही मिला सकते हैं यानि हुकूम के गुलाम। वही हुआ चौथी गवहां खुद ही रामभरोस की जुबान में बोलने लगे जैसे रामभरोस की जीभ उनके मुंह में घुस गई हो।
‘नाहीं नाहीं सरकार! आप जौन कहेंगे उहय होगा, फेकुआ का कोला हम लवाय लेंगे अउर दवांय भी लेंगे।’
इसके अलावा चौथी गवहां क्या बोल पाते। उनके मन की सारी बातें मन ही में दबी रह गईं। कभी कभी उन्हें लगता है कि वे रामभरोस के गुलाम नहीं हैं कि जैसा वे कहें वैसा ही करें, पर करते क्या? रामभरोस के होने का जो प्रचलित अर्थ था वह यह कि उनके सामने जवार का कोई आदमी सिर्फ गूंगे की तरह ही रह सकता है। ऐसे संवेदनशील अवसर पर रामभरोस की मुखाकृति अजीब किस्म की हो जाती है, उनके थुथने फूल जाते हैं, ऑखें चढ़ जातीं हैं, वे हद से ज्यादा सीरियस हो जाते हैं। अपनी नाटकीय अभिव्यक्ति दिखाने में विशेषकर क्रोध की भूमिका में रामभरोस विशेष किस्म की खड़ी बोली बोलने लगते हैं, कभी कभार अंग्रेजी शब्दों को भी अपनी बोली में घोल लेते हैं। उन्होंने वैसा ही किया क्योंकि वे गुस्से में थे कि चौथी उन्हें सलहइया रहा है।
‘देखो जी चौथी! हमने जो कह दिया, कह दिया, फेकुआ साले को कोला मत लवने (काटने) दो, थाना पुलिस से काहे डरते हो जी! हम काहे के लिए ईहां बैठे हैं, ईहां हमहीं सरकार हैं, हम गॉव के परधान होते हैं, हमरे मर्जी बिना ईहां एक पत्ता भी नाहीं हिल सकता। बूझे कि नाहीं, कलिहै ओ सारे का कोला लवाय लो और संगे संगे दवांय भी लो।’
रामभरोस की बात केवल बात ही नहीं होती, वह सहपुरवा के लिए हुकुम होती है। थाना, कचहरी से ऊपर। चौथी गवहां हालांकि बी.डी.सी हैं फिर भी रामभरोस के लिए किसी आज्ञाकारी की तरह ही हैं। हुकुम तो हुकुम, हुकुम उदूली हुई कि नहीं किसिम किसिम के खतरे, जिसमें मार, पीट, घर का जलना, खलिहान आदि का जल जाना सारा कुछ शामिल। चौथी की इलाके के बड़े लोगों तथा सरकारी अहलकारानों से जान पहचान भी है पर रामभरोस के आगे उस जान पहचान का कोई प्रयोजन नहीं। रामभरोस खुद थाना हैं तो तहसील और कलक्टरी भी। यह जो सहपुरवा के लोगों की स्वतंत्राता है उनके यहां प्यास लगने पर पानी पीने के लिए आया जाया करती है और भूख लगने पर खाना भी खा लिया करती है। बराबर खड़ी रहती है दरवाजे पर दरवान की तरह। मुस्कराती है तो रामभरोस के कहने पर, सोती है तो रामभरोस के कहने पर। चौथी जानते थे कि उनकी आजादी भी रामभरोस के कृपा पर ही टिकी है।
फेकुआ का कोला यदि नहीं लवाया गया तो रामभरोस कुपित हो जांयेगे, मार-पीट करेंगे, घर फुंकवा देंगे, बलात्कार आदि भी करवा देंगे सो फेकुआ का कोला लवाय लेना ही ठीक होगा। अगर सहपुरवा में साबूत रहना है तो...। यही समयानुकूल होगा। रामभरोस की अवज्ञा करना तो मार-पीट को दावत देना होगा, अपने दरवाजे पर भी मारने लगेंगे रामभरोस। फेकुआ का कोला लवाय लेने पर तो रामभरोस थाना थूनी से उन्हें बचा ही लेंगे सो फेकुआ का कोला लवाय लेना चौथी ने उचित समझा।
‘अच्छा सरकार! आप जौन कहेंगे उहय होगा। अब हम घरे जांए सरकार! कोलवा लवाने का जोगाड़ भी तो बनाना होगा। हलवहिनों को धान कुटवाने के लिए रामगढ़ भेजना है, उन्हें सहेजना होगा फेकुआ का कोला लवने के लिए। आप तो जनबै करते हैं कि ओन्हने छिनार जाने का करैं।’
रामभरोस का आदेष्श अपनी पीठ पर चिपका कर रामभरोस के दरवाजे से अपने घर की तरफ चौथी निकल गए। बखरी से वे कुछ दूर चले गए पर उन्हें लगता कि अभी वे बखरी के आसपास ही हैं। बखरी से दूर नहीं जा पा रहे हैं। वे पैदल चल रहे थे, एक कदम आगे बढ़ाते फिर दूसरा कदम उसके आगे। कितना तेजी से चलते। उन्होंने कुदरती चाल थोड़ा तेज किया, वे तेजी से चल कर अपने घर पहुंच जाना चाहते थे। उनकी ऑखों के सामने उनका घर था, घर थोड़ी ही दूरी पर था। घर तक पहुंचने का जो समय था वह चौथी के लिए सोच गुन का समय था।कृ
फेकुआ को कोला वे लवा तो लेंगे, कोला लवाते समय ही मारपीट हो गई तो.वे का करेंगे, फेकुआ थाने चला गया तो वे का करेंगे? कई तरह के सवाल अचानक उनके रास्ते पर बिछे जा रहे थे। एक सवाल के बारे में गुन रहे होते कि दूसरा सवाल आगे आकर बिछ जाता, उन्हें लगता के ये सारे सवाल उनका चलना बन्द कर देंगे, दरअसल ऐसा था भी।
चौथी को आदेश देकर बखरी के अन्तःपुर में रामभरोस समा गए थे। चौथी थे कि उन्हें ही फेकुआ का कोला लवाना था, उसे दंवाना था। सारा कुछ चौथी को ही करना था, कानून व परंपरा दोनों उन्हें हाथ में लेना था। रामभरोस तो अन्तःपुर से बाहर निकलते नहीं। वे बखरी में से ही खबरों को सूंघते कि खबर सूंघने लायक है या नहीं। खबर का क्या वह हमेशा बाहर रहती है। फेकुआ के कोला लवा लेने की घटना बखरी से बाहर निकल कर खबर बनती कि फेकुआ के कोले का क्या हुआ? खबर बनती कि चौथी का क्या हुआ? बनती हुई खबरों को रामभरोस अन्तःपुर से विश्लेषित करते। अगर खबर चूमने चाटने लायक होती तो बाहर निकलते नहीं तो अन्तःपुर में आराम कर रहे होते। यह तो समय व चौथी के किस्मत का खेल है कि वह खबरों को किस तरह से गढ़ता है? समय कहीं बुरा न गढ़ देे खबर को और उन्हें जेल जाना पड़ जाए।
चौथी असमंजस में थे, उन्हें खबर बनना बुरा लग रहा था, क्या करंे, क्या न करें। कुछ ही देर में वे घर आ गए।
‘गढ़ी हुई ताकत वालों की ताकत अधिक ताकतवरों
के सामने बौनी हो जाती है पर कमजोरों के सामने क्या कहने’
रामभरोस का सन्देशा पाकर हल्के का लेखपाल रामबली तड़के ही उनकी बखरी पर आ गया था। आजकल गरीबों के लिए भूमि आवंटन का कार्यक्रम चल रहा है सो वह परेष्शान है। कागज तैयार करते करते वह थक जाता है। ग्रामसभा की जमीन का आवंटन करने के लिए वह गरीबों की चौथी सूची बना रहा है। तीन बार उस सूची को बना चुका है। हर बार सूची में उसे बदलाव करना पड़ रहा है कभी अधिकारियों के आदेशों पर तो कभी क्षेत्रा के प्रभावषाली नेताओं के दबावों पर। उसे समझ नहीं आ रहा कि वह कैसी सूची बनाए जिससे अधिकारी तथा नेता दोनों खुश रहें। वह गॉवों में एक बार नहीं जाने कितनी बार घर घर जा चुका है, अब तो उसे गरीबों के नाम तक याद हो चुके हैं। एक घर में वह जाता है तो वहां उसकी ऑखों पर पहले का देखा हुआ घर तैरने लगता है। घरों की हालत देख कर वह समझ नहीं पाता कि किस घर में अधिक गरीबी है? जिस घर को वह देख रहा है यहां अधिक गरीबी है कि उस घर में जिसे वह पहले ही देख चुका है। वह एक महीने से गरीबों के घरों के चित्रा मन में बना रहा है। उसे लगता है कि जमीन का आवंटन तो सभी गरीबों को किया जाना चाहिए पर ऐसा आदेश नहीं है। आदेश है कि अत्यधिक गरीब को ही जमीन आवंटित किया जाना चाहिए। चौथी सूची में वह ऐसा नहीं करेगा। उसमें सभी भूमिहीन गरीबों का नाम लिखेगा और सारी भूमि को उनमें बराबर बराबर आवंटित करेगा। उसने वैसा ही किया भी। आवंटन के सिलसिले में उसे अपने हल्के में प्रतिदिन हाजिर रहना पड़ता है। कल वह सहपुरवा के पड़ोसी गॉव नुनुआ में था वहीं रामभरोस का करिन्दा रामदयाल उससे मिला।
रामदयाल कई कई विशेषताओं वाला आदमी है। पहली विशेषता उसकी है कि वह पहलवान है। दो चार को अकेले ही मार सकता है। लाठी-डंडा चलाने में उसका जोड़ नहीं। मार-पीट की उसकी कई कहानियां चर्चित हैं। उसी ने रामभरोस का सन्देशा उसे दिया कि वह शीघ्र ही रामभरोस सरकार से मिले जितना जल्दी हो सके। ‘सरकार! बुलाए हैं।’
लेखपाल रामबली का काम तहसील में सराहनीय माना जाता है तथा क्षेत्रा में भी। यह अच्छाई उसे कैसे हासिल हुई उसे नहीं पता, न ही उसे इसका घमंड है कि वह अच्छा आदमी ही नहीं अच्छा लेखपाल भी है। वह स्वभाव से मृदुभाषी सरल और सामान्य आदमी है। लेखपालियत पीठ पर लाद कर चलने वाला वह नहीं है दूसरे कमाऊ लेखपालों की तरह। लेखपाल की आर्थिक स्थिति भी किसी से कम नहीं है हालांकि पहले के रईसों में उसके बाप-दादों के नाम नहीं थे। लेखपाली के द्वारा रामबली ने अपनी आर्थिक स्थिति काफी मजबूत कर लिया है। लेखपाल रामबली को अचरज लगा....कृ
‘कल ही तो मिले थे रामभरोस सरकार तहसील में, कुछ बोले नहीं, फिर आज काहे के लिए बुलावा भेज दिए’ हो सकता है कोई काम आन पड़ा हो’
रामभरोस के दरवाजे पर उस समय कोई नहीं था। रामबली आए और एक किनारे रखी मचिया पर मर्यादा की पर्याप्त दूरी बना कर बैठ गये। थोड़ा समय गुजरा होगा कि रामभरोस का कारिंन्दा रामदयाल आ गया। वह कंधे पर करियहवा बोंग धरे हुए था। लेखपाल को देखते ही मुस्कराया और मूंछे नुकीली करने लगा। लेखपाल रामबली ने मचिया से उठ कर रामदयाल को सलाम बजाया....कृकृ
‘सलाम बाबू साहब! सरकार से भेंट कराइए, थोड़ी जल्दी है’
रामदयाल ने मूंछ नुकीली करना बन्द किया और लेखपाल से कहा....कृकृ
‘अरे! लेखपाल बइठो तो... अबहीं सरकार गुसलखाने में होंगे, ओनकर इहै टेम है। काहे की जल्दी है? दर-दतुइन करो फिर पर-पानी करो, सरकार बुलवाये हैं तो मिलबै करेंगे।’
रामदयाल की बातों में रामभरोस के रूतबे की गंध मिली हुई थी, नहीं तो हल्के के दूसरे लोग इस तरह की बात लेखपाल से नहीं कर पाते। लेखपाल से बातें करके रामदयाल कारिंदा ने बखरी के कहांर डंगरा को गरियाया, वह वहीं खड़ा था।
’कारे डंगरा! तोके ससुर नाहीं लउक रहा है? लेखपाल आए हैं, एनकर सेवा-सत्कार कौन करेगा ससुर, जाओ नर-नाश्ता ले आओ।’
डंगरा रामभरोस का कहांर था, उसका काम था दरवाजे पर आए मेहमानों का स्वागत-सत्कार करना, बोला...कृ
‘हं सरकार! का हुकुम बा?’
रामभरोस के नौकर रामदयाल को भी सरकार ही बोलते थे। वे रामदयाल से डरते थे। रामभरोस तो बाद में मारेंगे पीटेंगे पर रामदयाल तो तुरंत पीठ पूजने लगेंगे।
डंगरा रामदयाल के पास आ गया, वह हाथ में लेजुर और बाल्टी लिए हुए था, उसने लेखपाल को सलाम बजाया और उन्हें दातुन दिया।
‘सरकार मुंह हाथ धोय लीजिए, नाश्ता लाय रहा हूं। सरकार के आने में अबहीं देरी है।’
रामभरोस के दरवाजे पर लेखपाल धुक-धुकी में था, सोच नहीं पा रहा था कि रामभरोस ने उसे किस काम के लिए बुलवाया है। लेखपाल के मन में आया कि उसे रामदयाल कारिन्दा से पूछना चाहिए पर नहीं पूछ पाया जाने का गुनें रामदयाल।
रामदयाल भी कम हरामी नहीं है। मन में रामदयाल से पूछने वाले उठते भावों को लेखपाल दबा गया। होगा कुछ काम, सरकार कुछ कराना चाहते होंगे, काम के लिए ही बुलवाया होगा। उसने खुद को सहलाया..। उसने रामभरोस का कुछ नहीं बिगाड़ा है फिर काहे के लिए डरना। गरीबों के लिए चलाए जा रहे भूमि-आवंटन का काम भी तो सहपुरवा में नहीं चल रहा। यहां तो प्रथम चक्र में ही निपट गया था आवंटन का सारा काम। उसे मालूम है कि कलक्टर साहब जब सहपुरवा आए थे तब रामभरोस के कार्यों की भूरि भूरि प्रशंसा किए थे। उस समय रामभरोस ने भूमि आवंटन के लिए जितने सुझाव दिए थे लेखपाल ने सारा काम उनके सुझावों के आधार पर कर दिया था। उसे पता था कि रामभरोस से विरोध करके वह लेखपाल नहीं बना रह सकता है। रामभरोस के मन मुताबिक ही प्रष्शासन चलता है।
अचानक लेखपाल को अपने मित्रा रामकिशुन का ख्याल आ गया। वह भी इसी क्षेत्रा का लेखपाल था। उसने किसी मामले में रामभरोस का कहा हुआ नहीं माना था। रामभरोस कुछ उल्टा सीधा करवाना चाहते थे किसुन से और किसुन ने वही किया जो कानूनी रूप से उचित था। दो चार दिन के अन्दर ही उसे सस्पेन्ड कर दिया गया था और एस.डी.एम. साहब ने गालियां भी उसे दीं थीं।
लेखपाल के मन में रामभरोस को लेकर भय बना हुआ था, सरकार हैं जाने का करें। असली सरकार से तो लड़ा भी जा सकता है जिसने उसे नौकरी दिया है पर रामभरोस जैसे सरकार से नहीं लड़ा जा सकता। वैसे भी ऐसे सरकारों से कभी नहीं लड़ा जा सकता। ये ऐसी सरकारें होती है जो दिखती नहीं हैं, जो जनता द्वारा चुनी नहीं जाती हैं, जिनके कानूनों के बारे में किसी को जानकारी नहीं होती, ऐसी सरकारें खुद कानून बनाती हैं और उसे खुद लागू भी कराती हैं।
लेखपाल एकबारगी कांप गया। वह जानता था कि असली सरकार तो रामभरोस ही हैं। सरकार वाले अधिकारी तो दिखावा होते हैं। वे रामभरोस जैसे ‘सरकारों’ के मुताबिक चलते हैं। कौन ऐसा आला अधिकारी होगा जो रामभरोस के यहां आ कर मेहमानी न करता हो और शिकार करने के लिए जंगल न जाता हो। उसे एक कहानी आज भी याद है कि कुछ साल पहले यहां के जो कलक्टर साहेब थे उन्होंने अडगुड़ के जंगल में एक बाघ मारा था। उस शिकार वाले कार्यक्रम को रामभरोस ने ही आयोजित करवाया था। खुश होकर कलक्टर साहेब ने रामभरोस को एक रायफल तत्काल दिलवा दिया था।
करीब एक घंटे बाद लेखपाल ने खड़ाऊं की कट कट सुना...कृ
‘लगता है सरकार आ रहे हैं!’
सरकार के आने की आहट सेे गूॅज गया बखरी का आहाता। आने की आहट पीने लगा लेखपाल।
आहट सही थी। वे रामभरोस ही थे। शरीर का भारी भरकम बोझ लिए रामभरोस खड़ाऊं की कड़प कड़प के साथ बखरी से बाहर निकल रहे थे। खड़ाऊं की कड़प कड़प में सामन्ती धुन थी जो सामन्ती तरीके से फैल रही थी। सामन्ती धुन में पहले कड़प फिर झड़प, ऐसी ही होती है सामन्ती धुन। वे लकदक सफेद खादी के आवरण में थे। सफेद खादी का उनका अवरण भी खूब खूब था जैसे उसी आवरण से स्वतंत्राता संग्राम का इतिहास ने खुराक हासिल किया हो। पर वहां भगत सिंह और चन्द्रष्शेखर आजाद की वास्तविक कहानियॉ किसी चकत्ते की तरह भी नहीं दीख रही थीं। सो खादी का उनका आवरण लेखपाल को डराने लगा। उसकी डरावनी आभा लेखपाल की ऑखों में थिरकने लगी। लेखपाल रामबली ने हाथ जोड़ कर उनका अभिवादन किया....
‘पा लागी सरकार!’
‘खुश रहो, बइठो’
रामभरोस ने लेखपाल को आशीषा फिर जनेऊ निकाल कर कान पर चढ़ाया और पेशाब करने के लिए किनारे की तरफ चले गये।
लेखपाल रामबली ने रामभरोस के आने के बाद मचिया छोड़ दिया और रामभरोस की कुर्सी के सामने बिछी दरी पर बैठ गया। लेखपाल जानता था कि रामभरोस के सामने कुर्सी कौन कहे मचिया या खटिया पर बैठ जाना पीठ पर खुद कोड़े मरवाने वाला अपराध हो जाएगा। अगर कोई अनजाने बैठा रह गया फिर तो रामभरोस उसकी ऐसी तैसी कर दिया करते थे। लेखपाल जानता था कि रामभरोस काम करने की छूट भी दिया करते थे और कहते भी थे कि...कृ
‘जहां तक होय सकै वही काम करना चाहिए, जिससे कि नौकरी न जाने पाए।’
पर काम नहीं होने पर वही रामभरोस कर्मचारी को सस्पेंड भी करवा दिया करतेे थे। उस क्षेत्रा का हर कर्मचारी जानता है कि रामभरोस का काम न करने पर नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है, मरवाएंगे पिटवाएंगे ऊपर से। पेशाब कर चुकने के बाद रामभरोस सीधे अपनी कुर्सी पर आ कर धम्म से बैठ गए।कृ
‘का हाल-चाल है हो रामबली?’ रामभरोस ने पूछा
‘सब ठीक है सरकार!’ रामबली ने विनम्रता से बताया
‘देखो कल तूं तहसीलदार साहब के ईहां मिले थे पर हमार खियालय भूल गया कि तोसे बात करनी है। तहसील से जब घर आए तब खियाल आया कि तोहके तो एक जरूरी काम बताए ही नाहीं’ कृ
रामभरोस चुप हो गए लगे काम के बारे में सोचने....
‘का बात करनी थी सरकार’ लेखपाल ने पूछा
‘अरे कुछ नाहीं हो’
रामभरोस ने लेखपाल को आश्वास्त किया जैसे कोई बात ही न हो पर बिना बात के रामभरोस उसे क्यों बुलवाते?
लेखपाल के आने के पहले रामभरोस ने गॉव पंचायत की बैठक बुलाया था। बैठक में चौथी गवहां ने प्रस्ताव दिया था कि सार्वजनिक उपयोगों वाली कुछ भूमियों का आवंटन हो गया है, जिसे गॉवसभा के हित में खारिज कराना बहुत जरूरी है। इस प्रस्ताव का समथर्न गॉवसभा के सदस्य रामदयाल कारिन्दा ने किया था पर एक सदस्य शोभनाथ पंडित ने इस प्रस्ताव का पंचायत में ही विरोध करते हुए कहा था कि किसी भी आवंटन को खारिज कराना गलत होगा। कोई भी आवंटित भूमि ऐसी नहीं है जिससे गॉवसभा या गॉव के किसी आदमी का नुकसान होता हो फिर काहे के लिए आवंटन खारिज कराना। पर शोभनाथ का प्रस्ताव नहीं स्वीकारा गया। उनका प्रस्ताव एक के खिलाफ छह मतों से गिर गया और भूमि प्रबंधक समिति की कार्यवाही पूरी कर ली गई। रामभरोस ने ताजे प्रस्ताव का विवरण लेखपाल को दिया और प्रस्ताव की नकल भी।
‘देखो रामबली हमरे ग्रामसभा ने एक प्रस्ताव पास किया है, ए प्रस्ताव में है कि आराजी नंबर 47 अउर 54 का पट्टा खारिज कराना है, समझे कि नाहीं’
‘समझ गए सरकार, पर ई काम हम कइसे कर पांएगे, इस काम को डिप्टी साहब करेंगे। ओनसे बतियालें सरकार! ओ जमीनी में घर दुआर बना है कि नाहीं, अगर घर बना होगा तो दीवानी का मामला हो जाएगा। हमारा विभाग उसे कैसे निपटा सकता है?
‘हं हं हम सब जानते हैं हमरे सामने कानून जीन निपोरो, तूं एतनै करो कि प्रस्ताव पर अपनी और कानून गो की रिपोरट लगवाय के डिप्टी साहब के इहां दाखिल कराय दो। आगे हम देख लेंगे, समझे के नाहीं। एकरे आगे जीन सोचो तोहार काम सोचबे का नाहीं है। तोहके हम जौन बोल रहे हैं वोही करना है।’
सहपुरवा ऐसा वैसा गॉव तो है नहीं, यहां के लोग भी साधारण नहीं हैं। रामभरोस के पास बिना कागजात के लेखपाल हाजिर हो ऐसा संभव नहीं था। रामभरोस के सामने ही लेखपाल रामबली ने आवंटन पत्रावली निकाला। उस पत्रावली में देखा तो मालूम हुआ कि प्रस्तावित दोनों आराजी का आवंटन औतार के नाम से हुआ है। लेखपाल ने खसरा देखा खसरे में वह जमीन कृषि भूमि के रूप में दर्ज थी, उस पर खेती हो सकती है। उस जमीन से गॉव व गॉव वालों को कोई नुकसान नहीं था। अगर वह जमीन बॉध या भीटा के रूप में होती तो पट्टा खारिज करना आसान होता। आखिर कैसे खारिज होगा यह आवंटन? लेखपाल सोच में पड़ गया।
रामभरोस तो रामभरोस थे अपने पर भरोसा रखने वाले, रामभरोस ने रामबली को गंभीर देख कर तत्काल रामदयाल कारिन्दा से पूछा....कृ
‘का हो रामदयाल, लेखपाल का खरवनवा (सरकारी कर्मचारियों को जमीनदारों व बड़े किसानों द्वारा दिया जाना वाला खाद्यान्न) गया के नाहीं’
‘अबहीं तऽ नाहीं गया है सरकार, काल्हु चला जाएगा! महीनका चउरे का बोरा बांध के रखा हुआ है’ रामदयाल कारिन्दा ने रामभरोस को बताया।
लेखपाल कायदा कानून जानता था कि आवंटन खारिज कराना आसान नहीं होता पर वह रामभरोस से इनकार नहीं कर सकता था। आखिर कैसे बोले कि पट्टा खारिज नहीं कराया जा सकता। लेखपाल भी कम नहीं होते बात चीत करने और गढ़ने में, उत्तर देने तथा बहाना बनाने में कलाकार होते है। तत्काल लेखपाल ने अपना बवाल कानून गो पर थोप दिया।
‘अरे सरकार एम्मे हम का करेंगे, एके तो कानून गो साहब करेंगे। हम आपन रिपोरट लगाय दे रहे हैं।’
रामभरोस के सामने ही गॉवसभा के प्रस्ताव पर तत्काल उसने रिपोर्ट लगा भी दिया।
‘एके सरकार आप कानून गो साहब से कराय लीजिएगा। आप के लिए ई कौन काम है सरकार। हमसे कानून गो नाहीं नुकूर करने लगेंगे, बूझेंगे कि सरकार से अपने तो गठरी ले लिया और हमसे फोकट में कराय रहा है।’
रामभरोस सब कुछ सुन सकते थे पर अपने को कमजोर नहीं। यह उनकी कमजोरी थी जिसे लेखपाल जानता था। लेखपाल की बात सुनते ही रामभरोस गरम हो गये।
‘क्या बकते है रे रामबली! तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है, कानून गो का होता है रे! जिला में कउनो अफसर ऐसा नाहीं है जो हमार बात रिजेक्ट कर दे। साम, दाम, दण्ड, भेद हम सारा कुछ जानते हैं। बूझते हो कि नाहीं, हम महाभारत पढ़ते हैं, कब का करना चाहिए, हमैं नालेज है’
अपने बारे में बता कर रामभरोस ने रामदयाल कारिन्दा को ललकारा।
‘अरे रामदयलवा का कर रहा है रे! लेखपाल को नर नाश्ता कराएगा के नाहीं। हमैं अब्बै रापटगंज जाना है तनिक टेक्टरवा निकालि देते, संझा तक लौटेंगे।’ (उस समय रामभरोस जैसे लोगों के लिए ट्रेक्टर ही कहीं आने जाने का सहारा था)
रामदयाल कारिन्दा के हाथ में दूध का गिलास था। उसने रामभरोस को गिलास थमाया, रामभरोस ने गट्ट से दूध सुड़ुक लिया और तश्तरी में से दो बीड़ा पान ले कर मुह में दाब लिया। पान के हिसाब से सुर्ती और सोपारी भी। कारिंदा तब तक टेªक्टर निकाल कर स्टार्ट भी कर चुका था। ड्राइविंग सीट पर बैठ कर रामभरोस ने लेखपाल को बुलाया फिर उसके कान में कुछ कहा जो आवंटन खारिजा के बाबत था कि रुपया चाहे जेतना लगि जाये पर आवंटन खारिज होना चाहिए।
रामभरोस के जाने के बाद लेखपाल दूसरे गंाव नुनुआ चला गया जहां आवंटन की कार्यवाही चल रही थी।
‘करने या न करने के बीच रिश्ता नहीं होता,
अगर इनमें रिश्ता ही हो तो द्वन्द किस बात का?
किस लिए कथा आगे बढ़े पर कथा तो बढ़ने के लिए होती है’
फेकुआ और बिफना दोनों चौथी गवहां के यहां हलवाही करते थे। चौथी गवहां के यहां लवनी का काम खतम हो चुका था। एक दिन बिफना और फेकुआ दोनों ने अपने अपने कोले के धान की लवनी करने के बारे में चौथी से पूछा। जोतनी के बाद धान की फसल खड़ी रहना ठीक नहीं है, धान खरा जाएगा फिर उसे दरवाने पर चावल टूटने लगेगा। उसकी लवनी कर लेना चाहिए। चौथी गवहां लवनी का काम टालना चाहते थे जैसा कि रामभरोस ने कहा था कि तूं फेकुआ के कोले के धान की लवनी करा कर दवांई भी करा लो। चौथी ने धान की लवनी रोकने का बहाना खोजा। कल सभी लोग मिल कर खलिहान तैयार कर उसकी पोताई कर लो बाद में अपने धान की लवाई कर लेना। इसी तरह का फरमान चौथी गवहां ने जारी कर दिया, अभी बंधे के पार वाले खेत की जोतनी भी तो बाकी है।
‘बंधे के पार वाला कौन खेत मालिक!’ पूछा फेकुआ ने
‘अरे उहै रामभरोस सरकार वाला, ये साल ऊ हमरे जिम्मे है’ चौथी ने बताया
फेकुआ और बिफना दोनों को आभास हो चुका था कि चौथी कोला का धान खुद लवाना चाहते हैं सो बहाना बना रहे हैं। गॉव में वैसे भी कोई खबर चाहे सत्कार की हो या बलात्कार की, प्यार की हो या मारपीट की, उपकार की हो या षडयंत्रा की, पर्दे में नहीं रह सकती, नाचने लगती है पूरे गॉव में। चौथी फेकुआ का कोला लवा लेंगे यह खबर पूरे गॉव में नाचने लगी थी। फिर भी वे क्या करते? उन्हें चौथी गवहां की बात माननी ही थी। चौथी गवहां बहाना बना रहे थे, वह खेत रामभरोस का था, चौथी गवहां का नहीं। रामभरोस के दरवाजे से सीधे चौथी गवहां अपने खेत पर चले गये थे। वहां आने वाले कल का पूरा प्रोग्राम मजूरों को समझा कर चौथी गवहां अपने घर चले आये। गिद्ध की तरह चौथी खेत पर डटे हुए थे सो बिफना और फेकुआ अपनी बातें नहीं कर पा रहे थे जबकि कई बातें उनके मन में उमड़ घुमड़ रही थीं।
‘ये मालिक भी गजब होते हैं कउआ की तरह ऑखें लगाये रहते हैं काम पर।’
खेत पर से चौथी के जाने के बाद दोनों अपनी बातों में डूब गए। बिफना जानता था कि इस साल फेकुआ का बियाह होगा। उसे यह भी मालूम था कि फेकुआ की औरत काफी खूबसूरत है, लोग देखते ही रह जाते हैं, उसका रंग रूप ठकुराइन, पंडिताइन माफिक है। उसने फेकुआ को टोका....कृ
‘का रे फेकुआ ए साल तोहार बियाह होगा, अब तऽ तोहार चानी है राजा, अबहीं साइत धराया के नाहीं रे!’
फेकुआ उस समय गॉव के मालिकों के बारे में सोच रहा था। यहां तो जांगर खटाने के लिए भी कायदा कानून है। हम किसी को गाली तो देते नाहीं फिर भी एक भी मालिक ऐसा नाहीं है जो हमैं गरियाता न हो। बात बात पर गारी, हगनी मुतनी से ले कर जाने का का। गारी सुनो और सुनते रहो, बोलो कुछ नहीं फिर भी हमारे बिरादरी के बड़का बुड़का हमैं ही दोषी बोलते हैं। हमने रामभरोस से हल जोतने के लिए का कह दिया कि बुरा हो गया, बपई डाटने, दबेरने लगे, अइया भी रिसिया र्गइं। अरे हमने ओन्है गरियाया तो नहीं था। बिफना के पूछने पर अचानक फेकुआ का ध्यान टूटा....कृ
‘हमैं कुछ मालूम नाहीं है यार! बपई से चाहे अइया से पूछो नऽ बियाहे के बारे में’
बियाह के बारे में वस्तुतः फेकुआ को कुछ भी मालूम नहीं था सो वह बिफना को का बताता। वह आगे सोचने लगा....
‘हमार बुढ़वा सब के सब पगला गये हैं, हमार वश्ष चलता तो हम देखा देते कि हम हलवाह हैं तो का हुआ? केहू के गुलाम नाहीं हैं, अब हम आजाद हो गए हैं, मन होगा जेकर काम करेंगे नाही मन होगा ओकर काम नाहीं करेंगे।’
बिफना काहे मानता, वह जानता था कि फेकुआ परेष्शान है, रामभरोस के बारे में सोच गुन रहा है। रामभरोस इतना कमीना है कि साधारण सी बात को भी तिल का ताड़ बना कर औतार कक्का को परेष्शान करेगा। बिफना को ख्याल आया...कृ एक बार बुद्वू मौसा रामभरोस के दरवाजे पर छाता लगा कर चले गये थे फिर क्या था, रामभरोस ने रामदयाल कारिन्दा को सहेज दिया और उस हरामजादे ने बुद्वू मौसा को इतना मारा कि दवाई करानी पड़ी। पन्द्रह बीस दिन तक वे खटिया थामे रह गये थे। दो तीन महीने जिन्दा रहे बस। सोच से बाहर निकल कर बिफना ने दुबारा फेकुआ को झकझोरा...कृ
‘आज कल जाड़ा खूब पड़ रहा है यार! मेहरारू के बिना ओंघाई नाहीं लगती। तोर भउजी जब से नइहरे गई हैं, तब से ई जो रात है नऽ बिताना पहाड़ हो गया है। आज रात में तऽ पाला पड़ा था। अकेले सूतो तो लगता है कि रतिया पूरी देह कंप कंपा रही है साथ सोने पर तो पता नाहीं चलता कि रात है कि दिन है।’
फेकुआ का बोलता, उसके बियाह को लेकर बिफना उसे अक्सर तंग करता रहता है। ऐसी बतकही करता कि फेकुआ आवेषित हो जाए और मन तथा तन के बारे में बड़ बड़ाने लगे। अनमने भाव से फेकुआ बोला...कृ
‘हमैं तो जाड़ा लगबै नाही करता है फिर हम का बतांए जाड़ा के बारे में? किसी दिन भउजी के संघे सूतने का मौका मिलता तो बताते कि मेहरारू जाड़ा सोख लेती हैं कि नाहीं। अरे यार बिफना! एकाध दिन भउजी को भेजो हमरे ईहां फिर हम बतांए कि का होता है संगे सूतने पर। हम किरिया खाय रहे हैं कि ये बात का ढोल नाहीं पीटेंगे।
फेंकुआ के मुखर होते ही बिफना को लगा कि उसका काम हो गया उसने फेकुआ को सोचने से रोक लिया अब वह अपनी उदासी से बाहर निकल जाएगा फिर उसने दुबारा मजाक किया....कृ
‘इसमें का है यार! काल्हु तोहार भउजी आएगी, परसों भेज देंगे ओनके ताहरे पास। फेकुआ लजा गया, का बोल रहा बिफना। फेकुआ ने कभी भउजाई से मजाक तक नहीं किया था और उसके साथ सोने की बात। तत्काल बात का प्रसंग फेकुआ ने बदला....कृकृ
रापटगंज में होने वाले कवि सम्मेलन के बारे में पूछने लगा। चलना है कि नहीं चलना है। दोनों ने पहले ही निश्चित किया हुआ था कि इस बार कविसम्मेलन सुनने चलना ही है। मालिक लोग चाहे डांटें या दबेरें का फर्क पड़ता है। डांट तो पीठ पर अपना घर बनाएगी नहीं फिर डांट से काहे डरना, वह तो हवा में उड़ जाएगी हवा की तरह। बिफना ने फेकुआ को बताया कि परसों ही कविसम्मेलन है।
अचानक बिफना को ख्याल आया कि शंकर झांकी के अवसर पर रापटगंज में बिरहा का दंगल था, बहुत भीड़ थी। घोरावल के इलाके के किसी गॉव की एक लड़की बिरहा का दंगल सुनने आई थी। उसके साथ उसकी छोटी बहिन भी थी। वह गॉव के कुछ लोगों के साथ थी। सभी लोग बिरहा सुन रहे थे तथा उसी में खोये हुए थे तभी अचानक लड़की गायब हो गयी। लड़की कैसे गायब हो गई? किसी को नहीं पता चला। साथ के लोग लड़की को ढूढने लगे तब मालूम हुआ कि लड़की वहां है ही नहीं। गॉव के परधान जी भी साथ में ही थे सभी घबरा कर लड़की को खोजने लगे पर लड़की वहां होती तब तो मिलती। लड़की के न मिलने पर परधान ने सुरक्षा व्यवस्था में लगे सिपाहियों को बताया। सुरक्षा व्यवस्था के सिपाहियों ने अक्ल से काम लिया और थाने पर खबर कर दी। थाने के सिपाही लड़की को हर संभावित स्थान पर खोजने लगे संयोग ठीक था कि लड़की अकड़हवा पोखरा पर मिली। वह कुछ लड़कों से घिरी थी। एक लड़का घटना स्थल पर ही दबोच लिए गया, दूसरा भाग गया। दारोगा जी ने कानूनी कार्यवाही किया। लड़की का बयान लिया गया और रात भर उसे थाने पर ही रोक लिया गया। परधान से कहा गया कि बिरहा का दंगल चल रहा है ऐसे में लड़की को छोड़ना बवाल करना होगा। गुस्से में भीड़ कुछ भी कर सकती है, लड़कों का चालान कल सुबह होगा। दूसरे दिन मालूम हुआ कि लड़की के साथ बलात्कार किया गया था। लोगों का शक सही निकला, लड़की छटपटा रही थी। यह नहीं मालूम हो सका कि लड़की खुद अपनी मर्जी से लड़कों के साथ चली गई थी या लड़कों ने उसे उठा लिया था। इस सचाई को बताता भी कौन? वैसे लड़की चिल्ला चिल्ला कर बोल रही थी कि कुछ लड़कों ने उसको जबरी उठा लिया था और थाने पर....
उस घटना की याद बिफना ने फेकुआ को दिलाया जिसे फेकुआ जानता था। ‘मेला-ठेला में तो यह सब होता ही रहता है।’ यह जो देह की बात है जितना देह के भीतर है उतना ही देह के बाहर भी है। मेला-ठेला में लड़कों और लड़कियों को मौका मिल जाता है, भाग जाते हैं सब, जब पकड़ जाते है तब मामला दूसरा बन जाता है। देह के करतबों को रोकना असान नहीं होता, देह कब किस तरह का करतब दिखाने लगे कोई नहीं जानता। कोई जान भी नहीं सकता देह के करतबों के बारे में। फेकुआ अपनी देह इसी लिए बांध कर रखता है, कहीं भाग न जाए किसिम किसिम के करतबों में गोते लगाने के लिए।
फेकुआ ने बिफना को चिढ़ाने की नियति से सुकुली की चर्चा की। सुकुली नुनुआ की रहने वाली थी। रामगढ़ में जब बिरहा का दंगल था तब वह भी सुकुली को भगा ले गया था। धर-पकड़ हुई थी पर बिफना नहीं पकड़ाया, संयोग ठीक था। कई बार दोनों ने इस बाबत योजनाएं भी बनाई थीं, फेकुआ की बात से बिफना झेप गया...कृ
‘अरे यार! ई सब बिआहे के पहिले की बात है, अब ऐसा कौन करेगा। उस समय तो कुछ बुझाता ही नहीं था कि आग में गोता लगाना है कि पानी में। अब वह बात नाही है।’
वे दिन भर हल जोतते रहे। बेर ढल रही थी, अब तो काम बन्द कर देना चाहिए, पर मालिक कुछ नहीं बोल रहे हैं। इस मामले में मालिक कुछ नहीं बोलते कि बोल दें अब हल छटका दो, बेर ढलने वाली है या ढल चुकी है। बिफना ने मालिक से पूछ कर हल छटका दिया फिर अपने अपने घर की तरफ दोनों चल दिए। चौथी का लड़का मुन्नू भी खेत पर ही था, उसने बैलों को चराने के लिए बिफना और फेकुआ को रोक लिया। कुछ दूरी पर शोभनाथ पंडित का खलिहान था। खलिहान में कउड़ा जल रहा था। कउड़ा पर वे दोनों भी बैठ गये। जाडे की ठंड तेजी पर थी चैत वाली। शोभनाथ पंडित ने जेब से सुर्ती निकाला और फेकुआ को दिया...कृ
‘सुर्ती बनाओ बेटा, का हाल है जोतनी की?’
ष्शोभनाथ पंडित ने बिफना से पूछा..कृकृ
‘खतमै है सरकार, दू तीन दिन अउर चलेगी’ बिफना ने बताया।
फेकुआ अचरज पीने लगा था, यह क्या है कि शोभनाथ पंडित सुर्ती बनाने के लिए उससे बोल रहे हैं, बाभन हैं, बाभन तो हरिजन के हाथ का पानी भी नाही पीते फिर ये उसकी बनाई सुर्ती कैसे मुह में डालेंगे, उनका धरम बिला जाएगा। गॉव के दूसरे बाभन तो हरिजनों के अगल बगल बैठने पर घिनाते हैं। फेकुआ कुछ सोच नहीं पा रहा था, बिफना से पूछेगा...
फेकुआ सुर्ती मलने लगा। सुर्ती मलने में फेकुआ का जोड़ नहीं। गजब की सुर्ती मलता है, खाते ही नशा चढ़ जाता है। सुर्ती मल जाने पर उसने अपनी हथोली शोभनाथ पंडित की तरफ बढ़ाया...कृ
‘लीजिए सरकार।’
ष्शोभनाथ पंडित ने चुटकी से फेकुआ की हथोली पर से सुर्ती उठाया और जीभ के नीचे दबा लिया। जैसे वे छूत अछूत की बद्जात संस्कृति दबा रहे हों चूस कर उसे फेकने के लिए। पर यह जो छूत अछूत की संस्कृति है वह सुर्ती माफिक नहीं है कि जीभ के नीचे दाब लिया और चूस कर थूक दिया। वह तो सालों साल से चली आ रही है आदमी को आदमी से अलगियाने के लिए।
ष्शोभनाथ की खेती की तुलना रामभरोस से नहीं की जा सकती थी। शोभनाथ की खेती कम थी पर पैदावार अधिक थी। शोभनाथ खेती अच्छे ढंग से करते थे, खूब खाद पानी देते थे तथा खुद निगरानी करते थे। यह सब रामभरोस के यहां नहीं होता था। हो भी नहीं सकता था, वे मजूरों पर आश्रित थे। मजूरों के बिना उनका कोई काम हो ही नहीं सकता था। अन्हार होते होते तक दोनों अपने अपने घर चले गये और बैलों को मुन्नू चराने लगे थे। रास्ते में फेकुआ ने पूछा था बिफना से...कृकृ
कारे! शोभनाथ पंडित मेरे द्वारा बनाई सुर्ती सीधे मुह में दाब लिए, घिनाए नाहीं।’
‘वे घिनाते तो तोहसे काहे बनवाते’
‘तो का पंडित जी की जाति बिगड़ नाहीं गई ?’
‘नाहीं रे सुर्ती खाने से जाति बिगड़ती है भला। यह सब तो पंडितों का नाटक है, लेकिन शोभनाथ पंडित नहीं मानते यह सब।’ दूसरे दिन ही चौथी गवहां ने फेकुआ का कोला लवाने का कार्यक्रम बना लिया था। उस दिन सरकारी छुट्टी थी। छुट्टी के दिन फेकुआ कहां जाता, का कर लेता, बहुत होता तो थाने जाता पर थाने जा कर का करता। खेत का रकबा कम था मुश्ष्किल से आधे से कम घंटे में लवा गया फिर काम खतम। वही हुआ धान लवा कर चौथी गवहां अपने खलिहान उठवा ले आये। गॉव का एक भी मजूर फेकुआ का धान काटने नहीं गया। मजूर जानते थे कि फेकुआ के कोला का धान दूनी मजूरी पर चौथी जबरी लवा रहे हैं। मजूर बाहर से बुलवाए गये थे। गॉव के मजूरों से बोला भी नहीं गया था, बोला भी जाता तो गॉव के मजूरे फेकुआ का कोला नहीं काटते। इतनी एकता थी मजूरों में भले वे मालिकों के गलत कामों का विरोध नहीं कर पाते थे। गॉव भर को मालूम हो जाता तो फेकुआ और औतार सावधान भी हो जाते फिर तो फेकुआ के कोला का धान नहीं कटा पाता, मारपीट भी हो सकती थी। उस दिन सावधानी बरतते हुए फेकुआ और बिफना को धान कुटाने के लिए चौथी गवहां ने रामगढ़ भेज दिया था। यह विचारते हुए कि रिष्श्क लेना ठीक नहीं होगा। रामगढ़ से जब तक बिफना व फेकुआ लौटेंगे तब तक धान की लवनी हो चुकी रहेगी, वही हुआ।
रामगढ़ से फेकुआ और बिफना देर रात तक लौटे। गॉव आने पर मालूम हुआ कि उसका कोला लवा लिया गया है। औतार ने फेकुआ को समझा बुझा कर शान्त किया कि झगड़ा नहीं करना है। पहले मालूम करना है कि यह सब किसके उकसावे पर चौथी गवहां ने किया। चौथी गवहां ने अपने मन से तो किया नहीं होगा, बात भी सच थी। चौथी ने तो रामभरोस के इशारे पर फेकुआ का कोला लवाया था। गॉव में कोई भी बात होती तो पैदल है पर उड़ती है हवाई जहाज की तरह। बात फैल गई कि यह जो कुछ हुआ है सब रामभरोस के कारण हुआ है। रामभरोस के कारण ही चौथी गवहां ने औतार और सुक्खू का पट्टा खारिज कराने के लिए प्रस्ताव दिया है। जिसे गॉवसभा ने पास भी कर दिया है। गॉव के बड़े लोग समझते हैं कि राजनीति वे ही जानते हैं, मजूर का जानेंगे राजनीति? पर ऐसा नहीं है अब मजूर भी कान और ऑखें खोल कर रखते हैं और बात बात में राजनीति की परख करने लगे हैं।
लोग कहते हैं कि जमाना बदल रहा है। आजादी के बाद नया जमाना आ गया है, गरीबों का राज हो गया है पर सहपुरवा में तो अब भी पहले वाला राज ही है। रामभरोस कहां बदले, वे आजादी के पहले जिस तरह से मजूरों, गरीबों का दमन किया करते थे उसी तरह से आज भी कर रहे हैं। औतार ने सुक्खू को समझाया...कृ
‘देखो सुक्खू भाई! कुछ नाहीं बदलेगा, सहपुरवा जैसा था वैसा ही रहेगा। यहां हर जगह रामभरोस की ऑखें ही तमाशा करेंगी। वही हम लोगों की पीठ पर कोड़े बरसाएंगी। अरे का बोलते हो सुक्खू भाई गरीबन का राज आ गया है। गरीबन का राज आ जाएगा तब जो बड़का बुड़का हैं उनकी सेवा टहल कौन करेगा, उनका हल कौन जोतेगा। का बूझते हो कि गरीबन का राज ऐसा ही होता है कि जेकर चाहो कोला लवाय लो, मजूरी दो चाहे न दो। पीठ पर कोड़े बरसाओ।’
औतार हालांकि सुक्खू को समझा रहे थे पर भीतर भीतर आक्रांत थे। वे सुगिया वाली घटना भूले नहीं थे। किसी तरह औतार ने सुगिया का विवाह किया था। उसी समय से रामभरोस औतार से नाराज ही नहीं बहुत नाराज थे। वे नाराज होते भी क्यों नहीं। औतार ने सुगिया के पति को रामभरोस की हलवाही से हटवा कर शोभनाथ पंडित की हलवाही पर लगवा दिया था और बाद में उसे गॉव से बाहर भेज दिया था। रामभरोस चाहते थे कि किसी भी हाल में सुगिया न उनका काम छोडे़ और न ही गॉव छोड़े। रामभरोस के लिए सुगिया जैविक संपदा थी जिस पर उनका स्वघोषित अधिकार था। सुगिया का ससुर पहले रामभरोस की ही हलवाही करता था। रामभरोस सुगिया के बिआह के बारे में जानते थे कि उसका पति निकम्मा है, गांजे और दारू के बदले वह अपनी बीबी रामभरोस को सौंप देगा। इन सब कामों को सरल व सुलभ बनाने के लिए रामदयाल कारिन्दा था ही। बिआह के बाद रामभरोस ने सुगिया के पति को अपने गॉव बुलवा लिया और वह आ भी गया। सुगिया अपने पति के साथ सहपुरवा लौटना नहीं चाहती थी पर उसे लौटना ही पड़ा। का करती, कितना मार खाती। वह अपने पति से बता भी नही सकती थी कि रखैल बनाने के लिए उसे रामभरोस बुलवा रहे हैं। फिर भी उसने मना किया....
‘हम नहिययरे नहीं जांएगे। बिआहे के बाद नहिययरे थोड़य रहा जाता है’
फिर तो उसके पति ने उसे मार कर अधमरा कर दिया, हाथ पीठ सूज गया उसका। डर के मारे पति के साथ वह सहपुरवा आ गई। सुगिया का सहपुरवा आना फेकुआ, औतार और सुक्खू को बहुत बुरा लगा।
सो औतार ने सुगिया को गॉव से भगाना जरूरी समझ कर उसे सहपुरवा से भगा भी दिया पर सुगिया के पति को पहले का सारा किस्सा बताना पड़ा। सुगिया का पति मर्द निकला वह वैसा नहीं था जैसा कि उसके बारे में बताया जाता था। सुगिया को सहपुरवा से भगा देना यह बात भी रामभरोस को चुभ रही थी पर वे उसे जाहिर नहीं होने देते थे। सुगिया के मामले में रामभरोस की बहुत बेइज्जती भी हुई थी। औतार के कारण गॉव भर सुगिया की बात जान गया था। रामभरोस ने रामदयाल कारिन्दा को लगा दिया था कि वह औतार को प्रताड़ित तथा अपमानित करने का कोई मौका नहीं छोड़े जबकि खुद को संभाले रखते और खुद औतार के सामने नहीं आते थे।
जले पर नमक छिड़कना रामभरोस नहीं छोड़ते थे। इसी लिए औतार रामभरोस के बारे में फेकुआ को कुछ भी नहीं बताते थे फिर भी फेकुआ जानता था। उनके लड़के फेकुआ पर किसी भी तरह का बवाल न आए सो औतार खामोश रहा करते थे कि वह जवान है, गुस्से में मालिकों से झगड़ सकता है। औतार हरदम यही सोचा करते थे। एक ही बार की तो बात होती है संकोच खतम हुआ नहीं कि रामभरोस के सिर पर सैकड़ों लाठियां, माथे का कचूमर निकल जाये।
वे जानते थे कि चौथी गवहां भी रामभरोस के डर के कारण से ही फेकुआ का कोला लवा लिया होगा नहीं तो वे खुद ऐसी हिम्मत नहीं करते।
फेकुआ का कोला लवा लेने के बाद चौथी गवहां खुश खुश हो गए थे क्योंकि बिना अवरोध के फेकुआ का कोला लवा लिया गया था। संभव है रामभरोस उन्हें इनाम ओकराम भी दें। इसकी खुशी में रामभरोस के बैठका पर आ गये। बैठका पर रामभरोस नहीं थे। बैठका पर केवल रामदयाल कारिन्दा था जो चिलम रियाज कर रहा था, चिलम में गांजा भरा हुआ था और हर फूंक से वह आग निकाल रहा था। रामदयाल ने चौथी गवहां से पूछा....कृ
‘बैठिए हो चौथी भाई, गांजा पीजिए, का हुआ फेकुआ का कोला लवाया कि नाहीं’
चौथी गवहां अपने अनुसार युद्व फतह करके आये थे। किसी मजूर का कोला लवा लेना उनके लिए आसान काम न था। सो प्रसन्नता के मूड में थे पर अपराध बोध में भी थे। उन्हें लग रहा था कि फेकुआ का कोला नहीं लवाना चाहिए था। गरीब आदमी है, बेचारा का खाएगा, साल भर की उम्मीद जुड़ी होती है गरीबों की कोले की पैदावार से। कोले का धान घर पर आने के बाद वे तय करते हैं कि यह करना है वह करना है। बेचारों का सपना टूट जाएगा। सपने तो रामभरोस की तरफ भी थे, उनका सपना था कि फेकुआ बर्बाद हो जाए, भीख मांगे। फेकुआ के सपनों का क्या उसे तो रामभरोस जैसे तोड़ते व लूटते ही रहते हैं।
‘कोला लवाय गया रामदयाल!’
सहमे हुए से चौथी ने रामदयाल को बताया....
‘बहुत सहम के बोल रहे हो चौथी, राड़ रहकारों से डेरा रहे हो का, वे हरामी की औलाद का कर लेंगे यार! रामभरोस सरकार के रहते।’
गॉजे की चिलम तैयार थी। केवल फूॅक लगाना बाकी था। चौथी गवहां ने गॉजे की चिलम तत्काल मुंह से लगा लिया उसमें से धुआं खींचा और बम बम, हर हर महादेव, औघड़ दानी बोलने लगे। गॉजे का धुआं पेट के अन्दर गया, फिर थोड़ा सा बाहर आया, फिर दुबारा गया और बाहर आया। गॉजे के प्रभाव में चौथी झूमने लगे, उनका मन नाचने लगा। कुछ देर बाद मन अचानक स्थिर हो गया। मन ने नाचना बन्द कर दिया, अब क्या नाचना, नाच तो तब होती जब कुछ अच्छा काम किया होता, किसी गरीब को कोला लवा लेना यह तो सरासर पाप है। वे पापबोध में अचानक डूबने उतराने लगे थे।अपराधी से अपराधी व्यक्ति भी कभी कभी पापबोध में चला जाया करता है पर होता है वह अपराधी ही।
गॉजे का नशा चौथी को पटकने लगा था, वे कभी ऊपर उड़ जाते मानो उड़ रहे हों कभी नीचे गिर जाते जैसे उन्हें किसी ने पटक दिया हो जमीन पर। पर जो होना था वह हो चुका था। जो हो चुका था उसके होने की अनहोनियॉ चौथी के माथे पर उछलने लगी थीं। अनहोनियों की संभावनांए तो केवल डर ही पैदा करती हैं, डर भी किसिम किसिम के अगर रामभरोस थाने को मनमुताबिक नहीं चला पाए और उनके पास थाना आ गया तो....कृकृ
औतार ने उन पर मर-मुकदमा कर दिया तो....कृ
यह ‘तो’ चौथी के लिए मन ही मन डर पैदा करने लगा। जाने का हो? थाने के झमेले में पड़ गये तो सारी कमाई बर्बाद हो जाएगी।
‘बखरियांे की चमकों में खून के
लाल लाल चकत्तों के साथ कोड़ों व डंडों के चित्रा दिखते हैं, ऐसे
चित्रा तो आपको इस कथा में भी दिखेंगेकृमजबूरी है उनका दिखना’
फेकुआ का कोला लवाने की खबर गॉव भर में बहुत तेजी से फैल गई थी। खबर तो होती ही है फैलने के लिए। खबर में खास किस्म का सन्देश था कि जो भी रामभरोस की ऑख पर चढ़ जाएगा उसकी हालत औतार जैसी सिरज दी जाएगी। रामभरोस के आतंक के तमाम नमूनों में औतार जैसा एक और नमूना सहपुरवा के आकाश में मडराने लगा। सहपुरवा का आकाश था भी कितना? केवल रामभरोस की मर्जी तक पसरा सिमटा, कराहता। किसी ने आश्चर्य व्यक्त किया ‘ईमरजेन्सी’ में ऐसा कर रहे हैं रामभरोस औतार और फेकुआ के साथ?’
‘क्या करेगी ईमरजेन्सी? ईमरजेन्सी भी तो एक कानून ही है। कानून गढ़ने वाले हैं तो उसे तोड़ने वाले भी हैं तथा कुछ अपने मनमाफिक कानून को नचाने व घुमाने वाले भी हैं। कानून की किस्म जैसी भी हो रामभरोस जैसे कुछ लोग उसे अलग किस्म का बना दे देते हैं। रामभरोस जैसों के यहां तात्कालिक समय का कानून बराबर गुलामी करता रहता है। कानून नाचता है उनकी बखरी में, कभी नग्न हो कर तो कभी ताप ताप कर। रामभरोस के लिए ‘ईमरजेन्सी’ का कोई मतलब नहीं।’
समय बीतने लगा। फेकुआ का कोला लवाने के मामले में चौथी गवहां को लोग निर्दोष समझने लगे। गॉव में इस तरह का खेल हमेशा रामभरोस करवाते रहे हैं। चौथी बेचारे तो रामभरोस की जाल में फस गए थे। फेकुआ ने जाने अनजाने जो कुछ रामभरोस से कहा था उसका कोई मतलब नहीं था, असल बात थी औतार से नाराजगी वह भी सुगिया वाले मामले को लेकर। औतार वैसे भी अपने दिल और दिमाग को अपने अनुसार चलाते थे और रामभरोस की बखरी पर जा कर सलाम नही बजाया करते थे। उन्हें किसी को सलाम बजाना अच्छा नहीं लगता था। यही सब बातें थीं जो रामभरोस को अखरती थीं। सहपुरवा में रहना है तो उनकी बखरी पर जा कर उन्हें सलाम बजाना है।
बखरियां होती भी तो इसी लिए हैं। लोकतंत्रा में ऐसी बखरियों की कमी नहीं, थोड़ी शक्ल बदल बदल कर हर तरफ बखरियॉ अपना रुतबा बनाए हुई हैं। रामभरोस की बखरी तो सांस्कृतिक है, तहसील, थाना, कलक्टरी आदि की बखरियां कानूनी हैं। पंचायतें सभी बखरियों पर हुआ करती हैं चाहे वह बखरी सांस्कृतिक हो या कानूनी।
औतार आशंकाओं में घिरे हुए थे। रामभरोस खामोश रहने वालों में नहीं हैं। औतार की आशंकाएं कई तरह की थीं। रामभरोस उन्हें किसी कानूनी झमेले भी फसा सकते हैं या खुद ही मार-पीट कर सकते हैं। कुछ भी कर सकते हैं रामभरोस। सो वह रामभरोस के खिलाफ कुछ करने के बजाय फेकुआ को समझाया बुझाया करते थे। वैसे भी राभरोस के खिलाफ कुछ करना उनके ही क्या किसी के वश का नहीं था। औतार कर भी क्या लेते, थाने ही जाते, थाना रामभरोस की जेब में था।
फेकुआ भी क्या करता। वह खामोश था, जो होना था हो चुका था जो होगा बाद में देखा जाएगा। भोर में ही फेकुआ का कोला लवा लिया गया था। गॉव भर घूमे थे औतार, एक एक आदमी को बताए थे कि उनके बेटे का कोला रामभरोस लवा रहे हैं। पर उनकी दुहाई गॉव में सुनने वाला कोई नहीं था। गॉव में तो रामभरोस का आतंक हर तरफ पसरा हुआ था। गॉव की सारी गलियां कांप रही थीं और सिवान थे कि वहां लोकराज का कोई शिनाख्त न बचा था। चारो तरफ रामभरोस, रामभरोस ही थे, उनकी लाठियॉ थीं, गालियॉ थीं और जुल्म की तमाम किस्में थीं। जुल्म भी ऐसी नश्ष्लों वाले थे जिन्हें अपराधशास़्त्रा की किसी किताब में नहीं पढ़ा जा सकता था। रामभरोस सदैव अलग अलग तरीके से जुल्मों की शक्ल गढ़ा करते थे जिससे गॉव डर पीने लगता था। रामभरोस के जुल्मों में ही सहपुरवा का जीवन था।
चौथी गवहां ने फेकुआ के कोला का धान लवा लिया है यह बात गॉव वालों को भी मालूम थी। औतार की दुहाई तो दुहाई भर थी इससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ा। गॉव का एक आदमी भी उनकी दुहाई पर नहीं पसीजा। पसीजते भी काहे। उन्हें पता था कि रामभरोस से पंगा लेना खुद को मिटाना है, आखिर कौन खुद को मिटाने के लिए तैयार होता। रामभरोस की बखरी पर जा कर कोई क्यों पूछता कि आपने ऐसा काहे किया? थाने पर जाने की बात तो दूर की कौड़ी थी। गॉव ने मान लिया कि यह औतार का व्यक्तिगत मामला है इससे किसी दूसरे से क्या लेना देना। औतार गॉव का होते हुए भी ‘व्यक्तिगत’ हो चुके थे, उनकी समस्या उनकी है गॉव की नहीं, लोगों की नहीं, समाज की नहीं। समाज ने औतार से नाता तोड़ लिया था। पूरे जिले में नई तरह की ‘व्यक्तिगत’ वाली संस्कृति अवतार ले चुकी थी जिसका नाता सहभागिता व सहयोग वाली पुरानी संस्कृति से अंशमात्रा भी नहीं था।
औतार गॉव के लोगों से निराश हो कर चौथी गवहां के पास भी गये थे पर चौथी गवहां ने बहाना बना दिया और कहा कि उन्होंने फेकुआ को कोला दिया ही नहीं था और फेकुआ उनके यहां काम भी नहीं करता है, सो कोला लवाने की बात कहां से आ गई?
पहले उन्होंने कहा था...कृकृ
‘कोला न लवांए तो का करें? कोला दिए थे काम करने के लिए कि घरे बइठने के लिए, जब फेकुआ ने हमारा काम ही नाहीं किया फिर काहे का कोला। ऊ खेत ओकरे बाप का तो था नाहीं’ हमारा खेत था हमने लवाय लिया।
‘का जमीन किसी के बाप की होती है’ औतार सोचने लगे।
जमीन किसी के बाप की तो होती नहीं, पर जो ताकतवर हैं वे जमीन के बाप बने हुए हैं। सहपुरवा में रामभरोस, चौथी जैसे कई हैं जो यहां के पेड़, पौधे, नाले, भीटा, बांध आदि के स्वयंभू बाप हैं। ऐसे बापों की कई किस्में हैं, कोई जमीन का बाप है तो कोई कायदा कानून का। कोई सरकार का तो कोई गॉव की पंचायत का। इन बापों से काहे के लिए रार लेना? ऐसे बापों से का बतियाना, बात करने के लिए जगह ही कहां बची हुई है?
रामभरोस की बखरी रास्ते में पड़ती थी, वे रामभरोस की बखरी पर भी गये। सुबह की धूप बखरी को सजाए हुए थी। बखरी चमकों वाली थी। उन चमकों में औतार को खून के लाल लाल चकत्ते चमकतेे दिखे। कहीं कहीं तो कोड़ों व डंडों के चित्र भी दिखते जो बखरी की चमकती दिवारों पर उभरते और खुद ही मिट जाते। औतार बखरी की चमक में जकड़ गए।कृ
सरकार से औतार को कहना क्या है उन्हें भूल जाता। कहना तो है फेकुआ का कोला लवाने के बारे में है पर कैसे कहें, कहीं उनके कहने से बखरी की चमक छिन गई तो...। औतार बखरी पर पहुंचते ही डर की अलग दुनिया में पहुंच गए एक ऐसी दुनिया जिसमें केवल डर ही डर होता है। पीठ होती है तो कोड़े खाने के लिए। हाथ होते हैं काट दिए जाने के लिए, देह होती है परंपरा और कानून के जुल्मों को लिखने के लिए।
औतार का दिमाग कुछ काम कर रहा था और कुछ नहीं, करें क्या? क्या फेकुआ का कोला लवाने के बारे में रामभरोस सरकार को बतांए या लौट चलें बखरी से। बखरी के आहाते में रामभरोस बैठे हुए थे। उनके सामने दरी पर चार जन और बैठे हुए थे। रामभरोस चमक रहे थे। उनकी चमक सामने बैठे हुए लोगों को भी चमका रही थी। रामभरोस के चेहरे से फूटने वाली चमकीली किरणें अजीब ढंग से औतार को डराने लगीं फिर भी औतार ने तय किया कि रामभरोस से उन्हें कहना ही है। कहने से का होगा बहुत होगा तो पीठ लाल हो जाएगी, हाथ पैर की एकाध हड्डी टूट जाएगी और का होगा?
साहस जुटा कर औतार ने कोला लवाने वाला सारा मामला रामभरोस को बताया। रामभरोस ने अपने चेहरे पर बनावटी दुख चढ़ा लिया जिसमें वे कलाकार थे। गुस्से ने अपनेे चेहरे को गब गब लाल बना लेते है, रंग जाते हैं गुस्से की लाली में। जरूरत पड़ने पर वे दुख को भी चढ़ा लिया करते हैं चेहरे पर और भिगो लिया करते हैं पूरा चेहरा मानो उनसे दुखियारा धरती पर कोई दूसरा नहीं है। उनकी ऐसी अभिव्यक्ति कुदरती थी या केवल अभिनय होता था, औतार का जानें।
‘चौथी को यह सब नहीं करना चाहिए था, गरीब आदमी को तो कोले के धान का ही आसरा है, दो चार मन अनाज मिल जाता, इतने अनाज से का होगा चौथी का?’
औतार रामभरोस की फर्जी संवेदना में डूबने उतराने लगे। रामभरोस तो गिरगिट की तरह रंग बदल लिए। अब किसके पास चला जाये, कौन नियाव करेगा। चौथी गवहां ने तो अपने मन से कुछ नहीं किया होगा, सारा खेल रामभरोस का है और ये ऐसा बोल रहे हैं। औतार पहले से ही जानते थे कि रामभरोस नाटक करेंगे जैसे उन्हें पता ही न हो कि फेकुआ का कोला कैसे लवा लिया गया। औतार निराश हो कर रामभरोस की बखरी से अपने घर चले आये। घर लौटना ही था, जाते कहां, थाने पर जाने के लिए गवाह चाहिए, गवाह थे नहीं, गॉव के लोगों के मुंह सिले हुए थे, जैसे गॉव में कुछ हुआ ही न हो।
बिरादरी में केवल सुक्खू ही था जो औतार के साथ कुछ भी करने के लिए तैयार था पर अकेले सुक्खू से क्या होगा? सुक्खू ने औतार को सुझाया कि परगनाधिकारी के यहां दरखास दिया जाये पर औतार के पास से हिम्मत नाम की चीज ही गायब थी। रामभरोस के काले कारनामे उन्हें किसी भूत की तरह डरा रहे थे और कंप कंपा रहे थे, इतना ही नहीं धमकिया भी रहे थेकृ.
‘जहां भी जाना हो जाओ, जाकर देख लो, इस जमाने में तो कुछ नहीं होने वाला, बाद में चाहे जो हो जाये।’
वैसे भी अकेले सुक्खू के बोलने कहने से का होगा, कम से कम दो चार लोग दूसरे भी बोलें तो शायद कहीं सुनवाई हो, अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। दरखास देने के लिए भी रुपया चाहिए कम से कम बीस पचीस रुपये तो लग ही जाएंगे, बस का किराया-भाड़ा अलग से।
औतार मन बना चुके थे कि जो हो गया हो गया अब दरखास काहे के लिए देना, ताकतवरों से लड़ पाना आसान नहीं होता। पर सुक्खू तो सुक्खू, वह डट गया कि परगनाधिकारी के यहां दरखास हर हाल में देना है। चुप रहना ठीक नाहीं है, चुप रहने से भी का हो जाएगा, कुछ नहीं होगा सो दरखास देना चाहिए। दरखास देने से कुछ हो भी सकता है पर नहीं देने से तो तय है कि कुछ नहीं होगा। औतार विवश्ष हो गये और उन्हें कचहरी जाना पड़ गया।
कचहरी तो कचहरी, झुलसे चेहरे वालों का हुजूम, काली कोट वाले वकील, नियाव का अखाड़ा। औतार और सुक्खू अदालत में जिस तरफ जाते उन्हें हर तरफ मुर्झाए व किकुड़ियाए लोग दीखते, किसी की ऑखें धसी होतीं तो किसी के गाल सिकुड़े होते। सबके चेहरे पर मातमी उदासी पसरी हुई। औतार भीतर से पसीजे हुए। उन्हें अदालत अस्पताल जैसा दिखने लगी, यहां भी किकुडियाए तथा सिकुड़े हुए लोग दिख रहे हैं हर तरफ और अस्पताल में भी ऐसे ही लोग दिखते हैं। अस्पताल तथा अदालत में कुछ तो फर्क होना चाहिए पर नहीं दोनों एक ही जैसे जान पड़ते हैं। अस्पताल में देह की बीमारी से परेष्शान तथा हताश लोग दिखते हैं तो यहां जमीन की मालिकाना वाली बीमारी से परेशान व हताश लोग दिख रहे हैं।
औतार और सुक्खू दोनों कचहरी में थे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि किस काली कोट वाले की शरण में जांए। उन्हें किसी ऐसे वकील के बारे में मालूम नहीं था जो गरीबों की लड़ाई लड़ता हो। उन्हें एक दो ऐसे नेताओं का नाम मालूम था जो जनता के अधिकारों की सुरक्षा के लिए संघर्ष किया करते थे पर वे अदालत में नहीं थे। सो वे दोनों अदालत परिसर में वकील की तलाश करने लगे।
अदालत में वकीलों की भिन्न भिन्न किस्में हुआ करती हैं। उनमें कुछ ऐसे होते हैं जो मुवक्किलों की तलाश करते रहते हैं। इसी खोजा खोजी में एक वकील उन्हें मिल गया....कृ
वकील ने औतार से पूछा...कृ
‘का बात है दादा, कुछ काम है का कचहरी में, बहुत परेशान दिख रहे हो?’
औतार को लगा कि का पूछ रहा है वकील? ‘का लोग यहां बिना परेष्शानी के भी आते हैं‘?
फिर उन्होंने वकील को सारी घटना बताया कि उनके साथ क्या हुआ है। कचहरी भरी थी, हर ओर वकील छितराए हुए दीख रहे थे, और भीड़ भी छितराई हुई थी। कहीं दो चार लोग इकठ्ा दिख जाते थे, सभी के चेहरों पर परेशानियां ही परेशानियां दिख रही थीं, औतार को उससे संतोष हुआ, अकेले वही परेशान नहीं है, दूसरे भी हैं।
वकील ने सारा प्रकरण सुनकर औतार से वाटर मार्क कागज और टिकट खरीदने के लिए बोला कि सामने से खरीद कर ले आओ। औतार को सहेज कर वकील अपनी कुर्सी की तरफ चला गया।
वकील पीपल के पेड़ के नीचे बैठा करता था। पीपल के जड़ की गोलाई में गोलाकार चबूतरा था। मुवक्किल उसी चबूतरे पर बैठा करते थे। औतार कुछ देर में कागज और टिकट खरीद ले आए। वकील साहब दरखास लिखने लगे... पीपल के पेड़ पर औतार ने अपनी ऑखें गड़ा दिया।कृयह पेड़ यहां भी है और सहपुरवा में भीकृवहां का नियाव तो वे देख चुके हैं देखो इस पेड़ के नीचे किस तरह का नियाव होता है?
दरखास लिखना बीच ही में छोड़ कर वकील ने औतार से पूछा..कृ
‘देखो भाई औतार! एक बात समझ लो दरखास अंग्रेजी में लिखवाओगे कि हिन्दी में। हिन्दी में लिखूंगा तो दस रुपये लूंगा और अंग्रेजी में लिखूंगा तब बीस रुपये लूंगा, पेशकार को अलग से चार रुपया देना होगा, इसे समझ लो भाई बाद में गड़बड़ न करना।’
औतार हलकान हो गए, का बोलें, पहली बार तो कचहरी आए हैं। उन्हें का मालूम कि दरखास कउने भाखा में लिखी जाती है, जउने का असर होता हो। भाखा तो एक ही होती है जिसे बोलो तो दूसरा समझ ले। यह वकील का पूछ रहा उनसे? हो सकता है यह जो कचहरी है, वह कोई दूसरी भाखा समझती हो, ऐसी भाखा जो गरीब-गुरबों की न हो। हां हां यही होगा तभी वकील पूछ रहा है। वैसे भी अमीरों का खाना, पहनना, घर मकान जैसे अलग तरह का होता है गरीबों से वैसे ही भाखा भी अलग होती होगी उनकी। कचहरी की भाखा भी तो अमीरों वाली ही होगी। कुछ सोचने के बाद औतार ने वकील से कहा...कृ
‘अरे वकील साहब हमार दरखास ओही भाखा में लिखो जौने भाखा को अदालत जानती हो, समझती हो। अब हमैं का पता कि अदालत कौन भाखा जानती व समझती है? हम ठहरे गवांर आदमी, हम तो एतनै जानते हैं कि हमारा काम होना चाहिए, आप जौन ठीक बूझैं उहै करैं, आप को रुपिया चाही, ओके दिए बिना हम इहां से न डोलेंगे।’
दरखास लिखने की बात पक्की होने के बाद वकील ने औतार को समझाया.कृ
‘देखो भाई औतार! अंग्रेजी का काम अंग्रेजों की तरह होता है तेजी से और हिन्दी का काम तो तूं जानते ही हो वही लकड़ घिसघिस, कितनी लकड़ी घिसेगी, कोई गारंटी नहीं काम होने की। हो गया तो ठीक नहीं तो नहीं?’
’अरे साहब हमै ई सब का पता एतनै पता होता तो कचहरी आते’
वकील साहब ने दरखास लिख लिया और औतार के साथ परगनाधिकारी के आफिस गये पर परगनाधिकारी नहीं थे। वे राजस्व मंत्राी के कार्यक्रम में गये हुए थे। आफिस से मालूम हुआ कि शाम तक वापस आ जाएंगे। एस.डी.एम. के आने तक औतार को कचहरी में ही रूकना पड़ गया। करीब चार बजे तक दरखास पर आदेश हो पाया फिर औतार को वह दरखास मिली जिस पर परगनाधिकारी का आदेश था।
वकील साहब ने औतार को दरखास देते हुए सहेजा...कृकृ
‘इसे आज ही थाने पर दे देना, तुम्हारा काम हो जाएगा’
औतार थाने का नाम सुनते ही डर गये, वे वकील से बोले...कृकृ
‘का सरकार दरखास को थाने पर देना होगा, दरोगा मरखहा है, मारने लगेगा तो...कृमारेगा जरूर। ऊ रामभरोस का आदमी है। रामभरोस के यहां से उसका खाना-खुराक जाता है, थाने पर उनकी एक भैस बंधी हुई है।
वकील गरज उठा...कृकृ
‘का बोलते हो जी, दारोगा के गांड़ में दम है जो हमरे मुवक्किल को मारे। हम का ईहां घास छीलने के लिए बैठे हुए हैं।’
‘तूं बेडर थाने पर जाओ अउर दरखास दे दो, तोहार काम हो जाएगा’
औतार ने वकील को कुल साठ रुपया दिया इतना ही वकील ने मांगा भी था। औतार के लाख कहने पर वकील ने एक धेला भी कम नहीं किया। औतार देर रात तक घर आये, रात में थाने जाना उन्हें अच्छा नहीं लगा, अब रात में का जाना। घर आने पर देखा कि फेकुआ घर पर नही ंथा। फेकुआ बिफना के साथ था, मालूम हुआ कि दोनों कविसम्मेलन सुनने रापटगंज गये हुए हैं।
सुबह होते ही औतार थाने पर थे। थाने पर शासन की गर्मी हर ओर पसरी हुई थी। लगता कि अब अपराधियों की खैर नहीं, जो अपराध करेगा पकड़ लिया जाएगा। थाने पर औतार की तरह दो तीन लोग और थे जो दारोगा का इंतजार कर रहे थे। दारोगा थाने पर नहीं था। मुंशी ने औतार की दरखास ले लिया और बोला कि दारोगा जी के आने पर वह उन्हें दरखास दे देगा। औतार को थाने का नियम नहीं मालूम था सो मुशी जी को दरखास देकर आफिस से निकल लिए। मुंशी तो मंुशी था उसने ऑख पर का चश्ष्मा उतारा और औतार को रोका...कृकृ
‘अरे कहां चल दिए भाई। वाह वाह खूब रही दरखास थमाये अउर चल दिए। थाना का तोहरे बाप का है? इहां दरखास लिखाने अउर देने, दोनों का नेम है, हमलोग ईहां हरिकीर्तन करने नाहीं बैठे हैं, एहर आओ’
ओतार मुंशी की फटकार सुनते ही मुड़ गये और मुंशी जी से पूछा...
‘का नेम हऽ सरकार! आप कुछ नाहीं बोले तो हम लौट लिए।
‘निकाल पचास रुपया’ मुंशी ने बेबाकी से मांगा
‘एतना तऽ नाहीं है सरकार कुछ कम है’ औतार ने जेब की हालत बताया
‘केतना है?’ पूछा मुंशी ने
‘तीस रुपया है सरकार।’
‘चलो उहै दे, और बाकी बीस रुपया कल पहुंचा देना तभी जांच होगी। बूझे के नाहीं’
‘अच्छा सरकार बाकी रुपिया हम कल पहुंचाय देंगे। पर हमार काम हो जाना चाहिए सरकार। हमरे संघे रामभरोस बहुतै जुरूम कर रहे हैं’
मुंशी को तीस रुपया दे कर औतार थाने से घर लौट आये। पहले तो मुंशी की कड़क आवाज सुन कर डर गए थे, जाने काहे के लिए बुला रहा है, कुछ गलत हो गया का। यह तो थाना है, थाने पर तो बड़े बड़े लोग भी कांपते रहते हैं, हमारी का औकात एक असामी की। कहीं थाना भी मेरी पीठ पर कुछ लिखने न लगे। पता नहीं हम लोगों की का किस्मत है कि लोग हमलोगों की पीठ पर अपना गुस्सा लिखने लगते हैं। अरे गुस्सा है तो पहाड़ों पर लिखो, बादलों पर लिखो, नदियों पर लिखो। बादल पानी क्यों नहीं बरसा रहे, नदियॉ क्यों सूख जाया करती हैं पर नाही हमलोगों की पेट और पीठ पर ही लिखेंगे अपना गुस्सा। औतार ने मुह में आए खखार को वहीं थूका और घर का रास्ता पकड़ लिया।
‘कारे बिफना गाना, गाना भी कतल या डकैती
माफिक जुरूम होता है का फिर काहे की गिरफ्तारी?
गिरफ्तारी की कथा हमरे समझ में नाहीं आय रही है’
बिफना और फेकुआ दोनों कवि सम्मेलन सुनने के लिए रापटगंज चल दिए यह मान कर कि उन्हें अपने बापों के सामने कुछ भी नहीं बोलना, का होगा बोल कर उनसे। उन लोगों के सामने बोलना पहाड़ तोड़ने माफिक होगा फिर भी न टूटे, भला पहाड़ टूटता है? उनसे बोलो तो नसीहतें दर नसीहतें, यह करो वह न करो, चुप हो कर अपना सिर हिलाते रहो, केवल इतना ही। हर रास्ते पर कांटे बिछे हैं। घर में भी माहौल ठीक नहीं था, पूरे घर को रामभरोस का आतंक लीले हुए था जिससे हर तरफ मारपीट का भय पसर गया था। फेकुआ घर के दमघोंटू माहोल से निकलना चाहता था, चाहता था कि कहीं ऐसी जगह जाए जहां खुल कर बोल बतिया सके, हस सके। कविसम्मेलन के बहाने घर से निकलने का मौका अच्छा था सो दोनों घर में बिना कुछ बताए ही रापटगंज चल दिए। बाद में जो होगा देखा जाएगा, बहुत होगा तो डाट पड़ेगी और का होगा। डाट की उमर ही कितनी होती है? कुछ सेकेण्डों व मिनटों वाली, हवा की तरह बही और चली गई।
रापटगंज में जहां कवि सम्मेलन हो रहा था उस स्थान का आसानी से पता चल गया। स्थान जाना पहचाना था। तहसील के सामने वाला क्लब का मैदान। वैसे भी वह मैदान काफी सजा-धजा हुआ था। पूरा मैदान खूबसूरत पांडाल के घेरे में था तथा माइक लगातार चिल्ला रहे थे। बिजली की सजावट भी देखने लायक थी। एक बार तो उन दोनों को भ्रम हो गया कहीं यहां बियाह न हो रहा हो पर वहां विआह का कर्यक्रम नहीं था। पांडाल के मुख्य द्वार पर बहुत भीड़ थी, स्वयंसेवकों की भरमार थी। वे दोनों भी उसी भीड़ का हिस्सा बन गये। कुछ खास किस्म के लोगों को पांडाल के भीतर जाने की विशेष व्यवस्था थी। ऐसा जान पड़ रहा था कि पांडाल के अन्दर जाने वाले उन विशेष लोगों ने भरपूर चन्दा दिया होगा और चन्दा नहीं देने वाले सामान्यों के लिए दूसरी व्यवस्था थी।
बिफना और फेकुआ दोनों पैदल चल कर पन्द्रह किलोमीटर दूर रापटगंज आये थे, उन्हें विशेष सुविधा दिया जाना चाहिए था क्योंकि वे मजूर कविसम्मेलनी श्रद्धालु थे, पर कौन पूछता है परिश्रमी लोगों को। वहां भी उन्हीं की पूछ थी जो रुपये व गरम तोंद वाले तथा अपना काम करने से भी लजाने वाले थे। भीड़, भीड़ होती है, भीड़ इतनी बढ़ गई कि लोग बोझ बने जा रहे थे। एकदम ठसाठस, कहीं बैठने की जगह नहीं। पांडाल के अन्दर घुस पाना तो वैसे भी असंभव था। दोनोें को लगा कि वे पांडाल के भीतर नहीं जा पांएगे। वे सोचने लगे कि यहां आना बेकार हुआ। कोई ऐसा दीख भी नहीं रहा था जो आसानी से पांडाल के भीतर उन्हें घुसवा देता। यह असंभव काम था। फेकुआ को लगा कि बाहर खड़े स्वयंसेवको को झपड़ियाये और सीधे भीतर घुस जाये पर यह रापटगंज है, रामगढ़ होता तो वह शायद ऐसा कर भी जाता। कुछ देर बाद गॉव का विभूति दिखाई पड़ा। विभूति रामभरोस का लड़का है, बिफना विभूति को पुकारने लगा पर भीड़ में कौन किसकी बात सुनता है? बिना देर किए बिफना विभूति की ओर दौड़ा....कृ
संयोग से विभूति मिल गया और उसने बिफना की आवाज सुन भी लिया थाकृबिफना तो उसे पुकार ही रहा था।
‘छोटका सरकार! छोटका सरकार!’
छोटका सरकार को हालांकि बिफना की पुकार सुनाई पड़ रही थी पर वहां विभूति अकेले छोटे सरकार तो था नहीं, वहां तो उसके जैसे जाने कितने सरकार थे, एक से बढ़ कर एक थे, विभूति रुक गया और बिफना की ओर मुड़ा..कृ
‘अरे! बिफना तूं, यहां का कर रहे हो!’ विभूति ने पूछा
‘हम लोग भी कविसम्मेलन सुनने आए हैं छोटका सरकार!’
एक ही सांस में बता गया बिफना।
‘तूं कब आए यहां, फेकुआ भी दीख रहा है। बुड़बक ईहां बिरहा नाहीं हो रहा है, कवि सम्मेलन होगा, तूं लोग कविता नाहीं समझ पाओगे, चलो कोई बात नाही है। आ गए हो तो हम बैठवा दे रहे हैं तूं लोगों को।’
फिर विभूति ने किसी परिचित स्वयंसेवक को तलाश कर उसे सहेजा कि इन दोनों को भी पांडाल में बिठवा देना और खुद उस तरफ चला गया जिधर से असामान्य लोगों को पांड़ल के भीतर जाना था जिनके लिए विशेष गद्दों का इन्तजाम मंच के ठीक सामने किया गया था।
सामान्य लोगों को पांडाल में बैठने की व्यवस्था पीछे की तरफ थी जो देखने से साफ साफ समझ में आ रही थी। वहां फर्श पर गद्दे नहीं बिछे थे और आगे की तरफ गद्दे बिछे हुए थे। पांडाल में आने वालों का क्रम करीब नौ बजे रात तक चलता रहा, मंच से लोगों को पांडाल के भीतर बैठने और शान्त रहने का निर्देष्श भी दिया जा रहा था। कवियों के आने की भी सूचना मंच से प्रचारित की जा रही थी और बताया जा रहा था कि फलां फलां कवि पधार चुके हैं और शीघ्र ही कविसम्मेलन प्रारंभ होने वाला है।
भीड़ शान्त हुई, श्रोता समूह ने कविसम्मेलन की आश में अपना मुंह बन्द कर लिया जो एक अच्छी बात थी। कुछ ही देर में कविसम्मेलन के संयोजक महोदय माइक पर आये और कविसम्मेलन की उपयागिता पर बोलने लगे कि कविसम्मेलन आज के समय में क्यों जरूरी है। फेकुआ और बिफना दोनों की समझ में नहीं आया कि संयोजक का बोल रहा, वे फुसफुसाये...कृकृ
‘शुरू करो भाई, का बक बका रहे हो, कविसम्मेलन जरूरी नहीं होता तो हमलोग यहां काहे आते’
संयोजक के बोल चुकने के बाद विधिवत कविसम्मेलन का उद्घाटन हुआ। दीप प्रज्वलित कर सरस्वती वन्दना की गई फिर कहीं दस बजे तक कवि सम्मेलन प्रारंभ हो पाया। एक आदमी जो कविसम्मेलन का संचालन कर रहा था, वह भारीभरकम देह वाला था, उसकी बोली भी भारीभरकम थी। वह मंच पर खड़ा होता और दहाड़ते हुए कुछ गिटपिट बोलकर कवि को बुलाता फिर बुलाए हुए कवि मंच पर आते और अपनी कविता का पाठ करते। संचालक की दहाड़ फिल्म के किसी खलनायक जैसी लगती। कवि जो माइक पर आते उनमें कोई भाषण सरीखा कविता पढ़ता तो कोई उसे गाने लगता। गाना सुनकर दोनों को मजा आता, दोनों उसकी धुन पकड़ते और अपने में खो जाते। लगते विचारने कि कौन सी कजरी या बिरहा की धुन पर यह गाना है और किसने कब कहां इसे गाया था। एकाध घंटे के बाद दोनों ऊबने लगे अचानक किसी कविता की धुन ने दोनों को प्रभावित किया...कृकृ
‘बहुत बढ़िया धुन है रे बिफना,’ बिफना ने फेकुआ को खोदा
‘हां यार! देखो तो कितना बढ़िया गाय रहा है,’
‘इसका का नाम है? यार हम नाम नाही सुने, का तो बोला गया था। रापटैगंज के हैं, कउनो ‘पंथी जी’ हैं। गीत की धुन लोकधुनों के रसायन वाली थी, कान को प्रभावित और गदगद करने वाली, फेकुआ वाह वाह कर उठा...कृ
‘हां यार ई तो याद करने लायक है।’
पर गीत में क्या था या उससे क्या संदेश दिया जा रहा था? वे नहीं समझ पा रहे थे। बस गीत था, उसकी लय थी, राग था, उसमें कंठ का उतार चढ़ाव था जो उन्हें कर्णप्रिय लग रहा था।
कर्णप्रिय गीत ने फेंकुआ को नींद में धकेल दिया, वह जम्हाने लगा। कभी सचेत भी हो जाता कभी नींद में चला जाता। वह यह भी संकोच कर रहा था कि उसी ने कवि सम्मेलन सुनने का प्रोग्राम बनाया था सो उसे नींद में नहीं जाना चाहिए। कोशिश्ष करने के बाद भी वह नींद में जाने से खुद को न रोक पाया। अचानक वह पूरी नींद में चला गया। बिफना ने उसे झकझोर कर जगाया।कृ
‘जागो यार फेकआ! काहे सूत रहे हो। सुनो तो मेहरारू गाय रही है, बहुत बढ़िया धुन व राग है रे!’
नींद मीठी थी, उसे टूटते ही फेकुआ गुसिया गया बिफना पर...कृकृ
‘का बक बका रहे हो, का बुल्लू के बिरहवा से बढ़िया गाय रही है। पता नाहीं सारे का का गा रहे हैं, कुछ भी नाहीं बुझा रहा है। लेकिन ई मेहररुआ तऽ बढ़िया अलाप रही है यार!
इसी तरह कविसम्मेलन चलता रहा, लोग सोते रहे, जागते रहे, वाह वाही करते रहे और श्रोतागण कविताओं में डुबकी लगाते हुए खुद को तलाषते रहे। मैं कहां हूं? खास कर प्रेम-गीतों वाली कविताओं में। मंच पर आसीन कविगण भी मगन थे, इतने बढ़िया श्रोता उन्हें अन्यत्रा नहीं मिल पाते थेे। श्रोता शान्त और मगन थे, कहीं चिल्ल पों नहीं, किसी को बोर करना नहीं, सारा कुछ अद्भुत। पर बिफना और फेकुआ को कविसम्मेलन उदास कर रहा था सो दोनों इस बात की चिन्ता में थे कि यहां से बाहर कैसे निकला जाये? उस भीड़ में से आसानी निकलना कठिन था फिर भी निकलने के लिए वे जैसे ही खड़े हुए तभी अचानक वहां हंगामा खड़ा हो गया...कृकृ
फिर क्या था हर ओर भागा भागी, हर ओर शोर ही शोर...कृकृ
भीड़ को भगदड़ बनने में देर नहीं लगी। उसी भीड़ में फंसे थे फेकुआ और बिफना, कैसे निकलें भीड़ से बाहर? वहां कुछ सोचने गुनने को मौका भी नहीं था। पुलिस ने पूरा पांडाल घेर लिया, हर ओर बन्दूकंे चमकने लगीं। पुलिस का कोई अधिकारी मंच पर आ कर सभी को शान्त रहने का निवेदन करने लगा, वह बार बार एक ही बात कहता....कृकृ
‘यहां कुछ नहीं हुआ है, जो हुआ था वह हो चुका है, अब आगे कुछ भी नहीं होगा पुलिस ने सारा मामला संभाल लिया है, दरअसल मामला संभल भी गया था। बाद में मालूम हुआ कि गोपाल चुनाहे नाम के कवि की किसी कविता पर बवाल खड़ा हो गया है। आपातकाल में सरकार विरोधी कविता नहीं पढ़नी चाहिए थी।’
गोपाल चुनाहे ने शासन प्रष्शासन को ललकार दिया था। आपातकाल में सरकार को ललकारना भला पुलिस कैसे सह पाती!
‘प्रश्ष्न खड़ा है लोक तंत्रा में कौन बड़ा है, तंत्रा बड़ा है, लोक बड़ा है’
यह सवाल सरकार से भला कौन पूछ सकता है? किसकी मजाल है? गोपाल चुनाहे ने यही सवाल पूछ लिया था सरकार से। असल सरकार तो लखनऊ, दिल्ली में थी पर खुद को सरकार समझने वाले सरकारी अधिकारी तो वहीं थे। उन्हें सरकार से वफादारी का अच्छा मौका मिला सो वे गोपाल चुनाहे को गिरफ्तार करने के लिए दौड़ पड़े। वैसे गोपाल चुनाहे पर पहले से ही वारंट था जैसे देश के तमाम लोगों पर था। वे भी डी.आई.आर. में वान्टेड थे सो पुलिस ने तत्काल उन्हें गिरफ्तार करना चाहा पर वे मंच से कैसे गायब हो गये किसी को नहीं पता चला। पुलिस ने उनका पीछा किया। पुलिस की भागा भागी और पीछा करने से पांडाल में हड़कंप मच गया।
कुछ समय के लिए कविसम्मेलन बन्द करवाकर पुलिस गोपाल चुनाहे को तलाशने लगी, उनका कहीं अता पता नहीं चला। गोपाल चुनाहे कविसम्मेलन स्थल पर काहे के लिए होते, इसलिए होते कि पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर ले। नहीं ऐसा नहीं होता सो वे फरार हो गए पुलिस उन्हें नहीं पकड़ पाई। कुछ घंटे बाद पुनः कविसम्मेलन शुरू कराने की अनुमति पुलिस ने दे दी, तब जाकर कविसम्मेलन दुबारा शुरू हो सका। कविसम्मेलन शुरू होते ही संचालक ने कवि गोपाल चुनाहे की खूब खूब आलोचना की जिससे मंच पर आसीन दूसरे कवि काफी नाराज हो गये और प्रतिक्रिया में आपातकाल विरोधी रचनांए सुनाने लगे, भीड़ तो आपातकाल का विरोध सुनने के लिए जैसे तैयार ही बैठी थी।
वाह! वाह! वाह! वाह! क्या बात है, भीड़ की तरफ से मंच की ओर जाता हुआ प्राकृतिक शोर कि आदमी को गुलाम भले बना दिया जाए, पर पैदा गुलाम नहीं होता। भीड़ का मिजाज देख कर पुलिस ने दुबारा हस्तक्षेप नहीं किया। कविसम्मेलन चलने ही नहीं दौड़ने लगा पर फेकुआ और बिफना दोनों को ऊब हो रही थी तथा उन्हें यह भी ताज्जुब हो रहा था कि गाना गाने पर भी पुलिस किसी की गिरफ्तारी कर सकती है।
फेकुआ ने बिफना से पूछा...कृ
‘कारे बिफना गाना गाना भी कतल या डकैती माफिक जुरूम होता है का फिर काहे की गिरफ्तारी? गिरफ्तारी की कथा हमरे समझ में नाहीं आय रही हैं।’
’‘तोहके हम का समझाएं, तूं नाही जानते का कि पुलिस जो चाहती है कर लेती है, ओके रोकने वाला कौन है। तोहके नाही बुझाता है का कि ये समय ईमरजेन्सी लगी है, सरकार के खिलाफ बोलोगे तो पुलिस गिरफ्तार करेगी ही।’
‘अब हमहूं बूझ गए, चलो वापस चला जाए, अब हमार मन नाही लग रहा है। भला बताओ मन काहे लगेगा? कवियो तो पता नाहीं का का बकबका रहे हैं, दिमाग में कुछो नाहीं घुस रहा है।‘
फेकुआ कविसममेलन में आ तो गया था पर उसके दिमाग पर कोले का लवाना नाच रहा था। केवल मन बदलने के लिए कविसम्मेलन सुनने आया था कि उसका मन बदल जाएगा। कविसम्मेलन में आ कर तो और बोर हो गया। बिरहा की एकाध लाइन दोनों याद कर लिया करते थे पर यहां तो कुछ भी याद करने लायक था ही नहीं। उन्हें जान पड़ा था कि वे एक अलग किस्म की दुनिया में आ गए हैं, जिस दुनिया से उनका कुछ भी लेना-देना नहीं है। उनकी दुनिया तो गोबर माटी वाली है, बिरहा, कजरी वाली है। ये बड़े लोग हैं, उनकी बातें बड़ी होती हैं, इनकी कविताएं भी बड़ी होती हैं, इनकी बातों व कविताओं में गरीबों के समझने, बूझने लायक कुछ भी नहीं होता।
फेकुआ कविसम्मेलन में उबिया गया था उसने तुरंत बिफना से कहा...कृ
‘भोरहरी हो गई है बिफना। आसमान से तारे नीचे उतर रहे हैं, आसमान भी खाली हो रहा है तारों से। चलो हमलोग भी चलें, ओजरार होने तक गॉए पहुंच जाएंगे।’
बिफना भी उबिया गया था। वह भी जल्दी से कविसम्मेलन से निकलना चाहता था। फिर तो दोनों कविसम्मेलन की निराशा पीते हुए घर की तरफ लौट लिए।
‘अब कभी नाहीं आना है ऐसेे परोगाम में।’
भूख और पेट की दूरी नाप कर लिखी जाने
वाली कथांए खुद ब खुद उत्पीड़न गाथा बन जाया
करती हैं,क्या ऐसी गाथांए उत्पीड़न की किताब मानी जा सकती है?
कवि सम्मेलन में जाने के बारे में फेकुआ और बिफना दोनों ने अपने अपने घर वालों को नहीं बताया था पर सुक्खू और ओतार को मालूम हो गया था कि दोनों कवि सम्मेलन सुनने के लिए रापटगंज गये हैं। वे दोनों घर पर सुबह तक नहीं आ पाए थे। सुक्खू और औतार ने मान लिया था कि दोनों बिगड़ते जा रहे हैं तथा आवारागर्दी पर उतर आए हैं। दोनों लड़के हाथ से निकले जा रहे हैं। दोनों को घर परिवार की रंच मात्रा भी चिन्ता नहीं।
हमलोगों के जमाने में ऐसा नहीं होता था कि बपई को कुछ बताए बिना घर से बाहर निकल जांए। आज तो लड़के मनमानी कर रहे हैं। उन्हें घर की परंपरा की तनिक भी चिन्ता नहीं।
‘औतार भाई! जमाना बदल रहा है, घर परिवार ही हम गरीबन की पूॅजी है और का है हमलोगों के पास पूॅजी के नाम पर। लड़के भी जब कहे में न रहे तो का कहा जाए।’
‘सही बोल रहे हैं सुक्खू भाई, लड़के हैं, उनकी मनमानी भी सबर तो हम ही करेंगे।’ कोला लवाने के बारे में डिप्टी साहब वाली दरखास औतार थाने पर दे आये थे साथ ही साथ थाने के मंुशी को अपने दुख दर्द की कहानी भी सुना आये थे। मुंशी ने थानेदार के निर्णय लेने के बाद ही कुछ बताने के लिए बोला था।
औतार को भरोसा नहीं था थाने पर। थाना जाने का करे, अरे थाना का करेगा। थाना रामभरोस के झांसे में आ जाएगा और जैसा वे कहेंगे वैसा ही थाना करेगा। थाने की इस सांस्कृतिक परंपरा को औतार जानते थे। दारोगा और मुंशी सभी मिले रहते हैं जमीनदारों तथा बड़ी जोत वालों से। औतार थाने पर चले तो गए थे पर चिंताओं में भी घिर गए थे। चिंताओं में तो वे वैसे भी थेे। थाने पर जाते तो भी, नहीं जाते तो भी। उनके लिए अपने जानने वालों में कोई ऐसा नहीं दीख रहा था जो उनकी मदत कर सके। उन्हें केवल भगवान का सहारा था, वही शायद कुछ करें। पर भगवान को भी तो ढेर सारी पूजा चाहिए होती है, चढ़ावन व तपावन के साथ साथ मिठाइयॉ आदि के साथ बकरे या मुर्गे की बलि भी। कहां से जुटाएंगे इतना सामान, घर में अनाज का एक दाना भी नहीं और इतना सामान। उनकी इतनी भी क्षमता नहीं कि पूजा का सामान भी जुटा सकें भगवान को अर्पित करने के लिए। पूजा भी बड़े लोगों की चीज होती है गरीबों की नहीं। औतार ने सोच कर माथा पकड़ लिया। बिपत्ति आती है तो हर तरफ से आती है। भगवान की शरण में जाओ तो रुपया, थाने पर जाओ तो रुपया। यह जो रुपया है, वह आए कहां से? केवल बनी-मजूरी का सहारा है उससे तो पेट भी नहीं भर पाता है फिर कैसे पैदा होगा रूपिया भगवान की पूजा करने के लिए? औतार ने माथा पकड़ लिया जैसे माथा पकड़ लेने से सारा दुख दर्द फुर्र हो जाएगा और हाथ में रुपया आ जाएगा।
फेकुआ और बिफना दोनों बिरहा गाते हुए घर वापस आये। चौथी गवहां की जोतनी पिछड़ रही थी। फेकुआ और बिफना को जोतनी पर नहीं देख कर चौथी गवहां हरिजन बस्ती चले गये और सुबह होते ही उनके घरों के सामने ले-दे करने लगे। लगे ओरहन देने....कृकृ
‘ऐसे ही हलवाही होती है, जब चाहो काम करो और जब न चाहो न करो। सारा कुछ मनमानी हो गया है। कोला और हलवाही का हक (दोनों फसलों में उपहार के तौर पर हलवाहों को खलिहान से दिया जाने वाला कुछ मन (तौल का नाम) अनाज) तो चाहिए ही चाहिए उसमें से कुछ काट लो तो किच किच। हलवाही में जो पॉच मन अनाज दिया जाता है, का ऊ हरामी का है। काम नाही करना है फिर काहे का हक, पद, कोला, बिगहा।’
इसके साथ बहुत भला-बुरा औतार व सुक्खू को चौथी ने सुनाया। औतार और सुक्खू दोनों खामोश थे। ओरहन के साथ शामिल चौथी गवहां की गालियॉ वे सुनते रहे थे, और वे कर भी क्या सकते थे, जमाना भी तो वही था मालिकों वाला। किसी मजूर की इतनी मजाल जो मालिक से कुछ बोल सके सिवाय सलाम वा पलग्गी करने के, दूसरी बातें थी ही नहीं। औतार और सुक्खू दोनों चौथी गवहां के सामने तो कुछ नहीं बोल पाए पर भीतर भीतर बोल रहे थे, ऐसी बोली जो मालिकों के सामने नहीं बोली जा सकतीं। अपने उत्पीड़न का प्रतिकार भला वे आमने-सामने कैसे कर सकते थे। उन्हें इतिहास व परंपरा ने यही सिखाया था कि चुप रहो, गालियॉ सुनते रहो। जो गालियॉ देगा, गालियॉ उसी को पड़ेंगी, सुनने वाले को नहीं। इस तरह के तमाम सुभाषित उनके दिल दिमाग में भरे पड़े थे जो उन्हें खामोश किए हुए थे।
चौथी गवहां कम नहीं थे। उन्हांेने औतार को लपेट लियाकृ
‘का हो औतार! तूं तो बड़े-बूढ़े हो, का हलवही ऐसे ही होती है, जब मन हुआ काम पर चले आए, मन नहीं हुआ तो नहीं आए। मनमानी चल रही है। मालूम हुआ है कि दोनों कविसम्मेलन सुनने गए हैं रापटगंज। लिखि लोढ़ा पढ़ि पत्थर, ऊ ससुरा का गए हैं कवि सम्मेलन सुनने। नाच तो है नाही कि कमर हिलाना देखना है।’
सूर्योदय नहीं हुआ था। सूर्योदय होने में कम से कम एकाध घंटे की देरी थी औतार लेवा में दबे पड़े थे, लेवा लपेटे ही घर से बाहर निकलेे। आखिर कितना सहते, सहनशीलता की भी तो कोई सीमा होती है, सीमा टूट चुकी थी और औतार अपने पर आ गए थे ‘जो होगा देखा जाएगा’....कृ
‘गवहां काहे हल्ला कर रहे हैं। कोला दिए थे अउर ओके लवाय भी लिए। अब फेकुआ से आपका काहे का नाता। एक नाता बना था मालिक और हलवाह वाला, उसे भी आपने तोड़ दिया। अब आप काहे बकबका रहे हैं। एक बात और जान लें गवहॉ कि फेकुआ अब आपकी हलवाही नाहीं करेगा। हम आपके बंधुआ नाहीं हैं, हमार जो मन करेगा हम वही करेंगे, डंडे के जोर से आप हमलोगों से हलवाही नहीं करा सकते।’
आजादी के बाद भी हलवाहों को बंधुआ बना कर उनसे जबरन काम कराने की परंपरा रही है हर तरफ। उसी का विरोध कर रहे थे औतार। औतार अपने पर आ गए थे, वे तैयार हो चुके थे कि जो होगा उससे निपट लेंगे। सामंती डर से बाहर कैसे निकलते जा रहे थे औतार यह उन्हें खुद नहीं पता था। पर इतना पता था उन्हें कि जिन्दा रहना है तो डरों से बाहर निकलना ही होगा।
चौथी गवहां थे कि कोला लवा कर भारी पड़ गये थे। हालांकि ईमरजेन्सी में किसी हरिजन का कोला लवा लेना आसान नहीं था पर सहपुरवा के लिए आसान था। ताकतवरों के लिए आसान था। वहां कुछ भी हो सकता था वहां रामभरोस की सरकार चलती थी। बावजूद इसके अगल बगल के गॉवों के लोग महसूसते थे कि चौथी गवहां को किसी न किसी दिन जेल जाना ही पड़ेगा। भले ही थाने को कुछ दे दिलवाकर जेल जाने से अब तक बचे हुए हैं। उनके ऊपर भी डी.आई.आर. लग सकता है जिसकी जमानत तक नहीं होती। किसी हरिजन का कोला लवाना अपराध है। पर हुआ कुछ भी नहीं। चौथी गवहां आज भी पुराने मिजाज से हैं मस्त मस्त। फेकुआ उनके काम पर नहीं गया सो पूछने चले आए थे नहीं तो हरिजन बस्ती में काहे आते। फेकुआ का कोला लवा लेने के बाद भी उस पर वे अपना हक समझ रहे थे।
‘फेकुआ काहे काम नाहीं करेगा हो औतार? हलवाही किया है, साल भर तो काम ओके करना ही पड़ेगा। ई बात कान खोलकर सुन लो औतार ओके हमारा काम करना ही पड़ेगा, ऊ चाहे जैसे करे, हम ओके छोड़ नाहीं सकते।’
वैसे चौथी गवहां शान्तिप्रिय आदमी थे फिर भी उनसे उनका मध्यमवर्गीय चरित्रा छिनाया हुआ नहीं था। झूठे शान व अभिमान की उन्हें भी सामंती बीमारी थी सो वे औतार को भला बुरा सुनाने लगे थे। औतार नहीं चाहते थे कि फेकुआ चौथी गवहां का काम करे और चौथी गवहां हैं कि अड़े हुए हैं, काम करवाना ही है। पर औतार कहां मानने वाले थे, वे थाने पर चौथी गवहां के खिलाफ दरखास दे ही आये थे। प्रशासन पर से उनका विश्वास मिटा नहीं था।
फिर तो औतार भी साफ साफ बोल गये जिसमें उनके गुस्से की धुन थी...कृकृ
‘हे गवहॉ! जो करना हो कर लीजिएगा, कोला तो लवा ही लिए हैं अब का करेंगें, का जान मारेंगे, उहो मारकेे देख लीजिए। हमारा माथा खराब न करिए फूटिए ईहां से, हमैं अपनी तरह से बोलने के लिए मजबूर न करिए गवहां! हम आपकी तरह से गिरे नाहीं हैं कि मुंह में गालियॉ ठूंस लें और आपको लहजबान बोलें या आप पर डन्डा चला दें, हम अपना धरम नाहीं बिगाड़ने वाले।’
औतार चौथी से भला बुरा बोल ही रहे थे कि वहीं बिफना और फेकुआ दोनों आ गये। फेकुआ को देखते ही चौथी गवहां का ताव उफन पड़ा....कृ
‘फेकुआ काम पर चलो और तुरंत हल नाधो।’
चौथी गवहां ने फेकुआ को सहेजा...
‘चल रहे हैं मालिक’ सधा सधाया जबाब दे कर फेकुआ अपने मड़हा में घुस गया। औतार मड़हा के सामने ही थे, बोल पड़े....कृ
‘गवहां फूटिए ईहां से फेकुआ अब आपका काम नाहीं करेगा तो नाहीं करेगा।’
चौथी गवहां तो मानो आग में जल रहे थे। उन्हें हरिजनों के मुंह लगना बुरा लग रहा था। साला यह मजूरा मेरे जैसे मालिक से बहस कर रहा है, इतनी हिम्मत बढ़ गई है साले की, समाज बिगड़ता जा रहा है।
औतार भला बुरा बोलने में कहीं से भी चौथी गवहां से कम नहीं थे, जैसे चौथी बोल रहे थे वैसे ही औतार भी बोल रहे थे। ईंट का जबाब पत्थर से दे रहे थे पर उसमें गाली नहीं थी। वे केवल अपना पक्ष रख रहे थे वह भी शालीनता के साथ, मर्यादित ढंग से।
चौथी को जान पड़ रहा था कि अब पहले वाला शील-संकोच पूरी तरह से खतम हो गया है। औतार ने काम बन्द करने का ऐलान कर दिया। चौथी गवहां हालांकि अपना काम खुद करने में यकीन करते हैं और मानते हैं कि सभी को ऐसा ही करना चाहिए पर काम ही इतना होता है कि बिना मजूरों की सहायता के काम निपटा पाना संभव नहीं होता, हर हाल में मजूर लगाना ही होता है।
चौथी गवहां आखिर भीतर भीतर कब तक गरम होते उसे बाहर निकलना ही थाकृ
‘ठीक है हमारा काम वह नाहीं करेगा तो न करे पर हमारा कर्जा तो वापस कर दे। चलो आज ही हिसाब कर लो, हमारा जो निकले दे दो और तोहर जो निकले ले लो।’
चौथी गवहां ने यह आखिरी सामंती दॉव खेला। यही दॉव जानते थे चौथी, इसका अभ्यास था उन्हें। मजूरों को परेशान करना हो तो दिए हुए कर्जे के वापसी की े मॉग उनसे सख्ती से करो। उनके पास रुपया तथा गल्ला है नहीं फिर कैसे चुकता करेंगे कर्जा? मजबूर होकर काम पर लौट आएंगे। जाएंगे कहां?
औतार भी चाहते थे कि चौथी गवहां असल बात पर आ जांये और हिसाब किताब करने की बात करें। इससे अधिक वे कर भी का सकते हैं। उन्हें तो मालूम ही था कि मजूरों के सारे कर्जों को सरकार ने माफ कर दिया है, चाहे वह कर्ज किसी भी तरह का और किसी का भी हो। कर्जा के बकाए का एक धेला भी किसी को नहीं देना है। सारे कर्ज माफ। नये कानून की जानकारी औतार को पहले से ही थी। कचहरी में भी उस दिन इसी कानून के बारे में बातें हो रही थीं जिस दिन एस.डी.एम. साहब के यहां दरखास देने के लिए वे कचहरी गये हुए थे।
औतार मुखर हो गये....कृ
‘कर्जा, फर्जा हमसे का मांग रहे हैं गवहां! जाइए सरकार से मांगिए। सरकार ने गरीबों का कर्जा माफ कर दिया है। आप लोग तो सारा कायदा कानून जानते हैं पर इतना सरल कानून नहीं जानते का? तो जान लीजिए सरकार ने गरीबों का सारा कर्जा माफ कर दिया है। हम एक धेला भी नाहीं देने वाले, बूझ रहे हैं कि नाहीं।’
औतार को चौथी गवहां पर हास्यास्पद हसी आ गई, वे हंसे भी। जानबूझ कर हंसने लगे जिससे चौथी गवहां को गुस्सा आए और वे कुछ उटपटांग बोलें पर ऐसा हुआ नहीं। चौथी गवहां को ऐसी आशा नहीं थी कि औतार ऐसा उत्तर देगा, अभी जमाना इतना भी नहीं बदला है कि औतार जैसा दरिद्र हरिजन उनके जैसों के सामने तनेन हो जाये। वे तो जानते थे कि औतार पंचायत कराएगा, रुक्का पुर्जा देखेगा, हर-हिसाब कराएगा फिर लेनी-देनी करेगा। पंचायत जब होगी तो कोई पंच आसमान का तो होगा नहीं, पंच जो बन सकते हैं वे भी तो लेन-देन करने वाले हैं सो फैसला तो जैसा वे चाहेंगे वैसा ही होगा पर औतार तो अंग्रेजी बोल रहा है। अच्छा होगा कि हरिजन बस्ती से खिसक लिया जाए नहीं तो बात बढ़ने पर जाने का हो। हो सकता है कि मजूरे मारपीट करने लगें। बस्ती उनकी है, उनके लोग हैं, अकेले वे क्या कर सकते हैं उनकी बस्ती में, अच्छा होगा कि फूटो यहां से।
फिर भी चौथी गवहां हरिजन बस्ती से बाहर नहीं निकले, निकलते भी कैसे, उन्हें तो मध्यमवर्गीय मानसिकता के जहरीले कीटाणु डसने लगे थे। आखिर अपना कर्ज हम काहे छोड़ दें। नगद रुपया दिया है हमने, और गल्ला भी, हम दानी तो हैं नहींकृकृ फिर तो...चौथी पूछने लगे... कृ
‘औतार ई बताओ चार लोगों के सामने जो रूक्क्वा लिखे हो ओकर का होगा? ऊ रुपिया तो तूं फेकुआ के बियाहे के पहले लिए थे। उसका पूरा हिसाब लिखा हुआ है रुक्के म,ेंकृचार मन धान, दू सौ रुपया नगद था। ऊ सब का तोरे बाप का था जो नाहीं दोगे।’
इसी बीच जाने का गुन कर चौथी गवहां ने बात रोक दी। वे गुनते भी तो क्या गुनते यही कि जबरी करने से कुछ हासिल नहीं होगा सो बड़बड़ाते हुए वहां से विदा हो लिए।कृ
‘हम तुम लोगों को देख लेंगे।’ धमकी भरा आखिरी वाक्य वे बोले
इतना बोलना चौथी गवहां की आखिरी सीमा थी। इस सीमा के पार जाने के दुःसाहस को वे खुद ही धमकी की सीमा में समेट लिए।
औतार चौथी की धमकी से डरने वाले नहीं थे। उन्होंने तो पहले से ही निश्चित कर लिया था कि जब चौथी गवहां ने कोला लवा लिया फिर काहे का कर्जा फर्जा वापस करना। कोला नहीं लवाए होते तो उनका कर्जा वे हर हाल में लौटा देते पर अब उनको कुछ नाहीं देना है। औतार को जाने कहां से ताकत मिल गई थी कि वे ललकारने लगे थे....कृ
‘जाइए जाइए जो करना हो कर लीजिएगा’ वे तो कहना चाहते थे कि ‘जो उखाड़ना हो उखाड़ लीजिएगा।’ पर नहीं कह पाये, शायद भद्दा हो जाता और उनके हिसाब से गलत भी।
यह औतार के उत्पीड़ित मन का आर्तनाद था जो समय के अनुसार नए किस्म का कथानक बन रहा था। इस कथानक में औतार थे, उनका घर परिवार था तथा उनके जीवन का एक एक रेशा भी था जो उत्पीड़न की किताब की तरह था जिसे भूख तथा पेट की दूरी नाप कर लिखा गया था।
चौथी गवहां क्या कर सकते थे। कोई रास्ता उनकी समझ में नहीं आ रहा था। रास्ता था भी नहीं। जमीनदरी वाले आतंकी रास्ते पर चला नहीं जा सकता था और गुंडई वाले रास्ते पर चल कर चौथी खुद ही फस जाते। वे तो खुद काफी डरे हुए थे फेकुआ का कोला लवा कर। उनका वश चलता तो वे रामभरोस की बात टाल देते पर नहीं टाल पाये। उन्हें लगा कि ओतार को तो वे झेल लेंगे पर रामभरोस को नहीं झेल पायेंगे। फेकुआ का कोला लवाना था तो रामभरोस खुद लवा लेते, बवाल उनपर काहे टाल दिए। उन्हें लगा था कि रामभरोस उन्हें कहीं का न रहने देंगे, बरबाद करके छोड़ेंगे। चौथी को अपनी गलती का एहसास होने लगा था पर वे क्या करते, फेकुआ को कोला तो लवाया जा चुका था। फेकुआ का कोला लवा कर ऐसी गलती वे कर चुके थे जिसके लिए किसी भी प्रकार की माफी नहीं थी।
औतार ने चौथी गवहां के काम पर जाने से फेकुआ को रोक दिया। चौथी गवहां जान चुके थे कि उनका सारा कर्जा अब डूब जाएगा। रामभरोस भी फेकुआ का कर्ज नहीं लौटाएंगे। डूब गया सारा कर्जा। चौथी गवहां हिसाब लगाने लगे।
चार मन धान यानि बाढ़ी लेकर कुल छह मन हुआ और दो सौ रुपया नगद, सूद ले कर साढ़े तीन सौ रुपया उसका भी हुआ। अब यह सारा कुछ नाले में चला गया केवल रामभरोस के कारण। कोला का धान कितना होगा कुल मिलाकर पांच मन से अधिक नहीं होगा, उससे कर्जा कैसे पटेगा?
चौथी गवहां दुविधा में थे और सोच रहे थे कि अच्छा नहीं हुआ। इलाके में बदनामी हुई सो ऊपर से कि गरीब आदमी का कोला लवा लिया। अगर मुकदमा चल गया तो मुंह दिखाना मुष्श्किल हो जाएगा। कहीं न कहीं वे फस गये हैं रामभरोस की जाल में। रामभरोस को छोड़ना भी ठीक नहीं होगा ऐसे समय में। कानूनी बवाल अगर बढ़ा तो रामभरोस ही बवाल से बाहर निकाल सकते हैं। वही तारनहार हैं ऐसे बवालों के।
काम-काज बन्द, अभी जोतनी भी बाकी है, कर्जा का लेन-देन भी खतम हो गया, हर तरफ से नुकसान ही नुकसान दिखाई पड़ रहा है। बिपत्ति में कोई साथ नहीं देता। चौथी गवहां का करते, हरिजन बस्ती से अनमने भाव से निकले अफसोस करते हुए कि वे बेमतलब रामभरोस के चक्कर में पड़ गये।
चौथी गवहां की हालत सांप छुछून्दर वाली हो चुकी थी। एक ही आस थी रामभरोस की। सो आस लेकर रामभरोस की बखरी पर वे पहुंच गये। रास्ते में रामदयाल कारिन्दा मिला। उससे चौथी गवहां हरिजन बस्ती का सारा किस्सा बयान किए कि औतार ने का, का कहा। किस्सा सुनते ही रामदयाल भड़क उठा....
गालियों पर गालियां देने लगा औतार को, औरतों के सारे अवयवों को गालियों में शामिल करते हुए। इसके अलावा गालियों में होता भी क्या है? हमारी सभ्यता में अधिकांश गालियॉ औरतों की देह से ही तो जुड़ी हुई होती हैं। सामंती मिजाज वालों को लगता है कि गलियॉ दे लो तो राहत मिल जाती है, कथित पुरुषार्थ शिथिल नहीं होता। चौथी गवहां को भी यह पता था कि अपने घर पर औतार भी रामदयाल से अधिक भद्दी भद्दी गालियां उन्हें दे रहा होगा। बहरहाल गॉवों में गालियों को ऐसे अवसरों पर किसी उपकरण माफिक प्रयोग किया जाता रहा है, जाने वह समय कब आएगा कि गालियां खतम हों जांएगी मानव सभ्यता से।
चौथी गवहां की सोच में रामदयाल की हैसियत सिर्फ बैठकबाज और डंड पेलू की थी। रामभरोस के अलावा किसी दूसरे के लिए वे किसी काम के नहीं थे। चौथी गवहां को लगा कि रामदयाल से बतियाना अपना समय नष्ट करना होगा। उन्हें रामभरोस की बखरी की ओर जाना था सो वे रामदयाल से बतियाना छोड़ सीधे रामभरोस की बखरी की ओर चल दिए। बखरी से ही उन्हें राहत मिल सकती है, बखरी चाह लेगी तो औतार क्या उसका मरा भूत भी कर्जा लोटा देगा।
रामदयाल की बखरी पर बहुत सारे लोगों का जमावड़ा था। अधिकारीनुमा लोगों के बखरी पर जमावड़े से बखरी चमक उठी थी। ब्लाक से कई अधिकारी आए हुए थे, वे बेंत वाली मंहगी कुर्सियों पर बिराजे हुए थे। चाय पानी का दौर चल रहा था। दरवाजे के खिदमतगार खूबसूरत ट्रे में नाश्ते का सर सामान ले कर इधर उधर घूम रहे थे। चौथी गवहां को दरवाजे पर एक भी मचिया खाली नहीं दीख रही थी। अधिकारियों की चमक से चौथी की ऑखें चुधिया गई थीं। रामगढ़ के सरकारी अस्पताल के डाक्टर भी आये हुए थे, सभी लोग बातचीत में मशगूल थे। बखरी पर जिले का प्रष्शासन नाचने लगा था और उस नाच में डूबे हुए थे रामभरोस। उस नाच को देखने के लिए लिए चौथी कहां जगह तलाशें बखरी पर जा कर वे खडे हो गये, बैठते भी कहां ? बैठने वाली हर जगहों पर प्रशासन के लोग अपने सरकारी अधिकारों के साथ काबिज थे। चौथी के पास क्या था, वे तो केवल एक मतदाता थे तथा रामभरोस के एक दरबारी बस इतना ही। सो वे बेचारे एक कोने में खड़े हो गए, बखरी पर खड़ा होना भी उनके लिए कम न था। कम से कम अधिकारियों की ऑखों से निकलने वाली ज्योति तो उन पर भी पड़ेगी। वे लोगों की बातें सुनने लगे। अधिकारियों की उपस्थिति के कारण बखरी की चमक मनोरम हो गई थी और सहपुरवा की गलियॉ भी चमकने लगीं थीं।
अस्पताल वाले डाक्टर रामभरोस को सलाहित कर रहे थे कि सहपुरवा में नसबन्दी का एक कैंप अवश्ष्य लगना चाहिए। इस बार अगर आप चाहें तो स्वास्थ्य मंत्राी जी को भी बुलाया जा सकता है। भूमि आवंटन वाले कार्यक्रम में तो कलक्टर साहब आये ही थे। वैसे आपका नाम जिले में कौन नहीं जानता फिर नसबन्दी कैंप लग जाने से आपका नाम हर तरफ आग की तरह फैल जाएगा।
चौथी गवहां तो औतार की शिकायत रामभरोस से करने आये थे पर वहां का माहौल दूसरे ढंग का था, शिकायत करने से कहीं बखरी की चमक खराब न हो जाए। चमक तो वैसे भी नाजुक होती है, दाग पड़ जाएंगेे, अधिकारियों के अधिकार गन्धाने लगेंगे। चौथी का करते बिना बातचीत किए ही घर वापस हो लिए। वे बखरी से लौटने के अलावा कर भी क्या सकते थे। वे रामभरोस से सीधे बतियाने की भी हिम्मत नहीं रखते थे। ऐसे लोगों की हिम्मत पर रामभरोस का स्थाई कब्जा है जो देखने में नहीं आता था, पर कब्जा स्थाई होता है। चौथी भी जानते हैं कि उनकी हिम्मत पर ही नहीं उनके दिल दिमाग पर भी रामभरोस का कब्जा है। रामभरोस की बोली, उनकेे इशारे व उनके फैसले उनके लिए किसी ताकतवर देवता की बोली, इशारे, व फैसले होते हैं। जिसमें किसी भी तरह के बदलाव की संभावना नहीं होती।
रामभरोस की ही नहीं उनकी बखरी की भी चमक पीते हुए चौथी घर वापस आ गए। घर आते ही उनके घर ने उन्हें दौड़ा लिया हालांकि वे अपने घर में घुसे नहीं थे। वे अपने घर में घुसते भी तो कैसे उनका घर तो रामभरोस की कृपा पर जीवित बचा हुआ था। रामभरोस की एक भी हुकूमउदूली हुई नहीं कि घर आग पीने लगेगा, जल उठेगा धू धू करके। सहपुरवा धूएंे में घिर जाएगा, आग की लपटों में उनका परिवार जलने लगेगा। आग की लपटें तो पानी की बौछारें होती नहीं कि कोई सह लेगा। वे जला डालती हैं सारा कुछ, सब कुछ बदल देती हैं राख में। वैसे भी जो घर आग की लपट तथा थाने की रपट से बच गया मान लो कि जीवन बच गया। मरना और जलना दोनों से पड़ता है। आग सीधे जला देती है पूरी देह और रपट धीरे धीरे जलाती है एक एक अंग। पर जलाते हैं दोनों ही।
चौथी खुद को किसी तरह संभाल पाए पर पत्नी के सामने नहीं जा पाए। पत्नी पूछती औतार के कर्जा के बारे में कि वह कब लौटा रहा कर्जा? तो वे क्या बताते उनसे। बताते कि औतार ने उन्हें फटकार दिया कि कर्जा नहीं लौटाएगा। उसका कहना है कि सरकार ने कर्जा माफ कर दिया है। वह तो भरमुह बोल भी नहीं रहा था, गरज रहा था। यही बताते पत्नी को तो उनकी कथित मर्दानगी बौना न हो जाती। पत्नी के सामने तो बहादुर बने फिरते थे, उनकी सारी बहादुरी खतम हो चुकी थी। सो वे खुद में खोए हुए थे, खुद को तलाषते हुए।
‘जो समय के साथ है वह अपने साथ है
जो समय के साथ नहीं है वह अपने साथ भी नहीं है।
समय कभी भी ज्ञात तथा अज्ञात का खेल बन सकता है’
चौथी गवहां असमंजस में थे। रामभरोस से बातचीत किए बिना औतार से कर्जा कैसे वसूल करना है इस पर निर्णय लेने में वे समर्थ नहीं थे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि औतार से कर्ज वसूली के बारे में उन्हें करना क्या है? औतार ने तो साफ इनकार कर दिया कि वे कर्ज चुकता नहीं करेंगे।
करीब दो घंटे बाद जीपों के स्टार्ट होने की आवाज सुनाई पड़ी तब उन्हें लगा कि रामभरोस की बखरी पर आये सारे लोग लौटने लगे हैं फिर तो रामभरोस से बातचीत की जा सकती है। फिर क्या था लाई, चना झोरिया कर रामभरोस की बखरी की तरफ चौथी चल दिए। रामभरोस की बखरी मुश्ष्किल से सौ कदम की दूरी पर थी, एकदम किनारे, गॉव के पूरब की तरफ। जैसे ही चौथी रामभरोस की बखरी की तरफ कदम बढ़ाए वैसे ही बखरी की परछांई ने उन्हें घेर लिया। रामभरोस की बखरी परछांई वाली थी जितने बड़े रामभरोस थे उतनी बड़ी उनकी बखरी की परछांई भी थी। बखरी पर पहंुंचने के लिए कुछ दूर तक बखरी की परछांई में भी रेंगना पड़ता था। जैसे जैसे वे बखरी के पास पहुंचते बखरी की परछाईं उन्हें घेर लेती। परछाईं उनसे पूछने लगती।
‘काहे जा रहे हो सरकार के पास, फेकुआ का कोला लवाना था तो अपने बल पर लवाते, रामभरोस के कहने पर काहे लवा लिए। जब फेकुआ का कोला लवा ही लिए फिर उसका परिणाम भी भुगतो, अब रामभरोस के आगे-पीछे क्या कर रहे हो। एकदम से चूतिया ही हो का?’
परछांईं के टोंकनेे पर वे काहे रुकते, बखरी की तरफ बढ़ते रहे। बखरी की दूरी कदम दर कदम घटने लगी। चौथी जानते थे कि केवल रामभरोस की ही नहीं बखरी की परछाईं में भी लोग गोते लगाने लगते हैं सो उन्हें भी गोते लगाना ही होगा। अब रामभरोस जैसा कहेंगे वैसा ही करना है उन्हें।
रामभरोस आरामदेह कुर्सी में धंसे हुए थे। सामने वाले चबूतरे पर रामदयाल कारिन्दा बैठा हुआ था तो एक तरफ दरी पर कुछ फुटकर लोग भी बैठे हुए थे। रामभररोस ने चौथी गवहां को देखते ही बैठने का हुकुम दिया...कृ
‘बइठो चौथी! केहर से आय रहे हो?’
चौथी किनारे पड़ी मचिया पर बैठ गये और बैठते ही उन्होंने रामभरोस से जानना चाहा....कृ
‘के के आया था सरकार! आज तो दरबार में काफी भीड़ जुटी थी।’
‘अरे यार! कोई बाहर का नाहीं था, सरकारी डाक्टर और बी.डी.ओ. साहब आए थे। सारे अधिकारी नसबन्दी कैंप कराने के लिए दौड़ रहे हैं। अब तूं बताओ हमलोग जबरी नसबन्दी किसकी करा सकते हैं। खैर छोड़ो, ई बताओ खेती बारी का का हाल है?’
‘अबहीं तो जोतनी चल रही है सरकार! फेकुआ और बिफना ने काम ही छोड़ दिया है, कह रहे हैं सब कि हम काम नाहीं करेंगे। औतरवा आज बहुत खरी खोटी सुना रहा था, कउनो अदब नाहीं रह गया साले में। जब हम कर्जा लोटाने के लिए उससे बोले तो वह हमसे अकड़ गया....कृ
‘कहने लगा एक छदाम नाहीं देंगे जो करना हो कर लीजिएगा।’
चौथी गवहां ने औतार से हुई बातचीत व खरी खोटी का पूरा विवरण रामभरोस को सुनाया। विवरण बताते बताते चौथी गवहां सीरियस हो गए। अपनी आदत के अनुसार हाथ से मुंह फेरने लगे। रामभरोस गंभीर बने हुए थे। ऐसे अवसरों पर वे स्वभावतन गंभीर हो भी जाया करते हैं क्योंकि कोला लवाने का मामला उन्हीं के कहने पर घटा था जो तूल पकड़ता जा रहा था। उन्होंने चौथी गवहां को आश्वस्त किया.जैसे चौथी की पीठ सहला रहे हों....कृ
‘काहे घबरा रहे हो चौथी! ऊ सब जोतनी नाहीं कर रहे हैं तो का हुआ? हमारा ट्रेक्टर ले जाकर जोतनी करवा लो। हम आपन हलवाह भेज कर तोहार खेत बोआ देंगे।’
रामभरोस के जोरदार आश्वासन ने चौथी गवहां की पीठ सहलाया, पीठ सहलाते सहलाते उनके माथे तक पहुंच गया फिर उनका तनाव कुछ कम हुआ, पर पूरी तरह से कम नहीं हुआ, माथे का दर्द बना रह गया। पर उन्हें यकीन हो गया कि उनका खेत जोता और बोआ जाएगा। खेती बिगड़ने नहीं पाएगी, नहीं तो साल भर का फांका हो जाता। रामभरोस ने जब टेªक्टर भेजने के लिए बोल दिया है तब ट्रेक्टर जाएगा ही फिर तो खेत बोआ जाएगा, इस मामले में रामभरोस बात के पक्के हैं।
चौथी गवहां गॉव की राजनीति के जानकार थे। उन्होंने महसूसा कि रामभरोस का मिजाज ठीक है, ऐसे समय में औतरवा की बदमाशी के बारे में साफ साफ बात कर लेनी चाहिए रामभरोस से। उन्होंने अपनी बात जोड़ा...कृ
‘सरकार एक बात बोलें, औतरवा का मन बहुत बढ़ गया है, र त्ती भर भी संकोच नाहीं रह गया है ओकरे में। ऊ तो आज लड़ने पर आमादा हो गया था हमसे। ऊ तो हम भाग आए वहां से नाहीं तो जाने वह का करता। ओकरे संगे का करना है कुछ सोचिए सरकार! ओकी मनबढ़ई रोकना है।
रामभरोस तो रामभरोस, गंभीरता की प्रतिमूर्ति, गंभीरता के साथ उन्होंने चौथी को समझाया...कृ
‘हम कह रहे है नऽ जब तक औतरवा का पट्टा खारिज नाहीं हो जाता तब तक मुह सिला रखना है, आगे हम देख लेंगे। ओकरे गाड़ीं में दम है जो हम लोगों का कुछ बिगाड़ सके।
बात भी समयानुकूल थी। रामभरोस समय की राजनीति के साथ थे। वे नहीं चाहते थे कि समय उनकी हसी उड़ाने लगे और वे भहराकर जमीन पर गिर जांए। पट्टा खारिज कराने के बारे में वे प्रयासरत थे और रामबली लेखपाल को उन्होंने सहेज भी दिया था। गॉवसभा का प्रस्ताव पास हो ही गया था। रिपोर्ट लग जाने के बाद एस.डी.एम. साहब से उसे स्वीकृत वे करा ही लेंगे। रामबली ने पट्टा खारिजा के काम को कानूनगो के ऊपर उछाल दिया था और रामभरोस कानूनगो को भी राजी कर रहे थे। हालांकि वह बोल रहा था कि ईमरजेन्सी में वह वही करेगा जो सही होगा गलत कुछ भी नहीं करेगा। रामभरोस ने भी उससे बोल दिया था कि गलत न करो, सही ही करो। अब इससे अधिक सही क्या होगा कि औतार का पट्टा खारिज करने का प्रस्ताव गॉवसभा ने पास कर दिया है। इसमें का गलती है, ग्रामसभा ही तो मालिक है गॉव की जमीन की। रामभरोस अपनी बात पर डटे हुए थे।
‘एम्मे का है, गॉवसभा की जमीन है, जो गलत तरीके से पट्टा हो गई है, वह सार्वजनिक उपयोग की भूमि है, आप जानते ही हो कि सार्वजनिक उपयोग की भूमि का पट्टा नहीं किया जाना चाहिए, कानूनन गलत है, अगर हम चाहें तो तोहके भी एम्मे फसा सकते हैं कि तोहंई ले दे के पट्टा किए हो।’
कानूनगो असमंजस में था, एक ओर उसकी नौकरी थी तो दूसरी ओर रामभरोस थे। रामभरोस का डर उसे इसलिए था कि वे उसे किसी भी फर्जी मामले में भी फसा सकते हैं। रामभरोस जैसों के कई कई हाथ पैर होते हैं। कानूनगो जानता था कि जब सहपुरवा में चकबन्दी हो रही थी तब चकबन्दी अधिकारी उनकी राय में नहीं था। मौजा नुनुआ में चकबन्दी का दफ्तर था। वहीं पर सबके सामने ही रामभरोस की किचकिच चकबन्दी अधिकारी से हुई थी। रामभरोस अपनी जमीन की मालियत बढ़वाना चाहते थे। चकबन्दी अधिकारी गलत तरीके से मालियत बढ़ाना नहीं चाहता था। बात बढ़ गई गाली गलौज तक, रामदयाल कारिन्दा ने लात घंूसों से अधिकारी की पिटाई कर दी। कहानी खतम नहीं हुई, कहानी आगे बढ़ गई। दो तीन दिन बाद रामभरोस ने रापटगंज चौमुहानी पर उस अधिकारी को किसी सफाईकर्मी से पिटवा दिया किसी नाटक की तरह। जाने कहां से वह सफाईकर्मी आया और चकबन्दी अधिकारी को जूतों से पीट दिया। नुनुआ गॉव में चकबन्दी अधिकारी का परिवार भी रहता था। उनके बाल बच्चों का डर के मारे घर से बाहर निकलना बन्द हो गया जाने कब क्या हो जाए। अधिकारी शीघ्र ही अपना तबादला करा कर कहीं दूसरी जगह चला गया। कानूनगो यह सारा किस्सा जानता था, कुछ सोच कर बोला..कृ
‘आप ठीक बोल रहे हैं, गॉवसभा का प्रस्ताव पास हो गया है। अब आप तहसीलदार साहब से बात कर लें, क्योंकि हमारी रिपोर्ट को तहसीलदार साहब ही अपनी संस्तुति देकर एस.डी.एम. के पास भेजेंगे। आप तो सारी प्रक्रिया जानते ही हैं। मैं आज ही अपनी तथा लेखपाल की रिपोर्ट लगवा देता हूं’।
रामभरोस हालांकि पढ़े लिखे कम थे पर उन्हें कोई चूतिया बना दे ऐसा भी नहीं था। वे समझ रहे थे कि ये सारे के सारे कर्मचारी हमैं चूतिया बना रहे हैं। लेखपाल टाल रहा है कानूनगो पर, कानूनगो टाल रहा है तहसीलदार पर, तहसीलदार टाल देगा एस.डी.एम. पर। ऐसा सोच कर रामभरोस अपने ताव में आ गये....कृ
‘कानूनगो साहब ऐसा है हमके चूतिया जीन बनाओ, हम तोहन लोगन का सारा खेल जानते हैं। जिस काम में कुछ दक्षिणा मिल जाती है उसे तूं लोग फटाफट कर देते हो और दूसरे जरूरी कामों को लटका देते हो। हम बताय दे रहे है ऐसे बहाना बनाने से काम नाहीं चलेगा। पर हमार काम तो तोहके कइसहूं कराना है, हम नाहीं जानते के तूं इसे कैसे कराओगे। जो लेना देना हो साफ साफ बोलो, लजाओ जीन।’
कानूनगो पूरी तरह से सहम गया वह जानता था कि रामभरोस से घूस लेने पर गड़बड़ी हो जाएगी, पूरी तहसील इनके इशारे पर नाचती है। तहसील के ये अप्रत्यक्ष तहसीलदार हैं तो एस.डी.एम. भी हैं। सो इनसे बच कर रहना चाहिए नहीं तो पीठ पर कानून की दण्डात्मक धारांए ये चिपकवा देंगे। सावधान होकर उसने अपनी विवशता बताया....कृ
‘सरकार! ई का बोल रहे हैं आप! आप से लेन-देन का करना है। हम तो जानते हैं कि आपका काम करना है बस। लेकिन डिप्टीसाहब की मर्जी के बिना पट्टा खारिजा का काम नाहीं हो सकता, हमलोग रिपोर्ट लगाय दे रहे हैं, आप डिप्टी साहब से औतार का पट्टा खारिज कराय लीजिए।’
कानूनगो की यह बात रामभरोस को अच्छी लगी, कौन तीन तेरह करे, सीधे डिप्टी साहब से ही बात कर लेनी चाहिए। यही अच्छा और सरल होगा क्योंकि पट्टा तो एस.डी.एम. साहब को ही खारिज करना है, कानूनगो ठीक बोल रहा है। फिर तो रामभरोस वहां से चल दिए।
कानूनगो के यहां से रामभरोस निकल तो लिए पर कानूनगो उनके दिमाग पर भूत की तरह चढ़ा हुआ था। कानूनगो कहीं उन्हें बेवकूफ तो नहीं बना रहा...कृ
नहीं, नहीं वह बेवकूफ नहीं बना रहा, उसे तो केवल रिपोर्ट ही लगाना है, वह रिपोर्ट लगाने के लिए बोल ही रहा है। इससे अधिक वह कर भी क्या सकता है। रामभरोस ने तय किया कि अब वे डिप्टी साहब से मिलेंगे, अगर संभव हो सकेगा तो कृपालु जी के साथ मिलेंगे। कृपालु जी की बात टालना डिप्टी साहब के लिए आसान नहीं होगा। जब कृपालु जी तैयार हो जाएंगे फिर तो फेकुआ का पट्टा खारिज हो ही जाएगा। प्रशासन से कत्थक नचवाना कृपालु जी जानते हैं। कत्थक जैसा कठिन नाच भी करमा की नाच की तरह हो जाता है।
‘मजूरों का दिन या रात वाला समय, मजूरी करता
हुआ ही धरती पर उतरता है उसी तरह कथा समय भी तड़पता, छटपटाता, खुद को खोलता, तोड़ता उतर रहा है कथा धरती पर’
फेकुआ के बियाह की साइत पक्की हो चुकी थी। मामा, फूफा, मौसा आदि नातेदारों व रिष्श्तेदारों को बुलाया जा चुका था। गोतिहउजी के लोग तो गॉव में थे ही। कुछ जो दूसरे गॉवों के थे उन्हें भी बुलाया गया था पर वे बियाह के दिन ही आते।
फेंकुआ के मालिक चौथी गवहां चूंकि औतार से नाराज थे सो वे औतार की कुछ भी मदत नहीं किए। औतार की मदत करने के बजाय वे मजाक उड़ा रहे थे कि देखो फेकुआ का बियाह औतरवा कैसे करता है?’ औतार ने बियाह का खर्च-वर्च जो कुछ भी उधार में लेना था उसका जोगाड़ पंडित शाोभनाथ के यहां से किया था। औतार ने बनी मजूरी वाला धान जो बचाया हुआ था उसे बेच कर उन्होंने सर सामान खरीद लिया। उन्हें यकीन था कि चढ़ने वाले कर्जे को मजूरी करके चुका देंगे। मजूरी तो करना ही है। फेकुआ के कोला का धान भी मिल जाता तो वे अपने सहारे ही बियाह का खर्चा निपटा लेते, थोड़ा बहुत ही किसी से उधार लेना पड़ता। कपड़े की दुकान वाले को शोभनाथ ने सहेज दिया था कि जितना भी कपड़ा औतार को चाहिए होगा, दे देना और उसने दिया भी। दुकानदार से औतार ने चार जनानी धोती और एक मर्दानी धोती तथा परचून का सारा सामान खरीदा था। मिट्टी का तेल सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान पर नहीं था उसका जोगाड़ शोभनाथ पंडित ने किसी दूसरे दुकानदार के यहां से करवा दिया था। गहना के लिए फेकुआ की अइया ने चानी वाला अपना कनफुल और पायल पहले ही दे दिया था जिसे औतार ने सोनार के यहां से साफ करा लिया था, और वह चमकने लगा था। नाक के लिए एक नथिया औतार ने पहले ही खरीद लिया था जिसे फेकुआ की अइया को ही पता था फेकुआ को नहीं। नाक का लवंग नैहर से मिलेगा ही। बियाह के सारे जरूरी सामानों को खरीद लेनेे के बाद औतार ने राहत की सांस लिया था और अपने देवता को याद किया था। उनकी कृपा के बिना बियाह का सारा सामान खरीदा जाना संभव नहीं था।
औतार बहुत ठाठ बाट से फेकुआ का बियाह करना चाहते थे। फेकुआ उनका एकमात्रा लड़का था सो काफी उत्साहित थे। कर्जा फर्जा जो भी होगा दोनों कमा कर वापस कर देंगे। फेकुआ भी तो कमाएगा। गॉव में जो देखा देखी वाला पूर्वाग्रह होता है वह औतार के पास भी था किसी भी हालत में फेकुआ की बारात किसी से कम नहीं होनी चाहिए। औतार गॉव के मालिकों को परख लेना चाहते थे तथा अपनी बिरादरी वालों को भी कि वे उनके लिए क्या करते हैं? खेलावन चौधरी की बारात उन्हें नही भूलती। का था उनके पास, वे भी तो गरीब थे, उनके पास तो पट्टे वाली जमीन भी नहीं थी। रामभरोस की हलवाही करते थे, बस यह था कि उनकी मेहरारू का टांका रामभरोस से था एकरे अलावा का था उनके पास?’
औतार चौंक गए खुद पर, का सोच रहे हैं वे, खेलावन चौधरी की मेहरारू का टॉका रामभरोस से था तो क्या यह कम था, यह तो बहुत बड़ी ताकत थी खेलावन चौधरी के पास। उस टॉके के कारण क्या नहीं कर सकते थे खेलावन चौधरी। इसका मतलब खेलावन चौधरी के पास बहुत कुछ था। औतार जानते थे कि यह जो टॉका होता है, वह बहुत बड़ी बात होती है। वे खेलावन चौधरी के जोड़ में खड़े नहीं हो सकते।
औतार ने लवण्डा नाच का इन्तजाम भी किया था बिना लवण्डा नाच चाहे नेटुबा नाच के के कैसी बारात? बिफना उसी नाच मंडली में काम भी करता था। बिफना नाच में जोकरई का काम करता था। उसने भी जोर दिया था कि लवण्डा नाच मंण्डली को ले कर ही वह चलेगा। आखिर क्यों नहीं ले चलेगा नाचमण्डली फेकुआ की बारात में? उसका एक ही तो दोस्त है फेकुआ, उसका बियाह होगा, वह भी बिना नाच बाजा के, कैसी लगेगी बारात, उदास और फूहर। सो उसने अपने स्तर से नाच वालों को बुला लिया था। नाच वालों के लिए गैस और दरी का इन्तजाम नहीं करना था, उनके पास था और बाकी चौकी आदि चीजें तो घरात वाले दे ही देंगे।
आज शाम को ही बारात जानी थी। सभी लोग बारात जाने की तैयारी में जुटे थे। सुक्खू समधियाना ठाट में बीड़ी पर बीड़ी दाग रहे थे। घर में इकठ्ठी औरतों पर अपने रुतबे का असर भी छोड़ना नहीं भूले थे। किसी को इधर उधर देखा कि डांटना दबेरना शुरू कर देते थे।
दूसरी तरफ चौथी गवहां आस लगाए बैठे थे कि कर्जा लेने के लिए उनके पास औतार जरूर आएगा। गॉव में ऐसा कौन है जो औतार को कर्जा दे सके सिवाय मेरे और रामभरोस के। बात सही भी थी पर शोभनाथ पंडित गॉव में एक ऐसे आदमी थे जो किसी की मदत के लिए अपना खाना भी छोड़ सकते थे। औतार ने सारा किस्सा जब उन्हें बताया कि उसके साथ क्या हुआ और अब इतने कम समय में किसके पास जांए सो उनके यहां आए हैं फिर तो शोभनाथ से रहा नहीं गया। उन्होंने केवल आश्वासन ही नहीं हर तरह से औतार की मदत की। वैसे शोभनाथ पंडित की स्थिति बहुत कमजोर नहीं थी पर ऐसी भी नहीं थी कि वे किसी भी समय किसी की आर्थिक मदत कर सकें। उनके ऊपर लड़का पढ़ाने का बहुत बड़ा बोझ था सो वे संभल संभल कर चलते थे। उनकी पत्नी को गॉव में पुजारिन काकी, आजी, भउजाई आदि के नाम से जाना जाता है, हैं भी पुजारिन ही। हमेशा भजन कीर्तन में मगन रहने वाली। शोभनाथ दो बच्चियों के पिता थे और एक लड़का था। बच्चियों की बियाह उन्होंने पहले ही कर दिया था। लड़का इण्टर में रापटगंज पढ़ रहा था बाद में बनारस चला गया क्योंकि आगे की पढ़ाई रापटगंज में नहीं होती थी।
बाजे गाजे के साथ फेकुआ की बारात सोहदवल गॉव की ओर चल पड़ी। बारात जाने के पहले गॉव में स्थित सभी देवस्थानों पर पुजहाई की गई, बरम बाबा से लेकर डीहवार तक। सबसे पहले सती माई के यहां पुजहाई की गई बाद में डीह बाबा, बरम बाबा दूसरे स्थानों पर पुजहाई की गई। पुजहाई में ओतार की मेहरारू के साथ गॉव की गोतिहारिनें तथा नातेदारिनें भी चल रही थीं। देखने लायक दृश्ष्य था, अंग्रेजी बाजा बज रहा था और औरतें पूरी साज, सिंगार के साथ अंग्रेजी बजा के पीछे पीछे थीं। गॉव में ढोल नगाड़े के बजाय अंग्रेजी बाजा का बजना वह भी लोगों को चकरियाये हुए था पर बाजा था कि बज रहा था उसके बजने से दूसरों का बाजा बजे तो उससे औतार को क्या?
