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Pipa Kshatriya Rajput
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'''🛡️ संत पीपा जी / राजा राव प्रताप सिंह चौहान – बिंदुवार संक्षिप्त जीवन परिचय
'''
महाराजाधिराज प्रताप सिंह खींची.
👑 1. जन्म एवं वंश
संत पीपा जी का जन्म वि.सं. 1380 (12 अप्रैल 1323) को गढ़ गागरोण (झालावाड़, राजस्थान) के शासक परिवार में हुआ।
मूल नाम: प्रताप सिंह खींची.
पिता: महाराजा कड़वा राव चौहान
माता: महारानी सफला देवी
वंश: सूर्यवंशी खींची चौहान राजपूत
देवी: मां जालपा देवी की उपासना करते थे।
⚔️ 2. प्रारंभिक जीवन और वीरता
माहराज प्रताप सिंह खींची, बचपन से ही शूरवीर योद्धा थे।
वे धर्मनिष्ठ, प्रजावत्सल और राजनीतिज्ञ भी थे।
गागरोण युद्ध और टोडाराय युद्ध में विदेशी आक्रांताओं को पराजित किया।
छापामार युद्ध कला के जनक और प्रर्वतक कौशल के कारण उनका सम्मान राजपूत दरबारों में बढ़ा।
💍 3. विवाह संबंध
राजा डूंगरसिंह की पुत्री स्मृति बाई सोलंकी (बाद में माता सीता सहचरी) से विवाह हुआ।
यह विवाह राणा रायमल सिसोदिया के आग्रह पर हुआ।
विवाह के समय राव प्रताप सिंह की पहले से 11 रानियाँ थीं।
राव प्रताप सिंह जी खिंची के बारह रानियाँ, जिसका वर्णन इस प्रकार मिलता है:- १. गुजरात भावनगर नरेश श्री सेन्द्रकजी #गोहिल कि पुत्री श्रीमति धीरबाईजी २. गुजरात पाटन नरेश श्री रिणधवलजी #चावड़ा कि पुत्री श्रीमति अंतरबाईजी ३.गुजरात गिरनार नरेश श्री भुहड़सिंहजी #चुड़ासमा कि पुत्री श्रीमति भगवतीबाईजी ४.मध्यप्रदेश बांधनगढ़ नरेश श्री वीरमदेवजी #वाघेला कि पुत्री श्रीमति #रमाबाईजी ५.मध्यप्रदेश पट्टन नरेश श्री भीजड़सिंहजी #सोलंकी कि पुत्री श्रीमति #विजयमणबाईजी ६.मालवा कनवरगढ़ नरेश श्री यशोधरसिंहजी झाला कि पुत्री श्रीमति #रमाकंवरबाईजी ७. गुजरात भुज नरेश श्री विभुसिंहजी #जाड़ेजा कि पुत्री श्रीमति #लिछमाबाईजी ८. गुजरात माणसा नरेश श्री कनकसेनजी #चावड़ा कि पुत्री श्रीमति #विरजाभानुबाइजी ९. गुजरात हलवद नरेश श्री वीरभद्र सिंहजी #झाला कि पुत्री श्रीमति #सिंगाबाईजी १०. राजस्थान करेगांव नरेश श्री जोजलदेवजी #दहिया कि पुत्री श्रीमति #कंचनबाईजी ११. राजपूताना कनहरीगढ़ नरेश श्री कनकराजसिंहजी वाघेला श्रीमति #सुशीलाबाईजी १२. राजपूताना टोडारायसिंह नरेश श्री डूंगरसिंहजी सोलंकी श्रीमति #स्मृतिबाईजी
🕉️ 4. वैराग्य और संत जीवन
शिकार के दौरान गर्भवती हिरणी की मृत्यु से जीवन में करुणा जागी।
स्वप्न में मां भवानी ने काशी जाकर गुरु रामानंद जी से दीक्षा लेने का आदेश दिया।
रामानंद जी ने बाद में गागरोण आकर राव प्रताप सिंह को अपना शिष्य बनाया।
वि.सं. 1414 को राजपाट त्याग कर भतीजे कल्याण राव को राजा बनाया।
संत शिरोमणि पीपाजी महाराज
🧘 5. संत पीपा नाम की उत्पत्ति
गुरु रामानंद जी ने कहा – "तूं राम नाम का रस पी और औरों को पिला"
इसी कारण उन्हें संत पीपा कहा जाने लगा।
स्मृति बाई उनके साथ सन्यास में गईं और माता सीता सहचरी के नाम से जानी गईं।
🙏 6. सिद्धांत और समाज सुधार
संत पीपा जी ने हिंसा, मांसाहार, मदिरा और जातिवाद का विरोध किया।
उन्होंने वर्ण व्यवस्था के सिद्धांत को धार्मिक दृष्टिकोण से महत्व दिया।
राजाओं को राजपाट छोड़कर अहिंसा और भक्ति मार्ग अपनाने की प्रेरणा दी।
🚜 7. पीपा राजपूत समाज की स्थापना
संत पीपा जी ने 52 राजाओं व राजकुमारों को दीक्षा देकर शिष्य बनाया।
उन 52 राजपूतो राजाओं व राजकुमारों जिनको दीक्षित किया गया का जिक्र, इस प्रकार मिलता है:- 1. बेरिसाल #सोलंकी 2. हरिदास #कच्छवाह 3. दामोदर दास पंवार 4. अभयराज यादव 5. गोवर्धन सिंह पंवार 6. सोमपाल परिहार 7. खेमराज #चौहान 8. भीमराज गौहिल 9. हरबद राठौड़ इडरिया 10. रामदास वीरभान मकवाना 11. वीरभान शेखावत 12. आनंददेव गहलोत 13. वरजोग चावड़ा 14. मानकदेव संकलेचा 15. शम्भूदास डाबी 16. इन्द्रराज #राठौड़ (राखेचा) 17. रणमल चौहान 18. बिजलदेव बारड 19. जयदास खींची 20. पृथ्वीराज #तंवर 21. सुयोधन #बडगुजर 22. ईश्वर दास #दहिया 23. गोलियों राव 24. बृजभान सिसोदिया 15. राजसिंह भाटी 26. हरदत्त टाक 27. रणमल परिहार 28. अभयराज सांखला 29. भगवान दास झाला 30. गोहिल दूदा 31. गोकुल राय देवड़ा 32. गजेन्द्र गौड़ 33. मंडलीक चुंडावत 34. हितपात बाघेला 35. अमृत कनेरिया गहलोत 36. मोहन सिंह भाटी 37. दलवीर राठौड़ 38. मोहन सिंह (इंदा) प्रतिहार 39. प्रभात सिंह सिंधु राठौड़ 40. सुरसिंह (सूर्यमल्ल सोलंकी) 41. उम्मेदसिंह तंवर 42. हेमसिंह कच्छवाहा 43. गंगदेव गोहिल 44. दुल्हसिंह टांक 45. गोपालराव परिहार 46. मूलसिंह गहलोत 47. पन्नेसिंह राठौड़ (राखेचा) 48. अमराव मकवाना 49. मुलराज चावड़ा 50. मूलराज भाटी 51. पन्नेसिंह डाबी 52. नागराज सिंह परमार
जीवनयापन के लिए उन्हें कृषि और सिलाई जैसे अहिंसक कार्यों की ओर प्रवृत्त किया।
इन्हीं से बना समाज आज पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज के नाम से जाना जाता है।
कृषि और सिलाई के कारण पीपा क्षत्रिय राजपूतो को दरजी शब्द से संबोधन किया जाने लगा, दरजी एक फारसी भाषा का मुस्लिम थोपा शब्द था, जो पीपा क्षत्रिय राजपूतो की गरिमा को कमतर करने के लिए साजिस के तहत थोपा गया हैं ।
📍 8. समाज की विशेषताएँ
यह पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज आज भारत के अनेक राज्यों जैसे राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली, पंजाब, कर्नाटक, बिहार, झारखंड, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और उत्तराखंड में सम्मान के साथ स्थापित है। इसके साथ ही यह समाज कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और कुवैत जैसे देशों में भी प्रवास कर रहा है, जहाँ यह लोग बड़े व्यवसाय, व्यापार और सेवाओं में ईमानदारी, निष्ठा और गौरव से कार्य कर रहे हैं।
जोधपुरी कोट के सृजनकर्ता और राजस्थानी परिधान की गरिमा को पुनर्जीवित करने में पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज की भूमिका प्रेरणादायक रही है। यह समाज पारंपरिक पोशाकों, विशेष रूप से 'जोधपुरी कोट', 'राजपूताना साफा' और 'सिंह उपाधि' को आत्मगौरव और पहचान का प्रतीक मानकर सामाजिक आयोजनों, विवाहों और सार्वजनिक मंचों पर उन्हें प्रतिष्ठा दिला रहा है।
मुख्य पहचान: अहिंसक राजपूत, शुद्ध रक्त क्षत्रिय, मांस-मदिरा से दूर, भक्ति मार्गी।
समाज द्वारा आज भी चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को पीपा जयंती बड़े आयोजन से मनाई जाती है।
🧾 9. इतिहासकारों द्वारा उल्लेख
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा और मुहणोत नैणसी ने भी राव प्रताप सिंह/संत पीपा का वर्णन किया है।
संत शिरोमणि पीपा जी महाराज (13वीं सदी – 14वीं सदी), एक महान संत, सिद्ध योगी, क्षत्रिय राजा और भारतीय युद्ध नीति के अप्रतिम रणनीतिकार थे। उन्हें भारत में छापामार युद्ध (Guerrilla Warfare) की नींव रखने वाले पहले सैन्य विचारक एवं व्यवहारकर्ता के रूप में जाना जाता है। उन्होंने धर्म और मातृभूमि की रक्षा के लिए पारंपरिक युद्ध पद्धतियों से हटकर छापामार शैली का विकास किया, जो आगे चलकर महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे महायोद्धाओं की रणनीतियों की आधारशिला बनी।
⚔️ छापामार युद्ध: एक क्रांतिकारी रणनीति
संत पीपा जी छापामार युद्धकला के जनक और आदिप्रवर्तक थे, छापामार युद्ध उस समय भारत की सैन्य परंपरा में एक नया अध्याय था। संत पीपा जी ने सीमित संसाधनों के साथ बड़े शत्रु दलों से युद्ध जीतने की रणनीति प्रस्तुत की, जिसमें छिपकर प्रहार करना, किले नहीं जंगल को शरण बनाना, आक्रमण कर तुरंत पीछे हट जाना, और शत्रु की रसद व्यवस्था को ध्वस्त करना प्रमुख था।
इस युद्ध शैली ने शस्त्रबल से अधिक नीतिबल और धैर्य को महत्व दिया। संत पीपा जी की यह युद्धशैली आगे चलकर "गुरिल्ला युद्ध" के नाम से प्रसिद्ध हुई।
🛡️ जीवन के प्रमुख युद्ध और योगदान
संत पीपा जी ने अपने जीवन में तीन प्रमुख युद्धों का नेतृत्व किया जिनमें उन्होंने बाहरी आक्रमणकारियों के विरुद्ध छापामार पद्धति का उपयोग किया। उनके नेतृत्व में एक विशेष क्षत्रिय संगठन बना, जिसने आध्यात्मिक साधना के साथ राष्ट्र रक्षा को जीवन लक्ष्य बनाया।
माता सहचरी सीता माता
👑 52 क्षत्रिय राजाओं का दीक्षण
संत पीपा जी से प्रभावित होकर 52 क्षत्रिय राजाओं ने उनके चरणों में दीक्षा ग्रहण की। उन्होंने इन राजाओं को धर्मशक्ति, युद्धशक्ति और रणनीति का संगम सिखाया। इन 52 कुलों की संताने आज पीपा क्षत्रिय राजपूत के रूप में जानी जाती हैं।
🏹 परंपरा का विस्तार: महाराणा सांगा से छत्रपति शिवाजी महाराज तक
महाराणा सांगा ने संत पीपा जी की युद्धनीति को अपनाकर मुगलों के विरुद्ध संघर्ष किया।
महाराणा उदयसिंह किवदंतियों के अनुसार, महाराणा उदयसिंह की बाल्यावस्था में पीपा क्षत्रिय योद्धाओं ने मां पन्नाधाय के साथ मिलकर उनकी प्राणरक्षा की और गुप्त स्थानों पर छिपाकर सुरक्षा प्रदान की।
महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी में इसी छापामार नीति से मुगलों को चुनौती दी।
छत्रपति शिवाजी महाराज, जिनके बारे में जनश्रुतियों में यह विश्वास है कि वे उन्हीं 52 क्षत्रिय कुलों में से एक के वंशज थे, ने इस छापामार रणनीति को चरम पर पहुँचाया और इसे और अधिक संगठित स्वरूप दिया।
छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराजा बृजभान सिसोदिया के वंशज थे, जो मेवाड़ के सिसोदिया पीपा क्षत्रिय राजपूत और शुद्ध क्षत्रिय राजपूत परंपरा से थे।
📜 ऐतिहासिक संकेत और वंश परंपरा
इतिहास में कई जनश्रुतियाँ, लोककथाएँ और परंपरागत राजपूत वंशावलियाँ इस बात की पुष्टि करती हैं कि शिवाजी महाराज का मूल वंश उन्हीं 52 दीक्षित राजपूतों में से था। इन वंशों की रेखा संत पीपा जी तक पहुँचती है, जो कि एक शुद्ध रक्त क्षत्रिय राजपूत राजा थे।
⚔️ छापामार युद्ध कौशल के नायाब नमूने: राव प्रताप सिंह द्वारा लड़ी गई तीन गौरवशाली युद्धगाथाएँ
संत पीपा जी महाराज द्वारा विकसित छापामार युद्ध नीति केवल एक रणकौशल नहीं, बल्कि एक राष्ट्र-संरक्षक विचारधारा थी। इस नीति को राव प्रताप सिंह चौहान जैसे वीर क्षत्रिय योद्धाओं ने यथार्थ में उतारकर भारतभूमि की रक्षा की। उन्होंने तीन ऐसे युद्ध लड़े जो छापामार युद्ध कौशल के नायाब उदाहरण बनकर इतिहास में अमर हो गए।
⚔️ 1. गागरोण का युद्ध
मालवा की यवन सेना ने जब गागरोण दुर्ग पर आक्रमण किया, तब उसका नेतृत्व मलिक सरावतदार और फिरोज खां जैसे सेनानायक कर रहे थे।
लेकिन राजा प्रताप सिंह चौहान ने बिना किसी सीधी भिड़ंत के, छापामार पद्धति से उनकी सेना पर पीछे से घातक हमला किया।
उनकी शेर-सी दहाड़ और रणनीतिक कौशल से घबराकर यवन सेना को जान बचाकर भागना पड़ा, और गागरोण की भूमि पर फिर से स्वाभिमान का झंडा लहराया।
⚔️ 2. टोडाराय का युद्ध
जब फिरोजशाह तुगलक ने टोडा पर हमला किया और लल्लन पठान के दबाव में राजा डूंगरसिंह की सेना को समर्पण के कगार पर पहुँचा दिया, तब यह संकट चित्तौड़ के राणा रायमल सिंह तक पहुँचा।
एक युद्ध बैठक में गागरोण के सेनापति ने राव प्रताप सिंह का उल्लेख किया।
राणा रायमल ने तुरंत सहायता हेतु गागरोण संदेश भेजा।
राव प्रताप सिंह ने छापामार शैली में आक्रमण करते हुए लल्लन पठान की सेना को चीरकर रख दिया और स्वयं लल्लन पठान का अंत कर दिया।
क्षत्रिय रक्त, सिंह के सम।शौर्य हमारा, रण प्रचंडतम।। गौ, गीता, गढ़, गुरुदेव। क्षत्रिय धर्म हमारा देव।।
🔰 पीपा क्षत्रिय राजपूत वंश के लिए आधिकारिक प्रतीक चिन्ह और घोष वाक्य 🔰
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज आधिकारिक प्रतिक चिन्ह
🔷 पीपा क्षत्रिय राजपूत वंश के लिए प्रतीक चिन्ह की आवश्यकता क्यों?
