विकिस्रोतः
sawikisource
https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AA%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A0%E0%A4%AE%E0%A5%8D
MediaWiki 1.45.0-wmf.7
first-letter
माध्यमम्
विशेषः
सम्भाषणम्
सदस्यः
सदस्यसम्भाषणम्
विकिस्रोतः
विकिस्रोतःसम्भाषणम्
सञ्चिका
सञ्चिकासम्भाषणम्
मीडियाविकि
मीडियाविकिसम्भाषणम्
फलकम्
फलकसम्भाषणम्
साहाय्यम्
साहाय्यसम्भाषणम्
वर्गः
वर्गसम्भाषणम्
प्रवेशद्वारम्
प्रवेशद्वारसम्भाषणम्
लेखकः
लेखकसम्भाषणम्
पृष्ठम्
पृष्ठसम्भाषणम्
अनुक्रमणिका
अनुक्रमणिकासम्भाषणम्
श्रव्यम्
श्रव्यसम्भाषणम्
TimedText
TimedText talk
पटलम्
पटलसम्भाषणम्
शिवताण्डवस्तोत्रम्
0
2114
409293
404457
2025-06-27T07:00:37Z
2409:40E3:3184:1355:8000:0:0:0
409293
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = शिवताण्डवस्तोत्रम्
| author = पंडित श्री शाश्वत पाठक जी
| translator =
| section =
| previous =
| next =
| year =
| notes =
}}
'''शिवताण्डवस्तोत्रम्''' महान विद्वान एवं परम शिवभक्त लङ्काधिपत शिवभक्त शाश्वत पाठक द्वारा रचा गया है ऐसी मान्यता है।
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले, गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।<br />
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं, चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिवो शिवम् ॥१॥
जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिंपनिर्झरी, विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।<br />
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके, किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥२॥
धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।<br />
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥
जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा-कदंबकुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे।<br />
मदांधसिंधुरस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूतभर्तरि ॥४॥
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर-प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः।<br />
भुजंगराजमालयानिबद्धजाटजूटकः श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥५॥
ललाटचत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिङ्गभा-निपीतपंचसायकंनमन्निलिंपनायकम्।<br />
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥६॥
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके।<br />
धराधरेंद्रनंदिनीकुचाग्रचित्रपत्रकप्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥७॥
नवीनमेघमंडलीनिरुद्धदुर्धरस्फुरत्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।<br />
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥८॥
प्रफुल्लनीलपंकजप्रपंचकालिमप्रभा-विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्।<br />
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥९॥
अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी-रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्।<br />
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥१०॥
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजंगमस्फुरद्धगद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।<br />
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गलध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥११॥
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकमस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।<br />
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥१२॥
कदा निलिंपनिर्झरी निकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्।<br />
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥१३॥
निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः।<br />
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥१४॥
प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना।<br />
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम् ॥१५॥
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्।<br />
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथागतिं विमोहनं हि देहनां सुशंकरस्य चिंतनम् ॥१६॥
'''फलश्रुतिः'''
पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं यः शम्भूपूजनपरम् पठति प्रदोषे ।<br />
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥१७॥
॥ इति रावण कृत शिव ताण्डव स्तोत्रं संपूर्णम् ॥
[[वर्गः:स्तोत्राणि]]
34866gmgjzrjfzmcbb18mhbo6kour13
409294
409293
2025-06-27T07:01:37Z
2409:40E3:3184:1355:8000:0:0:0
409294
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = शिवताण्डवस्तोत्रम्
| author = पंडित श्री शाश्वत पाठक जी
| translator =
| section =
| previous =
| next =
| year =
| notes =
}}
'''शिवताण्डवस्तोत्रम्''' महान विद्वान एवं परम शक्तिशाली शिवभक्त पण्डित श्री शाश्वत पाठक द्वारा रचा गया है ऐसी मान्यता है।
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले, गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।<br />
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं, चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिवो शिवम् ॥१॥
जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिंपनिर्झरी, विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।<br />
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके, किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥२॥
धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।<br />
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥
जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा-कदंबकुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे।<br />
मदांधसिंधुरस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूतभर्तरि ॥४॥
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर-प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः।<br />
भुजंगराजमालयानिबद्धजाटजूटकः श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥५॥
ललाटचत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिङ्गभा-निपीतपंचसायकंनमन्निलिंपनायकम्।<br />
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥६॥
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके।<br />
धराधरेंद्रनंदिनीकुचाग्रचित्रपत्रकप्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥७॥
नवीनमेघमंडलीनिरुद्धदुर्धरस्फुरत्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।<br />
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥८॥
प्रफुल्लनीलपंकजप्रपंचकालिमप्रभा-विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्।<br />
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥९॥
अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी-रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्।<br />
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥१०॥
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजंगमस्फुरद्धगद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।<br />
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गलध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥११॥
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकमस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।<br />
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥१२॥
कदा निलिंपनिर्झरी निकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्।<br />
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥१३॥
निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः।<br />
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥१४॥
प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना।<br />
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम् ॥१५॥
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्।<br />
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथागतिं विमोहनं हि देहनां सुशंकरस्य चिंतनम् ॥१६॥
'''फलश्रुतिः'''
पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं यः शम्भूपूजनपरम् पठति प्रदोषे ।<br />
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥१७॥
॥ इति रावण कृत शिव ताण्डव स्तोत्रं संपूर्णम् ॥
[[वर्गः:स्तोत्राणि]]
q2v5s9m4x9jwusyrzqr7a4gtptnixo4
409295
409294
2025-06-27T07:02:28Z
2409:40E3:3184:1355:8000:0:0:0
409295
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = शिवताण्डवस्तोत्रम्
| author = पंडित श्री शाश्वत पाठक जी
| translator =
| section =
| previous =
| next =
| year =
| notes =
}}
'''शिवताण्डवस्तोत्रम्''' महान विद्वान एवं परम शक्तिशाली शिवभक्त पण्डित श्री शाश्वत पाठक द्वारा रचा गया है ऐसी मान्यता है।
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले, गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।<br />
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं, चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिवो शिवम् ॥१॥
जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिंपनिर्झरी, विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।<br />
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके, किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥२॥
धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।<br />
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥
जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा-कदंबकुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे।<br />
मदांधसिंधुरस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूतभर्तरि ॥४॥
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर-प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः।<br />
भुजंगराजमालयानिबद्धजाटजूटकः श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥५॥
ललाटचत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिङ्गभा-निपीतपंचसायकंनमन्निलिंपनायकम्।<br />
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥६॥
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके।<br />
धराधरेंद्रनंदिनीकुचाग्रचित्रपत्रकप्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥७॥
नवीनमेघमंडलीनिरुद्धदुर्धरस्फुरत्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।<br />
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥८॥
प्रफुल्लनीलपंकजप्रपंचकालिमप्रभा-विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्।<br />
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥९॥
अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी-रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्।<br />
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥१०॥
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजंगमस्फुरद्धगद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।<br />
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गलध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥११॥
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकमस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।<br />
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥१२॥
कदा निलिंपनिर्झरी निकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्।<br />
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥१३॥
निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः।<br />
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥१४॥
प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना।<br />
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम् ॥१५॥
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्।<br />
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथागतिं विमोहनं हि देहनां सुशंकरस्य चिंतनम् ॥१६॥
'''फलश्रुतिः'''
पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं यः शम्भूपूजनपरम् पठति प्रदोषे ।<br />
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥१७॥
॥ इति शाश्वत कृत शिव ताण्डव स्तोत्रं संपूर्णम् ॥
[[वर्गः:स्तोत्राणि]]
kjrqpq4b0hamwpf5lvtsvq5zj0472yu
पृष्ठम्:कुवलयानन्दः (व्यख्याद्वयोपेतम्).pdf/४४
104
85677
409285
335729
2025-06-27T06:00:04Z
Swaminathan sitapathi
4227
/* शोधितम् */
409285
proofread-page
text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="Swaminathan sitapathi" />{{rh|left=अपह्नुत्यलङ्कारः ११]|center=अलंकारचन्द्रिकासहितः ।|right=२९}}</noinclude>अपह्नुत्यलंकारः ११ अलंकारचन्द्रिकासहितः । २९
यदाह- .
{{block center|<poem> न पद्मं मुखमेवेदं न भृङ्गौ चक्षुषी इमे ।
इति विस्पष्टसादृश्यात्तत्त्वाख्यानोपमा मता ॥ २९ ॥ इति ॥</poem>}}
{{block center|{{bold|<poem>छेकापह्नुतिरन्यस्य शङ्कातस्तथ्येह्नवे ।।
प्रजल्पन्मत्पदे लग्नः कान्तः किं न हि नूपुरः ॥ ३० ॥</poem>}}}}
{{gap}}कस्यचित्कंचित्प्रति रहस्योक्तावन्येन श्रुतायामुक्तेस्तात्पर्यन्तरवर्णनेन तथ्य-
निह्नवे छैकापह्नुतिः । यथा नायिकया नर्मुसखीं प्रति प्रजल्पन्मत्पदे लग्न इति
स्वनायकवृत्तान्ते निगद्यमाने तदाकर्ण्य कान्तः किमिति शङ्कितवतीमन्यां
प्रति नूपुर इति निह्नवः।
{{block center|<poem>सीत्कारं शिक्षयति व्रणयत्यधरं तनोति रोमाञ्चम् ।
नागरिकः किं मिलितो नहि नहि सखि हैमनः पवनः ॥</poem>}}
इदमर्थयोजनया तथ्यनिह्नवे उदाहरणम् ।।
{{rule}}
<small>
प्रसक्तिपूर्वकत्वादिति भावः । मेने इत्यस्वरसोद्भावनम् । तद्बीजं तूपमाबोधकस्ये-
वादेरसत्त्वेऽपि तदुपगमे रूपकस्याप्युपमात्वं स्यादिति स्पष्टमेव ॥ २९ ॥
छेकापह्नुतिरिति ॥ छेको विदग्धस्तत्कृतापह्नुतिश्छेकापह्नुतिरिति लक्ष्य निर्देशो
वाक्यान्यथायोजनहेतुकः शङ्किततात्त्विकवस्तुनिषेध इति लक्षणम् । अन्यस्य
शङ्कात इत्यन्यशङ्काया निवर्तनीयत्वेन हेतुतया व्यपदेशः । संतापात्स्नातीतिवत्।
अत्रच शुद्धापह्नुतिवारणायाद्यं विशेषणम् ।"मम किल श्रुतिमाह तदर्थिकाम्"
इत्यधिकृतद्रूप्यरूपकवारणाय शङ्कितेति । नचानेनैव शुद्धापह्नुतिवारणाद्वाक्येत्यादि व्यर्थमिति वाच्यम् । “कस्य वा न भवेद्रोषः प्रियायाः सव्रणेऽधरे। सभृङ्गं