ढोलक वालों का साज अलग था। उनके साथ गिटार किस्म का एक वाद्य था जो बैटरी से चलता था जिसे एक आदमी बहुत अच्छे ढंग से बजा रहा था। जब बारातियों का मन गाना गाने का हो जाता तो वे बाजा रोक देते और गाना शुरू कर देते खासतौर से जहां किसी का दरवाजा होता। ‘बगिया फुलै बसंत रे, बउराइल मोरा जियरवा’ की धुन, नगाड़ा पर उफन पड़ती और ढोलक पर ताल देने वाला नाचने लगता। गॉव के छोटे बड़े सभी इस दृश्य को अपनी ऑखों में कैद करते और औतार की तारीफ करते पर चौथी गवहां और रामभरोस कोे इससे खुशी नहीं थी। वे लोग कर ही क्या सकते थे, बारात जानी थी सो गई। अब इससे उनका बाजा बज रहा था तो बजा करे। औतार से का मतलब।
दूल्हे के लिए रिक्सा मंगा लिया गया था जो नुनुआ गॉव से आया था। बारातियों को पैदल ही जाना था सो उनके लिए कुछ विशेष नहीं करना था। दिन के साढ़े चार बजे के आस पास बारात जानी थी इसके पहले भत्तवान का कार्यक्रम निपटा लेना था। बारात जाने में थोड़ी देर हो गई क्योंकि भत्तवान भी उसी दिन था। भत्तवान के दिन अगर खाली पूड़ी खिलानी होती तो देर नहीं होती पर कच्चा खाना दल, भात, तरकारी, बरी, फुलौरी कतरा आदि खिलाना था। औतार ने चौथी गवहां को दिखाने के लिए बरी, बारा, फुलौरी तथा दो किसिम की तरकारी का इन्तजाम किया था। भात, दाल तो था ही। यह सारा इन्तजाम औतार की औकात से अधिक था, पर जिद तो जिद। जिद ही औतार से सारा कुछ करा रही थी उनकी औकात से बहुत अधिक।
करीब पांच बजे दिन के आसपास बारात चल पड़ी बहुत देरी भी नहीं हुई थी। भत्तवान जल्दी निपटा लिया गया। वैसे भी बारात को सहपुरवा से दो कोस की दूरी पर ही तो जाना था।
औतार के लिए एक खुशी की बात थी कि होने वाला उनका समधी किसी की हलवाही नहीं करता था। वह असामी था तथा वह पांच बिगहा उपजाऊ जमीन का मालिक भी था। जिसमें दोनों फसलें होती थीं। उसके पास दस गायें तथा तीन जोड़ हल बैल भी थे। साइत तय करते समय उनका समधी बोल रहा था कि वह जल्दी ही एक भैंस भी खरीदेगा। रिक्सा औतार के मड़हा के सामने खड़ा था तीन चार औरतों ने फेकुआ को ओंइछा फिर बाद में रिक्सा पर बैठाया। उसके माथे पर चावल और दही का टीका लगाया, टीका लगाते समय औरतें कुछ भुनभना रही थीं जो समझ से बाहर था बाकी औरतें वही गीत गा रही थीं जो राम के विवाह का गीत माना जाता है पर उसके बोल साफ नहीं थे।
बारात चल पड़ी, औरतें बारात का जाना तब तक देखती रहीं जब तक बारात का दिखना ओझल नहीं हो गया। औतार के मड़हा के सामने बारात की गंध हर ओर पसरी हुई थी जबकि चौथी गवहां के यहां निराशा और गुस्सा वाली दूसरी गंध थी।
‘बारात का इतना इंतजाम कैसे कर लिया औतरवा ने?
‘इतना इन्तजाम, औतरवा साले ने किसके जोर से किया?’
चौथी गवहां बारात का तामझाम देख कर परेशान थे, परेशान तो वे भी थे जो औतार से जला करते थे।
बारात रास्ते भर गाती बजाती तथा नाचती चल रही थी। करमनाशा नदी पर पहुंच कर बारात रुक गई। वही जगह सुस्ताने लायक थी भी। नदी के भीतर छितराए चौड़े चौड़े पत्थर। पत्थरों के बीच से बहता नदी का पानी, सफेद और साफ, कल कल की मधुर धुन बारातियों का दिल और दिमाग दोनों को खींच रही थी। यह वही करमनाशा नदी है त्रिशंकु वाली, उनके लोर और ऑसंुओं के बहने के कारण नदी बह निकली। त्रिशंकु मतलब एक अभागा राजा जो विश्ष्वमित्रा की यौगिक साधनाओं का प्रायोगिक नमूना बन गया था। उसे वे अपने बनाए स्वर्ग का नागरिक बना रहे थे पर हुआ कुछ नहीं और त्रिशंकु स्वर्ग और नर्क के बीच में जा कर कहीं अटक गया। स्वर्ग वाले तथा नर्क वाले दोनों अपने अपने हितों को देखते हुए उन्हें अपने यहां आने नहीं दिए।
सूर्यास्त हो चुका था। निपटान के लिए नदी से अच्छी जगह और दूसरी कहां हो सकती है। चिलमें दग गईं, बीड़ियां जलने लगीं, सुर्ती ठोंकी जाने लगी। पनपियाव के लिए गुड़ निकाला गया, दाना निकाला गया, फेकुआ की मतारी ने दाना भूज कर बारात के साथ भिजवा दिया था। सारा सामान था नाश्ते का भी और दम लगाने का भी। सभी अपनी अपनी पसंद पर टूट पड़े। गांजा और बीड़ियां तो जलीं पर दाना किसी ने नहीं चबाया। कुछ देर पहले ही तो सब खा पी कर चले थे। यह भी था कि यहीं पेट भर जाएगा फिर वहां घरात में कैसे खाया जाएगा? दैनिक क्रिया से निपट कर बारात सोहदवल के लिए चल पड़ी, वहां जल्दी पहुंचना भी तो था। बारात को लेट करना ठीक नहीं चाहे बारात बियाह की हो या गवन की।
अन्धेरा गाढ़ा होने लगा था, पगडंडी पर रास्ता देखना मश्ष्किल था इसी लिए औतार ने पहले ही गैस जलवा दिया था। एक गैस आगे थी तथा दूसरी पीछे। रास्ता आसानी से दिखने लगा था और बारात कुछ देर में ही सोहदवल के सिवान तक पहुच गई। गॉव के आस पास पहुंचते ही बाजे बज उठे उधर घरात की तरफ से भी बाजे गरजने लगे। बारात को घरातियों ने गॉव के एक बगीचे में ठहरवाया था। वहीं पर नाश्ता करने के बाद बारात दुआर लगाने के लिए घरात के दरवाजे की ओर चल पड़ी। आगे आगे गैस और उसके पीछे लवण्डा का नाच, पीछे पीछे बाराती नाचते गाते। बाराती लड़के अपनी धुन में थे, माइक से गाना बज रहा था और लड़के उस धुन पर नाच रहे थे लगता था कि कोई फिल्म चल रही हो सारा दृश्य अपने आप फिल्मी हुआ जा रहा था। औतार मगन थे, अतिरिक्त आनंद और उत्साह में डूबे हुए थे। उन्हें लगा कि उन्होंने जैसा सोचा था वैसा ही हो रहा है। इस समय औतार भूल चुके थे कि चौथी गवहां ने उनके साथ क्या किया था। उन्हें याद थे तो केवल शोभनाथ पंडित जिनके सहयोग के बिना बारात की इतनी बढ़िया तैयारी नहीं हो पाती। बाराती तो अपने उमंग और रंग में थे ही।
करीब एक घंटे बाद बारात घरातियों के दरवाजे पर पहुंची। दरवाजे पर पहुंचते ही वहां एक औरत ने कलशा दिखाया। कलशा उसके सिर पर रखा हुआ था। औतार ने कलशा उतार कर द्वार पूजा वाले स्थान पर रखा। द्वार-पूजा का स्थान दो चौकियों को जोड़ कर बनाया गया था। चौकी पर ऑटे का चौकोर घेरा बनाया गया था उसी के बीच में कलशे को रखा जाना था। वह पूजा स्थान काफी आकर्षक दिख रहा था। कलशा के ऊपर आम की पत्तियां यानि टेरियां रखी हुईं थीं, भीतर पानी भरा हुआ था। कलशा रखे जाने के बाद द्वार-पूजा शुरू हुई। मंत्रोच्चार होने लगे जो वहां उपस्थित किसी के भी समझ में आने वाला नहीं था। सारे मंत्रा संस्कृत भाषा के थे भला वह किसे समझ में आती? सारा संस्कार बाभनों ठाकुरों जैसा किया जा रहा था पर नकल जैसा नहीं जान पड़ रहा था। ऐसा प्रबंध घरातियों द्वारा करवाया हुआ था। इस तरह से द्वार-पूजा का संस्कार औतार ने अपनी बिरादरी में कभी पहले नहीं देखा था। हालांकि उन्होंने मालिकों के यहां देखा था बाद में उन्हें मालूम हुआ कि उनके होने वाले समधी का मन था कि उनकी लड़की का बियाह वैसे ही होगा जैसे बाभनों या ठाकुरों की लड़कियों का होता है, पर कैसे होता उस तरह से बिआह? सो औतार के समधी ने एक योग्य पुरोहित की तलाश किया था।
औतार के समधी ने अपनी बिरादरी के कई पुरोहितों से बातें की पर उनमें एक भी ऐसा नहीं था जो सवर्णो के विवाह वाले तरीकों को जानता हो। सो वे बिहार से पुरोहित बुलावाए थे। वह पुरोहित ब्राह्मणी विवाह संस्कार का जानकार था। वह आधा हरिजन था तो आधा पंडित था। आधा हरिजन तथा आधा पंडित इसलिए कि उसका बाप पंडित था पर मतारी हरिजन महिला थी। उसके बाप को पंडितों ने अपनी बिरादरी से निकाल दिया था फिर भी वह उनसे नहीं डरा और गॉव में ही डटा रहा। उसने पंडितों के डर के कारण गॉव नहीं छोड़ा। साफ कहता था जो करना हो कर लो, बिरादरी से निकालने के अलावा और तुम कर ही क्या सकते हो। पंडिताई का काम तो उसे चाहिए ही था उसने पंडिताई वाला काम पकड़ लिया जिसे उसने अपने बाप से सीखा था।
हरिजनों में नई लहर आ रही थी, वे दलित होने के आग्रहों से निकलना चाहते थे, वे चाहते थे कि वे सवर्णों की तरह दिखें और उनके जैसा ही आचरण अपनांए। बिना ब्राह्मणी संस्कार अपनाए वे अपना अस्तित्व नहीं बचा पाएंगे सो वे ब्राह्मणी संस्कारों को अपनाने लगे थे। इसी लिए उसे हरिजनों की तरफ से हर ओर पंडिताई का काम मिलने लगा था। हरिजन जो ब्राह्मणी कर्मकाण्ड से दूर रहने वाले थे वे ब्राह्मणी कर्मकाण्ड की तरफ बढ़ने लगे थे। जिसका उसे लाभ मिला।
द्वार पूजा के बाद बारातियों को नाश्ता कराया गया। नाश्ते में घरात वालों ने लड्डू और गुड़हइया जलेबी का प्रबंध किया था जो अद्भुत था, बाराती खुश खुश थे और वाह वाही कर रहे थे।
‘वाह रे औतार! समधी तो बड़हर आदमी पा गया’
नाश्ता खतम और लवण्डे का नाच शुरू। बाराती नाच का आनन्द लेने लगे और बूढे़ किस्म के लोग बतकहियों में डूब गये।
‘सरकार ने हमारा कर्जा माफ कर दिया है, पट्टे की जमीन भी दे रही है, मजूरी बढ़ाने के लिए कह रही है’
औतार पास ही में थे सारा कुछ सुन रहे थे, उन्होंने टोका....कृ
‘अरे समधी साहेब! का बोल रहे हैं? हमरे विजयगढ़ अउर जसौली में अबहीं भी चरसेरवै मजूरी है, चार सेर से आगे बढ़े तो बोलैं। किसका कर्जा माफ हुआ हो समधी साहेब, खाली सरकारी कर्जा माफ हुआ है। हम लोगों के पास सरकारी कर्जा था ही कहां, हमलोगों पर तो मालिकों का कर्जा है, वह माफ हुआ तो कुछ लोगों कां माफ हुआ? हां एक बात हुई है कि पट्टे में जमीन मिली है पर ओकरे संगे झगड़ा भी तो मिला है।’
औतार का कहना था कि सभी ने ‘हां’ में ‘हां’ मिलाना शुरू कर दिया।
‘हां भइया औतार ठीक बोल रहे हैं’
ओतार की बात से सभी सहमत तो होते ही क्योंकि कहीं भी मजूरी नहीं बढ़ी थी। प्रतिदन कच्चा चार सेर वाला पुराना रेट ही चल रहा था, दिन भर की खटनी के बाद। सूर्योदय के पहले से सुरूज देवता के अस्त होने तक काम ही काम, महीने में एक दिन की भी छुट्टी नहीं, रोज रोज काम, अगर बर बेमारी का बहाना नहीं बनाओ तो काम से कहां फुर्सत। बेमतलब का झूठ बोलो, अगर जीना है तो। किसी का कर्जा माफ नहीं हुआ था। बाढ़ी डेढ़ा वाला रोजगार मालिकों का चल ही रहा था। गॉव गॉव साहूकारों जैसे लोग हो गए थे जो सूद और बाढ़ी पर कर्ज दिया करते थे। मजूरों के सामने आर्थिक जरूरतें किसी मुसीबत की तरह खड़ी हो जाती है कि मालिकों, साहूकारों से कर्जा और बाढ़ी लेना ही पड़ता है। आवंटन में जितनी जमीन नहीं मिली उससे अधिक झगड़ा मिला। कहीं रास्ते का झगड़ा तो कहीं चकरोड का झगड़ा। मालिकों से मार-फौजदारी करो तो जमीन जोतो, फिर दारोगा की मार सहो, मुकदमा लड़ो, चक्कर लगाओ कचहरी की। किसे नहीं पता कि विजयगढ़ में एक भी ऐसा गॉव नहीं जहां गॉवसभा की जमीन पर किसी न किसी दबंग का कब्जा न हो। अगर उस जमीन को कब्जेदारों से छीन लिया जाए और भूमिहीनों में बांट दिया जाए तो तमाम भूमिहीनों के पास अपना मकान और अपनी जमीन हो जाए पर ऐसा करेगा कौन? सरकारें तो केवल नारे लगाती हैं और उसी के सहारे सरकार भी चलाती हैं।
सुक्खू पास ही में खड़े थे उन्होंने अपनी बात जोड़ा....कृकृ
‘तोहें भूल गया का औतार! हमरे समधी साहब को वनविभाग ने परसाल उजाड़ नाहीं दिया का? उनका घर दुआर ढहा दिया। भगा दिया गॉव से। उसके पहले उनका ठाठ था, चार बिगहे की खेती करते थे। क्या नहीं था उनके पास, दो जोड़ी देखनहरू बैल थे, तीन गॉयें थीं और एक मुर्रा भैंस भी थी। दूध पूत दोनों से भरे हुए थे। उनका ठाट-बाट बड़का लोगन माफिक था। सात बिगहा जमीन के जोतदार बन गए थे। पर किस्मत भी तो कोई चीज होती है वनविभाग ने एक ही झटके में उजाड़ कर जंगल से बाहर कहीं फेंक दिया। उनका दुख दर्द कोई सुनने, गुनने वाला नहीं। कुछ ही दिन में बेचारे पगला गए और रेणूकूट में क्वार्टर क्वार्टर घूम कर भीख मॉगने लगे।’
‘हंऽ हो सुक्खू! सही बोल रहे हो, हमरे मउसा को भी वनविभाग ने जंगल से बहियाय दिया आज बेचारे हलवाही कर रहे हैं।’
सुक्खू और औतार की बातें जैसे ही खतम हुईं कि किसी ने सीलिंग वाली जमीन के बारे में बोलना शुरू किया....कृ
‘हल्ला था कि सीलिंग से जो जमीन निकलेगी उसे गरीबों में बांटा जाएगा पर का हुआ? का पट्टा हुआ भूमिहीनों को सीलिंग वाली जमीन का?’
‘नाहीं हो, कहां हुआ सीलिंग की जमीन का पट्टा। रामभरोस की जमीन तो निकली थी सीलिंग में पर ओके रामभरोसै जोत रहे हैं।’
बारात नाश्ते के बाद आराम कर रही थी। उसके बाद वियाह का कार्यक्रम था। आराम करते हुए बारात समय और समाज के रिष्श्तों के बारे में अपने अपने ढंग से बतिया रही थी। ‘गरीबों का राज आ गया है या आएगा’ उसे विखंडित कर रही थी। माना जाता है कि गरीब सोचता और गुनता ही नहीं पर औतार की बारात में तो यह साफ दिख रहा था कि गरीब भी सोचता और गुनता है। हां उसके गुनने में कोई प्र्रतिरोध नहीं होता। वे नहीं समझ पाये हैं कि वे कभी सरकार पलट कर अपनी सरकार भी बना सकते हैं, खांटी गरीबों वाली, मजूरों वाली, मजूरों के लिए काम करने वाली सरकार। औतार अपने समय के हिसाब से आगे थे, समय उनके पीछे चल रहा था। औतार जमीनदारी की याद दिला रहे थे। जमीनदार जब श्षिकार पर निकलता था तब क्या क्या करता था, कहां सोता था, किसे मारता पीटता था, जंगल को कैसे रनिवास बना देता था, सारा कुछ। ओतार जानते हैं कि वे पहले भी मजूर थे और आज भी मजूर ही हैं। उनकी पहले वाली पीढ़ी भी मजूर थी और आने वाली पीढ़ी भी मजूर ही होगी।
औतार और सुक्खू को तो यह भी पता नहीं कि सरकार जो होती है वह जनता द्वारा, जनता की, जनता के लिए होती है और मजूर तो केवल मजूर होता है, उसे सरकार ‘जनता’ नहीं मानती।
औतार की आदत पड़ गई है मजूरी के काम में खुद को डुबोए रखने की। उनका जो समय है, चाहे दिन वाला हो या रात वाला वह भी मजूरी करता हुआ ही धरती पर उतरता है। उन्हें लगता है कि आसमान में छितराए हुए जो तारे हैं उनमें भी कई पसीना बहाने वाले होंगे। उनके पसीनों से तर यह जो आकाश है वह भी तो कॉप रहा होगा जैसे कि वे कॉप रहे हैं।
औतार के लड़के की बारात है उनका दिल दिमाग खुशियों से भरा हुआ है। वे मगन हैं बारातियों के साथ। प्रकृति ने उन्हंे मजबूरियों में भी हसना सिखा दिया है।
बारात की मौजमस्ती केवल रात भर की है दूसरे दिन खान-पान के बाद बारात बिदा हो जाएगी। घर में गीत-गारी चल रही है साथ ही साथ भोजन की तैयारी भी। घर में तरह तरह की गारियों वाले गीत गाये जा रहे हैं, समधी साहब नेग पाने की गरज से खाना नहीं खा रहे हैं, दूल्हा भी उदास बैठा हुआ है, नेग पाने की लालच म भीें। समधी और दूल्हे की मनउव्वल हो रही है, साथ ही साथ गीतमय गारियॉ भी चल रही हैं।
‘भागो भागो भड़ुआ भागो’ जैसी किसिम किसिम की गारियां।’
बारातियों को गारियॉ कर्णप्रिय लग रही हैं। समधी ही नहीं सभी मजाकिया रिश्ते के लोगों के नाम ले लेकर किसिम किसिम की गारियॉ गाई जा रही हैं, औरतें अपनी धुन में हैं, बहुत अच्छा लग रहा है उन्हें गारियॉ गाने में। बियाह के समय ही तो मौका मिलता है औरतों को मन की भड़ास निकालने का। गारियों के द्वारा, आंगन में नये किस्म का रीतिकाल उतर आया है नख से लेकर शिख तक। उसमें निर्गुण है तो सगुण भी, दोनों के रसायन में डूब चुके हैं बाराती, वे चाहते हैं कुछ और देर तक आंगन में बैठे रहना और धरती पर उतरे रीतिकाल में गोते लगाते रहना, पर ऐसा संभव नहीं था। शायद ये गारियां उन किलकारियों की आहट थीं जिसे औतार के घर में बियाह के बाद सुना जाना है। रिश्ते की इस पराकाष्ठा पर शायद किसी और पवित्राता की आवश्यकता नहीं।
लगभग दो बजे दिन तक लड़की विदा हो गई, लड़की के साथ बारात भी। फेकुआ के साथ लड़की को रिक्से पर बिठाया गया। बिफना तथा फेंकुआ के कुछ दोस्त जो साइकिल से थे वे रिक्सा के साथ हो लिए। बारात चल पड़ी औतार के घर की तरफ।
घर पर दूसरी तरह की खुशियां बारातियों के आने की प्रतिक्षा में परेशान थीं कि बारात आए फिर वे खुशियों का रसपान करें। बारात भी जल्दी जल्दी में थी कि बेर ढलने के पहने तक घर पहुंच जाया जाये। बारात के घर पहुंचने के बाद कई तरह के तामझाम करने पड़ते है औरतों को। नई बहुरिया के परछन से लेकर घर में प्रवेश तक के अलग अलग कार्यक्रम होते हैं।
‘कथांए भी लाज वाली होती हैं वह लाज न जनानी
होती है न मर्दानी इसी लिए कथांए केवल कथांए होती हैं ’
बारात वापस लौट आई। औतार के घर पर बारात के स्वागत के लिए विशेष तैयारी थी। फेकुआ की अइया तो सुबह से ही परेषान थीं यह करना है, वह करना है, उनके पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे उन्हें लग रहा था कि दुनिया की सारी खश्षियां उनके घर में आ कर हसी-ठिठोली कर रही हैं। फेकुआ की फूआ तथा दूसरी नातेदारिनंे बारातियों के खाने-पीने के लिए भोजन बनाने और बनवाने में जुटी हुई थीं। जवान औरतें और लड़कियां तो दूसरे सपनों में थीं।
‘दुलहिन कैसी होगी, करिया होगी कि गोर, लमछर होगी कि बौनी।’
चाहे जैसी होगी अब तो आ ही रही है घर में। बारात आने में कोई देरी तो है नहीं, करमनासा पार कर चुकी होगी, दुलहिन वाला रिक्सा बारात के आने के पहले ही आ जाएगा।
औतार की हरिजन बस्ती सड़क किनारे थी। सड़क पर से जो भी पर्दे वाला रिक्सा गुजरता बच्चे और लड़कियां उसकी ओर दौड़ पड़ते। वे समझते कि उनके घर का ही दूल्हा आ रहा है पर वह कहीं दूसरी जगह का होता। वे निराश हो जाते। निराशा भी कितने समय तक रहती?
अन्त में फेकुआ वाला रिक्सा आ गया जिसे आना ही था। रिक्सा घर पर पहुंचते ही गीत शुरू, गीत के साथ परिछनहारिनें भी दरवाजे पर। रिक्सा रुकते ही औरतों ने दुलहा और दुलहिन को ओइंछना शुरू कर दिया। अद्भुत दृश्य है..दुलहा दुलहिन पर हल्दी में रंगा चावल छिड़का जा रहा है, साथ ही साथ विवाह गीत भी चल रहा है। दृश्य आकर्षक और मनुहारी है। दुलहा और दुलहिन दोनों सपनों में हैं। नर और नारी के मिलन का इतना चित्ताकर्षक दृश्य। फेकुआ गदगद है। ओइंछने का काम कुछ मिनटों में समाप्त हो गया। दुलहा इस रीति से अब बाहर हो चुका था। ओइछन के बाद दुलहिन को फेकुआ के कमरे में ले जाया गया जिसे लीप पोत कर दो दिन पहले ही फेकुआ की अइया ने तैयार कर दिया था। उन्हें तो अपना ख्याल था कि जब वे दुलहिन बन कर इस घर में आईं थीं तब घर की लिपाई पोताई भी नहीं हुई थी। घर में खटिया भी नहीं थी। उन्हें भूला नहीं है पहली रात, उस रात का ही क्या? जानेे कितनी रातें उन्होंने जमीन पर सो कर बिताई हैं फिर बाद में फेकुआ के बपई ने जोगाड़ करके एक खटिया का इन्तजाम किया था। खटिया पर सोना और एक दूसरे में विलीन हो जाना फेकुआ की अइया को आज भी रह रह कर ख्यालआता है।
दुलहिन को उसके होने वाले घर में बिठा दिया गया। उधर फेकुआ का दिल धड़ धड़ कर रहा था, उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्यों घबड़ा रहा है? घबड़ाने की बात तो थी नहीं, उसे एक गाना याद आ रहा था ‘आजु सइयां से होइहंय मिलनवा’ पर यह मिलन उसे आसान नहीं लग रहा था। वह कल्पनाओं में डूब गया और.कृअपरिचित सी चाह उभरी उसके मन में, जल्दी से रात आए और वह अपनी मेहरारू देखे पर ऐसा संभव नहीं था। मेहरारू तो वह तब देख पाएगा जब उसे घर के रिवाज देखने देंगे। रिवाज खतम होने में रात हो जाएगी। रात तो अपने समय पर ही आती है। आती भी है तोकृयह करो वह करो वाले रीति रिवाजों कोे साथ लेकर आती है।
दुलहिन आने के बाद चौथी का रसम फिर गृह प्रवेश। गृह प्रवेश तो होना ही था चाहे गृह जैसा हो, फूस के छाजन वाला हो, खपरैल के छाजन वाला हो या कंक्रीट वाला ही क्यों न हो। घर से क्या मतलब कि उसमें प्रवेश के लिए कितने दरवाजे हैं। प्रवेश तो एक ही दरवाजे से होगा। गृह प्रवेश तो होगा ही और हुआ भी। पर बहुत बाद में। उसके पहले ‘चौथी’ छुड़ाने जैसे तमाम रिवाज निपटाए गये।
दुलहिन के घर में आने के बाद मुंह दिखाई शुरू हो गई। औरतें एक एक कर दुलहिन का मुंह देखने लगीं, कोई अठन्नी तो कोई चवन्नी दुलहिन को देतीं। दुलहिन आंचल थोड़ा उठाती तो गॉव की ननदें उसे पूरा उठा देतीं। दुलहिन लजा जाती पर उसे भी आनंद मिलता। वह जानती थी कि यही तरीका है। वह डूबी हुई थी संइया से मिलने की कुंआरी कल्पनाओं में जिसे उसने सहेजकर रखा हुआ है अब तक। ऑखों में जोति है, किरणें फूट रही हैं, किरणों में सपनों का राजकुमार बसा हुआ है। फेकुआ का कान घर में से निकलने वाली औरतों की बातों पर टिका हुआ है कि वे दुलहिन के बारे में का बोल रही हैं? एक दो का बोला हुआ उसने सुना भी कि ‘दुलहिन ठीक है’, ‘देखनहरू’ है। फेंकुआ गदगद हो गया है, उसने भी तो सपना देखा है कि दुलहिन देखनहरू होनी चाहिए, अच्छी कद-काठी वाली, अच्छी नाक-नक्स वाली, गोर-गार, सुघ्घर।
रात हुई। फेकुआ खाना खा पीकर बाहर कहीं ढरक गया। भला उसे नींद कैसे आती? वह दुलहिन के बारे में ही सोच रहा था जाने कैसी हो, बिफना भइया की दुलहिन की तरह है कि नाहीं, होगी ही, हाथ तो साफ दीख रहे थे और पैर भी, गोर तो होगी ही, चलो जो होगा ठीक होगा, अब का हो सकता है बियाह के बाद अब तो हमेशा हमेशा के लिए साथ निभाना है। फेकुआ के पास नींद वाले गोते नहीं थे पर वह काफी थका हुआ था। दिन भर की थकान ने उसे नींद में धकेल दिया। तभी किसी औरत ने उसे जगाया....कृकृ
‘का हो फेकुआ! सूति गए का? कैसे नीन आय गई तोहके, चलो उधरकृ’
औरत ने इशारा किया उस कमरे की तरफ, जिसे उसके लिए खासतौर से तैयार किया गया था। वह बिफना की औरत थी। चघड़ और मस्त, उसने फेकुआ का हाथ पकड़ा और उसके कमरे की तरफ ले गई फिर अचानक ऐसा धक्का दिया कि फेकुआ अपने आप कमरे में समा गया। किसी तरह गिरने से बचा नहीं तो मजाकिया रिष्तांे वाली रिष्तेदारिनंे हसने लगतीं। बिफना की औरत ने फटा फट दरवाजे का टटरा लगा दिया, जाते जाते मजाक भी करती गई....कृ
‘सम्हारि के हो फेकुआ, नई नई है बेचारी, खेलल खायल नाहीं लाग रही’
फेकुआ भीतर भीतर रोमांचित था। उसे भउजी के मजाक पर हसी आ गई हालांकि उसने हसी रोक लिया। भउजी का मजाक भी तो समयानुकूल था। पर था शुचिता के बाबत। शुचिता हर हाल में औरतों से ही जुड़ी होती है पुरुषों से नहीं।
कमरे की सजावट देखने लायक थी। खटिया पर लेवा बिछाया हुआ था और उस पर एक पलंगपोस भी बिछाया गया था। पीछे की तरफ भेड़िहवा कंबल रखा गया था। फेकुआ के लिए यह इन्तजाम अद्भुत था। जनम से ही वह जमीन पर सो रहा है। लेवा-कथरी तो मेहमानों के लिए रखी रहती है घर में। बहुत हुआ तो कमरे में पुअरा बिछा दिया गया उसी पर लंुगी फैलाकर सो लिया। इतना इन्तजाम उसने अपनी बिरादरी में किसी के घर नहीं देखा था। यहां तो खटिया है, कंबल है और साफ-सुथरा लेवा भी। फेकुआ धधा गया। उसकी मतारी ने इंतजाम में कोर कसर नहीं छोड़ा है। सारा इन्तजाम खुशियों से भरा हुआ था। खुशियांे की सजावट कमरे में थी जो उल्ल्ेखनीय नहीं थीं पर थीं खुशियों से भरी हुई। फेकुआ के लिए रात भी खुशियों वाली होने वाली थी। वह खुशियों को रात भर चूम-चाट सकता है।
फेकुआ जानता था कि उसकी औरत का नाम सुमिरिनी है। वह आज उसे नाम से बुलाए या कैसे बुलाये समझ नहीं पा रहा था। का बोलेगा उससे कैसे बोलेगा, कहेगा ‘का हो सुमिरिनी’ भोजपुरी में। नहीं खड़ी बोली में ही बोलेगा, वह बोल लेता है खड़ी बोली। सुमिरिनी कौन पढ़ी लिखी है कि उसकी गलती निकाल पाएगी खड़ी बोली में, अपनी बोली में नहीं बोलेगा। फिलिम में तो ‘डार्लिंग’ और जाने का का जाने का बोला जाता है मेहरारू को। फेकुआ सकपकाया हुआ है। पर वह उसे डार्लिंग नहीं बोलेगा उसका नाम लेकर ही उससे बतियाएगा।
फेकुआ के घर में घुसते ही खटिया से उठ कर जमीन पर एक किनारे सुमिरिनी बैठ गई। खटिया से उतर कर जमीन पर बैठ जाना चाहिए सुमिरिनी केवल इतना ही जानती थी। उसने सुना था कि पति के सामने खटिया पर बैठे नहीं रहना चाहिए। जमीन पर क्यों बैठ जाना चाहिए उसे पता नहीं था। वह साधारण सी लड़की थी कोई परंपराओं की शोधार्थी नहीं थी। वह काफी सकपकाई हुई थी। नर-नारी के रिश्तों के बारे में कुछ सुनी सुनाई बातें ही उसे मालूम थीं, जैसे यही कि पति देवता होता है आदि आदि। जबकि किसी देवता के बारे में उसे कुछ भी पता नहीं था कि देवता होते हैं या नहीं होते हैं। होते है तो उनके रंग रूप कैसे होते हैं?
सकपकाई हुई सुमिरिनी अपने ढंग से लजा रही थी, उसे लजाना ही था। और फेकुआ था कि वह भी अलग ढंग से लजा रहा था, दोनों लजा रहे थे, एक की लाज मर्दानी थी तो दूसरे की जनानी पर रात नहीं लजा रही थी, रात की लाज मर्दानी तथा जनानी में नहीं बटी होती। रात की लाज खुली खुली थी और मस्त मस्त भी। रात के लिए वहां औपचारिकता की जगह नहीं थी कि रात बोलती और फेकुआ या सुमिरिनी से कहती बैठो और रात के रहस्य को समझने की कोशिश करो। रात जो चुप थी तो चुप थी, उसे कुछ नहीं बोलना था। बोलना बतियाना तो उन दोनों को था, कुछ मन की तो कुछ बेमन की। कुछ दिल की तो कुछ दिमाग की। रात का उपयोग उन्हें अपने मन और तन की जरूरत के हिसाब से करना था जिससे रात नाराज न हो जाए। रात का नाराज होना शुभ संकेत नहीं होता।
फेकुआ ने जेब से सुर्ती निकाला, उसे हथेली पर रख कर बनाना चाहा तभी अचानक रुक गया।
‘आज नाहीं बनाएगा सुर्ती। आज सुर्ती खाना ठीक नाहीं है।’
सुमिरिनी जाने क्या सोचे, गुने उसे अच्छा नहीं लगेगा। सुमिरिनी का मन-मिजाज जानकर ही वह सुर्ती खाएगा। अगर खाना हुआ तो चुपके से खा लेगा कहीं छिप कर। पर उसके सामने नहीं।
उसने सुर्ती तत्काल जेब में डाल लिया। उसने देखा कि सुमिरिनी जमीन पर गुड़़ुर-मुड़ुर हो कर बैठी हुई है। उसके दिमाग ने काम किया फिर तो उसने सुमिरिनी का एक हाथ थाम लिया...कृ
‘ईहां काहे बइठी हैं हो! खटियवा पर बैठिए’
फेकुआ ने कहा ही नहीं बल्कि सुमिरिनी को हाथ पकड़ कर खटिया पर बैठा भी दिया। खटिया पर बैठ जाने के बाद भी सुमिरिनी किकुड़ियाई हुई थी किसी गठरी माफिक। फेकुआ का हाथ छुआते ही सुमिरिनी सिहर गई थी। अजीब तरह की गुदगुदाहट, देह न हिल रही थी न कांप रही थी पर मन कांप रहा था। पुरुष संपर्क का पहला अवसर। सुमिरिनी का अंचरा नीचे सरक गया था उसने उसे तत्काल ठीक किया फिर सामान्य हो गई पर सामान्य होना आसान नहीं था। गुदगुदियां उसे सामान्य नहीं होने दे रहीं थीं। उन दोनों में सामान्य औपचारिकता कुछ देर में ही समाप्त हो गई फिर वे दोनों नर और मादा में तब्दील हो गये। नर मादा के कौशलों में उनका डूबना था कि रात भी मुस्कराने लगी। रात के मुस्कराने में नर-नारी के दैहिक करतबों की कुदरती कलायें थीं जिसे सीखने व जानने के लिए कथित गुरू की जरूरत नहीं होती। बातें शुरू हुईं...रात उनकी बातें सुनने लगीं...
‘तोहके हम बिअहवै में देखि लिए थे, अउर मन किया कि....’
फेकआ आगे नहीं बोल पाया।
सुमिरिनी का बोलती फिर भी उसे बोलना था...कृ
‘झूठ’
‘झूठ बोल रहे हैं, बिआहे में कैसे देख लिएआप?
बातचीत के सहारे दोनों एक दूसरे में खोने लगे, वे काफी देर तक एक दूसरे में विलीन होते रहे, विलीनता में एक दूसरे को खोजते रहे, वह खोज न तो मर्दानी थी न जनानी, केवल खोज भर थी। रात चढ़ती और गदराती गई, दोनों के तन ही नहीं सांसें भी एक दूसरे को तलाशने लगीं। पता ही नहीं चला कि रात भी होती है और उसके अनमोल करतब भी। रात को ढलना था, ढल गई। दिन के चिढ़ाते उजाले की डर से सुरुज देवता के उगने के पहले ही दोनों कमरे से बाहर निकल आये, दुनिया देख लेगी तो संकोच के दबावों को संभाले हुए।
फेकुआ दिन भर सुमिरिनी में डूबा हुआ था। रात में उसने क्या किया क्या नहीं इसी का हिसाब लगाता रहा। कभी सूरज की तरफ देखता तो कभी उसकी रौशनी की तरफ।
अजीब होता है यह दिन भी, लील जाता है रात की गुदगुदियों को, उसके एकांत को, उसकी सारी बतकहियों को अनसुना कर देता है। दिन को जानना चाहिए कि गरीबों के पास केवल रातें होती हैं, उसका एकांत होता है। फिर उसे क्यों लील जाते हो भाई! दिन में तो काम ही काम, हर काम में पसीना बहाना, जॉगर कूटना, गालियॉ सुनना और का होता है दिन में। दिन तो धरती पर उतरता ही है गालियॉ देने, मारने, पीटने के लिए इसके अलावा और क्या कर सकता है दिन। जब तक सुरुज बाबा अस्त नहीं हो जाते तब तक काम ही काम, काम है तो गालियॉ ही गालियॉ हैं। ये जो सुरुज बाबा हैं न अजीब तरह की हरकतें करते रहते हैं, कभी बदरियों में से झॉकने ताकने लगते है तो कभी माथे पर आकर खड़े हो जाते हैं तनेन। काम करो तो निगरानी, काम छोड़कर पर पेशाब करो तो निगरानी। मालिक गरियाने लगते हैं......‘साला जाने कितनी बार पेशाब करता है, जाने कितनी बार सुर्ती ठोंकता है’
आज भी जाने क्या हुआ सुरुज बाबा को कि जल्दी ही उतर आए धरती पर। एक दो घंटे और अपनी ऑखें बन्द रखते तो उनका क्या बिगड़ जाता। आप तो देवता हैं, देवता का कोई का बिगाड़ लेगा? आपको किससे डर है। पर नहीं आप भी मालिकों की तरह ही हम गरीबों के पीछे हाथ धोकर पड़े रहते हैं, भोरहरी हुई नहीं कि ऑखें खोल देते हैं। आप भी चाहते हैं कि गरीब आराम न कर पांए और लगातार पसीना बहाते रहंे।
अरे सुरुज बाबा! रातें गरीबों के जीवन में मुष्किल सेआती हैं, हसते गाते और गुदगुदाते हुए, उसे काहे छीन लेते हैं आप बाबा! कुछ तो रहम करिए आप मालिक न बनिए, छीनने का काम मालिकों को करने दीजिए, वे हम लोगों का सुख चैन छीनें या मारे पीटें, वे करें। आप तो देवता हैं सभी का भला चाहने और करने वाले, समावेशी मिजाज वाले।
फेकुआ कुछ भी सोचे रात की गुदगुदियों के बारे में, रात थी कि दिन के उजाले में विलीन हो चुकी थी। फेकुआ ने खुद को संभाला....कृ
चलो कुछ समय की ही तो बात है। रात आने वाली ही है, रात आएगी ही, फिर दिन के बारे में क्या सोचना। आज वह हलवाही करने नहीं जाएगा, दिन भर आराम करेगा। दिन है तो क्या केवल काम करने के लिए है, दिन चाहे जिस काम के लिए हो वह आराम करेगा तो आराम करेगा, पक्का है। काम पर नहीं जाएगा तो नहीं जाएगा।
‘वैसे कथांए गुलाम नहीं होतीं पर उसके पात्रा गुलाम हो
सकते हैं, आजादी की लड़ाई लड़ती कथाओं में भी अगर मगर हो तो’कृ
फेकुआ के बियाह की चर्चा सहपुरवा में ही नहीं पूरे पठ्ठ भर में थी। चर्चा इसलिए नहीं कि बियाह में कोई खास बात थी। चर्चा इस लिए हो रही थी कि फेकुआ के बियाह में औकात से बढ़ कर औतार ने खर्च किया था। किसी हरिजन के लड़के का बियाह बाभनों, ठाकुरों की तरह हो, उनके तरह का इन्तजाम हो विवाह में संस्कृत के श्लोक पढ़े जांएअचरज था, सो चर्चा थी।
चर्चा का कारण घरात वाला किया गया स्वागत सत्कार तथा औतार की तैयारी भी थी। घरात तथा बारात दोनोेें का इन्तजाम लगता ही नहीं था कि किसी हरिजन का है। सवर्णों की तरह का ही ताम झाम, नाच बाजा, धूम-धाम व फिजूलखर्ची। घरात वालों द्वारा लड़की की बिदाई में एक गाय, जो हाल की ब्याई हुई थी, सुतरी की बिनी हुई चारपाई, चार मन के आसपास चावल तथा कपड़ा लत्ता आदि दिया जाना उल्लेखनीय बन गया। गवन में साइकिल देने के लिए भी घरात वाले बोले हैं, वे गवन में देंगे भी, ऐसा नहीं है कि खाली बोल दिए हैं। खान-पान भी एक नम्बर का था। पान तो इतना चला कि बारातियों ने घरात का आंगन ही पान की पीच से रंग दिया। दसियों भर तो गांजा दिया होगा घरातियों ने और शराब की तो छूट ही थी चाहे जितना पियो। शुद्व महुआ वाली, घर की बनाई एकदम ऑख चढ़ाने वाली। औतार के समधी ने जी भर कर खर्च-वर्च किया था। उसका जोगाड़ भी ठीक क्या बहुत ठीक था। वह खेतिहर है अपने पैर पर खड़ा, खुद अपने बारे में फैसला लेने वाला, अपना काम करने वाला किसी दूसरे की मजूरी नहीं करता। एक हरिजन किसी की हलवाही न करे यह बड़ी बात थी।
अपने अपने ढंग से फेकुआ के बियाह की लोग व्याख्या कर रहे थे। रामभरोस की चौकड़ी भी अचरज में डूबी हुई थी।
‘का हो चौथी फेकुआ के बियाहे में केतना सामान दिया है हो घरात वाला? लगता है कि हरिजनों का राज आ गया है’ रामभरोस अचरजाए।
चौथी गवहां काहे चुप रहते।
‘हां सरकार! सही बोल रहे हैं, औतरवा का समघी धनी-मानी है सरकार। दूइ ठो हल चलता है उसका, ओकर आपन जमीन है, और पट्टे में भी जमीन मिल गई है उसे। गाय गोरू भी एक लेहड़ा (कम से कम 20 पशु) रखे हुए है। कोई बता रहा था कि बन्दूक के लाइसेन्स की दरखास भी दिया है।’
रामभरोस को कुछ भी अचरज नहीं हुआ वे मानते थे कि जमाना बदल रहा है और बदलेगा भी उन्होंने जोड़ा।कृउन्हें अचरज था औतार पर, उसने इतना इन्तजाम कैसे कर लिया, कहां से कर्जा फर्जा लिया हो?
अब तो हरिजनों का ही राज है। आगे का समय बहुत ही खतरनाक होने वाला है। जितने दिन चल रहा है, चल रहा है, अब हलवाह भी नाहीं मिलेंगे, सारा काम खुद करना होगा। आखिर हरिजन चाहे गरीब लोग अब हलवाही काहे करेंगे? ओनकर कर्जा माफ, बाल-बच्चों की फीस माफ, फोकट में राशन, रोज मजूरी बढ़ रही है, नौकरी में आरक्षण, नेतागीरी में सीट आरक्षित।
चुरुक फैक्टरी का खुली कि उनकी आंखें खुुलि गई हैं। अब तो जेहर देखो वोहर कारखाना ही कारखाना। डाला ओबरा, रेणकूट, शक्तिनगर सभी जगहों पर कारखाने ही कारखाने। मजूरे कारखानों की तरफ भागने लगे हैं। गॉव में मजूरी करने पर अब तो उन्हें लाज लगती है। कारखानों में मजूरी करना उन्हें अच्छा लगता है, वहां जांगर खटाने में उन्हें लाज नहीं लगती। वहां उन्हें कोई नहीं पहचानता, उनकी कोई जाति नहीं पूछता। वहां वे अपने काम से जाने जाते हैं जाति से नहीं। काम अच्छा होने पर तरक्की भी मिल जाती है। उन्हें अच्छा लगने लगा है प्लास्टिक के एक छोटे से तम्बू में रहना, किसी नाले से ला कर पानी पीना, दिन भर धूल धुंआं पीते रहना। उन्हें लगता है कि गॉव में उनकी अस्मिता छिन जाती है, इज्जत नहीं मिलती। कारखानों के काम पर उन्हें कोई अछूत नहीं मानता, गॉव में रहो तो यह छुआ गया वह छुआ गया यही होता रहता है दिन भर।
रामभरोस आगे क्या होने वाला था जानते थे या कहिए आने वाले समय का अनुमान उन्हें था। जानने को तो चौथी गवहां भी जानते हैं कि आज के जमाने में कोई अपना काम भी नहीं करना चाहता है, चाहता है कि हर काम के लिए मजूर हों और मजूर हैं कि वे भी जांगर खटाना नहीं चाहते। इस तरह आज के जमाने की लड़ाई यह नहीं है कि काम करने वाले नहीं हैं यह है कि कोई जांगर खटाना नहीं चाहता। सभी अपना काम जिसे उन्हें खुद करना चाहिए उसे भी मजूरों से करवाना चाहते हैं। अपना काम खुद करने से लजाने वाली संस्कृति आज भी जीवित है जो प्रस्तावित करती है कि अपना काम खुद करना शर्मनाक बीमारी है। इस शर्मनाक बीमारी से सहपुरवा के ही नहीं सभी क्षेत्रों के लोग जकड़े हुए थे।
चौथी गवहां तो जेठ दशहरा के बाद परेशान परेशान हो जाते हैं। किसको हलवाही पर रखना है, कौन हलवाही पर रहेगा इसका संकट खड़ा हो जाता है जेठ आते ही। जेठ दशहरा आते ही हलवाह काम करने से जबाब दे देते हैं और किसी दूसरे की हलवाही करने का सौदा कर लेते हैं। हालांकि यह सौदा अलिखित होता है पर होता है सौदा ही। उनका मन हुआ पुराने मालिक के यहां काम करने का तो उनके यहां करेंगे नहीं तो उनका काम छोड़ कर किसी दूसरे का काम थाम लेंगे। जेठ दशहरा हलवाहों के लिए पन्द्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी से बड़ा दिन होता है। उस दिन वे आजाद हो जाते हैं, हलवाही छोड़ने और पकड़ने के लिए। वह दिन उनके लिए बंधुआ श्रम से आजादी वाला होता है। बंधुआ श्रम से आजादी वाला यह रिवाज जाने कब से चल रहा है, चौथी गवहां नहीं जानते। शायद अंग्रेजों के जमाने से ही चल रहा हो।
जेठ दशहरा आते ही अपना काम करना जिन मालिकों के लिए शर्मनाक बीमारी की तरह होता है उनके माथे पर बल आ जाते हैं। उनकेे चेहरे मुर्झा जाते हैं, आग में झुलसने माफिक। अब का होगा, कैसे काम होगा?
जेठ दशहरा के बाद हलवाहों को बहकाने व तोड़ने वाली कूटनीति मालिकों में शुरू हो जाती है। कोई साड़ी ब्लाउज तथा कुछ नगद देने की बात हलवाहों व हलवाहिनों से करने लगता है तो कोई कोला बढ़ाने की बात करने लगता है। गॉव में जेठ दशहरा के समय एक अलग किस्म का बाजार खड़ा हो जाता है जिसमें वस्तुएं नहीं बिकतीं आदमी की स्वतंत्रताओं की बोली लगने लगती है। इस बाजार में हलवाह के रूप में आदमी की खरीद-बिक्री होने लगती है। मजूर कहीं न कहीं हलवाही करने के लिए विवश होता है, हलवाही नहीं करेगा तो खाएगा का? मजूर बेवश होता है जांगर खटाने के अलावा वह का करे। उसकी जरूरतें उसे इतना कमजोर बना चुकी होती हैं कि वह खुद बाजार में आ कर खड़ा हो जाता है और अपनी आजादी बेचने की बोली लगवाने लगता है। विकल्प भी तो नहीं हैं पेट की आग बुझाने के लिए। बिकने और खरीदने वाले तरीकों को ही तो हमारी सभ्यता ने खोजा है अब तक। दिमाग बेचो या जॉगर बेचो, दोनों के बाजार हैं। जेठ दशहरा के अवसर पर बाजार गॉवों में आकर खड़ा हो जाता है, यह एक ऐसा बाजार होता है जहां बिके आदमी जैसे माल पर सरकार का टैक्स भी नहीं लगता।
जेठ दशहरा के अवसर पर मालिकों की रातंे मजूरों की बस्ती में बीतने लगती हैं। उस दिन उन्हें बस्ती नहीं गंधाती, न ही मजूर गंधाते हैं लगता है मजूर देवता हैं (जो होते ही हैं)। सबसे अधिक बातचीत उस दिन हरिजनों की औरतों से ही होती है क्योंकि वे मुखर होती हैं, साफ साफ बोलती हैं। मर्द तो संकोच करते हैं, वे लजाते हैं, कुछ अपमान भी महसूसते हैं, अपना दाम क्या लगाना?कृजो मिल जाए वही ठीक। औरतों का खुलापन देखना हो तो जेठ दशहरा के अवसर पर किसी मजूर की बस्ती में चले जाइए फिर देखिए कि औरतें क्या होती हैं? नारी वादिनी भी माथा थाम लेंगी। गूंगी या वाचाल, अपना ख्याल खुद रखने वाली या दूसरों के सहारे पर अमरबेल की तरह टंगी हुई। यह अलग बात है कि कुछ औरतों को थोडे से सामान जैसे साड़ी, ब्लाउज, टिकुली, सेन्हुर आदि पर रिझाया जा सकता है पर वे जानती हैं कि उन्हें किस लिए रिझाया जा रहा है। सो वे जानकर रीझ भी जाती हैं पर मालिकों की तिकड़मों समझते हुए।
चौथी गवहां रामभरोस के दरवाजे पर मजूर पुराण वाचने नहीं गये थे वे तो औतार के पट्टा खारिजा के बारे में उनसे जानने गये थे पर करें क्या। कैसे पूछंे रामभरोस से....उनकी बखरी पर तो वैसे भी किसिम किसिम की बातें थीं जब वे खतम हों तब तो वे असल बात पर आंए... थोड़ा मौका मिला...रामभरोस का मन बदलने के लिए चौथी ने फकुआ की मेहरारू का प्रसंग उठा दिया।कृ‘मेहरारू का प्रसंग आते ही रामभरोस खिल उठेंगे।’ इसी बहाने औतार के बारे में भी बात हो जाएगी।
‘सरकार आप नाहीं जानते नऽ फेकुआ की मेहरारू गजब की सुघ्घर है। ओइसन मेहरारू बड़का लोगन के घरे में नाही हैं। हम आजै देखे हैं ओके। पंडित शोभनाथ का ओसारा लेवार रही थी।’
‘सरकार औतरवा के पट्टवा का का हुआ, खारिज हुआ कि नाहीं?’
चौथी गवहां ने रामभरोस से पूछा...कृ
रामभरोस ने स्वभावतन गंभीरता ओढ़ लिया और बढ़ चढ़ कर जबबियाए...कृ
‘हां चौथी! कल एस.डी.एम. साहब से बात हुई थी। उन्होंने बताया कि का बात कर रहे हैं रामभरोस जी! आपका काम है वह नहीं होगा, उसे तो करना ही है। हॉ लेखपाल व कानूनगो की रिपोर्ट सही लगवा दीजिएगा, ग्रामसभा का प्रस्ताव है ही। डिप्टी साहब के यहां दरखास भी पहुंच चुकी है। हां यार चौथी एक बात और कि हमारे गॉव में नसबन्दी का कैप लगना तय हो चुका है, तहसीलदार साहब बोल रहे थे ओ कैंप में कलक्टर साहब भी रहेंगे और का तो बोल रहे थे कि यहीं नाइटफालउ करेंगे।’
रामभरोस को का पता कि ‘नाइटफाल’ के क्या मायने होते हैं उनकी समझ में जैसा आया वैसा बोल रहे थे। ‘नाइटहाल्ट’ की जगह ‘नाइटफाल’ बोल गए। उन्हें बताया गया था कि रात में कलक्टर साहब सहपुरवा में ही नाइटहाल्ट करेंगे। चौथी ने भी ध्यान नहीं दिया कि रामभरोस का बोल रहे हैं, ध्यान देते भी तो वे नाइटहाल्ट तथा नाइटफाल के अन्तर को तो न समझ पाते।
‘किसी भी तरीके से औतरवा का पट्टा खारिज कराइए सरकार, ई काम सबसे जरूरी है।’
रामभरोस से बतियाकर उनकी बखरी से चौथी निकल लिए। रामभरोस ने स्वीकार में अपना सिर हिला दिया।
‘चलिए जरा उन ऑखों को देखा जाये
जिनमे स्वयंभू मुंसिफों के फैसले तैर रहे होते हैं’
पता नहीं का हुआ कि फेकुआ की बियाह के चार पांच दिन बाद ही सहपुरवा में पुलिस की गंध फैल गई। नाक भिनाने वाली। दारोगा जी की मोटर साइकिल सहपुरवा में गरज उठी। गरजते हुए सीधे हरिजन बस्ती में घुस गई। दारोगा ने औतार के घर का पता मालूम किया फिर वह वहां पहुंच गया। मोटर साइकिल की आवाज तो आवाज, उस समय वह हुकूमत की आवाज थी, आज्ञा एवं अनुशासन की आवाज थी, दमन व प्रताड़ना की आवाज थी। वह आवाज हरिजन बस्ती के लिए जानी पहचानी नहीं थी, जान पहचान तब हुई जब दारोगा औतार से मिला। औतार के दरवाजे पर हरिजन बस्ती उतरा गई। सब अवाक और अचरज में। हुआ क्या? दारोगा कोई ऐसा देहधारी नहीं जो प्यार मुहब्बत के लिए सहपुरवा की हरिजन बस्ती में आया था, प्यार मुहब्बत के लिए आना होता तो रामभरोस के दरवाजे पर जाता। हरिजन बस्ती में क्या है, सूखी हुई अतड़ियां और गुलाम दिमाग, वह भी बिका हुआ।
औतार घर पर ही थे, दारोगा की धमक के सामने थे, दारोगा के सामने गॉव की भीड़ खड़ा होकर अनहोनी पी रही थी, जाने का हो। तभी दारोगा ने भीड़ से पूछा..कृ ‘तुमलोगों में से औतार कौन है?’
‘हम हैं सरकार!’ औतार ने डरते हुए अपना नाम बताया
‘तूंने डिप्टी साहब के यहां दरखास दिया था का?’ दारोगा ने औतार से पूछाकृ
‘हं सरकार!’
‘तेरे लड़के फेकुआ के कोला का धान किसने लवाय लिया, साफ साफ बताओ’ दारोगा ने औतार को घुड़कते हुए पूछा....कृ
‘चौथी गवहां ने सरकार!’
’अपने लड़के फेकुआ और सुक्खूआ को बुलाओ, वे कहां है?
दारोगा ने आदेश दिया..
और फिर सुक्खू को बुलवाया गया क्योंकि सुक्खू का नाम भी दरखास पर था। सभी के आ जाने के बाद दारोगा ने एक एक आदमी का बयान लेना शुरू किया। औतार और फेकुआ को तो वही बोलना था जो हुआ था पर सुक्खू ने भी सच बोला और साफ साफ दारोगा को बताया कि चौथी गवहां ने फेकुआ के कोला का धान लवा लिया है। बयान नोट करने के दौरान ही दारोगा ने पूछा था वह खेत किसका था, किसने कोला दिया था? जिसका धान चौथी गवहां ने लवाय लिया। सभी ने बताया कि वह खेत चौथी गवहां का था जिसे चौथी गवहां ने काम करने के बदले कोला के रूप में फेकुआ को दिया था और फेकुआ ने ही उसे जोता और रोपा भी था।
चौथी गवहां का बयान लेने के लिए, दारोगा रामभरोस के घर की ओर मोटर साइकिल से रवाना हुआ। मोटर साइकिल की धक धक सहपुरवा में गूंज रही थी, उस धक धक में हरिजनों की कंपकपी घुलने लगी, उनके दिल धड़कने लगे। थोड़ी दूर चलने के बाद ही रामभरोस का खलिहान आ गया। रामभरोस के खलिहान पर दारोगा रुक गया। दारोगा जी भरे-पुरे थे, रामभरोस का खलिहान भी भरा-पुरा था। रुकते ही चौकीदार को आदेश दिया....
‘दौड़ कर जाओ! चौथी को यहीं पर बुला लाओ।’
अच्छा सरकार!’ चौकीदार ने कहा और दौड़ गया चौथी गवहां के घर की तरफ। आखिर हुकुम हुकुम होती है। चौकीदार जितनी तेजी से दौड़ रहा था उतनी ही तेजी से दारोगा का हुकुम भी उसके साथ दौड़ रहा था। वह दौड़ देखने लायक थी जिसमें आज्ञाकारिता और आज्ञा का रसायन मिला हुआ था।
थोड़ी देर में चौथी गवहां हाजिर हो गये। उन्होंने दारोगा को सलाम बजाया।
‘सरकार सलाम’
‘तेरा नाम चौथी है?’ दारोगा ने चौथी से पूछा
‘हं सरकार!’ चौथी ने स्वीकारा
चौथी गवहां जैसे ही दारोगा के पास आये वैसे ही रामभरोस भी वहीं चले आये। दारोगा ने शिष्टता दिखाया, उन्हें प्रणाम किया।
रामभरोस को देखते ही दारोगा के चेहरे से हरिजन बस्ती वाली दारोगाई गायब हो गई फिर वह एक सामान्य आदमी की तरह दिखने लगा जैसे उसके चेहरे पर प्रशासन की चमक ही न हो। वहां रामभरोस के रोब-दाब की चमक चिपक गई हो जैसे।
‘अरे नेता जी! आपने क्यों कष्ट किया? हम तो आपके यहां ही आ रहे थे। आपका कारिन्दा रामदयाल मिला था, शायद खेत में पानी चढ़ाने के लिए जा रहा था नहर की तरफ।’
रामभरोस ने दारोगा की हां में हां मिलाया....
बात को आगे बढ़ाते हुए दारोगा ने खुशामती अन्दाज में रामभरोस से पूछा...कृ
‘नेता जी! बी.डी.ओ. साहब बोल रहे थे कि नसबन्दी कैम्प के दिन माननीय स्वास्थ्य मंत्री जी सहपुरवा आ रहे है, आपके ही गॉव मेें, का यह सच है नेता जी’
‘मैं तो नहीं जानता दारोगा जी, लखनऊ जाना है, वहीं से मालूम होगा। वैसे एक बार मंत्राी जी हमारे यहां आना चाहते हैं।
अरे आप इतनी सुबह हमारे गॉव में किस लिए आये हैं, खलिहान मेें काहे बैठे हैं, चलिए बखरी पर चला जाये।’
दारोगा जी के साथ वहां उपस्थित सभी लोग रामभरोस की बखरी पर आ गये। रामभरोस की बखरी पर सजाई हुई लकड़़ी की कुर्सी पर दारोगा बैठ गया। अन्य लोगों को बैठने के लिए दरी बिछा दी गई। यह पहला अवसर था जब बखरी पर हरिजनों को दरी पर बैठेने का मौका मिला था। जनता से मुहब्बताना संबध दिखाने में दारोगा जी के सामने रामभरोस भला कैसे चूकते।
‘का बात है हो दारोगा जी’
‘कुछ भी नहीं नेता जी, आपके गॉव के चौथी पर औतारवा ने दरखास दिया है, शायद उसका कोला चौथिया ने जबरदस्ती कटवा लिया है।’
‘आप तो जानते ही हैं कि ‘सेड्यूल कास्ट्स यार आन फर्स्ट प्रायरिटी’ इसी लिए आना पड़ा। अंग्रेजी न समझते हुए भी रामभरोस ने उसे समझने का अभिनय किया जैसे समझ गए हों कि अनुसूचित जाति प्राथमिकताओं में हैं।
‘कैसी दरखास? जरा हमहूं देखें’
रामभरोस गंभीर हो गये। दारोगा ने रामभरोस को दरखास दे दिया। हालांकि रामभरोस को सारी जानकारी थी और उन्हीं के कहने पर चौथी गवहां ने फेकुआ का कोला भी लवाया था। रामभरोस फिर भी अनजान बने हुए थे। रामभरोस ने बहुत ही नाटकीय ढंग से औतार से पूछा....कृ
‘का हो औतार! फेकुआ का कोला कब लवा लिया चौथी ने? इतनी बड़ी बात हो गई और तूं हमें बताए भी नाहीं, बताए होते तो उसे हम यही हल करा देते सब कुछ। राम, राम दारोगा जी को काहे तकलीफ दिए, गॉव की बात गॉव में हल होनी चाहिए, क्यों दारोगा जी?
रामभरोस की बखरी पर गॉव के कई अन्य हरिजन भी हाजिर थे, उनमें एक रामचेल भी था जो हरिजनों का नेता था बोलने बतियाने में माहिर था। रामभरोस ने उससे पूछा....कृ
‘का हो रामचेल! का गुन रहे हो, फेकुआ का कोला चौथिया लवाय लिया है तो उसका धान वापस करे, कितना हुआ होगा फेकुआ के कोला में धान, कुछ अन्दाज लगाओ रामचेल?
‘कितना हुआ होगा धान सरकार! करीब पॉच मन (कच्चा मन) हुआ होगा सरकार’
‘ठीक है हो, ओतना धान हम दिलाय दे रहे हैं औतार को ’
रामभरोस ने तुरंत अपने कारिन्दा रामदयाल को बुलाया और आदेश दियाकृ. ’औतार के घरे पॉच मन धान पहंुचवाय दो’,
दारोगा ने टोका....कृ
‘नेता जी आप धान काहे दे रहे हैं, धान तो लवाया है चउथिया ने, ऊ साला देगा, नाहीं तऽ हम ओकरे गांड़ी में से उतना धान निकाल लेंगे।’ रामभरोस तो रामभरोस थे, वे दारोगा के पहले ही चौथी पर गरम हो गये। वे सामंती नाटक के जानकार थे, उसी के अनुसार अभिनय भी कर लिया करते थे।कृकृ
‘ऐसा काहे किए चौथी? फेकुआ का कोला काहे लवाय लिए? हमसे भी नाहीं बताए, भला ईमरजेन्सी के समय में ऐसा किया जाता है, जानते नाहीं प्रशासन ऐसे मामलों में बहुत सख्त होता है। चलो कोई बात नाहीं है, दारेागा जी हमारे बहुत खास हैं। पर अब ऐसा कभी मत करना, बूझे कि नाहीं।’
रामभरोस ने किसी कलाकार की तरह उस घटना को अपनी ओर मोड़ लिया। खुद मुंसिफ बन गए और मुल्जिम भी। मुल्जिम इसलिए कि चौथी ने फेकुआ का कोला उनके कहने पर ही लवाया था और मुंसिफ इस लिए कि फैसला सुनाकर उसका क्रियान्वयन भी करा दिए। रामभरोस का यह फैसला दुधारी तलवार की तरह था। औतार को अपनी औकात का पता चल गया कि दरखास देने से कुछ नहीं होने वाला और चौथी को भी मालूम हो गया कि रामभरोस हैं क्या चीज? खुद झगड़ा कराते हैं और मुंसिफ बन कर फैसला भी करते हैं। किसे पड़ी है कि देखे औतार की ऑखों को जिनमे स्वयंभू मुंसिफों के फैसले तैर रहे होते हैं’।
रुपया पैसा तो चौथी के पास भी है पर उससे का होता है, रुपया होने से ही कोई बड़ा नहीं हो जाता, बड़े हैं रामभरोस। जमीनदारी वाले सामंत हैं वे खुद झगड़ा लगवाते हैं और खुद ही उसका फैसला भी करते हैं। दारोगा सहपुरवा में अपना रूआब दिखाने आया था। उसे पता था कि अब पुराने जमाने वाले सामंत खतम हो चुके हैं। आज के समय का वही सरकारी सामंत है पर उसकी सामंती रामभरोस के रहते भला कैसे चलती? फेकुआ का कोला तो चौथी ने रामभरोस के कहने पर ही कटवाया था। दारोगा इस सच को जान पाता कि उसके पहले ही रामभरोस ने पंचायत कर दिया। तो ऐसे की जाती है सामंती जिसे रामभरोस ने किया था। सहपुरवा से जब दारोगा लौटा तब उसके हाथ में रामभरोस की जनप्रियता और रोब-दाब था। उसे ही नोट मानना था दारोगा को।
‘आज का दिन बेकार गया साला कुछ मिला नहीं, रामभरोसवा ने खुद पंचायत कर दिया’। रामभरोस को गरियाते हुए दारोगा सहपुरवा से थाने लौट गया। सहपुरवा से लौटते समय उसका हाथ खाली था और दिमाग भी।
‘जनता तो वाह वाह करना ही जानती है उससे
क्या मतलब कि कार्ययोजानांए क्या हैं और नारे क्या गढ़े गए थे?
फेकुआ का कोला लवा लेना अपराधिक मामला था। ऐसे अपराधिक मामले को भी जिस नाटकीयता से रामभरोस ने गॉव की आपसी पंचायत बना दिया, अद्भुत था, जैसे कुछ हुआ ही न हो। ऐसा तो गॉवों में होता रहता है, ऐसे मामलों में थाने की क्या भूमिका? किसी भी संगीन घटना को सामान्य घटना बना देने में रामभरोस को महारथ हासिल थी। समय को अपने अनुकूल कैसे बनाया जा सकता है कोई रामभरोस से सीखे। उन्होंने फेकुआ के कोला का धान औतार को लौटा कर चौथी गवहां को मुकदमे के लफड़े से बचा लिया। ऐसा करके रामभरोस ने चौथी गवहां का दिल भी जीत लिया। चौथी गवहां मानसिक रूप से रामभरोस के मानसिक गुलाम बन गए। उन्हें उनका गुलाम बनना ही था, उनकी हैसियत ही क्या थी। उन्हें पता है कि रुपया पैसा हो जाने से ही थाना थूनी से नहीं पार पाया जा सकता, उससे पार पाने केे लिए राजनीतिक ताकत भी चाहिए होती है जो उनके पास कभी थी ही नहीं और न है। वैसी ताकत के मालिक तो रामभरोस ही हैं सहपुरवा में।
पूरा विजयगढ़ जानता है कि गोटी बिछाने में रामभरोस का मुकाबिला नहीं है। इस मामले में वे आज भी बेजोड़ हैं, भले ही अंग्रेजों वाला जमाना नहीं है पर कानूनी व राजनतिक परंपरांए वही चल रही हैं एक तीर से दो निशाने वाली, कानून में भी तथा राजनीति में भी हर जगह एक तीर से दो निशाने लगाये जा रहे हैं। हुआ वही। चौथी गवहां को झटका मिलना चाहिए था कि रामभरोस बनना आसान नहीं है। रामभरोस ने तो पहले ही ताड़ लिया था कि चौथी गवहां, फेकुआ और औतार दोनों से नाराज हैं सो उन्होंने चौथी गवहां की समझ का लोहा गरम कर दिया था कि फेकुआ को कोला लवाय लो, सालों को तंग करो। रामभरोस का सुझाव चौथी को अच्छा लगा, गुस्सा उतारने के लिए फेकुआ का कोला लवाना ही ठीक होगा। फिर क्या था चौथी ने कोला लवाय लिया। रामभरोस के लिए यह था कि चौथी धीरे धीरे संपन्न होता जा रहा है उसे थोड़ा ही सही झटका मिलना चाहिए। झटका तभी मिलेगा जब किसी मुकदमें में फसेगा। फेकुआ के मामले में फसकर चौथी को झटका मिला भी। दारोगा को देखते ही चौथी पसीना पसीना हो गये थे, सुलह हो जाने के बाद ही वे सामान्य हो पाये थे।
औतार की पट्टे वाली जमीन का पट्टा खारिज कराने के लिए रामभरोस प्रयासरत थे। परगनाधिकारी के पास दरखास पड़ चुकी थी। उस पर रामबली लेखपाल की रिपोर्ट नहीं लग पाई थी, वह छुट्टी पर था। उसने छुट्टी बढ़ा ली थी और अपना ट्रांसफर भी करवा लिया था। नए लेखपाल ने चार्ज ले लिया था, दरखास पर उसे ही रिपोर्ट लगानी थी। उससे रामभरोस ने बात कर लिया था तथा वह राजी भी था। नया लेखपाल कुछ दबंग किस्म का आदमी था तथा कायदे कानून को अपनी जेब में रख कर चला करता था। ऐसे लोग रामभरोस के लिए अति प्रिय हुआ करते थे सो वह चारज लेते ही रामभरोस का प्रिय बन गया। उसने फटाका रिपोर्ट लगा दिया कि औतार के पट्टे वाली जमीन सार्वजनिक उपयोग की भूमि है तथा उक्त पट्टा सार्वजनिक हित में खारिज किया जाना आवश्यक है, जिससे गॉवसभा की अपूर्णनीय क्षति न हो। उसने रिपोर्ट लगाने में अपने दिमाग का कत्तई प्रयोग नहीं किया। गॉवसभा के प्रस्ताव में जो तथा जैसा लिखा था वैसी ही रिपोर्ट भी लगा दिया। लेखपाल की रिपोर्ट कम से कम गॉवों के मामलों में किसी माननीय राज्यपाल की रिपोर्ट से कम अहमियत नहीं रखती। गॉवों में कहा भी जाता है कि दो ही लोग तो होते हैं दुनिया में जिनके कलम में ताकत होती है, राजधानी में राज्यपाल और हल्के में लेखपाल। बीच की दुनिया तो ढोर डांगरों की होती है।
लेखपाल की रिपोर्ट लग जाने के बाद कानूनगो तथा तहसीलदार ने भी रिपोर्ट लगा दिया हालांकि तहसीलदार से रिपोर्ट लगवाने में रामभरोस को पसीना पसीना होना पड़ा। दरअसल वह कायदा कानून वाला आदमी था और जिधर से चलता था उधर की जमीन पर फूंक फूंक कर पैर रखता था पर उसके सामने दिक्कत थी कि उसका पाला रामभरोस जैसे घाघ से पड़ा था। रामभरोस ने भी उसे समझा दिया था कि कायदा कानून से मतलब तब होगा जब तुम जिले में रहोगे, तुम ऐसी जगह फेंक दिए जाओगे जहां कायदा कानून चलाने के लिए मौके ही नहीं मिलेंगे, बेकार में हाथ मलते रह जाओगे।
पट्टा खारिज कराने के बाबत रामभरोस की योजना पक्की थी। वे आश्वस्त थे कि उसे तो खारिज करा ही लेना है पर वे समय की प्रतिक्षा में थे। समय भी उनके आस पास ही किसी दोस्त की तरह खड़ा था। वह आ चुका था उनकी सहायता करने के लिए और वह समय था स्वास्थ्य मंत्राी जी के सहपुरवा में आने वाले दिन का। उस दिन ही पट्टा खारिजा वाले काम के बारे में परगनाधिकारी से कहना ठीक होगा। उस दिन तो जिले के आला अधिकारी उनके गॉव में उपस्थित रहेंगे ही।
रामभरोस जानते थे कि उनके सहयोग के बिना सौ आदमियों की नसबन्दी कराई ही नहीं जा सकती सो हर हालत में अधिकारी उनके दबाव में रहेंगे। नसबन्दी कैंप से रामभरोस को तो फायदा ही फायदा था। खर्चा सरकार का और नाम उनका। सो नसबन्दी कैंप की सफलता के लिए वे जी जान से सक्रिय हो गये थे।
वह दिन भी दूर नहीं रह गया जब सहपुरवा में नसबन्दी कैंप की तैयारी शुरू हो गयी। रोगियों के आपरेशन के लिए पांडाल की व्यवस्था होने लगी। काम चलाऊ अस्पताल के लिए पांडाल के घेरे वाला ही एक अलग कक्ष बनाया जाने लगा। युवक मंगल दल के कार्यकर्ताओं को भी इस काम में लगा दिया गया। अस्पताल के अलावा राजस्व कर्मचारियों में लेखपाल एवं नायब तहसीलदार को तो स्थाई रूप से व्यवस्था देखने व करने के लिए सहपुरवा में बिठा दिया गया। परगनाधिकारी की जीप अल्लसुबह ही सहपुरवा चली आती जो देर रात तक वापस होती। एक दिन तो उसका प्रबंध देखने के लिए माननीय जिलाधिकारी भी सहपुरवा में आ धमके। उन्हें पता था कि सहपुरवा में आने वाला मंत्राी केवल मंत्राी ही नहीं है, वह मुख्यमंत्राी का खासम खास भी है। वही दाहिना हाथ है मुख्य मंत्राी जी का। लखनऊ में उसकी बहुत ताकत है। वह अकेले नहीं चलता, पूरी सरकार अपनी जेब में रख कर चलता है। वह प्रधानमंत्राी जी का भी खासमखास है, दोनों जगहों पर कांग्रेस की ही सरकार है।
सभी जानते है ंकि दूसरे कार्यकर्ताओं का इस आयोजन से भले ही लाभ न हो पर रामभरोस का लाभ नहीं होगा ऐसा हो ही नहीं सकता। रामभरोस किसी न किसी तरह से इस कार्यक्रम के द्वारा भी अपना लाभ हासिल कर ही लेंगे। एक लाभ तो यही दिख रहा था कि औतार का पट्टा खरिज हो जाएगा अन्य लाभों के बारे में कुछ विशेष अनुमान नहीं था। रामभरोस को वैसे नसबन्दी वाले कार्यक्रम से नाम तथा यश सारा कुछ तो मिलने वाला ही था।
स्वतंत्राता संग्राम के दौरान भी रामभरोस अधिकारियों की ऑखों की पुतली बने हुए थे। अधिकारियों के जायज नाजायज हर काम में बढ़ चढ़ कर सहयोग दिया करते थे काम चाहे जैसा भी हो। जाने कितने सत्याग्रहियों व स्वतंत्राता संग्राम आन्दोलनकारी नेताओं को उस जमाने में रामभरोस ने पुलिस द्वारा पकड़वाया था जिसके लिए उन्हें इनाम भी मिला था। एक तरह से रामभरोस और अधिकारी दोनोें एक ही नस्ल का नाम है। अन्तर केवल इतना ही है कि अधिकारी वेतनभोगी होता है, प्रतियोगी परीक्षा पास किया होता है और रामभरोस जैसे लोग वेतनभोगी नहीं होते, सुविधाभोगी होते हैं, परीक्षा वाली प्रतियोगिता नहीं पास करते, जनलोकप्रियता की परीक्षा पास करते हैं। इसीलिए ऐसे लोग सरकार की हर योजना का लाभ लेने में माहिर होते हैं। सरकार तथा उससे जुड़े अधिकारियों से मधुर रिश्ता बनाने में रामभरोस कभी भी कमजोर नहीं थे। अंग्रेजों के जमाने में भी सरकार और अधिकारियों में उनका दखल था और आज भी है। रामभरोस का एक रूप दूसरा भी है जो जनता तथा क्षेत्रा के विकास के बाबत है। पहले भी रामभरोस ने तमाम ऐसे काम क्षेत्रा में करवाए हैं जिससे क्षेत्रा का लाभ हुआ है और आजादी के बाद भी उनके द्वारा करवाए गये तमाम काम बतौर उदाहरण हैं। यह सच है कि क्षेत्रा के विकास के लिए रामभरोस ने बहुत कुछ किया है और अपने हित के लिए भी, उससे कम नहीं किया है यानि दोनों हित एक दूसरे से गुंथे हुए हैं। यह मंत्रा उन्हें पता था कि क्षेत्रा का हित होगा तो उनका भी हित होगा। सो वे क्षेत्रा के हित के बहाने अपना भी हित साध लिया करते थे।
नसबन्दी कैंप की व्यवस्था हो रही थी। प्रचार भी किया गया था कि नसबंदी कराने वालों को जमीन आवंटित की जाएगी तथा प्रचार यह भी था कि जिन लोगों को पहले जमीन आवंटित की जा चुकी है अगर उन लोगों ने नसबन्दी का आपरेशन नहीं कराया तो उनके भूमि के आवंटन खारिज कर दिए जांएगे।
जिले में कोई ऐसा विभाग नहीं था जिनके लिए प्रशासन की ओर से निर्देश न जारी किए गये हों। लेखपाल, प्राइमरी स्कूलों के अध्यापक, अमीन, पंचायत सेवक, ग्राम सेवक जैसे तमाम ग्राम स्तर के कर्मचारियों को साफ निर्देश जारी किए गए थे कि वे अपने अपने कोटे की नसबन्दी कराएं अन्यथा उन्हें सस्पेन्ड कर दिया जाएगा। सिर्फ यही बात गोपनीय थी जिसे सारे कर्मचारी बहुत अच्छी तरह से जानते थे कि यह जो आदेश के पीछे छिपा हुआ तथ्य है उसका मतलब है सस्पेन्डगी? सो सभी कर्मचारी सतर्क और सावधान थे कि उन्हें किसी प्रकार की कोताही नहीं बरतनी है, नहीं तो उन्हें सस्पेन्ड कर दिया जाएगा। नौकरी चली जाएगी। फिर क्या खांएगे?
सारे कर्मचारी नसबन्दी कराने के निहित लक्ष्यों के प्रति सतर्क थे पर लक्ष्य बड़ा था जिसे पूरा कराना आसान नहीं था। दस दस आदमियों या औरतों की नसबन्दी कराना यह आसान काम न था। वे जानते थे कि रापटगंज के देहाती समाज में बच्चों के जन्म के प्रति दैवीय अवधाराणाओं की भूमिका बहुत अधिक है। लोग बच्चों के जन्म को भगवान का दिया हुआ उपहार मानते हैं, सो नसबन्दी कराना उनके लिए भगवान को नकारने जैसा होगा, भगवान का अपमान करना होगा फलस्वरूप देहात के रहने वाले लोगों में नसबन्दी के प्रति आकर्षण नहीं था। नसबन्दी कराना वे पाप समझते थे। आकर्षण तभी हो सकता था जब उन्हें विशेष प्रलोभन दिया जाता, वैसा किया भी गया। जमीन देने की बात एक तरह से प्रलोभन ही थी और जमीन छीनने की बात भी प्रलोभन से ही जुड़ी हुई थी। कर्मचारी जानते थे कि नसबन्दी का केस न देने पर उनका स्थानांतरण ही नहीं उन्हें सस्पेन्ड भी किया जा सकता है। सरकारी स्तर से किए जाने वाले प्रयास हर तरीके से किये जा रहे थे। उस प्रयास में उचित अनुचित का भेद नहीं रह गया था। केवल यह था कि निर्धारित लक्ष्य के अनुरूप नसबन्दी कराना है, फलस्वरूप गॉवों में आतंक जैसा माहौल उपस्थित हो गया था, सभी आतंकित थे। वे भी जिन्हें जमीन मिलनी थी तथा वे भी जिन्हें जमीन मिल चुकी थी। इतना ही नहीं आतंकित तो वे लोग भी थे जिनके अपने लोग सरकारी नौकरी में थे तथा छोटे छोटे पदों पर थे।
नसबन्दी के तारगेट ने एक और काम किया कि उसमें से उम्र का मानक अपने आप समाप्त जैसा मान लिया गया और ऐसे लोगों की नसबन्दी को भी शामिल कर लिया गया जिनसे बच्चे जनमने की दूर दूर तक की भी संभावना नहीं थी। आखिर कर्मचारी करते क्या, उन्हें तो लक्ष्य का कागजी कोटा पूरा करना ही था। नसबन्दी करने वाले डाक्टर भी जानते थे कि बूढ़ों की नसबन्दियां गलत कराई जा रही हैं पर वे क्या करते, उन्हें भी तो अपना कोटा पूरा करना था।
‘बखरियों के अन्तःपुरों की लीलाओं को
हूबहू कथाओं में उकेरना...अरे ना भाई ना संभव नहीं’
विद्यालय बन्द हो जाने पर विभूति बनारस से घर आ चुका था। वह भी हमउम्र लड़कों के साथ युवक मंगल दल के कार्यक्रमों में हिस्सा लेने लगा था। गॉव के सभी लड़के जिनकी उम्र पन्द्रह साल से ऊपर तथा पचीस साल से कम थी सभी युवक मंगल दल के सदस्य बन चुके थे। प्रसन्नकुमार ने ही गॉव में युवक मंगल दल का गठन किया था। वह शोभनाथ पंडित का लड़का था। सहपुरवा गॉव का युवक मंगल दल अन्य गॉवों के युवक मंगल दलों से कई मामलों में भिन्न था। प्रसन्नकुमार हालांकि पढ़ने लिखने में तेज नहीं था पर खेल कूद, बातचीत और अन्य व्यवहारों में काफी निपुण था। अन्तर्विद्यालयी खेल-कूद प्रतियागिताओं में उसे कई बार पुरस्कृत भी किया जा चुका था। एक बार तो जनपद मीरजापुर के सर्वोत्तम खिलाड़ी का पुरस्कार भी उसे मिल चुका था। प्रसन्नकुमार और विभूति में दोस्ती थी जबकि उनके पिताओं में किसी भी तरह का व्यावहारिक रिश्ता नहीं था। वे एक दूसरे के घोर विरोधी थे, एक दूसरे को देखना तक उन्हें पसंद नहीं था। गॉव आने पर विभूति का अधिकांश समय प्रसन्नकुमार के साथ ही बीतता था। दोनों साथ साथ रहते थे तथा युवक मंगल दल के कार्यक्रमों में भाग लेते रहते थेे, कार्यक्रमों का संचालित करवाया करते थे।
जब से युवक मंगल दल से प्रसन्नकुमार जुड़ा है तब से लेकर अब तक एक भी कार्यक्रम में रामभरोस शामिल नहीं हुए नहीं तो पहले वे ही खेल कूद का समापन तथा मिष्ठान्न वितरण आदि किया करते थे। प्रसन्न्कुमार की मंगल दल में सक्रियता रामभरोस को फूटी ऑख से भी न सुहाती थी।
प्रसन्नकुमार भी थोड़ा ऐंठ कर चलने वाला था। पिछले साल के पन्द्रह अगस्त के कार्यक्रम में भी इसीलिए रामभरोस को नहीं बुलाया गया था वैसे भी प्रसन्नकुमार उन्हंे नहीं बुलवाता। प्रसन्नकुमार को लगता कि रामभरोस गॉव के हित में कार्य नहीं कर रहेे हैं। उसी साल प्रसन्नकुमार रामभरोस से लड़ गया था और जिद्द पर अड़ गया था कि गॉव के पोखरे से वे अपना पंपिग सेट हटालें तथा पोखरे से पानी निकालना बन्द कर दें। उसका कहना था कि आज तो हर कूंए में पानी है पर गर्मी आते ही सारे कूंए सूख जांएगे। पोखरे में पानी रहेगा तभी कूंआ नहीं सूखेंगे। वैसा ही हुआ जैसा प्रसन्नकुमार चाहता था। रामभरोस को पोखरे के भीटे से पम्पिंग सेट हटवाना पड़ा। राभरोस की कुछ आदतें प्रसन्नकुमार को अच्छी नहीं लगतीं थीं जैसे उनकी बखरी पर जाओ तो दरी या टाट पर बैठो, यह करो वह न करो। उनके बारे में वह अपनी मां से बहुत कुछ सुन चुका है सो वह उनसे दूरी बना कर चलना ठीक समझता है और चलता भी है।
रामभरोस ने विभूति को कई बार रोका था और सहेजा था कि वह प्रसन्नकुमार के साथ न रहा करे पर विभूति मानने वाला नहीं था। वह जब भी गॉव पर होता प्रसन्नकुमार के साथ ही रहता। विभूति को एक बार रामभरोस ने समझाया भी था.कृकृ’विभूति सोच समझकर काम किया करो, अब तूं दुधमुहें नहीं हो, गॉव में किसके यहां जाना है, किसके यहां उठना बैठना है, इसे समझा करो। तुमको पता होना चाहिए कि हमरे बखरी से गॉव में किसी के यहां कोई नहीं आता जाता। जिसको मिलना होता है वह हमरे पास आता है बखरी पर।’
रामभरोस विभूति को समझा रहे थे और वह गूंगा तथा बहरा बना हुआ था। वह जान बूझ कर रामभरोस की बातें नहीं सुनना चाह रहा था। रामभरोस ने ताड़ लिया फिर तो डाटने लगे विभूति को....कृ
‘हम तोके बताय दे रहे है गॉव में कहीं गए तो ठीक नाहीं होगा। गॉव के लफंगों के साथ रहने में तुझे का मिलता है? घूमने का मन हो तो रापटगंज चले जाओ, वहां जाकर साहब, सूबों से मिला करो। कभी कभी शिकार खेलने के लिए निकल जाया करो। यह जो युवकमंगल दल है, ई कौन दल है यार? बड़े आदमियों के साथ संपर्क जोड़ो, चुनाव लड़कर एम.एल.ए., एम.पी. बनो ई सब का कर रहे हो।’
न चाहते हुए भी रामभरोस की सारी बातें विभूति को सुननी पड़तीं यद्यपि उन बातों का असर विभूति पर कुछ भी नहीं पड़ता। विभूति वैसे भी फक्कड़ और मस्त मौला था पता नहीं कैसे सभी लोगों में वह अपने काम लायक चीजें खोज लिया करता था। उसने प्रसन्नकुमार में अपना मित्रा ढूॅढ लिया था। प्रसन्नकुमार और विभूति दोनों बचपन के दोस्त हैं तथा दोनों बाल सुलभ कामों के एक दूसरे के साक्षी और भोक्ता भी हैं। सो दोनों एक दूसरे से कैसे अलग हो जाते? रामभरोस माथा पीटें या और कुछ करें। दोनों को अच्छे बुरे की पहचान थी तथा दोनों उन साजिशों से अलग थे जो आदमी और आदमी के बीच दूरियॉ पैदा करती हैं।
विभूति का मन तो पढ़ाई में भी नहीं था पर रामभरोस की डर से वह बनारस पढ़ रहा था। वह जानता था अपनी प्रतिभा के बारे में। उसे सरकारी नौकरी मिलेगी नहीं और मिल भी जाए तो उसे करना ही नहीं है। वह यह भी जानता था कि अगर पढ़ाई नहीं करेगा तो उसके लिए संकट हो जाएगा कायदे की जगह पर उसका बियाह नहीं हो सकेगा। उसे मालूम था कि अच्छे घर में उसका बियाह हो जाए इसीलिए उसके पिता उसे पढ़ा रहे हैं। शहर में रौशनी थी, खूबसूरती थी, चमक थी तथा खुली दुनिया थी उसे वह दुनिया पसंद थी पर उसे पढ़ाई कत्तई पसंद नहीं थी।
विभूति के लिए प्रसन्नकुमार अपने सगे भाई से बढ़कर था। वह उसमें अपना दोस्त ही नहीं अपना भाई भी देखता था। वह जानता था कि प्रसन्नकुमार अपने लिए कुछ नहीं करता, वह पहले गॉव देखता है और गॉव का काम देखता है इसी लिए वह प्रसन्न कुमार के साथ रहता भी है। उसने देखा है कि प्रसन्नकुमार की ऑखों में सहपुरवा तैरता रहता है, कोई चाहे तो देख ले उसकी ऑखों में सहपुरवा को तैरते हुए। हालत यह है कि गॉव में रहते हुए दोनों एक दूसरे को न देखें या न मिलें तो उनका खाना नहीं पचता है। रामभरोस के समझाने बुझाने का असर विभूति पर नहीं पड़ा। पड़ता भी काहे, प्रसन्नकुमार तो रामभरोस की सोच का प्रतिलोम था, एकदम विरोधी। विभूति की चाहना थी कि गॉव के सभी लोग एक दूसरे को प्यार करें, सभी एक दूसरे की भलाई करें पर रामभरोस तो गॉव के लोगों को आपस में हरदम लड़ाया करते थे, वे गॉव के आपसी भाई-चारे को भी नष्ट करते रहते हैं। वे स्वभावतन विभूति की सोच के विरोधी थे। सो विभूति उनसे दूरी बना कर चलता था।
सहपुरवा में ऐसे लोग कम नहीं थे जो रात को दिन की तरह बनाना चाहते थे। उन लोगों की नजर फेकुआ की मेहरारू पर थी तथा उनकी भी जिनकी आंखों में रंगीन बदरियां नाचा करती थीं। गॉव के ऐसे लोग अपनी अपनी नजर से फेकुआ की मेहरारू को देख रहे थे। कुछ ही समझदार लोग थे जिनके लिए वह बहू, बिटिया या पतोहू थी। गॉव में जिन्हें मनचला होने का गौरव था वे तो फेकुआ की मेहरारू को खड़े खड़ लील जाना चाहते थे। उन मनचलों में रामदयाल भी थे जो रामभरोस के कारिंदा थे। वे रामभरोस के लिए गॉव में या गॉव के बाहर तितलियों को फसाया करते थे। एक दिन रामदयाल ने सुमिरिनी के बारे में रामभरोस को बताया था..कृ
‘सरकार फेकुआ के मेहरारू को आपने देखा है कि नाहीं, बहुत जानमारू है सरकार!’
उखड़ गए रामभरोस रामदयाल पर....कृ
‘हमसे ई का बता रहे हो, का हम गॉव में जा कर फेकुआ की मेहरारू देखें, इहै काम रह गया है हमारा गॉव की गली गली घूमना। लाज शर्म धोकर पी गए हो का? तूं काहे के लिए है हरामजादा, हरामी का माल खाने के लिए ही का?’
रामभरोस ने रामदयाल को फटकारा। रामदयाल को रामभरोस की फटकार मिलती ही क्योेंकि रामदयाल ही तो तितलियों को फसाने का विशेषज्ञ था। वह जरूरत पड़ने पर राभरोस के लिए औरतों का इन्तजाम किया करता था। रामभरोस थे तो बहुत कुछ, बहुत कुछ अमानवीय जैसा करने में माहिर भी थे पर मजनू नहीं थे जो सुमिरिनी के ेइश्क में फस जाते। वे गली गली घूमने व पनघट पर बैठ कर मुहब्ब्त का गाना गाने वालों में भी नहीं थे। वे माशूका को निहारने के लिए खिड़कियॉ खोलकर रखने वालों में भी नहीं थे। वे रामभरोस थे, उनका औरतों से नाता-रिश्ता भी रामभरोनुमा था। रामभरोस औरतों का उपयोग करते, उनका उपयोग केवल बिस्तरे पर पसर पाता उससे बाहर निकलने पर हथकड़ी लग जाती। रामभरोस जब ऊब जाते तब औरत या लड़की उनको कूड़ा की तरह दिखने लगती फिर वे उसे कहीं फेंकवा देते। वे अपनी पीठ पर रीतिकाल की कविता लाद कर चलने वालों में नहीं थे। वे आधुनिक थे यूज एण्ड थ्रो वाले। वे अपने इस आचरण का साबित भी करते कि
‘औरतें तो होती ही हैं बिस्तरों पर लेटाने, सहलाने, गुदगुदाने के लिए’ भले ही उनके विमर्श पर लोग थूंके पर रामभरोस तो चूमते थे अपने विमर्श को।
रामभरोस ने वैसे कभी भी सुमिरिनी को देखा नहीं था फिर भी मान कर चल रहे थे कि लोग झूठ नहीं बता रहे सुमिरिनी के बारे में। उनकी भोगलिप्सा सुमिरिनी के प्रति बढ़ती जा रही थी। उन्हें लगने लगा था कि बासी होने के पहले ही उन्हें सुमिरिनी हासिल हो जानी चाहिए। बियाह के बाद कुछ दिनों तक सुमिरिनी फेकुआ के घर में ही परदे में बनी हुई थी पर एक मजूरिन कितने दिनों तक परदे में रह सकती थी। घर से बाहर निकल कर मजूरी के लिए उसे तो जाना ही था। वह घर में रह रही थी ऐसा रिवाज के कारण था। औतार चाहते थे कि सुमिरिनी कुछ दिनों तक घर में ही बैठी रहे, अभी नई नवेली है, कहां जाएगी जॉगर खटाने। पर दिक्कत थी कि बिना बनी मजूरी के घर-खर्च कैसे चलता, चूल्हा कैसे जलता, थालियों में कैसे रोटियॉ पड़तीं? मजबूरन सुमिरिनी को घर से बाहर काम पर निकलना पड़ा।
वह काम पर गई। सबसे पहिले वह शोभनाथ पंडित के काम पर गई। उसे घर-गृहस्थी, गोबर, गोइठा, लेवरन आदि का काम तो आता ही था स्वाभाविक ढंग से वह काम करने लगी। प्रसन्नकुमार की मां से वह खूब बतियाती तथा सुमिरिनी में वे रूचि भी लेतीं। वह काम पर जाने लगी है और उसका ही नहीं, उसके घर का गुजारा भी चलने लगा है। फेकुआ तथा औतार तो काम कर ही रहे थे। घर में जब चार चार कमाने वाले हों फिर खाने की क्या दिक्कत? वैसे भी एक मुह के साथ दो हाथ होते हैं, एक मुह का खाना दो हाथ भला कैसे नहीं जुटा पाएंगे? आखिर कितना खाएगा आदमी? बस काम मिलना चाहिए साथ ही साथ मजूरी भी।
अपनी ससुराल के बारे में सुमिरिनी को जानकारी नहीं थी। भला वह कैसे जानती सहपुरवा के बारे में वह नई नवेली थी। कुछ दिनों बाद उसे सुगिया के बारे में मालूम हुआ कि सुगिया के साथ रामभरोस ने कुकर्म किया था। बिफना की औरत से उसकी पटरी हो चुकी थी। दोनों हम उमर थीं तथा दूसरी बातों में भी उनमें तमाम समानताएं थीं। बिफना की औरत ने उसे गॉव के लोगों के बारे में बताया था कि यहां रहने वाले लोगों की आंखें नाचा करती हैं, वे गदराई देह पर ही जाकर जमती हैं। सुमिरिनी को जान पड़ा कि उसकी ससुराल और नैहर में कुछ भी फर्क नाहीं है। दोनों जगहों पर ऑखें नचाने वाले ऑखें नचा रहे हैं, हर जगह एक ही जैसे लोग हैं, देह से खेलने तथा देह पर कूदने वाले। सुमिरिनी और फेकुआ की मेहरारू का सहेलियाना व्यवहार उन दोनों के लिए तो ठीक था ही, उधर फेकुआ और बिफना के लिए भी ठीक था। वे दोनों भी तो दोस्त ही थे, एक दूसरे की सांसें पीने वाले।
औतार व सुक्खू दोनों परिवारों के लोगों ने चौथी एवं रामभरोस के काम पर न जाने की कसमें खा रखी थीं कि उनके काम पर किसी हालत में नहीं जाना है। भले ही भूखे मर जाना पड़े पर रामभरोस के काम पर नहीं जाना है तो नहीं जाना है। चौथी गवहां को जेठ दशहरा के पहिले ही औतार ने जबाब दे दिया था। लेन-देन और कर्जे के बारे में औतार ने साफ साफ इनकार कर दिया था कि वे किसी भी हाल में नहीं लौटाने वाले। गॉव में चौथी और रामभरोस के अलावा जिस किसी के यहां काम मिलता वहां फेकुआ और बिफना दोनों डट जाते और मन लगा कर काम करते। उन दोनों को मउज भी आता तथा उन्हें बनिहारी में अधिक मजूरी भी मिलती। हलवाही में तो केवल चार सेर ही मिलता है जबकि बनिहारी में पांच सेर मिलता है। सेर भर धान का फायदा होता है। बनिहारी करने में एक फायदा और था, वह था मान-सम्मान का। नया मालिक प्यार से बतियाता और हर तरह की मदत भी करता। वैसे यह भी था कि जब शोभनाथ के पास काम नहीं होता था तभी वे किसी दूसरे के पास काम करने के लिए जाते थे नहीं तो शोभनाथ के यहां ही काम करते थे।
औतार चौथी का कर्जा चुकता करने में बेइमानी नहीं करना चाहते थे। पर चौथी से नाराज थे औतार। चौथी ने रामभरोस की साजिश से फेकुआ का कोला लवा लिया था। साजिश नहीं होती तो फेकुआ का कोला चौथी कैसे लवा लेते? इतना ही नहीं औतार जब से कुछ समझने के काबिल हुए हैं तब से देख रहे हैं कि रामभरोस उनके साथ कुछ न कुछ षडयंत्रा करते रहे हैं। औतार कभी किसी का कर्जा चुकाना नहीं भूलते, पाई पाई जोड़ कर कर्जा सूद समेत चुकाते रहे हैं।
एक दिन रामदयाल कारिन्दा ने फेकुआ से काम करने के लिए कहा था कि दंवरी पर आ जाना। अखइन चलाना है पर फेकुआ ने इनकार कर दिया था कि वह उनका काम नहीं करेगा। वह किसी भी हाल में रामभरोस के काम पर नहीं जाएगा चाहे जो हो जाए।
रामदयाल के बैठका का काम चल रहा था हरिजन बस्ती के ढेर सारे मजूर उनके काम पर लगे हुए थे। रामदयाल चाहता था कि फेकुआ और बिफना भी काम पर आयें पर किसिम किसिम की लालच देने के बाद भी दोनों उनके काम पर नहीं गए। वैसे ऐसा नहीं है कि गॉव के सभी मजूरे रामभरोस के काम पर नहीं जाना चाहते थेे, कुछ तो खासतौर से जाना चाहते थे और वे रामभरोस का काम छोड़ते ही नहीं थे। जिन लोगों ने रामभरोस के भीतर के बैठके का बैठका देख लिया है वे कभी उनका काम छोड़ ही नहीं सकते थे। उस बैठका के भीतर क्या नहीं है, दारू है, शिाकार है, रुपया है, अच्छे तरह का खाना पीना है, साड़ी ब्लाउज, कपड़ा लत्ता सारा कुछ तो है बैठका के अन्दर वाले कमरे में। रामभरोस के बैठका में एक बार जो बैठ गया बैठ गया, लद गया उसके दिल और दिमाग पर रामभरोस का दिया हुआ सामान, फिर तो वे वैसा ही करते थे जैसा रामभरोस उनसे करवाना चाहते थे।
रामभरोस मजूरों सेे क्या करवाना चाहते यह उन्हें भी पता होता। वे जानते हुए भी वही करते जो रामभरोस उनसे करवाना चाहते। वे भूल जाते कि उनसे बहुत बड़ी कीमत वसूली जानी है। लड़की, पतोहू चाहे जो भी हो उन्हें रामभरोस के हवाले सौंपना होगा। यह सच जानते हुए भी वे अनजान बने रहते और अन्दर वाले बैठका में आनन्दित हो रहे होते। उधर दूसरी ओर रामभरोस अपना नया स्वर्ग बना रहे होते हैं। बैठका के भीतर वाले बैठका में।
रामभरोस के काम पर हर तरह की सहूलियतें हुआ करतीं थीं पर ये सहूलियतें कुछ खास लोगों के लिए ही होती थीं। काम करने वालों का अच्छा खासा जमघट भी लगा रहता था उनके यहां। वहां किसिम किसिम के लोग होते थे। कुछ पटे पटाए होते थे तो कुछ पटाये जाने के लायक होते थे। पर वही होते थे जिनके घर में जवानी होती थी, जवानी किसी की भी, बहिन की, बहू की, बिटिया की पर जवानी हो, खिली खिली, गुद गुदी उगाने वाली। रामभरोस देह के मामले में समाजवादी किस्म के थे। देह के मामले में वे छूत अछूत का भेद भी न करते थे न ही रिश्ता देखा करते थे कि गॉव के नाते वह का लगती है उनकी? वे केवल देह का उतार चढ़ाव और उसका गढ़न ही देखा करते थे चाहे रिश्ते में कुछ भी लगती हो किसी भी जाति बिरादरी की हो।
रामभरोस रिश्तों से बाहर के आदमी हैं। वे नहीं जानते कि रिश्तों के आधार पर लोग एक दूसरे को जानते पहचानते हैं। रिश्तों के मामले में जाति-धर्म नहीं चलता। जुम्मन को गॉव के बाभनों, ठाकुरों, अहीरों आदि जाति के लड़के चाचा बोलते हैं तो मुसलमान लड़के औतार को दाऊ बोलते हैं। मदारन चुड़िहारिन गाव भर के लड़कों की चाची लगती हैं। पर रामभरोस के लिए औरतों व लड़कियों के मामले में कोई नाता रिश्ता नहीं था। वे रिश्तों से बाहर की कोई चीज हैं हवा में लहराने वाली चीजों की तरह।
‘मुक्त समय की मुक्त कथा का न कोई नायक
होता है न कोई नायिका। वहां तो समय ही नायक
और नायिका की भूमिका में होता हैकृकैसे? आइए देखते हैं’
सुमिरिनी शोभनाथ पंडित के काम पर गई थी। एक दिन अकेली ही सुमिरिनी काम पर से अपने घर लौट रही थी। शोभनाथ पंडित के ओसार का लेवरन करते करते वह थक चुकी थी। उसे तुरंत आराम करना था वैसे भी वह महीने से थी। वह रास्ता चलने में थी कि रामदयाल कारिन्दा मिल गया।
‘कौन जा रही है रे! अरे, सुमिरिनी तूं है का रे! कहां काम कर रही है रे! आज कल’
बहुत ही आशिकाना ढंग से रामदयाल ने सुमिरिनी से पूछा। सुमिरिनी थी कि बिना किसी प्रतिक्रिया के चुपचाप रास्ता चलने में थी उसके पीछे पीछे रामदयाल कारिन्दा बोंग लिए हुए चल रहे थे। सुमिरिनी के चुप रहने पर रामदयाल ने उसे दुबारा छेड़ा....कृ
‘नाहीं सुन रही का रे! हम भी आदमी ही हैं कोई जिनावर नाहीं हैं कि तूं हमसे लजा रही है। काहे लजा रही है रे, एक दो दिन लजाया जाता है कि हमेशा, रहना तो गॉवै में है।’
इस बार भी सुमिरिनी चुप थी तो चुप थी। वह समझ रही थी कि रामदयाल काहे उससे बतियाना चाह रहा है? वह आगे बढ़ती चली जा रही थी, उसने अपना एक कदम भी नहीं रोका। वह लगातार चलती रही अपने घर की तरफ बस रास्ता ही उसका चलना न बन्द कर दे।
रामदयाल को नहीं पता था कि फेकुआ भी सुमिरिनी के पीछे पीछे आ रहा है। फेकुआ कहीं दीख भी नहीं रहा था। सुमिरिनी तो जानती थी कि फेकुआ उसके पीछे पीछे आ रहा है। भले अन्धेरा हो रहा है तो का हुआ? का बिगाड़ लेगा रामदयाल। अंधेरा घिरता जा रहा था। रामदयाल तो निश्चिंत थे कि उनकी बातें कोई नहीं सुन रहा, न ही उन्हें कोई देख रहा जबकि फेकुआ ने रामदयाल की बातें सुन लिया था और वह रामदयाल के करीब भी आ चुका था।
सुमिरिनी को तो कुछ बोलना ही नहीं था। उसे रास्ता चलना था तो चलना था। वैसे भी चुप रहने की आदत उसने नैहर से ही डाल ली थी। वह जानती थी कि बोलने का मतलब खुद को खोलना भी लोग लगा लेते हैं। सो न बोलो, चुप्प रहो और चुप्पी में डूब जाओ जैसे कुछ सुनाई ही न दे रहा हो। चुप्पी ने कई बार उसकी मदत भी किया है। फेकुआ बीच में ही बोल पड़ा....कृ
‘का हो कारिन्दा साहेब, तोहसेे ई काहे लजाएगी हो। तोहसे मेहरारू लजाएंगी तो काम कैसे होगा? मेहरारून के सेन्हुर, टिकुली, साड़ी, बिलाउज सब चाहिए ही चाहिए। वे लजाएंगी तो उन्हें उनकी जरूरत का सामान कौन देगा, उन्हें बिलाउज कैसे मिलेगा, टिकुली कैसे मिलेगी। हम तोहके बता रहे हैं कि एकरे संगे सूतना हो तो हमरे घरे चलिए और सूत लीजिएगा रात भर।’
रामदयाल को नहीं मालूम था कि फेकुआ भी पीछे पीछे आ रहा है। वह तो अंधेरा देख कर सुमिरिनी से बोलना चाहता था, वैसे भी उसने अगल बगल देख भी लिया था पर उसे उस समय उधर कोई नहीं दिखा था। रामदयाल चकरा गया उसने सफाई दिया....जो माफी जैसा था।
‘नाहीं यार फेकुआ! अइसन कउनो बात नाहीं है, तूं उलटा काहे बूझ रहे हो। गांये घरे के बिटया बहिन संगे भला हम बुरा सोचेंगे। हम तो एके समझाय रहे थे कि जमाना बहुत खराब है रात में अकेली निकलना ठीक नाहीं होता है।’
रामदयाल की बनावटी बातें सुन कर फेकुआ को गुस्सा आ गया। उसकी समझ में आया कि वह रामदयाल को वहीं गिरा कर खूब मारे-पीटे और छाती पर चढ़ बैठे। हड्डी पसली तोड़ कर बराबर कर दे पर वह विवश था वैसा नहीं कर सकता था। उसे मालूम था कि अगर उसने वैसा कर दिया तो उसका बपई उसे इस बार तो घर से ही निकाल देगा। बपई के जीते जी रामदयाल से मारपीट कौन कहे वह तूं, तूं, मैं, मैं भी नहीं कर सकता। उतना ही कर सकता है जितना उसके बपई चाहें। फिर भी वह अपने आप को कितना रोकता....
‘देखिए कारिन्दा साहब! आपन आदत सुधार लीजिए। जान लीजिए कि सुमिरिनी हमार मेहरारू है। ओकरे संघे अगर कुछ एहर ओहर करेंगे नऽ तो हमसे बुरा कोई नाहीं होगा।’
मुसुक ऐंठते हुए फेकुआ एक ही सांस में अपना गुस्सा उगल गया। हालांकि रामदयाल को बहुत बुरा लगा कि हरिजन का लड़का ऐसा बोल रहा है। धमकिया रहा है, इस साले की इतनी हिम्मत पर करते क्या? उनके कंधे पर टंगा बोंग इस समय किसी काम का नहीं था। अगर थोड़ा बहुत भी वे अनाप सनाप करते तो फेकुआ उन्हें पटक कर लतिया देता। और गोड़ हाथ तोड़ देता अलग से। सो वे चुप रहना और समय को टालना ही ठीक समझ कर खिसक लिए, फेकुआ से कुछ नहीं बोले।
रामदयाल जानता था कि सुमिरिनी को नजदीक लाने का तरीका दूसरा है। जाने कब से उस तरीके को वह सहपुरवा में आजमाता रहा है और उस तरीके में कहीं से भी उसे खोट भी नहीं दिखता। लड़ाई झगड़े से कुछ भी हासिल नहीं होता इससे अच्छा तो वही तरीका है। साड़ी, रुपया पैसा तथा दूसरे तरह के सामानों को देने वाला। आखिर कितनी बार सुमिरिनी इनकार करेगी, किसी न किसी दिन तो रुपये पैसे के जाल में फसेगी ही। औरतें भी जोर जबरदस्ती पसंद नहीं करतीं। वे चाहती हैं कि उन्हें कोई प्यार से सहलाए दुलारे और रुपया उनकी देह पर बिछाए। देह पर थिरकते रुपयों की माया से अलग हो जाना कुछ ही औरतों के वश का होता है। देह का क्या है उस पर रुपया नचाओ देह नाचने लगेगी। बस रुपया नचाने की कला आनी चाहिए। जितने कलात्मक ढंग से रुपया नाचेगा औरत भी उतने ही कलात्मक ढंग से नाचेगी। औरत नाच गई तो समझ लो उसका मन नाच गया फिर तो वह खुद को खुला छोड़ देगी। जैसे चाहो उसे वॉचो, उसके मन के किसिम किसिम रागों को अलापो या उसमें गोते लगाओ।
कुछ देर में रामदयाल बखरी पर आ गया। बखरी पर रामभरोस अपने मूड में थे वैसे भी वे मूड में तब हुआ करते थे जब दारू पी लिया करते थे। उस समय उनकी गंभीरता टूट जाती थी फिर तो वे किसी ब्लू फिल्म का पात्रा बन जाते थे। रामदयाल ने रामभरोस का मूड ठीक देख कर सारा किस्सा बता दिया कि कि आज उनसे फेकुआ अकड़ गया। रामदयाल की बातें सुन कर रामभरोस गरज उठे....कृ
‘ठीक बोल रहे हो रामदयाल! फेकुआ साले का दिमाग खराब हो गया है। मुसुक ऐंठकर बतियाता है। हमरे बैठका पर काम कर रहा है कि नाहीं।’
‘नाहीं सरकार! ऊ ससुरा काम पर नाहीं आ रहा है, तीन चार बार तो हमने ओसे कहा भी था।’ रामदयाल ने बताया रामभरोस को।
रामभरोस गंभीर हो गए, लगा दारू का नशा उतर रहा है।
‘ई सब तोहसे नहीं बनेगा, हमही को कुछ करना होगा। जोतिया के माई को आज बुलाओ, हम ओसे बात करना चाहते हैं। सुमिरिनी को वह किसी भी तरह से पटा लेगी। हां तुम एक काम और करना औतरवा से बोल देना कि सरकार बइठका पर काम करने के लिए बुलाए हैं।’
रामदयाल को सहेज कर रामभरोस बखरी के अन्तःपुर की तरफ चले गये। ष्शायद फिर से दारू की घंूट पीनेे के लिए।
रामदयाल का प्रसंग रास्ते पर उठा था वहीं दफन हो गया। फेकुआ और सुमिरिनी दोनों रास्ता चलने में थे। वे दोनों रास्ता देखते हुए चल रहे थे तो रास्ता भी उन दोनों को देख रहा था। फेकुआ के लिए वह रास्ता अजाना नहीं था पर सुमिरिनी के लिए तो अजाना ही था, एकदम नया। अजाने रास्ते पर चलते हुए भी सुमिरिनी के पैर संयत थे, डगमगा नहीं रहे थे। वैसे रास्ते तो होते ही हैं देखने और चलने के लिए। वे दोनों रास्ते पर चल भी रहे थे पर फेकुआ तो वह रास्ता देखना चाहता था जो सुमिरिनी के दिल तक जाता था। पता नहीं सुमिरिनी उस समय दिल तक जाने वाले रास्ते के बारे में गुन रही थी कि नहीं जिसके बारे में फेकुआ गुन रहा था। फेकुआ ने सुमिरिनी को देखा। सुमिरिनी का चेहरा आकर्षक व लुभावन चमकों से घिरा हुआ था। फेकुआ चकरा गया, ऐसी चमक तो उसने सुमिरिनी के चेहरे पर कभी देखा ही नहीं था। सुहागरात वाली चमक तो इन्द्रधनुषी रंगों वाली थी, यह तो दूसरे ढंग की चमक है। वह चकरा गया क्या औरतें रोज नए चमकों को सिरजती रहती हैं?आकर्षक और मन को खींचने वाली। उसे इन्हीं चमकों के सहारे सुमिरिनी के दिल तक पहंुचना चाहिए। उसका दिल भी तो चेहरे वाली चमकों की तरह चमक छोड़ता होगा। फिर उसकी ऑखों की किरणें स्वतः रंगीन हो गईं जिनमें सुमिरिनी तैरने लगी। फेकुआ ने सुमिरिनी को छेड़ा...
‘रामदयाल तोहें काहे छेड़ रहा था मालूम है, तूं देखनहरू है ही जो तोहें देख लेगा उसका मन बहक जाएगा। रामदयाल बहक गया होगा।’
सुमिरिनी को देख कर रामदयाल बहका था कि नहीं पर फेकुआ तो बहक ही गया था। पर वह जानता था कि उसका बहकना केवल कमरे के भीतर तक ही उचित है, बाहर नहीं। सुमिरिनी को वह बाहर देख कर नहीं बहक सकता जिस तरह कमरे के भीतर बहक सकता है। कमरे के भीतर वाली बहक को दुनिया ठीक मानती है बाहर की बहक को नहीं। पर फेकुआ बहक चुका था पर उसे पता था कि हक और बहक के बीच फासला होना चाहिए। उस फसले को मिटा देना गलती होगी। वैसे फासला भी कितना था, कुछ ही समय का, उतनी ही देर का फासला था जितनी देर में दोनों घर पहुंच जाते। फेकुआ सुमिरिनी से कुछ नहीं बोला, जो बोलना था, रास्ता चलते समय उचित नहीं था सो वह जल्दी जल्दी घर की तरफ बढ़ने लगा। सुमिरिनी भी पीछे पीछे थी। दोनों रास्ता तय करने में थे। यह रास्ता तो कुछ देर का ही था, तय हो जाएगा पर दिल तक पहुंचने वाला रास्ता उनसे दूर था। उसी रास्ते पर उन्हें बहुत दूर तक जाना था जहां दोनों एक में विलीन हो जाते। विलीनीकरण के बाद फेकुआ न फेकुआ रह जाता और सुमिरिनी न सुमिरिनी रह जाती, वहां तो केवल प्यार की गीतमय युगलबन्दी होती, तन और मन की लयवद्ध रागों वाली।
रात आई, तमाम तरह की प्यास ले कर, आजादी ले कर। फेकुआ अपने कमरे में था, बाहरी फुसफुसाहटें कमरे की दीवारोेें को पार नहीं कर सकती थीं। वहां फेकुआ था और सुमिरिनी थी, उनकी कल्पनांए थीं, उससे जुड़ी उम्मीदें थीं और ढेर सारा एकांत था जो सतर्क निगरानी कर रहे थे दोनों की ताकि दोनों प्रकृति की कृति बने रह सकें, उनमें किसी भी तरह से भिन्नतांए न आने पाएं। अपने कमरे में फेकुआ सुमिरिनी से बोल बतिया सकता था। पर ऐसा नहीं था कि कमरे में अनुशासन नहीं था, एकांत का कानून नहीं था, परंपरा की ऑखें नहीं थीं। वहां एकांत था जो केवल इतनी ही छूट देता था कि वे एक दूसरे के दिल और दिमाग तक, तन से होते हुए मन तक और मन से होते हुए तन तक, एक दूसरे को दुलारते, संवारते हुए पहुंच सकें। फेकुआ को ऐसे मुक्त समय की ही तो प्रतिक्षा थी।
प्रतिक्षा का समय खतम हो गया, समय उतर आया कमरे में। रात का अंधेरा घर के भीतर अंधेरा ले कर उतरा था पर उस अन्धेरे में भी देखी जा सकने वाली सारी चीजें फेकुआ को साफ साफ दीख रहीं थीं। उसके मन और तन पर अंधेरे का असर नहीं था पर वह सुमिरिनी के बारे में आश्वस्त नहीं था, जाने का सोच व गुन रही हो सुमिरिनी। वह अन्धेरों में डूबना चाह रही है या नहीं। पता नहीं।
सुमिरिनी दिन भर के काम से थक गई थी। घर के लेवरन का काम बहुत ही थकाऊ होता है। क्षण भर का भी समय नहीं मिलता, नाक खुजलाना हो तो मुश्किल हो जाए, हाथों में सनी हुई माटी लगी रहती है। किस हाथ से नाक खुजलाई जाए। पहले माटी तैयार करो, उसे आलन (भूसा, पुरेसा) मिलाकर सानो, धान की भूसी मिलाओ, आंकड़ बीन बीन कर निकालो, आंटे की तरह माटी सानो, तब जा कर माटी तैयार होती है फिर लेवरन करो चाहे दीवार की या जमीन की।
सुमिरिनी की थकान ने उसकी आंखों को ऐसा जकड़ा कि वह नींद में चली गई। फेकुआ ने उसे दो तीन बार इशारा किया कि वह जागे पर वह ‘हूं,’ ‘हूं’ बोल कर वह नींद पीने लगती। फेकुआ उसे दुबारा जगाता पर वह काहे बोलती वह तो नींद में थी। नींद ने उसका बोलना, बतियाना छीन लिया था।
फेकुआ तो मान कर चल रहा था कि सुमिरिनी को हर हाल में जगाना है और रात के खेलों को खेलना है। फेकुआ ने उसे झकझोरा...कृइस बार सुमिरिनी का करती, जम्हाते हुए उसने कहा....कृ
‘का है हो! काहे परेशान कर रहे हैं, हमैं सूतने दीजिए, बहुत नीन लग रही है।’
‘भोर हो गई है हो! कब तक सोना है, काम पर नहीं जाना है का? पूछा फेकुआ ने
‘भोर हो गई और हमारी नीन भी पूरी नाहीं हुई, मुई नीन भी हरामी होती है, बिना कुछ बोले बतियाएऑखों को जकड़ लेती है अपनी गोदी में।’
‘और नाहीं तऽ का, भोर हो गई है अब तो जागो।‘ फेकुआ ने उसे बताया
सुमिरिनी नेअपनी ऑखों पर जोर दिया, उसने देखा कि उसे कस कर फेकुआ बांधे हुए है और घूर रहा है। उसे जान पड़ा कि अभी तो रात बाकी है, रात अगर बाकी नहीं होती तो बाहर साफ दिखता। पर बाहर नहीं दिख रहा था कुछ। फूस के छाजन के भीतर रात का गाढ़ापन उतर चुका था। सो बाहर कैसे दिखता।
सुमिरिनी ने फेकुआ की बाहों के कसाव से खुद को छुड़ाना चाहा पर कसाव कैसे छूटता, फेकुआ ने उसे और जकड़ लिया।
‘तोहार मन खराब हो गया है का?’ सुमिरिनी ने फेकुआ से पूछा
‘हमसे काहे पूछ रही हो अपने मने से पूछो कि मन खराब है या बढ़िया। तोहार मनवा भी तो लहरिया रहा होगा, डोल रहा होगा। अच्छा सही बताओ कि फुदक रहा है कि नाहीं।’ फेकुआ ने पूछा सुमिरिनी से।
वह बेचारी का बोलती, वह जानती है मरद अउर बरद दुन्नौ एकय होते हैं? जब मन करता है तबय....समय नाहीं देखते। सुमिरिनी ने नकली बहाना बनाया।कृ
‘हमार मन हर समय फरकता रहता तो जाने का होता...।’
इसके आगे नाहीं बोल पाई सुमिरिनी, उसे बोलना भी नहीं था, उसका भी मन फरक चुका था।
फेकुआ तो रंगीन बदरियों वाली दुनिया में था। एक ऐसी दुनिया जहां सारा कुछ एक में एक मिला होता है, यौगिक की तरह, कुछ भी अलग नहीं। उस दुनिया से अलग होने का मतलब खुद को समाप्त करना होता है। फेकुआ समाप्त नहीं होना चाहता था, वह चाहता था कि वह भी सुमिरिनी में विलीन हो कर सारा कुछ भूल जाये, वह भूल जाये कि उसके साथ तथा उसके बाप के साथ क्या हुआ था सहपुरवा में, यह भी कि रामदयाल कारिन्दा आज सुमिरिनी के आगे पीछे क्यों चल रहा था?
फेकुआ जानता है कि सुमिरिनी पर डोरा डालने वालों की सहपुरवा में कमी नहीं है। लोगों के पास एक से एक डोरे होते हैं, लाल,पीले,नीले,हरे, किसिम किसिम के रंग वाले। इसी डोरे से बॉध देते हैं लोग औरतों को पतंग की तरह उड़ाने के लिए। पर वह सुमिरिनी को पतंग नहीं बनने देगा चाहे जो भी करना पड़े। वह सावधान है, एक एक को देख लेगा।
कुछ ही देर में सुमिरिनी नींद से बाहर निकल गई। वह समझ सकती थी कि फेकुआ ने उसे क्यों जगाया? तथा आगे क्या करने वाला है। चाहती तो वह भी थी पर नींद का का करे, फेकुआ जैसे मरद के साथ रह कर वह भी मरद बन गई है और बूझने लगी है रात के खेलों को। खेल तो खेल उसमें काहे पीछे रहना और खुद को दबा कर रखना, पर डरती है कि फेकुआ मरद है जाने का बूझे, बूझ सकता है कि सुमिरिनी भुक्खड़ है, इसका पेट ही नहीं भरता फिर तो वह लजा गई और नींद में जाने का बहाना उसने बना लिया।
फेकुआ के लिए तो यह था कि उसे रात को चूमना चाटना है, बिजली कड़के तो ठीक, नहीं कड़के तो ठीक। मन के ताप का खेल शुरू होते ही फेकुआ को जान पड़ा कि केवल वही प्रतापी नहीं है, सुमिरिनी भी प्रतापी है, उसका ताप केवल देखाता नाहीं है पर है प्रतापी।
रात को बीतना था सो बीत गई।
‘कथांए भी किसी दरखास की तरह होती हैं
गोबर, माटी, कीचड़ में सनी पाठकों से ‘नियाव’ मांगती’
खड़ी रहती हैं कि मुझे पढ़ो, कुछ जो उदार होते हैं पढ़ भी लेते हैं’कृ
सहपुरवा में नसबन्दी का कैंप लगा हुआ था। कई टेन्टों को जोड़कर एक बड़ा सा हालनुमा घेरा बनाया गया था। उसी हालनुमा घेरे के भीतर छोटा सा चिकित्सा कक्ष भी बनाया गया था। मंत्राी जी के लिए स्वागत कक्ष का निर्माण अलग से कराया गया था जो बड़े वाले हालनुमा घेरे से थोड़ा दूर था। टेन्ट का सारा सामान कुछ रापटगंज से तो कुछ बनारस से मंगवाया गया था। पूरा पांडाल ऐसा सजा हुआ था कि देखते बन रहा था कुछ लोग तो वहां पांडाल को सजते हुए बैठ कर देखा करते थे, घंटों बीत जाता था पर उन्हें अखरता नहीं था।
सरकारी लोग ही नहीं क्षेत्रा की जनता भी वहां उमड़ पड़ी थी। हर ओर भीड़ ही भीड़ सिर्फ आदमियों की खोपड़ियां दिखतीं कहीं भी जमीन नहीं दिख रही थी। वैसे भी टेन्ट की नीचे की जमीन दरी बिछावन से तोप दी गई थी। सरकारी काम है जमीन नहीं दिखनी चाहिए, जमीन पर सरकार का ताप हर ओर आसानी से नहीं पसर सकता। धूल व ढेले वाली जमीन पर सरकार के ताप को ठोकर लग सकती है। भहरा सकता है सरकार का ताप।
नसबन्दी के लिए लक्ष्य दंपतियों की सूची बना ली गई थी। जिसे एक महीने पहले से ही बनाया जा रहा था। सूची में कर्मचारियों व आम नागरिकों दोनों को शामिल किया गया था। उस दिन सहपुरवा में उन लोगों को नसबन्दी कराना था जो दो पुत्रोंा या पुत्रियों के पिता या माता थे। सरकारी फरमान था कि जो नसबन्दी नहीं कराएंगे उन्हें सस्पेन्ड भी किया जा सकता है। सो कर्मचारी डरे हुए थे और सस्पेंशन वाले सरकारी तानाशाही आदेश की निन्दा भी कर रहे थे।
‘यह भी कोई कार्यक्रम है, नसबन्दी कराओ तभी नौकरी करो नहीं तो निकाल देंगे नौकरी से, निकाल दें साले पर हम तो नहीं कराएंगे’
यह एक डरे हुए सरकारी कर्मचारी की विवषताभरी बोल थी।कृ
दूसरा बोल रहा था....वह भी डरा हुआ था पर आदेश का विकल्प उसने तलाश लिया था।
‘यार! तूं तो चूतिया हो हम नसबन्दी काहे कराएंगे हमारे नाम पर हरिजन कराएंगे। लिस्ट बनाने तथा रिपोर्ट वगैरह देने का काम तो हमी लोगों को करना है। सरकार भी कोई काम करती है क्या? तूंने देखा है किसी सरकार को काम करते हुए, सरकार तो भगवान की तरह अदृश्य होती है निराकार। असली सरकार तो कर्मचारी ही होते हैं पर क्या बतांए ये साले सरकारी कर्मचारी किसी भी मुद्दे पर एक नहीं होते, इनमें संगठन नहीं है, संगठन होता तो ये अनपढ़ मंत्राी हम पर रोब डाटतें।’
‘अरे यार! यह भी नहीं करना होगा, डक्टरवा को सौ पचास दे कर लिखवा लिया जाएगा, यह तरीका सबसे आसान और सरल है।’
चौथा जो मजबूर किसिम का था वह अपना दुख बता रहा था।
‘यार! मैं तो नसबन्दी करांउगा ही, बिना तनखाह के मेरा काम नहीं चल सकता, मैं बाल-बच्चों को भूखा नहीं रख सकता, हमैं तो नौकरियय का सहारा है।’
समझाने वाले ने उसे समझाया....कृ
‘यार! तूं कैसे करा सकता है नसबन्दी, तेरी तो सिर्फ तीन लड़कियां ही हैं।’
‘उससे का होता है पेट कैसे भरेेगा, मैं तो कराऊंगा नसबन्दी, मान लूंगा कि किस्मत में लड़कियां ही बदा हैं। यार! सेवा करना होगा तो लड़कियां भी किसी लड़के से कम नहीं करेंगी। इन्दिरा गांधी भी तो लड़की ही हैं आज देश चला रही हैं। मेरी लड़कियॉ भी बुढ़ौती में मेरा सहारा बनेंगी।’
सहपुरवा नसबन्दी कैंप में हर तरह के लोग आये हुए थे, कोई मजबूर था तो कोई मजबूर बना दिया गया था। जमीन का पट्टा रद्द कर देने का भय दिखा कर लेखपालों ने तमाम मजबूरों और यातनाग्रस्त लोगों को बुला लिया था। वे लोग बारी बारी से आपरेशन करा रहे थे कोई नायब तहसीलदार के नाम पर आपरेशन करवा रहा था तो कोई परगनाधिकारी के नाम पर। ऐसा ही ब्लाक के कर्मचारी भी कर रहे थे जिससे सभी को कोटा पूरा हो सके। परमिट कराने, राशन की दूकान देने, बन्दूक का लाइसेन्स देने, बैंक से कर्जा दिलाने आदि के नाम पर भी दना दन नसबन्दी हो रही थी। एक तरह से सहपुरवा नौकरी बचाने का स्वर्ग बन गया था और कर्मचारियों को अभयदान दे रहा था। नसबन्दी कराने के एवज में मिलने वाला रुपया प्रेरकों की जेब में तथा डाक्टरों की जेब में जा रहा था। नसबन्दी करा लेने में कर्मचरी जितने मस्त थे उतने दवा दारू कराने में नहीं, नसबन्दी हो जाने के बाद मरीजों से यह भी नहीं पूछा जा रहा था कि उनकी हालत कैसी है, उन्हें रामभरोसे छोड़ दिया जा रहा था। सहपुरवा में जब तक मंत्राी जी नहीं आ पाए थे तब तक सारा प्रबंध ठीक ठाक था जैसे ही वे आये और चले गए मरीजों की सुरक्षा भी उनके साथ चली गई। मरीजों के प्रति लापरवाही एक बड़ी खबर थी पर उन दिनों अधिकारियों कर्मचारियों के खिलाफ समाचार पत्रों में खबरें नहीं छपा करती थीं। सो मरीजों के प्रति लापरवाही खबर न बन सकी। अखबार वाले दूसरे काम निपटाने में मस्त थे जिनसे उन्हें फायदा मिला करता था यही तो ईमरजेन्सी का फायदा था।
लम्बी प्रतिक्षा के बाद मंत्राी जी का आगमन हुआ, सरकारी पारटी के बड़े स्थानीय नेता कृपालु जी मंत्राी जी के साथ थे। सबसे पहले मंत्राी जी रामभरोस के दरवाजे पर गये। रामभरोस के यहां जाना उनका व्यक्तिगत कार्यक्रम था। इसे सरकारी कार्यक्रम में शामिल नहीं किया गया था। रामभरोस के यहां ही मंत्राी जी ने नाश्ता किया और विभिन्न मुद्दों पर बातें भी की। उन्होंने क्षेत्रा का हाल अहवाल लिया तथा रामभरोस का भी।
रामभरोस के दरवाजे से मंत्राी जी सीधे सभास्थल पर पहुंचे, वहां मंत्राी जी की सैकड़ों लोग प्रतिक्षा कर रहे थे। मंत्राी जी को तत्काल मालाओं व फूलों से लाद दिया गया, अन्त में मंत्राी जी ने अपना भाषण दिया।कृ
‘कि वे पैदा ही हुए हैं जनता की सेवा करने के लिए, जनता के साथ मरने और जीने के लिए। वे तब तक जनता की सेवा करते रहेंगे जब तक हर हाथ को काम, हर खेत को पानी तथा हर घर में चूल्हा नहीं जल जाता, तब तक उनकी लड़ाई चलती रहेगी। वे भूख और भोजन के बीच की दूरी पाट कर ही रहेंगे।’
अपने भाषण के अंत में मंत्राी जी ने रामभरोस की भी खूब प्रशंसा किया और उनके बारे में बोलते हुए कहा....
‘रामभरोस जैसा आदमी आपके साथ है यह इस क्षेत्रा के लिए गौरव की बात है’
इसी बात पर सभा स्थल पर हल्ला भी मचा था जिसे पुलिस वालों ने ताकत के बल पर तत्काल रोक दिया था।
भाषण के बाद मंत्राी जी कार में बैठे और फुर्र....कृ
जिले के आलाधिकारियों के चेहरों पर नसबन्दी कार्यक्रम की सफलता थिरकने लगी, वे मस्त मस्त थे। मंत्राी जी के वापस होते ही अधिकारी भी सहपुरवा से वापस हो लिए वहां रूकने का क्या मतलब था, मतलब तो नसबन्दी कराना था जो संपन्न हो चुका था।
कुल पैंसठ लोगों की नसबन्दी हुई थी। उन्हें अस्पतालनुमा टेन्ट में लिटा दिया गया था। उनके लेटने के लिए चौकियों का प्रबंध कई गॉवों से लाकर पहले से ही कर लिया गया था। चौकियों के प्रबंध का काम प्रधानों के जिम्मे स्थानीय प्रशासन ने लगाया हुआ था। मरीजों की देख रेख के लिए दो डाक्टरों तथा चार नर्सों को भी तैनात किया गया था।
देखने में सारा प्रबंध ठीक ठाक दिख रहा था पर ठीक नहीं था। ठीक इस लिए नहीं था कि सहपुरवा के नसबन्दी कैप के लिए जिन दो डाक्टरों को तैनात किया गया था उनमें से एक तो उसी दिन सहपुरवा से निकल गया और नर्सों में से दो वापस हो गईं। दोनों ने बच्चों का बहाना बना लिया कि उनके दूध पीते बच्चे हैं उन्हें दूध कौन पिलाएगा?
बहरहाल नसबन्दी हो चुकी थी। परमात्मा की कृपा से सारे के सारे मरीज ठीक ठाक थे, कोई अनहोनी नहीं हुई। मरीजों के खाने का प्रबंध रामभरोस के जिम्मे था जिसका प्रबंध रामभरोस ने अच्छी तरह से किया था।
औतार का पट्टा खारिज करने के प्रस्ताव को गॉव सभा ने बहुमत से पहले ही पारित कर दिया था अब उस पर केवल ऊपर के अधिकारियों को ही विचार करना था। विचार हो गया और औतार का पट्टा खारिज कर दिया गया इस तरह का प्रचार रामभरोस ने पूरे सहपुरवा में करा दिया था। गॉव सभा के प्रस्ताव पर पंडित शोभनाथ ने हालांकि बहुत विरोध किया था पर उनके अकेले विरोध का कुछ मतलब नहीं था, बहुमत तो पट्टा खारिज कराने के पक्ष में था, सो प्रस्ताव पास हो गया।
प्रस्ताव के समय ही शोभनाथ ने चेताया था....कृ
‘सभापति जी! औतार का पट्टा खारिज कराना गलत है। अभी भी गॉव में बहुत सी जमीनें उपलब्ध हैं जिन पर पंचायत भवन बनवाया जा सकता है। पंचायत भवन तो कहीं भी बन सकता है क्या केवल औतार के पट्टे वाली जमीन पर ही बनेगा तभी ठीक होगा। बहुत गलत हो रहा हे सभापति जी।’
रामभरोस को तो जो करना था उसके प्रति वे सावधान थे, उन्होंने साफ कहा थाकृ
‘आप लोग तो जानते ही है कि गॉव में स्कूल जब बन रहा था तब भी शोभनाथ ने उसका विरोध किया था और आज जब पंचायत भवन बनने के लिए प्रस्ताव हो रहा है तब भी विरोध कर रहे हैं। पता नाहीं शोभनाथ का सोच रहे हैं। हम चाहते है कि पंचायत भवन गॉव के आस-पास ही बने। गॉव के आस-पास कोई जमीन है नहीं, केवल औतार के पट्टे वाली जमीन ही है। उस पर पंचायत भवन बन जाएगा तो बियाह आदि में गॉव के लोगों के काम आएगा, उसमें बाराती ठहरेंगे और भी तमाम काम होंगे। औतार से हमारी कोई दुश्मनी तो है नाहीं, हम उनका पट्टा काहे खरिज कराएंगे? हम तो गॉव के हित के लिए औतार का पट्टा खारिज करा रहे हैं।
ष्शोभनाथ पंडित भी बोलक्कड़ थे....कृ
‘अरे रामभरोस जी अपनी बात कीजिए, भाषण मत झारिए। पंचायत भवन बन जाएगा तो सभी को बियाह आदि में काम देगा, पहले कैसे होता था बियाह? बकवास मत करिए। हम तो परेशान हैं अपने परिवार से। हमारा परिवार बंट गया नहीं तो आप को बताते कि का होती है राजनीति और कैसे होती है गॉव की भलाई। गॉव का भला करना है तो अपनी सीलिंग वाली जमीनिया काहे नाहीं बॉट देते गरीबों में, उसे तो कब्जियाए हुए हैं। उसको गरीबों में बॉट दीजिए फिर हम पंचायत भवन का विरोध नहीं करेंगे। चले हैं गॉव की भलाई देखने....
रामभरोस से इससे मतलब नहीं था कि शोभनाथ पंडित का बोलते हैं और का सोचते हैं, उनसे तो सिर्फ प्रस्ताव पास कराने से मतलब था जो पास हो चुका था। रामभरोस ने उस समय बहुत गुस्से से शोभनाथ को देखा था कि यह साला किसी न किसी दिन सीलिंग वाली जमीन मेरे कब्जे से निकलवा कर ही रहेगा पर बोले कुछ नहीं। यह सोच कर कि इस समय बोलना उचित नहीं होगा। उन्होंने तय कर लिया था कि इसका जबाब शोभनाथ को उचित समय पर जरूर देंगे।
रामभरोस जो सोचतेे हैं कर डालते हैं। उन्हांेने सोच लिया था कि पंचायत भवन बनना है तो बनना है। रामभरोस ने पंचायत भवन के निर्माण के लिए जिला पंचायत अधिकारी द्वारा रुपया भी हासिल कर लिया था जो गॉवसभा के नाम से खाते में जमा हो गया था। केवल उसे बैंक से निकालना ही था। रामभरोस ने पंचायत भवन के उद्घाटन तक की योजना बना लिया था। उन्होंने कृपालु जी से उद्घाटन के बारे में बातें कर ली थीं। यह सुनिश्चित हो गया था कि उद्घाटन डी.एम. साहब करेंगे। रामभरोस जानते हैं कि डी.एम. से उद्घाटन कराने से कई लाभ होते हैं और मंत्राी वगैरह से कराने पर कोई खास लाभ नहीं होता।
रामभरोस के लिए पंचायत भवन का उद्घाटन शीघ्र से शीघ्र करा लेना बहुत आवष्यक था। इस काम में वे देरी करना नहीं चाहते थे। उनका वश चलता तो आनन फानन में उद्घाटन करा लेते पर ऐसा नहीं करना था, जल्दी का काम कभी कभी नुकसान दायक साबित होता है।
पंचायत भवन का उद्घाटन कराने में अधिक दिन नहीं लगा। कृपालु जी ने सारा इन्तजाम कर दिया था तथा वे खुद भी समय से सहपुरवा आ गये थे। डी.एम. साहब कार्यक्रम शुरू हो जाने के बाद आये फिर भी बहुत देर नहीं हुई थी। डी.एम. साहब के आने के कारण भीड़ भी एकत्रा हो गयी थी। क्षेत्रा के सारे परधान और परमुख भी आये हुए थे। रामभरोस ने स्वागत, सत्कार का बहुत ही अच्छा प्रबंध किया हुआ था। कार्यक्रम में पहले डी.एम. साहब का स्वागत किया गया फिर उद्घाटन हुआ। अपने भाषण में डी.एम. साहब ने पंचायत व्यवस्था के तमाम फायदों का गुणगान किया। वहां उपस्थित जनता के खाते में धन्यवाद आया और रामभरोस के खाते में प्रतिष्श्ठा। वहां उपस्थित जनता धन्यवाद का पुरस्कार लेकर फूट गयी।
औतार को ही नहीं पूरे क्षेत्रा को मालूम था कि डी.एम. साहब सहपुरवा आ रहे हैं सो औतार भी डी.एम. साहब से मिलने के लिए आतुर थे। वे एक प्रार्थना पत्रा लिखवा कर सभास्थल पर उपस्थित थे। वहां के स्वयंसेवक जो रामभरोस के अपने लोग थे, वे जानते थे कि औतार काहे के लिए आया है और काहे डी.एम. साहब से मिलना चाहता है सो वे औतार को मंच तक जाने नहीं दे रहे थे। किसी तरह औतार को मौका मिला फिर वे मंच तक पहुंच पाये और फटाफट डी.एम. साहब के पैर पर गिर गये ‘सरकार’ ‘सरकार’ कहते हुए....कृकृ
औतार किसी की नहीं सुन रहे थे। वे अपनी फरियाद रिरियाते हुए कहने लगेकृ
‘सरकार! हमैं सहपुरवा से मत उजरवाइए, हमारे पास खाली पट्टा वाली जमीन ही है और दूसर जमीन नाही है। सरकार हमरे पट्टा वाली जमीन पर पंचायत भवन बनने जा रहा है, गॉए में बहत जमीन है सरकार उस पर पंचायत भवन बनवाइए। रामभरोस की जो जमीन सीलिंग से निकली है वह भी गॉव के नजदीक ही है, उस पर बनवाएं पंचायत भवन सरकार, हमरे पट्टा वाली जमीन पर नाहीं।’
डी.एम. साहब घबरा गये, हो क्या रहा है, पट्टे की जमीन पर पंचायत भवन कैसे बन रहा है? जानने के बाद चुप्पी लगा गये। डी.एम. जैसे अधिकारियों की चुप्पी अपने आप में रहस्य होती है। वे अपनी चुप्पी के द्वारा ढेर सारा प्रशासनिक कार्य निपटा लिया करते हैं सो वे जनता के बीच जनता के कार्य के लिए अपनी चुप्पी का प्रयोग लोकतांत्रिक औजार की तरह किया करते हैं। औतार ने पहले से लिखा प्रार्थनापत्रा उन्हें दे दिया। औतार को मालूम था कि डी.एम. साहब भी हरिजन हैं सो वे हमारा काम कर देंगे। निश्चित ही उनका काम हो जाएगा और पंचायत भवन का बनना रूक जाएगा। पर ऐसा होता कहां हैं? डी.एम. अपनी जाति नहीं देखा करते। कोई भी हो जब वह अधिकारी बन जाता है फिर वह बहुत कुछ भूल जाता है। भूलना बहुत ही सरल होता है। नौकरी पाने के लिए उसे स्मृतियों के कठिन दौर से गुजरना होता है, उसे सारा कुछ याद रखना पड़ता है। जितना याद रहेगा उतना ही परीक्षा की कापी पर वह लिख सकेगा। लिखे के अनुसार ही उसे नंबर मिलेगा। याद रखने की जरूरत नौकरी पाने के बाद खतम हो जाती है। नौकरी करना है तो बहुत कुछ भूल जाना है। भूल जाना ही उसे अच्छा अधिकारी प्रमाणित करेगा। धीरे धीरे वह वह सारा कुछ भूल जाता है, सबसे पहले वह जाति भूलता है फिर वर्ग। उसे यह भी याद नहीं रहता कि वह गोबर माटी और कीचड़ में पैदा हुआ है, गोबर, माटी, कीचड़ से सने, पुते चेहरे ही उसके अपने हो सकते हैं, उनके लिए कुछ करना उसका दायित्व है। पर नहीं वह अपना अतीत भूल कर चमकदार चेहरों में शामिल हो जाता है।
डी.एम. साहब ने प्रार्थना पत्रा पढना शुरू किया और पढ़ कर ओतार से प्रार्थनापत्रा के बारे में पूछा भी... औतार ने उन्हें पंचायत भवन निर्माण काण्ड का किस्सा बताया कि उनके साथ हो क्या रहा है।
डी.एम. साहब ने पास खड़े परगनाधिकारी को वह प्रार्थना पत्रा दे दिया और निर्देश दिया कि इस पर संभव कार्यवाही करें तथा कृत कार्यवाही से मुझे अवगत भी करांए।
‘हॉ सर’!’ कहते हुए परगनाधिकारी ने प्रार्थना पत्रा ले लिया। औतार भी परगनाधिकारी के पास ही खड़े थे, वे दुबारा गिड़गिड़ाने लगे....कृ
‘सरकार हमैं बताइए कि हम का करें, कहां रहें, कैसे खेती-बारी करें। पंचायत भवन बन जाएगा तब हम कहॉ खेती करेंगे सरकार! पंचायत भवन को रोकवा कर हमैं उबारैं सरकार।’
औतार के साथ साथ शोभनाथ पंडित ने भी निवेदन किया....कृ
‘सरकार! केवल दुश्मनी के कारण औतार के पट्टे वाली जमीन पर रामभरोस जबरिया पंचायत भवन बनवा रहे हैं, गॉव में दूसरी जमीन पर भी पंचायत भवन बनवाया जा सकता है।’
अधिकारी तो अधिकारी होता है, पद और अधिकार की गरिमा में गोते लगाने वाला। औतार के साथ शोभनाथ पंडित भी गिड़गिड़ते रहे पर अधिकारी पर कुछ भी असर नहीं पड़ा। डी.एम. साहब सीधे कार की ओर बढ़े, उसमें बैठे और फुर्र, किसी चिड़ि़या माफिक।
डी.एम. साहब के जाने के बाद औतार को परगनाधिकारी की फटकार भी सुननी पड़ी....कृ
‘आप लोग काहे बक बक कर रहे हैं, मालूम है कि नहीं कुछ, औतार का पट्टा खारिज हो चुका है। अब का होगा? उस समय कहां थे आप लोग? अब चले हैं दरखास ले कर। जाइए अपना काम करिए हमारा समय बेकार मत करिए। जब गॉवसभा ने मुकदमा किया था तब दरखास दिए होते तो हम विचार करते अब कुछ नहीं हो सकता।’
पर औतार का पट्टा खारिज नहीं हुआ था। परगनाधिकारी रामभरोस के मुह की बात कर रहा था, उसके मुह में रामभरोस की जीभ तालू तक पहुंच चुकी थी।
परगनाधिकारी भी सामने खड़ी जीप पर बैठा और चला गया। वहीं औतार और शोभनाथ पंडित खड़े खड़े एक दूसरे का मुंह देखने लगे। औतार शोभनाथ का मुह देखते तो औतार का शोभनाथ, दोनों के चेहरों पर प्रशासन ने अपनी मुहर लगा दी थी, काली स्याही वाली। सरकारी मुहर पर लिखा था...कृ
‘कुछ जाना करो, कुछ समझा करो, सरकार सरकार होती है, सरकार अपने ढंग से चलती है, अपने ढंग से सोचती है और सरकार को जो करना था कर दिया है उससे तुम्हारा फायदा हो तो ठीक न हो फायदा तो भी ठीक।’
शोभनाथ पंडित और औतार दोनों समय की चाल के बारे में गुनने लगे। लोकतंत्रा का समय लोक के लिए ही होता है पर यह जो समय है वह खुद लोकतात्रिक नहीं होता इसे सत्ता चलाने वाले लोकतांत्रिक बने रहने नहीं देना चाहते। वे लोकतंत्रा को अपने मन को खेल बना देते हैं और उसे अपने हिसाब से खेलते हैं..आज फिर एक खेल हो गया...