हर समाज की पहचान उसके इतिहास, संस्कृति और मूल्यों से होती है। एक सशक्त प्रतीक चिन्ह और घोष वाक्य:
सामाजिक एकता को मजबूत करता है।
इतिहास और परंपराओं की स्मृति को जागृत करता है।
राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक शक्ति को सशक्त बनाता है।
नई पीढ़ी में आत्मगौरव, जागरूकता और प्रेरणा जगाता है।
🛡️ प्रतीक चिन्ह के प्रमुख घटक और उनका अर्थ:
1. 🔆 केंद्र में संत पीपा जी की छवि:
आध्यात्मिकता, धर्म, समरसता और मार्गदर्शन के प्रतीक।
बल और भक्ति का संगम, क्षत्रिय धर्म की सर्वोच्च व्याख्या।
2. 🦁 दो शेर – एक दहाड़ता, एक शांत:
दहाड़ता शेर – अन्याय के विरुद्ध संघर्ष का प्रतीक।
शांत शेर – संयम, न्यायप्रियता और संतुलित शक्ति का प्रतिरूप।
3. 🦅 एक बाज (गरुड़ दृष्टि के प्रतीक रूप में):
दूरदृष्टि, स्वतंत्रता, और लक्ष्य-सिद्धि की प्रतीक छवि।
समाज के नेतृत्व और सतर्कता का प्रतिनिधित्व।
4. ⚔️ दो तलवारें:
धर्म और न्याय की रक्षा हेतु शक्ति का प्रतीक।
वीरता, आत्म-सम्मान और मर्यादा की रक्षा का संदेश।
🗨️पीपा क्षत्रिय राजपूत वंश के लिए आधिकारिक घोष वाक्य (Motto):
।। वयं क्षत्रियाः, वयं धर्मरक्षकाः, वयं रणभूमेः सिंहाः, वयं पीपदासाः।।
अर्थात् –
हम क्षत्रिय हैं, हम धर्म के रक्षक हैं, हम रणभूमि के सिंह हैं, हम संत पीपा के अनुयायी हैं।
🌟 प्रतीक चिन्ह और घोषवाक्य का सामूहिक प्रभाव:
आध्यात्मिक और ऐतिहासिक स्मरण।
नवपीढ़ी को संस्कृति और संघर्ष से जोड़ना।
सामाजिक एकता और संगठनात्मक शक्ति।
धर्म, नीति, परंपरा और आत्मगौरव का संतुलन।
📜 पीपा वंशी क्षत्रिय राजपूत: 1891 की The Castes of Marwar 1891 -ब्रिटिश जनगणना में उल्लेख
(Reference from 1891 Census Report compiled by Denzil Charles Jelf Ibbetson in the castes of marwar 1891)
ब्रिटिश भारत के समाजविज्ञानी, इतिहासकार और प्रशासक सर डेंजिल चार्ल्स जेल्फ इब्बेटसन द्वारा संकलित 1891 की The Castes of Marwar जनगणना रिपोर्ट में पीपा वंशी क्षत्रिय राजपूतों का विशिष्ट और ऐतिहासिक महत्त्व के साथ उल्लेख किया गया है। यह रिपोर्ट आज भी Archive.org जैसे प्रतिष्ठित स्रोतों पर उपलब्ध है।
🔍 सामाजिक व्याख्या:
इब्बेटसन ने समाज की जाति और पेशा (caste vs occupation) को स्पष्ट रूप से अलग-अलग संदर्भित करते हुए लिखा:
"Regard the term Darji as purely occupational." (दरज़ी शब्द को केवल एक पेशा माना जाए।)
➤ अर्थ और विश्लेषण:
इस कथन से यह सिद्ध होता है कि 'Darji' कोई जन्म से जाति नहीं, बल्कि एक कौशल आधारित कार्य है।
इसलिए जो लोग सिलाई, कढ़ाई या वस्त्र निर्माण के कार्य से जुड़े थे, उन्हें केवल उनके कार्य के कारण जातिगत ‘दरजी’ कहना अवैज्ञानिक और सामाजिक रूप से अनुचित है।
Encyclopedia of Indian Surnames में इतिहासकार डॉ. शिबानी रॉय और एस. एच. रिज़वी ने 'Ajarani' शीर्षक के अंतर्गत स्पष्ट लिखा है:
पिपावंशी राजपूत वंशज हैं
यह उल्लेख और भी दृढ़ता से प्रमाणित करता है कि पिपावंशी वंशज विशुद्ध राजपूत रक्तवंशीय हैं।
अर्थात् – “दर्ज़ी एक शुद्ध रूप से व्यवसायिक शब्द है, इसका किसी जाति, धर्म या वंश से कोई लेना-देना नहीं है। अतः पिपावंशी क्षत्रिय राजपूतों को "दर्ज़ी" कहना ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से असत्य व अपमानजनक है।
🧵 पीपा जी और दर्जी पेशे का संबंध:
इब्बेटसन आगे लिखते हैं:
"to have induced his Rajput servants and followers to adopt the profession of tailors." (संत पीपा जी ने अपने राजपूत सेवकों और अनुयायियों को दर्ज़ी का कार्य अपनाने के लिए प्रेरित किया।)
➤ तथ्यात्मक विश्लेषण:
यह कथन स्पष्ट करता है कि संत पीपा जी के अनुयायी राजपूत वंशज थे, जिन्होंने धर्म प्रचार, साधना, और आत्मनिर्भरता के उद्देश्य से दर्ज़ी कार्य को अपनाया।
यह कार्य धार्मिक सेवा, यज्ञोपवीत, झंडी, ध्वज निर्माण और समाजसेवा आधारित वस्त्र-निर्माण जैसे परिप्रेक्ष्य में था।
इससे उनकी राजपूत जातीय पहचान नहीं बदलती; यह केवल उनकी रोज़गार गतिविधि का हिस्सा था।
⚔️ सामाजिक पहचान का निष्कर्ष:
इस ऐतिहासिक संदर्भ से निम्न निष्कर्ष स्पष्ट होते हैं:
"Darji" शब्द जाति नहीं, केवल पेशा है।
पीपा वंशी क्षत्रिय राजपूतों ने संत परंपरा, तपस्या और आत्मनिर्भरता के आदर्शों के तहत यह कार्य अपनाया।
उन्हें जन्मजात राजपूत माना गया है, और आज भी उनकी वंश परंपरा, गोत्र, रीतिरिवाज, शौर्यगाथा और क्षत्रिय परंपरा अटूट है।
उन्हें "दरजी जाति" कहकर संबोधित करना ऐतिहासिक दृष्टि से असत्य, अपमानजनक और तथ्यहीन है।
🔰 Haifa युद्ध 1918 में पीपा क्षत्रिय राजपूतों का योगदान
श्री दलपत सिंह जी
श्री दलपत सिंह जी शेखावत हाइफा हीरो
Haifa युद्ध (1918) में पीपा क्षत्रिय राठौड़ राजपूतों का योगदान किवदंतियों एवं स्थानीय परंपराओं के अनुसार अत्यंत महत्वपूर्ण था। हाइफा की लड़ाई में, जोधपुर लांसर्स के मेजर दलपत सिंह शेखावत शहीद हो गए थे, लेकिन उनकी बहादुरी ने 400 साल पुराने तुर्की शासन का अंत कर दिया। इस युद्ध को "हाइफा का युद्ध" के नाम से भी जाना जाता है और हर साल 23 सितंबर को हाइफा दिवस के रूप में मनाया जाता है।
लेकिन यह बहुत कम ज्ञात तथ्य है कि उनके नेतृत्व में भारी संख्या में पीपा वंशी क्षत्रिय राठौड़ राजपूत भी सम्मिलित थे।
इन योद्धाओं की सबसे बड़ी विशेषता थी — छापामार युद्ध कौशल (guerrilla warfare), जो उन्हें पीढ़ियों से उनके प्रशिक्षण और सीमावर्ती संघर्षों से प्राप्त हुआ था। दलपत सिंह शेखावत इस सामूहिक शक्ति और रणनीति से भलीभांति परिचित थे। उन्होंने जानबूझकर उन रणबांकुरों को आगे रखा, जिनमें वह जज्बा था — जो केवल राजपूताना मरुस्थल की धूल में पला-बढ़ा योद्धा ही रख सकता है।
यह वीर योद्धा वर्ग छापामार युद्धशैली (guerrilla warfare) में प्रशिक्षित था, जिसे उन्होंने पीढ़ियों से सीमावर्ती संघर्षों और परंपरा से सीखा था।
उन्होंने जोधपुर लांसर्स की अगुवाई में पराक्रम दिखाया, परंतु उनका योगदान अक्सर गुमनाम या अप्रकाशित रहा।
कहा जाता है कि "पीपा वंशी जहाँ लड़ते हैं, वहाँ दुश्मन की तोपें भी मौन हो जाती हैं।"
ऐसी कई जनश्रुतियाँ और कहावतें आज भी मारवाड़ व राजपुताना में पीढ़ियों तक इनकी वीरता की गाथा सुनाती हैं।
हालाँकि आधिकारिक इतिहास में इनका उल्लेख सीमित है, परन्तु सामाजिक स्मृति में यह बलिदान आज भी जीवित है
🔰 पीपा क्षत्रिय राजपूत: आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़ा, राजनीतिक रूप से उपेक्षित वर्ग
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज, संत शिरोमणि पीपा जी महाराज की परंपरा में अहिंसा, परिश्रम और आत्मगौरव को जीवन मूल्य मानकर चलने वाला एक ऐसा क्षत्रिय समाज है जिसने समय के साथ धर्मयुद्ध से लेकर श्रमशील जीवन तक का उत्क्रांतिपथ अपनाया।
🌾 आजीविका में श्रमशीलता – परंपरागत क्षत्रिय से मेहनतकश समाज तक
इतिहास में युद्ध कौशल और छापामार रणशैली के लिए विख्यात इस समाज ने शांति काल में कृषि, सिलाई और श्रमिक कार्यों को अपनाया। यह उनकी आत्मनिर्भरता, ईमानदारी और धर्मनिष्ठा का प्रमाण है।
परंतु उत्पादनशील और मेहनतकश कार्यों से होने वाली सीमित आय ने समाज को आर्थिक रूप से अत्यंत कमजोर बना दिया है।
⚖️ OBC वर्ग में वर्तमान स्थिति और विशेष उपवर्ग की आवश्यकता
हालांकि पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज को OBC वर्ग में स्थान दिया गया है, परंतु वास्तविक लाभों तक पहुँच अत्यंत सीमित है। इसके कारण हैं:
💠 अत्यंत कमजोर आर्थिक आधार: अधिकांश परिवार गरीबी रेखा के आसपास या नीचे जीवन यापन करते हैं।
🧑🌾 कृषि एवं श्रमिक कार्यों पर निर्भरता: समाज की अधिकांश आबादी असंगठित क्षेत्र में है, जहाँ कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है।
🗳️ राजनीतिक प्रतिनिधित्व शून्य के बराबर: पंचायत से लेकर संसद तक इस समाज की राजनीतिक भागीदारी नगण्य है।
🏢 सरकारी सेवाओं में नगण्य उपस्थिति: सरकारी नौकरियों में समाज का प्रतिनिधित्व नाममात्र है, जिससे सामाजिक असमानता और गहराई है।
📚 शैक्षणिक अवसरों की कमी: आर्थिक तंगी के कारण उच्च शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं में भागीदारी बहुत कम है।
📝 विशेष पिछड़ा वर्ग (Special Backward Class) में स्थान देने की माँग
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज बार-बार सरकार से यह माँग करता आया है कि उसे OBC के भीतर विशेष उपवर्ग में स्थान दिया जाए ताकि:
सामाजिक न्याय सुनिश्चित हो सके
समान स्तर के वंचित समाजों के साथ प्रतिस्पर्धा का अवसर मिले
शैक्षणिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर सशक्तिकरण हो सके
🔊 निष्कर्ष:
एक समाज जो कभी युद्धभूमि में सिंह की तरह लड़ा,
आज खेत, करघे और श्रम के माध्यम से राष्ट्र निर्माण में लगा है।
परंतु यदि आर्थिक-सामाजिक असमानता दूर नहीं की गई, तो यह परंपरा और प्रतिभा धीरे-धीरे हाशिये पर चली जाएगी।
इसलिए पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज को विशेष पिछड़ा वर्ग में समायोजित करना न्याय, समानता और संविधानिक अधिकारों की सच्ची पूर्ति होगी।
🔥 पीपा क्षत्रिय राजपूतों की घटती जनसंख्या: एक ऐतिहासिक षड्यंत्र और संघर्ष की गाथा
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज, संत शिरोमणि पीपा जी महाराज द्वारा दीक्षित 52 क्षत्रिय राजाओं के वंशज हैं। ये सभी योद्धा छापामार युद्ध शैली के जन्मदाता माने जाते हैं, जिन्होंने इतिहास के कई निर्णायक युद्धों में अद्वितीय वीरता और विजय प्राप्त की।
⚔️ ऐतिहासिक पराक्रम और वीरता
पीपा वंशी क्षत्रिय राजपूतों ने मालवा, दिल्ली सल्तनत, तुगलक, लोधी और मुगलों जैसे कई आक्रांताओं से लड़ाइयाँ लड़ीं।
इन्होंने छापामार युद्ध नीति में ऐसी महारत प्राप्त की थी कि दुश्मन की विशाल सेनाएँ भी इनके सामने विचलित हो जाती थीं।
इनकी रणनीति, साहस और बलिदान ने शत्रुओं को बार-बार परास्त किया।
🧩 सामाजिक-धार्मिक षड्यंत्र और पहचान का हनन
इस महान क्षत्रिय समाज को कमजोर करने हेतु सुनियोजित षड्यंत्र रचे गए:
🔻 "दरजी" और "इद्रिश" जैसे नाम थोपे गए: मुस्लिम शासकों ने चालाकी से सिलाई कार्य करने वाले पीपा क्षत्रिय राजपूतों को “दरजी” और “इद्रिश” जैसे झूठे, पेशागत मुस्लिम शब्दों से जोड़ दिया। उद्देश्य था – उनकी मूल क्षत्रिय पहचान को नष्ट करना और उन्हें सामाजिक रूप से “निम्न” दिखाना।
🧵 काम से जाति निर्धारण की साजिश: संत पीपा जी की परंपरा के अनुसार यह समाज संत सेवा, झंडा-ध्वज निर्माण और साधु वस्त्र सिलाई जैसे धार्मिक कार्यों से जुड़ा। लेकिन इन धार्मिक सेवाओं को जानबूझकर पेशा और फिर जाति बना दिया गया, ताकि समाज को “लड़ाई छोड़ चुके दर्जी” के रूप में प्रचारित किया जा सके।
📖 इतिहास को दबाना और नष्ट करना: ब्रिटिश और मुस्लिम शासन दोनों ने मिलकर पीपा क्षत्रिय राजपूतों के ऐतिहासिक ग्रंथों और लोकगाथाओं को या तो नष्ट किया या कभी दर्ज़ ही नहीं होने दिया। जिससे आने वाली पीढ़ियाँ अपनी वीर परंपरा से अनभिज्ञ रहें।
🧠 मानसिक गुलामी और सामाजिक अपमान: समाज को इतना अपमानित और भ्रमित किया गया कि उनकी आत्मगौरव की भावना को कुचल दिया गया। धीरे-धीरे कुछ लोग पहचान से दूर होते गए, कुछ मुखर विरोध के कारण युद्धों में मारे गए, और कुछ मूल क्षत्रियता की ओर लौटते हुए समाज से बाहर कर दिए गए।
📉 घटती जनसंख्या के मुख्य कारण:
लगातार युद्धों में वीरगति: बड़ी संख्या में योद्धा युद्धों में बलिदान हुए, जिससे पीढ़ियाँ समाप्त हो गईं।
आत्मगौरव की रक्षा में सामाजिक बहिष्कार: जो मूल क्षत्रिय पहचान की ओर लौटे, उन्हें झूठी जातिगत व्यवस्था से बाहर कर दिया गया।
सामाजिक और राजनीतिक हाशिए पर डालना: शासन और व्यवस्था में प्रतिनिधित्व ना मिल पाने के कारण शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक पिछड़ापन बढ़ता गया।
कई लोगों की पहचान जबरन बदल दी गई या उन्हें गुमनाम बना दिया गया।
🔊 आज की स्थिति:
आज पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज आर्थिक रूप से अत्यंत कमजोर, राजनीतिक रूप से उपेक्षित, और आंकड़ों में अदृश्य होता जा रहा है।
इनकी जनसंख्या लगातार घट रही है क्योंकि:
समाज के कई हिस्से अब भी अपनी मूल पहचान की खोज में हैं,
उन्हें आज भी गलत जातिगत पहचान से जोड़ा जा रहा है,
उनका गौरवशाली इतिहास आज भी पढ़ाया नहीं जाता।
✊ निष्कर्ष:
जिस समाज ने कभी मुगलों को छापामार नीति से नाकों चने चबवाए,
आज वह अपने अस्तित्व और सम्मान के लिए लड़ रहा है।
पीपा क्षत्रिय राजपूतों की घटती जनसंख्या केवल एक आँकड़ा नहीं,
बल्कि यह भारत के इतिहास में की गई सांस्कृतिक हत्या का जीवित प्रमाण है।
अब समय है कि इतिहास को पुनः लिखा जाए,
सच्चाई को पुनः सामने लाया जाए,
और इस वीर समाज को उसका गौरव, स्थान और अधिकार दिया जाए।
🔰 1. वीर पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज और उनकी छापामार परंपरा
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज, जो छापामार युद्ध शैली में दक्ष, निडर और कई निर्णायक युद्धों में अग्रणी भूमिका निभाने वाला एक वीर क्षत्रिय समुदाय रहा है, को ऐतिहासिक रूप से योजनाबद्ध षड्यंत्रों द्वारा कमजोर करने का प्रयास किया गया। यह समाज भारत की सीमांत युद्ध परंपराओं में एक प्रमुख स्तंभ रहा, जिसने धर्म, राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिए असंख्य युद्धों में भाग लिया।
🧩 2. मुस्लिम शासनकाल में पहचान को कुचलने की साजिश
मुस्लिम आक्रमणकारियों ने पहले इस समाज को “दर्जी” और “इद्रिश” जैसे पेशागत मुस्लिम शब्दों से जोड़ने की चाल चली, जिससे उनकी मूल क्षत्रिय पहचान को धूमिल किया जा सके। इसके बाद “डरपोक” या “मूर्ख” जैसी छवियाँ आरोपित करने के लिए जानबूझकर झूठी कहानियाँ गढ़ी गईं, जबकि सच्चाई यह है कि यह समाज पीढ़ियों से सीमांत संघर्षों में सबसे आगे रहा है।
🏛️ 3. ब्रिटिश शासन द्वारा ऐतिहासिक और मानसिक दमन
इसी मनोवैज्ञानिक रणनीति को आगे बढ़ाते हुए अंग्रेज़ों ने भी पीपा क्षत्रिय राजपूतों की वीरता और बलिदानों को इतिहास में स्थान नहीं दिया। जैसे उन्होंने सिखों के लिए भी उपहासजनक कहावतें गढ़ीं, उसी तरह इस समाज के बारे में भी अपमानजनक जनश्रुतियाँ फैलाईं। उन्होंने मौखिक परंपराओं को लिपिबद्ध नहीं होने दिया, जिससे इतिहास धुंधला हो गया। इस मानसिक और सांस्कृतिक हमले का परिणाम यह हुआ कि यह क्षत्रिय योद्धा समाज धीरे-धीरे आत्मगौरव से दूर होता चला गया और आज भी अपने गौरवपूर्ण इतिहास की पुनर्स्थापना के लिए संघर्षरत है।
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज, जो छापामार युद्ध शैली में दक्ष, निडर और कई निर्णायक युद्धों में अग्रणी भूमिका निभाने वाला एक वीर क्षत्रिय समुदाय रहा है, को ऐतिहासिक रूप से योजनाबद्ध षड्यंत्रों द्वारा कमजोर करने का प्रयास किया गया। मुस्लिम आक्रमणकारियों ने पहले इस समाज को “दर्जी” और “इद्रिश” जैसे पेशागत मुस्लिम शब्दों से जोड़कर उनकी मूल क्षत्रिय पहचान को धूमिल करने की कोशिश की। इसके बाद समाज पर “डरपोक”, “मूर्ख” या “रणभूमि से भागने वाली जाति” जैसी छवि आरोपित करने के लिए जानबूझकर झूठी कहानियाँ गढ़ी गईं, जबकि वास्तविकता इसके ठीक विपरीत थी – यह समाज सदियों तक सीमांत संघर्षों में अग्रणी रहा। यही मनोवैज्ञानिक रणनीति बाद में अंग्रेज़ों ने भी अपनाई, जैसे उन्होंने सिखों को “मूर्ख और नासमझ” दर्शाने वाली कहावतें और कहानियाँ गढ़ी थीं, ठीक उसी तरह की अपमानजनक शैली पीपा क्षत्रिय राजपूतों पर भी लागू की गई। अंग्रेजों ने न केवल इनके गौरवशाली युद्धों और बलिदानों को इतिहास में स्थान नहीं दिया, बल्कि कई मौखिक परंपराओं को लिपिबद्ध करने से भी रोका गया। इस संयुक्त मानसिक और सांस्कृतिक आक्रमण का परिणाम यह हुआ कि यह योद्धा समाज धीरे-धीरे आत्मगौरव से दूर हुआ और सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से हाशिये पर चला गया। आज भी पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज इन ऐतिहासिक अन्यायों के विरुद्ध अपनी पहचान, इतिहास और सम्मान की पुनर्स्थापना के लिए संघर्ष कर रहा है।
श्री पीपा चेतना ई-पत्रिका
श्री पीपा चेतना – एक नयी शुरुआत, आत्मगौरव की दिशा में
परिचय:
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज अब त्रिवेणी गति से अपने राजपुताना गौरव को पुनः जाग्रत करने हेतु प्रयत्नशील है। इस पुनर्जागरण के क्रम में समाज के प्रतिभावान एवं प्रबुद्ध जनों द्वारा समाज के अधिकृत Logo एवं Motto का निर्माण किया गया है, जो नई चेतना, उत्साह तथा संगठन की भावना को दृढ़ता प्रदान करता है।
लक्ष्य:
समाज की सांस्कृतिक विरासत, वीरता, आत्मगौरव तथा सामाजिक एकता को जीवंत बनाए रखने हेतु जनचेतना का विस्तार किया जाएगा। इसी उद्देश्य से "श्री पीपा चेतना" नामक मासिक ई-पत्रिका की शुरुआत की जा रही है।
पत्रिका का स्वरूप:
नाम: श्री पीपा चेतना
प्रकार: मासिक ई-पत्रिका
पृष्ठ संख्या: कुल 21 पृष्ठ
माध्यम: डिजिटल (PDF, वेबसाइट, व्हाट्सएप/सोशल मीडिया वितरण)
मूल्य: पूर्णतः निःशुल्क
संचालन: जनसहयोग से संचालित
प्रकाशन का उद्देश्य:
समाज के गौरवशाली इतिहास, परंपराओं, वीर पुरखों और संत शिरोमणि श्री पीपा जी की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार।
युवाओं में आत्मबल, संगठनबद्धता और नेतृत्व की चेतना जागृत करना।
समाज के भीतर सकारात्मक संवाद, पहचान और वैचारिक दिशा को स्थापित करना।
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज के कार्यक्रम, उपलब्धियाँ एवं प्रेरणादायक व्यक्तित्वों को स्थान देना।
संगठन को मजबूत करने हेतु सुझाव, लेख, घोषणाएँ और अभियान विवरण प्रकाशित करना।
विशेषताएँ:
सम्पूर्ण समाज के लिए निःशुल्क उपलब्ध।
डिजिटल फॉर्मेट में सभी के लिए पहुँच योग्य।
जन-सहयोग के आधार पर लेख, विचार, कविता, सामाजिक खबरें आमंत्रित।
प्रत्येक अंक में “श्री पीपा वाणी”, “वीरगाथा”, “समाज गौरव”, “युवा दिशा”, “राजनीतिक व आर्थिक दृष्टिकोण”, “विवाह योग्य परिचय” जैसे विशेष स्तंभ।
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हिन्दी विश्व की प्रमुख भाषा है,यह 50 करोड़ लोगों की भाषा हैं। हिन्दी भाषा, भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। हिन्दी के अधिकतम शब्द संस्कृत , अरबी और फारसी भाषा के शब्दों से लिए गए हैं। हिन्दी को देवनागरी लिपि में लिखा जाता है।
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==अन्य==
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==यह भी देखें==
* [[w:हिन्दी|हिन्दी भाषा]]
<ref>{{cite web |last1=hindi sahayak |first1=yogi |title=hindi sahayak |website=https://hindisahayak.in/}}</ref>==बाहरी कड़ी==
{{स्थिति|25%}}
[[श्रेणी:भाषाएँ]]
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Pipa Kshatriya Rajput
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'''🛡️ संत पीपा जी / राजा राव प्रताप सिंह चौहान – बिंदुवार संक्षिप्त जीवन परिचय
'''
महाराजाधिराज प्रताप सिंह खींची.