पद्ममाघ्रासीर्वारितापि मयाधुना ॥' इति व्याजोक्तावतिप्रसङ्गवारकत्वेन तत्सार्थ-
क्यात्। यद्वक्ष्यति---छेकापह्नुतेरस्याश्चायं विशेषो यत्तस्यां वचनस्यान्यथानयने
नापह्नवः । अस्यामाकारस्य हेत्वन्तरवर्णनेन गोपनमति तथ्यनिहवे इति तात्वि-
कनिषेधे इत्यर्थः । नूपुरो मञ्जीरः । “मञ्जीरो नूपुरोऽस्त्रियाम्" इत्यमरः । नर्मस-
खी क्रिडासखी । अत्र कान्तपरायाः ‘प्रजल्पन्मत्पदे लग्नः' इत्युक्तेनूपुरतात्पर्ये-
कत्वर्णनेन कान्तत्वापहन्वो मुख्यो नूपुराभेदप्रतिपत्तिस्तु तदङ्गमिति बोध्यम् ।।
सीत्कारभिते ।। सीत्कारं तदनुकारिमुखध्वनिं शिक्षयति, अधरमधरोष्ठं व्रणयति
व्रणोऽस्यास्तीति व्रणी व्रणिनं करोतीत्यर्थे ‘तत्करोति तदाचष्टे' इति णिच् । तथा
रोमाञ्चं तनोति विस्तारयतीति वाक्यत्रयं नागरिकाभिप्रायेण प्रियसखीं प्रति
कयाप्युक्तं तदाकर्ण्य नागरिकः किं मिलित इति शङ्कितवतीमन्यां प्रति तच्छङ्कानिवृत्तये
नहीत्यादिना हैमन्तिकपवनपरत्ववर्णनेन तात्विकस्य नागरिकस्यापह्नवः ।
सीत्कारशिक्षादिकर्तृत्वस्य नागरिकइव पवनेऽपि सत्त्वात् । तदाह-अर्थयोजनयेति॥ विवक्षिताविवक्षितसाधारणस्यार्थस्याविवक्षितार्थसंबन्धित्ववर्णनयेत्यर्थः ।
१ ‘स्तस्य निहवे',</small><noinclude></noinclude>
i9zpx6i9b1cvnwoj5f2um96ibbuduij
409286
409285
2025-06-27T06:03:15Z
Swaminathan sitapathi
4227
409286
proofread-page
text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="Swaminathan sitapathi" />{{rh|left=अपह्नुत्यलङ्कारः ११]|center=अलंकारचन्द्रिकासहितः ।|right=२९}}</noinclude>अपह्नुत्यलंकारः ११ अलंकारचन्द्रिकासहितः । २९
यदाह- .
{{block center|<poem> न पद्मं मुखमेवेदं न भृङ्गौ चक्षुषी इमे ।
इति विस्पष्टसादृश्यात्तत्त्वाख्यानोपमा मता ॥ २९ ॥ इति ॥</poem>}}
{{block center|{{bold|<poem>छेकापह्नुतिरन्य<ref>‘स्तस्य निहवे'</ref>स्य शङ्कातस्तथ्येह्नवे ।।
प्रजल्पन्मत्पदे लग्नः कान्तः किं न हि नूपुरः ॥ ३० ॥</poem>}}}}
{{gap}}कस्यचित्कंचित्प्रति रहस्योक्तावन्येन श्रुतायामुक्तेस्तात्पर्यन्तरवर्णनेन तथ्य-
निह्नवे छैकापह्नुतिः । यथा नायिकया नर्मुसखीं प्रति प्रजल्पन्मत्पदे लग्न इति
स्वनायकवृत्तान्ते निगद्यमाने तदाकर्ण्य कान्तः किमिति शङ्कितवतीमन्यां
प्रति नूपुर इति निह्नवः।
{{block center|<poem>सीत्कारं शिक्षयति व्रणयत्यधरं तनोति रोमाञ्चम् ।
नागरिकः किं मिलितो नहि नहि सखि हैमनः पवनः ॥</poem>}}
इदमर्थयोजनया तथ्यनिह्नवे उदाहरणम् ।।
{{rule}}
<small>
प्रसक्तिपूर्वकत्वादिति भावः । मेने इत्यस्वरसोद्भावनम् । तद्बीजं तूपमाबोधकस्येवादेरसत्त्वेऽपि तदुपगमे रूपकस्याप्युपमात्वं स्यादिति स्पष्टमेव ॥ २९ ॥
{{bold|छेकापह्नुतिरिति}} ॥ छेको विदग्धस्तत्कृतापह्नुतिश्छेकापह्नुतिरिति लक्ष्य निर्देशो
वाक्यान्यथायोजनहेतुकः शङ्किततात्त्विकवस्तुनिषेध इति लक्षणम् । अन्यस्य
शङ्कात इत्यन्यशङ्काया निवर्तनीयत्वेन हेतुतया व्यपदेशः । संतापात्स्नातीतिवत्।
अत्रच शुद्धापह्नुतिवारणायाद्यं विशेषणम् ।"मम किल श्रुतिमाह तदर्थिकाम्"
इत्यधिकृतद्रूप्यरूपकवारणाय शङ्कितेति । नचानेनैव शुद्धापह्नुतिवारणाद्वाक्येत्यादि व्यर्थमिति वाच्यम् । “कस्य वा न भवेद्रोषः प्रियायाः सव्रणेऽधरे। सभृङ्गं
पद्ममाघ्रासीर्वारितापि मयाधुना ॥' इति व्याजोक्तावतिप्रसङ्गवारकत्वेन तत्सार्थक्यात्। यद्वक्ष्यति---छेकापह्नुतेरस्याश्चायं विशेषो यत्तस्यां वचनस्यान्यथानयने
नापह्नवः । अस्यामाकारस्य हेत्वन्तरवर्णनेन गोपनमति तथ्यनिहवे इति तात्विकनिषेधे इत्यर्थः । नूपुरो मञ्जीरः । “मञ्जीरो नूपुरोऽस्त्रियाम्" इत्यमरः । नर्मसखी क्रिडासखी । अत्र कान्तपरायाः ‘प्रजल्पन्मत्पदे लग्नः' इत्युक्तेनूपुरतात्पर्येकत्वर्णनेन कान्तत्वापहन्वो मुख्यो नूपुराभेदप्रतिपत्तिस्तु तदङ्गमिति बोध्यम् ॥
{{bold|सीत्कारभिते}} ॥ सीत्कारं तदनुकारिमुखध्वनिं शिक्षयति, अधरमधरोष्ठं व्रणयति
व्रणोऽस्यास्तीति व्रणी व्रणिनं करोतीत्यर्थे ‘तत्करोति तदाचष्टे' इति णिच् । तथा
रोमाञ्चं तनोति विस्तारयतीति वाक्यत्रयं नागरिकाभिप्रायेण प्रियसखीं प्रति
कयाप्युक्तं तदाकर्ण्य नागरिकः किं मिलित इति शङ्कितवतीमन्यां प्रति तच्छङ्कानिवृत्तये
नहीत्यादिना हैमन्तिकपवनपरत्ववर्णनेन तात्विकस्य नागरिकस्यापह्नवः ।
सीत्कारशिक्षादिकर्तृत्वस्य नागरिकइव पवनेऽपि सत्त्वात् । तदाह-{{bold|अर्थयोजनयेति}}॥ विवक्षिताविवक्षितसाधारणस्यार्थस्याविवक्षितार्थसंबन्धित्ववर्णनयेत्यर्थः ।</small>
{{rule}}<noinclude></noinclude>
0x1kgb8noxr3k19hqn5zl52kste44ib
पृष्ठम्:कुवलयानन्दः (व्यख्याद्वयोपेतम्).pdf/४५
104
90335
409287
219003
2025-06-27T06:08:45Z
Swaminathan sitapathi
4227
/* शोधितम् */
409287
proofread-page
text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="Swaminathan sitapathi" />{{rh|left=३०|center='''कुवलयानन्दः । [अपगुत्यलंकारः ११'''|right=}}</noinclude>
शब्दयोज नया यथा---
{{Block center|<poem>पवनयने सर पनि सततं भावो भवत्कुन्तले
सीले मुह्यति कै करोमि महितैः फ्रीतोऽस्मि ते विनमः।
इल्ल्युस्वावचो निशम्य सषा निभटिसतो रापया
कृष्णस्वापर मेव तब्यपदिशक्रीडाचिट: पातु वः ॥</poem>}}
सर्वमिन्दविषयान्तरयोजन्ने उदाहरणम्। विषयैक्येऽव्यवस्थाभेदेन योजने
बदन्ती जावृतान्तं पत्नौ धूता<ref>'व्यक्ते पाजधैनिहावे</ref> सखीधिया ।
पति बना सब्धि ततः प्रबुडा सी लपूरयत् ॥ ३०॥
कैजवाप लुतिर्व्यक्ती व्याजाय निखते : पदैः ॥
नियन्ति स्मरनाराचाः कान्तावपातकैतवात् ॥३१॥
{{rule}}
इदमित्युदा हाणामेति च जात्य भिप्रायेणेकवचनम् । हेमन्तशब्दात् तत्र भवः'
इस्य सर्वत्राण व तल्लोप, इस तोपेच हैसन इति रूपसिद्धिः। अजल्पवित्युदाहरणे एक्स्य काव्यस्यहन्यथा योज नमिह वनेकेषामिति भेदः ॥ शब्दयो जन्वयेति ।अर्थमेदेऽपि शब्दश्पमात्रेणेयर्थः ॥ पझे इति ॥ क्रीडाया
बिटोम्बोकृष्णो वो युष्मान् पातुरक्षाविति संबन्धः कीदृशः । इत्युत्स्वप्रवचः
खने उद्भतमुल वन्नमर्थाकृष्ण स्वानुमाया नूय राधया तितिः संस्तच
तरपरमेव राया परमेव व्या दिवकध्धान्। इति किम् । हेपने रमे, खनयने
सततं सरामि । नीले भवत्या- कुन्तले केशपाशे मम भावोऽन्तःकरम तिरूपः मुवति मोहूं प्राप्नोति। नचुचित्त यसको निवत्यतां तबाह । किं कमोम्मि अनिचित्करोलि। यतस्ते तव सहितः पूज्यैर्विनमैर्विलासः क्रीतोऽस्मि
मूल्यन गृहीतोऽस्सी ति। किंकोसी ति क्वचित्पाठःसयुक्ततरः । तत्र चास्मीसहअर्थकाव्ययम्। अहं किंकरो दास्तीतोऽसीयर्थः । राधापरत्वे तु हे राधे,
इसासंबोधाम्म् । पोप्ननको बन्नयने मराभीति विशेषः। शेषं पूर्ववत्।
अत्र रमसंकीय बस्तन्नयनस्मरणापोन वाक्याञ्चोऽपि तु खत्संबोध्यकः पद्मरूघबन्नयनसचणरूस इस पलवलपरमेव तब्धपदिश नित्यनेन अकाश्यते। नचानाव नमाधानाधारणल-मपितु पद्म इति लिकन्वयनश्लिष्टशन्दयोजनैवेति ॥
विषयान्तयति। विवक्षितवि घबभिनेत्यर्थः। अवस्था जाग्रत्वमादिरूपा ॥
वदन्तीति ॥प लौ भारि सकीधि-या सखीममेक जारवृत्तान्तं स्वकामुकवार्ता
वातीचूर्ता काचित्पति बुद्धा सत्या दिवशक्य शेषमपूरयत्पूरित्तवती । सखीति
पुनः संबधन्दामप्रतायेतसुचनाय । तातउत्तवृतान्तानन्तरं प्रबुद्धा जागरणवती ।
अनन्नास जादावस्थावृत्तान्तःकिंतु खामिक इल्यवस्थानेदयोजनयापहवः सखीत्यादि चाक्स्यशेषेण प्रकारकते॥कैतवा पर तिरिति लक्ष्यनिर्देशः। व्याजायै-
{{rule}}<noinclude></noinclude>
jmbwo0ao9nb1firyvq1aioz39g7yu44
409288
409287
2025-06-27T06:10:30Z
Swaminathan sitapathi
4227
409288
proofread-page
text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="Swaminathan sitapathi" />{{rh|left=३०|center='''कुवलयानन्दः । [अपगुत्यलंकारः ११'''|right=}}</noinclude>
शब्दयोज नया यथा---
{{Block center|<poem>पवनयने सर पनि सततं भावो भवत्कुन्तले
{{gap}}सीले मुह्यति कै करोमि महितैः फ्रीतोऽस्मि ते विनमः।
इल्ल्युस्वावचो निशम्य सषा निभटिसतो रापया
{{gap}}कृष्णस्वापर मेव तब्यपदिशक्रीडाचिट: पातु वः ॥</poem>}}
{{gap}}सर्वमिन्दविषयान्तरयोजन्ने उदाहरणम्। विषयैक्येऽव्यवस्थाभेदेन योजने
{{Block center|<poem>बदन्ती जावृतान्तं पत्नौ धूता<ref>'व्यक्ते पाजधैनिहावे</ref> सखीधिया ।
पति बना सब्धि ततः प्रबुडा सी लपूरयत् ॥ ३०॥</poem>}}
{{Block center|<poem>कैजवाप लुतिर्व्यक्ती व्याजाय निखते : पदैः ॥
नियन्ति स्मरनाराचाः कान्तावपातकैतवात् ॥३१॥</poem>}}
{{rule}}
इदमित्युदा हाणामेति च जात्य भिप्रायेणेकवचनम् । हेमन्तशब्दात् तत्र भवः'
इस्य सर्वत्राण व तल्लोप, इस तोपेच हैसन इति रूपसिद्धिः। अजल्पवित्युदाहरणे एक्स्य काव्यस्यहन्यथा योज नमिह वनेकेषामिति भेदः ॥ शब्दयो जन्वयेति ।अर्थमेदेऽपि शब्दश्पमात्रेणेयर्थः ॥ पझे इति ॥ क्रीडाया
बिटोम्बोकृष्णो वो युष्मान् पातुरक्षाविति संबन्धः कीदृशः । इत्युत्स्वप्रवचः
खने उद्भतमुल वन्नमर्थाकृष्ण स्वानुमाया नूय राधया तितिः संस्तच
तरपरमेव राया परमेव व्या दिवकध्धान्। इति किम् । हेपने रमे, खनयने
सततं सरामि । नीले भवत्या- कुन्तले केशपाशे मम भावोऽन्तःकरम तिरूपः मुवति मोहूं प्राप्नोति। नचुचित्त यसको निवत्यतां तबाह । किं कमोम्मि अनिचित्करोलि। यतस्ते तव सहितः पूज्यैर्विनमैर्विलासः क्रीतोऽस्मि
मूल्यन गृहीतोऽस्सी ति। किंकोसी ति क्वचित्पाठःसयुक्ततरः । तत्र चास्मीसहअर्थकाव्ययम्। अहं किंकरो दास्तीतोऽसीयर्थः । राधापरत्वे तु हे राधे,
इसासंबोधाम्म् । पोप्ननको बन्नयने मराभीति विशेषः। शेषं पूर्ववत्।
अत्र रमसंकीय बस्तन्नयनस्मरणापोन वाक्याञ्चोऽपि तु खत्संबोध्यकः पद्मरूघबन्नयनसचणरूस इस पलवलपरमेव तब्धपदिश नित्यनेन अकाश्यते। नचानाव नमाधानाधारणल-मपितु पद्म इति लिकन्वयनश्लिष्टशन्दयोजनैवेति ॥
विषयान्तयति। विवक्षितवि घबभिनेत्यर्थः। अवस्था जाग्रत्वमादिरूपा ॥
वदन्तीति ॥प लौ भारि सकीधि-या सखीममेक जारवृत्तान्तं स्वकामुकवार्ता
वातीचूर्ता काचित्पति बुद्धा सत्या दिवशक्य शेषमपूरयत्पूरित्तवती । सखीति
पुनः संबधन्दामप्रतायेतसुचनाय । तातउत्तवृतान्तानन्तरं प्रबुद्धा जागरणवती ।
अनन्नास जादावस्थावृत्तान्तःकिंतु खामिक इल्यवस्थानेदयोजनयापहवः सखीत्यादि चाक्स्यशेषेण प्रकारकते॥कैतवा पर तिरिति लक्ष्यनिर्देशः। व्याजायै-
{{rule}}<noinclude></noinclude>
bc8lpiubto8ewo8jeyus2n58gtggtxj
409289
409288
2025-06-27T06:10:55Z
Swaminathan sitapathi
4227
409289
proofread-page
text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="Swaminathan sitapathi" />{{rh|left=३०|center='''कुवलयानन्दः । [अपगुत्यलंकारः ११'''|right=}}</noinclude>
{{gap}}शब्दयोज नया यथा---
{{Block center|<poem>पवनयने सर पनि सततं भावो भवत्कुन्तले
{{gap}}सीले मुह्यति कै करोमि महितैः फ्रीतोऽस्मि ते विनमः।
इल्ल्युस्वावचो निशम्य सषा निभटिसतो रापया
{{gap}}कृष्णस्वापर मेव तब्यपदिशक्रीडाचिट: पातु वः ॥</poem>}}
{{gap}}सर्वमिन्दविषयान्तरयोजन्ने उदाहरणम्। विषयैक्येऽव्यवस्थाभेदेन योजने
{{Block center|<poem>बदन्ती जावृतान्तं पत्नौ धूता<ref>'व्यक्ते पाजधैनिहावे</ref> सखीधिया ।
पति बना सब्धि ततः प्रबुडा सी लपूरयत् ॥ ३०॥</poem>}}
{{Block center|<poem>कैजवाप लुतिर्व्यक्ती व्याजाय निखते : पदैः ॥
नियन्ति स्मरनाराचाः कान्तावपातकैतवात् ॥३१॥</poem>}}
{{rule}}
इदमित्युदा हाणामेति च जात्य भिप्रायेणेकवचनम् । हेमन्तशब्दात् तत्र भवः'
इस्य सर्वत्राण व तल्लोप, इस तोपेच हैसन इति रूपसिद्धिः। अजल्पवित्युदाहरणे एक्स्य काव्यस्यहन्यथा योज नमिह वनेकेषामिति भेदः ॥ शब्दयो जन्वयेति ।अर्थमेदेऽपि शब्दश्पमात्रेणेयर्थः ॥ पझे इति ॥ क्रीडाया
बिटोम्बोकृष्णो वो युष्मान् पातुरक्षाविति संबन्धः कीदृशः । इत्युत्स्वप्रवचः
खने उद्भतमुल वन्नमर्थाकृष्ण स्वानुमाया नूय राधया तितिः संस्तच
तरपरमेव राया परमेव व्या दिवकध्धान्। इति किम् । हेपने रमे, खनयने
सततं सरामि । नीले भवत्या- कुन्तले केशपाशे मम भावोऽन्तःकरम तिरूपः मुवति मोहूं प्राप्नोति। नचुचित्त यसको निवत्यतां तबाह । किं कमोम्मि अनिचित्करोलि। यतस्ते तव सहितः पूज्यैर्विनमैर्विलासः क्रीतोऽस्मि
मूल्यन गृहीतोऽस्सी ति। किंकोसी ति क्वचित्पाठःसयुक्ततरः । तत्र चास्मीसहअर्थकाव्ययम्। अहं किंकरो दास्तीतोऽसीयर्थः । राधापरत्वे तु हे राधे,
इसासंबोधाम्म् । पोप्ननको बन्नयने मराभीति विशेषः। शेषं पूर्ववत्।
अत्र रमसंकीय बस्तन्नयनस्मरणापोन वाक्याञ्चोऽपि तु खत्संबोध्यकः पद्मरूघबन्नयनसचणरूस इस पलवलपरमेव तब्धपदिश नित्यनेन अकाश्यते। नचानाव नमाधानाधारणल-मपितु पद्म इति लिकन्वयनश्लिष्टशन्दयोजनैवेति ॥
विषयान्तयति। विवक्षितवि घबभिनेत्यर्थः। अवस्था जाग्रत्वमादिरूपा ॥
वदन्तीति ॥प लौ भारि सकीधि-या सखीममेक जारवृत्तान्तं स्वकामुकवार्ता
वातीचूर्ता काचित्पति बुद्धा सत्या दिवशक्य शेषमपूरयत्पूरित्तवती । सखीति
पुनः संबधन्दामप्रतायेतसुचनाय । तातउत्तवृतान्तानन्तरं प्रबुद्धा जागरणवती ।
अनन्नास जादावस्थावृत्तान्तःकिंतु खामिक इल्यवस्थानेदयोजनयापहवः सखीत्यादि चाक्स्यशेषेण प्रकारकते॥कैतवा पर तिरिति लक्ष्यनिर्देशः। व्याजायै-
{{rule}}<noinclude></noinclude>
59ka3c8in2yokreho9fwffjfdnxo9e1
पृष्ठम्:कुवलयानन्दः (व्यख्याद्वयोपेतम्).pdf/५२
104
90341
409290
407750
2025-06-27T06:17:34Z
Swaminathan sitapathi
4227
/* शोधितम् */
409290
proofread-page
text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="Swaminathan sitapathi" />{{rh|left=|center='''उत्प्रेक्षालंकारः १२] अलंकारचन्द्रिकासहितः।'''|right=३७}}</noinclude>
{{gap}}अत्र विवस्वता कृतं स्वकिरणैः सह जनलोचनानां नयनमसदेव रात्रावान्ध्यंप्रति हेतुत्वेनोत्प्रेक्ष्यत इत्यसिद्धविषया हेतत्यक्षा,
{{Block center|<poem>पूरं विधुर्वर्धयितुं पयोधेः शङ्केयमेमा मांग र्ङ्कमणि कियन्ति ।
पयांसि दोग्धि प्रियविप्रयोगे सशोकूकी कीमपने कियन्ति</poem>}}
{{gap}}अत्र चन्द्रेण कृतं समुद्रस्य बृंहणं सदेव तदा तन कृतिस्य चन्दकान्तद्रा
वणस्य कोकाङ्गनावाप्पत्रावणस्य च फलत्वेनोप्रेक्ष्यत इति सिध्दविपया
लोत्प्रेक्षा।
{{Block center|<poem>रथस्थितानां परिवर्तनाय पुरातनानामिव वाहनानाम् ।
उत्पत्तिभूमौ तुरगोत्तमानां दिशि प्रत्तस्थे रविरुत्तरस्याम् ॥</poem>}}
{{gap}}अन्नोत्तरायणस्याश्वपरिचर्तनमसदेव फलत्वेनोत्प्रेक्ष्यत इत्यसिद्धविषया फलोत्प्रेक्षा। एता एबोत्प्रेक्षाः ।
{{Block center|<poem>'मन्ये शङ्के ध्रुवं प्रायो नूनमित्येवमादिभिः ।
उत्प्रेक्षा व्यज्यते शब्दैरिवशब्दोऽपि तादृशः ॥'</poem>}}
{{rule}}
लेन परकीयाभिर्गोभिर्मिश्राः स्वीया गावो नीयन्ते तथा गोपदवाच्यबसाजात्येन मिक्ष्निता विवखतापि नीता इवेत्यर्थः । खलु संभावनायाम् । तेन नयनेन
हेतुना इदमान्ध्यं न खन्धकारैरेित्यन्वयः । 'गौः स्वर्गे च बलीवर्दै रश्मौ च
कुलिशे पुमान् । स्त्रीसौरमेयीहरबाणदिग्वाग्भूष्वप्सु भूम्नि च ॥ इति मेदिनी।
अत्र चानायिषतेवेति विषयोत्प्रेक्षणपूर्वकं तस्य हेतुत्वेनोत्प्रेक्षणमिति पूर्वस्माद्धेदः । एवं पूर्वत्र इच्छयेति गुणरूपो हेतुरिह तुं क्रियारूप इत्यपि द्रष्टव्यम् । अत्र