‘कुछ लोग होते ही हैं जो अपनी पीठ ठोंकने में
माहिर हुआ करते हैं और जब ऐसे लोग कथाओं में
होते हैं फिर क्या कहनेकृकहने के लिए शेष ही क्या बचता है?’
पंचायत भवन के शिलान्यास के बारे में केवल रामभरोस को ही जानकारी थी। अपने हमराहियों को भी उन्होंने नहीं बताया था। शाोभनाथ पंडित को भी पता नहीं चल पाया था पंचायत भवन के शिलान्यास के बारे में? सारा कुछ गुप्त था। एक दिन पंचायत भवन का शिलान्यास हुआ और तीन दिन के भीतर ही पंचायत भवन की बुनियाद जमीन से ऊपर उठ गई। पंचायत भवन के उसी निर्माण को गिराए जाने के दिन संयोग ही था कि शोभनाथ पंडित भी गॉव पर आ गये थे नहीं तो सहपुरवा से वे कहीं बाहर गये हुए थे किसी काम से।
रामभरोस को यह बात तब मालूम हुई जब औतार ने पट्टा खारिज किए जाने के खिलाफ दरखास दिया कि उस दरखास को उनके लड़के विभूति ने लिखा था फिर तो वे विभूति पर गरम हो गये। औतार तो इस बात के लिए भी तैयार नहीं थे कि दरखास दिया जाए किसी तरह उन्हांेने हिम्मत जुटाई थी दरखास देने के लिए। इसलिए नहीं कि वे निर्बल तथा कमजोर थे इसलिए कि रामभरोस का प्रशासन कुछ नहीं कर सकता, होगा वही जो रामभरोस चाहेंगे। सो दरखास देने से का फायदा?
औतार को जब मालूम हुआ कि डी.एम. साहब भी हरिजन हैं तो उनका विष्वास बढ़ गया कि उनकी जमीन का पट्टा खारिज होने से बच सकता है। डी.एम. साहब उनकी बातें सुन कर पट्टा खारिजा रोक सकते हैं। फिर उन्होंने दरखास दिया था। जिस दिन औतार ने दरखास दिया उसी दिन उन्हें आभास हो गया था कि अधिकारी, अधिकारी होता है वह न हरिजन होता है और न कुछ दूसरा होता है सिर्फ अधिकारी होता है। वे मान कर चल रहे थे कि दरखास देने से कुछ नहीं होने वाला।
रामभरोस मगन थे तथा अपना सीना फुलाए बैठे हुए थे। उन्हें बहुत अच्छा लगा था कि एस.डी.एम. साहब ने शोभनाथ को डांटा और झिड़क दिया। वे मान कर चल रहे थे भले ही डी.एम. साहब हरिजन हैं तो का हुआ पर हरिजनों वाला काम तो नहीं कर रहे। उन्हें डी.एम. साहब का व्यवहार देख कर यकीन था कि औतार के दरखास पर डी.एम. साहब कुछ भी नहीं करने वाले। और एस.डी.एम. तो जैसा वे चाहेंगे वैसा ही करेगा और उसने किया भी औतार को झिड़क दिया। रामभरोस ने प्रसन्नता जाहिर करते हुए चौथी से कहा....कृ
‘का हो चौथी आज तो गड़बड़ हो जाता, औतरवा साले ने तो सारा खेल बिगाड़ दिया था। उसके समझ में आया होगा कि डी.एम. साहब हरिजन हैं और उसका पट्टा बहाल करने के लिए बोल देंगे। देखे नाहीं कैसा हरिजन हरिजन चिल्ला रहा था एक सुर से। औतरवा साले को छोड़ो शोभनथवा को नाहीं देखे...कृउहौ साला औतरवा के साथ बकबका रहा था। उसके अन्दर तनिक भी बड़प्पन नाही है, पता नाहीं कैसे बाभन के घरे में जनमा है, एकदम हरिजनै है का? सुने कि नाहीं एस.डी.एम. ने तो औतरवा को डांट दिया....
‘का बक बक कर रहे हो, पहले कहां थे, अब आए हो दरखास देने’
उस समय शोभनाथ का मुंह झुराय गया था, नेता बनता है साला, सुकुर सुकुर करता रहता है और मारने चला है सरकारी कुकुर। साले को यह पता नहीं कि रामभरोस से मोर्चा लेना पहाड़ से टकरा कर माथा फोड़ना है। देखना चौथी! शोभनथवा किधरौ का नाहीं होगा, न बाभनों का न हरिजनों का।
रामभरोस गद गद थे। उन्होंने अपने अस्तित्व की इस जंग को भी जीत लिया था। सो बोलने के मूड में थे जैसे भाषण दे रहे हों।
‘हमैं तो जानते ही हो चौथी! रियासत और अंग्रेजन के राज में भी हम केहू को कुछ नाहीं समझते थेे, राजा या जमीनदार, चाहे बड़का अफसर कोई भी हो। शोभनथवा को का समझना है यार! उसके जैसे कितने फेंकू पवारू पड़े हुए हैं विजयगढ़ में।’
उस समय चौथी गवहां रामभरोस की हां में हां बोल रहे थे। उन्हें केवल ‘हां में हां’ ही बोलना था रामभरोस की हर बात में और कर भी का सकते थे। रामभरोस को भी चौथी गवहां जैसा हां में हां बोलने वाला कोई चाहिए था। आखिर वे अपने बारे में खुद के गढ़े आख्यान किसे सुनाते? अपना गढ़ा आख्यान सुनाना हर हाल में जरूरी होता है रामभरोस जैसे सामन्ती मिजाज वालों के लिए। अपनी पीठ ठोंकना भी सामन्ती कला का ही रूप होता है, जिसमें रामभरोस माहिर हैं। इसमें का जाता है कोई दूसरा पीठ नहीं ठोक रहा तो का वे खुद भी न ठोंके, खुद ही ठोक लो। पीठ ठोंकने की यह कला भारतीय संस्कृति में काफी लोकप्रिय है और सफल भी।
बातें करते हुए ही जैसे उन्हें कुछ ख्याल आ गया फिर तो बातें बन्द करके उन्होंने रामदयाल को पुकारा... एक कर्कश आवाज मालिकों वाली, अतिरिक्त गुर्राहटों माफिक।
रामदयाल कहीं पास में था, हाजिर हो गया।
‘का सरकार! का हकुम है?’
रामदयाल ने अदब से कहा जो देखने व सुनने लायक था कि अदब अदब होती है चाहे वह जैसे आये, नमक खाने से या किसी और चीज से आये पर आये। दरबारों में अदब ही तो मातहतों का आभूषण होता है।
‘जोतिया की माई मिली कि नाहीं ? उसको आज ही हाजिर कराओ हमारे सामने।’
रामभरोस ने रामदयाल को सहेजा जो आदेष्श की तरह था।
रामदयाल कारिन्दा तत्काल वहां से चला गया जोतिया की माई को बुलाने के लिए, जोतिया की माई हरिजन बस्ती में रहती थी।
‘जोतिया की माई को अभी बुला लाना ठीक होगा। पता नहीं बाद में धियान उतर गया और उसे नहीं बुला पाए तोकृरामभरोस सरकार माथा फोड़ देंगे।’ रामदयाल बखरी से सीधे चले गए जोतिया के माई को बुलाने के लिए।
चौथी गवहां रामभरोस के पास ही में बैठे हुए थे। रामभरोस के आदेश के बिना वे बखरी से उठ कर जा भी नहीं सकते थे। रामभरोस के हुकूम की उदूली करने पर का हो सकता है चौथी जानते थे। सो वे वहीं बैठे हुए थे।
‘चौथी तनिक सुर्ती बनाओ यार! थोड़ा ठीक से गांठना, पान खाते खाते मुंह में छाला पड़ गया है, एक बात और बताओ कि पंचायत भवन के शिलान्यास वाला कार्यक्रम कैसा था?’
चौथी फूल गये गंुबारा की तरह, सरकार ने कुछ पूछा तो...कृ
‘अरे का बताना सरकार, सभै लोग बढ़िया बढ़िया चिल्ला रहे थे। आपका जैसा नाम वैसा ही काम। डी.एम. साहब भी तो आपके बारे में खूब तारीफ किए थे।’
चौथी तो रामभरोस की बातें चूसने के लिए ही वहां बैठे हुए थे और रामभरोस के लिए था कि अपना बखान जितना सुना सको सब सुना दो चौथी को। सो वे दुबारा अपने बारे में बखानने लगे....कृ
‘यार! चौथी, जानते हो आज का जमाना परचार वाला है, परचार करने कराने में कोई कसर नाहीं छोड़नी चाहिए। परचार करने में चाहे जितना खर्च लगे हम सारा खर्च करते हैं, भागते नाहीं हैं। उतना खर्चा तो हम सीलिंग वाली जमीन से ही जुटा लेते हैं। एक बात और बताएं चौथी!कृचाहे जो भी हो जाए सीलिंग वाली जमीन पर हम कभी भी कब्जा नाहीं छोड़ेंगेे। तूं देख लेना।’
बात तो बात; जब बढ़ गई तब बढ़ गई रामभरोस रौ में थे फिर उन्हें वहां कौन रोकता, समझाता कि अपने बारे में सिर्फ मूर्ख ही वाह वाह किया करते हैं। वहां केवल चौथी थे, उनसे का मतलब था कि वे रामभरोस को रोकते या सलाहते कि सरकार अपनी तारीफ खुद नहीं करनी चाहिए।
‘तूं तो जानते ही हो चौथी कि राजा के अलावा यहां की जनता केवल मेरा नाम जानती है। विजयगढ़ में मुझसे बड़ा जोतदार और धनी मानी कौन है? जितना कमाना था उतना कमा लिया है। चौथी! अब तो मुझे केवल विभूति की चिन्ता है। वे अगर सारा काम-धाम सम्हाल लेते तो मैं आराम से बैठ जाता, सारा ताम-झाम उनके ऊपर छोड़ देता। पर का बतांए विभूति ने प्रसन्नवा का गड़बड़ संग साथ पकड़ लिया है। प्रसन्नवा को तो तूं जानते ही हो लोफर है साला, लोफर। सुन रहा हूं कि वह कम्युनिस्ट पार्टी का नेता बन गया है।
चौथी को रामभरोस का दरबारी माना जाता है पर चौथी जानते हैं कि वे रामभरोस के का हैं, दरबारी हैं कि समय के साथ चलने के लिए मजबूर हैं। उन्हें पता है कि रामभरोस की जी हुजूरी नहीं करना घर में डकैती डलवाना है। रामभरोस को रोज सलाम नहीं करना खुद को किसी झमेले में फसाना है। खुद को रामदयाल जैसों के बोंग से पिटवाना है। गॉव में केवल शोभनाथ पंडित ही ऐसे आदमी हैं जो रामभरोस की जी हुजूरी नहीं करते। जो बोलना या करना होता है उनके सामने कर या बोल जाते हैं। चौथी गवहां भी शोभनाथ को अच्छा आदमी मानते हैं और जानते हैं कि शोभनाथ ही गॉव में ऐसे आदमी हैं जो किसी का नुकसान नहीं कर सकते। चौथी गवहां अब किससे कहें कि रामभरोस के आतंक के कारण ही उन्होने फेकुआ का कोला लवाय लिया था। नहीं तो वे फेकुआ का कोला कभी नहीं लवाते पर फेकुआ का कोला लवा लेने के बाद अब किस मॅुह से बोलें अपनी करनी के बारे में। कौन मानेगा उनकी बात। फेकुआ का कोला लवा लेने के बाद अब ऐसी स्थिति आ गई है कि रामभरोस को वे नहीं छोड़ सकते। थाना थूनी हो जाएगा, जेल भी जाना पड़ सकता है फिर कौन बचाएगा उन्हें? रामभरोस ही बचा सकते हैं। दारोगा आया ही था एक दिन। दारोगा के सामने होते ही वे कॉपने लगे थे। लगा था उन्हें जेल दिखाई देने। मार-पीट अलग से, पता नहीं दारोगा उन्हें कैसे मारता, डंडे से मारता या हाथ से। वे जानते हैं कि दारोगा जब मारने लगते हैं तब ऑखें मूॅद कर मारते हैं और डंडा भी नहीं गिनते। अब तो ऐसे ऐसे दारोगा होने लगे हैं जो मार-पीट न करने का रुपया लेते हैं और जेल भिजवा देते हैं। सड़ो जेल में जा कर, जर, जमानत कराओ, वह भी जमानत हो न हो। वकील मनमाना रुपया लेते हैं, मुकदमे की तारीखें पड़ती हैं। उस दिन भीतर भीतर रोने लगे थे चौथी।कृ
बहुत ही गड़बड़ हो गया है उनसे पर रामभरोस की बात टाल देते तो और गड़बड़ हो सकता था। अचानक चौथी भावविभोर हो गए।कृ
‘भला हो रामभरोस का कि उन्होंने दारोगा को संभाल लिया। दारोगा जैसे आया था वैसे ही वापस थाने लौट गया। कुछ नहीं कर पाया सहपुरवा में आ कर। संभव है रामभरोस ने दारोगा की सेवा किया हो, कुछ माल-पानी दिया हो पर पता नहीं चला। अनुमान है कि रामभरोस ने दारोगा को माल-पानी जरूर दिया होगा। बिना माल-पानी लिए सहपुरवा से खाली हाथ दारोगा काहे लौटता?
‘गुरू भी किसिम किसिम के होते हैं,
गुरू मानने के लिए पूरी स्वतंत्राता होती है चाहे
जिसे मान लो गुरू, हर काम के लिए गुरू चाहे काम जैसा भी हो’
रामभरोस का सन्देश पाते ही जोतिया की माई बखरी पर हाजिर हो गई। एक दिन पहले ही जोतिया के माई को बखरी पर बुला लाने के लिए रामभरोस ने सहेजा था रामदयाल को। बखरी पर उस दिन वह नहीं आ पाई थी। वह अपने घर का काम निपटा रही थी।
सूरुज देवता ढलान पर थे। सो उनकी चमक थोड़ी कमजोर हो चुकी थी। उस कमजोर चमक में भी जोतिया की माई चमक रही थी। संभव है वह रामभरोस की बखरी की चमक के कारण चमक रही हो या रामभरोस की चमक के कारण पर वह चमक रही थी। संभव है सुरुज देवता ही उसे चमका रहे हों। रामभरोस की बखरी तो चमकों वाली थी ही। उनकी बखरी पर उतरते ही सुबह भी बखरी की चमक पीने लगती और रात चमकती तो नहीं थी पर गुदगुदी जगा देती थी। वैसे भी वहां जो लोग होते थे वे भी चमकने लगते थे। इसी तरह बखरी पर चमकों का खेल चलता रहता था।
रामभरोस अपनी आरामदेह कुर्सी पर पसर कर हुए बैठे हुए अलग किस्म की चमक छोड़ रहे थे। जोतिया की माई को रामभरोस ने देखा फिर तो उनके चेहरे की चमक ने जोतिया के माई के चेहरे को ढंक लिया। वह भी उनकी तरह चमकने लगी। रामभरोस के चेहरे की चमक पीते हुए जोतिया की माई ने भी रामभरोस कोे देखा। फिर तो वहां चार ऑखें मिल कर एक दूसरे की चमकों को देखने लगीं। चारो ऑखों के रंजक खेल में कहना मुश्ष्किल कि जोतिया की माई रामदयाल के चमक में थी या रामदयाल जोतिया के माई की चमक में थे। कौन किसकी चमक चूस रहा था? शायद दोनों एक दूसरे की चमक चूसने लगे थे।
जोतिया की माई को लगा कि ये वही रामभरोस हैं जिन्होंने उसे कभी अपने बगीचे में पटक दिया था। रामभरोस को महसूस हुआ कि यह वही जोतिया की माई है जिसने बतौर गुरू पहली बार उन्हें महसूस कराया था कि देह अद्भुत चीज होती है फिर तो वे उसी में गोता लगाने लगे थे। जोतिया की माई को देखते ही रामभरोस समाधिस्थ हो गए।
रामभरोस की बखरी पर पहले से ही चौथी बैठे हुए थे। रामभरोस सतर्क हो गए.कृ ‘चौथी के सामने समाधिस्त होना ठीक नहीं.’कृ क्या कर रहे हैं वे?कृ
तत्काल रामभरोस ने चौथी को सहेजा...बखरी से हटाने के लिएकृ
‘कोई काम हो तो बताओ चौथी! नहीं तो कल आना फिर बातें करेगे।’
जोतिया की माई को देखते ही चौथी समझ गये थे कि अब रामभरोस दूसरी दुनिया के सैर पर निकल कर देहाघ्यात्म में चले जाएंगे सो यहां बैठे रहना ठीक नहीं, वे फौरन वहां से चल दिए। रामभरोस यही चाहते भी थे कि चौथी चले जांये फिर जोतिया के माई से अन्तरंग बातें हों देह की समाधि और साधना वाली।
रामभरोस ने जोतिया के माई से पूछा....कृकृ
‘का रे जोतिया की माई! आज कल का हो रहा है? तूं कभी बखरी पर देखाती नाहीं हो, का बात है, नाराज हो का?
‘हम तो घरै पर हैं सरकार! टैम नाही मिलता है कि एहर आंए। आप भी तो खोज खबर नाहीं लेते हैं। आज सनेश मिला और हम चले आए। अब तो हमारी तबियत भी खराबै रहती है, कब्बौं कुछ तो कब्बौं कुछ लगा रहता है।’ं
‘का हुआ रे! तेरी तबियत को?’
रामभरोस ने पूछा जोतिया की माई से...कृ
‘तबियत को का होना है सरकार! वैसा तो हरदम होता रहता है हर महीनवै में अउर का?’
जोतिया की माई ने गंभीर हो कर रामभरोस को बताया....कृ
रामभरोस उसके मजाक को नहीं समझ पाये कि वह का बोल रही है उन्होंने हमदर्दी दिखाते हुए पूछा।
‘का होता रहता है हरदम रे! हरदम बिमारय रहती हो का?’
जानने के लिए जोतिया के माई से रामभरोस दुबारा पूछे...कृकृ
‘का होता रहता है हरदम रे? हम कुछ समझे नाहीं....
जोतिया की माई ने बिना संकोच रामभरोस को बताया। वैसे भी उसे संकोच तो करना नहीं था, बस वह लजाने का अभिनय कर रही थी। उसे तो रामभरोस को एहसास कराना था कि जोतिया की माई अब भी देह वाली है तथा उसकी देह में मन को गहरे तक धकेलने वाली वाली ऊर्जा है। इस उमर में भी वह समाधिस्त हो सकती है। रामभरोस तो उसे विशेष काम से बुलाए थे, काम आसान नहीं था जिसे वे आसानी से जोतिया की माई को बता देते। उसके लिए जोतिया की माई को उन्हें मोहना था फिर तो वे उसे मोहने वाले लक्ष्य पर आ गये।
‘का रे! जोतिया की माई तूं अपना नेग वगैरह ले गई कि नाहीं, तोहार साड़ी और बिलाउज आ गया है, उसे आजै ले जाओ।’ हां रे तोहसे हमारा एक काम है, तोहें ओके कराना है हर हाल में। ओकरे लिए चाहे जितना खर्चा पानी लगे, बूझ गई न।’
‘काम का है सरकार! आप हुकुम तो कीजिए....’
काम काज का मतलब जोतिया की माई अच्छी तरह से जानती थी। उसका मतलब होता था कि वह किसी तरह से रामभरोस के लिए एक स्वस्थ, सुन्दर, देखनहरू मेहरारू का इन्तजाम करे, दू चार रात के लिए, चाहे एकै रात के लिए ही, पर करे जरूर।
जोतिया की माई जब से सहपुरवा में आयी है, तब से यही ध्ंाधा कर रही है। पहली बार ही उसे रामभरोस मिल गये थे। वह रामभरोस के बगीचे में काम कर रही थी फिर क्या था रामभरोस ने अपना पौरुष दिखाना शुरू कर दिया। वह कितना भागती, भाग कर कहां जाती, घना बगीचा सूर्यास्त के बाद वाला ताजा अन्धेरा, वह भागते भागते भहरा गई तब से लेकर आज तक भहरा ही रही है। कभी किसी के बिस्तरे पर तो कभी किसी के। रामभरोस उसे पहले बुलवा लिया करते थे तब उसकी देह अपने तन तथा मन के रयासन वाली थी। वह नहीं भूलती कि भहराने के बाद रामभरोस ने एक बार उससे कहा था....
‘जोतिया की माई तूं हमार गुरू है रे!’
गुरू तो जोतिया के माई को रामभरोस मानते ही थे। जोतिया के माई को खुद नहीं पता कि वह कितनों की गुरू है। आखिर किस किस से पूछे, एक दो होते तो पूछ भी लेती। जोतिया की माई जानती है कि रामभरोस का विरोध करने से कोई फायदा नहीं। उसका पति उसकी सुरक्षा नही कर सकता। उसका पति सीधा है, सरल है, जिसने जैसा समझा दिया उसे देववाणी मानने वाला। वह रामभरोस से नहीं लड़ सकता। अपने पति की भी सुरक्षा उसे ही करनी है साथ ही साथ अपनी भी। गॉव में केवल रामभरोस ही तो नहीं हैं, कई लोग हैं जो इठलाती देह को खिलौना बनाने के लिए तीनतिकड़म किया करते हैं। रामभरोस की गोद में जाने का मतलब फिर कोई उसे गुड़िया नहीं बना सकता। बेचारी का करती थक-हार कर रामभरोस के अन्तःपुर वाले दरबार की परजा बन गई।
जोतिया की माई अपनी बिटिया जोतिया की देह देख कर परेशान परेष्शान है। वह सयानी हो रही है। उसकी देह रोज ही कसावों की तरफ बढ़ रही है, देह के सुगठित उभारों से वह खूबसूरत दिखने लगी है। उसकी देह पर फुदकने की कोशिश में मनचले जुट गए होंगे। जोतिया को मनचलों तथा मनबढ़ो से सुरक्षित बचाने की चिन्ता उसे परेशान करती रहती है। गॉव में सबसे बड़े मनचले तो रामभरोस ही हैं।
वह जानती है कि जोतिया को भी कागज वाली ही नहीं बलखाती देह वाली गुड़िया रामभरोस बना देंगे उसके माफिक। फिर वह किसी की नहीं रह पाएगी। एक बार की ही तो बात होती है। रामभरोस के सामने वह भहरा गई तो भहरा गई, पर वह जोतिया को नहीं भहराने देगी इसके लिए उसे चाहे जो करना पड़े। वह सहपुरवा छोड़ कर भाग जाना चाहती है, पर भाग कर कहां जाए? सभी जगह तो रामभरोस और रामदयाल हैं। जोतिया को देख कर कहने वाले कहते हैं कि वह रामभरोस पर पड़ी है। उसेे भी लगता है कि वह रामभरोस से ही जनमी है। उस समय उसका संबध भी पति के अलावा केवल रामभरोस से ही था। वह रामभरोस के साथ रह कर उनका हर काम करते हुए आज तक कर्जा पटा रही है। कर्जा पटाते पटाते खुद भी पट गई पर कर्जा नहीं पटा। वह रामभरोस को जब भी देखती है ऊपर से मोहने का काम करती है पर मन के भीतर गरियाती है। उसका मन करता है कि उनके मुंह पर पिच्च से थूक दे। वह अब ऊब चुकी है, कोई नहीं जानता उसका दरद, उसके होने का अन्तर्द्वन्द। इस बार रामभरोस के पूछने पर उसे लगा कि रामभरोस जोतिया के बारे में कह रहे हैं। जोतिया के बारे में नहीं कह रहे हैं तो का हुआ आज नहीं तो कल जोतिया के बारे में जरूर कहेंगे। ओन्है लाज शरम तो है नाहीं। पर भगवान की कृपा थी कि रामभरोस ने फेकुआ की मेहरारू के बारे में उससे कहा कि उसे पटाना है चाहे जैसे। राजी हो गई तो ठीक नहीं तो किसी न किसी दिन उसे उठवाना पड़ेगा। जोतिया की माई रामभरोस से इनकार नहीं कर सकती थी। रामभरोस से इनकार का मतलब कई तरह की बर्बादी, गॉव से खदेड़ा जाना, टोनही का ठप्पा लगवाना। गॉव की एक दो औरतों ने रामभरोस की बात नहीं माना था, उनकी गोदी में भहराने से इनकार कर दिया था। रामभरोस ने गॉव में डंका पिटवा दिया कि वे टोनहीं हैं फिर गॉव वालों ने ही उन औरतों को मार-पीट कर गॉव से खदेड़ दिया। अब तक पता नहीं चला कि वे कहॉ हैं, नदी, नाले में डूब कर मर-बिला गई होंगी!
जोतिया की माई डर गई रामभरोस से, ये जो कहें वैसा ही करो नहीं तो रात ही में वे जोतिया को उठवा लेंगे फिर वह का करेगी? ऐसा तो संभव नहीं कि रामभरोस को जोतिया के बारे में नहीं पता होगा, जरूर पता होगा। वे सहपुरवा की माटी तक सूंघते रहते हैं फिर कैसे संभव है कि उनके तक जोतिया की गंध न पहुंची हो।
जोतिया की माई सवधान रहा करती थी रामभरोस से, अगर रामभरोस की ऑखें जोतिया पर टिक जांएगी फिर तो वह उनसे साफ साफ बोल देगी। का करने जा रहे हैं सरकार! जोतिया तो आपकी ही बिटिया है, का आप अपनी बिटिया को ही गोदी में झुलांएगे? उसी की देह पर साधना करेंगे? पर ऐसा समय जब आएगा तब आएगा, अभी तो फेकुआ की मेहरारू के बारे में रामभरोस बतिया रहे हैं। उसे बहुत सावधानी से रहना होगा सो जैसा रामभरोस कह रहे हैं वैसा ही करना चाहिए। बहुत कुछ सोच समझकर जोतिया की माई ने रामभरोस से ‘हां’ कह दिया था कि फेकुआ की मेहरारू को बखरी में लाने के लिए वह पूरी कोष्शिश करेगी।
‘पता नहीं क्या है कि जनप्रतिरोध
खुदबखुद तनेन हो जाते हैं किसी को पता
नहीं चला कि कैसे जनम गया सहपुरवा में जनप्रतिरोध?’
पंचायत भवन का शिलान्यास होते ही हरिजन बस्ती में कोकहाड़ मच गया। गॉव वालों से औतार को जो कहना था वे कह ही चुके थे। सुक्खू ने भी हरिजनों के चौधरी को बुलवा कर सारा वृतांत बता दिया था कि चौथी गवहां ने फेकुआ का कोला लवा लिया और औतार का पट्टा खारिज करा कर उस पर पंचायत भवन रामभरोस बनवा रहे हैं। हरिजनोें के चौधरी रामभरोस को जानते थे। उनके आतंक और स्वभाव के बारे में उन्हें सारा कुछ पता था। पुनवासी ने ही सुगिया के मामले में पंचायत किया था। उन्हें पता था कि सुगिया को उसके घर में से रामभरोस उठवा ले गये थे। उस पंचायत में औतार को दरी और भात माड़ की सजा मिली थी। औतार ने जैसे तैसे भात माड़ और दरी पंचायत को दे कर सजा भुगता था।
जमीनदारों के राज में हरिजनों की कौन सुनता था पर अब ऐसा नहीं है। पुनवासी चौधरी जानते हैं, उन्होंने निश्चित कर लिया है कि इस बार पहले की तरह नहीं होगा कुछ न कुछ करना होगा रामभरोस के खिलाफ। उनकी मनमानी नहीं चलने दी जाएगी। देश की आजादी की गंध पीकर पुनवासी बदल गये थे उन्हें लगने लगा था कि अब डर कर नहीं रहना चाहिए हालांकि उन्होंने स्वतंत्राता संग्राम में हिस्सा नहीं लिया था। पर उस संग्राम को देखा जरूर था। उनके सामने ही विजयगढ़ के राजा लक्ष्मण सिंह को गिरफ्तार किया गया था और वे इन्कलाब जिन्दाबाद बोलते हुए गिरफ्तार हुए थे। गिरफ्तार होते समय उनके चेहरे पर तनिक भी शिकन नहीं थी, उनसे भाग चुका था डर, वे निर्भीक हो चुके थे। उनका चेहरा आजादी की चमक से अचानक चमक उठा था। बाद में पता चला कि अंग्रेजों ने लक्ष्मण सिंह को सुअरसोत के जंगल में गोली मार दिया था। लक्ष्मण सिंह का चेहरा आज भी याद करते हैं पुनवासी चौधरी, बात बात में कहा करते हैं....कृ
‘हमरे विजयगढ़ में तो एकै मरद थे, बाबू लक्ष्मण सिंह, लड़ गए थे अंग्रेजों से। पूरे छह महीने तक रामगढ़ रियासत में अंग्रेजों की एक भी न चली। कलक्टर को तो ऐसा झापड़ मारे थे कि वह भहरा गया था वहीं जमीन पर। उनके बाद तो विजयगढ़ में कोई मरद हुआ ही नाहीं।’
पुनवासी को अचानक लक्ष्मण सिंह ने जकड़ लिया। वे लक्ष्मण सिंह की तरह बोलने लगे, कड़क और ओजपूर्ण....
‘भाईयों जान लो जमीन किसी के बाप की नाहीं होती है। सब कुछ आदमी बना सकता है पर जमीन नाहीं बनाय सकता, नदी, पहाड़ कुछ भी नाहीं बनाय सकता। यह सब तो भगवान ने बनाया है, सभी के लिए कुछ लोगों के लिए नाहीं। सारी जमीन सरकार की है। सरकार ने ही औतार को जमीन का पट्टा दिया था। उसे रामभरोस कैसे खारिज करा सकते हैं। यह सब जो सहपुरवा में हो रहा है हमलोगों की कायरता और कमजोरी के कारण हो रहा है। एक बात और सोचिए आप लोग! अपने जॉगर से रामभरोस पंचायत भवन तो बनाएंगे नाहीं। उसे तो हमारे जैसे मजूरा ही बनांएंगे फिर काहे के लिए परेष्शानी है। एक काम करना है हमलोगों को, पंचायत भवन पर काम करने ही नाही जाना है फिर कैसे बनेगा पंचायत भवन। सभी मजूरों को पंचायत भवन के काम पर जाने से रोकना होगा, मजूरे मान भी जाएंगे। कोई नाहीं जाएगा पंचायत भवन के काम पर।’
बैठक में ढेर सारी बाते हुईं, बातंे सभी की वाजिब थीं। पंचायत भवन के निर्माण का काम रोकने के मुद्दे पर लोगों की आशंका थी कि मारपीट हो सकती है उसमें से उपस्थित लोगों ने कहा कि हम भी मार करेंगे अगर वे हमैं मारेंगे तो हम ओन्है नाहीं छोडेगे, हम लोग भी उन्हें मारेंगे जो हमैं मारने आएगा। बातें बहुत हुईं पर सभी बातांे से पुनवासी को क्या लेना देना था। सभी के द्वारा मान्य बात पर आखिरी फैसला हुआ कि पंचायत भवन किसी भी हाल में नहीं बनने देना है। इसके लिए चाहे जो करना पड़े। पंचायत में यह भी तय किया गया कि पहले हमलोग शान्ति से काम लेंगे अगर झगड़ा झंझट हुआ तो थाने पर रपट करेंगे। थाने पर गवाही देंगे, चन्दा इकठ्ठा करके मुकदमा लड़ेंगे, वे डंडा चलांएगे तो हम भी चलाएंगे जैसे हल चलाते हैं, उन्हें जोत कर पाटा दे देंगे। रामभरोस जैसे आदमी के कंट्रोल में रहने से अच्छा है कि जेल के कंट्रोल में रहा जाए वहां तो खाना भी मिलता है, जान की सुरक्षा भी रहती है। गॉव में रहो तो सरकार ख्याल नहीं करती जेल में रहने पर तो ख्याल करेगी ही। और इस गॉव में का है? बिना खाए मरो। पर अब नाहीं बहुत हो चुका, सहपुरवा में रहना है तो शान से रहना है।
हरिजनों की बैठक के बारे में शोभनाथ पंडित को कुछ भी पता नहीं था। कुछ आवश्यक समझ कर औतार को बुलाने के लिए शोभनाथ ने प्रसन्नकुमार को हरिजन बस्ती की तरफ भेजा था। प्रसन्नकुमार औतार को खोजते हुए हरिजन बस्ती में पहुंचा तब उसे मालूम हुआ कि पंचायत भवन के बाबत हरिजनों की बैठक हो रही है। औतार बिरादरी की बैठक में थे। बैठक गॉव के पोखरे पर हो रही थी। जहां बैठक हो रही थी प्रसन्नकुमार वहां जा पहुंचा। औतार को देखा कि वे बैठक में व्यस्त हैं। औतार ने इशारा भी किया जिसे प्रसन्नकुमार समझ गया कि सभी लोग उसे बैठक में बैठने के लिए बोल रहे हैं। प्रसन्नकुमार बैठक में शामिल हो गया। हरिजन सोच नहीं सकते थे कि उनकी बैठक में प्रसन्नकुमार बैठेगा उन्हीं लोगों के अगल बगल सट कर। वे तो यही जानते थे कि उनकी देह मालिकों को घिनाती है पर प्रसन्नकुमार बहुत सहजता सेऔतार के बगल में बैठ गया। पुनवासी चौधरी प्रसन्नकुमार को अपनी बिरादरी की बैठक में बैठा देख हुमक पड़े....कृ
‘भइया जी आप बताएं हमलोग का करें, औतार की जमीन पर रामभरोस पंचायत भवन बनवा रहे हैं।’
‘देखिए चौधरी साहेब, बैठक वगैरह करने से कुछ नहीं होने वाला। बैठकें तो होती रहती हैं। पर होता कुछ नाहीं है। हम तो सोच रहे हैं कि पंचायत भवन पर आप लोग काम करने ही न जांए और न किसी मजूर का जाने दें। समझ लीजिए काम हो गया। रामभरोस अपने जांगर से पंचायत भवन तो बना नहीं पाएंगे। पंचायत भवन का काम एक दिन का है भी नहीं, बुनियाद पड़ेगी, फिर दीवार उठेगी। कम से कम महीने भर का समय लगेगा। अगर आप लोगों ने वहां काम करना बन्द कर दिया फिर समझ लीजिए काम हो गया। इस बैठक में काम बन्द करने का प्रस्ताव पास कराइए चौधरी साहेब कि पंचायत भवन पर काम करने कोई मजूर नहीं जाएगा।’
प्रसन्नकुमार का इस तरह बोलना आग में घी डालना था किसी ने वहां कहा भी कि ‘बांस के जरी बांसय जामता है’ यानि जैसे शोभनाथ पंडित वैसे ही उनका लड़का भी।
किसी दूसरे ने प्रसन्नकुमार की नियति पर सवाल उठा दिया....कृ
‘प्रसन्नकुमार ईहां ऐसा बोल रहे हैं पर रामभरोस के सामने होने पर घिघियाने लगेंगे, मुकर जांएगे, फिर कुछ नहीं करेंगे।’
प्रसन्नकुमार अपनी आलोचना सुन रहा था और महसूस कर रहा था कि हजारों साल की यातनाओं ने इन्हें अविश्वासी बना दिया है। हजारों साल की प्रताड़ित लोग भला कैसे विष्वास कर सकते हैं प्रताड़कों पर? सभी ने इन्हें ठगा है, इनकी उदारता का बेजा लाभ उठाया है, मारा-पीटा है, गालियॉ दी हैं। इनके दिल दिमाग से विश्वास का गायब होना कोई अचरज नहीं।
पर किसी को नहीं पता कि प्रसन्नकुमार चाहता क्या है? प्रसन्नकुमार चिन्तित हो गया। उसे कोई न कोई प्रमाण देना पड़ेगा तभी लोग मानेंगे। पर वह जानता है कि उसमें गरीबों के साथ चलने की ऊर्जा है। अभी उसने कोई ऐसा उदाहरण भी तो प्रस्तुत नहीं किया है जो साबित करता हो कि उसका पक्ष गरीबों का है। वह वहां मीटिंग में का बोलता इस बाबत, फिर भी बोला....कृ
‘आप लोग मेरे ऊपर सन्देह कर रहे हैं यह सही है। आपलोगों को मेरे जैसांे पर सन्देह करना भी चाहिए। पर सभी एक तरह नहीं होते, अब तो समय आ गया है, आपलोग देख लेंगे कि आपलोगों के साथ मैं हूं या नहीं हूं।’
प्रसन्नकुमार खुद को नहीं रोक सका वह आवेश में आ गया, उसका चेहरा लाल हो गया। वह हरिजनों के आतंकित मन का विश्लेषण करते हुए घर वापस लौटा। आज के समय में हरिजन किसी पर विश्वास नहीं कर सकते कितना खतरनाक समय आ गया है कि उन्हें किसी पर विश्वास भी करने नहीं दे रहा। हरिजनों का समाज पर अविश्वास शोषण और अत्याचार का ही सबूत है। वे शंकालु हो गये हैं जिसके कारण उनके पहचानने की शक्ति कमजोर हो गई है। वे उसे भी नहीं पहचान पा रहे हैं जो उनकी भलाई करना चाहता है जो दुश्मन हैं उन्हें क्या पहचानना? वे समाज को शक़ की निगाह से देखते हैं, सचाई भी तो यही है उन्हें हर मोड़ पा छला गया हैं। उनके साथ जीवन जीने के तमाम रास्तों पर किसिम किसिम की चालें चली गई हैं। उनकी तरक्की रोकने के लिए बन्द कमरों में छलावा पूर्ण योजनांए बनाई जाती हैं? अखबारों में उन पर होने वाले अत्याचारों को प्रकाशित करने में भी राजनीति की जाती है। किसिम किसिम की फर्जी जांच कमेटियां नियुक्त की जाती हैं। अंग्रेजी जमाने से यही क्रम आज तक चला आ रहा है। कहने को तो कहा जाता है कि सरकार सभी की है पर काम केवल अमीरों एवं लुटेरों का ही करती है। विश्वास और अविश्वास की लड़ाई में हरिजनों के विश्वास को छीन लिया गया है, केवल सांसे लेते हुए अब वे भगवान की प्रार्थनांए कर रहे हैं। उनके पास एक ही रास्ता बचा हुआ है भगवान की प्रार्थनाओं से खुद को सजाने, संवारने का। वे वैसा कर भी रहे हैं।
इधर उधर कर करा कर कुछ दिनों बाद पंचायत भवन का निर्माण रामभरोस ने प्रारंभ करा दिया। प्रसन्नकुमार और शोभनाथ पंडित पंचायत भवन का बनना सरकारी स्तर पर नहीं रोकवा सके हालांकि उन लोगों ने अपने स्तर से खूब पैरवी किया था फिर भी। प्रशासन भी खूब खूब होता है जो कुछ खास लोगों की ही सुनता है और उनकी बातों को गुनता है।
प्रसन्नकुमार ही नहीं रामभरोस के लड़के विभूति के मन मे भी काफी दुख था कि वे पंचायत भवन का निर्माण नहीं रोकवा सके। विभूति भी नहीं चाहता था कि औतार के पट्टे वाली जमीन पर पंचायत भवन बने पर वह अपने पिता का प्रत्यक्ष विरोध नहीं कर सकता था। पंचायत भवन निर्माण रोकवा सकने की ताकत उसके पास थी भी नहीं। विभूति और प्रसन्नकुमार को दुख इस बात का था कि उन दोनों पर हरिजन विश्वास नहीं कर रहे थे। हरिजन विश्वास करते भी तो क्यों? विभूति और प्रसन्नकुमार दोनों सवर्णों के लड़कों लफाड़ियों में शुमार थे। और विभूति तो रामभरोस का ही लड़का था सो हरिजन उस पर काहे विश्वास करते। बात साफ थी। रही बात प्रसन्नकुमार की तो वह भी नेता परेता तो था नहीं, एक सामान्य सा लड़का था। उसके पास लोगों का प्रभावित कर सकने की नेताओं वाली कला न थी।
प्रसन्नकुमार को नेता कहा भी जाता तो क्यों? वह नेता था भी नहीं और न ही नेताओं वाली उसके पास कला थी। वह रापटगंज में रह कर पढ़ता था। छन्नू या बेचन की चाय, पान की दूकानों पर भी वह नहीं जाता था जहां नेताओं का जमघट लगा करता था। खादी आवरणधारी भी नहीं था। उसकी फोटो भी अखबारों में नहीं छपती थी। उसका बयान कभी भी इस बाबत अखबारों में प्रकाशित नहीं हुआ था कि रापटगंज क्षेत्रा में और क्षेत्रों के मुकाबिले गरीबी अधिक है। सूखा पड़ने पर भी यहां सहायता कार्य नहीं चलाए जाते हैं। वह किसी दल विशेष का सदस्य भी नहीं था। भंाग खा कर रात भर बाजार में घूमता नहीं था। उसके पास यह भी कला नहीं थी कि देश की राजनीति को भंाग की गोली में भर ले और राजनीति, राजनीति चिल्लाता रहे। यहां तक कि उसे जार्ज फर्नाडिंस या अटल जी के जुकाम होने पर जुकाम भी नहीं होता था। वह ऊंच-नीच का भेद तो कत्तई नहीं जानता था। वह तो एक ऐसा आदमी था जो अपने समय में रहते हुए भी आदमी और आदमी में भेद नहीं कर पाता था। जाने कैसे किन सैद्वान्तिक आधारों के कारण वह सिर्फ यह जानता था कि सभी के खून का रंग एक ही तरह का लाल लाल होता है। चाहे वह किसी का हो, अमीर का हो, गरीब का हो। उसे इतना ही मालूम था कि आदमी को रोटी चाहिए। एक आदमी दूसरे आदमी का शोषण न करे और हर हाल में आदमी बना रहे। वह तो बस इतना ही जानता था। प्रसन्नकुमार ने तय कर लिया था कि औतार के पट्टे वाली जमीन की घटना को राजनीतिक रंग देना है इस काम के लिए जितना वह कर सकता है औतार के लिए करेगा और पट्टा को किसी भी तरह बहाल कराएगा। उसे पता था कि इस तरह की घटना केवल उसी के गॉव की ही नहीं है पूरे क्षेत्रा की है। प्रसन्नकुमार कोई विचारक नहीं था पर उसे पता है कि हरिजन और छोटे किसान हर जगह प्रताड़ित हैं। उन्हें किसी भी हाल में राजनीति की उदारता या अनुकंपा नहीं मिल रही। हरिजनों के बारे में कोई नहीं सोच रहा, कम्युनिस्ट भी जाने किस प्रकार की राजनीति कर रहे हैं, न उनके पास सरकार का विरोध करने की ताकत है और न ही प्रार्थनाआंे वाली विनम्रता है।
प्रसन्नकुमार देख चुका था कि ईमरजेन्सी लगने के कारण देश के विरोधी नेताओं को अचानक एक झटके में जेल में डाल दिया गया। बिना वारंट के विरोधी नेताओं की गिरफ्तारियां की र्गइं जो अब भी जारी हैं। पुलिस जब चाहती है जिसे चाहती है उठा लेती है। सड़कें पुलिस की हो गईं हैं। उन पर उनके बूट दौड़ रहे हैं। प्रसन्नकुमार देख रहा था कि सरकारी घोषणांए यूं ही हवा में उछलने वाली चीजों की तरह उड़ रही हैं। भूमि आवंटन तथा नसबंदी में होने वाले अत्याचारों को वह जानता था।
प्रसन्नकुमार ने एक पर्चा छपवाया जिसमें हरिजनों व दलितों पर होने वाले अत्याचारों के विवरण थे। पर्चे में सारा कुछ साफ साफ लिखा था, पर्चा पढ़ने से ऐसा लग रहा था कि उसे किसी प्रताड़ित आदमी ने ही छपवाया होगा।
‘आज हम छोटी बिरादरी के लोग, छोटी जोत के लोग एक दूसरे से अलग थलग होते जा रहे हैं। हममें मतभेद भी बढ़ते जा रहे हैं। कुछ थोड़े से लोग जो शक्तिमान हैं, वे बड़ी जोत व जाति वाले हैं। वे हमारी फूट का नाजायज फायदा उठा रहे हैं। लगता है ‘जोत’ और ‘जाति’ का पुराना रिश्ता है। जिसकी जोत बड़ी, उसकी जात भी बड़ी। हमारी स्वतंत्राताएं छीनी जा रही हैं। भूमि आवंटन में धांधलियां की जा रही हैं। जोर जबरदस्ती नसबन्दियां करवाई जा रही हैं। हमारे सम्मानित नेताओं को जेलों में बन्द कर दिया गया है और किया जा रहा है। ऐसे में हम क्या करें? रास्ता क्या है? चुनाव, संघर्ष, क्रांति, प्रतिक्रांति, संपूर्ण क्रांति या 47 के पहले वाली बात, फिर वही सवाल, शासन कौन करेगा? जनता या कुछ लोग। कमजोर या ताकतवर? कौन करेगा शासन? भूख और भोजन के बीच की दूरी नापने में परेष्शान जनता या खाए, अघाए, महलों में अय्याशी करने वाले लोग। अंग्रेजी मिजाज के देशी लोग या भारतीय मिजाज के गरीब लोग। आखिर शासन कौन करेगा हम पर? हम अपनी पीठ तथा पेट किसके सामने दिखायंे, उस पर किस हुकूमत का नाम लिखंे, सियाही से लिखें या खून से?’
पर्चा नकली नाम से छपा था आपात काल में उसे असली नाम से छपवाने का साहस प्रसन्नकुमार के पास नहीं था।
पर्चा बंटने लगा, प्रसन्नकुमार गॉव गॉव घूम कर सरकारी नीतियों की आलोचना करने लगा। वह लोगों तक पहुंचने लगा, लोग उसके पास आने लगे, जनता से जुड़ाव वाला एक नये किसिम का राजनीतिक सिलसिला शुरू हुआ। वह लोगांे की बातें सुनता, लोग उसकी बातें सुनते। लोगों का विश्वास उस पर बढ़ने लगा, लोग उसके साथ होने लगे। कहीं उसे नफरत और आलोचना भी मिलती पर वह निराश नहीं होता। उसे जनता का प्यार मिलता और दुलार भी जो उसे ताकत देती। प्रसन्नकुमार महसूस कर रहा था कि लोग उसके सामने उसकी हां में हां तो मिला देते थे पर कुछ लोग ही उसके साथ चल पाते थे। अपने गॉव से निकल कर दूसरे गॉव में जाने के लिए अक्सर नौजवान लड़के ही तैयार होते थे और उसके साथ चल भी पड़ते थे। प्रसन्नकुमार हार मानने वालों में से नहीं था। वह अपने अभियान को हर हाल में जनता का अभियान बनाना चाहता था।
किसी और को भले ही न मालूम हुआ हो कि पर्चा किसने छपवाया था पर रामभरोस को मालूम हो गया था। रामभरोस को अच्छा मौका मिला शोभनाथ पंडित से निपटने का। पर्चा के बहाने शोभनाथ ही नहीं प्रसन्नकुमार को भी वे जेल भिजवा सकते हैं। फिर तो रामभरोस कृपालु जी से मिलने रापटगंज चले गये।कृ
कृपालु जी अपने घर पर ही थे, मिल गये। रामभरोस को देखते ही उन्होंने प्रसन्नता ओढ़ लिया....कृ
‘आइए, आइए रामभरोस जी, आपका ही इन्तजार कर रहा था। यहां तो आनंद ही आनंद है विरोधी दलों के कुछ लोग जो नेता बना करते थे, साले बाहें फुलाते थे उन सालों को जेल भिजवा दिया है। उनमें जो साले चतुर तथा नमक हराम थे वे फरार हो गये हैं। पर जांएगे कहां? एक न एक दिन तो पकड़ाएंगे ही।
‘वाह वाह ’ रामभरोस ठठाए
कुछ देर बाद रामभरोस ने मुह खोला....कृ
‘पर कुछ लोग अभी भी बाकी रह गए हैं पंडित जी, उनकी गिरफ्तारी नहीं हो पाई है। जबकि वे कमीनई कर रहे हैं।’
कुर्ते की बांह चढ़ा कर कृपालु जी ने रामभरोस से पूछा....कृ
‘कौन बाकी रह गया है हो?’
‘अरे पंडित जी! वही शोभनथवा का लड़कवा, का तो नाम है उसका, अरे प्रसन्नकुमरवा।’’ रामभरोस ने कृपालु जी को बताया...
‘का बात कर रहे हैं रामभरोस जी, वह तो पढ़ने लिखने वाला लड़का है, रापटैगंज में रहता है, उसको का फसाना ईमरजेन्सी में’
वैसे भी प्रसन्नकुमार कृपालु जी के दूर के रिश्ते में आता था। वह कृपालु जी की फूआ का लड़का था। रामभरोस तो गॉव से सोच कर चले थे कि वे कृपालु जी को राजी कर लेंगे और वे प्रसन्नकुमार को गिरफ्तार करवा देंगे पर कृपालु जी तो प्रसन्नकुमार के मामले में लोच खा रहे थे। वे नहीं चहते थे कि प्रसन्नकुमार गिरफ्तार किया जाए। रामभरोस ने चालाकी दिखाया और अपनी जेब से प्रसन्नकुमार वाला पर्चा निकाला।
‘पंडित जी यह पर्चा पढ़िए, इसमें सरकार की तेरही कर दी गई है। जरा पढ़िए इसे, वह पूरे क्षेत्रा में इहै पर्चवा बांट रहा है, जनता पर इसका बहुत ही बुरा असर पड़ रहा है। लोग कह रहे हैं कि कृपालु जी का नातेदार है का होगा इसका’आपकी बदनामी हो रही है पंडित जी....’
कृपालु जी ने तो उस पर्चे को पहले ही देख लिया था उनके लिए वह नई बात नहीं थी। नई बात सिर्फ यह थी कि उसे प्रसन्नकुमार ने छपवाया था। कृपालु जी खुद पता लगा रहे थे कि इस तरह का पर्चा किसने छपवाया और कौन बटवा रहा है। रामभरोस के बताने पर वे खामोश हो गये। वे सोच भी नहीं सकते थे कि उनकी रिश्तेदारी का कोई लड़का गिरफ्तार होकर जेल जाये। पर रामभरोस कम गोटीबाज नहीं थे उन्होंने ऐसा पैतरा बदला कि कृपालु जी को रामभरोस की बात माननी पड़ी। प्रसन्नकुमार को डी.आई.आर. का मुल्जिम बनवाने के साथ साथ उसे गिरफ्तार करवाने की पैरवी भी, कृपालु जी को करनी पड़ गई।
पर्चा बटवाने के पहले ही प्रसन्नकुमार अपना घर छोड़ चुका था। उसे पता था कि रामभरोस उसे गिरफ्तार करवाने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे। एक दिन वह विभूति के साथ रापटगंज गया था फिर दोनों वहां से कहां गायब हो गये सारा कुछ अज्ञात था। रामभरोस को पता नहीं था कि वे दोनों कहां हैं और क्या कर रहे हैं।
पर शोभनाथ पंडित को पता रहता था कि प्रसन्नकुमार कहां है और क्या कर रहा है। हालांकि पंडिताइन को पता नहीं था। प्रसन्नकुमार अपने पिताजी से बराबर संपर्क बनाए रखता था उन्होंने उससे कहा भी था कि अपने बारे में बराबर बताते रहना।
‘यह जो प्रषासनिक स्तर पर लूट और
आतंक का मामला है अपनों की ही लूट और आतंक
का मामला है किसी गैर के नहीं, पर इस सचाई को कौन समझे?’
कृपालु जी की सक्रिय पैरवी के कारण प्रसन्नकुमार को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस सक्रिय हो गई और प्रसन्नकुमार को जगह जगह खोजने लगी। फिर भी प्रसन्नकुमार पुलिस को नहीं मिला। पुलिस पर कृपालु जी का दबाव था ही सो पुलिस ने फटाफट शोभनाथ पंडित के घर की कुर्की करना अपना लक्ष्य बना लिया। पुलिस के लिए कुर्की करना बहुत आसान होता है। पुलिस कुर्की करके खुद को सुरक्षित बचा लेती है फिर पुलिस पर सवाल नहीं उठ पाते।
दो चार दिन बाद, सात आठ सिपाहियों के साथ दारोगा जी सहपुरवा आ धमके। दारोगा का कहना था कि शोभनाथ पंडित के घर की कुर्की का उन्हें आदेष्श मिला है और वे उनकी कुर्की करने के लिए आये हैं। गॉव में इधर उधर पैतरा मारने के बाद दारोगा जी सीधे शोभनाथ के घर पर टपक पड़े। शोभनाथ पंडित घर पर ही थे। उन्होंने दारोगा जी को नमस्कार किया फिर जलपान के लिए निवेदन किया पर दारेगा जी ने नकार दिया।
‘मुल्जिम के घर का जलपान उन्हें नहीं करना है, वे सरकारी काम करने आए हैं जलपान करने नहीं।’
‘प्रसन्नकुमार आपका लड़का है नऽ उसके खिलाफ वारंट है आपने उसे कहां छिपाया हुआ है। सच सच बता दीजिए नहीं तो हम आपके घर की कुर्की करेंगे, यह देखिए कुर्की का आदेश।’
ष्शोभनाथ पंडित चौंक गये का बोल रहा है दारोगा? मेरे लड़के को काहे गिरफ्तर करेगा? का किया है उसने?’ शोभनाथ पंडित ने दारोगा से पूछाकृ
‘का किया है मेरे लड़के ने? काहे के लिए कुर्की का आदेश है, अगर मेरे लड़के ने अपराध किया है तो उसे गिरफ्तार कीजिए। मेरे घर की कुर्की काहे करेंगे?’
दारोगा हसने लगा, हसते हुए ही बोला....कृकृ
‘अरे पंडित जी वह डी.आई.आर. का मुल्जिम है, सरकार विरोधी पर्चा बंटवा रहा है, इसे देखिए, यह वही पर्चा है। सरकार विरोधी पर्चा बंटवाना अपराध है? पता नहीं कहां वह भाग गया है, खोजने पर नहीं मिल रह है और न ही उसने अब तक सरेन्डर किया फिर तो कुर्की ही न होगी वह भी आपके घर की ही, उसका कहॉ घर है?’
‘हां आप ठीक बोल रहे हैं। आपका कहना है कि प्रसन्नकुमार ने अपराध किया है तो उसके घर की कुर्की कीजिए, मेरे घर की कुर्की काहे करेंगे आप? यह कौन सा कानून हुआ? अपराध करे कोई और कुर्की हो किसी दूसरे घर की।’
ष्शोभनाथ पंडित जी तो पंडित जी थे उन्होने दारोगा को उलाहा....कृ
सहपुरवा के लोगों ने डी.आई.आर. का नाम कभी नहीं सुना था। यह का हो सकता है, कौन सा अपराध है यह? कतल, डकैती, फौजदारी, बलवा, बलात्कार, राहजनी आदि का नाम तो गॉव वालों ने सुना था पर डी.आई.आर. का नाम कभी नहीं। दारोगा जी के साथ रामभरोस भी थे। शोभनाथ पंडित रामभरोस का मुंह ताकने लगे। रामभरोस का ही खेल होगा प्रसन्नकुमार को डी.आई.आर. में फसवाने वाला। ष् शोभनाथ पंडित से नहीं रहा गया तो उन्होंने दुबारा दारोगा से पूछा....कृ
‘मेरे घर की कुर्की काहे करेंगे आप, अपराध प्रसन्नकुमार ने किया है मैंने तो नही किया हैं। बेटे के अपराध की सजा बाप को यह कैसा न्याय है दारोगा जी।‘
दारोगा तो दारोगा वह अपनी रौ में आ गयाकृउसके साथ कानून था, वह रौ में काहे नाहीं आता? रौ में आने की ही तो उसे ट्रेनिंग दी गई है। गुस्सा करना, मारना, पीटना इसी काम की तो उसने ट्रेनिंग लिया है। दारोगा तो केवल इतना ही जानता है कि अपराधी न मिले तो उसके मॉ बाप को थाने पर बिठा लो, उसके घर की कुर्की कर लो, उसका अपना घर न हो तो उसके बाप के घर की कुर्की कर लो।
‘बक बक जीन करो, प्रसन्नकुमरवा को हमारे हवाले कर दो नहीं तो गांड़ में डंडा कर देंगे, अभी हम शराफत से बतिया रहे हैं।’
पुलिस के अपने नियम और कानून होते हैं। वे नियम कुछ ज्ञात होते हैं तो बहुत कुछ अज्ञात होते हैं। अज्ञात कानून के अनुसार कुछ सिपाही शोभनाथ के घर में घुस कर घर की तलाशी लेने लगे। घर में प्रसन्नकुमार नहीं मिला, मिलता भी कैसे घर में वह था ही नहीं। फिर सिपाही घर का सामान बाहर फेंकने लगे। शोभनाथ पंडित के घर का सामान देखते देखते ही बाहर फेंक दिया सिपाहियों ने। वहां गॉव के लोग थे, शोभनाथ के हितुआ, मितुआ थे, गॉव की सभ्यता थी, आदर्श थे, सिपाही कुल आठ थे। आठ ही काफी थे। कानूनी सरकस करने में पुलिस को भला कितनी देर लगती?
ष्शोभनाथ पंडित के घर का सामान बाहर फेंक देने के बाद शोभनाथ के बैल, गाय, भैंस सब थाने की ओर ले जाए जाने लगे।
ष्शोभनाथ पंडित अवाक थे, सारा गॉव अवाक था, वे कुर्की देख रहे थे, ऐसी ही होती है कुर्की। घर का सारा सामान निकालो और उसे फेंक दो तथा थाने ले जाओ। प्रसन्नकुमार की मां और बहनें घर में रो रही थीं और पंडित शोभनाथ अपनी बर्बादी का कुर्कीनुमा दृश्य देख रहे थे। युग बदल रहा था और स्थितियां बदल रहीं थीं, नागरिक आजादी को ठेंगा दिखाया जा रहा था पर रामभरोस के लिए यह सब मनोरंजन था। उनके लिए वही पुराना वाला समय था। सामंती मिजाज वाला, चाहे जिसे मारो पीटो, प्रताड़ित करो। शोभनाथ की बर्बादी से भीतर भीतर वे हसियां बटोर रहे थे। शोभनाथ का बर्बाद हो जाना उनके लिए महज एक खेल था ‘जो उनसे टकराएगा चूर चूर हो जाएगा’ जैसा। शोभनाथ के घर का सारा सामान उनके घर के सामने कुछ ही देर में कूड़े करकट की तरह फेंक दिया गया। ऐसे ही तो होती है कुर्की। पुलिस की कुर्की का काम खतम हो गया। पुलिस ने आनन फानन में कुर्की का काम निपटा लिया। उस समय का दृश्य ही ऐसा था कि शोभनाथ पंडित का दिल दिमाग भी कुर्क हो चुका था।
‘कहां जाएगा साला प्रसन्नवा, भाग कर आएगा ही थाने पर, थाने पर जब वह हाजिर होगा वह दृश्य देखने लायक होगा।’
ष्शोभनाथ पंडित ने प्रसन्नकुमार की मां को रोता हुआ देख कर बहुत तेज डांटा था....कृ
‘काहे रो रही हैं पंडिताइन, प्रसन्नवा चोरी, डकैती नाहीं किया है। आपको नहीं पता कि इस समय देश के सारे विरोधी नेता जेल में बन्द कर दिए गए हैं। आपातकाल का जो सच है उहै सब तो भइया ने छपवाया है पर्चा में। भइया गिरफ्तार हो जाएगा तो का बिगड़ जाएगा, वह देश के लिए लड़ रहा है, अन्याय के खिलाफ लड़ रहा है। यह तो गर्व की बात है। समझ रही हैं नऽ। आपको तो भइया के काम पर खुष्श होना चाहिए और आप रो रही हैं। वह तो वही काम कर रहा है जो सरकार को करना चाहिए था। सरकार इसीलिए उससे नाराज है कि वह सरकार का काम क्यों कर रहा? जनता के लिए किया जाने वाला उसका काम सरकार को बुरा लग रहा है, इसी लिए पुलिस उसे खोज रही है। आखिर वह कौन होता है जनता का काम करने वाला, जनता का काम करने के लिए तो सरकार होती है, जनप्रतिनिधि होते हैं, वह तो केवल एक नागरिक है। एक नागरिक की इतनी हिम्मत कि वह जनता का काम करे।’
ष्शोभनाथ की बातें सुन कर दारोगा ने मुंह फेर लिया। शोभनाथ पंडित चुप थे जरूर पर उनके माथे पर चिन्ता की लकीरें नहीं थी। दमक रहा था उनका चेहरा जैसे उनके चेहरे परआजादी वाले संघर्ष के वास्तविक संकल्प नाच रहे हों।
ष्शोभनाथ पंडित के घर का सामान कुर्क कर लेने के बाद शोभनाथ पंडित को दारोगा बताता गया कि अगर प्रसन्नकुमार, दो, तीन दिन के भीतर थाने पर या अदालत में हाजिर नहीं हुआ तो कुर्क किया गया सारा सामान नीलाम करा दिया जाएगा।
आपसी तनातनी चाहे जैसे और जिससे हो पर गॉव का कोई लूट लिया जाए, वह भी थाने के द्वारा, उसे अपमानित किया जाए, गॉवों में ऐसे कामों को सहन नहीं किया जाता पर यही सहपुरवा में हो रहा था। गॉव में कुछ लोग थे जो इसे अच्छा नहीं मान रहे थे पर उनके हाथ बंधे हुए थे। मुंह सिले हुए थे। उनके हाथों में प्रशासन की हथकड़ियॉ थीं। चौथी गवहां हालांकि रामभरोस के आदमी थे पर उन्हें भी पुलिस द्वारा शोभनाथ का उत्पीड़न बुरा लग रहा था और वे दुखी थे। वे शोभनाथ पंडित से मिलना चाहते थे पर किस मुंह से मिलें। गॉव के अधिकांश लोग शोभनाथ के दरवाजे पर ही थे, उनके सामने ही कानून का तमाशा हो रहा था। उन्हें लग रहा था कि कानून बड़ा नहीं होता बड़े होते हैं रामभरोस जैसे लोग जो कानून को अपनी मुठ्ठी में बॉधे रहते हैं। कानून तो बहुत ही छोटा होता है, इतना छोटा कि रामभरोस जैसों की मुठ्ठी में बॅध जाता है। अगर अपराध किया है तो प्रसन्नकुमार ने किया है, उसे दण्ड दो। शोभनाथ के पसीने की कमाई को कूड़े की तरह उनके घर के बाहर क्यों फेंक दिए? सारे अनाज को एक में मिला दिया, दरवाजे, खिड़कियॉ तोड़ दीं, गालियॉ दी गईं शोभनाथ को। क्या यही सब करने के आदेश देता है कानून, कि घर दुआर गिरा दो, गल्ले को कूड़ा की तरह माटी में मिला दो, मारो पीटो, गालियॉ दो। क्या यही कानून होता है जनता के लिए और जनता वाला तथा जनता के द्वारा।
दारोगा के जाने के बाद जो सामान व्यवस्थित किया जा सकता था उसे गॉव वालों ने व्यवस्थित कर दिया। जो सामान कुर्क नहीं हुआ था उसे घर में रख दिया गया। गनीमत थी कि चारपाई और बिस्तरों को दारोगा ने कुर्क नहीं किया था। कुछ खाद्यान्न भी दारोगा के आतंक से बच गया था, उसे एक में मिलाया नहीं गया था। दारोगा ने घर में तोड़-फोड़ भी नहीं करवाया था कुछ दरवाजे तथा खिड़कियों को ही उखाड़ा था। दारोगा गाय, बैल और भैंसों को हंकवा कर थाने ले गया था। नुकसान में यह था कि सिपाहियों ने सारे अनाज को एक में मिला कर माटी में फेंक दिया था। चावल, गेहूं और धान को माटी में से अलग अलग निकालना कठिन काम था करीब करीब मुश्ष्कल था।
ष्शोभनाथ का सारा कुछ बर्बाद कर दिया गया था फिर भी हताश और निराश नहीं थे शोभनाथ पंडित।
कुर्की की घटना हरिजन बस्ती में अलग रूप धर लेगी किसी को अनुमान नहीं था। हरिजनों ने मान लिया था कि पंचायत भवन के निर्माण का विरोध करने के कारण ही प्रसन्नकुमार पर डी.आई.आर. लगाया गया है। यह सारा खेल रामभरोस ने खेला है। उन्हीं के कारण शोभनाथ के घर की कुर्की भी की गई है।
रामभरोस एक तीर से दो निशाना लगा रहे हैं, औतार और शोभनाथ दोनों पर। हरिजनों का साथ देना प्रसन्नकुमार के सामने कई तरह का बवाल लेकर आया। रामभरोस शोभनाथ पंडित को परेष्शान करना चाहते हैं, प्रसन्नकुमार को झूठे मुकदमे में फसा कर रामभरोस अपनी ताकत दिखा रहे हैं, और कुछ नहीं। हरिजन बस्ती में कुछ गिने चुने लोग ऐसे भी थे जिनकी आवाज दूसरी थी। उन्हें सहपुरवा के पूरे घटनाक्रम में प्रसन्नकुमार का षडयंत्रा दिख रहा था। आखिर वह हरिजनों के लिए ऐसा काहे कर रहा? उन्हें प्रसन्नकुमार पर सन्देह था। इसका जबाब हरिजन नहीं खोज पा रहे थे। ऐसा तो होता नहीं कि हरिजनों के लिए कोई सवर्ण खुद तवाह हो जाए। फिर भी बहुमत रामभरोस की निन्दा कर रहा था और प्रसन्नकुमार के साथ था।
ष्शोभनाथ के घर की कुर्की हो गई जिसे होना ही था। शोभनाथ का सारा सामान कुर्क कर लेने के बाद पुलिस सहपुरवा से चली गई थी। सहपुरवा बचा रह गया था, रामभरोस बचे रह गये थे, उनका आतंक बचा रह गया था। पर गॉव की संस्कृतिकृ उसका क्या? वह तो बनती बिगड़ती रहती है। वैसे भी संस्कृति की तो कुर्की होती नहीं। कुर्की खुद में संस्कृति होती है दमन वाली। किसी ने पुलिस का प्रतिरोध नहीं किया तो क्या हुआ, प्रतिरोध करने की संस्कृति गॉवों में होती भी तो नहीं, फिर कौन करता प्रतिरोध? ऐसा तो गॉवों में होता रहता है। शोभनाथ पंडित अपनी बर्बादी देखते रहे, उनके चेहरे पर पुलिस का आतंक और डर कत्तई नहीं था। गॉव भर परेशान और स्तब्ध, पर रामभरोस नहीं, वे मस्त मस्त थे कि उन्हें अपना रोब दिखाने का एक अच्छा मौका मिला।
ष्शोभनाथ गॉव के अपने हितैशियों को समझा रहे थे....कृकृ
‘का हो गया हो औतार! मेरा बेटा जेल चला गया तो... जेल में तो रोटी खाना सब सरकारी है,अब इससे अधिक क्या चाहिए किसी को। जेल में जिन्दगी भी तो सुरक्षित रहती है। वहां मारपीट का कोई डर नहीं होता। मन तो मेरा भी कर रहा है। एक बार जेल हो आते, मौका भी मिला था आजादी वाली लड़ाई में पर का बतांए, बाबू जी नहीं जाने दिए, मुझे भुसौल में छिपवा दिए।’
ष्शोभनाथ की बात सुन कर औतार चकराए हुए थे।
आपातकाल की घोषणा पहले ही हो चुकी थी। पूरे देश में कांग्रेस विरोधी नेताओं की गिरफ्तारियां हो चुकी थीं तथा उन लोगों की भी जो कांग्रेस विरोधी रहे हों न रहे हों पर कांग्रेसियों के विरोधी थे। बिना किसी डर भय के गॉव का हाल-चाल लेने के लिए विभूति और प्रसन्नकुमार एक दिन सहपुरवा आये हुए थे। उस दिन विभूति अपने घर नहीं गया वह प्रसन्नकुमार के ही घर पर रुक गया था। उन दोनों ने सरकार की जनविरोधी नीतियों एवं कार्यक्रमों के बारे में गॉव के साथियों को आगाह कर दिया था। रामभरोस की योजना के बारे में भी दोनों ने शोभनाथ पंडित को बताया था कि वे क्या कर सकते हैं। पूरी कोशिश करेंगे कि गिरफ्तारियां हों और चुन चुन कर हमारे अपने लोगों को गिरफ्तार करवाएंगे। सबको आगाह करने के बाद ही दोनों गॉव से रात ही में भाग गए थे।
ष्शोभनाथ पंडित प्रसन्नकुमार को मना करना चाहते थे और समझाना चाहते थे कि आग में न कूदो पर वे क्या समझाते वह तो उनके समझाने से बहुत आगे जा चुका था। जहां किसी भी तरह का समझाइस काम नहीं करती, वहां से उसका लौटना मुश्किल था। मजबूर हो कर उन्होंने अपनी सहमति दे दी थी। वे समझ चुके थे कि प्रसन्नकुमार को अब नहीं रोका जा सकता है। इतना निर्देश अवश्य दिये थे कि जहां कहीं भी रहना संवाद बनाए रखना।
प्रसन्नकुमार भूमिगत रहते हुए भूमिगत नेताओं के बाहरी आदेशों की प्रतिक्षा में था क्योंकि उसके लोग बाहर थे जो प्रदेश स्तर के थे तथा आपातकाल का सक्रिय विरोध कर रहे थे। प्रसन्नकुमार दौड़-धूप कर अपने बिखरे साथियों से संपर्क साध रहा था तथा उन्हंे सचेत भी कर रहा था कि सरकार के आगे किसी भी हाल में नहीं झुकना है, भले ही हम लोग टूट जांएगे पर झुकेंगे नहीं। बाहर से कोई कार्यक्रम भी नहीं आ रहा था कि आगे क्या करना चाहिए, निराशा तथा हताशा की स्थिति थी।
आपातकाल में वे लोग जो आपातकाल के पहले कागजी रूप से सरकार के मुखर विरोधी थे और अखबारों के जरिए बयानबाजियां किया करते थे सबके सब आपातकाल का समर्थक होते जा रहे थे। प्रसन्नकुमार को ऐसे लोगों से घिन होने लगी थी। कुछ ही लोग बचे हुए थे जो सरकार का विरोध कर रहे थे तथा सक्रिय थे। आपातकाल के दसवें पन्द्रहवें दिन के भीतर ही बहुत से लोग सरकारी बन चुके थे और घूम घूम कर सरकार की जय जय भी करने लगे थे। लगता था कि सारे समाजवादी संकल्प भहरा चुके हैं और मार्क्स मर गया है उसके साथ साथ लोहिया और गांधी का सत्याग्रह भी दफन हो चुका है। लोग गुंबारे की तरह हवा में उड़ने लगे हैं जिसमें भय की हवा भरी हुई है।
आपातकाल के काले समय में पता नहीं चल रहा था कि लोहिया वाली ‘जिन्दा कौमें’ इस देश में हैं भी कि नहीं हैं। पता नहीं वे कौमें कहां बिला गई हैं। उनमें से अधिकांश लोग तो जेलों में बन्द किए जा चुके थे। वे जेल से बाहर होते तब तो सरकारी अत्याचार के खिलाफ खड़े होते! एक ओर सरकारी अत्याचार शोषण और दमन, दूसरी ओर वुद्धिजीवियों में मरघटी सन्नाटा, प्रसन्नकुमार राजनीतिक परिदृष्य को देख कर परेष्शान परेशान था पर वह कर क्या सकता था? जो कर सकता था कर ही रहा था अपनी सीमा के भीतर।
विजयगढ़, जसौली ही क्या पूरा देश भीतर से कुछ और बाहर से कुछ दीख रहा था। पूरे क्षेत्रा में केवल सरकारी लोग ही दीख रहे थे तथा दूसरी दिखने वाली चीज थी सरकारी लोगों का आतंक। सरकारी लोगों का उस समय एक ही काम था चाहे जैसे भी सरकार विरोधी लोगों या अपने विरोधियों को डी.आई.आर. में फसवना। वे इसमें सफल थे इस काम में पुलिस उनके आगे पीछे डोल रही थी। वह एक ऐसा समय था जो पुलिस ही नहीं अन्य अधिकारियों के विवेक और प्रतिभा को छीन चुका था। वे कठपुतली माफिक सरकारी नाच नाच रहे थे। ‘जेकर राज ओकर दोहाई’ वाले वसूलों पर अधिकारी चल रहे थे। वैसे भी अधिकांश अधिकारी जय बोलने में माहिर होते ही हैं पर कुछ ऐसे भी कर्मचारी और अधिकारी थे जो दुखी थे तथा जय बोलने वाली परंपरा से अलग थे। ऐसे लोग हालांकि बहुत कम थे, पर थे। वे संवेदित थे तथा समझ रहे थे के गलत हो रहा है। आखिर कोई लोकतांत्रिक सत्ता निरंकुश कैसे हो सकती है? कैसे थोप सकती हैआपातकाल जनता पर?
थानेदारों की तो बन आई थी। वे भूल चुके थे कि जिन्हें झूठे मुकदमे में वे फसा रहे हैं वे भी उन्हीं के परिवार के सदस्य हैं। समान आर्थिक और सामाजिक स्थिति के लोग हैं फिर उन्हें वे क्यों गिरफ्तार कर रहे हैं? वे अपनी वर्गीय चेतना भूल चुके थे और अपना ही माथा फोड़ने में जुटे थे। दारोगाओं को अगर यह पता होता कि वह अपने हल्के में जो कर रहा है वैसा ही उसके मूल निवास वाले हल्के में भी उन्हीं की तरह का कोई दूसरा दारोगा कर रहा होगा। वहां भी उसके जैसा ही कोई दारोगा होगा वह भी वही कर रहा होगा जो वे यहां कर रहे हैं। फिर क्या हो रहा है यह सब? पर दारोगाओं के पास इतनी दूर की समझ कहां से होती, वे तो अपने में डूबे हुए लोग होते हैं। उन्हें अपने अलावा कोई और नहीं दिखता। यह जो प्रशासनिक स्तर पर लूट और आतंक का मामला है अगर ठीक से समझा जाए तो अपनों की ही लूट और आतंक का मामला है किसी गैर का नहीं पर इस सचाई को कोई समझ नहीं रहा।
प्रसन्नकुमार वैतनिक कर्मचारियों पर आंसू बहाता है, आन्तरिक विलाप करता है, क्या अपने आत्म की हत्या करके ही सरकारी बना जा सकता है या दूसरे विकल्प भी हैं। प्रसन्नकुमार कई तरह की सोचों में डूबा हुआ है वह उस अन्तर्विरोध को नहीं समझ पा रहा है कि लोग देह बेचने के साथ साथ दिमाग बेचने का भी काम आखिर क्यों कर रहे हैं? वह बिके हुए दिमागों में फस गया है जबकि किसान अपना धान और गेहूं भी नहीं बेच पा रहा है, कोई न कोई तिलिस्म है जरूर। प्रसन्नकुमार माथा पकड़ लेता है और खुद को तमाम तरह की सोचों से बाहर निकालने की कोशिश करता है।
अचानक उसकी आंखों के सामने प्रशासनिक क्षमताओं की बौद्विक ताकतों का विवरण किसी फिल्म जैसा घूमने लगता है....कृकृ
आई.ए.एस.,पी.सी.एस., कमिश्नर, कप्तान, तहसीलदार, दारोगा, अध्यापक, प्रधानाचार्य, संचालक, जवान, व्यवस्थापक, संस्तुति, प्रार्थना पत्रा, मुकदमा, अदालत, सोर्स, नौकरी, कंपटीशन, बड़ा मकान, छोटा मकान, फैक्टरी दर फैक्टरी, मकान दर मकान, उ.प्र., बिहार, राजस्थान, बुद्विजीवी, गरीब, शोषित, प्रताड़ित, विस्थापित, बाजार, सारा कुछ बेचो, दिल, देह और दिमाग कुछ भी, कुछ खरीद कर बेचो, कुछ बेच कर खरीदो, खरीदो और बेचो, अधिकार मांगो, स्वतंत्राता मांगो, रोटी मांगो और एक दिन अपना होना मांगो कि तूं हो कि नहीं, प्रसन्नकुमार उलझ जाता है और अपना माथा पीटने लगता है। वह करे तो क्या करे? हर ओर आग ही आग है, कुछ भी साफ और चिकना नहीं दिख रहा, चाहे जिधर जाओ जलना ही पड़ेगा।
प्रसन्नकुमार अपनी सोचों के अन्तर्द्वन्दों में फस जाता है वह नहीं समझ पाता है कि जीवन का मतलब क्या होता है? अचानक उसके मन में कविता सरीखी बात गूंजने लगती है।कृ
‘कुछ लोग, बहुत सारे लोग, उनमें आदमी कुछ ही लोग। उनकी आदतें भी खरीदी जा रही हैं, हम बिकाऊ हैं, हम बाजार में हैं और बाजार में मेरे साथ साथ मेरा चित्त और चेतना सभी बिकने के लिए खड़े हैं। हम बिके हुए हैं, हमारी सोच व चिन्तांए भी बिकी हुई हैं। हम उतना ही सोच व गुन पा रहे हैं जितना हमें सोचवाया जा रहा है, हमारी अपनी कोई सोच नहीं, हम बिके हुए सोच के लोग हैं।’
प्रसन्नकुमार की आंखें बन्द नहीं हैं खुली खुली हैं और उनमें कई तरह के फिल्म सरीखे चित्रा अपने आप तैरने लगे हैं, कहीं किसी कोने से भगत सिंह आ रहे हैं तो कहीं से सुभाष चले आ रहे हैं। फिर अचानक दृश्य बदल जाता है उन लोगों की चेहरों से कुछ चीजें गायब हो जाती है फिर वहां चन्द्रष्शेखर की मूंछ, भगत सिंह का हैट और सुभाष की टोपी ही बची रहती है। गांधी जी भी कहीं से टपक आते है फिर कहीं खो जाते हैं अपना चश्मा छोड़ कर। प्रसन्नकुमार गांधी का चश्मा अपने आंख पर चढ़ा लेता है। वह समय को गांधी की ऑख से देखना चाहता है पर उसे हर ओर अन्धेरा ही अन्धेरा दिख रहा है। गॉधी जी के चश्मे का लेन्स खराब हो चुका है। वह गांधी का चश्मा उतार फेंकता है। इसमें कुछ नहीं दिख रहा। उसका सपना तथा अनामंत्रित दृश्य अचानक सब खतम हो जाता है और वह फिर प्रसन्नकुमार में तब्दील हो जाता है। उसके पास अब न तो भगत सिंह वाला हैट है, न चन्द्रषेखर वाली मूंछें हैं, न गांधी वाला चश्मा है, फिर भी कुछ न कुछ करना है। क्या करना है पता नहीं, केवल करना है बस इतना ही।
‘भूख और भोजन की दूरी पाटी जा सकती है
सहभागी प्रबंधन से तथा असहयोग आन्दोलन भी चलाए जा सकते हैंकृ’
पुलिस प्रसन्नकुमार को तलाश रही थी। वह अपने कार्य क्षेत्रा में ही कहीं छिपा हुआ था। प्रसन्नकुमार किस क्षेत्रा में सक्रिय है इस बारे में कुछ लोगों को ही जानकारी थी जो उसके अभियान से जुड़े हुए थे या कुछ ऐसे लोगों को जो अभियान के लिए आर्थिक सहायता दिया करते थे। प्रसन्नकुमार देखने मेंअदृश्ष्य था पर सहपुरवा के अदृश्ष्य नहीं था। उसने सहपुरवा के मजूरों व कमकर जनता को समझा दिया था कि पंचायत भवन पर मजूरी नहीं करना है, जिसे मजूर समझ चुके थे। पंचायत भवन के काम पर मजूरी न करके ही पंचायत भवन के निर्माण को रोका जा सकता है। हरिजन बस्ती के लोग भी अपने स्तर से कोष्शिश करने लगे थे कि पंचायत भवन पर कोई मजूर काम करने न जा पाए। जब से पंचायत भवन को बनने से रोकने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं, तब से लेकर अब तक उस पर एक भी ईंट की चुनाई नहीं हो सकी है। मजूरों ने पंचायत भवन के निर्माण से खुद को अलगिया लिया है। पंचायत भवन के निर्माण कार्य से मजूरों का विरत रहना यह अलग तरह का असहयोग आन्दोलन था जिसे सहपुरवा ही नहीं पूरा बिजयगढ़ पहली बार देख रहा था। पठ्ठ जवार के लोग भी देख रहे थे। चतुर किस्म के कुछ लोग मजूरों के असहयोग को दूरगामी प्रभाव वाला मान रहे थे। वे भविष्य के प्रति आशंकित थे। तब क्या होगा जब मजूरे हल जोतने से इनकार कर देंगे। आने वाले दिनों में ऐसा ही होगा हल जोतने वाला कोई नहीं रहेगा।
प्रसन्नकुमार ने एक और काम किया था। उसने सभी मजूरों को जो रामभरोस के थे उन्हें भी राजी कर लिया था कि वे रामभरोस के काम से जबाब दे दें। वही हुआ, रामभरोस के मजूरों ने रामभरोस को काम से जेठ दशाहरा के दिन जबाब दे दिया था कि उन्हें उनका काम नहीं करना है। मजूरों के जबाब देने से रामभरोस परेष्शान थे कि ऐसा कैसे हो गया? सारे मजूरों ने एक ही दिन कैसे काम करने से इनकार कर दिया? रामभरोस के समझाने तथा मनौव्वल करने, रामदयाल के डंडा भाजने के बाद भी रामभरोस के मजूरे उनका काम करने के लिए राजी नहीं हुए। रामभरोस के पास मजूरों को दुबारा से काम पर लगवाने का कोई दूसरा रास्ता नहीं था सो उन्होंने मजूरों पर बकाए का हिसाब करने की धमकी दिया। रामभरोस जानते थे कि उनका मजूरों पर काफी रुपया बकाया है जिसे वे नहीं चुका सकते। पर यह धमकी भी बेकार गई, धमकी से उनके मजूरे नहीं डरे। कोई मजूर टस्स से मस्स नहीं हुआ। यह रामभरोस की सहपुरवा में सबसे बड़ी और पहली हार थी। मजूरों के पास उनका काफी रुपया बाकी था। क्षेत्रा के अलिखित नियमों के अनुसार यह था कि मजूरों को जो भी अपने काम पर लगाएगा वह पहले के मालिक के बकाये का भुगतान करेगा तभी उन्हें काम पर रख पाएगा। ऐसा अलिखित व स्वीकार्य नियम सामंतो में बहुत पहले से प्रचलित था। सालों से निर्वाध चली आ रही इस परंपरा के मजूर भी आदी थे। अपने पुराने मालिक के कर्जे के बकाए के रुपए को नए मालिक से वे चुकता करवाते थे, फिर नए मालिक का काम पकड़ते थे। कोई न कोई मालिक मिल जाता था जो पहले मालिक का बकाया चुकता कर देता था। क्योंकि सभी को मजूर चाहिए होता था। वह जमाना मशीनों वाला था भी नहीं, मशीन के नाम पर कहीं कहीं केवल ट्रेक्टर हुआ करता था और पंपिंग सेट। खेत की जोताई के अलावा भी बहुत सारे काम ऐसे हुआ करते थे जिसे बिना मानव श्रम के नहीं निपटाया जा सकता था। सो मजूरी करने वाले श्रमिकों की जरूरत सभी को पड़ा करती थी।
रामभरोस का मजूरांे पर काफी बकाया था। किसी के पास हजार रुपया और गल्ला बकाया था तो किसी के पास पांच सौ रुपया था तथा गल्ला बकाया था। रामदयाल का लोहबन्दा हरिजन बस्ती में चमकने लगा। बहुत अर्से के बाद रामदयाल ने लोहबन्दा उठाया था। रामभरोस को भरोसा था कि कोई भी क्षेत्रा में ऐसा नहीं है जो उनके चौदहो मजूरों को काम पर लगा लेगा। मजूरों पर बकाया रुपया लौटा पाना तो किसी के वश का नहीं? किसी के पास इतना न तो रुपया है और न गल्ला ही। ये मजूरे जाएंगे कहां? लौट कर उन्हीं के काम पर आएंगे आज नहीं तो कल।
रामभरोस का आतंक मजूरों के रखने के बाबत भी कम नहीं था। रामभरोस के डर के कारण उनके मजूरों को लोग काम पर नहीं लगाते थे। कुछ लोग हिम्मत करके रामभरोस के मजूरों को हलवाही पर रखना चाहते पर उन पर कर्जे का बकाया इतना होता था कि लोग चुकता नहीं कर सकते थे, कर्जा चुकता करना उनकी क्षमता से बाहर होता था। प्रसन्नकुमार को जान पड़ा कि रामभरोस के मजूरों के काम का जोगाड़ नहीं हुआ तो यह जो मजूरों की हड़ताल है सब फुस्स हो जाएगी। मजूरों की रोजी-रोटी के सवाल को ले कर रामभरोस से लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। उनके मजूरों के काम दिलवाने के लिए विकल्प तलाशना जरूरी है जिससे प्रतिदिन उनके पास मजूरी आती रहे।
औतार, फेकुआ, बिफना, सुक्खू तथा कुछ खास लोगों को प्रसन्नकुमार ने गॉव के बाहर वाले अपने मकान पर बुलवा लिया था। उसने अपने पिता जी को भी बता दिया था कि रामभरोस के मजूरों को कहां काम दिलवाया जाए इस पर बातें होनी है, वे भी वहीं आ गये थे। प्रसन्नकुमार ने अपने पिता जी से विभूति के बारे में पूछाकृ
‘विभूति गॉव में नहीं आया था का ?’
‘का वह भी गॉव में आया था?’ प्रसन्नकुमार के पिता ने आश्चर्य से पूछा....
‘उसको अब तक यहां आ जाना चाहिए था, कुछ पर्चा भी बांटना है, पर्चा लाने के लिए रापटगंज मैंने ही उसे भेजा था। कहीं फस गया होगा, वह आ जाएगाकृ
जी! घबराइए नहीं।’
प्रसन्नकुमार ने अपने पिता शोभनाथ जी से बात कर लेने के बाद सीधे औतार से पूछा....कृ
‘अब क्या होगा औतार जी, रामभरोस के हलवाहों के लिए का इन्तजाम किया जाये, वे बेचारे मजूरी के बिना कैसे जिन्दा रह सकते हैं? हमलोगों के समझाने बुझाने पर रामभरोस का काम उन लोगों ने छोड़ दिया है। अब उनके लिए क्या करना चाहिए, क्या खाएंगे बेचारे, कुछ सोचिए, गुनिए आपलोग।
औतार काफी गंभीर हो गए। बात तो सही है, बिना मजूरी किए गुजर-बसर करना मुष्किल होगा। मजूरी जो मिलती है उससे भी जब पेट नहीं भर पाता है फिर बना मजूरी पाये कैसे भरेगा पेट? कैसे चलेगा घर? उनका दिमाग काम नहीं कर रहा था। औतार जानते थे कि क्षेत्रा का कोई आदमी रामभरोस की डर से उनके मजूरों को अपने काम पर नहीं रखेगा, फिर दूसरा रास्ता का है? बाहर के लोग शायद काम पर रख लें पर कौन घर घर जा कर पूछेगा कि आपको मजूरों की जरूरत है का? आप काम पर रखेंगे आदमी को, कौन पूछेगा गॉव गॉव जा कर। मजूर तो बेचारे खाए बगैर मर जाएंगे।
चिन्तित तो प्रसन्नकुमार भी कम नहीं था पर वह सोच नहीं पा रहा था कि इस संकट का हल कैसे निकाला जाए, सभी के सभी वहां मौन बैठे हुए थे। सबका मौन तोड़ा प्रसन्नकुमार के पिता जी ने। उन्होंने आश्वस्त किया...कृ
‘चार पांच आदमी का जोगाड़ हो जाएगा, पर सभी का नहीं’
प्रसन्नकुमार ने दूसरा रास्ते का प्रस्ताव दिया....कृकृ
‘बाबू जी इससे काम नहीं चलेगा, दो चार मजूरों को काम पर लगा देने से। बात तो तब बनेगी पिताजी! जब रामभरोस के सभी मजूर किसी का काम न करें, हमलोगों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ाई लडते रहें और घर में बैठ कर आराम से खाते रहें।’
‘ऐसा कैसे होगा, काम भी न करो और घर बैठकर खाते रहो, ऐसा नहीं हो सकता, ऐसा सोचना बेकार है।‘
जो भी स्कीम बनाना हो जल्दी बना लेना चाहिए। रामभरोस चुप लगाकर बैठने वालों में नहीं है। वह कोई जोगाड़ कर रहा होगा कि गॉव में पुलिस आ जाए और सभी को गिरफ्तर कर ले। तुम जल्दी से यहां का काम निपटा कर भागो, ऐसा करने में ही खैर है। यह समय आराम से पंचायत करने का नहीं है।
जल्दी जल्दी बैठक का काम निपटा लिया गया। प्रसन्नकुमार भी जानता था कि रामभरोस उसे गिरफ्तार करवा सकते हैं। बैठक में तय किया गया कि आन्दोलन से जुड़े सभी मजूरों व जोतदारों पर सहयोग राशि लगा दी जाए। मजूरों के लिए उनकी मजूरी में से आधे सेर अनाज की राशि तथा जोतदारों के लिए एक एक सेर की राशि ली जाए। सारी राशि इकठ्ठा हो जाने पर रामभरोस के मजूरों में बराबर बराबर बॉट दिया जाए। मजूरों की मजूरी के लगभग लगभग राशि इकठ्ठा तो हो ही जाएगी। थोड़ा बहुत जो कम होगा उसे पिता जी पूरा कर देंगे। ऐसा करने से गॉव के मजूरों में विश्वास बढे़गा कि वे अकेले ही रामभरोस से नहीं टकरा रहे हैं बल्कि उनके साथ और भी लोग हैं जो रामभरोस से टकरा रहे हैं। यह संकल्प लेना ही होगा कि रामभरोस के पास काम करने के लिए किसी भी कीमत पर उन मजूरों को नहीं भेजना है।
वहां बैठे सभी लोगों को प्रसन्नकुमार का प्रस्ताव उचित लगा और वे अपनी सहमति दे दिए। शोभनाथ पंडित ने अपने स्तर से क्षमतानुसार सहयोग करने का वादा किया।
बातचीत समाप्त हो जाने के बाद प्रसन्नकुमार भागने की तैयारी में था कि विभूति आ गया। उसे भी पूरी योजना की जानकारी दी गई। शोभनाथ को यह खटक रहा था आखिर विभूति पर प्रसन्नकुमार इतना विश्वास क्यों कर रहा है। यही बात औतार को भी खटक रही थी पर प्रसन्नकुमार को कौन रोके, वही सारी योजना का क्रियान्वयन कर रहा था, निश्चित ही उसने कुछ विचार कर ही विभूति को अपने साथ जोड़े हुआ है। शोभनाथ और औतार इसी लिए प्रसन्नकुमार से कुछ नहीं बोले।
विभूति को कत्तई घबराहट नहीं हुई और न ही अकुलाहट। वह योजना सुन कर सहमत था जबकि वह जानता था कि सारी योजना उसके पिता के खिलाफ ही बनाई जा रही है। विभूति सोच नहीं सकता था कि प्रसन्नकुमार कभी भी अपने पिता के खिलाफ इस तरह की योजना बनाएगा फिर भी वह योजना से सहमत था और उसके प्रति सक्रिय भी। कोई भी सुनता तो चौंक जाता, ऐसी भी बात नहीं थी कि विभूति नालायक और विवेकहीन था। उसे अपने पिता का उत्तराधिकारी बनने की भी लालच नहीं थी। विभूति की समझदारी दूसरे ढंग की थी जो अपने पिता के अन्यायों के प्रति थी। पिता का वह सीधे विरोध कर नहीं सकता था पर जानता था कि उसके पिता सहपुरवा में गलत कर रहे हैं, सो वह प्रसन्नकुमार के साथ था। उसका मानना था कि अन्याय का विरोध हर हाल में किया जाना चाहिए और उसके पिता गॉव में सभी को एक दूसरे से लड़वाकर अन्याय कर रहे हैं। किसी को चैन से रहने नहीं दे रहे हैं।
विभूति अपने बाप की प्रतिलिपि नहीं बनना चाहता था। बाप का समर्थन करना और प्रसन्नकुमार का साथ न देना अपने बाप की प्रतिलिपि ही बनना होता।
विभूति जानता था कि सभी के लिए सामान्य साधनों एवं सुविधाओं की पहुंच आवष्यक है जो सहपुरवा में रामभरोस के आतंक के कारण वाधित थी। नमक, रोटी, चावल, दाल, ऑटा, कपड़ा, लत्ता,सीमेन्ट, ईंट, नौकरी, हर व्याक्ति के लिए जरूरी हैं पर पहले नमक, रोटी ही आवश्यक है, भूख और भोजन के बीच की दूरी पाटना जरूरी है। वह भी सभी के लिए। वह व्यक्तिगत रूप से आर्थिक प्रतियोगिता का विरोधी है और मानता है कि आर्थिक असमानता वाले समाज में कभी भी समानता जैसी चीज नहीं हो सकती। समानता तो तब आएगी जब लोगों का आर्थिक स्तर उठे और जिनका उठा हुआ है वह थोड़ा संकुचित हो। सरकारों को चाहिए कि गरीबों के आर्थिक स्तर को उठाए तथा अमीरों के आर्थिक स्तर को थोड़ा नीचे लाए।
बैठक समाप्त हो जाने के बाद दोनों किसी अज्ञात जगह पर चले गये। कहां चले गये, कब तक वापस लौटेंगे किसी को नहीं पता। न तो उन दोनों ने किसी को बताया ही कि वे कहां जा रहे हैं?। वे दोनों कहां हैं इसकी खबरें कुछ लोगों को ही मालूम होती थीं, वे ही कार्यक्रम बनाते फिर दोनों निष्चित स्थान पर हाजिर हो जाते।
बैठक समाप्त हो जाने के बाद औतार शोभनाथ आदि अपने अपने घर लौट आये। और प्रसन्नकुमार क्षेत्रा में कहीं चला गया। उसे पर्चों को बटवाना था जिसे विभूति रापटगंज से लेकर आया था।
‘यह अकेला पन जटिल और क्रूर इतिहास ने
उन्हें दिया है। वे पहले भी अकेले थे और आज भी हैं।
वे अपना अधिकार जानते ही नहीं थे सो जहां थे वहीं पड़े थे’
पंचायत भवन का निर्माण रूक गया था तो रूक गया था। हालांकि अपने स्तर से रामभरोस ने बहुत कोशिश की थी कि पंचायत भवन का निर्माण शुरू हो जाए पर ऐसा संभव नहीं हो पाया। क्षेत्रा के मजदूरों की तलाश की गई पर क्षेत्रा के मजूरों में यह बात फैली चुकी थी कि रामभरोस ने एक गरीब हरिजन औतार का पट्टा खारिज करा दिया है तथा उनके बेटे फेकुआ के कोले का धान लवा लिया है। जिसके कारण सहपुरवा के मजूर हड़ताल पर चले गए हैं और वे पंचायत भवन के निर्माण कार्य पर नहीं जा रहे है। उनका कहना है कि औतार की जमीन पर पंचायत भवन नहीं बनना चाहिए अगर उस पर बनेगा तो वे पंचायत भवन के निर्माण के काम पर नहीं जाएंगे। सहपुरवा के मजूरों की देखा देखी क्षेत्रा के दूसरे मजूरों ने भी पंचायत भवन पर काम करने से मना कर दिया था। रामदयाल कारिन्दा ने मजूरों को तमाम तरह का प्रलोभन दिया फिर भी मजूर काम पर नहीं लगे तो नहीं लगे। रामदयाल को रामभरोस ने झारखण्ड भी भेजा था कि वहां से मजूरों को वह ले आये और काम शुरू हो पर वहां के मजूर भी पंचायत भवन के काम पर नहीं आये। सहपुरवा के मजूरों की हड़ताल तमाम लोगों के लिए विचारणीय थी। खेती-किसानी वाले असंगठित क्षेत्रा के मजूरों की हड़ताल संभव नहीं है, ऐसा नहीं हुआ करता। हड़तालें तो कारखाना वाले संगठित क्षेत्रों के मजूर किया करते हैं पर खेती-किसानी वाले क्षेत्रा के असंगठित मजूर नहीं। असंगठित क्षेत्रा के मजूरों में हड़ताल की चेतना मालिकों को चौंकाने वाली थी और सहपुरवा के असंगठित कृश्षि मजूरों की हड़ताल सफल थी तो थी।
मजूरों के अभाव में पंचायत भवन के निर्माण के सारे रास्ते बन्द थे। परेष्शान हो कर रामभरोस ने कृपालु जी से बातें की। कृपालु जी रामभरोस की क्या मदत करते उनका भी काम-काज बन्द था। उनके मजूरों ने भी हड़ताल कर दिया था तथा जेठ दशहरा के दिन ही काम से जबाब दे दिया था। रामभरोस ने मजूरों की मजूरी बढ़ाने का वादा किया, टेस्ट वर्क के कामों पर लगे मजूरों से बातें की, पर सब बेकार। बढ़ी मजूरी के लालच ने भी पंचायत भवन पर काम करने के लिए मजूरों को आकर्षित नहीं किया।
सहपुरवा की बात हर तरफ फैल चुकी थी और बिना किसी प्रचार, प्रसार व शिक्षण के मजूरों ने स्वस्फूर्त तरीके से तय कर लिया था कि सहपुरवा के पंचायत भवन के निर्माण का काम उन्हें नहीं करना है। पंचायत भवन के काम पर मजूरों को लगाने का प्रयास रामभरोस का सफल नहीं हुआ। मजूरे गुन रहे थे कि पंचायत भवन पर काम करना औतार के साथ अन्याय करना होगा। वह अन्याय हम लोगों जैसे गरीबों के साथ ही होगा। फिर क्या था संक्रामक रोग की तरह हड़ताल बढ़ गई और मजूरों में चेतना प्रबल हो गई कि पंचायत भवन पर काम नही करना तो नहीं करना है। यानि एक तरह से गांधी जी का असहयोग आन्दोलन कि किसी भी हाल में जनविरोधी कामों में भागीदारी नहीं करना है बल्कि जनविरोधी कार्यों का प्रतिरोध करना हमारा नैतिक कर्तव्य है। आजाद भारत में मजूरों का असहयोग विचारणीय था जो सहपुरवा जैसे छोटे गॉव में प्रायोगिक रूप ले चुका था।
सरकारी काम पर लगे हुए मजूरों से रामभरोस के लोगों ने बातें की, उन्हें अधिक मजूरी देने का प्रस्ताव दिया फिर भी वे टस्स मस्स नहीं हुए। दूसरे स्थानों के मजूर भी काम पर नहीं आएंगे ऐसा आभास किसी को नहीं था। किन्तु सही जानकारी और समझाने के सही तरीके के कारण मजूरों में असहयोग की भावना उत्पन्न हो चुकी थी। इसी के लिए प्रसन्नकुमार निरंतर प्रयास कर रहा था। उसके कुशल नेतृत्व के कारण मजूरों के दिल दिमाग में अन्याय का प्रतिरोध करने की कुदरती ताकत आ गई थी। जो असंभव जैसा था। मेल मिलाप कुछ ऐसे कारण होते हैं जो लोगों का दिमाग बदल सकते हैं, दुश्मनी दोस्ती में, असहमति सहमति में, कभी भी ऐसा संभव हो सकता है। खेतिहर गरीब मजूरे एक नहीं हो सकते, वे एक दूसरे का साथ देना नहीं चाहते, सारे मिथक सहपुरवा में टूट कर खंड खंड हो चुके थे। मजूरों के पास रामभरोस तथा रामदयाल के पहुंचने के पहले ही विभूति और प्रसन्नकुमार पहुंच जाया करते थे। वे मजूरों को जागरूक करते थे कि सहपुरवा में ही नहीं हर जगह रामभरोस हैं और हर जगह औतार हैं, सभी जगहों की समस्याएं भी एक ही तरह की हैं, लड़ाई भी एक तरह से ही लड़नी होगी। मजूर जनता प्रसन्नकुमार की बातों से प्रभावित होती और उसका साथ देने का वादा करती। इतना प्रसन्नकुमार के लिए काफी था।
रामभरोस की खेती-बारी का काम रुक गया था। मजूरों की हड़ताल का दायरा सिर्फ पंचायत भवन तक ही नहीं था बल्कि वह रामभरोस के खेती-किसानी वाले काम को भी रोकने तक फैल चुका था। हड़तालियों के हड़ताल के दायरे में दूसरे जोतदार नहीं थे। उनका काम पहले की तरह से चल रहा था।
रामभरोस की ऑखों में प्रसन्नकुमार का चेहरा तैरने लगा था। वे गरियाते थे कि प्रसन्नकुमरवा ने सिर्फ उनका काम ही नहीं बन्द करवाया बल्कि उनके बेटे विभूति को भी उनसे छीन लिया। रामभरोस के सामने अपनी खेती की भी समस्या आ गई थी कि उसे कैसे सपराया जाएगा। पंचायत भवन जो नहीं बन पा रहा वह तो अलग समस्या है उससे उनकी प्रतिष्ठा तो गिरी ही पर खेती का काम भी नहीं हो पा रहा, यह काफी दुखद था उनके लिए।
रामभरोस कल्पनाओं में जीने लगे थे। प्रसन्नकुमार को वे किसी झूठे मुकदमे में फसाने की बात सोचते तो कभी कुछ तो कभी कुछ। डी.आई.आर. वाला मुकदमा भी तो प्रसन्नकुमार के ऊपर उन्होंने झूठा ही तो करवाया था दारोगा को मिला कर। रामभरोस असमंजस में थे तथा उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था सो परेशान परेष्शान थे। वे इस बाबत किसी अन्य से बातें भी नहीं कर सकते थे। बहुत सोच विचार के बाद उन्हें एक रास्ता सूझा जो उनके व्यक्तित्व के अनुरूप था। फिर तो उन्होंने रामदयाल कारिन्दा को सहेज दिया कि हरिजनों को उनके खेतों में से न चलने दिया जाए। उनके खेतों से कोई घास भी न काटे, न कोई गोइठा बीने, गाय-गोरू उनके खेत में चरने भी न दिए जांए। अगर कोई उनके आदेश की अवज्ञा करता है तो उसे तत्काल उनके सामने हाजिर कराया जाए।
रामभरोस चाहते थे कि किसी तरह गॉव में झगड़ा हो जाए फिर तो वे उस झगड़े को बलबा में बदलवा कर हरिजनों का फंसवा देंगे उनके साथ प्रसन्नकुमार को भी। पर सहपुरवा में ऐसा कुछ नहीं हो पाया। किसी हरिजन ने रास्ता रोकने, रामभरोस के खेत में से घांस न काटने देने जैसे कामों का विरोध नहीं किया। रामभरोस की इस रणनीति को प्रसन्नकुमार जानता था सो उसने गॉव के लोगों को समझा दिया था कि उन्हें किसी भी हाल में रामभरोस के लागों से झगड़ा नहीं करना है। सो किसी ने झगड़ा नहीं किया।
रामदयाल रामभरोस के खेत से ले कर हरिजन बस्ती तकअपना लोहबन्दा चमकाता रह गया पर कहीं भी किसी ने कुछ प्रतिरोध नहीं किया। मजूरों ने प्रसन्नकुमार के समझाने के कारण अपना मुंह सिल लिया था।
गॉव में झगड़ा लगाने के लिए एक दिन तो फेकुआ की औरत से भी रामदयाल ने छेड़ छाड़ किया फिर भी औतार तथा दूसरे हरिजन प्रतिक्रिया हीन बने रह गये थे। केवल एक सूत्रा कि चाहे जो भी करें रामभरोस ही करें, उनका विरोध नहीं करना है। पंचायत भवन नहीं बनने देना है, न उनकी खेती बारी होने देना है, यही विरोध हमलोगों का लक्ष्य होना चाहिए दूसरे तरह के विरोध हमलोगों के लक्ष्य में नहीं होने चाहिए। मजूरे अपने लक्ष्य के प्रति सावधान थे सो रामदयाल के भटकाने पर भी वे अपने लक्ष्य से नहीं भटक रहे थे। रामदयाल ने तो बहुत कोष्शिश किया कि मजूरे झगड़ा झंझट करें पर मजूर तटस्थ थे, तो थे।
रामभरोस के सभी हलवाहे अपने घर बैठे हुए थे। घर बैठ कर खाना खा रहे थे तथा उन पर किसी का काम न करने तथा मजूरी न मिलने का असर नहीं था। घर में बैठे रहने के बदले उन्हें प्रतिदिन मजूरी मिल जाया करती थी। औतार मजूरी देने का इन्तजाम कर दिया करते थे वैसे भी काम पर जाने वाले दूसरे मजूर एक एक सेर अनाज प्रतिदिन के हिसाब से औतार के पास पहुंचा दिया करते थे और औतार उसअनाज को रामभरोस के मजूरों में बांट दिया करते थे।
रामभरोस के मजूर गॉव में घूम घूम कर बिरहा गाते और रामदयाल के सामने ऐंठते हुए चलते। रामदयाल सारा कुछ रामभरोस को बताता पर रामभरोस क्या कर लेते मजूरों का? रोपनी के समय तक रामभरोस के मजूरों ने किसी का काम नहीं थामा। सहपुरवा के मजूरों का ऐसा संगठन देख कर रामभरोस परेष्शान थे उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था कि उनके सारे मजूरे उनका काम बन्द कर देंगे। रामभरोस को जान पड़ रहा था कि सब कुछ उनके विपरीत हो रहा है, जो पहले कभी नहीं हुआ था।
रामभरोस को बाद में मालूम हुआ कि उनके मजूरों को चन्दा इकठ्ठा करके मजूरी दी जा रही है। गॉव के मजूर भी चन्दा दे रहे हैं। मजूरों केे अलावा शोभनाथ तथा कुछ दूसरे किसान भी चंदा दे रहे हैं। रामभरोस ने पता लगाना शुरू किया कि वे दूसरे जोतदार कौन हैं शोभनाथ केअलावा जो चंदा दे रहे हैं पर उन्हें कैसे पता चलता? यह बात तो केवल शोभनाथ जानते थे या चंदा देने वाला ही जानता था। रामभरोस को यह भी मालूम हो गया था कि दूसरे गॉवों के लोग भी उनके मजूरों की बनी (मजूरी) के लिए चंदा दे रहे हैं। प्रयास करने के बाद भी रामभरोस चंदा देने वालों के नाम नहीं जान पाए।
सुक्खू और औतार के जिम्मे बहुत बड़ा काम था। वे हमेशा सतर्क रहा करते थे कि कोई मजूर रामभरोस की चाल में न फस जाए क्योंकि मजूर निश्छल होते हैं, वे मालिकों की चाल नहीं समझ पाते हैं और फस जाते हैं उनकी जाल में। रामभरोस इस समय परेशान हैं, अपना काम निकालने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं, धन दौलत उनके पास है ही। रूपयों की लालच किसे नहीं होती, रूपया मजूरों को तोड़ सकता है, भटका सकता है वसूलों से।
प्रसन्नकुमार के लिए आगे का समय काफी जटिल होता जा रहा था। एक तो पुलिस से बच कर रहना दूसरे गॉव में जागरूकता का कार्य करना दोनों कठिन हुआ जा रहा था पर वह हिम्मत नहीं छोड़ रहा था। प्रसन्नकुमार को सबसे अधिक खतरा रामभरोस से ही था उनके अलावा क्षेत्रा में कोई भी उसके विरोध में नहीं था। रामभरोस की टोह लेने के लिए प्रसन्नकुमार ने विभूति को उसके घर भेज दिया था कि वह अपने घर पर ही रहे अपने पिता के साथ। तथा उनके कररतूतों एवं रणनीति के बारे में लगातार उसे बताता रहे। विभूति कहीं भी आ जा सकता था, उसे कोई खतरा नहीं था। कम से कम उसके लिए रामभरोस कुछ गलत नहीं करेंगे यह तय था पर विभूति था कि वह प्रसन्नकुमार को अकेला छोड़ना नहीं चाहता था। उसने प्रसन्नकुमार को रोका भी और स्पष्ट रूप से कहा....कृ
’कहीं तुम मुझ पर सन्देह तो नहीं कर रहे हो कि मैं अपने बाप का साथ दूंगा, इसी लिए मुझे घर तो नहीं भेज रहे’
प्रसन्नकुमार अवाक, क्या बताए विभूति को। प्रसन्नकुमार ने तुरंत विभूति को गले लगा लिया और रूआंसा हो गया, लगा रो देगा...कृ
‘नहीं यार! ऐसा नहीं है, तुम्हारे पिता जी क्या कर रहे हैं उनकी क्या योजना है इसके बारे में कौन जानकारी जुटा सकता है तेरे अलावा, अगर कोई हो तो बताओ’
प्रसन्न कुमार की सलाह विभूति को ठीक लगी। रामभरोस की योजना के बारे में कोई दूसरा नहीं बता सकता था। अपने घर में वह जब रहेगा तभी तो उसे मालूम होता रहेगा पिता जी की रणनीति के बारे में।
वैसे भी प्रसन्नकुमार की बात विभूति टाल नहीं सकता था।
पूरे विजयगढ़ परिक्षेत्रा में भूमि आवंटन में धांधलियां हुई थीं इतना ही नहीं कुछ तपे हुए लोग आवंटित जमीनों पर कब्जा नहीं छोड़ रहे थे। प्रसन्नकुमार भूमिगत था फिर भी वह इस तरह की शिकायतों को प्रार्थना पत्रा के माध्यम से उच्चाधिकारियों के पास भिजवाया करता था। वह किसी सुरक्षित स्थान पर बैठ कर शिकायतें लिखता और अपने मित्रा वकील के जरिए उसकी पैरवी करवाता। शिकायतों पर होता जाता कुछ भी नही था पर वह शिकायतें जरूर भिजवाता। अधिकांश लोग जो बंजर जमीनों पर अनधिकृत रूप से काबिज थे वे अधिकारियों के करीब होते, नहीं भी होते, तो कुछ ले देकर करीबी बन जाते। ऐसे शिकायती कामों की जॉच में घूस आम बात हो गयी थी। जोरदार शिकायतें होने पर भी ताकतवर लोग उसे घूस दे कर दबवा दिया करते थे परिणाम शून्य निकलता फिर भी हार मान कर प्रसन्नकुमार बैठने वालों में नहीं था। उसका मानना था कि उसे जो करना है वह कर रहा है। उसकी आंखों के सामने शिकायती प्रार्थना पत्रा भिजवाने का सारा दृश्य तैरने लगता।
शिकायती प्रार्थना पत्रा, पेशकार की मेज, दो रुपये की पेशी, कानून की किताबें, रूलिंग, अदालत में गिडगिड़ाता फरियादी, पोलिंग बूथ पर ऊॅघता वोटर, कर्जे से बंधा नागरिक, कर्जदार, कर्णधार, सिपाही, कब्जा नहीं मिलता, सारा कुछ देख कर शिकायत करने वाला घर लौट जाता। अदालत बन्द नहीं होती, न्याय, घूस, फैसला सब चलता रहता, हाकिम चौबीसों घंटे जीवित रहते उनका काम बन्द नहीं होता, केवल दफ्तर बन्द होते हैं। आज से ही नहीं बहुत पहले से ही ऐसा हो रहा है और होता भी रहेगा शायद....
प्रसन्नकुमार को सामने कई दृश्य दीखने लगते हैं....कृ
ष्शहर, छोटे शहर, बंगले, सरकारी अफसर, सरकारी लोग, कुछ समझ में नहीं आता। लोकतंत्रा का जाल कितना बड़ा है? समझने वाली बात,बोतल, महुआ या रम, ठर्रा भी, जवानी गॉव की मुहल्ले की, स्कूल की, सड़क की, बाभन, ठाकुर, बनिया, कुनबी, अहीर, हरिजन या अछूत कुछ भी बोलो, कुछ भी समझो। सब बोतल, सब जवान, देश महान, अधिकारी महान, सरकारी लोग महान और जनता! राम जाने का है?
शिकाती प्रार्थना पत्रों पर सुनवाई नहीं की जाती उन्हें खामोशी बस्ते में डाल दिया जाता है।
प्रसन्नकुमार जानता था कि शिकायती प्रार्थना पत्रों से कुछ होने जाने वाला नहीं है। इसलिए वह दुखी रहा करता था पर दुख करने से काम चलने वाला तो था नहीं। आवंटित जमीनों पर कब्जा दिलवाने का प्रयास तो उसे करना ही है। पहले तो उसके सामने आवंटित जमीन पर केवल औतार को कब्जा दिलवाने की समस्या थी पर अब तो बहुत सारे लोग उसकी जानकारी में हैं जिन्हंे उनकी आवंटित जमीनों पर कब्जा दिलवाना है। प्रसन्नकुमार मार-पीट फौजदारी करना नहीं चाहता था। वह शाान्तिपूर्ण ढंग से कब्जा दिलवाना चाहता था भूमि आवंटियों को। कहीं कहीं तो उसे लोगों को समझाने बुझाने से सफलता भी मिल जाती थी सो वह क्षेत्रा में लोगों को समझा बुझा कर अवैध कब्जा छोड़ने के उन्हें लिए राजी भी कर लेता था। जहां लड़ाई, झगड़े की आशंका होती वहां वह नहीं जाता था। वह जानता था कि बड़े काम के लिए उसे जनसमर्थन चाहिए ही चाहिए। ‘अपना काम अपनी लड़ाई’ जैसी जागरूकता जब जनता में आ जाएगी तब सारे मसले अपने आप हल होने लगेंगे।
दर असल आवंटित जमीन पर कब्जे का खेल आपातकाल में प्रचलित हो चुका था। सरकार द्वारा जैसे ही आवटित जमीनों पर गरीबों को कब्जा दिलवाया जाता वैसे ही दबंगों द्वारा कब्जे से उन्हें बेदखल भी कर दिया जाता। कभी नांव इस तरफ होती तो कभी उस तरफ। पर सारे लोग ऐसे नहीं थे जो एक बार कब्जा छोड़ कर दुबारा कब्जा कर लेते हों। ऐसे लोग थे पर गिने चुने थे। ज्यादातर लोग तो आवंटित भूमि पर कब्जा जमा लेने वाले ही थे। आवंटित भूमि पर कब्जा न करने वाले लोग तो कई कई विशेषताओं वाले थे।वे केवल खेती करना जानते हैं, परिवार चलाना जानते हैं, झूठ नहीं बोलते हैं,आतिथ्य जानते हैं, सहनशील हैं, छल, कपट, बेइमानी, नाइन्साफी नहीं जानते तथा जोर-जबरी करना नहीं जानते। ऐसे लोग तो आवंटित जमीनों पर से अपना कब्जा समझाने बुझाने पर छोड़ते जा रहे थे। पर जो दबंग थे, जिनका विश्वास लूट व प्रशासन पर था, वे झगड़ा पर उतारू हो जाते थे। उनसे प्रसन्नकुमार टकराना नहीं चाहता था। हरिजनों के समझ में यह बात आगई थी कि जमीन किसी के बाप की नहीं होती, उसे जबरिया ही कब्जियाया गया होता है। पहले जमीन पर कब्जा करना फिर अपना नाम चढ़वा लेना। बेचारे मजूर का कर लेते भले ही प्रकृति का नियम उनके साथ था, पर प्रकृति पर कब्जा तो ताकतवरों का होता है। वे तो शिकायती प्रार्थनापत्रा देने सेें भी डरते थे, वे भगवान के सहारे थे, उन्होंने ही जीवन दिया है, वे ही बचाएंगे।
कोई आगे बढ़ कर उनका साथ देना भी चाहता था और कहता था कि ‘तुम्हारी आवंटित जमीन है कब्जा कर लो’ तो वे एक ही बात बोलते थे....कृकृ
‘कब्जा तो हम कर लेंगे भइया पर जब आप साथ रहेंगे, अकेले नाहीं।’
यह अकेला पन जटिल और क्रूर इतिहास ने उन्हें दिया है। वे पहले भी अकेले थे और आज भी हैं। वे अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए भी आगे नहीं बढ़ सकते थे। आवंटित भूमि पर कब्जा लेने के लिए सभी भूमिहीन चाहते थे कि प्रसन्नकुमार उनके साथ रहे। प्रसन्नकुमार अकेला था वह आखिर किस किस के साथ रहता। यह विशेष किस्म की विवशता थी। सभी डरे हुए हैं, वे जेल जाने से डरते हैं, आन्दोलन करने से डरते हैं। वे जेल जाने के बजाय घूस देना अच्छा समझते हैं, बहुतों ने घूस फूस दे कर अपना कब्जा भी पा लिया है। प्रसन्नकुमार जानता है कि हजारों साल के यातनादायी इतिहास ने उन्हें कमजोर और असमर्थ बना दिया है। वे प्रतिरोध और खामोशी के बीच के फासले को नहीं जानते। वे चुप हैं पर उनका मन! मन चुप नहीं है, समय और उचित अवसर उन्हें कभी इतना प्रशिक्षित कर देगा कि वे अपना हक ले कर रहेंगे। प्रसन्नकुमार आशावादी है, उसका आशावाद ही उसे इस रास्ते पर ले आया है।
सहपुरवा का पंचायत भवन और औतार की आवंटित जमीन का मामला प्रसन्नकुमार के लिए जनप्रतिरोध का नमूना था। जनप्रतिरोध की सफलता देख कर ही वह आगे की योजना बनाना चाहता था। उसे देखना था कि औतार को उनकी जमीन पर कब्जा दिलवाने के लिए पंचायत भवन के निर्माण को वह रोकवा सकता है कि नहीं।
कब्जा दिलवाने की योजना बन चुकी थी। योजना के मुताबिक साथी मजूर विवादास्पद जमीन पर एकत्रा होने लगे थे, सूर्योदय होते होते तक अधिकांश साथी विवादास्पद जमीन पर एकत्रा हो गये। उनके साथ जमीन जोतने के लिए हल और बैल भी लाए जा चुके थे तथा साथ ही साथ फावड़ा और कुदाल भी वे लिए हुए थे। सभी कानाफूसी भी कर रहे थे, पुलिस की मार, रामभरोस की गाली, रामदयाल का लोहबन्दा, जेल, मार, पीट, कुछ भी संभव है फिर भी काहे के लिए डरना? जो होगा उसे साथ साथ झेलेंगे, साथ साथ मार खाएंगे और जेल भी जाएंगे। सभी साथी आपस में किसिम किसिम की बतकही कर रहे थे और प्रसन्नकुमार के वहां न होने पर चिन्तित भी थे।
‘प्रसन्नकुमार भइया अभी तक नाहीं आए, उनको तो अब तक आ जाना चाहिए था। काफी देर हो रही है। नहीं आऐंगे तो का होगा?’
पंचायत भवन निर्माण स्थल पर उपस्थित सारे मजूर घबराये हुए थे। वे प्रसन्नकुमार के आने का रास्ता देख रहे थे। उनमें प्रसन्नकुमार को वहां होने की चर्चा हो रही थी। उनमें कुछ लोग आशंकित भी थे। बड़े आदमी और बड़ी जात का लड़का है। मीठी बातें करना, हमदर्दी दिखाना जितना आसान और सहज है मोर्चे पर डटे रहना और संघर्ष को संभालना उतना ही कठिन है।
बात बात होती है, बात पर चले नहीं चले, बड़े आदमियों
के स्वभाव में है। बड़े आदमियों का कहना और करना तथा दोनों
के अर्थ अलग अलग होते हैं। कहना केवल कहने के लिए होता है।
लोग सोच ही रहे थे कि प्रसन्नकुमार वहां आ गया। सबकी बातें मुंह में पड़ी रह गयीं। पंचायत भवन जमीन से ऊपर करीब चार फीट बन चुका था देखते ही देखते उसे मजूरों ने गिरा दिया और उसके कचरा पास वाले नाले में फेंक दिया। औतार की जमीन ही कितनी थी केवल पन्द्रह बिस्वा, उसे भी तीन चास जोत कर उसमें गेंहूं बो दिया गया। वहां देखने पर एक भी ऐसा निशान नहीं बचा रह गया था जिससे साबित होता हो कि वहां कभी पंचायत भवन भी बन रहा था। सारा काम आसानी तथा जल्दी से निपटा लिया गया जिसकी कल्पना तक प्रसन्नकुमार या किसी ने नहीं किया था। हड़ताली डर रहे थे कि रामभरोस के पालतू गुंडे आ सकते हैं फिर झागड़ा मार-पीट या गोली चल सकती है पर ऐसा कुछ नहीं हुआ जिससे सारे मजूर प्रसन्न थे। रामभरोस और उनके सारे गुंडे, बोंग वाला रामदयाल कारिन्दा सारे के सारे जाने कहां चले गए थे उस समय। वहां उनमें से कोई नहीं दिखा। रामभरोस की दुनाली भी नहीं दिखी वहां? क्या और कैसा होता है आतंक इसकी परिभाषा गायब हो चुकी थी। आखिर कौन लिखता आतंक की परिभाषा? संगठित प्रतिरोध आतंक की परिभाषा लिखने ही नहीं देता।
वहां उपस्थित सारे हरिजन अचरज में थे औतार भी अचरजाए हुए थे। वे मजूर जो रामभरोस के डर के कारण पंचायत भवन का निर्माण गिराना नहीं चाहते थे वे भी सीना फुलाए हुए थे और अपनी पीठ ठोंक रहे थे। शोभनाथ को भी करिश्मा लग रहा था। प्रसन्नकुमार को प्रसन्नता थी कि बिना बवाल के सारा काम निपट गया, जनप्रतिरोध का पहला प्रयास सफल तो हुआ।
वहां मार पीट होना निष्चित था पर कुछ नहीं हुआ पहले जो होता था और जो सुना जाता था रामभरोस के बारे में, वह वहां नहीं दिखा। उनकी ताकत, मारपीट कुछ भी तो नहीं दिखी वहां। प्रसन्नकुमार रामभरोस के आतंक का आकलन कर रहा था। पहले रामभरोस का प्रतिरोध करने वाले गॉव में नहीं हुआ करते थे, अप्रत्याशित भय के कारण लोग रामभरोस का प्रतिरोध ही नहीं करते थे, हस्तक्षेप की सोच ही उनके दिल दिमाग से गायब थी। वैसे भी पहले कभी भी संगठित प्रतिरोध भी रामभरोस का नहीं किया गया था। संगठित प्रतिरोध के आगे रामभरोस कैसे टिकते? कोई नहीं टिक पाता संगठित प्रतिरोध के सामने। एक दो आदमियों का मार देना, मरवा देना अलग बात है पर संगठित समूह के प्रतिरोध को कुचल देना अलग बात है। इस बार सहपुरवा की गरीब जनता का एक भी सदस्य रामभरोस के साथ नहीं था, सबका एक ही लक्ष्य था पंचायत भवन के निर्माण को गिराना, औतार की जमीन जोत कर उसकी बोआई करना। एक आदमी का लक्ष्य सारे गॉव का लक्ष्य बन कर जनप्रतिरोध की शक्ल में ढल गया, तभी उनका लक्ष्य भी पूरा भी हो पाया। न गोलियां चलीं, न मारपीट हुई, न बलबा हुआ। पूरी तरह शान्तिपूर्ण प्रतिरोध जो अद्भुत था।
औतार अपनी जमीन पर कब्जा पा गये पर कब तक? यह सवाल कब्जा करते समय भी था और कब्जा पाने के बाद भी जिन्दा था। मरा नहीं था पर आशा है जब तक सहपुरवा के मजूर संगठित रहेंगे, उनमें आंतक के प्रतिरोध की चेतना रहेगी तब तक रामभरोस उनका कुदरती अधिकार नहीं छीऩ सकते। जनता का दमन करने की बात तो दूर, उनके खिलाफ कुछ अहितकर करने के लिए सोच भी नहीं सकते।
पंचायत भवन गिरवाने की योजना प्रसन्नकुमार ने बहुत पहले ही बना लिया था जिसे विभूति नहीं जानता था उसे प्रसन्नकुमार ने बताया भी नहीं था। जबकि वह पंचायत भवन ढहाने की योजना को अपने पिता से कभी भी नहीं बताता। वह प्रसन्नकुमार का साथ नहीं छोड़ सकता था। पंचायत भवन गिराए जाने के दिन विभूति प्रसन्नकुमार के ही साथ था और प्रतिरोध की कार्यवाही में सहभागी भी था। वह सोच रहा था कि इतनी बड़ी योजना के बारे में प्रसन्नकुमार ने उसे बताया क्यों नहीं? कहीं वह उस पर सन्देह तो नहीं कर रहा? उसने खुद को आश्वस्त भी कियाकृ
‘नहीं, प्रसन्नकुमार उस पर संदेह नहीं कर सकता।’
विभूति प्रसन्नकुमार से बहुत प्रसन्न था उसे लगा कि कभी कभी आकस्मिक ढंग से किया जाने वाला काम भी परिणामकारी हो जाता है। यह मजेदार बात थी कि पंचायत भवन का निर्माण गिराए जाने तथा औतार की आवंटित जमीन जोत कर गेहूं बोने की जानकारी रामभरोस को नहीं हो पाई थी। रामभरोस ने रामदयाल को इस बाबत डांटा भी था....कृ
‘साला बांेग ले कर गॉव में घूमता रहता है फिर भी यह भी न जान सका कि पंचायत भवन का निर्माण गिराए जाने के लिए हरिजन कमर कस चुके हैं। इतना ही नहीं औतार की आवंटित जमीन वे जोतने व बोने वाले हैं। गॉजे का दम लगा कर सोया रहता है।’
पर जो होना था वह हो चुका था रामभरोस चाहे जिसे डांटे या मारें, कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला था। विभूति प्रसन्नकुमार की सलाह का निर्वहन कर चुका था और अपने पिता को भ्रम में डाल चुका था कि प्रसन्नकुमार आज कल कहीं बाहर गया हुआ है। रामभरोस को भ्रम में डालकर ही पंचायत भवन गिराने का काम किया जा सकता था। रामभरोस को भ्रम में रखना जरूरी है उन्हें पता नहीं चलना चाहिए कि सहपुरवा बदल चुका है, मजूर उनके खिलाफ संगठित हो चुके हैं। मजूरों के संगठित होने तथा पंचायत भवन गिराए जाने की भनक तक उन्हें नहीं लगनी चाहिए। ऐसा हुआ भी, रामभरोस को भनक नहीं लगी कि सहपुरवा में पंचायत भवन गिराया जाने वाला है? अगर उन्हें भनक लग गई होती कि प्रसन्नकुमार सहपुरवा में ही है फिर तो वे कान खड़े और आंखें खोले रखते तथा नाक से सूंघते रहते कि सहपुरवा में का होने वाला है? और उन्हें पता चल ही जाता पंचायत भवन गिराए जाने के बाबत।
अच्छा हुआ कि रामभरोस अपने में ही डूबे रह गये थे, वे अपनी तीसरी आंख नहीं खोल पाए। रामभरोस तीसरी ऑख खोल भी देते तो क्या फर्क पड़ जाता। पंचायत भवन तो हर हाल में गिराया जाता भले मारपीट होती बलबा होता, आखिर भीड़ भीड़ होती है, भीड़ का अपना मिजाज तथा कानून होता है, भीड़ का संगठित मन किसी भी तानाशाही प्रवृत्ति वाले आदमी को मसल कर रख देता है। वैसे पंचायत भवन गिराने तथा औतार के खेत की बोआई करने का काम आसानी से निपट गया। कुछ अहितकर नहीं हुआ।
‘दंगे अपने आप नहीं होते। बलबे अपने
आप नहीं होते, घर नहीं बंटते, देश नहीं बंटते। बलबा, दंगा,
बटवारा सब करवाए जाते हैं’ पर करवाता कौन है? कथा के साथ चलेंकृ’
सहपुरवा से थाना काफी दूर पड़ता था। जिस दिन औतार के आवंटन वाली भूमि की जोताई कर आन्दोलनकारी हरिजनों ने कब्जा बहाल कर लिया था तथा पंचायत भवन के अवैध निर्माण को गिरा दिया था उस दिन थाने पर जाने कितनी रपटें लिखाई जा चुकी थीं। थाने पर रपट लिखने लिखाने का ही काम होता है पर सहपुरवा की रपट वहां नहीं लिखी जा सकी थी। जाने क्या हो गया था उस दिन कि हर तरफ से आवंटित जमीनों के झगड़ों के बारे में शिकायतें आने लग गई थीं थाने पर और थाना परेष्शान था कैसे करे इन्तजाम, सिपाहियों को कहां भेजे, कहां न भेजे। काम की प्रथमिकता चुनना थाने के लिए मुश्किल हो गया था। दारोगा ने एक दो सपाहियों को थाने पर छोड़ कर, सारे सिपाहियों को क्षेत्रा में भेज दिया था तथा खुद भी आवंटित भूमि पर कब्जे की दरखास की जांच के लिए थाने से निकल गया था किसी गॉव में।
पंचायत भवन गिराए जाने की खबर में रामभरोस के लिए आग छिपी हुई थी। खबर की आग ने उन्हें झुलसा दिया और वे मदत के लिए सीधे थाने की ओर भागे थे। हरिजनों के संगठित प्रतिरोध से वे टकरा नहीं सकते थे। हरिजनों के जन प्रतिरोध को दबाने के लिए थाने की भूमिका के बारे में रामभरोस को पता था सो थाने पर जा कर उन्होंने सूचना दी थी कि सहपुरवा के पंचायत भवन का ताजा निर्माण गिरवा दिया गया, जिसकी अगुआई प्रसन्नकुमार ने किया था पर थाने पर था कौन? थाने पर तो सिर्फ दो ही सिपाही थे जिनका थाने पर रहना आवष्यक था। थाने की भी सुरक्षा का सवाल था। सहपुरवा कोई भी सिपाही थाने से नहीं भेजा जा सका। रामभरोस का विश्वास थाने पर था पर थाना उन्हें धोखा दे देगा, इसका अनुमान उन्हें नहीं था।
प्रसन्नकुमार की योजना सफल हो चुकी थी और आने वाले परिणाम के लिए वह तैयार था। रामभरोस क्या करते? वे थाने ही जाते पर दारोगा नहीं था थाने पर, वे दारोगा का वहीं इन्तजार करने लगे। सहपुरवा में रहने पर उन्हें डर था अगर मजूर उनकी बखरी की ओर चल पड़े तो.... मजूर हैं, गुस्से में हैं कहीं भी आ जा सकते हैं, गुस्साए मजूरों को आने जाने से कौन रोक सकता है? अन्धेरा होते होते तक सिपाही थाने पर आने लगे, बाद में दारोगा जी आये। उन्होंने थाने पर रामभरोस को देखा, वे मुर्झाए हुए थे।
‘का हुआ पंडित जी! बहुत परेशान दिख रहे हैं, कोई बात हो गई है का?’ दारोगा ने रामभरोस से पूछा....
दारोगा जी को सहपुरवा का सारा हाल रामभरोस बता गये। दारोगा जी असमंजस में पड़ गए क्या बता रहे हैं रामभरोस जी। हरिजनों की इतनी हिम्मत कि वे पंचायत भवन गिरा दें जिसका शिलान्यास जिलाधिकारी जी ने किया था। मन बढ़ गया है सालों का।
दारोगा रामभरोस के दबाव में था फिर भी उसे नहीं सूझ रहा था कि ऐसे संकट में वह रामभरोस की सहायता कैसे करे? रपट लिख कर मौके पर जाए या बिना लिखे ही चले मौके पर। रपट भी सोच समझ कर लिखना होगा जिसे अदालत भी मान ले। दारोगा जानता था कि केवल रपट से कुछ नहीं होता। होता तब है जब अदालत में रपट प्रमाणित हो जाए सो बहुत सोच समझ कर रपट लिखना होगा। रामभरोस के कहने पर वह शोभनाथ पंडित को मुल्जिम नहीं बना सकता था और प्रसन्नकुमार को भी मुल्जिम बनाना उसके लिए आसान नहीं था। मामला हरिजनों का था, वे भूमिहीन थे, जिस खेत को हरिजनों ने जोत तथा बो लिया था वह खेत औतार के पट्टे का था। पट्टे वाली जमीन का मामला खतरनाक होता है। रामभरोस भले ही पट्टे की जमीन पर अपनी ताकत दिखांए पर अपने स्तर से वह किसी भी तरह का पठनीय या अपठनीय पट्टाचरित नहीं लिखेगा।
दारोगा परेष्शान परेष्शान था। दारोगा के लिए सहपुरवा का मामला आसान और सरल किस्म का नहीं था। वह जानता था कि पट्टे की जमीन का मामला राजनीतिक रंग भी पकड़ सकता है तथा बहुत बड़ा पट्टा चरित भी बन सकता है। वैसे भी आपातकाल खतम होने वाला है। नये चुनाव भी होने वाले हैं। सरकार बदलने पर नई सरकार का मिजाज जाने कैसा हो। सरकार बनते ही उसका ट्रान्सफर भी हो सकता है सो संभल कर काम करना होगा।
देर रात तक दारोगा जी सहपुरवा की घटना के बाबत कोई समाधान नहीं निकाल पाये। रामभरोस के साथ उसकी दोस्ती का भी भविष्य बिगड़ रहा था। रामभरोस का काम नहीं हुआ तो उन पर कई तरह का आरोप लगवाकर रामभरोस उनका ट्रान्सफर भी करवा देंगे ऐसा करना उनके बांए हाथ का खेल है और अगर उसने रामभरोस के कहने पर कुछ किया तो आपातकाल हटते ही उसके ऊपर बवाल आ जाएगा। सारे विरोधी पारटी के लोग उस पर चढ़ बैठेंगे क्योंकि अगली सरकार तो उनकी ही बननी है। पूरे कार्यकाल में इस तरह की उलझन का सामना दारोगा को कभी नहीं करना पड़ा था।
दारोगा पंचायत भवन गिराए जाने के मामले में संतोष जनक निर्णय नहीं ले पा रहा था। निर्णय ने ले पाने का एक कारण प्रसन्नकुमार भी था। प्रसन्नकुमार की कार्ययोजना के बारे में गुप्त सूत्रों द्वारा दारोगा को जानकारी थी कि प्रसन्नकुमार सहपुरवा का एक लड़का भर नहीं है, जिसके बाप का नाम शोभनाथ है, वह जनता का आदमी है और जनता के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहा है। प्रसन्नकुमार को छूने का मतलब आग में तेल डालना होगा और हरिजनों के बहुत बड़े आन्दोलन का सामना करना होगा। उसे पता था कि सहपुरवा का एक भी आदमी रामभरोस के पक्ष में नहीं है और न ही क्षेत्रा का कोई आदमी रामभरोस का साथ देगा। ऐसी स्थिति में दारोगा सोच विचार कर ही निर्णय लेना चहता था।
दारोगा ने रामभरोस को सुझाया था कि विभूति को प्रसन्नकुमार के साथ लगा दीजिए जिससे मालूम हो सके कि उसकी योजना क्या है? विभूति हस कर दारोगा की बात टाल गया। प्रसन्नकुमार की अगली योजना की जानकारी वह नहीं जुटा सकता।
‘वह कैसे मालूम कर सकता है प्रसन्न कुमार की योजना के बारे में? प्रसन्नकुमार मुझ पर विष्वास ही नहीं करता वह जानता है कि मैं अपने पिता के विरोध में नहीं जा सकता। फिर वह मुझे अपने साथ क्यों रखेगा?’
विभूति को लग रहा था कि दारोगा उसे फिल्मी जासूस बनाना चाहता है जो वह कभी नहीं बनेगा। रामभरोस भी विभूति को प्रसन्नकुमार के साथ जुड़वाना नहीं चाहते थे जबकि प्रसन्नकुमार से वह जुड़ा हुआ था। रामभरोस को डर था कि प्रसन्नकुमार की तरह विभूति भी डी.आई.आर. का मुल्जिम हो जाएगा। इस मामले को वे चाहे जैसे हल करेंगे पर विभूति को इस काम से नहीं जोडं़ेगे। यह विभूति की लिए अच्छी बात थी।
थाने पर से रामभरोस अपने घर नहीं लौटे सीधे रापटगंज चले गये। वे उलझन में थे, उन्हें चैन नहीं पड़ रहा था। उन्हें कृपालु जी से मिलना चाहिए, वे ही पंचायत भवन गिराए जाने के मामले में कुछ कर सकते हैं। और वे उनसे मिले भी। उन्होंने कृपालु जी को सहपुरवा का सारा किस्सा बताया कि किस तरह से औतार की जमीन जोत ली गई और पंचायत भवन का निर्माण गिरा दिया गया। कृपालु जी चकरा गयेकृ
‘का बोल रहे हैं रामभरोस जी, मुझे तो यकीन ही नहीं आ रहा कि हमारे क्षेत्रा के हरिजन कानून अपने हाथ में ले सकते हैं, का वे सरहंग हो गये हैं?’
रामभरोस ने अपनी बात को सच बताया और यह भी कि आगे क्या करना चाहिए, इस पर सलाह लेने के लिए वे उनके पास आये हुए हैं।
कृपालु जी ने सीधे पूछा....
‘थाने पर गये थे का?’
‘हां थाने पर गया था पंचायत भवन गिरा दिए जाने के बाद। उस समय थाने पर केवल दो ही सिपाही थे। वे थाना छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुए। दारोगा भी थाने पर नहीं थे वे अन्धेरा होने पर आये। तब तक तो औतार की जमीन जोती व बोई जा चुकी थी तथा पंचायत भवन का निर्माण गिराया जा चुका था। अब आगे क्या करना है इसी लिए आपके पास आया हूं। इस काण्ड का कर्ता-धर्ता कोई और नहीं शोभनाथ का लड़कवा प्रसन्नकुमरवा है। अगर पुलिस उसे गिरफ्तार कर लेती फिर तो सब ठीक हो जाता। दारोगा रपट भी तो नहीं लिख रहा है वह विचार कर रहा है कि उसे क्या करना चाहिए। वह सीधे प्रसन्नकुमार को मुकदमे में नहीं रखना चाहता। वह प्रसन्नकुमार से डर रहा है, बोल रहा है कि उसके साथ क्षेत्रा भर के हरिजन हैं, मुकदमे में उसे फसाते ही बवाल हो जाएगा। रामभरोस ने कृपालु जी से प्रार्थना किया....कृ
‘पंडित जी आप चाहेंगे तभी रपट लिखा पाएगी नहीं तो नहीं।आप थाने पर चलिए और रपट लिखवाइए। दारोगा पर दबाव डालिए कि वह प्रसन्नकुमार को पकड़ ले। प्रसन्नाकुमरवा पकड़ा जाएगा फिर सहपुरवा का सारा झमेला खतम हो जाएगा।’
‘पंडित जी आप तो जानते ही हैं कि औतरवा का पट्टा भी अभी तक खारिज नहीं हुआ है, डिप्टी साहब के यहां लटका हुआ है। औतार का पटटा खारिज होने का झूठा प्रचार मैंने ही करवा दिया था। औतार के पट्टे को भी आपको ही खारिज करवाना है। आप की बात डिप्टी साहब नहीं टालेंगे।’
औतार का पट्टा खरिज होने के पहले ही रामभरोस ने पंचायत भवन का निर्माण शुरू करा दिया था जो कानूनन गलत था। उस जमीन पर औतार का ही नाम चल रहा था जिस पर औतार अपनी खेती कर सकते थे। कृपालु ने रामभरोस को डांटा कि ऐसा काम जो कानूनन गलत हों आप काहे करते हो। पट्टा खारिज करा लेते फिर पंचायत भवन बनवाते पर आपका हर काम जल्दीबाजी का होता है खैर चलिए, दारोगा के पास चलते हैं।’
कृपालु जी दारोगा के पास आये या लाए गये, यह सहपुरवा के लिए आवश्यक नहीं। आगे क्या होता है यह आवश्यक है। कृपालु जी का थाने पर आना दारोगा के लिए भी ठीक था। उसने रपट लिख ली कुछ अपने मन से तथा कुछ कृपालु जी के दबाव से।
रपट लिख जाने के बाद दारोगा सहपुरवा जाने की तैयारी करने लगा। दारोगा का डर टूट चुका था वह समझ चुका था कि कृपालु जी के कारण उसकी नौकरी पर असर नहीं पड़ेगा। कृपालु जी का राजधानी तक सोर्स है। पुलिस के सारे बडे़ अधिकारी कृपालु जी को जानते व मानते हैं। दारोगा मन ही मन अपनी कार्य योजना बनाने लगा था कि उसे सहपुरवा जा कर क्या क्या करना है। हरिजनों को तो छूना तक नहीं है, सिर्फ सभी को डरवा देना है।
कृपालु जी के सक्रिय हो जाने से रामभरोस का संकट दूर हो चुका था। रामभरोस जानते थे कि कहीं कुछ नहीं होता। कोई कुछ नहीं करता। सब कुछ करवाया जाता है। दंगे अपने आप नहीं होते। बलबे अपने आप नहीं होते, घर नहीं बंटते, देश नहीं बंटते, बलबे, दंगे, बटवारे सब करवाए जाते हैं। किसी भी तरह से उन्हें तो अपना काम कराना है और शोभनाथ को दिखा देना है कि रामभरोस अकेला रामभरोस है फिर भी उसके काम को कोई नहीं रोकवा सकता। सहपुरवा में वही होगा जो रामभरोस चाहेगा।
थाने पर से ही कृपालु जी घोरावल लौट गये। वहां भी सहपुरवा की तरह का एक मामला फसा हुआ था। हरिजन और सवर्ण वाला? वहां तो हरिजन मार-पीट पर आमादा हैं, थोड़ा भी मौका मिला तो वे जाने क्या कर दें। हालांकि वहां सिपाहियों की ड्यूटी लगा दी गई है फिर भी डर बना हुआ है। रामभरोस थाने से देर रात तक अपने घर आये और सो गये। रामभरोस के आने की रामदयाल प्रतिक्षा कर रहा था। थाने पर मिली दारोगा की सहमति से रामभरोस मगन थे। रामदयाल से वे सगर्व बोले....कृ
‘कल तक सब हल हो जाएगा हो रामदयाल’
‘अच्छा सरकार!’