'''👑 1. जन्म एवं वंश'''
संत पीपा जी का जन्म वि.सं. 1380 (12 अप्रैल 1323) को गढ़ गागरोण (झालावाड़, राजस्थान) के शासक परिवार में हुआ।
मूल नाम: प्रताप सिंह खींची.
पिता: महाराजा कड़वा राव चौहान
माता: महारानी सफला देवी
वंश: सूर्यवंशी खींची चौहान राजपूत
देवी: मां जालपा देवी की उपासना करते थे।
'''⚔️ 2. प्रारंभिक जीवन और वीरता'''
माहराज प्रताप सिंह खींची, बचपन से ही शूरवीर योद्धा थे।
वे धर्मनिष्ठ, प्रजावत्सल और राजनीतिज्ञ भी थे।
गागरोण युद्ध और टोडाराय युद्ध में विदेशी आक्रांताओं को पराजित किया।
छापामार युद्ध कला के जनक और प्रर्वतक कौशल के कारण उनका सम्मान राजपूत दरबारों में बढ़ा।
'''💍 3. विवाह संबंध'''
राजा डूंगरसिंह की पुत्री स्मृति बाई सोलंकी (बाद में माता सीता सहचरी) से विवाह हुआ।
यह विवाह राणा रायमल सिसोदिया के आग्रह पर हुआ।
विवाह के समय राव प्रताप सिंह की पहले से 11 रानियाँ थीं।
राव प्रताप सिंह जी खिंची के बारह रानियाँ, जिसका वर्णन इस प्रकार मिलता है:- १. गुजरात भावनगर नरेश श्री सेन्द्रकजी #गोहिल कि पुत्री श्रीमति धीरबाईजी २. गुजरात पाटन नरेश श्री रिणधवलजी #चावड़ा कि पुत्री श्रीमति अंतरबाईजी ३.गुजरात गिरनार नरेश श्री भुहड़सिंहजी #चुड़ासमा कि पुत्री श्रीमति भगवतीबाईजी ४.मध्यप्रदेश बांधनगढ़ नरेश श्री वीरमदेवजी #वाघेला कि पुत्री श्रीमति #रमाबाईजी ५.मध्यप्रदेश पट्टन नरेश श्री भीजड़सिंहजी #सोलंकी कि पुत्री श्रीमति #विजयमणबाईजी ६.मालवा कनवरगढ़ नरेश श्री यशोधरसिंहजी झाला कि पुत्री श्रीमति #रमाकंवरबाईजी ७. गुजरात भुज नरेश श्री विभुसिंहजी #जाड़ेजा कि पुत्री श्रीमति #लिछमाबाईजी ८. गुजरात माणसा नरेश श्री कनकसेनजी #चावड़ा कि पुत्री श्रीमति #विरजाभानुबाइजी ९. गुजरात हलवद नरेश श्री वीरभद्र सिंहजी #झाला कि पुत्री श्रीमति #सिंगाबाईजी १०. राजस्थान करेगांव नरेश श्री जोजलदेवजी #दहिया कि पुत्री श्रीमति #कंचनबाईजी ११. राजपूताना कनहरीगढ़ नरेश श्री कनकराजसिंहजी वाघेला श्रीमति #सुशीलाबाईजी १२. राजपूताना टोडारायसिंह नरेश श्री डूंगरसिंहजी सोलंकी श्रीमति #स्मृतिबाईजी
'''🕉️ 4. वैराग्य और संत जीवन'''
शिकार के दौरान गर्भवती हिरणी की मृत्यु से जीवन में करुणा जागी।
स्वप्न में मां भवानी ने काशी जाकर गुरु रामानंद जी से दीक्षा लेने का आदेश दिया।
रामानंद जी ने बाद में गागरोण आकर राव प्रताप सिंह को अपना शिष्य बनाया।
वि.सं. 1414 को राजपाट त्याग कर भतीजे कल्याण राव को राजा बनाया।
'''
संत शिरोमणि पीपाजी महाराज'''
'''🧘 5. संत पीपा नाम की उत्पत्ति'''
गुरु रामानंद जी ने कहा – "तूं राम नाम का रस पी और औरों को पिला"
इसी कारण उन्हें संत पीपा कहा जाने लगा।
स्मृति बाई उनके साथ सन्यास में गईं और माता सीता सहचरी के नाम से जानी गईं।
'''🙏 6. सिद्धांत और समाज सुधार'''
संत पीपा जी ने हिंसा, मांसाहार, मदिरा और जातिवाद का विरोध किया।
उन्होंने वर्ण व्यवस्था के सिद्धांत को धार्मिक दृष्टिकोण से महत्व दिया।
राजाओं को राजपाट छोड़कर अहिंसा और भक्ति मार्ग अपनाने की प्रेरणा दी।
'''🚜 7. पीपा राजपूत समाज की स्थापना'''
संत पीपा जी ने 52 राजाओं व राजकुमारों को दीक्षा देकर शिष्य बनाया।
उन 52 राजपूतो राजाओं व राजकुमारों जिनको दीक्षित किया गया का जिक्र, इस प्रकार मिलता है:- 1. बेरिसाल #सोलंकी 2. हरिदास #कच्छवाह 3. दामोदर दास पंवार 4. अभयराज यादव 5. गोवर्धन सिंह पंवार 6. सोमपाल परिहार 7. खेमराज #चौहान 8. भीमराज गौहिल 9. हरबद राठौड़ इडरिया 10. रामदास वीरभान मकवाना 11. वीरभान शेखावत 12. आनंददेव गहलोत 13. वरजोग चावड़ा 14. मानकदेव संकलेचा 15. शम्भूदास डाबी 16. इन्द्रराज #राठौड़ (राखेचा) 17. रणमल चौहान 18. बिजलदेव बारड 19. जयदास खींची 20. पृथ्वीराज #तंवर 21. सुयोधन #बडगुजर 22. ईश्वर दास #दहिया 23. गोलियों राव 24. बृजभान सिसोदिया 15. राजसिंह भाटी 26. हरदत्त टाक 27. रणमल परिहार 28. अभयराज सांखला 29. भगवान दास झाला 30. गोहिल दूदा 31. गोकुल राय देवड़ा 32. गजेन्द्र गौड़ 33. मंडलीक चुंडावत 34. हितपात बाघेला 35. अमृत कनेरिया गहलोत 36. मोहन सिंह भाटी 37. दलवीर राठौड़ 38. मोहन सिंह (इंदा) प्रतिहार 39. प्रभात सिंह सिंधु राठौड़ 40. सुरसिंह (सूर्यमल्ल सोलंकी) 41. उम्मेदसिंह तंवर 42. हेमसिंह कच्छवाहा 43. गंगदेव गोहिल 44. दुल्हसिंह टांक 45. गोपालराव परिहार 46. मूलसिंह गहलोत 47. पन्नेसिंह राठौड़ (राखेचा) 48. अमराव मकवाना 49. मुलराज चावड़ा 50. मूलराज भाटी 51. पन्नेसिंह डाबी 52. नागराज सिंह परमार
जीवनयापन के लिए उन्हें कृषि और सिलाई जैसे अहिंसक कार्यों की ओर प्रवृत्त किया।
इन्हीं से बना समाज आज पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज के नाम से जाना जाता है।
कृषि और सिलाई के कारण पीपा क्षत्रिय राजपूतो को दरजी शब्द से संबोधन किया जाने लगा, दरजी एक फारसी भाषा का मुस्लिम थोपा शब्द था, जो पीपा क्षत्रिय राजपूतो की गरिमा को कमतर करने के लिए साजिस के तहत थोपा गया हैं ।
'''📍 8. समाज की विशेषताएँ'''
यह पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज आज भारत के अनेक राज्यों जैसे राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली, पंजाब, कर्नाटक, बिहार, झारखंड, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और उत्तराखंड में सम्मान के साथ स्थापित है। इसके साथ ही यह समाज कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और कुवैत जैसे देशों में भी प्रवास कर रहा है, जहाँ यह लोग बड़े व्यवसाय, व्यापार और सेवाओं में ईमानदारी, निष्ठा और गौरव से कार्य कर रहे हैं।
जोधपुरी कोट के सृजनकर्ता और राजस्थानी परिधान की गरिमा को पुनर्जीवित करने में पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज की भूमिका प्रेरणादायक रही है। यह समाज पारंपरिक पोशाकों, विशेष रूप से 'जोधपुरी कोट', 'राजपूताना साफा' और 'सिंह उपाधि' को आत्मगौरव और पहचान का प्रतीक मानकर सामाजिक आयोजनों, विवाहों और सार्वजनिक मंचों पर उन्हें प्रतिष्ठा दिला रहा है।
मुख्य पहचान: अहिंसक राजपूत, शुद्ध रक्त क्षत्रिय, मांस-मदिरा से दूर, भक्ति मार्गी।
समाज द्वारा आज भी चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को पीपा जयंती बड़े आयोजन से मनाई जाती है।
'''🧾 9. इतिहासकारों द्वारा उल्लेख'''
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा और मुहणोत नैणसी ने भी राव प्रताप सिंह/संत पीपा का वर्णन किया है।
संत शिरोमणि पीपा जी महाराज (13वीं सदी – 14वीं सदी), एक महान संत, सिद्ध योगी, क्षत्रिय राजा और भारतीय युद्ध नीति के अप्रतिम रणनीतिकार थे। उन्हें भारत में छापामार युद्ध (Guerrilla Warfare) की नींव रखने वाले पहले सैन्य विचारक एवं व्यवहारकर्ता के रूप में जाना जाता है। उन्होंने धर्म और मातृभूमि की रक्षा के लिए पारंपरिक युद्ध पद्धतियों से हटकर छापामार शैली का विकास किया, जो आगे चलकर महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे महायोद्धाओं की रणनीतियों की आधारशिला बनी।
'''⚔️ छापामार युद्ध: एक क्रांतिकारी रणनीति'''
संत पीपा जी छापामार युद्धकला के जनक और आदिप्रवर्तक थे, छापामार युद्ध उस समय भारत की सैन्य परंपरा में एक नया अध्याय था। संत पीपा जी ने सीमित संसाधनों के साथ बड़े शत्रु दलों से युद्ध जीतने की रणनीति प्रस्तुत की, जिसमें छिपकर प्रहार करना, किले नहीं जंगल को शरण बनाना, आक्रमण कर तुरंत पीछे हट जाना, और शत्रु की रसद व्यवस्था को ध्वस्त करना प्रमुख था।
इस युद्ध शैली ने शस्त्रबल से अधिक नीतिबल और धैर्य को महत्व दिया। संत पीपा जी की यह युद्धशैली आगे चलकर "गुरिल्ला युद्ध" के नाम से प्रसिद्ध हुई।
'''🛡️ जीवन के प्रमुख युद्ध और योगदान'''
संत पीपा जी ने अपने जीवन में तीन प्रमुख युद्धों का नेतृत्व किया जिनमें उन्होंने बाहरी आक्रमणकारियों के विरुद्ध छापामार पद्धति का उपयोग किया। उनके नेतृत्व में एक विशेष क्षत्रिय संगठन बना, जिसने आध्यात्मिक साधना के साथ राष्ट्र रक्षा को जीवन लक्ष्य बनाया।
'''माता सहचरी सीता माता'''
👑 52 क्षत्रिय राजाओं का दीक्षण
संत पीपा जी से प्रभावित होकर 52 क्षत्रिय राजाओं ने उनके चरणों में दीक्षा ग्रहण की। उन्होंने इन राजाओं को धर्मशक्ति, युद्धशक्ति और रणनीति का संगम सिखाया। इन 52 कुलों की संताने आज पीपा क्षत्रिय राजपूत के रूप में जानी जाती हैं।
'''
🏹 परंपरा का विस्तार: महाराणा सांगा से छत्रपति शिवाजी महाराज तक'''
महाराणा सांगा ने संत पीपा जी की युद्धनीति को अपनाकर मुगलों के विरुद्ध संघर्ष किया।
महाराणा उदयसिंह किवदंतियों के अनुसार, महाराणा उदयसिंह की बाल्यावस्था में पीपा क्षत्रिय योद्धाओं ने मां पन्नाधाय के साथ मिलकर उनकी प्राणरक्षा की और गुप्त स्थानों पर छिपाकर सुरक्षा प्रदान की।
महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी में इसी छापामार नीति से मुगलों को चुनौती दी।
छत्रपति शिवाजी महाराज, जिनके बारे में जनश्रुतियों में यह विश्वास है कि वे उन्हीं 52 क्षत्रिय कुलों में से एक के वंशज थे, ने इस छापामार रणनीति को चरम पर पहुँचाया और इसे और अधिक संगठित स्वरूप दिया।
छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराजा बृजभान सिसोदिया के वंशज थे, जो मेवाड़ के सिसोदिया पीपा क्षत्रिय राजपूत और शुद्ध क्षत्रिय राजपूत परंपरा से थे।
'''📜 ऐतिहासिक संकेत और वंश परंपरा'''
इतिहास में कई जनश्रुतियाँ, लोककथाएँ और परंपरागत राजपूत वंशावलियाँ इस बात की पुष्टि करती हैं कि शिवाजी महाराज का मूल वंश उन्हीं 52 दीक्षित राजपूतों में से था। इन वंशों की रेखा संत पीपा जी तक पहुँचती है, जो कि एक शुद्ध रक्त क्षत्रिय राजपूत राजा थे।
'''⚔️ छापामार युद्ध कौशल के नायाब नमूने: राव प्रताप सिंह द्वारा लड़ी गई तीन गौरवशाली युद्धगाथाएँ'''
संत पीपा जी महाराज द्वारा विकसित छापामार युद्ध नीति केवल एक रणकौशल नहीं, बल्कि एक राष्ट्र-संरक्षक विचारधारा थी। इस नीति को राव प्रताप सिंह चौहान जैसे वीर क्षत्रिय योद्धाओं ने यथार्थ में उतारकर भारतभूमि की रक्षा की। उन्होंने तीन ऐसे युद्ध लड़े जो छापामार युद्ध कौशल के नायाब उदाहरण बनकर इतिहास में अमर हो गए।
'''
'''⚔️ 1. गागरोण का युद्ध''''''
मालवा की यवन सेना ने जब गागरोण दुर्ग पर आक्रमण किया, तब उसका नेतृत्व मलिक सरावतदार और फिरोज खां जैसे सेनानायक कर रहे थे।
लेकिन राजा प्रताप सिंह चौहान ने बिना किसी सीधी भिड़ंत के, छापामार पद्धति से उनकी सेना पर पीछे से घातक हमला किया।
उनकी शेर-सी दहाड़ और रणनीतिक कौशल से घबराकर यवन सेना को जान बचाकर भागना पड़ा, और गागरोण की भूमि पर फिर से स्वाभिमान का झंडा लहराया।
''''''⚔️ 2. टोडाराय का युद्ध''''''
जब फिरोजशाह तुगलक ने टोडा पर हमला किया और लल्लन पठान के दबाव में राजा डूंगरसिंह की सेना को समर्पण के कगार पर पहुँचा दिया, तब यह संकट चित्तौड़ के राणा रायमल सिंह तक पहुँचा।
एक युद्ध बैठक में गागरोण के सेनापति ने राव प्रताप सिंह का उल्लेख किया।
राणा रायमल ने तुरंत सहायता हेतु गागरोण संदेश भेजा।
राव प्रताप सिंह ने छापामार शैली में आक्रमण करते हुए लल्लन पठान की सेना को चीरकर रख दिया और स्वयं लल्लन पठान का अंत कर दिया।
क्षत्रिय रक्त, सिंह के सम।शौर्य हमारा, रण प्रचंडतम।। गौ, गीता, गढ़, गुरुदेव। क्षत्रिय धर्म हमारा देव।।
'''🔰 पीपा क्षत्रिय राजपूत वंश के लिए आधिकारिक प्रतीक चिन्ह और घोष वाक्य 🔰'''
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज आधिकारिक प्रतिक चिन्ह
'''🔷 पीपा क्षत्रिय राजपूत वंश के लिए प्रतीक चिन्ह की आवश्यकता क्यों?'''