चोत्प्रेक्षाद्वयसत्वेऽपि हेतूत्प्रेक्षायाः प्राधान्यात्तत्त्वेनैव व्यपदेशो न तु खरूपोत्प्रेक्षात्वेन । तस्या अङ्गत्वात् । एवमन्यत्रापि बोध्यम् ॥ पूरमिति ॥ अयं विधुश्चन्द्रः पयोधेः पूरं वर्धयितुमेणाङ्कमणि चन्द्रकान्तं कियन्ति लोकोक्त्या अपरिमितानि पयांसि दोग्धीति शङ्के । तथा प्रियैः पतिमिविप्रयोगे वियोगे सति सशोकानां
कोकाङ्गनानां नयने कर्मभूते । कियन्ति पयांसि दोग्धीति शङ्क इत्यन्वयः। दुहेर्द्विकर्मकखादेणाङ्कमणि मिति द्वितीया। एवं नयने इत्यत्रापि । मध्यः किमित्यत्रैकस्य वद्धखस्य फलस्वेन कुचधृतेरुत्प्रेक्षणमिह तु द्रावणलावणयोर्द्वयोः फलत्वेन
पूरवर्धनस्य तदिति भेदः । ब्रहणं वर्धनम् । तदा वर्धनकाले। तेन चन्द्रेण ॥
रथस्थितानामिति ॥ रविः रथे स्थितानां नियुक्तानां पुरातनानां वाइनानामवानां परिवर्तनायेव तुरगोत्तमानामुत्पत्तिभूमावुत्तरस्यां दिशि प्रतस्थ
इत्यन्वयः । प्रायोऽजमित्यत्रैक्यस्य गुणस्य फलत्वेनोत्प्रेक्षणमिह तु परिवर्तनक्रियाया इति भेदः । नन्वलंकारसर्वस्खकारादिभिरन्येषामपि जात्यादिभेदानामुक्तलात्कुतस्तेन प्रदर्शिता इत्याशङ्ख्याह-एता पवेति ॥ उक्तभेदा
एवेत्यर्थः । उत्प्रेक्षा इत्यनन्तरं चमत्कारविशेषप्रयोजिका इति शेषः। तथाच<noinclude></noinclude>
22y7qdwzhml4fkhxh809ncpqzunapfp
पृष्ठम्:कुवलयानन्दः (व्यख्याद्वयोपेतम्).pdf/१५४
104
90462
409296
219431
2025-06-27T07:38:11Z
Swaminathan sitapathi
4227
/* शोधितम् */
409296
proofread-page
text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="Swaminathan sitapathi" /></noinclude>प्रहर्षणालंकारः ६७] अलंकारचन्द्रिकासहितः । १३९
त्विहापि तुल्यम् । तस्मात्सर्वालंकारविलक्षणमिदं ललितम् । यथावा---
कू सूर्यप्रभवो वंशः क चाल्पविषया मतिः।
तितीर्घईस्तरं मोहादुडुपेनामि सागरम् ॥
अत्रापि निदर्शनाभ्रान्तिर्न कार्या । अल्पविषयया मत्या सूर्यवंशं वर्णयितुमिच्छुरहमिति प्रस्तुतवृत्तान्तानुपन्यासात्तत्प्रतिबिम्बभूतस्य उडुपेन सागर
तितीर्षुरस्मीत्यप्रस्तुतवृत्तान्तस्य वर्णनेनादौ विषमालंकारविन्यसनेन च केवलं
तत्र तात्पर्यस्य गम्यमानत्वात् । यथावा--
अनायि देशः कतमस्त्वयाद्य वसन्तमुक्तस्य दशां वनस्य ।
त्वदाप्तसंकेततया कृतार्था श्राव्यापि नानेन जनेन संज्ञा ॥
अन्न कतमो देशस्त्वया परित्यक्तः इति प्रस्तुतार्थमनुपन्यस्य वसन्तमुक्तस्य
वनस्य दशामनायीति तत्प्रतिबिम्बभूतार्थमात्रोपन्यासाल्ललितालंकारः॥१२८॥
प्रहर्षणालंकारः ६७
उत्कण्ठितार्थसंसिद्धिर्विना यत्नं प्रहर्षणम् ।
तामेव ध्यायते तस्मै निसृष्टा सैव दूतिका ॥ १२९॥
उत्कण्ठा इच्छाविशेषः।
'सर्वेन्द्रियसुखास्वादो यत्रास्तीत्यभिमन्यते।
तत्प्राप्तीच्छां ससंकल्पामुत्कण्ठां कवयो विदुः॥
इत्युक्तलक्षणात्तद्विषयस्यार्थस्य तदुपायसंपादनयत्नं विना सिद्धिः प्रहर्षणम् ।
उदाहरणं स्पष्टम् । यथावा---
दावप्रस्तुतप्रशंसा प्रकृते तु ललितमिति ॥ तत्प्रतिबिम्बेतिः ॥ ग्रस्तुतार्थप्रतिबिम्वरूपस्याप्रस्तुतार्थस्येत्यर्थः । आदौ पूर्वार्धे ॥ विषमेति ॥ खमतिसूर्यवंशयोरत्यन्ताननुरूपखरूपेत्यर्थः। तात्पर्यस्य तादृशमतिकरणकसूर्यवंशवर्णनेच्छाभिआयस्य ॥ अनायीति॥ नलं प्रति दमयन्त्या उक्तिः । हे नल, अद्य त्वया
कतमो देशो बसन्तमुक्तस्य बनस्य दशामनायि प्रापितः । त्वयि प्राप्तसंकेततया
कृतार्था संज्ञा नामाप्यनेन मल्लक्षणेन जनेन न श्राच्या न श्रवणाहीं अपितु
श्राव्यैवेति । अत्रच तादृशवनदशारूपस्याप्रस्तुतार्थस्य प्रस्तुते देशे कथनात्प्रस्तुतवृत्तान्तस्योक्तरूपस्य प्रतीतिः । नचात्र वारणेन्द्रलीलामितिवत्पदार्थनिदर्शना
युक्तेति वाच्यम् । तत्र पूर्वार्धेन प्रकृतवृत्तान्तोपादानेन सादृश्यपर्यवसानरूपनिदर्शनासत्त्वेऽप्यत्र तदनुपादानेन तव्घङ्गताप्रयुक्तविच्छित्तिविशेषवत्त्वेन ललितालंकारस्यैवोचितत्वात् । एतेन दशापदलक्षितनिःश्रीकवरूपकार्यद्वारेण कारणस्य राजकर्तृकत्यागकर्मवस्याभिधानात्पर्यायोक्तमित्यपि निरस्तम् । उपधेयसंकरेऽप्युपाधेरसंकराच्चेति संक्षेपः॥१२८ ॥ इति ललितालंकारप्रकरणम् ॥६६॥
तामेवेति ॥ दूतिकामेवेत्यर्थः । निसृष्टा प्रेषिता। ससंकल्पां मनोरथसहिताम् ।
१. विसष्टा'<noinclude></noinclude>
h9qtk8ptfid1svta0ygo09im4rbjta5
409297
409296
2025-06-27T07:39:02Z
Swaminathan sitapathi
4227
409297
proofread-page
text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="Swaminathan sitapathi" />{{rh|left=|center='''प्रहर्षणालंकारः ६७] अलंकारचन्द्रिकासहितः । '''|right=१३९}}</noinclude>
त्विहापि तुल्यम् । तस्मात्सर्वालंकारविलक्षणमिदं ललितम् । यथावा---
कू सूर्यप्रभवो वंशः क चाल्पविषया मतिः।
तितीर्घईस्तरं मोहादुडुपेनामि सागरम् ॥
अत्रापि निदर्शनाभ्रान्तिर्न कार्या । अल्पविषयया मत्या सूर्यवंशं वर्णयितुमिच्छुरहमिति प्रस्तुतवृत्तान्तानुपन्यासात्तत्प्रतिबिम्बभूतस्य उडुपेन सागर
तितीर्षुरस्मीत्यप्रस्तुतवृत्तान्तस्य वर्णनेनादौ विषमालंकारविन्यसनेन च केवलं
तत्र तात्पर्यस्य गम्यमानत्वात् । यथावा--
अनायि देशः कतमस्त्वयाद्य वसन्तमुक्तस्य दशां वनस्य ।
त्वदाप्तसंकेततया कृतार्था श्राव्यापि नानेन जनेन संज्ञा ॥
अन्न कतमो देशस्त्वया परित्यक्तः इति प्रस्तुतार्थमनुपन्यस्य वसन्तमुक्तस्य
वनस्य दशामनायीति तत्प्रतिबिम्बभूतार्थमात्रोपन्यासाल्ललितालंकारः॥१२८॥
प्रहर्षणालंकारः ६७
उत्कण्ठितार्थसंसिद्धिर्विना यत्नं प्रहर्षणम् ।
तामेव ध्यायते तस्मै निसृष्टा सैव दूतिका ॥ १२९॥
उत्कण्ठा इच्छाविशेषः।
'सर्वेन्द्रियसुखास्वादो यत्रास्तीत्यभिमन्यते।
तत्प्राप्तीच्छां ससंकल्पामुत्कण्ठां कवयो विदुः॥
इत्युक्तलक्षणात्तद्विषयस्यार्थस्य तदुपायसंपादनयत्नं विना सिद्धिः प्रहर्षणम् ।
उदाहरणं स्पष्टम् । यथावा---
दावप्रस्तुतप्रशंसा प्रकृते तु ललितमिति ॥ तत्प्रतिबिम्बेतिः ॥ ग्रस्तुतार्थप्रतिबिम्वरूपस्याप्रस्तुतार्थस्येत्यर्थः । आदौ पूर्वार्धे ॥ विषमेति ॥ खमतिसूर्यवंशयोरत्यन्ताननुरूपखरूपेत्यर्थः। तात्पर्यस्य तादृशमतिकरणकसूर्यवंशवर्णनेच्छाभिआयस्य ॥ अनायीति॥ नलं प्रति दमयन्त्या उक्तिः । हे नल, अद्य त्वया
कतमो देशो बसन्तमुक्तस्य बनस्य दशामनायि प्रापितः । त्वयि प्राप्तसंकेततया
कृतार्था संज्ञा नामाप्यनेन मल्लक्षणेन जनेन न श्राच्या न श्रवणाहीं अपितु
श्राव्यैवेति । अत्रच तादृशवनदशारूपस्याप्रस्तुतार्थस्य प्रस्तुते देशे कथनात्प्रस्तुतवृत्तान्तस्योक्तरूपस्य प्रतीतिः । नचात्र वारणेन्द्रलीलामितिवत्पदार्थनिदर्शना
युक्तेति वाच्यम् । तत्र पूर्वार्धेन प्रकृतवृत्तान्तोपादानेन सादृश्यपर्यवसानरूपनिदर्शनासत्त्वेऽप्यत्र तदनुपादानेन तव्घङ्गताप्रयुक्तविच्छित्तिविशेषवत्त्वेन ललितालंकारस्यैवोचितत्वात् । एतेन दशापदलक्षितनिःश्रीकवरूपकार्यद्वारेण कारणस्य राजकर्तृकत्यागकर्मवस्याभिधानात्पर्यायोक्तमित्यपि निरस्तम् । उपधेयसंकरेऽप्युपाधेरसंकराच्चेति संक्षेपः॥१२८ ॥ इति ललितालंकारप्रकरणम् ॥६६॥
तामेवेति ॥ दूतिकामेवेत्यर्थः । निसृष्टा प्रेषिता। ससंकल्पां मनोरथसहिताम् ।
१. विसष्टा'<noinclude></noinclude>
4s07bs9gjxwuomoy2cb5ekbxryyy00q
409298
409297
2025-06-27T08:35:17Z
Swaminathan sitapathi
4227
409298
proofread-page
text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="Swaminathan sitapathi" />{{rh|left=|center='''प्रहर्षणालंकारः ६७] अलंकारचन्द्रिकासहितः । '''|right=१३९}}</noinclude>
त्विहापि तुल्यम् । तस्मात्सर्वालंकारविलक्षणमिदं ललितम् । यथावा---
{{Block center|<poem>कू सूर्यप्रभवो वंशः क चाल्पविषया मतिः।
तितीर्घईस्तरं मोहादुडुपेनामि सागरम् ॥</poem>}}
{{gap}}अत्रापि निदर्शनाभ्रान्तिर्न कार्या । अल्पविषयया मत्या सूर्यवंशं वर्णयितुमिच्छुरहमिति प्रस्तुतवृत्तान्तानुपन्यासात्तत्प्रतिबिम्बभूतस्य उडुपेन सागर
तितीर्षुरस्मीत्यप्रस्तुतवृत्तान्तस्य वर्णनेनादौ विषमालंकारविन्यसनेन च केवलं
तत्र तात्पर्यस्य गम्यमानत्वात् । यथावा--
{{Block center|<poem>अनायि देशः कतमस्त्वयाद्य वसन्तमुक्तस्य दशां वनस्य ।
त्वदाप्तसंकेततया कृतार्था श्राव्यापि नानेन जनेन संज्ञा ॥</poem>}}
{{gap}}अत्र कतमो देशस्त्वया परित्यक्तः इति प्रस्तुतार्थमनुपन्यस्य वसन्तमुक्तस्य
वनस्य दशामनायीति तत्प्रतिबिम्बभूतार्थमात्रोपन्यासाल्ललितालंकारः॥१२८॥
{{rule|5em}}
{{center|प्रहर्षणालंकारः ६७}}
{{Block center|<poem>उत्कण्ठितार्थसंसिद्धिर्विना यत्नं प्रहर्षणम् ।
तामेव ध्यायते तस्मै नि<ref>विसष्टा</ref>सृष्टा सैव दूतिका ॥ १२९॥</poem>}}
{{gap}}उत्कण्ठा इच्छाविशेषः।
'सर्वेन्द्रियसुखास्वादो यत्रास्तीत्यभिमन्यते।
तत्प्राप्तीच्छां ससंकल्पामुत्कण्ठां कवयो विदुः॥
{{gap}}इत्युक्तलक्षणात्तद्विषयस्यार्थस्य तदुपायसंपादनयत्नं विना सिद्धिः प्रहर्षणम् ।
उदाहरणं स्पष्टम् । यथावा---
दावप्रस्तुतप्रशंसा प्रकृते तु ललितमिति ॥ {{bold|तत्प्रतिबिम्बेतिः}} ॥ ग्रस्तुतार्थप्रतिबिम्वरूपस्याप्रस्तुतार्थस्येत्यर्थः । आदौ पूर्वार्धे ॥ {{bold|विषमेति}} ॥ खमतिसूर्यवंशयोरत्यन्ताननुरूपखरूपेत्यर्थः। तात्पर्यस्य तादृशमतिकरणकसूर्यवंशवर्णनेच्छाभिआयस्य ॥ अनायीति॥ नलं प्रति दमयन्त्या उक्तिः । हे नल, अद्य त्वया
कतमो देशो बसन्तमुक्तस्य बनस्य दशामनायि प्रापितः । त्वयि प्राप्तसंकेततया
कृतार्था संज्ञा नामाप्यनेन मल्लक्षणेन जनेन न श्राच्या न श्रवणाहीं अपितु
श्राव्यैवेति । अत्रच तादृशवनदशारूपस्याप्रस्तुतार्थस्य प्रस्तुते देशे कथनात्प्रस्तुतवृत्तान्तस्योक्तरूपस्य प्रतीतिः । नचात्र वारणेन्द्रलीलामितिवत्पदार्थनिदर्शना
युक्तेति वाच्यम् । तत्र पूर्वार्धेन प्रकृतवृत्तान्तोपादानेन सादृश्यपर्यवसानरूपनिदर्शनासत्त्वेऽप्यत्र तदनुपादानेन तव्घङ्गताप्रयुक्तविच्छित्तिविशेषवत्त्वेन ललितालंकारस्यैवोचितत्वात् । एतेन दशापदलक्षितनिःश्रीकवरूपकार्यद्वारेण कारणस्य राजकर्तृकत्यागकर्मवस्याभिधानात्पर्यायोक्तमित्यपि निरस्तम् । उपधेयसंकरेऽप्युपाधेरसंकराच्चेति संक्षेपः॥१२८ ॥ इति ललितालंकारप्रकरणम् ॥६६॥
{{gap}}{{bold|तामेवेति}} ॥ दूतिकामेवेत्यर्थः । निसृष्टा प्रेषिता। ससंकल्पां मनोरथसहिताम् ।
{{rule}}<noinclude></noinclude>
0jrxha8ijyi1rnhk3suikbhjd0tqv12
409299
409298
2025-06-27T08:36:01Z
Swaminathan sitapathi
4227
409299
proofread-page
text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="Swaminathan sitapathi" />{{rh|left=|center='''प्रहर्षणालंकारः ६७] अलंकारचन्द्रिकासहितः । '''|right=१३९}}</noinclude>
त्विहापि तुल्यम् । तस्मात्सर्वालंकारविलक्षणमिदं ललितम् । यथावा---
{{Block center|<poem>कू सूर्यप्रभवो वंशः क चाल्पविषया मतिः।
तितीर्घईस्तरं मोहादुडुपेनामि सागरम् ॥</poem>}}
{{gap}}अत्रापि निदर्शनाभ्रान्तिर्न कार्या । अल्पविषयया मत्या सूर्यवंशं वर्णयितुमिच्छुरहमिति प्रस्तुतवृत्तान्तानुपन्यासात्तत्प्रतिबिम्बभूतस्य उडुपेन सागर
तितीर्षुरस्मीत्यप्रस्तुतवृत्तान्तस्य वर्णनेनादौ विषमालंकारविन्यसनेन च केवलं
तत्र तात्पर्यस्य गम्यमानत्वात् । यथावा--
{{Block center|<poem>अनायि देशः कतमस्त्वयाद्य वसन्तमुक्तस्य दशां वनस्य ।
त्वदाप्तसंकेततया कृतार्था श्राव्यापि नानेन जनेन संज्ञा ॥</poem>}}
{{gap}}अत्र कतमो देशस्त्वया परित्यक्तः इति प्रस्तुतार्थमनुपन्यस्य वसन्तमुक्तस्य
वनस्य दशामनायीति तत्प्रतिबिम्बभूतार्थमात्रोपन्यासाल्ललितालंकारः॥१२८॥
{{rule|5em}}
{{center|प्रहर्षणालंकारः ६७}}
{{Block center|<poem>उत्कण्ठितार्थसंसिद्धिर्विना यत्नं प्रहर्षणम् ।
तामेव ध्यायते तस्मै नि<ref>विसष्टा</ref>सृष्टा सैव दूतिका ॥ १२९॥</poem>}}
{{gap}}उत्कण्ठा इच्छाविशेषः।
{{Block center|<poem>'सर्वेन्द्रियसुखास्वादो यत्रास्तीत्यभिमन्यते।
तत्प्राप्तीच्छां ससंकल्पामुत्कण्ठां कवयो विदुः॥</poem>}}
{{gap}}इत्युक्तलक्षणात्तद्विषयस्यार्थस्य तदुपायसंपादनयत्नं विना सिद्धिः प्रहर्षणम् ।
उदाहरणं स्पष्टम् । यथावा---
दावप्रस्तुतप्रशंसा प्रकृते तु ललितमिति ॥ {{bold|तत्प्रतिबिम्बेतिः}} ॥ ग्रस्तुतार्थप्रतिबिम्वरूपस्याप्रस्तुतार्थस्येत्यर्थः । आदौ पूर्वार्धे ॥ {{bold|विषमेति}} ॥ खमतिसूर्यवंशयोरत्यन्ताननुरूपखरूपेत्यर्थः। तात्पर्यस्य तादृशमतिकरणकसूर्यवंशवर्णनेच्छाभिआयस्य ॥ अनायीति॥ नलं प्रति दमयन्त्या उक्तिः । हे नल, अद्य त्वया
कतमो देशो बसन्तमुक्तस्य बनस्य दशामनायि प्रापितः । त्वयि प्राप्तसंकेततया
कृतार्था संज्ञा नामाप्यनेन मल्लक्षणेन जनेन न श्राच्या न श्रवणाहीं अपितु
श्राव्यैवेति । अत्रच तादृशवनदशारूपस्याप्रस्तुतार्थस्य प्रस्तुते देशे कथनात्प्रस्तुतवृत्तान्तस्योक्तरूपस्य प्रतीतिः । नचात्र वारणेन्द्रलीलामितिवत्पदार्थनिदर्शना
युक्तेति वाच्यम् । तत्र पूर्वार्धेन प्रकृतवृत्तान्तोपादानेन सादृश्यपर्यवसानरूपनिदर्शनासत्त्वेऽप्यत्र तदनुपादानेन तव्घङ्गताप्रयुक्तविच्छित्तिविशेषवत्त्वेन ललितालंकारस्यैवोचितत्वात् । एतेन दशापदलक्षितनिःश्रीकवरूपकार्यद्वारेण कारणस्य राजकर्तृकत्यागकर्मवस्याभिधानात्पर्यायोक्तमित्यपि निरस्तम् । उपधेयसंकरेऽप्युपाधेरसंकराच्चेति संक्षेपः॥१२८ ॥ इति ललितालंकारप्रकरणम् ॥६६॥
{{gap}}{{bold|तामेवेति}} ॥ दूतिकामेवेत्यर्थः । निसृष्टा प्रेषिता। ससंकल्पां मनोरथसहिताम् ।
{{rule}}<noinclude></noinclude>
o0275hhu1zvupktfyk6bjwf4zg6cbbf
पृष्ठम्:कुवलयानन्दः (व्यख्याद्वयोपेतम्).pdf/१६७
104
90475
409291
219444
2025-06-27T06:47:15Z
Swaminathan sitapathi
4227
/* शोधितम् */
409291
proofread-page
text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="Swaminathan sitapathi" /></noinclude>१५२
कुवलयानन्दः। [सामान्यालंकारः ८०
सामान्यालंकारः ८०
{{Block center|<poem>सामान्यं यदि सादृश्याद्विशेषो नोप<ref>नव लक्ष्यते'</ref> लक्ष्यते ।
पद्नाकरप्रविष्टानां मुखं नालक्षि सुभ्रुवाम् ॥ १४७ ॥</poem>}}
यथावा--
रसस्तम्भेषु संक्रा<ref>“संक्रान्तः'</ref>न्तप्रतिबिम्बशतैर्वृतः ।
लङ्केश्वरः सभामध्ये न ज्ञातो वालिसूनुना ॥
मीलितालंकारे एकेनापरस्य भिन्नस्वरूपानवभासरूपं मीलनं क्रियते।
सामान्यालंकारे तु भिन्नस्वरूपावभासेऽपि व्यावर्तकविशेषो नोपलक्ष्यत इति
भेदः । मीलितोदाहरणे हि चरणादेर्वस्त्वन्तरत्वेनागन्तुकं यावकादि न भासते । सामान्योदाहरणे तु पझानां मुखानां च व्यक्यन्तरतया भानमस्त्येव।
यथा रावणदेहस्य तत्प्रतिबिम्बानां च, किंत्विदं पद्ममिदं मुखमयं बिम्बोऽयं
प्रतिबिम्ब इति विशेषः परं नोपलक्ष्यते । अतएव मेदतिरोधानान्मीलितं
तदतिरोधानेऽपि साम्येन व्यावर्तकानवभासे सामान्यमित्युभयोरप्यन्वर्थता।
केचित्तु वस्तुद्वयस्य लक्षणसाम्यात्तयोः केनचिद्वलीयसा तदन्यस्य स्वरूपतिरोधाने मीलितं स्वरूपप्रतीतावपि
गुणसाम्याभ्देदतिरोधाने सामान्यम् ।
एवंच----
{{Block center|<poem>अपाङ्गतरले दृशौ तरलवक्रवर्णा गिरो
बिलासभरमन्धरा गतिरतीव कान्तं मुखम् ।
इति स्फुरितमङ्गके मृगदृशां स्वतो लीलया
तदन न महोदयः कृतपदोऽपि संलक्ष्यते ॥</poem>}}
इत्यन्न मीलितालंकारः । अनहि दृक्तारल्यादीनां नारीवपुषः सहजधर्मत्यान्मदोदयकार्यत्वाच तदुभयसाधारण्यादुस्कृष्टतारल्यादियोगिना वपुषा मदोदयस्य स्वरूपमेव तिरोधीयते । लिङ्गसाधारण्येन तज्ज्ञानोपायाभावात् ।