कृपालु जी थाने से ही घोरावल चले गये। घोरावल जाना उनके लिए जरूरी था। वहां के एक गॉव में सहपुरवा की तरह ही संकटपूर्ण स्थिति थी। कृपालु जी का जो शक था वह सही निकला। कुछ न कुछ अशुभ ही होगा। वही हुआ। गरीब जनता जब प्रतिरोध पर उतर जाती है तब उस प्रतिरोध को रोक पाना आसान नहीं होता। प्रतिरोध इतना उग्र हो गया कि एक बाऊसाहब का घर तक हरिजनों ने घेर लिया था। वहां सीलिंग से निकली जमीन का विवाद था। सीलिंग से निकली जमीन को हरिजन जोत रहे थे। बाऊसाहब ने मना किया। ताकत की जोर से हरिजनों को उन्होंने रोकने का प्रयास भी किया, वे रोकने के अलावा और क्या कर सकते थे। वे अपने पक्ष में अकेले थे उनके विपक्ष में गॉव के पूरे हरिजन थे। वहां मामला शारीरिक ताकत का आन खड़ा था। कोई कायदा कानून नहीं रह गया था वहां। शासन प्रशासन जहां था वहां था पर वहां नहीं था जहां होना चाहिए था। वहां कानून भी गॉव की जमीन पर पसर कर सो रहा था, उसे जगाए भी तो कौन? कानून को जगाना था बाऊसाहब को, बाऊसाहब कानून के दरवाजों पर दौड़ लगा रहे थे। वे कानून को जगाना चाहते थे, लगातार कानून के दरवाजे पीट रहे थे पर कानून सो गया तो सो गया, उसे जगाना आसान और सरल नहीं। बाऊसाहब ने पूरी कोशिश की पर सब बेकार, कानून सोया ही रह गया, उसे वे नहीं जगा सके। हरिजन संगठित थे, मरने मारने पर तुले हुए थे। वे मानने वाले नहीं थे। हरिजनोें की समझ थी कि सीलिंग से निकाली गई जमीन पर उनका अधिकार होना चाहिए और किसी का नहीं, उस जमीन को आवंटित किया जाना चाहिए। वे इसी राजनीतिक समझ पर आगे बढ़ रहे थे। वे बाऊसाहब से लड़ गये और फिर बात बढ़ गई। कृपालु जी चिन्तित थे कि रापटगंज परिक्षेत्रा में हो क्या रहा है, हर जगह झगड़ा।
वस्तुतः हरिजनों में चेतना आ गई थी। वे समझने लगे थे कि ‘जो जमीन सरकारी है वह हमारी है’। ऐसी चेतना उनमें कैसे आई कृपालु जी के लिए सोचने व गुनने वाली बात थी फिर भी वे जानते थे कि हरिजनों की यह समझ राजनीतिक आकांक्षाओं के कारण है। अब उनकी आकांक्षाओं को किसी भी तरह से नहीं रोका जा सकता।
‘आदमी की कोई जाति नहीं होती, कोई धर्म
नहीं होता उसका तो केवल एक ही धर्म होता है मनुश्ष्यता
वाला, मानवीय समीपता वाला। काश! हम ऐसा ही सोच पाते’
कृपालु जी की पैरवी काम कर गई। आखिर दारोगा कृपालु जी की बात काहे नहीं मानता। कृपालु जी जिले के बड़े नेता हैं, वे कुछ भी कर सकते हैं विरोध में। उनकी बात मान लेनी चाहिए। दारोगा दूसरे दिन सहपुरवा आया। उनके साथ आठ सिपाही थे। रामभरोस के बताने के अनुसार दारोगा सावधानी बरत रहा था। रामभरोस ने उसे थाने पर ही बता दिया था कि सहपुरवा में मार-पीट भी हो सकती है। सो दारोगा सावधान था।
दारोगा गॉव में नहीं घुसा, सीधे मौके पर गया। हरिजन बस्ती से दक्षिण की तरफ जहां पंचायत भवन का निर्माण हो रहा था। उसने देखा कि वहां निर्माण के शिनाख्त भी नही बचे हुए हैं, ईंटों और ढोकों के गिट्टी जैसे टुकड़े पास वाले नाले में फेंके हुए दिख रहे थेे जो घटनास्थल से करीब तीन सौ मीटर से अधिक दूरी पर था। उसके अगल बगल का खेत जोता हुआ था तथा उसमें गेहूॅ बो दिया गया था। वहां कभी पंचायत भवन बन रहा था या निर्माण हुआ था ऐसे चिन्ह वहां पर नहीं थे।
सिपाही दारोगा के निर्देश के मुताबिक शोभनाथ, औतार, और सुक्खू को खोजने तथा पकड़ने के लिए गॉव में गये हुए थेे। दारोगा भी उनके साथ गॉव में घुसा। जाहिर है जब किसी की पकड़ करनी होती है तब पुलिस पकड़ किए जाने वाले व्यक्ति के घर में सीधे घुस जाया करती है, यही है पुलिस का आदिम तरीका। सिपाही जागरूक थे सो सिपाहियों ने लक्ष्य बना लिया था कि गॉव से वांक्षितों को भागने नहीं देना है। दूसरी ओर गॉव के हरिजन थे कि वे असावधान थे। उनका मानना था कि पुलिस को जांच या पकड़ के लिए गॉव में आना होता तो घटना के दिन ही आ जाती। पर वे गलत थे, उनका सोचना गलत था। रामभरोस की रपट पर पुलिस की इतनी मजाल कि वह गॉव में नहीं आये, जॉच पड़ताल न करे ऐसा संभव नहीं था। पर घटना के दिन पुलिस नहीं आई थी सो हरिजन मान कर चल रहे थे कि पुलिस अब सहपुरवा में नहीं आने वाली। जो होना था हो चुका।
पुलिस गॉव में दूसरे दिन आई। वैसे औतार व शोभनाथ को यकीन था कि पुलिस कभी भी आ सकती है गॉव में। और पुलिस आ भी गई। पुलिस के गॉव में आने का यकीन औतार को इसलिए था कि रामभरोस कानून को जब चाहें अपने हिसाब से नचा सकते हैं, नहीं तो कोई दूसरा कानूनी कारण नहीं था, वह जमीन तो औतार की ही थी।
पुलिस को सहपुरवा में आना था, नहीं आना था, सारा शाक खतम हो गया था और पुलिस का दल आठ सिपाहियों के साथ गॉव में आ धमका।
पुलिस या रामभरोस जिन्हें मुल्जिम मान रहे थे वे सभी लोग अपने घरों पर ही थे। शोभनाथ औतार व सुक्खू इनमें से कोई कहीं भागा नहीं था। उन्हें भागना भी नहीं था। वे जानते थे कि वे गलत नहीं हैं गलत हैं रामभरोस, अभी औतार का पट्टा भी खारिज नहीं हुआ है फिर भी रामभरोस औतार की जमीन पर पंचायत भवन बनवा रहे हैं। यह गलत है। पुलिस ने वांक्षितों को पकड़ लिया, वे सभी अपने अपने घर पर ही पुलिस को मिल गए, वे घर से भागे नहीं थे। पुलिस गॉव में किसी को पकड़ ले और वहां भीड़ न इकठ्ठा हो जाए ऐसा नहीं होता। वहां भीड़ इकठ्ठा हो गई। भीड़ अपने स्वभाव के मुताबिक एक दूसरे का चेहरा देखने और पढ़ने लगी। लोगों के चेहरों पर एक ही इबारत लिखी थी कि पुलिस किसी को भी पकड़ सकती है वह भी जब चाहे, वक्त कैसा भी हो। भीड़ के दिमाग में दूसरा सवाल था जो भविष्य का था कि आगे क्या होगा? लोग आशांकित थे कि आगे ठीक और भला नहीं होने वाला।
दारोगा के लिए कुर्सी मंगा ली गई थी। वहां कुछ चारपाइयां थीं जिन पर अन्य लोग बैठे हुए थे तथा हरिजन उनके सामने जमीन पर बैठे हुए थे। दारोगा के आदेश की प्रतिक्षा में सिपाही बीड़ी पर बीड़ी दागे जा रहे थे वहां एकत्रा लोग क्या होने वाला है? की प्रतिक्षा में थे। दारोगा सीरियस था और जाने क्या इधर उधर देख रहा था। वह वहां बैठे हुए लोगों में से केवल प्रसन्नकुमार के पिता शोभनाथ और रामभरोस को ही जानता था। दारोगा ने अचानक मुंह खोला....कृ
‘औतरवा कौन है रे! यहां हाजिर है कि नहीं, हाजिर है तो सामने आओ, कहां बैठे हो? पंचायत भवन जो बन रहा था उसे किन किन लोगों ने गिराया, सभी का नाम लिखवाओ। तुम कमीनों का इतना मन बढ़ गया है कि कायदा कानून खाए जा रहे हो।
सकपकाए हुए औतार भीड़ में से बाहर निकले। उनके चेहरे को अप्रत्याशित डर ने जकड़ लिया था फिर भी वे खुद को संभाले हुए थे? जो होना होगा, होगा ही उसे नहीं रोका जा सकता।
‘हम हैं औतार सरकार!’
‘तूं हो औतार, देखने में तो सीधे सादे दीख रहे हो पर काम तो तूंने हरामियों वाला किया है। इतनी हिम्मत कहां से आ गई रे तेरे पास। तोहके कौन साला बहकाया है रे! बताओ पंचायत भवन किन किन लोगों ने गिराया?’
‘हम नहीं जानते सरकार! कौन पंचायत भवन?
औतार ने दारोगा से पंचायत भवन के बारे में पूछा..कृ
इतना काफी था। दारोगा गाली पर गाली चढ़ाने लगा, किसिम किसिम की गालियां जिसे सहपुरवा ने कभी नहीं सुना था, मालिक लोग भी ऐसी कमीनी गालियां नहीं देते।
‘साले तूं नहीं जानता कि पंचायत भवन किसने गिराया? और पूछ रहा है कौन पंचायत भवन? क्या बाहरी लोग आए थे, गांड़ में डंडा पड़ेगा तब बकोगे साले!’
फेकुआ दारोगा के पास ही में था, वह गाली पर गाली सुन रहा था। फेकुआ मन ही मन बुदबुदा रहा था। गाली गलौज सहन करना उसके लिए संभव नहीं था। आखिर का हो जाएगा, जेल ही जाना पड़ेगा नऽ अउर का होगा। बाप दादों की सीख उसे अब नहीं मानना। जेल तो जाना ही होगा रामभरोस नहीं मानने वाले, चाहे मार करो, तो भी, न करो तो भी। अचानक दारोगा ने फेकुआ को पुकारा....कृ
‘ई साला फेकुआ कौन है रे?’
फेकुआ सामने आ गया वह मन से तनेन था।
‘हम हैं सरकार फेकुआ!’ फेकुआ ने बताया
‘क्यों बे! तुम्हारे बाप के पट्टे वाले खेत पर कल कौन कौन लोग गये थे? किसने जोता वह खेत? तथा पंचायत भवन किन किन लोगों ने गिराया? वह तो चार फीट ऊपर तक बन चुका था।’
फेकुआ चुप था, सो चुप था, वह का बोलता उससे तो सिखाया जा चुका था कि दारोगा के सामने कुछ नहीं बोलना, सो वह चुप था। बड़ों की सीख वह कैसे तोड़ता?
दारोगा गरजा....कृ
‘बोलते क्यों नहीं साले! तुम्हारी चमरई तुम्हारी गांड़ में घुसेड़ दूंगा, साले कुत्ते की औलाद।’
इस बार भी फेकुआ कुछ नहीं बोला। उसके बोलने के पहले रामदयाल कारिन्दा बोल पड़ा....कृ
‘सरकार! ई साला का बोलेगा, इन लागों ने अपने मन से कुछ नहीं किया है सरकार! सारा खेल तो प्रसन्नकुमरवा का है। वही मेरे गॉव में बवाल करवा रहा है। का हो शोभनाथ पंडित हम गलत बता रहे हों तो बोलिए का सही है? गांड़ीं में दम हो तो बोलिए सबके सामने, आड़े आड़े भुचकी का मारते हैं?’
ष्शोभनाथ पंडित को तो पहले से ही वहां का नाटक अखर रहा था। वे काफी गुस्से मेें थे....कृ
‘काहे चिल्ला रहे हो रामदयाल! का उखाड़ लोगे मेरा, तुम्हारे जैसे पालतू नहीं हैं हम। बहादुर थे तो कल ही आ गए होते मौके पर, फरिया गया होता सारा कुछ। दरोगा जी के सामने बमक रहे हो। जिसके तुम पालतू हो उसको तो हम कुछ समझते ही नहीं हैं, तूं किस खेत का ढेला है रे!’
ष्शोभनाथ पंडित भी अपने आचरण के विपरीत बोल उठे हालांकि किसी के साथ अपमानजनक बातें करना उनका स्वभाव नहीं था। वे एक ठंडे दिल दिमाग के आदमी हैं और हर बात संभाल कर बोलते हैं। पर करें क्या जैसे को तैसे वाली बात, उन्हें बोलना ही पड़ा।
दारोगा के सामने ही सहपुरवा का मामला उलझ कर रामभरोस, शोभनाथ पंडित और औतार के बीच फसता जा रहा था। दारोगा खामोश, वर्दीधारी सिपाही खामोश, वहां इकठ्ठे लोग खामोश, हरिजन खामोश, औतार खामोश, गोया सभी खामोश थे। हवा और मौसम के बारे में क्या बताना? मामला तूल पकड़ रहा था।
सहपुरवा खामोशी का उदाहरण बनने वाला था सो सभी खामोश थे। पर खामोशी के भीतर गुस्सा था गुस्से में साधारण सी बात भी बढ़ने लगती है तो बढ़ती ही जाती है, कितना बढ़ जाएगी अनुमान लगाना कठिन। बात बढ़ गयी। मौका अच्छा था, बवाल करने का, रामभरोस तो चाहते ही थे कि बवाल हो जाए। मौके का लाभ लेने के लिए रामभरोस ने रामदयाल कारिन्दा को संकेत कर दिया फिर क्या था....कृकृ रामदयाल कारिन्दा ने शोभनाथ पंडित पर लोहबन्दा चला दिया, एक ही लोहबन्दा में शोभनाथ पंडित जमीन पकड़ लिए। शोभनाथ पंडित का जमीन पकड़ लेना ही सहपुरवा का आग में तब्दील हो जाने का कारण बन गया। रामभरोस चाहते भी यही थे कि सहपुरवा आग का खेल बन जाए। जल जाये हहाकर।
ष्शोभनाथ पंडित पर हुए हमले को फेकुआ बर्दास्त नहीं कर पाया। वह तत्काल भूल गया बाप दादों की सीख। जहां वह खड़ा था वहीं से रामदयाल कारिन्दा की पीठ पर एक बोंग मारा और रामदयाल भहरा गया जमीन पर। फिर तो रामदयाल को फेकुआ तब तक मारता रहा जब तक रामदयाल अधमुआ नहीं हो गया। बलवा होने की आशंका तो तभी बढ़ गई थी जब रामदयाल ने शोभनाथ पंडित पर लोहबन्दा चला दिया था पर तब सारे हरिजन औतार का इशारा देख रहे थे....
औतार भी क्या करते हालांकि वे नरम दिमाग वाले थे फिर भी शोभनाथ पंडित पर हुए हमले को वे नहीं बर्दाश्त कर पाए। शोभनाथ पंडित तथा उनका लड़का प्रसन्नकुमार दोनों रामभरोस जैसे कमीने आदमी से हरिजनों के लिए ही तो टकरा रहे थे। औतार को भी गुस्सा आ गया फिर तो उन्होंने भीड़ की तरफ इशारा कर दियाकृऔतार का इशारा मिलते ही....कृ
लाठी पर लाठी, लोहबन्दा पर लोहबन्दा, झापड़ पर झापड़, लात पर लात, ऐसे दृश्य को ही कानून बलबा कहता है। कितने आदमी, जाने कितने? कौन मार रहा था, कौन मार खा रहा था,कृसारा कुछ अज्ञात, ज्ञात केवल इतना ही कि सहपुरवा में बलबा हो गया। जैसे कोई फिल्म चल रही हो जिसका कोई निर्देशक न हो, सभी निर्देशक हों तथा सभी पात्रा हों।
तो बलबा शुरू....कृ
औतार, बिफना, सुक्खू तथा दूसरे हरिजन भी लाठी लेकर कूद पड़े, मार होने लगी, मार तो मार होती है। कहीं भी मार होने पर पता नहीं कैसे बचाने वाले भी निकल आते हैं, कुछ बचाने लगे पर मार जिसे होना था वह रुकने वाली नहीं थी। मार तो होती रही, बचाने वाले बचाते रहे, एक आदिम दृश्य मार-काट वाली, खून बहाने वाला। सहपुरवा की हजारों साल की शुप्त धरती पर मार का बदला मार वाला आदिम मिजाज का संगीत गाता बजाता उतर चुका था सहपुरवा में।
हरिजनों का उत्पीड़ित मन लहरा उठा था। वे एक एक लाठी में अपना उत्पीड़न देख रहे थे, एक साल दो साल का नहीं हजारों साल का। क्रोध में तो कुछ दिखता भी नहीं, सिपाही भी मार खाने लगे, थे ही कितने केवल आठ और हरिजन कौन गिने? लगभग सभी थे सहपुरवा के जिनके हाथ पैर मजबूत थे और अक्ल वाले थे, जो भविष्य की यातनाओं से डरने वाले नहीं थे।
हरिजनों को तो मालूम ही था कि सिपाही रामभरोस के बुलाने पर सहपुरवा में आये हुए हैं। वे न्याय करने नहीं आये हैं। वे रामभरोस के माथे पर जीत लिखने के लिए आए हुए हैं। हरिजनों को उत्पीड़ित करने के लिएआए हुए हैं। किसी सिपाही का हाथ टूटा तो किसी का माथा फूटा पर फूटा और टूटा सभी का। हरिजनों को भी गंभीर चोटें आई, चोटें दोनों तरफ बराबर थीं। यही तो होता है बलबा में। रामदयाल कारिन्दा जमीन पर गिर कर कराह रहा था। पहली बार ऐसा हुआ था कि रामदयाल बुरी तरह से सहपुरवा में मारा गया था नहीं तो सांड़ बना वह गॉव में घूमा करता था। सारा द्श्य देखते ही रामभरोस और दारोगा जी भाग खड़े हुए हालांकि फेकुआ और बिफना ने उन्हें पछियाया था पर वे लोग पकड़ में नहीं आये फिर वे दोनों वापस आ गये और मार के बदले मार में शामिल हो गये।
ष्शोभनाथ पंडित चोट के कारण कराह रहे थे। विभूति सिपाहियों को मार रहा था और गालियां दिए जा रहा था। मार के दौरान बिफना ने सावधानी नहीं बरता होता तो रामदयाल कारिन्दा शोभनाथ पंडित की जान ले लेता। शोभनाथ के माथे पर लोहबन्दा पड़ते ही बिफना ने देख लिया फिर क्या था शोभनाथ की देह पर वह तुरंत लेट गया, पसर कर उनकी देह जकड़ लिया। लोहबन्दा पड़े तो उसकी पीठ पर, शोभनाथ पंडित पर एक भी लोहबन्दा नहीं पड़ना चाहिए। फिर तो कई लोहबंदे बिफना की पीठ पर ही पड़े, उसे काफी चोट लग गई फिर भी बिफना ने बचा लिया शोभनाथ पंडित को। जवान था पर चोट बर्दाश्त करने से बाहर की थी। वह कराहने लगा था। रामदयाल कारिन्दा तो पहले ही भाग जाता पर सबसे पहले हरिजनों ने उसको ही मारना शुरू किया और वह वहीं भहरा गया। सो वह न भाग सका।
ष्शोभनाथ पंडित को गोदी में उठा कर दो तीन लोग उनके घर लाए, घर पर उनका घरेलू उपचार किया गया। चोट बिभूति को भी लगी थी पर वह चोट के कारण असमर्थ नहीं हुआ था। वह सीधे घर की तरफ भागा और अपना ट्रेक्टर निकाल लाया। शोभनाथ पंडित और बिफना को काफी चोटे लगी थीं, वे कराह रहे थे, उन्हें अस्पताल पहुंचाना जरूरी था। किसी तरह ट्रेक्टर पर लाद कर उन्हें बिभूति अस्पताल ले गया।
गॉव में झगड़ा या बलवा होते ही रामभरोस अपने घर चले गये फिर घर से कहां लापता हो गये किसी को नहीं मालूम, अनुमान था कि बखरी छोड़ कर भाग गये होंगे। कृपालु जी का भी सहपुरवा में कहीं अता पता नहीं था।
प्रसन्नकुमार सहपुरवा में नहीं था। शोभनाथ पंडित और बिफना को अस्पताल ले जाते समय ही विभूति ने साथियों से गॉव छोड़ कर भाग जाने के लिए बोल दिया था। उसके कहे के अनुसार सभी हरिजनों ने गॉव छोड़ दिया था गोया पक्ष विपक्ष दोनों गॉव छोड़ चुके थे।
सहपुरवा में किसी भी तरह से रामभरोस को बलबा कराना था, वह हो चुका था। मारपीट, पुलिस मुजाहिमत, शोभनाथ पंडित मरें या जियें यह उनकी निजी बात थी। आगे का परिदृश्य साफ था, रामदयाल जिन्दा है, वह पुलिस का गवाह बनेगा अगर मर जाता तो रामभरोस दूसरा कारिन्दा रख लेते। रामभरोस के लिए सहपुरवा का वातावरण काफी अनुकूल था। उन्हें अफसोस इस बात का था कि कानून का यह खेल पंचायत भवन का निर्माण गिराए जाने के दिन ही हो जाता तो अच्छा होता पर एक दिन बाद हुआ। दारोगा के आने के पहले ही सहपुरवा में बलवा हो जाना चाहिए था पर यह भी अच्छा हुआ कि सारा मामला पुलिस और हरिजनों के बीच में हो गया। अब उनसे इस बलबे से कुछ लेना देना नहीं।
रामभरोस जानते हैं कि घरों में विभूति जैसे नालायक भी हुआ करते हैं जो अपनों के खिलाफ ही लड़ते रहते हैं। प्रसन्नकुमार भी नालायक ही है। वह यह नहीं जानता कि हरिजनों का मन बढ़ा कर उसे क्या मिलने वाला है? विभूति पकड़ जाये चाहे प्रसन्नकुमार, हम मार खांयें या शोभनाथ दोनों एक हैं, कोई फरक नहीं है दोनों में। विभूति और प्रसन्नकुमार पता नहीं क्या पढ़ रहे हैं, उन्हें अपनी जाति तथा अपने लोगों के बारे में कुछ भी पता नहीं। भला हरिजन कभी पंडितों का साथ देंगे? पर कौन समझाए उन दोनों को। कउआ कभी बगुला हो सकता है भला!
बलवा हो जाने के बाद रामभरोस चिंतक बने जा रहे थे। अपनी जाति और वर्ण के बारे में सोचने लगे थे, वे भला कैसे सोच पाते कि आदमी तो केवल आदमी होता है, आदमी की कोई जाति नहीं होती, कोई धर्म नहीं होता उसका तो केवल एक ही धर्म होता है मनुश्यता वाला, मानवीय समीपता वाला। उन्हें का पता कि पुलिस में भी तो अपने ही लोग होते हैं गॉव के लोग, गॉव की माटी में जन्मे, गोबर, माटी से सने। फिर किस बात का झगड़ा। पर झगड़ा तो वे लगा चुके थे उसी का परिणाम था बलबा। रामभरोस गॉव में अगर राजनीति न करते तो शायद बलबा न होता, आखिर का जरूरत थी औतार का पट्टा खारिज कराने की उन्हें, किसी दूसरी जमीन पर पंचायत भवन बनवा देते।
प्रसन्नकुमार का रामभरोस से झगड़ा केवल उनके आंतंक को समाप्त करने के लिए था। रामभरोस को जानना चहिए कि जमाना बदल चुका है सो उन्हें भी बदल जाना चाहिए जमाने के साथ। रामभरोस का प्रसन्नकुमार और शोभनाथ से झगड़ा इस लिए था कि वे रामभरोस के आतंक को रोक रहे थे उनके फर्जी सम्मान पर चोट कर रहे थे सो रामभरोस झगड़ रहे थे और प्रसन्नकुमार को जेल भिजवाना चाहते थे।
रामभरोस को बार बार रामदयाल कारिन्दा पर भी गुस्सा आ रहा था....
‘साले ने शोभनाथ पंडित को मार कर बेमतलब सारा खेल बिगाड़ दिया और गॉव में बवाल बढ़ गया। रमदयलवा को शोभनाथ पर बोंग चलाना ही नहीं चाहिए था। उसे तनिक भी समझ नहीं कि पुलिस बोंग चलाने के लिए ही तो आई थी। जो काम उसने किया उसे पुलिस करती, पुलिस ही फेकुआ, औतार, सुक्खू, शोभनाथ को मारती पीटती, गिरफ्तार करती। हम लोगों को तो केवल खामोश रहना था और पुलिस के कानूनी खेल को देखना था। दारोगा सहपुरवा में भंाग पीने या सोहर गाने थोड़य आया था।’
रामभरोस सारा खेल सामंती चाल के तहत कर रहे थे। सामंती चालें हालांकि पहले नहीं खुलतीं पर बाद में खुल जाया करती हैं। सामंती चाल की ऐतिहासिकता बताती है कि कमजोरों को आपस में सदैव लड़ाते रहो, उनमें फूट पैदा किए रहो। सामंती चाल अंग्रेजों वाले फूट डालो और राज करो से मिलती जुलती ही होती है। जो हमारे समाज में बहुत पहले से चल रही है। रामभरोस की चाल थी कि पंडित शोभनाथ के प्रति हरिजनों में अविश्वास पैदा करना और हरिजनों से ही शोभनाथ पडित पर मुकदमा करवाना पर सब बेकार हो गया। रामभरोस के लिए चिन्ता की बात यह भी थी कि उनका लड़का विभूति भी उनके विरोधियों की गोल में शामिल हो कर उनके खिलाफ हो गया है। वह भी बांेग चला रहा था हरिजनों के साथ। ट्रेक्टर पर लाद कर शोभनाथ पंडित को वही अस्पताल भी ले गया था। उनकी सामंती चाल सहपुरवा में फेल कर चुकी है।
चोट खाये सिपाहियों को थाने पर पहुंचा दिया गया।
भीड़, दारोगा और सिपाही, मार पीट और सहपुरवा, सहपुरवा के रामभरोस, रामदयाल, शोभनाथ पंडित, प्रसन्नकुमार, औतार ओर विभूति, सिपाही घायल। सहपुरवा घायल। एक गॉव का घायल और चोटिल होना अशुभ नहीं तो और क्या है और सिपाहियों का घायल होना... वह तो सत्ता प्रबंधन का अपमान है।
क्षेत्रा में ही नहीं पूरे जिले में जोरदार चर्चा थी जिन्हें सहपुरवा का नाम तक मालूम नहीं था वे भी जान गये थे सहपुरवा का नाम। हरिजनों के लिए शोभनाथ पंडित का संघर्ष प्रशंसनीय था पर उनकी बिरादरी में निन्दनीय, उन्हें उनकी जाति वाले गरिया रहे थे। हर ओर हल्ला था....कृ
‘ये हरिजन किसी के नहीं होते’
प्रसन्नकुमार को बाद में मालूम हुआ कि उसके पिता को चोटें आईं हैं और सहपुरवा में बलबा हो गया है। सिपाही भी मार खाये हैं। प्रसन्नकुमार अपने पिता जी से मिलने के लिए व्याकुल हो उठा। वह अपने पिता से अस्पताल में मिला, उन्हें ज्यादा चोेटें नहीं आई थीं। दूसरे दिन ही शोभनाथ पंडित और बिफना को अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया। गनीमत थी कि औतार सुक्खू और फेकुआ को अधिक चोटें नहीं आयी थीं, केवल बिफना को अधिक चोट लगी थीं वह भी शोभनाथ पंडित की देंह पर लोट जाने के कारण। प्रसन्नकुमार का मानना था कि जो लोग फरार हैं उन्हें फरार ही रहना चाहिए। गिरफ्तारी देना उचित नहीं होगा आखिर गिरफ्तारी भी किस सरकार के आगे? ऐसी सरकार के आगे जो विनम्र नहीं है। ऐसी सरकार के आगे जो कुछ खास लोगों का पक्ष लेती है, ऐसी सरकार के आगे जो समाज में आर्थिक रूप से भेद-भाव करती है, जो गरीबों को, प्रताड़ितों को जनता ही नहीं मानती।
सरकारी व्यवस्था का पूरा चित्रा उसकी ऑखों के सामने था जयप्रकाश अटल, लालकृष्ण आडवानी, राजनारायण जेलों में बन्द हो कर न्याय की भीख ही तो मांग रहे हैं। न्याय नहीं मिलता, न्याय मिलने वाली चीज भी नहीं, मिलता है प्रशासन का दमन,, मिलता है डंडा और मिलती है जेल, बन्दूक की गोलियां मिलती हैं।
सहपुरवा के हरिजन फरार थे। वे गॉव में तब तक नहीं आते जब तक प्रसन्नकुमार उन्हें गॉव आने के लिए नहीं बोलता।
‘घटना, मुजाहिमत, विश्लेषण, कानून
व न्याय, औतार, रामभरोस, प्रसन्नकुमार सभी
वहीं फिर भी गॉव की संस्कृति अपराध की कृति बन गई!’
पंचायत भवन का निर्माण गिराए जाने के दूसरे दिन सहपुरवा की हरिजन बस्ती पुलिस द्वारा घेर ली गई। समाज में शाान्ति बनाए रखने के लिए वेतन पाने वाले सिपाही कोई करतब नहीं कर पाए। मार-पीट के सहारे विवाद सुलझाने की उनकी कोशिश बेकार चली गई। गॉव में मार शुरू हो गई, सिपाही तथा गॉव के दोनों पक्ष चोटिल हो गए। मार शुरू किया रामदयाल ने शोभनाथ पंडित पर बोंग चला कर, उनका साथ दिया सिपाहियों ने। सिपाहियों ने जैसे ही लाठी भॉजने का पारंपरिक कौशल दिखाना शुरू किया वैसे ही सहपुरवा के हरिजनों ने अपने बचाव में लाठियां भॉजना शुरू कर दिया। मार तो एक रेखीय होती है, मार, मार, मार केवल मार। सिपाही थे ही कितने जो गॉव वालों के सामने टिक पाते। सिपाही टिक भी नहीं पाते। सिपाही तभी टिक पाते हैं जब तक उनका अदब लोगों को डराए रहता है। यह दुनिया अदब का खेल है, इसी अदब के कारण सारा कुछ चलता हुआ दीखता है। सहपुरवा से अदब खतम हो चुका था। वैसे भी गरीबी और यातना की जंग में अदब की ही हार होती है। गॉव वाले आत्मरक्षा पर उतर आये थे, उनकी आत्मा ने मान लिया था कि मार का प्रतिकार केवल मार ही होता है। वे मान जाने की स्थिति में नहीं थे, रामनोहर लोहिया का सिद्धान्त ‘मानेंगे नहीं पर मारेंगे भी नहीं’ सहपुरवा की गलियों में भहरा कर चोटिल हो चुका था सो मार तो होनी ही थी। गॉव वाले भी चोटिल हो गए थे, वे भी मार खाए थे पर उनका मार खाना व्यवस्था के लिए चुनौती नहीं थी। चुनौती थी सिपाहियों के मार खाने की, सो सारा प्रशासन आग में जलने लगा था।
जिलाधिकारी और कप्तान के आदेश आ चुके थे। सिपाहियों का दस्ता बुला लिया गया था। गरीब व यातनाग्रस्त जनता सिपाहियों से मार-पीट कर ले यह साधारण बात नहीं थी जितनी मनोवैज्ञानिक है उससे अधिक सामाजिक है। सहपुरवा से जान बचाकर दारोगा को भागना पड़ा था। सहपुरवा की मानसिक शान्ति खत्म हो चुकी थी। अनहोनी किस्म का डर पूरे गॉव में पसर चुका था। पुलिस से मार-पीट करना पूरी व्यवस्था को चुनौती देना था। सहपुरवा में शान्ति स्थापित करवाना और दोषियों को दण्डित करवाना पुलिस के लिए सबसे जरूरी काम बन चुका था। पर दोषी कौन था, किसने पहले मार करना शुरू किया था उसे पता लगा पाना अज्ञात का खेल बना दिया गया पर पुलिस जानती थी कि सहपुरवा में बलबा रामभरोस के कारण हुआ। उन्हीं के इशारे पर रामदयाल ने शोभनाथ पंडित पर लोहबन्दा चलाया था। अगर शोभनाथ पंडित को रामदयाल ने लोहबन्दा से न मारा होता तो शायद सहपुरवा में बलबा नहीं होता।
मानव सभ्यता की बुनियाद तो शान्ति व्यवस्था पर टिकी होती है पर कैसे स्थापित रह सकती है शान्तिव्यवस्था। इस बाबत इतिहास से शायद कुछ सीख मिल सके पर सहपुरवा में तो कहीं इतिहास था ही नहीं। सहपुरवा की हर गली, हर सिवान इतिहास विहीन थे, इतिहास तो केवल रामभरोस का था। गॉवों में मारपीट और बलबा कराने का, उस इतिहास से सहपुरवा का कैसे भला होता? उनका इतिहास तो मार-पीट, दमन से शुरू ही होता था।
सहपुरवा की घटना का विश्लेषण पुलिस कर रही थी कि शान्तिप्रिय हरिजनों ने अपने हाथ में कानून क्यों ले लिया? कुछ ही लोग पुलिस के ऐसे थे जो मान कर चल रहे थे कि हरिजनों ने आत्मरक्षा में लाठियॉ चलाईं थीं पर जो रामभरोस के समर्थक थे वे हरिजनों का दोष गिना रहे थे। सहपुरवा की घटना का कौन दोषी है जिसके कारण सुलह सफाई वाली एक घटना बलवा में तब्दील हो गई, इसका निर्णय तो पुलिस को ही करना था सहपुरवा के हरिजन इसका निर्णय कैसे कर सकते थे?
क्षेत्रा के लोगों को पता था पुलिस की ताकत के बारे में, केवल पुलिस की प्रतिक्षा थी कि पुलिस क्या करने वाली है?
पुलिस मानने वाली नहीं थी उसे तो अपनी ताकत दिखानी ही थी। पुलिस के लोगों ने जब सिपाहियों की हालत गंभीर देखा फिर तो उनके गुस्से का पारा चढ़ गया। सिपाही बहुत अधिक चोटिल हुए थे एक सिपाही की हालत तो इतनी गंभीर थी कि उसे बनारस भेजना पड़ गया था।
हरिजनों की हिम्मत टूट चुकी थी। वे कोई पेशेवर अपराधी नहीं थे जो हिम्मत रखते। स्वस्फूर्तता के कारण मार-पीट हो गई थी, वह भी खुद को बचाने के लिए। वैसे भी हरिजनों की पूर्व योजना नही थी मार-पीट की। वे तो खुद को बचाना चाहते थे कि पुलिस के डन्डे उन पर न पड़ें। हरिजन डर के मारे परेशान थे, जाने पुलिस क्या करे। किसे गिरफ्तार करे, किसे मारे पीटे। इसी डर के कारण वे गॉव छोड़ चुके थे, भाग गए थे कहीं।
घटना के दूसरे दिन ही गॉव में पुलिस आ गई एक दो सिपाही नहीं, कई कई सिपाही, कई दारोगा तथा पुलिस के अधिकारी भी। शोभनाथ पंडित, औतार और सुक्खू अपने घरों पर नहीं मिले। उनके न मिलने के कारण उनके घरों की तलाशी ली जाने लगी। उनके घरों के सामानों को कूड़े की तरह घर से बाहर गली में फेका जाने लगा। घर में भी जो घर होता है उसमें उपद्रव शुरू हो गया। बच्चे जो घर में थे डर कर भागने लगे, रोने लगे। हर तरफ चिल्ल पों शुरू हो गया, औरतें भागने लगीं। पुरुष डंडे और बन्दूकोें के कुन्दों की मार से बेहोश होने लगे। पूरी हरिजन बस्ती से व्यवस्था के आंसू बह निकले, खपरैल और मड़हा कराहने लगे। दीवारें रोने लगीं। कॉपते हुए सहपुरवा का दृश्य ‘अहा ग्राय जीवन’ से एकदम अलग वाला उभर चुका था।
कोई सुराग नहीं मिला। औतार, सुक्खू, शोभनाथ, प्रसन्नकुमार तथा बिफना कहां हैं? कहां छिप गये हैं, गॉव में काई बताने वाला नहीं था या किसी को मालूम ही नहीं था। फिर कौन बताता उनके बारे में। गॉव में जो उनके बारे में जानने वाले थे वे मार खा रहे थे फिर भी फरार लोगों के बारे में कोई बता नहीं रहा था। वे मार खा रहे थे पर बोल नहीं रहे थे। पूरे सहपुरवा को नियंत्रित कर सकने तक की संख्या में सिपाही थे। पहली बार की तरह नहीं कि उस बार कम थे सो मार खा गये इस बार मारने के लिए आये थे और मार रहे थे। मारने के लिए दिशा निर्देश तो होते नहीं, मारने का तरीका तो आदिम ही है। मार-पीट के मामले में सरकार भी क्या कर सकती है? सरकार को तो जनता में शान्ति चाहिए वह चाहे जैसे स्थापित हो जनता में। सिपाही सरकारी काम निपटा रहे थे। सहपुरवा में कोई पूछने वाला भी तो नहीं था कि सिपाहियों से पूछता....कृ
‘का कर रहे हो भाई?’
सहपुरवा पुलिस बल प्रदर्शन का नमूना बन गया था, कैसा होता है पुलिस बल? बल के द्वारा मनुष्यों को नियंत्रित व अनुशासित रखने वाला पुलिस का अभिनव तरीका सहपुरवा देख रहा था।
‘भाई ऐसा काहे कर रहे हो’ सिपाहियों से कौन पूछता?
सहपुरवा ही नहीं कहीं भी कोई नहीं पूछता, पुलिस से ही नहीं दंगाइयों, उग्रवादियों व आतंकियों से भी नही पूछता। जनता बुरी तरह से डरती है बन्दूक चलाने वालों से। पुलिस तो पुलिस होती है कानून व्यवस्था को स्थापित करने वाली, उससे भला कौन पूछ सकता है। हमारी सभ्यता से पूछने का सिलसिला ही गायब है, कोई किसी से नहीं पूछता, किसी बात पर नहीं पूछता पर गॉव की गलियॉ पूछती हैं, सिवान पूछते हैं, खून भी तो उन्हें ही सोखना पड़ता है।
घरों में औरतें चीख रही थीं, बच्चे चीख रहे थे। माई, माई चिल्ला रहे थे, पुरुष कराह रहे थे। पुलिस बारी बारी से सबकी पिटाई कर रही थी। पकड़ कर खदेड़ कर जैसे भी पर मार रही थी। मार-पीट से कोई हल नहीं निकल रहा था। फरार लोगों के बारे में पुलिस को कहीं से सूचना हासिल नहीं हो पा रही थी। एक घर के बाद दूसरे घर की तलाशी होती। विशेष देर उन घरों में लगती जहां खूबसूरती होती थी, जवानी होती थी। उन घरों में सिपाही अधिक देर तक रुकते और अपनी पीठ ठोंकते हुए बाहर निकलते।
एक सिपाही घर में से बाहर निकलता, दूसरा घर के अन्दर जाता फिर बहुत जाते। सहपुरवा सिपाहियों के घर के अन्दर जाने और बाहर निकलने का खेल बन गया था। उन्हें घर में जाने से कौन रोकता? ऊपर का आदेश था, कितने ऊपर का था इसे सहपुरवा का जाने, पर आदेश था, तो था।
पुलिस वालों में आक्रोश था, सिपाही मारे गये थे, कोई छोटी बात नहीं थी। पुलिस मुजाहिमत हुई थी। पुलिस कुछ भी कर सकती है, जो वह कर भी रही थी। उनके पास मारपीट का शास्त्रा था, शस्त्रा था, और क्या चाहिए उन्हें? घर में मुल्जिम न मिलने पर वे अपनी समझदारी से घरों में घुसते फिर तो देह ढीला छोड़ देते, मन में बसंत उतार लेते, वे इस काम में अनुशासित रहते। वे ऐसा करतब करते कि हरिजन महिला भी अनुशासित रहती। लोगों को अनुशासित रखने की कलायें पुलिस के पास होती ही हैं। हरिजन महिलायें बेचारी करती भी क्या, कितना करती, कितना लड़ती। इनकार करने पर एक पर दो हो जाते। वह चीखने लगती। एक खड़ा रहता, दूसरा बाहर इन्तजार करता। बाहर इन्तजारी में वह ढीला पड़ने लगता।
‘अबे साले बाहर निकलो, दूसरा बोलता’
बाहर वाला आखिर कब तक अन्दर, बाहर के खेल की प्रतिक्षा करता?
पहला भीतर असफल प्रयास करता या प्रयास कर ही नहीं पाता। अब बाहर वाले को का पता कि अन्दर का हो रहा है? सिपाहियों का घरों में घुसना भले ही जनहित के खिलाफ हो, पर उनके हित में तो था ही। वे उस समय अपना हित देख रहे थे जिसमें वे सफल थे। मुल्जिम नहीं मिले तो नहीं मिले, उन्होंने पूरी कोष्शिश की। रामभरोस को जो करना था वह पुलिस कर रही थी। रामभरोस तो चाहते ही थे कि हरिजन परेशान हों, वे मारे-पीटे जांए सो रामभरोस भी सिपाहियों केे साथ साथ थे तथा उनके बांए दांए चल रहे थे।
औतार के घर की भी तलाशी ली गई। औतार और फेकुआ को पुलिस गिरफ्तार करना चाहती थी। वे घर में नहीं थे। औतार और फेकुआ के बारे मेें पुलिस ने सुमिरिनी से पूछा, सुमिरिनी का जबाब पुलिस के लिए अपमान जनक था। एक चमाइन (हरिजनों की औरतों को हरिजनाइन न बोल कर चमाइन बोला जाता था, ठाकुर की औरत ठकुराइन की तर्ज पर) अकड़ कर उनसे बतियाए....कृ
‘ईहां ऊ लोगन नाहीं हैं, वे इहां रहते तो अकेली अकेला फरिया लेते आप लोग फिर पता चल जाता कि किसके मुसुक में केतना जोर है? आपलोगों के घर बहिन बिटिया नाहीं हैं का कि हर घरे में घुसुर जा रहे हैं। सहपुरवा का झगड़ा निपटाने के लिए आप लोग नाहीं आये हैं। आप लोग तो देह जुड़वाने आए हैं तो जुड़वा लीजिए अपनी अपनी देह, पटा लीजिए देह की गर्मी। फिर हमसे काहे पूछ रहे हैं कि वे लोग कहां गए हैं। जो करने आए हैं वही कीजिए। मेहरारू देखते ही उस पर टूट पड़ रहे हैं आप लोग। इहां का सारा झगड़ा रामभरोस लगवाए हैं उनसे काहे नाही पूछ रहे हैं आप लोग, उनसे पूछिए कि वे काहे झगड़ा लगा रहे हैं गॉव में’
कौन सहता कौन बर्दास्त करता वह भी एक चमाइन की बात। वह भी तब जब सुन्दर तथा जवान चमाइन बोल रही हो, पुलिस वैसे भी किसी की नहीं सुनती न सहती है।
‘का बक रही है रे! इसका मुंह तो बहुत तेज है, इसकी इतनी मजाल कि हमलोगों से कड़क बोले।’
सहपुरवा आतंकित था। दमन का खेल पुलिस वहां खेल रही थी तथा नये नये खेलों को आजमा भी रही थी। वहां न कोई छिप सकता था न भाग सकता था। जिन घरों के दरवाजे नहीं खुले उनमें आग लगा दी गई फिर तो दरवाजे अपने आप खुलने लगे, खुले दरवाजे से पुलिस अन्दर जाती और अपना करतब दिखाती, सहपुरवा करतब देखता। सन्न और सुन्न।
रामभरोस सिपाहियों के साथ थे। उन्होंने सिपाहियों को बताया...कृ
‘यही फेकुआ की मेहरारू है, देखिए केतना कड़क बोल रही है। भला बताइए नऽ इसको कौन चमाइन बोलेगा।’
सिपाही कुछ भी कर सकते थे। इसी समर्थता के तहत वे कर भी रहे थे। उनसे जाति बिरादरी से का मतलब, देह वाले कामों के लिए सभी बराबर होते हैं, ऐसे कामों में देह नहीं छुआती, मन नहीं घिनाता। वे सुमिरिनी की ओर बढ़ गये।
सुमिरिनी सिपाहियों को सुन्दर लग रही थी, न भी सुन्दर होती तो भी क्या था, जवान तो थी ही। वैसे वह सुगठित देह वाली युवा थी चित्ताकर्षक, मन मोहने वाली थी। रामभरोस के सामने ही एक सिपाही सुमिरिनी की तरफ बढ़ा, वह बढ़ता ही जा रहा था और रामभरोस देख रहे थे कि वह बढ़ रहा है सुमिरिनी की तरफ। कभी कभार जब रामदयाल कारिन्दा रामभरोस के पहले कुछ कर जाता था, तब वह रामभरोस से मार खाता था। वे सिपाहियों का का कर लेते....वे सिपाहियों को सुमिरिनी की तरफ बढ़ने से रोक नहीं सकते थे। वे सिपाही थे रामदयाल कारिन्दा नहीं जो उसे मारते। सिपाहियों को भला वे कैसे रोक पाते, सिपाही तो सिपाही होते हैं, दमन की कारीगिरी में सने-पुते।
सहपुरवा जल रहा हो, कोई रोकने वाला न हो, सामने औरत हो। आग में तपता तवा। पानी छन्न, सिपाही छन्न हो चुके थे, मामला छनक गया था।
एक सिपाही ने सुमिरिनी को छेड़ा...कृ
‘का राजा, तेरी जुबान तो बहुत कड़क है’
सुमिरिनी का गाल पकड़ कर दूसरे सिपाही ने हिलाया।
बचना कठिन है, मुश्किल है। सुमिरिनी को दूसरा सिपाही घूर रहा था। सामने रामभरोस खड़े थे। उस समय वह भाग भी नही सकती थी, भागती भी तो किधर जाती, हर तरफ सिपाही ही सिपाही थे। गली में, नोक्कड़ों पर, बरम बाबा की चौरी की तरफ भी, वहां भी जहां गॉव के डीहवार थे। सहपुरवा के सिवान तथा गलियां को ही नहीं, देवताओं के निवासों को भी सिपाहयों ने घेर लिया था। एक बार तो वह भाग गई थी उस समय पुलिस नहीं रामभरोस उसे छेड़ रहे थे। इस बार तो पुलिस है, भागती भी तो कितना भागती कहां जाती? पूरा गॉव घिरा हुआ है, सब घिरे हैं, पूरा देश घिरा है, समय की बात है, कोई पहले कोई बाद में।कृसुमिरिनी ने साहस बटोरा और..कृ
‘का हो सिपाही बाबू! सब कुछ तो लूट लिए आप लोग, बस्ती में आग भी लगा दिए। मार-पीट भी कर रहे हैं। इतने से पेट नहीं भरा तो हगनी मुतनी पर उतर आए हैं। जो करना चाह रहे हैं वह सब कर ही रहे हैं फिर हमसे का पूछ रहे हैं कि औतार कहां हैं और फेकुआ कहां है। हमैं का पता कि ऊ लोग कहां हैं। आपलोग पापी हैं, पापी, जो बहिन बिटिया भी नाहीं छोड़ रहे हैं, का इहै सब करने के लिए आपलोगों को सिखाया जाता है।’
अचानक सुमिरिनी रामभरोस की ओर मुड़ जाती है और....कृ
रामभरोस सुमिरिनी को देख कर जैसे अवाककृजाने क्या करने के लिए उनकी तरफ बढ़ रही हैकृसंभव है गरियाए या और कुछ... पर गरियाने के लिए रामभरोस की तरफ सुमिरिनी नहीं बढ़ रही थी....कृ
‘का हो रामभरोस पंडित! तोहके भी तो हगनी मुतनियय चूमना चाटना था, अउर लोटना था देहीं पर। जेके जेके देहीं पर लोटना अउर हाड़मास चूसना होय सभै को बुलवाय लीजिए, कोई बाकी न रहि जाए। नाहीं तो पता नहीं कै बार सहपुरवा में पुलिस आएगी और सहपुरवा जलता रहेगा।’
‘पंडित जी एक बात बताइए हमरे देहीं पर पहिले के लोटेगा सिपाही बाबू के आप? मौका अच्छा है आप भी लोट लीजिए हमरे देहीं पर, चूस लीजिए हगनी मुतनी, काहे गुमसुम हैं, कुछ करिए न पंडित जी! हमरे देहीं पर जितना लोटना हो लोट लीजिए पर फिर कभी सहपुरवा न जलाइएगा। सहपुरवा जलाने से आपको का मिलेगा। आपको भी तो हाड़ैमास ही चूसना था, हम राजी हैं जितना चूसना हो चूस लीजिए। दिन में चूसिए चाहे रात में चूसिए, हम मना नाहीं करेगे। गुसियाके हम नाहीं बोल रहे हैं, साची बोल रहे हैं पंडित जी!’
सुमिरिनी की ऑखें लोर टपका रहीं थीं फिर भी वह बोल रही थी, उसे बोलना ही था। उसने ऑखें पोंछी और अचानक रामभरोस की गोदी में भहरा गई।
रामभरोस तो जैसे सुन्न और सन्न। हो क्या रहा है, क्या करना चाह रही सुमिरिनी। उन्हें बिजली के करेन्ट जैसा झटका लगा जान पड़ा कि उनकी देह हरिजन बस्ती की तरह जल उठेगी फिर तो वे कॉपने लगे हालांकि वे कॉपने वाले आदमी नहीं थे। अचानक उनकी ऑखें नीचे झुक गईं। उन्हें कुछ नहीं सूझा कि सुमिरिनी से का बोलें? सुमिरिनी को गोदी से हटा देने के बाद वे बखरी की तरफ चल दिए। बखरी की तरफ जाते समय उनके पैर कांपने लगे थे और कलेजा धड़कने लगा था। तब तक सहपुरवा पूरा जल चुका था, पूरे गॉव के हरिजनों पर मुकदमा लाद दिया गया....
गॉव के हरिजनों पर चल रहे मुकदमे का हुआ सारा कुछ समय की चालों में समा गया। रामभरोस मुक्त हो चुका है सहपुरवा, धीरे धीरे बीत गये तिरालीस साल। सहपुरवा छोड़ चुके हैं औतार, फेकुआ तथा मुकदमे के अन्य आरोपी भी, रामभरोस की बखरी बहरा गई है पर सहपुरवा आज भी है आइए चलते हैं सहपुरवा में.....कृकृ
‘रामभरोस से मुक्त सहपुरवा के बीत गए
तिरालीस साल। बीसवीं शदी ने छलांग लगा लिया इक्कीसवीं
शदी में। पर क्या सहपुरवा मुक्त हो पाया गरीबी और यातना से?
रामभरोस मुक्त तो हो गया सहपुरवा पर गरीबी और यातना से मुक्त नहीं हो पाया। प्रसन्नकुमार ने आपातकाल वाला सहपुरवा भी देखा था और आज का सहपुरवा भी देख रहा है। सहपुरवा आपातकाल में रामभरोस का आतंक झेल रहा था तो आज सहपुरवा बाजार, बैंक, कर्ज तथा अधिकारियों की उपेक्षाओं का दंश झेल रहा है। पहले रामभरोस की बखरी ही थी सहपुरवा में जिसके इशारे पर सहपुरवा नाचा करता था औरआज तो वहां कई किस्म की नोटों वाली बखरियॉ उसे नचा रही हैं।
रामभरोस से ही नहीं उन लोगों से भी मुक्त हो चुका है सहपुरवा जो रामभरोस के आतंक से परेशान थे। वे सभी सहपुरवा छोड़ कर भाग चुके हैं अब वे गॉव में नहीं हैं।
वैसे भी आपातकाल की कहानी में प्रसन्नकुमार कभी नहीं जाना चाहता। उस कहानी के बारे में सोचते ही वह सिहर उठता है। आग में जलता हुआ सहपुरवा दिखने लगता है उसे।
उसके घर की मरम्मत का काम चल रहा था। टूट फूट हो गई थी घर में। बाप दादों के घर को तो वह गिरने नहीं दे सकता। परिवार की स्मृतियों को सहेज कर रखना है। वैसे वह गॉव में नहीं रहता। वह रापटगंज में रहता है वहीं उसने अपना निवास बना लिया है।
घर जाते समय उसे रामभरोस की खंडहराती बखरी दिखी। वही बखरी जिसकी चमक से कभी ऑखें चुधिया जाया करती थीं। बखरी शान्त खड़ी थी विजयगढ़ किला की तरह। किले के बाबत किसिम किसिम की कहानियॉ अब अर्थहीन हो चुकी हैं केवल यही शेष है कि बनारस के राजा चेत सिंह इसी किले से भागे थे जब अंग्रेजी सेना ने उनका पीछा किया था। चर्चा में यह भी है कि अंग्रेजी सेना का मुकाबिला करते हुए दो आदिवासी जूरा महतो और बुद्वू भगत वहीं शहीद हो गए थे। बिजयगढ़ किले की तो किसी न किसी रूप में आज भी चर्चा है पर रामभरोस की बखरी तो चर्चाओं से बाहर हो चुकी है। समय की प्रखरताओं ने बखरी के अस्त्तिव को मिटा दिया है, केवल बखरी बची हुई है खण्डहर बनने के लिए, जो बन भी रही है।
रामभरोस की बखरी के उतरे हुए ताप ने प्रसन्नकुमार को विचलित कर दिया अब तो यहां कुछ भी नहीं, बखरी ही नहीं उसकी दिवारें भी रो रही हैं, रामभरोस नाम का कोई आदमी यहां कभी रहा करता था, पता नहीं चल रहा। रामभरोस मुक्त हो चुका है सहपुरवा अंग्रेज मुक्त भारत की तरह।
जनप्रतिरोध ने पंचायत भवन के अस्तित्व को ही नहीं रामभरोस की बखरी के अस्तित्व को भी मिटा दिया। बखरी की मिट चुकी कहानी ने प्रसन्नकुमार को भावुक बना दिया। उसे लगा कि बखरी रो रही है। ऐसा ही हुआ करता है, बखरियॉ को तो खुद ही अपने अतर्विरोधों से किसी न किसी दिन रोना ही पड़ता है।
आपातकाल के ठीक बाद कांग्रेसी सरकार का पतन हो गया। कई दलों के गठबंधन वाली जनता पार्टी की सरकार बनी जो अपने दलगत अन्तर्विरोधों से अल्पकाल में ही भहरा गई। सरकारें तो बनती बिगड़ती रहती हैं उससे जुड़े जनता के सपने भी लगातार बनते बिगड़ते रहे हैं। जनता के सपनों को खंडित होता महसूस कर प्रसन्नकुमार काफी दुखी रहा करता था। जनता के सपने भी किसिम किसिम के थे, उनमें गरीबी हटाओ वाला जो रंगीन सपना था वह लगातार नारे की शक्ल में बदलता जा रहा था और जनता थी कि वहीं खड़ी थी 1947 के समय में। यानि आजादी वाले समय में। जनता नहीं जान सकी थी कि नया सबेरा क्या होता है क्या होता है नया युग, कैसे आते हैं अच्छे दिन, कैसी होती है अपने लोगों की सरकार, कैसा होता है लोकतंत्रा? वर्तमान लगातार अतीत बनता जा रहा था और सरकारें थीं कि वे हुकूमती रंग में रंग कर लगातार भूलती जा रही थीं अपने नारों को, वे जनता के प्रति विनम्रता भी भूल चुकी थीं। सहपुरवा में गरीबी जैसे पहले थी वैसे ही आज भी है।
देश का राजनीतिक रंग अचानक 2014 में बदल गया और केन्द्र में भाजपा की सरकार बन गई। भा.ज.पा. के पास तो पहले की सरकारों से भी अधिक प्रभावशाली नारे थे। नारों ने जनता को जागरूक कर दिया था कि देश जनता के प्रति तभी जिम्मेवार बन सकता है जब भारत ‘कांग्रेस मुक्त’ हो रामभरोस मुक्त सहपुरवा की तरह। अंग्रेज मुक्त भारत वाले नारे की तरह ‘कांग्रेस मुक्त’ भारत का नारा भी चल निकला। जनता ने मान लिया कि कांग्रेस को सरकार से बेदखल कर देना चाहिए और कांग्रेस बेदखल हो भी गई। भर भरा कर ढह गया कांग्रेस का अभेद्य दुर्ग।
किसी समय सहपुरवा को रामभरोस मुक्त बनाने के लिए प्रसन्नकुमार ने भी प्रयास किया था। पर वह सफल नहीं हो पाया था। उसे अपने प्रयासों से निराशा मिली थी। आपातकाल में ही सहपुरवा में बलबा व पुलिस मुजाहिमत का मुकदमा कायम हो गया था। वहां के सभी हरिजनों को उस मुकदमे में आरोपी बना दिया गया था। प्रसन्नकुमार ने राममभरोस के आतंक से सहपुरवा को मुक्त कराने का जो असहयोग आन्दोलन चलाया था वही हरिजनों के लिए विस्थापन का कारण बन गया। औतार, फेकुआ, बिफना, सुक्खू जैसे आन्दोलन वाले उसके सहयोगी गॉव छोड़ कर नहीं भागते पर वे गॉव में रहने, बसने की ताकत कहां से पाते? वे कमजोर तथा आतंकित थे सो सहपुरवा छोड़कर भाग जाना ही उन्हें समयानुकूल व उचित जान पड़ा और वे भाग गए।
हालांकि जनता दल वाली नई सरकार ने हरिजनों पर बलबा को जो मुकदमा चल रहा था उसे वापस ले लिया था फिर भी वे गॉव में रुकना उन्हें भला नहीं जान पड़ा। प्रसन्नकुमार अपने सहयोंगियों को बराबर आश्वस्त करता रहता था कि किसी न किसी दिन रामभरोस मुक्त हो जाएगा सहपुरवा फिर भी उसके सहयोगी उसकी बातें नहीं माने और गॉव से उजड़ गए।
रामभरोस जैसे सामंत किसी न किसी दिन मिट जाएंगे प्रसन्नकुमार जानता था पर वह यह नहीं जानता था कि दिन दहाड़े ही वामउग्रवादी उनकी हत्या कर देंगे वह भी उन्हीं की बखरी में घुस कर। वही बखरी जिसका अदब पूरे क्षेत्रा में पसरा रहता था दिन रात। हत्या के दिन ही विभूति से प्रसन्नकुमार मिला था तथा विभूति के साथ उनके मृत्यु संस्कार में भी वह शामिल हुआ था। उसने विभूति को समझाया भी था कि गॉव मत छोड़ो। आपातकाल के दौरान एक साथ मिलकर हम लोग जैसे काम किया करते थे वैसे ही मिलकर वामउग्रवादियों से भी मोर्चा लेंगे पर विभूति कहां मानने वाला था उसकी बातें। वामउग्रवादियों की डर से विभूति बनारस भाग गया और वहीं अपना घर मकान बना लिया। गॉव की सारी जमीन भी बेच दिया। विभूति की जमीन कौन खरीद पाता गॉव में, केवल एक ही आदमी थे चौथी गवहां। चौथी गवहां तो रामभरोस की हत्या के बाद से ही रामभरोस की जमीन की तरफ ऑखें लगाए हुए थे। उन्हांेने ही विभूति के दिल दिमाग को बदल दिया थाकृ ‘गॉव में रहोगे तो तुम्हे भी वामउग्रवादी नहीं छोड़ेंगे।’ डर तो डर, अगर डर ने दिल में घर बना लिया फिर तो सारे निर्णय डर के अगल बगल ही होंगे। रामभरोस की हत्या के बाद बिभूति दिमागी सन्तुलन खो चुका था इसीलिए उसने प्रसन्नकुमार के सुझावों पर ध्यान नहीं दिया और गॉव छोड़ दिया।
प्रसन्नकुमार नहीं चाहता था कि वह गॉव में अकेला हो जाए। वह चाहता था कि सहपुरवा में सभी रहें, रामभरोस रहें गॉव के हरिजन रहें, केवल रामभरोस का आतंक मिट जाए। वह रामभरोस का आतंक मिटाना चाहता था सहपुरवा से पर वह यह नहीं चाहता था कि रामभरोस मुक्त हो जाए सहपुरवा। समय को क्या कहा जाए सहपुरवा रामभरोस से ही नहीं औतार, फेकुआ, सुक्खू, बिफना, सुमिरिनी आदि से भी मुक्त हो गया एक दिन।
प्रसन्नकुमार अकेला हो गया गॉव में। तीन साल के भीतर ही उसके मॉ, बाप भी स्वर्गवासी हो गए। पूरे क्षेत्रा में वामउग्रवादियों का बोल-बाला हो गया। प्रसन्नकुमार की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे, गॉव में रहे या विभूति की तरह जगह-जमीन बेच कर वह भी कहीं दूर चला जाए। उसे पहले से ही विभूति अपने पास बुला रहा था पर प्रसन्नकुमार तो दूसरे दिल दिमाग वाला था। गॉव से पलायन करना यानि वामउग्रवादियों से डर कर भाग जाना उसे कायरता जान पड़ी। वह गॉव में ही रहेगा और गॉव के लिए कुछ न कुछ करेगा।
रामभरोस मुक्त सहपुरवा में बाजार आ चुका था। तमाम बाहरी लोग बस चुके थे गॉव में पुराने मिटने लगे थे और नये नये उभरने लगे थे। बाजार की गंध में सनी पगी दूसरी बखरियां गॉव में जनम ले चुकी थीं। उनमें सबसे बड़ी और प्रतापी बखरी बन चुकी थी चौथी गवहां की। रामभरोस की सारी जमीन चौथी ने पहले ही खरीद लिया था पर बखरी नहीं खरीदा था, उसे वे असगुनहा मानते थे। रामभरोस की बखरी की तरह ही चौथी गवहां की बखरी की हुकूमत गॉव में चलने लगी थी। चौथी गवहां का क्या कहने, वे देखते देखते रुपये के बल पर ब्लाक प्रमुख बन गए थे। गॉव की राजनीति बाजारू बनने लगी थी। जाति, धर्म वाली राजनीति भी घुस चुकी थी सहपुरवा में।
प्रसन्नकुमार बाजारू राजनीति नहीं कर सकता था सो उसने खुद को मौजूदा राजनीति के लिए अयोग्य मान लिया और राजनीति छोड़ दिया। पर करता क्या? कुछ न कुछ तो उसे समाज के लिए करना ही था। भला वह कैसे भूल सकता था सामाजिक दायित्व को भले ही उसने राजनीति छोड़ दिया था। बहुत सोच विचार कर अपने पिता जी के नाम पर शोभनाथ विद्या निकेतन नाम का एक विद्यालय गॉव में ही उसने स्थापित किया और उसके प्रचार प्रसार में लग गया। विद्यालय निःषुल्क था और खासतौर से आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए था। निःषुल्क विद्यालय चलाना आसान काम नहीं होता पर उसे जन सहयोग मिलने लगा था।
विद्यालय चल निकला और आज वह विद्यालय महाविद्यालय बन चुका है। पूरे जिले में शोभनाथ महाविद्यालय का बड़ा तथा चर्चित नाम है। उसमें पोस्ट ग्रेडुएसन की कक्षाएं भी चलने लगी हैं। प्रसन्नकुमार विद्यालय में कानून की पढ़ाई कराने के लिए भी अनुमति लेने का प्रयास कर रहा है। उसे उम्मीद है कि अनुमति मिल जाएगी पर अभी एक जॉच और की जानी है जिसके लिए जॉच पैनल शीघ्र ही विद्यालय पर आने वाला है।
उस पैनल में प्रसन्न नाम का शिक्षा विभाग में एक प्रमुख अधिकारी है जो जे.डी. के पद पर है। उसके जिम्मे ही जॉच का मुख्य कार्य है। प्रसन्न तो सहपुरवा का नाम सुनते ही गुनने लगा था कि कहीं यह सहपुरवा उसकी अइया वाला गॉव तो नहीं है? पर खुद को भरोसा नहीं दिला पा रहा था। संभव है कि अइया वाला सहपुरवा कोई दूसरा गॉव हो। जब उसे प्रसन्नकुमार के द्वारा सहपुरवा के बारे में विस्तृत रूप से मालूम हुआ तो वह खुष्श खुश हो गयाकृचलो जॉच के दौरान वह अइया का गॉव भी देख लेगा जहां कभी उसके पुरखे रहा करते थे। उसके मन में सहपुरवा के बाबत कौतूहल था, उसने अपनी अइया सुमिरिनी से पूछा....कृकृ.
‘अइया! एक जॉच के सिलसिले में ‘सहपुरवा’ गॉव मुझे जाना है, वहां से हम दो दिन बाद ही वापस आ सकेंगे।’
‘सहपुरवा जाना है, कौन सहपुरवा? उसने पूछा प्रसन्न से
सहपुरवा का नाम सुनते ही चकरा गई सुमिरिनी।
‘अरे अइया वही सहपुरवा जो कभी हमलोगों का गॉव था।’
‘काहे जाएगा तूं? वहां नहीं जाना है तुझे। तूं अपनी जगह पर किसी और को भिजवा दे वहां।’
‘नहीं अइया ऐसा नहीं हो सकेगा, मुझे ही वहां जाना पड़ेगा। सहपुरवा में शोभनाथ विद्यानिकेतन नाम का एक शैक्षणिक संस्थान है। कानून की पढ़ाई के लिए उस विद्यानिकेतन के पास क्या क्या साधन, संसाधन हैं इसी की जॉच पड़ताल करनी है। हमने उस संस्थान के प्रबंधक प्रसन्नकुमार जी से बोल दिया है कि अगले सप्ताह हमारी टीम आपके संस्थान पर जाएगी। हमने उनसे वादा भी कर दिया है अइया! हम वहां नहीं जाएंगे तो उनकी समझ में आएगा कि लेन-देन के चक्कर में जे.डी. नहीं आ रहे हैं।’
सहपुरवा का नाम सुनते ही सुमिरिनी अतीत में उतर गई। लगा कि उसकी ऑखें जल उठेंगी, जलती हुई हरिजन बस्ती उसकी ऑखों में तैरने लगी, बच्चों की चीखें, मार-पीट, एक एक घर का आग में धधकना, पुलिस के बूटों से रौदाता गॉव। हर तरफ आग ही आग, चीखती चिल्लाती औरतें, किसी की साड़ी फाड़ी जाती तो किसी का ब्लाउज, कोई नंगी तो कोई अधनंगी और सिपाही हसते मुस्करातेकृ’पास में खड़े रामभरोस भी’कृ
अचानक सुमिरनी को लगा कि उसकी देह नंगी हो चुकी है और वह सिपाहियों के सामने बेवश है, सामने हैं रामभरोस...कृ
‘का हो पंडित जी, के पहले तूं कि ई’
उसने पूछा था रामभरोस से। वह चीख पड़ी थीकृ
‘सहपुरवा नहीं जाना है तो नहीं जाना है, तूं कसम खा कि तुझे वहां कभी नहीं जाना है।’
प्रसन्न तो जैसे डर गया, हो क्या हो गया अइया को। प्रसन्न किचन में से एक गिलास पानी ले आया...कृ
‘अइया पानी पी ले, लगता है ब्लड प्रेशर बढ़ गया है तेरा।’
प्रसन्न ब्लडप्रेशर वाली मशीन ले आया और सुमिरिनी का ब्लडप्रेशर नापा जो थोड़ा बढ़ गया था। उसने उसे ब्लडप्रेशर की दवाई खिलाया। और मन ही मन सहपुरवा जाने का प्रोग्राम उसने कैन्सिल कर दिया अगले महीने तक के लिए। अइया के ठीक होने के बाद ही वह सहपुरवा जाएगा।
प्रसन्न ने फोन से प्रसन्नकुमार को बता भी दिया कि वह दूसरे महीने के पहले सप्ताह तक ही उनके विद्यानिकेतन पर आ सकेगा।
प्रसन्नकुमार तो पूरी तैयारी कर चुका था जॉच समिति के आव-भगत की। उसे चिन्ता हुई ऐसा क्या हो गया कि जे.डी. साहब ने आने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया। वह दूसरे दिन ही मुख्यालय जा पहुंचा और फिर प्रसन्न के आवास पर। साथ में फल फूल भी लेता गया।कृ
अधिकारी के आवास पर खाली हाथ जाना ठीक नहीं होता पर डर भी रहा था कि प्रसन्न जी ईमानदार अधिकारी हैं कहीं बुरा तो नहीं मान जाएंगे, फल फूल में क्या रखा है, यह तो शिष्टाचार का हिस्सा है।
प्रसन्नकुमार सुबह आठ बजे ही अधिकारी के आवास पर पहुंच गया। आवास के बाहर लगी थी, काल बेल उसने दबाया। घंटी गुनगुनाने लगी। तभी आवास से बाहर सुमिरिनी निकली....
क्या है? सुमिरिनी ने प्रसन्नकुमार से पूछा....
‘क्या है?’ घंटी बजाने वाले से पूछ तो लिया सुमिरिनी ने पर जब घंटी बजाने वाले का उसने चेहरा देखा, तो देखती ही रह गई प्रसन्नकुमार को....कृकृ
‘अरे ये तो बबुआ जी हैं’
उसे प्रसन्नकुमार का चेहरा भूला नहीं था। भला कैसे भूल जाती वह प्रसन्नकुमार का चेहरा जबकि प्रसन्नकुमार के चेहरे को बुढ़ौती ने कसना शुरू कर दिया था फिर भी उसके चेहरे पर वही शान्ति, लोगों की भलाई करने की वही आतुरता, ये सब बातें उसके चेहरे सेअलग नहीं हुई थी। वे जस के तस उसके चेहरे पर चमक रही थीं।
‘अरे बबुआ जी आप और यहां’
‘अरे सुमिरिनी तुम! तुम तो बुढ़ा गई होकृपर बानी वही पुरानी वाली, एकदम से कड़क, यहां रहती हो तुम, साहब के यहां काम करती हो का?’
सुमिरिनी को देखते ही प्रसन्नकुमार को जान पड़ा कि प्रसन्न जी के यहां घरेलू काम-धाम करती होगी।
‘आइए बबुआ अन्दर आइए फेर हम बताते हैं।’
प्रसन्नकुमार सुमिरिनी के साथ आवास के भीतर आ गया। आवास का बैठका साहबों के बैठकों जैसा सजा हुआ था।
‘बैठिए बबुआ जी’
सोफे के एक किनारे पर बैठ गया प्रसन्नकुमार। सोफे पर बैठते ही प्रसन्नकुमार ने दुबारा पूछा सुमिरिनी से...कृ
‘तुम यहां कैसे सुमिरिनी?’
सुमिरिनी समझदार थी। समझ गई कि बबुआ को अचरज हो रहा है उसे इस बंगले में देख कर। सुमिरिनी मुस्कियायी...कृ
अरे बबुबा! ई बंगला हमरे लड़िकवा का है, प्रसन्न की हम अइया हैं।’ सुमिरिनी ने बताया प्रसन्नकुमार को। फिर तो अचरजा जाने की बारी थी प्रसन्नकुमार की और वह अचरजा भी गया...कृ
‘का प्रसन्न जी तोहार लड़के हैं?’
‘हॉ बबुआ हॉ, गौर से देखिए नऽ उसका चेहरवो तऽ औन्हई माफिक है’
वस्तुतः प्रसन्न का चेहरा भी फेकुआ की तरह ही था एकदम से खिला हुआ।
प्रसन्नकुमार तो सोफे पर बैठ चुका था पर सुमिरिनी असमंजस में थी कि बबुआ के सामने बैठे या न बैठे। एक बार तो उसके मन में आया कि बबुआ के सामने न बैठे। वह प्रसन्नकुमार के सामने खड़ी रह गई। वह गॉव में कभी बैठी नहीं थी बबुआ के सामने। प्रसन्नकुमार ने ही उससे बैठने के लिए कहा...कृ
‘अरे भाभी जी बैठिए तो काहे खड़ी हैं आप! ’
‘नाहीं बबुआ हम ऐसे ही ठीक हैं’ सुमिरिनी ने कहा
फिर तो प्रसन्न खड़ा हो गया और सुमिरिनी की बांह पकड़ कर उसे सोफे पर बिठा दिया।
‘मुझे मालूम है कि प्रसन्न को आपके विद्यानिकेतन पर किसी जॉच के सिलसिले में जाना था। मैंने ही उसे रोक दिया था नहीं तो वह आपके यहां चला गया होता। मैं डर रही थी उसे सहपुरवा जाने देने से। सहपुरवा तो वही होगा रामभरोस वाला, वही मार काट, बात बात पर गला कटाई।
‘नहीं, नहीं रामभरोस मुक्त हो चुका है सहपुरवा। पर एक बात का दुख है कि पुराने सहयोगी गॉव से पलायन कर चुके हैं, कोई नहीं है गॉव में अब। बिफना और सुक्खू काका भी जाने कहां चले गए, कोई खोज खबर नहीं है उनकी।’
सहपुरवा की पूरी कहानी प्रसन्नकुमार ने सुमिरिनी को संक्षेप में बताया।
सुमिरिनी का समय भी तो जादुई कहानी बन चुका था। सहपुरवा से पलायन के दूसरे साल ही साधारण सी बीमारी ने उसके ससुर औतार के जीवन का अन्त कर दिया। उसका पति फेकुआ भी दिल के दौरे से चल बसा। पति की यादें सुमिरिनी के मन में आज भी बसी हुई हैं।
‘अरे भाभी आप तो जानती थीं कि मैं सहपुरवा में ही हूं, आप लोग तो मुझे अकेला छोड़ कर सहपुरवा से निकल गईं पर मैं सहपुरवा छोड़ कर कहां जाता? फिर भी आपने खोज-खबर नहीं लिया। मुझे तो पता ही नहीं था कि गॉव छोड़कर आप लोग कहां चले गए? पता होता तो निष्चित ही हाल अहवाल लेता रहता’ प्रसन्नकुमार ने सुमिरिनी को उलाहा।
‘ऐसी बात नहीं है बबुआ। मेरे पूरे परिवार का मन आपलोगों में हमेशा लगा रहता था। घर में रोज ही आपके और बाबूजी के बारे में बातें हुआ करती थीं पर जानते हैं बबुआ हमलोगों का मन टूट चुका था वहां से। मन टूटने का कारण हमलोगों की गरीबी थी, कमाई का कोई साधन नहीं था उस पर रामभरोस का अत्याचार। रोज कमाओ खाओ इसी में दिन गुजर जाता था। अगर आपसे लगाव न होता बबुआ तो हमलोग अपने बेटे का नाम आपके नाम पर ‘प्रसन्न’ काहे रखते, खाली कुमार नाहीं जोड़े हैं उसके नाम के साथ। कुमार हम जोड़ते भी नाहीं हरिजनों के नाम के साथ कुमार ठीक नाहीं लगता। कुमार तो बड़का लोगन के लिए है। प्रसन्न के बपई चाहते थे कि हमारे घर में भी बबुआ जी जैसा ही एक लड़का पैदा हो जो किसी के बारे में बुरा न सोचे। सभी के भले के लिए तन तन से तैयार रहे।आपसे का बतांए बबुआ उस समय हमलोग केवल एक जुआर खाकर दिन बिता दिया करते थे। कुछ राहत तब मिली जब प्रसन्न के बपई को कारखाने में काम मिल गया बाद में तो वे डम्फर आपरेटर बन गए थे। अच्छा वेतन मिलने लगा था। उस समय प्रसन्न सातवीं में पढ़ रहा था।
वे दोनों बातें कर ही रहे थे कि प्रसन्न चला आया। तभी एक दाई घर में से नाश्ता ले कर आ गई...प्रसन्नकुमार को देखते ही उसने पूछाकृ
‘आप कब आए प्रसन्नकुमार जी, फोन भी नहीं किया आपने आने का’
‘कार्यक्रम जब आपने कैन्सिल कर दिया फिर तो मुझे आपसे मिलना ही था आपसे मिले बिना पता कैसे चलता कि प्रोग्राम काहे कैन्सिल हुआ।’
दाई के हाथ से नाश्ते का प्लेट सुमिरिनी ने अपने हाथ में ले लिया और प्रसन्नकुमार से पूछा....कृ
‘का बबुआ हमारे घरे का नाश्ता करेंगे नऽ आप, वैसे हमारी दाई हरिजन नाहीं है पिछड़ी जाति से है’
प्रसन्नकुमार तो चकरा गया। का पूछ रही हैं भाभी जी। अभी भी इनके मन में है कि मैं पंडित हूं और मुझे हरिजनों के यहां का पानी भी नहीं पीना चाहिए। प्रसन्नकुमार तो जाति बिरादरी धर्म आदि से बाहर निकल कर केवल एक आदमी बन चुका था पर सुमिरिनी को क्या पता कि वह क्या है आदमी या पंडित। प्रसन्नकुमार खड़ा हो गया और सुमिरिनी के हाथ से नाश्ते का प्लेट छीन लियाकृनाश्ता करते हुए ही उसने सुमिरिनी को उलाहा....कृ
‘अरे भाभी आप क्या पूछ रही हैं यह भी पूछने की बात है कि मैं आपके घर का नाश्ता करूंगा या नहीं।’
दूसरे सप्ताह ही प्रसन्न ने सहपुरवा जाने का कार्यक्रम बना लिया। प्रसन्नकुमार के आग्रह पर सुमिरिनी को भी सहपुरवा जाना पड़ा। सुमिरिनी सहपुरवा भले ही चली गई पर गॉव देखने का साहस नहीं जुटा पाई।
‘नाहीं बबुबा! हमैं गॉव में न ले जाइए, हम गॉव में नहीं जा पाएंगे, किसी तरह हम भुला पाए हैं पहले की कहानी। उस कहानी के बारे में गुनते ही रामभरोस दिखने लगते हैं, जलता हुआ सहपुरवा दिखने लगता है और चीखें व कराहें भी सुनाई पड़ने लगती हैं। हम गॉव में नाहीं जा पाएंगे बबुआ! हमैं माफ कीजिएगा। हॉ आपके घर जरूर चलना चाहते हैं अपने भतीजों तथा देवरानी से मिलने के लिए।’
रामभरोस मुक्त हो गया था सहपुरवा फिर भी सुमिरिनी नहीं गई गॉव में। सुमिरिनी काहे नहीं गई गॉव में प्रसन्नकुमार समझ सकता था।
सहपुरवा से लौटते समय सुमिरिनी प्रसन्नकुमार के घर पर गई। प्रसन्नकुमार का घर सादगी वाला था हालांकि पक्का था पर स्नातकोत्तर महाविद्यालय चलाने वाले प्रबंधकों के बंगलों जैसा ताम झाम वहां नहीं था। प्रसन्नकुमार की पत्नी भी साधारण घरेलू महिला थी सादगी से पूर्ण पर उसके चेहरे पर आत्मविश्वास की असाधारण चमक थी। वह भी विद्यानिकेतन में प्रसन्नकुमार के साथ पढ़ाया करती थी। उसने सुमिरिनी और प्रसन्न की खुले दिल से आवभगत किया। प्रसन्नकुमार के घर में बच्चों को न देख कर सुमिरिनी ने पूछा....कृ
‘बच्चे नहीं दिख रहे, कहीं नौकरी कर रहे हैं का?’
नहीं, बच्चे ही नहीं हैं’ प्रसन्नकुमार की पत्नी ने बताया सुमिरिनी को
सुमिरिनी तो चकरा गई, ‘का बोल रही हैं बहिन जी, बच्चे काहे नाहीं हैं, का पैदा ही नहीं हुए?’
‘नाहीं बहिन जी ऐसा नाहीं है, हमलोग बच्चे जनमाए ही नाहीं। ई तो बियाह ही नाहीं कर रहे थे, बच्चा न जनमाने की शर्त पर तो बियाह किए हैं। हम भी बात मान गए इनकी। वैसे भी विद्यानिकेतन के बच्चे तो हमलोगों के ही बच्चे हैं। का होगा बच्चा जनमा कर।’
सुमिरिनी उस समय प्रसन्नकुमार की पत्नी का चेहरा देखने में थी और प्रसन्न था कि अपने बारे में गुन रहा था.... श्षादी का मतलब बच्चा पैदा करना तो नहीं!’
प्रसन्न एक झटके में इक्कीसवीं शताब्दी के पार चला गया बाइसवीं शदी में।
भले प्रसन्न बाइसवीं शदी में चला गया था पर सुमिरिनी प्रसन्नकुमार की पत्नी की ऑखों में शिशुओं की तैरती हुई तस्वीरें देख रही थी। प्रसन्न ने भी सुमिरिनी से कहा था...कृ
‘अइया का होगा शादी करके?’
सुमिरिनी प्र्रसन्नकुमार की तरफ मुड़ कर कहने लगी...कृ
अरे बबुआ! ई का किए आप, कम से कम एक बच्चा तो पैदा होने देते’
‘नाहीं भाभी ऐसे ही ठीक है, मुझे अपनी शक्ल नहीं गढ़नी है’
सुमिरिनी को उस दिन प्रसन्नकुमार ने वापस नहीं लौटने दिया। सुमिरिनी को क्या पता था कि प्रसन्नकुमार उसे क्यों रोक रहा है, पता तो उसे तब चला जब उसका अभिनन्दन विद्यानिकेतन पर किया गया।
अभिनन्दन के बाद सुमिरिनी भावविभोर हो गई।कृकृ
‘जमाना बदल गया पर प्रसन्नकुमार बबुआ नाहीं बदले। पहले भी आदमी थे और आज भी आदमी ही हैं जिसकी पूॅजी होती है मनुष्यता’
‘अच्छा बबुआ चलते है हमलोग, आते रहिएगा घर पर और एक विनती है प्रसन्न का धियान रखिएगा।’
ठीक है भाभी जी भला हम कैसे भूल सकते है अपने भतीजे को उन्हीं के कारण मेरे विद्यानिकेतन को कानून की पढ़ाई की मान्यता मिलने वाली है। हॉ एक निवेदन है आप लोगों से....कृ
हम चाहते हैं कि औतार काका के नाम से विद्यानिकेतन में एक हाल का निर्माण हो जाए पर हमारे पास संसाधन नहीं हैं। अगर प्रसन्न जी थोड़ी मदत करें तों हम औतार काका के नाम से उक्त हाल का निर्माण कराना शुरू कर दें।
सुमिरिनी कुछ बोलने वाली ही थी कि प्रसन्न बोल उठा....कृ
‘अरे! काका यह तो मैं खुद आपसे प्रस्तावित करने वाला था पर संकोच कर रहा था कि जाने कैसा लगे आपको। मैं तैयार हूॅ। कल से ही बनवाना शुरू कर दीजिए। अब तो यह विद्यानिकेतन आपका ही नहीं मेरा भी है। हम दोनों मिल कर इसे विश्वविद्यालय तक ले जायेंगे।’
प्रसन्नकुमार तो गदगद हो गया, उसने प्रसन्न को गोदी में उठा लिया। उसे जान पड़ा कि प्रसन्न के रूप में मिल गया है उसे उत्तराधिकारी।
फिर प्रसन्न और सुमिरिनी उसी दिन लौट गए सहपुरवा से। और प्रसन्नकुमार विद्यानिकेतन के काम में लग गया। गेट के पास ही में औतार काका के नाम से वह हाल बनवाना ठीक होगा।
-------------------------------------------------------------
52mgfj2l8dykd1wcrecrbi2ol3b2jpe
हिंदी उपन्यास/रामनाथ शिवेंद्र का उपन्यास पट्टा चरित
0
11418
82634
82621
2025-06-30T15:33:45Z
CommonsDelinker
34
Removing [[:c:File:Pattacharit_Novel.jpg|Pattacharit_Novel.jpg]], it has been deleted from Commons by [[:c:User:Krd|Krd]] because: No permission since 21 June 2025.
82634
wikitext
text/x-wiki
[[File:25 shivendra ramnath 46.jpg 131 × 200, 20 KB.jpg|thumb|25 shivendra ramnath 46.jpg 131 × 200, 20 KB]]
'''पट्टाचरित'''
उपन्यास
रामनाथ शिवेन्द्र
'''रामनाथ शिवेंद्र का उपन्यास पट्टा चरित'''
मनीष पब्लिकेशन्स
471/10, A bock, part-2
Sonia bihar, Delhi
दिल्ली-110090
ISBN : 978-93-81435-06-9
© ramnath shivendra
Mobile.7376900866
Pattacharit ...Novel
By. RAM NATH SHIVENDRA
'''अपनी बात'''
पट्टा चरित उपन्यास के बारे में कुछ कहना, न कहना दोनों बराबर है। उपन्यास खुद आपसे संवाद करेगा, संवाद ही नहीं प्रतिवाद भी करेगा तथा अपने सृजन के बारे में बाजिब बयान भी देगा तथा बताएगा कि मौजूदा शदी में भी इस उपन्यास की जरूरत क्या है? वैसे यह बता देना लेखकीय औचित्य है कि इसकी कथा आठवें दशक में ही उपन्यास का रूप धर कर ‘सहपुरवा’ उपन्यास के नाम से मेरे मित्रों के सहयोग से प्रकाशित हो चुकी थी। वह मेरा पहला औपन्यासिक प्रयास था। इसमें पात्रों के संवाद की भाषा हिन्दी तथा भोजपुरी बलिया, गोरखपुर, आजमगढ़, जौनपुर वाली नहीं थी बल्कि ठेठ बनारसी या बिजयगढ़िया थी। संवाद के अलावा सारा कुछ खड़ी बोली में था।
तो कथा पुरानी है आपात काल के आस पास की। सवाल है कि पुरानी कथा को फिर से क्यों? आठवें दशक से लेकर अब तक के गॉवों की जॉच पड़ताल कर लीजिए और एक झटके से आपात काल को फलांग कर इक्कीसवीं शताब्दी में घुस आइए फिर देखिए कि क्या गॉव बदल गये? गॉवों की संस्कृति बदल गई? और गॉव ऐसे हो गये कि बिना संकोच ‘अहा ग्राम्य’ कहा जा सके, हॉ गॉवों से पोखर गायब हो गये, पनघट गायब हो गये, आजादी मिलते ही किसिम किसिम के विस्थापित पैदा हो गये, कुछ कारखानों के निर्माण के कारण, कुछ सड़कांे, नहरों के निर्माण के कारण तो अधिकांश वन प्रबंधन की दादागिरी और वनअधिनियम की धारा 4 तथा 20 के कारण। तो गॉवों में अब जो निवसित हैं वे या तो विस्थापित हैं या ऐसे है जो शहर में कहीं खप नहीं सकते।
होमगार्ड से लेकर स्कूल के मास्टर तक, चपरासी से लेकर बड़े ओहदे तक का पदाधिकारी बना कर तन बल तथा वुष्द्वि बल वाले व्यक्ति को गॉवों से छीन लिया गया है, कोशिश की गई है और की जा रही है कि वे गॉव में रहने न पाये, उन्हें किसी भी तरह से सत्ता प्रबंधन से जोड़ लिया जाये। वही हुआ। आज के समय में गॉव में वही बचे हुए है जिनके पास जीवन जीने के लिए कहीं कोई ठौर नहीं तथा वे चौदह दिन की हवालात की योग्यता वाले हैं। इनसे गॉव तो नहीं बचेगा।
इस उपन्यास का केन्द्रीय विषय है भूमिहीन गरीबों को भूमि आवंटन। आपात काल
के दौरान कांग्रेस का यह प्रशंसनीय अभियान था जिसे बाद में किसी ने लागू
नहीं करवाया।अभियान तो ठीक था पर जो तत्कालीन सामंत थे उनके लिए यह अभियान महज राजनीतिक खेल था। प्रस्तुत उपन्यास में सवालों दर सवालों से गुंथी वही कहानी दुहराइ गई है कि आजादी के बाद कितनी आजादी मिली लोगों को, सन्दर्भ आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक या राजनीतिक किसी भी तरह का हो। एक भूमिहीन व्यक्ति गॉव में कैसे निवसे, किस तरह से रहे? रहे तो किस किस को सलाम करे यह सवाल जैसे पहले था वैसे आज भी है।
यह तो नहीं कहा जा सकता कि गॉव नहीं बदले, गॉव बदले हैं पर गरीबी का प्रतिशत जिन जिन क्षेत्रों में जैसे पहले था वैसे ही आज भी है। इसी लिए कहा जाना चाहिए कि गरीबी पूॅजीवादी सत्ता प्रबंधन का आर्थिक उत्पादन है और आज तो गरीबीे उत्पादन में वृद्धि हो चुकी है। आखिर किसे पड़ी जो जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी इस पर गुने जाहिर है कि गरीबी पूॅजीवादी सत्ता प्रबंधन की रहस्यमय आर्थिक प्रक्रिया है गरीबी रहेगी तभी तो अमीरी रहेगी। हॉ गरीबी की उग्र भूख गरीबों में पैदा न होने पाये इसके समाधान के लिए पूॅजीवादी सत्ता प्रबंधन सभी को भोजन का अधिकार, सभी को शिक्षा का अधिकार, सभी को बुनियादी आय तथा कुछ मामलों में सब्सिडी जैसी रियायतें प्रदान किया करती है जिससे सरकार की छवि लोकतांत्रिक बनी रह सके। पर इससे क्या होगा?
होगा तो तब जब यह पता लगाया जाये कि महज दस फीसदी लोग देश की समस्त कुदरती संपदा पर काबिज कैसे हैं, कौन कौन से कानून है जो उन्हें अमीर बनाते हैं। हमारे कानूनों में कहॉ कहॉ दरारे है जिनमें से इस कथा के रामभरोस जैसे लोग सभी की छाती पर कोदो दरकर उग जाया करते हैं जिनके दमन से फेकुआ, सुमिरनी, औतार, जोखू तथा बिफना को गॉव से भागने के लिए विवश होना पड़ता है। प्रस्तुत उपन्यास का यही आशय है कि हम पता लगा सकें कानूनी दरारों को जिनसे होेते हुए दमन हमारे ग्राम्य संस्कृति तथा जीवन को लील रहा है। चिमनियॉ चाहे जितनी उग जॉये पर गॉव की हरियाली तथा पनघट की मोहकता नहीं पैदा कर सकतीं। जीवन तो गॉवों में है क्योंकि वहॉ अनाज के दाने हैं, दानों पर मन के संगीत लिपे पुते हैं, उसे मन के राग संवारते हैं पोंछते है, बीनते हैं। आइए गॉव बचायें गॉव के लिए कुछ करें। आशा है प्रस्तुत उपन्यास पाठकों की कुदरती प्रतिक्रियाओं को हकदार बनेगा। इसी आशा में....
रावर्ट्सगंज,सोनभद्र 2019
--------------------------------------------------------------------
'''‘जुबान काट दी जांए, संप्रभुतांए
छीन ली जांए फिर भी कथाएं नहीं मरतीं
आइए कथा के साथ चलें कुछ दूर ही सही, पर चलें’'''
‘का रे! बिफना रापटगंज में कवि सम्मेलन है, चलना है कि नाहीं, चलो बुड़बक! हमहूं चलेंगे। बुल्लू के बिरहवा में परसाल बहुत मजा आया था। कवि सम्मेलन में तो और भी मजा आएगा।’
‘का सोच रहे हो यार! बोलते काहे नाहीं, कुछ तो बोलो’
हल जोतते हुए फेकुआ ने बिफना से पूछा। उसके साथ बिफना भी हल जोत रहा था। हल जोतते हुए बिफना कैसे बोले। हल जोतना और बतियाना दोनों संभव नहीं। उसने हल हांकना बन्द कर दिया और मेड़ की तरफ बैलों की जोड़ी खड़ा कर बैलों को सहेजा..
‘होर्र होर्र... यानि रुक जाओ, यहीं खड़े रहो। बैल भी किसी आज्ञाकारी की तरह खेत के एक किनारे खड़े हो गये जहां फेकुआ ने हल चलाना बन्द कर दिया था।
‘संघी लोग अइसहीं खड़ा रहो, कहीं भागना नहीं’
हल में नधे बैलों को उसने दुबारा सहेजा और जेब से सुर्ती, चूना निकाल उसे मलने लगा। सुर्ती मलते हुए उसने बिफना से पूछा....
‘हां रे बिफना! परउ साल तऽ कवि सम्मेलन भया था रापटगंज में। जोखुआ बता रहा था कि बहुत मजा आया था। चलो ए साल हमहूं चलेंगे, तूं भी चलेगा नऽ।’
तीन चार बार सुर्ती ठोंक ठाक कर बिफना ने सुर्ती वाली हाथ की गदोरी फेकुआ की तरफ बढ़ा दिया। बिफना की गदोरी में से फेकुआ सुर्ती निकाल ही रहा था कि गॉव के जाने माने मुखिया रामभरोस वहीं आ गये। रामभरोस खेतों की निगरानी के लिए निकले थे। काम की निगरानी करने के लिए वे अक्सर शाम को खेत की तरफ निकल जाते हैं।
सुर्ती मुंह में डाल कर फेकुआ ने रामभरोस से पूछा, वह उन्हें चिढ़ाना चाहता था। अब पहिले वाला जमाना नाहीं है कि मजूरों को हंका दिया और काम शुरू, चाहे जोतनी हो, लवनी या कुछ भी।
‘सरकार! आप की जोतनी नाहीं हो रही है का?’
‘नाहीं रे! आज काम बन्द है, साले एक भी काम पर नहीं आए, सब बउराय गये हैं। गांड़ मोटा गई है सालों की। सालों को इनिरा ने पट्टा का दिला दिया कि सभी का दिमाग सिकहरे चढ़ि गया है। जब देखो साले काम बन्द कर देते हैं। कातिक का महीना है और हमारी जोतनी बन्द है। खेतवा उखड़ जाएगा तब का होगा? राड़ कूटने तथा चाम पीटने पर ही ठीक रहते हैं। ठीक रखने के लिए पीटना दोनों को पड़ता है। राड़ को भी तथा चाम को भी।’
रामभरोस ने बिफना व फेकुआ को ही नहीं पूरी हरिजन बिरादरी को उलाहा। जैसे पूरी बिरादरी ही हरामी हो। रामभरोस जैसे सामंत हरिजनों को हरामी मानते भी हैं, उनकी सभ्यता ने उन्हें इसी निरर्थक सोच से गढ़ा हुआ है।
सोनभद्र में बहुत पहले से ही हल जोतने का काम हरिजन किया करते हैं। उनकी आबादी भी सोनभद्र में उल्ल्ेखनीय है। वैसे दलितों में कोल, धांगर चेरो आदि जैसी अन्य दलित जातियां भी सोनभद्र में बसती हैं जो हल जोतने का काम पारंपरिक रूप से करती चली आ रही हैं। पर हल जोतने वालों में हरिजन ही प्रमुख हैं। एक तरह से हल जोतने के काम में वंशवाद, पहले बाप हल जोतता था, फिर बेटा और बेटे के बाद बेटा। सवर्ण लोग हल जोतने के काम को वंश्षवादी रोग नहीं मानते हैं। राजाओं के वंश्षवाद को लोकतांत्रिक सभ्यता ने प्रमाणित कर उसे खतम भी कर दिया है। अब कोई राजा का बेटा राजा नहीं रह गया है पर मजूरों में चल रहे वंश्षवाद को सायास बचाए रखा गया है।
मजूर का बेटा मजूरी नहीं करेगा तो क्या कलक्टर बनेगा? आज के समय का मजूर एक जाति में बदल चुका है, जैसे बाभन का बेटा बाभन, बनिया का बेटा बनिया, ठाकुर का बेटा ठाकुर, वैसे ही मजूर का बेटा मजूर। मजूर बनने तथा बनते जाने की विवशता पर कोई नहीं सोच रहा बल्कि लोग तो मजूरी की परंपरांए बचाए रखने के बारे में ही किसिम किसिम के नारे लगा रहे हैं।
यह जो हल जोतने की वंश परंपरा है राजाओं व जमीनदारों की वंश परंपरा से मिलती जुलती है। राजपरंपरा को तोड़ दिया गया ताकि जो खानदानी राजा नहीं हैं वे लोकतंत्रा के राजा बन सकें। पर हलवाही की वंशपरंपरा को कौन तोड़ेगा, शायद कभी टूटेगा भी नहीं अगर इस परंपरा को तोड़ दिया गया फिर मजूरी कौन करेगा? संसद में बैठने वाले हों या कारखाने चलाने वाले हों सभी को खाना बनाने वाला रसोइयां, कार चलाने वाला ड्राइबर, महलों में टहल करने वाला मजूर तो चाहिए ही चाहिए। मालिकों का हर हाल में मजूरों के मजबूत हाथ चाहिए और उनकी देह भी।
फेकुआ की अपनी बिरादरी हल जोतने वालों की थी। उसके बपई हल जोतते थे तो उसके दादा भी हल जोतते थे। लोग बताते हैं कि उसके दादा हल जोतने में माहिर थे। एक से एक नखनहा बैलों को जूए में वे नाध लिया करते थे। उनके पास नखनहा बैलों को ठीक कराने के लिए लोग आया करते थे। दो चार दिन वे नखनहा बैलों को हल में नाध कर जोतते थे फिर बैल अपने आप ठीक हो जाया करते थे और आज्ञाकारी की तरह हल में चलने लगते थे। पता नहीं कैसा जादू था उनके पैने में और डांट में। जहां तक उसे मालूम है हल जोतने का काम उसके घर में ही नहीं नाते-रिश्ष्तों में भी चलता रहा है। और आज भी चल रहा है।
अपनी बिरादरी के बारे में रामभरोस की अपमानजनक बातें सुन कर फेकुआ को बुरा लगा। पर वह कर ही क्या सकता था रामभरोस का। हालांकि उसे पता था कि मजूर जनम से मजूर नहीं होते। मजूरों के पास खेती के लिए खेत नहीं है, कोई दूसरा काम उन्हें आता नहीं है, फिर वे का करेंगे हल जोतने के अलावा। भूख की आग बुझाने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही होगा। फैकुआ समझने लगा है कि मजूर जनम से मजूर नहीं होते। उन्हें मजूर बनाया जाता है। उसने रामभरोस की बात में बात जोड़ा...कृकृ
‘हां सरकार! आप सही बोल रहे हैं। ई हरिजन, हरिजनै रहि जांएगे, ई बिरादरियय अइसन है, अपनै हथवैं हरवा काहे नाही जोत लेते सरकार! फिर लतियाइए हरिजनों को। बनी मजूरी भी बच जाएगी। एक बात बोलैं सरकार! आपन काम अपने हाथय करना भी चाहिए, गलत तो नाहीं बोल रहे सरकार।’
‘यह साला मजूर हमें समझाय रहा है’ रामभरोस सोच में पड़ गये
रामभरोस को फेंकुआ की बातें बुरी लगीं। लगतीं भी क्यों नहीं, मजूर होते काहे के लिए हैं? मजूरी करने के लिए ही तो होते हैं।’
फेकुआ की बातें रामभरोस काहे सह पाते? हालांकि फेकुआ ने कुछ गलत नहीं कहा था। तमाम सुभाषितों की बातें भी तो यही हैं कि आदमी को अपना काम खुद करना चाहिए पर रामभरोस तो रामभरोस थे अपना काम भी करने की संस्कृति से अलग। अपना काम भी करना उनके लिए शर्मनाक बीमारी की तरह लगता है। अपना काम करेंगे तो उनकी इज्जत भहरा जाएगी। उनकी बखरी पर हर काम के लिए अलग अलग नौकर हैं। कोई पानी पिलाने वाला है तो, कोई गाय, भैंस चराने वाला है तो कोई ट्रेक्टर चलाने वाला है। बखरी के भीतर भी किसिम किसिम की नोकरानियां हैं। बर्तन साफ करने वाली अलग, तेल मालिश करने वाली अलग, मलिकिनों की टहल करने वाली अलग। रामभरोस की बखरी नौकरों के पसीने से न नहाए तो उसकी चमक फीकी पड़ जाए। बखरियॉ तो तब चमकती हैं जब उनके भीतर मजूरों के पसीने नाचते रहते हैं बिना खाए पिए।
‘साले का मन बढ़ गया है, हमरे मुह लग रहा है’
मन में गरियाया रामभरोस ने फकुआ को। कोई दूसरी जगह होती तो रामभरोस फेकुआ को लतियाना शुरू कर देते। मजूरों को लतियाना तथा लतियाते रहना वे अपना पारंपरिक अधिकार मानते हैं पर जगह सिवान की थी। वहां रामभरोस अकेले थे, सिवान में फेकुआ को मारते तो जाने का होता। फेकुआ भी उनसे गुत्थम गुत्था हो सकता था। समय भी तो बदल रहा था। मजूरों को तमाम कानूनी अधिकार दिए जा रहे थे। रामभरोस जानते थे कि अब उनके करतब थाने की निगरानी में हैं, प्रष्शासन की ऑखें जमीनदारों पर अब तनेन भी रहने लगी हैं।
वे प्रत्यशिात डर के कारण चुप हो गए थे।
रामभरोस को पहले से ही पता था कि फेकुआ रियाज मारता है। कुश्ती लड़ता है, शरीर से गठा हुआ है। एक दो आदमी को निपटा सकता है फेकुआ। रामभरोस ने थोड़ा मुड़ कर उसका गठा हुआ शरीर देखा और सहम गये। उन्हें निराशा हुई, फेकुआ की तरह गठे हुए शरीर का एक भी लड़का उन्हें अपनी बिरादरी में नहीं दिखा। परमात्मा भी जाने का करते हैं।
‘साला जाने का खाता है? अरे! का खाता होगा, भात और ‘सिलहट’ (नमक व मिर्चा एक में बारीकी से पिसा हुआ) की तरकारी, बहुत हुआ तो नून रोटी, या नून भात, और का मिलेगा सालों को खाने के लिए फिर भी सालों की ऐसी देह।’
‘जाने का बोल गया साला! अब यही रह गया कि रामभरोस हल जोतें। उनके लड़के हल जोतें। साले ये राड़, रहकार फिर का करेंगे, गद्दी पर बैठेंगे। ठीक है, जमाना बदल रहा है पर इसका का मतलब? कउआ हंस हो जाएगा, बाघ घांस खाएगा।’
उनके मुह से वंशपरंपरा की पगलाई आवाज मन के गहरे में गूंज गई।
रामभरोस काहे हल जोतेंगे? उनके घर में काहे की कमी है। पूरा गॉव उनका है, ठीक है जमीनदारी टूट गई है पर उन्होंने आज भी तीन चार सौ बीघे जमीन कुत्तों, बिल्लियों के नाम से करवाके बचा लिया है। आलीशान बखरी है, जवान बेटा है जो बाहर के अच्छे स्कूल में पढ़ रहा है। गॉव के वे परधान हैं, कांग्रेसी हैं। बी.डी.ओ. से लेकर दारोगा तक जान पहचान है। जिले का कोई भी आला हाकिम जब भी उनके गॉव की तरफ आता है, उनकी बखरी पर नाश्ता लिए बिना मुख्यालय वापस नहीं लौटता। कौन नहीं जानता कि कलक्टर साहब भूमि आवंटन के सिलसिले में पिछले साल पूरे लहसन के साथ रामभरोस की बखरी पर पधारेे थे। उनकी जोरदार दावत हुई थी। अधिकारी भी दावत का इन्तजाम देख कर अविभूत हो गये थे।
‘और यह फेकुआ!’
रामभरोस से हल जोतने के लिए बोल रहा है। उसे नहीं पता कि रामभरोस ही ऐसे किसान हैं जिन पर सीलिंग का मुकदमा चला था। उन्हीं की पुश्तैनी जमीन पर सहपुरवा ही नहीं कई गॉव आबाद हैं। जमीनदारी न टूटी होती तो किसी गरीब को एक धूर भी जमीन नहीं मिली होती। वैसे भी कई तरह की बातें हैं जो रामभरोस को ‘सरकार’ कहलवाती हैं। ऐसा केवल परंपराओं के कारण ही नहीं तमाम अन्य कारणों से भी हैं। जैसे इलाके में सबसे अधिक धनी-मानी होना, सबसे अधिक जमीन और जोत वाला होना, अधिकारियों का उनकी बखरी पर रोज रोज की दावतें लेना, दबंग होना और हमेशा लठैतों से घिरे रहना। बात बात पर किसी को भी लतिया देना आदि आदि। यही सारी बातें रामभरोस को लोगों से ‘सरकार’ कहलवाती हैं। रामभरोस उस समय फेकुआ से कुछ बोल नहीं पाये पर उनकी भीतरी ऐंठन भी न खुले ऐसा संभव नहीं। उनकी ऐंठन खुली.... जिसेे खुलना ही था, सामंती संस्कृति को भला रामभरोस खण्ड खण्ड टूटने व विखरने कैसे देते।
‘का रे फेकुआ! आज कल ज्यादा रियाज मार रहे हो का? देख रहा हूं कि तोरे देंही पर काफी मांस चढ़ गया है चलो यह ठीक है पर, दिमाग तो नहीं खराब हुआ है नऽ, अगर दिमाग भी खराब हो चुका हो तो बताओकृ.’
अधपकी मूंछें और सुर्ख ऑखों से मिलीजुली रामभरोस की आकृति भयानक हो गईं। उनके चेहरे को सैकड़ों साल के रोब-दाब ने जकड़ लिया। फिर तो उनका चेहरा जो गब गब गोरा था लाल हो गया। एकदम से डरावना। उनका चेहरा देख कर फेकुआ फक्क रह गया। उसके देह की ऐंठन रामभरोस की एक ही घुड़की में खतम हो गई। फेकुआ को अपने कहे पर अफसोस होने लगा। फिर तो कई डरावने देखे दृश्य उसकी ऑखों में तैरने लगे।कृ
फेकुआ की ऑखें उन दृश्यों से भर गईं जब रामभरोस ने रामगढ़ अस्पताल के सामने रमदिनवा हरिजन को बुरी तरह पीटा था। वह गरीब दवा दारू भी नहीं करा पाया। घर में कुछ था ही नहीं, तीन चार दिन बाद मर गया था। दवाई कराता भी कौन, गॉव में किसी की हैसियत ही नही थी जो रामभरोस द्वारा पिटवाए गये आदमी की दवाई करवाये। रामभरोस की बखरी से भी रमदिनवा को कुछ मिलना जुलना नहीं था, बखरी नाराज तो नाराज फिर किसकी हिम्मत जो एक कदम भी आगे बढ़ कर उस बेचारे की मदत करता। बेचारा रमदिनवा तड़प तड़प कर मर गया।
रमदिनवा ही क्यों बहुत सारे लोगों को रामभरोस ने खुद मारा पीटा है, या तो अपने लठैतों से मरवाया पिटवाया है। किसी को भी मरवाने पिटवाने के लिए रामभरोस का इशारा ही काफी है।
कुछ दिन पहले की ही तो बात है। रमचेलवा के खेत का धान जबरी लवा ले गये, अपने खलिहान में दवां भी लिए। वह बेचारा हिम्मत जुटा कर थाने पर गया, उसे लगा कि थाना उसके साथ हुए अन्याय का इलाज करेगा पर थाना तो अपनी गंध पीने में मस्त था। थाने को क्या पड़ी कि वह गॉव में होने वाले कुकृत्यों का इलाज करे। ऐसा तो होता रहता है।
रमदिनवा गॉव गॉव घूमकर चिल्लाता रहा, चीखता रहा, कोई तो बचाए पर वहां बचाने वाला कौन था। सभी के माथे पर रामभरोस की लाठियॉ चिपकी हुई थीं। रामभरोस जस के तस, उनका रोआं तक टेढ़ा नहीं हुआ। किसे नहीं मालूम कि रामभरोस जब जैसा चाहते हैं कर गुजरते हैं। परधान के चुनाव में शोभनाथ पंडित उनके खिलाफ खड़े क्या हो गये कि आफत आ गई। बेचारे का घर-बार ही उजड़वा दिया रामभरोस ने। उनके भाइयों में बटवारा करा दिया। इतने से रामभरोस का जब मन नहीं ठंडा हुआ तो उन्होंने एक दिन शोभनाथ का खलिहान आग के हवाले करवा दिया। सारा अनाज जल कर भसम हो गया। पूरा गॉव तमाशा देख रहा था और शोभनाथ पडित का खलिहान जल रहा था। शायद गॉव वालों को पता नहीं था कि वे जिस तमाशे को देख रहे हैं वह तमाशा उनकी खामोशी का है। उनकी तटस्थता का है। यह तमाशा केवल शोभनाथ पंडित के घर का ही नहीं सभी के घरों का है, आज शोभनाथ का खलिहान जलवाया है तो कल किसी दूसरे का।
गॉव में कोई माई का लाल नहीं जो रामभरोस की मर्जी के खिलाफ उनके सामने ही नहीं पीठ पीछे भी बोल दे। सभी उनकी ‘जय’ ‘जय’ बोलते हैं।
रामभरोस के आतंक के दृश्ष्यों ने फेकुआ को पसीना पसीना कर दिया, वह कॉपने लगा। उसे पसीना पसीना होना ही था। वह बीसवीं शदी का आदमी था फिर भी उसे अपना मूलाधिकार हासिल करने की कला नहीं आती थी। उसे केवल इतना पता था कि राजाओं का राज खतम हो चुका है, जनता का राज आ गया है, जनता के राज में न कोई बड़ा होता है न छोटा होता है। उसे क्या पता कि यह सब अभी केवल कागज पर ही है। कागज ही उड़ रहे हैं देश में, कागज उड़ रहे हैं थाने पर, कागज उड़ रहे हैं गॉव की पंचायत में, सभी जगहों पर कागज ही तो उड़ रहे हैं। उसे कागज पढ़ना नहीं आता। कागजों पर वह अॅगूठा लगाता है। वह अॅगूठा लगाता है साहूकार के कागज पर, मालिकों के कागज पर। अॅगूठा लगाना ही वह जानता है, उसे पढ़ना नही आता कि कागज पर का लिखा है। कागज पढ़ना उसे आता तो बात दूसरी थीकृ उसे अपनी गलती का आभास हुआ फिर वह सोलहवीं शताब्दी में चला गया।
‘सरकार हमसे गलती हो गई, आप बड़हर अदमी, भला आप काहे हल जोतेंगे, हमरे गलती पर धियान जीन देंगे सरकार! आप तो कागज जोतकर ही काफी कमा लेते हैं। कागज जोतने से ही आपको फुर्सत नहीं फिर कैसे जातेंगे हल सरकार।’
बिफना पास ही में था। वह भी रामभरोस से माफी मांगने लगा पर रामभरोस का माथा काहे ठंडा होता। वे गरम हो गये और भावी दुर्घटनाओं की तरफ इशारा करने लगे। समूचा लील जाने के तर्ज पर उन्होंने फेकुआ को देखा जबकि फेकुआ और बिफना दोनों सम्मिलित रूप से माफी मांग रहे थे।
रामभरोस तो रामभरोस थे, समय को मुठ्ठी में बांध कर रखने वाले। उस समय कुछ नहीं बोले, रास्ता पकड़े और सीधे बखरी की ओर वापस हो लिए तमाम तरह के गुस्सों को पीते और समय को गरियाते हुए।
‘यह जो समय है नऽ जाने किस तरफ मुह घुमा रहा है? जिनके मुह में जीभ नहीं थी, वे कम्युनिस्टों की जीभ मुह में डाल कर बोलने लगे हैं।’
रामभरोस के लौट जाने के बाद फेकुआ को बिफना सीख देने लगा, वही सीख जिसे उसने बाप दादों से सीखा था। उसने सीखा था कि बड़ों से ऐंठ कर नहीं बोलना, बतियाना चाहिए। बिफना ने फेकुआ को डांटा....कृ
‘कुछ बूझता क्यों नहीं है बे! भला ‘सरकार’ से अइसे बात की जाती है, तोसे का मतलब बे!, ऊ हल जोतंय चाहे न जोतंय, ओन्हय तूं पढ़ाएगा? तोके अपनी पीठ नहीं दिखती है का रे! उस पर कोड़े बरसने लगेंगे तब सब कुछ भूल जाएगा। वे मालिक हैं, ‘सरकार’ हैं। मालिक लोग हम मजूरों के पीठ पर हल जोतते हैं, पेट पर हल जोतते हैं, जमीन पर वे लोग हल नहीं जोतते बे! एतना भी तूं नहीं जानता।’
फेकुआ का करता, उसे जो बोलना था बोल चुका था। बोली और गोली वापस तो होती नहीं। अपराधी की तरह बिफना की खरी खोटी सुनता रहा बाद में उसने अपना गुस्सा बैलों पर उतारा। पैना दर पैना पीटने लगा बैलों को। उसे सुख मिला कि वह हल में जुते बैलों को नहीं रामभरोस को पीट रहा है। सुरूज देवता के ढलान पर होते ही दोनों ने हल जोतना बन्द कर दिया तथा घर की ओर वापस हो लिए। फेकुआ को लगा कि घर का आसमान लाल नहीं होगा, वहां हसियां होगीं और अइया बपई का दुलार होगा।
घर बहुत दूर नहीं था, दोनों कुछ ही देर में घर पहुंच गये। अभी सूरज डूबा नहीं था सो थोड़ा उजाला था। पर फेकुआ के विचारों का सूरज तो डूब रहा था, उसके मन में अन्धेरा गाढ़ा होने लगा थाकृबपई और अइया दोनों बहुत भला-बुरा कहेंगे। उन्हें भला बुरा कहना ही था। वे भला बुरा कहना ही जानते थे।
देश में होने वाले बदलावों की बातें उनकी सोच में नहीं थीं। उनकी सोच तो आजादी के पहले वाली ही थी, गुलामी वाली। वे इतना ही जानते थे कि धरती पर दो तरह की दुनिया होती है, एक दुनिया है मालिकों व शासकों वाली दूसरी दुनिया है उनकी सेवा व मजूरी करने वालों तथा पीठ पर कोड़े खाने वालों की। आजादी के पहले तथा आजादी के बाद के उछलकूद करने वाले नारों के बारे में उन्हें जानकारी नहीं थी। जबकि देश के हर हिस्से में मजूरों, किसानों के विकास से जुड़े किसिम किसिम के नारे उछल रहे थे कि देश के आजाद होते ही मजूरों व किसानों को पूरा अधिकार मिल जाएगा। हर हाथ को काम मिलेगा तथा हर खेत को पानी मिलेगा। सभी को जमीन में हिस्सेदारी मिलेगी, निःश्षुल्क शिक्षा होगी, निःश्षुल्क चिकित्सा होगी। औतार नारों के बीच कभी नहीं थे उन्हें इस तरह के नारे कभी सहला नहीं पाए थे सो वे तत्कालीन सभ्यता के हल जोतने वाले श्रमिक की तरह का महज एक उत्पाद भर थे। सो उन पर दमन की यातनादायी संस्कृति सदैव नाचती रहती थी। उन्हें क्या पता था कि फेकुआ रामभरोस सरकार से उलझ गया था।
बिफना फेकुआ का दोस्त था वह सोच नहीं सकता था कि फेकुआ का अहित हो सो उसने पूरी घटना को फेकुआ के बपई औतार से बता दिया। रामभरोस का क्या कब गरम हो जांए, कब लाठियॉ उठालें, कब फेकुआ को पिटवा दें फिर का होगा? औतार कक्का फेकुआ को डांट देंगे तो ठीक रहेगा आइन्दा वह कभी गलती नहीं करेगा।
औतार भी तो पुराने जमाने के थे, अपने मुह पर ताला लगाकर चलने वाले। उन्हें जिन्दगी ने सिखाया था कि मालिकों से डर कर रहना चाहिए। अदब से रहने पर खतरे कम होते हैं या नहीं के बराबर होते हैं पर मालिकों की हुकूम उदूली तो विपत्तियां ही लाती हैं। वैसे भी विपत्तियां नेवता देकर तो आती नहीं, चली आती हैं दौड़ती उछलती। फिर तो औतार फेकुआ पर लाल लाल हो गये। उन्हें लाल लाल होना ही था।
‘तुमने रामभरोस ‘सरकार’ से अपना काम खुद करने के लिए बोला, इसका मतलब क्या कि वह हल जोतें, बैल चरांए, यही नऽ। तोहार मजाल है उनसे ऐसी बात करने की। तूं ससुर इहय करोगे। घर भर को मरवाओगे। नहीं जानते का कि ‘सरकार’ केतना प्रतापी हैं? तनिक रियाज का मारि लिए कि पगलाय गये। ई ससुरा का मजाल देखोकृकहता है कि हमार माई अब नार नाहीं काटेगी। तब का करेगी तोहार माई। एकरे बारे में सोचा है, गॉव में वह रह पाएगी का बिना नार काटे, मालिकों की गुलामी किए बिना।’
‘अरे! ससुर तोहके का मालूम, कमर झुका कर पालागी बोलने पर पर तो ‘सरकार’ रिसिआये रहते हैं। अउर उनका हुकूम न मानने पर जाने का करेंगे। कब घर फुंकवा देंगे, कब पीठ पर डन्डा बरसवा देंगे का मालूम।’
औतार एक आम आदमी, गालियों की दुनिया में ही पैदा हुए, बात बात पर गाली, एक तरह से संबोधन ही गालियों का किसिम किसिम की गालियां, गालियों के लिए हर वह पात्रा है जो रामभरोस के अनुसार टेढ़ा चलता है। रामभरोस को तो कोई कहीं छिप कर भी गाली नहीं दे सकता। रामभरोस को मालूम हो जाता है। गालियां कहीं भी दी जांए उनके कान तक पहुंच जाती हैं। उनके कान और मुह हमलोगों माफिक नहीं हैं। उनके कान में अदब की सुरंग है और मुह में आग।
सुबह का समय था और औतार थे कि सुबह की नरम धूप से बाहर थे। उन्हें सूरज का उजाला नहीं दिख रहा था। उनके सामने तो रामभरोस की बखरी हुंकार भरती हुई खड़ी थी, गालियां देती हुई, वही दिख रही थी। सूरज के सारे उजाले को वह लील जाती थी बखरी के लीलने से उजाला बचे तब तो औतार के पास आए फिर वे उसे देखें या महसूसें।
रामभरोस की बखरी की तरह तमाम बखरियां हैं जो फैली हुई हैं पूरे जिले में। कोई चार कोस दूर हैं तो कोई दस कोस दूर। बखरी तो राजा साहब वाली भी है पर वे बेचारे बनारस में रहते हैं। रियासत क्या टूटी कि वे बखरी ही छोड़ दिए। राजा साहब बखरी काहे छोड़ दिए औतार नहीं जानते थे। रामभरोस की तरह यहां रह कर वे भी हुकूम चला सकते थे।
इस तरह की सोचों से अलग औतार अपनी यादों में थे। उन्हें भूला नहीं है अब तक.... जवानी में रामभरोस ने उन्हें खंभे से बांध कर खूब मारा-पीटा था वह भी बिना किसी गलती के। एक महीने तक दवा दारू करना पड़ा था। और सुगिया की बात उसे कैसे भूल सकते हैं औतार कि रामभरोस नेअपने लठैतों द्वारा घर में से ही उसे उठवा लिया था। नुची, चुथी, लुटी, सुगिया तीन दिन बाद घर वापसआई थी। सुगिया को घर से उठाए जाने की खबर सहपुरवा के सारे लोगों को थी। सभी कान में तेल डाल कर अपनी ऑखें ढाप लिए थे। जैसे कान सुनने के लिए नहीं होते और ऑखें देखने के लिए नहीं होतीं मुह तो बोलने के लिए होते ही नहीं।
‘गूंगा तथा अन्धा रहने में ही भलाई है’, कौन रामभरोस से झगड़ा मोल ले। औतार ने खुद को गूंगा बना लिया था। वे दिन का उजाला देखते हुए भी उसे न देख पाते थे। वे उजाला देखने की कोशिश करते तब उन्हें लगता कि वे भयानक किस्म के अन्धेरों में डूब गए हैं जिससे बाहर निकलना संभव नहीं। दरअसल अन्धेरा तो था ही उसी अन्धरों ने उनके घर को जकड़ लिया था। घर की माटी की दीवारें, फूस के छाजन सबके सब अन्धेरे में डूब गए थे। वैसे भी सुगिया को घर से उठवा लेना किसी अन्धेरे से कम कैसे था?
रामभरोस के लठैतों द्वारा सुगिया को उठा ले जाने की घटना को सहपुरवा के लोगों ने किसी दुर्घटना की तरह माना। दुर्घटना का क्या है वह तो संयोग का खेल है, घटती रहती है। जो किस्मत में लिखा होता है वह तो होता ही है। सुगिया के साथ भी हो गया और क्या? वे खामोश थे, वे खामोशी से बाहर निकलना नहीं जानते थे। दिक्कत यह नहीं थी कि वे खामोश थे दिक्कत यह थी कि वे नहीं जानते थे कि उनकी खामोशी उनकी मनुश्यता छीन कर उन्हें जानवर बना देगी।
वैसे भी इस तरह की घटनाएं केवल सहपुरवा की ही नहीं थी बल्कि पूरे विजयगढ़ और जसौली की थीं। पूरी मानव सभ्यता उत्पीड़नों के गाथाओं पर ही निर्मित की गई है। मालिकों के रूप में उत्पीड़ितों का संगठित गिरोह पूरी धरती पर है, धरती माता भी कॉपती हैं उनसे। मालिकों की सूरतें समय समय पर अपना रूप, रंग बदलती रहती हैं। इच्छाधारी होती हैं मालिकों की सूरतें, जरूरत पड़ने पर अपनी सूरतें बदल लेने मंे माहिर होती हैं। उत्पीड़ितों के बीच सहज स्वीकृति होती है कि ऐसा तो होता रहता है। वे मालिक हैं जब चाहें अपना रूप रंग बदल सकते हैं। भला उन्हें कौन रोक सकता है रूप, रंग बदलने से।
गॉव भर देख रहा था कि सुगिया जवान हो रही है। उसके देह के उतार चढ़ाव मनोरम लगने लगे हैं। सुगिया बोले बतियाए भले नहीं पर उसकी देह हमेशा बोलती और गुदगुदाती रहती है। जवान लड़के तो उसे देखकर अपनी दृढ़तायें नहीं रोक पाते थे। खासतौर से सवर्ण जवान लड़के। वे समझते थे कि सुगिया गॉव की सार्वजनिक संपत्ति है जो उनके लिए भोग की वस्तु है उस पर उनका कुदरती हक है। सो वे पारंपरिकरूप से इन मामलों में नैतिक दृढ़ताओं को पाले रखने के विरोधी थे।
सुगिया केवल सवर्ण जवान लड़कों के लिए ही नहीं उन लोगों के लिए भी मनोरम दीखती थी जिनकी बेटियां सुगिया की हमउम्र थीं। गोया सबकी नजर सांवली, पतली, इकहरी बदन वाली सुगिया पर थी और सुगिया थी कि अपनी देह के करतबों से अजान थी। उसे पता ही नहीं था कि वह किसी कुसंयोग का बेहूदा प्रस्ताव है। सुगिया अपने में डूबी हुई, दिन रात के करतबों में गोता लगाती हुई, छोटी छोटी बातों में भी खुष्शियां तलाश लेने वाली। सुगिया नहीं देख पाती थी उन नजरों को जो उसे बेध रही होती थीं। देख भी लेती थी तो समझ-बूझ नहीं पाती थी कि लोगों की बेधक नजरें उसे चीर रही हैं। पोर पोर काट रही हैं। वैसे भी उसका साबिका देह को दाह बना देने वाली नजरों से कभी नहीं पड़ा था। वह तो अपनी देह के बदलावों व कुदरती गठन को कुदरत की लीला मानती थी। उसे क्या पता था कि उसकी देह में कोई जादुई ताकत है जो लोगों को पागल बना रही है।
रामभरोस भी सहपुरवा के थे। वे सामंत थे, उनकी ऑखें सामन्त थीं, उनका दिल-दिमाग भी सामंत था। वे सामंती परंपरा की निकृष्ट चेतना के अनुसार सुगिया को अपने बिस्तरे पर देखना चाहते थे। दया, प्रेम, आदर जैसी दूसरी सामंती पंरंपराओं से उनका कुछ लेना देना नहीं था।
गॉव के दूसरे तो सुगिया को देख कर ही मनोरम पीते थे और खुश रहते थे। पर रामभरोस ने तो योजना ही बना लिया था कि किसी भी तरह से सुगिया को हासिल करना है। इस हासिल को वे प्यार मानते थेे। प्यार की उनकी यह अपनी परिभाषा थी। वे प्यार करते थे, बिस्तरा बना कर, संपत्ति बना कर, कब्जा जमा कर। रामभरोस औरतों को संपत्ति समझते थे। आखिर उनकी संपत्ति कौन कब्जिया सकता है, वे कमजोर तो थे नहीं। रामभरोस का मनमिजाज ताकत के प्रदर्शनों से बना हुआ था। तमाम तरह की निन्दनीय वीरगाथांए उनके चिंतन का हिस्सा थीं। वे मानते थे ‘वीर भोग्या वसुन्धरा’ वसुन्धरा को भोगने का अधिकार केवल वीरों को है और वे ही बीसवीं शदी के वीर है। किसे पड़ी कि रामभरोस को समझाए, वीर वह नहीं होता जो दूसरों को सताता है, वीर तो वह होता है जो दूसरों की हर तरह से रक्षा करता है। रामभरोस तो रामभरोस थे शास्त्रों के तमाम कथनों को अपने तरीके से व्याख्यायित व परिभाश्षित करने वाले फिर वह किसी की काहे सुनते।
रामभरोस के प्यार करने का तरीका भी अपना था। वे इस मामले में तमाम लोगों से अलग हैं, वे प्यार करने के लिए पनघट पर नहीं जाते थेे, पनघट को ही घर पर उठा लाते थे। वे रीति और रति दोनों को अपने अनुसार रचते थे। सुगिया उन्हें जंच गई तो जंच गई, अब यह क्या है कि वे सुगिया के पास प्रणय निवेदन भेजें, नहीं, नहीं ऐसा वे नहीं करेंगे।
औतार को रामभरोस ने अपना असामी बना लेना उनके प्यार करने की योजना में था। असामी बन जाने के बाद तो औतार वही करेगा जो वे चाहते हैं। इसी सूत्रा के आधार पर रामभरोस के प्यार को हरियाना तथा लहराना था। सूत्रा था असामी वाला, औतार असामी तो सुगिया भी उनकी असामी फिर तो सुगिया की देह भी असामी। औतार पहले शोभनाथ के असामी थे। औतार को असामी बना लेने के बाद कई तरह की अतिरिक्त सुविधांयें भी रामभरोस ने औतार को दे दिया जिससे सुगिया से उनका कथित प्यार हवा में लहरा सके। दो बीधा खेत उन्होंने माफी में औतार को दे दिया, उसका लगान भी माफ कर दिया। बीज बंेगा वे बखरी से दिला देंगे इस प्रकार कई तरह के प्रलोभन।
रामभरोस जानते थे कि असामी होने के नाते औतार का आना जाना बखरी पर रहेगा ही, उसके साथ सुगिया भी आती जाती रहेगी। ऐसा करने से ही सुगिया के करीब पहुंचा जा सकता है। रामभरोस का मानना था कि सुगिया उनकी देह से क्यों घिनाएगी?
औतार को असामी बना कर वे सपने में डूब गए। रंगीन बदरियों वाले सपने, देह को फरफरा देने वाले सपने। सुगिया से एक बार मेल मिलाप का सिलसिला शुरू हो गया फिर काहे खतम होगा। तो ऐसा था रामभरोस के प्यार करने का सामंती तरीका। इसी लिए वे जमीन व बंेगा रूपी प्यार की वारिश औतार पर करा रहे थे जिससे औतार भींग जाए फिर तो सुगिया भींग ही जाएगी।
सामंती प्यार भी खूब नखड़े बाज होता है, नखड़े भी किसिम किसिम के बाजार की तरह, खुद अपना विज्ञापन भी करता है, करवाता है। बस पास आ जाओ, सारा कुछ मिलेगा। तुझे इतना मिलेगा जिसकी तूं कल्पना नहीं कर सकती। सामंती प्यार की सीफत होती है उदारता खरीदना, उस खरीद को प्यार में बदलना, रामभरोस इसी रास्ते पर चल रहे थे। वे सुगिया को ही नहीं उसके तन, मन दोनों को खरीद लेना चाहते थे चाहे दाम जो लगे। दाम की कमी तो थी नहीं उनके पास। इस तरह की खरीद बिक्री का मामला बाजार के विकास का प्राथमिक चरण वाला था। उस दौर में आदमी की खरीद बिक्री वस्तु के रूप में शुरू हो चुकी थी।
हुआ भी यही, सुगिया अक्सर औतार के साथ बखरी में आने जाने लगी पर रामभरोस सुगिया के आस पास तक नहीं पहुंच पाये। बखरी किसी आकर्षक बाजार की तरह खड़ी थी पर बखरी का बाजार सुगिया को आकर्षित नहीं कर पा रहा था। सो वह बाजार में काहे खड़ी होती। हालांकि रामभरोस सुगिया के पास जाने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे पर सुगिया रामभरोस से भी चालाक निकली, वह खुद को बचा कर उनसे दूर चली जाती थी। वह जानती थी कि रामभरोस आग हैं, वे तन ही नहीं मन भी जला डालेंगे, भसम कर देंगे पूरी देह। वह खुद को भसम करना नहीं चाहती थी। सुगिया आगे आगे जाती और रामभरोस का सामंती प्यार उसके पीछे पीछे जाता। प्यार में न चौरोहा होता है न ही तिराहा, जहां रामभरोस का प्यार गलबहिंया करता। रामभरोस का प्यार पहले भी तनहा था और औतार के असामी बन जाने के बाद भी तनहा रह गया था। वे ताकतवर थे और ताकत के बल पर अपने प्यार की तनहाई दूर करने की कोशिश में थे जिससे वे सुगिया के सौन्दर्य का अपने तरीके से लाभ उठा सकें जबकि जवानी की समझ होने के पहले से ही सुगिया रामभरोस जैसे मालिकों से सावधान रहा करती थी। मालिकों के प्यार का मतलब आग की भठ्ठी, गिरो तो भसम हो जाओ। उसे रामभरोस के प्यार की भठ्ठी में गिरना नहीं था, गिरना तो दूर उसके पास तक भी नहीं जाना था। सुगिया गॉव की थी उसे क्या पता कि रामभरोस की बखरी एक रंगीन बाजार भी है। बाजार में मेले ठेले लगते हैं, दूकानें सजती हैं, औरतों, लड़कियों को खरीदा बेचा जाता हैै। उसे पता भी होता तो क्या हो जाता, वह खुद को बिकने से कैसे रोक लेती। उसके बाप को असामी बना कर रामभरोस ने उसे भी बाजार में खड़ा कर दिया है। उसकी बिक्री चाहे जब हो यह समय की बात है।
उस समय रामभरोस बाप नहीं बने थे। बखरी में केवल उनकी जवान औरत ही रहती थी। रामभरोस के मां बाप कुछ साल पहले मर चुके थे। कोई भाई, वाई नहीं था। रामभरोस बाप के अकेले वारिस थे। बखरी बहुत बड़ी थी सो उसमें एकांत की कमी नहीं थी। उसी एकांत का लाभ लेने के लिए रामभरोस ने एक बार सुगिया से छेड़ छाड़ की थी पर सब बेकार चला गया। रामभरोस की पत्नी तथा सुगिया के सबल प्रतिरोध के कारण। रामभरोस मन मसोस कर रह गये थे। करते भी क्या? सुगिया के बचाव में उनकी पत्नी रणचण्डी की तरह खड़ी हो गईं रामभरोस के सामने। उसके बाद से तो उनकी पत्नी सुगिया के बचाव में सचेत रहने लगीं थीं। कभी भी गोशालेे या भुसउल की तरफ सुगिया को अकेली न जाने देतीं, उसके साथ खुद जातीं। उन्हें पता था कि यह जो बखरियों का एकांत होता है लड़कियों के मामले में एकांत नहीं होता बल्कि उनकी शुचिता का अंत होता है। सुगिया को भी बखरी में अकेली छोड़ना ठीक नहीं होगा। रामभरोस किसी भी तरह से उसके एकांत को कोई तुकांत कविता बना सकते हैं जो न तो सुगिया के लिए ठीक होगा न ही उनके लिए।
रामभरोस की बखरी में सुगिया के बहाने गुस्सैल तनाव पसर चुका था। रामभरोस अपनी पत्नी पर अपना आपा खो बैठते, उन्हें भला बुरा कहते। यह क्रम रुकने का नाम नहीं ले रहा था। पत्नी पर रामभरोस का गुस्सा दिनों दिन बढ़ता चला गया, रोज रोज बेवजह बेचारी पिटने लगी। उसके बाद तो रामभरोस अपने असफल प्रयत्न की प्रतिक्रिया में जीने लगे।
रामभरोस तो मानकर चल रहे थे कि सुगिया काम करने के लिए जैसे बखरी में आएगी वे उसे अपने माया जाल में फसा लेंगे पर ऐसा संभव नहीं हो पाया। रामभरोस के मन में सुगिया को हासिल करने के दूसरे तरीके भी थे जिन्हें वे आजमाना नहीं चाहते थे पर करते क्या, उन्हें तो हर हाल में अपने वांक्षित लक्ष्य तक पहंुचना ही था। हार मान कर रामभरोस दूसरे रास्ते पर चल पड़े।
रामभरोस के लिए दूसरा रास्ता आसान और आजमाया हुआ था। वह रास्ता खानदानी था। प्रलोभन देकर, औतार को असामी बना कर। उन्होंने औतार को असामी बना लिया, औतार को अतिरिक्त मजदूरी भी देने लगे, फिर भी वे सुगिया तक नहीं पहुंच पाए। अपनी गोदी में सुगिया को देखना उनके लिए जैसे पहले सपना था, वह सपना जस के तस बना रह गया था। आजमाए हुए खानदानी रास्ते पर चलते हुए रामभरोस ने एक दिन अपने दरबार के डण्डपेलुओं और लठैतों द्वारा सुगिया को उसके घर से ही उठवा लिया यह उनके लिए दूसरा तरीका था। ऐसा करना उनके लिए काफी लाभप्रद साबित हुआ। दूसरे रास्ते के प्रयोग में कहीं कोई बाधा न आने पाए सो उन्होंने अपनी पत्नी को मॉ विन्ध्यवासिनी के पूजन के लिए विन्ध्याचल भेज दिया था, साथ में साले को भी लगा दिया था। इस तरह की कला में रामभरोस को महारथ हासिल थी।
वह अवसर रामभरोस के लिए आश्वस्ति दायक और मनोरम बन गया। सुगिया उनके घर में थी, जहां ढेर सारा एकांत था और सुरक्षा भी खूब खूब थी। घर में एकांत ऐसा था कि कैसे सुगिया ने रामभरोस का माथा फोड़ दिया यह रामभरोस को पता ही नहीं चला। उनका माथा फूट गया, वे चीखने लगे। बखरी की मजबूत दीवारों ने भी उनकी चीखें नहीं सुना और न ही दीवारों से बाहर उनकी चींखें निकल पाईं। उनकी बखरी किसी बंकर माफिक हो गई थी। जहां सारी चीजें बन्द बन्द सी रहती हैं। उनके हाथ और देह को कई जगहों पर काट लिया सुगिया ने फिर भी रामभरोस अपने लक्ष्य से एक रत्ती भी बांए दांए नहीं हुए, उन्हें तो लक्ष्य हासिल करना था। सुगिया का करती, कैसे करती, कितना काटती रामभरोस को पर उसने रामभरोस को कई जगहों पर बुरी तरह से काटा। उसे क्या पता था कि यह जो उसकी बन्दी है कुछ घंटों के लिए नहीं दो तीन दिन के लिए है। कुछ निशान तो आज भी रामभरोस के चेहरे पर उनके करतबों की कहानी के रूप में दिखते हैं।
दो दिन बाद सुगिया को रामभरोस ने उसके घर भिजवा दिया क्योंकि उसी दिन उनकी पत्नी विन्ध्याचल से लौटने वाली थीं। औतार और फेकुआ की अइया को अचरज नहीं हुआ। अचरज था भी नहीं उन्हें गुस्सा आया पर वे रामभरोस का का कर लेते। इस तरह की घटनांए हरिजन बस्ती के लिए आम थीं। वह भी उस घर के लिए जिनमें जवान बेटियां पलती हों, गदराई और मांसल। भला हो रामभरोस का कि वे घर पर नहीं चढ़ आये, चढ़ भी आते और सुगिया के साथ अपना मुह काला करते तो उन्हें कौन रोक पाता,उनका कोई क्या बिगाड़ लेता, कौन उनका प्रतिरोध करता। मान लिया जाता कि ऐसा होता रहा है और आगे भी होता रहेगा। थाने पर रपट लिखाना भी तो आसान नहीं होता। रपट लिखा भी जाती तो दारोगा गवाही मांगता, गवाही कौन देता? कौन बोलता कि यह सब हमने देखा है फिर इतना ही थाने पर थोड़य होता, थाने पर तो रामभरोस से अधिक होता। थाना भी तो नामी और प्रतापी जगह है किसे नहीं मालूम कि प्रतापियों के ताप में बहुत आग होती है। थाना भी तो सुगिया की देह में अपना अधिकार देखने लगता, बेचारी को प्रशासनिक ताप में तपा देता। सुगिया बेचारी सोना तो थी नहीं जो प्रशासनिक ताप में तप कर खरा हो जाती, वह गल गल जाती, पिघल पिघल जाती।
दो दिन बाद सुगिया अपने घर वापस आ गई या भेज दी गई यह रहस्य माफिक था। औतार तथा फेकुआ की अइया को आश्ष्चर्य नहीं हुआ। वे पहले से ही जानते थे कि सुगिया कहां होगी। वे डर रहे थे कहीं सुगिया की हत्या न कर दी गई हो पर ऐसा नहीं हुआ था। सुगिया साबूत थी। हरिजन बस्ती के लिए यह आम बात थी। वे जानते थे कि मालिक लोगों के लिए औरतों की देह अछूत नहीं होती, अछूत तो केवल मरद होते हैं। औरतों की देह मालिकों को नहीं घिनाती, उन्हें गरीबों की औरतों में नए तरह का स्वर्ग दिखता है, खुद का बनाया हुआ स्वर्ग, ताकत के बल पर रचा गया स्वर्ग। अपने रचे हुए स्वर्ग कोे बनाने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं।
सुगिया टूट चुकी थी, उसकी सारी चंचलता व अल्हड़ता समाप्त हो चुकी थी। वह केवल एक देह भर रह गई थी जिसमें जीवन नाम की कोई चीज नहीं थी। वह केवल संासें ले सकती थी, कराह सकती थी तथा किस्मत पर रो सकती थी। सुगिया का घर बड़ा नहीं था। घर की दीवारें माटी की थीं तथा उस पर छान्हें टिकी हुई थीं। एक में औतार तथा उनकी पत्नी बैठी थीं जिसमें वे अक्सर बैठा करते थे। दूसरे में सुगिया जा कर बैठ गयी। दिन बीतते गये, बीतते गये, सुगिया तोड़ दी गयी, औतार तोड़ दिए गये, पर बिरादरी नहीं टूटी। बिरादरी टूटती भी नहीं।
सुगिया के घर वापस आते ही बिरादरी का कानून औतार के माथे पर चढ़ बैठा। थाने पर गवाही देने के नाम पर बिरादरी का कोई भी आदमी तैयार नहीं हुआ। औतार ने अपने लोगों को टटोला और मालूम किया तो मालूम हुआ जो पहले से ही मालूम था कि उनकी बिरादरी के लोग थाने पर गवाही नहीं देंगे कि रामभरोस ने सुगिया को उठवा लिया था और दो दिनों तक अपने घर में जबरन कैद कर रखा था। आखिर कौन बोलता, रामभरोस के आतंक के कारण सभी के मुह सिले हुए थे। औतार की बिरादरी वालों के पास केवल देह थी, उस देह में मुह न था, था भी तो गूंगा था, न ही ऑखें थीं, थीं भी तो अन्धी उनमें कुछ दिखता न था कान तो जैसे बहरे थे। वे सहपुरवा में रहते हुए गूंगे थे, बहरे थे, अन्धे थे। वे एक आक्रामक संस्कृति के मुर्दा प्रतीक भर थे।
बिरादरी के किसी आदमी ने गूं गा नहीं किया, किसी ने नहीं गुना कि सुगिया के साथ रामभरोस ने जो किया गलत किया। आखिर किस अधिकार से रामभरोस ने सुगिया को उसके घर के भीतर से उठवा लिया। पर बिरादरी की पंचायत कराने के लिए सभी उतावले हो चुके थे। पंचायत कराओ नहीं तो हुक्का पानी बन्द कर देने की धमकी देने लगे थे। औतार को भात, माड़ की सजा दिया जाना चाहिए। औतार थे कि बिरादरी से जानना चाह रहे थे कि किस बात के लिए वे पंचायत बुलवाएंगे। सुगिया को रामभरोस ने बेइज्जत किया है, यही थाने पर चल कर बोल दो। सुगिया के साथ जो हुआ वही थाने पर चल कर बता दो कि क्या और कैसे हुआ, किसने किया। उसी बात की तो भात माड़ ले रहे हो फिर थाने पर चल कर काहे नाही बोल रहे हो। नाहीं बोल सकते थाने पर फिर काहे के लिए भात माड़ ले रहे हो? काहे की सजा दे रहे हो? काहे की पंचायत करा रहे हो।
बिरादरी के एक एक जन से पूछा औतार ने पर सभी ने नकार दिया था। सभी की गर्दनें जमीन ताकनें लगीं थीं। कोई आगे नहीं आया, कई कदम नहीं एक कदम भी। सभी खामोशी ओढ़ लिए थे जैसे उन्हें पता ही न हो कि कि गलत क्या है और सही क्या है।
औतार जानते थे कि भात, माड़ नहीं देने पर बिरादरी से उन्हें निकाल दिया जाएगा। निकालना है तो निकाल दो बिरादरी से काहे धमकी दे रहे हो? रहेंगे तो हरिजनै ही, हरिजन से भी कोई छोटी बिरादरी होती है का? धमकी दे रहे हैं कि निकाल देंगे बिरादरी से, धमकियाओ मत निकाल दो बिरादरी से, अब क्या बचा है उनके पास इज्जत के नाम पर, इज्जत तो रामभरोस की बखरी में कराह रही है। लोगों की इज्जत उतारने के लिए ही तो बखरियॉ होती हैं। कहते कहते औतार आह भरने लगे थे।
''''''‘गॉव का बूढ़ा पीपल क्या बोलता चरित्रा तथा
दुश्चरित्रा के बारे में और पंचायत! सुगिया राम आसरे
थी लड़की होने का अभिशाप झेलती और कराहती’'''
'''
सुगिया दो दिनों तक रामभरोस की बखरी में थी। कहां थी गॉव वालों को मालूम था पर रामभरोस से कोई कहने बोलने वाला नहीं था। रामभरोस बखरी वाले थे, बखरी के आतंक में सहपुरवा डूबा हुआ था। रामभरोस से भला गॉव का कौन वासिन्दा पूछता? बखरी गरजने लगती, सहपुरवा का पूरा आकषश लाल हो जाता, खून माफिक। कितनों के हाथ तोड़ दिए जाते, कितनों के पॉव। बिरादरी के कुछ बोलक्कड़ों ने आसान रास्ता पकड़ा और सुगिया को दुश्चरित्रा घोश्षित कर दिया। बोलक्कड़ों के लिए सुगिया का घर से बाहर होना उसे दुश्चरित्रा साबित करने के लिए काफी था। दूसरे सबूतों की जरूरत ही नहीं थी। सुगिया चिल्ला चिल्ला कर बोल रही थी गॉव में कि उसके साथ रामभरोस ने बलात्कार किया। बोलक्कड़ों को मसाला मिल गया बात को बात से जोड़ने वाला। बोलक्कडों के लिए सही क्या है गलत क्या है इससे मतलब नहीं था। उनका मतलब था कि रामभरोस पर ऑच न आए और औतार परेष्शान हो जांए। औतार की तरक्की बोलक्कड़ों को अखर रही थी जबकि उनकी तरक्की सिर्फ इतनी थी कि वे बाढ़ी (कर्ज) लेकर नहीं खाते थे, जितना कमाते थे उसी से सारा खर्चा चलाते थे। एक दिन भी काम पर नागा नहीं होने देते थे। जब तक कोई बर-बीमारी न हो।
रामभरोस ने गॉव की बिटिया के साथ बलात्कार किया बोलक्कड़ों के लिए चिन्ता की बात न थी। रामभरोस जमीनदार हैं तो क्या किसी के साथ बलात्कार करेंगे? बिरादरी के लोगों के लिए यह फालतू सवाल था। बिरादरी के सामने केवल सुगिया थी और औतार थे, जिन्हें दण्डित किया जा सकता था। औतार को दण्डित करवाने की ताकत बोलक्कड़ों के पास थी पर रामभरोस को दण्डित करवाने की ताकत उनमें नहीं थी। दण्डसंहिता भी तो ताकत का ही पोषण करती है, सजा भी तो कमजोर को ही मिलती है ताकतवर को नहीं। ताकतवर को भला कौन दण्डित कर सकता है?