हर समाज की पहचान उसके इतिहास, संस्कृति और मूल्यों से होती है। एक सशक्त प्रतीक चिन्ह और घोष वाक्य:
सामाजिक एकता को मजबूत करता है।
इतिहास और परंपराओं की स्मृति को जागृत करता है।
राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक शक्ति को सशक्त बनाता है।
नई पीढ़ी में आत्मगौरव, जागरूकता और प्रेरणा जगाता है।
'''🛡️ प्रतीक चिन्ह के प्रमुख घटक और उनका अर्थ:'''
'''1. 🔆 केंद्र में संत पीपा जी की छवि:'''
आध्यात्मिकता, धर्म, समरसता और मार्गदर्शन के प्रतीक।
बल और भक्ति का संगम, क्षत्रिय धर्म की सर्वोच्च व्याख्या।
'''2. 🦁 दो शेर – एक दहाड़ता, एक शांत:'''
दहाड़ता शेर – अन्याय के विरुद्ध संघर्ष का प्रतीक।
शांत शेर – संयम, न्यायप्रियता और संतुलित शक्ति का प्रतिरूप।
'''3. 🦅 एक बाज (गरुड़ दृष्टि के प्रतीक रूप में):'''
दूरदृष्टि, स्वतंत्रता, और लक्ष्य-सिद्धि की प्रतीक छवि।
समाज के नेतृत्व और सतर्कता का प्रतिनिधित्व।
'''4. ⚔️ दो तलवारें:'''
धर्म और न्याय की रक्षा हेतु शक्ति का प्रतीक।
वीरता, आत्म-सम्मान और मर्यादा की रक्षा का संदेश।
🗨️पीपा क्षत्रिय राजपूत वंश के लिए आधिकारिक घोष वाक्य (Motto):
'''।। वयं क्षत्रियाः, वयं धर्मरक्षकाः, वयं रणभूमेः सिंहाः, वयं पीपदासाः।।
अर्थात् –'''
हम क्षत्रिय हैं, हम धर्म के रक्षक हैं, हम रणभूमि के सिंह हैं, हम संत पीपा के अनुयायी हैं।
🌟 प्रतीक चिन्ह और घोषवाक्य का सामूहिक प्रभाव:
आध्यात्मिक और ऐतिहासिक स्मरण।
नवपीढ़ी को संस्कृति और संघर्ष से जोड़ना।
सामाजिक एकता और संगठनात्मक शक्ति।
धर्म, नीति, परंपरा और आत्मगौरव का संतुलन।
📜 पीपा वंशी क्षत्रिय राजपूत: 1891 की The Castes of Marwar 1891 -ब्रिटिश जनगणना में उल्लेख
(Reference from 1891 Census Report compiled by Denzil Charles Jelf Ibbetson in the castes of marwar 1891)
ब्रिटिश भारत के समाजविज्ञानी, इतिहासकार और प्रशासक सर डेंजिल चार्ल्स जेल्फ इब्बेटसन द्वारा संकलित 1891 की The Castes of Marwar जनगणना रिपोर्ट में पीपा वंशी क्षत्रिय राजपूतों का विशिष्ट और ऐतिहासिक महत्त्व के साथ उल्लेख किया गया है। यह रिपोर्ट आज भी Archive.org जैसे प्रतिष्ठित स्रोतों पर उपलब्ध है।
🔍 सामाजिक व्याख्या:
इब्बेटसन ने समाज की जाति और पेशा (caste vs occupation) को स्पष्ट रूप से अलग-अलग संदर्भित करते हुए लिखा:
"Regard the term Darji as purely occupational." (दरज़ी शब्द को केवल एक पेशा माना जाए।)
➤ अर्थ और विश्लेषण:
इस कथन से यह सिद्ध होता है कि 'Darji' कोई जन्म से जाति नहीं, बल्कि एक कौशल आधारित कार्य है।
इसलिए जो लोग सिलाई, कढ़ाई या वस्त्र निर्माण के कार्य से जुड़े थे, उन्हें केवल उनके कार्य के कारण जातिगत ‘दरजी’ कहना अवैज्ञानिक और सामाजिक रूप से अनुचित है।
Encyclopedia of Indian Surnames में इतिहासकार डॉ. शिबानी रॉय और एस. एच. रिज़वी ने 'Ajarani' शीर्षक के अंतर्गत स्पष्ट लिखा है:
पिपावंशी राजपूत वंशज हैं
यह उल्लेख और भी दृढ़ता से प्रमाणित करता है कि पिपावंशी वंशज विशुद्ध राजपूत रक्तवंशीय हैं।
अर्थात् – “दर्ज़ी एक शुद्ध रूप से व्यवसायिक शब्द है, इसका किसी जाति, धर्म या वंश से कोई लेना-देना नहीं है। अतः पिपावंशी क्षत्रिय राजपूतों को "दर्ज़ी" कहना ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से असत्य व अपमानजनक है।
🧵 पीपा जी और दर्जी पेशे का संबंध:
इब्बेटसन आगे लिखते हैं:
"to have induced his Rajput servants and followers to adopt the profession of tailors." (संत पीपा जी ने अपने राजपूत सेवकों और अनुयायियों को दर्ज़ी का कार्य अपनाने के लिए प्रेरित किया।)
➤ तथ्यात्मक विश्लेषण:
यह कथन स्पष्ट करता है कि संत पीपा जी के अनुयायी राजपूत वंशज थे, जिन्होंने धर्म प्रचार, साधना, और आत्मनिर्भरता के उद्देश्य से दर्ज़ी कार्य को अपनाया।
यह कार्य धार्मिक सेवा, यज्ञोपवीत, झंडी, ध्वज निर्माण और समाजसेवा आधारित वस्त्र-निर्माण जैसे परिप्रेक्ष्य में था।
इससे उनकी राजपूत जातीय पहचान नहीं बदलती; यह केवल उनकी रोज़गार गतिविधि का हिस्सा था।
⚔️ सामाजिक पहचान का निष्कर्ष:
इस ऐतिहासिक संदर्भ से निम्न निष्कर्ष स्पष्ट होते हैं:
"Darji" शब्द जाति नहीं, केवल पेशा है।
पीपा वंशी क्षत्रिय राजपूतों ने संत परंपरा, तपस्या और आत्मनिर्भरता के आदर्शों के तहत यह कार्य अपनाया।
उन्हें जन्मजात राजपूत माना गया है, और आज भी उनकी वंश परंपरा, गोत्र, रीतिरिवाज, शौर्यगाथा और क्षत्रिय परंपरा अटूट है।
उन्हें "दरजी जाति" कहकर संबोधित करना ऐतिहासिक दृष्टि से असत्य, अपमानजनक और तथ्यहीन है।
🔰 Haifa युद्ध 1918 में पीपा क्षत्रिय राजपूतों का योगदान
श्री दलपत सिंह जी
श्री दलपत सिंह जी शेखावत हाइफा हीरो
Haifa युद्ध (1918) में पीपा क्षत्रिय राठौड़ राजपूतों का योगदान किवदंतियों एवं स्थानीय परंपराओं के अनुसार अत्यंत महत्वपूर्ण था। हाइफा की लड़ाई में, जोधपुर लांसर्स के मेजर दलपत सिंह शेखावत शहीद हो गए थे, लेकिन उनकी बहादुरी ने 400 साल पुराने तुर्की शासन का अंत कर दिया। इस युद्ध को "हाइफा का युद्ध" के नाम से भी जाना जाता है और हर साल 23 सितंबर को हाइफा दिवस के रूप में मनाया जाता है।
लेकिन यह बहुत कम ज्ञात तथ्य है कि उनके नेतृत्व में भारी संख्या में पीपा वंशी क्षत्रिय राठौड़ राजपूत भी सम्मिलित थे।
इन योद्धाओं की सबसे बड़ी विशेषता थी — छापामार युद्ध कौशल (guerrilla warfare), जो उन्हें पीढ़ियों से उनके प्रशिक्षण और सीमावर्ती संघर्षों से प्राप्त हुआ था। दलपत सिंह शेखावत इस सामूहिक शक्ति और रणनीति से भलीभांति परिचित थे। उन्होंने जानबूझकर उन रणबांकुरों को आगे रखा, जिनमें वह जज्बा था — जो केवल राजपूताना मरुस्थल की धूल में पला-बढ़ा योद्धा ही रख सकता है।
यह वीर योद्धा वर्ग छापामार युद्धशैली (guerrilla warfare) में प्रशिक्षित था, जिसे उन्होंने पीढ़ियों से सीमावर्ती संघर्षों और परंपरा से सीखा था।
उन्होंने जोधपुर लांसर्स की अगुवाई में पराक्रम दिखाया, परंतु उनका योगदान अक्सर गुमनाम या अप्रकाशित रहा।
कहा जाता है कि "पीपा वंशी जहाँ लड़ते हैं, वहाँ दुश्मन की तोपें भी मौन हो जाती हैं।"
ऐसी कई जनश्रुतियाँ और कहावतें आज भी मारवाड़ व राजपुताना में पीढ़ियों तक इनकी वीरता की गाथा सुनाती हैं।
हालाँकि आधिकारिक इतिहास में इनका उल्लेख सीमित है, परन्तु सामाजिक स्मृति में यह बलिदान आज भी जीवित है
🔰 पीपा क्षत्रिय राजपूत: आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़ा, राजनीतिक रूप से उपेक्षित वर्ग
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज, संत शिरोमणि पीपा जी महाराज की परंपरा में अहिंसा, परिश्रम और आत्मगौरव को जीवन मूल्य मानकर चलने वाला एक ऐसा क्षत्रिय समाज है जिसने समय के साथ धर्मयुद्ध से लेकर श्रमशील जीवन तक का उत्क्रांतिपथ अपनाया।
🌾 आजीविका में श्रमशीलता – परंपरागत क्षत्रिय से मेहनतकश समाज तक
इतिहास में युद्ध कौशल और छापामार रणशैली के लिए विख्यात इस समाज ने शांति काल में कृषि, सिलाई और श्रमिक कार्यों को अपनाया। यह उनकी आत्मनिर्भरता, ईमानदारी और धर्मनिष्ठा का प्रमाण है।
परंतु उत्पादनशील और मेहनतकश कार्यों से होने वाली सीमित आय ने समाज को आर्थिक रूप से अत्यंत कमजोर बना दिया है।
⚖️ OBC वर्ग में वर्तमान स्थिति और विशेष उपवर्ग की आवश्यकता
हालांकि पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज को OBC वर्ग में स्थान दिया गया है, परंतु वास्तविक लाभों तक पहुँच अत्यंत सीमित है। इसके कारण हैं:
💠 अत्यंत कमजोर आर्थिक आधार: अधिकांश परिवार गरीबी रेखा के आसपास या नीचे जीवन यापन करते हैं।
🧑🌾 कृषि एवं श्रमिक कार्यों पर निर्भरता: समाज की अधिकांश आबादी असंगठित क्षेत्र में है, जहाँ कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है।
🗳️ राजनीतिक प्रतिनिधित्व शून्य के बराबर: पंचायत से लेकर संसद तक इस समाज की राजनीतिक भागीदारी नगण्य है।
🏢 सरकारी सेवाओं में नगण्य उपस्थिति: सरकारी नौकरियों में समाज का प्रतिनिधित्व नाममात्र है, जिससे सामाजिक असमानता और गहराई है।
📚 शैक्षणिक अवसरों की कमी: आर्थिक तंगी के कारण उच्च शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं में भागीदारी बहुत कम है।
📝 विशेष पिछड़ा वर्ग (Special Backward Class) में स्थान देने की माँग
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज बार-बार सरकार से यह माँग करता आया है कि उसे OBC के भीतर विशेष उपवर्ग में स्थान दिया जाए ताकि:
सामाजिक न्याय सुनिश्चित हो सके
समान स्तर के वंचित समाजों के साथ प्रतिस्पर्धा का अवसर मिले
शैक्षणिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर सशक्तिकरण हो सके
🔊 निष्कर्ष:
एक समाज जो कभी युद्धभूमि में सिंह की तरह लड़ा,
आज खेत, करघे और श्रम के माध्यम से राष्ट्र निर्माण में लगा है।
परंतु यदि आर्थिक-सामाजिक असमानता दूर नहीं की गई, तो यह परंपरा और प्रतिभा धीरे-धीरे हाशिये पर चली जाएगी।
इसलिए पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज को विशेष पिछड़ा वर्ग में समायोजित करना न्याय, समानता और संविधानिक अधिकारों की सच्ची पूर्ति होगी।
🔥 पीपा क्षत्रिय राजपूतों की घटती जनसंख्या: एक ऐतिहासिक षड्यंत्र और संघर्ष की गाथा
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज, संत शिरोमणि पीपा जी महाराज द्वारा दीक्षित 52 क्षत्रिय राजाओं के वंशज हैं। ये सभी योद्धा छापामार युद्ध शैली के जन्मदाता माने जाते हैं, जिन्होंने इतिहास के कई निर्णायक युद्धों में अद्वितीय वीरता और विजय प्राप्त की।
⚔️ ऐतिहासिक पराक्रम और वीरता
पीपा वंशी क्षत्रिय राजपूतों ने मालवा, दिल्ली सल्तनत, तुगलक, लोधी और मुगलों जैसे कई आक्रांताओं से लड़ाइयाँ लड़ीं।
इन्होंने छापामार युद्ध नीति में ऐसी महारत प्राप्त की थी कि दुश्मन की विशाल सेनाएँ भी इनके सामने विचलित हो जाती थीं।
इनकी रणनीति, साहस और बलिदान ने शत्रुओं को बार-बार परास्त किया।
🧩 सामाजिक-धार्मिक षड्यंत्र और पहचान का हनन
इस महान क्षत्रिय समाज को कमजोर करने हेतु सुनियोजित षड्यंत्र रचे गए:
🔻 "दरजी" और "इद्रिश" जैसे नाम थोपे गए: मुस्लिम शासकों ने चालाकी से सिलाई कार्य करने वाले पीपा क्षत्रिय राजपूतों को “दरजी” और “इद्रिश” जैसे झूठे, पेशागत मुस्लिम शब्दों से जोड़ दिया। उद्देश्य था – उनकी मूल क्षत्रिय पहचान को नष्ट करना और उन्हें सामाजिक रूप से “निम्न” दिखाना।
🧵 काम से जाति निर्धारण की साजिश: संत पीपा जी की परंपरा के अनुसार यह समाज संत सेवा, झंडा-ध्वज निर्माण और साधु वस्त्र सिलाई जैसे धार्मिक कार्यों से जुड़ा। लेकिन इन धार्मिक सेवाओं को जानबूझकर पेशा और फिर जाति बना दिया गया, ताकि समाज को “लड़ाई छोड़ चुके दर्जी” के रूप में प्रचारित किया जा सके।
📖 इतिहास को दबाना और नष्ट करना: ब्रिटिश और मुस्लिम शासन दोनों ने मिलकर पीपा क्षत्रिय राजपूतों के ऐतिहासिक ग्रंथों और लोकगाथाओं को या तो नष्ट किया या कभी दर्ज़ ही नहीं होने दिया। जिससे आने वाली पीढ़ियाँ अपनी वीर परंपरा से अनभिज्ञ रहें।
🧠 मानसिक गुलामी और सामाजिक अपमान: समाज को इतना अपमानित और भ्रमित किया गया कि उनकी आत्मगौरव की भावना को कुचल दिया गया। धीरे-धीरे कुछ लोग पहचान से दूर होते गए, कुछ मुखर विरोध के कारण युद्धों में मारे गए, और कुछ मूल क्षत्रियता की ओर लौटते हुए समाज से बाहर कर दिए गए।
📉 घटती जनसंख्या के मुख्य कारण:
लगातार युद्धों में वीरगति: बड़ी संख्या में योद्धा युद्धों में बलिदान हुए, जिससे पीढ़ियाँ समाप्त हो गईं।
आत्मगौरव की रक्षा में सामाजिक बहिष्कार: जो मूल क्षत्रिय पहचान की ओर लौटे, उन्हें झूठी जातिगत व्यवस्था से बाहर कर दिया गया।
सामाजिक और राजनीतिक हाशिए पर डालना: शासन और व्यवस्था में प्रतिनिधित्व ना मिल पाने के कारण शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक पिछड़ापन बढ़ता गया।
कई लोगों की पहचान जबरन बदल दी गई या उन्हें गुमनाम बना दिया गया।
🔊 आज की स्थिति:
आज पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज आर्थिक रूप से अत्यंत कमजोर, राजनीतिक रूप से उपेक्षित, और आंकड़ों में अदृश्य होता जा रहा है।
इनकी जनसंख्या लगातार घट रही है क्योंकि:
समाज के कई हिस्से अब भी अपनी मूल पहचान की खोज में हैं,
उन्हें आज भी गलत जातिगत पहचान से जोड़ा जा रहा है,
उनका गौरवशाली इतिहास आज भी पढ़ाया नहीं जाता।
✊ निष्कर्ष:
जिस समाज ने कभी मुगलों को छापामार नीति से नाकों चने चबवाए,
आज वह अपने अस्तित्व और सम्मान के लिए लड़ रहा है।
पीपा क्षत्रिय राजपूतों की घटती जनसंख्या केवल एक आँकड़ा नहीं,
बल्कि यह भारत के इतिहास में की गई सांस्कृतिक हत्या का जीवित प्रमाण है।
अब समय है कि इतिहास को पुनः लिखा जाए,
सच्चाई को पुनः सामने लाया जाए,
और इस वीर समाज को उसका गौरव, स्थान और अधिकार दिया जाए।
🔰 1. वीर पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज और उनकी छापामार परंपरा
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज, जो छापामार युद्ध शैली में दक्ष, निडर और कई निर्णायक युद्धों में अग्रणी भूमिका निभाने वाला एक वीर क्षत्रिय समुदाय रहा है, को ऐतिहासिक रूप से योजनाबद्ध षड्यंत्रों द्वारा कमजोर करने का प्रयास किया गया। यह समाज भारत की सीमांत युद्ध परंपराओं में एक प्रमुख स्तंभ रहा, जिसने धर्म, राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिए असंख्य युद्धों में भाग लिया।
🧩 2. मुस्लिम शासनकाल में पहचान को कुचलने की साजिश
मुस्लिम आक्रमणकारियों ने पहले इस समाज को “दर्जी” और “इद्रिश” जैसे पेशागत मुस्लिम शब्दों से जोड़ने की चाल चली, जिससे उनकी मूल क्षत्रिय पहचान को धूमिल किया जा सके। इसके बाद “डरपोक” या “मूर्ख” जैसी छवियाँ आरोपित करने के लिए जानबूझकर झूठी कहानियाँ गढ़ी गईं, जबकि सच्चाई यह है कि यह समाज पीढ़ियों से सीमांत संघर्षों में सबसे आगे रहा है।
🏛️ 3. ब्रिटिश शासन द्वारा ऐतिहासिक और मानसिक दमन
इसी मनोवैज्ञानिक रणनीति को आगे बढ़ाते हुए अंग्रेज़ों ने भी पीपा क्षत्रिय राजपूतों की वीरता और बलिदानों को इतिहास में स्थान नहीं दिया। जैसे उन्होंने सिखों के लिए भी उपहासजनक कहावतें गढ़ीं, उसी तरह इस समाज के बारे में भी अपमानजनक जनश्रुतियाँ फैलाईं। उन्होंने मौखिक परंपराओं को लिपिबद्ध नहीं होने दिया, जिससे इतिहास धुंधला हो गया। इस मानसिक और सांस्कृतिक हमले का परिणाम यह हुआ कि यह क्षत्रिय योद्धा समाज धीरे-धीरे आत्मगौरव से दूर होता चला गया और आज भी अपने गौरवपूर्ण इतिहास की पुनर्स्थापना के लिए संघर्षरत है।
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज, जो छापामार युद्ध शैली में दक्ष, निडर और कई निर्णायक युद्धों में अग्रणी भूमिका निभाने वाला एक वीर क्षत्रिय समुदाय रहा है, को ऐतिहासिक रूप से योजनाबद्ध षड्यंत्रों द्वारा कमजोर करने का प्रयास किया गया। मुस्लिम आक्रमणकारियों ने पहले इस समाज को “दर्जी” और “इद्रिश” जैसे पेशागत मुस्लिम शब्दों से जोड़कर उनकी मूल क्षत्रिय पहचान को धूमिल करने की कोशिश की। इसके बाद समाज पर “डरपोक”, “मूर्ख” या “रणभूमि से भागने वाली जाति” जैसी छवि आरोपित करने के लिए जानबूझकर झूठी कहानियाँ गढ़ी गईं, जबकि वास्तविकता इसके ठीक विपरीत थी – यह समाज सदियों तक सीमांत संघर्षों में अग्रणी रहा। यही मनोवैज्ञानिक रणनीति बाद में अंग्रेज़ों ने भी अपनाई, जैसे उन्होंने सिखों को “मूर्ख और नासमझ” दर्शाने वाली कहावतें और कहानियाँ गढ़ी थीं, ठीक उसी तरह की अपमानजनक शैली पीपा क्षत्रिय राजपूतों पर भी लागू की गई। अंग्रेजों ने न केवल इनके गौरवशाली युद्धों और बलिदानों को इतिहास में स्थान नहीं दिया, बल्कि कई मौखिक परंपराओं को लिपिबद्ध करने से भी रोका गया। इस संयुक्त मानसिक और सांस्कृतिक आक्रमण का परिणाम यह हुआ कि यह योद्धा समाज धीरे-धीरे आत्मगौरव से दूर हुआ और सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से हाशिये पर चला गया। आज भी पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज इन ऐतिहासिक अन्यायों के विरुद्ध अपनी पहचान, इतिहास और सम्मान की पुनर्स्थापना के लिए संघर्ष कर रहा है।
श्री पीपा चेतना ई-पत्रिका
श्री पीपा चेतना – एक नयी शुरुआत, आत्मगौरव की दिशा में
परिचय:
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज अब त्रिवेणी गति से अपने राजपुताना गौरव को पुनः जाग्रत करने हेतु प्रयत्नशील है। इस पुनर्जागरण के क्रम में समाज के प्रतिभावान एवं प्रबुद्ध जनों द्वारा समाज के अधिकृत Logo एवं Motto का निर्माण किया गया है, जो नई चेतना, उत्साह तथा संगठन की भावना को दृढ़ता प्रदान करता है।
लक्ष्य:
समाज की सांस्कृतिक विरासत, वीरता, आत्मगौरव तथा सामाजिक एकता को जीवंत बनाए रखने हेतु जनचेतना का विस्तार किया जाएगा। इसी उद्देश्य से "श्री पीपा चेतना" नामक मासिक ई-पत्रिका की शुरुआत की जा रही है।
पत्रिका का स्वरूप:
नाम: श्री पीपा चेतना
प्रकार: मासिक ई-पत्रिका
पृष्ठ संख्या: कुल 21 पृष्ठ
माध्यम: डिजिटल (PDF, वेबसाइट, व्हाट्सएप/सोशल मीडिया वितरण)
मूल्य: पूर्णतः निःशुल्क
संचालन: जनसहयोग से संचालित
प्रकाशन का उद्देश्य:
समाज के गौरवशाली इतिहास, परंपराओं, वीर पुरखों और संत शिरोमणि श्री पीपा जी की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार।
युवाओं में आत्मबल, संगठनबद्धता और नेतृत्व की चेतना जागृत करना।
समाज के भीतर सकारात्मक संवाद, पहचान और वैचारिक दिशा को स्थापित करना।
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज के कार्यक्रम, उपलब्धियाँ एवं प्रेरणादायक व्यक्तित्वों को स्थान देना।
संगठन को मजबूत करने हेतु सुझाव, लेख, घोषणाएँ और अभियान विवरण प्रकाशित करना।
विशेषताएँ:
सम्पूर्ण समाज के लिए निःशुल्क उपलब्ध।
डिजिटल फॉर्मेट में सभी के लिए पहुँच योग्य।
जन-सहयोग के आधार पर लेख, विचार, कविता, सामाजिक खबरें आमंत्रित।
प्रत्येक अंक में “श्री पीपा वाणी”, “वीरगाथा”, “समाज गौरव”, “युवा दिशा”, “राजनीतिक व आर्थिक दृष्टिकोण”, “विवाह योग्य परिचय” जैसे विशेष स्तंभ।
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हिन्दी विश्व की प्रमुख भाषा है,यह 50 करोड़ लोगों की भाषा हैं। हिन्दी भाषा, भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। हिन्दी के अधिकतम शब्द संस्कृत , अरबी और फारसी भाषा के शब्दों से लिए गए हैं। हिन्दी को देवनागरी लिपि में लिखा जाता है।
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==अन्य==
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==यह भी देखें==
* [[w:हिन्दी|हिन्दी भाषा]]
<ref>{{cite web |last1=hindi sahayak |first1=yogi |title=hindi sahayak |website=https://hindisahayak.in/}}</ref>==बाहरी कड़ी==
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Pipa Kshatriya Rajput
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'''🛡️ संत पीपा जी / राजा राव प्रताप सिंह चौहान – बिंदुवार संक्षिप्त जीवन परिचय
'''
महाराजाधिराज प्रताप सिंह खींची.