{{bold|सामान्यमिति}} ॥ सामान्यमिति लक्ष्यनिर्देशः। विशेषो ब्यावर्तकधर्मः ।
पद्मानामाकरः ॥ {{bold|रत्नस्तम्भेष्विति}} ॥वालिसूनुनाङ्गदेन । एकेन चरणज्योत्स्नादिना । अपरस्य लाक्षारसाभिसारिकादेः ॥ {{bold|मिन्नस्वरूपेति}} ॥ मुखपद्मादेभिन्नस्य स्वरूपस्याबभासेऽपीत्यर्थः। उक्तमेवार्थमुदाहरणारूढत्तया विशदयति
मीलितोदाहरणे हीत्यादिना ॥ वस्वन्तरत्वेन न भासत इखन्वयः।
तत्प्रतिबिम्बानां च व्यक्त्यन्तरतया भानमस्त्येवेत्यनुङ्ग। केचिदित्यस्याहरित्यग्रिमेणान्वयः। केचित्प्रकाशकारादयः। तदुक्तम्---'समेन लक्ष्मणा वस्तु वस्तुना
यन्निगृह्यते । निजेनागन्तुना वापि तन्मीलितमिति स्मृतम् ॥' इति तयोर्मध्ये
एवं चेत्यस्येत्पत्र मीलितालंकार इत्यग्रेतनेनान्वयः॥ {{bold|अपाङ्गेति}} ॥ अपाङ्गस्तरलोययोस्ते । तरलाः सलरोच्चारणात् वत्रा वक्रोक्तिगर्भा वर्णा यासु ताः गिरो
{{rule}}<noinclude></noinclude>
n06i6lge17754i1j40qcf81cjbw0p8n
409292
409291
2025-06-27T06:52:16Z
Swaminathan sitapathi
4227
409292
proofread-page
text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="Swaminathan sitapathi" />{{rh|left=१५२|center='''कुवलयानन्दः। [सामान्यालंकारः ८०'''|right=}}</noinclude>
{{center|सामान्यालंकारः ८०}}
{{Block center|<poem>सामान्यं यदि सादृश्याद्विशेषो नोप<ref>नव लक्ष्यते'</ref> लक्ष्यते ।
पद्नाकरप्रविष्टानां मुखं नालक्षि सुभ्रुवाम् ॥ १४७ ॥</poem>}}
यथावा--
{{Block center|<poem>रसस्तम्भेषु संक्रा<ref>“संक्रान्तः'</ref>न्तप्रतिबिम्बशतैर्वृतः ।
लङ्केश्वरः सभामध्ये न ज्ञातो वालिसूनुना ॥</poem>}}
{{gap}}मीलितालंकारे एकेनापरस्य भिन्नस्वरूपानवभासरूपं मीलनं क्रियते।
सामान्यालंकारे तु भिन्नस्वरूपावभासेऽपि व्यावर्तकविशेषो नोपलक्ष्यत इति
भेदः । मीलितोदाहरणे हि चरणादेर्वस्त्वन्तरत्वेनागन्तुकं यावकादि न भासते । सामान्योदाहरणे तु पझानां मुखानां च व्यक्यन्तरतया भानमस्त्येव।
यथा रावणदेहस्य तत्प्रतिबिम्बानां च, किंत्विदं पद्ममिदं मुखमयं बिम्बोऽयं
प्रतिबिम्ब इति विशेषः परं नोपलक्ष्यते । अतएव मेदतिरोधानान्मीलितं
तदतिरोधानेऽपि साम्येन व्यावर्तकानवभासे सामान्यमित्युभयोरप्यन्वर्थता।
केचित्तु वस्तुद्वयस्य लक्षणसाम्यात्तयोः केनचिद्वलीयसा तदन्यस्य स्वरूपतिरोधाने मीलितं स्वरूपप्रतीतावपि
गुणसाम्याभ्देदतिरोधाने सामान्यम् ।
एवंच----
{{Block center|<poem>अपाङ्गतरले दृशौ तरलवक्रवर्णा गिरो
{{gap}}बिलासभरमन्धरा गतिरतीव कान्तं मुखम् ।
इति स्फुरितमङ्गके मृगदृशां स्वतो लीलया
{{gap}}तदन न महोदयः कृतपदोऽपि संलक्ष्यते ॥</poem>}}
{{gap}}इत्यन्न मीलितालंकारः । अनहि दृक्तारल्यादीनां नारीवपुषः सहजधर्मत्यान्मदोदयकार्यत्वाच तदुभयसाधारण्यादुस्कृष्टतारल्यादियोगिना वपुषा मदोदयस्य स्वरूपमेव तिरोधीयते । लिङ्गसाधारण्येन तज्ज्ञानोपायाभावात् ।
{{rule}}
{{gap}}{{bold|सामान्यमिति}} ॥ सामान्यमिति लक्ष्यनिर्देशः। विशेषो ब्यावर्तकधर्मः ।
पद्मानामाकरः ॥ {{bold|रत्नस्तम्भेष्विति}} ॥वालिसूनुनाङ्गदेन । एकेन चरणज्योत्स्नादिना । अपरस्य लाक्षारसाभिसारिकादेः ॥ {{bold|मिन्नस्वरूपेति}} ॥ मुखपद्मादेभिन्नस्य स्वरूपस्याबभासेऽपीत्यर्थः। उक्तमेवार्थमुदाहरणारूढत्तया विशदयति
मीलितोदाहरणे हीत्यादिना ॥ वस्वन्तरत्वेन न भासत इखन्वयः।
तत्प्रतिबिम्बानां च व्यक्त्यन्तरतया भानमस्त्येवेत्यनुङ्ग। केचिदित्यस्याहरित्यग्रिमेणान्वयः। केचित्प्रकाशकारादयः। तदुक्तम्---'समेन लक्ष्मणा वस्तु वस्तुना
यन्निगृह्यते । निजेनागन्तुना वापि तन्मीलितमिति स्मृतम् ॥' इति तयोर्मध्ये
एवं चेत्यस्येत्पत्र मीलितालंकार इत्यग्रेतनेनान्वयः॥ {{bold|अपाङ्गेति}} ॥ अपाङ्गस्तरलोययोस्ते । तरलाः सलरोच्चारणात् वत्रा वक्रोक्तिगर्भा वर्णा यासु ताः गिरो
{{rule}}<noinclude></noinclude>
0n8168ekmh03pkc08m3vrvg0830wsz3
पृष्ठम्:कुवलयानन्दः (व्यख्याद्वयोपेतम्).pdf/१९७
104
90603
409300
219760
2025-06-27T09:16:20Z
Swaminathan sitapathi
4227
/* शोधितम् */
409300
proofread-page
text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="Swaminathan sitapathi" /></noinclude>१८२
कुवलयानन्दः । [समप्राधान्यसंकरः १२१
कत्वाच्च । तथापि वाक्योक्तोपमायामिवकारस्य मरीचिभिरिवेत्यन्वयान्तरमभ्युपगम्यान्वयभेदलब्धप्रकृताप्रकृतयोरेकै कविषयस्यार्थद्वयस्य समासोक्तोपमायां सरोजसदृशं लोचन मिति समासान्सरमभ्युपगम्य समाससेदलब्धार्थद्वयस्य चाभेदाध्यवसायेन साधारण्यं संपाघ तयोरुत्प्रेक्षासमासोक्त्योरङ्गता निर्वाह्या ॥ यद्वा इह प्रकृतकोटिगतानां मरीचितिमिरसरोजानामप्रकृतकोटिगतानां
चाङ्गुलीकेशसंचयलोचनानां च तनुदीर्घावरणत्वनीलनीरन्ध्रस्वकान्तिमत्त्वादिना सदृशानां प्रातिस्विकरूपेण भेदवदनुगतसादृश्यप्रयोजकरूपेणाभेदोऽप्यस्ति
स चात्र विवक्षित एव । भेदाभेदोभयप्रधानोपमेत्यालंकारिकसिद्धान्तात् । तत्रच प्रयोजकांशनिष्कर्षन्यायेनाभेदगर्भतांशोपजीवनेन साधारण्यं संपाद्य प्रधानभूतोत्प्रेक्षा समासोत्त्यङ्गता निर्वाह्या । नहि प्रकाशशीतापनयनशक्तिमतः
सौरतेजसः शीतापनयनशक्तिमात्रेण शीतालूपयोगिता न दृष्टा ।
एवमनभ्युपगमे च ---
'पाण्ड्योऽयमंसार्पितलम्बहारः क्लप्ताङ्गरागो हरिचन्दनेन ।
आमाति बालातपरक्त्तसानुः सनिर्झरोद्रार इवाद्रिराजः॥
इत्याछुपमापि न निर्वहेत् । न ह्यन्नादिराजपाण्ड्ययोरुपमानोपमेययोरनुगतः साधारणधर्मो निर्दिष्टः । एकन्न बालातपनिर्झरावन्यत्र हरिचन्दनहाराचिति धर्मभेदात् । तस्मात्तत्रातपहरिचन्दनयोर्निर्झरहारयोश्च सदृशयोरभेदांशोपजीवनमेच गतिः।
शङ्कत्ते यद्यपीति ॥ मरीचिभिरिवेति ॥ मरीचिभिरिवाङ्गुलीभिस्तिमिरमिव
केशसंचयमित्येवंरूपमित्यर्थः । एकैकविषयस्यार्थद्वग्रस्याभेदाध्यवसानेनेत्यन्वयः ॥
तयोर्वाक्यसमासोक्तोपमयोः । आवश्यकाभेदाध्यवसायेनोपपत्तौ कृतमन्वयान्तरसमासान्तरकल्पनागौरवेणेत्यांशयेनाह----यद्धेति ॥ तनुदीर्धेत्यादौ पूर्वनिपातनियमानुरोधेन यथासंख्यक्रमपरित्यागः । तथा चाङ्गुमरीच्योस्तनुलनीरन्ध्रलाभ्यां तिमिरकेशसंचययोरावरणरूपत्वनीललाभ्यां सरोजलोचनयोर्दीर्घलकान्तिमत्वाभ्यां च सादृश्य बोध्यम् । प्रातिस्विकरूपेण अङ्युलित्वमरीचित्वादिना ॥ अनुगतेति ॥ अनुगतं यत्सादृश्यप्रयोजक रूपं तनुवादिकं तेनेत्यर्थः। एतच्च साहश्यमतिरिक्तमित्यभिप्रायेण ॥ सिद्धान्तादिति ॥ तदुक्तं 'साधर्म्य त्रिविधं
भेदप्रधानमभेदप्रधानं मेदामेदप्रधानं चे'त्युपक्रम्य विद्यानाथेन 'उपमानन्क्योपमेयोपमास्सरणानां भेदाभेदसाधारणसाधर्म्यमूलत्व मिति । ननु भेदाभेदरूपांशद्वयोपेताया उपमाया भेदांशस्थानुपयोगात्कथं तस्या उत्प्रेक्षाधुपयोगिलमित्याशङ्कच परिहरति---नहीति ॥ प्रकाशश्च शीतापनयनं चेति द्वन्द्वः । शीतालुः शीतार्तः। 'शीतोष्मातृप्रेभ्यस्तदसहने' इति वा आलुः । उक्तसिद्धान्तस्य नियुक्तिकत्वेनाश्रद्धेयखमाशमानं प्रत्याह---एवमिति ॥ पाण्ड्योऽयमिति ॥ पाण्ड्यनामायं नृपः अद्रिराज इवाभाति । कथंभूतः। अंसयोरर्पितो, लम्बो हारो येन
सः । तथा हरिचन्दनेन्द्र रक्तचन्दनेन ल्लृप्तः कृतोऽझरागोऽनुलेपनं येन तथा-<noinclude></noinclude>
1xb4p8bbvnbmlmxo6oa7gz1jr858f1k
409301
409300
2025-06-27T09:19:33Z
Swaminathan sitapathi
4227
409301
proofread-page
text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="Swaminathan sitapathi" />{{rh|left=१८२|center=''''कुवलयानन्दः । [समप्राधान्यसंकरः १२१'''|right=}}</noinclude>
कत्वाच्च । तथापि वाक्योक्तोपमायामिवकारस्य मरीचिभिरिवेत्यन्वयान्तरमभ्युपगम्यान्वयभेदलब्धप्रकृताप्रकृतयोरेकै कविषयस्यार्थद्वयस्य समासोक्तोपमायां सरोजसदृशं लोचन मिति समासान्सरमभ्युपगम्य समाससेदलब्धार्थद्वयस्य चाभेदाध्यवसायेन साधारण्यं संपाघ तयोरुत्प्रेक्षासमासोक्त्योरङ्गता निर्वाह्या ॥ यद्वा इह प्रकृतकोटिगतानां मरीचितिमिरसरोजानामप्रकृतकोटिगतानां
चाङ्गुलीकेशसंचयलोचनानां च तनुदीर्घावरणत्वनीलनीरन्ध्रस्वकान्तिमत्त्वादिना सदृशानां प्रातिस्विकरूपेण भेदवदनुगतसादृश्यप्रयोजकरूपेणाभेदोऽप्यस्ति
स चात्र विवक्षित एव । भेदाभेदोभयप्रधानोपमेत्यालंकारिकसिद्धान्तात् । तत्रच प्रयोजकांशनिष्कर्षन्यायेनाभेदगर्भतांशोपजीवनेन साधारण्यं संपाद्य प्रधानभूतोत्प्रेक्षा समासोत्त्यङ्गता निर्वाह्या । नहि प्रकाशशीतापनयनशक्तिमतः
सौरतेजसः शीतापनयनशक्तिमात्रेण शीतालूपयोगिता न दृष्टा ।
एवमनभ्युपगमे च ---
{{Block center|<poem>'पाण्ड्योऽयमंसार्पितलम्बहारः क्लप्ताङ्गरागो हरिचन्दनेन ।
आमाति बालातपरक्त्तसानुः सनिर्झरोद्रार इवाद्रिराजः॥</poem>}}
{{gap}}इत्याछुपमापि न निर्वहेत् । न ह्यन्नादिराजपाण्ड्ययोरुपमानोपमेययोरनुगतः साधारणधर्मो निर्दिष्टः । एकन्न बालातपनिर्झरावन्यत्र हरिचन्दनहाराचिति धर्मभेदात् । तस्मात्तत्रातपहरिचन्दनयोर्निर्झरहारयोश्च सदृशयोरभेदांशोपजीवनमेच गतिः।
{{rule}}
शङ्कत्ते यद्यपीति ॥ {{bold|मरीचिभिरिवेति}} ॥ मरीचिभिरिवाङ्गुलीभिस्तिमिरमिव
केशसंचयमित्येवंरूपमित्यर्थः । एकैकविषयस्यार्थद्वग्रस्याभेदाध्यवसानेनेत्यन्वयः ॥
तयोर्वाक्यसमासोक्तोपमयोः । आवश्यकाभेदाध्यवसायेनोपपत्तौ कृतमन्वयान्तरसमासान्तरकल्पनागौरवेणेत्यांशयेनाह----{{bold|यद्धेति}} ॥ तनुदीर्धेत्यादौ पूर्वनिपातनियमानुरोधेन यथासंख्यक्रमपरित्यागः । तथा चाङ्गुमरीच्योस्तनुलनीरन्ध्रलाभ्यां तिमिरकेशसंचययोरावरणरूपत्वनीललाभ्यां सरोजलोचनयोर्दीर्घलकान्तिमत्वाभ्यां च सादृश्य बोध्यम् । प्रातिस्विकरूपेण अङ्युलित्वमरीचित्वादिना ॥ {{bold|अनुगतेति}} ॥ अनुगतं यत्सादृश्यप्रयोजक रूपं तनुवादिकं तेनेत्यर्थः। एतच्च साहश्यमतिरिक्तमित्यभिप्रायेण ॥ {{bold|सिद्धान्तादिति}} ॥ तदुक्तं 'साधर्म्य त्रिविधं
भेदप्रधानमभेदप्रधानं मेदामेदप्रधानं चे'त्युपक्रम्य विद्यानाथेन 'उपमानन्क्योपमेयोपमास्सरणानां भेदाभेदसाधारणसाधर्म्यमूलत्व मिति । ननु भेदाभेदरूपांशद्वयोपेताया उपमाया भेदांशस्थानुपयोगात्कथं तस्या उत्प्रेक्षाधुपयोगिलमित्याशङ्कच परिहरति---{{bold|नहीति}} ॥ प्रकाशश्च शीतापनयनं चेति द्वन्द्वः । शीतालुः शीतार्तः। 'शीतोष्मातृप्रेभ्यस्तदसहने' इति वा आलुः । उक्तसिद्धान्तस्य नियुक्तिकत्वेनाश्रद्धेयखमाशमानं प्रत्याह---{{bold|एवमिति}} ॥ {{bold|पाण्ड्योऽयमिति}} ॥ पाण्ड्यनामायं नृपः अद्रिराज इवाभाति । कथंभूतः। अंसयोरर्पितो, लम्बो हारो येन
सः । तथा हरिचन्दनेन्द्र रक्तचन्दनेन ल्लृप्तः कृतोऽझरागोऽनुलेपनं येन तथा-<noinclude></noinclude>
1y9t7rwbpmxe060ztzfqg4adb3zoc1k
पृष्ठम्:कुवलयानन्दः (व्यख्याद्वयोपेतम्).pdf/१९८
104
90604
409312
219761
2025-06-27T09:52:44Z
Swaminathan sitapathi
4227
/* शोधितम् */
409312
proofread-page
text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="Swaminathan sitapathi" /></noinclude>संदेहसंकरालंकारः १२२ ] अलंकारचन्द्रिकासहितः। १८३
"पिनष्टीव तरङ्गाग्रैः समुद्रः फेनचन्दनम् ।
तदादाय करैरिन्दुर्लिम्पतीब दिगङ्गनाः ॥'
इत्यत्रोस्प्रेक्षयोः कालभेदेऽपि समप्राधान्यम् । अन्योन्यनिरपेक्षवाक्यद्वयोपात्तल्वात् । तदादायेति फेनचन्दनरूपकसानोपजीवनेन पूर्वोस्प्रेक्षानपेक्षणात् । नचैवं लिम्पतीव तमोऽङ्गानीतिवत्प्रेक्षाद्वयख संसृष्टिरेवेयमिति वाच्यम् 1 लौकिकसिद्धपेषणलेपनपौर्वापर्यच्छायानुकारिणोत्प्रेक्षाद्वयपावापर्येण
चारुतातिशयसमुन्मेषतः संसृष्टिवैषम्यात् । तस्माद्दादिवदेकफलसाधनतया
समप्रधानमिदमुत्प्रेक्षाद्वयम् । एवं समप्रधानसंकरोऽपि व्याख्यातः॥
संदेहसंकरालंकारः १२२
संदेहसंकरो यथा-
शशिनमुपगतेयं कौमुदी मेघमुक्तं
जलनिधिमनुरूपं बहुकन्यावतीर्णा ।
इति समगुणयोगप्रीतयस्तन्त्र पौराः
श्रवणकटु नृपाणामेकवाक्यं विवन्नुः ॥
अन्न इयमिति सर्वनाम्ना यद्यजं वृतवतीन्दुमती विशिष्टरूपेण निर्दिश्यते
तदा बिम्बप्रतिबिम्बभावापन्नधर्मविशिष्टयोः सदृशयोरैक्यारोपरूपा निदर्शना।
यदि तेन सा स्वरूपेणैव निर्दिश्यते, विम्बभूतो धर्मस्तु पूर्वप्रस्तावासमगुण
योगग्रीतय इति पौरविशेषणाचावगम्यते, तत्र प्रस्तुते धर्मिशि तवृत्तान्तप्रतिबिम्बभूताप्रस्तुतवृत्तान्तारोपरूपं ललितमित्यनध्यवसायासंदेहः ॥
विलीयेन्दुः साक्षादमृतरसवापी यदि भवे-
त्कलङ्कस्तत्रत्यो यदि च विकचेन्दीवरवनम् ।
ततः स्वानक्रीडाजनितजडभावैरवयवैः
कदाचिन्मुञ्चेयं मदनशिखिपीडापरिभवम् ।
भूतः । अद्विराजः कीदृकाबालातपेन रक्त्तानि सानूनि प्रस्थानि यस्य सः। तथा
निर्झरस्योद्वारेणोद्गमेन सहितः॥पिनष्टीति ॥ व्याख्यातं प्राक् ॥ पौर्वापर्येणेति ॥ तथाच चमत्कारप्रयोजकपौर्वापर्यघटकत्वेन मेदानवभासात्संरष्टिलक्षण्यमिति भावः । दर्शादिवशपौर्णमासादिवत् । अयंच मिन्नकालीस्योरपि समप्राधान्ये दृष्टान्तः । फलं तत्र स्वर्गः। प्रकृते तु चमत्कृतिविशेषः ॥
शशिनमिति ॥ अत्र अजस्येन्दुमत्या स्वयंवरे समगुणयोरजेन्दुमत्योोंगेन
प्रीतिर्येषां ते पौरा नागरिका नृपाणामन्येषां श्रवणयोः कटु पीडाकरमिति पूर्वार्धरूपमेकमेव वाक्यं विवव्ररुच्चारयामासुरित्यन्वयः । तेन सर्वनाम्ना सा इन्दुमती
बिम्बभुतो धर्मः। अजकर्मकं चरणम् । तत्र तस्मिन्यक्षे॥ विलीयेति। अग्निसंयोगेन् घृतादिवत्केनापि हेतुना विलीनतां प्राप्येत्यर्थः विकचं विकसितम्।<noinclude></noinclude>
pxsaq88tefglcltb8sujubius7a7xnn
409313
409312
2025-06-27T09:57:16Z
Swaminathan sitapathi
4227
409313
proofread-page
text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="Swaminathan sitapathi" />{{rh|left=|center='''संदेहसंकरालंकारः १२२ ] अलंकारचन्द्रिकासहितः। '''|right=१८३}}</noinclude>
{{Block center|<poem>"पिनष्टीव तरङ्गाग्रैः समुद्रः फेनचन्दनम् ।
तदादाय करैरिन्दुर्लिम्पतीब दिगङ्गनाः ॥'</poem>}}
{{gap}}इत्यत्रोस्प्रेक्षयोः कालभेदेऽपि समप्राधान्यम् । अन्योन्यनिरपेक्षवाक्यद्वयोपात्तल्वात् । तदादायेति फेनचन्दनरूपकसानोपजीवनेन पूर्वोस्प्रेक्षानपेक्षणात् । नचैवं लिम्पतीव तमोऽङ्गानीतिवत्प्रेक्षाद्वयख संसृष्टिरेवेयमिति वाच्यम् 1 लौकिकसिद्धपेषणलेपनपौर्वापर्यच्छायानुकारिणोत्प्रेक्षाद्वयपावापर्येण
चारुतातिशयसमुन्मेषतः संसृष्टिवैषम्यात् । तस्माद्दादिवदेकफलसाधनतया
समप्रधानमिदमुत्प्रेक्षाद्वयम् । एवं समप्रधानसंकरोऽपि व्याख्यातः॥
{{rule|5em}}
{{center|संदेहसंकरालंकारः १२२}}
{{gap}}संदेहसंकरो यथा-
{{Block center|<poem>शशिनमुपगतेयं कौमुदी मेघमुक्तं
{{gap}}जलनिधिमनुरूपं बहुकन्यावतीर्णा ।
इति समगुणयोगप्रीतयस्तन्त्र पौराः
{{gap}}श्रवणकटु नृपाणामेकवाक्यं विवन्नुः ॥</poem>}}
{{gap}}अन्न इयमिति सर्वनाम्ना यद्यजं वृतवतीन्दुमती विशिष्टरूपेण निर्दिश्यते
तदा बिम्बप्रतिबिम्बभावापन्नधर्मविशिष्टयोः सदृशयोरैक्यारोपरूपा निदर्शना।
यदि तेन सा स्वरूपेणैव निर्दिश्यते, विम्बभूतो धर्मस्तु पूर्वप्रस्तावासमगुण
योगग्रीतय इति पौरविशेषणाचावगम्यते, तत्र प्रस्तुते धर्मिशि तवृत्तान्तप्रतिबिम्बभूताप्रस्तुतवृत्तान्तारोपरूपं ललितमित्यनध्यवसायासंदेहः ॥
{{Block center|<poem>विलीयेन्दुः साक्षादमृतरसवापी यदि भवे-
{{gap}}त्कलङ्कस्तत्रत्यो यदि च विकचेन्दीवरवनम् ।
ततः स्वानक्रीडाजनितजडभावैरवयवैः
{{gap}}कदाचिन्मुञ्चेयं मदनशिखिपीडापरिभवम् ॥</poem>}}