औतार को सारा कुछ मालूम था कि बिरादरी के बोलक्कड़ कितना पउंड़ सकते हैं? गॉव के पंचायती बोलक्कड़ बिरादरी की पंचायत न बुलायें संभव नहीं था। आनन फानन में पंचायत के सभी चौधरियों को सूचनांए भेज दी गईं। बिरादरी का सिपाही पंचायत की तैयारी में जुट गया। पंच तो जैसे तैयार बैठे थे कि पंचायत हो और हम सभी एक साथ जुट कर नियाव करें।
पंचायत के लोग निश्चित दिन पर जुट गये। पंचायत का जुटाव एक ऐसा अवसर होता है जब हरिजनों में एकता ही नहीं अनुशासन भी दिखाई पड़ता है। नहीं तो काहे का अनुशासन, काहे की एकता, काहे का संगठन। पंचायत तो इस आश में जुट जाती है कि किसी दिन भात माड़ कायदे से मिलेगा नहीं तो कौन किसे खिलाता है, घर में तो नून रोटी से ही काम चलाना होता है। माड़-भात की सजा में तो तरकारी, बरी, चटनी अंचार और भात मिलता है वह भी जितना खा सको।
गॉव में पीपर का एक पेड़ था, बहुत पुराना तथा काफी झकनार था। वह पंचायती पेड़ था। उसकी एक एक शाखा पर पंचायती फैसले लिखे हुए थे। उस पेड़ की गॉव वाले पूजा भी किया करते थे और उसी की छाया में पंचायत भी हुआ करती थी। पेड़ के नीचे पंचायत बैठ गई। यह पेड़ रामभरोस की शौर्यगाथा व दमन का गवाह भी था। आजादी के पहले विजयगढ़ राजा के सजावल भी इसी पेड़ के नीचे हुंकार भरा करते थे, गरीबों, बकाएदारों आदि को दण्डित किया करते थे। तमाम तरह के गॉव के झगड़ों-रगड़ों को निपटवाया करते थे। रियासतें खतम होने के बाद सजावल तो खतम हो गए पर रामभरोस जैसे स्वघोषित कई सजावल औतार ले लिए हैं और वे सजावल का काम करने लगे हैं। सजावल की तरह ही रामभरोस की हुकूमत पूरे गॉव में हुंकार भरने लगी है। यह वही पेड़ है जो अंग्रेजी व्यवस्था का गवाह है तो देशी व्यवस्था का भी गवाह है। रामभरोस के एक एक करनामें उस पेड़ की हरी हरी पत्तियों ने जाने कितनी बार सोखा है जिससे पत्तियों का हरापन गायब हुआ है। पर रामभरोस लगातार हरियाते रहे हैं।
इसी पेड़ के नीचे सुगिया की करुण वेदनाओं तथा क्रूर यातनाओं की पंचायत होनी थी। पेड़ के नीचे तीन चार टाट बिछाए गए थे। ये टाट दो तीन गॉवों की हरिजन बस्ती से मॉग कर लाए गए थे। इनका उपयोग व्याह के अवसरों पर तो होता ही था खासतौर से पंचायत के लिए भी होता था।
सुर्ती, तमाखू आदि लेकर पंचायत के चौधरीगण टाट पर आसीन हो गये। हरिजनों के बड़े चौधरी को विशेष तौर पर चौधरियों के बीच में बिठाया गया। अपने स्थान पर बैठते ही बड़े चौधरी पुनवासी ने बिरादरी के सिपाहियों (हर गॉव से चुने गए सुरक्षाकर्मी जिनका काम होता है बिरादरी के नियमों के विरूद्व चलने वालों की निगरानी करना तथा उनके बारे में पंचायत के चौधरी को बताना) को आदेशित किया....कृकृ
‘पंचायत के सामने सुगिया को हाजिर कराया जाए’
पुनवासी चौधरी का यह आदेश जमीनदारों के आदेशों की नकल की तरह था, हूबहू वैसा ही, बेचारे हरिजन क्या जानते कि यह जो न्यायशास्त्रा है वह है क्या चीज? क्या होता है न्याय और क्या होता है अन्याय, उन्हें क्या पता! वे तो पारंपरिक व कुदरती न्याय के प्रतीक थे सिर्फ इतना जानते थे कि जमीनदार गलत नहीं कर सकते।
पंचायत में सुगिया हाजिर नहीं थी। सुगिया घर पर थी। उसने तय कर लिया था कि उसे पंचायत में नहीं जाना है। उसके मन में आया था कि घर छोड़ कर कहीं भाग जाए पर उसे घर से भागना अच्छा नहीं लगा। पंचायत की डर से काहे भागना? वह जहां भी जाएगी पंचायत का कानून उसके पीछे पीछे लगा रहेगा। सो वह घर पर ही रहेगी। बिरादरी के सिपाही कुछ ही देर में सुगिया को उसके घर से पकड़ ले आए और सुगिया को पंचायत के सामने हाजिर करा दिए।
पुनवासी चौधरी ने सुगिया से साफ साफ पूछा, बिना लाग लपेट केकृकृ
‘तोहरे साथे का किए हैं रामरोस सरकार! साफ साफ बताओ’
यह अदालतों में होने वाली जिरह की तरह का सवाल था जिसका जबाब सुगिया को देना था जबकि इस सवाल का जबाब चौधरी जानता था फिर भी उसने पूछाकृ
‘उसके साथ जो हुआ था रामभरोस की बखरी में सुगिया ने साफ साफ बता दिया। साफ साफ में साफ था कि रामभरोस अपराधी हैं, और उन्हें गॉव से बाहर निकाल देना चाहिए।’
यह सुगिया और औतार का लक्ष्य था पर पंचायत का नहीं था। पंचायत का लक्ष्य था औतार को दण्डित करने का। रामभरोस को गॉव से बाहर निकालने का फैसला देने के लिए पंचायत नहीं हो रही थी। पंचायत का लक्ष्य तो औतार से भात, माड़ लेना था न कि क्या हुआ था सुगिया के साथ यह जानना और रामभरोस के विरूद्ध उचित कार्यवाही करना। औतार भरी पंचायत में रो रो कर रामभरोस की काली करतूत बताते रह गए थे पर किसी ने उनकी नहीं सुना। दोषी उन्हें ही माना गया। पीपर के पेड़ के नीचे एक अलग किस्म का न्यायशास्त्रा उसकी जड़ से लेकर शाखाओं तक पसरा हुआ था। उस न्यायशास्त्रा में पीड़ित को ही दोषी मानने का चलन सामंती रूप से था। पंचायत के चौधरी को अपने ही लोगों को दण्डित करने का अभ्यास था ताकतवरों को नहीं। यह मनुष्श्यों की अलग दुनिया का मामला था। पीपर का पेड़ जानता है कि सुहपुरवा गॉव के लोग किसी दूसरे समाज के लोग हैं जिस समाज में पीड़ितों को ही दण्ड का भागी माना जाता है। चौधरियों ने साफ कहा....कृ
‘देखो औतार तोहार बिटिया ही सरकार के यहां भाग कर गई होगी मुलायम बिस्तरा पर पसरने के लिए। जवानी में मर्दानी गंध सूंघने के लिए। वह खुद ही चली गई होगी सरकार की बखरी में, तूं गलत इलजाम लगाय रहे हो सरकार पर कि सरकार ने उसे घर से उठवा लिया था।’
का करते बेचारे औतार, वे तो विरोध करना जानते ही नहीं थे। उन्होंने अपने बपई को देखा था कि वे भी मालिकों का एक भी जूता पीठ पर से नीचे गिरने नहीं दिया करते थे। रोप लेते थे जूतों को अपनी पीठ पर यही हाल था उनके बपई का भी। वे तो बपई से भी आगे थे।
औतार को एक दरी तथा भात माड़ की सजा कबूल करनी पड़ी। पीड़ित समाज में भी कुछ अक्खड़ किस्म के लोग हुआ करते हैं, बिफना के बपई सुक्खू ने चौधरियों के इस अन्यायी फैसले की कड़ी आलोचना की....
‘अरे! चौधरी साहब! एमें सुगिया का का दोष है? ऊ कवन जुलूम किया है जुलूम तऽ रामभरोस किए हैं, ओनके सजा दीजिए, सुगिया को काहे सजाय दे रहे हैं? ऊ बेचारी तऽ घरे में सोई हुई थी। रामभरोस के लठैत ओके घरवै में से उठाय ले गए बखरी में। तीन दिना तक अपने बखरी में रखे रह गए थे। गांयें में कौन ऐसा है जो इस बात को नाहीं जानता है? आज जो पंच बने बैठे हैं उस दिन तमाशा देख रहे थे, अउर आज पंचायत कर रहे हैं। ई नियाव नाही है चौधरी साहब। अब ऐसा नाहीं चलेगा। हमलोग इस फैसले को नाहीं मानेंगे।’
पंचायत के वरिष्ठ चौधरी पुनवासी को सुक्खू पर गुस्सा आ गया। उन्हें पंचायत के मामलों में अक्सर गुस्सा आ ही जाया करता है। पुनवासी चौधरी भी जाति से हरिजन हैं पर बिरादरी का चौधरी बनते ही उन्हें लगने लगा है कि वे मालिकों की जमात में शामिल हो गए हैं। मालिकों की तरह ही वे बोलने बतियाने लगे हैं। लोग जानते हैं कि पुनवासी चौधरी के लिए गुस्सा एक ऐसी चीज है जिसे वे मालिकों की तरह हमेशा नाक पर धरे रहते हैं और जुबान पर मालिकों वाली सनातनी गालियां.मॉ, बहन वाली, वे भभक उठे....कृकृ
‘का बकते है रे सुखुआ हरामी की औलाद! तुम नाहीं जानते है हमार बिरादरी को कानून, हमारे अनियाव को बड़का, बुड़का सभै मानते हैं कि हमार पंचायत साफ साफ अनियाव करती है। तुम्हारी यह मजाल कि तुम बिरादरी के कानून को नाहीं मानो, हम जो चाहेंगे वोही करेंगे। गॉव में तो और भी लड़की लोग होते हैं उनको तो सरकार नाहीं उठवाय ले गए बखरी में। तुम का जानेगा सुक्खुआ, औतरवा साला ओनकर असामी है, सिरवही करता है। सरकार की बखरी में सुगिया का आना जाना था, ओकर सरकार से लस-पुस हो गया होगा। सरकार के बिस्तरा पर पसरने का ओकर मन हो गया होगा। येही कारण सरकार ओके उठवा ले गये। एम्मे औतरवा की चाल है, जौन हम बूझ रहे हैं, बिटिअयवय की कमाई औतरवा खाय रहा है, जब कमाई खाएगा सरकार की तब तो सरकार उठवा ही ले जांएगे ही, बोलो पंचों गलत तो नाही बोल रहा हूं नऽ....’
पंचायत के दूसरे चौधरियों कोे पुनवासी चौधरी के हॉ में हॉ मिलाना ही था और उनलोगों ने तत्काल हॉ में हॉ मिलाया भी।
‘नाहीं साहेब आप गलत नाही बोल रहे हो, औतरवा बिटियवय की कमाई खाता है।’
सुक्खू थोड़ा तनेन मिजाज वाले थे उन्हें पुनवासी की बात पर गुस्सा आ गयाकृ
‘तऽ का चौधरी असामी का काम करना, हलवाही करना अपनी बहिन बेटी बेच देना है। ई का बक बक कर रहे हैं चौधरी। कहीं रामभरोस ने आपको गठरी तो नाही थमाय दिया नऽ।’
सुक्खू औतार को जानते थे, सुगिया को जानते थे, सचाई जानते थे कि रामभरोस कुछ भी कर सकते हैं। सुघ्घर लड़की देख कर उसे हासिल करने के लिए अच्छा बुरा किसी भी तरह का करम कर सकते हैं। सुक्खू ने एकबार अपनी ऑखों से देखा था। सुगिया जंगल से लकड़ी का बोझ लिए घर वापस आ रही थी। रामभरोस ने उसे वहीं कहीं देख लिया था फिर क्या था। रामभरोस का स्त्राीयार्थ जाग उठा और उन्होंने सुगिया को पकड़ लिया। पकड़ छुड़ाकर किसी तरह से सुगिया भागी, पर कितना भागती, कहां जाती, सुनसान सिवान, एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक, हर तरफ सन्नाटा और मरघटी खामोशी। सुगिया रामभरोस की पकड़ छुड़ा कर भागी पर रामभरोस ने सुगिया को दुबारा पकड़ लिया फिर तो वह उनकी पकड़ में थी, कसमसाती, छटपटाती। सुगिया रामभरोस को जानती थी, कि वह फस गई है, रामभरोस उसे नहीं छोड़ेगा। सुरक्षा मिल जाए कहीं से वह चिल्लाने लगी। संयोग था कि सुक्खू भी जंगल से लकड़ी का बोझ लिए वापस आ रहे थे। सुक्खू को सुगिया की चीख साफ सुनाई पड़ी, वे चीख की ओर दौड़े, कौन हो सकता है जो इस समय चीख रहा है? चीख रहर के खेत में से आ रही थी पर वहां कोई दीख नहीं रहा था, वहां केवल आर्तनाक चीखें थीं जो साफ साफ किसी औरत की जान पड़ रही थीं। रामभरोस सुगिया को रहर के खेत के अन्तःपुर की ओर घसीटे जा रहे थे। नजदीक जाने पर सुक्खू ने देखा कि यह तो सुगिया है, औतार की बिटियवा, सुगिया हांफ रही थी हकर हकर। उसकी सांसें जहां थीं, वहीं टंगी हुई थीं, टंगी हुई दूसरी चीजों की तरह। सुगिया रामभरोस की पकड़ में मछली की तरह छटपटा रही थी। सुक्खू ने लकड़ी का गट्ठर पहले ही उतार दिया था तथा उसी गट्ठर में से एक सीधी लकड़ी डंडा माफिक हाथ में ले लिया था। यह मानकर कि इसकी जरूरत पड़ सकती है। उसकी जरूरत पड़ भी गई सुक्खू ने बिना आगा पीछे देखे, सोचे उसी लकड़ी से रामभरोस को पीटना शुरू कर दिया। इतना मारा कि उनका पलीदा निकल गया। तब जा कर सुगिया का कुंवारापन सुरक्षित रह सका था।
सुक्खू रामभरोस की असलियत जानते थे फिर काहे खामोश रहते...कृ
‘चौधरी साहब थोड़ा कम मुह निपोरिए। कुछ जानते भी हैं कि अइसहीं हवा में झार रहे हैं। हम आपसे जानना चाह रहे हैं कि सुगिया अगर आपकी बिटिया होती तब आप का इहै नियाव करते? औतरवा तऽ रामभरोस के ईहां मेहनत, मजूरी करता है तब जाके रामभरोस ओके बनी मजूरी देते हैं, फोकट में कुछ नाहीं देते हैं मुह देख कर। आप रामभरोस को जानो चाहे जीन जानो हम ओनके जानते हैं, आजु औतरवा के बिटिया संगे तऽ काल्हु तोहरे बिटिया संगे, तब जीन नरिआइएगा।’
पुनवासी चौधरी को बहुत ही खरी-खोटी सुक्खू ने सुनाया। सुक्खू की बातें पुनवासी चौधरी को पंचायत के अनुशाशन के प्रतिकूल जान पड़ीं।
‘सुक्खुआ साले की इतना मजाल’
पुनवासी चौधरी ने सिपाहियों को तुरन्त आदेश दियाकृ
‘बांध दो सुक्खुआ साले को पेड़ से और पचास जूते तथा पचास कोड़े मारो’
पुनवासी चौधरी के आदेश का अनुपालन बिरादरी के सिपाही काहे नाहीं करते, वे तत्काल उठे और सुक्खू को पकड़ने लगे।
उसी समय पंचायत में जोरदार हल्ला किसी बवन्डर की तरह उठा, वह भी अप्रायोजित, स्वस्फूर्त।
‘हमलोग भी देखते हैं कौन साला सुक्खू कक्का को पकड़ कर मारता है। जो भी सुक्खू कक्का को पकड़ेगा वह हमारे गॉव से साबिक नाहीं लौटेगा। उसे मार मार कर भर्ता बना देंगे हमलोग।’
यह गॉव के जागरूक युवकों की क्रोधभरी आवाज थी जो पहली बार सहपुरवा में किसी चौधरी के आदेश के खिलाफ उठी थी। युवकों की आवाज में चौधरी का आदेश कही बिला गया था।
पुनवासी चौधरी पंचायत वाले आदमी थे। वे छोटे बड़े सभी के यहां बैठकी किया करते थे वे समझते थे कि पंचायत में आग लग गई तो नहीं बुझाई जा सकती। इसे रोकना चाहिए। पुनवासी चौधरी अपने आसन से उठे और नेताओं की तरह हाथ जोड़ कर खड़े हो गए... लगे समझाने....कृ
‘भाइयों, आप हमारी बात धियान से सुनिएगा। यहां पंचायत सुगिया की हो रही है न कि सुक्खू की। सुक्खू को जो भला लगा बोल दिए ओसे पंचायत से का मतलब। आपलोग बूझ रहे हैं न हमारी बात...’
फिर तो पंचायत सुगिया के अपराध पर केंद्रित हो गई। पुनवासी चौधरी को भी यही ठीक जान पड़ा उनसे सुक्खू से क्या लेना देना। मामला तो सुगिया का है जो पंचायत के सामने है। सुक्खू को पंचायत में घसीटने से सुगिया का मामला भी हल नहीं होगा जबकि औतार कोे हर हाल में सजा देना है और उनसे भात, मांड़ और एक दरी लेना है। सुगिया के मामले की पंचायत शान्तिपूर्ण ढंग से निपट गई, उसमें हो हल्ला नहीं मचा। मचता भी नहीं, औतार ने बिरादरी को भात माड़ देना स्वीकार कर लिया, वे इसको प्रतिरोध कर भी नहीं सकते थे। झगड़ा करने से अच्छा है भात, मांड़ दे देना, सो उन्होंने भात, माड़ की सजा स्वीकार कर लिया।
सुक्खू को पंचायत का फैसला बेइमानी वाला लगा। उन्हें बुरा लगा कि गॉव के लड़के काहे चुप रह गए पंचायत में, उनके नाम पर तो बोलनेे लगे थे। तो क्या गॉव के लड़के चाहते हैं कि औतार को दण्ड दिया जाए। उन्होंने बस्ती में आकर गॉव के नौजवान लड़कों को खूब खूब फटकारा भी। गॉव के लड़के सुक्खू की फटकार सुनते ही चुप हो गए थे। उन्हें महसूस हुआ कि पंचायत में पुनवासी चौधरी के फैसले का विरोध करना चाहिए था। पंचायत ने गलत फैसला किया है, भला सुगिया की का गलती है इसमें? गलती तो रामभरोस की है। फिर औतार काहे भात-माड़ और दरी की सजा भुगतें। पर पंचायत तो हो चुकी थी और औतार सजा कुबूल कर चुके थे।
औतार जानते थे कि वे बिरादरी के विरोध में नहीं जा सकते थे, जाते भी नहीं, विकल्प ही नहीं था सुगिया का बियाह भी तो बिरादरी में ही करना था, उसका बियाह भी होगा बिरादरी में ही। बिरादरी के अलावा दूसरी जाति के लोग सुगिया से थौडै बियाह करेंगे। ऊंची जाति के लोग देहीं पर चाहे जेतना नाच कूद लें पर बियाह नाहीं करेंगे। औतार केवल एक ही काम कर सकते थे, रामभरोस का काम छोड़ सकते थे और उन्होंने वैसा किया भी। उन्होंने रामभरोस का काम छोड़ दिया। औतार अपने तरीके से सुगिया के बचाव में खड़े थे और उसके बियाह के बारे में गुनने लगे थे।
सहपुरवा कई महीने तक पुनवासी चौधरी की पंचायत वाली गंध पीता रहा। वैसे भी पंचायत की गंध पूरे जवार में फैल चुकी थी। गंध भी किसिम किसिम की, कुछ तो मादक तथा बेधक थी तो कुछ नाक-मुह सिकोड़ने वाली भी। नाक-मुह सिकोड़ने वाली गंध कुछ गिने चुने लोगों को परेशान किए हुए थी। वे समझ नहीं पा रहे थे कि यह जो आजादी मिली है वह किससे मिली है, किस बात और काम की आजादी मिली है। रामभरोस जैसे बाज तो आज भी आसमान में बिना अवरोध उड़ रहे हैं और जहां होता है वहीं झपट्टा मार दे रहे हैं। झपट्टा मार ही दिया रामभरोस ने औतार के घर पर और अपने पंजों में जकड़कर उठा ले गए सुगिया को अपनी बखरी में। बखरी में जिस तरह से उन्होंने लोकतंत्रा तथा आजादी की गांठें खोला उसे देखने परखने वाला कोई नहीं। आखिर जनता की, जनता के द्वारा और जनता के लिए वाली सरकार में रामभरोस ऐसा कैसे कर पा रहे हैं?
और पंचायत!
उसका क्या कहना, हो गई पंचायत। सुगिया के बाप औतार को दण्डित कर दिया गया। न्यायशास्त्रा की किताब में सहपुरवा के न्याय का एक पन्ना और जुड़ गया। यही बीसवीं शताब्दी है, यही बदला हुआ देश्ष है, यही अंग्रेजमुक्त भारत है।देश अंग्रेजों से तो आजाद हो गया पर रामभरोस जैसे देशी अंग्रेजों से...! आजाद हुआ कि नहीं कौन बताएगा? क्या वह पीपर का बूढ़ा पेड़ या सहपुरवा के बरम बाबा बतांएगे? कोई नहीं बताएगा।
औतार पंचायत की गंध से कब तक बाहर निकल पाएंेगे उन्हें नहीं पता। शायद भात-माड़ और दरी देने के बाद। पर क्या वे सुगिया के साथ हुए बर्बर अत्याचार की कष्टप्रद पीड़ा से भी बाहर निकल पाएंगे? औतार के बाल पक चुके हैं, उन्होंने जिन्दगी को हसते देखा है तो रोते बिलखते भी देखा है। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि हर रोज होने वाली सुबह को किस तरह नमन करें और शाम को किस तरह से विदा करें। औतार क्रान्तिकारी चेतना से लैश होते तो शायद पंचायत के फैसले के खिलाफ लड जाते पर वे तो आदिम युग के आदमी थे अपने भीतर ही अपनी गलती निकालने वाले, हर घटित को भाग्य का फल मानने वाले। उनके लिए यही कम नहीं था कि वे अपना पक्ष किसी प्रकार से पंचायत में रख पाए थे। वे जानते थे कि तमाम सुखों में चुप रहना और खामोशी से उगते सूरज को निहारना बहुत बड़ा सुख होता है। वे बाल-बच्चे वाले हैं सो उन्होने खुद को समय के हवाले कर दिया है, जो करेगा समय ही करेगा। उनकी मुठ्ठी तो खाली खाली है।
पंचायत का दिन जो औतार के लिए भात-माड़ तथा दरी की सजा लेकर आया था, गुजर गया, उसे गुजरना ही था। भले ही कसमसाते और चीखते हुए ही गुजरा पर गुजर गया। औतार के जीवन का वह दिन अतीत बन चुका था पर औतार अतीत नहीं थे। वे कथित सभ्यता के प्रतीक व प्रतीत थे। अन्धेरा होते ही औतार उसमें डूबने लगे। अन्धेरे मंे भी राहत जैसी कोई बात औतार के लिए न थी। जब दिन ही लतियाते हुए आता है तब रात का क्या, जो आने ही वाली होती है वह तो किसिम किसिम का यातनादाई खेल लेकर ही आएगी। कैसे निपट पांऐगे औतार उससे। संभव है वह भी दिन की तरह ही आये और औतार को दण्डित करे। औतार रात के तमाम खतरों के डरों से कॉपने लगे, जैसे मलेरिया ने उन्हें जकड़ लिया हो।
औतार कर भी क्या सकते थे वे आगत के डरों से खुद को कैसे मुक्त कर सकते थे। वे पसीना पसीना हो गए। तभी फेकुआ की अइया उनके पास आ गईकृ
‘यह का हो रहा है आपको! आप तो पसीने से तरबतर हैं काहे पसीना हो रहा है आपको, गर्मी का महीना भी तो नाहीं है। लगता है बोखार है, चलिए घर में काहे ओसारे पर बैठे हुए हैं? दवाई की एक टिकिया घर में पड़ी है बोखार वाली, खा लीजिए उसे।’
फेकुआ की अइया औतार को ओसारे से घर के भीतर ले गई। घर के भीतर क्या था, वही माटी वाले फूस के छाजन वाले छोटे छोटे दो कमरे। उन कमरों में सहपुरवा के पाचास साल की उमर बराबर इधर उधर नाचा करती थी पर उस समय कमरे में उमर का नाचना छिन गया था। नाच की जगह पर सन्नाटा नाच रहा था। सन्नाटों ने कमरों की खुशियॉ लील लिया था। सन्नाटे भी सहज, सरल और तरल नहीं थे पूरी तरह डरावने थे। भीतर वाले कमरे में जाते ही औतार और कॉपने लगे, एक बार फिर उन्हें आतताई डरों ने जकड़ लिया।
‘भात-माड़ और दरी की सजा भुगत लेने के बाद भी उन्हें चैन से रहने दें रामभरोस तब नऽ, रामभरोस चुप बैठे रहने वालों में नहीं हैं।’
किसी तरह नमक मिला गीला भात कंठ से नीचे औतार ने पेट में उतारा। कंठ सिकुड़ चुका था, कंठ ने भात निगलना बन्द कर दिया था। एक एक कौर औतार के लिए कठिन हो गया था निगल पाना। फिर दवाई की टिकिया खाया और पसर गए लेवा पर, ऊपर से एक कथरी ओढ़ा दिया फेकुआ की मतारी ने। औतार नींद में जाने की कोशिश करने लगे पर नींद थी कि उनसे कोसों दूर थी। नींद को तो रामभरोस के आतंक ने उड़ा दिया था।
'''‘सुभाश्षितों के बीच कॉपता, हिलता कथा नायक
प्रतिनायक बन गया यानि कथा आगे बढ़ रही है, पढ़िए कैसे?’
'''
वैसे भी लोकतांत्रिक देशों में रंगीन किस्म की पंचायतें पाई जाती हैं। ऐसी रंगीन पंचायतें सहपुरवा में ही नहीं सभी जगहों पर हुआ करती हैं भले किसी का साबिका उनसे पड़े न पड़े। देश की जो सबसे बड़ी पंचायत है उसमें भी तमाम लोगों के मुह सिले होते हैं रंगीन पंचायत वाले लोगों की तरह। व्यवस्था में अव्यवस्था नहीं होने पाए इस बाबत सुक्खू जैसे कुछ थोड़े से लोग ही तो बोल पाते हैं पंचायत में पर उनकी सुनता कौन है, वे वहां बोलें चाहे चिल्लाएं...
इस समय तो पूरे देश में आपात काल लगा हुआ है। आपातकाल लगाए जाने का निर्णय देश की बड़ी पंचायत ने ही किया है। उस पंचायत में भी कुछ लोग ऐसे होंगे ही जिनकी शक्लसूरत तथा विचार पुनवासी चौधरी से मिलते जुलते होंगे तथा वहां सुक्खू जैसे लोग भी होंगे। कुछ लोग देश की बड़ी पंचायत की कमान संभाले हुए हैं तो पुनवासी चौधरी सहपुरवा की पंचायत का। इसी तरह हर तरफ पंचायतें हो रही हैं, एक से बढ़ कर एक फैसले सुनाए जा रहे हैं, फैसलों को लागू करवाया जा रहा है। पंचायत का काम है नियमों की व्याख्या करना तथा व्याख्यायित नियमों को जनता के हितों के लिए जनता का नियम बनाना। और नियम लगातार बन रहे हैं। किसे पड़ी कि वह नियमों के बारे में गुने। कोई नहीं गुन रहा पंचायत के बनाए हुए नियमों तथा व्याख्याओं के बारे में....कृकृ
सहपुरवा के लोगों ने भी नहीं गुना पुनवासी चौधरी के फैसले के बारे में जो नियम की तरह लागू किया गया था। पुनवासी चौधरी का फैसला तो इतना बड़ा था कि उसकी अपील भी नहीं हो सकती थी। वैसे भी पुनवासी चौधरी फैसला करने वाले थे तो उसे लागू कराने वाले भी थे। फैसला और उसका क्रियान्वयन दोनों उनकी शक्ति में केन्द्रित था। ऐसे शक्तिवान हमारे देश में सर्वत्रा फैसला करते हुए दिखाई दे रहे हैं।
रामभरोस ने सुगिया के साथ जो कुकृत्य किया था इसकी जानकारी फेकुआ को सुन सुनाकर ही हुई थी। उस समय फेकुआ की उमर सात-आठ साल की थी। उस घटना को तो केवल औतार ही जानते थे, उन्होंने उस संत्रास को भोगा था, झेला था। गॉव भर की उलाहनाएं सुना था तथा रामभरोस के प्रकोपों को भी झेला था। पर रामभरोस के बारे में कोई कहने बोलने वाला नहीं था। गॉव का सारा आकाश खामोश हो गया था, गलियॉ सिकुड़ गई थीं। सिकुड़ने को तो वह पनघट भी सिकुड़ गया था जहां औतार जा कर नहाया करते थे।
सुक्खू और औतार दोनों हरिजन हैं पर उनमें बिरादरी का बारीक फर्क भी है, सुक्खू उतरहा हरिजन हैं तो औतार बड़हरिया। माना जाता है कि उतरहा हरिजनों का रियासत से सरोकार कभी नहीं रहा है और बड़हरियों का सरोकार सदैव से चन्देल राजाओं के साथ रहा है, चन्देल राजाओं के आने के साथ ही वे भी विजयगढ़ में आये थे।
सुक्खू और औतार की दोस्ती बचपन से ही है। हरिजन बस्ती में यही दोनों खानदान ऐसे हैं जो सहपुरवा में कई पीढ़ियों से आबाद हैं। दूसरे हरिजन जो सहपुरवा में रह रहे हैं वे सालाना इस गॉव से उस गॉव अपने डेरा तम्बू लगाते रहते हैं। उन्हें लगता है कि इस गॉव में गड़बड़ है, मालिक का अत्याचार है तो दूसरे गॉव में अच्छा रहेगा पर गॉव तो गॉव, मालिकों के जूते के नोकों पर खड़े और पड़े।
बिरादरी के सभी बड़े-बूढ़ों ने फेकुआ को भला बुरा कहा कि वह काहे के लिए रामभरोस से उलझ गया। उसे मालूम होना चाहिए कि रामभरोस सरकार हैं और उनके सामने सिर झुका कर रहना चाहिए। वे जो बोलंे, कहें उसे सुनो पर उस सुने को अनसुना कर दो, बोलना चाहो तो मुह सिल लो, इस तरह की सााधना जिसके पास नहीं वह सहपुरवा में रहने लायक नहीं।
फेकुआ हताश और निराश। फेकुआ थोपी हुई मर्यादाओं का आदमी नहीं था। सो उसे नहीं पता था कि मर्यादांए होती क्या हैं? कैसे बनती बिगड़ती हैं। वह सभी की बातें सुनता फिर भी नहीं समझ पाता कि उसने रामभरोस के साथ ऐसा क्या बोल दिया जिससे उनकी मर्यादा चोटिल हो गई। मर्यादा चोटिल करने वाली बात उसे नहीं बोलना चाहिए था। क्या वह नहीं बोल सकता कि ‘मालिक आपन हरवा खुदै जोत लिया करैं? अपना काम करना क्या बुरा होता है जो सभी उसे दोष दे रहे हैं।’ फेकुआ करता भी क्या, जो उसके मन में आया तत्काल बोल गया? बोला हुआ वापस भी तो नहीं हो सकता था।
औतार भी फेकुआ से कब तक गुस्साए रहते। आखिर कब तक एक बाप नाराज रह सकता है अपने बेटे से। किसी तरह औतार का गुस्सा ठंडा हुआ या उन्होंने खुद गुस्से को ठंडा किया पर उनका गुस्सा ठंडा हो गया। फेकुआ के माथे पर अपने मां बाप तथा दूसरे बड़े-बूढों की चेतावनियों का बोझ लद गया जबकि अपने माथे पर किसी प्रकार को बोझ लाद कर वह नहीं रहा करता था। बोझ के कारण वह रात भर नहीं सो पाया, करवटें बदलता रहा। वह जैसे जैसे करवटें बदलता उसकी नींद भी करवटें बदलने लगती। नींद कभी बांए तरफ जाती तो कभी दांए तरफ, नीद को बांए दांए के बीच में जाकर पसरना अच्छा नहीं लगता। नींद तो सदैव किनारों की तलाश में रहती है, किनारा हो सुख का, चैन का, आराम का, खुली और खिली सांसे लेने का। पर वहां किनारे कहां थे, वहां तो केवल सैलाब था, चेतावनियों का, आने वाले संभावित खतरों का।
फेकुआ को अपनी गलती समझ में नहीं आ रही थी आखिकार उसने किया क्या? ऐसा क्या बोल दिया रामभरोस से कि उनकी मर्यादा भरभरा कर गिर गई। क्या उनकी इज्जत इतनी कमजोर तथा भुरभुर है कि उसके कहने से भरभरा गई? उसे रह रह कर बिफना पर गुस्सा आता। उसने रामभरोस से हुई बात-चीत का हवाला उसके बपई से क्यों बता दिया? अगर नहीं बताया होता तो ऐसी नौबत ही नहीं आती फिर काहे के लिए उसका बपई नाराज होता उससे।
फेकुआ की दुनिया बहुत छोटी थी, वह मजूर था और बचपन से ही मजूरी के काम में लगा हुआ था। जब वह पॉच छह साल का था तब से पसीना बहा रहा है। चरवाही करते समय उसने कितना पसीना बहाया होगा उसका हिसाब उसके पास नहीं। चौदह पन्द्रह साल तक का होते होते तो उसने हल चलाना सीख लिया था फिर लगा था हलवाही करने। वह हलवाह है तो क्या हुआ उसके चित्त से उसका होना मरा नहीं था, उसके पास सपनों की पूंजी थी। उसका सपना था कि वह हलवाही करते करते असामी बनेगा। खूब कमाएगा अपना बैल खरीदेगा। असामी से कमाई कर लेने के बाद वह जमीन खरीदेगा, अपनी जमीन में मकान बनाएगा और अपने खेत में खेती करेगा। बेकार है हलवाही करना यानि मालिकों का हुकूम अपनी पीठ पर लाद कर चलना, उसके लिए मुश्ष्किल हो रहा है। जवान होते ही वह जान गया था कि जो बात उसे बुरी लगती है वह बात दूसरे को भी बुरी लगेगी। इस हिसाब से तो उसने रामभरोस से कुछ बुरा नहीं कहा, अपना काम खुद करने के लिए ही तो बोला था रामभरोस से फिर लोग उसे काहे दोष दे रहे हैं।
समय सुबह का था, फेकुआ निपटान के लिए गॉव से बाहर गया हुआ था। गॉव के बाहर ढूह वाला एक क्षेत्रा पड़ता था। वहां कई ढूहे थे, कुछ बहुत बड़े तो कुछ औसत आकार वाले। जिधर देखो उधर ही ढूहे। ढूहे बहुत बड़े व ऊॅचे नहीं थे फिर भी इतने बड़े थे कि उसके नीचे बैठे हुए आदमी का दिखना बन्द हो जाता था। यही ढूह वाला क्षेत्रा सहपुरवा के लोगों के लिए सार्वजनिक शौचालय था। औरतों के लिए गॉव के पूरब वाले ताल का भीठा था। बिफना भी ढूहे की तरफ गया हुआ था। बिफना को लौटता देख कर बीच रास्ते में ही उसका इन्तजार फेकुआ करने लगा। इन्तजार का गहन रिष्श्ता सुर्ती से होता है सो वह सुर्ती मलने लगा इसीर बीचबिफना भी वहीं आ गया।
‘का रे बिफना! ससुर तूं बड़ा काबिल बनते हो, रामभरोस वाली बात बपई से काहे बताय दिए रे! वैसे भी बोलो हम रामभरोस को का कह दिए थे जौने से ओनकर इज्जत गिर गई। फेर तोके का मिला बपई से वह सब बता कर?’ बिफना कुछ देर तक फेकुआ का चेहरा देखता रह गया, उसे लगा कि उसके कारण फेकुआ नाराज हो गया है और उस पर शक कर रहा है। उसने बहुत ही मुलायमियत से फेकुआ को समझाया....
‘देख फेकुआ ई सब तोके नाहीं पता, केकरे से कइसे बोलना, बतियाना चाहिए। रामभरोस के बारे में तोके पता होता तो तूं खुदै उनसे वैसा न बोलते वे राक्षस हैं राक्षस, मारने पीटने लगते हैं। हम तो वोही दिन डेरा गए थे कहीं रामभरोस तोके मारने न लगें।’
फेकुआ निर्बुद्धि नहीं था, वह भी रामभरोस के बारे में बहुत कुछ जानता था। कई काण्ड रामभरोस ने उसके सामने किया कराया था। जिन्हें उसने बहुत पास से घटते हुए देखा था। हालात समझते हुए उसने बिफना से प्रतिवाद नहीं किया बल्कि आगे क्या करना चाहिए उसके बारे में जानना चाहा। जो बीत चुका था, बीत चुका था, उसे तो लौटना नहीं था। बिफना ने आष्श्वासनों के सहारे उसे समझाया बुझाया कि रामभरोस सहुरवा में सबसे नीच और खराब आदमी हैं, या यह कहो कि वे आदमी ही नहीं हैं। उनसे बेमतलब रार नहीं लेना चाहिए।
फेकुआ आशंकाओं में घिर गया जाने का करें रामभरोस। दैनिक क्रिया से निवृत्त हो कर दोनों अपने अपने घर लौट आये। रात में जो भोजन बना था उसे फेकुआ की अइया ने उसके सामने परोस दिया। फेकुआ सहजता से खाने लगा नहीं तो वह ताजा भात ही खाना चाहता है नून और मर्चा की चटनी के साथ। यह मौका फेकुआ की अइया के लिए अच्छा था, उन्हांेने उसे समझाना शुरू किया....कृकृ
‘बड़का अदमिन से तनिक नरम हो के बोला बतियाया जाता है रे। तूं नाहीं जानते, बड़का अदमिन का मन अउर दिमाग, दुन्नो जनमै से गरम होता है। उन लोगों के माथे से भाप निकलती है। ऐसे में नरमी से काम लेना चाहिए। बड़का लोगन का दिमाग गरम रहता ही है और तूॅ भी गरम हो गए तो मारै-पीट होगी नऽ।’
फेकुआ की अइया इतना ही बोल पाई थीं कि उन्हें सुगिया की याद आ गई, सुगिया की ही नहीं उसके साथ घटी घटना की भी। रोना रोकना चाहा पर नहीं रोक पाईं, मड़हा के अन्दर भाग कर चली गईं। अइया का बोलते बोलते रोना, बपई का डांटना सारा दृश्य फेकुआ को उलट पुलट गया, उसे लगा कि वह सिर के बल खड़ा है और धरती कांप रही है।
किसी भी आगत भय से फेकुआ कभी आतंकित नहीं हुआ था। यह पहली बार था कि अपनी पीठ पर डन्डे बरसता हुआ वह महसूस कर रहा था। हालांकि डरों में उसने कभी जीना नहीं सीखा था पर उसे लगा कि उसे डर कर रहना चाहिए पर कब तक! वह उथल-पुथल में था। कब तक का जबाब उसके पास नहीं था।
जोतनी पर उसे जाना था देर हो रही थी। जल्दी से वह घर से पैना लेकर बाहर निकला। उसे सन्देह था कि आज जरूर कुछ न कुछ होगा खेत पर, सभी लोग बेकार नहीं बोल रहे। रामभरोस करेंगे कुछ न कुछ। सामने से उसके मालिक चौथी गंवहा आ रहे थे जिनके यहां वह हलवाही करता था, फेकुआ को देखते ही गुसिया गए.
‘अबहीं तोहार बेला भयी है ससुर, बिफना कब्बइ काम पर निकल गया अउर तूं अबहीं हर जोतने जाय रहे हो। न काम का पता’ न बाप का पता, इहै हाल है ससुर तोहार।’
रामभरोस ने तो फेकुआ को उतना बुरा नहीं कहा था जितना चौथी गवहां सरपट बोल गए एक ही सांस में बाप तक चले गए। कुछ भी नहीं छोड़ेे। उसे लगा कि चौथी गवहां तो रामभरोस से भी आगे हैं। फेकुआ इन सभी बातों को आज से ही नहीं सुन रहा है, खेलने कूदने से लेकर गाय गोरू की चरवही करने तक, वह यही सब तो सुन रहा है। अभी दो ही साल तो हुए होंगे जब चौथी गंवहां ने उसे हलवाही पर लगाया था। उसके बाप औतार ने कोले के रूप में दो बिगहे खेत की मांग किया था चौथी गवहां से, पर चौथी गवहां ने औतार की बात पर विचार नहीं किया, एक तरह से नहीं माना।
चौथी गवहां ऐसे वैसे आदमी तो हैं नहीं, हिसाबी आदमी हैं, बातों का वजन तौल कर चलने वाले, उन्हें सौदा महंगा जान पड़ा। वे पहले बड़े जोतदारों की जमीन बटाई पर ले कर खेती किया करते थे, छोटी आमदनी थी, उसी में से बचाकर बाढ़ी-डेढ़ा का कारोबार करने लगे। कारोबार चल निकला। उन्नीस सौ छाछठ का अकाल आते ही उनकी किस्मत चमक गई। बाढ़ी डेढ़ा के उनके कारोबार ने उन्हें फटाफट धनी बना दिया। अकाल के समय हर कोई उनके पास चावल, गेहूॅ, दाल के लिए जाता और बाढ़ी डेढ़ा पर खाद्यान्न लेता, मान कर चलता कि दुगना ही तो देना पड़ेगा नऽ, बालबुतरू कम से कम भूखे तो नहीं मरेंगे।
गॉव में चौथी नाम से जाने जाने वाले चौथी, चौथी गवहां हो गये। हजारों रुपया बैंक में जमा हो गया, जमीन खरीद ली, पक्का मकान बनवा लिया। उनके घर में कितना गल्ला है किसी के लिए थाह लगाना मुष्किल। चौथी गवहां ने हिसाब लगा कर फेकुआ को अधारा पर रख लिया क्योंकि वह अकेला था, मेहरारू होती तो पूरे पर रखते, अधारा पर नहीं, फिर पूरा कोला भी देना पड़ता।
फेकुआ काम पर देर से आने का कारण चौथी गवहां को जरूर बताता पर कहीं शिष्टाचार में कोई कमी न रह जाए इसलिए महटिया गया। रामभरोस के नाराज होने का मतलब गाली गलौज, मारपीट आदि आदि और चौथी गवहां के नाराज होने का मतलब भूख, प्यास। चूल्हा ही नहीं जल सकता, पेट में जाने का का दोड़ने कूदने लगंे। रामभरोस से दूसरे किस्म का डर था और चौथी से दूसरे किस्म का पर दोनों डरों का रिश्ता केवल और केवल भूख वाली गरीबी से ही जुड़ता था। गरीबी से जुड़ने वाली और भी तमाम बातें सहपुरवा में थीं। जिन्हें धीरे धीरे फेकुआ बूझने लगा था। वह यह भी बूझने लगा था कि उसके अइया बपई मुह सिल लेने तथा कान बन्द रखने की नसीहतें उसे क्यों दिया करते हैं।
फेकुआ सीधे बैलों की तरफ गया जिन्हें चौथी गवहां का लड़का चरा रहा था। उसने बैलों को हल में नाधा यह सोचते हुए कि क्या कभी वह रामभरोस और चौथी गवहां को भी बराबरी के जूए में नाध सकता है इन बैलों की तरह। उसे खुद पर गुस्सा आया...एक गरीब हरिजन भला ऐसा कैसे सोच सकता है? उसके नसीब में तो बराबर गालियॉ ही लिखी होती हैं।
बिफना हल जोत रहा था, फेकुआ की इन्तजारी में कि फेकुआ आये और बैलों को नाधे। फेकुआ ने नधे बैलों को बिफना के पीछे लगा दिया। हल जोतते हुए ही बिफना ने भी फेकुआ को भला बुरा कहा। उसने पहले जो कुछ भी फेकुआ से कहा था उससे उसका पेट नहीं भरा था। रामभरोस के पुराने करतबों ने उसके मन को भयातुर बना दिया था। वह बराबर डर पीने लगा था। फेकुआ के साथ कुछ भी कर सकते हैं रामभरोस फिर तो पूरी गृहस्थी ही औतार कक्का की बैठ जाएगी और फेकुआ का हाथ पैर टूटेगा अलग से। बिफना अपने दोस्त को हर हाल में बचाना चाहता था सो वह उसे डांट रहा था। फेकुआ खामोश था तथा हल में नधे बैलों के थूथुन पर सारा गुस्सा उतारने लगा था। हालांकि फेकुआ डरा हुआ था पर डर कर घुटने वाला नहीं था सो रामभरोस व चौथी के लिए मन के भीतर जमी हजारों किस्म की गालियांे को वह अबोल बैलों पर उतार रहा था। जबकि उसे पता था कि इन अबोलता बैलों का दोष नहीं है? इन्हें नहीं मारना चाहिए। फिर भी फेकुआ उन्हें मारे जा रहा था। बहुत मुष्किल होता है गुस्से को रोक पाना, जिसने गुस्सा रोक लिया, खुद को संतुलित कर लिया उसने जीवन साध लिया। अभी फेकुआ की उमर ही क्या थी जो वह खुद को साध लेता। उसे गुस्सा अपने लोगों पर आ रहा था, जो उसे दोष दे रहे थे। अचानक उसकी समझ में आया कि लोग तो उसे ही दोष देंगे रामभरोस को कौन दोष दे सकता है भला। यह दुनिया ही ऐसी है हर हाल में मारा जाता है कमजोर आदमी ही, गरीब आदमी ही। ताकतवरों को मारने पीटने की किसी में औकात नहीं होती। रामभरोस ताकतवर हैं उनसे निपटने की ताकत किसी में नहीं।
फेकुआ अपनी सोच से बाहर निकला उसे समझ में आया कि अबोलता बैलों को मार कर उसने गलती किया है। बैलों को नहीं मारना चाहिए था। फिर वह बैलों को सहलाने लगा, पुचकारने लगा जो बैलों से माफी मॉगने माफिक था। बैल भी गर्दन हिलाने लगे और मस्त हो कर पगुरी करने लगे। बैलों को पगुरी करता देख फेकुआ का मन हरा हो गया जैसे प्रकृति के हरे पन में उसका मन कैद हो गया हो। पर उसके मन में उसी समय एक सवाल ने भी जनम ले लिया...कृ
उसे तो समझ आ गई कि अबोलता बैलों को नहीं मारना-पीटना चाहिए, क्या ऐसी समझ रामभरोस को भी आएगी? उनके सामने तो पूरा सहपुरवा ही अबोलता है फिर भी वे अबोलतों को सदैव मारते-पीटते रहते हैं। पर उन्हें कभी भी समझ नहीं आएगी कि अबोलतों को नहीं मारना-पीटना चाहिए।
'''‘विवेकहीन कथाचरित्र भले ही उल्लेखनीय न हो
पर कथा विषय की प्रभावोन्वति को कुदरती ताकत तो देते ही हैं’'''
कुर्सी पर बैठे हुए रामभरोस चाय की चुस्की ले रहे थे। चाय की चुस्की में गॉव था, गॉव के होने का मूल्यांकन भी चाय की प्याली में तैर रहा था। उनका दबदबा चाय की भाप के साथ उड़ रहा था पर भाप थी कि उनके मुह पर पसर पसर जाया करती थी। भाप का वे क्या बिगाड़ लेते? भाप तो किसी से नहीं डरती और न ही उसे अदब में रहना आता है। सो उनके चेहरे को ढक लिया करती थी इसीलिए फूॅंक फूॅक कर वे चाय पी रहे थे जिससे उनके चेहरे को भाप ढकना बन्द कर दे। पर नहीं भाप थी कि मानने वाली नहीं थी और उनके चेहरे पर मडरा रही थी।
चौथी गवहां हरिजन बस्ती से लौट कर अपने घर न जाकर रामभरोस की बखरी पर जा पहुंचेे। उन्होंने देखा कि चाय की भाप में रामभरोस जी घिरे हुए हैं. यानि उनका मूड ठीक है तभी तो चाय की भाप से प्यार कर रहे हैं।
‘पा लागी सरकार!’ चौथी गवहां ने हाथ जोड़ कर उनका अभिवादन किया जो किसी प्रार्थना माफिक था।
‘खुष्श रहो, केहर से आ रहे हो चौथी? बदलुआ तोहरे कीहें नाहीं गया था का?’ रामभरोस ने चौथी गवहां से पूछा
‘गया था सरकार!’ चौथी गवहां ने जबाब दिया
‘अच्छा, अच्छा बइठो’
रामभरोस ने चौथी गवहां को बैठने के लिए संकेत किया। चौथी गवहां रामभरोस की कुर्सी से दो हाथ की दूरी पर रखे गये मोढ़े पर बैठ गये। रामभरोस के पास रखी कुर्सी पर बैठने की योग्यता चौथी गवहां में न थी। अगर बैठ जाते तो रामभरोस का माथा ठनक जाता। चौथी जैसे तमाम लोगों का रिष्ता केवल मोढ़े से ही हो सकता था और वह बराबर बना हुआ था। जो रामभरोस की कुर्सी से दूर कहीं रखा होता था। कुर्सी और मोढ़े के द्वन्द ने कभी भी चौथी को विचलित नहीं किया था। वे विचलित होते भी क्यों? बैठना तो मोढ़े या कुर्सी दोनों पर ही होता है, बैठा तो जमीन पर भी जा सकता है, उकड़ू पल्थी मारकर पद्मासन की मुद्रा में भी। यह कम नहीं कि वे रामभरोस के सामने मोढ़े पर बैठते हैं, उनसे हस हस कर बतियाते हैं। चौथी को क्या पड़ी कि वे मोढ़े, कुर्सी या जमीन पर बैठने की सांस्कृतिक परंपरा का पता लगाएं कि ऐसी परंपरा कब से है? किसने चालू करवाया है इस परंपरा को। इस परंपरा के अतीत के बारे में तो उन्हें नहीं पता पर इतना पता है कि बराबरी दर्जे काआदमी ही कुर्सी पर बैठता है। उससे कम दर्जे का आदमी मोढ़े पर बैठता है और जो दर्जाविहीन होता है वह जमीन पर बैठता है या खड़ा रहता है। बाप दादों के जमाने से ही वे जैसा देखते आ रहे हैं वैसा ही कर रहे हैं। मोढ़े पर बैठते ही उन्होंने विनम्रता पूर्वक रामभरोस से पूछा....कृ
‘का हुकुम है सरकार! काहे बलाव भेजे थे?
चाय की प्याली कुछ इस तरह से रामभरोस ने मेज पर रखा जैसे वे अपना पूरा दबदबा मेज पर रख रहे हों जिसे चौथी देख लें। चौथी ने उसे देखा भी। उसे न भी देख पाते चौथी तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता। चौथी हरिजन बस्ती से जब वापस आ रहे थे रामभरोस की बखरी की तरफ, तभी से बखरी का दबदबा उनके पीछे पीछेे आने लगा था। चौथी एक कदम आगे चलते तो ठीक उनके पीछे बखरी का दबदबा होता। दोनों की संयुक्त चाल पगडन्डी की धूल उड़ा देती। चाय खतम होने के बाद रामभरोस ने चौथी से जानना चाहा..कृ
कोई बात है का कि सुबह के समय ही चौथी चला आया बखरी पर, बाद में आराम से आता, क्या किसी खबर की गंध फैलने वाली है सहपुरवा में या ऐसे ही चला आया। रामभरोस तमाम बड़े लोगों की तरह भूल चुके थे कि उन्होंने चौथी को बुलवाया था अचानक उन्होंने खुद को संयत कर लिया फिर वे चौथी से हाल-चाल पूछने लगे....कृ
‘अइसहीं तोहके बुलाए थे हो! कोई खास बात नाही है, थोड़ी सुर्ती गाठों चौथी। जोतनी का का हाल-चाल है?’ रामभरोस ने पूछा चौथी से
‘अबहीं पछड़ी है सरकार!, पांच छह दिन तो चलबै करेगी, आपके सीलिंग वाले मुकदमवा में का हुआ सरकार?’
अभिमान जताते हुए रामभरोस जबबिआए....कृ
‘अरे! चौथी तूं का बूझता है रे बुड़बक, हमारी जमीन सरकार निकाल पाएगी, मजाक है का? जब तक हम रहेंगे, जमीन नाहीं निकलने देंगे। ओके तो हमैं ही जोतना है। तोहार छोटका सरकार हमरे बाद चाहे जौन करैं।’
कुछ ख्याल करके रामभरोस फिर बोले जैसे कुछ भूल गए हों..कृ
‘अरे हां चौथी! तनिक ई बताओ कि आज कल किसका काम-काज कर रहा है फेकुआ?
चौथी गवहां को अचरज हुआ, रामभरोस एक असाधारण आदमी हैं, घर घर की खबर रखते हैं। पूरे क्षेत्रा की खबरें इनके यहां सुबह शाम सलाम बजाया करती हैं और इन्हें फेकुआ के बारे में जानकारी नहीं कि वह किसका काम कर रहा है? निश्ष्चित ही कोई गंभीर बात है या होने वाली है वर्ना फेकुआ के बारे में रामभरोस हमसे नाहीं पूछते। कुछ न कुछ तो विशेष चल रहा है रामभरोस के दिमाग में। बहरहाल चौथी गवहां ने उत्तर दिया। उन्हें उत्तर देना ही था, बिना उत्तर दिये रामभरोस के प्रकोप से वे बच नहीं सकते थे।
‘सरकार! ऊ तऽ असउं हमरय काम कर रहा है। मेहर लइका नाहीं हैं, अधारा पर है।‘
‘अधारै पर हो’
आश्चर्य चकित होने की नौटंकी रामभरोस ने की जैसे उन्हें कुछ पता ही न हो पर ऐसा नहीं था उन्हें तो फेकुआ के बारे में सारा कुछ पहले से ही मालूम था।
‘हं सरकार!’ चौथी गवहां ने रामभरोस की हां में हां मिलाया। रामभरोस ने एक खखार लिया और मुंह में दबी सुर्ती वहीं कुर्सी के बगल में अखच दिया जिसे देख कर किसी को भी उल्टी हो जाती पर चौथी गवहां रामभरोस के दरवाजे पर कैसे घिनाते, उल्टी करने का तो सवाल ही नहीं था। रामभरोस उल्टी करें, पर-पाखाना करें किस बात की घिन। रामभरोस सरकार जैसे लोग तो कहने के लिए देहधारी होते है पर असल में विदेह होते हैं, न तो उनकी उल्टी में बदबू होती है न ही उनके पाखाने में, उनकी गालियों में सभ्यता के सुभाशितों वाले तत्व होते हैं सो उनकी गालियां भी प्राचीन सभ्यता के प्रसाद माफिक होती हैं। चौथी गवहां ने खुद को संयमित किया और मन में उपजी घिन को दबा लिया। वैसे भी बड़े लोगों के व्यवहारों में घिन तो होती नहीं, होगी भी अगर तो उससे क्या घिनाना। रामभरोस अपने दरवाजे पर या गॉव में कहीं भी, कुछ भी करें, उन्हें कोई रोकने टोकने वाला तो था नहीं।
मुंह में दबी सुर्ती खखार कर रामभरोस ने चौथी गवहां से पूछा....
‘का हो चौथी! फेकुआ कऽ कोला (हलवाहों को हलवाही के एवज में दिया जाने वाला खेत का छोटा टुकड़ा) अबहीं लवाया (कटाया) के नाहीं?’
चौथी गवहां ने सिर हिला कर नकारा और बताया...
‘नाहीं सरकार अबहीं नाहीं लवाया है!’
रामभरोस की हर बात मतलब वाली होती है, उसका प्रयोजन होता है, एक ऐसा प्रयोजन जो भले ही देर में पूरा किया जाए पर उसे निष्चित ही पूरा किया जाना है। उन्होंने साफ साफ निर्देश दिया....
‘देखो चौथी! ओकर कोला तूं लवाय लो, ओके जीन लवने दो। ओकरे कोला का सारा डांठ अपने खरिहाने रखवाओ, बूझ गए के नाहीं फिर दवांय भी लो। इसमें देरी नहीं होनी चाहिए।’
‘अरे सरकार! आप ई का बोल रहे हैं, आज कल हरिजनों का कोला कौन लवाएगा, हरिजनों के लिए सारा कुछ कर रही है सरकार। पूरा थाना आ जाएगा, हम गरीब आदमी पिसाय जाएंगे, जेहल होय जाएगी, हमार बाल बुतरू अनाथ जांएगे सरकार! ई कैसा हुकूम दे रहे हैं आप!’
पूरी बात भी चौथी नहीं कह पाए थे कि रामभरोस की पुतलियां नाचने लगीं। दो तीन बार कुर्सी से उठे और बैठे। यह रामभरोस के गुस्से की जानी पहचानी पहचान थी। वे जब दो तीन बार कुर्सी से उठते बैठते थे तब उनके सामने बैठने वालों को पता चल जाता था कि रामभरोस गुसिया गए हैं। गुस्से की स्थिति में वे क्या कर जाएंगे यह समय को भी भी नहीं पता होता। चौथी का माथा ठनका....
‘जाने का होने वाला है, लगता है सरकार गुसियाय गए हैं?’
रामभरोस के सामने चौथी गवहां का मान-सम्मान अर्थहीन था। उन्हें लगा कि उनकी धन-पूंजी बेकार है और वे एक ऐसे आदमी हैं जो केवल रामभरोस की ‘हां’ में ‘हां’ ही मिला सकते हैं यानि हुकूम के गुलाम। वही हुआ चौथी गवहां खुद ही रामभरोस की जुबान में बोलने लगे जैसे रामभरोस की जीभ उनके मुंह में घुस गई हो।
‘नाहीं नाहीं सरकार! आप जौन कहेंगे उहय होगा, फेकुआ का कोला हम लवाय लेंगे अउर दवांय भी लेंगे।’
इसके अलावा चौथी गवहां क्या बोल पाते। उनके मन की सारी बातें मन ही में दबी रह गईं। कभी कभी उन्हें लगता है कि वे रामभरोस के गुलाम नहीं हैं कि जैसा वे कहें वैसा ही करें, पर करते क्या? रामभरोस के होने का जो प्रचलित अर्थ था वह यह कि उनके सामने जवार का कोई आदमी सिर्फ गूंगे की तरह ही रह सकता है। ऐसे संवेदनशील अवसर पर रामभरोस की मुखाकृति अजीब किस्म की हो जाती है, उनके थुथने फूल जाते हैं, ऑखें चढ़ जातीं हैं, वे हद से ज्यादा सीरियस हो जाते हैं। अपनी नाटकीय अभिव्यक्ति दिखाने में विशेषकर क्रोध की भूमिका में रामभरोस विशेष किस्म की खड़ी बोली बोलने लगते हैं, कभी कभार अंग्रेजी शब्दों को भी अपनी बोली में घोल लेते हैं। उन्होंने वैसा ही किया क्योंकि वे गुस्से में थे कि चौथी उन्हें सलहइया रहा है।
‘देखो जी चौथी! हमने जो कह दिया, कह दिया, फेकुआ साले को कोला मत लवने (काटने) दो, थाना पुलिस से काहे डरते हो जी! हम काहे के लिए ईहां बैठे हैं, ईहां हमहीं सरकार हैं, हम गॉव के परधान होते हैं, हमरे मर्जी बिना ईहां एक पत्ता भी नाहीं हिल सकता। बूझे कि नाहीं, कलिहै ओ सारे का कोला लवाय लो और संगे संगे दवांय भी लो।’
रामभरोस की बात केवल बात ही नहीं होती, वह सहपुरवा के लिए हुकुम होती है। थाना, कचहरी से ऊपर। चौथी गवहां हालांकि बी.डी.सी हैं फिर भी रामभरोस के लिए किसी आज्ञाकारी की तरह ही हैं। हुकुम तो हुकुम, हुकुम उदूली हुई कि नहीं किसिम किसिम के खतरे, जिसमें मार, पीट, घर का जलना, खलिहान आदि का जल जाना सारा कुछ शामिल। चौथी की इलाके के बड़े लोगों तथा सरकारी अहलकारानों से जान पहचान भी है पर रामभरोस के आगे उस जान पहचान का कोई प्रयोजन नहीं। रामभरोस खुद थाना हैं तो तहसील और कलक्टरी भी। यह जो सहपुरवा के लोगों की स्वतंत्राता है उनके यहां प्यास लगने पर पानी पीने के लिए आया जाया करती है और भूख लगने पर खाना भी खा लिया करती है। बराबर खड़ी रहती है दरवाजे पर दरवान की तरह। मुस्कराती है तो रामभरोस के कहने पर, सोती है तो रामभरोस के कहने पर। चौथी जानते थे कि उनकी आजादी भी रामभरोस के कृपा पर ही टिकी है।
फेकुआ का कोला यदि नहीं लवाया गया तो रामभरोस कुपित हो जांयेगे, मार-पीट करेंगे, घर फुंकवा देंगे, बलात्कार आदि भी करवा देंगे सो फेकुआ का कोला लवाय लेना ही ठीक होगा। अगर सहपुरवा में साबूत रहना है तो...। यही समयानुकूल होगा। रामभरोस की अवज्ञा करना तो मार-पीट को दावत देना होगा, अपने दरवाजे पर भी मारने लगेंगे रामभरोस। फेकुआ का कोला लवाय लेने पर तो रामभरोस थाना थूनी से उन्हें बचा ही लेंगे सो फेकुआ का कोला लवाय लेना चौथी ने उचित समझा।
‘अच्छा सरकार! आप जौन कहेंगे उहय होगा। अब हम घरे जांए सरकार! कोलवा लवाने का जोगाड़ भी तो बनाना होगा। हलवहिनों को धान कुटवाने के लिए रामगढ़ भेजना है, उन्हें सहेजना होगा फेकुआ का कोला लवने के लिए। आप तो जनबै करते हैं कि ओन्हने छिनार जाने का करैं।’
रामभरोस का आदेष्श अपनी पीठ पर चिपका कर रामभरोस के दरवाजे से अपने घर की तरफ चौथी निकल गए। बखरी से वे कुछ दूर चले गए पर उन्हें लगता कि अभी वे बखरी के आसपास ही हैं। बखरी से दूर नहीं जा पा रहे हैं। वे पैदल चल रहे थे, एक कदम आगे बढ़ाते फिर दूसरा कदम उसके आगे। कितना तेजी से चलते। उन्होंने कुदरती चाल थोड़ा तेज किया, वे तेजी से चल कर अपने घर पहुंच जाना चाहते थे। उनकी ऑखों के सामने उनका घर था, घर थोड़ी ही दूरी पर था। घर तक पहुंचने का जो समय था वह चौथी के लिए सोच गुन का समय था।कृ
फेकुआ को कोला वे लवा तो लेंगे, कोला लवाते समय ही मारपीट हो गई तो.वे का करेंगे, फेकुआ थाने चला गया तो वे का करेंगे? कई तरह के सवाल अचानक उनके रास्ते पर बिछे जा रहे थे। एक सवाल के बारे में गुन रहे होते कि दूसरा सवाल आगे आकर बिछ जाता, उन्हें लगता के ये सारे सवाल उनका चलना बन्द कर देंगे, दरअसल ऐसा था भी।
चौथी को आदेश देकर बखरी के अन्तःपुर में रामभरोस समा गए थे। चौथी थे कि उन्हें ही फेकुआ का कोला लवाना था, उसे दंवाना था। सारा कुछ चौथी को ही करना था, कानून व परंपरा दोनों उन्हें हाथ में लेना था। रामभरोस तो अन्तःपुर से बाहर निकलते नहीं। वे बखरी में से ही खबरों को सूंघते कि खबर सूंघने लायक है या नहीं। खबर का क्या वह हमेशा बाहर रहती है। फेकुआ के कोला लवा लेने की घटना बखरी से बाहर निकल कर खबर बनती कि फेकुआ के कोले का क्या हुआ? खबर बनती कि चौथी का क्या हुआ? बनती हुई खबरों को रामभरोस अन्तःपुर से विश्लेषित करते। अगर खबर चूमने चाटने लायक होती तो बाहर निकलते नहीं तो अन्तःपुर में आराम कर रहे होते। यह तो समय व चौथी के किस्मत का खेल है कि वह खबरों को किस तरह से गढ़ता है? समय कहीं बुरा न गढ़ देे खबर को और उन्हें जेल जाना पड़ जाए।
चौथी असमंजस में थे, उन्हें खबर बनना बुरा लग रहा था, क्या करंे, क्या न करें। कुछ ही देर में वे घर आ गए।
'''‘गढ़ी हुई ताकत वालों की ताकत अधिक ताकतवरों
के सामने बौनी हो जाती है पर कमजोरों के सामने क्या कहने’'''
रामभरोस का सन्देशा पाकर हल्के का लेखपाल रामबली तड़के ही उनकी बखरी पर आ गया था। आजकल गरीबों के लिए भूमि आवंटन का कार्यक्रम चल रहा है सो वह परेष्शान है। कागज तैयार करते करते वह थक जाता है। ग्रामसभा की जमीन का आवंटन करने के लिए वह गरीबों की चौथी सूची बना रहा है। तीन बार उस सूची को बना चुका है। हर बार सूची में उसे बदलाव करना पड़ रहा है कभी अधिकारियों के आदेशों पर तो कभी क्षेत्रा के प्रभावषाली नेताओं के दबावों पर। उसे समझ नहीं आ रहा कि वह कैसी सूची बनाए जिससे अधिकारी तथा नेता दोनों खुश रहें। वह गॉवों में एक बार नहीं जाने कितनी बार घर घर जा चुका है, अब तो उसे गरीबों के नाम तक याद हो चुके हैं। एक घर में वह जाता है तो वहां उसकी ऑखों पर पहले का देखा हुआ घर तैरने लगता है। घरों की हालत देख कर वह समझ नहीं पाता कि किस घर में अधिक गरीबी है? जिस घर को वह देख रहा है यहां अधिक गरीबी है कि उस घर में जिसे वह पहले ही देख चुका है। वह एक महीने से गरीबों के घरों के चित्रा मन में बना रहा है। उसे लगता है कि जमीन का आवंटन तो सभी गरीबों को किया जाना चाहिए पर ऐसा आदेश नहीं है। आदेश है कि अत्यधिक गरीब को ही जमीन आवंटित किया जाना चाहिए। चौथी सूची में वह ऐसा नहीं करेगा। उसमें सभी भूमिहीन गरीबों का नाम लिखेगा और सारी भूमि को उनमें बराबर बराबर आवंटित करेगा। उसने वैसा ही किया भी। आवंटन के सिलसिले में उसे अपने हल्के में प्रतिदिन हाजिर रहना पड़ता है। कल वह सहपुरवा के पड़ोसी गॉव नुनुआ में था वहीं रामभरोस का करिन्दा रामदयाल उससे मिला।
रामदयाल कई कई विशेषताओं वाला आदमी है। पहली विशेषता उसकी है कि वह पहलवान है। दो चार को अकेले ही मार सकता है। लाठी-डंडा चलाने में उसका जोड़ नहीं। मार-पीट की उसकी कई कहानियां चर्चित हैं। उसी ने रामभरोस का सन्देशा उसे दिया कि वह शीघ्र ही रामभरोस सरकार से मिले जितना जल्दी हो सके। ‘सरकार! बुलाए हैं।’
लेखपाल रामबली का काम तहसील में सराहनीय माना जाता है तथा क्षेत्रा में भी। यह अच्छाई उसे कैसे हासिल हुई उसे नहीं पता, न ही उसे इसका घमंड है कि वह अच्छा आदमी ही नहीं अच्छा लेखपाल भी है। वह स्वभाव से मृदुभाषी सरल और सामान्य आदमी है। लेखपालियत पीठ पर लाद कर चलने वाला वह नहीं है दूसरे कमाऊ लेखपालों की तरह। लेखपाल की आर्थिक स्थिति भी किसी से कम नहीं है हालांकि पहले के रईसों में उसके बाप-दादों के नाम नहीं थे। लेखपाली के द्वारा रामबली ने अपनी आर्थिक स्थिति काफी मजबूत कर लिया है। लेखपाल रामबली को अचरज लगा....कृ
‘कल ही तो मिले थे रामभरोस सरकार तहसील में, कुछ बोले नहीं, फिर आज काहे के लिए बुलावा भेज दिए’ हो सकता है कोई काम आन पड़ा हो’
रामभरोस के दरवाजे पर उस समय कोई नहीं था। रामबली आए और एक किनारे रखी मचिया पर मर्यादा की पर्याप्त दूरी बना कर बैठ गये। थोड़ा समय गुजरा होगा कि रामभरोस का कारिंन्दा रामदयाल आ गया। वह कंधे पर करियहवा बोंग धरे हुए था। लेखपाल को देखते ही मुस्कराया और मूंछे नुकीली करने लगा। लेखपाल रामबली ने मचिया से उठ कर रामदयाल को सलाम बजाया....कृकृ
‘सलाम बाबू साहब! सरकार से भेंट कराइए, थोड़ी जल्दी है’
रामदयाल ने मूंछ नुकीली करना बन्द किया और लेखपाल से कहा....कृकृ
‘अरे! लेखपाल बइठो तो... अबहीं सरकार गुसलखाने में होंगे, ओनकर इहै टेम है। काहे की जल्दी है? दर-दतुइन करो फिर पर-पानी करो, सरकार बुलवाये हैं तो मिलबै करेंगे।’
रामदयाल की बातों में रामभरोस के रूतबे की गंध मिली हुई थी, नहीं तो हल्के के दूसरे लोग इस तरह की बात लेखपाल से नहीं कर पाते। लेखपाल से बातें करके रामदयाल कारिंदा ने बखरी के कहांर डंगरा को गरियाया, वह वहीं खड़ा था।
’कारे डंगरा! तोके ससुर नाहीं लउक रहा है? लेखपाल आए हैं, एनकर सेवा-सत्कार कौन करेगा ससुर, जाओ नर-नाश्ता ले आओ।’
डंगरा रामभरोस का कहांर था, उसका काम था दरवाजे पर आए मेहमानों का स्वागत-सत्कार करना, बोला...कृ
‘हं सरकार! का हुकुम बा?’
रामभरोस के नौकर रामदयाल को भी सरकार ही बोलते थे। वे रामदयाल से डरते थे। रामभरोस तो बाद में मारेंगे पीटेंगे पर रामदयाल तो तुरंत पीठ पूजने लगेंगे।
डंगरा रामदयाल के पास आ गया, वह हाथ में लेजुर और बाल्टी लिए हुए था, उसने लेखपाल को सलाम बजाया और उन्हें दातुन दिया।
‘सरकार मुंह हाथ धोय लीजिए, नाश्ता लाय रहा हूं। सरकार के आने में अबहीं देरी है।’
रामभरोस के दरवाजे पर लेखपाल धुक-धुकी में था, सोच नहीं पा रहा था कि रामभरोस ने उसे किस काम के लिए बुलवाया है। लेखपाल के मन में आया कि उसे रामदयाल कारिन्दा से पूछना चाहिए पर नहीं पूछ पाया जाने का गुनें रामदयाल।
रामदयाल भी कम हरामी नहीं है। मन में रामदयाल से पूछने वाले उठते भावों को लेखपाल दबा गया। होगा कुछ काम, सरकार कुछ कराना चाहते होंगे, काम के लिए ही बुलवाया होगा। उसने खुद को सहलाया..। उसने रामभरोस का कुछ नहीं बिगाड़ा है फिर काहे के लिए डरना। गरीबों के लिए चलाए जा रहे भूमि-आवंटन का काम भी तो सहपुरवा में नहीं चल रहा। यहां तो प्रथम चक्र में ही निपट गया था आवंटन का सारा काम। उसे मालूम है कि कलक्टर साहब जब सहपुरवा आए थे तब रामभरोस के कार्यों की भूरि भूरि प्रशंसा किए थे। उस समय रामभरोस ने भूमि आवंटन के लिए जितने सुझाव दिए थे लेखपाल ने सारा काम उनके सुझावों के आधार पर कर दिया था। उसे पता था कि रामभरोस से विरोध करके वह लेखपाल नहीं बना रह सकता है। रामभरोस के मन मुताबिक ही प्रष्शासन चलता है।
अचानक लेखपाल को अपने मित्रा रामकिशुन का ख्याल आ गया। वह भी इसी क्षेत्रा का लेखपाल था। उसने किसी मामले में रामभरोस का कहा हुआ नहीं माना था। रामभरोस कुछ उल्टा सीधा करवाना चाहते थे किसुन से और किसुन ने वही किया जो कानूनी रूप से उचित था। दो चार दिन के अन्दर ही उसे सस्पेन्ड कर दिया गया था और एस.डी.एम. साहब ने गालियां भी उसे दीं थीं।
लेखपाल के मन में रामभरोस को लेकर भय बना हुआ था, सरकार हैं जाने का करें। असली सरकार से तो लड़ा भी जा सकता है जिसने उसे नौकरी दिया है पर रामभरोस जैसे सरकार से नहीं लड़ा जा सकता। वैसे भी ऐसे सरकारों से कभी नहीं लड़ा जा सकता। ये ऐसी सरकारें होती है जो दिखती नहीं हैं, जो जनता द्वारा चुनी नहीं जाती हैं, जिनके कानूनों के बारे में किसी को जानकारी नहीं होती, ऐसी सरकारें खुद कानून बनाती हैं और उसे खुद लागू भी कराती हैं।
लेखपाल एकबारगी कांप गया। वह जानता था कि असली सरकार तो रामभरोस ही हैं। सरकार वाले अधिकारी तो दिखावा होते हैं। वे रामभरोस जैसे ‘सरकारों’ के मुताबिक चलते हैं। कौन ऐसा आला अधिकारी होगा जो रामभरोस के यहां आ कर मेहमानी न करता हो और शिकार करने के लिए जंगल न जाता हो। उसे एक कहानी आज भी याद है कि कुछ साल पहले यहां के जो कलक्टर साहेब थे उन्होंने अडगुड़ के जंगल में एक बाघ मारा था। उस शिकार वाले कार्यक्रम को रामभरोस ने ही आयोजित करवाया था। खुश होकर कलक्टर साहेब ने रामभरोस को एक रायफल तत्काल दिलवा दिया था।
करीब एक घंटे बाद लेखपाल ने खड़ाऊं की कट कट सुना...कृ
‘लगता है सरकार आ रहे हैं!’
सरकार के आने की आहट सेे गूॅज गया बखरी का आहाता। आने की आहट पीने लगा लेखपाल।
आहट सही थी। वे रामभरोस ही थे। शरीर का भारी भरकम बोझ लिए रामभरोस खड़ाऊं की कड़प कड़प के साथ बखरी से बाहर निकल रहे थे। खड़ाऊं की कड़प कड़प में सामन्ती धुन थी जो सामन्ती तरीके से फैल रही थी। सामन्ती धुन में पहले कड़प फिर झड़प, ऐसी ही होती है सामन्ती धुन। वे लकदक सफेद खादी के आवरण में थे। सफेद खादी का उनका अवरण भी खूब खूब था जैसे उसी आवरण से स्वतंत्राता संग्राम का इतिहास ने खुराक हासिल किया हो। पर वहां भगत सिंह और चन्द्रष्शेखर आजाद की वास्तविक कहानियॉ किसी चकत्ते की तरह भी नहीं दीख रही थीं। सो खादी का उनका आवरण लेखपाल को डराने लगा। उसकी डरावनी आभा लेखपाल की ऑखों में थिरकने लगी। लेखपाल रामबली ने हाथ जोड़ कर उनका अभिवादन किया....
‘पा लागी सरकार!’
‘खुश रहो, बइठो’
रामभरोस ने लेखपाल को आशीषा फिर जनेऊ निकाल कर कान पर चढ़ाया और पेशाब करने के लिए किनारे की तरफ चले गये।
लेखपाल रामबली ने रामभरोस के आने के बाद मचिया छोड़ दिया और रामभरोस की कुर्सी के सामने बिछी दरी पर बैठ गया। लेखपाल जानता था कि रामभरोस के सामने कुर्सी कौन कहे मचिया या खटिया पर बैठ जाना पीठ पर खुद कोड़े मरवाने वाला अपराध हो जाएगा। अगर कोई अनजाने बैठा रह गया फिर तो रामभरोस उसकी ऐसी तैसी कर दिया करते थे। लेखपाल जानता था कि रामभरोस काम करने की छूट भी दिया करते थे और कहते भी थे कि...कृ
‘जहां तक होय सकै वही काम करना चाहिए, जिससे कि नौकरी न जाने पाए।’
पर काम नहीं होने पर वही रामभरोस कर्मचारी को सस्पेंड भी करवा दिया करतेे थे। उस क्षेत्रा का हर कर्मचारी जानता है कि रामभरोस का काम न करने पर नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है, मरवाएंगे पिटवाएंगे ऊपर से। पेशाब कर चुकने के बाद रामभरोस सीधे अपनी कुर्सी पर आ कर धम्म से बैठ गए।कृ
‘का हाल-चाल है हो रामबली?’ रामभरोस ने पूछा
‘सब ठीक है सरकार!’ रामबली ने विनम्रता से बताया
‘देखो कल तूं तहसीलदार साहब के ईहां मिले थे पर हमार खियालय भूल गया कि तोसे बात करनी है। तहसील से जब घर आए तब खियाल आया कि तोहके तो एक जरूरी काम बताए ही नाहीं’ कृ
रामभरोस चुप हो गए लगे काम के बारे में सोचने....
‘का बात करनी थी सरकार’ लेखपाल ने पूछा
‘अरे कुछ नाहीं हो’
रामभरोस ने लेखपाल को आश्वास्त किया जैसे कोई बात ही न हो पर बिना बात के रामभरोस उसे क्यों बुलवाते?
लेखपाल के आने के पहले रामभरोस ने गॉव पंचायत की बैठक बुलाया था। बैठक में चौथी गवहां ने प्रस्ताव दिया था कि सार्वजनिक उपयोगों वाली कुछ भूमियों का आवंटन हो गया है, जिसे गॉवसभा के हित में खारिज कराना बहुत जरूरी है। इस प्रस्ताव का समथर्न गॉवसभा के सदस्य रामदयाल कारिन्दा ने किया था पर एक सदस्य शोभनाथ पंडित ने इस प्रस्ताव का पंचायत में ही विरोध करते हुए कहा था कि किसी भी आवंटन को खारिज कराना गलत होगा। कोई भी आवंटित भूमि ऐसी नहीं है जिससे गॉवसभा या गॉव के किसी आदमी का नुकसान होता हो फिर काहे के लिए आवंटन खारिज कराना। पर शोभनाथ का प्रस्ताव नहीं स्वीकारा गया। उनका प्रस्ताव एक के खिलाफ छह मतों से गिर गया और भूमि प्रबंधक समिति की कार्यवाही पूरी कर ली गई। रामभरोस ने ताजे प्रस्ताव का विवरण लेखपाल को दिया और प्रस्ताव की नकल भी।
‘देखो रामबली हमरे ग्रामसभा ने एक प्रस्ताव पास किया है, ए प्रस्ताव में है कि आराजी नंबर 47 अउर 54 का पट्टा खारिज कराना है, समझे कि नाहीं’
‘समझ गए सरकार, पर ई काम हम कइसे कर पांएगे, इस काम को डिप्टी साहब करेंगे। ओनसे बतियालें सरकार! ओ जमीनी में घर दुआर बना है कि नाहीं, अगर घर बना होगा तो दीवानी का मामला हो जाएगा। हमारा विभाग उसे कैसे निपटा सकता है?
‘हं हं हम सब जानते हैं हमरे सामने कानून जीन निपोरो, तूं एतनै करो कि प्रस्ताव पर अपनी और कानून गो की रिपोरट लगवाय के डिप्टी साहब के इहां दाखिल कराय दो। आगे हम देख लेंगे, समझे के नाहीं। एकरे आगे जीन सोचो तोहार काम सोचबे का नाहीं है। तोहके हम जौन बोल रहे हैं वोही करना है।’
सहपुरवा ऐसा वैसा गॉव तो है नहीं, यहां के लोग भी साधारण नहीं हैं। रामभरोस के पास बिना कागजात के लेखपाल हाजिर हो ऐसा संभव नहीं था। रामभरोस के सामने ही लेखपाल रामबली ने आवंटन पत्रावली निकाला। उस पत्रावली में देखा तो मालूम हुआ कि प्रस्तावित दोनों आराजी का आवंटन औतार के नाम से हुआ है। लेखपाल ने खसरा देखा खसरे में वह जमीन कृषि भूमि के रूप में दर्ज थी, उस पर खेती हो सकती है। उस जमीन से गॉव व गॉव वालों को कोई नुकसान नहीं था। अगर वह जमीन बॉध या भीटा के रूप में होती तो पट्टा खारिज करना आसान होता। आखिर कैसे खारिज होगा यह आवंटन? लेखपाल सोच में पड़ गया।
रामभरोस तो रामभरोस थे अपने पर भरोसा रखने वाले, रामभरोस ने रामबली को गंभीर देख कर तत्काल रामदयाल कारिन्दा से पूछा....कृ
‘का हो रामदयाल, लेखपाल का खरवनवा (सरकारी कर्मचारियों को जमीनदारों व बड़े किसानों द्वारा दिया जाना वाला खाद्यान्न) गया के नाहीं’
‘अबहीं तऽ नाहीं गया है सरकार, काल्हु चला जाएगा! महीनका चउरे का बोरा बांध के रखा हुआ है’ रामदयाल कारिन्दा ने रामभरोस को बताया।
लेखपाल कायदा कानून जानता था कि आवंटन खारिज कराना आसान नहीं होता पर वह रामभरोस से इनकार नहीं कर सकता था। आखिर कैसे बोले कि पट्टा खारिज नहीं कराया जा सकता। लेखपाल भी कम नहीं होते बात चीत करने और गढ़ने में, उत्तर देने तथा बहाना बनाने में कलाकार होते है। तत्काल लेखपाल ने अपना बवाल कानून गो पर थोप दिया।
‘अरे सरकार एम्मे हम का करेंगे, एके तो कानून गो साहब करेंगे। हम आपन रिपोरट लगाय दे रहे हैं।’
रामभरोस के सामने ही गॉवसभा के प्रस्ताव पर तत्काल उसने रिपोर्ट लगा भी दिया।
‘एके सरकार आप कानून गो साहब से कराय लीजिएगा। आप के लिए ई कौन काम है सरकार। हमसे कानून गो नाहीं नुकूर करने लगेंगे, बूझेंगे कि सरकार से अपने तो गठरी ले लिया और हमसे फोकट में कराय रहा है।’
रामभरोस सब कुछ सुन सकते थे पर अपने को कमजोर नहीं। यह उनकी कमजोरी थी जिसे लेखपाल जानता था। लेखपाल की बात सुनते ही रामभरोस गरम हो गये।
‘क्या बकते है रे रामबली! तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है, कानून गो का होता है रे! जिला में कउनो अफसर ऐसा नाहीं है जो हमार बात रिजेक्ट कर दे। साम, दाम, दण्ड, भेद हम सारा कुछ जानते हैं। बूझते हो कि नाहीं, हम महाभारत पढ़ते हैं, कब का करना चाहिए, हमैं नालेज है’
अपने बारे में बता कर रामभरोस ने रामदयाल कारिन्दा को ललकारा।
‘अरे रामदयलवा का कर रहा है रे! लेखपाल को नर नाश्ता कराएगा के नाहीं। हमैं अब्बै रापटगंज जाना है तनिक टेक्टरवा निकालि देते, संझा तक लौटेंगे।’ (उस समय रामभरोस जैसे लोगों के लिए ट्रेक्टर ही कहीं आने जाने का सहारा था)
रामदयाल कारिन्दा के हाथ में दूध का गिलास था। उसने रामभरोस को गिलास थमाया, रामभरोस ने गट्ट से दूध सुड़ुक लिया और तश्तरी में से दो बीड़ा पान ले कर मुह में दाब लिया। पान के हिसाब से सुर्ती और सोपारी भी। कारिंदा तब तक टेªक्टर निकाल कर स्टार्ट भी कर चुका था। ड्राइविंग सीट पर बैठ कर रामभरोस ने लेखपाल को बुलाया फिर उसके कान में कुछ कहा जो आवंटन खारिजा के बाबत था कि रुपया चाहे जेतना लगि जाये पर आवंटन खारिज होना चाहिए।
रामभरोस के जाने के बाद लेखपाल दूसरे गंाव नुनुआ चला गया जहां आवंटन की कार्यवाही चल रही थी।
'''‘करने या न करने के बीच रिश्ता नहीं होता,
अगर इनमें रिश्ता ही हो तो द्वन्द किस बात का?
किस लिए कथा आगे बढ़े पर कथा तो बढ़ने के लिए होती है’
'''
फेकुआ और बिफना दोनों चौथी गवहां के यहां हलवाही करते थे। चौथी गवहां के यहां लवनी का काम खतम हो चुका था। एक दिन बिफना और फेकुआ दोनों ने अपने अपने कोले के धान की लवनी करने के बारे में चौथी से पूछा। जोतनी के बाद धान की फसल खड़ी रहना ठीक नहीं है, धान खरा जाएगा फिर उसे दरवाने पर चावल टूटने लगेगा। उसकी लवनी कर लेना चाहिए। चौथी गवहां लवनी का काम टालना चाहते थे जैसा कि रामभरोस ने कहा था कि तूं फेकुआ के कोले के धान की लवनी करा कर दवांई भी करा लो। चौथी ने धान की लवनी रोकने का बहाना खोजा। कल सभी लोग मिल कर खलिहान तैयार कर उसकी पोताई कर लो बाद में अपने धान की लवाई कर लेना। इसी तरह का फरमान चौथी गवहां ने जारी कर दिया, अभी बंधे के पार वाले खेत की जोतनी भी तो बाकी है।
‘बंधे के पार वाला कौन खेत मालिक!’ पूछा फेकुआ ने
‘अरे उहै रामभरोस सरकार वाला, ये साल ऊ हमरे जिम्मे है’ चौथी ने बताया
फेकुआ और बिफना दोनों को आभास हो चुका था कि चौथी कोला का धान खुद लवाना चाहते हैं सो बहाना बना रहे हैं। गॉव में वैसे भी कोई खबर चाहे सत्कार की हो या बलात्कार की, प्यार की हो या मारपीट की, उपकार की हो या षडयंत्रा की, पर्दे में नहीं रह सकती, नाचने लगती है पूरे गॉव में। चौथी फेकुआ का कोला लवा लेंगे यह खबर पूरे गॉव में नाचने लगी थी। फिर भी वे क्या करते? उन्हें चौथी गवहां की बात माननी ही थी। चौथी गवहां बहाना बना रहे थे, वह खेत रामभरोस का था, चौथी गवहां का नहीं। रामभरोस के दरवाजे से सीधे चौथी गवहां अपने खेत पर चले गये थे। वहां आने वाले कल का पूरा प्रोग्राम मजूरों को समझा कर चौथी गवहां अपने घर चले आये। गिद्ध की तरह चौथी खेत पर डटे हुए थे सो बिफना और फेकुआ अपनी बातें नहीं कर पा रहे थे जबकि कई बातें उनके मन में उमड़ घुमड़ रही थीं।
‘ये मालिक भी गजब होते हैं कउआ की तरह ऑखें लगाये रहते हैं काम पर।’
खेत पर से चौथी के जाने के बाद दोनों अपनी बातों में डूब गए। बिफना जानता था कि इस साल फेकुआ का बियाह होगा। उसे यह भी मालूम था कि फेकुआ की औरत काफी खूबसूरत है, लोग देखते ही रह जाते हैं, उसका रंग रूप ठकुराइन, पंडिताइन माफिक है। उसने फेकुआ को टोका....कृ
‘का रे फेकुआ ए साल तोहार बियाह होगा, अब तऽ तोहार चानी है राजा, अबहीं साइत धराया के नाहीं रे!’
फेकुआ उस समय गॉव के मालिकों के बारे में सोच रहा था। यहां तो जांगर खटाने के लिए भी कायदा कानून है। हम किसी को गाली तो देते नाहीं फिर भी एक भी मालिक ऐसा नाहीं है जो हमैं गरियाता न हो। बात बात पर गारी, हगनी मुतनी से ले कर जाने का का। गारी सुनो और सुनते रहो, बोलो कुछ नहीं फिर भी हमारे बिरादरी के बड़का बुड़का हमैं ही दोषी बोलते हैं। हमने रामभरोस से हल जोतने के लिए का कह दिया कि बुरा हो गया, बपई डाटने, दबेरने लगे, अइया भी रिसिया र्गइं। अरे हमने ओन्है गरियाया तो नहीं था। बिफना के पूछने पर अचानक फेकुआ का ध्यान टूटा....कृ
‘हमैं कुछ मालूम नाहीं है यार! बपई से चाहे अइया से पूछो नऽ बियाहे के बारे में’
बियाह के बारे में वस्तुतः फेकुआ को कुछ भी मालूम नहीं था सो वह बिफना को का बताता। वह आगे सोचने लगा....
‘हमार बुढ़वा सब के सब पगला गये हैं, हमार वश्ष चलता तो हम देखा देते कि हम हलवाह हैं तो का हुआ? केहू के गुलाम नाहीं हैं, अब हम आजाद हो गए हैं, मन होगा जेकर काम करेंगे नाही मन होगा ओकर काम नाहीं करेंगे।’
बिफना काहे मानता, वह जानता था कि फेकुआ परेष्शान है, रामभरोस के बारे में सोच गुन रहा है। रामभरोस इतना कमीना है कि साधारण सी बात को भी तिल का ताड़ बना कर औतार कक्का को परेष्शान करेगा। बिफना को ख्याल आया...कृ एक बार बुद्वू मौसा रामभरोस के दरवाजे पर छाता लगा कर चले गये थे फिर क्या था, रामभरोस ने रामदयाल कारिन्दा को सहेज दिया और उस हरामजादे ने बुद्वू मौसा को इतना मारा कि दवाई करानी पड़ी। पन्द्रह बीस दिन तक वे खटिया थामे रह गये थे। दो तीन महीने जिन्दा रहे बस। सोच से बाहर निकल कर बिफना ने दुबारा फेकुआ को झकझोरा...कृ
‘आज कल जाड़ा खूब पड़ रहा है यार! मेहरारू के बिना ओंघाई नाहीं लगती। तोर भउजी जब से नइहरे गई हैं, तब से ई जो रात है नऽ बिताना पहाड़ हो गया है। आज रात में तऽ पाला पड़ा था। अकेले सूतो तो लगता है कि रतिया पूरी देह कंप कंपा रही है साथ सोने पर तो पता नाहीं चलता कि रात है कि दिन है।’
फेकुआ का बोलता, उसके बियाह को लेकर बिफना उसे अक्सर तंग करता रहता है। ऐसी बतकही करता कि फेकुआ आवेषित हो जाए और मन तथा तन के बारे में बड़ बड़ाने लगे। अनमने भाव से फेकुआ बोला...कृ
‘हमैं तो जाड़ा लगबै नाही करता है फिर हम का बतांए जाड़ा के बारे में? किसी दिन भउजी के संघे सूतने का मौका मिलता तो बताते कि मेहरारू जाड़ा सोख लेती हैं कि नाहीं। अरे यार बिफना! एकाध दिन भउजी को भेजो हमरे ईहां फिर हम बतांए कि का होता है संगे सूतने पर। हम किरिया खाय रहे हैं कि ये बात का ढोल नाहीं पीटेंगे।
फेंकुआ के मुखर होते ही बिफना को लगा कि उसका काम हो गया उसने फेकुआ को सोचने से रोक लिया अब वह अपनी उदासी से बाहर निकल जाएगा फिर उसने दुबारा मजाक किया....कृ
‘इसमें का है यार! काल्हु तोहार भउजी आएगी, परसों भेज देंगे ओनके ताहरे पास। फेकुआ लजा गया, का बोल रहा बिफना। फेकुआ ने कभी भउजाई से मजाक तक नहीं किया था और उसके साथ सोने की बात। तत्काल बात का प्रसंग फेकुआ ने बदला....कृकृ
रापटगंज में होने वाले कवि सम्मेलन के बारे में पूछने लगा। चलना है कि नहीं चलना है। दोनों ने पहले ही निश्चित किया हुआ था कि इस बार कविसम्मेलन सुनने चलना ही है। मालिक लोग चाहे डांटें या दबेरें का फर्क पड़ता है। डांट तो पीठ पर अपना घर बनाएगी नहीं फिर डांट से काहे डरना, वह तो हवा में उड़ जाएगी हवा की तरह। बिफना ने फेकुआ को बताया कि परसों ही कविसम्मेलन है।
अचानक बिफना को ख्याल आया कि शंकर झांकी के अवसर पर रापटगंज में बिरहा का दंगल था, बहुत भीड़ थी। घोरावल के इलाके के किसी गॉव की एक लड़की बिरहा का दंगल सुनने आई थी। उसके साथ उसकी छोटी बहिन भी थी। वह गॉव के कुछ लोगों के साथ थी। सभी लोग बिरहा सुन रहे थे तथा उसी में खोये हुए थे तभी अचानक लड़की गायब हो गयी। लड़की कैसे गायब हो गई? किसी को नहीं पता चला। साथ के लोग लड़की को ढूढने लगे तब मालूम हुआ कि लड़की वहां है ही नहीं। गॉव के परधान जी भी साथ में ही थे सभी घबरा कर लड़की को खोजने लगे पर लड़की वहां होती तब तो मिलती। लड़की के न मिलने पर परधान ने सुरक्षा व्यवस्था में लगे सिपाहियों को बताया। सुरक्षा व्यवस्था के सिपाहियों ने अक्ल से काम लिया और थाने पर खबर कर दी। थाने के सिपाही लड़की को हर संभावित स्थान पर खोजने लगे संयोग ठीक था कि लड़की अकड़हवा पोखरा पर मिली। वह कुछ लड़कों से घिरी थी। एक लड़का घटना स्थल पर ही दबोच लिए गया, दूसरा भाग गया। दारोगा जी ने कानूनी कार्यवाही किया। लड़की का बयान लिया गया और रात भर उसे थाने पर ही रोक लिया गया। परधान से कहा गया कि बिरहा का दंगल चल रहा है ऐसे में लड़की को छोड़ना बवाल करना होगा। गुस्से में भीड़ कुछ भी कर सकती है, लड़कों का चालान कल सुबह होगा। दूसरे दिन मालूम हुआ कि लड़की के साथ बलात्कार किया गया था। लोगों का शक सही निकला, लड़की छटपटा रही थी। यह नहीं मालूम हो सका कि लड़की खुद अपनी मर्जी से लड़कों के साथ चली गई थी या लड़कों ने उसे उठा लिया था। इस सचाई को बताता भी कौन? वैसे लड़की चिल्ला चिल्ला कर बोल रही थी कि कुछ लड़कों ने उसको जबरी उठा लिया था और थाने पर....
उस घटना की याद बिफना ने फेकुआ को दिलाया जिसे फेकुआ जानता था। ‘मेला-ठेला में तो यह सब होता ही रहता है।’ यह जो देह की बात है जितना देह के भीतर है उतना ही देह के बाहर भी है। मेला-ठेला में लड़कों और लड़कियों को मौका मिल जाता है, भाग जाते हैं सब, जब पकड़ जाते है तब मामला दूसरा बन जाता है। देह के करतबों को रोकना असान नहीं होता, देह कब किस तरह का करतब दिखाने लगे कोई नहीं जानता। कोई जान भी नहीं सकता देह के करतबों के बारे में। फेकुआ अपनी देह इसी लिए बांध कर रखता है, कहीं भाग न जाए किसिम किसिम के करतबों में गोते लगाने के लिए।
फेकुआ ने बिफना को चिढ़ाने की नियति से सुकुली की चर्चा की। सुकुली नुनुआ की रहने वाली थी। रामगढ़ में जब बिरहा का दंगल था तब वह भी सुकुली को भगा ले गया था। धर-पकड़ हुई थी पर बिफना नहीं पकड़ाया, संयोग ठीक था। कई बार दोनों ने इस बाबत योजनाएं भी बनाई थीं, फेकुआ की बात से बिफना झेप गया...कृ
‘अरे यार! ई सब बिआहे के पहिले की बात है, अब ऐसा कौन करेगा। उस समय तो कुछ बुझाता ही नहीं था कि आग में गोता लगाना है कि पानी में। अब वह बात नाही है।’
वे दिन भर हल जोतते रहे। बेर ढल रही थी, अब तो काम बन्द कर देना चाहिए, पर मालिक कुछ नहीं बोल रहे हैं। इस मामले में मालिक कुछ नहीं बोलते कि बोल दें अब हल छटका दो, बेर ढलने वाली है या ढल चुकी है। बिफना ने मालिक से पूछ कर हल छटका दिया फिर अपने अपने घर की तरफ दोनों चल दिए। चौथी का लड़का मुन्नू भी खेत पर ही था, उसने बैलों को चराने के लिए बिफना और फेकुआ को रोक लिया। कुछ दूरी पर शोभनाथ पंडित का खलिहान था। खलिहान में कउड़ा जल रहा था। कउड़ा पर वे दोनों भी बैठ गये। जाडे की ठंड तेजी पर थी चैत वाली। शोभनाथ पंडित ने जेब से सुर्ती निकाला और फेकुआ को दिया...कृ
‘सुर्ती बनाओ बेटा, का हाल है जोतनी की?’
ष्शोभनाथ पंडित ने बिफना से पूछा..कृकृ
‘खतमै है सरकार, दू तीन दिन अउर चलेगी’ बिफना ने बताया।
फेकुआ अचरज पीने लगा था, यह क्या है कि शोभनाथ पंडित सुर्ती बनाने के लिए उससे बोल रहे हैं, बाभन हैं, बाभन तो हरिजन के हाथ का पानी भी नाही पीते फिर ये उसकी बनाई सुर्ती कैसे मुह में डालेंगे, उनका धरम बिला जाएगा। गॉव के दूसरे बाभन तो हरिजनों के अगल बगल बैठने पर घिनाते हैं। फेकुआ कुछ सोच नहीं पा रहा था, बिफना से पूछेगा...
फेकुआ सुर्ती मलने लगा। सुर्ती मलने में फेकुआ का जोड़ नहीं। गजब की सुर्ती मलता है, खाते ही नशा चढ़ जाता है। सुर्ती मल जाने पर उसने अपनी हथोली शोभनाथ पंडित की तरफ बढ़ाया...कृ
‘लीजिए सरकार।’
ष्शोभनाथ पंडित ने चुटकी से फेकुआ की हथोली पर से सुर्ती उठाया और जीभ के नीचे दबा लिया। जैसे वे छूत अछूत की बद्जात संस्कृति दबा रहे हों चूस कर उसे फेकने के लिए। पर यह जो छूत अछूत की संस्कृति है वह सुर्ती माफिक नहीं है कि जीभ के नीचे दाब लिया और चूस कर थूक दिया। वह तो सालों साल से चली आ रही है आदमी को आदमी से अलगियाने के लिए।
ष्शोभनाथ की खेती की तुलना रामभरोस से नहीं की जा सकती थी। शोभनाथ की खेती कम थी पर पैदावार अधिक थी। शोभनाथ खेती अच्छे ढंग से करते थे, खूब खाद पानी देते थे तथा खुद निगरानी करते थे। यह सब रामभरोस के यहां नहीं होता था। हो भी नहीं सकता था, वे मजूरों पर आश्रित थे। मजूरों के बिना उनका कोई काम हो ही नहीं सकता था। अन्हार होते होते तक दोनों अपने अपने घर चले गये और बैलों को मुन्नू चराने लगे थे। रास्ते में फेकुआ ने पूछा था बिफना से...कृकृ
कारे! शोभनाथ पंडित मेरे द्वारा बनाई सुर्ती सीधे मुह में दाब लिए, घिनाए नाहीं।’
‘वे घिनाते तो तोहसे काहे बनवाते’
‘तो का पंडित जी की जाति बिगड़ नाहीं गई ?’
‘नाहीं रे सुर्ती खाने से जाति बिगड़ती है भला। यह सब तो पंडितों का नाटक है, लेकिन शोभनाथ पंडित नहीं मानते यह सब।’ दूसरे दिन ही चौथी गवहां ने फेकुआ का कोला लवाने का कार्यक्रम बना लिया था। उस दिन सरकारी छुट्टी थी। छुट्टी के दिन फेकुआ कहां जाता, का कर लेता, बहुत होता तो थाने जाता पर थाने जा कर का करता। खेत का रकबा कम था मुश्ष्किल से आधे से कम घंटे में लवा गया फिर काम खतम। वही हुआ धान लवा कर चौथी गवहां अपने खलिहान उठवा ले आये। गॉव का एक भी मजूर फेकुआ का धान काटने नहीं गया। मजूर जानते थे कि फेकुआ के कोला का धान दूनी मजूरी पर चौथी जबरी लवा रहे हैं। मजूर बाहर से बुलवाए गये थे। गॉव के मजूरों से बोला भी नहीं गया था, बोला भी जाता तो गॉव के मजूरे फेकुआ का कोला नहीं काटते। इतनी एकता थी मजूरों में भले वे मालिकों के गलत कामों का विरोध नहीं कर पाते थे। गॉव भर को मालूम हो जाता तो फेकुआ और औतार सावधान भी हो जाते फिर तो फेकुआ के कोला का धान नहीं कटा पाता, मारपीट भी हो सकती थी। उस दिन सावधानी बरतते हुए फेकुआ और बिफना को धान कुटाने के लिए चौथी गवहां ने रामगढ़ भेज दिया था। यह विचारते हुए कि रिष्श्क लेना ठीक नहीं होगा। रामगढ़ से जब तक बिफना व फेकुआ लौटेंगे तब तक धान की लवनी हो चुकी रहेगी, वही हुआ।
रामगढ़ से फेकुआ और बिफना देर रात तक लौटे। गॉव आने पर मालूम हुआ कि उसका कोला लवा लिया गया है। औतार ने फेकुआ को समझा बुझा कर शान्त किया कि झगड़ा नहीं करना है। पहले मालूम करना है कि यह सब किसके उकसावे पर चौथी गवहां ने किया। चौथी गवहां ने अपने मन से तो किया नहीं होगा, बात भी सच थी। चौथी ने तो रामभरोस के इशारे पर फेकुआ का कोला लवाया था। गॉव में कोई भी बात होती तो पैदल है पर उड़ती है हवाई जहाज की तरह। बात फैल गई कि यह जो कुछ हुआ है सब रामभरोस के कारण हुआ है। रामभरोस के कारण ही चौथी गवहां ने औतार और सुक्खू का पट्टा खारिज कराने के लिए प्रस्ताव दिया है। जिसे गॉवसभा ने पास भी कर दिया है। गॉव के बड़े लोग समझते हैं कि राजनीति वे ही जानते हैं, मजूर का जानेंगे राजनीति? पर ऐसा नहीं है अब मजूर भी कान और ऑखें खोल कर रखते हैं और बात बात में राजनीति की परख करने लगे हैं।
लोग कहते हैं कि जमाना बदल रहा है। आजादी के बाद नया जमाना आ गया है, गरीबों का राज हो गया है पर सहपुरवा में तो अब भी पहले वाला राज ही है। रामभरोस कहां बदले, वे आजादी के पहले जिस तरह से मजूरों, गरीबों का दमन किया करते थे उसी तरह से आज भी कर रहे हैं। औतार ने सुक्खू को समझाया...कृ
‘देखो सुक्खू भाई! कुछ नाहीं बदलेगा, सहपुरवा जैसा था वैसा ही रहेगा। यहां हर जगह रामभरोस की ऑखें ही तमाशा करेंगी। वही हम लोगों की पीठ पर कोड़े बरसाएंगी। अरे का बोलते हो सुक्खू भाई गरीबन का राज आ गया है। गरीबन का राज आ जाएगा तब जो बड़का बुड़का हैं उनकी सेवा टहल कौन करेगा, उनका हल कौन जोतेगा। का बूझते हो कि गरीबन का राज ऐसा ही होता है कि जेकर चाहो कोला लवाय लो, मजूरी दो चाहे न दो। पीठ पर कोड़े बरसाओ।’
औतार हालांकि सुक्खू को समझा रहे थे पर भीतर भीतर आक्रांत थे। वे सुगिया वाली घटना भूले नहीं थे। किसी तरह औतार ने सुगिया का विवाह किया था। उसी समय से रामभरोस औतार से नाराज ही नहीं बहुत नाराज थे। वे नाराज होते भी क्यों नहीं। औतार ने सुगिया के पति को रामभरोस की हलवाही से हटवा कर शोभनाथ पंडित की हलवाही पर लगवा दिया था और बाद में उसे गॉव से बाहर भेज दिया था। रामभरोस चाहते थे कि किसी भी हाल में सुगिया न उनका काम छोडे़ और न ही गॉव छोड़े। रामभरोस के लिए सुगिया जैविक संपदा थी जिस पर उनका स्वघोषित अधिकार था। सुगिया का ससुर पहले रामभरोस की ही हलवाही करता था। रामभरोस सुगिया के बिआह के बारे में जानते थे कि उसका पति निकम्मा है, गांजे और दारू के बदले वह अपनी बीबी रामभरोस को सौंप देगा। इन सब कामों को सरल व सुलभ बनाने के लिए रामदयाल कारिन्दा था ही। बिआह के बाद रामभरोस ने सुगिया के पति को अपने गॉव बुलवा लिया और वह आ भी गया। सुगिया अपने पति के साथ सहपुरवा लौटना नहीं चाहती थी पर उसे लौटना ही पड़ा। का करती, कितना मार खाती। वह अपने पति से बता भी नही सकती थी कि रखैल बनाने के लिए उसे रामभरोस बुलवा रहे हैं। फिर भी उसने मना किया....
‘हम नहिययरे नहीं जांएगे। बिआहे के बाद नहिययरे थोड़य रहा जाता है’
फिर तो उसके पति ने उसे मार कर अधमरा कर दिया, हाथ पीठ सूज गया उसका। डर के मारे पति के साथ वह सहपुरवा आ गई। सुगिया का सहपुरवा आना फेकुआ, औतार और सुक्खू को बहुत बुरा लगा।
सो औतार ने सुगिया को गॉव से भगाना जरूरी समझ कर उसे सहपुरवा से भगा भी दिया पर सुगिया के पति को पहले का सारा किस्सा बताना पड़ा। सुगिया का पति मर्द निकला वह वैसा नहीं था जैसा कि उसके बारे में बताया जाता था। सुगिया को सहपुरवा से भगा देना यह बात भी रामभरोस को चुभ रही थी पर वे उसे जाहिर नहीं होने देते थे। सुगिया के मामले में रामभरोस की बहुत बेइज्जती भी हुई थी। औतार के कारण गॉव भर सुगिया की बात जान गया था। रामभरोस ने रामदयाल कारिन्दा को लगा दिया था कि वह औतार को प्रताड़ित तथा अपमानित करने का कोई मौका नहीं छोड़े जबकि खुद को संभाले रखते और खुद औतार के सामने नहीं आते थे।
जले पर नमक छिड़कना रामभरोस नहीं छोड़ते थे। इसी लिए औतार रामभरोस के बारे में फेकुआ को कुछ भी नहीं बताते थे फिर भी फेकुआ जानता था। उनके लड़के फेकुआ पर किसी भी तरह का बवाल न आए सो औतार खामोश रहा करते थे कि वह जवान है, गुस्से में मालिकों से झगड़ सकता है। औतार हरदम यही सोचा करते थे। एक ही बार की तो बात होती है संकोच खतम हुआ नहीं कि रामभरोस के सिर पर सैकड़ों लाठियां, माथे का कचूमर निकल जाये।
वे जानते थे कि चौथी गवहां भी रामभरोस के डर के कारण से ही फेकुआ का कोला लवा लिया होगा नहीं तो वे खुद ऐसी हिम्मत नहीं करते।
फेकुआ का कोला लवा लेने के बाद चौथी गवहां खुश खुश हो गए थे क्योंकि बिना अवरोध के फेकुआ का कोला लवा लिया गया था। संभव है रामभरोस उन्हें इनाम ओकराम भी दें। इसकी खुशी में रामभरोस के बैठका पर आ गये। बैठका पर रामभरोस नहीं थे। बैठका पर केवल रामदयाल कारिन्दा था जो चिलम रियाज कर रहा था, चिलम में गांजा भरा हुआ था और हर फूंक से वह आग निकाल रहा था। रामदयाल ने चौथी गवहां से पूछा....कृ
‘बैठिए हो चौथी भाई, गांजा पीजिए, का हुआ फेकुआ का कोला लवाया कि नाहीं’
चौथी गवहां अपने अनुसार युद्व फतह करके आये थे। किसी मजूर का कोला लवा लेना उनके लिए आसान काम न था। सो प्रसन्नता के मूड में थे पर अपराध बोध में भी थे। उन्हें लग रहा था कि फेकुआ का कोला नहीं लवाना चाहिए था। गरीब आदमी है, बेचारा का खाएगा, साल भर की उम्मीद जुड़ी होती है गरीबों की कोले की पैदावार से। कोले का धान घर पर आने के बाद वे तय करते हैं कि यह करना है वह करना है। बेचारों का सपना टूट जाएगा। सपने तो रामभरोस की तरफ भी थे, उनका सपना था कि फेकुआ बर्बाद हो जाए, भीख मांगे। फेकुआ के सपनों का क्या उसे तो रामभरोस जैसे तोड़ते व लूटते ही रहते हैं।
‘कोला लवाय गया रामदयाल!’
सहमे हुए से चौथी ने रामदयाल को बताया....
‘बहुत सहम के बोल रहे हो चौथी, राड़ रहकारों से डेरा रहे हो का, वे हरामी की औलाद का कर लेंगे यार! रामभरोस सरकार के रहते।’
गॉजे की चिलम तैयार थी। केवल फूॅक लगाना बाकी था। चौथी गवहां ने गॉजे की चिलम तत्काल मुंह से लगा लिया उसमें से धुआं खींचा और बम बम, हर हर महादेव, औघड़ दानी बोलने लगे। गॉजे का धुआं पेट के अन्दर गया, फिर थोड़ा सा बाहर आया, फिर दुबारा गया और बाहर आया। गॉजे के प्रभाव में चौथी झूमने लगे, उनका मन नाचने लगा। कुछ देर बाद मन अचानक स्थिर हो गया। मन ने नाचना बन्द कर दिया, अब क्या नाचना, नाच तो तब होती जब कुछ अच्छा काम किया होता, किसी गरीब को कोला लवा लेना यह तो सरासर पाप है। वे पापबोध में अचानक डूबने उतराने लगे थे।अपराधी से अपराधी व्यक्ति भी कभी कभी पापबोध में चला जाया करता है पर होता है वह अपराधी ही।
गॉजे का नशा चौथी को पटकने लगा था, वे कभी ऊपर उड़ जाते मानो उड़ रहे हों कभी नीचे गिर जाते जैसे उन्हें किसी ने पटक दिया हो जमीन पर। पर जो होना था वह हो चुका था। जो हो चुका था उसके होने की अनहोनियॉ चौथी के माथे पर उछलने लगी थीं। अनहोनियों की संभावनांए तो केवल डर ही पैदा करती हैं, डर भी किसिम किसिम के अगर रामभरोस थाने को मनमुताबिक नहीं चला पाए और उनके पास थाना आ गया तो....कृकृ
औतार ने उन पर मर-मुकदमा कर दिया तो....कृ
यह ‘तो’ चौथी के लिए मन ही मन डर पैदा करने लगा। जाने का हो? थाने के झमेले में पड़ गये तो सारी कमाई बर्बाद हो जाएगी।
'''‘बखरियांे की चमकों में खून के
लाल लाल चकत्तों के साथ कोड़ों व डंडों के चित्रा दिखते हैं, ऐसे
चित्रा तो आपको इस कथा में भी दिखेंगेकृमजबूरी है उनका दिखना’'''
फेकुआ का कोला लवाने की खबर गॉव भर में बहुत तेजी से फैल गई थी। खबर तो होती ही है फैलने के लिए। खबर में खास किस्म का सन्देश था कि जो भी रामभरोस की ऑख पर चढ़ जाएगा उसकी हालत औतार जैसी सिरज दी जाएगी। रामभरोस के आतंक के तमाम नमूनों में औतार जैसा एक और नमूना सहपुरवा के आकाश में मडराने लगा। सहपुरवा का आकाश था भी कितना? केवल रामभरोस की मर्जी तक पसरा सिमटा, कराहता। किसी ने आश्चर्य व्यक्त किया ‘ईमरजेन्सी’ में ऐसा कर रहे हैं रामभरोस औतार और फेकुआ के साथ?’
‘क्या करेगी ईमरजेन्सी? ईमरजेन्सी भी तो एक कानून ही है। कानून गढ़ने वाले हैं तो उसे तोड़ने वाले भी हैं तथा कुछ अपने मनमाफिक कानून को नचाने व घुमाने वाले भी हैं। कानून की किस्म जैसी भी हो रामभरोस जैसे कुछ लोग उसे अलग किस्म का बना दे देते हैं। रामभरोस जैसों के यहां तात्कालिक समय का कानून बराबर गुलामी करता रहता है। कानून नाचता है उनकी बखरी में, कभी नग्न हो कर तो कभी ताप ताप कर। रामभरोस के लिए ‘ईमरजेन्सी’ का कोई मतलब नहीं।’
समय बीतने लगा। फेकुआ का कोला लवाने के मामले में चौथी गवहां को लोग निर्दोष समझने लगे। गॉव में इस तरह का खेल हमेशा रामभरोस करवाते रहे हैं। चौथी बेचारे तो रामभरोस की जाल में फस गए थे। फेकुआ ने जाने अनजाने जो कुछ रामभरोस से कहा था उसका कोई मतलब नहीं था, असल बात थी औतार से नाराजगी वह भी सुगिया वाले मामले को लेकर। औतार वैसे भी अपने दिल और दिमाग को अपने अनुसार चलाते थे और रामभरोस की बखरी पर जा कर सलाम नही बजाया करते थे। उन्हें किसी को सलाम बजाना अच्छा नहीं लगता था। यही सब बातें थीं जो रामभरोस को अखरती थीं। सहपुरवा में रहना है तो उनकी बखरी पर जा कर उन्हें सलाम बजाना है।
बखरियां होती भी तो इसी लिए हैं। लोकतंत्रा में ऐसी बखरियों की कमी नहीं, थोड़ी शक्ल बदल बदल कर हर तरफ बखरियॉ अपना रुतबा बनाए हुई हैं। रामभरोस की बखरी तो सांस्कृतिक है, तहसील, थाना, कलक्टरी आदि की बखरियां कानूनी हैं। पंचायतें सभी बखरियों पर हुआ करती हैं चाहे वह बखरी सांस्कृतिक हो या कानूनी।
औतार आशंकाओं में घिरे हुए थे। रामभरोस खामोश रहने वालों में नहीं हैं। औतार की आशंकाएं कई तरह की थीं। रामभरोस उन्हें किसी कानूनी झमेले भी फसा सकते हैं या खुद ही मार-पीट कर सकते हैं। कुछ भी कर सकते हैं रामभरोस। सो वह रामभरोस के खिलाफ कुछ करने के बजाय फेकुआ को समझाया बुझाया करते थे। वैसे भी राभरोस के खिलाफ कुछ करना उनके ही क्या किसी के वश का नहीं था। औतार कर भी क्या लेते, थाने ही जाते, थाना रामभरोस की जेब में था।
फेकुआ भी क्या करता। वह खामोश था, जो होना था हो चुका था जो होगा बाद में देखा जाएगा। भोर में ही फेकुआ का कोला लवा लिया गया था। गॉव भर घूमे थे औतार, एक एक आदमी को बताए थे कि उनके बेटे का कोला रामभरोस लवा रहे हैं। पर उनकी दुहाई गॉव में सुनने वाला कोई नहीं था। गॉव में तो रामभरोस का आतंक हर तरफ पसरा हुआ था। गॉव की सारी गलियां कांप रही थीं और सिवान थे कि वहां लोकराज का कोई शिनाख्त न बचा था। चारो तरफ रामभरोस, रामभरोस ही थे, उनकी लाठियॉ थीं, गालियॉ थीं और जुल्म की तमाम किस्में थीं। जुल्म भी ऐसी नश्ष्लों वाले थे जिन्हें अपराधशास़्त्रा की किसी किताब में नहीं पढ़ा जा सकता था। रामभरोस सदैव अलग अलग तरीके से जुल्मों की शक्ल गढ़ा करते थे जिससे गॉव डर पीने लगता था। रामभरोस के जुल्मों में ही सहपुरवा का जीवन था।
चौथी गवहां ने फेकुआ के कोला का धान लवा लिया है यह बात गॉव वालों को भी मालूम थी। औतार की दुहाई तो दुहाई भर थी इससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ा। गॉव का एक आदमी भी उनकी दुहाई पर नहीं पसीजा। पसीजते भी काहे। उन्हें पता था कि रामभरोस से पंगा लेना खुद को मिटाना है, आखिर कौन खुद को मिटाने के लिए तैयार होता। रामभरोस की बखरी पर जा कर कोई क्यों पूछता कि आपने ऐसा काहे किया? थाने पर जाने की बात तो दूर की कौड़ी थी। गॉव ने मान लिया कि यह औतार का व्यक्तिगत मामला है इससे किसी दूसरे से क्या लेना देना। औतार गॉव का होते हुए भी ‘व्यक्तिगत’ हो चुके थे, उनकी समस्या उनकी है गॉव की नहीं, लोगों की नहीं, समाज की नहीं। समाज ने औतार से नाता तोड़ लिया था। पूरे जिले में नई तरह की ‘व्यक्तिगत’ वाली संस्कृति अवतार ले चुकी थी जिसका नाता सहभागिता व सहयोग वाली पुरानी संस्कृति से अंशमात्रा भी नहीं था।
औतार गॉव के लोगों से निराश हो कर चौथी गवहां के पास भी गये थे पर चौथी गवहां ने बहाना बना दिया और कहा कि उन्होंने फेकुआ को कोला दिया ही नहीं था और फेकुआ उनके यहां काम भी नहीं करता है, सो कोला लवाने की बात कहां से आ गई?
पहले उन्होंने कहा था..
‘कोला न लवांए तो का करें? कोला दिए थे काम करने के लिए कि घरे बइठने के लिए, जब फेकुआ ने हमारा काम ही नाहीं किया फिर काहे का कोला। ऊ खेत ओकरे बाप का तो था नाहीं’ हमारा खेत था हमने लवाय लिया।
‘का जमीन किसी के बाप की होती है’ औतार सोचने लगे।
जमीन किसी के बाप की तो होती नहीं, पर जो ताकतवर हैं वे जमीन के बाप बने हुए हैं। सहपुरवा में रामभरोस, चौथी जैसे कई हैं जो यहां के पेड़, पौधे, नाले, भीटा, बांध आदि के स्वयंभू बाप हैं। ऐसे बापों की कई किस्में हैं, कोई जमीन का बाप है तो कोई कायदा कानून का। कोई सरकार का तो कोई गॉव की पंचायत का। इन बापों से काहे के लिए रार लेना? ऐसे बापों से का बतियाना, बात करने के लिए जगह ही कहां बची हुई है?
रामभरोस की बखरी रास्ते में पड़ती थी, वे रामभरोस की बखरी पर भी गये। सुबह की धूप बखरी को सजाए हुए थी। बखरी चमकों वाली थी। उन चमकों में औतार को खून के लाल लाल चकत्ते चमकतेे दिखे। कहीं कहीं तो कोड़ों व डंडों के चित्र भी दिखते जो बखरी की चमकती दिवारों पर उभरते और खुद ही मिट जाते। औतार बखरी की चमक में जकड़ गए।
सरकार से औतार को कहना क्या है उन्हें भूल जाता। कहना तो है फेकुआ का कोला लवाने के बारे में है पर कैसे कहें, कहीं उनके कहने से बखरी की चमक छिन गई तो...। औतार बखरी पर पहुंचते ही डर की अलग दुनिया में पहुंच गए एक ऐसी दुनिया जिसमें केवल डर ही डर होता है। पीठ होती है तो कोड़े खाने के लिए। हाथ होते हैं काट दिए जाने के लिए, देह होती है परंपरा और कानून के जुल्मों को लिखने के लिए।
औतार का दिमाग कुछ काम कर रहा था और कुछ नहीं, करें क्या? क्या फेकुआ का कोला लवाने के बारे में रामभरोस सरकार को बतांए या लौट चलें बखरी से। बखरी के आहाते में रामभरोस बैठे हुए थे। उनके सामने दरी पर चार जन और बैठे हुए थे। रामभरोस चमक रहे थे। उनकी चमक सामने बैठे हुए लोगों को भी चमका रही थी। रामभरोस के चेहरे से फूटने वाली चमकीली किरणें अजीब ढंग से औतार को डराने लगीं फिर भी औतार ने तय किया कि रामभरोस से उन्हें कहना ही है। कहने से का होगा बहुत होगा तो पीठ लाल हो जाएगी, हाथ पैर की एकाध हड्डी टूट जाएगी और का होगा?
साहस जुटा कर औतार ने कोला लवाने वाला सारा मामला रामभरोस को बताया। रामभरोस ने अपने चेहरे पर बनावटी दुख चढ़ा लिया जिसमें वे कलाकार थे। गुस्से ने अपनेे चेहरे को गब गब लाल बना लेते है, रंग जाते हैं गुस्से की लाली में। जरूरत पड़ने पर वे दुख को भी चढ़ा लिया करते हैं चेहरे पर और भिगो लिया करते हैं पूरा चेहरा मानो उनसे दुखियारा धरती पर कोई दूसरा नहीं है। उनकी ऐसी अभिव्यक्ति कुदरती थी या केवल अभिनय होता था, औतार का जानें।
‘चौथी को यह सब नहीं करना चाहिए था, गरीब आदमी को तो कोले के धान का ही आसरा है, दो चार मन अनाज मिल जाता, इतने अनाज से का होगा चौथी का?’
औतार रामभरोस की फर्जी संवेदना में डूबने उतराने लगे। रामभरोस तो गिरगिट की तरह रंग बदल लिए। अब किसके पास चला जाये, कौन नियाव करेगा। चौथी गवहां ने तो अपने मन से कुछ नहीं किया होगा, सारा खेल रामभरोस का है और ये ऐसा बोल रहे हैं। औतार पहले से ही जानते थे कि रामभरोस नाटक करेंगे जैसे उन्हें पता ही न हो कि फेकुआ का कोला कैसे लवा लिया गया। औतार निराश हो कर रामभरोस की बखरी से अपने घर चले आये। घर लौटना ही था, जाते कहां, थाने पर जाने के लिए गवाह चाहिए, गवाह थे नहीं, गॉव के लोगों के मुंह सिले हुए थे, जैसे गॉव में कुछ हुआ ही न हो।
बिरादरी में केवल सुक्खू ही था जो औतार के साथ कुछ भी करने के लिए तैयार था पर अकेले सुक्खू से क्या होगा? सुक्खू ने औतार को सुझाया कि परगनाधिकारी के यहां दरखास दिया जाये पर औतार के पास से हिम्मत नाम की चीज ही गायब थी। रामभरोस के काले कारनामे उन्हें किसी भूत की तरह डरा रहे थे और कंप कंपा रहे थे, इतना ही नहीं धमकिया भी रहे थे.
‘जहां भी जाना हो जाओ, जाकर देख लो, इस जमाने में तो कुछ नहीं होने वाला, बाद में चाहे जो हो जाये।’
वैसे भी अकेले सुक्खू के बोलने कहने से का होगा, कम से कम दो चार लोग दूसरे भी बोलें तो शायद कहीं सुनवाई हो, अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। दरखास देने के लिए भी रुपया चाहिए कम से कम बीस पचीस रुपये तो लग ही जाएंगे, बस का किराया-भाड़ा अलग से।
औतार मन बना चुके थे कि जो हो गया हो गया अब दरखास काहे के लिए देना, ताकतवरों से लड़ पाना आसान नहीं होता। पर सुक्खू तो सुक्खू, वह डट गया कि परगनाधिकारी के यहां दरखास हर हाल में देना है। चुप रहना ठीक नाहीं है, चुप रहने से भी का हो जाएगा, कुछ नहीं होगा सो दरखास देना चाहिए। दरखास देने से कुछ हो भी सकता है पर नहीं देने से तो तय है कि कुछ नहीं होगा। औतार विवश्ष हो गये और उन्हें कचहरी जाना पड़ गया।
कचहरी तो कचहरी, झुलसे चेहरे वालों का हुजूम, काली कोट वाले वकील, नियाव का अखाड़ा। औतार और सुक्खू अदालत में जिस तरफ जाते उन्हें हर तरफ मुर्झाए व किकुड़ियाए लोग दीखते, किसी की ऑखें धसी होतीं तो किसी के गाल सिकुड़े होते। सबके चेहरे पर मातमी उदासी पसरी हुई। औतार भीतर से पसीजे हुए। उन्हें अदालत अस्पताल जैसा दिखने लगी, यहां भी किकुडियाए तथा सिकुड़े हुए लोग दिख रहे हैं हर तरफ और अस्पताल में भी ऐसे ही लोग दिखते हैं। अस्पताल तथा अदालत में कुछ तो फर्क होना चाहिए पर नहीं दोनों एक ही जैसे जान पड़ते हैं। अस्पताल में देह की बीमारी से परेष्शान तथा हताश लोग दिखते हैं तो यहां जमीन की मालिकाना वाली बीमारी से परेशान व हताश लोग दिख रहे हैं।
औतार और सुक्खू दोनों कचहरी में थे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि किस काली कोट वाले की शरण में जांए। उन्हें किसी ऐसे वकील के बारे में मालूम नहीं था जो गरीबों की लड़ाई लड़ता हो। उन्हें एक दो ऐसे नेताओं का नाम मालूम था जो जनता के अधिकारों की सुरक्षा के लिए संघर्ष किया करते थे पर वे अदालत में नहीं थे। सो वे दोनों अदालत परिसर में वकील की तलाश करने लगे।
अदालत में वकीलों की भिन्न भिन्न किस्में हुआ करती हैं। उनमें कुछ ऐसे होते हैं जो मुवक्किलों की तलाश करते रहते हैं। इसी खोजा खोजी में एक वकील उन्हें मिल गया....
वकील ने औतार से पूछा...
‘का बात है दादा, कुछ काम है का कचहरी में, बहुत परेशान दिख रहे हो?’
औतार को लगा कि का पूछ रहा है वकील? ‘का लोग यहां बिना परेष्शानी के भी आते हैं‘?
फिर उन्होंने वकील को सारी घटना बताया कि उनके साथ क्या हुआ है। कचहरी भरी थी, हर ओर वकील छितराए हुए दीख रहे थे, और भीड़ भी छितराई हुई थी। कहीं दो चार लोग इकठ्ा दिख जाते थे, सभी के चेहरों पर परेशानियां ही परेशानियां दिख रही थीं, औतार को उससे संतोष हुआ, अकेले वही परेशान नहीं है, दूसरे भी हैं।
वकील ने सारा प्रकरण सुनकर औतार से वाटर मार्क कागज और टिकट खरीदने के लिए बोला कि सामने से खरीद कर ले आओ। औतार को सहेज कर वकील अपनी कुर्सी की तरफ चला गया।
वकील पीपल के पेड़ के नीचे बैठा करता था। पीपल के जड़ की गोलाई में गोलाकार चबूतरा था। मुवक्किल उसी चबूतरे पर बैठा करते थे। औतार कुछ देर में कागज और टिकट खरीद ले आए। वकील साहब दरखास लिखने लगे... पीपल के पेड़ पर औतार ने अपनी ऑखें गड़ा दिया।कृयह पेड़ यहां भी है और सहपुरवा में भीकृवहां का नियाव तो वे देख चुके हैं देखो इस पेड़ के नीचे किस तरह का नियाव होता है?
दरखास लिखना बीच ही में छोड़ कर वकील ने औतार से पूछा..
‘देखो भाई औतार! एक बात समझ लो दरखास अंग्रेजी में लिखवाओगे कि हिन्दी में। हिन्दी में लिखूंगा तो दस रुपये लूंगा और अंग्रेजी में लिखूंगा तब बीस रुपये लूंगा, पेशकार को अलग से चार रुपया देना होगा, इसे समझ लो भाई बाद में गड़बड़ न करना।’
औतार हलकान हो गए, का बोलें, पहली बार तो कचहरी आए हैं। उन्हें का मालूम कि दरखास कउने भाखा में लिखी जाती है, जउने का असर होता हो। भाखा तो एक ही होती है जिसे बोलो तो दूसरा समझ ले। यह वकील का पूछ रहा उनसे? हो सकता है यह जो कचहरी है, वह कोई दूसरी भाखा समझती हो, ऐसी भाखा जो गरीब-गुरबों की न हो। हां हां यही होगा तभी वकील पूछ रहा है। वैसे भी अमीरों का खाना, पहनना, घर मकान जैसे अलग तरह का होता है गरीबों से वैसे ही भाखा भी अलग होती होगी उनकी। कचहरी की भाखा भी तो अमीरों वाली ही होगी। कुछ सोचने के बाद औतार ने वकील से कहा...
‘अरे वकील साहब हमार दरखास ओही भाखा में लिखो जौने भाखा को अदालत जानती हो, समझती हो। अब हमैं का पता कि अदालत कौन भाखा जानती व समझती है? हम ठहरे गवांर आदमी, हम तो एतनै जानते हैं कि हमारा काम होना चाहिए, आप जौन ठीक बूझैं उहै करैं, आप को रुपिया चाही, ओके दिए बिना हम इहां से न डोलेंगे।’
दरखास लिखने की बात पक्की होने के बाद वकील ने औतार को समझाया.
‘देखो भाई औतार! अंग्रेजी का काम अंग्रेजों की तरह होता है तेजी से और हिन्दी का काम तो तूं जानते ही हो वही लकड़ घिसघिस, कितनी लकड़ी घिसेगी, कोई गारंटी नहीं काम होने की। हो गया तो ठीक नहीं तो नहीं?’
’अरे साहब हमै ई सब का पता एतनै पता होता तो कचहरी आते’
वकील साहब ने दरखास लिख लिया और औतार के साथ परगनाधिकारी के आफिस गये पर परगनाधिकारी नहीं थे। वे राजस्व मंत्राी के कार्यक्रम में गये हुए थे। आफिस से मालूम हुआ कि शाम तक वापस आ जाएंगे। एस.डी.एम. के आने तक औतार को कचहरी में ही रूकना पड़ गया। करीब चार बजे तक दरखास पर आदेश हो पाया फिर औतार को वह दरखास मिली जिस पर परगनाधिकारी का आदेश था।
वकील साहब ने औतार को दरखास देते हुए सहेजा...
‘इसे आज ही थाने पर दे देना, तुम्हारा काम हो जाएगा’
औतार थाने का नाम सुनते ही डर गये, वे वकील से बोले...कृकृ
‘का सरकार दरखास को थाने पर देना होगा, दरोगा मरखहा है, मारने लगेगा तो...कृमारेगा जरूर। ऊ रामभरोस का आदमी है। रामभरोस के यहां से उसका खाना-खुराक जाता है, थाने पर उनकी एक भैस बंधी हुई है।
वकील गरज उठा...
‘का बोलते हो जी, दारोगा के गांड़ में दम है जो हमरे मुवक्किल को मारे। हम का ईहां घास छीलने के लिए बैठे हुए हैं।’
‘तूं बेडर थाने पर जाओ अउर दरखास दे दो, तोहार काम हो जाएगा’
औतार ने वकील को कुल साठ रुपया दिया इतना ही वकील ने मांगा भी था। औतार के लाख कहने पर वकील ने एक धेला भी कम नहीं किया। औतार देर रात तक घर आये, रात में थाने जाना उन्हें अच्छा नहीं लगा, अब रात में का जाना। घर आने पर देखा कि फेकुआ घर पर नही ंथा। फेकुआ बिफना के साथ था, मालूम हुआ कि दोनों कविसम्मेलन सुनने रापटगंज गये हुए हैं।
सुबह होते ही औतार थाने पर थे। थाने पर शासन की गर्मी हर ओर पसरी हुई थी। लगता कि अब अपराधियों की खैर नहीं, जो अपराध करेगा पकड़ लिया जाएगा। थाने पर औतार की तरह दो तीन लोग और थे जो दारोगा का इंतजार कर रहे थे। दारोगा थाने पर नहीं था। मुंशी ने औतार की दरखास ले लिया और बोला कि दारोगा जी के आने पर वह उन्हें दरखास दे देगा। औतार को थाने का नियम नहीं मालूम था सो मुशी जी को दरखास देकर आफिस से निकल लिए। मुंशी तो मंुशी था उसने ऑख पर का चश्ष्मा उतारा और औतार को रोका...कृकृ
‘अरे कहां चल दिए भाई। वाह वाह खूब रही दरखास थमाये अउर चल दिए। थाना का तोहरे बाप का है? इहां दरखास लिखाने अउर देने, दोनों का नेम है, हमलोग ईहां हरिकीर्तन करने नाहीं बैठे हैं, एहर आओ’
ओतार मुंशी की फटकार सुनते ही मुड़ गये और मुंशी जी से पूछा...
‘का नेम हऽ सरकार! आप कुछ नाहीं बोले तो हम लौट लिए।
‘निकाल पचास रुपया’ मुंशी ने बेबाकी से मांगा
‘एतना तऽ नाहीं है सरकार कुछ कम है’ औतार ने जेब की हालत बताया
‘केतना है?’ पूछा मुंशी ने
‘तीस रुपया है सरकार।’
‘चलो उहै दे, और बाकी बीस रुपया कल पहुंचा देना तभी जांच होगी। बूझे के नाहीं’
‘अच्छा सरकार बाकी रुपिया हम कल पहुंचाय देंगे। पर हमार काम हो जाना चाहिए सरकार। हमरे संघे रामभरोस बहुतै जुरूम कर रहे हैं’
मुंशी को तीस रुपया दे कर औतार थाने से घर लौट आये। पहले तो मुंशी की कड़क आवाज सुन कर डर गए थे, जाने काहे के लिए बुला रहा है, कुछ गलत हो गया का। यह तो थाना है, थाने पर तो बड़े बड़े लोग भी कांपते रहते हैं, हमारी का औकात एक असामी की। कहीं थाना भी मेरी पीठ पर कुछ लिखने न लगे। पता नहीं हम लोगों की का किस्मत है कि लोग हमलोगों की पीठ पर अपना गुस्सा लिखने लगते हैं। अरे गुस्सा है तो पहाड़ों पर लिखो, बादलों पर लिखो, नदियों पर लिखो। बादल पानी क्यों नहीं बरसा रहे, नदियॉ क्यों सूख जाया करती हैं पर नाही हमलोगों की पेट और पीठ पर ही लिखेंगे अपना गुस्सा। औतार ने मुह में आए खखार को वहीं थूका और घर का रास्ता पकड़ लिया।
'''‘कारे बिफना गाना, गाना भी कतल या डकैती
माफिक जुरूम होता है का फिर काहे की गिरफ्तारी?
गिरफ्तारी की कथा हमरे समझ में नाहीं आय रही है’'''
बिफना और फेकुआ दोनों कवि सम्मेलन सुनने के लिए रापटगंज चल दिए यह मान कर कि उन्हें अपने बापों के सामने कुछ भी नहीं बोलना, का होगा बोल कर उनसे। उन लोगों के सामने बोलना पहाड़ तोड़ने माफिक होगा फिर भी न टूटे, भला पहाड़ टूटता है? उनसे बोलो तो नसीहतें दर नसीहतें, यह करो वह न करो, चुप हो कर अपना सिर हिलाते रहो, केवल इतना ही। हर रास्ते पर कांटे बिछे हैं। घर में भी माहौल ठीक नहीं था, पूरे घर को रामभरोस का आतंक लीले हुए था जिससे हर तरफ मारपीट का भय पसर गया था। फेकुआ घर के दमघोंटू माहोल से निकलना चाहता था, चाहता था कि कहीं ऐसी जगह जाए जहां खुल कर बोल बतिया सके, हस सके। कविसम्मेलन के बहाने घर से निकलने का मौका अच्छा था सो दोनों घर में बिना कुछ बताए ही रापटगंज चल दिए। बाद में जो होगा देखा जाएगा, बहुत होगा तो डाट पड़ेगी और का होगा। डाट की उमर ही कितनी होती है? कुछ सेकेण्डों व मिनटों वाली, हवा की तरह बही और चली गई।
रापटगंज में जहां कवि सम्मेलन हो रहा था उस स्थान का आसानी से पता चल गया। स्थान जाना पहचाना था। तहसील के सामने वाला क्लब का मैदान। वैसे भी वह मैदान काफी सजा-धजा हुआ था। पूरा मैदान खूबसूरत पांडाल के घेरे में था तथा माइक लगातार चिल्ला रहे थे। बिजली की सजावट भी देखने लायक थी। एक बार तो उन दोनों को भ्रम हो गया कहीं यहां बियाह न हो रहा हो पर वहां विआह का कर्यक्रम नहीं था। पांडाल के मुख्य द्वार पर बहुत भीड़ थी, स्वयंसेवकों की भरमार थी। वे दोनों भी उसी भीड़ का हिस्सा बन गये। कुछ खास किस्म के लोगों को पांडाल के भीतर जाने की विशेष व्यवस्था थी। ऐसा जान पड़ रहा था कि पांडाल के अन्दर जाने वाले उन विशेष लोगों ने भरपूर चन्दा दिया होगा और चन्दा नहीं देने वाले सामान्यों के लिए दूसरी व्यवस्था थी।
बिफना और फेकुआ दोनों पैदल चल कर पन्द्रह किलोमीटर दूर रापटगंज आये थे, उन्हें विशेष सुविधा दिया जाना चाहिए था क्योंकि वे मजूर कविसम्मेलनी श्रद्धालु थे, पर कौन पूछता है परिश्रमी लोगों को। वहां भी उन्हीं की पूछ थी जो रुपये व गरम तोंद वाले तथा अपना काम करने से भी लजाने वाले थे। भीड़, भीड़ होती है, भीड़ इतनी बढ़ गई कि लोग बोझ बने जा रहे थे। एकदम ठसाठस, कहीं बैठने की जगह नहीं। पांडाल के अन्दर घुस पाना तो वैसे भी असंभव था। दोनोें को लगा कि वे पांडाल के भीतर नहीं जा पांएगे। वे सोचने लगे कि यहां आना बेकार हुआ। कोई ऐसा दीख भी नहीं रहा था जो आसानी से पांडाल के भीतर उन्हें घुसवा देता। यह असंभव काम था। फेकुआ को लगा कि बाहर खड़े स्वयंसेवको को झपड़ियाये और सीधे भीतर घुस जाये पर यह रापटगंज है, रामगढ़ होता तो वह शायद ऐसा कर भी जाता। कुछ देर बाद गॉव का विभूति दिखाई पड़ा। विभूति रामभरोस का लड़का है, बिफना विभूति को पुकारने लगा पर भीड़ में कौन किसकी बात सुनता है? बिना देर किए बिफना विभूति की ओर दौड़ा....कृ
संयोग से विभूति मिल गया और उसने बिफना की आवाज सुन भी लिया थाकृबिफना तो उसे पुकार ही रहा था।
‘छोटका सरकार! छोटका सरकार!’
छोटका सरकार को हालांकि बिफना की पुकार सुनाई पड़ रही थी पर वहां विभूति अकेले छोटे सरकार तो था नहीं, वहां तो उसके जैसे जाने कितने सरकार थे, एक से बढ़ कर एक थे, विभूति रुक गया और बिफना की ओर मुड़ा..कृ
‘अरे! बिफना तूं, यहां का कर रहे हो!’ विभूति ने पूछा
‘हम लोग भी कविसम्मेलन सुनने आए हैं छोटका सरकार!’
एक ही सांस में बता गया बिफना।
‘तूं कब आए यहां, फेकुआ भी दीख रहा है। बुड़बक ईहां बिरहा नाहीं हो रहा है, कवि सम्मेलन होगा, तूं लोग कविता नाहीं समझ पाओगे, चलो कोई बात नाही है। आ गए हो तो हम बैठवा दे रहे हैं तूं लोगों को।’
फिर विभूति ने किसी परिचित स्वयंसेवक को तलाश कर उसे सहेजा कि इन दोनों को भी पांडाल में बिठवा देना और खुद उस तरफ चला गया जिधर से असामान्य लोगों को पांड़ल के भीतर जाना था जिनके लिए विशेष गद्दों का इन्तजाम मंच के ठीक सामने किया गया था।
सामान्य लोगों को पांडाल में बैठने की व्यवस्था पीछे की तरफ थी जो देखने से साफ साफ समझ में आ रही थी। वहां फर्श पर गद्दे नहीं बिछे थे और आगे की तरफ गद्दे बिछे हुए थे। पांडाल में आने वालों का क्रम करीब नौ बजे रात तक चलता रहा, मंच से लोगों को पांडाल के भीतर बैठने और शान्त रहने का निर्देष्श भी दिया जा रहा था। कवियों के आने की भी सूचना मंच से प्रचारित की जा रही थी और बताया जा रहा था कि फलां फलां कवि पधार चुके हैं और शीघ्र ही कविसम्मेलन प्रारंभ होने वाला है।
भीड़ शान्त हुई, श्रोता समूह ने कविसम्मेलन की आश में अपना मुंह बन्द कर लिया जो एक अच्छी बात थी। कुछ ही देर में कविसम्मेलन के संयोजक महोदय माइक पर आये और कविसम्मेलन की उपयागिता पर बोलने लगे कि कविसम्मेलन आज के समय में क्यों जरूरी है। फेकुआ और बिफना दोनों की समझ में नहीं आया कि संयोजक का बोल रहा, वे फुसफुसाये...
‘शुरू करो भाई, का बक बका रहे हो, कविसम्मेलन जरूरी नहीं होता तो हमलोग यहां काहे आते’
संयोजक के बोल चुकने के बाद विधिवत कविसम्मेलन का उद्घाटन हुआ। दीप प्रज्वलित कर सरस्वती वन्दना की गई फिर कहीं दस बजे तक कवि सम्मेलन प्रारंभ हो पाया। एक आदमी जो कविसम्मेलन का संचालन कर रहा था, वह भारीभरकम देह वाला था, उसकी बोली भी भारीभरकम थी। वह मंच पर खड़ा होता और दहाड़ते हुए कुछ गिटपिट बोलकर कवि को बुलाता फिर बुलाए हुए कवि मंच पर आते और अपनी कविता का पाठ करते। संचालक की दहाड़ फिल्म के किसी खलनायक जैसी लगती। कवि जो माइक पर आते उनमें कोई भाषण सरीखा कविता पढ़ता तो कोई उसे गाने लगता। गाना सुनकर दोनों को मजा आता, दोनों उसकी धुन पकड़ते और अपने में खो जाते। लगते विचारने कि कौन सी कजरी या बिरहा की धुन पर यह गाना है और किसने कब कहां इसे गाया था। एकाध घंटे के बाद दोनों ऊबने लगे अचानक किसी कविता की धुन ने दोनों को प्रभावित किया...कृकृ
‘बहुत बढ़िया धुन है रे बिफना,’ बिफना ने फेकुआ को खोदा
‘हां यार! देखो तो कितना बढ़िया गाय रहा है,’
‘इसका का नाम है? यार हम नाम नाही सुने, का तो बोला गया था। रापटैगंज के हैं, कउनो ‘पंथी जी’ हैं। गीत की धुन लोकधुनों के रसायन वाली थी, कान को प्रभावित और गदगद करने वाली, फेकुआ वाह वाह कर उठा...