'''👑 1. जन्म एवं वंश'''
संत पीपा जी का जन्म वि.सं. 1380 (12 अप्रैल 1323) को गढ़ गागरोण (झालावाड़, राजस्थान) के शासक परिवार में हुआ।
मूल नाम: प्रताप सिंह खींची.
पिता: महाराजा कड़वा राव चौहान
माता: महारानी सफला देवी
वंश: सूर्यवंशी खींची चौहान राजपूत
देवी: मां जालपा देवी की उपासना करते थे।
'''⚔️ 2. प्रारंभिक जीवन और वीरता'''
माहराज प्रताप सिंह खींची, बचपन से ही शूरवीर योद्धा थे।
वे धर्मनिष्ठ, प्रजावत्सल और राजनीतिज्ञ भी थे।
गागरोण युद्ध और टोडाराय युद्ध में विदेशी आक्रांताओं को पराजित किया।
छापामार युद्ध कला के जनक और प्रर्वतक कौशल के कारण उनका सम्मान राजपूत दरबारों में बढ़ा।
'''💍 3. विवाह संबंध'''
राजा डूंगरसिंह की पुत्री स्मृति बाई सोलंकी (बाद में माता सीता सहचरी) से विवाह हुआ।
यह विवाह राणा रायमल सिसोदिया के आग्रह पर हुआ।
विवाह के समय राव प्रताप सिंह की पहले से 11 रानियाँ थीं।
राव प्रताप सिंह जी खिंची के बारह रानियाँ, जिसका वर्णन इस प्रकार मिलता है:- १. गुजरात भावनगर नरेश श्री सेन्द्रकजी #गोहिल कि पुत्री श्रीमति धीरबाईजी २. गुजरात पाटन नरेश श्री रिणधवलजी #चावड़ा कि पुत्री श्रीमति अंतरबाईजी ३.गुजरात गिरनार नरेश श्री भुहड़सिंहजी #चुड़ासमा कि पुत्री श्रीमति भगवतीबाईजी ४.मध्यप्रदेश बांधनगढ़ नरेश श्री वीरमदेवजी #वाघेला कि पुत्री श्रीमति #रमाबाईजी ५.मध्यप्रदेश पट्टन नरेश श्री भीजड़सिंहजी #सोलंकी कि पुत्री श्रीमति #विजयमणबाईजी ६.मालवा कनवरगढ़ नरेश श्री यशोधरसिंहजी झाला कि पुत्री श्रीमति #रमाकंवरबाईजी ७. गुजरात भुज नरेश श्री विभुसिंहजी #जाड़ेजा कि पुत्री श्रीमति #लिछमाबाईजी ८. गुजरात माणसा नरेश श्री कनकसेनजी #चावड़ा कि पुत्री श्रीमति #विरजाभानुबाइजी ९. गुजरात हलवद नरेश श्री वीरभद्र सिंहजी #झाला कि पुत्री श्रीमति #सिंगाबाईजी १०. राजस्थान करेगांव नरेश श्री जोजलदेवजी #दहिया कि पुत्री श्रीमति #कंचनबाईजी ११. राजपूताना कनहरीगढ़ नरेश श्री कनकराजसिंहजी वाघेला श्रीमति #सुशीलाबाईजी १२. राजपूताना टोडारायसिंह नरेश श्री डूंगरसिंहजी सोलंकी श्रीमति #स्मृतिबाईजी
'''🕉️ 4. वैराग्य और संत जीवन'''
शिकार के दौरान गर्भवती हिरणी की मृत्यु से जीवन में करुणा जागी।
स्वप्न में मां भवानी ने काशी जाकर गुरु रामानंद जी से दीक्षा लेने का आदेश दिया।
रामानंद जी ने बाद में गागरोण आकर राव प्रताप सिंह को अपना शिष्य बनाया।
वि.सं. 1414 को राजपाट त्याग कर भतीजे कल्याण राव को राजा बनाया।
'''
संत शिरोमणि पीपाजी महाराज'''
'''🧘 5. संत पीपा नाम की उत्पत्ति'''
गुरु रामानंद जी ने कहा – "तूं राम नाम का रस पी और औरों को पिला"
इसी कारण उन्हें संत पीपा कहा जाने लगा।
स्मृति बाई उनके साथ सन्यास में गईं और माता सीता सहचरी के नाम से जानी गईं।
'''🙏 6. सिद्धांत और समाज सुधार'''
संत पीपा जी ने हिंसा, मांसाहार, मदिरा और जातिवाद का विरोध किया।
उन्होंने वर्ण व्यवस्था के सिद्धांत को धार्मिक दृष्टिकोण से महत्व दिया।
राजाओं को राजपाट छोड़कर अहिंसा और भक्ति मार्ग अपनाने की प्रेरणा दी।
'''🚜 7. पीपा राजपूत समाज की स्थापना'''
संत पीपा जी ने 52 राजाओं व राजकुमारों को दीक्षा देकर शिष्य बनाया।
उन 52 राजपूतो राजाओं व राजकुमारों जिनको दीक्षित किया गया का जिक्र, इस प्रकार मिलता है:- 1. बेरिसाल #सोलंकी 2. हरिदास #कच्छवाह 3. दामोदर दास पंवार 4. अभयराज यादव 5. गोवर्धन सिंह पंवार 6. सोमपाल परिहार 7. खेमराज #चौहान 8. भीमराज गौहिल 9. हरबद राठौड़ इडरिया 10. रामदास वीरभान मकवाना 11. वीरभान शेखावत 12. आनंददेव गहलोत 13. वरजोग चावड़ा 14. मानकदेव संकलेचा 15. शम्भूदास डाबी 16. इन्द्रराज #राठौड़ (राखेचा) 17. रणमल चौहान 18. बिजलदेव बारड 19. जयदास खींची 20. पृथ्वीराज #तंवर 21. सुयोधन #बडगुजर 22. ईश्वर दास #दहिया 23. गोलियों राव 24. बृजभान सिसोदिया 15. राजसिंह भाटी 26. हरदत्त टाक 27. रणमल परिहार 28. अभयराज सांखला 29. भगवान दास झाला 30. गोहिल दूदा 31. गोकुल राय देवड़ा 32. गजेन्द्र गौड़ 33. मंडलीक चुंडावत 34. हितपात बाघेला 35. अमृत कनेरिया गहलोत 36. मोहन सिंह भाटी 37. दलवीर राठौड़ 38. मोहन सिंह (इंदा) प्रतिहार 39. प्रभात सिंह सिंधु राठौड़ 40. सुरसिंह (सूर्यमल्ल सोलंकी) 41. उम्मेदसिंह तंवर 42. हेमसिंह कच्छवाहा 43. गंगदेव गोहिल 44. दुल्हसिंह टांक 45. गोपालराव परिहार 46. मूलसिंह गहलोत 47. पन्नेसिंह राठौड़ (राखेचा) 48. अमराव मकवाना 49. मुलराज चावड़ा 50. मूलराज भाटी 51. पन्नेसिंह डाबी 52. नागराज सिंह परमार
जीवनयापन के लिए उन्हें कृषि और सिलाई जैसे अहिंसक कार्यों की ओर प्रवृत्त किया।
इन्हीं से बना समाज आज पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज के नाम से जाना जाता है।
कृषि और सिलाई के कारण पीपा क्षत्रिय राजपूतो को दरजी शब्द से संबोधन किया जाने लगा, दरजी एक फारसी भाषा का मुस्लिम थोपा शब्द था, जो पीपा क्षत्रिय राजपूतो की गरिमा को कमतर करने के लिए साजिस के तहत थोपा गया हैं ।
'''📍 8. समाज की विशेषताएँ'''
यह पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज आज भारत के अनेक राज्यों जैसे राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली, पंजाब, कर्नाटक, बिहार, झारखंड, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और उत्तराखंड में सम्मान के साथ स्थापित है। इसके साथ ही यह समाज कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और कुवैत जैसे देशों में भी प्रवास कर रहा है, जहाँ यह लोग बड़े व्यवसाय, व्यापार और सेवाओं में ईमानदारी, निष्ठा और गौरव से कार्य कर रहे हैं।
जोधपुरी कोट के सृजनकर्ता और राजस्थानी परिधान की गरिमा को पुनर्जीवित करने में पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज की भूमिका प्रेरणादायक रही है। यह समाज पारंपरिक पोशाकों, विशेष रूप से 'जोधपुरी कोट', 'राजपूताना साफा' और 'सिंह उपाधि' को आत्मगौरव और पहचान का प्रतीक मानकर सामाजिक आयोजनों, विवाहों और सार्वजनिक मंचों पर उन्हें प्रतिष्ठा दिला रहा है।
मुख्य पहचान: अहिंसक राजपूत, शुद्ध रक्त क्षत्रिय, मांस-मदिरा से दूर, भक्ति मार्गी।
समाज द्वारा आज भी चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को पीपा जयंती बड़े आयोजन से मनाई जाती है।
'''🧾 9. इतिहासकारों द्वारा उल्लेख'''
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा और मुहणोत नैणसी ने भी राव प्रताप सिंह/संत पीपा का वर्णन किया है।
संत शिरोमणि पीपा जी महाराज (13वीं सदी – 14वीं सदी), एक महान संत, सिद्ध योगी, क्षत्रिय राजा और भारतीय युद्ध नीति के अप्रतिम रणनीतिकार थे। उन्हें भारत में छापामार युद्ध (Guerrilla Warfare) की नींव रखने वाले पहले सैन्य विचारक एवं व्यवहारकर्ता के रूप में जाना जाता है। उन्होंने धर्म और मातृभूमि की रक्षा के लिए पारंपरिक युद्ध पद्धतियों से हटकर छापामार शैली का विकास किया, जो आगे चलकर महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे महायोद्धाओं की रणनीतियों की आधारशिला बनी।
'''⚔️ छापामार युद्ध: एक क्रांतिकारी रणनीति'''
संत पीपा जी छापामार युद्धकला के जनक और आदिप्रवर्तक थे, छापामार युद्ध उस समय भारत की सैन्य परंपरा में एक नया अध्याय था। संत पीपा जी ने सीमित संसाधनों के साथ बड़े शत्रु दलों से युद्ध जीतने की रणनीति प्रस्तुत की, जिसमें छिपकर प्रहार करना, किले नहीं जंगल को शरण बनाना, आक्रमण कर तुरंत पीछे हट जाना, और शत्रु की रसद व्यवस्था को ध्वस्त करना प्रमुख था।
इस युद्ध शैली ने शस्त्रबल से अधिक नीतिबल और धैर्य को महत्व दिया। संत पीपा जी की यह युद्धशैली आगे चलकर "गुरिल्ला युद्ध" के नाम से प्रसिद्ध हुई।
'''🛡️ जीवन के प्रमुख युद्ध और योगदान'''
संत पीपा जी ने अपने जीवन में तीन प्रमुख युद्धों का नेतृत्व किया जिनमें उन्होंने बाहरी आक्रमणकारियों के विरुद्ध छापामार पद्धति का उपयोग किया। उनके नेतृत्व में एक विशेष क्षत्रिय संगठन बना, जिसने आध्यात्मिक साधना के साथ राष्ट्र रक्षा को जीवन लक्ष्य बनाया।
'''माता सहचरी सीता माता'''
👑 52 क्षत्रिय राजाओं का दीक्षण
संत पीपा जी से प्रभावित होकर 52 क्षत्रिय राजाओं ने उनके चरणों में दीक्षा ग्रहण की। उन्होंने इन राजाओं को धर्मशक्ति, युद्धशक्ति और रणनीति का संगम सिखाया। इन 52 कुलों की संताने आज पीपा क्षत्रिय राजपूत के रूप में जानी जाती हैं।
'''
🏹 परंपरा का विस्तार: महाराणा सांगा से छत्रपति शिवाजी महाराज तक'''
महाराणा सांगा ने संत पीपा जी की युद्धनीति को अपनाकर मुगलों के विरुद्ध संघर्ष किया।
महाराणा उदयसिंह किवदंतियों के अनुसार, महाराणा उदयसिंह की बाल्यावस्था में पीपा क्षत्रिय योद्धाओं ने मां पन्नाधाय के साथ मिलकर उनकी प्राणरक्षा की और गुप्त स्थानों पर छिपाकर सुरक्षा प्रदान की।
महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी में इसी छापामार नीति से मुगलों को चुनौती दी।
छत्रपति शिवाजी महाराज, जिनके बारे में जनश्रुतियों में यह विश्वास है कि वे उन्हीं 52 क्षत्रिय कुलों में से एक के वंशज थे, ने इस छापामार रणनीति को चरम पर पहुँचाया और इसे और अधिक संगठित स्वरूप दिया।
छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराजा बृजभान सिसोदिया के वंशज थे, जो मेवाड़ के सिसोदिया पीपा क्षत्रिय राजपूत और शुद्ध क्षत्रिय राजपूत परंपरा से थे।
'''📜 ऐतिहासिक संकेत और वंश परंपरा'''
इतिहास में कई जनश्रुतियाँ, लोककथाएँ और परंपरागत राजपूत वंशावलियाँ इस बात की पुष्टि करती हैं कि शिवाजी महाराज का मूल वंश उन्हीं 52 दीक्षित राजपूतों में से था। इन वंशों की रेखा संत पीपा जी तक पहुँचती है, जो कि एक शुद्ध रक्त क्षत्रिय राजपूत राजा थे।
'''⚔️ छापामार युद्ध कौशल के नायाब नमूने: राव प्रताप सिंह द्वारा लड़ी गई तीन गौरवशाली युद्धगाथाएँ'''
संत पीपा जी महाराज द्वारा विकसित छापामार युद्ध नीति केवल एक रणकौशल नहीं, बल्कि एक राष्ट्र-संरक्षक विचारधारा थी। इस नीति को राव प्रताप सिंह चौहान जैसे वीर क्षत्रिय योद्धाओं ने यथार्थ में उतारकर भारतभूमि की रक्षा की। उन्होंने तीन ऐसे युद्ध लड़े जो छापामार युद्ध कौशल के नायाब उदाहरण बनकर इतिहास में अमर हो गए।
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'''⚔️ 1. गागरोण का युद्ध''''''
मालवा की यवन सेना ने जब गागरोण दुर्ग पर आक्रमण किया, तब उसका नेतृत्व मलिक सरावतदार और फिरोज खां जैसे सेनानायक कर रहे थे।
लेकिन राजा प्रताप सिंह चौहान ने बिना किसी सीधी भिड़ंत के, छापामार पद्धति से उनकी सेना पर पीछे से घातक हमला किया।
उनकी शेर-सी दहाड़ और रणनीतिक कौशल से घबराकर यवन सेना को जान बचाकर भागना पड़ा, और गागरोण की भूमि पर फिर से स्वाभिमान का झंडा लहराया।
''''''⚔️ 2. टोडाराय का युद्ध''''''
जब फिरोजशाह तुगलक ने टोडा पर हमला किया और लल्लन पठान के दबाव में राजा डूंगरसिंह की सेना को समर्पण के कगार पर पहुँचा दिया, तब यह संकट चित्तौड़ के राणा रायमल सिंह तक पहुँचा।
एक युद्ध बैठक में गागरोण के सेनापति ने राव प्रताप सिंह का उल्लेख किया।
राणा रायमल ने तुरंत सहायता हेतु गागरोण संदेश भेजा।
राव प्रताप सिंह ने छापामार शैली में आक्रमण करते हुए लल्लन पठान की सेना को चीरकर रख दिया और स्वयं लल्लन पठान का अंत कर दिया।
क्षत्रिय रक्त, सिंह के सम।शौर्य हमारा, रण प्रचंडतम।। गौ, गीता, गढ़, गुरुदेव। क्षत्रिय धर्म हमारा देव।।
'''🔰 पीपा क्षत्रिय राजपूत वंश के लिए आधिकारिक प्रतीक चिन्ह और घोष वाक्य 🔰'''
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज आधिकारिक प्रतिक चिन्ह
'''🔷 पीपा क्षत्रिय राजपूत वंश के लिए प्रतीक चिन्ह की आवश्यकता क्यों?'''