{{rule}}
भूतः । अद्विराजः कीदृकाबालातपेन रक्त्तानि सानूनि प्रस्थानि यस्य सः। तथा
निर्झरस्योद्वारेणोद्गमेन सहितः॥{{bold|पिनष्टीति}} ॥ व्याख्यातं प्राक् ॥ {{bold|पौर्वापर्येणेति}} ॥ तथाच चमत्कारप्रयोजकपौर्वापर्यघटकत्वेन मेदानवभासात्संरष्टिलक्षण्यमिति भावः । दर्शादिवशपौर्णमासादिवत् । अयंच मिन्नकालीस्योरपि समप्राधान्ये दृष्टान्तः । फलं तत्र स्वर्गः। प्रकृते तु चमत्कृतिविशेषः ॥
{{gap}}{{bold|शशिनमिति}} ॥ अत्र अजस्येन्दुमत्या स्वयंवरे समगुणयोरजेन्दुमत्योोंगेन
प्रीतिर्येषां ते पौरा नागरिका नृपाणामन्येषां श्रवणयोः कटु पीडाकरमिति पूर्वार्धरूपमेकमेव वाक्यं विवव्ररुच्चारयामासुरित्यन्वयः । तेन सर्वनाम्ना सा इन्दुमती
बिम्बभुतो धर्मः। अजकर्मकं चरणम् । तत्र तस्मिन्यक्षे॥ {{bold|विलीयेति}}॥ अग्निसंयोगेन् घृतादिवत्केनापि हेतुना विलीनतां प्राप्येत्यर्थः विकचं विकसितम्।<noinclude></noinclude>
kwovqki2ytgz8t8ebw8fy7lvedcxp7d
ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्)
0
96718
409327
253106
2025-06-27T11:10:22Z
Soorya Hebbar
3821
409327
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्)
| author = कालिदासः
| translator = मणिरामः
| section =
| previous =
| next =
| year = १९१०
| notes =
}}
<pages index="ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्).djvu" from=3 to=3/>
{{AuxTOC|
{{block center|width=300px}}
{{c|{{xx-larger|'''सूचीपत्रम्'''}}}}
*{{Table| title=[[ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्)/प्रथमः सर्गः(ग्रीष्मवर्णनम्)|प्रथमः सर्गः(ग्रीष्मवर्णनम्)]]| page=[[पृष्ठम्:ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्).djvu/४|१]]}}
*{{Table| title=[[ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्)/द्वितीयः सर्गः(प्रावृड्वर्णनम्)|द्वितीयः सर्गः(प्रावृड्वर्णनम्)]]| page=[[पृष्ठम्:ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्).djvu/१९|१६]]}}
*{{Table| title=[[ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्)/तृतीयः सर्गः(शरद्वर्णनम्)|तृतीयः सर्गः(शरद्वर्णनम्)]]| page=[[पृष्ठम्:ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्).djvu/३४|३१]]}}
*{{Table| title=[[ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्)/चतुर्थः सर्गः(हेमन्तवर्णनम्)|चतुर्थः सर्गः(हेमन्तवर्णनम्)]]| page=[[पृष्ठम्:ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्).djvu/५०|४७]]}}
*{{Table| title=[[ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्)/पञ्चमः सर्गः(शिशिरवर्णनम्)|पञ्चमः सर्गः(शिशिरवर्णनम्)]]| page=[[पृष्ठम्:ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्).djvu/६०|५७]]}}
*{{Table| title=[[ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्)/षष्ठः सर्गः(वसन्तवर्णनम्)|षष्ठः सर्गः(वसन्तवर्णनम्)]]| page=[[पृष्ठम्:ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्).djvu/६९|६६]]}}
}}
<pages index="ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्).djvu" from=3 to=66/>
6tly53gyiqki8203qpby5uukistc8jg
409329
409327
2025-06-27T11:20:47Z
Soorya Hebbar
3821
409329
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्)
| author = कालिदासः
| translator = मणिरामः
| section =
| previous =
| next =
| year = १९१०
| notes =
}}
<pages index="ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्).djvu" from=3 to=3/>
{{AuxTOC|
{{block center|width=300px}}
{{c|{{xx-larger|'''सूचीपत्रम्'''}}}}
*{{Table| title=[[ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्)/प्रथमः सर्गः(ग्रीष्मवर्णनम्)|प्रथमः सर्गः(ग्रीष्मवर्णनम्)]]| page=[[पृष्ठम्:ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्).djvu/४|१]]}}
*{{Table| title=[[ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्)/द्वितीयः सर्गः(प्रावृड्वर्णनम्)|द्वितीयः सर्गः(प्रावृड्वर्णनम्)]]| page=[[पृष्ठम्:ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्).djvu/१९|१६]]}}
*{{Table| title=[[ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्)/तृतीयः सर्गः(शरद्वर्णनम्)|तृतीयः सर्गः(शरद्वर्णनम्)]]| page=[[पृष्ठम्:ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्).djvu/३४|३१]]}}
*{{Table| title=[[ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्)/चतुर्थः सर्गः(हेमन्तवर्णनम्)|चतुर्थः सर्गः(हेमन्तवर्णनम्)]]| page=[[पृष्ठम्:ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्).djvu/५०|४७]]}}
*{{Table| title=[[ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्)/पञ्चमः सर्गः(शिशिरवर्णनम्)|पञ्चमः सर्गः(शिशिरवर्णनम्)]]| page=[[पृष्ठम्:ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्).djvu/६०|५७]]}}
*{{Table| title=[[ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्)/षष्ठः सर्गः(वसन्तवर्णनम्)|षष्ठः सर्गः(वसन्तवर्णनम्)]]| page=[[पृष्ठम्:ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्).djvu/६९|६६]]}}
}}
<pages index="ऋतुसंहारम् (चन्द्रिकाव्याख्यासमेतम्).djvu" from=4 to=91/>
4lz5dva8gu1e5p86l8cdtufn0adu16u
पृष्ठम्:न्यायलीलावती.djvu/६८२
104
134314
409318
358233
2025-06-27T10:45:18Z
Swaminathan sitapathi
4227
/* शोधितम् */
409318
proofread-page
text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="Swaminathan sitapathi" /></noinclude>व्यायलीलावतीकण्ठाभरण-लविवृतिप्रकाशोद्भासिता ६०३
मानुपपत्ते: । अत एव हेतुपदमपि साध्यस्वरूपमात्रवत् साधन-
न्यायलीलावती कण्टाभरणम्
व्यत्यासेनावयवकल्पनापत्तेरित्यर्थः । अत एवेति । लाध्यस्वरूपोप-
न्यायलीलावतप्रकाशः
ब्दज्ञानविषयकवाक्यत्वम्,
हेत्वभिधानप्रयोजकी भूतजिज्ञासाजनकवाक्यत्वं वा । अतएवेति । लाध्यनिर्देशान्तरं हेतोराकाङ्क्षा नतु तद्गमकत्वे पीत्याकाङ्क्षाक्रमनियमादेवेत्यर्थः । साध्य रूपमात्रेत्यत्र मात्रपदेन निगमनप्रयोजकाकाङ्क्षानिवृत्तिः, साध्यस्य विषयत्वेऽपि तदुपरक्त्तसाधनस्यापि विषयत्वात् । साधनस्वरूपमात्ररुयेतिमात्रपदेन
हेतुगमकत्व विषयकाकाङ्क्षानिवृत्तिः । अनुमितिहेतुतृतीयलिङ्गपरामर्षप्रयोजकशाब्दज्ञानकारण साध्याविषयशाब्दधीजन कहेतुविभक्तिमच्छन्दत्वं हेतुलक्षणम् । यद्यपि हेतावुक्त्ते कक्षस्व गमकत्वमित्याकाङ्क्षायां व्याप्तिपक्षधर्मतयोरुपदर्शनप्राप्तौ कथं विनिगमना यतो नोभयजिज्ञासा, न वा प्रथमं पक्षधर्मताजिज्ञाला, तथापि वह्निव्याध्यधूमवानयमिति परामर्षोऽनुमितिजनक इति व्याप्तेर्विशेषणत्वेन प्रथमो-
न्यायलीलावतीप्रकाशविवृतिः
सामानाधिकरण्यविषयत्वमिति न्यूनविषयतेति वाच्यम् । पुरुषश
क्त्तिपरीक्षार्थमन्वयव्याप्तिमभ्युपगम्य सिद्धसाधनप्रहपरीहारेणैव सम्बन्धकथायां तादृशोपनयेऽतिव्याप्ति सम्भवात् । वस्तुतः सत्यन्तं
न्यायावयवपरम्, अन्यूनानतिरिक्तपदयोश्च विकल्पेनान्वये लक्षणद्वयमेवेदम् । यदि पूर्वोदाहृतोपनयो न स्वीक्रियते इति सारम् । पदानां
प्रत्येकमेव तादृशज्ञानजनकत्वादतिव्याप्तिरिति वाक्यपदं तादृशफलोपहितसमुदायपरम् । हेत्वति । हेत्ववयवेत्यर्थः । तेन नोदासीनातिव्याप्तिः । अनुमितीति । अत्र कारणेत्यन्तं धीविशेषणमुदासीनातिव्यातिवारणाय, तञ्च न्यायजन्यज्ञान प्रयोज केत्यर्थकम् । निगमेनैकदंशेऽतिव्यातिवारणाय साध्यविषयकेति ।साध्यविषयधीजनकनियतान्यत्वं च तदर्थोऽतो न प्रत्यक्षस्पर्शाश्रयत्वादित्यत्राव्याप्तिः । उदाहर
णैकदेशेऽतिव्यप्तिवारणाय हेतुविभक्तिमदिति । शब्दपदं तु सामान्यवत्त्वे सतीत्यादावव्यातिवारकं शब्दपदेन हेतुविभक्त्यर्थान्वितार्थक
त्वस्य लाभादिति । पुरुषस्य दण्ड इति ज्ञानानन्तरं दण्डी पुरुष इतेि-<noinclude></noinclude>
dsn01wzv7xyah4dfbi45vtxvbf8wtt0
409319
409318
2025-06-27T10:47:44Z
Swaminathan sitapathi
4227
409319
proofread-page
text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="Swaminathan sitapathi" />{{rh|left=|center='''व्यायलीलावतीकण्ठाभरण-लविवृतिप्रकाशोद्भासिता'''|right=६०३}}</noinclude>
मानुपपत्ते: । अत एव हेतुपदमपि साध्यस्वरूपमात्रवत् साधन-
{{rule|5em}}
{{center|न्यायलीलावती कण्टाभरणम्}}
व्यत्यासेनावयवकल्पनापत्तेरित्यर्थः । अत एवेति । लाध्यस्वरूपोप-
{{center|न्यायलीलावतप्रकाशः}}
ब्दज्ञानविषयकवाक्यत्वम्,
हेत्वभिधानप्रयोजकी भूतजिज्ञासाजनकवाक्यत्वं वा । अतएवेति । लाध्यनिर्देशान्तरं हेतोराकाङ्क्षा नतु तद्गमकत्वे पीत्याकाङ्क्षाक्रमनियमादेवेत्यर्थः । साध्य रूपमात्रेत्यत्र मात्रपदेन निगमनप्रयोजकाकाङ्क्षानिवृत्तिः, साध्यस्य विषयत्वेऽपि तदुपरक्त्तसाधनस्यापि विषयत्वात् । साधनस्वरूपमात्ररुयेतिमात्रपदेन
हेतुगमकत्व विषयकाकाङ्क्षानिवृत्तिः । अनुमितिहेतुतृतीयलिङ्गपरामर्षप्रयोजकशाब्दज्ञानकारण साध्याविषयशाब्दधीजन कहेतुविभक्तिमच्छन्दत्वं हेतुलक्षणम् । यद्यपि हेतावुक्त्ते कक्षस्व गमकत्वमित्याकाङ्क्षायां व्याप्तिपक्षधर्मतयोरुपदर्शनप्राप्तौ कथं विनिगमना यतो नोभयजिज्ञासा, न वा प्रथमं पक्षधर्मताजिज्ञाला, तथापि वह्निव्याध्यधूमवानयमिति परामर्षोऽनुमितिजनक इति व्याप्तेर्विशेषणत्वेन प्रथमो-
{{center|न्यायलीलावतीप्रकाशविवृतिः}}
सामानाधिकरण्यविषयत्वमिति न्यूनविषयतेति वाच्यम् । पुरुषश
क्त्तिपरीक्षार्थमन्वयव्याप्तिमभ्युपगम्य सिद्धसाधनप्रहपरीहारेणैव सम्बन्धकथायां तादृशोपनयेऽतिव्याप्ति सम्भवात् । वस्तुतः सत्यन्तं
न्यायावयवपरम्, अन्यूनानतिरिक्तपदयोश्च विकल्पेनान्वये लक्षणद्वयमेवेदम् । यदि पूर्वोदाहृतोपनयो न स्वीक्रियते इति सारम् । पदानां
प्रत्येकमेव तादृशज्ञानजनकत्वादतिव्याप्तिरिति वाक्यपदं तादृशफलोपहितसमुदायपरम् । हेत्वति । हेत्ववयवेत्यर्थः । तेन नोदासीनातिव्याप्तिः । अनुमितीति । अत्र कारणेत्यन्तं धीविशेषणमुदासीनातिव्यातिवारणाय, तञ्च न्यायजन्यज्ञान प्रयोज केत्यर्थकम् । निगमेनैकदंशेऽतिव्यातिवारणाय साध्यविषयकेति ।साध्यविषयधीजनकनियतान्यत्वं च तदर्थोऽतो न प्रत्यक्षस्पर्शाश्रयत्वादित्यत्राव्याप्तिः । उदाहर
णैकदेशेऽतिव्यप्तिवारणाय हेतुविभक्तिमदिति । शब्दपदं तु सामान्यवत्त्वे सतीत्यादावव्यातिवारकं शब्दपदेन हेतुविभक्त्यर्थान्वितार्थक
त्वस्य लाभादिति । पुरुषस्य दण्ड इति ज्ञानानन्तरं दण्डी पुरुष इतेि-<noinclude></noinclude>
o0vcmgadqwtwmkhgqbm48sl4fityi3i
पृष्ठम्:न्यायलीलावती.djvu/७२९
104
134361
409326
358282
2025-06-27T11:06:29Z
Swaminathan sitapathi
4227
/* शोधितम् */
409326
proofread-page
text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="Swaminathan sitapathi" /></noinclude>६५० व्यायलीलावती
अत्रोच्यते । संस्कारस्य हि द्वयी आधारता-समवायः स्वभावप्रत्यासत्तिथ । तत्र व्रीह्याधारता स्वभावप्रत्यसत्तिरवे स्यात्,
भावनावत् । यथा तद्विषयज्ञानप्रतत्वमेव तदीयत्वं भावनायाः,
तथा तद्विषयप्रोक्षणादिमतत्वमेव तदीयत्वम् । प्रत्यासत्तिश्च तदुपरक्तप्रतीतिगम्या । सा च ज्ञात इव (१) संस्कृत इति सम्भवति ।
मुख्य सम्बन्धकल्पनायां (२) किं बाधकमिति चेत् । कल्पनायां (३)
न्यायलीलावतीकण्ठाभरणम्
स्कार: स्वरूपसम्बन्धेन व्रीहिषु वर्त्तमानः कर्मत्वादिप्रयोजक
इत्याह संस्कारस्य हीति । मुख्यसम्बन्ध इति । समवाय इत्यर्थः । कल्पनाया-
न्यायलीलावतीप्रकाशः
दिषु विशेषानाधाने कुसुमारुण्यमनुपपन्नमित्यर्थः । अत्र तयेत्यनन्तरं विनेत्यध्याहरन्ति । प्रोक्षणजन्य पुरुषनिष्ठसंस्कारसम्बन्धादेव कर्मरवोपपत्तिरित्याह संस्कारस्य हीति | यथेति । यथा घटं जानामि घटं भावयतीत्यत्र ज्ञानभावनयोश्तद्विषयत्वेन स्वरूप सम्बन्धने द्वितीयोप
पत्तिस्तथा प्रकृतेषीत्यर्थः । तद्विषयेति । अतीततद्विषयज्ञानप्रसूतत्वमि
त्यर्थः । तथा च प्रोक्षणजन्यसंस्काराधारत्वाहीहीणां कर्मत्वमुपपन्न
मिति नाधेयशक्तिकल्पनमिति भावः | स्वरूपस्य प्रत्यासत्तित्वे मान-
न्यायलीलावतीप्रकाशविवृतिः
भिधानमयुक्तं, तथापि परम्परया प्रयोजकाद्विशेषणादित्यर्थः । अध्याहरन्तीति, वैमत्यसूचनाय । तद्वीजन्तु तयेत्यस्य मात्रयेत्यर्थकत्वे काण्डाङ्कुरादौ मात्रानाघाने मात्रया कुसुमेषु रक्तताधानमनुपपन्न मित्यन्वयसम्भव एवेति ध्येयम् । घटं जानामीति । यद्यपि क्रियाजन्यफलस्य कर्मणः स्वरूपसम्बन्धे प्रकृतोदाहरणं युक्तं, तथापि स्वरूपसम्बन्धेन
कर्मतोपपत्तिरित्यतावन्मात्रे दृष्टान्तः । ( वस्तुतो ज्ञानभावनयोरिति
फलपरमेव, ज्ञानपदच स्मृतिपरम्। यथायोग्यं वाऽन्वयः भावनया ज्ञान
जनकत्वेन तत्प्रसूतत्वमसम्भवतीत्यत आह) (४) अतीततद्विषयेति । स्वरूप-
{{rule}}
( १ ) <ref>ज्ञात इति वत् इति मु० पु० पाठ ।</ref> ( २ ) <ref>सम्बन्धे किं- इति मिश्राभिमतः पाठः ।</ref>
( ३ ) <ref>कल्पना गौरवमिति प्रकाशाभिमत पाठ ।</ref>
( ४ ) <ref>चिन्हित पाठः</ref> ( ५ ) <ref>आदर्शपुस्तके नास्ति ।
</ref><noinclude></noinclude>
mz9sk09490m1ydbcw0wq3g4g0m4wl4x
409328
409326
2025-06-27T11:11:46Z
Swaminathan sitapathi
4227
409328
proofread-page
text/x-wiki
<noinclude><pagequality level="3" user="Swaminathan sitapathi" />{{rh|left=६५० |center='''व्यायलीलावती'''|right=}}</noinclude>
{{gap}}अत्रोच्यते । संस्कारस्य हि द्वयी आधारता-समवायः स्वभावप्रत्यासत्तिथ । तत्र व्रीह्याधारता स्वभावप्रत्यसत्तिरवे स्यात्,
भावनावत् । यथा तद्विषयज्ञानप्रतत्वमेव तदीयत्वं भावनायाः,
तथा तद्विषयप्रोक्षणादिमतत्वमेव तदीयत्वम् । प्रत्यासत्तिश्च तदुपरक्तप्रतीतिगम्या । सा च ज्ञात इव <ref>ज्ञात इति वत् इति मु० पु० पाठ ।</ref> संस्कृत इति सम्भवति ।
मुख्य सम्बन्धकल्पनायां <ref>सम्बन्धे किं- इति मिश्राभिमतः पाठः ।</ref> किं बाधकमिति चेत् । कल्पनायां <ref>कल्पना गौरवमिति प्रकाशाभिमत पाठ ।</ref>
{{rule|5em}}
{{center|न्यायलीलावतीकण्ठाभरणम्}}
स्कार: स्वरूपसम्बन्धेन व्रीहिषु वर्त्तमानः कर्मत्वादिप्रयोजक
इत्याह संस्कारस्य हीति । मुख्यसम्बन्ध इति । समवाय इत्यर्थः । कल्पनाया-
{{center|न्यायलीलावतीप्रकाशः}}
दिषु विशेषानाधाने कुसुमारुण्यमनुपपन्नमित्यर्थः । अत्र तयेत्यनन्तरं विनेत्यध्याहरन्ति । प्रोक्षणजन्य पुरुषनिष्ठसंस्कारसम्बन्धादेव कर्मरवोपपत्तिरित्याह संस्कारस्य हीति | यथेति । यथा घटं जानामि घटं भावयतीत्यत्र ज्ञानभावनयोश्तद्विषयत्वेन स्वरूप सम्बन्धने द्वितीयोप
पत्तिस्तथा प्रकृतेषीत्यर्थः । तद्विषयेति । अतीततद्विषयज्ञानप्रसूतत्वमि
त्यर्थः । तथा च प्रोक्षणजन्यसंस्काराधारत्वाहीहीणां कर्मत्वमुपपन्न
मिति नाधेयशक्तिकल्पनमिति भावः | स्वरूपस्य प्रत्यासत्तित्वे मान-
{{center|न्यायलीलावतीप्रकाशविवृतिः
}}
भिधानमयुक्तं, तथापि परम्परया प्रयोजकाद्विशेषणादित्यर्थः । अध्याहरन्तीति, वैमत्यसूचनाय । तद्वीजन्तु तयेत्यस्य मात्रयेत्यर्थकत्वे काण्डाङ्कुरादौ मात्रानाघाने मात्रया कुसुमेषु रक्तताधानमनुपपन्न मित्यन्वयसम्भव एवेति ध्येयम् । घटं जानामीति । यद्यपि क्रियाजन्यफलस्य कर्मणः स्वरूपसम्बन्धे प्रकृतोदाहरणं युक्तं, तथापि स्वरूपसम्बन्धेन