‘हां यार ई तो याद करने लायक है।’
पर गीत में क्या था या उससे क्या संदेश दिया जा रहा था? वे नहीं समझ पा रहे थे। बस गीत था, उसकी लय थी, राग था, उसमें कंठ का उतार चढ़ाव था जो उन्हें कर्णप्रिय लग रहा था।
कर्णप्रिय गीत ने फेंकुआ को नींद में धकेल दिया, वह जम्हाने लगा। कभी सचेत भी हो जाता कभी नींद में चला जाता। वह यह भी संकोच कर रहा था कि उसी ने कवि सम्मेलन सुनने का प्रोग्राम बनाया था सो उसे नींद में नहीं जाना चाहिए। कोशिश्ष करने के बाद भी वह नींद में जाने से खुद को न रोक पाया। अचानक वह पूरी नींद में चला गया। बिफना ने उसे झकझोर कर जगाया।
‘जागो यार फेकआ! काहे सूत रहे हो। सुनो तो मेहरारू गाय रही है, बहुत बढ़िया धुन व राग है रे!’
नींद मीठी थी, उसे टूटते ही फेकुआ गुसिया गया बिफना पर...
‘का बक बका रहे हो, का बुल्लू के बिरहवा से बढ़िया गाय रही है। पता नाहीं सारे का का गा रहे हैं, कुछ भी नाहीं बुझा रहा है। लेकिन ई मेहररुआ तऽ बढ़िया अलाप रही है यार!
इसी तरह कविसम्मेलन चलता रहा, लोग सोते रहे, जागते रहे, वाह वाही करते रहे और श्रोतागण कविताओं में डुबकी लगाते हुए खुद को तलाषते रहे। मैं कहां हूं? खास कर प्रेम-गीतों वाली कविताओं में। मंच पर आसीन कविगण भी मगन थे, इतने बढ़िया श्रोता उन्हें अन्यत्रा नहीं मिल पाते थेे। श्रोता शान्त और मगन थे, कहीं चिल्ल पों नहीं, किसी को बोर करना नहीं, सारा कुछ अद्भुत। पर बिफना और फेकुआ को कविसम्मेलन उदास कर रहा था सो दोनों इस बात की चिन्ता में थे कि यहां से बाहर कैसे निकला जाये? उस भीड़ में से आसानी निकलना कठिन था फिर भी निकलने के लिए वे जैसे ही खड़े हुए तभी अचानक वहां हंगामा खड़ा हो गया...
फिर क्या था हर ओर भागा भागी, हर ओर शोर ही शोर...
भीड़ को भगदड़ बनने में देर नहीं लगी। उसी भीड़ में फंसे थे फेकुआ और बिफना, कैसे निकलें भीड़ से बाहर? वहां कुछ सोचने गुनने को मौका भी नहीं था। पुलिस ने पूरा पांडाल घेर लिया, हर ओर बन्दूकंे चमकने लगीं। पुलिस का कोई अधिकारी मंच पर आ कर सभी को शान्त रहने का निवेदन करने लगा, वह बार बार एक ही बात कहता....
‘यहां कुछ नहीं हुआ है, जो हुआ था वह हो चुका है, अब आगे कुछ भी नहीं होगा पुलिस ने सारा मामला संभाल लिया है, दरअसल मामला संभल भी गया था। बाद में मालूम हुआ कि गोपाल चुनाहे नाम के कवि की किसी कविता पर बवाल खड़ा हो गया है। आपातकाल में सरकार विरोधी कविता नहीं पढ़नी चाहिए थी।’
गोपाल चुनाहे ने शासन प्रष्शासन को ललकार दिया था। आपातकाल में सरकार को ललकारना भला पुलिस कैसे सह पाती!
‘प्रश्ष्न खड़ा है लोक तंत्रा में कौन बड़ा है, तंत्रा बड़ा है, लोक बड़ा है’
यह सवाल सरकार से भला कौन पूछ सकता है? किसकी मजाल है? गोपाल चुनाहे ने यही सवाल पूछ लिया था सरकार से। असल सरकार तो लखनऊ, दिल्ली में थी पर खुद को सरकार समझने वाले सरकारी अधिकारी तो वहीं थे। उन्हें सरकार से वफादारी का अच्छा मौका मिला सो वे गोपाल चुनाहे को गिरफ्तार करने के लिए दौड़ पड़े। वैसे गोपाल चुनाहे पर पहले से ही वारंट था जैसे देश के तमाम लोगों पर था। वे भी डी.आई.आर. में वान्टेड थे सो पुलिस ने तत्काल उन्हें गिरफ्तार करना चाहा पर वे मंच से कैसे गायब हो गये किसी को नहीं पता चला। पुलिस ने उनका पीछा किया। पुलिस की भागा भागी और पीछा करने से पांडाल में हड़कंप मच गया।
कुछ समय के लिए कविसम्मेलन बन्द करवाकर पुलिस गोपाल चुनाहे को तलाशने लगी, उनका कहीं अता पता नहीं चला। गोपाल चुनाहे कविसम्मेलन स्थल पर काहे के लिए होते, इसलिए होते कि पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर ले। नहीं ऐसा नहीं होता सो वे फरार हो गए पुलिस उन्हें नहीं पकड़ पाई। कुछ घंटे बाद पुनः कविसम्मेलन शुरू कराने की अनुमति पुलिस ने दे दी, तब जाकर कविसम्मेलन दुबारा शुरू हो सका। कविसम्मेलन शुरू होते ही संचालक ने कवि गोपाल चुनाहे की खूब खूब आलोचना की जिससे मंच पर आसीन दूसरे कवि काफी नाराज हो गये और प्रतिक्रिया में आपातकाल विरोधी रचनांए सुनाने लगे, भीड़ तो आपातकाल का विरोध सुनने के लिए जैसे तैयार ही बैठी थी।
वाह! वाह! वाह! वाह! क्या बात है, भीड़ की तरफ से मंच की ओर जाता हुआ प्राकृतिक शोर कि आदमी को गुलाम भले बना दिया जाए, पर पैदा गुलाम नहीं होता। भीड़ का मिजाज देख कर पुलिस ने दुबारा हस्तक्षेप नहीं किया। कविसम्मेलन चलने ही नहीं दौड़ने लगा पर फेकुआ और बिफना दोनों को ऊब हो रही थी तथा उन्हें यह भी ताज्जुब हो रहा था कि गाना गाने पर भी पुलिस किसी की गिरफ्तारी कर सकती है।
फेकुआ ने बिफना से पूछा...
‘कारे बिफना गाना गाना भी कतल या डकैती माफिक जुरूम होता है का फिर काहे की गिरफ्तारी? गिरफ्तारी की कथा हमरे समझ में नाहीं आय रही हैं।’
’‘तोहके हम का समझाएं, तूं नाही जानते का कि पुलिस जो चाहती है कर लेती है, ओके रोकने वाला कौन है। तोहके नाही बुझाता है का कि ये समय ईमरजेन्सी लगी है, सरकार के खिलाफ बोलोगे तो पुलिस गिरफ्तार करेगी ही।’
‘अब हमहूं बूझ गए, चलो वापस चला जाए, अब हमार मन नाही लग रहा है। भला बताओ मन काहे लगेगा? कवियो तो पता नाहीं का का बकबका रहे हैं, दिमाग में कुछो नाहीं घुस रहा है।‘
फेकुआ कविसममेलन में आ तो गया था पर उसके दिमाग पर कोले का लवाना नाच रहा था। केवल मन बदलने के लिए कविसम्मेलन सुनने आया था कि उसका मन बदल जाएगा। कविसम्मेलन में आ कर तो और बोर हो गया। बिरहा की एकाध लाइन दोनों याद कर लिया करते थे पर यहां तो कुछ भी याद करने लायक था ही नहीं। उन्हें जान पड़ा था कि वे एक अलग किस्म की दुनिया में आ गए हैं, जिस दुनिया से उनका कुछ भी लेना-देना नहीं है। उनकी दुनिया तो गोबर माटी वाली है, बिरहा, कजरी वाली है। ये बड़े लोग हैं, उनकी बातें बड़ी होती हैं, इनकी कविताएं भी बड़ी होती हैं, इनकी बातों व कविताओं में गरीबों के समझने, बूझने लायक कुछ भी नहीं होता।
फेकुआ कविसम्मेलन में उबिया गया था उसने तुरंत बिफना से कहा...
‘भोरहरी हो गई है बिफना। आसमान से तारे नीचे उतर रहे हैं, आसमान भी खाली हो रहा है तारों से। चलो हमलोग भी चलें, ओजरार होने तक गॉए पहुंच जाएंगे।’
बिफना भी उबिया गया था। वह भी जल्दी से कविसम्मेलन से निकलना चाहता था। फिर तो दोनों कविसम्मेलन की निराशा पीते हुए घर की तरफ लौट लिए।
‘अब कभी नाहीं आना है ऐसेे परोगाम में।’
'''भूख और पेट की दूरी नाप कर लिखी जाने
वाली कथांए खुद ब खुद उत्पीड़न गाथा बन जाया
करती हैं,क्या ऐसी गाथांए उत्पीड़न की किताब मानी जा सकती है?'''
कवि सम्मेलन में जाने के बारे में फेकुआ और बिफना दोनों ने अपने अपने घर वालों को नहीं बताया था पर सुक्खू और ओतार को मालूम हो गया था कि दोनों कवि सम्मेलन सुनने के लिए रापटगंज गये हैं। वे दोनों घर पर सुबह तक नहीं आ पाए थे। सुक्खू और औतार ने मान लिया था कि दोनों बिगड़ते जा रहे हैं तथा आवारागर्दी पर उतर आए हैं। दोनों लड़के हाथ से निकले जा रहे हैं। दोनों को घर परिवार की रंच मात्रा भी चिन्ता नहीं।
हमलोगों के जमाने में ऐसा नहीं होता था कि बपई को कुछ बताए बिना घर से बाहर निकल जांए। आज तो लड़के मनमानी कर रहे हैं। उन्हें घर की परंपरा की तनिक भी चिन्ता नहीं।
‘औतार भाई! जमाना बदल रहा है, घर परिवार ही हम गरीबन की पूॅजी है और का है हमलोगों के पास पूॅजी के नाम पर। लड़के भी जब कहे में न रहे तो का कहा जाए।’
‘सही बोल रहे हैं सुक्खू भाई, लड़के हैं, उनकी मनमानी भी सबर तो हम ही करेंगे।’ कोला लवाने के बारे में डिप्टी साहब वाली दरखास औतार थाने पर दे आये थे साथ ही साथ थाने के मंुशी को अपने दुख दर्द की कहानी भी सुना आये थे। मुंशी ने थानेदार के निर्णय लेने के बाद ही कुछ बताने के लिए बोला था।
औतार को भरोसा नहीं था थाने पर। थाना जाने का करे, अरे थाना का करेगा। थाना रामभरोस के झांसे में आ जाएगा और जैसा वे कहेंगे वैसा ही थाना करेगा। थाने की इस सांस्कृतिक परंपरा को औतार जानते थे। दारोगा और मुंशी सभी मिले रहते हैं जमीनदारों तथा बड़ी जोत वालों से। औतार थाने पर चले तो गए थे पर चिंताओं में भी घिर गए थे। चिंताओं में तो वे वैसे भी थेे। थाने पर जाते तो भी, नहीं जाते तो भी। उनके लिए अपने जानने वालों में कोई ऐसा नहीं दीख रहा था जो उनकी मदत कर सके। उन्हें केवल भगवान का सहारा था, वही शायद कुछ करें। पर भगवान को भी तो ढेर सारी पूजा चाहिए होती है, चढ़ावन व तपावन के साथ साथ मिठाइयॉ आदि के साथ बकरे या मुर्गे की बलि भी। कहां से जुटाएंगे इतना सामान, घर में अनाज का एक दाना भी नहीं और इतना सामान। उनकी इतनी भी क्षमता नहीं कि पूजा का सामान भी जुटा सकें भगवान को अर्पित करने के लिए। पूजा भी बड़े लोगों की चीज होती है गरीबों की नहीं। औतार ने सोच कर माथा पकड़ लिया। बिपत्ति आती है तो हर तरफ से आती है। भगवान की शरण में जाओ तो रुपया, थाने पर जाओ तो रुपया। यह जो रुपया है, वह आए कहां से? केवल बनी-मजूरी का सहारा है उससे तो पेट भी नहीं भर पाता है फिर कैसे पैदा होगा रूपिया भगवान की पूजा करने के लिए? औतार ने माथा पकड़ लिया जैसे माथा पकड़ लेने से सारा दुख दर्द फुर्र हो जाएगा और हाथ में रुपया आ जाएगा।
फेकुआ और बिफना दोनों बिरहा गाते हुए घर वापस आये। चौथी गवहां की जोतनी पिछड़ रही थी। फेकुआ और बिफना को जोतनी पर नहीं देख कर चौथी गवहां हरिजन बस्ती चले गये और सुबह होते ही उनके घरों के सामने ले-दे करने लगे। लगे ओरहन देने....कृकृ
‘ऐसे ही हलवाही होती है, जब चाहो काम करो और जब न चाहो न करो। सारा कुछ मनमानी हो गया है। कोला और हलवाही का हक (दोनों फसलों में उपहार के तौर पर हलवाहों को खलिहान से दिया जाने वाला कुछ मन (तौल का नाम) अनाज) तो चाहिए ही चाहिए उसमें से कुछ काट लो तो किच किच। हलवाही में जो पॉच मन अनाज दिया जाता है, का ऊ हरामी का है। काम नाही करना है फिर काहे का हक, पद, कोला, बिगहा।’
इसके साथ बहुत भला-बुरा औतार व सुक्खू को चौथी ने सुनाया। औतार और सुक्खू दोनों खामोश थे। ओरहन के साथ शामिल चौथी गवहां की गालियॉ वे सुनते रहे थे, और वे कर भी क्या सकते थे, जमाना भी तो वही था मालिकों वाला। किसी मजूर की इतनी मजाल जो मालिक से कुछ बोल सके सिवाय सलाम वा पलग्गी करने के, दूसरी बातें थी ही नहीं। औतार और सुक्खू दोनों चौथी गवहां के सामने तो कुछ नहीं बोल पाए पर भीतर भीतर बोल रहे थे, ऐसी बोली जो मालिकों के सामने नहीं बोली जा सकतीं। अपने उत्पीड़न का प्रतिकार भला वे आमने-सामने कैसे कर सकते थे। उन्हें इतिहास व परंपरा ने यही सिखाया था कि चुप रहो, गालियॉ सुनते रहो। जो गालियॉ देगा, गालियॉ उसी को पड़ेंगी, सुनने वाले को नहीं। इस तरह के तमाम सुभाषित उनके दिल दिमाग में भरे पड़े थे जो उन्हें खामोश किए हुए थे।
चौथी गवहां कम नहीं थे। उन्हांेने औतार को लपेट लियाकृ
‘का हो औतार! तूं तो बड़े-बूढ़े हो, का हलवही ऐसे ही होती है, जब मन हुआ काम पर चले आए, मन नहीं हुआ तो नहीं आए। मनमानी चल रही है। मालूम हुआ है कि दोनों कविसम्मेलन सुनने गए हैं रापटगंज। लिखि लोढ़ा पढ़ि पत्थर, ऊ ससुरा का गए हैं कवि सम्मेलन सुनने। नाच तो है नाही कि कमर हिलाना देखना है।’
सूर्योदय नहीं हुआ था। सूर्योदय होने में कम से कम एकाध घंटे की देरी थी औतार लेवा में दबे पड़े थे, लेवा लपेटे ही घर से बाहर निकलेे। आखिर कितना सहते, सहनशीलता की भी तो कोई सीमा होती है, सीमा टूट चुकी थी और औतार अपने पर आ गए थे ‘जो होगा देखा जाएगा’....कृ
‘गवहां काहे हल्ला कर रहे हैं। कोला दिए थे अउर ओके लवाय भी लिए। अब फेकुआ से आपका काहे का नाता। एक नाता बना था मालिक और हलवाह वाला, उसे भी आपने तोड़ दिया। अब आप काहे बकबका रहे हैं। एक बात और जान लें गवहॉ कि फेकुआ अब आपकी हलवाही नाहीं करेगा। हम आपके बंधुआ नाहीं हैं, हमार जो मन करेगा हम वही करेंगे, डंडे के जोर से आप हमलोगों से हलवाही नहीं करा सकते।’
आजादी के बाद भी हलवाहों को बंधुआ बना कर उनसे जबरन काम कराने की परंपरा रही है हर तरफ। उसी का विरोध कर रहे थे औतार। औतार अपने पर आ गए थे, वे तैयार हो चुके थे कि जो होगा उससे निपट लेंगे। सामंती डर से बाहर कैसे निकलते जा रहे थे औतार यह उन्हें खुद नहीं पता था। पर इतना पता था उन्हें कि जिन्दा रहना है तो डरों से बाहर निकलना ही होगा।
चौथी गवहां थे कि कोला लवा कर भारी पड़ गये थे। हालांकि ईमरजेन्सी में किसी हरिजन का कोला लवा लेना आसान नहीं था पर सहपुरवा के लिए आसान था। ताकतवरों के लिए आसान था। वहां कुछ भी हो सकता था वहां रामभरोस की सरकार चलती थी। बावजूद इसके अगल बगल के गॉवों के लोग महसूसते थे कि चौथी गवहां को किसी न किसी दिन जेल जाना ही पड़ेगा। भले ही थाने को कुछ दे दिलवाकर जेल जाने से अब तक बचे हुए हैं। उनके ऊपर भी डी.आई.आर. लग सकता है जिसकी जमानत तक नहीं होती। किसी हरिजन का कोला लवाना अपराध है। पर हुआ कुछ भी नहीं। चौथी गवहां आज भी पुराने मिजाज से हैं मस्त मस्त। फेकुआ उनके काम पर नहीं गया सो पूछने चले आए थे नहीं तो हरिजन बस्ती में काहे आते। फेकुआ का कोला लवा लेने के बाद भी उस पर वे अपना हक समझ रहे थे।
‘फेकुआ काहे काम नाहीं करेगा हो औतार? हलवाही किया है, साल भर तो काम ओके करना ही पड़ेगा। ई बात कान खोलकर सुन लो औतार ओके हमारा काम करना ही पड़ेगा, ऊ चाहे जैसे करे, हम ओके छोड़ नाहीं सकते।’
वैसे चौथी गवहां शान्तिप्रिय आदमी थे फिर भी उनसे उनका मध्यमवर्गीय चरित्रा छिनाया हुआ नहीं था। झूठे शान व अभिमान की उन्हें भी सामंती बीमारी थी सो वे औतार को भला बुरा सुनाने लगे थे। औतार नहीं चाहते थे कि फेकुआ चौथी गवहां का काम करे और चौथी गवहां हैं कि अड़े हुए हैं, काम करवाना ही है। पर औतार कहां मानने वाले थे, वे थाने पर चौथी गवहां के खिलाफ दरखास दे ही आये थे। प्रशासन पर से उनका विश्वास मिटा नहीं था।
फिर तो औतार भी साफ साफ बोल गये जिसमें उनके गुस्से की धुन थी...कृकृ
‘हे गवहॉ! जो करना हो कर लीजिएगा, कोला तो लवा ही लिए हैं अब का करेंगें, का जान मारेंगे, उहो मारकेे देख लीजिए। हमारा माथा खराब न करिए फूटिए ईहां से, हमैं अपनी तरह से बोलने के लिए मजबूर न करिए गवहां! हम आपकी तरह से गिरे नाहीं हैं कि मुंह में गालियॉ ठूंस लें और आपको लहजबान बोलें या आप पर डन्डा चला दें, हम अपना धरम नाहीं बिगाड़ने वाले।’
औतार चौथी से भला बुरा बोल ही रहे थे कि वहीं बिफना और फेकुआ दोनों आ गये। फेकुआ को देखते ही चौथी गवहां का ताव उफन पड़ा....कृ
‘फेकुआ काम पर चलो और तुरंत हल नाधो।’
चौथी गवहां ने फेकुआ को सहेजा...
‘चल रहे हैं मालिक’ सधा सधाया जबाब दे कर फेकुआ अपने मड़हा में घुस गया। औतार मड़हा के सामने ही थे, बोल पड़े....कृ
‘गवहां फूटिए ईहां से फेकुआ अब आपका काम नाहीं करेगा तो नाहीं करेगा।’
चौथी गवहां तो मानो आग में जल रहे थे। उन्हें हरिजनों के मुंह लगना बुरा लग रहा था। साला यह मजूरा मेरे जैसे मालिक से बहस कर रहा है, इतनी हिम्मत बढ़ गई है साले की, समाज बिगड़ता जा रहा है।
औतार भला बुरा बोलने में कहीं से भी चौथी गवहां से कम नहीं थे, जैसे चौथी बोल रहे थे वैसे ही औतार भी बोल रहे थे। ईंट का जबाब पत्थर से दे रहे थे पर उसमें गाली नहीं थी। वे केवल अपना पक्ष रख रहे थे वह भी शालीनता के साथ, मर्यादित ढंग से।
चौथी को जान पड़ रहा था कि अब पहले वाला शील-संकोच पूरी तरह से खतम हो गया है। औतार ने काम बन्द करने का ऐलान कर दिया। चौथी गवहां हालांकि अपना काम खुद करने में यकीन करते हैं और मानते हैं कि सभी को ऐसा ही करना चाहिए पर काम ही इतना होता है कि बिना मजूरों की सहायता के काम निपटा पाना संभव नहीं होता, हर हाल में मजूर लगाना ही होता है।
चौथी गवहां आखिर भीतर भीतर कब तक गरम होते उसे बाहर निकलना ही थाकृ
‘ठीक है हमारा काम वह नाहीं करेगा तो न करे पर हमारा कर्जा तो वापस कर दे। चलो आज ही हिसाब कर लो, हमारा जो निकले दे दो और तोहर जो निकले ले लो।’
चौथी गवहां ने यह आखिरी सामंती दॉव खेला। यही दॉव जानते थे चौथी, इसका अभ्यास था उन्हें। मजूरों को परेशान करना हो तो दिए हुए कर्जे के वापसी की े मॉग उनसे सख्ती से करो। उनके पास रुपया तथा गल्ला है नहीं फिर कैसे चुकता करेंगे कर्जा? मजबूर होकर काम पर लौट आएंगे। जाएंगे कहां?
औतार भी चाहते थे कि चौथी गवहां असल बात पर आ जांये और हिसाब किताब करने की बात करें। इससे अधिक वे कर भी का सकते हैं। उन्हें तो मालूम ही था कि मजूरों के सारे कर्जों को सरकार ने माफ कर दिया है, चाहे वह कर्ज किसी भी तरह का और किसी का भी हो। कर्जा के बकाए का एक धेला भी किसी को नहीं देना है। सारे कर्ज माफ। नये कानून की जानकारी औतार को पहले से ही थी। कचहरी में भी उस दिन इसी कानून के बारे में बातें हो रही थीं जिस दिन एस.डी.एम. साहब के यहां दरखास देने के लिए वे कचहरी गये हुए थे।
औतार मुखर हो गये....कृ
‘कर्जा, फर्जा हमसे का मांग रहे हैं गवहां! जाइए सरकार से मांगिए। सरकार ने गरीबों का कर्जा माफ कर दिया है। आप लोग तो सारा कायदा कानून जानते हैं पर इतना सरल कानून नहीं जानते का? तो जान लीजिए सरकार ने गरीबों का सारा कर्जा माफ कर दिया है। हम एक धेला भी नाहीं देने वाले, बूझ रहे हैं कि नाहीं।’
औतार को चौथी गवहां पर हास्यास्पद हसी आ गई, वे हंसे भी। जानबूझ कर हंसने लगे जिससे चौथी गवहां को गुस्सा आए और वे कुछ उटपटांग बोलें पर ऐसा हुआ नहीं। चौथी गवहां को ऐसी आशा नहीं थी कि औतार ऐसा उत्तर देगा, अभी जमाना इतना भी नहीं बदला है कि औतार जैसा दरिद्र हरिजन उनके जैसों के सामने तनेन हो जाये। वे तो जानते थे कि औतार पंचायत कराएगा, रुक्का पुर्जा देखेगा, हर-हिसाब कराएगा फिर लेनी-देनी करेगा। पंचायत जब होगी तो कोई पंच आसमान का तो होगा नहीं, पंच जो बन सकते हैं वे भी तो लेन-देन करने वाले हैं सो फैसला तो जैसा वे चाहेंगे वैसा ही होगा पर औतार तो अंग्रेजी बोल रहा है। अच्छा होगा कि हरिजन बस्ती से खिसक लिया जाए नहीं तो बात बढ़ने पर जाने का हो। हो सकता है कि मजूरे मारपीट करने लगें। बस्ती उनकी है, उनके लोग हैं, अकेले वे क्या कर सकते हैं उनकी बस्ती में, अच्छा होगा कि फूटो यहां से।
फिर भी चौथी गवहां हरिजन बस्ती से बाहर नहीं निकले, निकलते भी कैसे, उन्हें तो मध्यमवर्गीय मानसिकता के जहरीले कीटाणु डसने लगे थे। आखिर अपना कर्ज हम काहे छोड़ दें। नगद रुपया दिया है हमने, और गल्ला भी, हम दानी तो हैं नहींकृकृ फिर तो...चौथी पूछने लगे... कृ
‘औतार ई बताओ चार लोगों के सामने जो रूक्क्वा लिखे हो ओकर का होगा? ऊ रुपिया तो तूं फेकुआ के बियाहे के पहले लिए थे। उसका पूरा हिसाब लिखा हुआ है रुक्के म,ेंकृचार मन धान, दू सौ रुपया नगद था। ऊ सब का तोरे बाप का था जो नाहीं दोगे।’
इसी बीच जाने का गुन कर चौथी गवहां ने बात रोक दी। वे गुनते भी तो क्या गुनते यही कि जबरी करने से कुछ हासिल नहीं होगा सो बड़बड़ाते हुए वहां से विदा हो लिए।कृ
‘हम तुम लोगों को देख लेंगे।’ धमकी भरा आखिरी वाक्य वे बोले
इतना बोलना चौथी गवहां की आखिरी सीमा थी। इस सीमा के पार जाने के दुःसाहस को वे खुद ही धमकी की सीमा में समेट लिए।
औतार चौथी की धमकी से डरने वाले नहीं थे। उन्होंने तो पहले से ही निश्चित कर लिया था कि जब चौथी गवहां ने कोला लवा लिया फिर काहे का कर्जा फर्जा वापस करना। कोला नहीं लवाए होते तो उनका कर्जा वे हर हाल में लौटा देते पर अब उनको कुछ नाहीं देना है। औतार को जाने कहां से ताकत मिल गई थी कि वे ललकारने लगे थे....कृ
‘जाइए जाइए जो करना हो कर लीजिएगा’ वे तो कहना चाहते थे कि ‘जो उखाड़ना हो उखाड़ लीजिएगा।’ पर नहीं कह पाये, शायद भद्दा हो जाता और उनके हिसाब से गलत भी।
यह औतार के उत्पीड़ित मन का आर्तनाद था जो समय के अनुसार नए किस्म का कथानक बन रहा था। इस कथानक में औतार थे, उनका घर परिवार था तथा उनके जीवन का एक एक रेशा भी था जो उत्पीड़न की किताब की तरह था जिसे भूख तथा पेट की दूरी नाप कर लिखा गया था।
चौथी गवहां क्या कर सकते थे। कोई रास्ता उनकी समझ में नहीं आ रहा था। रास्ता था भी नहीं। जमीनदरी वाले आतंकी रास्ते पर चला नहीं जा सकता था और गुंडई वाले रास्ते पर चल कर चौथी खुद ही फस जाते। वे तो खुद काफी डरे हुए थे फेकुआ का कोला लवा कर। उनका वश चलता तो वे रामभरोस की बात टाल देते पर नहीं टाल पाये। उन्हें लगा कि ओतार को तो वे झेल लेंगे पर रामभरोस को नहीं झेल पायेंगे। फेकुआ का कोला लवाना था तो रामभरोस खुद लवा लेते, बवाल उनपर काहे टाल दिए। उन्हें लगा था कि रामभरोस उन्हें कहीं का न रहने देंगे, बरबाद करके छोड़ेंगे। चौथी को अपनी गलती का एहसास होने लगा था पर वे क्या करते, फेकुआ को कोला तो लवाया जा चुका था। फेकुआ का कोला लवा कर ऐसी गलती वे कर चुके थे जिसके लिए किसी भी प्रकार की माफी नहीं थी।
औतार ने चौथी गवहां के काम पर जाने से फेकुआ को रोक दिया। चौथी गवहां जान चुके थे कि उनका सारा कर्जा अब डूब जाएगा। रामभरोस भी फेकुआ का कर्ज नहीं लौटाएंगे। डूब गया सारा कर्जा। चौथी गवहां हिसाब लगाने लगे।
चार मन धान यानि बाढ़ी लेकर कुल छह मन हुआ और दो सौ रुपया नगद, सूद ले कर साढ़े तीन सौ रुपया उसका भी हुआ। अब यह सारा कुछ नाले में चला गया केवल रामभरोस के कारण। कोला का धान कितना होगा कुल मिलाकर पांच मन से अधिक नहीं होगा, उससे कर्जा कैसे पटेगा?
चौथी गवहां दुविधा में थे और सोच रहे थे कि अच्छा नहीं हुआ। इलाके में बदनामी हुई सो ऊपर से कि गरीब आदमी का कोला लवा लिया। अगर मुकदमा चल गया तो मुंह दिखाना मुष्श्किल हो जाएगा। कहीं न कहीं वे फस गये हैं रामभरोस की जाल में। रामभरोस को छोड़ना भी ठीक नहीं होगा ऐसे समय में। कानूनी बवाल अगर बढ़ा तो रामभरोस ही बवाल से बाहर निकाल सकते हैं। वही तारनहार हैं ऐसे बवालों के।
काम-काज बन्द, अभी जोतनी भी बाकी है, कर्जा का लेन-देन भी खतम हो गया, हर तरफ से नुकसान ही नुकसान दिखाई पड़ रहा है। बिपत्ति में कोई साथ नहीं देता। चौथी गवहां का करते, हरिजन बस्ती से अनमने भाव से निकले अफसोस करते हुए कि वे बेमतलब रामभरोस के चक्कर में पड़ गये।
चौथी गवहां की हालत सांप छुछून्दर वाली हो चुकी थी। एक ही आस थी रामभरोस की। सो आस लेकर रामभरोस की बखरी पर वे पहुंच गये। रास्ते में रामदयाल कारिन्दा मिला। उससे चौथी गवहां हरिजन बस्ती का सारा किस्सा बयान किए कि औतार ने का, का कहा। किस्सा सुनते ही रामदयाल भड़क उठा....
गालियों पर गालियां देने लगा औतार को, औरतों के सारे अवयवों को गालियों में शामिल करते हुए। इसके अलावा गालियों में होता भी क्या है? हमारी सभ्यता में अधिकांश गालियॉ औरतों की देह से ही तो जुड़ी हुई होती हैं। सामंती मिजाज वालों को लगता है कि गलियॉ दे लो तो राहत मिल जाती है, कथित पुरुषार्थ शिथिल नहीं होता। चौथी गवहां को भी यह पता था कि अपने घर पर औतार भी रामदयाल से अधिक भद्दी भद्दी गालियां उन्हें दे रहा होगा। बहरहाल गॉवों में गालियों को ऐसे अवसरों पर किसी उपकरण माफिक प्रयोग किया जाता रहा है, जाने वह समय कब आएगा कि गालियां खतम हों जांएगी मानव सभ्यता से।
चौथी गवहां की सोच में रामदयाल की हैसियत सिर्फ बैठकबाज और डंड पेलू की थी। रामभरोस के अलावा किसी दूसरे के लिए वे किसी काम के नहीं थे। चौथी गवहां को लगा कि रामदयाल से बतियाना अपना समय नष्ट करना होगा। उन्हें रामभरोस की बखरी की ओर जाना था सो वे रामदयाल से बतियाना छोड़ सीधे रामभरोस की बखरी की ओर चल दिए। बखरी से ही उन्हें राहत मिल सकती है, बखरी चाह लेगी तो औतार क्या उसका मरा भूत भी कर्जा लोटा देगा।
रामदयाल की बखरी पर बहुत सारे लोगों का जमावड़ा था। अधिकारीनुमा लोगों के बखरी पर जमावड़े से बखरी चमक उठी थी। ब्लाक से कई अधिकारी आए हुए थे, वे बेंत वाली मंहगी कुर्सियों पर बिराजे हुए थे। चाय पानी का दौर चल रहा था। दरवाजे के खिदमतगार खूबसूरत ट्रे में नाश्ते का सर सामान ले कर इधर उधर घूम रहे थे। चौथी गवहां को दरवाजे पर एक भी मचिया खाली नहीं दीख रही थी। अधिकारियों की चमक से चौथी की ऑखें चुधिया गई थीं। रामगढ़ के सरकारी अस्पताल के डाक्टर भी आये हुए थे, सभी लोग बातचीत में मशगूल थे। बखरी पर जिले का प्रष्शासन नाचने लगा था और उस नाच में डूबे हुए थे रामभरोस। उस नाच को देखने के लिए लिए चौथी कहां जगह तलाशें बखरी पर जा कर वे खडे हो गये, बैठते भी कहां ? बैठने वाली हर जगहों पर प्रशासन के लोग अपने सरकारी अधिकारों के साथ काबिज थे। चौथी के पास क्या था, वे तो केवल एक मतदाता थे तथा रामभरोस के एक दरबारी बस इतना ही। सो वे बेचारे एक कोने में खड़े हो गए, बखरी पर खड़ा होना भी उनके लिए कम न था। कम से कम अधिकारियों की ऑखों से निकलने वाली ज्योति तो उन पर भी पड़ेगी। वे लोगों की बातें सुनने लगे। अधिकारियों की उपस्थिति के कारण बखरी की चमक मनोरम हो गई थी और सहपुरवा की गलियॉ भी चमकने लगीं थीं।
अस्पताल वाले डाक्टर रामभरोस को सलाहित कर रहे थे कि सहपुरवा में नसबन्दी का एक कैंप अवश्ष्य लगना चाहिए। इस बार अगर आप चाहें तो स्वास्थ्य मंत्राी जी को भी बुलाया जा सकता है। भूमि आवंटन वाले कार्यक्रम में तो कलक्टर साहब आये ही थे। वैसे आपका नाम जिले में कौन नहीं जानता फिर नसबन्दी कैंप लग जाने से आपका नाम हर तरफ आग की तरह फैल जाएगा।
चौथी गवहां तो औतार की शिकायत रामभरोस से करने आये थे पर वहां का माहौल दूसरे ढंग का था, शिकायत करने से कहीं बखरी की चमक खराब न हो जाए। चमक तो वैसे भी नाजुक होती है, दाग पड़ जाएंगेे, अधिकारियों के अधिकार गन्धाने लगेंगे। चौथी का करते बिना बातचीत किए ही घर वापस हो लिए। वे बखरी से लौटने के अलावा कर भी क्या सकते थे। वे रामभरोस से सीधे बतियाने की भी हिम्मत नहीं रखते थे। ऐसे लोगों की हिम्मत पर रामभरोस का स्थाई कब्जा है जो देखने में नहीं आता था, पर कब्जा स्थाई होता है। चौथी भी जानते हैं कि उनकी हिम्मत पर ही नहीं उनके दिल दिमाग पर भी रामभरोस का कब्जा है। रामभरोस की बोली, उनकेे इशारे व उनके फैसले उनके लिए किसी ताकतवर देवता की बोली, इशारे, व फैसले होते हैं। जिसमें किसी भी तरह के बदलाव की संभावना नहीं होती।
रामभरोस की ही नहीं उनकी बखरी की भी चमक पीते हुए चौथी घर वापस आ गए। घर आते ही उनके घर ने उन्हें दौड़ा लिया हालांकि वे अपने घर में घुसे नहीं थे। वे अपने घर में घुसते भी तो कैसे उनका घर तो रामभरोस की कृपा पर जीवित बचा हुआ था। रामभरोस की एक भी हुकूमउदूली हुई नहीं कि घर आग पीने लगेगा, जल उठेगा धू धू करके। सहपुरवा धूएंे में घिर जाएगा, आग की लपटों में उनका परिवार जलने लगेगा। आग की लपटें तो पानी की बौछारें होती नहीं कि कोई सह लेगा। वे जला डालती हैं सारा कुछ, सब कुछ बदल देती हैं राख में। वैसे भी जो घर आग की लपट तथा थाने की रपट से बच गया मान लो कि जीवन बच गया। मरना और जलना दोनों से पड़ता है। आग सीधे जला देती है पूरी देह और रपट धीरे धीरे जलाती है एक एक अंग। पर जलाते हैं दोनों ही।
चौथी खुद को किसी तरह संभाल पाए पर पत्नी के सामने नहीं जा पाए। पत्नी पूछती औतार के कर्जा के बारे में कि वह कब लौटा रहा कर्जा? तो वे क्या बताते उनसे। बताते कि औतार ने उन्हें फटकार दिया कि कर्जा नहीं लौटाएगा। उसका कहना है कि सरकार ने कर्जा माफ कर दिया है। वह तो भरमुह बोल भी नहीं रहा था, गरज रहा था। यही बताते पत्नी को तो उनकी कथित मर्दानगी बौना न हो जाती। पत्नी के सामने तो बहादुर बने फिरते थे, उनकी सारी बहादुरी खतम हो चुकी थी। सो वे खुद में खोए हुए थे, खुद को तलाषते हुए।
'''‘जो समय के साथ है वह अपने साथ है
जो समय के साथ नहीं है वह अपने साथ भी नहीं है।
समय कभी भी ज्ञात तथा अज्ञात का खेल बन सकता है’'''
चौथी गवहां असमंजस में थे। रामभरोस से बातचीत किए बिना औतार से कर्जा कैसे वसूल करना है इस पर निर्णय लेने में वे समर्थ नहीं थे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि औतार से कर्ज वसूली के बारे में उन्हें करना क्या है? औतार ने तो साफ इनकार कर दिया कि वे कर्ज चुकता नहीं करेंगे।
करीब दो घंटे बाद जीपों के स्टार्ट होने की आवाज सुनाई पड़ी तब उन्हें लगा कि रामभरोस की बखरी पर आये सारे लोग लौटने लगे हैं फिर तो रामभरोस से बातचीत की जा सकती है। फिर क्या था लाई, चना झोरिया कर रामभरोस की बखरी की तरफ चौथी चल दिए। रामभरोस की बखरी मुश्ष्किल से सौ कदम की दूरी पर थी, एकदम किनारे, गॉव के पूरब की तरफ। जैसे ही चौथी रामभरोस की बखरी की तरफ कदम बढ़ाए वैसे ही बखरी की परछांई ने उन्हें घेर लिया। रामभरोस की बखरी परछांई वाली थी जितने बड़े रामभरोस थे उतनी बड़ी उनकी बखरी की परछांई भी थी। बखरी पर पहंुंचने के लिए कुछ दूर तक बखरी की परछांई में भी रेंगना पड़ता था। जैसे जैसे वे बखरी के पास पहुंचते बखरी की परछाईं उन्हें घेर लेती। परछाईं उनसे पूछने लगती।
‘काहे जा रहे हो सरकार के पास, फेकुआ का कोला लवाना था तो अपने बल पर लवाते, रामभरोस के कहने पर काहे लवा लिए। जब फेकुआ का कोला लवा ही लिए फिर उसका परिणाम भी भुगतो, अब रामभरोस के आगे-पीछे क्या कर रहे हो। एकदम से चूतिया ही हो का?’
परछांईं के टोंकनेे पर वे काहे रुकते, बखरी की तरफ बढ़ते रहे। बखरी की दूरी कदम दर कदम घटने लगी। चौथी जानते थे कि केवल रामभरोस की ही नहीं बखरी की परछाईं में भी लोग गोते लगाने लगते हैं सो उन्हें भी गोते लगाना ही होगा। अब रामभरोस जैसा कहेंगे वैसा ही करना है उन्हें।
रामभरोस आरामदेह कुर्सी में धंसे हुए थे। सामने वाले चबूतरे पर रामदयाल कारिन्दा बैठा हुआ था तो एक तरफ दरी पर कुछ फुटकर लोग भी बैठे हुए थे। रामभररोस ने चौथी गवहां को देखते ही बैठने का हुकुम दिया...कृ
‘बइठो चौथी! केहर से आय रहे हो?’
चौथी किनारे पड़ी मचिया पर बैठ गये और बैठते ही उन्होंने रामभरोस से जानना चाहा....कृ
‘के के आया था सरकार! आज तो दरबार में काफी भीड़ जुटी थी।’
‘अरे यार! कोई बाहर का नाहीं था, सरकारी डाक्टर और बी.डी.ओ. साहब आए थे। सारे अधिकारी नसबन्दी कैंप कराने के लिए दौड़ रहे हैं। अब तूं बताओ हमलोग जबरी नसबन्दी किसकी करा सकते हैं। खैर छोड़ो, ई बताओ खेती बारी का का हाल है?’
‘अबहीं तो जोतनी चल रही है सरकार! फेकुआ और बिफना ने काम ही छोड़ दिया है, कह रहे हैं सब कि हम काम नाहीं करेंगे। औतरवा आज बहुत खरी खोटी सुना रहा था, कउनो अदब नाहीं रह गया साले में। जब हम कर्जा लोटाने के लिए उससे बोले तो वह हमसे अकड़ गया....कृ
‘कहने लगा एक छदाम नाहीं देंगे जो करना हो कर लीजिएगा।’
चौथी गवहां ने औतार से हुई बातचीत व खरी खोटी का पूरा विवरण रामभरोस को सुनाया। विवरण बताते बताते चौथी गवहां सीरियस हो गए। अपनी आदत के अनुसार हाथ से मुंह फेरने लगे। रामभरोस गंभीर बने हुए थे। ऐसे अवसरों पर वे स्वभावतन गंभीर हो भी जाया करते हैं क्योंकि कोला लवाने का मामला उन्हीं के कहने पर घटा था जो तूल पकड़ता जा रहा था। उन्होंने चौथी गवहां को आश्वस्त किया.जैसे चौथी की पीठ सहला रहे हों....कृ
‘काहे घबरा रहे हो चौथी! ऊ सब जोतनी नाहीं कर रहे हैं तो का हुआ? हमारा ट्रेक्टर ले जाकर जोतनी करवा लो। हम आपन हलवाह भेज कर तोहार खेत बोआ देंगे।’
रामभरोस के जोरदार आश्वासन ने चौथी गवहां की पीठ सहलाया, पीठ सहलाते सहलाते उनके माथे तक पहुंच गया फिर उनका तनाव कुछ कम हुआ, पर पूरी तरह से कम नहीं हुआ, माथे का दर्द बना रह गया। पर उन्हें यकीन हो गया कि उनका खेत जोता और बोआ जाएगा। खेती बिगड़ने नहीं पाएगी, नहीं तो साल भर का फांका हो जाता। रामभरोस ने जब टेªक्टर भेजने के लिए बोल दिया है तब ट्रेक्टर जाएगा ही फिर तो खेत बोआ जाएगा, इस मामले में रामभरोस बात के पक्के हैं।
चौथी गवहां गॉव की राजनीति के जानकार थे। उन्होंने महसूसा कि रामभरोस का मिजाज ठीक है, ऐसे समय में औतरवा की बदमाशी के बारे में साफ साफ बात कर लेनी चाहिए रामभरोस से। उन्होंने अपनी बात जोड़ा...कृ
‘सरकार एक बात बोलें, औतरवा का मन बहुत बढ़ गया है, र त्ती भर भी संकोच नाहीं रह गया है ओकरे में। ऊ तो आज लड़ने पर आमादा हो गया था हमसे। ऊ तो हम भाग आए वहां से नाहीं तो जाने वह का करता। ओकरे संगे का करना है कुछ सोचिए सरकार! ओकी मनबढ़ई रोकना है।
रामभरोस तो रामभरोस, गंभीरता की प्रतिमूर्ति, गंभीरता के साथ उन्होंने चौथी को समझाया...कृ
‘हम कह रहे है नऽ जब तक औतरवा का पट्टा खारिज नाहीं हो जाता तब तक मुह सिला रखना है, आगे हम देख लेंगे। ओकरे गाड़ीं में दम है जो हम लोगों का कुछ बिगाड़ सके।
बात भी समयानुकूल थी। रामभरोस समय की राजनीति के साथ थे। वे नहीं चाहते थे कि समय उनकी हसी उड़ाने लगे और वे भहराकर जमीन पर गिर जांए। पट्टा खारिज कराने के बारे में वे प्रयासरत थे और रामबली लेखपाल को उन्होंने सहेज भी दिया था। गॉवसभा का प्रस्ताव पास हो ही गया था। रिपोर्ट लग जाने के बाद एस.डी.एम. साहब से उसे स्वीकृत वे करा ही लेंगे। रामबली ने पट्टा खारिजा के काम को कानूनगो के ऊपर उछाल दिया था और रामभरोस कानूनगो को भी राजी कर रहे थे। हालांकि वह बोल रहा था कि ईमरजेन्सी में वह वही करेगा जो सही होगा गलत कुछ भी नहीं करेगा। रामभरोस ने भी उससे बोल दिया था कि गलत न करो, सही ही करो। अब इससे अधिक सही क्या होगा कि औतार का पट्टा खारिज करने का प्रस्ताव गॉवसभा ने पास कर दिया है। इसमें का गलती है, ग्रामसभा ही तो मालिक है गॉव की जमीन की। रामभरोस अपनी बात पर डटे हुए थे।
‘एम्मे का है, गॉवसभा की जमीन है, जो गलत तरीके से पट्टा हो गई है, वह सार्वजनिक उपयोग की भूमि है, आप जानते ही हो कि सार्वजनिक उपयोग की भूमि का पट्टा नहीं किया जाना चाहिए, कानूनन गलत है, अगर हम चाहें तो तोहके भी एम्मे फसा सकते हैं कि तोहंई ले दे के पट्टा किए हो।’
कानूनगो असमंजस में था, एक ओर उसकी नौकरी थी तो दूसरी ओर रामभरोस थे। रामभरोस का डर उसे इसलिए था कि वे उसे किसी भी फर्जी मामले में भी फसा सकते हैं। रामभरोस जैसों के कई कई हाथ पैर होते हैं। कानूनगो जानता था कि जब सहपुरवा में चकबन्दी हो रही थी तब चकबन्दी अधिकारी उनकी राय में नहीं था। मौजा नुनुआ में चकबन्दी का दफ्तर था। वहीं पर सबके सामने ही रामभरोस की किचकिच चकबन्दी अधिकारी से हुई थी। रामभरोस अपनी जमीन की मालियत बढ़वाना चाहते थे। चकबन्दी अधिकारी गलत तरीके से मालियत बढ़ाना नहीं चाहता था। बात बढ़ गई गाली गलौज तक, रामदयाल कारिन्दा ने लात घंूसों से अधिकारी की पिटाई कर दी। कहानी खतम नहीं हुई, कहानी आगे बढ़ गई। दो तीन दिन बाद रामभरोस ने रापटगंज चौमुहानी पर उस अधिकारी को किसी सफाईकर्मी से पिटवा दिया किसी नाटक की तरह। जाने कहां से वह सफाईकर्मी आया और चकबन्दी अधिकारी को जूतों से पीट दिया। नुनुआ गॉव में चकबन्दी अधिकारी का परिवार भी रहता था। उनके बाल बच्चों का डर के मारे घर से बाहर निकलना बन्द हो गया जाने कब क्या हो जाए। अधिकारी शीघ्र ही अपना तबादला करा कर कहीं दूसरी जगह चला गया। कानूनगो यह सारा किस्सा जानता था, कुछ सोच कर बोला..कृ
‘आप ठीक बोल रहे हैं, गॉवसभा का प्रस्ताव पास हो गया है। अब आप तहसीलदार साहब से बात कर लें, क्योंकि हमारी रिपोर्ट को तहसीलदार साहब ही अपनी संस्तुति देकर एस.डी.एम. के पास भेजेंगे। आप तो सारी प्रक्रिया जानते ही हैं। मैं आज ही अपनी तथा लेखपाल की रिपोर्ट लगवा देता हूं’।
रामभरोस हालांकि पढ़े लिखे कम थे पर उन्हें कोई चूतिया बना दे ऐसा भी नहीं था। वे समझ रहे थे कि ये सारे के सारे कर्मचारी हमैं चूतिया बना रहे हैं। लेखपाल टाल रहा है कानूनगो पर, कानूनगो टाल रहा है तहसीलदार पर, तहसीलदार टाल देगा एस.डी.एम. पर। ऐसा सोच कर रामभरोस अपने ताव में आ गये....कृ
‘कानूनगो साहब ऐसा है हमके चूतिया जीन बनाओ, हम तोहन लोगन का सारा खेल जानते हैं। जिस काम में कुछ दक्षिणा मिल जाती है उसे तूं लोग फटाफट कर देते हो और दूसरे जरूरी कामों को लटका देते हो। हम बताय दे रहे है ऐसे बहाना बनाने से काम नाहीं चलेगा। पर हमार काम तो तोहके कइसहूं कराना है, हम नाहीं जानते के तूं इसे कैसे कराओगे। जो लेना देना हो साफ साफ बोलो, लजाओ जीन।’
कानूनगो पूरी तरह से सहम गया वह जानता था कि रामभरोस से घूस लेने पर गड़बड़ी हो जाएगी, पूरी तहसील इनके इशारे पर नाचती है। तहसील के ये अप्रत्यक्ष तहसीलदार हैं तो एस.डी.एम. भी हैं। सो इनसे बच कर रहना चाहिए नहीं तो पीठ पर कानून की दण्डात्मक धारांए ये चिपकवा देंगे। सावधान होकर उसने अपनी विवशता बताया....कृ
‘सरकार! ई का बोल रहे हैं आप! आप से लेन-देन का करना है। हम तो जानते हैं कि आपका काम करना है बस। लेकिन डिप्टीसाहब की मर्जी के बिना पट्टा खारिजा का काम नाहीं हो सकता, हमलोग रिपोर्ट लगाय दे रहे हैं, आप डिप्टी साहब से औतार का पट्टा खारिज कराय लीजिए।’
कानूनगो की यह बात रामभरोस को अच्छी लगी, कौन तीन तेरह करे, सीधे डिप्टी साहब से ही बात कर लेनी चाहिए। यही अच्छा और सरल होगा क्योंकि पट्टा तो एस.डी.एम. साहब को ही खारिज करना है, कानूनगो ठीक बोल रहा है। फिर तो रामभरोस वहां से चल दिए।
कानूनगो के यहां से रामभरोस निकल तो लिए पर कानूनगो उनके दिमाग पर भूत की तरह चढ़ा हुआ था। कानूनगो कहीं उन्हें बेवकूफ तो नहीं बना रहा...कृ
नहीं, नहीं वह बेवकूफ नहीं बना रहा, उसे तो केवल रिपोर्ट ही लगाना है, वह रिपोर्ट लगाने के लिए बोल ही रहा है। इससे अधिक वह कर भी क्या सकता है। रामभरोस ने तय किया कि अब वे डिप्टी साहब से मिलेंगे, अगर संभव हो सकेगा तो कृपालु जी के साथ मिलेंगे। कृपालु जी की बात टालना डिप्टी साहब के लिए आसान नहीं होगा। जब कृपालु जी तैयार हो जाएंगे फिर तो फेकुआ का पट्टा खारिज हो ही जाएगा। प्रशासन से कत्थक नचवाना कृपालु जी जानते हैं। कत्थक जैसा कठिन नाच भी करमा की नाच की तरह हो जाता है।
‘मजूरों का दिन या रात वाला समय, मजूरी करता
हुआ ही धरती पर उतरता है उसी तरह कथा समय भी तड़पता, छटपटाता, खुद को खोलता, तोड़ता उतर रहा है कथा धरती पर’
फेकुआ के बियाह की साइत पक्की हो चुकी थी। मामा, फूफा, मौसा आदि नातेदारों व रिष्श्तेदारों को बुलाया जा चुका था। गोतिहउजी के लोग तो गॉव में थे ही। कुछ जो दूसरे गॉवों के थे उन्हें भी बुलाया गया था पर वे बियाह के दिन ही आते।
फेंकुआ के मालिक चौथी गवहां चूंकि औतार से नाराज थे सो वे औतार की कुछ भी मदत नहीं किए। औतार की मदत करने के बजाय वे मजाक उड़ा रहे थे कि देखो फेकुआ का बियाह औतरवा कैसे करता है?’ औतार ने बियाह का खर्च-वर्च जो कुछ भी उधार में लेना था उसका जोगाड़ पंडित शाोभनाथ के यहां से किया था। औतार ने बनी मजूरी वाला धान जो बचाया हुआ था उसे बेच कर उन्होंने सर सामान खरीद लिया। उन्हें यकीन था कि चढ़ने वाले कर्जे को मजूरी करके चुका देंगे। मजूरी तो करना ही है। फेकुआ के कोला का धान भी मिल जाता तो वे अपने सहारे ही बियाह का खर्चा निपटा लेते, थोड़ा बहुत ही किसी से उधार लेना पड़ता। कपड़े की दुकान वाले को शोभनाथ ने सहेज दिया था कि जितना भी कपड़ा औतार को चाहिए होगा, दे देना और उसने दिया भी। दुकानदार से औतार ने चार जनानी धोती और एक मर्दानी धोती तथा परचून का सारा सामान खरीदा था। मिट्टी का तेल सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान पर नहीं था उसका जोगाड़ शोभनाथ पंडित ने किसी दूसरे दुकानदार के यहां से करवा दिया था। गहना के लिए फेकुआ की अइया ने चानी वाला अपना कनफुल और पायल पहले ही दे दिया था जिसे औतार ने सोनार के यहां से साफ करा लिया था, और वह चमकने लगा था। नाक के लिए एक नथिया औतार ने पहले ही खरीद लिया था जिसे फेकुआ की अइया को ही पता था फेकुआ को नहीं। नाक का लवंग नैहर से मिलेगा ही। बियाह के सारे जरूरी सामानों को खरीद लेनेे के बाद औतार ने राहत की सांस लिया था और अपने देवता को याद किया था। उनकी कृपा के बिना बियाह का सारा सामान खरीदा जाना संभव नहीं था।
औतार बहुत ठाठ बाट से फेकुआ का बियाह करना चाहते थे। फेकुआ उनका एकमात्रा लड़का था सो काफी उत्साहित थे। कर्जा फर्जा जो भी होगा दोनों कमा कर वापस कर देंगे। फेकुआ भी तो कमाएगा। गॉव में जो देखा देखी वाला पूर्वाग्रह होता है वह औतार के पास भी था किसी भी हालत में फेकुआ की बारात किसी से कम नहीं होनी चाहिए। औतार गॉव के मालिकों को परख लेना चाहते थे तथा अपनी बिरादरी वालों को भी कि वे उनके लिए क्या करते हैं? खेलावन चौधरी की बारात उन्हें नही भूलती। का था उनके पास, वे भी तो गरीब थे, उनके पास तो पट्टे वाली जमीन भी नहीं थी। रामभरोस की हलवाही करते थे, बस यह था कि उनकी मेहरारू का टांका रामभरोस से था एकरे अलावा का था उनके पास?’
औतार चौंक गए खुद पर, का सोच रहे हैं वे, खेलावन चौधरी की मेहरारू का टॉका रामभरोस से था तो क्या यह कम था, यह तो बहुत बड़ी ताकत थी खेलावन चौधरी के पास। उस टॉके के कारण क्या नहीं कर सकते थे खेलावन चौधरी। इसका मतलब खेलावन चौधरी के पास बहुत कुछ था। औतार जानते थे कि यह जो टॉका होता है, वह बहुत बड़ी बात होती है। वे खेलावन चौधरी के जोड़ में खड़े नहीं हो सकते।
औतार ने लवण्डा नाच का इन्तजाम भी किया था बिना लवण्डा नाच चाहे नेटुबा नाच के के कैसी बारात? बिफना उसी नाच मंडली में काम भी करता था। बिफना नाच में जोकरई का काम करता था। उसने भी जोर दिया था कि लवण्डा नाच मंण्डली को ले कर ही वह चलेगा। आखिर क्यों नहीं ले चलेगा नाचमण्डली फेकुआ की बारात में? उसका एक ही तो दोस्त है फेकुआ, उसका बियाह होगा, वह भी बिना नाच बाजा के, कैसी लगेगी बारात, उदास और फूहर। सो उसने अपने स्तर से नाच वालों को बुला लिया था। नाच वालों के लिए गैस और दरी का इन्तजाम नहीं करना था, उनके पास था और बाकी चौकी आदि चीजें तो घरात वाले दे ही देंगे।
आज शाम को ही बारात जानी थी। सभी लोग बारात जाने की तैयारी में जुटे थे। सुक्खू समधियाना ठाट में बीड़ी पर बीड़ी दाग रहे थे। घर में इकठ्ठी औरतों पर अपने रुतबे का असर भी छोड़ना नहीं भूले थे। किसी को इधर उधर देखा कि डांटना दबेरना शुरू कर देते थे।
दूसरी तरफ चौथी गवहां आस लगाए बैठे थे कि कर्जा लेने के लिए उनके पास औतार जरूर आएगा। गॉव में ऐसा कौन है जो औतार को कर्जा दे सके सिवाय मेरे और रामभरोस के। बात सही भी थी पर शोभनाथ पंडित गॉव में एक ऐसे आदमी थे जो किसी की मदत के लिए अपना खाना भी छोड़ सकते थे। औतार ने सारा किस्सा जब उन्हें बताया कि उसके साथ क्या हुआ और अब इतने कम समय में किसके पास जांए सो उनके यहां आए हैं फिर तो शोभनाथ से रहा नहीं गया। उन्होंने केवल आश्वासन ही नहीं हर तरह से औतार की मदत की। वैसे शोभनाथ पंडित की स्थिति बहुत कमजोर नहीं थी पर ऐसी भी नहीं थी कि वे किसी भी समय किसी की आर्थिक मदत कर सकें। उनके ऊपर लड़का पढ़ाने का बहुत बड़ा बोझ था सो वे संभल संभल कर चलते थे। उनकी पत्नी को गॉव में पुजारिन काकी, आजी, भउजाई आदि के नाम से जाना जाता है, हैं भी पुजारिन ही। हमेशा भजन कीर्तन में मगन रहने वाली। शोभनाथ दो बच्चियों के पिता थे और एक लड़का था। बच्चियों की बियाह उन्होंने पहले ही कर दिया था। लड़का इण्टर में रापटगंज पढ़ रहा था बाद में बनारस चला गया क्योंकि आगे की पढ़ाई रापटगंज में नहीं होती थी।
बाजे गाजे के साथ फेकुआ की बारात सोहदवल गॉव की ओर चल पड़ी। बारात जाने के पहले गॉव में स्थित सभी देवस्थानों पर पुजहाई की गई, बरम बाबा से लेकर डीहवार तक। सबसे पहले सती माई के यहां पुजहाई की गई बाद में डीह बाबा, बरम बाबा दूसरे स्थानों पर पुजहाई की गई। पुजहाई में ओतार की मेहरारू के साथ गॉव की गोतिहारिनें तथा नातेदारिनें भी चल रही थीं। देखने लायक दृश्ष्य था, अंग्रेजी बाजा बज रहा था और औरतें पूरी साज, सिंगार के साथ अंग्रेजी बजा के पीछे पीछे थीं। गॉव में ढोल नगाड़े के बजाय अंग्रेजी बाजा का बजना वह भी लोगों को चकरियाये हुए था पर बाजा था कि बज रहा था उसके बजने से दूसरों का बाजा बजे तो उससे औतार को क्या?
ढोलक वालों का साज अलग था। उनके साथ गिटार किस्म का एक वाद्य था जो बैटरी से चलता था जिसे एक आदमी बहुत अच्छे ढंग से बजा रहा था। जब बारातियों का मन गाना गाने का हो जाता तो वे बाजा रोक देते और गाना शुरू कर देते खासतौर से जहां किसी का दरवाजा होता। ‘बगिया फुलै बसंत रे, बउराइल मोरा जियरवा’ की धुन, नगाड़ा पर उफन पड़ती और ढोलक पर ताल देने वाला नाचने लगता। गॉव के छोटे बड़े सभी इस दृश्य को अपनी ऑखों में कैद करते और औतार की तारीफ करते पर चौथी गवहां और रामभरोस कोे इससे खुशी नहीं थी। वे लोग कर ही क्या सकते थे, बारात जानी थी सो गई। अब इससे उनका बाजा बज रहा था तो बजा करे। औतार से का मतलब।
दूल्हे के लिए रिक्सा मंगा लिया गया था जो नुनुआ गॉव से आया था। बारातियों को पैदल ही जाना था सो उनके लिए कुछ विशेष नहीं करना था। दिन के साढ़े चार बजे के आस पास बारात जानी थी इसके पहले भत्तवान का कार्यक्रम निपटा लेना था। बारात जाने में थोड़ी देर हो गई क्योंकि भत्तवान भी उसी दिन था। भत्तवान के दिन अगर खाली पूड़ी खिलानी होती तो देर नहीं होती पर कच्चा खाना दल, भात, तरकारी, बरी, फुलौरी कतरा आदि खिलाना था। औतार ने चौथी गवहां को दिखाने के लिए बरी, बारा, फुलौरी तथा दो किसिम की तरकारी का इन्तजाम किया था। भात, दाल तो था ही। यह सारा इन्तजाम औतार की औकात से अधिक था, पर जिद तो जिद। जिद ही औतार से सारा कुछ करा रही थी उनकी औकात से बहुत अधिक।
करीब पांच बजे दिन के आसपास बारात चल पड़ी बहुत देरी भी नहीं हुई थी। भत्तवान जल्दी निपटा लिया गया। वैसे भी बारात को सहपुरवा से दो कोस की दूरी पर ही तो जाना था।
औतार के लिए एक खुशी की बात थी कि होने वाला उनका समधी किसी की हलवाही नहीं करता था। वह असामी था तथा वह पांच बिगहा उपजाऊ जमीन का मालिक भी था। जिसमें दोनों फसलें होती थीं। उसके पास दस गायें तथा तीन जोड़ हल बैल भी थे। साइत तय करते समय उनका समधी बोल रहा था कि वह जल्दी ही एक भैंस भी खरीदेगा। रिक्सा औतार के मड़हा के सामने खड़ा था तीन चार औरतों ने फेकुआ को ओंइछा फिर बाद में रिक्सा पर बैठाया। उसके माथे पर चावल और दही का टीका लगाया, टीका लगाते समय औरतें कुछ भुनभना रही थीं जो समझ से बाहर था बाकी औरतें वही गीत गा रही थीं जो राम के विवाह का गीत माना जाता है पर उसके बोल साफ नहीं थे।
बारात चल पड़ी, औरतें बारात का जाना तब तक देखती रहीं जब तक बारात का दिखना ओझल नहीं हो गया। औतार के मड़हा के सामने बारात की गंध हर ओर पसरी हुई थी जबकि चौथी गवहां के यहां निराशा और गुस्सा वाली दूसरी गंध थी।
‘बारात का इतना इंतजाम कैसे कर लिया औतरवा ने?
‘इतना इन्तजाम, औतरवा साले ने किसके जोर से किया?’
चौथी गवहां बारात का तामझाम देख कर परेशान थे, परेशान तो वे भी थे जो औतार से जला करते थे।
बारात रास्ते भर गाती बजाती तथा नाचती चल रही थी। करमनाशा नदी पर पहुंच कर बारात रुक गई। वही जगह सुस्ताने लायक थी भी। नदी के भीतर छितराए चौड़े चौड़े पत्थर। पत्थरों के बीच से बहता नदी का पानी, सफेद और साफ, कल कल की मधुर धुन बारातियों का दिल और दिमाग दोनों को खींच रही थी। यह वही करमनाशा नदी है त्रिशंकु वाली, उनके लोर और ऑसंुओं के बहने के कारण नदी बह निकली। त्रिशंकु मतलब एक अभागा राजा जो विश्ष्वमित्रा की यौगिक साधनाओं का प्रायोगिक नमूना बन गया था। उसे वे अपने बनाए स्वर्ग का नागरिक बना रहे थे पर हुआ कुछ नहीं और त्रिशंकु स्वर्ग और नर्क के बीच में जा कर कहीं अटक गया। स्वर्ग वाले तथा नर्क वाले दोनों अपने अपने हितों को देखते हुए उन्हें अपने यहां आने नहीं दिए।
सूर्यास्त हो चुका था। निपटान के लिए नदी से अच्छी जगह और दूसरी कहां हो सकती है। चिलमें दग गईं, बीड़ियां जलने लगीं, सुर्ती ठोंकी जाने लगी। पनपियाव के लिए गुड़ निकाला गया, दाना निकाला गया, फेकुआ की मतारी ने दाना भूज कर बारात के साथ भिजवा दिया था। सारा सामान था नाश्ते का भी और दम लगाने का भी। सभी अपनी अपनी पसंद पर टूट पड़े। गांजा और बीड़ियां तो जलीं पर दाना किसी ने नहीं चबाया। कुछ देर पहले ही तो सब खा पी कर चले थे। यह भी था कि यहीं पेट भर जाएगा फिर वहां घरात में कैसे खाया जाएगा? दैनिक क्रिया से निपट कर बारात सोहदवल के लिए चल पड़ी, वहां जल्दी पहुंचना भी तो था। बारात को लेट करना ठीक नहीं चाहे बारात बियाह की हो या गवन की।
अन्धेरा गाढ़ा होने लगा था, पगडंडी पर रास्ता देखना मश्ष्किल था इसी लिए औतार ने पहले ही गैस जलवा दिया था। एक गैस आगे थी तथा दूसरी पीछे। रास्ता आसानी से दिखने लगा था और बारात कुछ देर में ही सोहदवल के सिवान तक पहुच गई। गॉव के आस पास पहुंचते ही बाजे बज उठे उधर घरात की तरफ से भी बाजे गरजने लगे। बारात को घरातियों ने गॉव के एक बगीचे में ठहरवाया था। वहीं पर नाश्ता करने के बाद बारात दुआर लगाने के लिए घरात के दरवाजे की ओर चल पड़ी। आगे आगे गैस और उसके पीछे लवण्डा का नाच, पीछे पीछे बाराती नाचते गाते। बाराती लड़के अपनी धुन में थे, माइक से गाना बज रहा था और लड़के उस धुन पर नाच रहे थे लगता था कि कोई फिल्म चल रही हो सारा दृश्य अपने आप फिल्मी हुआ जा रहा था। औतार मगन थे, अतिरिक्त आनंद और उत्साह में डूबे हुए थे। उन्हें लगा कि उन्होंने जैसा सोचा था वैसा ही हो रहा है। इस समय औतार भूल चुके थे कि चौथी गवहां ने उनके साथ क्या किया था। उन्हें याद थे तो केवल शोभनाथ पंडित जिनके सहयोग के बिना बारात की इतनी बढ़िया तैयारी नहीं हो पाती। बाराती तो अपने उमंग और रंग में थे ही।
करीब एक घंटे बाद बारात घरातियों के दरवाजे पर पहुंची। दरवाजे पर पहुंचते ही वहां एक औरत ने कलशा दिखाया। कलशा उसके सिर पर रखा हुआ था। औतार ने कलशा उतार कर द्वार पूजा वाले स्थान पर रखा। द्वार-पूजा का स्थान दो चौकियों को जोड़ कर बनाया गया था। चौकी पर ऑटे का चौकोर घेरा बनाया गया था उसी के बीच में कलशे को रखा जाना था। वह पूजा स्थान काफी आकर्षक दिख रहा था। कलशा के ऊपर आम की पत्तियां यानि टेरियां रखी हुईं थीं, भीतर पानी भरा हुआ था। कलशा रखे जाने के बाद द्वार-पूजा शुरू हुई। मंत्रोच्चार होने लगे जो वहां उपस्थित किसी के भी समझ में आने वाला नहीं था। सारे मंत्रा संस्कृत भाषा के थे भला वह किसे समझ में आती? सारा संस्कार बाभनों ठाकुरों जैसा किया जा रहा था पर नकल जैसा नहीं जान पड़ रहा था। ऐसा प्रबंध घरातियों द्वारा करवाया हुआ था। इस तरह से द्वार-पूजा का संस्कार औतार ने अपनी बिरादरी में कभी पहले नहीं देखा था। हालांकि उन्होंने मालिकों के यहां देखा था बाद में उन्हें मालूम हुआ कि उनके होने वाले समधी का मन था कि उनकी लड़की का बियाह वैसे ही होगा जैसे बाभनों या ठाकुरों की लड़कियों का होता है, पर कैसे होता उस तरह से बिआह? सो औतार के समधी ने एक योग्य पुरोहित की तलाश किया था।
औतार के समधी ने अपनी बिरादरी के कई पुरोहितों से बातें की पर उनमें एक भी ऐसा नहीं था जो सवर्णो के विवाह वाले तरीकों को जानता हो। सो वे बिहार से पुरोहित बुलावाए थे। वह पुरोहित ब्राह्मणी विवाह संस्कार का जानकार था। वह आधा हरिजन था तो आधा पंडित था। आधा हरिजन तथा आधा पंडित इसलिए कि उसका बाप पंडित था पर मतारी हरिजन महिला थी। उसके बाप को पंडितों ने अपनी बिरादरी से निकाल दिया था फिर भी वह उनसे नहीं डरा और गॉव में ही डटा रहा। उसने पंडितों के डर के कारण गॉव नहीं छोड़ा। साफ कहता था जो करना हो कर लो, बिरादरी से निकालने के अलावा और तुम कर ही क्या सकते हो। पंडिताई का काम तो उसे चाहिए ही था उसने पंडिताई वाला काम पकड़ लिया जिसे उसने अपने बाप से सीखा था।
हरिजनों में नई लहर आ रही थी, वे दलित होने के आग्रहों से निकलना चाहते थे, वे चाहते थे कि वे सवर्णों की तरह दिखें और उनके जैसा ही आचरण अपनांए। बिना ब्राह्मणी संस्कार अपनाए वे अपना अस्तित्व नहीं बचा पाएंगे सो वे ब्राह्मणी संस्कारों को अपनाने लगे थे। इसी लिए उसे हरिजनों की तरफ से हर ओर पंडिताई का काम मिलने लगा था। हरिजन जो ब्राह्मणी कर्मकाण्ड से दूर रहने वाले थे वे ब्राह्मणी कर्मकाण्ड की तरफ बढ़ने लगे थे। जिसका उसे लाभ मिला।
द्वार पूजा के बाद बारातियों को नाश्ता कराया गया। नाश्ते में घरात वालों ने लड्डू और गुड़हइया जलेबी का प्रबंध किया था जो अद्भुत था, बाराती खुश खुश थे और वाह वाही कर रहे थे।
‘वाह रे औतार! समधी तो बड़हर आदमी पा गया’
नाश्ता खतम और लवण्डे का नाच शुरू। बाराती नाच का आनन्द लेने लगे और बूढे़ किस्म के लोग बतकहियों में डूब गये।
‘सरकार ने हमारा कर्जा माफ कर दिया है, पट्टे की जमीन भी दे रही है, मजूरी बढ़ाने के लिए कह रही है’
औतार पास ही में थे सारा कुछ सुन रहे थे, उन्होंने टोका....
‘अरे समधी साहेब! का बोल रहे हैं? हमरे विजयगढ़ अउर जसौली में अबहीं भी चरसेरवै मजूरी है, चार सेर से आगे बढ़े तो बोलैं। किसका कर्जा माफ हुआ हो समधी साहेब, खाली सरकारी कर्जा माफ हुआ है। हम लोगों के पास सरकारी कर्जा था ही कहां, हमलोगों पर तो मालिकों का कर्जा है, वह माफ हुआ तो कुछ लोगों कां माफ हुआ? हां एक बात हुई है कि पट्टे में जमीन मिली है पर ओकरे संगे झगड़ा भी तो मिला है।’
औतार का कहना था कि सभी ने ‘हां’ में ‘हां’ मिलाना शुरू कर दिया।
‘हां भइया औतार ठीक बोल रहे हैं’
ओतार की बात से सभी सहमत तो होते ही क्योंकि कहीं भी मजूरी नहीं बढ़ी थी। प्रतिदन कच्चा चार सेर वाला पुराना रेट ही चल रहा था, दिन भर की खटनी के बाद। सूर्योदय के पहले से सुरूज देवता के अस्त होने तक काम ही काम, महीने में एक दिन की भी छुट्टी नहीं, रोज रोज काम, अगर बर बेमारी का बहाना नहीं बनाओ तो काम से कहां फुर्सत। बेमतलब का झूठ बोलो, अगर जीना है तो। किसी का कर्जा माफ नहीं हुआ था। बाढ़ी डेढ़ा वाला रोजगार मालिकों का चल ही रहा था। गॉव गॉव साहूकारों जैसे लोग हो गए थे जो सूद और बाढ़ी पर कर्ज दिया करते थे। मजूरों के सामने आर्थिक जरूरतें किसी मुसीबत की तरह खड़ी हो जाती है कि मालिकों, साहूकारों से कर्जा और बाढ़ी लेना ही पड़ता है। आवंटन में जितनी जमीन नहीं मिली उससे अधिक झगड़ा मिला। कहीं रास्ते का झगड़ा तो कहीं चकरोड का झगड़ा। मालिकों से मार-फौजदारी करो तो जमीन जोतो, फिर दारोगा की मार सहो, मुकदमा लड़ो, चक्कर लगाओ कचहरी की। किसे नहीं पता कि विजयगढ़ में एक भी ऐसा गॉव नहीं जहां गॉवसभा की जमीन पर किसी न किसी दबंग का कब्जा न हो। अगर उस जमीन को कब्जेदारों से छीन लिया जाए और भूमिहीनों में बांट दिया जाए तो तमाम भूमिहीनों के पास अपना मकान और अपनी जमीन हो जाए पर ऐसा करेगा कौन? सरकारें तो केवल नारे लगाती हैं और उसी के सहारे सरकार भी चलाती हैं।
सुक्खू पास ही में खड़े थे उन्होंने अपनी बात जोड़ा....
‘तोहें भूल गया का औतार! हमरे समधी साहब को वनविभाग ने परसाल उजाड़ नाहीं दिया का? उनका घर दुआर ढहा दिया। भगा दिया गॉव से। उसके पहले उनका ठाठ था, चार बिगहे की खेती करते थे। क्या नहीं था उनके पास, दो जोड़ी देखनहरू बैल थे, तीन गॉयें थीं और एक मुर्रा भैंस भी थी। दूध पूत दोनों से भरे हुए थे। उनका ठाट-बाट बड़का लोगन माफिक था। सात बिगहा जमीन के जोतदार बन गए थे। पर किस्मत भी तो कोई चीज होती है वनविभाग ने एक ही झटके में उजाड़ कर जंगल से बाहर कहीं फेंक दिया। उनका दुख दर्द कोई सुनने, गुनने वाला नहीं। कुछ ही दिन में बेचारे पगला गए और रेणूकूट में क्वार्टर क्वार्टर घूम कर भीख मॉगने लगे।’
‘हंऽ हो सुक्खू! सही बोल रहे हो, हमरे मउसा को भी वनविभाग ने जंगल से बहियाय दिया आज बेचारे हलवाही कर रहे हैं।’
सुक्खू और औतार की बातें जैसे ही खतम हुईं कि किसी ने सीलिंग वाली जमीन के बारे में बोलना शुरू किया....कृ
‘हल्ला था कि सीलिंग से जो जमीन निकलेगी उसे गरीबों में बांटा जाएगा पर का हुआ? का पट्टा हुआ भूमिहीनों को सीलिंग वाली जमीन का?’
‘नाहीं हो, कहां हुआ सीलिंग की जमीन का पट्टा। रामभरोस की जमीन तो निकली थी सीलिंग में पर ओके रामभरोसै जोत रहे हैं।’
बारात नाश्ते के बाद आराम कर रही थी। उसके बाद वियाह का कार्यक्रम था। आराम करते हुए बारात समय और समाज के रिष्श्तों के बारे में अपने अपने ढंग से बतिया रही थी। ‘गरीबों का राज आ गया है या आएगा’ उसे विखंडित कर रही थी। माना जाता है कि गरीब सोचता और गुनता ही नहीं पर औतार की बारात में तो यह साफ दिख रहा था कि गरीब भी सोचता और गुनता है। हां उसके गुनने में कोई प्र्रतिरोध नहीं होता। वे नहीं समझ पाये हैं कि वे कभी सरकार पलट कर अपनी सरकार भी बना सकते हैं, खांटी गरीबों वाली, मजूरों वाली, मजूरों के लिए काम करने वाली सरकार। औतार अपने समय के हिसाब से आगे थे, समय उनके पीछे चल रहा था। औतार जमीनदारी की याद दिला रहे थे। जमीनदार जब श्षिकार पर निकलता था तब क्या क्या करता था, कहां सोता था, किसे मारता पीटता था, जंगल को कैसे रनिवास बना देता था, सारा कुछ। ओतार जानते हैं कि वे पहले भी मजूर थे और आज भी मजूर ही हैं। उनकी पहले वाली पीढ़ी भी मजूर थी और आने वाली पीढ़ी भी मजूर ही होगी।
औतार और सुक्खू को तो यह भी पता नहीं कि सरकार जो होती है वह जनता द्वारा, जनता की, जनता के लिए होती है और मजूर तो केवल मजूर होता है, उसे सरकार ‘जनता’ नहीं मानती।
औतार की आदत पड़ गई है मजूरी के काम में खुद को डुबोए रखने की। उनका जो समय है, चाहे दिन वाला हो या रात वाला वह भी मजूरी करता हुआ ही धरती पर उतरता है। उन्हें लगता है कि आसमान में छितराए हुए जो तारे हैं उनमें भी कई पसीना बहाने वाले होंगे। उनके पसीनों से तर यह जो आकाश है वह भी तो कॉप रहा होगा जैसे कि वे कॉप रहे हैं।
औतार के लड़के की बारात है उनका दिल दिमाग खुशियों से भरा हुआ है। वे मगन हैं बारातियों के साथ। प्रकृति ने उन्हंे मजबूरियों में भी हसना सिखा दिया है।
बारात की मौजमस्ती केवल रात भर की है दूसरे दिन खान-पान के बाद बारात बिदा हो जाएगी। घर में गीत-गारी चल रही है साथ ही साथ भोजन की तैयारी भी। घर में तरह तरह की गारियों वाले गीत गाये जा रहे हैं, समधी साहब नेग पाने की गरज से खाना नहीं खा रहे हैं, दूल्हा भी उदास बैठा हुआ है, नेग पाने की लालच म भीें। समधी और दूल्हे की मनउव्वल हो रही है, साथ ही साथ गीतमय गारियॉ भी चल रही हैं।
‘भागो भागो भड़ुआ भागो’ जैसी किसिम किसिम की गारियां।’
बारातियों को गारियॉ कर्णप्रिय लग रही हैं। समधी ही नहीं सभी मजाकिया रिश्ते के लोगों के नाम ले लेकर किसिम किसिम की गारियॉ गाई जा रही हैं, औरतें अपनी धुन में हैं, बहुत अच्छा लग रहा है उन्हें गारियॉ गाने में। बियाह के समय ही तो मौका मिलता है औरतों को मन की भड़ास निकालने का। गारियों के द्वारा, आंगन में नये किस्म का रीतिकाल उतर आया है नख से लेकर शिख तक। उसमें निर्गुण है तो सगुण भी, दोनों के रसायन में डूब चुके हैं बाराती, वे चाहते हैं कुछ और देर तक आंगन में बैठे रहना और धरती पर उतरे रीतिकाल में गोते लगाते रहना, पर ऐसा संभव नहीं था। शायद ये गारियां उन किलकारियों की आहट थीं जिसे औतार के घर में बियाह के बाद सुना जाना है। रिश्ते की इस पराकाष्ठा पर शायद किसी और पवित्राता की आवश्यकता नहीं।
लगभग दो बजे दिन तक लड़की विदा हो गई, लड़की के साथ बारात भी। फेकुआ के साथ लड़की को रिक्से पर बिठाया गया। बिफना तथा फेंकुआ के कुछ दोस्त जो साइकिल से थे वे रिक्सा के साथ हो लिए। बारात चल पड़ी औतार के घर की तरफ।
घर पर दूसरी तरह की खुशियां बारातियों के आने की प्रतिक्षा में परेशान थीं कि बारात आए फिर वे खुशियों का रसपान करें। बारात भी जल्दी जल्दी में थी कि बेर ढलने के पहने तक घर पहुंच जाया जाये। बारात के घर पहुंचने के बाद कई तरह के तामझाम करने पड़ते है औरतों को। नई बहुरिया के परछन से लेकर घर में प्रवेश तक के अलग अलग कार्यक्रम होते हैं।
‘कथांए भी लाज वाली होती हैं वह लाज न जनानी
होती है न मर्दानी इसी लिए कथांए केवल कथांए होती हैं ’
बारात वापस लौट आई। औतार के घर पर बारात के स्वागत के लिए विशेष तैयारी थी। फेकुआ की अइया तो सुबह से ही परेषान थीं यह करना है, वह करना है, उनके पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे उन्हें लग रहा था कि दुनिया की सारी खश्षियां उनके घर में आ कर हसी-ठिठोली कर रही हैं। फेकुआ की फूआ तथा दूसरी नातेदारिनंे बारातियों के खाने-पीने के लिए भोजन बनाने और बनवाने में जुटी हुई थीं। जवान औरतें और लड़कियां तो दूसरे सपनों में थीं।
‘दुलहिन कैसी होगी, करिया होगी कि गोर, लमछर होगी कि बौनी।’
चाहे जैसी होगी अब तो आ ही रही है घर में। बारात आने में कोई देरी तो है नहीं, करमनासा पार कर चुकी होगी, दुलहिन वाला रिक्सा बारात के आने के पहले ही आ जाएगा।
औतार की हरिजन बस्ती सड़क किनारे थी। सड़क पर से जो भी पर्दे वाला रिक्सा गुजरता बच्चे और लड़कियां उसकी ओर दौड़ पड़ते। वे समझते कि उनके घर का ही दूल्हा आ रहा है पर वह कहीं दूसरी जगह का होता। वे निराश हो जाते। निराशा भी कितने समय तक रहती?
अन्त में फेकुआ वाला रिक्सा आ गया जिसे आना ही था। रिक्सा घर पर पहुंचते ही गीत शुरू, गीत के साथ परिछनहारिनें भी दरवाजे पर। रिक्सा रुकते ही औरतों ने दुलहा और दुलहिन को ओइंछना शुरू कर दिया। अद्भुत दृश्य है..दुलहा दुलहिन पर हल्दी में रंगा चावल छिड़का जा रहा है, साथ ही साथ विवाह गीत भी चल रहा है। दृश्य आकर्षक और मनुहारी है। दुलहा और दुलहिन दोनों सपनों में हैं। नर और नारी के मिलन का इतना चित्ताकर्षक दृश्य। फेकुआ गदगद है। ओइंछने का काम कुछ मिनटों में समाप्त हो गया। दुलहा इस रीति से अब बाहर हो चुका था। ओइछन के बाद दुलहिन को फेकुआ के कमरे में ले जाया गया जिसे लीप पोत कर दो दिन पहले ही फेकुआ की अइया ने तैयार कर दिया था। उन्हें तो अपना ख्याल था कि जब वे दुलहिन बन कर इस घर में आईं थीं तब घर की लिपाई पोताई भी नहीं हुई थी। घर में खटिया भी नहीं थी। उन्हें भूला नहीं है पहली रात, उस रात का ही क्या? जानेे कितनी रातें उन्होंने जमीन पर सो कर बिताई हैं फिर बाद में फेकुआ के बपई ने जोगाड़ करके एक खटिया का इन्तजाम किया था। खटिया पर सोना और एक दूसरे में विलीन हो जाना फेकुआ की अइया को आज भी रह रह कर ख्यालआता है।
दुलहिन को उसके होने वाले घर में बिठा दिया गया। उधर फेकुआ का दिल धड़ धड़ कर रहा था, उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्यों घबड़ा रहा है? घबड़ाने की बात तो थी नहीं, उसे एक गाना याद आ रहा था ‘आजु सइयां से होइहंय मिलनवा’ पर यह मिलन उसे आसान नहीं लग रहा था। वह कल्पनाओं में डूब गया और.कृअपरिचित सी चाह उभरी उसके मन में, जल्दी से रात आए और वह अपनी मेहरारू देखे पर ऐसा संभव नहीं था। मेहरारू तो वह तब देख पाएगा जब उसे घर के रिवाज देखने देंगे। रिवाज खतम होने में रात हो जाएगी। रात तो अपने समय पर ही आती है। आती भी है तोकृयह करो वह करो वाले रीति रिवाजों कोे साथ लेकर आती है।
दुलहिन आने के बाद चौथी का रसम फिर गृह प्रवेश। गृह प्रवेश तो होना ही था चाहे गृह जैसा हो, फूस के छाजन वाला हो, खपरैल के छाजन वाला हो या कंक्रीट वाला ही क्यों न हो। घर से क्या मतलब कि उसमें प्रवेश के लिए कितने दरवाजे हैं। प्रवेश तो एक ही दरवाजे से होगा। गृह प्रवेश तो होगा ही और हुआ भी। पर बहुत बाद में। उसके पहले ‘चौथी’ छुड़ाने जैसे तमाम रिवाज निपटाए गये।
दुलहिन के घर में आने के बाद मुंह दिखाई शुरू हो गई। औरतें एक एक कर दुलहिन का मुंह देखने लगीं, कोई अठन्नी तो कोई चवन्नी दुलहिन को देतीं। दुलहिन आंचल थोड़ा उठाती तो गॉव की ननदें उसे पूरा उठा देतीं। दुलहिन लजा जाती पर उसे भी आनंद मिलता। वह जानती थी कि यही तरीका है। वह डूबी हुई थी संइया से मिलने की कुंआरी कल्पनाओं में जिसे उसने सहेजकर रखा हुआ है अब तक। ऑखों में जोति है, किरणें फूट रही हैं, किरणों में सपनों का राजकुमार बसा हुआ है। फेकुआ का कान घर में से निकलने वाली औरतों की बातों पर टिका हुआ है कि वे दुलहिन के बारे में का बोल रही हैं? एक दो का बोला हुआ उसने सुना भी कि ‘दुलहिन ठीक है’, ‘देखनहरू’ है। फेंकुआ गदगद हो गया है, उसने भी तो सपना देखा है कि दुलहिन देखनहरू होनी चाहिए, अच्छी कद-काठी वाली, अच्छी नाक-नक्स वाली, गोर-गार, सुघ्घर।
रात हुई। फेकुआ खाना खा पीकर बाहर कहीं ढरक गया। भला उसे नींद कैसे आती? वह दुलहिन के बारे में ही सोच रहा था जाने कैसी हो, बिफना भइया की दुलहिन की तरह है कि नाहीं, होगी ही, हाथ तो साफ दीख रहे थे और पैर भी, गोर तो होगी ही, चलो जो होगा ठीक होगा, अब का हो सकता है बियाह के बाद अब तो हमेशा हमेशा के लिए साथ निभाना है। फेकुआ के पास नींद वाले गोते नहीं थे पर वह काफी थका हुआ था। दिन भर की थकान ने उसे नींद में धकेल दिया। तभी किसी औरत ने उसे जगाया....
‘का हो फेकुआ! सूति गए का? कैसे नीन आय गई तोहके, चलो उधरकृ’
औरत ने इशारा किया उस कमरे की तरफ, जिसे उसके लिए खासतौर से तैयार किया गया था। वह बिफना की औरत थी। चघड़ और मस्त, उसने फेकुआ का हाथ पकड़ा और उसके कमरे की तरफ ले गई फिर अचानक ऐसा धक्का दिया कि फेकुआ अपने आप कमरे में समा गया। किसी तरह गिरने से बचा नहीं तो मजाकिया रिष्तांे वाली रिष्तेदारिनंे हसने लगतीं। बिफना की औरत ने फटा फट दरवाजे का टटरा लगा दिया, जाते जाते मजाक भी करती गई...
‘सम्हारि के हो फेकुआ, नई नई है बेचारी, खेलल खायल नाहीं लाग रही’
फेकुआ भीतर भीतर रोमांचित था। उसे भउजी के मजाक पर हसी आ गई हालांकि उसने हसी रोक लिया। भउजी का मजाक भी तो समयानुकूल था। पर था शुचिता के बाबत। शुचिता हर हाल में औरतों से ही जुड़ी होती है पुरुषों से नहीं।
कमरे की सजावट देखने लायक थी। खटिया पर लेवा बिछाया हुआ था और उस पर एक पलंगपोस भी बिछाया गया था। पीछे की तरफ भेड़िहवा कंबल रखा गया था। फेकुआ के लिए यह इन्तजाम अद्भुत था। जनम से ही वह जमीन पर सो रहा है। लेवा-कथरी तो मेहमानों के लिए रखी रहती है घर में। बहुत हुआ तो कमरे में पुअरा बिछा दिया गया उसी पर लंुगी फैलाकर सो लिया। इतना इन्तजाम उसने अपनी बिरादरी में किसी के घर नहीं देखा था। यहां तो खटिया है, कंबल है और साफ-सुथरा लेवा भी। फेकुआ धधा गया। उसकी मतारी ने इंतजाम में कोर कसर नहीं छोड़ा है। सारा इन्तजाम खुशियों से भरा हुआ था। खुशियांे की सजावट कमरे में थी जो उल्ल्ेखनीय नहीं थीं पर थीं खुशियों से भरी हुई। फेकुआ के लिए रात भी खुशियों वाली होने वाली थी। वह खुशियों को रात भर चूम-चाट सकता है।
फेकुआ जानता था कि उसकी औरत का नाम सुमिरिनी है। वह आज उसे नाम से बुलाए या कैसे बुलाये समझ नहीं पा रहा था। का बोलेगा उससे कैसे बोलेगा, कहेगा ‘का हो सुमिरिनी’ भोजपुरी में। नहीं खड़ी बोली में ही बोलेगा, वह बोल लेता है खड़ी बोली। सुमिरिनी कौन पढ़ी लिखी है कि उसकी गलती निकाल पाएगी खड़ी बोली में, अपनी बोली में नहीं बोलेगा। फिलिम में तो ‘डार्लिंग’ और जाने का का जाने का बोला जाता है मेहरारू को। फेकुआ सकपकाया हुआ है। पर वह उसे डार्लिंग नहीं बोलेगा उसका नाम लेकर ही उससे बतियाएगा।
फेकुआ के घर में घुसते ही खटिया से उठ कर जमीन पर एक किनारे सुमिरिनी बैठ गई। खटिया से उतर कर जमीन पर बैठ जाना चाहिए सुमिरिनी केवल इतना ही जानती थी। उसने सुना था कि पति के सामने खटिया पर बैठे नहीं रहना चाहिए। जमीन पर क्यों बैठ जाना चाहिए उसे पता नहीं था। वह साधारण सी लड़की थी कोई परंपराओं की शोधार्थी नहीं थी। वह काफी सकपकाई हुई थी। नर-नारी के रिश्तों के बारे में कुछ सुनी सुनाई बातें ही उसे मालूम थीं, जैसे यही कि पति देवता होता है आदि आदि। जबकि किसी देवता के बारे में उसे कुछ भी पता नहीं था कि देवता होते हैं या नहीं होते हैं। होते है तो उनके रंग रूप कैसे होते हैं?
सकपकाई हुई सुमिरिनी अपने ढंग से लजा रही थी, उसे लजाना ही था। और फेकुआ था कि वह भी अलग ढंग से लजा रहा था, दोनों लजा रहे थे, एक की लाज मर्दानी थी तो दूसरे की जनानी पर रात नहीं लजा रही थी, रात की लाज मर्दानी तथा जनानी में नहीं बटी होती। रात की लाज खुली खुली थी और मस्त मस्त भी। रात के लिए वहां औपचारिकता की जगह नहीं थी कि रात बोलती और फेकुआ या सुमिरिनी से कहती बैठो और रात के रहस्य को समझने की कोशिश करो। रात जो चुप थी तो चुप थी, उसे कुछ नहीं बोलना था। बोलना बतियाना तो उन दोनों को था, कुछ मन की तो कुछ बेमन की। कुछ दिल की तो कुछ दिमाग की। रात का उपयोग उन्हें अपने मन और तन की जरूरत के हिसाब से करना था जिससे रात नाराज न हो जाए। रात का नाराज होना शुभ संकेत नहीं होता।
फेकुआ ने जेब से सुर्ती निकाला, उसे हथेली पर रख कर बनाना चाहा तभी अचानक रुक गया।
‘आज नाहीं बनाएगा सुर्ती। आज सुर्ती खाना ठीक नाहीं है।’
सुमिरिनी जाने क्या सोचे, गुने उसे अच्छा नहीं लगेगा। सुमिरिनी का मन-मिजाज जानकर ही वह सुर्ती खाएगा। अगर खाना हुआ तो चुपके से खा लेगा कहीं छिप कर। पर उसके सामने नहीं।
उसने सुर्ती तत्काल जेब में डाल लिया। उसने देखा कि सुमिरिनी जमीन पर गुड़़ुर-मुड़ुर हो कर बैठी हुई है। उसके दिमाग ने काम किया फिर तो उसने सुमिरिनी का एक हाथ थाम लिया...
‘ईहां काहे बइठी हैं हो! खटियवा पर बैठिए’
फेकुआ ने कहा ही नहीं बल्कि सुमिरिनी को हाथ पकड़ कर खटिया पर बैठा भी दिया। खटिया पर बैठ जाने के बाद भी सुमिरिनी किकुड़ियाई हुई थी किसी गठरी माफिक। फेकुआ का हाथ छुआते ही सुमिरिनी सिहर गई थी। अजीब तरह की गुदगुदाहट, देह न हिल रही थी न कांप रही थी पर मन कांप रहा था। पुरुष संपर्क का पहला अवसर। सुमिरिनी का अंचरा नीचे सरक गया था उसने उसे तत्काल ठीक किया फिर सामान्य हो गई पर सामान्य होना आसान नहीं था। गुदगुदियां उसे सामान्य नहीं होने दे रहीं थीं। उन दोनों में सामान्य औपचारिकता कुछ देर में ही समाप्त हो गई फिर वे दोनों नर और मादा में तब्दील हो गये। नर मादा के कौशलों में उनका डूबना था कि रात भी मुस्कराने लगी। रात के मुस्कराने में नर-नारी के दैहिक करतबों की कुदरती कलायें थीं जिसे सीखने व जानने के लिए कथित गुरू की जरूरत नहीं होती। बातें शुरू हुईं...रात उनकी बातें सुनने लगीं...
‘तोहके हम बिअहवै में देखि लिए थे, अउर मन किया कि....’
फेकआ आगे नहीं बोल पाया।
सुमिरिनी का बोलती फिर भी उसे बोलना था...
‘झूठ’
‘झूठ बोल रहे हैं, बिआहे में कैसे देख लिएआप?
बातचीत के सहारे दोनों एक दूसरे में खोने लगे, वे काफी देर तक एक दूसरे में विलीन होते रहे, विलीनता में एक दूसरे को खोजते रहे, वह खोज न तो मर्दानी थी न जनानी, केवल खोज भर थी। रात चढ़ती और गदराती गई, दोनों के तन ही नहीं सांसें भी एक दूसरे को तलाशने लगीं। पता ही नहीं चला कि रात भी होती है और उसके अनमोल करतब भी। रात को ढलना था, ढल गई। दिन के चिढ़ाते उजाले की डर से सुरुज देवता के उगने के पहले ही दोनों कमरे से बाहर निकल आये, दुनिया देख लेगी तो संकोच के दबावों को संभाले हुए।
फेकुआ दिन भर सुमिरिनी में डूबा हुआ था। रात में उसने क्या किया क्या नहीं इसी का हिसाब लगाता रहा। कभी सूरज की तरफ देखता तो कभी उसकी रौशनी की तरफ।
अजीब होता है यह दिन भी, लील जाता है रात की गुदगुदियों को, उसके एकांत को, उसकी सारी बतकहियों को अनसुना कर देता है। दिन को जानना चाहिए कि गरीबों के पास केवल रातें होती हैं, उसका एकांत होता है। फिर उसे क्यों लील जाते हो भाई! दिन में तो काम ही काम, हर काम में पसीना बहाना, जॉगर कूटना, गालियॉ सुनना और का होता है दिन में। दिन तो धरती पर उतरता ही है गालियॉ देने, मारने, पीटने के लिए इसके अलावा और क्या कर सकता है दिन। जब तक सुरुज बाबा अस्त नहीं हो जाते तब तक काम ही काम, काम है तो गालियॉ ही गालियॉ हैं। ये जो सुरुज बाबा हैं न अजीब तरह की हरकतें करते रहते हैं, कभी बदरियों में से झॉकने ताकने लगते है तो कभी माथे पर आकर खड़े हो जाते हैं तनेन। काम करो तो निगरानी, काम छोड़कर पर पेशाब करो तो निगरानी। मालिक गरियाने लगते हैं......‘साला जाने कितनी बार पेशाब करता है, जाने कितनी बार सुर्ती ठोंकता है’
आज भी जाने क्या हुआ सुरुज बाबा को कि जल्दी ही उतर आए धरती पर। एक दो घंटे और अपनी ऑखें बन्द रखते तो उनका क्या बिगड़ जाता। आप तो देवता हैं, देवता का कोई का बिगाड़ लेगा? आपको किससे डर है। पर नहीं आप भी मालिकों की तरह ही हम गरीबों के पीछे हाथ धोकर पड़े रहते हैं, भोरहरी हुई नहीं कि ऑखें खोल देते हैं। आप भी चाहते हैं कि गरीब आराम न कर पांए और लगातार पसीना बहाते रहंे।
अरे सुरुज बाबा! रातें गरीबों के जीवन में मुष्किल सेआती हैं, हसते गाते और गुदगुदाते हुए, उसे काहे छीन लेते हैं आप बाबा! कुछ तो रहम करिए आप मालिक न बनिए, छीनने का काम मालिकों को करने दीजिए, वे हम लोगों का सुख चैन छीनें या मारे पीटें, वे करें। आप तो देवता हैं सभी का भला चाहने और करने वाले, समावेशी मिजाज वाले।
फेकुआ कुछ भी सोचे रात की गुदगुदियों के बारे में, रात थी कि दिन के उजाले में विलीन हो चुकी थी। फेकुआ ने खुद को संभाला....कृ
चलो कुछ समय की ही तो बात है। रात आने वाली ही है, रात आएगी ही, फिर दिन के बारे में क्या सोचना। आज वह हलवाही करने नहीं जाएगा, दिन भर आराम करेगा। दिन है तो क्या केवल काम करने के लिए है, दिन चाहे जिस काम के लिए हो वह आराम करेगा तो आराम करेगा, पक्का है। काम पर नहीं जाएगा तो नहीं जाएगा।
'''‘वैसे कथांए गुलाम नहीं होतीं पर उसके पात्रा गुलाम हो
सकते हैं, आजादी की लड़ाई लड़ती कथाओं में भी अगर मगर हो तो’'''कृ
फेकुआ के बियाह की चर्चा सहपुरवा में ही नहीं पूरे पठ्ठ भर में थी। चर्चा इसलिए नहीं कि बियाह में कोई खास बात थी। चर्चा इस लिए हो रही थी कि फेकुआ के बियाह में औकात से बढ़ कर औतार ने खर्च किया था। किसी हरिजन के लड़के का बियाह बाभनों, ठाकुरों की तरह हो, उनके तरह का इन्तजाम हो विवाह में संस्कृत के श्लोक पढ़े जांएअचरज था, सो चर्चा थी।
चर्चा का कारण घरात वाला किया गया स्वागत सत्कार तथा औतार की तैयारी भी थी। घरात तथा बारात दोनोेें का इन्तजाम लगता ही नहीं था कि किसी हरिजन का है। सवर्णों की तरह का ही ताम झाम, नाच बाजा, धूम-धाम व फिजूलखर्ची। घरात वालों द्वारा लड़की की बिदाई में एक गाय, जो हाल की ब्याई हुई थी, सुतरी की बिनी हुई चारपाई, चार मन के आसपास चावल तथा कपड़ा लत्ता आदि दिया जाना उल्लेखनीय बन गया। गवन में साइकिल देने के लिए भी घरात वाले बोले हैं, वे गवन में देंगे भी, ऐसा नहीं है कि खाली बोल दिए हैं। खान-पान भी एक नम्बर का था। पान तो इतना चला कि बारातियों ने घरात का आंगन ही पान की पीच से रंग दिया। दसियों भर तो गांजा दिया होगा घरातियों ने और शराब की तो छूट ही थी चाहे जितना पियो। शुद्व महुआ वाली, घर की बनाई एकदम ऑख चढ़ाने वाली। औतार के समधी ने जी भर कर खर्च-वर्च किया था। उसका जोगाड़ भी ठीक क्या बहुत ठीक था। वह खेतिहर है अपने पैर पर खड़ा, खुद अपने बारे में फैसला लेने वाला, अपना काम करने वाला किसी दूसरे की मजूरी नहीं करता। एक हरिजन किसी की हलवाही न करे यह बड़ी बात थी।
अपने अपने ढंग से फेकुआ के बियाह की लोग व्याख्या कर रहे थे। रामभरोस की चौकड़ी भी अचरज में डूबी हुई थी।
‘का हो चौथी फेकुआ के बियाहे में केतना सामान दिया है हो घरात वाला? लगता है कि हरिजनों का राज आ गया है’ रामभरोस अचरजाए।
चौथी गवहां काहे चुप रहते।
‘हां सरकार! सही बोल रहे हैं, औतरवा का समघी धनी-मानी है सरकार। दूइ ठो हल चलता है उसका, ओकर आपन जमीन है, और पट्टे में भी जमीन मिल गई है उसे। गाय गोरू भी एक लेहड़ा (कम से कम 20 पशु) रखे हुए है। कोई बता रहा था कि बन्दूक के लाइसेन्स की दरखास भी दिया है।’
रामभरोस को कुछ भी अचरज नहीं हुआ वे मानते थे कि जमाना बदल रहा है और बदलेगा भी उन्होंने जोड़ा।कृउन्हें अचरज था औतार पर, उसने इतना इन्तजाम कैसे कर लिया, कहां से कर्जा फर्जा लिया हो?
अब तो हरिजनों का ही राज है। आगे का समय बहुत ही खतरनाक होने वाला है। जितने दिन चल रहा है, चल रहा है, अब हलवाह भी नाहीं मिलेंगे, सारा काम खुद करना होगा। आखिर हरिजन चाहे गरीब लोग अब हलवाही काहे करेंगे? ओनकर कर्जा माफ, बाल-बच्चों की फीस माफ, फोकट में राशन, रोज मजूरी बढ़ रही है, नौकरी में आरक्षण, नेतागीरी में सीट आरक्षित।
चुरुक फैक्टरी का खुली कि उनकी आंखें खुुलि गई हैं। अब तो जेहर देखो वोहर कारखाना ही कारखाना। डाला ओबरा, रेणकूट, शक्तिनगर सभी जगहों पर कारखाने ही कारखाने। मजूरे कारखानों की तरफ भागने लगे हैं। गॉव में मजूरी करने पर अब तो उन्हें लाज लगती है। कारखानों में मजूरी करना उन्हें अच्छा लगता है, वहां जांगर खटाने में उन्हें लाज नहीं लगती। वहां उन्हें कोई नहीं पहचानता, उनकी कोई जाति नहीं पूछता। वहां वे अपने काम से जाने जाते हैं जाति से नहीं। काम अच्छा होने पर तरक्की भी मिल जाती है। उन्हें अच्छा लगने लगा है प्लास्टिक के एक छोटे से तम्बू में रहना, किसी नाले से ला कर पानी पीना, दिन भर धूल धुंआं पीते रहना। उन्हें लगता है कि गॉव में उनकी अस्मिता छिन जाती है, इज्जत नहीं मिलती। कारखानों के काम पर उन्हें कोई अछूत नहीं मानता, गॉव में रहो तो यह छुआ गया वह छुआ गया यही होता रहता है दिन भर।
रामभरोस आगे क्या होने वाला था जानते थे या कहिए आने वाले समय का अनुमान उन्हें था। जानने को तो चौथी गवहां भी जानते हैं कि आज के जमाने में कोई अपना काम भी नहीं करना चाहता है, चाहता है कि हर काम के लिए मजूर हों और मजूर हैं कि वे भी जांगर खटाना नहीं चाहते। इस तरह आज के जमाने की लड़ाई यह नहीं है कि काम करने वाले नहीं हैं यह है कि कोई जांगर खटाना नहीं चाहता। सभी अपना काम जिसे उन्हें खुद करना चाहिए उसे भी मजूरों से करवाना चाहते हैं। अपना काम खुद करने से लजाने वाली संस्कृति आज भी जीवित है जो प्रस्तावित करती है कि अपना काम खुद करना शर्मनाक बीमारी है। इस शर्मनाक बीमारी से सहपुरवा के ही नहीं सभी क्षेत्रों के लोग जकड़े हुए थे।
चौथी गवहां तो जेठ दशहरा के बाद परेशान परेशान हो जाते हैं। किसको हलवाही पर रखना है, कौन हलवाही पर रहेगा इसका संकट खड़ा हो जाता है जेठ आते ही। जेठ दशहरा आते ही हलवाह काम करने से जबाब दे देते हैं और किसी दूसरे की हलवाही करने का सौदा कर लेते हैं। हालांकि यह सौदा अलिखित होता है पर होता है सौदा ही। उनका मन हुआ पुराने मालिक के यहां काम करने का तो उनके यहां करेंगे नहीं तो उनका काम छोड़ कर किसी दूसरे का काम थाम लेंगे। जेठ दशहरा हलवाहों के लिए पन्द्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी से बड़ा दिन होता है। उस दिन वे आजाद हो जाते हैं, हलवाही छोड़ने और पकड़ने के लिए। वह दिन उनके लिए बंधुआ श्रम से आजादी वाला होता है। बंधुआ श्रम से आजादी वाला यह रिवाज जाने कब से चल रहा है, चौथी गवहां नहीं जानते। शायद अंग्रेजों के जमाने से ही चल रहा हो।
जेठ दशहरा आते ही अपना काम करना जिन मालिकों के लिए शर्मनाक बीमारी की तरह होता है उनके माथे पर बल आ जाते हैं। उनकेे चेहरे मुर्झा जाते हैं, आग में झुलसने माफिक। अब का होगा, कैसे काम होगा?
जेठ दशहरा के बाद हलवाहों को बहकाने व तोड़ने वाली कूटनीति मालिकों में शुरू हो जाती है। कोई साड़ी ब्लाउज तथा कुछ नगद देने की बात हलवाहों व हलवाहिनों से करने लगता है तो कोई कोला बढ़ाने की बात करने लगता है। गॉव में जेठ दशहरा के समय एक अलग किस्म का बाजार खड़ा हो जाता है जिसमें वस्तुएं नहीं बिकतीं आदमी की स्वतंत्रताओं की बोली लगने लगती है। इस बाजार में हलवाह के रूप में आदमी की खरीद-बिक्री होने लगती है। मजूर कहीं न कहीं हलवाही करने के लिए विवश होता है, हलवाही नहीं करेगा तो खाएगा का? मजूर बेवश होता है जांगर खटाने के अलावा वह का करे। उसकी जरूरतें उसे इतना कमजोर बना चुकी होती हैं कि वह खुद बाजार में आ कर खड़ा हो जाता है और अपनी आजादी बेचने की बोली लगवाने लगता है। विकल्प भी तो नहीं हैं पेट की आग बुझाने के लिए। बिकने और खरीदने वाले तरीकों को ही तो हमारी सभ्यता ने खोजा है अब तक। दिमाग बेचो या जॉगर बेचो, दोनों के बाजार हैं। जेठ दशहरा के अवसर पर बाजार गॉवों में आकर खड़ा हो जाता है, यह एक ऐसा बाजार होता है जहां बिके आदमी जैसे माल पर सरकार का टैक्स भी नहीं लगता।
जेठ दशहरा के अवसर पर मालिकों की रातंे मजूरों की बस्ती में बीतने लगती हैं। उस दिन उन्हें बस्ती नहीं गंधाती, न ही मजूर गंधाते हैं लगता है मजूर देवता हैं (जो होते ही हैं)। सबसे अधिक बातचीत उस दिन हरिजनों की औरतों से ही होती है क्योंकि वे मुखर होती हैं, साफ साफ बोलती हैं। मर्द तो संकोच करते हैं, वे लजाते हैं, कुछ अपमान भी महसूसते हैं, अपना दाम क्या लगाना?कृजो मिल जाए वही ठीक। औरतों का खुलापन देखना हो तो जेठ दशहरा के अवसर पर किसी मजूर की बस्ती में चले जाइए फिर देखिए कि औरतें क्या होती हैं? नारी वादिनी भी माथा थाम लेंगी। गूंगी या वाचाल, अपना ख्याल खुद रखने वाली या दूसरों के सहारे पर अमरबेल की तरह टंगी हुई। यह अलग बात है कि कुछ औरतों को थोडे से सामान जैसे साड़ी, ब्लाउज, टिकुली, सेन्हुर आदि पर रिझाया जा सकता है पर वे जानती हैं कि उन्हें किस लिए रिझाया जा रहा है। सो वे जानकर रीझ भी जाती हैं पर मालिकों की तिकड़मों समझते हुए।
चौथी गवहां रामभरोस के दरवाजे पर मजूर पुराण वाचने नहीं गये थे वे तो औतार के पट्टा खारिजा के बारे में उनसे जानने गये थे पर करें क्या। कैसे पूछंे रामभरोस से....उनकी बखरी पर तो वैसे भी किसिम किसिम की बातें थीं जब वे खतम हों तब तो वे असल बात पर आंए... थोड़ा मौका मिला...रामभरोस का मन बदलने के लिए चौथी ने फकुआ की मेहरारू का प्रसंग उठा दिया।कृ‘मेहरारू का प्रसंग आते ही रामभरोस खिल उठेंगे।’ इसी बहाने औतार के बारे में भी बात हो जाएगी।
‘सरकार आप नाहीं जानते नऽ फेकुआ की मेहरारू गजब की सुघ्घर है। ओइसन मेहरारू बड़का लोगन के घरे में नाही हैं। हम आजै देखे हैं ओके। पंडित शोभनाथ का ओसारा लेवार रही थी।’
‘सरकार औतरवा के पट्टवा का का हुआ, खारिज हुआ कि नाहीं?’
चौथी गवहां ने रामभरोस से पूछा...कृ
रामभरोस ने स्वभावतन गंभीरता ओढ़ लिया और बढ़ चढ़ कर जबबियाए...कृ
‘हां चौथी! कल एस.डी.एम. साहब से बात हुई थी। उन्होंने बताया कि का बात कर रहे हैं रामभरोस जी! आपका काम है वह नहीं होगा, उसे तो करना ही है। हॉ लेखपाल व कानूनगो की रिपोर्ट सही लगवा दीजिएगा, ग्रामसभा का प्रस्ताव है ही। डिप्टी साहब के यहां दरखास भी पहुंच चुकी है। हां यार चौथी एक बात और कि हमारे गॉव में नसबन्दी का कैप लगना तय हो चुका है, तहसीलदार साहब बोल रहे थे ओ कैंप में कलक्टर साहब भी रहेंगे और का तो बोल रहे थे कि यहीं नाइटफालउ करेंगे।’
रामभरोस को का पता कि ‘नाइटफाल’ के क्या मायने होते हैं उनकी समझ में जैसा आया वैसा बोल रहे थे। ‘नाइटहाल्ट’ की जगह ‘नाइटफाल’ बोल गए। उन्हें बताया गया था कि रात में कलक्टर साहब सहपुरवा में ही नाइटहाल्ट करेंगे। चौथी ने भी ध्यान नहीं दिया कि रामभरोस का बोल रहे हैं, ध्यान देते भी तो वे नाइटहाल्ट तथा नाइटफाल के अन्तर को तो न समझ पाते।
‘किसी भी तरीके से औतरवा का पट्टा खारिज कराइए सरकार, ई काम सबसे जरूरी है।’
रामभरोस से बतियाकर उनकी बखरी से चौथी निकल लिए। रामभरोस ने स्वीकार में अपना सिर हिला दिया।
‘चलिए जरा उन ऑखों को देखा जाये
जिनमे स्वयंभू मुंसिफों के फैसले तैर रहे होते हैं’
पता नहीं का हुआ कि फेकुआ की बियाह के चार पांच दिन बाद ही सहपुरवा में पुलिस की गंध फैल गई। नाक भिनाने वाली। दारोगा जी की मोटर साइकिल सहपुरवा में गरज उठी। गरजते हुए सीधे हरिजन बस्ती में घुस गई। दारोगा ने औतार के घर का पता मालूम किया फिर वह वहां पहुंच गया। मोटर साइकिल की आवाज तो आवाज, उस समय वह हुकूमत की आवाज थी, आज्ञा एवं अनुशासन की आवाज थी, दमन व प्रताड़ना की आवाज थी। वह आवाज हरिजन बस्ती के लिए जानी पहचानी नहीं थी, जान पहचान तब हुई जब दारोगा औतार से मिला। औतार के दरवाजे पर हरिजन बस्ती उतरा गई। सब अवाक और अचरज में। हुआ क्या? दारोगा कोई ऐसा देहधारी नहीं जो प्यार मुहब्बत के लिए सहपुरवा की हरिजन बस्ती में आया था, प्यार मुहब्बत के लिए आना होता तो रामभरोस के दरवाजे पर जाता। हरिजन बस्ती में क्या है, सूखी हुई अतड़ियां और गुलाम दिमाग, वह भी बिका हुआ।
औतार घर पर ही थे, दारोगा की धमक के सामने थे, दारोगा के सामने गॉव की भीड़ खड़ा होकर अनहोनी पी रही थी, जाने का हो। तभी दारोगा ने भीड़ से पूछा..कृ ‘तुमलोगों में से औतार कौन है?’
‘हम हैं सरकार!’ औतार ने डरते हुए अपना नाम बताया
‘तूंने डिप्टी साहब के यहां दरखास दिया था का?’ दारोगा ने औतार से पूछाकृ
‘हं सरकार!’
‘तेरे लड़के फेकुआ के कोला का धान किसने लवाय लिया, साफ साफ बताओ’ दारोगा ने औतार को घुड़कते हुए पूछा....कृ
‘चौथी गवहां ने सरकार!’
’अपने लड़के फेकुआ और सुक्खूआ को बुलाओ, वे कहां है?
दारोगा ने आदेश दिया..
और फिर सुक्खू को बुलवाया गया क्योंकि सुक्खू का नाम भी दरखास पर था। सभी के आ जाने के बाद दारोगा ने एक एक आदमी का बयान लेना शुरू किया। औतार और फेकुआ को तो वही बोलना था जो हुआ था पर सुक्खू ने भी सच बोला और साफ साफ दारोगा को बताया कि चौथी गवहां ने फेकुआ के कोला का धान लवा लिया है। बयान नोट करने के दौरान ही दारोगा ने पूछा था वह खेत किसका था, किसने कोला दिया था? जिसका धान चौथी गवहां ने लवाय लिया। सभी ने बताया कि वह खेत चौथी गवहां का था जिसे चौथी गवहां ने काम करने के बदले कोला के रूप में फेकुआ को दिया था और फेकुआ ने ही उसे जोता और रोपा भी था।
चौथी गवहां का बयान लेने के लिए, दारोगा रामभरोस के घर की ओर मोटर साइकिल से रवाना हुआ। मोटर साइकिल की धक धक सहपुरवा में गूंज रही थी, उस धक धक में हरिजनों की कंपकपी घुलने लगी, उनके दिल धड़कने लगे। थोड़ी दूर चलने के बाद ही रामभरोस का खलिहान आ गया। रामभरोस के खलिहान पर दारोगा रुक गया। दारोगा जी भरे-पुरे थे, रामभरोस का खलिहान भी भरा-पुरा था। रुकते ही चौकीदार को आदेश दिया....
‘दौड़ कर जाओ! चौथी को यहीं पर बुला लाओ।’
अच्छा सरकार!’ चौकीदार ने कहा और दौड़ गया चौथी गवहां के घर की तरफ। आखिर हुकुम हुकुम होती है। चौकीदार जितनी तेजी से दौड़ रहा था उतनी ही तेजी से दारोगा का हुकुम भी उसके साथ दौड़ रहा था। वह दौड़ देखने लायक थी जिसमें आज्ञाकारिता और आज्ञा का रसायन मिला हुआ था।
थोड़ी देर में चौथी गवहां हाजिर हो गये। उन्होंने दारोगा को सलाम बजाया।
‘सरकार सलाम’
‘तेरा नाम चौथी है?’ दारोगा ने चौथी से पूछा
‘हं सरकार!’ चौथी ने स्वीकारा
चौथी गवहां जैसे ही दारोगा के पास आये वैसे ही रामभरोस भी वहीं चले आये। दारोगा ने शिष्टता दिखाया, उन्हें प्रणाम किया।
रामभरोस को देखते ही दारोगा के चेहरे से हरिजन बस्ती वाली दारोगाई गायब हो गई फिर वह एक सामान्य आदमी की तरह दिखने लगा जैसे उसके चेहरे पर प्रशासन की चमक ही न हो। वहां रामभरोस के रोब-दाब की चमक चिपक गई हो जैसे।
‘अरे नेता जी! आपने क्यों कष्ट किया? हम तो आपके यहां ही आ रहे थे। आपका कारिन्दा रामदयाल मिला था, शायद खेत में पानी चढ़ाने के लिए जा रहा था नहर की तरफ।’
रामभरोस ने दारोगा की हां में हां मिलाया....
बात को आगे बढ़ाते हुए दारोगा ने खुशामती अन्दाज में रामभरोस से पूछा...कृ
‘नेता जी! बी.डी.ओ. साहब बोल रहे थे कि नसबन्दी कैम्प के दिन माननीय स्वास्थ्य मंत्री जी सहपुरवा आ रहे है, आपके ही गॉव मेें, का यह सच है नेता जी’
‘मैं तो नहीं जानता दारोगा जी, लखनऊ जाना है, वहीं से मालूम होगा। वैसे एक बार मंत्राी जी हमारे यहां आना चाहते हैं।
अरे आप इतनी सुबह हमारे गॉव में किस लिए आये हैं, खलिहान मेें काहे बैठे हैं, चलिए बखरी पर चला जाये।’
दारोगा जी के साथ वहां उपस्थित सभी लोग रामभरोस की बखरी पर आ गये। रामभरोस की बखरी पर सजाई हुई लकड़़ी की कुर्सी पर दारोगा बैठ गया। अन्य लोगों को बैठने के लिए दरी बिछा दी गई। यह पहला अवसर था जब बखरी पर हरिजनों को दरी पर बैठेने का मौका मिला था। जनता से मुहब्बताना संबध दिखाने में दारोगा जी के सामने रामभरोस भला कैसे चूकते।
‘का बात है हो दारोगा जी’
‘कुछ भी नहीं नेता जी, आपके गॉव के चौथी पर औतारवा ने दरखास दिया है, शायद उसका कोला चौथिया ने जबरदस्ती कटवा लिया है।’
‘आप तो जानते ही हैं कि ‘सेड्यूल कास्ट्स यार आन फर्स्ट प्रायरिटी’ इसी लिए आना पड़ा। अंग्रेजी न समझते हुए भी रामभरोस ने उसे समझने का अभिनय किया जैसे समझ गए हों कि अनुसूचित जाति प्राथमिकताओं में हैं।
‘कैसी दरखास? जरा हमहूं देखें’
रामभरोस गंभीर हो गये। दारोगा ने रामभरोस को दरखास दे दिया। हालांकि रामभरोस को सारी जानकारी थी और उन्हीं के कहने पर चौथी गवहां ने फेकुआ का कोला भी लवाया था। रामभरोस फिर भी अनजान बने हुए थे। रामभरोस ने बहुत ही नाटकीय ढंग से औतार से पूछा....कृ
‘का हो औतार! फेकुआ का कोला कब लवा लिया चौथी ने? इतनी बड़ी बात हो गई और तूं हमें बताए भी नाहीं, बताए होते तो उसे हम यही हल करा देते सब कुछ। राम, राम दारोगा जी को काहे तकलीफ दिए, गॉव की बात गॉव में हल होनी चाहिए, क्यों दारोगा जी?
रामभरोस की बखरी पर गॉव के कई अन्य हरिजन भी हाजिर थे, उनमें एक रामचेल भी था जो हरिजनों का नेता था बोलने बतियाने में माहिर था। रामभरोस ने उससे पूछा....कृ
‘का हो रामचेल! का गुन रहे हो, फेकुआ का कोला चौथिया लवाय लिया है तो उसका धान वापस करे, कितना हुआ होगा फेकुआ के कोला में धान, कुछ अन्दाज लगाओ रामचेल?
‘कितना हुआ होगा धान सरकार! करीब पॉच मन (कच्चा मन) हुआ होगा सरकार’
‘ठीक है हो, ओतना धान हम दिलाय दे रहे हैं औतार को ’
रामभरोस ने तुरंत अपने कारिन्दा रामदयाल को बुलाया और आदेश दियाकृ. ’औतार के घरे पॉच मन धान पहंुचवाय दो’,
दारोगा ने टोका....कृ
‘नेता जी आप धान काहे दे रहे हैं, धान तो लवाया है चउथिया ने, ऊ साला देगा, नाहीं तऽ हम ओकरे गांड़ी में से उतना धान निकाल लेंगे।’ रामभरोस तो रामभरोस थे, वे दारोगा के पहले ही चौथी पर गरम हो गये। वे सामंती नाटक के जानकार थे, उसी के अनुसार अभिनय भी कर लिया करते थे।कृकृ
‘ऐसा काहे किए चौथी? फेकुआ का कोला काहे लवाय लिए? हमसे भी नाहीं बताए, भला ईमरजेन्सी के समय में ऐसा किया जाता है, जानते नाहीं प्रशासन ऐसे मामलों में बहुत सख्त होता है। चलो कोई बात नाहीं है, दारेागा जी हमारे बहुत खास हैं। पर अब ऐसा कभी मत करना, बूझे कि नाहीं।’
रामभरोस ने किसी कलाकार की तरह उस घटना को अपनी ओर मोड़ लिया। खुद मुंसिफ बन गए और मुल्जिम भी। मुल्जिम इसलिए कि चौथी ने फेकुआ का कोला उनके कहने पर ही लवाया था और मुंसिफ इस लिए कि फैसला सुनाकर उसका क्रियान्वयन भी करा दिए। रामभरोस का यह फैसला दुधारी तलवार की तरह था। औतार को अपनी औकात का पता चल गया कि दरखास देने से कुछ नहीं होने वाला और चौथी को भी मालूम हो गया कि रामभरोस हैं क्या चीज? खुद झगड़ा कराते हैं और मुंसिफ बन कर फैसला भी करते हैं। किसे पड़ी है कि देखे औतार की ऑखों को जिनमे स्वयंभू मुंसिफों के फैसले तैर रहे होते हैं’।
रुपया पैसा तो चौथी के पास भी है पर उससे का होता है, रुपया होने से ही कोई बड़ा नहीं हो जाता, बड़े हैं रामभरोस। जमीनदारी वाले सामंत हैं वे खुद झगड़ा लगवाते हैं और खुद ही उसका फैसला भी करते हैं। दारोगा सहपुरवा में अपना रूआब दिखाने आया था। उसे पता था कि अब पुराने जमाने वाले सामंत खतम हो चुके हैं। आज के समय का वही सरकारी सामंत है पर उसकी सामंती रामभरोस के रहते भला कैसे चलती? फेकुआ का कोला तो चौथी ने रामभरोस के कहने पर ही कटवाया था। दारोगा इस सच को जान पाता कि उसके पहले ही रामभरोस ने पंचायत कर दिया। तो ऐसे की जाती है सामंती जिसे रामभरोस ने किया था। सहपुरवा से जब दारोगा लौटा तब उसके हाथ में रामभरोस की जनप्रियता और रोब-दाब था। उसे ही नोट मानना था दारोगा को।
‘आज का दिन बेकार गया साला कुछ मिला नहीं, रामभरोसवा ने खुद पंचायत कर दिया’। रामभरोस को गरियाते हुए दारोगा सहपुरवा से थाने लौट गया। सहपुरवा से लौटते समय उसका हाथ खाली था और दिमाग भी।
'''‘जनता तो वाह वाह करना ही जानती है उससे
क्या मतलब कि कार्ययोजानांए क्या हैं और नारे क्या गढ़े गए थे?'''
फेकुआ का कोला लवा लेना अपराधिक मामला था। ऐसे अपराधिक मामले को भी जिस नाटकीयता से रामभरोस ने गॉव की आपसी पंचायत बना दिया, अद्भुत था, जैसे कुछ हुआ ही न हो। ऐसा तो गॉवों में होता रहता है, ऐसे मामलों में थाने की क्या भूमिका? किसी भी संगीन घटना को सामान्य घटना बना देने में रामभरोस को महारथ हासिल थी। समय को अपने अनुकूल कैसे बनाया जा सकता है कोई रामभरोस से सीखे। उन्होंने फेकुआ के कोला का धान औतार को लौटा कर चौथी गवहां को मुकदमे के लफड़े से बचा लिया। ऐसा करके रामभरोस ने चौथी गवहां का दिल भी जीत लिया। चौथी गवहां मानसिक रूप से रामभरोस के मानसिक गुलाम बन गए। उन्हें उनका गुलाम बनना ही था, उनकी हैसियत ही क्या थी। उन्हें पता है कि रुपया पैसा हो जाने से ही थाना थूनी से नहीं पार पाया जा सकता, उससे पार पाने केे लिए राजनीतिक ताकत भी चाहिए होती है जो उनके पास कभी थी ही नहीं और न है। वैसी ताकत के मालिक तो रामभरोस ही हैं सहपुरवा में।
पूरा विजयगढ़ जानता है कि गोटी बिछाने में रामभरोस का मुकाबिला नहीं है। इस मामले में वे आज भी बेजोड़ हैं, भले ही अंग्रेजों वाला जमाना नहीं है पर कानूनी व राजनतिक परंपरांए वही चल रही हैं एक तीर से दो निशाने वाली, कानून में भी तथा राजनीति में भी हर जगह एक तीर से दो निशाने लगाये जा रहे हैं। हुआ वही। चौथी गवहां को झटका मिलना चाहिए था कि रामभरोस बनना आसान नहीं है। रामभरोस ने तो पहले ही ताड़ लिया था कि चौथी गवहां, फेकुआ और औतार दोनों से नाराज हैं सो उन्होंने चौथी गवहां की समझ का लोहा गरम कर दिया था कि फेकुआ को कोला लवाय लो, सालों को तंग करो। रामभरोस का सुझाव चौथी को अच्छा लगा, गुस्सा उतारने के लिए फेकुआ का कोला लवाना ही ठीक होगा। फिर क्या था चौथी ने कोला लवाय लिया। रामभरोस के लिए यह था कि चौथी धीरे धीरे संपन्न होता जा रहा है उसे थोड़ा ही सही झटका मिलना चाहिए। झटका तभी मिलेगा जब किसी मुकदमें में फसेगा। फेकुआ के मामले में फसकर चौथी को झटका मिला भी। दारोगा को देखते ही चौथी पसीना पसीना हो गये थे, सुलह हो जाने के बाद ही वे सामान्य हो पाये थे।
औतार की पट्टे वाली जमीन का पट्टा खारिज कराने के लिए रामभरोस प्रयासरत थे। परगनाधिकारी के पास दरखास पड़ चुकी थी। उस पर रामबली लेखपाल की रिपोर्ट नहीं लग पाई थी, वह छुट्टी पर था। उसने छुट्टी बढ़ा ली थी और अपना ट्रांसफर भी करवा लिया था। नए लेखपाल ने चार्ज ले लिया था, दरखास पर उसे ही रिपोर्ट लगानी थी। उससे रामभरोस ने बात कर लिया था तथा वह राजी भी था। नया लेखपाल कुछ दबंग किस्म का आदमी था तथा कायदे कानून को अपनी जेब में रख कर चला करता था। ऐसे लोग रामभरोस के लिए अति प्रिय हुआ करते थे सो वह चारज लेते ही रामभरोस का प्रिय बन गया। उसने फटाका रिपोर्ट लगा दिया कि औतार के पट्टे वाली जमीन सार्वजनिक उपयोग की भूमि है तथा उक्त पट्टा सार्वजनिक हित में खारिज किया जाना आवश्यक है, जिससे गॉवसभा की अपूर्णनीय क्षति न हो। उसने रिपोर्ट लगाने में अपने दिमाग का कत्तई प्रयोग नहीं किया। गॉवसभा के प्रस्ताव में जो तथा जैसा लिखा था वैसी ही रिपोर्ट भी लगा दिया। लेखपाल की रिपोर्ट कम से कम गॉवों के मामलों में किसी माननीय राज्यपाल की रिपोर्ट से कम अहमियत नहीं रखती। गॉवों में कहा भी जाता है कि दो ही लोग तो होते हैं दुनिया में जिनके कलम में ताकत होती है, राजधानी में राज्यपाल और हल्के में लेखपाल। बीच की दुनिया तो ढोर डांगरों की होती है।
लेखपाल की रिपोर्ट लग जाने के बाद कानूनगो तथा तहसीलदार ने भी रिपोर्ट लगा दिया हालांकि तहसीलदार से रिपोर्ट लगवाने में रामभरोस को पसीना पसीना होना पड़ा। दरअसल वह कायदा कानून वाला आदमी था और जिधर से चलता था उधर की जमीन पर फूंक फूंक कर पैर रखता था पर उसके सामने दिक्कत थी कि उसका पाला रामभरोस जैसे घाघ से पड़ा था। रामभरोस ने भी उसे समझा दिया था कि कायदा कानून से मतलब तब होगा जब तुम जिले में रहोगे, तुम ऐसी जगह फेंक दिए जाओगे जहां कायदा कानून चलाने के लिए मौके ही नहीं मिलेंगे, बेकार में हाथ मलते रह जाओगे।
पट्टा खारिज कराने के बाबत रामभरोस की योजना पक्की थी। वे आश्वस्त थे कि उसे तो खारिज करा ही लेना है पर वे समय की प्रतिक्षा में थे। समय भी उनके आस पास ही किसी दोस्त की तरह खड़ा था। वह आ चुका था उनकी सहायता करने के लिए और वह समय था स्वास्थ्य मंत्राी जी के सहपुरवा में आने वाले दिन का। उस दिन ही पट्टा खारिजा वाले काम के बारे में परगनाधिकारी से कहना ठीक होगा। उस दिन तो जिले के आला अधिकारी उनके गॉव में उपस्थित रहेंगे ही।
रामभरोस जानते थे कि उनके सहयोग के बिना सौ आदमियों की नसबन्दी कराई ही नहीं जा सकती सो हर हालत में अधिकारी उनके दबाव में रहेंगे। नसबन्दी कैंप से रामभरोस को तो फायदा ही फायदा था। खर्चा सरकार का और नाम उनका। सो नसबन्दी कैंप की सफलता के लिए वे जी जान से सक्रिय हो गये थे।
वह दिन भी दूर नहीं रह गया जब सहपुरवा में नसबन्दी कैंप की तैयारी शुरू हो गयी। रोगियों के आपरेशन के लिए पांडाल की व्यवस्था होने लगी। काम चलाऊ अस्पताल के लिए पांडाल के घेरे वाला ही एक अलग कक्ष बनाया जाने लगा। युवक मंगल दल के कार्यकर्ताओं को भी इस काम में लगा दिया गया। अस्पताल के अलावा राजस्व कर्मचारियों में लेखपाल एवं नायब तहसीलदार को तो स्थाई रूप से व्यवस्था देखने व करने के लिए सहपुरवा में बिठा दिया गया। परगनाधिकारी की जीप अल्लसुबह ही सहपुरवा चली आती जो देर रात तक वापस होती। एक दिन तो उसका प्रबंध देखने के लिए माननीय जिलाधिकारी भी सहपुरवा में आ धमके। उन्हें पता था कि सहपुरवा में आने वाला मंत्राी केवल मंत्राी ही नहीं है, वह मुख्यमंत्राी का खासम खास भी है। वही दाहिना हाथ है मुख्य मंत्राी जी का। लखनऊ में उसकी बहुत ताकत है। वह अकेले नहीं चलता, पूरी सरकार अपनी जेब में रख कर चलता है। वह प्रधानमंत्राी जी का भी खासमखास है, दोनों जगहों पर कांग्रेस की ही सरकार है।
सभी जानते है ंकि दूसरे कार्यकर्ताओं का इस आयोजन से भले ही लाभ न हो पर रामभरोस का लाभ नहीं होगा ऐसा हो ही नहीं सकता। रामभरोस किसी न किसी तरह से इस कार्यक्रम के द्वारा भी अपना लाभ हासिल कर ही लेंगे। एक लाभ तो यही दिख रहा था कि औतार का पट्टा खरिज हो जाएगा अन्य लाभों के बारे में कुछ विशेष अनुमान नहीं था। रामभरोस को वैसे नसबन्दी वाले कार्यक्रम से नाम तथा यश सारा कुछ तो मिलने वाला ही था।
स्वतंत्राता संग्राम के दौरान भी रामभरोस अधिकारियों की ऑखों की पुतली बने हुए थे। अधिकारियों के जायज नाजायज हर काम में बढ़ चढ़ कर सहयोग दिया करते थे काम चाहे जैसा भी हो। जाने कितने सत्याग्रहियों व स्वतंत्राता संग्राम आन्दोलनकारी नेताओं को उस जमाने में रामभरोस ने पुलिस द्वारा पकड़वाया था जिसके लिए उन्हें इनाम भी मिला था। एक तरह से रामभरोस और अधिकारी दोनोें एक ही नस्ल का नाम है। अन्तर केवल इतना ही है कि अधिकारी वेतनभोगी होता है, प्रतियोगी परीक्षा पास किया होता है और रामभरोस जैसे लोग वेतनभोगी नहीं होते, सुविधाभोगी होते हैं, परीक्षा वाली प्रतियोगिता नहीं पास करते, जनलोकप्रियता की परीक्षा पास करते हैं। इसीलिए ऐसे लोग सरकार की हर योजना का लाभ लेने में माहिर होते हैं। सरकार तथा उससे जुड़े अधिकारियों से मधुर रिश्ता बनाने में रामभरोस कभी भी कमजोर नहीं थे। अंग्रेजों के जमाने में भी सरकार और अधिकारियों में उनका दखल था और आज भी है। रामभरोस का एक रूप दूसरा भी है जो जनता तथा क्षेत्रा के विकास के बाबत है। पहले भी रामभरोस ने तमाम ऐसे काम क्षेत्रा में करवाए हैं जिससे क्षेत्रा का लाभ हुआ है और आजादी के बाद भी उनके द्वारा करवाए गये तमाम काम बतौर उदाहरण हैं। यह सच है कि क्षेत्रा के विकास के लिए रामभरोस ने बहुत कुछ किया है और अपने हित के लिए भी, उससे कम नहीं किया है यानि दोनों हित एक दूसरे से गुंथे हुए हैं। यह मंत्रा उन्हें पता था कि क्षेत्रा का हित होगा तो उनका भी हित होगा। सो वे क्षेत्रा के हित के बहाने अपना भी हित साध लिया करते थे।
नसबन्दी कैंप की व्यवस्था हो रही थी। प्रचार भी किया गया था कि नसबंदी कराने वालों को जमीन आवंटित की जाएगी तथा प्रचार यह भी था कि जिन लोगों को पहले जमीन आवंटित की जा चुकी है अगर उन लोगों ने नसबन्दी का आपरेशन नहीं कराया तो उनके भूमि के आवंटन खारिज कर दिए जांएगे।
जिले में कोई ऐसा विभाग नहीं था जिनके लिए प्रशासन की ओर से निर्देश न जारी किए गये हों। लेखपाल, प्राइमरी स्कूलों के अध्यापक, अमीन, पंचायत सेवक, ग्राम सेवक जैसे तमाम ग्राम स्तर के कर्मचारियों को साफ निर्देश जारी किए गए थे कि वे अपने अपने कोटे की नसबन्दी कराएं अन्यथा उन्हें सस्पेन्ड कर दिया जाएगा। सिर्फ यही बात गोपनीय थी जिसे सारे कर्मचारी बहुत अच्छी तरह से जानते थे कि यह जो आदेश के पीछे छिपा हुआ तथ्य है उसका मतलब है सस्पेन्डगी? सो सभी कर्मचारी सतर्क और सावधान थे कि उन्हें किसी प्रकार की कोताही नहीं बरतनी है, नहीं तो उन्हें सस्पेन्ड कर दिया जाएगा। नौकरी चली जाएगी। फिर क्या खांएगे?
सारे कर्मचारी नसबन्दी कराने के निहित लक्ष्यों के प्रति सतर्क थे पर लक्ष्य बड़ा था जिसे पूरा कराना आसान नहीं था। दस दस आदमियों या औरतों की नसबन्दी कराना यह आसान काम न था। वे जानते थे कि रापटगंज के देहाती समाज में बच्चों के जन्म के प्रति दैवीय अवधाराणाओं की भूमिका बहुत अधिक है। लोग बच्चों के जन्म को भगवान का दिया हुआ उपहार मानते हैं, सो नसबन्दी कराना उनके लिए भगवान को नकारने जैसा होगा, भगवान का अपमान करना होगा फलस्वरूप देहात के रहने वाले लोगों में नसबन्दी के प्रति आकर्षण नहीं था। नसबन्दी कराना वे पाप समझते थे। आकर्षण तभी हो सकता था जब उन्हें विशेष प्रलोभन दिया जाता, वैसा किया भी गया। जमीन देने की बात एक तरह से प्रलोभन ही थी और जमीन छीनने की बात भी प्रलोभन से ही जुड़ी हुई थी। कर्मचारी जानते थे कि नसबन्दी का केस न देने पर उनका स्थानांतरण ही नहीं उन्हें सस्पेन्ड भी किया जा सकता है। सरकारी स्तर से किए जाने वाले प्रयास हर तरीके से किये जा रहे थे। उस प्रयास में उचित अनुचित का भेद नहीं रह गया था। केवल यह था कि निर्धारित लक्ष्य के अनुरूप नसबन्दी कराना है, फलस्वरूप गॉवों में आतंक जैसा माहौल उपस्थित हो गया था, सभी आतंकित थे। वे भी जिन्हें जमीन मिलनी थी तथा वे भी जिन्हें जमीन मिल चुकी थी। इतना ही नहीं आतंकित तो वे लोग भी थे जिनके अपने लोग सरकारी नौकरी में थे तथा छोटे छोटे पदों पर थे।
नसबन्दी के तारगेट ने एक और काम किया कि उसमें से उम्र का मानक अपने आप समाप्त जैसा मान लिया गया और ऐसे लोगों की नसबन्दी को भी शामिल कर लिया गया जिनसे बच्चे जनमने की दूर दूर तक की भी संभावना नहीं थी। आखिर कर्मचारी करते क्या, उन्हें तो लक्ष्य का कागजी कोटा पूरा करना ही था। नसबन्दी करने वाले डाक्टर भी जानते थे कि बूढ़ों की नसबन्दियां गलत कराई जा रही हैं पर वे क्या करते, उन्हें भी तो अपना कोटा पूरा करना था।
‘बखरियों के अन्तःपुरों की लीलाओं को
हूबहू कथाओं में उकेरना...अरे ना भाई ना संभव नहीं’
विद्यालय बन्द हो जाने पर विभूति बनारस से घर आ चुका था। वह भी हमउम्र लड़कों के साथ युवक मंगल दल के कार्यक्रमों में हिस्सा लेने लगा था। गॉव के सभी लड़के जिनकी उम्र पन्द्रह साल से ऊपर तथा पचीस साल से कम थी सभी युवक मंगल दल के सदस्य बन चुके थे। प्रसन्नकुमार ने ही गॉव में युवक मंगल दल का गठन किया था। वह शोभनाथ पंडित का लड़का था। सहपुरवा गॉव का युवक मंगल दल अन्य गॉवों के युवक मंगल दलों से कई मामलों में भिन्न था। प्रसन्नकुमार हालांकि पढ़ने लिखने में तेज नहीं था पर खेल कूद, बातचीत और अन्य व्यवहारों में काफी निपुण था। अन्तर्विद्यालयी खेल-कूद प्रतियागिताओं में उसे कई बार पुरस्कृत भी किया जा चुका था। एक बार तो जनपद मीरजापुर के सर्वोत्तम खिलाड़ी का पुरस्कार भी उसे मिल चुका था। प्रसन्नकुमार और विभूति में दोस्ती थी जबकि उनके पिताओं में किसी भी तरह का व्यावहारिक रिश्ता नहीं था। वे एक दूसरे के घोर विरोधी थे, एक दूसरे को देखना तक उन्हें पसंद नहीं था। गॉव आने पर विभूति का अधिकांश समय प्रसन्नकुमार के साथ ही बीतता था। दोनों साथ साथ रहते थे तथा युवक मंगल दल के कार्यक्रमों में भाग लेते रहते थेे, कार्यक्रमों का संचालित करवाया करते थे।
जब से युवक मंगल दल से प्रसन्नकुमार जुड़ा है तब से लेकर अब तक एक भी कार्यक्रम में रामभरोस शामिल नहीं हुए नहीं तो पहले वे ही खेल कूद का समापन तथा मिष्ठान्न वितरण आदि किया करते थे। प्रसन्न्कुमार की मंगल दल में सक्रियता रामभरोस को फूटी ऑख से भी न सुहाती थी।
प्रसन्नकुमार भी थोड़ा ऐंठ कर चलने वाला था। पिछले साल के पन्द्रह अगस्त के कार्यक्रम में भी इसीलिए रामभरोस को नहीं बुलाया गया था वैसे भी प्रसन्नकुमार उन्हंे नहीं बुलवाता। प्रसन्नकुमार को लगता कि रामभरोस गॉव के हित में कार्य नहीं कर रहेे हैं। उसी साल प्रसन्नकुमार रामभरोस से लड़ गया था और जिद्द पर अड़ गया था कि गॉव के पोखरे से वे अपना पंपिग सेट हटालें तथा पोखरे से पानी निकालना बन्द कर दें। उसका कहना था कि आज तो हर कूंए में पानी है पर गर्मी आते ही सारे कूंए सूख जांएगे। पोखरे में पानी रहेगा तभी कूंआ नहीं सूखेंगे। वैसा ही हुआ जैसा प्रसन्नकुमार चाहता था। रामभरोस को पोखरे के भीटे से पम्पिंग सेट हटवाना पड़ा। राभरोस की कुछ आदतें प्रसन्नकुमार को अच्छी नहीं लगतीं थीं जैसे उनकी बखरी पर जाओ तो दरी या टाट पर बैठो, यह करो वह न करो। उनके बारे में वह अपनी मां से बहुत कुछ सुन चुका है सो वह उनसे दूरी बना कर चलना ठीक समझता है और चलता भी है।
रामभरोस ने विभूति को कई बार रोका था और सहेजा था कि वह प्रसन्नकुमार के साथ न रहा करे पर विभूति मानने वाला नहीं था। वह जब भी गॉव पर होता प्रसन्नकुमार के साथ ही रहता। विभूति को एक बार रामभरोस ने समझाया भी था.कृकृ’विभूति सोच समझकर काम किया करो, अब तूं दुधमुहें नहीं हो, गॉव में किसके यहां जाना है, किसके यहां उठना बैठना है, इसे समझा करो। तुमको पता होना चाहिए कि हमरे बखरी से गॉव में किसी के यहां कोई नहीं आता जाता। जिसको मिलना होता है वह हमरे पास आता है बखरी पर।’
रामभरोस विभूति को समझा रहे थे और वह गूंगा तथा बहरा बना हुआ था। वह जान बूझ कर रामभरोस की बातें नहीं सुनना चाह रहा था। रामभरोस ने ताड़ लिया फिर तो डाटने लगे विभूति को....कृ
‘हम तोके बताय दे रहे है गॉव में कहीं गए तो ठीक नाहीं होगा। गॉव के लफंगों के साथ रहने में तुझे का मिलता है? घूमने का मन हो तो रापटगंज चले जाओ, वहां जाकर साहब, सूबों से मिला करो। कभी कभी शिकार खेलने के लिए निकल जाया करो। यह जो युवकमंगल दल है, ई कौन दल है यार? बड़े आदमियों के साथ संपर्क जोड़ो, चुनाव लड़कर एम.एल.ए., एम.पी. बनो ई सब का कर रहे हो।’
न चाहते हुए भी रामभरोस की सारी बातें विभूति को सुननी पड़तीं यद्यपि उन बातों का असर विभूति पर कुछ भी नहीं पड़ता। विभूति वैसे भी फक्कड़ और मस्त मौला था पता नहीं कैसे सभी लोगों में वह अपने काम लायक चीजें खोज लिया करता था। उसने प्रसन्नकुमार में अपना मित्रा ढूॅढ लिया था। प्रसन्नकुमार और विभूति दोनों बचपन के दोस्त हैं तथा दोनों बाल सुलभ कामों के एक दूसरे के साक्षी और भोक्ता भी हैं। सो दोनों एक दूसरे से कैसे अलग हो जाते? रामभरोस माथा पीटें या और कुछ करें। दोनों को अच्छे बुरे की पहचान थी तथा दोनों उन साजिशों से अलग थे जो आदमी और आदमी के बीच दूरियॉ पैदा करती हैं।
विभूति का मन तो पढ़ाई में भी नहीं था पर रामभरोस की डर से वह बनारस पढ़ रहा था। वह जानता था अपनी प्रतिभा के बारे में। उसे सरकारी नौकरी मिलेगी नहीं और मिल भी जाए तो उसे करना ही नहीं है। वह यह भी जानता था कि अगर पढ़ाई नहीं करेगा तो उसके लिए संकट हो जाएगा कायदे की जगह पर उसका बियाह नहीं हो सकेगा। उसे मालूम था कि अच्छे घर में उसका बियाह हो जाए इसीलिए उसके पिता उसे पढ़ा रहे हैं। शहर में रौशनी थी, खूबसूरती थी, चमक थी तथा खुली दुनिया थी उसे वह दुनिया पसंद थी पर उसे पढ़ाई कत्तई पसंद नहीं थी।
विभूति के लिए प्रसन्नकुमार अपने सगे भाई से बढ़कर था। वह उसमें अपना दोस्त ही नहीं अपना भाई भी देखता था। वह जानता था कि प्रसन्नकुमार अपने लिए कुछ नहीं करता, वह पहले गॉव देखता है और गॉव का काम देखता है इसी लिए वह प्रसन्न कुमार के साथ रहता भी है। उसने देखा है कि प्रसन्नकुमार की ऑखों में सहपुरवा तैरता रहता है, कोई चाहे तो देख ले उसकी ऑखों में सहपुरवा को तैरते हुए। हालत यह है कि गॉव में रहते हुए दोनों एक दूसरे को न देखें या न मिलें तो उनका खाना नहीं पचता है। रामभरोस के समझाने बुझाने का असर विभूति पर नहीं पड़ा। पड़ता भी काहे, प्रसन्नकुमार तो रामभरोस की सोच का प्रतिलोम था, एकदम विरोधी। विभूति की चाहना थी कि गॉव के सभी लोग एक दूसरे को प्यार करें, सभी एक दूसरे की भलाई करें पर रामभरोस तो गॉव के लोगों को आपस में हरदम लड़ाया करते थे, वे गॉव के आपसी भाई-चारे को भी नष्ट करते रहते हैं। वे स्वभावतन विभूति की सोच के विरोधी थे। सो विभूति उनसे दूरी बना कर चलता था।
सहपुरवा में ऐसे लोग कम नहीं थे जो रात को दिन की तरह बनाना चाहते थे। उन लोगों की नजर फेकुआ की मेहरारू पर थी तथा उनकी भी जिनकी आंखों में रंगीन बदरियां नाचा करती थीं। गॉव के ऐसे लोग अपनी अपनी नजर से फेकुआ की मेहरारू को देख रहे थे। कुछ ही समझदार लोग थे जिनके लिए वह बहू, बिटिया या पतोहू थी। गॉव में जिन्हें मनचला होने का गौरव था वे तो फेकुआ की मेहरारू को खड़े खड़ लील जाना चाहते थे। उन मनचलों में रामदयाल भी थे जो रामभरोस के कारिंदा थे। वे रामभरोस के लिए गॉव में या गॉव के बाहर तितलियों को फसाया करते थे। एक दिन रामदयाल ने सुमिरिनी के बारे में रामभरोस को बताया था..कृ
‘सरकार फेकुआ के मेहरारू को आपने देखा है कि नाहीं, बहुत जानमारू है सरकार!’