हर समाज की पहचान उसके इतिहास, संस्कृति और मूल्यों से होती है। एक सशक्त प्रतीक चिन्ह और घोष वाक्य:
सामाजिक एकता को मजबूत करता है।
इतिहास और परंपराओं की स्मृति को जागृत करता है।
राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक शक्ति को सशक्त बनाता है।
नई पीढ़ी में आत्मगौरव, जागरूकता और प्रेरणा जगाता है।
'''🛡️ प्रतीक चिन्ह के प्रमुख घटक और उनका अर्थ:'''
'''1. 🔆 केंद्र में संत पीपा जी की छवि:'''
आध्यात्मिकता, धर्म, समरसता और मार्गदर्शन के प्रतीक।
बल और भक्ति का संगम, क्षत्रिय धर्म की सर्वोच्च व्याख्या।
'''2. 🦁 दो शेर – एक दहाड़ता, एक शांत:'''
दहाड़ता शेर – अन्याय के विरुद्ध संघर्ष का प्रतीक।
शांत शेर – संयम, न्यायप्रियता और संतुलित शक्ति का प्रतिरूप।
'''3. 🦅 एक बाज (गरुड़ दृष्टि के प्रतीक रूप में):'''
दूरदृष्टि, स्वतंत्रता, और लक्ष्य-सिद्धि की प्रतीक छवि।
समाज के नेतृत्व और सतर्कता का प्रतिनिधित्व।
'''4. ⚔️ दो तलवारें:'''
धर्म और न्याय की रक्षा हेतु शक्ति का प्रतीक।
वीरता, आत्म-सम्मान और मर्यादा की रक्षा का संदेश।
🗨️पीपा क्षत्रिय राजपूत वंश के लिए आधिकारिक घोष वाक्य (Motto):
'''।। वयं क्षत्रियाः, वयं धर्मरक्षकाः, वयं रणभूमेः सिंहाः, वयं पीपदासाः।।
अर्थात् –'''
हम क्षत्रिय हैं, हम धर्म के रक्षक हैं, हम रणभूमि के सिंह हैं, हम संत पीपा के अनुयायी हैं।
🌟 प्रतीक चिन्ह और घोषवाक्य का सामूहिक प्रभाव:
आध्यात्मिक और ऐतिहासिक स्मरण।
नवपीढ़ी को संस्कृति और संघर्ष से जोड़ना।
सामाजिक एकता और संगठनात्मक शक्ति।
धर्म, नीति, परंपरा और आत्मगौरव का संतुलन।
📜 पीपा वंशी क्षत्रिय राजपूत: 1891 की The Castes of Marwar 1891 -ब्रिटिश जनगणना में उल्लेख
(Reference from 1891 Census Report compiled by Denzil Charles Jelf Ibbetson in the castes of marwar 1891)
ब्रिटिश भारत के समाजविज्ञानी, इतिहासकार और प्रशासक सर डेंजिल चार्ल्स जेल्फ इब्बेटसन द्वारा संकलित 1891 की The Castes of Marwar जनगणना रिपोर्ट में पीपा वंशी क्षत्रिय राजपूतों का विशिष्ट और ऐतिहासिक महत्त्व के साथ उल्लेख किया गया है। यह रिपोर्ट आज भी Archive.org जैसे प्रतिष्ठित स्रोतों पर उपलब्ध है।
🔍 सामाजिक व्याख्या:
इब्बेटसन ने समाज की जाति और पेशा (caste vs occupation) को स्पष्ट रूप से अलग-अलग संदर्भित करते हुए लिखा:
"Regard the term Darji as purely occupational." (दरज़ी शब्द को केवल एक पेशा माना जाए।)
➤ अर्थ और विश्लेषण:
इस कथन से यह सिद्ध होता है कि 'Darji' कोई जन्म से जाति नहीं, बल्कि एक कौशल आधारित कार्य है।
इसलिए जो लोग सिलाई, कढ़ाई या वस्त्र निर्माण के कार्य से जुड़े थे, उन्हें केवल उनके कार्य के कारण जातिगत ‘दरजी’ कहना अवैज्ञानिक और सामाजिक रूप से अनुचित है।
Encyclopedia of Indian Surnames में इतिहासकार डॉ. शिबानी रॉय और एस. एच. रिज़वी ने 'Ajarani' शीर्षक के अंतर्गत स्पष्ट लिखा है:
पिपावंशी राजपूत वंशज हैं
यह उल्लेख और भी दृढ़ता से प्रमाणित करता है कि पिपावंशी वंशज विशुद्ध राजपूत रक्तवंशीय हैं।
अर्थात् – “दर्ज़ी एक शुद्ध रूप से व्यवसायिक शब्द है, इसका किसी जाति, धर्म या वंश से कोई लेना-देना नहीं है। अतः पिपावंशी क्षत्रिय राजपूतों को "दर्ज़ी" कहना ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से असत्य व अपमानजनक है।
🧵 पीपा जी और दर्जी पेशे का संबंध:
इब्बेटसन आगे लिखते हैं:
"to have induced his Rajput servants and followers to adopt the profession of tailors." (संत पीपा जी ने अपने राजपूत सेवकों और अनुयायियों को दर्ज़ी का कार्य अपनाने के लिए प्रेरित किया।)
➤ तथ्यात्मक विश्लेषण:
यह कथन स्पष्ट करता है कि संत पीपा जी के अनुयायी राजपूत वंशज थे, जिन्होंने धर्म प्रचार, साधना, और आत्मनिर्भरता के उद्देश्य से दर्ज़ी कार्य को अपनाया।
यह कार्य धार्मिक सेवा, यज्ञोपवीत, झंडी, ध्वज निर्माण और समाजसेवा आधारित वस्त्र-निर्माण जैसे परिप्रेक्ष्य में था।
इससे उनकी राजपूत जातीय पहचान नहीं बदलती; यह केवल उनकी रोज़गार गतिविधि का हिस्सा था।
⚔️ सामाजिक पहचान का निष्कर्ष:
इस ऐतिहासिक संदर्भ से निम्न निष्कर्ष स्पष्ट होते हैं:
"Darji" शब्द जाति नहीं, केवल पेशा है।
पीपा वंशी क्षत्रिय राजपूतों ने संत परंपरा, तपस्या और आत्मनिर्भरता के आदर्शों के तहत यह कार्य अपनाया।
उन्हें जन्मजात राजपूत माना गया है, और आज भी उनकी वंश परंपरा, गोत्र, रीतिरिवाज, शौर्यगाथा और क्षत्रिय परंपरा अटूट है।
उन्हें "दरजी जाति" कहकर संबोधित करना ऐतिहासिक दृष्टि से असत्य, अपमानजनक और तथ्यहीन है।
🔰 Haifa युद्ध 1918 में पीपा क्षत्रिय राजपूतों का योगदान
श्री दलपत सिंह जी
श्री दलपत सिंह जी शेखावत हाइफा हीरो
Haifa युद्ध (1918) में पीपा क्षत्रिय राठौड़ राजपूतों का योगदान किवदंतियों एवं स्थानीय परंपराओं के अनुसार अत्यंत महत्वपूर्ण था। हाइफा की लड़ाई में, जोधपुर लांसर्स के मेजर दलपत सिंह शेखावत शहीद हो गए थे, लेकिन उनकी बहादुरी ने 400 साल पुराने तुर्की शासन का अंत कर दिया। इस युद्ध को "हाइफा का युद्ध" के नाम से भी जाना जाता है और हर साल 23 सितंबर को हाइफा दिवस के रूप में मनाया जाता है।
लेकिन यह बहुत कम ज्ञात तथ्य है कि उनके नेतृत्व में भारी संख्या में पीपा वंशी क्षत्रिय राठौड़ राजपूत भी सम्मिलित थे।
इन योद्धाओं की सबसे बड़ी विशेषता थी — छापामार युद्ध कौशल (guerrilla warfare), जो उन्हें पीढ़ियों से उनके प्रशिक्षण और सीमावर्ती संघर्षों से प्राप्त हुआ था। दलपत सिंह शेखावत इस सामूहिक शक्ति और रणनीति से भलीभांति परिचित थे। उन्होंने जानबूझकर उन रणबांकुरों को आगे रखा, जिनमें वह जज्बा था — जो केवल राजपूताना मरुस्थल की धूल में पला-बढ़ा योद्धा ही रख सकता है।
यह वीर योद्धा वर्ग छापामार युद्धशैली (guerrilla warfare) में प्रशिक्षित था, जिसे उन्होंने पीढ़ियों से सीमावर्ती संघर्षों और परंपरा से सीखा था।
उन्होंने जोधपुर लांसर्स की अगुवाई में पराक्रम दिखाया, परंतु उनका योगदान अक्सर गुमनाम या अप्रकाशित रहा।
कहा जाता है कि "पीपा वंशी जहाँ लड़ते हैं, वहाँ दुश्मन की तोपें भी मौन हो जाती हैं।"
ऐसी कई जनश्रुतियाँ और कहावतें आज भी मारवाड़ व राजपुताना में पीढ़ियों तक इनकी वीरता की गाथा सुनाती हैं।
हालाँकि आधिकारिक इतिहास में इनका उल्लेख सीमित है, परन्तु सामाजिक स्मृति में यह बलिदान आज भी जीवित है
🔰 पीपा क्षत्रिय राजपूत: आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़ा, राजनीतिक रूप से उपेक्षित वर्ग
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज, संत शिरोमणि पीपा जी महाराज की परंपरा में अहिंसा, परिश्रम और आत्मगौरव को जीवन मूल्य मानकर चलने वाला एक ऐसा क्षत्रिय समाज है जिसने समय के साथ धर्मयुद्ध से लेकर श्रमशील जीवन तक का उत्क्रांतिपथ अपनाया।
🌾 आजीविका में श्रमशीलता – परंपरागत क्षत्रिय से मेहनतकश समाज तक
इतिहास में युद्ध कौशल और छापामार रणशैली के लिए विख्यात इस समाज ने शांति काल में कृषि, सिलाई और श्रमिक कार्यों को अपनाया। यह उनकी आत्मनिर्भरता, ईमानदारी और धर्मनिष्ठा का प्रमाण है।
परंतु उत्पादनशील और मेहनतकश कार्यों से होने वाली सीमित आय ने समाज को आर्थिक रूप से अत्यंत कमजोर बना दिया है।
⚖️ OBC वर्ग में वर्तमान स्थिति और विशेष उपवर्ग की आवश्यकता
हालांकि पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज को OBC वर्ग में स्थान दिया गया है, परंतु वास्तविक लाभों तक पहुँच अत्यंत सीमित है। इसके कारण हैं:
💠 अत्यंत कमजोर आर्थिक आधार: अधिकांश परिवार गरीबी रेखा के आसपास या नीचे जीवन यापन करते हैं।
🧑🌾 कृषि एवं श्रमिक कार्यों पर निर्भरता: समाज की अधिकांश आबादी असंगठित क्षेत्र में है, जहाँ कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है।
🗳️ राजनीतिक प्रतिनिधित्व शून्य के बराबर: पंचायत से लेकर संसद तक इस समाज की राजनीतिक भागीदारी नगण्य है।
🏢 सरकारी सेवाओं में नगण्य उपस्थिति: सरकारी नौकरियों में समाज का प्रतिनिधित्व नाममात्र है, जिससे सामाजिक असमानता और गहराई है।
📚 शैक्षणिक अवसरों की कमी: आर्थिक तंगी के कारण उच्च शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं में भागीदारी बहुत कम है।
📝 विशेष पिछड़ा वर्ग (Special Backward Class) में स्थान देने की माँग
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज बार-बार सरकार से यह माँग करता आया है कि उसे OBC के भीतर विशेष उपवर्ग में स्थान दिया जाए ताकि:
सामाजिक न्याय सुनिश्चित हो सके
समान स्तर के वंचित समाजों के साथ प्रतिस्पर्धा का अवसर मिले
शैक्षणिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर सशक्तिकरण हो सके
🔊 निष्कर्ष:
एक समाज जो कभी युद्धभूमि में सिंह की तरह लड़ा,
आज खेत, करघे और श्रम के माध्यम से राष्ट्र निर्माण में लगा है।
परंतु यदि आर्थिक-सामाजिक असमानता दूर नहीं की गई, तो यह परंपरा और प्रतिभा धीरे-धीरे हाशिये पर चली जाएगी।
इसलिए पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज को विशेष पिछड़ा वर्ग में समायोजित करना न्याय, समानता और संविधानिक अधिकारों की सच्ची पूर्ति होगी।
🔥 पीपा क्षत्रिय राजपूतों की घटती जनसंख्या: एक ऐतिहासिक षड्यंत्र और संघर्ष की गाथा
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज, संत शिरोमणि पीपा जी महाराज द्वारा दीक्षित 52 क्षत्रिय राजाओं के वंशज हैं। ये सभी योद्धा छापामार युद्ध शैली के जन्मदाता माने जाते हैं, जिन्होंने इतिहास के कई निर्णायक युद्धों में अद्वितीय वीरता और विजय प्राप्त की।
⚔️ ऐतिहासिक पराक्रम और वीरता
पीपा वंशी क्षत्रिय राजपूतों ने मालवा, दिल्ली सल्तनत, तुगलक, लोधी और मुगलों जैसे कई आक्रांताओं से लड़ाइयाँ लड़ीं।
इन्होंने छापामार युद्ध नीति में ऐसी महारत प्राप्त की थी कि दुश्मन की विशाल सेनाएँ भी इनके सामने विचलित हो जाती थीं।
इनकी रणनीति, साहस और बलिदान ने शत्रुओं को बार-बार परास्त किया।
🧩 सामाजिक-धार्मिक षड्यंत्र और पहचान का हनन
इस महान क्षत्रिय समाज को कमजोर करने हेतु सुनियोजित षड्यंत्र रचे गए:
🔻 "दरजी" और "इद्रिश" जैसे नाम थोपे गए: मुस्लिम शासकों ने चालाकी से सिलाई कार्य करने वाले पीपा क्षत्रिय राजपूतों को “दरजी” और “इद्रिश” जैसे झूठे, पेशागत मुस्लिम शब्दों से जोड़ दिया। उद्देश्य था – उनकी मूल क्षत्रिय पहचान को नष्ट करना और उन्हें सामाजिक रूप से “निम्न” दिखाना।
🧵 काम से जाति निर्धारण की साजिश: संत पीपा जी की परंपरा के अनुसार यह समाज संत सेवा, झंडा-ध्वज निर्माण और साधु वस्त्र सिलाई जैसे धार्मिक कार्यों से जुड़ा। लेकिन इन धार्मिक सेवाओं को जानबूझकर पेशा और फिर जाति बना दिया गया, ताकि समाज को “लड़ाई छोड़ चुके दर्जी” के रूप में प्रचारित किया जा सके।
📖 इतिहास को दबाना और नष्ट करना: ब्रिटिश और मुस्लिम शासन दोनों ने मिलकर पीपा क्षत्रिय राजपूतों के ऐतिहासिक ग्रंथों और लोकगाथाओं को या तो नष्ट किया या कभी दर्ज़ ही नहीं होने दिया। जिससे आने वाली पीढ़ियाँ अपनी वीर परंपरा से अनभिज्ञ रहें।
🧠 मानसिक गुलामी और सामाजिक अपमान: समाज को इतना अपमानित और भ्रमित किया गया कि उनकी आत्मगौरव की भावना को कुचल दिया गया। धीरे-धीरे कुछ लोग पहचान से दूर होते गए, कुछ मुखर विरोध के कारण युद्धों में मारे गए, और कुछ मूल क्षत्रियता की ओर लौटते हुए समाज से बाहर कर दिए गए।
📉 घटती जनसंख्या के मुख्य कारण:
लगातार युद्धों में वीरगति: बड़ी संख्या में योद्धा युद्धों में बलिदान हुए, जिससे पीढ़ियाँ समाप्त हो गईं।
आत्मगौरव की रक्षा में सामाजिक बहिष्कार: जो मूल क्षत्रिय पहचान की ओर लौटे, उन्हें झूठी जातिगत व्यवस्था से बाहर कर दिया गया।
सामाजिक और राजनीतिक हाशिए पर डालना: शासन और व्यवस्था में प्रतिनिधित्व ना मिल पाने के कारण शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक पिछड़ापन बढ़ता गया।
कई लोगों की पहचान जबरन बदल दी गई या उन्हें गुमनाम बना दिया गया।
🔊 आज की स्थिति:
आज पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज आर्थिक रूप से अत्यंत कमजोर, राजनीतिक रूप से उपेक्षित, और आंकड़ों में अदृश्य होता जा रहा है।
इनकी जनसंख्या लगातार घट रही है क्योंकि:
समाज के कई हिस्से अब भी अपनी मूल पहचान की खोज में हैं,
उन्हें आज भी गलत जातिगत पहचान से जोड़ा जा रहा है,
उनका गौरवशाली इतिहास आज भी पढ़ाया नहीं जाता।
✊ निष्कर्ष:
जिस समाज ने कभी मुगलों को छापामार नीति से नाकों चने चबवाए,
आज वह अपने अस्तित्व और सम्मान के लिए लड़ रहा है।
पीपा क्षत्रिय राजपूतों की घटती जनसंख्या केवल एक आँकड़ा नहीं,
बल्कि यह भारत के इतिहास में की गई सांस्कृतिक हत्या का जीवित प्रमाण है।
अब समय है कि इतिहास को पुनः लिखा जाए,
सच्चाई को पुनः सामने लाया जाए,
और इस वीर समाज को उसका गौरव, स्थान और अधिकार दिया जाए।
🔰 1. वीर पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज और उनकी छापामार परंपरा
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज, जो छापामार युद्ध शैली में दक्ष, निडर और कई निर्णायक युद्धों में अग्रणी भूमिका निभाने वाला एक वीर क्षत्रिय समुदाय रहा है, को ऐतिहासिक रूप से योजनाबद्ध षड्यंत्रों द्वारा कमजोर करने का प्रयास किया गया। यह समाज भारत की सीमांत युद्ध परंपराओं में एक प्रमुख स्तंभ रहा, जिसने धर्म, राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिए असंख्य युद्धों में भाग लिया।
🧩 2. मुस्लिम शासनकाल में पहचान को कुचलने की साजिश
मुस्लिम आक्रमणकारियों ने पहले इस समाज को “दर्जी” और “इद्रिश” जैसे पेशागत मुस्लिम शब्दों से जोड़ने की चाल चली, जिससे उनकी मूल क्षत्रिय पहचान को धूमिल किया जा सके। इसके बाद “डरपोक” या “मूर्ख” जैसी छवियाँ आरोपित करने के लिए जानबूझकर झूठी कहानियाँ गढ़ी गईं, जबकि सच्चाई यह है कि यह समाज पीढ़ियों से सीमांत संघर्षों में सबसे आगे रहा है।
🏛️ 3. ब्रिटिश शासन द्वारा ऐतिहासिक और मानसिक दमन
इसी मनोवैज्ञानिक रणनीति को आगे बढ़ाते हुए अंग्रेज़ों ने भी पीपा क्षत्रिय राजपूतों की वीरता और बलिदानों को इतिहास में स्थान नहीं दिया। जैसे उन्होंने सिखों के लिए भी उपहासजनक कहावतें गढ़ीं, उसी तरह इस समाज के बारे में भी अपमानजनक जनश्रुतियाँ फैलाईं। उन्होंने मौखिक परंपराओं को लिपिबद्ध नहीं होने दिया, जिससे इतिहास धुंधला हो गया। इस मानसिक और सांस्कृतिक हमले का परिणाम यह हुआ कि यह क्षत्रिय योद्धा समाज धीरे-धीरे आत्मगौरव से दूर होता चला गया और आज भी अपने गौरवपूर्ण इतिहास की पुनर्स्थापना के लिए संघर्षरत है।
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज, जो छापामार युद्ध शैली में दक्ष, निडर और कई निर्णायक युद्धों में अग्रणी भूमिका निभाने वाला एक वीर क्षत्रिय समुदाय रहा है, को ऐतिहासिक रूप से योजनाबद्ध षड्यंत्रों द्वारा कमजोर करने का प्रयास किया गया। मुस्लिम आक्रमणकारियों ने पहले इस समाज को “दर्जी” और “इद्रिश” जैसे पेशागत मुस्लिम शब्दों से जोड़कर उनकी मूल क्षत्रिय पहचान को धूमिल करने की कोशिश की। इसके बाद समाज पर “डरपोक”, “मूर्ख” या “रणभूमि से भागने वाली जाति” जैसी छवि आरोपित करने के लिए जानबूझकर झूठी कहानियाँ गढ़ी गईं, जबकि वास्तविकता इसके ठीक विपरीत थी – यह समाज सदियों तक सीमांत संघर्षों में अग्रणी रहा। यही मनोवैज्ञानिक रणनीति बाद में अंग्रेज़ों ने भी अपनाई, जैसे उन्होंने सिखों को “मूर्ख और नासमझ” दर्शाने वाली कहावतें और कहानियाँ गढ़ी थीं, ठीक उसी तरह की अपमानजनक शैली पीपा क्षत्रिय राजपूतों पर भी लागू की गई। अंग्रेजों ने न केवल इनके गौरवशाली युद्धों और बलिदानों को इतिहास में स्थान नहीं दिया, बल्कि कई मौखिक परंपराओं को लिपिबद्ध करने से भी रोका गया। इस संयुक्त मानसिक और सांस्कृतिक आक्रमण का परिणाम यह हुआ कि यह योद्धा समाज धीरे-धीरे आत्मगौरव से दूर हुआ और सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से हाशिये पर चला गया। आज भी पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज इन ऐतिहासिक अन्यायों के विरुद्ध अपनी पहचान, इतिहास और सम्मान की पुनर्स्थापना के लिए संघर्ष कर रहा है।
श्री पीपा चेतना ई-पत्रिका
श्री पीपा चेतना – एक नयी शुरुआत, आत्मगौरव की दिशा में
परिचय:
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज अब त्रिवेणी गति से अपने राजपुताना गौरव को पुनः जाग्रत करने हेतु प्रयत्नशील है। इस पुनर्जागरण के क्रम में समाज के प्रतिभावान एवं प्रबुद्ध जनों द्वारा समाज के अधिकृत Logo एवं Motto का निर्माण किया गया है, जो नई चेतना, उत्साह तथा संगठन की भावना को दृढ़ता प्रदान करता है।
लक्ष्य:
समाज की सांस्कृतिक विरासत, वीरता, आत्मगौरव तथा सामाजिक एकता को जीवंत बनाए रखने हेतु जनचेतना का विस्तार किया जाएगा। इसी उद्देश्य से "श्री पीपा चेतना" नामक मासिक ई-पत्रिका की शुरुआत की जा रही है।
पत्रिका का स्वरूप:
नाम: श्री पीपा चेतना
प्रकार: मासिक ई-पत्रिका
पृष्ठ संख्या: कुल 21 पृष्ठ
माध्यम: डिजिटल (PDF, वेबसाइट, व्हाट्सएप/सोशल मीडिया वितरण)
मूल्य: पूर्णतः निःशुल्क
संचालन: जनसहयोग से संचालित
प्रकाशन का उद्देश्य:
समाज के गौरवशाली इतिहास, परंपराओं, वीर पुरखों और संत शिरोमणि श्री पीपा जी की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार।
युवाओं में आत्मबल, संगठनबद्धता और नेतृत्व की चेतना जागृत करना।
समाज के भीतर सकारात्मक संवाद, पहचान और वैचारिक दिशा को स्थापित करना।
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज के कार्यक्रम, उपलब्धियाँ एवं प्रेरणादायक व्यक्तित्वों को स्थान देना।
संगठन को मजबूत करने हेतु सुझाव, लेख, घोषणाएँ और अभियान विवरण प्रकाशित करना।
विशेषताएँ:
सम्पूर्ण समाज के लिए निःशुल्क उपलब्ध।
डिजिटल फॉर्मेट में सभी के लिए पहुँच योग्य।
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हिन्दी विश्व की प्रमुख भाषा है,यह 50 करोड़ लोगों की भाषा हैं। हिन्दी भाषा, भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। हिन्दी के अधिकतम शब्द संस्कृत , अरबी और फारसी भाषा के शब्दों से लिए गए हैं। हिन्दी को देवनागरी लिपि में लिखा जाता है।
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* [[/विकास/]]
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* [[/हिन्दी के प्रति लोगों में भावनात्मक संवेदना जरूरी/]]
'''अस्मितामूलक विमर्श'''
==अन्य==
* [[/रंग/]]
==यह भी देखें==
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<ref>{{cite web |last1=hindi sahayak |first1=yogi |title=hindi sahayak |website=https://hindisahayak.in/}}</ref>==बाहरी कड़ी==
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सदस्य:Pipa Kshatriya Rajput
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Pipa Kshatriya Rajput
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'''''''🛡️ संत पीपा जी / राजा राव प्रताप सिंह चौहान – बिंदुवार संक्षिप्त जीवन परिचय'''''' महाराजाधिराज प्रताप सिंह खींची. '''👑 1. जन्म एवं वंश''' संत पीपा जी का जन्म वि.सं. 1380 (12 अप्रैल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
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''''''🛡️ संत पीपा जी / राजा राव प्रताप सिंह चौहान – बिंदुवार संक्षिप्त जीवन परिचय''''''
महाराजाधिराज प्रताप सिंह खींची.