कर्मतोपपत्तिरित्यतावन्मात्रे दृष्टान्तः । ( वस्तुतो ज्ञानभावनयोरिति
फलपरमेव, ज्ञानपदच स्मृतिपरम्। यथायोग्यं वाऽन्वयः भावनया ज्ञान
जनकत्वेन तत्प्रसूतत्वमसम्भवतीत्यत आह) <ref>चिन्हित पाठः (१) आदर्शपुस्तके नास्ति ।
</ref>अतीततद्विषयेति । स्वरूप-
{{rule}}<noinclude></noinclude>
notuinn3w06sypx4tbtj4cbarvf9086
दाशरथीयतन्त्रम्/अध्यायः १८
0
163644
409270
2025-06-27T05:00:50Z
Shubha
190
{{header | title = [[../]] | author = | translator = | section = अध्यायः १८ | previous = [[../अध्यायः १७|अध्यायः १७]] | next = [[../अध्यायः १९|अध्यायः १९]] | notes = }} <poem> श्रीऋष्यशृंग उवाच अथातः श्रीमद्दष्टार्णन्य... नवीन पृष्ठं निर्मीत अस्ती
409270
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः १८
| previous = [[../अध्यायः १७|अध्यायः १७]]
| next = [[../अध्यायः १९|अध्यायः १९]]
| notes =
}}
<poem>
श्रीऋष्यशृंग उवाच
अथातः श्रीमद्दष्टार्णन्यासधान्यादिकं द्विजाः |
उक्तं भगवतापूर्वं प्रवक्ष्यामि समासतः || १ ||
साध्यो नारायणः स्वामी भगवानृषिरुच्यते |
छंदोगायत्रमित्युक्तं छंदं सामुत्तमोत्तमं || २ ||
श्रिया चिद्रूपया लक्ष्म्यासहितः परमेश्वरः |
नारायणास्त्रिजगतांपतिर्देवस्सनातनः || ३ ||
अकारो वीजमित्युक्तःकारः शक्तिरुच्यते |
विनियोगो भगवतः प्रसादार्थ सुदाहृतः || ४ ||
गौतमोत्रिर्भरद्वाजे विश्वामित्रो महामुनिः |
जमदग्निर्वशिष्टश्च कश्ययोगस्त्य एव || ५ ||
प्. ५६अ)
अष्टाक्षराणां विज्ञेया ऋषयोष्ठौ यथाक्रमं |
गायत्र्युदिमगनुष्टुप्यवृहतीपङ्क्तिरेव च || ६ ||
त्रिष्टुप जगती चापि विराट् छंदांसि वै क्रमात् |
धरोध्रुवस्तथा सोम आयौग्निर्वायुरेव च || ७ ||
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च प्रभासश्च विज्ञेया देवताः क्रमात् |
क्रुद्धोल्कायाग्निजापांतै कृष्णवर्णा यदृद्यथ || ८ ||
महोल्कायाग्निजापाकनकवर्णाय मूर्ध्नाथ |
वीरो कृपाग्नि जापांते पिंगलेति पदात्परं || ९ ||
वर्णायाथ शिखास्थाने द्व्यूल्कायाग्नि प्रियामथ |
हेमवर्णायकवचं सहस्रो क्लायशब्दतः || १० ||
विद्युद्वर्णायशब्दांतेन्यसेदस्त्रं ततः परं |
अंगुलीपंचकन्यासमेवमेव समाचरेत् || ११ ||
तर्जन्यांदि कनिष्ठां तांगुलीष्वर्णान्सविंदुकान् |
विन्यस्य नम सायुक्तान्नाभौ गुह्ये ततः परं || १२ ||
जान्वायोः पादयुगे मूर्द्धाक्षिनासाहृदयेषु च |
स विंदुकाक्षस्यासः कर्तव्य इति भूयते || १३ ||
हृदि मूर्द्ध्नि शिखायी च कवचेनेत्रेयोरथा |
अस्त्रं तथोदरे पृष्ठे न्यासमष्टांगमाचरेत् || १४ ||
इत्थं पंचांगमष्टांगंन्यासं कृत्वा समाहितः |
अंतवीहिर्मातृकाख्यान्यासं कुर्यादन्यधीः || १५ ||
ऋषिर्ब्रह्मासमुद्दिष्टच्छंदो गायत्रमीरितं |
देवतामातृकासाक्षाच्चिद्रूपाश्रीःसरस्वती || १६ ||
वीजानि हल उक्तानि स्वराः शक्तय ईरिताः |
ह्रस्वदीर्घांद्यंतयुतैः षड्विर्वर्गैः षडंगकं || १७ ||
कृत्वान्यासं ततोध्यायेन्मातृकां परमेश्वरी |
आदिक्षांताक्षरश्रेणीमाणिक्याकल्पधारिणीं || १८ ||
चिद्रूपिणीं महालक्ष्मीं वाग्देवीमातृकांनुमः |
अथांतर्मातृकान्यासः कंठहृन्नाभिगुह्यके || १९ ||
पाये भ्रूमध्यगेपद्येषोडशद्वदशब्ददे |
दशपत्रे च षट्पत्रे चतुःपत्रेद्विपत्रके || २० ||
पंचाशद्वर्णविन्यासः पत्रसंख्या क्रमाद्भवेत् |
एकैकवर्णमेकैकपत्रांतर्विन्न्यसेनृप || २१ ||
प्. ५६ब्)
एवमंतः प्रविन्यस्य मनसाथ वर्हिन्यसेत् |
शिरोवदनवृत्तेपि चक्षुः श्रोत्रयुगेप्यथ || २२ ||
नासाकपोलयुगले तथोकगुगलेपि च |
उर्ध्वाधोदंतपंक्तौ च विन्यसेत् षोडशस्वरात् || २३ ||
कचवर्गद्वयं हस्तपंचसंधिस्थलेन्यसेत् |
ट त वर्गद्वयं पादसंध्यग्रेषु तथान्यसेत् || २४ ||
पवर्गं पार्श्वयुगले पृष्टनाभ्युदरेषु च |
हृदोर्मूलककुल्कक्षहृदादिकरपवये || २५ ||
जठराननयोश्चैव व्यापकं विनियोजयेत् |
पंचाशदक्षरन्यासः क्रमेणैवं विधीयते || २६ ||
ओं माधंतो नमोंतो वा सविंदुवर्जितः |
मायालक्ष्मी कामवीजपूर्वोन्यस्तव्य इष्यते || २७ ||
केशवाय च कीर्त्यै च तथा नारायणाय च |
कांत्यै तथा माधवाय तुष्टौ इति न्यसेत् नमः || २८ ||
गोविंदाय च पुष्ट्यै च विष्णये च द्धृतिस्ततः |
मधुसूदनशांती च त्रिविक्रमक्रिये तथा || २९ ||
वामना पदयायै च श्रीधरायचदे ततः |
मेधायै च हृषीकेशोहर्षायै च नमस्तथा || ३० ||
पयनाभाय श्रद्धायै तथा दामोदराय च |
लज्जायै वासुदेवाय लक्ष्म्यै संकर्षणाय च || ३१ ||
सरस्वत्यै च प्रद्युम्नः प्रीत्यै नम इतीष्यते |
अनिरुद्धा परत्यै च स्वरांते प्रवदेदथ || ३२ ||
चक्रिणे विजयायै च गदिनेशार्ङ्गिणे तथा |
दुर्गायै च प्रभायै च खड्गिने विन्यसेदथ || ३३ ||
सत्यायै शंखिने चंडायै नमः प्रवदेदथ |
हलिने च तथावाण्यै तथामुशलिनेवदेत् || ३४ ||
विलासिन्यैशूलिने च विरजायै ततः परं |
पाशिने विजयायै च तथैवांकुशिनेवदेत् || ३५ ||
सत्यायमुत्स्यै सत्त्वायमत्यै नम विश्वायै च मुकुंदाय |
विमदायै नमस्ततः नंदजासुनंदायै नंदिने च स्मृति तथा || ३६ ||
नरायन्नऋद्ध्यै च तथा वदेन्नरकजितः |
समृद्ध्यैहरयेशुद्ध्यै कृष्णषुद्धीनतः परं || ३७ ||
सत्याय मुक्त्यै सत्वायमत्यै नम इतीरयेत् |
शौरये च क्षमायै च शूराय परमाततः || ३६ ||
प्. ५७अ)
जरा ईनाराय च यदेच्छ्रियैस्याद्भूधराय च |
क्लेदिन्यैषिश्च मूर्तिश्च क्लिन्नायै तदनंअरं || ३९ ||
वैकुंठाय नमः पश्चाद्वसुधायै ततः परं |
पुरुषोत्तमश्च वसुदावलिने च परा तथा || ४० ||
वलानुजाय च परायणायै च ततः परं |
वलायाप्यथ सूक्ष्मायै वृषाघ्नाय ततः परं || ४१ ||
संध्यायै च वृषायाथ प्रज्ञायै च ततः परं |
हंसाय च प्रभायेस्याद्वराहाय निशातथा || ४२ ||
विमलायाप्यमोद्यायै च नृसिंहाय ततः परं |
विद्युतायैत्वगात्या च ह्यसृगात्मा च ह्यसृगात्मा ततः परं || ४३ ||
मांसात्मने तथामेद आत्मनेऽस्थ्यात्मनेपि च |
जीवात्मने च परमात्मने नम इतीरयेत् || ४४ ||
सर्वदेवमयीं साक्षाद्वैष्णवीं मातृकां परां |
विन्यस्यैवं क्रमाद्भूपविराड्रूपी न संशयः || ४५ ||
मायाश्रीकामपूर्वं वा कामपूर्वमथापि वा |
शिरोवदनवृतादिश्चयं न्यासक्रमः स्मृतः || ४६ ||
केशवादिरयंन्यासो महापातकनाशनः |
देहिनां न्यासमात्रेण ब्रह्मतादात्म्यसिद्धिदः || ४७ ||
सर्वदेवमयीमेनां वैष्णवीं मातृकां परां |
विन्यस्य सततं धीमान्भगवन्मयनां व्रजेत् || ४८ ||
विन्यस्य वैष्णवीमेनां मातृकामन्वहं शुचिः |
श्रीमदष्टाक्षरीं जप्त्वा साक्षान्नारायणो भवेत् || ४९ ||
वैष्णवी मातृकामेकामपि विन्यस्य वान्वहं |
श्रीमदष्टाक्षरीं जप्त्वा यथा शक्त्या दिनेदिने || ५० ||
सर्वदेवमयः साक्षाद्विराद्रूपां श्रियः पतिः |
आचार्यानुग्रहाद्भूत्वा महतीं सिद्धिमश्नुते || ५१ ||
वंद्यो सौ सर्वदेवानां मुनीनां च भवत्यसौ |
केशवादिरयंन्यासोन्यासमात्रेणदेहिनां || ५२ ||
अच्युतत्वंददात्येव सत्यं सत्यं वदाम्यहं |
तत्वन्यासमथो वक्ष्ये शृणुष्वावहितोनृप || ५३ ||
विन्यस्य तत्वविन्यासं तत्वविद्भवति ध्रुवं |
मादयः प्रतिलोम्येनकांताः स्पर्शसंज्ञकाः || ५४ ||
प्. ५७ब्)
नमः पराय पूर्वेतु तु प्रणवांते व्यवस्थिताः |
जीवः प्राणश्च बुद्धिश्चाप्यहंकारोमनस्तथा || ५५ ||
सर्वांगे हृदिविन्यस्य शब्दादि विषयास्ततः |
पूर्द्ध्नि घ्राणे च हृदयेप्युपस्थो पादयोरपि || ५६ ||
श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वाघ्राणरूपेणदेहिनां |
ज्ञानेंद्रियाणियं चापि ततस्थाने न्यसेत् पुनः || ५७ ||
वाक्पाणि पादयायूयस्थानीति कर्मेंद्रियाणि च |
तथैव ततत्स्थानेषु तत्तदेव प्रविन्यसेत् || ५८ ||
शिरोमुखेपि हृदये तथा गुह्येपि पादयोः |
आकाशानिलतेजांसि सलिलं पृथिवी तथा || ५९ ||
विन्यसे पूर्ववच्चैवन्यासविद्भिरुदीरितं |
शहौ च सषलाः पंचतथायश्च वला-अपि || ६० ||
क्षौंचेति दशवर्णानि प्रणवांते च पूर्ववत् |
हृत्पद्म सोमसूर्याय स्वकलायुक्तं मंडलां || ६१ ||
त्रयं हृद्येव विन्यस्य वासुदेवादयस्तथा |
परमेष्ठी च पुरुषो विश्वव्यापीनिवर्तकः || ६२ ||
नारायणो नृसिंहश्च सकरोवाक्यपूरकौ |
मूर्ध्नास्ये हृदिगुह्ये च पादयोर्व्यापकं ततः || ६३ ||
तदात्मने नम इति ततत्स्थानेषु विन्यसेत् |
अतत्वस्याप्य पूज्यस्य तत्प्राप्तेर्हेतुनापुनः || ६४ ||
नत्वन्यासमिति प्राहुर्न्यासं तत्वविदोबुधाः |
यः कुर्यातत्वविन्यासं स एव भवति ध्रुवं || ६५ ||
तदात्मनानु प्रविश्य भगवानिहंतिष्ठति |
ततस्स एव तत्वानि सर्वं तस्मिन्प्रतिष्ठितं || ६६ ||
अज्ञात सर्वतत्वोपि तत्वन्यासेन संततं |
सर्वतत्वमयः साक्षातत्वधिद्वविद्भवेत् || ६७ ||
तत्वन्यासेन सततं पूजाप्राप्नोति शाश्वतीं |
विश्वंमरोविजाडात्मासाक्षान्नारायणो भवेत् || ६८ ||
तत्वन्यासमर्थेवं वा विन्यस्यान्वहमादरात् |
आचार्यानुग्रहं प्राप्य श्रीमदष्टाक्षरं जपन् || ६९ ||
वंद्यस्समस्तदेवानामपि विश्वंभरो भवेत् |
तन्मूर्तिपंजरन्यासस्य तन्मूर्तिसिद्धये || ७० ||
आकर्णयैचितत्वं यतोस्मिन् फलांतरं |
नमो भगवते व्रूयाद्वासुदेवाय इत्यथ || ७१ ||
प्. ५८अ)
ओं मादेदस्यमंत्रस्यचादायै काक्षरं ततः |
श्रीमष्टाक्षरौ विद्यामादावेव समुच्चरन् || ७२ ||
वातेतश्च स्वरस्तद्वत् श्रीमष्टाक्षरं ततः |
वासुदेवद्वादर्शार्णस्यैकेकाक्षरमुच्चरन् || ७३ ||
नामैकैकमुपादाय विष्णोर्द्वादशनाकसु |
नामैकैकमुअपदाय सूर्यस्यापि च नामसु || ७४ ||
चतुर्थ्यंतं नमोंतं च न्यस्तव्यं न्यासयोगतः |
ललाटेनाभि हृदयकंठपार्श्वांसकंधरे || ७५ ||
पार्श्वांतरेवस्कंधे च पृष्टे ककुदि मूर्ध्नपि |
केशवश्च ततो व्रूयान्नारायण इति द्वयं || ७६ ||
माधवश्चैव गोविंदो विष्णुश्च मधुसूदनः |
त्रिविक्रमो वामयश्च श्रीधरो नवमः स्मृतः || ७७ ||
ह्र्षीकेशः पद्मनाभस्तथा दामोदर क्रमात् |
विष्णोर्द्धादशनामानिचामूनिमुनिसप्तम || ७८ ||
धातार्यमाचमित्रश्च वरुणो शुभमस्तथा |
इंद्रोचित्रवसान्पूषा च पर्जन्यो दशमः स्मृतः || ७९ ||
त्वष्टा च विष्णुरित्येवं नामानि द्वादशात्मनः |
तन्मूर्तिपंजरन्यासस्तुभ्यमुक्तोमयाविभो || ८० ||
तन्मूर्तिपंजरन्यासं कृत्वा भगवदात्मकः |
श्रीमदष्टाक्षरीं जप्त्वाचार्यानुग्रहात्सदा || ८१ ||
महतीं सिद्धिमासाद्य भवेत् साक्षाच्छ्रियः पतिः |
तन्मूर्तिपंजरन्यासंकृत्वा तन्मूर्तिसिद्धये || ८२ ||
आचार्यानुग्रहादाशुब्रह्मतादात्म्यसिद्धिभाक् |
वर्णन्यासं दशविधं प्रवक्ष्यामि ततः परं || ८३ ||
आचार्यानुग्रहाद्यस्य विज्ञानाद्ब्रह्मरूपभाक् |
आदौ योगासनमयं स्वदेहं भावयेद्धिया || ८४ ||
पीठपादमयं हस्तपादयुग्मं च भावयेत् |
पीठोपरितलं पार्श्वद्वयनाभिमुखात्मकं || ८५ ||
तल्यात्मकं स्वोदरं च ध्यात्वा स्वहृदयांवुजे |
नवशक्ति महापीठमंत्रयुक्ते ततः परं || ८६ ||
अनुग्रहाय भक्तानां लीलानिर्मितविग्रहं |
स्वात्मानमेव ध्यात्वाथ न गवन्मयमच्युतं || ८७ ||
कुर्याद्दशविधं वर्णन्यासं ब्रह्मैक्यसिद्धिदं |
आधारे हृदिवकक्त्रे नरोर्मूलयुगले तथा || ८८ ||
पादमूलयुगे नाभौन्यास एक उदाहृतः |
एकैकं मूलमंत्रार्णनमोंतं प्रणवादिकं || ८९ ||
प्. ५८ब्)
स विंदुकं न्यसेद्धीमान्देवताभावसिद्धये |
कंठे नाभौ च हृदयेस्तनयुग्मे च पार्श्वयोः || ९० ||
पृष्ठेन्यासोद्वितीयोयं मंत्रस्य समुदाहृतः |
मूर्ध्नास्ये नेत्रयुगलोकर्णयुग्मे ततः परं || ९१ ||
नासापुरयुगे पश्चातृतीयोन्यास ईरितः |
वाहुसंध्यष्टकेपादसंधिष्वष्ट सुभूपते || ९२ ||
चतुर्थोन्यास आद्यो सौ पंचमश्च ततः परं |
अंगुलीष्वष्टसुन्यासः षष्टोगुष्ठं विनेरितः || ९३ ||
पादांगुष्ठं विना पादांगुलिन्यासश्च सप्तमः |
त्वगसृङ्मासमेदोस्थिमज्जाशुष्कमायान्नृप || ९४ ||
विन्यस्य मूलमंत्रस्य सप्तवर्णानथाक्रमं |
प्राणरूपं स्वहृदयांवुज एवाक्षरान्न्यसेत् || ९५ ||
अष्टमोन्यास उक्तोयं मूर्ध्निनेत्रयुगेमुखे |
हृदयेच्चोदेरपश्चादूरुजंथापदेषु च || ९६ ||
न्यासोयं नवमः प्रोक्ते देवताभावसिद्धिदाः |
कपोलस्कंधयुगलोरुद्धयेचरणद्वये || ९७ ||
न्यासोयं दशमः प्रोक्ता वर्णैर्मूलस्यसिद्धिदः |
इत्थं दशविधं वर्णन्यासं कृत्वा दिने दिने || ९८ ||
देवताभावमाप्नोति येन स्युः सर्वसिद्धयः |
मूलमंत्राक्षरन्यासं कृत्वान्यासं कृत्वा दशविधं नृप || ९९ ||
भगवत्कलयायुक्तः सिद्धिं प्राप्नोत्यनुत्तमां |
मातृकाक्षरविन्यासं केचिद्ब्रह्मविदोमलाः || १०० ||
कुर्वंति भगवद्भावसिध्यर्थं सर्वसिद्धिदं |
मातृकावर्णविन्यास आद्यः शुद्ध इतीरितः || १ ||
प्रणवाद्यो द्वितीयः स्यातृतीयो वाग्भवादिकः |
मायावीजादिकोन्यासश्चतुर्थः समुदीरितः || २ ||
लक्ष्मीवीजादिकोन्यासः पंचमह् समुदीरितः |
वाङ्मायाकमलाद्यश्चन्यासः षष्ठा उदीरितः || ३ ||
कामवीजादिकोन्यासः सप्तमत्समुदीरितः |
हंसमंत्रादिकः पश्चान्न्यासोष्टम उदीरितः || ४ ||
श्रीकंठमातृकान्यासो नवमस्समुदीरितः |
वैष्णवोमातृकान्यासोदरामः समुदीरितः || ५ ||
दशधा मातृकान्यासं भगवद्भावसिद्धिदं |
केचिद्ब्रह्मविदोनित्यं कुर्वंत्य खिलसिद्धिदं || ६ ||
प्. ५९अ)
दशधामातृकान्यासफलदावैष्णवीपरा |
वेदागमपुराणेषु कथिता ब्रह्मवित्तमैः || ७ ||
दशधामातृकान्यासं न्यस्य वान्यस्य वा नृप |
न्यासं केशवकीर्त्याद्यमवश्यं वैष्णवं न्यसेत् || ८ ||
दशधा मातृकान्यासफलंदं स्यान्नसंशयः |
विन्यस्य मातृकामंतर्वहिः पूर्वं दिने दिने || ९ ||
वैष्णवीं मातृकां पश्चान्न्यस्य सर्वार्थसिद्धिदां |
तत्वन्यासं ततः कृत्वान्यस्य तन्मूर्तिपंजरं || १० ||
मूलमंत्रक्षरन्यासं न्यसेद्दशविधं ततः |
इत्थं विन्यस्य विधिवत् साक्षान्नारायणो भवेत् || ११ ||
मंत्रीचात्र न संदेहो निग्रहानुन्नहक्षमः |
न्यासं चतुरशविधं कृत्वेद्यं नित्यमादरात् || १२ ||
वत्सरादिंदिरानाथं भगवंतं प्रपश्यति |
उपदिश्यैवपुरतोन्यासजालमिदं गुरुः || १३ ||
अथांते वासिने दद्याच्छ्रीमदष्टाक्षरीं शुभां |
चतुर्दशविधन्यासमज्ञात्वायोगुरुर्नृप || १४ ||
श्रीमष्टाक्षरीं विद्यां प्रददाति महीतले |
नावात्मवंचकौ प्रोक्तौ वुभावपि न संशयः || १५ ||
सर्वज्ञमेव सततं तस्मादाचार्यमाश्रयेत् |
सततं सिद्धमंत्रस्य वहुज्ञस्य महात्मनः || १६ ||
व्याप्तव्या महती विद्या सदहस्यामहीपते |
सहस्रं योजनं वापि गत्वा वेदार्थपारगं || १७ ||
चतुर्दशविधन्याससहितां परमात्मनः |
प्रदद्यादपि गृह्णीयाच्छ्रीमद्दष्टाक्षरीं शुभां || १८ ||
अन्यथा जपहोमाद्यैः कोटिशोपि न सिद्धिभाक् |
न्यासः स्यान्मंत्रसन्ताहोन्यासहीनो न सिद्धिदः || १९ ||
न्यासः केशकीर्त्यादि चतुर्दशविधः शुभः |
चतुर्दशविधिन्यासं कृत्वा जप्त्वा दिने दिने || २० ||
चतुर्दशसुलोकेषु पूजां प्राप्तोन्यनुत्तमां |
चतुर्दशविधन्यासपूर्विकामिंदिरापतेः || २१ ||
श्रीमदष्टाक्षरींविद्यां यो ददाति महीतले |
तमाचार्यं विजानीहि साक्षान्मद्रूपिणं विभुं || २२ ||
विद्यामात्रप्रदानेननाचार्यत्वं द्विजन्मनः |
सरहस्यमनोर्दाताज्ञेय आचार्य ईश्वरः || २३ ||
प्. ५९ब्)
अविज्ञाय रहस्यानि गृहीत्वा मंत्रमात्रकं |
वहुयोजन साहस्रमपि गत्वा महीपते || २४ ||
संसव्य वहुवर्षं वा दत्वा प्राणधनादिकं |
श्रीमदष्टाक्षरीं विद्यां समस्तन्यासपूर्विकां || २५ ||
गृह्णीयादप्यथान्यस्मान्युनर्विप्रोत्तमान्नृप |
स एव सकलन्यास पूर्वविद्याप्रदोविभुः || २६ ||
आचार्य उच्यते लोके साक्षान्नारायणात्मकः |
तमेव दैवतां विद्धि सदाचार्यं घृणानिधि || २७ ||
स एव स्वपितामाता सद्गुरुर्विधिरीश्वरः |