उखड़ गए रामभरोस रामदयाल पर....कृ
‘हमसे ई का बता रहे हो, का हम गॉव में जा कर फेकुआ की मेहरारू देखें, इहै काम रह गया है हमारा गॉव की गली गली घूमना। लाज शर्म धोकर पी गए हो का? तूं काहे के लिए है हरामजादा, हरामी का माल खाने के लिए ही का?’
रामभरोस ने रामदयाल को फटकारा। रामदयाल को रामभरोस की फटकार मिलती ही क्योेंकि रामदयाल ही तो तितलियों को फसाने का विशेषज्ञ था। वह जरूरत पड़ने पर राभरोस के लिए औरतों का इन्तजाम किया करता था। रामभरोस थे तो बहुत कुछ, बहुत कुछ अमानवीय जैसा करने में माहिर भी थे पर मजनू नहीं थे जो सुमिरिनी के ेइश्क में फस जाते। वे गली गली घूमने व पनघट पर बैठ कर मुहब्ब्त का गाना गाने वालों में भी नहीं थे। वे माशूका को निहारने के लिए खिड़कियॉ खोलकर रखने वालों में भी नहीं थे। वे रामभरोस थे, उनका औरतों से नाता-रिश्ता भी रामभरोनुमा था। रामभरोस औरतों का उपयोग करते, उनका उपयोग केवल बिस्तरे पर पसर पाता उससे बाहर निकलने पर हथकड़ी लग जाती। रामभरोस जब ऊब जाते तब औरत या लड़की उनको कूड़ा की तरह दिखने लगती फिर वे उसे कहीं फेंकवा देते। वे अपनी पीठ पर रीतिकाल की कविता लाद कर चलने वालों में नहीं थे। वे आधुनिक थे यूज एण्ड थ्रो वाले। वे अपने इस आचरण का साबित भी करते कि
‘औरतें तो होती ही हैं बिस्तरों पर लेटाने, सहलाने, गुदगुदाने के लिए’ भले ही उनके विमर्श पर लोग थूंके पर रामभरोस तो चूमते थे अपने विमर्श को।
रामभरोस ने वैसे कभी भी सुमिरिनी को देखा नहीं था फिर भी मान कर चल रहे थे कि लोग झूठ नहीं बता रहे सुमिरिनी के बारे में। उनकी भोगलिप्सा सुमिरिनी के प्रति बढ़ती जा रही थी। उन्हें लगने लगा था कि बासी होने के पहले ही उन्हें सुमिरिनी हासिल हो जानी चाहिए। बियाह के बाद कुछ दिनों तक सुमिरिनी फेकुआ के घर में ही परदे में बनी हुई थी पर एक मजूरिन कितने दिनों तक परदे में रह सकती थी। घर से बाहर निकल कर मजूरी के लिए उसे तो जाना ही था। वह घर में रह रही थी ऐसा रिवाज के कारण था। औतार चाहते थे कि सुमिरिनी कुछ दिनों तक घर में ही बैठी रहे, अभी नई नवेली है, कहां जाएगी जॉगर खटाने। पर दिक्कत थी कि बिना बनी मजूरी के घर-खर्च कैसे चलता, चूल्हा कैसे जलता, थालियों में कैसे रोटियॉ पड़तीं? मजबूरन सुमिरिनी को घर से बाहर काम पर निकलना पड़ा।
वह काम पर गई। सबसे पहिले वह शोभनाथ पंडित के काम पर गई। उसे घर-गृहस्थी, गोबर, गोइठा, लेवरन आदि का काम तो आता ही था स्वाभाविक ढंग से वह काम करने लगी। प्रसन्नकुमार की मां से वह खूब बतियाती तथा सुमिरिनी में वे रूचि भी लेतीं। वह काम पर जाने लगी है और उसका ही नहीं, उसके घर का गुजारा भी चलने लगा है। फेकुआ तथा औतार तो काम कर ही रहे थे। घर में जब चार चार कमाने वाले हों फिर खाने की क्या दिक्कत? वैसे भी एक मुह के साथ दो हाथ होते हैं, एक मुह का खाना दो हाथ भला कैसे नहीं जुटा पाएंगे? आखिर कितना खाएगा आदमी? बस काम मिलना चाहिए साथ ही साथ मजूरी भी।
अपनी ससुराल के बारे में सुमिरिनी को जानकारी नहीं थी। भला वह कैसे जानती सहपुरवा के बारे में वह नई नवेली थी। कुछ दिनों बाद उसे सुगिया के बारे में मालूम हुआ कि सुगिया के साथ रामभरोस ने कुकर्म किया था। बिफना की औरत से उसकी पटरी हो चुकी थी। दोनों हम उमर थीं तथा दूसरी बातों में भी उनमें तमाम समानताएं थीं। बिफना की औरत ने उसे गॉव के लोगों के बारे में बताया था कि यहां रहने वाले लोगों की आंखें नाचा करती हैं, वे गदराई देह पर ही जाकर जमती हैं। सुमिरिनी को जान पड़ा कि उसकी ससुराल और नैहर में कुछ भी फर्क नाहीं है। दोनों जगहों पर ऑखें नचाने वाले ऑखें नचा रहे हैं, हर जगह एक ही जैसे लोग हैं, देह से खेलने तथा देह पर कूदने वाले। सुमिरिनी और फेकुआ की मेहरारू का सहेलियाना व्यवहार उन दोनों के लिए तो ठीक था ही, उधर फेकुआ और बिफना के लिए भी ठीक था। वे दोनों भी तो दोस्त ही थे, एक दूसरे की सांसें पीने वाले।
औतार व सुक्खू दोनों परिवारों के लोगों ने चौथी एवं रामभरोस के काम पर न जाने की कसमें खा रखी थीं कि उनके काम पर किसी हालत में नहीं जाना है। भले ही भूखे मर जाना पड़े पर रामभरोस के काम पर नहीं जाना है तो नहीं जाना है। चौथी गवहां को जेठ दशहरा के पहिले ही औतार ने जबाब दे दिया था। लेन-देन और कर्जे के बारे में औतार ने साफ साफ इनकार कर दिया था कि वे किसी भी हाल में नहीं लौटाने वाले। गॉव में चौथी और रामभरोस के अलावा जिस किसी के यहां काम मिलता वहां फेकुआ और बिफना दोनों डट जाते और मन लगा कर काम करते। उन दोनों को मउज भी आता तथा उन्हें बनिहारी में अधिक मजूरी भी मिलती। हलवाही में तो केवल चार सेर ही मिलता है जबकि बनिहारी में पांच सेर मिलता है। सेर भर धान का फायदा होता है। बनिहारी करने में एक फायदा और था, वह था मान-सम्मान का। नया मालिक प्यार से बतियाता और हर तरह की मदत भी करता। वैसे यह भी था कि जब शोभनाथ के पास काम नहीं होता था तभी वे किसी दूसरे के पास काम करने के लिए जाते थे नहीं तो शोभनाथ के यहां ही काम करते थे।
औतार चौथी का कर्जा चुकता करने में बेइमानी नहीं करना चाहते थे। पर चौथी से नाराज थे औतार। चौथी ने रामभरोस की साजिश से फेकुआ का कोला लवा लिया था। साजिश नहीं होती तो फेकुआ का कोला चौथी कैसे लवा लेते? इतना ही नहीं औतार जब से कुछ समझने के काबिल हुए हैं तब से देख रहे हैं कि रामभरोस उनके साथ कुछ न कुछ षडयंत्रा करते रहे हैं। औतार कभी किसी का कर्जा चुकाना नहीं भूलते, पाई पाई जोड़ कर कर्जा सूद समेत चुकाते रहे हैं।
एक दिन रामदयाल कारिन्दा ने फेकुआ से काम करने के लिए कहा था कि दंवरी पर आ जाना। अखइन चलाना है पर फेकुआ ने इनकार कर दिया था कि वह उनका काम नहीं करेगा। वह किसी भी हाल में रामभरोस के काम पर नहीं जाएगा चाहे जो हो जाए।
रामदयाल के बैठका का काम चल रहा था हरिजन बस्ती के ढेर सारे मजूर उनके काम पर लगे हुए थे। रामदयाल चाहता था कि फेकुआ और बिफना भी काम पर आयें पर किसिम किसिम की लालच देने के बाद भी दोनों उनके काम पर नहीं गए। वैसे ऐसा नहीं है कि गॉव के सभी मजूरे रामभरोस के काम पर नहीं जाना चाहते थेे, कुछ तो खासतौर से जाना चाहते थे और वे रामभरोस का काम छोड़ते ही नहीं थे। जिन लोगों ने रामभरोस के भीतर के बैठके का बैठका देख लिया है वे कभी उनका काम छोड़ ही नहीं सकते थे। उस बैठका के भीतर क्या नहीं है, दारू है, शिाकार है, रुपया है, अच्छे तरह का खाना पीना है, साड़ी ब्लाउज, कपड़ा लत्ता सारा कुछ तो है बैठका के अन्दर वाले कमरे में। रामभरोस के बैठका में एक बार जो बैठ गया बैठ गया, लद गया उसके दिल और दिमाग पर रामभरोस का दिया हुआ सामान, फिर तो वे वैसा ही करते थे जैसा रामभरोस उनसे करवाना चाहते थे।
रामभरोस मजूरों सेे क्या करवाना चाहते यह उन्हें भी पता होता। वे जानते हुए भी वही करते जो रामभरोस उनसे करवाना चाहते। वे भूल जाते कि उनसे बहुत बड़ी कीमत वसूली जानी है। लड़की, पतोहू चाहे जो भी हो उन्हें रामभरोस के हवाले सौंपना होगा। यह सच जानते हुए भी वे अनजान बने रहते और अन्दर वाले बैठका में आनन्दित हो रहे होते। उधर दूसरी ओर रामभरोस अपना नया स्वर्ग बना रहे होते हैं। बैठका के भीतर वाले बैठका में।
रामभरोस के काम पर हर तरह की सहूलियतें हुआ करतीं थीं पर ये सहूलियतें कुछ खास लोगों के लिए ही होती थीं। काम करने वालों का अच्छा खासा जमघट भी लगा रहता था उनके यहां। वहां किसिम किसिम के लोग होते थे। कुछ पटे पटाए होते थे तो कुछ पटाये जाने के लायक होते थे। पर वही होते थे जिनके घर में जवानी होती थी, जवानी किसी की भी, बहिन की, बहू की, बिटिया की पर जवानी हो, खिली खिली, गुद गुदी उगाने वाली। रामभरोस देह के मामले में समाजवादी किस्म के थे। देह के मामले में वे छूत अछूत का भेद भी न करते थे न ही रिश्ता देखा करते थे कि गॉव के नाते वह का लगती है उनकी? वे केवल देह का उतार चढ़ाव और उसका गढ़न ही देखा करते थे चाहे रिश्ते में कुछ भी लगती हो किसी भी जाति बिरादरी की हो।
रामभरोस रिश्तों से बाहर के आदमी हैं। वे नहीं जानते कि रिश्तों के आधार पर लोग एक दूसरे को जानते पहचानते हैं। रिश्तों के मामले में जाति-धर्म नहीं चलता। जुम्मन को गॉव के बाभनों, ठाकुरों, अहीरों आदि जाति के लड़के चाचा बोलते हैं तो मुसलमान लड़के औतार को दाऊ बोलते हैं। मदारन चुड़िहारिन गाव भर के लड़कों की चाची लगती हैं। पर रामभरोस के लिए औरतों व लड़कियों के मामले में कोई नाता रिश्ता नहीं था। वे रिश्तों से बाहर की कोई चीज हैं हवा में लहराने वाली चीजों की तरह।
'''‘मुक्त समय की मुक्त कथा का न कोई नायक
होता है न कोई नायिका। वहां तो समय ही नायक
और नायिका की भूमिका में होता हैकृकैसे? आइए देखते हैं’
'''
सुमिरिनी शोभनाथ पंडित के काम पर गई थी। एक दिन अकेली ही सुमिरिनी काम पर से अपने घर लौट रही थी। शोभनाथ पंडित के ओसार का लेवरन करते करते वह थक चुकी थी। उसे तुरंत आराम करना था वैसे भी वह महीने से थी। वह रास्ता चलने में थी कि रामदयाल कारिन्दा मिल गया।
‘कौन जा रही है रे! अरे, सुमिरिनी तूं है का रे! कहां काम कर रही है रे! आज कल’
बहुत ही आशिकाना ढंग से रामदयाल ने सुमिरिनी से पूछा। सुमिरिनी थी कि बिना किसी प्रतिक्रिया के चुपचाप रास्ता चलने में थी उसके पीछे पीछे रामदयाल कारिन्दा बोंग लिए हुए चल रहे थे। सुमिरिनी के चुप रहने पर रामदयाल ने उसे दुबारा छेड़ा....कृ
‘नाहीं सुन रही का रे! हम भी आदमी ही हैं कोई जिनावर नाहीं हैं कि तूं हमसे लजा रही है। काहे लजा रही है रे, एक दो दिन लजाया जाता है कि हमेशा, रहना तो गॉवै में है।’
इस बार भी सुमिरिनी चुप थी तो चुप थी। वह समझ रही थी कि रामदयाल काहे उससे बतियाना चाह रहा है? वह आगे बढ़ती चली जा रही थी, उसने अपना एक कदम भी नहीं रोका। वह लगातार चलती रही अपने घर की तरफ बस रास्ता ही उसका चलना न बन्द कर दे।
रामदयाल को नहीं पता था कि फेकुआ भी सुमिरिनी के पीछे पीछे आ रहा है। फेकुआ कहीं दीख भी नहीं रहा था। सुमिरिनी तो जानती थी कि फेकुआ उसके पीछे पीछे आ रहा है। भले अन्धेरा हो रहा है तो का हुआ? का बिगाड़ लेगा रामदयाल। अंधेरा घिरता जा रहा था। रामदयाल तो निश्चिंत थे कि उनकी बातें कोई नहीं सुन रहा, न ही उन्हें कोई देख रहा जबकि फेकुआ ने रामदयाल की बातें सुन लिया था और वह रामदयाल के करीब भी आ चुका था।
सुमिरिनी को तो कुछ बोलना ही नहीं था। उसे रास्ता चलना था तो चलना था। वैसे भी चुप रहने की आदत उसने नैहर से ही डाल ली थी। वह जानती थी कि बोलने का मतलब खुद को खोलना भी लोग लगा लेते हैं। सो न बोलो, चुप्प रहो और चुप्पी में डूब जाओ जैसे कुछ सुनाई ही न दे रहा हो। चुप्पी ने कई बार उसकी मदत भी किया है। फेकुआ बीच में ही बोल पड़ा....कृ
‘का हो कारिन्दा साहेब, तोहसेे ई काहे लजाएगी हो। तोहसे मेहरारू लजाएंगी तो काम कैसे होगा? मेहरारून के सेन्हुर, टिकुली, साड़ी, बिलाउज सब चाहिए ही चाहिए। वे लजाएंगी तो उन्हें उनकी जरूरत का सामान कौन देगा, उन्हें बिलाउज कैसे मिलेगा, टिकुली कैसे मिलेगी। हम तोहके बता रहे हैं कि एकरे संगे सूतना हो तो हमरे घरे चलिए और सूत लीजिएगा रात भर।’
रामदयाल को नहीं मालूम था कि फेकुआ भी पीछे पीछे आ रहा है। वह तो अंधेरा देख कर सुमिरिनी से बोलना चाहता था, वैसे भी उसने अगल बगल देख भी लिया था पर उसे उस समय उधर कोई नहीं दिखा था। रामदयाल चकरा गया उसने सफाई दिया....जो माफी जैसा था।
‘नाहीं यार फेकुआ! अइसन कउनो बात नाहीं है, तूं उलटा काहे बूझ रहे हो। गांये घरे के बिटया बहिन संगे भला हम बुरा सोचेंगे। हम तो एके समझाय रहे थे कि जमाना बहुत खराब है रात में अकेली निकलना ठीक नाहीं होता है।’
रामदयाल की बनावटी बातें सुन कर फेकुआ को गुस्सा आ गया। उसकी समझ में आया कि वह रामदयाल को वहीं गिरा कर खूब मारे-पीटे और छाती पर चढ़ बैठे। हड्डी पसली तोड़ कर बराबर कर दे पर वह विवश था वैसा नहीं कर सकता था। उसे मालूम था कि अगर उसने वैसा कर दिया तो उसका बपई उसे इस बार तो घर से ही निकाल देगा। बपई के जीते जी रामदयाल से मारपीट कौन कहे वह तूं, तूं, मैं, मैं भी नहीं कर सकता। उतना ही कर सकता है जितना उसके बपई चाहें। फिर भी वह अपने आप को कितना रोकता....
‘देखिए कारिन्दा साहब! आपन आदत सुधार लीजिए। जान लीजिए कि सुमिरिनी हमार मेहरारू है। ओकरे संघे अगर कुछ एहर ओहर करेंगे नऽ तो हमसे बुरा कोई नाहीं होगा।’
मुसुक ऐंठते हुए फेकुआ एक ही सांस में अपना गुस्सा उगल गया। हालांकि रामदयाल को बहुत बुरा लगा कि हरिजन का लड़का ऐसा बोल रहा है। धमकिया रहा है, इस साले की इतनी हिम्मत पर करते क्या? उनके कंधे पर टंगा बोंग इस समय किसी काम का नहीं था। अगर थोड़ा बहुत भी वे अनाप सनाप करते तो फेकुआ उन्हें पटक कर लतिया देता। और गोड़ हाथ तोड़ देता अलग से। सो वे चुप रहना और समय को टालना ही ठीक समझ कर खिसक लिए, फेकुआ से कुछ नहीं बोले।
रामदयाल जानता था कि सुमिरिनी को नजदीक लाने का तरीका दूसरा है। जाने कब से उस तरीके को वह सहपुरवा में आजमाता रहा है और उस तरीके में कहीं से भी उसे खोट भी नहीं दिखता। लड़ाई झगड़े से कुछ भी हासिल नहीं होता इससे अच्छा तो वही तरीका है। साड़ी, रुपया पैसा तथा दूसरे तरह के सामानों को देने वाला। आखिर कितनी बार सुमिरिनी इनकार करेगी, किसी न किसी दिन तो रुपये पैसे के जाल में फसेगी ही। औरतें भी जोर जबरदस्ती पसंद नहीं करतीं। वे चाहती हैं कि उन्हें कोई प्यार से सहलाए दुलारे और रुपया उनकी देह पर बिछाए। देह पर थिरकते रुपयों की माया से अलग हो जाना कुछ ही औरतों के वश का होता है। देह का क्या है उस पर रुपया नचाओ देह नाचने लगेगी। बस रुपया नचाने की कला आनी चाहिए। जितने कलात्मक ढंग से रुपया नाचेगा औरत भी उतने ही कलात्मक ढंग से नाचेगी। औरत नाच गई तो समझ लो उसका मन नाच गया फिर तो वह खुद को खुला छोड़ देगी। जैसे चाहो उसे वॉचो, उसके मन के किसिम किसिम रागों को अलापो या उसमें गोते लगाओ।
कुछ देर में रामदयाल बखरी पर आ गया। बखरी पर रामभरोस अपने मूड में थे वैसे भी वे मूड में तब हुआ करते थे जब दारू पी लिया करते थे। उस समय उनकी गंभीरता टूट जाती थी फिर तो वे किसी ब्लू फिल्म का पात्रा बन जाते थे। रामदयाल ने रामभरोस का मूड ठीक देख कर सारा किस्सा बता दिया कि कि आज उनसे फेकुआ अकड़ गया। रामदयाल की बातें सुन कर रामभरोस गरज उठे....कृ
‘ठीक बोल रहे हो रामदयाल! फेकुआ साले का दिमाग खराब हो गया है। मुसुक ऐंठकर बतियाता है। हमरे बैठका पर काम कर रहा है कि नाहीं।’
‘नाहीं सरकार! ऊ ससुरा काम पर नाहीं आ रहा है, तीन चार बार तो हमने ओसे कहा भी था।’ रामदयाल ने बताया रामभरोस को।
रामभरोस गंभीर हो गए, लगा दारू का नशा उतर रहा है।
‘ई सब तोहसे नहीं बनेगा, हमही को कुछ करना होगा। जोतिया के माई को आज बुलाओ, हम ओसे बात करना चाहते हैं। सुमिरिनी को वह किसी भी तरह से पटा लेगी। हां तुम एक काम और करना औतरवा से बोल देना कि सरकार बइठका पर काम करने के लिए बुलाए हैं।’
रामदयाल को सहेज कर रामभरोस बखरी के अन्तःपुर की तरफ चले गये। ष्शायद फिर से दारू की घंूट पीनेे के लिए।
रामदयाल का प्रसंग रास्ते पर उठा था वहीं दफन हो गया। फेकुआ और सुमिरिनी दोनों रास्ता चलने में थे। वे दोनों रास्ता देखते हुए चल रहे थे तो रास्ता भी उन दोनों को देख रहा था। फेकुआ के लिए वह रास्ता अजाना नहीं था पर सुमिरिनी के लिए तो अजाना ही था, एकदम नया। अजाने रास्ते पर चलते हुए भी सुमिरिनी के पैर संयत थे, डगमगा नहीं रहे थे। वैसे रास्ते तो होते ही हैं देखने और चलने के लिए। वे दोनों रास्ते पर चल भी रहे थे पर फेकुआ तो वह रास्ता देखना चाहता था जो सुमिरिनी के दिल तक जाता था। पता नहीं सुमिरिनी उस समय दिल तक जाने वाले रास्ते के बारे में गुन रही थी कि नहीं जिसके बारे में फेकुआ गुन रहा था। फेकुआ ने सुमिरिनी को देखा। सुमिरिनी का चेहरा आकर्षक व लुभावन चमकों से घिरा हुआ था। फेकुआ चकरा गया, ऐसी चमक तो उसने सुमिरिनी के चेहरे पर कभी देखा ही नहीं था। सुहागरात वाली चमक तो इन्द्रधनुषी रंगों वाली थी, यह तो दूसरे ढंग की चमक है। वह चकरा गया क्या औरतें रोज नए चमकों को सिरजती रहती हैं?आकर्षक और मन को खींचने वाली। उसे इन्हीं चमकों के सहारे सुमिरिनी के दिल तक पहंुचना चाहिए। उसका दिल भी तो चेहरे वाली चमकों की तरह चमक छोड़ता होगा। फिर उसकी ऑखों की किरणें स्वतः रंगीन हो गईं जिनमें सुमिरिनी तैरने लगी। फेकुआ ने सुमिरिनी को छेड़ा...
‘रामदयाल तोहें काहे छेड़ रहा था मालूम है, तूं देखनहरू है ही जो तोहें देख लेगा उसका मन बहक जाएगा। रामदयाल बहक गया होगा।’
सुमिरिनी को देख कर रामदयाल बहका था कि नहीं पर फेकुआ तो बहक ही गया था। पर वह जानता था कि उसका बहकना केवल कमरे के भीतर तक ही उचित है, बाहर नहीं। सुमिरिनी को वह बाहर देख कर नहीं बहक सकता जिस तरह कमरे के भीतर बहक सकता है। कमरे के भीतर वाली बहक को दुनिया ठीक मानती है बाहर की बहक को नहीं। पर फेकुआ बहक चुका था पर उसे पता था कि हक और बहक के बीच फासला होना चाहिए। उस फसले को मिटा देना गलती होगी। वैसे फासला भी कितना था, कुछ ही समय का, उतनी ही देर का फासला था जितनी देर में दोनों घर पहुंच जाते। फेकुआ सुमिरिनी से कुछ नहीं बोला, जो बोलना था, रास्ता चलते समय उचित नहीं था सो वह जल्दी जल्दी घर की तरफ बढ़ने लगा। सुमिरिनी भी पीछे पीछे थी। दोनों रास्ता तय करने में थे। यह रास्ता तो कुछ देर का ही था, तय हो जाएगा पर दिल तक पहुंचने वाला रास्ता उनसे दूर था। उसी रास्ते पर उन्हें बहुत दूर तक जाना था जहां दोनों एक में विलीन हो जाते। विलीनीकरण के बाद फेकुआ न फेकुआ रह जाता और सुमिरिनी न सुमिरिनी रह जाती, वहां तो केवल प्यार की गीतमय युगलबन्दी होती, तन और मन की लयवद्ध रागों वाली।
रात आई, तमाम तरह की प्यास ले कर, आजादी ले कर। फेकुआ अपने कमरे में था, बाहरी फुसफुसाहटें कमरे की दीवारोेें को पार नहीं कर सकती थीं। वहां फेकुआ था और सुमिरिनी थी, उनकी कल्पनांए थीं, उससे जुड़ी उम्मीदें थीं और ढेर सारा एकांत था जो सतर्क निगरानी कर रहे थे दोनों की ताकि दोनों प्रकृति की कृति बने रह सकें, उनमें किसी भी तरह से भिन्नतांए न आने पाएं। अपने कमरे में फेकुआ सुमिरिनी से बोल बतिया सकता था। पर ऐसा नहीं था कि कमरे में अनुशासन नहीं था, एकांत का कानून नहीं था, परंपरा की ऑखें नहीं थीं। वहां एकांत था जो केवल इतनी ही छूट देता था कि वे एक दूसरे के दिल और दिमाग तक, तन से होते हुए मन तक और मन से होते हुए तन तक, एक दूसरे को दुलारते, संवारते हुए पहुंच सकें। फेकुआ को ऐसे मुक्त समय की ही तो प्रतिक्षा थी।
प्रतिक्षा का समय खतम हो गया, समय उतर आया कमरे में। रात का अंधेरा घर के भीतर अंधेरा ले कर उतरा था पर उस अन्धेरे में भी देखी जा सकने वाली सारी चीजें फेकुआ को साफ साफ दीख रहीं थीं। उसके मन और तन पर अंधेरे का असर नहीं था पर वह सुमिरिनी के बारे में आश्वस्त नहीं था, जाने का सोच व गुन रही हो सुमिरिनी। वह अन्धेरों में डूबना चाह रही है या नहीं। पता नहीं।
सुमिरिनी दिन भर के काम से थक गई थी। घर के लेवरन का काम बहुत ही थकाऊ होता है। क्षण भर का भी समय नहीं मिलता, नाक खुजलाना हो तो मुश्किल हो जाए, हाथों में सनी हुई माटी लगी रहती है। किस हाथ से नाक खुजलाई जाए। पहले माटी तैयार करो, उसे आलन (भूसा, पुरेसा) मिलाकर सानो, धान की भूसी मिलाओ, आंकड़ बीन बीन कर निकालो, आंटे की तरह माटी सानो, तब जा कर माटी तैयार होती है फिर लेवरन करो चाहे दीवार की या जमीन की।
सुमिरिनी की थकान ने उसकी आंखों को ऐसा जकड़ा कि वह नींद में चली गई। फेकुआ ने उसे दो तीन बार इशारा किया कि वह जागे पर वह ‘हूं,’ ‘हूं’ बोल कर वह नींद पीने लगती। फेकुआ उसे दुबारा जगाता पर वह काहे बोलती वह तो नींद में थी। नींद ने उसका बोलना, बतियाना छीन लिया था।
फेकुआ तो मान कर चल रहा था कि सुमिरिनी को हर हाल में जगाना है और रात के खेलों को खेलना है। फेकुआ ने उसे झकझोरा...कृइस बार सुमिरिनी का करती, जम्हाते हुए उसने कहा....कृ
‘का है हो! काहे परेशान कर रहे हैं, हमैं सूतने दीजिए, बहुत नीन लग रही है।’
‘भोर हो गई है हो! कब तक सोना है, काम पर नहीं जाना है का? पूछा फेकुआ ने
‘भोर हो गई और हमारी नीन भी पूरी नाहीं हुई, मुई नीन भी हरामी होती है, बिना कुछ बोले बतियाएऑखों को जकड़ लेती है अपनी गोदी में।’
‘और नाहीं तऽ का, भोर हो गई है अब तो जागो।‘ फेकुआ ने उसे बताया
सुमिरिनी नेअपनी ऑखों पर जोर दिया, उसने देखा कि उसे कस कर फेकुआ बांधे हुए है और घूर रहा है। उसे जान पड़ा कि अभी तो रात बाकी है, रात अगर बाकी नहीं होती तो बाहर साफ दिखता। पर बाहर नहीं दिख रहा था कुछ। फूस के छाजन के भीतर रात का गाढ़ापन उतर चुका था। सो बाहर कैसे दिखता।
सुमिरिनी ने फेकुआ की बाहों के कसाव से खुद को छुड़ाना चाहा पर कसाव कैसे छूटता, फेकुआ ने उसे और जकड़ लिया।
‘तोहार मन खराब हो गया है का?’ सुमिरिनी ने फेकुआ से पूछा
‘हमसे काहे पूछ रही हो अपने मने से पूछो कि मन खराब है या बढ़िया। तोहार मनवा भी तो लहरिया रहा होगा, डोल रहा होगा। अच्छा सही बताओ कि फुदक रहा है कि नाहीं।’ फेकुआ ने पूछा सुमिरिनी से।
वह बेचारी का बोलती, वह जानती है मरद अउर बरद दुन्नौ एकय होते हैं? जब मन करता है तबय....समय नाहीं देखते। सुमिरिनी ने नकली बहाना बनाया।कृ
‘हमार मन हर समय फरकता रहता तो जाने का होता...।’
इसके आगे नाहीं बोल पाई सुमिरिनी, उसे बोलना भी नहीं था, उसका भी मन फरक चुका था।
फेकुआ तो रंगीन बदरियों वाली दुनिया में था। एक ऐसी दुनिया जहां सारा कुछ एक में एक मिला होता है, यौगिक की तरह, कुछ भी अलग नहीं। उस दुनिया से अलग होने का मतलब खुद को समाप्त करना होता है। फेकुआ समाप्त नहीं होना चाहता था, वह चाहता था कि वह भी सुमिरिनी में विलीन हो कर सारा कुछ भूल जाये, वह भूल जाये कि उसके साथ तथा उसके बाप के साथ क्या हुआ था सहपुरवा में, यह भी कि रामदयाल कारिन्दा आज सुमिरिनी के आगे पीछे क्यों चल रहा था?
फेकुआ जानता है कि सुमिरिनी पर डोरा डालने वालों की सहपुरवा में कमी नहीं है। लोगों के पास एक से एक डोरे होते हैं, लाल,पीले,नीले,हरे, किसिम किसिम के रंग वाले। इसी डोरे से बॉध देते हैं लोग औरतों को पतंग की तरह उड़ाने के लिए। पर वह सुमिरिनी को पतंग नहीं बनने देगा चाहे जो भी करना पड़े। वह सावधान है, एक एक को देख लेगा।
कुछ ही देर में सुमिरिनी नींद से बाहर निकल गई। वह समझ सकती थी कि फेकुआ ने उसे क्यों जगाया? तथा आगे क्या करने वाला है। चाहती तो वह भी थी पर नींद का का करे, फेकुआ जैसे मरद के साथ रह कर वह भी मरद बन गई है और बूझने लगी है रात के खेलों को। खेल तो खेल उसमें काहे पीछे रहना और खुद को दबा कर रखना, पर डरती है कि फेकुआ मरद है जाने का बूझे, बूझ सकता है कि सुमिरिनी भुक्खड़ है, इसका पेट ही नहीं भरता फिर तो वह लजा गई और नींद में जाने का बहाना उसने बना लिया।
फेकुआ के लिए तो यह था कि उसे रात को चूमना चाटना है, बिजली कड़के तो ठीक, नहीं कड़के तो ठीक। मन के ताप का खेल शुरू होते ही फेकुआ को जान पड़ा कि केवल वही प्रतापी नहीं है, सुमिरिनी भी प्रतापी है, उसका ताप केवल देखाता नाहीं है पर है प्रतापी।
रात को बीतना था सो बीत गई।
‘कथांए भी किसी दरखास की तरह होती हैं
गोबर, माटी, कीचड़ में सनी पाठकों से ‘नियाव’ मांगती’
खड़ी रहती हैं कि मुझे पढ़ो, कुछ जो उदार होते हैं पढ़ भी लेते हैं’कृ
सहपुरवा में नसबन्दी का कैंप लगा हुआ था। कई टेन्टों को जोड़कर एक बड़ा सा हालनुमा घेरा बनाया गया था। उसी हालनुमा घेरे के भीतर छोटा सा चिकित्सा कक्ष भी बनाया गया था। मंत्राी जी के लिए स्वागत कक्ष का निर्माण अलग से कराया गया था जो बड़े वाले हालनुमा घेरे से थोड़ा दूर था। टेन्ट का सारा सामान कुछ रापटगंज से तो कुछ बनारस से मंगवाया गया था। पूरा पांडाल ऐसा सजा हुआ था कि देखते बन रहा था कुछ लोग तो वहां पांडाल को सजते हुए बैठ कर देखा करते थे, घंटों बीत जाता था पर उन्हें अखरता नहीं था।
सरकारी लोग ही नहीं क्षेत्रा की जनता भी वहां उमड़ पड़ी थी। हर ओर भीड़ ही भीड़ सिर्फ आदमियों की खोपड़ियां दिखतीं कहीं भी जमीन नहीं दिख रही थी। वैसे भी टेन्ट की नीचे की जमीन दरी बिछावन से तोप दी गई थी। सरकारी काम है जमीन नहीं दिखनी चाहिए, जमीन पर सरकार का ताप हर ओर आसानी से नहीं पसर सकता। धूल व ढेले वाली जमीन पर सरकार के ताप को ठोकर लग सकती है। भहरा सकता है सरकार का ताप।
नसबन्दी के लिए लक्ष्य दंपतियों की सूची बना ली गई थी। जिसे एक महीने पहले से ही बनाया जा रहा था। सूची में कर्मचारियों व आम नागरिकों दोनों को शामिल किया गया था। उस दिन सहपुरवा में उन लोगों को नसबन्दी कराना था जो दो पुत्रोंा या पुत्रियों के पिता या माता थे। सरकारी फरमान था कि जो नसबन्दी नहीं कराएंगे उन्हें सस्पेन्ड भी किया जा सकता है। सो कर्मचारी डरे हुए थे और सस्पेंशन वाले सरकारी तानाशाही आदेश की निन्दा भी कर रहे थे।
‘यह भी कोई कार्यक्रम है, नसबन्दी कराओ तभी नौकरी करो नहीं तो निकाल देंगे नौकरी से, निकाल दें साले पर हम तो नहीं कराएंगे’
यह एक डरे हुए सरकारी कर्मचारी की विवषताभरी बोल थी।कृ
दूसरा बोल रहा था....वह भी डरा हुआ था पर आदेश का विकल्प उसने तलाश लिया था।
‘यार! तूं तो चूतिया हो हम नसबन्दी काहे कराएंगे हमारे नाम पर हरिजन कराएंगे। लिस्ट बनाने तथा रिपोर्ट वगैरह देने का काम तो हमी लोगों को करना है। सरकार भी कोई काम करती है क्या? तूंने देखा है किसी सरकार को काम करते हुए, सरकार तो भगवान की तरह अदृश्य होती है निराकार। असली सरकार तो कर्मचारी ही होते हैं पर क्या बतांए ये साले सरकारी कर्मचारी किसी भी मुद्दे पर एक नहीं होते, इनमें संगठन नहीं है, संगठन होता तो ये अनपढ़ मंत्राी हम पर रोब डाटतें।’
‘अरे यार! यह भी नहीं करना होगा, डक्टरवा को सौ पचास दे कर लिखवा लिया जाएगा, यह तरीका सबसे आसान और सरल है।’
चौथा जो मजबूर किसिम का था वह अपना दुख बता रहा था।
‘यार! मैं तो नसबन्दी करांउगा ही, बिना तनखाह के मेरा काम नहीं चल सकता, मैं बाल-बच्चों को भूखा नहीं रख सकता, हमैं तो नौकरियय का सहारा है।’
समझाने वाले ने उसे समझाया....कृ
‘यार! तूं कैसे करा सकता है नसबन्दी, तेरी तो सिर्फ तीन लड़कियां ही हैं।’
‘उससे का होता है पेट कैसे भरेेगा, मैं तो कराऊंगा नसबन्दी, मान लूंगा कि किस्मत में लड़कियां ही बदा हैं। यार! सेवा करना होगा तो लड़कियां भी किसी लड़के से कम नहीं करेंगी। इन्दिरा गांधी भी तो लड़की ही हैं आज देश चला रही हैं। मेरी लड़कियॉ भी बुढ़ौती में मेरा सहारा बनेंगी।’
सहपुरवा नसबन्दी कैंप में हर तरह के लोग आये हुए थे, कोई मजबूर था तो कोई मजबूर बना दिया गया था। जमीन का पट्टा रद्द कर देने का भय दिखा कर लेखपालों ने तमाम मजबूरों और यातनाग्रस्त लोगों को बुला लिया था। वे लोग बारी बारी से आपरेशन करा रहे थे कोई नायब तहसीलदार के नाम पर आपरेशन करवा रहा था तो कोई परगनाधिकारी के नाम पर। ऐसा ही ब्लाक के कर्मचारी भी कर रहे थे जिससे सभी को कोटा पूरा हो सके। परमिट कराने, राशन की दूकान देने, बन्दूक का लाइसेन्स देने, बैंक से कर्जा दिलाने आदि के नाम पर भी दना दन नसबन्दी हो रही थी। एक तरह से सहपुरवा नौकरी बचाने का स्वर्ग बन गया था और कर्मचारियों को अभयदान दे रहा था। नसबन्दी कराने के एवज में मिलने वाला रुपया प्रेरकों की जेब में तथा डाक्टरों की जेब में जा रहा था। नसबन्दी करा लेने में कर्मचरी जितने मस्त थे उतने दवा दारू कराने में नहीं, नसबन्दी हो जाने के बाद मरीजों से यह भी नहीं पूछा जा रहा था कि उनकी हालत कैसी है, उन्हें रामभरोसे छोड़ दिया जा रहा था। सहपुरवा में जब तक मंत्राी जी नहीं आ पाए थे तब तक सारा प्रबंध ठीक ठाक था जैसे ही वे आये और चले गए मरीजों की सुरक्षा भी उनके साथ चली गई। मरीजों के प्रति लापरवाही एक बड़ी खबर थी पर उन दिनों अधिकारियों कर्मचारियों के खिलाफ समाचार पत्रों में खबरें नहीं छपा करती थीं। सो मरीजों के प्रति लापरवाही खबर न बन सकी। अखबार वाले दूसरे काम निपटाने में मस्त थे जिनसे उन्हें फायदा मिला करता था यही तो ईमरजेन्सी का फायदा था।
लम्बी प्रतिक्षा के बाद मंत्राी जी का आगमन हुआ, सरकारी पारटी के बड़े स्थानीय नेता कृपालु जी मंत्राी जी के साथ थे। सबसे पहले मंत्राी जी रामभरोस के दरवाजे पर गये। रामभरोस के यहां जाना उनका व्यक्तिगत कार्यक्रम था। इसे सरकारी कार्यक्रम में शामिल नहीं किया गया था। रामभरोस के यहां ही मंत्राी जी ने नाश्ता किया और विभिन्न मुद्दों पर बातें भी की। उन्होंने क्षेत्रा का हाल अहवाल लिया तथा रामभरोस का भी।
रामभरोस के दरवाजे से मंत्राी जी सीधे सभास्थल पर पहुंचे, वहां मंत्राी जी की सैकड़ों लोग प्रतिक्षा कर रहे थे। मंत्राी जी को तत्काल मालाओं व फूलों से लाद दिया गया, अन्त में मंत्राी जी ने अपना भाषण दिया।कृ
‘कि वे पैदा ही हुए हैं जनता की सेवा करने के लिए, जनता के साथ मरने और जीने के लिए। वे तब तक जनता की सेवा करते रहेंगे जब तक हर हाथ को काम, हर खेत को पानी तथा हर घर में चूल्हा नहीं जल जाता, तब तक उनकी लड़ाई चलती रहेगी। वे भूख और भोजन के बीच की दूरी पाट कर ही रहेंगे।’
अपने भाषण के अंत में मंत्राी जी ने रामभरोस की भी खूब प्रशंसा किया और उनके बारे में बोलते हुए कहा....
‘रामभरोस जैसा आदमी आपके साथ है यह इस क्षेत्रा के लिए गौरव की बात है’
इसी बात पर सभा स्थल पर हल्ला भी मचा था जिसे पुलिस वालों ने ताकत के बल पर तत्काल रोक दिया था।
भाषण के बाद मंत्राी जी कार में बैठे और फुर्र....कृ
जिले के आलाधिकारियों के चेहरों पर नसबन्दी कार्यक्रम की सफलता थिरकने लगी, वे मस्त मस्त थे। मंत्राी जी के वापस होते ही अधिकारी भी सहपुरवा से वापस हो लिए वहां रूकने का क्या मतलब था, मतलब तो नसबन्दी कराना था जो संपन्न हो चुका था।
कुल पैंसठ लोगों की नसबन्दी हुई थी। उन्हें अस्पतालनुमा टेन्ट में लिटा दिया गया था। उनके लेटने के लिए चौकियों का प्रबंध कई गॉवों से लाकर पहले से ही कर लिया गया था। चौकियों के प्रबंध का काम प्रधानों के जिम्मे स्थानीय प्रशासन ने लगाया हुआ था। मरीजों की देख रेख के लिए दो डाक्टरों तथा चार नर्सों को भी तैनात किया गया था।
देखने में सारा प्रबंध ठीक ठाक दिख रहा था पर ठीक नहीं था। ठीक इस लिए नहीं था कि सहपुरवा के नसबन्दी कैप के लिए जिन दो डाक्टरों को तैनात किया गया था उनमें से एक तो उसी दिन सहपुरवा से निकल गया और नर्सों में से दो वापस हो गईं। दोनों ने बच्चों का बहाना बना लिया कि उनके दूध पीते बच्चे हैं उन्हें दूध कौन पिलाएगा?
बहरहाल नसबन्दी हो चुकी थी। परमात्मा की कृपा से सारे के सारे मरीज ठीक ठाक थे, कोई अनहोनी नहीं हुई। मरीजों के खाने का प्रबंध रामभरोस के जिम्मे था जिसका प्रबंध रामभरोस ने अच्छी तरह से किया था।
औतार का पट्टा खारिज करने के प्रस्ताव को गॉव सभा ने बहुमत से पहले ही पारित कर दिया था अब उस पर केवल ऊपर के अधिकारियों को ही विचार करना था। विचार हो गया और औतार का पट्टा खारिज कर दिया गया इस तरह का प्रचार रामभरोस ने पूरे सहपुरवा में करा दिया था। गॉव सभा के प्रस्ताव पर पंडित शोभनाथ ने हालांकि बहुत विरोध किया था पर उनके अकेले विरोध का कुछ मतलब नहीं था, बहुमत तो पट्टा खारिज कराने के पक्ष में था, सो प्रस्ताव पास हो गया।
प्रस्ताव के समय ही शोभनाथ ने चेताया था....कृ
‘सभापति जी! औतार का पट्टा खारिज कराना गलत है। अभी भी गॉव में बहुत सी जमीनें उपलब्ध हैं जिन पर पंचायत भवन बनवाया जा सकता है। पंचायत भवन तो कहीं भी बन सकता है क्या केवल औतार के पट्टे वाली जमीन पर ही बनेगा तभी ठीक होगा। बहुत गलत हो रहा हे सभापति जी।’
रामभरोस को तो जो करना था उसके प्रति वे सावधान थे, उन्होंने साफ कहा थाकृ
‘आप लोग तो जानते ही है कि गॉव में स्कूल जब बन रहा था तब भी शोभनाथ ने उसका विरोध किया था और आज जब पंचायत भवन बनने के लिए प्रस्ताव हो रहा है तब भी विरोध कर रहे हैं। पता नाहीं शोभनाथ का सोच रहे हैं। हम चाहते है कि पंचायत भवन गॉव के आस-पास ही बने। गॉव के आस-पास कोई जमीन है नहीं, केवल औतार के पट्टे वाली जमीन ही है। उस पर पंचायत भवन बन जाएगा तो बियाह आदि में गॉव के लोगों के काम आएगा, उसमें बाराती ठहरेंगे और भी तमाम काम होंगे। औतार से हमारी कोई दुश्मनी तो है नाहीं, हम उनका पट्टा काहे खरिज कराएंगे? हम तो गॉव के हित के लिए औतार का पट्टा खारिज करा रहे हैं।
ष्शोभनाथ पंडित भी बोलक्कड़ थे....कृ
‘अरे रामभरोस जी अपनी बात कीजिए, भाषण मत झारिए। पंचायत भवन बन जाएगा तो सभी को बियाह आदि में काम देगा, पहले कैसे होता था बियाह? बकवास मत करिए। हम तो परेशान हैं अपने परिवार से। हमारा परिवार बंट गया नहीं तो आप को बताते कि का होती है राजनीति और कैसे होती है गॉव की भलाई। गॉव का भला करना है तो अपनी सीलिंग वाली जमीनिया काहे नाहीं बॉट देते गरीबों में, उसे तो कब्जियाए हुए हैं। उसको गरीबों में बॉट दीजिए फिर हम पंचायत भवन का विरोध नहीं करेंगे। चले हैं गॉव की भलाई देखने....
रामभरोस से इससे मतलब नहीं था कि शोभनाथ पंडित का बोलते हैं और का सोचते हैं, उनसे तो सिर्फ प्रस्ताव पास कराने से मतलब था जो पास हो चुका था। रामभरोस ने उस समय बहुत गुस्से से शोभनाथ को देखा था कि यह साला किसी न किसी दिन सीलिंग वाली जमीन मेरे कब्जे से निकलवा कर ही रहेगा पर बोले कुछ नहीं। यह सोच कर कि इस समय बोलना उचित नहीं होगा। उन्होंने तय कर लिया था कि इसका जबाब शोभनाथ को उचित समय पर जरूर देंगे।
रामभरोस जो सोचतेे हैं कर डालते हैं। उन्हांेने सोच लिया था कि पंचायत भवन बनना है तो बनना है। रामभरोस ने पंचायत भवन के निर्माण के लिए जिला पंचायत अधिकारी द्वारा रुपया भी हासिल कर लिया था जो गॉवसभा के नाम से खाते में जमा हो गया था। केवल उसे बैंक से निकालना ही था। रामभरोस ने पंचायत भवन के उद्घाटन तक की योजना बना लिया था। उन्होंने कृपालु जी से उद्घाटन के बारे में बातें कर ली थीं। यह सुनिश्चित हो गया था कि उद्घाटन डी.एम. साहब करेंगे। रामभरोस जानते हैं कि डी.एम. से उद्घाटन कराने से कई लाभ होते हैं और मंत्राी वगैरह से कराने पर कोई खास लाभ नहीं होता।
रामभरोस के लिए पंचायत भवन का उद्घाटन शीघ्र से शीघ्र करा लेना बहुत आवष्यक था। इस काम में वे देरी करना नहीं चाहते थे। उनका वश चलता तो आनन फानन में उद्घाटन करा लेते पर ऐसा नहीं करना था, जल्दी का काम कभी कभी नुकसान दायक साबित होता है।
पंचायत भवन का उद्घाटन कराने में अधिक दिन नहीं लगा। कृपालु जी ने सारा इन्तजाम कर दिया था तथा वे खुद भी समय से सहपुरवा आ गये थे। डी.एम. साहब कार्यक्रम शुरू हो जाने के बाद आये फिर भी बहुत देर नहीं हुई थी। डी.एम. साहब के आने के कारण भीड़ भी एकत्रा हो गयी थी। क्षेत्रा के सारे परधान और परमुख भी आये हुए थे। रामभरोस ने स्वागत, सत्कार का बहुत ही अच्छा प्रबंध किया हुआ था। कार्यक्रम में पहले डी.एम. साहब का स्वागत किया गया फिर उद्घाटन हुआ। अपने भाषण में डी.एम. साहब ने पंचायत व्यवस्था के तमाम फायदों का गुणगान किया। वहां उपस्थित जनता के खाते में धन्यवाद आया और रामभरोस के खाते में प्रतिष्श्ठा। वहां उपस्थित जनता धन्यवाद का पुरस्कार लेकर फूट गयी।
औतार को ही नहीं पूरे क्षेत्रा को मालूम था कि डी.एम. साहब सहपुरवा आ रहे हैं सो औतार भी डी.एम. साहब से मिलने के लिए आतुर थे। वे एक प्रार्थना पत्रा लिखवा कर सभास्थल पर उपस्थित थे। वहां के स्वयंसेवक जो रामभरोस के अपने लोग थे, वे जानते थे कि औतार काहे के लिए आया है और काहे डी.एम. साहब से मिलना चाहता है सो वे औतार को मंच तक जाने नहीं दे रहे थे। किसी तरह औतार को मौका मिला फिर वे मंच तक पहुंच पाये और फटाफट डी.एम. साहब के पैर पर गिर गये ‘सरकार’ ‘सरकार’ कहते हुए....कृकृ
औतार किसी की नहीं सुन रहे थे। वे अपनी फरियाद रिरियाते हुए कहने लगेकृ
‘सरकार! हमैं सहपुरवा से मत उजरवाइए, हमारे पास खाली पट्टा वाली जमीन ही है और दूसर जमीन नाही है। सरकार हमरे पट्टा वाली जमीन पर पंचायत भवन बनने जा रहा है, गॉए में बहत जमीन है सरकार उस पर पंचायत भवन बनवाइए। रामभरोस की जो जमीन सीलिंग से निकली है वह भी गॉव के नजदीक ही है, उस पर बनवाएं पंचायत भवन सरकार, हमरे पट्टा वाली जमीन पर नाहीं।’
डी.एम. साहब घबरा गये, हो क्या रहा है, पट्टे की जमीन पर पंचायत भवन कैसे बन रहा है? जानने के बाद चुप्पी लगा गये। डी.एम. जैसे अधिकारियों की चुप्पी अपने आप में रहस्य होती है। वे अपनी चुप्पी के द्वारा ढेर सारा प्रशासनिक कार्य निपटा लिया करते हैं सो वे जनता के बीच जनता के कार्य के लिए अपनी चुप्पी का प्रयोग लोकतांत्रिक औजार की तरह किया करते हैं। औतार ने पहले से लिखा प्रार्थनापत्रा उन्हें दे दिया। औतार को मालूम था कि डी.एम. साहब भी हरिजन हैं सो वे हमारा काम कर देंगे। निश्चित ही उनका काम हो जाएगा और पंचायत भवन का बनना रूक जाएगा। पर ऐसा होता कहां हैं? डी.एम. अपनी जाति नहीं देखा करते। कोई भी हो जब वह अधिकारी बन जाता है फिर वह बहुत कुछ भूल जाता है। भूलना बहुत ही सरल होता है। नौकरी पाने के लिए उसे स्मृतियों के कठिन दौर से गुजरना होता है, उसे सारा कुछ याद रखना पड़ता है। जितना याद रहेगा उतना ही परीक्षा की कापी पर वह लिख सकेगा। लिखे के अनुसार ही उसे नंबर मिलेगा। याद रखने की जरूरत नौकरी पाने के बाद खतम हो जाती है। नौकरी करना है तो बहुत कुछ भूल जाना है। भूल जाना ही उसे अच्छा अधिकारी प्रमाणित करेगा। धीरे धीरे वह वह सारा कुछ भूल जाता है, सबसे पहले वह जाति भूलता है फिर वर्ग। उसे यह भी याद नहीं रहता कि वह गोबर माटी और कीचड़ में पैदा हुआ है, गोबर, माटी, कीचड़ से सने, पुते चेहरे ही उसके अपने हो सकते हैं, उनके लिए कुछ करना उसका दायित्व है। पर नहीं वह अपना अतीत भूल कर चमकदार चेहरों में शामिल हो जाता है।
डी.एम. साहब ने प्रार्थना पत्रा पढना शुरू किया और पढ़ कर ओतार से प्रार्थनापत्रा के बारे में पूछा भी... औतार ने उन्हें पंचायत भवन निर्माण काण्ड का किस्सा बताया कि उनके साथ हो क्या रहा है।
डी.एम. साहब ने पास खड़े परगनाधिकारी को वह प्रार्थना पत्रा दे दिया और निर्देश दिया कि इस पर संभव कार्यवाही करें तथा कृत कार्यवाही से मुझे अवगत भी करांए।
‘हॉ सर’!’ कहते हुए परगनाधिकारी ने प्रार्थना पत्रा ले लिया। औतार भी परगनाधिकारी के पास ही खड़े थे, वे दुबारा गिड़गिड़ाने लगे...
‘सरकार हमैं बताइए कि हम का करें, कहां रहें, कैसे खेती-बारी करें। पंचायत भवन बन जाएगा तब हम कहॉ खेती करेंगे सरकार! पंचायत भवन को रोकवा कर हमैं उबारैं सरकार।’
औतार के साथ साथ शोभनाथ पंडित ने भी निवेदन किया....
‘सरकार! केवल दुश्मनी के कारण औतार के पट्टे वाली जमीन पर रामभरोस जबरिया पंचायत भवन बनवा रहे हैं, गॉव में दूसरी जमीन पर भी पंचायत भवन बनवाया जा सकता है।’
अधिकारी तो अधिकारी होता है, पद और अधिकार की गरिमा में गोते लगाने वाला। औतार के साथ शोभनाथ पंडित भी गिड़गिड़ते रहे पर अधिकारी पर कुछ भी असर नहीं पड़ा। डी.एम. साहब सीधे कार की ओर बढ़े, उसमें बैठे और फुर्र, किसी चिड़ि़या माफिक।
डी.एम. साहब के जाने के बाद औतार को परगनाधिकारी की फटकार भी सुननी पड़ी....
‘आप लोग काहे बक बक कर रहे हैं, मालूम है कि नहीं कुछ, औतार का पट्टा खारिज हो चुका है। अब का होगा? उस समय कहां थे आप लोग? अब चले हैं दरखास ले कर। जाइए अपना काम करिए हमारा समय बेकार मत करिए। जब गॉवसभा ने मुकदमा किया था तब दरखास दिए होते तो हम विचार करते अब कुछ नहीं हो सकता।’
पर औतार का पट्टा खारिज नहीं हुआ था। परगनाधिकारी रामभरोस के मुह की बात कर रहा था, उसके मुह में रामभरोस की जीभ तालू तक पहुंच चुकी थी।
परगनाधिकारी भी सामने खड़ी जीप पर बैठा और चला गया। वहीं औतार और शोभनाथ पंडित खड़े खड़े एक दूसरे का मुंह देखने लगे। औतार शोभनाथ का मुह देखते तो औतार का शोभनाथ, दोनों के चेहरों पर प्रशासन ने अपनी मुहर लगा दी थी, काली स्याही वाली। सरकारी मुहर पर लिखा था...
‘कुछ जाना करो, कुछ समझा करो, सरकार सरकार होती है, सरकार अपने ढंग से चलती है, अपने ढंग से सोचती है और सरकार को जो करना था कर दिया है उससे तुम्हारा फायदा हो तो ठीक न हो फायदा तो भी ठीक।’
शोभनाथ पंडित और औतार दोनों समय की चाल के बारे में गुनने लगे। लोकतंत्रा का समय लोक के लिए ही होता है पर यह जो समय है वह खुद लोकतात्रिक नहीं होता इसे सत्ता चलाने वाले लोकतांत्रिक बने रहने नहीं देना चाहते। वे लोकतंत्रा को अपने मन को खेल बना देते हैं और उसे अपने हिसाब से खेलते हैं..आज फिर एक खेल हो गया...
'''‘कुछ लोग होते ही हैं जो अपनी पीठ ठोंकने में
माहिर हुआ करते हैं और जब ऐसे लोग कथाओं में
होते हैं फिर क्या कहनेकृकहने के लिए शेष ही क्या बचता है?’'''
पंचायत भवन के शिलान्यास के बारे में केवल रामभरोस को ही जानकारी थी। अपने हमराहियों को भी उन्होंने नहीं बताया था। शाोभनाथ पंडित को भी पता नहीं चल पाया था पंचायत भवन के शिलान्यास के बारे में? सारा कुछ गुप्त था। एक दिन पंचायत भवन का शिलान्यास हुआ और तीन दिन के भीतर ही पंचायत भवन की बुनियाद जमीन से ऊपर उठ गई। पंचायत भवन के उसी निर्माण को गिराए जाने के दिन संयोग ही था कि शोभनाथ पंडित भी गॉव पर आ गये थे नहीं तो सहपुरवा से वे कहीं बाहर गये हुए थे किसी काम से।
रामभरोस को यह बात तब मालूम हुई जब औतार ने पट्टा खारिज किए जाने के खिलाफ दरखास दिया कि उस दरखास को उनके लड़के विभूति ने लिखा था फिर तो वे विभूति पर गरम हो गये। औतार तो इस बात के लिए भी तैयार नहीं थे कि दरखास दिया जाए किसी तरह उन्हांेने हिम्मत जुटाई थी दरखास देने के लिए। इसलिए नहीं कि वे निर्बल तथा कमजोर थे इसलिए कि रामभरोस का प्रशासन कुछ नहीं कर सकता, होगा वही जो रामभरोस चाहेंगे। सो दरखास देने से का फायदा?
औतार को जब मालूम हुआ कि डी.एम. साहब भी हरिजन हैं तो उनका विष्वास बढ़ गया कि उनकी जमीन का पट्टा खारिज होने से बच सकता है। डी.एम. साहब उनकी बातें सुन कर पट्टा खारिजा रोक सकते हैं। फिर उन्होंने दरखास दिया था। जिस दिन औतार ने दरखास दिया उसी दिन उन्हें आभास हो गया था कि अधिकारी, अधिकारी होता है वह न हरिजन होता है और न कुछ दूसरा होता है सिर्फ अधिकारी होता है। वे मान कर चल रहे थे कि दरखास देने से कुछ नहीं होने वाला।
रामभरोस मगन थे तथा अपना सीना फुलाए बैठे हुए थे। उन्हें बहुत अच्छा लगा था कि एस.डी.एम. साहब ने शोभनाथ को डांटा और झिड़क दिया। वे मान कर चल रहे थे भले ही डी.एम. साहब हरिजन हैं तो का हुआ पर हरिजनों वाला काम तो नहीं कर रहे। उन्हें डी.एम. साहब का व्यवहार देख कर यकीन था कि औतार के दरखास पर डी.एम. साहब कुछ भी नहीं करने वाले। और एस.डी.एम. तो जैसा वे चाहेंगे वैसा ही करेगा और उसने किया भी औतार को झिड़क दिया। रामभरोस ने प्रसन्नता जाहिर करते हुए चौथी से कहा....
‘का हो चौथी आज तो गड़बड़ हो जाता, औतरवा साले ने तो सारा खेल बिगाड़ दिया था। उसके समझ में आया होगा कि डी.एम. साहब हरिजन हैं और उसका पट्टा बहाल करने के लिए बोल देंगे। देखे नाहीं कैसा हरिजन हरिजन चिल्ला रहा था एक सुर से। औतरवा साले को छोड़ो शोभनथवा को नाहीं देखे...कृउहौ साला औतरवा के साथ बकबका रहा था। उसके अन्दर तनिक भी बड़प्पन नाही है, पता नाहीं कैसे बाभन के घरे में जनमा है, एकदम हरिजनै है का? सुने कि नाहीं एस.डी.एम. ने तो औतरवा को डांट दिया....
‘का बक बक कर रहे हो, पहले कहां थे, अब आए हो दरखास देने’
उस समय शोभनाथ का मुंह झुराय गया था, नेता बनता है साला, सुकुर सुकुर करता रहता है और मारने चला है सरकारी कुकुर। साले को यह पता नहीं कि रामभरोस से मोर्चा लेना पहाड़ से टकरा कर माथा फोड़ना है। देखना चौथी! शोभनथवा किधरौ का नाहीं होगा, न बाभनों का न हरिजनों का।
रामभरोस गद गद थे। उन्होंने अपने अस्तित्व की इस जंग को भी जीत लिया था। सो बोलने के मूड में थे जैसे भाषण दे रहे हों।
‘हमैं तो जानते ही हो चौथी! रियासत और अंग्रेजन के राज में भी हम केहू को कुछ नाहीं समझते थेे, राजा या जमीनदार, चाहे बड़का अफसर कोई भी हो। शोभनथवा को का समझना है यार! उसके जैसे कितने फेंकू पवारू पड़े हुए हैं विजयगढ़ में।’
उस समय चौथी गवहां रामभरोस की हां में हां बोल रहे थे। उन्हें केवल ‘हां में हां’ ही बोलना था रामभरोस की हर बात में और कर भी का सकते थे। रामभरोस को भी चौथी गवहां जैसा हां में हां बोलने वाला कोई चाहिए था। आखिर वे अपने बारे में खुद के गढ़े आख्यान किसे सुनाते? अपना गढ़ा आख्यान सुनाना हर हाल में जरूरी होता है रामभरोस जैसे सामन्ती मिजाज वालों के लिए। अपनी पीठ ठोंकना भी सामन्ती कला का ही रूप होता है, जिसमें रामभरोस माहिर हैं। इसमें का जाता है कोई दूसरा पीठ नहीं ठोक रहा तो का वे खुद भी न ठोंके, खुद ही ठोक लो। पीठ ठोंकने की यह कला भारतीय संस्कृति में काफी लोकप्रिय है और सफल भी।
बातें करते हुए ही जैसे उन्हें कुछ ख्याल आ गया फिर तो बातें बन्द करके उन्होंने रामदयाल को पुकारा... एक कर्कश आवाज मालिकों वाली, अतिरिक्त गुर्राहटों माफिक।
रामदयाल कहीं पास में था, हाजिर हो गया।
‘का सरकार! का हकुम है?’
रामदयाल ने अदब से कहा जो देखने व सुनने लायक था कि अदब अदब होती है चाहे वह जैसे आये, नमक खाने से या किसी और चीज से आये पर आये। दरबारों में अदब ही तो मातहतों का आभूषण होता है।
‘जोतिया की माई मिली कि नाहीं ? उसको आज ही हाजिर कराओ हमारे सामने।’
रामभरोस ने रामदयाल को सहेजा जो आदेष्श की तरह था।
रामदयाल कारिन्दा तत्काल वहां से चला गया जोतिया की माई को बुलाने के लिए, जोतिया की माई हरिजन बस्ती में रहती थी।
‘जोतिया की माई को अभी बुला लाना ठीक होगा। पता नहीं बाद में धियान उतर गया और उसे नहीं बुला पाए तोकृरामभरोस सरकार माथा फोड़ देंगे।’ रामदयाल बखरी से सीधे चले गए जोतिया के माई को बुलाने के लिए।
चौथी गवहां रामभरोस के पास ही में बैठे हुए थे। रामभरोस के आदेश के बिना वे बखरी से उठ कर जा भी नहीं सकते थे। रामभरोस के हुकूम की उदूली करने पर का हो सकता है चौथी जानते थे। सो वे वहीं बैठे हुए थे।
‘चौथी तनिक सुर्ती बनाओ यार! थोड़ा ठीक से गांठना, पान खाते खाते मुंह में छाला पड़ गया है, एक बात और बताओ कि पंचायत भवन के शिलान्यास वाला कार्यक्रम कैसा था?’
चौथी फूल गये गंुबारा की तरह, सरकार ने कुछ पूछा तो...कृ
‘अरे का बताना सरकार, सभै लोग बढ़िया बढ़िया चिल्ला रहे थे। आपका जैसा नाम वैसा ही काम। डी.एम. साहब भी तो आपके बारे में खूब तारीफ किए थे।’
चौथी तो रामभरोस की बातें चूसने के लिए ही वहां बैठे हुए थे और रामभरोस के लिए था कि अपना बखान जितना सुना सको सब सुना दो चौथी को। सो वे दुबारा अपने बारे में बखानने लगे....कृ
‘यार! चौथी, जानते हो आज का जमाना परचार वाला है, परचार करने कराने में कोई कसर नाहीं छोड़नी चाहिए। परचार करने में चाहे जितना खर्च लगे हम सारा खर्च करते हैं, भागते नाहीं हैं। उतना खर्चा तो हम सीलिंग वाली जमीन से ही जुटा लेते हैं। एक बात और बताएं चौथी!कृचाहे जो भी हो जाए सीलिंग वाली जमीन पर हम कभी भी कब्जा नाहीं छोड़ेंगेे। तूं देख लेना।’
बात तो बात; जब बढ़ गई तब बढ़ गई रामभरोस रौ में थे फिर उन्हें वहां कौन रोकता, समझाता कि अपने बारे में सिर्फ मूर्ख ही वाह वाह किया करते हैं। वहां केवल चौथी थे, उनसे का मतलब था कि वे रामभरोस को रोकते या सलाहते कि सरकार अपनी तारीफ खुद नहीं करनी चाहिए।
‘तूं तो जानते ही हो चौथी कि राजा के अलावा यहां की जनता केवल मेरा नाम जानती है। विजयगढ़ में मुझसे बड़ा जोतदार और धनी मानी कौन है? जितना कमाना था उतना कमा लिया है। चौथी! अब तो मुझे केवल विभूति की चिन्ता है। वे अगर सारा काम-धाम सम्हाल लेते तो मैं आराम से बैठ जाता, सारा ताम-झाम उनके ऊपर छोड़ देता। पर का बतांए विभूति ने प्रसन्नवा का गड़बड़ संग साथ पकड़ लिया है। प्रसन्नवा को तो तूं जानते ही हो लोफर है साला, लोफर। सुन रहा हूं कि वह कम्युनिस्ट पार्टी का नेता बन गया है।
चौथी को रामभरोस का दरबारी माना जाता है पर चौथी जानते हैं कि वे रामभरोस के का हैं, दरबारी हैं कि समय के साथ चलने के लिए मजबूर हैं। उन्हें पता है कि रामभरोस की जी हुजूरी नहीं करना घर में डकैती डलवाना है। रामभरोस को रोज सलाम नहीं करना खुद को किसी झमेले में फसाना है। खुद को रामदयाल जैसों के बोंग से पिटवाना है। गॉव में केवल शोभनाथ पंडित ही ऐसे आदमी हैं जो रामभरोस की जी हुजूरी नहीं करते। जो बोलना या करना होता है उनके सामने कर या बोल जाते हैं। चौथी गवहां भी शोभनाथ को अच्छा आदमी मानते हैं और जानते हैं कि शोभनाथ ही गॉव में ऐसे आदमी हैं जो किसी का नुकसान नहीं कर सकते। चौथी गवहां अब किससे कहें कि रामभरोस के आतंक के कारण ही उन्होने फेकुआ का कोला लवाय लिया था। नहीं तो वे फेकुआ का कोला कभी नहीं लवाते पर फेकुआ का कोला लवा लेने के बाद अब किस मॅुह से बोलें अपनी करनी के बारे में। कौन मानेगा उनकी बात। फेकुआ का कोला लवा लेने के बाद अब ऐसी स्थिति आ गई है कि रामभरोस को वे नहीं छोड़ सकते। थाना थूनी हो जाएगा, जेल भी जाना पड़ सकता है फिर कौन बचाएगा उन्हें? रामभरोस ही बचा सकते हैं। दारोगा आया ही था एक दिन। दारोगा के सामने होते ही वे कॉपने लगे थे। लगा था उन्हें जेल दिखाई देने। मार-पीट अलग से, पता नहीं दारोगा उन्हें कैसे मारता, डंडे से मारता या हाथ से। वे जानते हैं कि दारोगा जब मारने लगते हैं तब ऑखें मूॅद कर मारते हैं और डंडा भी नहीं गिनते। अब तो ऐसे ऐसे दारोगा होने लगे हैं जो मार-पीट न करने का रुपया लेते हैं और जेल भिजवा देते हैं। सड़ो जेल में जा कर, जर, जमानत कराओ, वह भी जमानत हो न हो। वकील मनमाना रुपया लेते हैं, मुकदमे की तारीखें पड़ती हैं। उस दिन भीतर भीतर रोने लगे थे चौथी।कृ
बहुत ही गड़बड़ हो गया है उनसे पर रामभरोस की बात टाल देते तो और गड़बड़ हो सकता था। अचानक चौथी भावविभोर हो गए।कृ
‘भला हो रामभरोस का कि उन्होंने दारोगा को संभाल लिया। दारोगा जैसे आया था वैसे ही वापस थाने लौट गया। कुछ नहीं कर पाया सहपुरवा में आ कर। संभव है रामभरोस ने दारोगा की सेवा किया हो, कुछ माल-पानी दिया हो पर पता नहीं चला। अनुमान है कि रामभरोस ने दारोगा को माल-पानी जरूर दिया होगा। बिना माल-पानी लिए सहपुरवा से खाली हाथ दारोगा काहे लौटता?
'''‘गुरू भी किसिम किसिम के होते हैं,
गुरू मानने के लिए पूरी स्वतंत्राता होती है चाहे
जिसे मान लो गुरू, हर काम के लिए गुरू चाहे काम जैसा भी हो’'''
रामभरोस का सन्देश पाते ही जोतिया की माई बखरी पर हाजिर हो गई। एक दिन पहले ही जोतिया के माई को बखरी पर बुला लाने के लिए रामभरोस ने सहेजा था रामदयाल को। बखरी पर उस दिन वह नहीं आ पाई थी। वह अपने घर का काम निपटा रही थी।
सूरुज देवता ढलान पर थे। सो उनकी चमक थोड़ी कमजोर हो चुकी थी। उस कमजोर चमक में भी जोतिया की माई चमक रही थी। संभव है वह रामभरोस की बखरी की चमक के कारण चमक रही हो या रामभरोस की चमक के कारण पर वह चमक रही थी। संभव है सुरुज देवता ही उसे चमका रहे हों। रामभरोस की बखरी तो चमकों वाली थी ही। उनकी बखरी पर उतरते ही सुबह भी बखरी की चमक पीने लगती और रात चमकती तो नहीं थी पर गुदगुदी जगा देती थी। वैसे भी वहां जो लोग होते थे वे भी चमकने लगते थे। इसी तरह बखरी पर चमकों का खेल चलता रहता था।
रामभरोस अपनी आरामदेह कुर्सी पर पसर कर हुए बैठे हुए अलग किस्म की चमक छोड़ रहे थे। जोतिया की माई को रामभरोस ने देखा फिर तो उनके चेहरे की चमक ने जोतिया के माई के चेहरे को ढंक लिया। वह भी उनकी तरह चमकने लगी। रामभरोस के चेहरे की चमक पीते हुए जोतिया की माई ने भी रामभरोस कोे देखा। फिर तो वहां चार ऑखें मिल कर एक दूसरे की चमकों को देखने लगीं। चारो ऑखों के रंजक खेल में कहना मुश्ष्किल कि जोतिया की माई रामदयाल के चमक में थी या रामदयाल जोतिया के माई की चमक में थे। कौन किसकी चमक चूस रहा था? शायद दोनों एक दूसरे की चमक चूसने लगे थे।
जोतिया की माई को लगा कि ये वही रामभरोस हैं जिन्होंने उसे कभी अपने बगीचे में पटक दिया था। रामभरोस को महसूस हुआ कि यह वही जोतिया की माई है जिसने बतौर गुरू पहली बार उन्हें महसूस कराया था कि देह अद्भुत चीज होती है फिर तो वे उसी में गोता लगाने लगे थे। जोतिया की माई को देखते ही रामभरोस समाधिस्थ हो गए।
रामभरोस की बखरी पर पहले से ही चौथी बैठे हुए थे। रामभरोस सतर्क हो गए.कृ ‘चौथी के सामने समाधिस्त होना ठीक नहीं.’कृ क्या कर रहे हैं वे?कृ
तत्काल रामभरोस ने चौथी को सहेजा...बखरी से हटाने के लिएकृ
‘कोई काम हो तो बताओ चौथी! नहीं तो कल आना फिर बातें करेगे।’
जोतिया की माई को देखते ही चौथी समझ गये थे कि अब रामभरोस दूसरी दुनिया के सैर पर निकल कर देहाघ्यात्म में चले जाएंगे सो यहां बैठे रहना ठीक नहीं, वे फौरन वहां से चल दिए। रामभरोस यही चाहते भी थे कि चौथी चले जांये फिर जोतिया के माई से अन्तरंग बातें हों देह की समाधि और साधना वाली।
रामभरोस ने जोतिया के माई से पूछा....कृकृ
‘का रे जोतिया की माई! आज कल का हो रहा है? तूं कभी बखरी पर देखाती नाहीं हो, का बात है, नाराज हो का?
‘हम तो घरै पर हैं सरकार! टैम नाही मिलता है कि एहर आंए। आप भी तो खोज खबर नाहीं लेते हैं। आज सनेश मिला और हम चले आए। अब तो हमारी तबियत भी खराबै रहती है, कब्बौं कुछ तो कब्बौं कुछ लगा रहता है।’ं
‘का हुआ रे! तेरी तबियत को?’
रामभरोस ने पूछा जोतिया की माई से...कृ
‘तबियत को का होना है सरकार! वैसा तो हरदम होता रहता है हर महीनवै में अउर का?’
जोतिया की माई ने गंभीर हो कर रामभरोस को बताया....कृ
रामभरोस उसके मजाक को नहीं समझ पाये कि वह का बोल रही है उन्होंने हमदर्दी दिखाते हुए पूछा।
‘का होता रहता है हरदम रे! हरदम बिमारय रहती हो का?’
जानने के लिए जोतिया के माई से रामभरोस दुबारा पूछे...कृकृ
‘का होता रहता है हरदम रे? हम कुछ समझे नाहीं....
जोतिया की माई ने बिना संकोच रामभरोस को बताया। वैसे भी उसे संकोच तो करना नहीं था, बस वह लजाने का अभिनय कर रही थी। उसे तो रामभरोस को एहसास कराना था कि जोतिया की माई अब भी देह वाली है तथा उसकी देह में मन को गहरे तक धकेलने वाली वाली ऊर्जा है। इस उमर में भी वह समाधिस्त हो सकती है। रामभरोस तो उसे विशेष काम से बुलाए थे, काम आसान नहीं था जिसे वे आसानी से जोतिया की माई को बता देते। उसके लिए जोतिया की माई को उन्हें मोहना था फिर तो वे उसे मोहने वाले लक्ष्य पर आ गये।
‘का रे! जोतिया की माई तूं अपना नेग वगैरह ले गई कि नाहीं, तोहार साड़ी और बिलाउज आ गया है, उसे आजै ले जाओ।’ हां रे तोहसे हमारा एक काम है, तोहें ओके कराना है हर हाल में। ओकरे लिए चाहे जितना खर्चा पानी लगे, बूझ गई न।’
‘काम का है सरकार! आप हुकुम तो कीजिए....’
काम काज का मतलब जोतिया की माई अच्छी तरह से जानती थी। उसका मतलब होता था कि वह किसी तरह से रामभरोस के लिए एक स्वस्थ, सुन्दर, देखनहरू मेहरारू का इन्तजाम करे, दू चार रात के लिए, चाहे एकै रात के लिए ही, पर करे जरूर।
जोतिया की माई जब से सहपुरवा में आयी है, तब से यही ध्ंाधा कर रही है। पहली बार ही उसे रामभरोस मिल गये थे। वह रामभरोस के बगीचे में काम कर रही थी फिर क्या था रामभरोस ने अपना पौरुष दिखाना शुरू कर दिया। वह कितना भागती, भाग कर कहां जाती, घना बगीचा सूर्यास्त के बाद वाला ताजा अन्धेरा, वह भागते भागते भहरा गई तब से लेकर आज तक भहरा ही रही है। कभी किसी के बिस्तरे पर तो कभी किसी के। रामभरोस उसे पहले बुलवा लिया करते थे तब उसकी देह अपने तन तथा मन के रयासन वाली थी। वह नहीं भूलती कि भहराने के बाद रामभरोस ने एक बार उससे कहा था....
‘जोतिया की माई तूं हमार गुरू है रे!’
गुरू तो जोतिया के माई को रामभरोस मानते ही थे। जोतिया के माई को खुद नहीं पता कि वह कितनों की गुरू है। आखिर किस किस से पूछे, एक दो होते तो पूछ भी लेती। जोतिया की माई जानती है कि रामभरोस का विरोध करने से कोई फायदा नहीं। उसका पति उसकी सुरक्षा नही कर सकता। उसका पति सीधा है, सरल है, जिसने जैसा समझा दिया उसे देववाणी मानने वाला। वह रामभरोस से नहीं लड़ सकता। अपने पति की भी सुरक्षा उसे ही करनी है साथ ही साथ अपनी भी। गॉव में केवल रामभरोस ही तो नहीं हैं, कई लोग हैं जो इठलाती देह को खिलौना बनाने के लिए तीनतिकड़म किया करते हैं। रामभरोस की गोद में जाने का मतलब फिर कोई उसे गुड़िया नहीं बना सकता। बेचारी का करती थक-हार कर रामभरोस के अन्तःपुर वाले दरबार की परजा बन गई।
जोतिया की माई अपनी बिटिया जोतिया की देह देख कर परेशान परेष्शान है। वह सयानी हो रही है। उसकी देह रोज ही कसावों की तरफ बढ़ रही है, देह के सुगठित उभारों से वह खूबसूरत दिखने लगी है। उसकी देह पर फुदकने की कोशिश में मनचले जुट गए होंगे। जोतिया को मनचलों तथा मनबढ़ो से सुरक्षित बचाने की चिन्ता उसे परेशान करती रहती है। गॉव में सबसे बड़े मनचले तो रामभरोस ही हैं।
वह जानती है कि जोतिया को भी कागज वाली ही नहीं बलखाती देह वाली गुड़िया रामभरोस बना देंगे उसके माफिक। फिर वह किसी की नहीं रह पाएगी। एक बार की ही तो बात होती है। रामभरोस के सामने वह भहरा गई तो भहरा गई, पर वह जोतिया को नहीं भहराने देगी इसके लिए उसे चाहे जो करना पड़े। वह सहपुरवा छोड़ कर भाग जाना चाहती है, पर भाग कर कहां जाए? सभी जगह तो रामभरोस और रामदयाल हैं। जोतिया को देख कर कहने वाले कहते हैं कि वह रामभरोस पर पड़ी है। उसेे भी लगता है कि वह रामभरोस से ही जनमी है। उस समय उसका संबध भी पति के अलावा केवल रामभरोस से ही था। वह रामभरोस के साथ रह कर उनका हर काम करते हुए आज तक कर्जा पटा रही है। कर्जा पटाते पटाते खुद भी पट गई पर कर्जा नहीं पटा। वह रामभरोस को जब भी देखती है ऊपर से मोहने का काम करती है पर मन के भीतर गरियाती है। उसका मन करता है कि उनके मुंह पर पिच्च से थूक दे। वह अब ऊब चुकी है, कोई नहीं जानता उसका दरद, उसके होने का अन्तर्द्वन्द। इस बार रामभरोस के पूछने पर उसे लगा कि रामभरोस जोतिया के बारे में कह रहे हैं। जोतिया के बारे में नहीं कह रहे हैं तो का हुआ आज नहीं तो कल जोतिया के बारे में जरूर कहेंगे। ओन्है लाज शरम तो है नाहीं। पर भगवान की कृपा थी कि रामभरोस ने फेकुआ की मेहरारू के बारे में उससे कहा कि उसे पटाना है चाहे जैसे। राजी हो गई तो ठीक नहीं तो किसी न किसी दिन उसे उठवाना पड़ेगा। जोतिया की माई रामभरोस से इनकार नहीं कर सकती थी। रामभरोस से इनकार का मतलब कई तरह की बर्बादी, गॉव से खदेड़ा जाना, टोनही का ठप्पा लगवाना। गॉव की एक दो औरतों ने रामभरोस की बात नहीं माना था, उनकी गोदी में भहराने से इनकार कर दिया था। रामभरोस ने गॉव में डंका पिटवा दिया कि वे टोनहीं हैं फिर गॉव वालों ने ही उन औरतों को मार-पीट कर गॉव से खदेड़ दिया। अब तक पता नहीं चला कि वे कहॉ हैं, नदी, नाले में डूब कर मर-बिला गई होंगी!
जोतिया की माई डर गई रामभरोस से, ये जो कहें वैसा ही करो नहीं तो रात ही में वे जोतिया को उठवा लेंगे फिर वह का करेगी? ऐसा तो संभव नहीं कि रामभरोस को जोतिया के बारे में नहीं पता होगा, जरूर पता होगा। वे सहपुरवा की माटी तक सूंघते रहते हैं फिर कैसे संभव है कि उनके तक जोतिया की गंध न पहुंची हो।
जोतिया की माई सवधान रहा करती थी रामभरोस से, अगर रामभरोस की ऑखें जोतिया पर टिक जांएगी फिर तो वह उनसे साफ साफ बोल देगी। का करने जा रहे हैं सरकार! जोतिया तो आपकी ही बिटिया है, का आप अपनी बिटिया को ही गोदी में झुलांएगे? उसी की देह पर साधना करेंगे? पर ऐसा समय जब आएगा तब आएगा, अभी तो फेकुआ की मेहरारू के बारे में रामभरोस बतिया रहे हैं। उसे बहुत सावधानी से रहना होगा सो जैसा रामभरोस कह रहे हैं वैसा ही करना चाहिए। बहुत कुछ सोच समझकर जोतिया की माई ने रामभरोस से ‘हां’ कह दिया था कि फेकुआ की मेहरारू को बखरी में लाने के लिए वह पूरी कोष्शिश करेगी।
'''‘पता नहीं क्या है कि जनप्रतिरोध
खुदबखुद तनेन हो जाते हैं किसी को पता
नहीं चला कि कैसे जनम गया सहपुरवा में जनप्रतिरोध?’'''
पंचायत भवन का शिलान्यास होते ही हरिजन बस्ती में कोकहाड़ मच गया। गॉव वालों से औतार को जो कहना था वे कह ही चुके थे। सुक्खू ने भी हरिजनों के चौधरी को बुलवा कर सारा वृतांत बता दिया था कि चौथी गवहां ने फेकुआ का कोला लवा लिया और औतार का पट्टा खारिज करा कर उस पर पंचायत भवन रामभरोस बनवा रहे हैं। हरिजनोें के चौधरी रामभरोस को जानते थे। उनके आतंक और स्वभाव के बारे में उन्हें सारा कुछ पता था। पुनवासी ने ही सुगिया के मामले में पंचायत किया था। उन्हें पता था कि सुगिया को उसके घर में से रामभरोस उठवा ले गये थे। उस पंचायत में औतार को दरी और भात माड़ की सजा मिली थी। औतार ने जैसे तैसे भात माड़ और दरी पंचायत को दे कर सजा भुगता था।
जमीनदारों के राज में हरिजनों की कौन सुनता था पर अब ऐसा नहीं है। पुनवासी चौधरी जानते हैं, उन्होंने निश्चित कर लिया है कि इस बार पहले की तरह नहीं होगा कुछ न कुछ करना होगा रामभरोस के खिलाफ। उनकी मनमानी नहीं चलने दी जाएगी। देश की आजादी की गंध पीकर पुनवासी बदल गये थे उन्हें लगने लगा था कि अब डर कर नहीं रहना चाहिए हालांकि उन्होंने स्वतंत्राता संग्राम में हिस्सा नहीं लिया था। पर उस संग्राम को देखा जरूर था। उनके सामने ही विजयगढ़ के राजा लक्ष्मण सिंह को गिरफ्तार किया गया था और वे इन्कलाब जिन्दाबाद बोलते हुए गिरफ्तार हुए थे। गिरफ्तार होते समय उनके चेहरे पर तनिक भी शिकन नहीं थी, उनसे भाग चुका था डर, वे निर्भीक हो चुके थे। उनका चेहरा आजादी की चमक से अचानक चमक उठा था। बाद में पता चला कि अंग्रेजों ने लक्ष्मण सिंह को सुअरसोत के जंगल में गोली मार दिया था। लक्ष्मण सिंह का चेहरा आज भी याद करते हैं पुनवासी चौधरी, बात बात में कहा करते हैं....कृ
‘हमरे विजयगढ़ में तो एकै मरद थे, बाबू लक्ष्मण सिंह, लड़ गए थे अंग्रेजों से। पूरे छह महीने तक रामगढ़ रियासत में अंग्रेजों की एक भी न चली। कलक्टर को तो ऐसा झापड़ मारे थे कि वह भहरा गया था वहीं जमीन पर। उनके बाद तो विजयगढ़ में कोई मरद हुआ ही नाहीं।’
पुनवासी को अचानक लक्ष्मण सिंह ने जकड़ लिया। वे लक्ष्मण सिंह की तरह बोलने लगे, कड़क और ओजपूर्ण....
‘भाईयों जान लो जमीन किसी के बाप की नाहीं होती है। सब कुछ आदमी बना सकता है पर जमीन नाहीं बनाय सकता, नदी, पहाड़ कुछ भी नाहीं बनाय सकता। यह सब तो भगवान ने बनाया है, सभी के लिए कुछ लोगों के लिए नाहीं। सारी जमीन सरकार की है। सरकार ने ही औतार को जमीन का पट्टा दिया था। उसे रामभरोस कैसे खारिज करा सकते हैं। यह सब जो सहपुरवा में हो रहा है हमलोगों की कायरता और कमजोरी के कारण हो रहा है। एक बात और सोचिए आप लोग! अपने जॉगर से रामभरोस पंचायत भवन तो बनाएंगे नाहीं। उसे तो हमारे जैसे मजूरा ही बनांएंगे फिर काहे के लिए परेष्शानी है। एक काम करना है हमलोगों को, पंचायत भवन पर काम करने ही नाही जाना है फिर कैसे बनेगा पंचायत भवन। सभी मजूरों को पंचायत भवन के काम पर जाने से रोकना होगा, मजूरे मान भी जाएंगे। कोई नाहीं जाएगा पंचायत भवन के काम पर।’
बैठक में ढेर सारी बाते हुईं, बातंे सभी की वाजिब थीं। पंचायत भवन के निर्माण का काम रोकने के मुद्दे पर लोगों की आशंका थी कि मारपीट हो सकती है उसमें से उपस्थित लोगों ने कहा कि हम भी मार करेंगे अगर वे हमैं मारेंगे तो हम ओन्है नाहीं छोडेगे, हम लोग भी उन्हें मारेंगे जो हमैं मारने आएगा। बातें बहुत हुईं पर सभी बातांे से पुनवासी को क्या लेना देना था। सभी के द्वारा मान्य बात पर आखिरी फैसला हुआ कि पंचायत भवन किसी भी हाल में नहीं बनने देना है। इसके लिए चाहे जो करना पड़े। पंचायत में यह भी तय किया गया कि पहले हमलोग शान्ति से काम लेंगे अगर झगड़ा झंझट हुआ तो थाने पर रपट करेंगे। थाने पर गवाही देंगे, चन्दा इकठ्ठा करके मुकदमा लड़ेंगे, वे डंडा चलांएगे तो हम भी चलाएंगे जैसे हल चलाते हैं, उन्हें जोत कर पाटा दे देंगे। रामभरोस जैसे आदमी के कंट्रोल में रहने से अच्छा है कि जेल के कंट्रोल में रहा जाए वहां तो खाना भी मिलता है, जान की सुरक्षा भी रहती है। गॉव में रहो तो सरकार ख्याल नहीं करती जेल में रहने पर तो ख्याल करेगी ही। और इस गॉव में का है? बिना खाए मरो। पर अब नाहीं बहुत हो चुका, सहपुरवा में रहना है तो शान से रहना है।
हरिजनों की बैठक के बारे में शोभनाथ पंडित को कुछ भी पता नहीं था। कुछ आवश्यक समझ कर औतार को बुलाने के लिए शोभनाथ ने प्रसन्नकुमार को हरिजन बस्ती की तरफ भेजा था। प्रसन्नकुमार औतार को खोजते हुए हरिजन बस्ती में पहुंचा तब उसे मालूम हुआ कि पंचायत भवन के बाबत हरिजनों की बैठक हो रही है। औतार बिरादरी की बैठक में थे। बैठक गॉव के पोखरे पर हो रही थी। जहां बैठक हो रही थी प्रसन्नकुमार वहां जा पहुंचा। औतार को देखा कि वे बैठक में व्यस्त हैं। औतार ने इशारा भी किया जिसे प्रसन्नकुमार समझ गया कि सभी लोग उसे बैठक में बैठने के लिए बोल रहे हैं। प्रसन्नकुमार बैठक में शामिल हो गया। हरिजन सोच नहीं सकते थे कि उनकी बैठक में प्रसन्नकुमार बैठेगा उन्हीं लोगों के अगल बगल सट कर। वे तो यही जानते थे कि उनकी देह मालिकों को घिनाती है पर प्रसन्नकुमार बहुत सहजता सेऔतार के बगल में बैठ गया। पुनवासी चौधरी प्रसन्नकुमार को अपनी बिरादरी की बैठक में बैठा देख हुमक पड़े....कृ
‘भइया जी आप बताएं हमलोग का करें, औतार की जमीन पर रामभरोस पंचायत भवन बनवा रहे हैं।’
‘देखिए चौधरी साहेब, बैठक वगैरह करने से कुछ नहीं होने वाला। बैठकें तो होती रहती हैं। पर होता कुछ नाहीं है। हम तो सोच रहे हैं कि पंचायत भवन पर आप लोग काम करने ही न जांए और न किसी मजूर का जाने दें। समझ लीजिए काम हो गया। रामभरोस अपने जांगर से पंचायत भवन तो बना नहीं पाएंगे। पंचायत भवन का काम एक दिन का है भी नहीं, बुनियाद पड़ेगी, फिर दीवार उठेगी। कम से कम महीने भर का समय लगेगा। अगर आप लोगों ने वहां काम करना बन्द कर दिया फिर समझ लीजिए काम हो गया। इस बैठक में काम बन्द करने का प्रस्ताव पास कराइए चौधरी साहेब कि पंचायत भवन पर काम करने कोई मजूर नहीं जाएगा।’
प्रसन्नकुमार का इस तरह बोलना आग में घी डालना था किसी ने वहां कहा भी कि ‘बांस के जरी बांसय जामता है’ यानि जैसे शोभनाथ पंडित वैसे ही उनका लड़का भी।
किसी दूसरे ने प्रसन्नकुमार की नियति पर सवाल उठा दिया....कृ
‘प्रसन्नकुमार ईहां ऐसा बोल रहे हैं पर रामभरोस के सामने होने पर घिघियाने लगेंगे, मुकर जांएगे, फिर कुछ नहीं करेंगे।’
प्रसन्नकुमार अपनी आलोचना सुन रहा था और महसूस कर रहा था कि हजारों साल की यातनाओं ने इन्हें अविश्वासी बना दिया है। हजारों साल की प्रताड़ित लोग भला कैसे विष्वास कर सकते हैं प्रताड़कों पर? सभी ने इन्हें ठगा है, इनकी उदारता का बेजा लाभ उठाया है, मारा-पीटा है, गालियॉ दी हैं। इनके दिल दिमाग से विश्वास का गायब होना कोई अचरज नहीं।
पर किसी को नहीं पता कि प्रसन्नकुमार चाहता क्या है? प्रसन्नकुमार चिन्तित हो गया। उसे कोई न कोई प्रमाण देना पड़ेगा तभी लोग मानेंगे। पर वह जानता है कि उसमें गरीबों के साथ चलने की ऊर्जा है। अभी उसने कोई ऐसा उदाहरण भी तो प्रस्तुत नहीं किया है जो साबित करता हो कि उसका पक्ष गरीबों का है। वह वहां मीटिंग में का बोलता इस बाबत, फिर भी बोला....कृ
‘आप लोग मेरे ऊपर सन्देह कर रहे हैं यह सही है। आपलोगों को मेरे जैसांे पर सन्देह करना भी चाहिए। पर सभी एक तरह नहीं होते, अब तो समय आ गया है, आपलोग देख लेंगे कि आपलोगों के साथ मैं हूं या नहीं हूं।’
प्रसन्नकुमार खुद को नहीं रोक सका वह आवेश में आ गया, उसका चेहरा लाल हो गया। वह हरिजनों के आतंकित मन का विश्लेषण करते हुए घर वापस लौटा। आज के समय में हरिजन किसी पर विश्वास नहीं कर सकते कितना खतरनाक समय आ गया है कि उन्हें किसी पर विश्वास भी करने नहीं दे रहा। हरिजनों का समाज पर अविश्वास शोषण और अत्याचार का ही सबूत है। वे शंकालु हो गये हैं जिसके कारण उनके पहचानने की शक्ति कमजोर हो गई है। वे उसे भी नहीं पहचान पा रहे हैं जो उनकी भलाई करना चाहता है जो दुश्मन हैं उन्हें क्या पहचानना? वे समाज को शक़ की निगाह से देखते हैं, सचाई भी तो यही है उन्हें हर मोड़ पा छला गया हैं। उनके साथ जीवन जीने के तमाम रास्तों पर किसिम किसिम की चालें चली गई हैं। उनकी तरक्की रोकने के लिए बन्द कमरों में छलावा पूर्ण योजनांए बनाई जाती हैं? अखबारों में उन पर होने वाले अत्याचारों को प्रकाशित करने में भी राजनीति की जाती है। किसिम किसिम की फर्जी जांच कमेटियां नियुक्त की जाती हैं। अंग्रेजी जमाने से यही क्रम आज तक चला आ रहा है। कहने को तो कहा जाता है कि सरकार सभी की है पर काम केवल अमीरों एवं लुटेरों का ही करती है। विश्वास और अविश्वास की लड़ाई में हरिजनों के विश्वास को छीन लिया गया है, केवल सांसे लेते हुए अब वे भगवान की प्रार्थनांए कर रहे हैं। उनके पास एक ही रास्ता बचा हुआ है भगवान की प्रार्थनाओं से खुद को सजाने, संवारने का। वे वैसा कर भी रहे हैं।
इधर उधर कर करा कर कुछ दिनों बाद पंचायत भवन का निर्माण रामभरोस ने प्रारंभ करा दिया। प्रसन्नकुमार और शोभनाथ पंडित पंचायत भवन का बनना सरकारी स्तर पर नहीं रोकवा सके हालांकि उन लोगों ने अपने स्तर से खूब पैरवी किया था फिर भी। प्रशासन भी खूब खूब होता है जो कुछ खास लोगों की ही सुनता है और उनकी बातों को गुनता है।
प्रसन्नकुमार ही नहीं रामभरोस के लड़के विभूति के मन मे भी काफी दुख था कि वे पंचायत भवन का निर्माण नहीं रोकवा सके। विभूति भी नहीं चाहता था कि औतार के पट्टे वाली जमीन पर पंचायत भवन बने पर वह अपने पिता का प्रत्यक्ष विरोध नहीं कर सकता था। पंचायत भवन निर्माण रोकवा सकने की ताकत उसके पास थी भी नहीं। विभूति और प्रसन्नकुमार को दुख इस बात का था कि उन दोनों पर हरिजन विश्वास नहीं कर रहे थे। हरिजन विश्वास करते भी तो क्यों? विभूति और प्रसन्नकुमार दोनों सवर्णों के लड़कों लफाड़ियों में शुमार थे। और विभूति तो रामभरोस का ही लड़का था सो हरिजन उस पर काहे विश्वास करते। बात साफ थी। रही बात प्रसन्नकुमार की तो वह भी नेता परेता तो था नहीं, एक सामान्य सा लड़का था। उसके पास लोगों का प्रभावित कर सकने की नेताओं वाली कला न थी।
प्रसन्नकुमार को नेता कहा भी जाता तो क्यों? वह नेता था भी नहीं और न ही नेताओं वाली उसके पास कला थी। वह रापटगंज में रह कर पढ़ता था। छन्नू या बेचन की चाय, पान की दूकानों पर भी वह नहीं जाता था जहां नेताओं का जमघट लगा करता था। खादी आवरणधारी भी नहीं था। उसकी फोटो भी अखबारों में नहीं छपती थी। उसका बयान कभी भी इस बाबत अखबारों में प्रकाशित नहीं हुआ था कि रापटगंज क्षेत्रा में और क्षेत्रों के मुकाबिले गरीबी अधिक है। सूखा पड़ने पर भी यहां सहायता कार्य नहीं चलाए जाते हैं। वह किसी दल विशेष का सदस्य भी नहीं था। भंाग खा कर रात भर बाजार में घूमता नहीं था। उसके पास यह भी कला नहीं थी कि देश की राजनीति को भंाग की गोली में भर ले और राजनीति, राजनीति चिल्लाता रहे। यहां तक कि उसे जार्ज फर्नाडिंस या अटल जी के जुकाम होने पर जुकाम भी नहीं होता था। वह ऊंच-नीच का भेद तो कत्तई नहीं जानता था। वह तो एक ऐसा आदमी था जो अपने समय में रहते हुए भी आदमी और आदमी में भेद नहीं कर पाता था। जाने कैसे किन सैद्वान्तिक आधारों के कारण वह सिर्फ यह जानता था कि सभी के खून का रंग एक ही तरह का लाल लाल होता है। चाहे वह किसी का हो, अमीर का हो, गरीब का हो। उसे इतना ही मालूम था कि आदमी को रोटी चाहिए। एक आदमी दूसरे आदमी का शोषण न करे और हर हाल में आदमी बना रहे। वह तो बस इतना ही जानता था। प्रसन्नकुमार ने तय कर लिया था कि औतार के पट्टे वाली जमीन की घटना को राजनीतिक रंग देना है इस काम के लिए जितना वह कर सकता है औतार के लिए करेगा और पट्टा को किसी भी तरह बहाल कराएगा। उसे पता था कि इस तरह की घटना केवल उसी के गॉव की ही नहीं है पूरे क्षेत्रा की है। प्रसन्नकुमार कोई विचारक नहीं था पर उसे पता है कि हरिजन और छोटे किसान हर जगह प्रताड़ित हैं। उन्हें किसी भी हाल में राजनीति की उदारता या अनुकंपा नहीं मिल रही। हरिजनों के बारे में कोई नहीं सोच रहा, कम्युनिस्ट भी जाने किस प्रकार की राजनीति कर रहे हैं, न उनके पास सरकार का विरोध करने की ताकत है और न ही प्रार्थनाआंे वाली विनम्रता है।
प्रसन्नकुमार देख चुका था कि ईमरजेन्सी लगने के कारण देश के विरोधी नेताओं को अचानक एक झटके में जेल में डाल दिया गया। बिना वारंट के विरोधी नेताओं की गिरफ्तारियां की र्गइं जो अब भी जारी हैं। पुलिस जब चाहती है जिसे चाहती है उठा लेती है। सड़कें पुलिस की हो गईं हैं। उन पर उनके बूट दौड़ रहे हैं। प्रसन्नकुमार देख रहा था कि सरकारी घोषणांए यूं ही हवा में उछलने वाली चीजों की तरह उड़ रही हैं। भूमि आवंटन तथा नसबंदी में होने वाले अत्याचारों को वह जानता था।
प्रसन्नकुमार ने एक पर्चा छपवाया जिसमें हरिजनों व दलितों पर होने वाले अत्याचारों के विवरण थे। पर्चे में सारा कुछ साफ साफ लिखा था, पर्चा पढ़ने से ऐसा लग रहा था कि उसे किसी प्रताड़ित आदमी ने ही छपवाया होगा।
‘आज हम छोटी बिरादरी के लोग, छोटी जोत के लोग एक दूसरे से अलग थलग होते जा रहे हैं। हममें मतभेद भी बढ़ते जा रहे हैं। कुछ थोड़े से लोग जो शक्तिमान हैं, वे बड़ी जोत व जाति वाले हैं। वे हमारी फूट का नाजायज फायदा उठा रहे हैं। लगता है ‘जोत’ और ‘जाति’ का पुराना रिश्ता है। जिसकी जोत बड़ी, उसकी जात भी बड़ी। हमारी स्वतंत्राताएं छीनी जा रही हैं। भूमि आवंटन में धांधलियां की जा रही हैं। जोर जबरदस्ती नसबन्दियां करवाई जा रही हैं। हमारे सम्मानित नेताओं को जेलों में बन्द कर दिया गया है और किया जा रहा है। ऐसे में हम क्या करें? रास्ता क्या है? चुनाव, संघर्ष, क्रांति, प्रतिक्रांति, संपूर्ण क्रांति या 47 के पहले वाली बात, फिर वही सवाल, शासन कौन करेगा? जनता या कुछ लोग। कमजोर या ताकतवर? कौन करेगा शासन? भूख और भोजन के बीच की दूरी नापने में परेष्शान जनता या खाए, अघाए, महलों में अय्याशी करने वाले लोग। अंग्रेजी मिजाज के देशी लोग या भारतीय मिजाज के गरीब लोग। आखिर शासन कौन करेगा हम पर? हम अपनी पीठ तथा पेट किसके सामने दिखायंे, उस पर किस हुकूमत का नाम लिखंे, सियाही से लिखें या खून से?’
पर्चा नकली नाम से छपा था आपात काल में उसे असली नाम से छपवाने का साहस प्रसन्नकुमार के पास नहीं था।
पर्चा बंटने लगा, प्रसन्नकुमार गॉव गॉव घूम कर सरकारी नीतियों की आलोचना करने लगा। वह लोगों तक पहुंचने लगा, लोग उसके पास आने लगे, जनता से जुड़ाव वाला एक नये किसिम का राजनीतिक सिलसिला शुरू हुआ। वह लोगांे की बातें सुनता, लोग उसकी बातें सुनते। लोगों का विश्वास उस पर बढ़ने लगा, लोग उसके साथ होने लगे। कहीं उसे नफरत और आलोचना भी मिलती पर वह निराश नहीं होता। उसे जनता का प्यार मिलता और दुलार भी जो उसे ताकत देती। प्रसन्नकुमार महसूस कर रहा था कि लोग उसके सामने उसकी हां में हां तो मिला देते थे पर कुछ लोग ही उसके साथ चल पाते थे। अपने गॉव से निकल कर दूसरे गॉव में जाने के लिए अक्सर नौजवान लड़के ही तैयार होते थे और उसके साथ चल भी पड़ते थे। प्रसन्नकुमार हार मानने वालों में से नहीं था। वह अपने अभियान को हर हाल में जनता का अभियान बनाना चाहता था।
किसी और को भले ही न मालूम हुआ हो कि पर्चा किसने छपवाया था पर रामभरोस को मालूम हो गया था। रामभरोस को अच्छा मौका मिला शोभनाथ पंडित से निपटने का। पर्चा के बहाने शोभनाथ ही नहीं प्रसन्नकुमार को भी वे जेल भिजवा सकते हैं। फिर तो रामभरोस कृपालु जी से मिलने रापटगंज चले गये।कृ
कृपालु जी अपने घर पर ही थे, मिल गये। रामभरोस को देखते ही उन्होंने प्रसन्नता ओढ़ लिया....कृ
‘आइए, आइए रामभरोस जी, आपका ही इन्तजार कर रहा था। यहां तो आनंद ही आनंद है विरोधी दलों के कुछ लोग जो नेता बना करते थे, साले बाहें फुलाते थे उन सालों को जेल भिजवा दिया है। उनमें जो साले चतुर तथा नमक हराम थे वे फरार हो गये हैं। पर जांएगे कहां? एक न एक दिन तो पकड़ाएंगे ही।
‘वाह वाह ’ रामभरोस ठठाए
कुछ देर बाद रामभरोस ने मुह खोला....
‘पर कुछ लोग अभी भी बाकी रह गए हैं पंडित जी, उनकी गिरफ्तारी नहीं हो पाई है। जबकि वे कमीनई कर रहे हैं।’
कुर्ते की बांह चढ़ा कर कृपालु जी ने रामभरोस से पूछा...
‘कौन बाकी रह गया है हो?’
‘अरे पंडित जी! वही शोभनथवा का लड़कवा, का तो नाम है उसका, अरे प्रसन्नकुमरवा।’’ रामभरोस ने कृपालु जी को बताया...
‘का बात कर रहे हैं रामभरोस जी, वह तो पढ़ने लिखने वाला लड़का है, रापटैगंज में रहता है, उसको का फसाना ईमरजेन्सी में’
वैसे भी प्रसन्नकुमार कृपालु जी के दूर के रिश्ते में आता था। वह कृपालु जी की फूआ का लड़का था। रामभरोस तो गॉव से सोच कर चले थे कि वे कृपालु जी को राजी कर लेंगे और वे प्रसन्नकुमार को गिरफ्तार करवा देंगे पर कृपालु जी तो प्रसन्नकुमार के मामले में लोच खा रहे थे। वे नहीं चहते थे कि प्रसन्नकुमार गिरफ्तार किया जाए। रामभरोस ने चालाकी दिखाया और अपनी जेब से प्रसन्नकुमार वाला पर्चा निकाला।
‘पंडित जी यह पर्चा पढ़िए, इसमें सरकार की तेरही कर दी गई है। जरा पढ़िए इसे, वह पूरे क्षेत्रा में इहै पर्चवा बांट रहा है, जनता पर इसका बहुत ही बुरा असर पड़ रहा है। लोग कह रहे हैं कि कृपालु जी का नातेदार है का होगा इसका’आपकी बदनामी हो रही है पंडित जी....’
कृपालु जी ने तो उस पर्चे को पहले ही देख लिया था उनके लिए वह नई बात नहीं थी। नई बात सिर्फ यह थी कि उसे प्रसन्नकुमार ने छपवाया था। कृपालु जी खुद पता लगा रहे थे कि इस तरह का पर्चा किसने छपवाया और कौन बटवा रहा है। रामभरोस के बताने पर वे खामोश हो गये। वे सोच भी नहीं सकते थे कि उनकी रिश्तेदारी का कोई लड़का गिरफ्तार होकर जेल जाये। पर रामभरोस कम गोटीबाज नहीं थे उन्होंने ऐसा पैतरा बदला कि कृपालु जी को रामभरोस की बात माननी पड़ी। प्रसन्नकुमार को डी.आई.आर. का मुल्जिम बनवाने के साथ साथ उसे गिरफ्तार करवाने की पैरवी भी, कृपालु जी को करनी पड़ गई।
पर्चा बटवाने के पहले ही प्रसन्नकुमार अपना घर छोड़ चुका था। उसे पता था कि रामभरोस उसे गिरफ्तार करवाने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे। एक दिन वह विभूति के साथ रापटगंज गया था फिर दोनों वहां से कहां गायब हो गये सारा कुछ अज्ञात था। रामभरोस को पता नहीं था कि वे दोनों कहां हैं और क्या कर रहे हैं।
पर शोभनाथ पंडित को पता रहता था कि प्रसन्नकुमार कहां है और क्या कर रहा है। हालांकि पंडिताइन को पता नहीं था। प्रसन्नकुमार अपने पिताजी से बराबर संपर्क बनाए रखता था उन्होंने उससे कहा भी था कि अपने बारे में बराबर बताते रहना।
'''‘यह जो प्रषासनिक स्तर पर लूट और
आतंक का मामला है अपनों की ही लूट और आतंक
का मामला है किसी गैर के नहीं, पर इस सचाई को कौन समझे?’
'''
कृपालु जी की सक्रिय पैरवी के कारण प्रसन्नकुमार को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस सक्रिय हो गई और प्रसन्नकुमार को जगह जगह खोजने लगी। फिर भी प्रसन्नकुमार पुलिस को नहीं मिला। पुलिस पर कृपालु जी का दबाव था ही सो पुलिस ने फटाफट शोभनाथ पंडित के घर की कुर्की करना अपना लक्ष्य बना लिया। पुलिस के लिए कुर्की करना बहुत आसान होता है। पुलिस कुर्की करके खुद को सुरक्षित बचा लेती है फिर पुलिस पर सवाल नहीं उठ पाते।
दो चार दिन बाद, सात आठ सिपाहियों के साथ दारोगा जी सहपुरवा आ धमके। दारोगा का कहना था कि शोभनाथ पंडित के घर की कुर्की का उन्हें आदेष्श मिला है और वे उनकी कुर्की करने के लिए आये हैं। गॉव में इधर उधर पैतरा मारने के बाद दारोगा जी सीधे शोभनाथ के घर पर टपक पड़े। शोभनाथ पंडित घर पर ही थे। उन्होंने दारोगा जी को नमस्कार किया फिर जलपान के लिए निवेदन किया पर दारेगा जी ने नकार दिया।
‘मुल्जिम के घर का जलपान उन्हें नहीं करना है, वे सरकारी काम करने आए हैं जलपान करने नहीं।’
‘प्रसन्नकुमार आपका लड़का है नऽ उसके खिलाफ वारंट है आपने उसे कहां छिपाया हुआ है। सच सच बता दीजिए नहीं तो हम आपके घर की कुर्की करेंगे, यह देखिए कुर्की का आदेश।’
ष्शोभनाथ पंडित चौंक गये का बोल रहा है दारोगा? मेरे लड़के को काहे गिरफ्तर करेगा? का किया है उसने?’ शोभनाथ पंडित ने दारोगा से पूछाकृ
‘का किया है मेरे लड़के ने? काहे के लिए कुर्की का आदेश है, अगर मेरे लड़के ने अपराध किया है तो उसे गिरफ्तार कीजिए। मेरे घर की कुर्की काहे करेंगे?’
दारोगा हसने लगा, हसते हुए ही बोला....कृकृ
‘अरे पंडित जी वह डी.आई.आर. का मुल्जिम है, सरकार विरोधी पर्चा बंटवा रहा है, इसे देखिए, यह वही पर्चा है। सरकार विरोधी पर्चा बंटवाना अपराध है? पता नहीं कहां वह भाग गया है, खोजने पर नहीं मिल रह है और न ही उसने अब तक सरेन्डर किया फिर तो कुर्की ही न होगी वह भी आपके घर की ही, उसका कहॉ घर है?’
‘हां आप ठीक बोल रहे हैं। आपका कहना है कि प्रसन्नकुमार ने अपराध किया है तो उसके घर की कुर्की कीजिए, मेरे घर की कुर्की काहे करेंगे आप? यह कौन सा कानून हुआ? अपराध करे कोई और कुर्की हो किसी दूसरे घर की।’
ष्शोभनाथ पंडित जी तो पंडित जी थे उन्होने दारोगा को उलाहा....कृ
सहपुरवा के लोगों ने डी.आई.आर. का नाम कभी नहीं सुना था। यह का हो सकता है, कौन सा अपराध है यह? कतल, डकैती, फौजदारी, बलवा, बलात्कार, राहजनी आदि का नाम तो गॉव वालों ने सुना था पर डी.आई.आर. का नाम कभी नहीं। दारोगा जी के साथ रामभरोस भी थे। शोभनाथ पंडित रामभरोस का मुंह ताकने लगे। रामभरोस का ही खेल होगा प्रसन्नकुमार को डी.आई.आर. में फसवाने वाला। ष् शोभनाथ पंडित से नहीं रहा गया तो उन्होंने दुबारा दारोगा से पूछा....कृ
‘मेरे घर की कुर्की काहे करेंगे आप, अपराध प्रसन्नकुमार ने किया है मैंने तो नही किया हैं। बेटे के अपराध की सजा बाप को यह कैसा न्याय है दारोगा जी।‘
दारोगा तो दारोगा वह अपनी रौ में आ गयाकृउसके साथ कानून था, वह रौ में काहे नाहीं आता? रौ में आने की ही तो उसे ट्रेनिंग दी गई है। गुस्सा करना, मारना, पीटना इसी काम की तो उसने ट्रेनिंग लिया है। दारोगा तो केवल इतना ही जानता है कि अपराधी न मिले तो उसके मॉ बाप को थाने पर बिठा लो, उसके घर की कुर्की कर लो, उसका अपना घर न हो तो उसके बाप के घर की कुर्की कर लो।
‘बक बक जीन करो, प्रसन्नकुमरवा को हमारे हवाले कर दो नहीं तो गांड़ में डंडा कर देंगे, अभी हम शराफत से बतिया रहे हैं।’
पुलिस के अपने नियम और कानून होते हैं। वे नियम कुछ ज्ञात होते हैं तो बहुत कुछ अज्ञात होते हैं। अज्ञात कानून के अनुसार कुछ सिपाही शोभनाथ के घर में घुस कर घर की तलाशी लेने लगे। घर में प्रसन्नकुमार नहीं मिला, मिलता भी कैसे घर में वह था ही नहीं। फिर सिपाही घर का सामान बाहर फेंकने लगे। शोभनाथ पंडित के घर का सामान देखते देखते ही बाहर फेंक दिया सिपाहियों ने। वहां गॉव के लोग थे, शोभनाथ के हितुआ, मितुआ थे, गॉव की सभ्यता थी, आदर्श थे, सिपाही कुल आठ थे। आठ ही काफी थे। कानूनी सरकस करने में पुलिस को भला कितनी देर लगती?
ष्शोभनाथ पंडित के घर का सामान बाहर फेंक देने के बाद शोभनाथ के बैल, गाय, भैंस सब थाने की ओर ले जाए जाने लगे।
ष्शोभनाथ पंडित अवाक थे, सारा गॉव अवाक था, वे कुर्की देख रहे थे, ऐसी ही होती है कुर्की। घर का सारा सामान निकालो और उसे फेंक दो तथा थाने ले जाओ। प्रसन्नकुमार की मां और बहनें घर में रो रही थीं और पंडित शोभनाथ अपनी बर्बादी का कुर्कीनुमा दृश्य देख रहे थे। युग बदल रहा था और स्थितियां बदल रहीं थीं, नागरिक आजादी को ठेंगा दिखाया जा रहा था पर रामभरोस के लिए यह सब मनोरंजन था। उनके लिए वही पुराना वाला समय था। सामंती मिजाज वाला, चाहे जिसे मारो पीटो, प्रताड़ित करो। शोभनाथ की बर्बादी से भीतर भीतर वे हसियां बटोर रहे थे। शोभनाथ का बर्बाद हो जाना उनके लिए महज एक खेल था ‘जो उनसे टकराएगा चूर चूर हो जाएगा’ जैसा। शोभनाथ के घर का सारा सामान उनके घर के सामने कुछ ही देर में कूड़े करकट की तरह फेंक दिया गया। ऐसे ही तो होती है कुर्की। पुलिस की कुर्की का काम खतम हो गया। पुलिस ने आनन फानन में कुर्की का काम निपटा लिया। उस समय का दृश्य ही ऐसा था कि शोभनाथ पंडित का दिल दिमाग भी कुर्क हो चुका था।
‘कहां जाएगा साला प्रसन्नवा, भाग कर आएगा ही थाने पर, थाने पर जब वह हाजिर होगा वह दृश्य देखने लायक होगा।’
ष्शोभनाथ पंडित ने प्रसन्नकुमार की मां को रोता हुआ देख कर बहुत तेज डांटा था....कृ
‘काहे रो रही हैं पंडिताइन, प्रसन्नवा चोरी, डकैती नाहीं किया है। आपको नहीं पता कि इस समय देश के सारे विरोधी नेता जेल में बन्द कर दिए गए हैं। आपातकाल का जो सच है उहै सब तो भइया ने छपवाया है पर्चा में। भइया गिरफ्तार हो जाएगा तो का बिगड़ जाएगा, वह देश के लिए लड़ रहा है, अन्याय के खिलाफ लड़ रहा है। यह तो गर्व की बात है। समझ रही हैं नऽ। आपको तो भइया के काम पर खुष्श होना चाहिए और आप रो रही हैं। वह तो वही काम कर रहा है जो सरकार को करना चाहिए था। सरकार इसीलिए उससे नाराज है कि वह सरकार का काम क्यों कर रहा? जनता के लिए किया जाने वाला उसका काम सरकार को बुरा लग रहा है, इसी लिए पुलिस उसे खोज रही है। आखिर वह कौन होता है जनता का काम करने वाला, जनता का काम करने के लिए तो सरकार होती है, जनप्रतिनिधि होते हैं, वह तो केवल एक नागरिक है। एक नागरिक की इतनी हिम्मत कि वह जनता का काम करे।’
ष्शोभनाथ की बातें सुन कर दारोगा ने मुंह फेर लिया। शोभनाथ पंडित चुप थे जरूर पर उनके माथे पर चिन्ता की लकीरें नहीं थी। दमक रहा था उनका चेहरा जैसे उनके चेहरे परआजादी वाले संघर्ष के वास्तविक संकल्प नाच रहे हों।
ष्शोभनाथ पंडित के घर का सामान कुर्क कर लेने के बाद शोभनाथ पंडित को दारोगा बताता गया कि अगर प्रसन्नकुमार, दो, तीन दिन के भीतर थाने पर या अदालत में हाजिर नहीं हुआ तो कुर्क किया गया सारा सामान नीलाम करा दिया जाएगा।
आपसी तनातनी चाहे जैसे और जिससे हो पर गॉव का कोई लूट लिया जाए, वह भी थाने के द्वारा, उसे अपमानित किया जाए, गॉवों में ऐसे कामों को सहन नहीं किया जाता पर यही सहपुरवा में हो रहा था। गॉव में कुछ लोग थे जो इसे अच्छा नहीं मान रहे थे पर उनके हाथ बंधे हुए थे। मुंह सिले हुए थे। उनके हाथों में प्रशासन की हथकड़ियॉ थीं। चौथी गवहां हालांकि रामभरोस के आदमी थे पर उन्हें भी पुलिस द्वारा शोभनाथ का उत्पीड़न बुरा लग रहा था और वे दुखी थे। वे शोभनाथ पंडित से मिलना चाहते थे पर किस मुंह से मिलें। गॉव के अधिकांश लोग शोभनाथ के दरवाजे पर ही थे, उनके सामने ही कानून का तमाशा हो रहा था। उन्हें लग रहा था कि कानून बड़ा नहीं होता बड़े होते हैं रामभरोस जैसे लोग जो कानून को अपनी मुठ्ठी में बॉधे रहते हैं। कानून तो बहुत ही छोटा होता है, इतना छोटा कि रामभरोस जैसों की मुठ्ठी में बॅध जाता है। अगर अपराध किया है तो प्रसन्नकुमार ने किया है, उसे दण्ड दो। शोभनाथ के पसीने की कमाई को कूड़े की तरह उनके घर के बाहर क्यों फेंक दिए? सारे अनाज को एक में मिला दिया, दरवाजे, खिड़कियॉ तोड़ दीं, गालियॉ दी गईं शोभनाथ को। क्या यही सब करने के आदेश देता है कानून, कि घर दुआर गिरा दो, गल्ले को कूड़ा की तरह माटी में मिला दो, मारो पीटो, गालियॉ दो। क्या यही कानून होता है जनता के लिए और जनता वाला तथा जनता के द्वारा।
दारोगा के जाने के बाद जो सामान व्यवस्थित किया जा सकता था उसे गॉव वालों ने व्यवस्थित कर दिया। जो सामान कुर्क नहीं हुआ था उसे घर में रख दिया गया। गनीमत थी कि चारपाई और बिस्तरों को दारोगा ने कुर्क नहीं किया था। कुछ खाद्यान्न भी दारोगा के आतंक से बच गया था, उसे एक में मिलाया नहीं गया था। दारोगा ने घर में तोड़-फोड़ भी नहीं करवाया था कुछ दरवाजे तथा खिड़कियों को ही उखाड़ा था। दारोगा गाय, बैल और भैंसों को हंकवा कर थाने ले गया था। नुकसान में यह था कि सिपाहियों ने सारे अनाज को एक में मिला कर माटी में फेंक दिया था। चावल, गेहूं और धान को माटी में से अलग अलग निकालना कठिन काम था करीब करीब मुश्ष्कल था।
ष्शोभनाथ का सारा कुछ बर्बाद कर दिया गया था फिर भी हताश और निराश नहीं थे शोभनाथ पंडित।
कुर्की की घटना हरिजन बस्ती में अलग रूप धर लेगी किसी को अनुमान नहीं था। हरिजनों ने मान लिया था कि पंचायत भवन के निर्माण का विरोध करने के कारण ही प्रसन्नकुमार पर डी.आई.आर. लगाया गया है। यह सारा खेल रामभरोस ने खेला है। उन्हीं के कारण शोभनाथ के घर की कुर्की भी की गई है।
रामभरोस एक तीर से दो निशाना लगा रहे हैं, औतार और शोभनाथ दोनों पर। हरिजनों का साथ देना प्रसन्नकुमार के सामने कई तरह का बवाल लेकर आया। रामभरोस शोभनाथ पंडित को परेष्शान करना चाहते हैं, प्रसन्नकुमार को झूठे मुकदमे में फसा कर रामभरोस अपनी ताकत दिखा रहे हैं, और कुछ नहीं। हरिजन बस्ती में कुछ गिने चुने लोग ऐसे भी थे जिनकी आवाज दूसरी थी। उन्हें सहपुरवा के पूरे घटनाक्रम में प्रसन्नकुमार का षडयंत्रा दिख रहा था। आखिर वह हरिजनों के लिए ऐसा काहे कर रहा? उन्हें प्रसन्नकुमार पर सन्देह था। इसका जबाब हरिजन नहीं खोज पा रहे थे। ऐसा तो होता नहीं कि हरिजनों के लिए कोई सवर्ण खुद तवाह हो जाए। फिर भी बहुमत रामभरोस की निन्दा कर रहा था और प्रसन्नकुमार के साथ था।
ष्शोभनाथ के घर की कुर्की हो गई जिसे होना ही था। शोभनाथ का सारा सामान कुर्क कर लेने के बाद पुलिस सहपुरवा से चली गई थी। सहपुरवा बचा रह गया था, रामभरोस बचे रह गये थे, उनका आतंक बचा रह गया था। पर गॉव की संस्कृतिकृ उसका क्या? वह तो बनती बिगड़ती रहती है। वैसे भी संस्कृति की तो कुर्की होती नहीं। कुर्की खुद में संस्कृति होती है दमन वाली। किसी ने पुलिस का प्रतिरोध नहीं किया तो क्या हुआ, प्रतिरोध करने की संस्कृति गॉवों में होती भी तो नहीं, फिर कौन करता प्रतिरोध? ऐसा तो गॉवों में होता रहता है। शोभनाथ पंडित अपनी बर्बादी देखते रहे, उनके चेहरे पर पुलिस का आतंक और डर कत्तई नहीं था। गॉव भर परेशान और स्तब्ध, पर रामभरोस नहीं, वे मस्त मस्त थे कि उन्हें अपना रोब दिखाने का एक अच्छा मौका मिला।
ष्शोभनाथ गॉव के अपने हितैशियों को समझा रहे थे....कृकृ
‘का हो गया हो औतार! मेरा बेटा जेल चला गया तो... जेल में तो रोटी खाना सब सरकारी है,अब इससे अधिक क्या चाहिए किसी को। जेल में जिन्दगी भी तो सुरक्षित रहती है। वहां मारपीट का कोई डर नहीं होता। मन तो मेरा भी कर रहा है। एक बार जेल हो आते, मौका भी मिला था आजादी वाली लड़ाई में पर का बतांए, बाबू जी नहीं जाने दिए, मुझे भुसौल में छिपवा दिए।’
ष्शोभनाथ की बात सुन कर औतार चकराए हुए थे।
आपातकाल की घोषणा पहले ही हो चुकी थी। पूरे देश में कांग्रेस विरोधी नेताओं की गिरफ्तारियां हो चुकी थीं तथा उन लोगों की भी जो कांग्रेस विरोधी रहे हों न रहे हों पर कांग्रेसियों के विरोधी थे। बिना किसी डर भय के गॉव का हाल-चाल लेने के लिए विभूति और प्रसन्नकुमार एक दिन सहपुरवा आये हुए थे। उस दिन विभूति अपने घर नहीं गया वह प्रसन्नकुमार के ही घर पर रुक गया था। उन दोनों ने सरकार की जनविरोधी नीतियों एवं कार्यक्रमों के बारे में गॉव के साथियों को आगाह कर दिया था। रामभरोस की योजना के बारे में भी दोनों ने शोभनाथ पंडित को बताया था कि वे क्या कर सकते हैं। पूरी कोशिश करेंगे कि गिरफ्तारियां हों और चुन चुन कर हमारे अपने लोगों को गिरफ्तार करवाएंगे। सबको आगाह करने के बाद ही दोनों गॉव से रात ही में भाग गए थे।
ष्शोभनाथ पंडित प्रसन्नकुमार को मना करना चाहते थे और समझाना चाहते थे कि आग में न कूदो पर वे क्या समझाते वह तो उनके समझाने से बहुत आगे जा चुका था। जहां किसी भी तरह का समझाइस काम नहीं करती, वहां से उसका लौटना मुश्किल था। मजबूर हो कर उन्होंने अपनी सहमति दे दी थी। वे समझ चुके थे कि प्रसन्नकुमार को अब नहीं रोका जा सकता है। इतना निर्देश अवश्य दिये थे कि जहां कहीं भी रहना संवाद बनाए रखना।
प्रसन्नकुमार भूमिगत रहते हुए भूमिगत नेताओं के बाहरी आदेशों की प्रतिक्षा में था क्योंकि उसके लोग बाहर थे जो प्रदेश स्तर के थे तथा आपातकाल का सक्रिय विरोध कर रहे थे। प्रसन्नकुमार दौड़-धूप कर अपने बिखरे साथियों से संपर्क साध रहा था तथा उन्हंे सचेत भी कर रहा था कि सरकार के आगे किसी भी हाल में नहीं झुकना है, भले ही हम लोग टूट जांएगे पर झुकेंगे नहीं। बाहर से कोई कार्यक्रम भी नहीं आ रहा था कि आगे क्या करना चाहिए, निराशा तथा हताशा की स्थिति थी।
आपातकाल में वे लोग जो आपातकाल के पहले कागजी रूप से सरकार के मुखर विरोधी थे और अखबारों के जरिए बयानबाजियां किया करते थे सबके सब आपातकाल का समर्थक होते जा रहे थे। प्रसन्नकुमार को ऐसे लोगों से घिन होने लगी थी। कुछ ही लोग बचे हुए थे जो सरकार का विरोध कर रहे थे तथा सक्रिय थे। आपातकाल के दसवें पन्द्रहवें दिन के भीतर ही बहुत से लोग सरकारी बन चुके थे और घूम घूम कर सरकार की जय जय भी करने लगे थे। लगता था कि सारे समाजवादी संकल्प भहरा चुके हैं और मार्क्स मर गया है उसके साथ साथ लोहिया और गांधी का सत्याग्रह भी दफन हो चुका है। लोग गुंबारे की तरह हवा में उड़ने लगे हैं जिसमें भय की हवा भरी हुई है।
आपातकाल के काले समय में पता नहीं चल रहा था कि लोहिया वाली ‘जिन्दा कौमें’ इस देश में हैं भी कि नहीं हैं। पता नहीं वे कौमें कहां बिला गई हैं। उनमें से अधिकांश लोग तो जेलों में बन्द किए जा चुके थे। वे जेल से बाहर होते तब तो सरकारी अत्याचार के खिलाफ खड़े होते! एक ओर सरकारी अत्याचार शोषण और दमन, दूसरी ओर वुद्धिजीवियों में मरघटी सन्नाटा, प्रसन्नकुमार राजनीतिक परिदृष्य को देख कर परेष्शान परेशान था पर वह कर क्या सकता था? जो कर सकता था कर ही रहा था अपनी सीमा के भीतर।
विजयगढ़, जसौली ही क्या पूरा देश भीतर से कुछ और बाहर से कुछ दीख रहा था। पूरे क्षेत्रा में केवल सरकारी लोग ही दीख रहे थे तथा दूसरी दिखने वाली चीज थी सरकारी लोगों का आतंक। सरकारी लोगों का उस समय एक ही काम था चाहे जैसे भी सरकार विरोधी लोगों या अपने विरोधियों को डी.आई.आर. में फसवना। वे इसमें सफल थे इस काम में पुलिस उनके आगे पीछे डोल रही थी। वह एक ऐसा समय था जो पुलिस ही नहीं अन्य अधिकारियों के विवेक और प्रतिभा को छीन चुका था। वे कठपुतली माफिक सरकारी नाच नाच रहे थे। ‘जेकर राज ओकर दोहाई’ वाले वसूलों पर अधिकारी चल रहे थे। वैसे भी अधिकांश अधिकारी जय बोलने में माहिर होते ही हैं पर कुछ ऐसे भी कर्मचारी और अधिकारी थे जो दुखी थे तथा जय बोलने वाली परंपरा से अलग थे। ऐसे लोग हालांकि बहुत कम थे, पर थे। वे संवेदित थे तथा समझ रहे थे के गलत हो रहा है। आखिर कोई लोकतांत्रिक सत्ता निरंकुश कैसे हो सकती है? कैसे थोप सकती हैआपातकाल जनता पर?
थानेदारों की तो बन आई थी। वे भूल चुके थे कि जिन्हें झूठे मुकदमे में वे फसा रहे हैं वे भी उन्हीं के परिवार के सदस्य हैं। समान आर्थिक और सामाजिक स्थिति के लोग हैं फिर उन्हें वे क्यों गिरफ्तार कर रहे हैं? वे अपनी वर्गीय चेतना भूल चुके थे और अपना ही माथा फोड़ने में जुटे थे। दारोगाओं को अगर यह पता होता कि वह अपने हल्के में जो कर रहा है वैसा ही उसके मूल निवास वाले हल्के में भी उन्हीं की तरह का कोई दूसरा दारोगा कर रहा होगा। वहां भी उसके जैसा ही कोई दारोगा होगा वह भी वही कर रहा होगा जो वे यहां कर रहे हैं। फिर क्या हो रहा है यह सब? पर दारोगाओं के पास इतनी दूर की समझ कहां से होती, वे तो अपने में डूबे हुए लोग होते हैं। उन्हें अपने अलावा कोई और नहीं दिखता। यह जो प्रशासनिक स्तर पर लूट और आतंक का मामला है अगर ठीक से समझा जाए तो अपनों की ही लूट और आतंक का मामला है किसी गैर का नहीं पर इस सचाई को कोई समझ नहीं रहा।
प्रसन्नकुमार वैतनिक कर्मचारियों पर आंसू बहाता है, आन्तरिक विलाप करता है, क्या अपने आत्म की हत्या करके ही सरकारी बना जा सकता है या दूसरे विकल्प भी हैं। प्रसन्नकुमार कई तरह की सोचों में डूबा हुआ है वह उस अन्तर्विरोध को नहीं समझ पा रहा है कि लोग देह बेचने के साथ साथ दिमाग बेचने का भी काम आखिर क्यों कर रहे हैं? वह बिके हुए दिमागों में फस गया है जबकि किसान अपना धान और गेहूं भी नहीं बेच पा रहा है, कोई न कोई तिलिस्म है जरूर। प्रसन्नकुमार माथा पकड़ लेता है और खुद को तमाम तरह की सोचों से बाहर निकालने की कोशिश करता है।
अचानक उसकी आंखों के सामने प्रशासनिक क्षमताओं की बौद्विक ताकतों का विवरण किसी फिल्म जैसा घूमने लगता है....कृकृ
आई.ए.एस.,पी.सी.एस., कमिश्नर, कप्तान, तहसीलदार, दारोगा, अध्यापक, प्रधानाचार्य, संचालक, जवान, व्यवस्थापक, संस्तुति, प्रार्थना पत्रा, मुकदमा, अदालत, सोर्स, नौकरी, कंपटीशन, बड़ा मकान, छोटा मकान, फैक्टरी दर फैक्टरी, मकान दर मकान, उ.प्र., बिहार, राजस्थान, बुद्विजीवी, गरीब, शोषित, प्रताड़ित, विस्थापित, बाजार, सारा कुछ बेचो, दिल, देह और दिमाग कुछ भी, कुछ खरीद कर बेचो, कुछ बेच कर खरीदो, खरीदो और बेचो, अधिकार मांगो, स्वतंत्राता मांगो, रोटी मांगो और एक दिन अपना होना मांगो कि तूं हो कि नहीं, प्रसन्नकुमार उलझ जाता है और अपना माथा पीटने लगता है। वह करे तो क्या करे? हर ओर आग ही आग है, कुछ भी साफ और चिकना नहीं दिख रहा, चाहे जिधर जाओ जलना ही पड़ेगा।
प्रसन्नकुमार अपनी सोचों के अन्तर्द्वन्दों में फस जाता है वह नहीं समझ पाता है कि जीवन का मतलब क्या होता है? अचानक उसके मन में कविता सरीखी बात गूंजने लगती है।कृ
‘कुछ लोग, बहुत सारे लोग, उनमें आदमी कुछ ही लोग। उनकी आदतें भी खरीदी जा रही हैं, हम बिकाऊ हैं, हम बाजार में हैं और बाजार में मेरे साथ साथ मेरा चित्त और चेतना सभी बिकने के लिए खड़े हैं। हम बिके हुए हैं, हमारी सोच व चिन्तांए भी बिकी हुई हैं। हम उतना ही सोच व गुन पा रहे हैं जितना हमें सोचवाया जा रहा है, हमारी अपनी कोई सोच नहीं, हम बिके हुए सोच के लोग हैं।’
प्रसन्नकुमार की आंखें बन्द नहीं हैं खुली खुली हैं और उनमें कई तरह के फिल्म सरीखे चित्रा अपने आप तैरने लगे हैं, कहीं किसी कोने से भगत सिंह आ रहे हैं तो कहीं से सुभाष चले आ रहे हैं। फिर अचानक दृश्य बदल जाता है उन लोगों की चेहरों से कुछ चीजें गायब हो जाती है फिर वहां चन्द्रष्शेखर की मूंछ, भगत सिंह का हैट और सुभाष की टोपी ही बची रहती है। गांधी जी भी कहीं से टपक आते है फिर कहीं खो जाते हैं अपना चश्मा छोड़ कर। प्रसन्नकुमार गांधी का चश्मा अपने आंख पर चढ़ा लेता है। वह समय को गांधी की ऑख से देखना चाहता है पर उसे हर ओर अन्धेरा ही अन्धेरा दिख रहा है। गॉधी जी के चश्मे का लेन्स खराब हो चुका है। वह गांधी का चश्मा उतार फेंकता है। इसमें कुछ नहीं दिख रहा। उसका सपना तथा अनामंत्रित दृश्य अचानक सब खतम हो जाता है और वह फिर प्रसन्नकुमार में तब्दील हो जाता है। उसके पास अब न तो भगत सिंह वाला हैट है, न चन्द्रषेखर वाली मूंछें हैं, न गांधी वाला चश्मा है, फिर भी कुछ न कुछ करना है। क्या करना है पता नहीं, केवल करना है बस इतना ही।
'''‘भूख और भोजन की दूरी पाटी जा सकती है
सहभागी प्रबंधन से तथा असहयोग आन्दोलन भी चलाए जा सकते हैं'''
पुलिस प्रसन्नकुमार को तलाश रही थी। वह अपने कार्य क्षेत्रा में ही कहीं छिपा हुआ था। प्रसन्नकुमार किस क्षेत्रा में सक्रिय है इस बारे में कुछ लोगों को ही जानकारी थी जो उसके अभियान से जुड़े हुए थे या कुछ ऐसे लोगों को जो अभियान के लिए आर्थिक सहायता दिया करते थे। प्रसन्नकुमार देखने मेंअदृश्ष्य था पर सहपुरवा के अदृश्ष्य नहीं था। उसने सहपुरवा के मजूरों व कमकर जनता को समझा दिया था कि पंचायत भवन पर मजूरी नहीं करना है, जिसे मजूर समझ चुके थे। पंचायत भवन के काम पर मजूरी न करके ही पंचायत भवन के निर्माण को रोका जा सकता है। हरिजन बस्ती के लोग भी अपने स्तर से कोष्शिश करने लगे थे कि पंचायत भवन पर कोई मजूर काम करने न जा पाए। जब से पंचायत भवन को बनने से रोकने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं, तब से लेकर अब तक उस पर एक भी ईंट की चुनाई नहीं हो सकी है। मजूरों ने पंचायत भवन के निर्माण से खुद को अलगिया लिया है। पंचायत भवन के निर्माण कार्य से मजूरों का विरत रहना यह अलग तरह का असहयोग आन्दोलन था जिसे सहपुरवा ही नहीं पूरा बिजयगढ़ पहली बार देख रहा था। पठ्ठ जवार के लोग भी देख रहे थे। चतुर किस्म के कुछ लोग मजूरों के असहयोग को दूरगामी प्रभाव वाला मान रहे थे। वे भविष्य के प्रति आशंकित थे। तब क्या होगा जब मजूरे हल जोतने से इनकार कर देंगे। आने वाले दिनों में ऐसा ही होगा हल जोतने वाला कोई नहीं रहेगा।
प्रसन्नकुमार ने एक और काम किया था। उसने सभी मजूरों को जो रामभरोस के थे उन्हें भी राजी कर लिया था कि वे रामभरोस के काम से जबाब दे दें। वही हुआ, रामभरोस के मजूरों ने रामभरोस को काम से जेठ दशाहरा के दिन जबाब दे दिया था कि उन्हें उनका काम नहीं करना है। मजूरों के जबाब देने से रामभरोस परेष्शान थे कि ऐसा कैसे हो गया? सारे मजूरों ने एक ही दिन कैसे काम करने से इनकार कर दिया? रामभरोस के समझाने तथा मनौव्वल करने, रामदयाल के डंडा भाजने के बाद भी रामभरोस के मजूरे उनका काम करने के लिए राजी नहीं हुए। रामभरोस के पास मजूरों को दुबारा से काम पर लगवाने का कोई दूसरा रास्ता नहीं था सो उन्होंने मजूरों पर बकाए का हिसाब करने की धमकी दिया। रामभरोस जानते थे कि उनका मजूरों पर काफी रुपया बकाया है जिसे वे नहीं चुका सकते। पर यह धमकी भी बेकार गई, धमकी से उनके मजूरे नहीं डरे। कोई मजूर टस्स से मस्स नहीं हुआ। यह रामभरोस की सहपुरवा में सबसे बड़ी और पहली हार थी। मजूरों के पास उनका काफी रुपया बाकी था। क्षेत्रा के अलिखित नियमों के अनुसार यह था कि मजूरों को जो भी अपने काम पर लगाएगा वह पहले के मालिक के बकाये का भुगतान करेगा तभी उन्हें काम पर रख पाएगा। ऐसा अलिखित व स्वीकार्य नियम सामंतो में बहुत पहले से प्रचलित था। सालों से निर्वाध चली आ रही इस परंपरा के मजूर भी आदी थे। अपने पुराने मालिक के कर्जे के बकाए के रुपए को नए मालिक से वे चुकता करवाते थे, फिर नए मालिक का काम पकड़ते थे। कोई न कोई मालिक मिल जाता था जो पहले मालिक का बकाया चुकता कर देता था। क्योंकि सभी को मजूर चाहिए होता था। वह जमाना मशीनों वाला था भी नहीं, मशीन के नाम पर कहीं कहीं केवल ट्रेक्टर हुआ करता था और पंपिंग सेट। खेत की जोताई के अलावा भी बहुत सारे काम ऐसे हुआ करते थे जिसे बिना मानव श्रम के नहीं निपटाया जा सकता था। सो मजूरी करने वाले श्रमिकों की जरूरत सभी को पड़ा करती थी।
रामभरोस का मजूरांे पर काफी बकाया था। किसी के पास हजार रुपया और गल्ला बकाया था तो किसी के पास पांच सौ रुपया था तथा गल्ला बकाया था। रामदयाल का लोहबन्दा हरिजन बस्ती में चमकने लगा। बहुत अर्से के बाद रामदयाल ने लोहबन्दा उठाया था। रामभरोस को भरोसा था कि कोई भी क्षेत्रा में ऐसा नहीं है जो उनके चौदहो मजूरों को काम पर लगा लेगा। मजूरों पर बकाया रुपया लौटा पाना तो किसी के वश का नहीं? किसी के पास इतना न तो रुपया है और न गल्ला ही। ये मजूरे जाएंगे कहां? लौट कर उन्हीं के काम पर आएंगे आज नहीं तो कल।
रामभरोस का आतंक मजूरों के रखने के बाबत भी कम नहीं था। रामभरोस के डर के कारण उनके मजूरों को लोग काम पर नहीं लगाते थे। कुछ लोग हिम्मत करके रामभरोस के मजूरों को हलवाही पर रखना चाहते पर उन पर कर्जे का बकाया इतना होता था कि लोग चुकता नहीं कर सकते थे, कर्जा चुकता करना उनकी क्षमता से बाहर होता था। प्रसन्नकुमार को जान पड़ा कि रामभरोस के मजूरों के काम का जोगाड़ नहीं हुआ तो यह जो मजूरों की हड़ताल है सब फुस्स हो जाएगी। मजूरों की रोजी-रोटी के सवाल को ले कर रामभरोस से लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। उनके मजूरों के काम दिलवाने के लिए विकल्प तलाशना जरूरी है जिससे प्रतिदिन उनके पास मजूरी आती रहे।
औतार, फेकुआ, बिफना, सुक्खू तथा कुछ खास लोगों को प्रसन्नकुमार ने गॉव के बाहर वाले अपने मकान पर बुलवा लिया था। उसने अपने पिता जी को भी बता दिया था कि रामभरोस के मजूरों को कहां काम दिलवाया जाए इस पर बातें होनी है, वे भी वहीं आ गये थे। प्रसन्नकुमार ने अपने पिता जी से विभूति के बारे में पूछाकृ
‘विभूति गॉव में नहीं आया था का ?’