'''👑 1. जन्म एवं वंश'''
संत पीपा जी का जन्म वि.सं. 1380 (12 अप्रैल 1323) को गढ़ गागरोण (झालावाड़, राजस्थान) के शासक परिवार में हुआ।
मूल नाम: प्रताप सिंह खींची.
पिता: महाराजा कड़वा राव चौहान
माता: महारानी सफला देवी
वंश: सूर्यवंशी खींची चौहान राजपूत
देवी: मां जालपा देवी की उपासना करते थे।
'''⚔️ 2. प्रारंभिक जीवन और वीरता'''
माहराज प्रताप सिंह खींची, बचपन से ही शूरवीर योद्धा थे।
वे धर्मनिष्ठ, प्रजावत्सल और राजनीतिज्ञ भी थे।
गागरोण युद्ध और टोडाराय युद्ध में विदेशी आक्रांताओं को पराजित किया।
छापामार युद्ध कला के जनक और प्रर्वतक कौशल के कारण उनका सम्मान राजपूत दरबारों में बढ़ा।
💍 3. विवाह संबंध
राजा डूंगरसिंह की पुत्री स्मृति बाई सोलंकी (बाद में माता सीता सहचरी) से विवाह हुआ।
यह विवाह राणा रायमल सिसोदिया के आग्रह पर हुआ।
विवाह के समय राव प्रताप सिंह की पहले से 11 रानियाँ थीं।
राव प्रताप सिंह जी खिंची के बारह रानियाँ, जिसका वर्णन इस प्रकार मिलता है:- १. गुजरात भावनगर नरेश श्री सेन्द्रकजी #गोहिल कि पुत्री श्रीमति धीरबाईजी २. गुजरात पाटन नरेश श्री रिणधवलजी #चावड़ा कि पुत्री श्रीमति अंतरबाईजी ३.गुजरात गिरनार नरेश श्री भुहड़सिंहजी #चुड़ासमा कि पुत्री श्रीमति भगवतीबाईजी ४.मध्यप्रदेश बांधनगढ़ नरेश श्री वीरमदेवजी #वाघेला कि पुत्री श्रीमति #रमाबाईजी ५.मध्यप्रदेश पट्टन नरेश श्री भीजड़सिंहजी #सोलंकी कि पुत्री श्रीमति #विजयमणबाईजी ६.मालवा कनवरगढ़ नरेश श्री यशोधरसिंहजी झाला कि पुत्री श्रीमति #रमाकंवरबाईजी ७. गुजरात भुज नरेश श्री विभुसिंहजी #जाड़ेजा कि पुत्री श्रीमति #लिछमाबाईजी ८. गुजरात माणसा नरेश श्री कनकसेनजी #चावड़ा कि पुत्री श्रीमति #विरजाभानुबाइजी ९. गुजरात हलवद नरेश श्री वीरभद्र सिंहजी #झाला कि पुत्री श्रीमति #सिंगाबाईजी १०. राजस्थान करेगांव नरेश श्री जोजलदेवजी #दहिया कि पुत्री श्रीमति #कंचनबाईजी ११. राजपूताना कनहरीगढ़ नरेश श्री कनकराजसिंहजी वाघेला श्रीमति #सुशीलाबाईजी १२. राजपूताना टोडारायसिंह नरेश श्री डूंगरसिंहजी सोलंकी श्रीमति #स्मृतिबाईजी
🕉️ 4. वैराग्य और संत जीवन
शिकार के दौरान गर्भवती हिरणी की मृत्यु से जीवन में करुणा जागी।
स्वप्न में मां भवानी ने काशी जाकर गुरु रामानंद जी से दीक्षा लेने का आदेश दिया।
रामानंद जी ने बाद में गागरोण आकर राव प्रताप सिंह को अपना शिष्य बनाया।
वि.सं. 1414 को राजपाट त्याग कर भतीजे कल्याण राव को राजा बनाया।
संत शिरोमणि पीपाजी महाराज
🧘 5. संत पीपा नाम की उत्पत्ति
गुरु रामानंद जी ने कहा – "तूं राम नाम का रस पी और औरों को पिला"
इसी कारण उन्हें संत पीपा कहा जाने लगा।
स्मृति बाई उनके साथ सन्यास में गईं और माता सीता सहचरी के नाम से जानी गईं।
🙏 6. सिद्धांत और समाज सुधार
संत पीपा जी ने हिंसा, मांसाहार, मदिरा और जातिवाद का विरोध किया।
उन्होंने वर्ण व्यवस्था के सिद्धांत को धार्मिक दृष्टिकोण से महत्व दिया।
राजाओं को राजपाट छोड़कर अहिंसा और भक्ति मार्ग अपनाने की प्रेरणा दी।
🚜 7. पीपा राजपूत समाज की स्थापना
संत पीपा जी ने 52 राजाओं व राजकुमारों को दीक्षा देकर शिष्य बनाया।
उन 52 राजपूतो राजाओं व राजकुमारों जिनको दीक्षित किया गया का जिक्र, इस प्रकार मिलता है:- 1. बेरिसाल #सोलंकी 2. हरिदास #कच्छवाह 3. दामोदर दास पंवार 4. अभयराज यादव 5. गोवर्धन सिंह पंवार 6. सोमपाल परिहार 7. खेमराज #चौहान 8. भीमराज गौहिल 9. हरबद राठौड़ इडरिया 10. रामदास वीरभान मकवाना 11. वीरभान शेखावत 12. आनंददेव गहलोत 13. वरजोग चावड़ा 14. मानकदेव संकलेचा 15. शम्भूदास डाबी 16. इन्द्रराज #राठौड़ (राखेचा) 17. रणमल चौहान 18. बिजलदेव बारड 19. जयदास खींची 20. पृथ्वीराज #तंवर 21. सुयोधन #बडगुजर 22. ईश्वर दास #दहिया 23. गोलियों राव 24. बृजभान सिसोदिया 15. राजसिंह भाटी 26. हरदत्त टाक 27. रणमल परिहार 28. अभयराज सांखला 29. भगवान दास झाला 30. गोहिल दूदा 31. गोकुल राय देवड़ा 32. गजेन्द्र गौड़ 33. मंडलीक चुंडावत 34. हितपात बाघेला 35. अमृत कनेरिया गहलोत 36. मोहन सिंह भाटी 37. दलवीर राठौड़ 38. मोहन सिंह (इंदा) प्रतिहार 39. प्रभात सिंह सिंधु राठौड़ 40. सुरसिंह (सूर्यमल्ल सोलंकी) 41. उम्मेदसिंह तंवर 42. हेमसिंह कच्छवाहा 43. गंगदेव गोहिल 44. दुल्हसिंह टांक 45. गोपालराव परिहार 46. मूलसिंह गहलोत 47. पन्नेसिंह राठौड़ (राखेचा) 48. अमराव मकवाना 49. मुलराज चावड़ा 50. मूलराज भाटी 51. पन्नेसिंह डाबी 52. नागराज सिंह परमार
जीवनयापन के लिए उन्हें कृषि और सिलाई जैसे अहिंसक कार्यों की ओर प्रवृत्त किया।
इन्हीं से बना समाज आज पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज के नाम से जाना जाता है।
कृषि और सिलाई के कारण पीपा क्षत्रिय राजपूतो को दरजी शब्द से संबोधन किया जाने लगा, दरजी एक फारसी भाषा का मुस्लिम थोपा शब्द था, जो पीपा क्षत्रिय राजपूतो की गरिमा को कमतर करने के लिए साजिस के तहत थोपा गया हैं ।
📍 8. समाज की विशेषताएँ
यह पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज आज भारत के अनेक राज्यों जैसे राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली, पंजाब, कर्नाटक, बिहार, झारखंड, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और उत्तराखंड में सम्मान के साथ स्थापित है। इसके साथ ही यह समाज कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और कुवैत जैसे देशों में भी प्रवास कर रहा है, जहाँ यह लोग बड़े व्यवसाय, व्यापार और सेवाओं में ईमानदारी, निष्ठा और गौरव से कार्य कर रहे हैं।
जोधपुरी कोट के सृजनकर्ता और राजस्थानी परिधान की गरिमा को पुनर्जीवित करने में पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज की भूमिका प्रेरणादायक रही है। यह समाज पारंपरिक पोशाकों, विशेष रूप से 'जोधपुरी कोट', 'राजपूताना साफा' और 'सिंह उपाधि' को आत्मगौरव और पहचान का प्रतीक मानकर सामाजिक आयोजनों, विवाहों और सार्वजनिक मंचों पर उन्हें प्रतिष्ठा दिला रहा है।
मुख्य पहचान: अहिंसक राजपूत, शुद्ध रक्त क्षत्रिय, मांस-मदिरा से दूर, भक्ति मार्गी।
समाज द्वारा आज भी चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को पीपा जयंती बड़े आयोजन से मनाई जाती है।
🧾 9. इतिहासकारों द्वारा उल्लेख
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा और मुहणोत नैणसी ने भी राव प्रताप सिंह/संत पीपा का वर्णन किया है।
संत शिरोमणि पीपा जी महाराज (13वीं सदी – 14वीं सदी), एक महान संत, सिद्ध योगी, क्षत्रिय राजा और भारतीय युद्ध नीति के अप्रतिम रणनीतिकार थे। उन्हें भारत में छापामार युद्ध (Guerrilla Warfare) की नींव रखने वाले पहले सैन्य विचारक एवं व्यवहारकर्ता के रूप में जाना जाता है। उन्होंने धर्म और मातृभूमि की रक्षा के लिए पारंपरिक युद्ध पद्धतियों से हटकर छापामार शैली का विकास किया, जो आगे चलकर महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे महायोद्धाओं की रणनीतियों की आधारशिला बनी।
⚔️ छापामार युद्ध: एक क्रांतिकारी रणनीति
संत पीपा जी छापामार युद्धकला के जनक और आदिप्रवर्तक थे, छापामार युद्ध उस समय भारत की सैन्य परंपरा में एक नया अध्याय था। संत पीपा जी ने सीमित संसाधनों के साथ बड़े शत्रु दलों से युद्ध जीतने की रणनीति प्रस्तुत की, जिसमें छिपकर प्रहार करना, किले नहीं जंगल को शरण बनाना, आक्रमण कर तुरंत पीछे हट जाना, और शत्रु की रसद व्यवस्था को ध्वस्त करना प्रमुख था।
इस युद्ध शैली ने शस्त्रबल से अधिक नीतिबल और धैर्य को महत्व दिया। संत पीपा जी की यह युद्धशैली आगे चलकर "गुरिल्ला युद्ध" के नाम से प्रसिद्ध हुई।
🛡️ जीवन के प्रमुख युद्ध और योगदान
संत पीपा जी ने अपने जीवन में तीन प्रमुख युद्धों का नेतृत्व किया जिनमें उन्होंने बाहरी आक्रमणकारियों के विरुद्ध छापामार पद्धति का उपयोग किया। उनके नेतृत्व में एक विशेष क्षत्रिय संगठन बना, जिसने आध्यात्मिक साधना के साथ राष्ट्र रक्षा को जीवन लक्ष्य बनाया।
माता सहचरी सीता माता
👑 52 क्षत्रिय राजाओं का दीक्षण
संत पीपा जी से प्रभावित होकर 52 क्षत्रिय राजाओं ने उनके चरणों में दीक्षा ग्रहण की। उन्होंने इन राजाओं को धर्मशक्ति, युद्धशक्ति और रणनीति का संगम सिखाया। इन 52 कुलों की संताने आज पीपा क्षत्रिय राजपूत के रूप में जानी जाती हैं।
🏹 परंपरा का विस्तार: महाराणा सांगा से छत्रपति शिवाजी महाराज तक
महाराणा सांगा ने संत पीपा जी की युद्धनीति को अपनाकर मुगलों के विरुद्ध संघर्ष किया।
महाराणा उदयसिंह किवदंतियों के अनुसार, महाराणा उदयसिंह की बाल्यावस्था में पीपा क्षत्रिय योद्धाओं ने मां पन्नाधाय के साथ मिलकर उनकी प्राणरक्षा की और गुप्त स्थानों पर छिपाकर सुरक्षा प्रदान की।
महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी में इसी छापामार नीति से मुगलों को चुनौती दी।
छत्रपति शिवाजी महाराज, जिनके बारे में जनश्रुतियों में यह विश्वास है कि वे उन्हीं 52 क्षत्रिय कुलों में से एक के वंशज थे, ने इस छापामार रणनीति को चरम पर पहुँचाया और इसे और अधिक संगठित स्वरूप दिया।
छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराजा बृजभान सिसोदिया के वंशज थे, जो मेवाड़ के सिसोदिया पीपा क्षत्रिय राजपूत और शुद्ध क्षत्रिय राजपूत परंपरा से थे।
📜 ऐतिहासिक संकेत और वंश परंपरा
इतिहास में कई जनश्रुतियाँ, लोककथाएँ और परंपरागत राजपूत वंशावलियाँ इस बात की पुष्टि करती हैं कि शिवाजी महाराज का मूल वंश उन्हीं 52 दीक्षित राजपूतों में से था। इन वंशों की रेखा संत पीपा जी तक पहुँचती है, जो कि एक शुद्ध रक्त क्षत्रिय राजपूत राजा थे।
⚔️ छापामार युद्ध कौशल के नायाब नमूने: राव प्रताप सिंह द्वारा लड़ी गई तीन गौरवशाली युद्धगाथाएँ
संत पीपा जी महाराज द्वारा विकसित छापामार युद्ध नीति केवल एक रणकौशल नहीं, बल्कि एक राष्ट्र-संरक्षक विचारधारा थी। इस नीति को राव प्रताप सिंह चौहान जैसे वीर क्षत्रिय योद्धाओं ने यथार्थ में उतारकर भारतभूमि की रक्षा की। उन्होंने तीन ऐसे युद्ध लड़े जो छापामार युद्ध कौशल के नायाब उदाहरण बनकर इतिहास में अमर हो गए।
⚔️ 1. गागरोण का युद्ध
मालवा की यवन सेना ने जब गागरोण दुर्ग पर आक्रमण किया, तब उसका नेतृत्व मलिक सरावतदार और फिरोज खां जैसे सेनानायक कर रहे थे।
लेकिन राजा प्रताप सिंह चौहान ने बिना किसी सीधी भिड़ंत के, छापामार पद्धति से उनकी सेना पर पीछे से घातक हमला किया।
उनकी शेर-सी दहाड़ और रणनीतिक कौशल से घबराकर यवन सेना को जान बचाकर भागना पड़ा, और गागरोण की भूमि पर फिर से स्वाभिमान का झंडा लहराया।
⚔️ 2. टोडाराय का युद्ध
जब फिरोजशाह तुगलक ने टोडा पर हमला किया और लल्लन पठान के दबाव में राजा डूंगरसिंह की सेना को समर्पण के कगार पर पहुँचा दिया, तब यह संकट चित्तौड़ के राणा रायमल सिंह तक पहुँचा।
एक युद्ध बैठक में गागरोण के सेनापति ने राव प्रताप सिंह का उल्लेख किया।
राणा रायमल ने तुरंत सहायता हेतु गागरोण संदेश भेजा।
राव प्रताप सिंह ने छापामार शैली में आक्रमण करते हुए लल्लन पठान की सेना को चीरकर रख दिया और स्वयं लल्लन पठान का अंत कर दिया।
क्षत्रिय रक्त, सिंह के सम।शौर्य हमारा, रण प्रचंडतम।। गौ, गीता, गढ़, गुरुदेव। क्षत्रिय धर्म हमारा देव।।
🔰 पीपा क्षत्रिय राजपूत वंश के लिए आधिकारिक प्रतीक चिन्ह और घोष वाक्य 🔰
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज आधिकारिक प्रतिक चिन्ह
🔷 पीपा क्षत्रिय राजपूत वंश के लिए प्रतीक चिन्ह की आवश्यकता क्यों?