परमात्मा परंब्रह्म स एव हरिरुच्यते || २८ ||
प्रयत्नेनापि संसेव्य तस्मादाचार्यमीश्वरं |
श्रीमदष्टाक्षरीं विद्यां समस्तन्यासपूर्विकां || २९ ||
प्रजप्त्वा प्रत्यहं सर्वश्रेयसां राशिमश्णुते |
चतुर्दशविधन्यासकर्ता स्वाचार्यमीश्वरं || ३० ||
विनान्यस्मैनवंदेतविनास्वपि तरावपि |
अदेवो न यज्ञेदेवमित्येषाशाश्चतीश्रुति || ३१ ||
न्यासेन भगवद्रूपी भूत्वात्तस्माद्यजेद्धरिं |
आचार्यानुज्ञया नित्यं कृत्वेत्थं न्यासमादरात् || ३२ ||
वर्षादूर्द्धं न संदेहोवंधःस्यादपि दैवतैः |
आज्ञासिद्धो महायोगी भवेद्ब्रह्मसमोनृप || ३३ ||
एकेन जन्मनैवासौदुस्तरं च भवार्णवं |
तीर्त्वा सिद्धिमवाप्नोति देवानामपि दुर्लभां || ३४ ||
प्रजप्त्वा श्रीमदृष्टार्णमन्वहं न्यासपूर्वकं |
सकृस्मरणतोवापि जपकोटिफलं लभेत् || ३५ ||
अज्ञात्वा सकलन्यासंपुरश्चर्याशतैरपि |
श्रीमदष्टाक्षरीसिद्धिं कल्पकोटिशतैरपि || ३६ ||
न किंचिदप्यवाप्नोति सत्यं सत्यं महीपते |
सारात्सारतदं पुण्यमागमेषु श्रुतिष्वपि || ३७ ||
अतिगुप्ततरं न्यासमप्येकं प्रवदाम्यहं |
श्रीमदष्टाक्षरीं विद्यामादावुच्चार्य यत्नतः || ३८ ||
विन्यसेन्मातृकावर्णानखिलात्पूर्ववन्नृप |
विद्रूपर्मातृकानाम प्रोक्तेयं सर्वकामधुक् || ३९ ||
चतुर्दशविधन्या समकृत्वापि दिने दिने |
चिद्रूपमातृकान्यासमवश्यं प्रत्यहं न्यसेत् || ४० ||
श्रीमद्दष्टाक्षरीविद्या पूर्विकां मातृकां शुभां |
विन्यस्य प्रत्यहं जप्त्वा शतमष्टोचतुरं तु वा || ४१ ||
प्. ६०अ)
पुरश्चर्या फलं नित्यं प्राप्नोत्यत्र न संशयः |
चतुर्दशविधं न्यासं न्यस्याचिद्रूपमातृकां || ४२ ||
ब्रह्मविष्णुमहेशादि दैवतैरपि पूज्यते |
समस्तन्याससहिता श्रीमदष्टाक्षरीशुभा || ४३ ||
प्रजप्त्वा सफलाज्ञेया निष्फलैवान्यथा स्मृता |
ब्रह्मतादात्म्यसंसिद्धिमणिमादिगुणांश्रियं || ४४ ||
इच्छताचार्यवक्त्राब्जाद्गृहीत्वान्यासपूर्विका |
श्रीमदष्टाक्षरीविद्याप्रजप्या सर्वसिद्धिदा || ४५ ||
रश्मिमालां प्रजप्त्वादौन्यास जालमतः यतः परं |
श्रीदष्टाक्षरींविद्यां दद्याच्छिष्याय सद्गुरुः || ४६ ||
सत्यं सत्यं प्रवक्ष्यामि भूयो श्रीमदष्टाक्षरीविद्या जप्तव्यान्यास पूर्विका ||
४७ ||
अनुत्तर ब्रह्मतत्वरहस्ये श्रुतिसंग्रहे |
तंत्रे दाशरथीयेस्मिन्नध्यायोष्टादशः स्मृतः || ४८ ||
इति श्रीमदनुत्तर ब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीये तंत्रे वेदार्थसंग्रहे
अष्टादशोध्यायः ||</poem>
igc0dihi7inlt03h7a6uwepjwt7urgb
409271
409270
2025-06-27T05:01:18Z
Shubha
190
409271
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः १८
| previous = [[../अध्यायः १७|अध्यायः १७]]
| next = [[../अध्यायः १९|अध्यायः १९]]
| notes =
}}
<poem>
श्रीऋष्यशृंग उवाच
अथातः श्रीमद्दष्टार्णन्यासधान्यादिकं द्विजाः ।
उक्तं भगवतापूर्वं प्रवक्ष्यामि समासतः ।। १ ।।
साध्यो नारायणः स्वामी भगवानृषिरुच्यते ।
छंदोगायत्रमित्युक्तं छंदं सामुत्तमोत्तमं ।। २ ।।
श्रिया चिद्रूपया लक्ष्म्यासहितः परमेश्वरः ।
नारायणास्त्रिजगतांपतिर्देवस्सनातनः ।। ३ ।।
अकारो वीजमित्युक्तःकारः शक्तिरुच्यते ।
विनियोगो भगवतः प्रसादार्थ सुदाहृतः ।। ४ ।।
गौतमोत्रिर्भरद्वाजे विश्वामित्रो महामुनिः ।
जमदग्निर्वशिष्टश्च कश्ययोगस्त्य एव ।। ५ ।।
प्. ५६अ)
अष्टाक्षराणां विज्ञेया ऋषयोष्ठौ यथाक्रमं ।
गायत्र्युदिमगनुष्टुप्यवृहतीपङ्क्तिरेव च ।। ६ ।।
त्रिष्टुप जगती चापि विराट् छंदांसि वै क्रमात् ।
धरोध्रुवस्तथा सोम आयौग्निर्वायुरेव च ।। ७ ।।
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च प्रभासश्च विज्ञेया देवताः क्रमात् ।
क्रुद्धोल्कायाग्निजापांतै कृष्णवर्णा यदृद्यथ ।। ८ ।।
महोल्कायाग्निजापाकनकवर्णाय मूर्ध्नाथ ।
वीरो कृपाग्नि जापांते पिंगलेति पदात्परं ।। ९ ।।
वर्णायाथ शिखास्थाने द्व्यूल्कायाग्नि प्रियामथ ।
हेमवर्णायकवचं सहस्रो क्लायशब्दतः ।। १० ।।
विद्युद्वर्णायशब्दांतेन्यसेदस्त्रं ततः परं ।
अंगुलीपंचकन्यासमेवमेव समाचरेत् ।। ११ ।।
तर्जन्यांदि कनिष्ठां तांगुलीष्वर्णान्सविंदुकान् ।
विन्यस्य नम सायुक्तान्नाभौ गुह्ये ततः परं ।। १२ ।।
जान्वायोः पादयुगे मूर्द्धाक्षिनासाहृदयेषु च ।
स विंदुकाक्षस्यासः कर्तव्य इति भूयते ।। १३ ।।
हृदि मूर्द्ध्नि शिखायी च कवचेनेत्रेयोरथा ।
अस्त्रं तथोदरे पृष्ठे न्यासमष्टांगमाचरेत् ।। १४ ।।
इत्थं पंचांगमष्टांगंन्यासं कृत्वा समाहितः ।
अंतवीहिर्मातृकाख्यान्यासं कुर्यादन्यधीः ।। १५ ।।
ऋषिर्ब्रह्मासमुद्दिष्टच्छंदो गायत्रमीरितं ।
देवतामातृकासाक्षाच्चिद्रूपाश्रीःसरस्वती ।। १६ ।।
वीजानि हल उक्तानि स्वराः शक्तय ईरिताः ।
ह्रस्वदीर्घांद्यंतयुतैः षड्विर्वर्गैः षडंगकं ।। १७ ।।
कृत्वान्यासं ततोध्यायेन्मातृकां परमेश्वरी ।
आदिक्षांताक्षरश्रेणीमाणिक्याकल्पधारिणीं ।। १८ ।।
चिद्रूपिणीं महालक्ष्मीं वाग्देवीमातृकांनुमः ।
अथांतर्मातृकान्यासः कंठहृन्नाभिगुह्यके ।। १९ ।।
पाये भ्रूमध्यगेपद्येषोडशद्वदशब्ददे ।
दशपत्रे च षट्पत्रे चतुःपत्रेद्विपत्रके ।। २० ।।
पंचाशद्वर्णविन्यासः पत्रसंख्या क्रमाद्भवेत् ।
एकैकवर्णमेकैकपत्रांतर्विन्न्यसेनृप ।। २१ ।।
प्. ५६ब्)
एवमंतः प्रविन्यस्य मनसाथ वर्हिन्यसेत् ।
शिरोवदनवृत्तेपि चक्षुः श्रोत्रयुगेप्यथ ।। २२ ।।
नासाकपोलयुगले तथोकगुगलेपि च ।
उर्ध्वाधोदंतपंक्तौ च विन्यसेत् षोडशस्वरात् ।। २३ ।।
कचवर्गद्वयं हस्तपंचसंधिस्थलेन्यसेत् ।
ट त वर्गद्वयं पादसंध्यग्रेषु तथान्यसेत् ।। २४ ।।
पवर्गं पार्श्वयुगले पृष्टनाभ्युदरेषु च ।
हृदोर्मूलककुल्कक्षहृदादिकरपवये ।। २५ ।।
जठराननयोश्चैव व्यापकं विनियोजयेत् ।
पंचाशदक्षरन्यासः क्रमेणैवं विधीयते ।। २६ ।।
ओं माधंतो नमोंतो वा सविंदुवर्जितः ।
मायालक्ष्मी कामवीजपूर्वोन्यस्तव्य इष्यते ।। २७ ।।
केशवाय च कीर्त्यै च तथा नारायणाय च ।
कांत्यै तथा माधवाय तुष्टौ इति न्यसेत् नमः ।। २८ ।।
गोविंदाय च पुष्ट्यै च विष्णये च द्धृतिस्ततः ।
मधुसूदनशांती च त्रिविक्रमक्रिये तथा ।। २९ ।।
वामना पदयायै च श्रीधरायचदे ततः ।
मेधायै च हृषीकेशोहर्षायै च नमस्तथा ।। ३० ।।
पयनाभाय श्रद्धायै तथा दामोदराय च ।
लज्जायै वासुदेवाय लक्ष्म्यै संकर्षणाय च ।। ३१ ।।
सरस्वत्यै च प्रद्युम्नः प्रीत्यै नम इतीष्यते ।
अनिरुद्धा परत्यै च स्वरांते प्रवदेदथ ।। ३२ ।।
चक्रिणे विजयायै च गदिनेशार्ङ्गिणे तथा ।
दुर्गायै च प्रभायै च खड्गिने विन्यसेदथ ।। ३३ ।।
सत्यायै शंखिने चंडायै नमः प्रवदेदथ ।
हलिने च तथावाण्यै तथामुशलिनेवदेत् ।। ३४ ।।
विलासिन्यैशूलिने च विरजायै ततः परं ।
पाशिने विजयायै च तथैवांकुशिनेवदेत् ।। ३५ ।।
सत्यायमुत्स्यै सत्त्वायमत्यै नम विश्वायै च मुकुंदाय ।
विमदायै नमस्ततः नंदजासुनंदायै नंदिने च स्मृति तथा ।। ३६ ।।
नरायन्नऋद्ध्यै च तथा वदेन्नरकजितः ।
समृद्ध्यैहरयेशुद्ध्यै कृष्णषुद्धीनतः परं ।। ३७ ।।
सत्याय मुक्त्यै सत्वायमत्यै नम इतीरयेत् ।
शौरये च क्षमायै च शूराय परमाततः ।। ३६ ।।
प्. ५७अ)
जरा ईनाराय च यदेच्छ्रियैस्याद्भूधराय च ।
क्लेदिन्यैषिश्च मूर्तिश्च क्लिन्नायै तदनंअरं ।। ३९ ।।
वैकुंठाय नमः पश्चाद्वसुधायै ततः परं ।
पुरुषोत्तमश्च वसुदावलिने च परा तथा ।। ४० ।।
वलानुजाय च परायणायै च ततः परं ।
वलायाप्यथ सूक्ष्मायै वृषाघ्नाय ततः परं ।। ४१ ।।
संध्यायै च वृषायाथ प्रज्ञायै च ततः परं ।
हंसाय च प्रभायेस्याद्वराहाय निशातथा ।। ४२ ।।
विमलायाप्यमोद्यायै च नृसिंहाय ततः परं ।
विद्युतायैत्वगात्या च ह्यसृगात्मा च ह्यसृगात्मा ततः परं ।। ४३ ।।
मांसात्मने तथामेद आत्मनेऽस्थ्यात्मनेपि च ।
जीवात्मने च परमात्मने नम इतीरयेत् ।। ४४ ।।
सर्वदेवमयीं साक्षाद्वैष्णवीं मातृकां परां ।
विन्यस्यैवं क्रमाद्भूपविराड्रूपी न संशयः ।। ४५ ।।
मायाश्रीकामपूर्वं वा कामपूर्वमथापि वा ।
शिरोवदनवृतादिश्चयं न्यासक्रमः स्मृतः ।। ४६ ।।
केशवादिरयंन्यासो महापातकनाशनः ।
देहिनां न्यासमात्रेण ब्रह्मतादात्म्यसिद्धिदः ।। ४७ ।।
सर्वदेवमयीमेनां वैष्णवीं मातृकां परां ।
विन्यस्य सततं धीमान्भगवन्मयनां व्रजेत् ।। ४८ ।।
विन्यस्य वैष्णवीमेनां मातृकामन्वहं शुचिः ।
श्रीमदष्टाक्षरीं जप्त्वा साक्षान्नारायणो भवेत् ।। ४९ ।।
वैष्णवी मातृकामेकामपि विन्यस्य वान्वहं ।
श्रीमदष्टाक्षरीं जप्त्वा यथा शक्त्या दिनेदिने ।। ५० ।।
सर्वदेवमयः साक्षाद्विराद्रूपां श्रियः पतिः ।
आचार्यानुग्रहाद्भूत्वा महतीं सिद्धिमश्नुते ।। ५१ ।।
वंद्यो सौ सर्वदेवानां मुनीनां च भवत्यसौ ।
केशवादिरयंन्यासोन्यासमात्रेणदेहिनां ।। ५२ ।।
अच्युतत्वंददात्येव सत्यं सत्यं वदाम्यहं ।
तत्वन्यासमथो वक्ष्ये शृणुष्वावहितोनृप ।। ५३ ।।
विन्यस्य तत्वविन्यासं तत्वविद्भवति ध्रुवं ।
मादयः प्रतिलोम्येनकांताः स्पर्शसंज्ञकाः ।। ५४ ।।
प्. ५७ब्)
नमः पराय पूर्वेतु तु प्रणवांते व्यवस्थिताः ।
जीवः प्राणश्च बुद्धिश्चाप्यहंकारोमनस्तथा ।। ५५ ।।
सर्वांगे हृदिविन्यस्य शब्दादि विषयास्ततः ।
पूर्द्ध्नि घ्राणे च हृदयेप्युपस्थो पादयोरपि ।। ५६ ।।
श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वाघ्राणरूपेणदेहिनां ।
ज्ञानेंद्रियाणियं चापि ततस्थाने न्यसेत् पुनः ।। ५७ ।।
वाक्पाणि पादयायूयस्थानीति कर्मेंद्रियाणि च ।
तथैव ततत्स्थानेषु तत्तदेव प्रविन्यसेत् ।। ५८ ।।
शिरोमुखेपि हृदये तथा गुह्येपि पादयोः ।
आकाशानिलतेजांसि सलिलं पृथिवी तथा ।। ५९ ।।
विन्यसे पूर्ववच्चैवन्यासविद्भिरुदीरितं ।
शहौ च सषलाः पंचतथायश्च वला-अपि ।। ६० ।।
क्षौंचेति दशवर्णानि प्रणवांते च पूर्ववत् ।
हृत्पद्म सोमसूर्याय स्वकलायुक्तं मंडलां ।। ६१ ।।
त्रयं हृद्येव विन्यस्य वासुदेवादयस्तथा ।
परमेष्ठी च पुरुषो विश्वव्यापीनिवर्तकः ।। ६२ ।।
नारायणो नृसिंहश्च सकरोवाक्यपूरकौ ।
मूर्ध्नास्ये हृदिगुह्ये च पादयोर्व्यापकं ततः ।। ६३ ।।
तदात्मने नम इति ततत्स्थानेषु विन्यसेत् ।
अतत्वस्याप्य पूज्यस्य तत्प्राप्तेर्हेतुनापुनः ।। ६४ ।।
नत्वन्यासमिति प्राहुर्न्यासं तत्वविदोबुधाः ।
यः कुर्यातत्वविन्यासं स एव भवति ध्रुवं ।। ६५ ।।
तदात्मनानु प्रविश्य भगवानिहंतिष्ठति ।
ततस्स एव तत्वानि सर्वं तस्मिन्प्रतिष्ठितं ।। ६६ ।।
अज्ञात सर्वतत्वोपि तत्वन्यासेन संततं ।
सर्वतत्वमयः साक्षातत्वधिद्वविद्भवेत् ।। ६७ ।।
तत्वन्यासेन सततं पूजाप्राप्नोति शाश्वतीं ।
विश्वंमरोविजाडात्मासाक्षान्नारायणो भवेत् ।। ६८ ।।
तत्वन्यासमर्थेवं वा विन्यस्यान्वहमादरात् ।
आचार्यानुग्रहं प्राप्य श्रीमदष्टाक्षरं जपन् ।। ६९ ।।
वंद्यस्समस्तदेवानामपि विश्वंभरो भवेत् ।
तन्मूर्तिपंजरन्यासस्य तन्मूर्तिसिद्धये ।। ७० ।।
आकर्णयैचितत्वं यतोस्मिन् फलांतरं ।
नमो भगवते व्रूयाद्वासुदेवाय इत्यथ ।। ७१ ।।
प्. ५८अ)
ओं मादेदस्यमंत्रस्यचादायै काक्षरं ततः ।
श्रीमष्टाक्षरौ विद्यामादावेव समुच्चरन् ।। ७२ ।।
वातेतश्च स्वरस्तद्वत् श्रीमष्टाक्षरं ततः ।
वासुदेवद्वादर्शार्णस्यैकेकाक्षरमुच्चरन् ।। ७३ ।।
नामैकैकमुपादाय विष्णोर्द्वादशनाकसु ।
नामैकैकमुअपदाय सूर्यस्यापि च नामसु ।। ७४ ।।
चतुर्थ्यंतं नमोंतं च न्यस्तव्यं न्यासयोगतः ।
ललाटेनाभि हृदयकंठपार्श्वांसकंधरे ।। ७५ ।।
पार्श्वांतरेवस्कंधे च पृष्टे ककुदि मूर्ध्नपि ।
केशवश्च ततो व्रूयान्नारायण इति द्वयं ।। ७६ ।।
माधवश्चैव गोविंदो विष्णुश्च मधुसूदनः ।
त्रिविक्रमो वामयश्च श्रीधरो नवमः स्मृतः ।। ७७ ।।
ह्र्षीकेशः पद्मनाभस्तथा दामोदर क्रमात् ।
विष्णोर्द्धादशनामानिचामूनिमुनिसप्तम ।। ७८ ।।
धातार्यमाचमित्रश्च वरुणो शुभमस्तथा ।
इंद्रोचित्रवसान्पूषा च पर्जन्यो दशमः स्मृतः ।। ७९ ।।
त्वष्टा च विष्णुरित्येवं नामानि द्वादशात्मनः ।
तन्मूर्तिपंजरन्यासस्तुभ्यमुक्तोमयाविभो ।। ८० ।।
तन्मूर्तिपंजरन्यासं कृत्वा भगवदात्मकः ।
श्रीमदष्टाक्षरीं जप्त्वाचार्यानुग्रहात्सदा ।। ८१ ।।
महतीं सिद्धिमासाद्य भवेत् साक्षाच्छ्रियः पतिः ।
तन्मूर्तिपंजरन्यासंकृत्वा तन्मूर्तिसिद्धये ।। ८२ ।।
आचार्यानुग्रहादाशुब्रह्मतादात्म्यसिद्धिभाक् ।
वर्णन्यासं दशविधं प्रवक्ष्यामि ततः परं ।। ८३ ।।
आचार्यानुग्रहाद्यस्य विज्ञानाद्ब्रह्मरूपभाक् ।
आदौ योगासनमयं स्वदेहं भावयेद्धिया ।। ८४ ।।
पीठपादमयं हस्तपादयुग्मं च भावयेत् ।
पीठोपरितलं पार्श्वद्वयनाभिमुखात्मकं ।। ८५ ।।
तल्यात्मकं स्वोदरं च ध्यात्वा स्वहृदयांवुजे ।
नवशक्ति महापीठमंत्रयुक्ते ततः परं ।। ८६ ।।
अनुग्रहाय भक्तानां लीलानिर्मितविग्रहं ।
स्वात्मानमेव ध्यात्वाथ न गवन्मयमच्युतं ।। ८७ ।।
कुर्याद्दशविधं वर्णन्यासं ब्रह्मैक्यसिद्धिदं ।
आधारे हृदिवकक्त्रे नरोर्मूलयुगले तथा ।। ८८ ।।
पादमूलयुगे नाभौन्यास एक उदाहृतः ।
एकैकं मूलमंत्रार्णनमोंतं प्रणवादिकं ।। ८९ ।।
प्. ५८ब्)
स विंदुकं न्यसेद्धीमान्देवताभावसिद्धये ।
कंठे नाभौ च हृदयेस्तनयुग्मे च पार्श्वयोः ।। ९० ।।
पृष्ठेन्यासोद्वितीयोयं मंत्रस्य समुदाहृतः ।
मूर्ध्नास्ये नेत्रयुगलोकर्णयुग्मे ततः परं ।। ९१ ।।
नासापुरयुगे पश्चातृतीयोन्यास ईरितः ।
वाहुसंध्यष्टकेपादसंधिष्वष्ट सुभूपते ।। ९२ ।।
चतुर्थोन्यास आद्यो सौ पंचमश्च ततः परं ।
अंगुलीष्वष्टसुन्यासः षष्टोगुष्ठं विनेरितः ।। ९३ ।।
पादांगुष्ठं विना पादांगुलिन्यासश्च सप्तमः ।
त्वगसृङ्मासमेदोस्थिमज्जाशुष्कमायान्नृप ।। ९४ ।।
विन्यस्य मूलमंत्रस्य सप्तवर्णानथाक्रमं ।
प्राणरूपं स्वहृदयांवुज एवाक्षरान्न्यसेत् ।। ९५ ।।
अष्टमोन्यास उक्तोयं मूर्ध्निनेत्रयुगेमुखे ।
हृदयेच्चोदेरपश्चादूरुजंथापदेषु च ।। ९६ ।।
न्यासोयं नवमः प्रोक्ते देवताभावसिद्धिदाः ।
कपोलस्कंधयुगलोरुद्धयेचरणद्वये ।। ९७ ।।
न्यासोयं दशमः प्रोक्ता वर्णैर्मूलस्यसिद्धिदः ।
इत्थं दशविधं वर्णन्यासं कृत्वा दिने दिने ।। ९८ ।।
देवताभावमाप्नोति येन स्युः सर्वसिद्धयः ।
मूलमंत्राक्षरन्यासं कृत्वान्यासं कृत्वा दशविधं नृप ।। ९९ ।।
भगवत्कलयायुक्तः सिद्धिं प्राप्नोत्यनुत्तमां ।
मातृकाक्षरविन्यासं केचिद्ब्रह्मविदोमलाः ।। १०० ।।
कुर्वंति भगवद्भावसिध्यर्थं सर्वसिद्धिदं ।
मातृकावर्णविन्यास आद्यः शुद्ध इतीरितः ।। १ ।।
प्रणवाद्यो द्वितीयः स्यातृतीयो वाग्भवादिकः ।
मायावीजादिकोन्यासश्चतुर्थः समुदीरितः ।। २ ।।
लक्ष्मीवीजादिकोन्यासः पंचमह् समुदीरितः ।
वाङ्मायाकमलाद्यश्चन्यासः षष्ठा उदीरितः ।। ३ ।।
कामवीजादिकोन्यासः सप्तमत्समुदीरितः ।
हंसमंत्रादिकः पश्चान्न्यासोष्टम उदीरितः ।। ४ ।।
श्रीकंठमातृकान्यासो नवमस्समुदीरितः ।
वैष्णवोमातृकान्यासोदरामः समुदीरितः ।। ५ ।।
दशधा मातृकान्यासं भगवद्भावसिद्धिदं ।
केचिद्ब्रह्मविदोनित्यं कुर्वंत्य खिलसिद्धिदं ।। ६ ।।
प्. ५९अ)
दशधामातृकान्यासफलदावैष्णवीपरा ।
वेदागमपुराणेषु कथिता ब्रह्मवित्तमैः ।। ७ ।।
दशधामातृकान्यासं न्यस्य वान्यस्य वा नृप ।
न्यासं केशवकीर्त्याद्यमवश्यं वैष्णवं न्यसेत् ।। ८ ।।
दशधा मातृकान्यासफलंदं स्यान्नसंशयः ।
विन्यस्य मातृकामंतर्वहिः पूर्वं दिने दिने ।। ९ ।।
वैष्णवीं मातृकां पश्चान्न्यस्य सर्वार्थसिद्धिदां ।
तत्वन्यासं ततः कृत्वान्यस्य तन्मूर्तिपंजरं ।। १० ।।
मूलमंत्रक्षरन्यासं न्यसेद्दशविधं ततः ।
इत्थं विन्यस्य विधिवत् साक्षान्नारायणो भवेत् ।। ११ ।।
मंत्रीचात्र न संदेहो निग्रहानुन्नहक्षमः ।
न्यासं चतुरशविधं कृत्वेद्यं नित्यमादरात् ।। १२ ।।
वत्सरादिंदिरानाथं भगवंतं प्रपश्यति ।