‘का वह भी गॉव में आया था?’ प्रसन्नकुमार के पिता ने आश्चर्य से पूछा....
‘उसको अब तक यहां आ जाना चाहिए था, कुछ पर्चा भी बांटना है, पर्चा लाने के लिए रापटगंज मैंने ही उसे भेजा था। कहीं फस गया होगा, वह आ जाएगाकृ
जी! घबराइए नहीं।’
प्रसन्नकुमार ने अपने पिता शोभनाथ जी से बात कर लेने के बाद सीधे औतार से पूछा....कृ
‘अब क्या होगा औतार जी, रामभरोस के हलवाहों के लिए का इन्तजाम किया जाये, वे बेचारे मजूरी के बिना कैसे जिन्दा रह सकते हैं? हमलोगों के समझाने बुझाने पर रामभरोस का काम उन लोगों ने छोड़ दिया है। अब उनके लिए क्या करना चाहिए, क्या खाएंगे बेचारे, कुछ सोचिए, गुनिए आपलोग।
औतार काफी गंभीर हो गए। बात तो सही है, बिना मजूरी किए गुजर-बसर करना मुष्किल होगा। मजूरी जो मिलती है उससे भी जब पेट नहीं भर पाता है फिर बना मजूरी पाये कैसे भरेगा पेट? कैसे चलेगा घर? उनका दिमाग काम नहीं कर रहा था। औतार जानते थे कि क्षेत्रा का कोई आदमी रामभरोस की डर से उनके मजूरों को अपने काम पर नहीं रखेगा, फिर दूसरा रास्ता का है? बाहर के लोग शायद काम पर रख लें पर कौन घर घर जा कर पूछेगा कि आपको मजूरों की जरूरत है का? आप काम पर रखेंगे आदमी को, कौन पूछेगा गॉव गॉव जा कर। मजूर तो बेचारे खाए बगैर मर जाएंगे।
चिन्तित तो प्रसन्नकुमार भी कम नहीं था पर वह सोच नहीं पा रहा था कि इस संकट का हल कैसे निकाला जाए, सभी के सभी वहां मौन बैठे हुए थे। सबका मौन तोड़ा प्रसन्नकुमार के पिता जी ने। उन्होंने आश्वस्त किया...कृ
‘चार पांच आदमी का जोगाड़ हो जाएगा, पर सभी का नहीं’
प्रसन्नकुमार ने दूसरा रास्ते का प्रस्ताव दिया...
‘बाबू जी इससे काम नहीं चलेगा, दो चार मजूरों को काम पर लगा देने से। बात तो तब बनेगी पिताजी! जब रामभरोस के सभी मजूर किसी का काम न करें, हमलोगों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ाई लडते रहें और घर में बैठ कर आराम से खाते रहें।’
‘ऐसा कैसे होगा, काम भी न करो और घर बैठकर खाते रहो, ऐसा नहीं हो सकता, ऐसा सोचना बेकार है।‘
जो भी स्कीम बनाना हो जल्दी बना लेना चाहिए। रामभरोस चुप लगाकर बैठने वालों में नहीं है। वह कोई जोगाड़ कर रहा होगा कि गॉव में पुलिस आ जाए और सभी को गिरफ्तर कर ले। तुम जल्दी से यहां का काम निपटा कर भागो, ऐसा करने में ही खैर है। यह समय आराम से पंचायत करने का नहीं है।
जल्दी जल्दी बैठक का काम निपटा लिया गया। प्रसन्नकुमार भी जानता था कि रामभरोस उसे गिरफ्तार करवा सकते हैं। बैठक में तय किया गया कि आन्दोलन से जुड़े सभी मजूरों व जोतदारों पर सहयोग राशि लगा दी जाए। मजूरों के लिए उनकी मजूरी में से आधे सेर अनाज की राशि तथा जोतदारों के लिए एक एक सेर की राशि ली जाए। सारी राशि इकठ्ठा हो जाने पर रामभरोस के मजूरों में बराबर बराबर बॉट दिया जाए। मजूरों की मजूरी के लगभग लगभग राशि इकठ्ठा तो हो ही जाएगी। थोड़ा बहुत जो कम होगा उसे पिता जी पूरा कर देंगे। ऐसा करने से गॉव के मजूरों में विश्वास बढे़गा कि वे अकेले ही रामभरोस से नहीं टकरा रहे हैं बल्कि उनके साथ और भी लोग हैं जो रामभरोस से टकरा रहे हैं। यह संकल्प लेना ही होगा कि रामभरोस के पास काम करने के लिए किसी भी कीमत पर उन मजूरों को नहीं भेजना है।
वहां बैठे सभी लोगों को प्रसन्नकुमार का प्रस्ताव उचित लगा और वे अपनी सहमति दे दिए। शोभनाथ पंडित ने अपने स्तर से क्षमतानुसार सहयोग करने का वादा किया।
बातचीत समाप्त हो जाने के बाद प्रसन्नकुमार भागने की तैयारी में था कि विभूति आ गया। उसे भी पूरी योजना की जानकारी दी गई। शोभनाथ को यह खटक रहा था आखिर विभूति पर प्रसन्नकुमार इतना विश्वास क्यों कर रहा है। यही बात औतार को भी खटक रही थी पर प्रसन्नकुमार को कौन रोके, वही सारी योजना का क्रियान्वयन कर रहा था, निश्चित ही उसने कुछ विचार कर ही विभूति को अपने साथ जोड़े हुआ है। शोभनाथ और औतार इसी लिए प्रसन्नकुमार से कुछ नहीं बोले।
विभूति को कत्तई घबराहट नहीं हुई और न ही अकुलाहट। वह योजना सुन कर सहमत था जबकि वह जानता था कि सारी योजना उसके पिता के खिलाफ ही बनाई जा रही है। विभूति सोच नहीं सकता था कि प्रसन्नकुमार कभी भी अपने पिता के खिलाफ इस तरह की योजना बनाएगा फिर भी वह योजना से सहमत था और उसके प्रति सक्रिय भी। कोई भी सुनता तो चौंक जाता, ऐसी भी बात नहीं थी कि विभूति नालायक और विवेकहीन था। उसे अपने पिता का उत्तराधिकारी बनने की भी लालच नहीं थी। विभूति की समझदारी दूसरे ढंग की थी जो अपने पिता के अन्यायों के प्रति थी। पिता का वह सीधे विरोध कर नहीं सकता था पर जानता था कि उसके पिता सहपुरवा में गलत कर रहे हैं, सो वह प्रसन्नकुमार के साथ था। उसका मानना था कि अन्याय का विरोध हर हाल में किया जाना चाहिए और उसके पिता गॉव में सभी को एक दूसरे से लड़वाकर अन्याय कर रहे हैं। किसी को चैन से रहने नहीं दे रहे हैं।
विभूति अपने बाप की प्रतिलिपि नहीं बनना चाहता था। बाप का समर्थन करना और प्रसन्नकुमार का साथ न देना अपने बाप की प्रतिलिपि ही बनना होता।
विभूति जानता था कि सभी के लिए सामान्य साधनों एवं सुविधाओं की पहुंच आवष्यक है जो सहपुरवा में रामभरोस के आतंक के कारण वाधित थी। नमक, रोटी, चावल, दाल, ऑटा, कपड़ा, लत्ता,सीमेन्ट, ईंट, नौकरी, हर व्याक्ति के लिए जरूरी हैं पर पहले नमक, रोटी ही आवश्यक है, भूख और भोजन के बीच की दूरी पाटना जरूरी है। वह भी सभी के लिए। वह व्यक्तिगत रूप से आर्थिक प्रतियोगिता का विरोधी है और मानता है कि आर्थिक असमानता वाले समाज में कभी भी समानता जैसी चीज नहीं हो सकती। समानता तो तब आएगी जब लोगों का आर्थिक स्तर उठे और जिनका उठा हुआ है वह थोड़ा संकुचित हो। सरकारों को चाहिए कि गरीबों के आर्थिक स्तर को उठाए तथा अमीरों के आर्थिक स्तर को थोड़ा नीचे लाए।
बैठक समाप्त हो जाने के बाद दोनों किसी अज्ञात जगह पर चले गये। कहां चले गये, कब तक वापस लौटेंगे किसी को नहीं पता। न तो उन दोनों ने किसी को बताया ही कि वे कहां जा रहे हैं?। वे दोनों कहां हैं इसकी खबरें कुछ लोगों को ही मालूम होती थीं, वे ही कार्यक्रम बनाते फिर दोनों निष्चित स्थान पर हाजिर हो जाते।
बैठक समाप्त हो जाने के बाद औतार शोभनाथ आदि अपने अपने घर लौट आये। और प्रसन्नकुमार क्षेत्रा में कहीं चला गया। उसे पर्चों को बटवाना था जिसे विभूति रापटगंज से लेकर आया था।
'''‘यह अकेला पन जटिल और क्रूर इतिहास ने
उन्हें दिया है। वे पहले भी अकेले थे और आज भी हैं।
वे अपना अधिकार जानते ही नहीं थे सो जहां थे वहीं पड़े थे’'''
पंचायत भवन का निर्माण रूक गया था तो रूक गया था। हालांकि अपने स्तर से रामभरोस ने बहुत कोशिश की थी कि पंचायत भवन का निर्माण शुरू हो जाए पर ऐसा संभव नहीं हो पाया। क्षेत्रा के मजदूरों की तलाश की गई पर क्षेत्रा के मजूरों में यह बात फैली चुकी थी कि रामभरोस ने एक गरीब हरिजन औतार का पट्टा खारिज करा दिया है तथा उनके बेटे फेकुआ के कोले का धान लवा लिया है। जिसके कारण सहपुरवा के मजूर हड़ताल पर चले गए हैं और वे पंचायत भवन के निर्माण कार्य पर नहीं जा रहे है। उनका कहना है कि औतार की जमीन पर पंचायत भवन नहीं बनना चाहिए अगर उस पर बनेगा तो वे पंचायत भवन के निर्माण के काम पर नहीं जाएंगे। सहपुरवा के मजूरों की देखा देखी क्षेत्रा के दूसरे मजूरों ने भी पंचायत भवन पर काम करने से मना कर दिया था। रामदयाल कारिन्दा ने मजूरों को तमाम तरह का प्रलोभन दिया फिर भी मजूर काम पर नहीं लगे तो नहीं लगे। रामदयाल को रामभरोस ने झारखण्ड भी भेजा था कि वहां से मजूरों को वह ले आये और काम शुरू हो पर वहां के मजूर भी पंचायत भवन के काम पर नहीं आये। सहपुरवा के मजूरों की हड़ताल तमाम लोगों के लिए विचारणीय थी। खेती-किसानी वाले असंगठित क्षेत्रा के मजूरों की हड़ताल संभव नहीं है, ऐसा नहीं हुआ करता। हड़तालें तो कारखाना वाले संगठित क्षेत्रों के मजूर किया करते हैं पर खेती-किसानी वाले क्षेत्रा के असंगठित मजूर नहीं। असंगठित क्षेत्रा के मजूरों में हड़ताल की चेतना मालिकों को चौंकाने वाली थी और सहपुरवा के असंगठित कृश्षि मजूरों की हड़ताल सफल थी तो थी।
मजूरों के अभाव में पंचायत भवन के निर्माण के सारे रास्ते बन्द थे। परेष्शान हो कर रामभरोस ने कृपालु जी से बातें की। कृपालु जी रामभरोस की क्या मदत करते उनका भी काम-काज बन्द था। उनके मजूरों ने भी हड़ताल कर दिया था तथा जेठ दशहरा के दिन ही काम से जबाब दे दिया था। रामभरोस ने मजूरों की मजूरी बढ़ाने का वादा किया, टेस्ट वर्क के कामों पर लगे मजूरों से बातें की, पर सब बेकार। बढ़ी मजूरी के लालच ने भी पंचायत भवन पर काम करने के लिए मजूरों को आकर्षित नहीं किया।
सहपुरवा की बात हर तरफ फैल चुकी थी और बिना किसी प्रचार, प्रसार व शिक्षण के मजूरों ने स्वस्फूर्त तरीके से तय कर लिया था कि सहपुरवा के पंचायत भवन के निर्माण का काम उन्हें नहीं करना है। पंचायत भवन के काम पर मजूरों को लगाने का प्रयास रामभरोस का सफल नहीं हुआ। मजूरे गुन रहे थे कि पंचायत भवन पर काम करना औतार के साथ अन्याय करना होगा। वह अन्याय हम लोगों जैसे गरीबों के साथ ही होगा। फिर क्या था संक्रामक रोग की तरह हड़ताल बढ़ गई और मजूरों में चेतना प्रबल हो गई कि पंचायत भवन पर काम नही करना तो नहीं करना है। यानि एक तरह से गांधी जी का असहयोग आन्दोलन कि किसी भी हाल में जनविरोधी कामों में भागीदारी नहीं करना है बल्कि जनविरोधी कार्यों का प्रतिरोध करना हमारा नैतिक कर्तव्य है। आजाद भारत में मजूरों का असहयोग विचारणीय था जो सहपुरवा जैसे छोटे गॉव में प्रायोगिक रूप ले चुका था।
सरकारी काम पर लगे हुए मजूरों से रामभरोस के लोगों ने बातें की, उन्हें अधिक मजूरी देने का प्रस्ताव दिया फिर भी वे टस्स मस्स नहीं हुए। दूसरे स्थानों के मजूर भी काम पर नहीं आएंगे ऐसा आभास किसी को नहीं था। किन्तु सही जानकारी और समझाने के सही तरीके के कारण मजूरों में असहयोग की भावना उत्पन्न हो चुकी थी। इसी के लिए प्रसन्नकुमार निरंतर प्रयास कर रहा था। उसके कुशल नेतृत्व के कारण मजूरों के दिल दिमाग में अन्याय का प्रतिरोध करने की कुदरती ताकत आ गई थी। जो असंभव जैसा था। मेल मिलाप कुछ ऐसे कारण होते हैं जो लोगों का दिमाग बदल सकते हैं, दुश्मनी दोस्ती में, असहमति सहमति में, कभी भी ऐसा संभव हो सकता है। खेतिहर गरीब मजूरे एक नहीं हो सकते, वे एक दूसरे का साथ देना नहीं चाहते, सारे मिथक सहपुरवा में टूट कर खंड खंड हो चुके थे। मजूरों के पास रामभरोस तथा रामदयाल के पहुंचने के पहले ही विभूति और प्रसन्नकुमार पहुंच जाया करते थे। वे मजूरों को जागरूक करते थे कि सहपुरवा में ही नहीं हर जगह रामभरोस हैं और हर जगह औतार हैं, सभी जगहों की समस्याएं भी एक ही तरह की हैं, लड़ाई भी एक तरह से ही लड़नी होगी। मजूर जनता प्रसन्नकुमार की बातों से प्रभावित होती और उसका साथ देने का वादा करती। इतना प्रसन्नकुमार के लिए काफी था।
रामभरोस की खेती-बारी का काम रुक गया था। मजूरों की हड़ताल का दायरा सिर्फ पंचायत भवन तक ही नहीं था बल्कि वह रामभरोस के खेती-किसानी वाले काम को भी रोकने तक फैल चुका था। हड़तालियों के हड़ताल के दायरे में दूसरे जोतदार नहीं थे। उनका काम पहले की तरह से चल रहा था।
रामभरोस की ऑखों में प्रसन्नकुमार का चेहरा तैरने लगा था। वे गरियाते थे कि प्रसन्नकुमरवा ने सिर्फ उनका काम ही नहीं बन्द करवाया बल्कि उनके बेटे विभूति को भी उनसे छीन लिया। रामभरोस के सामने अपनी खेती की भी समस्या आ गई थी कि उसे कैसे सपराया जाएगा। पंचायत भवन जो नहीं बन पा रहा वह तो अलग समस्या है उससे उनकी प्रतिष्ठा तो गिरी ही पर खेती का काम भी नहीं हो पा रहा, यह काफी दुखद था उनके लिए।
रामभरोस कल्पनाओं में जीने लगे थे। प्रसन्नकुमार को वे किसी झूठे मुकदमे में फसाने की बात सोचते तो कभी कुछ तो कभी कुछ। डी.आई.आर. वाला मुकदमा भी तो प्रसन्नकुमार के ऊपर उन्होंने झूठा ही तो करवाया था दारोगा को मिला कर। रामभरोस असमंजस में थे तथा उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था सो परेशान परेष्शान थे। वे इस बाबत किसी अन्य से बातें भी नहीं कर सकते थे। बहुत सोच विचार के बाद उन्हें एक रास्ता सूझा जो उनके व्यक्तित्व के अनुरूप था। फिर तो उन्होंने रामदयाल कारिन्दा को सहेज दिया कि हरिजनों को उनके खेतों में से न चलने दिया जाए। उनके खेतों से कोई घास भी न काटे, न कोई गोइठा बीने, गाय-गोरू उनके खेत में चरने भी न दिए जांए। अगर कोई उनके आदेश की अवज्ञा करता है तो उसे तत्काल उनके सामने हाजिर कराया जाए।
रामभरोस चाहते थे कि किसी तरह गॉव में झगड़ा हो जाए फिर तो वे उस झगड़े को बलबा में बदलवा कर हरिजनों का फंसवा देंगे उनके साथ प्रसन्नकुमार को भी। पर सहपुरवा में ऐसा कुछ नहीं हो पाया। किसी हरिजन ने रास्ता रोकने, रामभरोस के खेत में से घांस न काटने देने जैसे कामों का विरोध नहीं किया। रामभरोस की इस रणनीति को प्रसन्नकुमार जानता था सो उसने गॉव के लोगों को समझा दिया था कि उन्हें किसी भी हाल में रामभरोस के लागों से झगड़ा नहीं करना है। सो किसी ने झगड़ा नहीं किया।
रामदयाल रामभरोस के खेत से ले कर हरिजन बस्ती तकअपना लोहबन्दा चमकाता रह गया पर कहीं भी किसी ने कुछ प्रतिरोध नहीं किया। मजूरों ने प्रसन्नकुमार के समझाने के कारण अपना मुंह सिल लिया था।
गॉव में झगड़ा लगाने के लिए एक दिन तो फेकुआ की औरत से भी रामदयाल ने छेड़ छाड़ किया फिर भी औतार तथा दूसरे हरिजन प्रतिक्रिया हीन बने रह गये थे। केवल एक सूत्रा कि चाहे जो भी करें रामभरोस ही करें, उनका विरोध नहीं करना है। पंचायत भवन नहीं बनने देना है, न उनकी खेती बारी होने देना है, यही विरोध हमलोगों का लक्ष्य होना चाहिए दूसरे तरह के विरोध हमलोगों के लक्ष्य में नहीं होने चाहिए। मजूरे अपने लक्ष्य के प्रति सावधान थे सो रामदयाल के भटकाने पर भी वे अपने लक्ष्य से नहीं भटक रहे थे। रामदयाल ने तो बहुत कोष्शिश किया कि मजूरे झगड़ा झंझट करें पर मजूर तटस्थ थे, तो थे।
रामभरोस के सभी हलवाहे अपने घर बैठे हुए थे। घर बैठ कर खाना खा रहे थे तथा उन पर किसी का काम न करने तथा मजूरी न मिलने का असर नहीं था। घर में बैठे रहने के बदले उन्हें प्रतिदिन मजूरी मिल जाया करती थी। औतार मजूरी देने का इन्तजाम कर दिया करते थे वैसे भी काम पर जाने वाले दूसरे मजूर एक एक सेर अनाज प्रतिदिन के हिसाब से औतार के पास पहुंचा दिया करते थे और औतार उसअनाज को रामभरोस के मजूरों में बांट दिया करते थे।
रामभरोस के मजूर गॉव में घूम घूम कर बिरहा गाते और रामदयाल के सामने ऐंठते हुए चलते। रामदयाल सारा कुछ रामभरोस को बताता पर रामभरोस क्या कर लेते मजूरों का? रोपनी के समय तक रामभरोस के मजूरों ने किसी का काम नहीं थामा। सहपुरवा के मजूरों का ऐसा संगठन देख कर रामभरोस परेष्शान थे उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था कि उनके सारे मजूरे उनका काम बन्द कर देंगे। रामभरोस को जान पड़ रहा था कि सब कुछ उनके विपरीत हो रहा है, जो पहले कभी नहीं हुआ था।
रामभरोस को बाद में मालूम हुआ कि उनके मजूरों को चन्दा इकठ्ठा करके मजूरी दी जा रही है। गॉव के मजूर भी चन्दा दे रहे हैं। मजूरों केे अलावा शोभनाथ तथा कुछ दूसरे किसान भी चंदा दे रहे हैं। रामभरोस ने पता लगाना शुरू किया कि वे दूसरे जोतदार कौन हैं शोभनाथ केअलावा जो चंदा दे रहे हैं पर उन्हें कैसे पता चलता? यह बात तो केवल शोभनाथ जानते थे या चंदा देने वाला ही जानता था। रामभरोस को यह भी मालूम हो गया था कि दूसरे गॉवों के लोग भी उनके मजूरों की बनी (मजूरी) के लिए चंदा दे रहे हैं। प्रयास करने के बाद भी रामभरोस चंदा देने वालों के नाम नहीं जान पाए।
सुक्खू और औतार के जिम्मे बहुत बड़ा काम था। वे हमेशा सतर्क रहा करते थे कि कोई मजूर रामभरोस की चाल में न फस जाए क्योंकि मजूर निश्छल होते हैं, वे मालिकों की चाल नहीं समझ पाते हैं और फस जाते हैं उनकी जाल में। रामभरोस इस समय परेशान हैं, अपना काम निकालने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं, धन दौलत उनके पास है ही। रूपयों की लालच किसे नहीं होती, रूपया मजूरों को तोड़ सकता है, भटका सकता है वसूलों से।
प्रसन्नकुमार के लिए आगे का समय काफी जटिल होता जा रहा था। एक तो पुलिस से बच कर रहना दूसरे गॉव में जागरूकता का कार्य करना दोनों कठिन हुआ जा रहा था पर वह हिम्मत नहीं छोड़ रहा था। प्रसन्नकुमार को सबसे अधिक खतरा रामभरोस से ही था उनके अलावा क्षेत्रा में कोई भी उसके विरोध में नहीं था। रामभरोस की टोह लेने के लिए प्रसन्नकुमार ने विभूति को उसके घर भेज दिया था कि वह अपने घर पर ही रहे अपने पिता के साथ। तथा उनके कररतूतों एवं रणनीति के बारे में लगातार उसे बताता रहे। विभूति कहीं भी आ जा सकता था, उसे कोई खतरा नहीं था। कम से कम उसके लिए रामभरोस कुछ गलत नहीं करेंगे यह तय था पर विभूति था कि वह प्रसन्नकुमार को अकेला छोड़ना नहीं चाहता था। उसने प्रसन्नकुमार को रोका भी और स्पष्ट रूप से कहा....कृ
’कहीं तुम मुझ पर सन्देह तो नहीं कर रहे हो कि मैं अपने बाप का साथ दूंगा, इसी लिए मुझे घर तो नहीं भेज रहे’
प्रसन्नकुमार अवाक, क्या बताए विभूति को। प्रसन्नकुमार ने तुरंत विभूति को गले लगा लिया और रूआंसा हो गया, लगा रो देगा...कृ
‘नहीं यार! ऐसा नहीं है, तुम्हारे पिता जी क्या कर रहे हैं उनकी क्या योजना है इसके बारे में कौन जानकारी जुटा सकता है तेरे अलावा, अगर कोई हो तो बताओ’
प्रसन्न कुमार की सलाह विभूति को ठीक लगी। रामभरोस की योजना के बारे में कोई दूसरा नहीं बता सकता था। अपने घर में वह जब रहेगा तभी तो उसे मालूम होता रहेगा पिता जी की रणनीति के बारे में।
वैसे भी प्रसन्नकुमार की बात विभूति टाल नहीं सकता था।
पूरे विजयगढ़ परिक्षेत्रा में भूमि आवंटन में धांधलियां हुई थीं इतना ही नहीं कुछ तपे हुए लोग आवंटित जमीनों पर कब्जा नहीं छोड़ रहे थे। प्रसन्नकुमार भूमिगत था फिर भी वह इस तरह की शिकायतों को प्रार्थना पत्रा के माध्यम से उच्चाधिकारियों के पास भिजवाया करता था। वह किसी सुरक्षित स्थान पर बैठ कर शिकायतें लिखता और अपने मित्रा वकील के जरिए उसकी पैरवी करवाता। शिकायतों पर होता जाता कुछ भी नही था पर वह शिकायतें जरूर भिजवाता। अधिकांश लोग जो बंजर जमीनों पर अनधिकृत रूप से काबिज थे वे अधिकारियों के करीब होते, नहीं भी होते, तो कुछ ले देकर करीबी बन जाते। ऐसे शिकायती कामों की जॉच में घूस आम बात हो गयी थी। जोरदार शिकायतें होने पर भी ताकतवर लोग उसे घूस दे कर दबवा दिया करते थे परिणाम शून्य निकलता फिर भी हार मान कर प्रसन्नकुमार बैठने वालों में नहीं था। उसका मानना था कि उसे जो करना है वह कर रहा है। उसकी आंखों के सामने शिकायती प्रार्थना पत्रा भिजवाने का सारा दृश्य तैरने लगता।
शिकायती प्रार्थना पत्रा, पेशकार की मेज, दो रुपये की पेशी, कानून की किताबें, रूलिंग, अदालत में गिडगिड़ाता फरियादी, पोलिंग बूथ पर ऊॅघता वोटर, कर्जे से बंधा नागरिक, कर्जदार, कर्णधार, सिपाही, कब्जा नहीं मिलता, सारा कुछ देख कर शिकायत करने वाला घर लौट जाता। अदालत बन्द नहीं होती, न्याय, घूस, फैसला सब चलता रहता, हाकिम चौबीसों घंटे जीवित रहते उनका काम बन्द नहीं होता, केवल दफ्तर बन्द होते हैं। आज से ही नहीं बहुत पहले से ही ऐसा हो रहा है और होता भी रहेगा शायद....
प्रसन्नकुमार को सामने कई दृश्य दीखने लगते हैं....कृ
ष्शहर, छोटे शहर, बंगले, सरकारी अफसर, सरकारी लोग, कुछ समझ में नहीं आता। लोकतंत्रा का जाल कितना बड़ा है? समझने वाली बात,बोतल, महुआ या रम, ठर्रा भी, जवानी गॉव की मुहल्ले की, स्कूल की, सड़क की, बाभन, ठाकुर, बनिया, कुनबी, अहीर, हरिजन या अछूत कुछ भी बोलो, कुछ भी समझो। सब बोतल, सब जवान, देश महान, अधिकारी महान, सरकारी लोग महान और जनता! राम जाने का है?
शिकाती प्रार्थना पत्रों पर सुनवाई नहीं की जाती उन्हें खामोशी बस्ते में डाल दिया जाता है।
प्रसन्नकुमार जानता था कि शिकायती प्रार्थना पत्रों से कुछ होने जाने वाला नहीं है। इसलिए वह दुखी रहा करता था पर दुख करने से काम चलने वाला तो था नहीं। आवंटित जमीनों पर कब्जा दिलवाने का प्रयास तो उसे करना ही है। पहले तो उसके सामने आवंटित जमीन पर केवल औतार को कब्जा दिलवाने की समस्या थी पर अब तो बहुत सारे लोग उसकी जानकारी में हैं जिन्हंे उनकी आवंटित जमीनों पर कब्जा दिलवाना है। प्रसन्नकुमार मार-पीट फौजदारी करना नहीं चाहता था। वह शाान्तिपूर्ण ढंग से कब्जा दिलवाना चाहता था भूमि आवंटियों को। कहीं कहीं तो उसे लोगों को समझाने बुझाने से सफलता भी मिल जाती थी सो वह क्षेत्रा में लोगों को समझा बुझा कर अवैध कब्जा छोड़ने के उन्हें लिए राजी भी कर लेता था। जहां लड़ाई, झगड़े की आशंका होती वहां वह नहीं जाता था। वह जानता था कि बड़े काम के लिए उसे जनसमर्थन चाहिए ही चाहिए। ‘अपना काम अपनी लड़ाई’ जैसी जागरूकता जब जनता में आ जाएगी तब सारे मसले अपने आप हल होने लगेंगे।
दर असल आवंटित जमीन पर कब्जे का खेल आपातकाल में प्रचलित हो चुका था। सरकार द्वारा जैसे ही आवटित जमीनों पर गरीबों को कब्जा दिलवाया जाता वैसे ही दबंगों द्वारा कब्जे से उन्हें बेदखल भी कर दिया जाता। कभी नांव इस तरफ होती तो कभी उस तरफ। पर सारे लोग ऐसे नहीं थे जो एक बार कब्जा छोड़ कर दुबारा कब्जा कर लेते हों। ऐसे लोग थे पर गिने चुने थे। ज्यादातर लोग तो आवंटित भूमि पर कब्जा जमा लेने वाले ही थे। आवंटित भूमि पर कब्जा न करने वाले लोग तो कई कई विशेषताओं वाले थे।वे केवल खेती करना जानते हैं, परिवार चलाना जानते हैं, झूठ नहीं बोलते हैं,आतिथ्य जानते हैं, सहनशील हैं, छल, कपट, बेइमानी, नाइन्साफी नहीं जानते तथा जोर-जबरी करना नहीं जानते। ऐसे लोग तो आवंटित जमीनों पर से अपना कब्जा समझाने बुझाने पर छोड़ते जा रहे थे। पर जो दबंग थे, जिनका विश्वास लूट व प्रशासन पर था, वे झगड़ा पर उतारू हो जाते थे। उनसे प्रसन्नकुमार टकराना नहीं चाहता था। हरिजनों के समझ में यह बात आगई थी कि जमीन किसी के बाप की नहीं होती, उसे जबरिया ही कब्जियाया गया होता है। पहले जमीन पर कब्जा करना फिर अपना नाम चढ़वा लेना। बेचारे मजूर का कर लेते भले ही प्रकृति का नियम उनके साथ था, पर प्रकृति पर कब्जा तो ताकतवरों का होता है। वे तो शिकायती प्रार्थनापत्रा देने सेें भी डरते थे, वे भगवान के सहारे थे, उन्होंने ही जीवन दिया है, वे ही बचाएंगे।
कोई आगे बढ़ कर उनका साथ देना भी चाहता था और कहता था कि ‘तुम्हारी आवंटित जमीन है कब्जा कर लो’ तो वे एक ही बात बोलते थे....कृकृ
‘कब्जा तो हम कर लेंगे भइया पर जब आप साथ रहेंगे, अकेले नाहीं।’
यह अकेला पन जटिल और क्रूर इतिहास ने उन्हें दिया है। वे पहले भी अकेले थे और आज भी हैं। वे अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए भी आगे नहीं बढ़ सकते थे। आवंटित भूमि पर कब्जा लेने के लिए सभी भूमिहीन चाहते थे कि प्रसन्नकुमार उनके साथ रहे। प्रसन्नकुमार अकेला था वह आखिर किस किस के साथ रहता। यह विशेष किस्म की विवशता थी। सभी डरे हुए हैं, वे जेल जाने से डरते हैं, आन्दोलन करने से डरते हैं। वे जेल जाने के बजाय घूस देना अच्छा समझते हैं, बहुतों ने घूस फूस दे कर अपना कब्जा भी पा लिया है। प्रसन्नकुमार जानता है कि हजारों साल के यातनादायी इतिहास ने उन्हें कमजोर और असमर्थ बना दिया है। वे प्रतिरोध और खामोशी के बीच के फासले को नहीं जानते। वे चुप हैं पर उनका मन! मन चुप नहीं है, समय और उचित अवसर उन्हें कभी इतना प्रशिक्षित कर देगा कि वे अपना हक ले कर रहेंगे। प्रसन्नकुमार आशावादी है, उसका आशावाद ही उसे इस रास्ते पर ले आया है।
सहपुरवा का पंचायत भवन और औतार की आवंटित जमीन का मामला प्रसन्नकुमार के लिए जनप्रतिरोध का नमूना था। जनप्रतिरोध की सफलता देख कर ही वह आगे की योजना बनाना चाहता था। उसे देखना था कि औतार को उनकी जमीन पर कब्जा दिलवाने के लिए पंचायत भवन के निर्माण को वह रोकवा सकता है कि नहीं।
कब्जा दिलवाने की योजना बन चुकी थी। योजना के मुताबिक साथी मजूर विवादास्पद जमीन पर एकत्रा होने लगे थे, सूर्योदय होते होते तक अधिकांश साथी विवादास्पद जमीन पर एकत्रा हो गये। उनके साथ जमीन जोतने के लिए हल और बैल भी लाए जा चुके थे तथा साथ ही साथ फावड़ा और कुदाल भी वे लिए हुए थे। सभी कानाफूसी भी कर रहे थे, पुलिस की मार, रामभरोस की गाली, रामदयाल का लोहबन्दा, जेल, मार, पीट, कुछ भी संभव है फिर भी काहे के लिए डरना? जो होगा उसे साथ साथ झेलेंगे, साथ साथ मार खाएंगे और जेल भी जाएंगे। सभी साथी आपस में किसिम किसिम की बतकही कर रहे थे और प्रसन्नकुमार के वहां न होने पर चिन्तित भी थे।
‘प्रसन्नकुमार भइया अभी तक नाहीं आए, उनको तो अब तक आ जाना चाहिए था। काफी देर हो रही है। नहीं आऐंगे तो का होगा?’
पंचायत भवन निर्माण स्थल पर उपस्थित सारे मजूर घबराये हुए थे। वे प्रसन्नकुमार के आने का रास्ता देख रहे थे। उनमें प्रसन्नकुमार को वहां होने की चर्चा हो रही थी। उनमें कुछ लोग आशंकित भी थे। बड़े आदमी और बड़ी जात का लड़का है। मीठी बातें करना, हमदर्दी दिखाना जितना आसान और सहज है मोर्चे पर डटे रहना और संघर्ष को संभालना उतना ही कठिन है।
बात बात होती है, बात पर चले नहीं चले, बड़े आदमियों के स्वभाव में है। बड़े आदमियों का कहना और करना तथा दोनों के अर्थ अलग अलग होते हैं। कहना केवल कहने के लिए होता है।
लोग सोच ही रहे थे कि प्रसन्नकुमार वहां आ गया। सबकी बातें मुंह में पड़ी रह गयीं। पंचायत भवन जमीन से ऊपर करीब चार फीट बन चुका था देखते ही देखते उसे मजूरों ने गिरा दिया और उसके कचरा पास वाले नाले में फेंक दिया। औतार की जमीन ही कितनी थी केवल पन्द्रह बिस्वा, उसे भी तीन चास जोत कर उसमें गेंहूं बो दिया गया। वहां देखने पर एक भी ऐसा निशान नहीं बचा रह गया था जिससे साबित होता हो कि वहां कभी पंचायत भवन भी बन रहा था। सारा काम आसानी तथा जल्दी से निपटा लिया गया जिसकी कल्पना तक प्रसन्नकुमार या किसी ने नहीं किया था। हड़ताली डर रहे थे कि रामभरोस के पालतू गुंडे आ सकते हैं फिर झागड़ा मार-पीट या गोली चल सकती है पर ऐसा कुछ नहीं हुआ जिससे सारे मजूर प्रसन्न थे। रामभरोस और उनके सारे गुंडे, बोंग वाला रामदयाल कारिन्दा सारे के सारे जाने कहां चले गए थे उस समय। वहां उनमें से कोई नहीं दिखा। रामभरोस की दुनाली भी नहीं दिखी वहां? क्या और कैसा होता है आतंक इसकी परिभाषा गायब हो चुकी थी। आखिर कौन लिखता आतंक की परिभाषा? संगठित प्रतिरोध आतंक की परिभाषा लिखने ही नहीं देता।
वहां उपस्थित सारे हरिजन अचरज में थे औतार भी अचरजाए हुए थे। वे मजूर जो रामभरोस के डर के कारण पंचायत भवन का निर्माण गिराना नहीं चाहते थे वे भी सीना फुलाए हुए थे और अपनी पीठ ठोंक रहे थे। शोभनाथ को भी करिश्मा लग रहा था। प्रसन्नकुमार को प्रसन्नता थी कि बिना बवाल के सारा काम निपट गया, जनप्रतिरोध का पहला प्रयास सफल तो हुआ।
वहां मार पीट होना निष्चित था पर कुछ नहीं हुआ पहले जो होता था और जो सुना जाता था रामभरोस के बारे में, वह वहां नहीं दिखा। उनकी ताकत, मारपीट कुछ भी तो नहीं दिखी वहां। प्रसन्नकुमार रामभरोस के आतंक का आकलन कर रहा था। पहले रामभरोस का प्रतिरोध करने वाले गॉव में नहीं हुआ करते थे, अप्रत्याशित भय के कारण लोग रामभरोस का प्रतिरोध ही नहीं करते थे, हस्तक्षेप की सोच ही उनके दिल दिमाग से गायब थी। वैसे भी पहले कभी भी संगठित प्रतिरोध भी रामभरोस का नहीं किया गया था। संगठित प्रतिरोध के आगे रामभरोस कैसे टिकते? कोई नहीं टिक पाता संगठित प्रतिरोध के सामने। एक दो आदमियों का मार देना, मरवा देना अलग बात है पर संगठित समूह के प्रतिरोध को कुचल देना अलग बात है। इस बार सहपुरवा की गरीब जनता का एक भी सदस्य रामभरोस के साथ नहीं था, सबका एक ही लक्ष्य था पंचायत भवन के निर्माण को गिराना, औतार की जमीन जोत कर उसकी बोआई करना। एक आदमी का लक्ष्य सारे गॉव का लक्ष्य बन कर जनप्रतिरोध की शक्ल में ढल गया, तभी उनका लक्ष्य भी पूरा भी हो पाया। न गोलियां चलीं, न मारपीट हुई, न बलबा हुआ। पूरी तरह शान्तिपूर्ण प्रतिरोध जो अद्भुत था।
औतार अपनी जमीन पर कब्जा पा गये पर कब तक? यह सवाल कब्जा करते समय भी था और कब्जा पाने के बाद भी जिन्दा था। मरा नहीं था पर आशा है जब तक सहपुरवा के मजूर संगठित रहेंगे, उनमें आंतक के प्रतिरोध की चेतना रहेगी तब तक रामभरोस उनका कुदरती अधिकार नहीं छीऩ सकते। जनता का दमन करने की बात तो दूर, उनके खिलाफ कुछ अहितकर करने के लिए सोच भी नहीं सकते।
पंचायत भवन गिरवाने की योजना प्रसन्नकुमार ने बहुत पहले ही बना लिया था जिसे विभूति नहीं जानता था उसे प्रसन्नकुमार ने बताया भी नहीं था। जबकि वह पंचायत भवन ढहाने की योजना को अपने पिता से कभी भी नहीं बताता। वह प्रसन्नकुमार का साथ नहीं छोड़ सकता था। पंचायत भवन गिराए जाने के दिन विभूति प्रसन्नकुमार के ही साथ था और प्रतिरोध की कार्यवाही में सहभागी भी था। वह सोच रहा था कि इतनी बड़ी योजना के बारे में प्रसन्नकुमार ने उसे बताया क्यों नहीं? कहीं वह उस पर सन्देह तो नहीं कर रहा? उसने खुद को आश्वस्त भी कियाकृ
‘नहीं, प्रसन्नकुमार उस पर संदेह नहीं कर सकता।’
विभूति प्रसन्नकुमार से बहुत प्रसन्न था उसे लगा कि कभी कभी आकस्मिक ढंग से किया जाने वाला काम भी परिणामकारी हो जाता है। यह मजेदार बात थी कि पंचायत भवन का निर्माण गिराए जाने तथा औतार की आवंटित जमीन जोत कर गेहूं बोने की जानकारी रामभरोस को नहीं हो पाई थी। रामभरोस ने रामदयाल को इस बाबत डांटा भी था....कृ
‘साला बांेग ले कर गॉव में घूमता रहता है फिर भी यह भी न जान सका कि पंचायत भवन का निर्माण गिराए जाने के लिए हरिजन कमर कस चुके हैं। इतना ही नहीं औतार की आवंटित जमीन वे जोतने व बोने वाले हैं। गॉजे का दम लगा कर सोया रहता है।’
पर जो होना था वह हो चुका था रामभरोस चाहे जिसे डांटे या मारें, कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला था। विभूति प्रसन्नकुमार की सलाह का निर्वहन कर चुका था और अपने पिता को भ्रम में डाल चुका था कि प्रसन्नकुमार आज कल कहीं बाहर गया हुआ है। रामभरोस को भ्रम में डालकर ही पंचायत भवन गिराने का काम किया जा सकता था। रामभरोस को भ्रम में रखना जरूरी है उन्हें पता नहीं चलना चाहिए कि सहपुरवा बदल चुका है, मजूर उनके खिलाफ संगठित हो चुके हैं। मजूरों के संगठित होने तथा पंचायत भवन गिराए जाने की भनक तक उन्हें नहीं लगनी चाहिए। ऐसा हुआ भी, रामभरोस को भनक नहीं लगी कि सहपुरवा में पंचायत भवन गिराया जाने वाला है? अगर उन्हें भनक लग गई होती कि प्रसन्नकुमार सहपुरवा में ही है फिर तो वे कान खड़े और आंखें खोले रखते तथा नाक से सूंघते रहते कि सहपुरवा में का होने वाला है? और उन्हें पता चल ही जाता पंचायत भवन गिराए जाने के बाबत।
अच्छा हुआ कि रामभरोस अपने में ही डूबे रह गये थे, वे अपनी तीसरी आंख नहीं खोल पाए। रामभरोस तीसरी ऑख खोल भी देते तो क्या फर्क पड़ जाता। पंचायत भवन तो हर हाल में गिराया जाता भले मारपीट होती बलबा होता, आखिर भीड़ भीड़ होती है, भीड़ का अपना मिजाज तथा कानून होता है, भीड़ का संगठित मन किसी भी तानाशाही प्रवृत्ति वाले आदमी को मसल कर रख देता है। वैसे पंचायत भवन गिराने तथा औतार के खेत की बोआई करने का काम आसानी से निपट गया। कुछ अहितकर नहीं हुआ।
'''‘दंगे अपने आप नहीं होते। बलबे अपने
आप नहीं होते, घर नहीं बंटते, देश नहीं बंटते। बलबा, दंगा,
बटवारा सब करवाए जाते हैं’ पर करवाता कौन है? कथा के साथ चलें’'''
सहपुरवा से थाना काफी दूर पड़ता था। जिस दिन औतार के आवंटन वाली भूमि की जोताई कर आन्दोलनकारी हरिजनों ने कब्जा बहाल कर लिया था तथा पंचायत भवन के अवैध निर्माण को गिरा दिया था उस दिन थाने पर जाने कितनी रपटें लिखाई जा चुकी थीं। थाने पर रपट लिखने लिखाने का ही काम होता है पर सहपुरवा की रपट वहां नहीं लिखी जा सकी थी। जाने क्या हो गया था उस दिन कि हर तरफ से आवंटित जमीनों के झगड़ों के बारे में शिकायतें आने लग गई थीं थाने पर और थाना परेष्शान था कैसे करे इन्तजाम, सिपाहियों को कहां भेजे, कहां न भेजे। काम की प्रथमिकता चुनना थाने के लिए मुश्किल हो गया था। दारोगा ने एक दो सपाहियों को थाने पर छोड़ कर, सारे सिपाहियों को क्षेत्रा में भेज दिया था तथा खुद भी आवंटित भूमि पर कब्जे की दरखास की जांच के लिए थाने से निकल गया था किसी गॉव में।
पंचायत भवन गिराए जाने की खबर में रामभरोस के लिए आग छिपी हुई थी। खबर की आग ने उन्हें झुलसा दिया और वे मदत के लिए सीधे थाने की ओर भागे थे। हरिजनों के संगठित प्रतिरोध से वे टकरा नहीं सकते थे। हरिजनों के जन प्रतिरोध को दबाने के लिए थाने की भूमिका के बारे में रामभरोस को पता था सो थाने पर जा कर उन्होंने सूचना दी थी कि सहपुरवा के पंचायत भवन का ताजा निर्माण गिरवा दिया गया, जिसकी अगुआई प्रसन्नकुमार ने किया था पर थाने पर था कौन? थाने पर तो सिर्फ दो ही सिपाही थे जिनका थाने पर रहना आवष्यक था। थाने की भी सुरक्षा का सवाल था। सहपुरवा कोई भी सिपाही थाने से नहीं भेजा जा सका। रामभरोस का विश्वास थाने पर था पर थाना उन्हें धोखा दे देगा, इसका अनुमान उन्हें नहीं था।
प्रसन्नकुमार की योजना सफल हो चुकी थी और आने वाले परिणाम के लिए वह तैयार था। रामभरोस क्या करते? वे थाने ही जाते पर दारोगा नहीं था थाने पर, वे दारोगा का वहीं इन्तजार करने लगे। सहपुरवा में रहने पर उन्हें डर था अगर मजूर उनकी बखरी की ओर चल पड़े तो.... मजूर हैं, गुस्से में हैं कहीं भी आ जा सकते हैं, गुस्साए मजूरों को आने जाने से कौन रोक सकता है? अन्धेरा होते होते तक सिपाही थाने पर आने लगे, बाद में दारोगा जी आये। उन्होंने थाने पर रामभरोस को देखा, वे मुर्झाए हुए थे।
‘का हुआ पंडित जी! बहुत परेशान दिख रहे हैं, कोई बात हो गई है का?’ दारोगा ने रामभरोस से पूछा....
दारोगा जी को सहपुरवा का सारा हाल रामभरोस बता गये। दारोगा जी असमंजस में पड़ गए क्या बता रहे हैं रामभरोस जी। हरिजनों की इतनी हिम्मत कि वे पंचायत भवन गिरा दें जिसका शिलान्यास जिलाधिकारी जी ने किया था। मन बढ़ गया है सालों का।
दारोगा रामभरोस के दबाव में था फिर भी उसे नहीं सूझ रहा था कि ऐसे संकट में वह रामभरोस की सहायता कैसे करे? रपट लिख कर मौके पर जाए या बिना लिखे ही चले मौके पर। रपट भी सोच समझ कर लिखना होगा जिसे अदालत भी मान ले। दारोगा जानता था कि केवल रपट से कुछ नहीं होता। होता तब है जब अदालत में रपट प्रमाणित हो जाए सो बहुत सोच समझ कर रपट लिखना होगा। रामभरोस के कहने पर वह शोभनाथ पंडित को मुल्जिम नहीं बना सकता था और प्रसन्नकुमार को भी मुल्जिम बनाना उसके लिए आसान नहीं था। मामला हरिजनों का था, वे भूमिहीन थे, जिस खेत को हरिजनों ने जोत तथा बो लिया था वह खेत औतार के पट्टे का था। पट्टे वाली जमीन का मामला खतरनाक होता है। रामभरोस भले ही पट्टे की जमीन पर अपनी ताकत दिखांए पर अपने स्तर से वह किसी भी तरह का पठनीय या अपठनीय पट्टाचरित नहीं लिखेगा।
दारोगा परेष्शान परेष्शान था। दारोगा के लिए सहपुरवा का मामला आसान और सरल किस्म का नहीं था। वह जानता था कि पट्टे की जमीन का मामला राजनीतिक रंग भी पकड़ सकता है तथा बहुत बड़ा पट्टा चरित भी बन सकता है। वैसे भी आपातकाल खतम होने वाला है। नये चुनाव भी होने वाले हैं। सरकार बदलने पर नई सरकार का मिजाज जाने कैसा हो। सरकार बनते ही उसका ट्रान्सफर भी हो सकता है सो संभल कर काम करना होगा।
देर रात तक दारोगा जी सहपुरवा की घटना के बाबत कोई समाधान नहीं निकाल पाये। रामभरोस के साथ उसकी दोस्ती का भी भविष्य बिगड़ रहा था। रामभरोस का काम नहीं हुआ तो उन पर कई तरह का आरोप लगवाकर रामभरोस उनका ट्रान्सफर भी करवा देंगे ऐसा करना उनके बांए हाथ का खेल है और अगर उसने रामभरोस के कहने पर कुछ किया तो आपातकाल हटते ही उसके ऊपर बवाल आ जाएगा। सारे विरोधी पारटी के लोग उस पर चढ़ बैठेंगे क्योंकि अगली सरकार तो उनकी ही बननी है। पूरे कार्यकाल में इस तरह की उलझन का सामना दारोगा को कभी नहीं करना पड़ा था।
दारोगा पंचायत भवन गिराए जाने के मामले में संतोष जनक निर्णय नहीं ले पा रहा था। निर्णय ने ले पाने का एक कारण प्रसन्नकुमार भी था। प्रसन्नकुमार की कार्ययोजना के बारे में गुप्त सूत्रों द्वारा दारोगा को जानकारी थी कि प्रसन्नकुमार सहपुरवा का एक लड़का भर नहीं है, जिसके बाप का नाम शोभनाथ है, वह जनता का आदमी है और जनता के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहा है। प्रसन्नकुमार को छूने का मतलब आग में तेल डालना होगा और हरिजनों के बहुत बड़े आन्दोलन का सामना करना होगा। उसे पता था कि सहपुरवा का एक भी आदमी रामभरोस के पक्ष में नहीं है और न ही क्षेत्रा का कोई आदमी रामभरोस का साथ देगा। ऐसी स्थिति में दारोगा सोच विचार कर ही निर्णय लेना चहता था।
दारोगा ने रामभरोस को सुझाया था कि विभूति को प्रसन्नकुमार के साथ लगा दीजिए जिससे मालूम हो सके कि उसकी योजना क्या है? विभूति हस कर दारोगा की बात टाल गया। प्रसन्नकुमार की अगली योजना की जानकारी वह नहीं जुटा सकता।
‘वह कैसे मालूम कर सकता है प्रसन्न कुमार की योजना के बारे में? प्रसन्नकुमार मुझ पर विष्वास ही नहीं करता वह जानता है कि मैं अपने पिता के विरोध में नहीं जा सकता। फिर वह मुझे अपने साथ क्यों रखेगा?’
विभूति को लग रहा था कि दारोगा उसे फिल्मी जासूस बनाना चाहता है जो वह कभी नहीं बनेगा। रामभरोस भी विभूति को प्रसन्नकुमार के साथ जुड़वाना नहीं चाहते थे जबकि प्रसन्नकुमार से वह जुड़ा हुआ था। रामभरोस को डर था कि प्रसन्नकुमार की तरह विभूति भी डी.आई.आर. का मुल्जिम हो जाएगा। इस मामले को वे चाहे जैसे हल करेंगे पर विभूति को इस काम से नहीं जोडं़ेगे। यह विभूति की लिए अच्छी बात थी।
थाने पर से रामभरोस अपने घर नहीं लौटे सीधे रापटगंज चले गये। वे उलझन में थे, उन्हें चैन नहीं पड़ रहा था। उन्हें कृपालु जी से मिलना चाहिए, वे ही पंचायत भवन गिराए जाने के मामले में कुछ कर सकते हैं। और वे उनसे मिले भी। उन्होंने कृपालु जी को सहपुरवा का सारा किस्सा बताया कि किस तरह से औतार की जमीन जोत ली गई और पंचायत भवन का निर्माण गिरा दिया गया। कृपालु जी चकरा गयेकृ
‘का बोल रहे हैं रामभरोस जी, मुझे तो यकीन ही नहीं आ रहा कि हमारे क्षेत्रा के हरिजन कानून अपने हाथ में ले सकते हैं, का वे सरहंग हो गये हैं?’
रामभरोस ने अपनी बात को सच बताया और यह भी कि आगे क्या करना चाहिए, इस पर सलाह लेने के लिए वे उनके पास आये हुए हैं।
कृपालु जी ने सीधे पूछा....
‘थाने पर गये थे का?’
‘हां थाने पर गया था पंचायत भवन गिरा दिए जाने के बाद। उस समय थाने पर केवल दो ही सिपाही थे। वे थाना छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुए। दारोगा भी थाने पर नहीं थे वे अन्धेरा होने पर आये। तब तक तो औतार की जमीन जोती व बोई जा चुकी थी तथा पंचायत भवन का निर्माण गिराया जा चुका था। अब आगे क्या करना है इसी लिए आपके पास आया हूं। इस काण्ड का कर्ता-धर्ता कोई और नहीं शोभनाथ का लड़कवा प्रसन्नकुमरवा है। अगर पुलिस उसे गिरफ्तार कर लेती फिर तो सब ठीक हो जाता। दारोगा रपट भी तो नहीं लिख रहा है वह विचार कर रहा है कि उसे क्या करना चाहिए। वह सीधे प्रसन्नकुमार को मुकदमे में नहीं रखना चाहता। वह प्रसन्नकुमार से डर रहा है, बोल रहा है कि उसके साथ क्षेत्रा भर के हरिजन हैं, मुकदमे में उसे फसाते ही बवाल हो जाएगा। रामभरोस ने कृपालु जी से प्रार्थना किया....कृ
‘पंडित जी आप चाहेंगे तभी रपट लिखा पाएगी नहीं तो नहीं।आप थाने पर चलिए और रपट लिखवाइए। दारोगा पर दबाव डालिए कि वह प्रसन्नकुमार को पकड़ ले। प्रसन्नाकुमरवा पकड़ा जाएगा फिर सहपुरवा का सारा झमेला खतम हो जाएगा।’
‘पंडित जी आप तो जानते ही हैं कि औतरवा का पट्टा भी अभी तक खारिज नहीं हुआ है, डिप्टी साहब के यहां लटका हुआ है। औतार का पटटा खारिज होने का झूठा प्रचार मैंने ही करवा दिया था। औतार के पट्टे को भी आपको ही खारिज करवाना है। आप की बात डिप्टी साहब नहीं टालेंगे।’
औतार का पट्टा खरिज होने के पहले ही रामभरोस ने पंचायत भवन का निर्माण शुरू करा दिया था जो कानूनन गलत था। उस जमीन पर औतार का ही नाम चल रहा था जिस पर औतार अपनी खेती कर सकते थे। कृपालु ने रामभरोस को डांटा कि ऐसा काम जो कानूनन गलत हों आप काहे करते हो। पट्टा खारिज करा लेते फिर पंचायत भवन बनवाते पर आपका हर काम जल्दीबाजी का होता है खैर चलिए, दारोगा के पास चलते हैं।’
कृपालु जी दारोगा के पास आये या लाए गये, यह सहपुरवा के लिए आवश्यक नहीं। आगे क्या होता है यह आवश्यक है। कृपालु जी का थाने पर आना दारोगा के लिए भी ठीक था। उसने रपट लिख ली कुछ अपने मन से तथा कुछ कृपालु जी के दबाव से।
रपट लिख जाने के बाद दारोगा सहपुरवा जाने की तैयारी करने लगा। दारोगा का डर टूट चुका था वह समझ चुका था कि कृपालु जी के कारण उसकी नौकरी पर असर नहीं पड़ेगा। कृपालु जी का राजधानी तक सोर्स है। पुलिस के सारे बडे़ अधिकारी कृपालु जी को जानते व मानते हैं। दारोगा मन ही मन अपनी कार्य योजना बनाने लगा था कि उसे सहपुरवा जा कर क्या क्या करना है। हरिजनों को तो छूना तक नहीं है, सिर्फ सभी को डरवा देना है।
कृपालु जी के सक्रिय हो जाने से रामभरोस का संकट दूर हो चुका था। रामभरोस जानते थे कि कहीं कुछ नहीं होता। कोई कुछ नहीं करता। सब कुछ करवाया जाता है। दंगे अपने आप नहीं होते। बलबे अपने आप नहीं होते, घर नहीं बंटते, देश नहीं बंटते, बलबे, दंगे, बटवारे सब करवाए जाते हैं। किसी भी तरह से उन्हें तो अपना काम कराना है और शोभनाथ को दिखा देना है कि रामभरोस अकेला रामभरोस है फिर भी उसके काम को कोई नहीं रोकवा सकता। सहपुरवा में वही होगा जो रामभरोस चाहेगा।
थाने पर से ही कृपालु जी घोरावल लौट गये। वहां भी सहपुरवा की तरह का एक मामला फसा हुआ था। हरिजन और सवर्ण वाला? वहां तो हरिजन मार-पीट पर आमादा हैं, थोड़ा भी मौका मिला तो वे जाने क्या कर दें। हालांकि वहां सिपाहियों की ड्यूटी लगा दी गई है फिर भी डर बना हुआ है। रामभरोस थाने से देर रात तक अपने घर आये और सो गये। रामभरोस के आने की रामदयाल प्रतिक्षा कर रहा था। थाने पर मिली दारोगा की सहमति से रामभरोस मगन थे। रामदयाल से वे सगर्व बोले....कृ
‘कल तक सब हल हो जाएगा हो रामदयाल’
‘अच्छा सरकार!’
कृपालु जी थाने से ही घोरावल चले गये। घोरावल जाना उनके लिए जरूरी था। वहां के एक गॉव में सहपुरवा की तरह ही संकटपूर्ण स्थिति थी। कृपालु जी का जो शक था वह सही निकला। कुछ न कुछ अशुभ ही होगा। वही हुआ। गरीब जनता जब प्रतिरोध पर उतर जाती है तब उस प्रतिरोध को रोक पाना आसान नहीं होता। प्रतिरोध इतना उग्र हो गया कि एक बाऊसाहब का घर तक हरिजनों ने घेर लिया था। वहां सीलिंग से निकली जमीन का विवाद था। सीलिंग से निकली जमीन को हरिजन जोत रहे थे। बाऊसाहब ने मना किया। ताकत की जोर से हरिजनों को उन्होंने रोकने का प्रयास भी किया, वे रोकने के अलावा और क्या कर सकते थे। वे अपने पक्ष में अकेले थे उनके विपक्ष में गॉव के पूरे हरिजन थे। वहां मामला शारीरिक ताकत का आन खड़ा था। कोई कायदा कानून नहीं रह गया था वहां। शासन प्रशासन जहां था वहां था पर वहां नहीं था जहां होना चाहिए था। वहां कानून भी गॉव की जमीन पर पसर कर सो रहा था, उसे जगाए भी तो कौन? कानून को जगाना था बाऊसाहब को, बाऊसाहब कानून के दरवाजों पर दौड़ लगा रहे थे। वे कानून को जगाना चाहते थे, लगातार कानून के दरवाजे पीट रहे थे पर कानून सो गया तो सो गया, उसे जगाना आसान और सरल नहीं। बाऊसाहब ने पूरी कोशिश की पर सब बेकार, कानून सोया ही रह गया, उसे वे नहीं जगा सके। हरिजन संगठित थे, मरने मारने पर तुले हुए थे। वे मानने वाले नहीं थे। हरिजनोें की समझ थी कि सीलिंग से निकाली गई जमीन पर उनका अधिकार होना चाहिए और किसी का नहीं, उस जमीन को आवंटित किया जाना चाहिए। वे इसी राजनीतिक समझ पर आगे बढ़ रहे थे। वे बाऊसाहब से लड़ गये और फिर बात बढ़ गई। कृपालु जी चिन्तित थे कि रापटगंज परिक्षेत्रा में हो क्या रहा है, हर जगह झगड़ा।
वस्तुतः हरिजनों में चेतना आ गई थी। वे समझने लगे थे कि ‘जो जमीन सरकारी है वह हमारी है’। ऐसी चेतना उनमें कैसे आई कृपालु जी के लिए सोचने व गुनने वाली बात थी फिर भी वे जानते थे कि हरिजनों की यह समझ राजनीतिक आकांक्षाओं के कारण है। अब उनकी आकांक्षाओं को किसी भी तरह से नहीं रोका जा सकता।
‘आदमी की कोई जाति नहीं होती, कोई धर्म
नहीं होता उसका तो केवल एक ही धर्म होता है मनुश्ष्यता
वाला, मानवीय समीपता वाला। काश! हम ऐसा ही सोच पाते’
कृपालु जी की पैरवी काम कर गई। आखिर दारोगा कृपालु जी की बात काहे नहीं मानता। कृपालु जी जिले के बड़े नेता हैं, वे कुछ भी कर सकते हैं विरोध में। उनकी बात मान लेनी चाहिए। दारोगा दूसरे दिन सहपुरवा आया। उनके साथ आठ सिपाही थे। रामभरोस के बताने के अनुसार दारोगा सावधानी बरत रहा था। रामभरोस ने उसे थाने पर ही बता दिया था कि सहपुरवा में मार-पीट भी हो सकती है। सो दारोगा सावधान था।
दारोगा गॉव में नहीं घुसा, सीधे मौके पर गया। हरिजन बस्ती से दक्षिण की तरफ जहां पंचायत भवन का निर्माण हो रहा था। उसने देखा कि वहां निर्माण के शिनाख्त भी नही बचे हुए हैं, ईंटों और ढोकों के गिट्टी जैसे टुकड़े पास वाले नाले में फेंके हुए दिख रहे थेे जो घटनास्थल से करीब तीन सौ मीटर से अधिक दूरी पर था। उसके अगल बगल का खेत जोता हुआ था तथा उसमें गेहूॅ बो दिया गया था। वहां कभी पंचायत भवन बन रहा था या निर्माण हुआ था ऐसे चिन्ह वहां पर नहीं थे।
सिपाही दारोगा के निर्देश के मुताबिक शोभनाथ, औतार, और सुक्खू को खोजने तथा पकड़ने के लिए गॉव में गये हुए थेे। दारोगा भी उनके साथ गॉव में घुसा। जाहिर है जब किसी की पकड़ करनी होती है तब पुलिस पकड़ किए जाने वाले व्यक्ति के घर में सीधे घुस जाया करती है, यही है पुलिस का आदिम तरीका। सिपाही जागरूक थे सो सिपाहियों ने लक्ष्य बना लिया था कि गॉव से वांक्षितों को भागने नहीं देना है। दूसरी ओर गॉव के हरिजन थे कि वे असावधान थे। उनका मानना था कि पुलिस को जांच या पकड़ के लिए गॉव में आना होता तो घटना के दिन ही आ जाती। पर वे गलत थे, उनका सोचना गलत था। रामभरोस की रपट पर पुलिस की इतनी मजाल कि वह गॉव में नहीं आये, जॉच पड़ताल न करे ऐसा संभव नहीं था। पर घटना के दिन पुलिस नहीं आई थी सो हरिजन मान कर चल रहे थे कि पुलिस अब सहपुरवा में नहीं आने वाली। जो होना था हो चुका।
पुलिस गॉव में दूसरे दिन आई। वैसे औतार व शोभनाथ को यकीन था कि पुलिस कभी भी आ सकती है गॉव में। और पुलिस आ भी गई। पुलिस के गॉव में आने का यकीन औतार को इसलिए था कि रामभरोस कानून को जब चाहें अपने हिसाब से नचा सकते हैं, नहीं तो कोई दूसरा कानूनी कारण नहीं था, वह जमीन तो औतार की ही थी।
पुलिस को सहपुरवा में आना था, नहीं आना था, सारा शाक खतम हो गया था और पुलिस का दल आठ सिपाहियों के साथ गॉव में आ धमका।
पुलिस या रामभरोस जिन्हें मुल्जिम मान रहे थे वे सभी लोग अपने घरों पर ही थे। शोभनाथ औतार व सुक्खू इनमें से कोई कहीं भागा नहीं था। उन्हें भागना भी नहीं था। वे जानते थे कि वे गलत नहीं हैं गलत हैं रामभरोस, अभी औतार का पट्टा भी खारिज नहीं हुआ है फिर भी रामभरोस औतार की जमीन पर पंचायत भवन बनवा रहे हैं। यह गलत है। पुलिस ने वांक्षितों को पकड़ लिया, वे सभी अपने अपने घर पर ही पुलिस को मिल गए, वे घर से भागे नहीं थे। पुलिस गॉव में किसी को पकड़ ले और वहां भीड़ न इकठ्ठा हो जाए ऐसा नहीं होता। वहां भीड़ इकठ्ठा हो गई। भीड़ अपने स्वभाव के मुताबिक एक दूसरे का चेहरा देखने और पढ़ने लगी। लोगों के चेहरों पर एक ही इबारत लिखी थी कि पुलिस किसी को भी पकड़ सकती है वह भी जब चाहे, वक्त कैसा भी हो। भीड़ के दिमाग में दूसरा सवाल था जो भविष्य का था कि आगे क्या होगा? लोग आशांकित थे कि आगे ठीक और भला नहीं होने वाला।
दारोगा के लिए कुर्सी मंगा ली गई थी। वहां कुछ चारपाइयां थीं जिन पर अन्य लोग बैठे हुए थे तथा हरिजन उनके सामने जमीन पर बैठे हुए थे। दारोगा के आदेश की प्रतिक्षा में सिपाही बीड़ी पर बीड़ी दागे जा रहे थे वहां एकत्रा लोग क्या होने वाला है? की प्रतिक्षा में थे। दारोगा सीरियस था और जाने क्या इधर उधर देख रहा था। वह वहां बैठे हुए लोगों में से केवल प्रसन्नकुमार के पिता शोभनाथ और रामभरोस को ही जानता था। दारोगा ने अचानक मुंह खोला....कृ
‘औतरवा कौन है रे! यहां हाजिर है कि नहीं, हाजिर है तो सामने आओ, कहां बैठे हो? पंचायत भवन जो बन रहा था उसे किन किन लोगों ने गिराया, सभी का नाम लिखवाओ। तुम कमीनों का इतना मन बढ़ गया है कि कायदा कानून खाए जा रहे हो।
सकपकाए हुए औतार भीड़ में से बाहर निकले। उनके चेहरे को अप्रत्याशित डर ने जकड़ लिया था फिर भी वे खुद को संभाले हुए थे? जो होना होगा, होगा ही उसे नहीं रोका जा सकता।
‘हम हैं औतार सरकार!’
‘तूं हो औतार, देखने में तो सीधे सादे दीख रहे हो पर काम तो तूंने हरामियों वाला किया है। इतनी हिम्मत कहां से आ गई रे तेरे पास। तोहके कौन साला बहकाया है रे! बताओ पंचायत भवन किन किन लोगों ने गिराया?’
‘हम नहीं जानते सरकार! कौन पंचायत भवन?
औतार ने दारोगा से पंचायत भवन के बारे में पूछा..कृ
इतना काफी था। दारोगा गाली पर गाली चढ़ाने लगा, किसिम किसिम की गालियां जिसे सहपुरवा ने कभी नहीं सुना था, मालिक लोग भी ऐसी कमीनी गालियां नहीं देते।
‘साले तूं नहीं जानता कि पंचायत भवन किसने गिराया? और पूछ रहा है कौन पंचायत भवन? क्या बाहरी लोग आए थे, गांड़ में डंडा पड़ेगा तब बकोगे साले!’
फेकुआ दारोगा के पास ही में था, वह गाली पर गाली सुन रहा था। फेकुआ मन ही मन बुदबुदा रहा था। गाली गलौज सहन करना उसके लिए संभव नहीं था। आखिर का हो जाएगा, जेल ही जाना पड़ेगा नऽ अउर का होगा। बाप दादों की सीख उसे अब नहीं मानना। जेल तो जाना ही होगा रामभरोस नहीं मानने वाले, चाहे मार करो, तो भी, न करो तो भी। अचानक दारोगा ने फेकुआ को पुकारा....कृ
‘ई साला फेकुआ कौन है रे?’
फेकुआ सामने आ गया वह मन से तनेन था।
‘हम हैं सरकार फेकुआ!’ फेकुआ ने बताया
‘क्यों बे! तुम्हारे बाप के पट्टे वाले खेत पर कल कौन कौन लोग गये थे? किसने जोता वह खेत? तथा पंचायत भवन किन किन लोगों ने गिराया? वह तो चार फीट ऊपर तक बन चुका था।’
फेकुआ चुप था, सो चुप था, वह का बोलता उससे तो सिखाया जा चुका था कि दारोगा के सामने कुछ नहीं बोलना, सो वह चुप था। बड़ों की सीख वह कैसे तोड़ता?
दारोगा गरजा....कृ
‘बोलते क्यों नहीं साले! तुम्हारी चमरई तुम्हारी गांड़ में घुसेड़ दूंगा, साले कुत्ते की औलाद।’
इस बार भी फेकुआ कुछ नहीं बोला। उसके बोलने के पहले रामदयाल कारिन्दा बोल पड़ा....कृ
‘सरकार! ई साला का बोलेगा, इन लागों ने अपने मन से कुछ नहीं किया है सरकार! सारा खेल तो प्रसन्नकुमरवा का है। वही मेरे गॉव में बवाल करवा रहा है। का हो शोभनाथ पंडित हम गलत बता रहे हों तो बोलिए का सही है? गांड़ीं में दम हो तो बोलिए सबके सामने, आड़े आड़े भुचकी का मारते हैं?’
ष्शोभनाथ पंडित को तो पहले से ही वहां का नाटक अखर रहा था। वे काफी गुस्से मेें थे....कृ
‘काहे चिल्ला रहे हो रामदयाल! का उखाड़ लोगे मेरा, तुम्हारे जैसे पालतू नहीं हैं हम। बहादुर थे तो कल ही आ गए होते मौके पर, फरिया गया होता सारा कुछ। दरोगा जी के सामने बमक रहे हो। जिसके तुम पालतू हो उसको तो हम कुछ समझते ही नहीं हैं, तूं किस खेत का ढेला है रे!’
ष्शोभनाथ पंडित भी अपने आचरण के विपरीत बोल उठे हालांकि किसी के साथ अपमानजनक बातें करना उनका स्वभाव नहीं था। वे एक ठंडे दिल दिमाग के आदमी हैं और हर बात संभाल कर बोलते हैं। पर करें क्या जैसे को तैसे वाली बात, उन्हें बोलना ही पड़ा।
दारोगा के सामने ही सहपुरवा का मामला उलझ कर रामभरोस, शोभनाथ पंडित और औतार के बीच फसता जा रहा था। दारोगा खामोश, वर्दीधारी सिपाही खामोश, वहां इकठ्ठे लोग खामोश, हरिजन खामोश, औतार खामोश, गोया सभी खामोश थे। हवा और मौसम के बारे में क्या बताना? मामला तूल पकड़ रहा था।
सहपुरवा खामोशी का उदाहरण बनने वाला था सो सभी खामोश थे। पर खामोशी के भीतर गुस्सा था गुस्से में साधारण सी बात भी बढ़ने लगती है तो बढ़ती ही जाती है, कितना बढ़ जाएगी अनुमान लगाना कठिन। बात बढ़ गयी। मौका अच्छा था, बवाल करने का, रामभरोस तो चाहते ही थे कि बवाल हो जाए। मौके का लाभ लेने के लिए रामभरोस ने रामदयाल कारिन्दा को संकेत कर दिया फिर क्या था....कृकृ रामदयाल कारिन्दा ने शोभनाथ पंडित पर लोहबन्दा चला दिया, एक ही लोहबन्दा में शोभनाथ पंडित जमीन पकड़ लिए। शोभनाथ पंडित का जमीन पकड़ लेना ही सहपुरवा का आग में तब्दील हो जाने का कारण बन गया। रामभरोस चाहते भी यही थे कि सहपुरवा आग का खेल बन जाए। जल जाये हहाकर।
ष्शोभनाथ पंडित पर हुए हमले को फेकुआ बर्दास्त नहीं कर पाया। वह तत्काल भूल गया बाप दादों की सीख। जहां वह खड़ा था वहीं से रामदयाल कारिन्दा की पीठ पर एक बोंग मारा और रामदयाल भहरा गया जमीन पर। फिर तो रामदयाल को फेकुआ तब तक मारता रहा जब तक रामदयाल अधमुआ नहीं हो गया। बलवा होने की आशंका तो तभी बढ़ गई थी जब रामदयाल ने शोभनाथ पंडित पर लोहबन्दा चला दिया था पर तब सारे हरिजन औतार का इशारा देख रहे थे....
औतार भी क्या करते हालांकि वे नरम दिमाग वाले थे फिर भी शोभनाथ पंडित पर हुए हमले को वे नहीं बर्दाश्त कर पाए। शोभनाथ पंडित तथा उनका लड़का प्रसन्नकुमार दोनों रामभरोस जैसे कमीने आदमी से हरिजनों के लिए ही तो टकरा रहे थे। औतार को भी गुस्सा आ गया फिर तो उन्होंने भीड़ की तरफ इशारा कर दियाकृऔतार का इशारा मिलते ही....कृ
लाठी पर लाठी, लोहबन्दा पर लोहबन्दा, झापड़ पर झापड़, लात पर लात, ऐसे दृश्य को ही कानून बलबा कहता है। कितने आदमी, जाने कितने? कौन मार रहा था, कौन मार खा रहा था,कृसारा कुछ अज्ञात, ज्ञात केवल इतना ही कि सहपुरवा में बलबा हो गया। जैसे कोई फिल्म चल रही हो जिसका कोई निर्देशक न हो, सभी निर्देशक हों तथा सभी पात्रा हों।
तो बलबा शुरू....कृ
औतार, बिफना, सुक्खू तथा दूसरे हरिजन भी लाठी लेकर कूद पड़े, मार होने लगी, मार तो मार होती है। कहीं भी मार होने पर पता नहीं कैसे बचाने वाले भी निकल आते हैं, कुछ बचाने लगे पर मार जिसे होना था वह रुकने वाली नहीं थी। मार तो होती रही, बचाने वाले बचाते रहे, एक आदिम दृश्य मार-काट वाली, खून बहाने वाला। सहपुरवा की हजारों साल की शुप्त धरती पर मार का बदला मार वाला आदिम मिजाज का संगीत गाता बजाता उतर चुका था सहपुरवा में।
हरिजनों का उत्पीड़ित मन लहरा उठा था। वे एक एक लाठी में अपना उत्पीड़न देख रहे थे, एक साल दो साल का नहीं हजारों साल का। क्रोध में तो कुछ दिखता भी नहीं, सिपाही भी मार खाने लगे, थे ही कितने केवल आठ और हरिजन कौन गिने? लगभग सभी थे सहपुरवा के जिनके हाथ पैर मजबूत थे और अक्ल वाले थे, जो भविष्य की यातनाओं से डरने वाले नहीं थे।
हरिजनों को तो मालूम ही था कि सिपाही रामभरोस के बुलाने पर सहपुरवा में आये हुए हैं। वे न्याय करने नहीं आये हैं। वे रामभरोस के माथे पर जीत लिखने के लिए आए हुए हैं। हरिजनों को उत्पीड़ित करने के लिएआए हुए हैं। किसी सिपाही का हाथ टूटा तो किसी का माथा फूटा पर फूटा और टूटा सभी का। हरिजनों को भी गंभीर चोटें आई, चोटें दोनों तरफ बराबर थीं। यही तो होता है बलबा में। रामदयाल कारिन्दा जमीन पर गिर कर कराह रहा था। पहली बार ऐसा हुआ था कि रामदयाल बुरी तरह से सहपुरवा में मारा गया था नहीं तो सांड़ बना वह गॉव में घूमा करता था। सारा द्श्य देखते ही रामभरोस और दारोगा जी भाग खड़े हुए हालांकि फेकुआ और बिफना ने उन्हें पछियाया था पर वे लोग पकड़ में नहीं आये फिर वे दोनों वापस आ गये और मार के बदले मार में शामिल हो गये।
ष्शोभनाथ पंडित चोट के कारण कराह रहे थे। विभूति सिपाहियों को मार रहा था और गालियां दिए जा रहा था। मार के दौरान बिफना ने सावधानी नहीं बरता होता तो रामदयाल कारिन्दा शोभनाथ पंडित की जान ले लेता। शोभनाथ के माथे पर लोहबन्दा पड़ते ही बिफना ने देख लिया फिर क्या था शोभनाथ की देह पर वह तुरंत लेट गया, पसर कर उनकी देह जकड़ लिया। लोहबन्दा पड़े तो उसकी पीठ पर, शोभनाथ पंडित पर एक भी लोहबन्दा नहीं पड़ना चाहिए। फिर तो कई लोहबंदे बिफना की पीठ पर ही पड़े, उसे काफी चोट लग गई फिर भी बिफना ने बचा लिया शोभनाथ पंडित को। जवान था पर चोट बर्दाश्त करने से बाहर की थी। वह कराहने लगा था। रामदयाल कारिन्दा तो पहले ही भाग जाता पर सबसे पहले हरिजनों ने उसको ही मारना शुरू किया और वह वहीं भहरा गया। सो वह न भाग सका।
ष्शोभनाथ पंडित को गोदी में उठा कर दो तीन लोग उनके घर लाए, घर पर उनका घरेलू उपचार किया गया। चोट बिभूति को भी लगी थी पर वह चोट के कारण असमर्थ नहीं हुआ था। वह सीधे घर की तरफ भागा और अपना ट्रेक्टर निकाल लाया। शोभनाथ पंडित और बिफना को काफी चोटे लगी थीं, वे कराह रहे थे, उन्हें अस्पताल पहुंचाना जरूरी था। किसी तरह ट्रेक्टर पर लाद कर उन्हें बिभूति अस्पताल ले गया।
गॉव में झगड़ा या बलवा होते ही रामभरोस अपने घर चले गये फिर घर से कहां लापता हो गये किसी को नहीं मालूम, अनुमान था कि बखरी छोड़ कर भाग गये होंगे। कृपालु जी का भी सहपुरवा में कहीं अता पता नहीं था।
प्रसन्नकुमार सहपुरवा में नहीं था। शोभनाथ पंडित और बिफना को अस्पताल ले जाते समय ही विभूति ने साथियों से गॉव छोड़ कर भाग जाने के लिए बोल दिया था। उसके कहे के अनुसार सभी हरिजनों ने गॉव छोड़ दिया था गोया पक्ष विपक्ष दोनों गॉव छोड़ चुके थे।
सहपुरवा में किसी भी तरह से रामभरोस को बलबा कराना था, वह हो चुका था। मारपीट, पुलिस मुजाहिमत, शोभनाथ पंडित मरें या जियें यह उनकी निजी बात थी। आगे का परिदृश्य साफ था, रामदयाल जिन्दा है, वह पुलिस का गवाह बनेगा अगर मर जाता तो रामभरोस दूसरा कारिन्दा रख लेते। रामभरोस के लिए सहपुरवा का वातावरण काफी अनुकूल था। उन्हें अफसोस इस बात का था कि कानून का यह खेल पंचायत भवन का निर्माण गिराए जाने के दिन ही हो जाता तो अच्छा होता पर एक दिन बाद हुआ। दारोगा के आने के पहले ही सहपुरवा में बलवा हो जाना चाहिए था पर यह भी अच्छा हुआ कि सारा मामला पुलिस और हरिजनों के बीच में हो गया। अब उनसे इस बलबे से कुछ लेना देना नहीं।
रामभरोस जानते हैं कि घरों में विभूति जैसे नालायक भी हुआ करते हैं जो अपनों के खिलाफ ही लड़ते रहते हैं। प्रसन्नकुमार भी नालायक ही है। वह यह नहीं जानता कि हरिजनों का मन बढ़ा कर उसे क्या मिलने वाला है? विभूति पकड़ जाये चाहे प्रसन्नकुमार, हम मार खांयें या शोभनाथ दोनों एक हैं, कोई फरक नहीं है दोनों में। विभूति और प्रसन्नकुमार पता नहीं क्या पढ़ रहे हैं, उन्हें अपनी जाति तथा अपने लोगों के बारे में कुछ भी पता नहीं। भला हरिजन कभी पंडितों का साथ देंगे? पर कौन समझाए उन दोनों को। कउआ कभी बगुला हो सकता है भला!
बलवा हो जाने के बाद रामभरोस चिंतक बने जा रहे थे। अपनी जाति और वर्ण के बारे में सोचने लगे थे, वे भला कैसे सोच पाते कि आदमी तो केवल आदमी होता है, आदमी की कोई जाति नहीं होती, कोई धर्म नहीं होता उसका तो केवल एक ही धर्म होता है मनुश्यता वाला, मानवीय समीपता वाला। उन्हें का पता कि पुलिस में भी तो अपने ही लोग होते हैं गॉव के लोग, गॉव की माटी में जन्मे, गोबर, माटी से सने। फिर किस बात का झगड़ा। पर झगड़ा तो वे लगा चुके थे उसी का परिणाम था बलबा। रामभरोस गॉव में अगर राजनीति न करते तो शायद बलबा न होता, आखिर का जरूरत थी औतार का पट्टा खारिज कराने की उन्हें, किसी दूसरी जमीन पर पंचायत भवन बनवा देते।
प्रसन्नकुमार का रामभरोस से झगड़ा केवल उनके आंतंक को समाप्त करने के लिए था। रामभरोस को जानना चहिए कि जमाना बदल चुका है सो उन्हें भी बदल जाना चाहिए जमाने के साथ। रामभरोस का प्रसन्नकुमार और शोभनाथ से झगड़ा इस लिए था कि वे रामभरोस के आतंक को रोक रहे थे उनके फर्जी सम्मान पर चोट कर रहे थे सो रामभरोस झगड़ रहे थे और प्रसन्नकुमार को जेल भिजवाना चाहते थे।
रामभरोस को बार बार रामदयाल कारिन्दा पर भी गुस्सा आ रहा था....
‘साले ने शोभनाथ पंडित को मार कर बेमतलब सारा खेल बिगाड़ दिया और गॉव में बवाल बढ़ गया। रमदयलवा को शोभनाथ पर बोंग चलाना ही नहीं चाहिए था। उसे तनिक भी समझ नहीं कि पुलिस बोंग चलाने के लिए ही तो आई थी। जो काम उसने किया उसे पुलिस करती, पुलिस ही फेकुआ, औतार, सुक्खू, शोभनाथ को मारती पीटती, गिरफ्तार करती। हम लोगों को तो केवल खामोश रहना था और पुलिस के कानूनी खेल को देखना था। दारोगा सहपुरवा में भंाग पीने या सोहर गाने थोड़य आया था।’
रामभरोस सारा खेल सामंती चाल के तहत कर रहे थे। सामंती चालें हालांकि पहले नहीं खुलतीं पर बाद में खुल जाया करती हैं। सामंती चाल की ऐतिहासिकता बताती है कि कमजोरों को आपस में सदैव लड़ाते रहो, उनमें फूट पैदा किए रहो। सामंती चाल अंग्रेजों वाले फूट डालो और राज करो से मिलती जुलती ही होती है। जो हमारे समाज में बहुत पहले से चल रही है। रामभरोस की चाल थी कि पंडित शोभनाथ के प्रति हरिजनों में अविश्वास पैदा करना और हरिजनों से ही शोभनाथ पडित पर मुकदमा करवाना पर सब बेकार हो गया। रामभरोस के लिए चिन्ता की बात यह भी थी कि उनका लड़का विभूति भी उनके विरोधियों की गोल में शामिल हो कर उनके खिलाफ हो गया है। वह भी बांेग चला रहा था हरिजनों के साथ। ट्रेक्टर पर लाद कर शोभनाथ पंडित को वही अस्पताल भी ले गया था। उनकी सामंती चाल सहपुरवा में फेल कर चुकी है।
चोट खाये सिपाहियों को थाने पर पहुंचा दिया गया।
भीड़, दारोगा और सिपाही, मार पीट और सहपुरवा, सहपुरवा के रामभरोस, रामदयाल, शोभनाथ पंडित, प्रसन्नकुमार, औतार ओर विभूति, सिपाही घायल। सहपुरवा घायल। एक गॉव का घायल और चोटिल होना अशुभ नहीं तो और क्या है और सिपाहियों का घायल होना... वह तो सत्ता प्रबंधन का अपमान है।
क्षेत्रा में ही नहीं पूरे जिले में जोरदार चर्चा थी जिन्हें सहपुरवा का नाम तक मालूम नहीं था वे भी जान गये थे सहपुरवा का नाम। हरिजनों के लिए शोभनाथ पंडित का संघर्ष प्रशंसनीय था पर उनकी बिरादरी में निन्दनीय, उन्हें उनकी जाति वाले गरिया रहे थे। हर ओर हल्ला था....कृ
‘ये हरिजन किसी के नहीं होते’
प्रसन्नकुमार को बाद में मालूम हुआ कि उसके पिता को चोटें आईं हैं और सहपुरवा में बलबा हो गया है। सिपाही भी मार खाये हैं। प्रसन्नकुमार अपने पिता जी से मिलने के लिए व्याकुल हो उठा। वह अपने पिता से अस्पताल में मिला, उन्हें ज्यादा चोेटें नहीं आई थीं। दूसरे दिन ही शोभनाथ पंडित और बिफना को अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया। गनीमत थी कि औतार सुक्खू और फेकुआ को अधिक चोटें नहीं आयी थीं, केवल बिफना को अधिक चोट लगी थीं वह भी शोभनाथ पंडित की देंह पर लोट जाने के कारण। प्रसन्नकुमार का मानना था कि जो लोग फरार हैं उन्हें फरार ही रहना चाहिए। गिरफ्तारी देना उचित नहीं होगा आखिर गिरफ्तारी भी किस सरकार के आगे? ऐसी सरकार के आगे जो विनम्र नहीं है। ऐसी सरकार के आगे जो कुछ खास लोगों का पक्ष लेती है, ऐसी सरकार के आगे जो समाज में आर्थिक रूप से भेद-भाव करती है, जो गरीबों को, प्रताड़ितों को जनता ही नहीं मानती।
सरकारी व्यवस्था का पूरा चित्रा उसकी ऑखों के सामने था जयप्रकाश अटल, लालकृष्ण आडवानी, राजनारायण जेलों में बन्द हो कर न्याय की भीख ही तो मांग रहे हैं। न्याय नहीं मिलता, न्याय मिलने वाली चीज भी नहीं, मिलता है प्रशासन का दमन,, मिलता है डंडा और मिलती है जेल, बन्दूक की गोलियां मिलती हैं।
सहपुरवा के हरिजन फरार थे। वे गॉव में तब तक नहीं आते जब तक प्रसन्नकुमार उन्हें गॉव आने के लिए नहीं बोलता।
'''‘घटना, मुजाहिमत, विश्लेषण, कानून
व न्याय, औतार, रामभरोस, प्रसन्नकुमार सभी
वहीं फिर भी गॉव की संस्कृति अपराध की कृति बन गई!’'''
पंचायत भवन का निर्माण गिराए जाने के दूसरे दिन सहपुरवा की हरिजन बस्ती पुलिस द्वारा घेर ली गई। समाज में शाान्ति बनाए रखने के लिए वेतन पाने वाले सिपाही कोई करतब नहीं कर पाए। मार-पीट के सहारे विवाद सुलझाने की उनकी कोशिश बेकार चली गई। गॉव में मार शुरू हो गई, सिपाही तथा गॉव के दोनों पक्ष चोटिल हो गए। मार शुरू किया रामदयाल ने शोभनाथ पंडित पर बोंग चला कर, उनका साथ दिया सिपाहियों ने। सिपाहियों ने जैसे ही लाठी भॉजने का पारंपरिक कौशल दिखाना शुरू किया वैसे ही सहपुरवा के हरिजनों ने अपने बचाव में लाठियां भॉजना शुरू कर दिया। मार तो एक रेखीय होती है, मार, मार, मार केवल मार। सिपाही थे ही कितने जो गॉव वालों के सामने टिक पाते। सिपाही टिक भी नहीं पाते। सिपाही तभी टिक पाते हैं जब तक उनका अदब लोगों को डराए रहता है। यह दुनिया अदब का खेल है, इसी अदब के कारण सारा कुछ चलता हुआ दीखता है। सहपुरवा से अदब खतम हो चुका था। वैसे भी गरीबी और यातना की जंग में अदब की ही हार होती है। गॉव वाले आत्मरक्षा पर उतर आये थे, उनकी आत्मा ने मान लिया था कि मार का प्रतिकार केवल मार ही होता है। वे मान जाने की स्थिति में नहीं थे, रामनोहर लोहिया का सिद्धान्त ‘मानेंगे नहीं पर मारेंगे भी नहीं’ सहपुरवा की गलियों में भहरा कर चोटिल हो चुका था सो मार तो होनी ही थी। गॉव वाले भी चोटिल हो गए थे, वे भी मार खाए थे पर उनका मार खाना व्यवस्था के लिए चुनौती नहीं थी। चुनौती थी सिपाहियों के मार खाने की, सो सारा प्रशासन आग में जलने लगा था।
जिलाधिकारी और कप्तान के आदेश आ चुके थे। सिपाहियों का दस्ता बुला लिया गया था। गरीब व यातनाग्रस्त जनता सिपाहियों से मार-पीट कर ले यह साधारण बात नहीं थी जितनी मनोवैज्ञानिक है उससे अधिक सामाजिक है। सहपुरवा से जान बचाकर दारोगा को भागना पड़ा था। सहपुरवा की मानसिक शान्ति खत्म हो चुकी थी। अनहोनी किस्म का डर पूरे गॉव में पसर चुका था। पुलिस से मार-पीट करना पूरी व्यवस्था को चुनौती देना था। सहपुरवा में शान्ति स्थापित करवाना और दोषियों को दण्डित करवाना पुलिस के लिए सबसे जरूरी काम बन चुका था। पर दोषी कौन था, किसने पहले मार करना शुरू किया था उसे पता लगा पाना अज्ञात का खेल बना दिया गया पर पुलिस जानती थी कि सहपुरवा में बलबा रामभरोस के कारण हुआ। उन्हीं के इशारे पर रामदयाल ने शोभनाथ पंडित पर लोहबन्दा चलाया था। अगर शोभनाथ पंडित को रामदयाल ने लोहबन्दा से न मारा होता तो शायद सहपुरवा में बलबा नहीं होता।
मानव सभ्यता की बुनियाद तो शान्ति व्यवस्था पर टिकी होती है पर कैसे स्थापित रह सकती है शान्तिव्यवस्था। इस बाबत इतिहास से शायद कुछ सीख मिल सके पर सहपुरवा में तो कहीं इतिहास था ही नहीं। सहपुरवा की हर गली, हर सिवान इतिहास विहीन थे, इतिहास तो केवल रामभरोस का था। गॉवों में मारपीट और बलबा कराने का, उस इतिहास से सहपुरवा का कैसे भला होता? उनका इतिहास तो मार-पीट, दमन से शुरू ही होता था।
सहपुरवा की घटना का विश्लेषण पुलिस कर रही थी कि शान्तिप्रिय हरिजनों ने अपने हाथ में कानून क्यों ले लिया? कुछ ही लोग पुलिस के ऐसे थे जो मान कर चल रहे थे कि हरिजनों ने आत्मरक्षा में लाठियॉ चलाईं थीं पर जो रामभरोस के समर्थक थे वे हरिजनों का दोष गिना रहे थे। सहपुरवा की घटना का कौन दोषी है जिसके कारण सुलह सफाई वाली एक घटना बलवा में तब्दील हो गई, इसका निर्णय तो पुलिस को ही करना था सहपुरवा के हरिजन इसका निर्णय कैसे कर सकते थे?
क्षेत्रा के लोगों को पता था पुलिस की ताकत के बारे में, केवल पुलिस की प्रतिक्षा थी कि पुलिस क्या करने वाली है?
पुलिस मानने वाली नहीं थी उसे तो अपनी ताकत दिखानी ही थी। पुलिस के लोगों ने जब सिपाहियों की हालत गंभीर देखा फिर तो उनके गुस्से का पारा चढ़ गया। सिपाही बहुत अधिक चोटिल हुए थे एक सिपाही की हालत तो इतनी गंभीर थी कि उसे बनारस भेजना पड़ गया था।
हरिजनों की हिम्मत टूट चुकी थी। वे कोई पेशेवर अपराधी नहीं थे जो हिम्मत रखते। स्वस्फूर्तता के कारण मार-पीट हो गई थी, वह भी खुद को बचाने के लिए। वैसे भी हरिजनों की पूर्व योजना नही थी मार-पीट की। वे तो खुद को बचाना चाहते थे कि पुलिस के डन्डे उन पर न पड़ें। हरिजन डर के मारे परेशान थे, जाने पुलिस क्या करे। किसे गिरफ्तार करे, किसे मारे पीटे। इसी डर के कारण वे गॉव छोड़ चुके थे, भाग गए थे कहीं।
घटना के दूसरे दिन ही गॉव में पुलिस आ गई एक दो सिपाही नहीं, कई कई सिपाही, कई दारोगा तथा पुलिस के अधिकारी भी। शोभनाथ पंडित, औतार और सुक्खू अपने घरों पर नहीं मिले। उनके न मिलने के कारण उनके घरों की तलाशी ली जाने लगी। उनके घरों के सामानों को कूड़े की तरह घर से बाहर गली में फेका जाने लगा। घर में भी जो घर होता है उसमें उपद्रव शुरू हो गया। बच्चे जो घर में थे डर कर भागने लगे, रोने लगे। हर तरफ चिल्ल पों शुरू हो गया, औरतें भागने लगीं। पुरुष डंडे और बन्दूकोें के कुन्दों की मार से बेहोश होने लगे। पूरी हरिजन बस्ती से व्यवस्था के आंसू बह निकले, खपरैल और मड़हा कराहने लगे। दीवारें रोने लगीं। कॉपते हुए सहपुरवा का दृश्य ‘अहा ग्राय जीवन’ से एकदम अलग वाला उभर चुका था।
कोई सुराग नहीं मिला। औतार, सुक्खू, शोभनाथ, प्रसन्नकुमार तथा बिफना कहां हैं? कहां छिप गये हैं, गॉव में काई बताने वाला नहीं था या किसी को मालूम ही नहीं था। फिर कौन बताता उनके बारे में। गॉव में जो उनके बारे में जानने वाले थे वे मार खा रहे थे फिर भी फरार लोगों के बारे में कोई बता नहीं रहा था। वे मार खा रहे थे पर बोल नहीं रहे थे। पूरे सहपुरवा को नियंत्रित कर सकने तक की संख्या में सिपाही थे। पहली बार की तरह नहीं कि उस बार कम थे सो मार खा गये इस बार मारने के लिए आये थे और मार रहे थे। मारने के लिए दिशा निर्देश तो होते नहीं, मारने का तरीका तो आदिम ही है। मार-पीट के मामले में सरकार भी क्या कर सकती है? सरकार को तो जनता में शान्ति चाहिए वह चाहे जैसे स्थापित हो जनता में। सिपाही सरकारी काम निपटा रहे थे। सहपुरवा में कोई पूछने वाला भी तो नहीं था कि सिपाहियों से पूछता....कृ
‘का कर रहे हो भाई?’
सहपुरवा पुलिस बल प्रदर्शन का नमूना बन गया था, कैसा होता है पुलिस बल? बल के द्वारा मनुष्यों को नियंत्रित व अनुशासित रखने वाला पुलिस का अभिनव तरीका सहपुरवा देख रहा था।
‘भाई ऐसा काहे कर रहे हो’ सिपाहियों से कौन पूछता?
सहपुरवा ही नहीं कहीं भी कोई नहीं पूछता, पुलिस से ही नहीं दंगाइयों, उग्रवादियों व आतंकियों से भी नही पूछता। जनता बुरी तरह से डरती है बन्दूक चलाने वालों से। पुलिस तो पुलिस होती है कानून व्यवस्था को स्थापित करने वाली, उससे भला कौन पूछ सकता है। हमारी सभ्यता से पूछने का सिलसिला ही गायब है, कोई किसी से नहीं पूछता, किसी बात पर नहीं पूछता पर गॉव की गलियॉ पूछती हैं, सिवान पूछते हैं, खून भी तो उन्हें ही सोखना पड़ता है।
घरों में औरतें चीख रही थीं, बच्चे चीख रहे थे। माई, माई चिल्ला रहे थे, पुरुष कराह रहे थे। पुलिस बारी बारी से सबकी पिटाई कर रही थी। पकड़ कर खदेड़ कर जैसे भी पर मार रही थी। मार-पीट से कोई हल नहीं निकल रहा था। फरार लोगों के बारे में पुलिस को कहीं से सूचना हासिल नहीं हो पा रही थी। एक घर के बाद दूसरे घर की तलाशी होती। विशेष देर उन घरों में लगती जहां खूबसूरती होती थी, जवानी होती थी। उन घरों में सिपाही अधिक देर तक रुकते और अपनी पीठ ठोंकते हुए बाहर निकलते।
एक सिपाही घर में से बाहर निकलता, दूसरा घर के अन्दर जाता फिर बहुत जाते। सहपुरवा सिपाहियों के घर के अन्दर जाने और बाहर निकलने का खेल बन गया था। उन्हें घर में जाने से कौन रोकता? ऊपर का आदेश था, कितने ऊपर का था इसे सहपुरवा का जाने, पर आदेश था, तो था।
पुलिस वालों में आक्रोश था, सिपाही मारे गये थे, कोई छोटी बात नहीं थी। पुलिस मुजाहिमत हुई थी। पुलिस कुछ भी कर सकती है, जो वह कर भी रही थी। उनके पास मारपीट का शास्त्रा था, शस्त्रा था, और क्या चाहिए उन्हें? घर में मुल्जिम न मिलने पर वे अपनी समझदारी से घरों में घुसते फिर तो देह ढीला छोड़ देते, मन में बसंत उतार लेते, वे इस काम में अनुशासित रहते। वे ऐसा करतब करते कि हरिजन महिला भी अनुशासित रहती। लोगों को अनुशासित रखने की कलायें पुलिस के पास होती ही हैं। हरिजन महिलायें बेचारी करती भी क्या, कितना करती, कितना लड़ती। इनकार करने पर एक पर दो हो जाते। वह चीखने लगती। एक खड़ा रहता, दूसरा बाहर इन्तजार करता। बाहर इन्तजारी में वह ढीला पड़ने लगता।
‘अबे साले बाहर निकलो, दूसरा बोलता’
बाहर वाला आखिर कब तक अन्दर, बाहर के खेल की प्रतिक्षा करता?
पहला भीतर असफल प्रयास करता या प्रयास कर ही नहीं पाता। अब बाहर वाले को का पता कि अन्दर का हो रहा है? सिपाहियों का घरों में घुसना भले ही जनहित के खिलाफ हो, पर उनके हित में तो था ही। वे उस समय अपना हित देख रहे थे जिसमें वे सफल थे। मुल्जिम नहीं मिले तो नहीं मिले, उन्होंने पूरी कोष्शिश की। रामभरोस को जो करना था वह पुलिस कर रही थी। रामभरोस तो चाहते ही थे कि हरिजन परेशान हों, वे मारे-पीटे जांए सो रामभरोस भी सिपाहियों केे साथ साथ थे तथा उनके बांए दांए चल रहे थे।
औतार के घर की भी तलाशी ली गई। औतार और फेकुआ को पुलिस गिरफ्तार करना चाहती थी। वे घर में नहीं थे। औतार और फेकुआ के बारे मेें पुलिस ने सुमिरिनी से पूछा, सुमिरिनी का जबाब पुलिस के लिए अपमान जनक था। एक चमाइन (हरिजनों की औरतों को हरिजनाइन न बोल कर चमाइन बोला जाता था, ठाकुर की औरत ठकुराइन की तर्ज पर) अकड़ कर उनसे बतियाए....कृ
‘ईहां ऊ लोगन नाहीं हैं, वे इहां रहते तो अकेली अकेला फरिया लेते आप लोग फिर पता चल जाता कि किसके मुसुक में केतना जोर है? आपलोगों के घर बहिन बिटिया नाहीं हैं का कि हर घरे में घुसुर जा रहे हैं। सहपुरवा का झगड़ा निपटाने के लिए आप लोग नाहीं आये हैं। आप लोग तो देह जुड़वाने आए हैं तो जुड़वा लीजिए अपनी अपनी देह, पटा लीजिए देह की गर्मी। फिर हमसे काहे पूछ रहे हैं कि वे लोग कहां गए हैं। जो करने आए हैं वही कीजिए। मेहरारू देखते ही उस पर टूट पड़ रहे हैं आप लोग। इहां का सारा झगड़ा रामभरोस लगवाए हैं उनसे काहे नाही पूछ रहे हैं आप लोग, उनसे पूछिए कि वे काहे झगड़ा लगा रहे हैं गॉव में’
कौन सहता कौन बर्दास्त करता वह भी एक चमाइन की बात। वह भी तब जब सुन्दर तथा जवान चमाइन बोल रही हो, पुलिस वैसे भी किसी की नहीं सुनती न सहती है।
‘का बक रही है रे! इसका मुंह तो बहुत तेज है, इसकी इतनी मजाल कि हमलोगों से कड़क बोले।’
सहपुरवा आतंकित था। दमन का खेल पुलिस वहां खेल रही थी तथा नये नये खेलों को आजमा भी रही थी। वहां न कोई छिप सकता था न भाग सकता था। जिन घरों के दरवाजे नहीं खुले उनमें आग लगा दी गई फिर तो दरवाजे अपने आप खुलने लगे, खुले दरवाजे से पुलिस अन्दर जाती और अपना करतब दिखाती, सहपुरवा करतब देखता। सन्न और सुन्न।
रामभरोस सिपाहियों के साथ थे। उन्होंने सिपाहियों को बताया...कृ
‘यही फेकुआ की मेहरारू है, देखिए केतना कड़क बोल रही है। भला बताइए नऽ इसको कौन चमाइन बोलेगा।’
सिपाही कुछ भी कर सकते थे। इसी समर्थता के तहत वे कर भी रहे थे। उनसे जाति बिरादरी से का मतलब, देह वाले कामों के लिए सभी बराबर होते हैं, ऐसे कामों में देह नहीं छुआती, मन नहीं घिनाता। वे सुमिरिनी की ओर बढ़ गये।
सुमिरिनी सिपाहियों को सुन्दर लग रही थी, न भी सुन्दर होती तो भी क्या था, जवान तो थी ही। वैसे वह सुगठित देह वाली युवा थी चित्ताकर्षक, मन मोहने वाली थी। रामभरोस के सामने ही एक सिपाही सुमिरिनी की तरफ बढ़ा, वह बढ़ता ही जा रहा था और रामभरोस देख रहे थे कि वह बढ़ रहा है सुमिरिनी की तरफ। कभी कभार जब रामदयाल कारिन्दा रामभरोस के पहले कुछ कर जाता था, तब वह रामभरोस से मार खाता था। वे सिपाहियों का का कर लेते....वे सिपाहियों को सुमिरिनी की तरफ बढ़ने से रोक नहीं सकते थे। वे सिपाही थे रामदयाल कारिन्दा नहीं जो उसे मारते। सिपाहियों को भला वे कैसे रोक पाते, सिपाही तो सिपाही होते हैं, दमन की कारीगिरी में सने-पुते।
सहपुरवा जल रहा हो, कोई रोकने वाला न हो, सामने औरत हो। आग में तपता तवा। पानी छन्न, सिपाही छन्न हो चुके थे, मामला छनक गया था।
एक सिपाही ने सुमिरिनी को छेड़ा...कृ
‘का राजा, तेरी जुबान तो बहुत कड़क है’
सुमिरिनी का गाल पकड़ कर दूसरे सिपाही ने हिलाया।
बचना कठिन है, मुश्किल है। सुमिरिनी को दूसरा सिपाही घूर रहा था। सामने रामभरोस खड़े थे। उस समय वह भाग भी नही सकती थी, भागती भी तो किधर जाती, हर तरफ सिपाही ही सिपाही थे। गली में, नोक्कड़ों पर, बरम बाबा की चौरी की तरफ भी, वहां भी जहां गॉव के डीहवार थे। सहपुरवा के सिवान तथा गलियां को ही नहीं, देवताओं के निवासों को भी सिपाहयों ने घेर लिया था। एक बार तो वह भाग गई थी उस समय पुलिस नहीं रामभरोस उसे छेड़ रहे थे। इस बार तो पुलिस है, भागती भी तो कितना भागती कहां जाती? पूरा गॉव घिरा हुआ है, सब घिरे हैं, पूरा देश घिरा है, समय की बात है, कोई पहले कोई बाद में।कृसुमिरिनी ने साहस बटोरा और..कृ
‘का हो सिपाही बाबू! सब कुछ तो लूट लिए आप लोग, बस्ती में आग भी लगा दिए। मार-पीट भी कर रहे हैं। इतने से पेट नहीं भरा तो हगनी मुतनी पर उतर आए हैं। जो करना चाह रहे हैं वह सब कर ही रहे हैं फिर हमसे का पूछ रहे हैं कि औतार कहां हैं और फेकुआ कहां है। हमैं का पता कि ऊ लोग कहां हैं। आपलोग पापी हैं, पापी, जो बहिन बिटिया भी नाहीं छोड़ रहे हैं, का इहै सब करने के लिए आपलोगों को सिखाया जाता है।’
अचानक सुमिरिनी रामभरोस की ओर मुड़ जाती है और....कृ
रामभरोस सुमिरिनी को देख कर जैसे अवाककृजाने क्या करने के लिए उनकी तरफ बढ़ रही हैकृसंभव है गरियाए या और कुछ... पर गरियाने के लिए रामभरोस की तरफ सुमिरिनी नहीं बढ़ रही थी....कृ
‘का हो रामभरोस पंडित! तोहके भी तो हगनी मुतनियय चूमना चाटना था, अउर लोटना था देहीं पर। जेके जेके देहीं पर लोटना अउर हाड़मास चूसना होय सभै को बुलवाय लीजिए, कोई बाकी न रहि जाए। नाहीं तो पता नहीं कै बार सहपुरवा में पुलिस आएगी और सहपुरवा जलता रहेगा।’
‘पंडित जी एक बात बताइए हमरे देहीं पर पहिले के लोटेगा सिपाही बाबू के आप? मौका अच्छा है आप भी लोट लीजिए हमरे देहीं पर, चूस लीजिए हगनी मुतनी, काहे गुमसुम हैं, कुछ करिए न पंडित जी! हमरे देहीं पर जितना लोटना हो लोट लीजिए पर फिर कभी सहपुरवा न जलाइएगा। सहपुरवा जलाने से आपको का मिलेगा। आपको भी तो हाड़ैमास ही चूसना था, हम राजी हैं जितना चूसना हो चूस लीजिए। दिन में चूसिए चाहे रात में चूसिए, हम मना नाहीं करेगे। गुसियाके हम नाहीं बोल रहे हैं, साची बोल रहे हैं पंडित जी!’
सुमिरिनी की ऑखें लोर टपका रहीं थीं फिर भी वह बोल रही थी, उसे बोलना ही था। उसने ऑखें पोंछी और अचानक रामभरोस की गोदी में भहरा गई।
रामभरोस तो जैसे सुन्न और सन्न। हो क्या रहा है, क्या करना चाह रही सुमिरिनी। उन्हें बिजली के करेन्ट जैसा झटका लगा जान पड़ा कि उनकी देह हरिजन बस्ती की तरह जल उठेगी फिर तो वे कॉपने लगे हालांकि वे कॉपने वाले आदमी नहीं थे। अचानक उनकी ऑखें नीचे झुक गईं। उन्हें कुछ नहीं सूझा कि सुमिरिनी से का बोलें? सुमिरिनी को गोदी से हटा देने के बाद वे बखरी की तरफ चल दिए। बखरी की तरफ जाते समय उनके पैर कांपने लगे थे और कलेजा धड़कने लगा था। तब तक सहपुरवा पूरा जल चुका था, पूरे गॉव के हरिजनों पर मुकदमा लाद दिया गया....
गॉव के हरिजनों पर चल रहे मुकदमे का हुआ सारा कुछ समय की चालों में समा गया। रामभरोस मुक्त हो चुका है सहपुरवा, धीरे धीरे बीत गये तिरालीस साल। सहपुरवा छोड़ चुके हैं औतार, फेकुआ तथा मुकदमे के अन्य आरोपी भी, रामभरोस की बखरी बहरा गई है पर सहपुरवा आज भी है आइए चलते हैं सहपुरवा में.....कृकृ
‘रामभरोस से मुक्त सहपुरवा के बीत गए
तिरालीस साल। बीसवीं शदी ने छलांग लगा लिया इक्कीसवीं
शदी में। पर क्या सहपुरवा मुक्त हो पाया गरीबी और यातना से?
रामभरोस मुक्त तो हो गया सहपुरवा पर गरीबी और यातना से मुक्त नहीं हो पाया। प्रसन्नकुमार ने आपातकाल वाला सहपुरवा भी देखा था और आज का सहपुरवा भी देख रहा है। सहपुरवा आपातकाल में रामभरोस का आतंक झेल रहा था तो आज सहपुरवा बाजार, बैंक, कर्ज तथा अधिकारियों की उपेक्षाओं का दंश झेल रहा है। पहले रामभरोस की बखरी ही थी सहपुरवा में जिसके इशारे पर सहपुरवा नाचा करता था औरआज तो वहां कई किस्म की नोटों वाली बखरियॉ उसे नचा रही हैं।
रामभरोस से ही नहीं उन लोगों से भी मुक्त हो चुका है सहपुरवा जो रामभरोस के आतंक से परेशान थे। वे सभी सहपुरवा छोड़ कर भाग चुके हैं अब वे गॉव में नहीं हैं।
वैसे भी आपातकाल की कहानी में प्रसन्नकुमार कभी नहीं जाना चाहता। उस कहानी के बारे में सोचते ही वह सिहर उठता है। आग में जलता हुआ सहपुरवा दिखने लगता है उसे।
उसके घर की मरम्मत का काम चल रहा था। टूट फूट हो गई थी घर में। बाप दादों के घर को तो वह गिरने नहीं दे सकता। परिवार की स्मृतियों को सहेज कर रखना है। वैसे वह गॉव में नहीं रहता। वह रापटगंज में रहता है वहीं उसने अपना निवास बना लिया है।
घर जाते समय उसे रामभरोस की खंडहराती बखरी दिखी। वही बखरी जिसकी चमक से कभी ऑखें चुधिया जाया करती थीं। बखरी शान्त खड़ी थी विजयगढ़ किला की तरह। किले के बाबत किसिम किसिम की कहानियॉ अब अर्थहीन हो चुकी हैं केवल यही शेष है कि बनारस के राजा चेत सिंह इसी किले से भागे थे जब अंग्रेजी सेना ने उनका पीछा किया था। चर्चा में यह भी है कि अंग्रेजी सेना का मुकाबिला करते हुए दो आदिवासी जूरा महतो और बुद्वू भगत वहीं शहीद हो गए थे। बिजयगढ़ किले की तो किसी न किसी रूप में आज भी चर्चा है पर रामभरोस की बखरी तो चर्चाओं से बाहर हो चुकी है। समय की प्रखरताओं ने बखरी के अस्त्तिव को मिटा दिया है, केवल बखरी बची हुई है खण्डहर बनने के लिए, जो बन भी रही है।
रामभरोस की बखरी के उतरे हुए ताप ने प्रसन्नकुमार को विचलित कर दिया अब तो यहां कुछ भी नहीं, बखरी ही नहीं उसकी दिवारें भी रो रही हैं, रामभरोस नाम का कोई आदमी यहां कभी रहा करता था, पता नहीं चल रहा। रामभरोस मुक्त हो चुका है सहपुरवा अंग्रेज मुक्त भारत की तरह।
जनप्रतिरोध ने पंचायत भवन के अस्तित्व को ही नहीं रामभरोस की बखरी के अस्तित्व को भी मिटा दिया। बखरी की मिट चुकी कहानी ने प्रसन्नकुमार को भावुक बना दिया। उसे लगा कि बखरी रो रही है। ऐसा ही हुआ करता है, बखरियॉ को तो खुद ही अपने अतर्विरोधों से किसी न किसी दिन रोना ही पड़ता है।
आपातकाल के ठीक बाद कांग्रेसी सरकार का पतन हो गया। कई दलों के गठबंधन वाली जनता पार्टी की सरकार बनी जो अपने दलगत अन्तर्विरोधों से अल्पकाल में ही भहरा गई। सरकारें तो बनती बिगड़ती रहती हैं उससे जुड़े जनता के सपने भी लगातार बनते बिगड़ते रहे हैं। जनता के सपनों को खंडित होता महसूस कर प्रसन्नकुमार काफी दुखी रहा करता था। जनता के सपने भी किसिम किसिम के थे, उनमें गरीबी हटाओ वाला जो रंगीन सपना था वह लगातार नारे की शक्ल में बदलता जा रहा था और जनता थी कि वहीं खड़ी थी 1947 के समय में। यानि आजादी वाले समय में। जनता नहीं जान सकी थी कि नया सबेरा क्या होता है क्या होता है नया युग, कैसे आते हैं अच्छे दिन, कैसी होती है अपने लोगों की सरकार, कैसा होता है लोकतंत्रा? वर्तमान लगातार अतीत बनता जा रहा था और सरकारें थीं कि वे हुकूमती रंग में रंग कर लगातार भूलती जा रही थीं अपने नारों को, वे जनता के प्रति विनम्रता भी भूल चुकी थीं। सहपुरवा में गरीबी जैसे पहले थी वैसे ही आज भी है।
देश का राजनीतिक रंग अचानक 2014 में बदल गया और केन्द्र में भाजपा की सरकार बन गई। भा.ज.पा. के पास तो पहले की सरकारों से भी अधिक प्रभावशाली नारे थे। नारों ने जनता को जागरूक कर दिया था कि देश जनता के प्रति तभी जिम्मेवार बन सकता है जब भारत ‘कांग्रेस मुक्त’ हो रामभरोस मुक्त सहपुरवा की तरह। अंग्रेज मुक्त भारत वाले नारे की तरह ‘कांग्रेस मुक्त’ भारत का नारा भी चल निकला। जनता ने मान लिया कि कांग्रेस को सरकार से बेदखल कर देना चाहिए और कांग्रेस बेदखल हो भी गई। भर भरा कर ढह गया कांग्रेस का अभेद्य दुर्ग।
किसी समय सहपुरवा को रामभरोस मुक्त बनाने के लिए प्रसन्नकुमार ने भी प्रयास किया था। पर वह सफल नहीं हो पाया था। उसे अपने प्रयासों से निराशा मिली थी। आपातकाल में ही सहपुरवा में बलबा व पुलिस मुजाहिमत का मुकदमा कायम हो गया था। वहां के सभी हरिजनों को उस मुकदमे में आरोपी बना दिया गया था। प्रसन्नकुमार ने राममभरोस के आतंक से सहपुरवा को मुक्त कराने का जो असहयोग आन्दोलन चलाया था वही हरिजनों के लिए विस्थापन का कारण बन गया। औतार, फेकुआ, बिफना, सुक्खू जैसे आन्दोलन वाले उसके सहयोगी गॉव छोड़ कर नहीं भागते पर वे गॉव में रहने, बसने की ताकत कहां से पाते? वे कमजोर तथा आतंकित थे सो सहपुरवा छोड़कर भाग जाना ही उन्हें समयानुकूल व उचित जान पड़ा और वे भाग गए।
हालांकि जनता दल वाली नई सरकार ने हरिजनों पर बलबा को जो मुकदमा चल रहा था उसे वापस ले लिया था फिर भी वे गॉव में रुकना उन्हें भला नहीं जान पड़ा। प्रसन्नकुमार अपने सहयोंगियों को बराबर आश्वस्त करता रहता था कि किसी न किसी दिन रामभरोस मुक्त हो जाएगा सहपुरवा फिर भी उसके सहयोगी उसकी बातें नहीं माने और गॉव से उजड़ गए।
रामभरोस जैसे सामंत किसी न किसी दिन मिट जाएंगे प्रसन्नकुमार जानता था पर वह यह नहीं जानता था कि दिन दहाड़े ही वामउग्रवादी उनकी हत्या कर देंगे वह भी उन्हीं की बखरी में घुस कर। वही बखरी जिसका अदब पूरे क्षेत्रा में पसरा रहता था दिन रात। हत्या के दिन ही विभूति से प्रसन्नकुमार मिला था तथा विभूति के साथ उनके मृत्यु संस्कार में भी वह शामिल हुआ था। उसने विभूति को समझाया भी था कि गॉव मत छोड़ो। आपातकाल के दौरान एक साथ मिलकर हम लोग जैसे काम किया करते थे वैसे ही मिलकर वामउग्रवादियों से भी मोर्चा लेंगे पर विभूति कहां मानने वाला था उसकी बातें। वामउग्रवादियों की डर से विभूति बनारस भाग गया और वहीं अपना घर मकान बना लिया। गॉव की सारी जमीन भी बेच दिया। विभूति की जमीन कौन खरीद पाता गॉव में, केवल एक ही आदमी थे चौथी गवहां। चौथी गवहां तो रामभरोस की हत्या के बाद से ही रामभरोस की जमीन की तरफ ऑखें लगाए हुए थे। उन्हांेने ही विभूति के दिल दिमाग को बदल दिया थाकृ ‘गॉव में रहोगे तो तुम्हे भी वामउग्रवादी नहीं छोड़ेंगे।’ डर तो डर, अगर डर ने दिल में घर बना लिया फिर तो सारे निर्णय डर के अगल बगल ही होंगे। रामभरोस की हत्या के बाद बिभूति दिमागी सन्तुलन खो चुका था इसीलिए उसने प्रसन्नकुमार के सुझावों पर ध्यान नहीं दिया और गॉव छोड़ दिया।
प्रसन्नकुमार नहीं चाहता था कि वह गॉव में अकेला हो जाए। वह चाहता था कि सहपुरवा में सभी रहें, रामभरोस रहें गॉव के हरिजन रहें, केवल रामभरोस का आतंक मिट जाए। वह रामभरोस का आतंक मिटाना चाहता था सहपुरवा से पर वह यह नहीं चाहता था कि रामभरोस मुक्त हो जाए सहपुरवा। समय को क्या कहा जाए सहपुरवा रामभरोस से ही नहीं औतार, फेकुआ, सुक्खू, बिफना, सुमिरिनी आदि से भी मुक्त हो गया एक दिन।
प्रसन्नकुमार अकेला हो गया गॉव में। तीन साल के भीतर ही उसके मॉ, बाप भी स्वर्गवासी हो गए। पूरे क्षेत्रा में वामउग्रवादियों का बोल-बाला हो गया। प्रसन्नकुमार की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे, गॉव में रहे या विभूति की तरह जगह-जमीन बेच कर वह भी कहीं दूर चला जाए। उसे पहले से ही विभूति अपने पास बुला रहा था पर प्रसन्नकुमार तो दूसरे दिल दिमाग वाला था। गॉव से पलायन करना यानि वामउग्रवादियों से डर कर भाग जाना उसे कायरता जान पड़ी। वह गॉव में ही रहेगा और गॉव के लिए कुछ न कुछ करेगा।
रामभरोस मुक्त सहपुरवा में बाजार आ चुका था। तमाम बाहरी लोग बस चुके थे गॉव में पुराने मिटने लगे थे और नये नये उभरने लगे थे। बाजार की गंध में सनी पगी दूसरी बखरियां गॉव में जनम ले चुकी थीं। उनमें सबसे बड़ी और प्रतापी बखरी बन चुकी थी चौथी गवहां की। रामभरोस की सारी जमीन चौथी ने पहले ही खरीद लिया था पर बखरी नहीं खरीदा था, उसे वे असगुनहा मानते थे। रामभरोस की बखरी की तरह ही चौथी गवहां की बखरी की हुकूमत गॉव में चलने लगी थी। चौथी गवहां का क्या कहने, वे देखते देखते रुपये के बल पर ब्लाक प्रमुख बन गए थे। गॉव की राजनीति बाजारू बनने लगी थी। जाति, धर्म वाली राजनीति भी घुस चुकी थी सहपुरवा में।
प्रसन्नकुमार बाजारू राजनीति नहीं कर सकता था सो उसने खुद को मौजूदा राजनीति के लिए अयोग्य मान लिया और राजनीति छोड़ दिया। पर करता क्या? कुछ न कुछ तो उसे समाज के लिए करना ही था। भला वह कैसे भूल सकता था सामाजिक दायित्व को भले ही उसने राजनीति छोड़ दिया था। बहुत सोच विचार कर अपने पिता जी के नाम पर शोभनाथ विद्या निकेतन नाम का एक विद्यालय गॉव में ही उसने स्थापित किया और उसके प्रचार प्रसार में लग गया। विद्यालय निःषुल्क था और खासतौर से आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए था। निःषुल्क विद्यालय चलाना आसान काम नहीं होता पर उसे जन सहयोग मिलने लगा था।
विद्यालय चल निकला और आज वह विद्यालय महाविद्यालय बन चुका है। पूरे जिले में शोभनाथ महाविद्यालय का बड़ा तथा चर्चित नाम है। उसमें पोस्ट ग्रेडुएसन की कक्षाएं भी चलने लगी हैं। प्रसन्नकुमार विद्यालय में कानून की पढ़ाई कराने के लिए भी अनुमति लेने का प्रयास कर रहा है। उसे उम्मीद है कि अनुमति मिल जाएगी पर अभी एक जॉच और की जानी है जिसके लिए जॉच पैनल शीघ्र ही विद्यालय पर आने वाला है।
उस पैनल में प्रसन्न नाम का शिक्षा विभाग में एक प्रमुख अधिकारी है जो जे.डी. के पद पर है। उसके जिम्मे ही जॉच का मुख्य कार्य है। प्रसन्न तो सहपुरवा का नाम सुनते ही गुनने लगा था कि कहीं यह सहपुरवा उसकी अइया वाला गॉव तो नहीं है? पर खुद को भरोसा नहीं दिला पा रहा था। संभव है कि अइया वाला सहपुरवा कोई दूसरा गॉव हो। जब उसे प्रसन्नकुमार के द्वारा सहपुरवा के बारे में विस्तृत रूप से मालूम हुआ तो वह खुष्श खुश हो गयाकृचलो जॉच के दौरान वह अइया का गॉव भी देख लेगा जहां कभी उसके पुरखे रहा करते थे। उसके मन में सहपुरवा के बाबत कौतूहल था, उसने अपनी अइया सुमिरिनी से पूछा....कृकृ.
‘अइया! एक जॉच के सिलसिले में ‘सहपुरवा’ गॉव मुझे जाना है, वहां से हम दो दिन बाद ही वापस आ सकेंगे।’
‘सहपुरवा जाना है, कौन सहपुरवा? उसने पूछा प्रसन्न से
सहपुरवा का नाम सुनते ही चकरा गई सुमिरिनी।
‘अरे अइया वही सहपुरवा जो कभी हमलोगों का गॉव था।’
‘काहे जाएगा तूं? वहां नहीं जाना है तुझे। तूं अपनी जगह पर किसी और को भिजवा दे वहां।’
‘नहीं अइया ऐसा नहीं हो सकेगा, मुझे ही वहां जाना पड़ेगा। सहपुरवा में शोभनाथ विद्यानिकेतन नाम का एक शैक्षणिक संस्थान है। कानून की पढ़ाई के लिए उस विद्यानिकेतन के पास क्या क्या साधन, संसाधन हैं इसी की जॉच पड़ताल करनी है। हमने उस संस्थान के प्रबंधक प्रसन्नकुमार जी से बोल दिया है कि अगले सप्ताह हमारी टीम आपके संस्थान पर जाएगी। हमने उनसे वादा भी कर दिया है अइया! हम वहां नहीं जाएंगे तो उनकी समझ में आएगा कि लेन-देन के चक्कर में जे.डी. नहीं आ रहे हैं।’
सहपुरवा का नाम सुनते ही सुमिरिनी अतीत में उतर गई। लगा कि उसकी ऑखें जल उठेंगी, जलती हुई हरिजन बस्ती उसकी ऑखों में तैरने लगी, बच्चों की चीखें, मार-पीट, एक एक घर का आग में धधकना, पुलिस के बूटों से रौदाता गॉव। हर तरफ आग ही आग, चीखती चिल्लाती औरतें, किसी की साड़ी फाड़ी जाती तो किसी का ब्लाउज, कोई नंगी तो कोई अधनंगी और सिपाही हसते मुस्करातेकृ’पास में खड़े रामभरोस भी’कृ
अचानक सुमिरनी को लगा कि उसकी देह नंगी हो चुकी है और वह सिपाहियों के सामने बेवश है, सामने हैं रामभरोस...कृ
‘का हो पंडित जी, के पहले तूं कि ई’
उसने पूछा था रामभरोस से। वह चीख पड़ी थीकृ
‘सहपुरवा नहीं जाना है तो नहीं जाना है, तूं कसम खा कि तुझे वहां कभी नहीं जाना है।’
प्रसन्न तो जैसे डर गया, हो क्या हो गया अइया को। प्रसन्न किचन में से एक गिलास पानी ले आया...कृ
‘अइया पानी पी ले, लगता है ब्लड प्रेशर बढ़ गया है तेरा।’
प्रसन्न ब्लडप्रेशर वाली मशीन ले आया और सुमिरिनी का ब्लडप्रेशर नापा जो थोड़ा बढ़ गया था। उसने उसे ब्लडप्रेशर की दवाई खिलाया। और मन ही मन सहपुरवा जाने का प्रोग्राम उसने कैन्सिल कर दिया अगले महीने तक के लिए। अइया के ठीक होने के बाद ही वह सहपुरवा जाएगा।
प्रसन्न ने फोन से प्रसन्नकुमार को बता भी दिया कि वह दूसरे महीने के पहले सप्ताह तक ही उनके विद्यानिकेतन पर आ सकेगा।
प्रसन्नकुमार तो पूरी तैयारी कर चुका था जॉच समिति के आव-भगत की। उसे चिन्ता हुई ऐसा क्या हो गया कि जे.डी. साहब ने आने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया। वह दूसरे दिन ही मुख्यालय जा पहुंचा और फिर प्रसन्न के आवास पर। साथ में फल फूल भी लेता गया।कृ
अधिकारी के आवास पर खाली हाथ जाना ठीक नहीं होता पर डर भी रहा था कि प्रसन्न जी ईमानदार अधिकारी हैं कहीं बुरा तो नहीं मान जाएंगे, फल फूल में क्या रखा है, यह तो शिष्टाचार का हिस्सा है।
प्रसन्नकुमार सुबह आठ बजे ही अधिकारी के आवास पर पहुंच गया। आवास के बाहर लगी थी, काल बेल उसने दबाया। घंटी गुनगुनाने लगी। तभी आवास से बाहर सुमिरिनी निकली....
क्या है? सुमिरिनी ने प्रसन्नकुमार से पूछा....
‘क्या है?’ घंटी बजाने वाले से पूछ तो लिया सुमिरिनी ने पर जब घंटी बजाने वाले का उसने चेहरा देखा, तो देखती ही रह गई प्रसन्नकुमार को....कृकृ
‘अरे ये तो बबुआ जी हैं’
उसे प्रसन्नकुमार का चेहरा भूला नहीं था। भला कैसे भूल जाती वह प्रसन्नकुमार का चेहरा जबकि प्रसन्नकुमार के चेहरे को बुढ़ौती ने कसना शुरू कर दिया था फिर भी उसके चेहरे पर वही शान्ति, लोगों की भलाई करने की वही आतुरता, ये सब बातें उसके चेहरे सेअलग नहीं हुई थी। वे जस के तस उसके चेहरे पर चमक रही थीं।
‘अरे बबुआ जी आप और यहां’
‘अरे सुमिरिनी तुम! तुम तो बुढ़ा गई होकृपर बानी वही पुरानी वाली, एकदम से कड़क, यहां रहती हो तुम, साहब के यहां काम करती हो का?’
सुमिरिनी को देखते ही प्रसन्नकुमार को जान पड़ा कि प्रसन्न जी के यहां घरेलू काम-धाम करती होगी।
‘आइए बबुआ अन्दर आइए फेर हम बताते हैं।’
प्रसन्नकुमार सुमिरिनी के साथ आवास के भीतर आ गया। आवास का बैठका साहबों के बैठकों जैसा सजा हुआ था।
‘बैठिए बबुआ जी’
सोफे के एक किनारे पर बैठ गया प्रसन्नकुमार। सोफे पर बैठते ही प्रसन्नकुमार ने दुबारा पूछा सुमिरिनी से...कृ
‘तुम यहां कैसे सुमिरिनी?’
सुमिरिनी समझदार थी। समझ गई कि बबुआ को अचरज हो रहा है उसे इस बंगले में देख कर। सुमिरिनी मुस्कियायी...कृ
अरे बबुबा! ई बंगला हमरे लड़िकवा का है, प्रसन्न की हम अइया हैं।’ सुमिरिनी ने बताया प्रसन्नकुमार को। फिर तो अचरजा जाने की बारी थी प्रसन्नकुमार की और वह अचरजा भी गया...कृ
‘का प्रसन्न जी तोहार लड़के हैं?’
‘हॉ बबुआ हॉ, गौर से देखिए नऽ उसका चेहरवो तऽ औन्हई माफिक है’
वस्तुतः प्रसन्न का चेहरा भी फेकुआ की तरह ही था एकदम से खिला हुआ।
प्रसन्नकुमार तो सोफे पर बैठ चुका था पर सुमिरिनी असमंजस में थी कि बबुआ के सामने बैठे या न बैठे। एक बार तो उसके मन में आया कि बबुआ के सामने न बैठे। वह प्रसन्नकुमार के सामने खड़ी रह गई। वह गॉव में कभी बैठी नहीं थी बबुआ के सामने। प्रसन्नकुमार ने ही उससे बैठने के लिए कहा...कृ
‘अरे भाभी जी बैठिए तो काहे खड़ी हैं आप! ’
‘नाहीं बबुआ हम ऐसे ही ठीक हैं’ सुमिरिनी ने कहा
फिर तो प्रसन्न खड़ा हो गया और सुमिरिनी की बांह पकड़ कर उसे सोफे पर बिठा दिया।
‘मुझे मालूम है कि प्रसन्न को आपके विद्यानिकेतन पर किसी जॉच के सिलसिले में जाना था। मैंने ही उसे रोक दिया था नहीं तो वह आपके यहां चला गया होता। मैं डर रही थी उसे सहपुरवा जाने देने से। सहपुरवा तो वही होगा रामभरोस वाला, वही मार काट, बात बात पर गला कटाई।
‘नहीं, नहीं रामभरोस मुक्त हो चुका है सहपुरवा। पर एक बात का दुख है कि पुराने सहयोगी गॉव से पलायन कर चुके हैं, कोई नहीं है गॉव में अब। बिफना और सुक्खू काका भी जाने कहां चले गए, कोई खोज खबर नहीं है उनकी।’
सहपुरवा की पूरी कहानी प्रसन्नकुमार ने सुमिरिनी को संक्षेप में बताया।
सुमिरिनी का समय भी तो जादुई कहानी बन चुका था। सहपुरवा से पलायन के दूसरे साल ही साधारण सी बीमारी ने उसके ससुर औतार के जीवन का अन्त कर दिया। उसका पति फेकुआ भी दिल के दौरे से चल बसा। पति की यादें सुमिरिनी के मन में आज भी बसी हुई हैं।
‘अरे भाभी आप तो जानती थीं कि मैं सहपुरवा में ही हूं, आप लोग तो मुझे अकेला छोड़ कर सहपुरवा से निकल गईं पर मैं सहपुरवा छोड़ कर कहां जाता? फिर भी आपने खोज-खबर नहीं लिया। मुझे तो पता ही नहीं था कि गॉव छोड़कर आप लोग कहां चले गए? पता होता तो निष्चित ही हाल अहवाल लेता रहता’ प्रसन्नकुमार ने सुमिरिनी को उलाहा।
‘ऐसी बात नहीं है बबुआ। मेरे पूरे परिवार का मन आपलोगों में हमेशा लगा रहता था। घर में रोज ही आपके और बाबूजी के बारे में बातें हुआ करती थीं पर जानते हैं बबुआ हमलोगों का मन टूट चुका था वहां से। मन टूटने का कारण हमलोगों की गरीबी थी, कमाई का कोई साधन नहीं था उस पर रामभरोस का अत्याचार। रोज कमाओ खाओ इसी में दिन गुजर जाता था। अगर आपसे लगाव न होता बबुआ तो हमलोग अपने बेटे का नाम आपके नाम पर ‘प्रसन्न’ काहे रखते, खाली कुमार नाहीं जोड़े हैं उसके नाम के साथ। कुमार हम जोड़ते भी नाहीं हरिजनों के नाम के साथ कुमार ठीक नाहीं लगता। कुमार तो बड़का लोगन के लिए है। प्रसन्न के बपई चाहते थे कि हमारे घर में भी बबुआ जी जैसा ही एक लड़का पैदा हो जो किसी के बारे में बुरा न सोचे। सभी के भले के लिए तन तन से तैयार रहे।आपसे का बतांए बबुआ उस समय हमलोग केवल एक जुआर खाकर दिन बिता दिया करते थे। कुछ राहत तब मिली जब प्रसन्न के बपई को कारखाने में काम मिल गया बाद में तो वे डम्फर आपरेटर बन गए थे। अच्छा वेतन मिलने लगा था। उस समय प्रसन्न सातवीं में पढ़ रहा था।
वे दोनों बातें कर ही रहे थे कि प्रसन्न चला आया। तभी एक दाई घर में से नाश्ता ले कर आ गई...प्रसन्नकुमार को देखते ही उसने पूछाकृ
‘आप कब आए प्रसन्नकुमार जी, फोन भी नहीं किया आपने आने का’
‘कार्यक्रम जब आपने कैन्सिल कर दिया फिर तो मुझे आपसे मिलना ही था आपसे मिले बिना पता कैसे चलता कि प्रोग्राम काहे कैन्सिल हुआ।’
दाई के हाथ से नाश्ते का प्लेट सुमिरिनी ने अपने हाथ में ले लिया और प्रसन्नकुमार से पूछा....कृ
‘का बबुआ हमारे घरे का नाश्ता करेंगे नऽ आप, वैसे हमारी दाई हरिजन नाहीं है पिछड़ी जाति से है’
प्रसन्नकुमार तो चकरा गया। का पूछ रही हैं भाभी जी। अभी भी इनके मन में है कि मैं पंडित हूं और मुझे हरिजनों के यहां का पानी भी नहीं पीना चाहिए। प्रसन्नकुमार तो जाति बिरादरी धर्म आदि से बाहर निकल कर केवल एक आदमी बन चुका था पर सुमिरिनी को क्या पता कि वह क्या है आदमी या पंडित। प्रसन्नकुमार खड़ा हो गया और सुमिरिनी के हाथ से नाश्ते का प्लेट छीन लियाकृनाश्ता करते हुए ही उसने सुमिरिनी को उलाहा....कृ
‘अरे भाभी आप क्या पूछ रही हैं यह भी पूछने की बात है कि मैं आपके घर का नाश्ता करूंगा या नहीं।’
दूसरे सप्ताह ही प्रसन्न ने सहपुरवा जाने का कार्यक्रम बना लिया। प्रसन्नकुमार के आग्रह पर सुमिरिनी को भी सहपुरवा जाना पड़ा। सुमिरिनी सहपुरवा भले ही चली गई पर गॉव देखने का साहस नहीं जुटा पाई।
‘नाहीं बबुबा! हमैं गॉव में न ले जाइए, हम गॉव में नहीं जा पाएंगे, किसी तरह हम भुला पाए हैं पहले की कहानी। उस कहानी के बारे में गुनते ही रामभरोस दिखने लगते हैं, जलता हुआ सहपुरवा दिखने लगता है और चीखें व कराहें भी सुनाई पड़ने लगती हैं। हम गॉव में नाहीं जा पाएंगे बबुआ! हमैं माफ कीजिएगा। हॉ आपके घर जरूर चलना चाहते हैं अपने भतीजों तथा देवरानी से मिलने के लिए।’
रामभरोस मुक्त हो गया था सहपुरवा फिर भी सुमिरिनी नहीं गई गॉव में। सुमिरिनी काहे नहीं गई गॉव में प्रसन्नकुमार समझ सकता था।
सहपुरवा से लौटते समय सुमिरिनी प्रसन्नकुमार के घर पर गई। प्रसन्नकुमार का घर सादगी वाला था हालांकि पक्का था पर स्नातकोत्तर महाविद्यालय चलाने वाले प्रबंधकों के बंगलों जैसा ताम झाम वहां नहीं था। प्रसन्नकुमार की पत्नी भी साधारण घरेलू महिला थी सादगी से पूर्ण पर उसके चेहरे पर आत्मविश्वास की असाधारण चमक थी। वह भी विद्यानिकेतन में प्रसन्नकुमार के साथ पढ़ाया करती थी। उसने सुमिरिनी और प्रसन्न की खुले दिल से आवभगत किया। प्रसन्नकुमार के घर में बच्चों को न देख कर सुमिरिनी ने पूछा....कृ
‘बच्चे नहीं दिख रहे, कहीं नौकरी कर रहे हैं का?’
नहीं, बच्चे ही नहीं हैं’ प्रसन्नकुमार की पत्नी ने बताया सुमिरिनी को
सुमिरिनी तो चकरा गई, ‘का बोल रही हैं बहिन जी, बच्चे काहे नाहीं हैं, का पैदा ही नहीं हुए?’
‘नाहीं बहिन जी ऐसा नाहीं है, हमलोग बच्चे जनमाए ही नाहीं। ई तो बियाह ही नाहीं कर रहे थे, बच्चा न जनमाने की शर्त पर तो बियाह किए हैं। हम भी बात मान गए इनकी। वैसे भी विद्यानिकेतन के बच्चे तो हमलोगों के ही बच्चे हैं। का होगा बच्चा जनमा कर।’
सुमिरिनी उस समय प्रसन्नकुमार की पत्नी का चेहरा देखने में थी और प्रसन्न था कि अपने बारे में गुन रहा था.... श्षादी का मतलब बच्चा पैदा करना तो नहीं!’
प्रसन्न एक झटके में इक्कीसवीं शताब्दी के पार चला गया बाइसवीं शदी में।
भले प्रसन्न बाइसवीं शदी में चला गया था पर सुमिरिनी प्रसन्नकुमार की पत्नी की ऑखों में शिशुओं की तैरती हुई तस्वीरें देख रही थी। प्रसन्न ने भी सुमिरिनी से कहा था...कृ
‘अइया का होगा शादी करके?’
सुमिरिनी प्र्रसन्नकुमार की तरफ मुड़ कर कहने लगी...कृ
अरे बबुआ! ई का किए आप, कम से कम एक बच्चा तो पैदा होने देते’
‘नाहीं भाभी ऐसे ही ठीक है, मुझे अपनी शक्ल नहीं गढ़नी है’
सुमिरिनी को उस दिन प्रसन्नकुमार ने वापस नहीं लौटने दिया। सुमिरिनी को क्या पता था कि प्रसन्नकुमार उसे क्यों रोक रहा है, पता तो उसे तब चला जब उसका अभिनन्दन विद्यानिकेतन पर किया गया।
अभिनन्दन के बाद सुमिरिनी भावविभोर हो गई।
‘जमाना बदल गया पर प्रसन्नकुमार बबुआ नाहीं बदले। पहले भी आदमी थे और आज भी आदमी ही हैं जिसकी पूॅजी होती है मनुष्यता’
‘अच्छा बबुआ चलते है हमलोग, आते रहिएगा घर पर और एक विनती है प्रसन्न का धियान रखिएगा।’
ठीक है भाभी जी भला हम कैसे भूल सकते है अपने भतीजे को उन्हीं के कारण मेरे विद्यानिकेतन को कानून की पढ़ाई की मान्यता मिलने वाली है। हॉ एक निवेदन है आप लोगों से....कृ
हम चाहते हैं कि औतार काका के नाम से विद्यानिकेतन में एक हाल का निर्माण हो जाए पर हमारे पास संसाधन नहीं हैं। अगर प्रसन्न जी थोड़ी मदत करें तों हम औतार काका के नाम से उक्त हाल का निर्माण कराना शुरू कर दें।
सुमिरिनी कुछ बोलने वाली ही थी कि प्रसन्न बोल उठा....
‘अरे! काका यह तो मैं खुद आपसे प्रस्तावित करने वाला था पर संकोच कर रहा था कि जाने कैसा लगे आपको। मैं तैयार हूॅ। कल से ही बनवाना शुरू कर दीजिए। अब तो यह विद्यानिकेतन आपका ही नहीं मेरा भी है। हम दोनों मिल कर इसे विश्वविद्यालय तक ले जायेंगे।’
प्रसन्नकुमार तो गदगद हो गया, उसने प्रसन्न को गोदी में उठा लिया। उसे जान पड़ा कि प्रसन्न के रूप में मिल गया है उसे उत्तराधिकारी।
फिर प्रसन्न और सुमिरिनी उसी दिन लौट गए सहपुरवा से। और प्रसन्नकुमार विद्यानिकेतन के काम में लग गया। गेट के पास ही में औतार काका के नाम से वह हाल बनवाना ठीक होगा।
--------------------------------------------------------------
7t08m55i3km8vr3qewosny3hif97jve
विजय नारायण भट्ट
0
11419
82635
2025-07-01T10:35:07Z
Vijay Narayan Bhatt
16019
'Vijay Narayan Bhatt विजय नारायण भट्ट विजय नारायण भट्ट का जन्म 14 जून 1997 एक भारतीय हिंदू नेता और अखिल भारतीय हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जीवनी विजय नारायण भट्ट का जन्म उत्त...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
82635
wikitext
text/x-wiki
Vijay Narayan Bhatt
विजय नारायण भट्ट
विजय नारायण भट्ट का जन्म 14 जून 1997 एक भारतीय हिंदू नेता और अखिल भारतीय हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष
जीवनी
विजय नारायण भट्ट का जन्म उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद जिले के ग्राम दिनौली गोरवा में हुआ था पिता का नाम श्री अशोक कुमार शर्मा माता का नाम श्रीमती सुलेखा देवी शिक्षा विजय नारायण भट्ट ने अपनी प्राथमिक शिक्षा अपने गांव के प्राथमिक विद्यालय से शिक्षा से पूरी की और उच्च शिक्षा प्राप्त करने मेरठ चले गए।
कार्यकाल
विजय नारायण भट्ट 1 जनवरी 2018 से अखिल भारतीय हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं महत्वपूर्ण कार्य हिंदू एकता यात्रा आयोजन हिंदू मंदिरों की रक्षा के लिए अभियान चलाया और संगठन द्वारा भव्य भागवत कथा का आयोजन किया जिसमें 10000 से अधिक श्रद्धालु शामिल हुए सामान और पुरस्कार हिंदू महासभा द्वारा हिंदू रत्न सम्मान से सम्मानित, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा युवा नेता पुरस्कार से सम्मानित किया ।
9m7aqtpkdeecmxquj2dwsge5nn9dvu7
82636
82635
2025-07-01T10:38:07Z
Vijay Narayan Bhatt
16019
82636
wikitext
text/x-wiki
विजय नारायण भट्ट का जन्म 14 जून 1997 एक भारतीय हिंदू नेता और अखिल भारतीय हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष
जीवनी
विजय नारायण भट्ट का जन्म उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद जिले के ग्राम दिनौली गोरवा में हुआ था पिता का नाम श्री अशोक कुमार शर्मा माता का नाम श्रीमती सुलेखा देवी शिक्षा विजय नारायण भट्ट ने अपनी प्राथमिक शिक्षा अपने गांव के प्राथमिक विद्यालय से शिक्षा से पूरी की और उच्च शिक्षा प्राप्त करने मेरठ चले गए।
कार्यकाल
विजय नारायण भट्ट 1 जनवरी 2018 से अखिल भारतीय हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं महत्वपूर्ण कार्य हिंदू एकता यात्रा आयोजन हिंदू मंदिरों की रक्षा के लिए अभियान चलाया और संगठन द्वारा भव्य भागवत कथा का आयोजन किया जिसमें 10000 से अधिक श्रद्धालु शामिल हुए सामान और पुरस्कार हिंदू महासभा द्वारा हिंदू रत्न सम्मान से सम्मानित, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा युवा नेता पुरस्कार से सम्मानित किया ।
8s77geodpejite55q5664r9kc68io9r