हर समाज की पहचान उसके इतिहास, संस्कृति और मूल्यों से होती है। एक सशक्त प्रतीक चिन्ह और घोष वाक्य:
सामाजिक एकता को मजबूत करता है।
इतिहास और परंपराओं की स्मृति को जागृत करता है।
राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक शक्ति को सशक्त बनाता है।
नई पीढ़ी में आत्मगौरव, जागरूकता और प्रेरणा जगाता है।
🛡️ प्रतीक चिन्ह के प्रमुख घटक और उनका अर्थ:
1. 🔆 केंद्र में संत पीपा जी की छवि:
आध्यात्मिकता, धर्म, समरसता और मार्गदर्शन के प्रतीक।
बल और भक्ति का संगम, क्षत्रिय धर्म की सर्वोच्च व्याख्या।
2. 🦁 दो शेर – एक दहाड़ता, एक शांत:
दहाड़ता शेर – अन्याय के विरुद्ध संघर्ष का प्रतीक।
शांत शेर – संयम, न्यायप्रियता और संतुलित शक्ति का प्रतिरूप।
3. 🦅 एक बाज (गरुड़ दृष्टि के प्रतीक रूप में):
दूरदृष्टि, स्वतंत्रता, और लक्ष्य-सिद्धि की प्रतीक छवि।
समाज के नेतृत्व और सतर्कता का प्रतिनिधित्व।
4. ⚔️ दो तलवारें:
धर्म और न्याय की रक्षा हेतु शक्ति का प्रतीक।
वीरता, आत्म-सम्मान और मर्यादा की रक्षा का संदेश।
🗨️पीपा क्षत्रिय राजपूत वंश के लिए आधिकारिक घोष वाक्य (Motto):
।। वयं क्षत्रियाः, वयं धर्मरक्षकाः, वयं रणभूमेः सिंहाः, वयं पीपदासाः।।
अर्थात् –
हम क्षत्रिय हैं, हम धर्म के रक्षक हैं, हम रणभूमि के सिंह हैं, हम संत पीपा के अनुयायी हैं।
🌟 प्रतीक चिन्ह और घोषवाक्य का सामूहिक प्रभाव:
आध्यात्मिक और ऐतिहासिक स्मरण।
नवपीढ़ी को संस्कृति और संघर्ष से जोड़ना।
सामाजिक एकता और संगठनात्मक शक्ति।
धर्म, नीति, परंपरा और आत्मगौरव का संतुलन।
📜 पीपा वंशी क्षत्रिय राजपूत: 1891 की The Castes of Marwar 1891 -ब्रिटिश जनगणना में उल्लेख
(Reference from 1891 Census Report compiled by Denzil Charles Jelf Ibbetson in the castes of marwar 1891)
ब्रिटिश भारत के समाजविज्ञानी, इतिहासकार और प्रशासक सर डेंजिल चार्ल्स जेल्फ इब्बेटसन द्वारा संकलित 1891 की The Castes of Marwar जनगणना रिपोर्ट में पीपा वंशी क्षत्रिय राजपूतों का विशिष्ट और ऐतिहासिक महत्त्व के साथ उल्लेख किया गया है। यह रिपोर्ट आज भी Archive.org जैसे प्रतिष्ठित स्रोतों पर उपलब्ध है।
🔍 सामाजिक व्याख्या:
इब्बेटसन ने समाज की जाति और पेशा (caste vs occupation) को स्पष्ट रूप से अलग-अलग संदर्भित करते हुए लिखा:
"Regard the term Darji as purely occupational." (दरज़ी शब्द को केवल एक पेशा माना जाए।)
➤ अर्थ और विश्लेषण:
इस कथन से यह सिद्ध होता है कि 'Darji' कोई जन्म से जाति नहीं, बल्कि एक कौशल आधारित कार्य है।
इसलिए जो लोग सिलाई, कढ़ाई या वस्त्र निर्माण के कार्य से जुड़े थे, उन्हें केवल उनके कार्य के कारण जातिगत ‘दरजी’ कहना अवैज्ञानिक और सामाजिक रूप से अनुचित है।
Encyclopedia of Indian Surnames में इतिहासकार डॉ. शिबानी रॉय और एस. एच. रिज़वी ने 'Ajarani' शीर्षक के अंतर्गत स्पष्ट लिखा है:
पिपावंशी राजपूत वंशज हैं
यह उल्लेख और भी दृढ़ता से प्रमाणित करता है कि पिपावंशी वंशज विशुद्ध राजपूत रक्तवंशीय हैं।
अर्थात् – “दर्ज़ी एक शुद्ध रूप से व्यवसायिक शब्द है, इसका किसी जाति, धर्म या वंश से कोई लेना-देना नहीं है। अतः पिपावंशी क्षत्रिय राजपूतों को "दर्ज़ी" कहना ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से असत्य व अपमानजनक है।
🧵 पीपा जी और दर्जी पेशे का संबंध:
इब्बेटसन आगे लिखते हैं:
"to have induced his Rajput servants and followers to adopt the profession of tailors." (संत पीपा जी ने अपने राजपूत सेवकों और अनुयायियों को दर्ज़ी का कार्य अपनाने के लिए प्रेरित किया।)
➤ तथ्यात्मक विश्लेषण:
यह कथन स्पष्ट करता है कि संत पीपा जी के अनुयायी राजपूत वंशज थे, जिन्होंने धर्म प्रचार, साधना, और आत्मनिर्भरता के उद्देश्य से दर्ज़ी कार्य को अपनाया।
यह कार्य धार्मिक सेवा, यज्ञोपवीत, झंडी, ध्वज निर्माण और समाजसेवा आधारित वस्त्र-निर्माण जैसे परिप्रेक्ष्य में था।
इससे उनकी राजपूत जातीय पहचान नहीं बदलती; यह केवल उनकी रोज़गार गतिविधि का हिस्सा था।
⚔️ सामाजिक पहचान का निष्कर्ष:
इस ऐतिहासिक संदर्भ से निम्न निष्कर्ष स्पष्ट होते हैं:
"Darji" शब्द जाति नहीं, केवल पेशा है।
पीपा वंशी क्षत्रिय राजपूतों ने संत परंपरा, तपस्या और आत्मनिर्भरता के आदर्शों के तहत यह कार्य अपनाया।
उन्हें जन्मजात राजपूत माना गया है, और आज भी उनकी वंश परंपरा, गोत्र, रीतिरिवाज, शौर्यगाथा और क्षत्रिय परंपरा अटूट है।
उन्हें "दरजी जाति" कहकर संबोधित करना ऐतिहासिक दृष्टि से असत्य, अपमानजनक और तथ्यहीन है।
🔰 Haifa युद्ध 1918 में पीपा क्षत्रिय राजपूतों का योगदान
श्री दलपत सिंह जी शेखावत हाइफा हीरो
Haifa युद्ध (1918) में पीपा क्षत्रिय राठौड़ राजपूतों का योगदान किवदंतियों एवं स्थानीय परंपराओं के अनुसार अत्यंत महत्वपूर्ण था। हाइफा की लड़ाई में, जोधपुर लांसर्स के मेजर दलपत सिंह शेखावत शहीद हो गए थे, लेकिन उनकी बहादुरी ने 400 साल पुराने तुर्की शासन का अंत कर दिया। इस युद्ध को "हाइफा का युद्ध" के नाम से भी जाना जाता है और हर साल 23 सितंबर को हाइफा दिवस के रूप में मनाया जाता है।
लेकिन यह बहुत कम ज्ञात तथ्य है कि उनके नेतृत्व में भारी संख्या में पीपा वंशी क्षत्रिय राठौड़ राजपूत भी सम्मिलित थे।
इन योद्धाओं की सबसे बड़ी विशेषता थी — छापामार युद्ध कौशल (guerrilla warfare), जो उन्हें पीढ़ियों से उनके प्रशिक्षण और सीमावर्ती संघर्षों से प्राप्त हुआ था। दलपत सिंह शेखावत इस सामूहिक शक्ति और रणनीति से भलीभांति परिचित थे। उन्होंने जानबूझकर उन रणबांकुरों को आगे रखा, जिनमें वह जज्बा था — जो केवल राजपूताना मरुस्थल की धूल में पला-बढ़ा योद्धा ही रख सकता है।
यह वीर योद्धा वर्ग छापामार युद्धशैली (guerrilla warfare) में प्रशिक्षित था, जिसे उन्होंने पीढ़ियों से सीमावर्ती संघर्षों और परंपरा से सीखा था।
उन्होंने जोधपुर लांसर्स की अगुवाई में पराक्रम दिखाया, परंतु उनका योगदान अक्सर गुमनाम या अप्रकाशित रहा।
कहा जाता है कि "पीपा वंशी जहाँ लड़ते हैं, वहाँ दुश्मन की तोपें भी मौन हो जाती हैं।"
ऐसी कई जनश्रुतियाँ और कहावतें आज भी मारवाड़ व राजपुताना में पीढ़ियों तक इनकी वीरता की गाथा सुनाती हैं।
हालाँकि आधिकारिक इतिहास में इनका उल्लेख सीमित है, परन्तु सामाजिक स्मृति में यह बलिदान आज भी जीवित है
🔰 पीपा क्षत्रिय राजपूत: आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़ा, राजनीतिक रूप से उपेक्षित वर्ग
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज, संत शिरोमणि पीपा जी महाराज की परंपरा में अहिंसा, परिश्रम और आत्मगौरव को जीवन मूल्य मानकर चलने वाला एक ऐसा क्षत्रिय समाज है जिसने समय के साथ धर्मयुद्ध से लेकर श्रमशील जीवन तक का उत्क्रांतिपथ अपनाया।
🌾 आजीविका में श्रमशीलता – परंपरागत क्षत्रिय से मेहनतकश समाज तक
इतिहास में युद्ध कौशल और छापामार रणशैली के लिए विख्यात इस समाज ने शांति काल में कृषि, सिलाई और श्रमिक कार्यों को अपनाया। यह उनकी आत्मनिर्भरता, ईमानदारी और धर्मनिष्ठा का प्रमाण है।
परंतु उत्पादनशील और मेहनतकश कार्यों से होने वाली सीमित आय ने समाज को आर्थिक रूप से अत्यंत कमजोर बना दिया है।
⚖️ OBC वर्ग में वर्तमान स्थिति और विशेष उपवर्ग की आवश्यकता
हालांकि पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज को OBC वर्ग में स्थान दिया गया है, परंतु वास्तविक लाभों तक पहुँच अत्यंत सीमित है। इसके कारण हैं:
💠 अत्यंत कमजोर आर्थिक आधार: अधिकांश परिवार गरीबी रेखा के आसपास या नीचे जीवन यापन करते हैं।
🧑🌾 कृषि एवं श्रमिक कार्यों पर निर्भरता: समाज की अधिकांश आबादी असंगठित क्षेत्र में है, जहाँ कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है।
🗳️ राजनीतिक प्रतिनिधित्व शून्य के बराबर: पंचायत से लेकर संसद तक इस समाज की राजनीतिक भागीदारी नगण्य है।
🏢 सरकारी सेवाओं में नगण्य उपस्थिति: सरकारी नौकरियों में समाज का प्रतिनिधित्व नाममात्र है, जिससे सामाजिक असमानता और गहराई है।
📚 शैक्षणिक अवसरों की कमी: आर्थिक तंगी के कारण उच्च शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं में भागीदारी बहुत कम है।
📝 विशेष पिछड़ा वर्ग (Special Backward Class) में स्थान देने की माँग
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज बार-बार सरकार से यह माँग करता आया है कि उसे OBC के भीतर विशेष उपवर्ग में स्थान दिया जाए ताकि:
सामाजिक न्याय सुनिश्चित हो सके
समान स्तर के वंचित समाजों के साथ प्रतिस्पर्धा का अवसर मिले
शैक्षणिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर सशक्तिकरण हो सके
🔊 निष्कर्ष:
एक समाज जो कभी युद्धभूमि में सिंह की तरह लड़ा,
आज खेत, करघे और श्रम के माध्यम से राष्ट्र निर्माण में लगा है।
परंतु यदि आर्थिक-सामाजिक असमानता दूर नहीं की गई, तो यह परंपरा और प्रतिभा धीरे-धीरे हाशिये पर चली जाएगी।
इसलिए पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज को विशेष पिछड़ा वर्ग में समायोजित करना न्याय, समानता और संविधानिक अधिकारों की सच्ची पूर्ति होगी।
🔥 पीपा क्षत्रिय राजपूतों की घटती जनसंख्या: एक ऐतिहासिक षड्यंत्र और संघर्ष की गाथा
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज, संत शिरोमणि पीपा जी महाराज द्वारा दीक्षित 52 क्षत्रिय राजाओं के वंशज हैं। ये सभी योद्धा छापामार युद्ध शैली के जन्मदाता माने जाते हैं, जिन्होंने इतिहास के कई निर्णायक युद्धों में अद्वितीय वीरता और विजय प्राप्त की।
⚔️ ऐतिहासिक पराक्रम और वीरता
पीपा वंशी क्षत्रिय राजपूतों ने मालवा, दिल्ली सल्तनत, तुगलक, लोधी और मुगलों जैसे कई आक्रांताओं से लड़ाइयाँ लड़ीं।
इन्होंने छापामार युद्ध नीति में ऐसी महारत प्राप्त की थी कि दुश्मन की विशाल सेनाएँ भी इनके सामने विचलित हो जाती थीं।
इनकी रणनीति, साहस और बलिदान ने शत्रुओं को बार-बार परास्त किया।
🧩 सामाजिक-धार्मिक षड्यंत्र और पहचान का हनन
इस महान क्षत्रिय समाज को कमजोर करने हेतु सुनियोजित षड्यंत्र रचे गए:
🔻 "दरजी" और "इद्रिश" जैसे नाम थोपे गए: मुस्लिम शासकों ने चालाकी से सिलाई कार्य करने वाले पीपा क्षत्रिय राजपूतों को “दरजी” और “इद्रिश” जैसे झूठे, पेशागत मुस्लिम शब्दों से जोड़ दिया। उद्देश्य था – उनकी मूल क्षत्रिय पहचान को नष्ट करना और उन्हें सामाजिक रूप से “निम्न” दिखाना।
🧵 काम से जाति निर्धारण की साजिश: संत पीपा जी की परंपरा के अनुसार यह समाज संत सेवा, झंडा-ध्वज निर्माण और साधु वस्त्र सिलाई जैसे धार्मिक कार्यों से जुड़ा। लेकिन इन धार्मिक सेवाओं को जानबूझकर पेशा और फिर जाति बना दिया गया, ताकि समाज को “लड़ाई छोड़ चुके दर्जी” के रूप में प्रचारित किया जा सके।
📖 इतिहास को दबाना और नष्ट करना: ब्रिटिश और मुस्लिम शासन दोनों ने मिलकर पीपा क्षत्रिय राजपूतों के ऐतिहासिक ग्रंथों और लोकगाथाओं को या तो नष्ट किया या कभी दर्ज़ ही नहीं होने दिया। जिससे आने वाली पीढ़ियाँ अपनी वीर परंपरा से अनभिज्ञ रहें।
🧠 मानसिक गुलामी और सामाजिक अपमान: समाज को इतना अपमानित और भ्रमित किया गया कि उनकी आत्मगौरव की भावना को कुचल दिया गया। धीरे-धीरे कुछ लोग पहचान से दूर होते गए, कुछ मुखर विरोध के कारण युद्धों में मारे गए, और कुछ मूल क्षत्रियता की ओर लौटते हुए समाज से बाहर कर दिए गए।
📉 घटती जनसंख्या के मुख्य कारण:
लगातार युद्धों में वीरगति: बड़ी संख्या में योद्धा युद्धों में बलिदान हुए, जिससे पीढ़ियाँ समाप्त हो गईं।
आत्मगौरव की रक्षा में सामाजिक बहिष्कार: जो मूल क्षत्रिय पहचान की ओर लौटे, उन्हें झूठी जातिगत व्यवस्था से बाहर कर दिया गया।
सामाजिक और राजनीतिक हाशिए पर डालना: शासन और व्यवस्था में प्रतिनिधित्व ना मिल पाने के कारण शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक पिछड़ापन बढ़ता गया।
कई लोगों की पहचान जबरन बदल दी गई या उन्हें गुमनाम बना दिया गया।
🔊 आज की स्थिति:
आज पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज आर्थिक रूप से अत्यंत कमजोर, राजनीतिक रूप से उपेक्षित, और आंकड़ों में अदृश्य होता जा रहा है।
इनकी जनसंख्या लगातार घट रही है क्योंकि:
समाज के कई हिस्से अब भी अपनी मूल पहचान की खोज में हैं,
उन्हें आज भी गलत जातिगत पहचान से जोड़ा जा रहा है,
उनका गौरवशाली इतिहास आज भी पढ़ाया नहीं जाता।
✊ निष्कर्ष:
जिस समाज ने कभी मुगलों को छापामार नीति से नाकों चने चबवाए,
आज वह अपने अस्तित्व और सम्मान के लिए लड़ रहा है।
पीपा क्षत्रिय राजपूतों की घटती जनसंख्या केवल एक आँकड़ा नहीं,
बल्कि यह भारत के इतिहास में की गई सांस्कृतिक हत्या का जीवित प्रमाण है।
अब समय है कि इतिहास को पुनः लिखा जाए,
सच्चाई को पुनः सामने लाया जाए,
और इस वीर समाज को उसका गौरव, स्थान और अधिकार दिया जाए।
🔰 1. वीर पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज और उनकी छापामार परंपरा
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज, जो छापामार युद्ध शैली में दक्ष, निडर और कई निर्णायक युद्धों में अग्रणी भूमिका निभाने वाला एक वीर क्षत्रिय समुदाय रहा है, को ऐतिहासिक रूप से योजनाबद्ध षड्यंत्रों द्वारा कमजोर करने का प्रयास किया गया। यह समाज भारत की सीमांत युद्ध परंपराओं में एक प्रमुख स्तंभ रहा, जिसने धर्म, राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिए असंख्य युद्धों में भाग लिया।
🧩 2. मुस्लिम शासनकाल में पहचान को कुचलने की साजिश
मुस्लिम आक्रमणकारियों ने पहले इस समाज को “दर्जी” और “इद्रिश” जैसे पेशागत मुस्लिम शब्दों से जोड़ने की चाल चली, जिससे उनकी मूल क्षत्रिय पहचान को धूमिल किया जा सके। इसके बाद “डरपोक” या “मूर्ख” जैसी छवियाँ आरोपित करने के लिए जानबूझकर झूठी कहानियाँ गढ़ी गईं, जबकि सच्चाई यह है कि यह समाज पीढ़ियों से सीमांत संघर्षों में सबसे आगे रहा है।
🏛️ 3. ब्रिटिश शासन द्वारा ऐतिहासिक और मानसिक दमन
इसी मनोवैज्ञानिक रणनीति को आगे बढ़ाते हुए अंग्रेज़ों ने भी पीपा क्षत्रिय राजपूतों की वीरता और बलिदानों को इतिहास में स्थान नहीं दिया। जैसे उन्होंने सिखों के लिए भी उपहासजनक कहावतें गढ़ीं, उसी तरह इस समाज के बारे में भी अपमानजनक जनश्रुतियाँ फैलाईं। उन्होंने मौखिक परंपराओं को लिपिबद्ध नहीं होने दिया, जिससे इतिहास धुंधला हो गया। इस मानसिक और सांस्कृतिक हमले का परिणाम यह हुआ कि यह क्षत्रिय योद्धा समाज धीरे-धीरे आत्मगौरव से दूर होता चला गया और आज भी अपने गौरवपूर्ण इतिहास की पुनर्स्थापना के लिए संघर्षरत है।
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज, जो छापामार युद्ध शैली में दक्ष, निडर और कई निर्णायक युद्धों में अग्रणी भूमिका निभाने वाला एक वीर क्षत्रिय समुदाय रहा है, को ऐतिहासिक रूप से योजनाबद्ध षड्यंत्रों द्वारा कमजोर करने का प्रयास किया गया। मुस्लिम आक्रमणकारियों ने पहले इस समाज को “दर्जी” और “इद्रिश” जैसे पेशागत मुस्लिम शब्दों से जोड़कर उनकी मूल क्षत्रिय पहचान को धूमिल करने की कोशिश की। इसके बाद समाज पर “डरपोक”, “मूर्ख” या “रणभूमि से भागने वाली जाति” जैसी छवि आरोपित करने के लिए जानबूझकर झूठी कहानियाँ गढ़ी गईं, जबकि वास्तविकता इसके ठीक विपरीत थी – यह समाज सदियों तक सीमांत संघर्षों में अग्रणी रहा। यही मनोवैज्ञानिक रणनीति बाद में अंग्रेज़ों ने भी अपनाई, जैसे उन्होंने सिखों को “मूर्ख और नासमझ” दर्शाने वाली कहावतें और कहानियाँ गढ़ी थीं, ठीक उसी तरह की अपमानजनक शैली पीपा क्षत्रिय राजपूतों पर भी लागू की गई। अंग्रेजों ने न केवल इनके गौरवशाली युद्धों और बलिदानों को इतिहास में स्थान नहीं दिया, बल्कि कई मौखिक परंपराओं को लिपिबद्ध करने से भी रोका गया। इस संयुक्त मानसिक और सांस्कृतिक आक्रमण का परिणाम यह हुआ कि यह योद्धा समाज धीरे-धीरे आत्मगौरव से दूर हुआ और सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से हाशिये पर चला गया। आज भी पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज इन ऐतिहासिक अन्यायों के विरुद्ध अपनी पहचान, इतिहास और सम्मान की पुनर्स्थापना के लिए संघर्ष कर रहा है।
श्री पीपा चेतना ई-पत्रिका
श्री पीपा चेतना – एक नयी शुरुआत, आत्मगौरव की दिशा में
'''परिचय:'''
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज अब त्रिवेणी गति से अपने राजपुताना गौरव को पुनः जाग्रत करने हेतु प्रयत्नशील है। इस पुनर्जागरण के क्रम में समाज के प्रतिभावान एवं प्रबुद्ध जनों द्वारा समाज के अधिकृत Logo एवं Motto का निर्माण किया गया है, जो नई चेतना, उत्साह तथा संगठन की भावना को दृढ़ता प्रदान करता है।
'''लक्ष्य:
'''
समाज की सांस्कृतिक विरासत, वीरता, आत्मगौरव तथा सामाजिक एकता को जीवंत बनाए रखने हेतु जनचेतना का विस्तार किया जाएगा। इसी उद्देश्य से "श्री पीपा चेतना" नामक मासिक ई-पत्रिका की शुरुआत की जा रही है।
पत्रिका का स्वरूप:
नाम: श्री पीपा चेतना
प्रकार: मासिक ई-पत्रिका
पृष्ठ संख्या: कुल 21 पृष्ठ
माध्यम: डिजिटल (PDF, वेबसाइट, व्हाट्सएप/सोशल मीडिया वितरण)
मूल्य: पूर्णतः निःशुल्क
संचालन: जनसहयोग से संचालित
प्रकाशन का उद्देश्य:
समाज के गौरवशाली इतिहास, परंपराओं, वीर पुरखों और संत शिरोमणि श्री पीपा जी की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार।
युवाओं में आत्मबल, संगठनबद्धता और नेतृत्व की चेतना जागृत करना।
समाज के भीतर सकारात्मक संवाद, पहचान और वैचारिक दिशा को स्थापित करना।
पीपा क्षत्रिय राजपूत समाज के कार्यक्रम, उपलब्धियाँ एवं प्रेरणादायक व्यक्तित्वों को स्थान देना।
संगठन को मजबूत करने हेतु सुझाव, लेख, घोषणाएँ और अभियान विवरण प्रकाशित करना।
'''विशेषताएँ:'''
सम्पूर्ण समाज के लिए निःशुल्क उपलब्ध।
डिजिटल फॉर्मेट में सभी के लिए पहुँच योग्य।
जन-सहयोग के आधार पर लेख, विचार, कविता, सामाजिक खबरें आमंत्रित।
''''''प्रत्येक अंक में “श्री पीपा वाणी”, “वीरगाथा”, “समाज गौरव”, “युवा दिशा”, “राजनीतिक व आर्थिक दृष्टिकोण”, “विवाह योग्य परिचय” जैसे विशेष स्तंभ।''''''
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