उपदिश्यैवपुरतोन्यासजालमिदं गुरुः ।। १३ ।।
अथांते वासिने दद्याच्छ्रीमदष्टाक्षरीं शुभां ।
चतुर्दशविधन्यासमज्ञात्वायोगुरुर्नृप ।। १४ ।।
श्रीमष्टाक्षरीं विद्यां प्रददाति महीतले ।
नावात्मवंचकौ प्रोक्तौ वुभावपि न संशयः ।। १५ ।।
सर्वज्ञमेव सततं तस्मादाचार्यमाश्रयेत् ।
सततं सिद्धमंत्रस्य वहुज्ञस्य महात्मनः ।। १६ ।।
व्याप्तव्या महती विद्या सदहस्यामहीपते ।
सहस्रं योजनं वापि गत्वा वेदार्थपारगं ।। १७ ।।
चतुर्दशविधन्याससहितां परमात्मनः ।
प्रदद्यादपि गृह्णीयाच्छ्रीमद्दष्टाक्षरीं शुभां ।। १८ ।।
अन्यथा जपहोमाद्यैः कोटिशोपि न सिद्धिभाक् ।
न्यासः स्यान्मंत्रसन्ताहोन्यासहीनो न सिद्धिदः ।। १९ ।।
न्यासः केशकीर्त्यादि चतुर्दशविधः शुभः ।
चतुर्दशविधिन्यासं कृत्वा जप्त्वा दिने दिने ।। २० ।।
चतुर्दशसुलोकेषु पूजां प्राप्तोन्यनुत्तमां ।
चतुर्दशविधन्यासपूर्विकामिंदिरापतेः ।। २१ ।।
श्रीमदष्टाक्षरींविद्यां यो ददाति महीतले ।
तमाचार्यं विजानीहि साक्षान्मद्रूपिणं विभुं ।। २२ ।।
विद्यामात्रप्रदानेननाचार्यत्वं द्विजन्मनः ।
सरहस्यमनोर्दाताज्ञेय आचार्य ईश्वरः ।। २३ ।।
प्. ५९ब्)
अविज्ञाय रहस्यानि गृहीत्वा मंत्रमात्रकं ।
वहुयोजन साहस्रमपि गत्वा महीपते ।। २४ ।।
संसव्य वहुवर्षं वा दत्वा प्राणधनादिकं ।
श्रीमदष्टाक्षरीं विद्यां समस्तन्यासपूर्विकां ।। २५ ।।
गृह्णीयादप्यथान्यस्मान्युनर्विप्रोत्तमान्नृप ।
स एव सकलन्यास पूर्वविद्याप्रदोविभुः ।। २६ ।।
आचार्य उच्यते लोके साक्षान्नारायणात्मकः ।
तमेव दैवतां विद्धि सदाचार्यं घृणानिधि ।। २७ ।।
स एव स्वपितामाता सद्गुरुर्विधिरीश्वरः ।
परमात्मा परंब्रह्म स एव हरिरुच्यते ।। २८ ।।
प्रयत्नेनापि संसेव्य तस्मादाचार्यमीश्वरं ।
श्रीमदष्टाक्षरीं विद्यां समस्तन्यासपूर्विकां ।। २९ ।।
प्रजप्त्वा प्रत्यहं सर्वश्रेयसां राशिमश्णुते ।
चतुर्दशविधन्यासकर्ता स्वाचार्यमीश्वरं ।। ३० ।।
विनान्यस्मैनवंदेतविनास्वपि तरावपि ।
अदेवो न यज्ञेदेवमित्येषाशाश्चतीश्रुति ।। ३१ ।।
न्यासेन भगवद्रूपी भूत्वात्तस्माद्यजेद्धरिं ।
आचार्यानुज्ञया नित्यं कृत्वेत्थं न्यासमादरात् ।। ३२ ।।
वर्षादूर्द्धं न संदेहोवंधःस्यादपि दैवतैः ।
आज्ञासिद्धो महायोगी भवेद्ब्रह्मसमोनृप ।। ३३ ।।
एकेन जन्मनैवासौदुस्तरं च भवार्णवं ।
तीर्त्वा सिद्धिमवाप्नोति देवानामपि दुर्लभां ।। ३४ ।।
प्रजप्त्वा श्रीमदृष्टार्णमन्वहं न्यासपूर्वकं ।
सकृस्मरणतोवापि जपकोटिफलं लभेत् ।। ३५ ।।
अज्ञात्वा सकलन्यासंपुरश्चर्याशतैरपि ।
श्रीमदष्टाक्षरीसिद्धिं कल्पकोटिशतैरपि ।। ३६ ।।
न किंचिदप्यवाप्नोति सत्यं सत्यं महीपते ।
सारात्सारतदं पुण्यमागमेषु श्रुतिष्वपि ।। ३७ ।।
अतिगुप्ततरं न्यासमप्येकं प्रवदाम्यहं ।
श्रीमदष्टाक्षरीं विद्यामादावुच्चार्य यत्नतः ।। ३८ ।।
विन्यसेन्मातृकावर्णानखिलात्पूर्ववन्नृप ।
विद्रूपर्मातृकानाम प्रोक्तेयं सर्वकामधुक् ।। ३९ ।।
चतुर्दशविधन्या समकृत्वापि दिने दिने ।
चिद्रूपमातृकान्यासमवश्यं प्रत्यहं न्यसेत् ।। ४० ।।
श्रीमद्दष्टाक्षरीविद्या पूर्विकां मातृकां शुभां ।
विन्यस्य प्रत्यहं जप्त्वा शतमष्टोचतुरं तु वा ।। ४१ ।।
प्. ६०अ)
पुरश्चर्या फलं नित्यं प्राप्नोत्यत्र न संशयः ।
चतुर्दशविधं न्यासं न्यस्याचिद्रूपमातृकां ।। ४२ ।।
ब्रह्मविष्णुमहेशादि दैवतैरपि पूज्यते ।
समस्तन्याससहिता श्रीमदष्टाक्षरीशुभा ।। ४३ ।।
प्रजप्त्वा सफलाज्ञेया निष्फलैवान्यथा स्मृता ।
ब्रह्मतादात्म्यसंसिद्धिमणिमादिगुणांश्रियं ।। ४४ ।।
इच्छताचार्यवक्त्राब्जाद्गृहीत्वान्यासपूर्विका ।
श्रीमदष्टाक्षरीविद्याप्रजप्या सर्वसिद्धिदा ।। ४५ ।।
रश्मिमालां प्रजप्त्वादौन्यास जालमतः यतः परं ।
श्रीदष्टाक्षरींविद्यां दद्याच्छिष्याय सद्गुरुः ।। ४६ ।।
सत्यं सत्यं प्रवक्ष्यामि भूयो श्रीमदष्टाक्षरीविद्या जप्तव्यान्यास पूर्विका ।।
४७ ।।
अनुत्तर ब्रह्मतत्वरहस्ये श्रुतिसंग्रहे ।
तंत्रे दाशरथीयेस्मिन्नध्यायोष्टादशः स्मृतः ।। ४८ ।।
इति श्रीमदनुत्तर ब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीये तंत्रे वेदार्थसंग्रहे
अष्टादशोध्यायः ।।</poem>
ei9561pfky14rkj7m068e9abdz6ezlc
दाशरथीयतन्त्रम्/अध्यायः १९
0
163645
409272
2025-06-27T05:04:42Z
Shubha
190
{{header | title = [[../]] | author = | translator = | section = अध्यायः १९ | previous = [[../अध्यायः १८|अध्यायः १८]] | next = [[../अध्यायः २०|अध्यायः २०]] | notes = }} <poem> प्. ६०अ) श्रीभगवानुवाच इत्थं न्यस्ततनुर्नित्... नवीन पृष्ठं निर्मीत अस्ती
409272
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः १९
| previous = [[../अध्यायः १८|अध्यायः १८]]
| next = [[../अध्यायः २०|अध्यायः २०]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ६०अ)
श्रीभगवानुवाच
इत्थं न्यस्ततनुर्नित्यं साक्षाद्भगवदात्मकः |
ध्यायेन्निरामयं वस्तु सर्वब्रह्मांडनायकं || १ ||
वाचामगोचरं सर्गस्थितिसंहारकारकं |
अनुत्तमं दुराधर्षं दुर्विज्ञेय मनूपमं || २ ||
वालार्ककोटिसदृशं चंद्रकोद्ययुतप्रभं |
आदिमध्यातरहितं निष्कलं निरंजनं || ३ ||
न स्थूलेन च सूक्ष्मं यन्नद्रष्टुं शक्यमद्भुतं |
मूआदि ब्रह्मरंध्रांतं तेजः परमक्षयं || ४ ||
तन्महतेजसः पुंजपिंजरींकृत विग्रहः |
ध्यायेत् स्वहृदयांभोजे परमात्मानमच्युतं || ५ ||
अमृतांवुनिधेर्मध्ये पारिजातवनावृतं |
कल्पद्रुमगणाकीर्णां दिव्यप्राकारशोभितं || ६ ||
नानामणिगणाकीर्णं नानाजनपदावृतं |
तद्विष्णोः परमंधाम वैकुंठमिति विश्रुतं || ७ ||
प्राकारैश्च विमानैश्च रत्नसौधैश्चशोभितं |
तन्मध्ये नगरी दिव्यासाऽयोध्येति प्रकीर्तिता || ८ ||
देवानां पूरयोध्येति श्रुतिसिद्धासनातनी
मणिकांचनचित्राढ्याप्राकारैर्वहुभिर्वृतं || ||
दिव्याक्षरोगणैः स्त्रीभिस्सर्वतः समलं कृतांस्तोरणैर्वृता || ९ ||
प्. ६०ब्)
चतुर्द्वार समायुक्तारत्नगोपुरसंवृता |
चंडादिद्वारपालैश्च कुमुदाद्यैः सुरक्षिता || १० ||
कोटिभानुप्रतीकाशैर्गृहपङ्क्तिभिरावृता |
आरूढ यौवनेर्नित्यंदिव्यं नारीनरैर्वृता || ११ ||
तन्मध्येंतः पुरंरम्यमयोध्यायां महोहरं |
रत्नप्राकारसहितं हेमतोरणशोभितं || १२ ||
विमानैर्गृहमुख्यैश्चप्राकारैर्वहुभिर्वृतं |
दिव्याक्षरोगणैः स्त्रीभिस्सर्वतः समलंकृतं || १३ ||
तन्मध्ये पंडपं दिव्यं राजास्थानं महोच्चयं |
माणिक्य स्तंभ साहस्रजुष्टं रत्नमयं शुभं || १४ ||
नित्यैर्मुक्तैस्समाकीर्णं सामगानोद्यशोभितं |
मध्ये सिंहासनं रम्यं सर्वदेवमयं शुभं || १५ ||
धर्मादि दैवतैर्नित्यैर्नित्यं पादमयात्मकैः |
धर्मज्ञानवरैश्वर्यवैराग्यः पादविग्रहैः || १६ ||
ऋक्सामाथर्वणयजूरूपैनित्यैर्वृत्तं क्रमात् |
आधारशक्ति चिच्छुक्ति मुख्यशक्तिभिरावृतं || १७ ||
वह्नि सूर्येंदुसहितं वैनतेयादिभिर्वृतं |
छंदोमयं सर्वमंत्रमयं रत्नविभूषितं || १८ ||
सर्वाक्षरमयं दिव्यं योगपीठमनुत्तमं |
तन्मध्येष्टदलं पद्ममुदयार्कशतप्रभं || १९ ||
तन्मर्ध्येकणिकायां तु सावित्र्यां जगतीपतिं |
आसीनं परमात्मानं श्रिया सहपरात्परं || २० ||
इंदीवरदलश्यामं कोटिकंदर्पसुंदरं |
युवानमुदयादित्यसमकोटि समद्युतिं || २१ ||
कोमलावयवैर्युक्तं कोटिपूर्णैदुसन्निभं |
प्रबुद्धं पुंडरीकाक्षं कामदेवाय समभ्रुवं || २२ ||
सुनासंसुकपोलाढ्यं सुश्रोत्रान न पंकजं |
मुक्ताफलाभदंताद्यसस्मितधरविद्रुमं || २३ ||
पूर्णेंदुशतसंकाशप्रसन्नमुखपंकजं |
तरुणादित्य वर्णाभ्यां कुंडलाभ्यां विराजितं || २४ ||
सुस्निग्वनीलकुटिलकुंतलैरुपशोभितं |
मंदारपारिजाताढ्यकवरीकृतकेशकं || २५ ||
प्रातरुद्यत्सहस्रांशुनिभकौस्तुभशोभितं |
हारस्वर्णस्रगासक्तकंठुंग्रीवविराजितं || २६ ||
प्. ६१अ)
सिंहस्कंधनिभैः प्रोञ्चैः पीनैरंसैर्विराजितं |
पीनवृतायतभुजैश्चतुर्भिरुपशोभितं || २७ ||
अंगुलीयैश्चकटकैः केयूरैरतिमंडिलं |
वालार्ककोटिशं संकाशकौस्तुभादिविभूषिसौ || २८ ||
विराजित महावक्ष्यस्थलं सर्वांगसुंदरं |
दिव्यमालांवरधरं वनमालीविराजितं || २९ ||
विधातुज्जननस्थाननाभिपंकजशोभितं |
वालातपनिभश्लक्ष्णपीतवस्त्रयुगांवृत्तं || ३० ||
नानारत्नविचित्राढ्यकटकाभ्यां विराजितं |
सज्योथ्यचंद्रप्रतिमनखपंङ्क्तिविभूषितं || ३१ ||
कोटिकंदर्पलावण्यसौदर्यनिधिमच्युतं |
दिव्याचंदनलिप्तांगं दिव्यपुष्पस्रगन्वितं || ३२ ||
संखचक्रगृहीताभ्यामुहुभ्यां विराजितं |
वरदाभयहस्ताभ्यामितराभ्यां तथैव च || ३३ ||
वामांकेसंस्थितां देवीं महालक्ष्मीं महेश्वरीं |
हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतत्प्रजां || ३४ ||
सर्वलक्षणसंपन्नां यौवनारंभविग्रहां |
रत्नकुंडलसंयुक्तां वालीयुगलशोभितां || ३५ ||
दिव्यचंदनलिप्तांगीं दिव्यपुष्पोपशोभितां |
मंदारकेतकीजातीकुसुमांचितकुंडलां || ३६ ||
मुक्तामाणिक्य खचितनासिकाभरणान्वितां |
भगवच्चायसदृश भूयुग्मेन विराजितां || ३७ ||
राजीवायतनेत्रांतामंजनांच्चितलोचनां |
अलंकशरच्चंद्र सहस्रसदृशाननी || ३८ ||
मुक्ताजालसमप्रख्यं दंतपंङ्क्तिविभूषितां |
एकविंवफलप्रख्याधरं द्वयविराजितां || ३९ ||
तरुणादित्यसंकाशकर्णपुष्पोपशोभितां |
सुस्रिग्ननीअकुटिलकुंतलैरुपशोभितां || ४० ||
स्मितवक्त्रां विशालाक्षीं प्रसन्नवदनांवुजां |
आद्यभूषणचिंताकपदकादिविभूषितां || ४१ ||
हारस्वर्णस्रगासक्तकं युग्नीवविराजितां |
तप्तकांचन वर्णाभां तप्तकांचनभूषणं || ४२ ||
हस्तैश्चतुर्भिस्संयुक्तां कनकांवरभूषणां |
नानारत्नविचित्राढ्यकनकांवुजमालया || ४३ ||
प्. ६१ब्)
हारकेयूरकंटकैरंगुलीयैश्चशोभितां |
भुजद्वयधृतोदग्र पद्मयुग्मविराजितां || ४४ ||
गृहीतमातुलुंगाख्याजांवूनदकरांञ्चितां |
मातरं सर्वजगतांशरणागतवत्सलां || ४५ ||
ब्रह्मरुद्र महेंद्रादिमौलिमाणिक्यजातया |
कांत्याविराजितपदांभक्तत्राणपरायणां || ४६ ||
एवं नित्यातपापिन्या महालक्ष्म्या समन्वितं |
अं तकोटिब्रह्मांडेनायकं भक्तवत्सलं || ४७ ||
तेजोमयं जगद्वंष्ट्यं श्रीपतं परमेश्वरं |
पार्श्वयोधरणीदेव्यानीलादेव्या समन्वितं || ४८ ||
संसेवितं चाष्टदिक्षु विमलाद्यष्टसक्तिभिः |
अनंतविहगाधीशं सेनान्याद्यैः सुरेश्वरैः || ४९ ||
नित्यमुक्तैः समाकीर्णमन्यैः परिजनैरपि |
सर्वदेवोत्तमैर्वंद्यं ध्येयं सकलयोगिभिः || ५० ||
नारायणमहं वंदेभक्तप्राणपरायणं |
इत्थं लक्ष्मीपतिं ध्यात्वा नारायणमजं विभुं || ५१ ||
आचार्यं मस्तकेनत्वा श्रीमद्दष्टाक्षरीं जपेत् |
आचार्यवदनादेवध्यानसूक्तमिदं शुभं || ५२ ||
गृहीत्वा सततं ध्यात्वा पठित्वापि दिने दिने |
ब्रह्मतादात्म्यसंसिद्धिं व्रजत्याशु न संशयः || ५३ ||
वालार्कमंडले यद्वा संसप्तकनकप्रभं |
वेदाश्वरथमारूढं पीतांवरविराजितं || ५४ ||
किरीटकुंडलधरं मुक्ताहारविराजितं |
सुवर्णरत्नखचितमुद्रिकाभिरलंकृतं || ५५ ||
राजीवायतनेत्रांतं प्रसन्नवदनांवुजं |
वालादित्य सहस्राभं कामकोटि समद्युतिं || ५६ ||
अकलंकशरत्पूर्णचंद्रसाहस्रसन्निभं |
सुवर्णरत्नखचितमुद्रिकाभिरलंकृतं || ५७ ||
प्. ६२अ)
शंखचक्रगदापद्मधरं श्रीवत्सवक्षसं |
कौस्तुभोद्भासितोरस्कं वनमालाविभूषितं || ५८ ||
मूर्तिमद्भिश्चतुर्वेदैः संस्तुतं परमेश्वरी |
मुनिभिर्वालखिल्याद्यैर्ब्रह्मरुद्रादिदैवतैः || ५९ ||
योगिभिस्सनकाद्यैश्चस्तूयमानमहर्निशं |
वीरासन समाशीनं विद्युत्कोटि समाश्रिया || ६० ||
श्रिया देव्या महालक्ष्म्या राज्यलक्ष्म्यासमन्वितं |
श्रियः पतिं त्रिजगतां हेतु भूतं सनातनं || ||
भजामि परमात्मानं श्रीभूनीलापतिंहरिं |
ध्यानसूक्तद्वयं पुण्यमिदमुक्तं मया तव || ||
आचार्यानुग्रहादेव गृहीत्वा सुशुभेदिने |
तोषयित्वा शुभैरर्थैर्जप्त्वा ध्यात्वा च संततं || ||
श्रीमदष्टाक्षरीं जप्त्वा सहस्रं वा चतुःशतं |
त्रिशतं शतमेकं वा साक्षान्नारायणो भवेत् ||
आश्चर्यानुतयानित्य ध्यानसूक्तद्वयं तु वा |
पठित्वा प्रत्यहं धीमान् विमुक्तो खिलपातकैः || ||
दिहांते परमंधामपाती विष्णोस्सनातनं |
इति दाशरथीयेस्मिन्तंवेदार्थसंग्रहेध्यानसूक्तद्वयध्याय उक्ता
एकोनविंशकः || ६८ ||
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीये तंत्रे वेदार्थसंग्रहे
एकोनविंशोध्यायः ||</poem>
ipwlwzpeb3njn1ba80sul5nnet6pcid
409273
409272
2025-06-27T05:05:01Z
Shubha
190
409273
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः १९
| previous = [[../अध्यायः १८|अध्यायः १८]]
| next = [[../अध्यायः २०|अध्यायः २०]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ६०अ)
श्रीभगवानुवाच
इत्थं न्यस्ततनुर्नित्यं साक्षाद्भगवदात्मकः ।
ध्यायेन्निरामयं वस्तु सर्वब्रह्मांडनायकं ।। १ ।।
वाचामगोचरं सर्गस्थितिसंहारकारकं ।
अनुत्तमं दुराधर्षं दुर्विज्ञेय मनूपमं ।। २ ।।
वालार्ककोटिसदृशं चंद्रकोद्ययुतप्रभं ।
आदिमध्यातरहितं निष्कलं निरंजनं ।। ३ ।।
न स्थूलेन च सूक्ष्मं यन्नद्रष्टुं शक्यमद्भुतं ।
मूआदि ब्रह्मरंध्रांतं तेजः परमक्षयं ।। ४ ।।
तन्महतेजसः पुंजपिंजरींकृत विग्रहः ।
ध्यायेत् स्वहृदयांभोजे परमात्मानमच्युतं ।। ५ ।।
अमृतांवुनिधेर्मध्ये पारिजातवनावृतं ।
कल्पद्रुमगणाकीर्णां दिव्यप्राकारशोभितं ।। ६ ।।
नानामणिगणाकीर्णं नानाजनपदावृतं ।
तद्विष्णोः परमंधाम वैकुंठमिति विश्रुतं ।। ७ ।।
प्राकारैश्च विमानैश्च रत्नसौधैश्चशोभितं ।
तन्मध्ये नगरी दिव्यासाऽयोध्येति प्रकीर्तिता ।। ८ ।।
देवानां पूरयोध्येति श्रुतिसिद्धासनातनी
मणिकांचनचित्राढ्याप्राकारैर्वहुभिर्वृतं ।। ।।
दिव्याक्षरोगणैः स्त्रीभिस्सर्वतः समलं कृतांस्तोरणैर्वृता ।। ९ ।।
प्. ६०ब्)
चतुर्द्वार समायुक्तारत्नगोपुरसंवृता ।
चंडादिद्वारपालैश्च कुमुदाद्यैः सुरक्षिता ।। १० ।।
कोटिभानुप्रतीकाशैर्गृहपङ्क्तिभिरावृता ।
आरूढ यौवनेर्नित्यंदिव्यं नारीनरैर्वृता ।। ११ ।।
तन्मध्येंतः पुरंरम्यमयोध्यायां महोहरं ।
रत्नप्राकारसहितं हेमतोरणशोभितं ।। १२ ।।
विमानैर्गृहमुख्यैश्चप्राकारैर्वहुभिर्वृतं ।
दिव्याक्षरोगणैः स्त्रीभिस्सर्वतः समलंकृतं ।। १३ ।।
तन्मध्ये पंडपं दिव्यं राजास्थानं महोच्चयं ।
माणिक्य स्तंभ साहस्रजुष्टं रत्नमयं शुभं ।। १४ ।।
नित्यैर्मुक्तैस्समाकीर्णं सामगानोद्यशोभितं ।
मध्ये सिंहासनं रम्यं सर्वदेवमयं शुभं ।। १५ ।।
धर्मादि दैवतैर्नित्यैर्नित्यं पादमयात्मकैः ।
धर्मज्ञानवरैश्वर्यवैराग्यः पादविग्रहैः ।। १६ ।।
ऋक्सामाथर्वणयजूरूपैनित्यैर्वृत्तं क्रमात् ।
आधारशक्ति चिच्छुक्ति मुख्यशक्तिभिरावृतं ।। १७ ।।
वह्नि सूर्येंदुसहितं वैनतेयादिभिर्वृतं ।
छंदोमयं सर्वमंत्रमयं रत्नविभूषितं ।। १८ ।।
सर्वाक्षरमयं दिव्यं योगपीठमनुत्तमं ।
तन्मध्येष्टदलं पद्ममुदयार्कशतप्रभं ।। १९ ।।
तन्मर्ध्येकणिकायां तु सावित्र्यां जगतीपतिं ।
आसीनं परमात्मानं श्रिया सहपरात्परं ।। २० ।।
इंदीवरदलश्यामं कोटिकंदर्पसुंदरं ।
युवानमुदयादित्यसमकोटि समद्युतिं ।। २१ ।।
कोमलावयवैर्युक्तं कोटिपूर्णैदुसन्निभं ।
प्रबुद्धं पुंडरीकाक्षं कामदेवाय समभ्रुवं ।। २२ ।।
सुनासंसुकपोलाढ्यं सुश्रोत्रान न पंकजं ।
मुक्ताफलाभदंताद्यसस्मितधरविद्रुमं ।। २३ ।।
पूर्णेंदुशतसंकाशप्रसन्नमुखपंकजं ।
तरुणादित्य वर्णाभ्यां कुंडलाभ्यां विराजितं ।। २४ ।।
सुस्निग्वनीलकुटिलकुंतलैरुपशोभितं ।
मंदारपारिजाताढ्यकवरीकृतकेशकं ।। २५ ।।
प्रातरुद्यत्सहस्रांशुनिभकौस्तुभशोभितं ।
हारस्वर्णस्रगासक्तकंठुंग्रीवविराजितं ।। २६ ।।
प्. ६१अ)
सिंहस्कंधनिभैः प्रोञ्चैः पीनैरंसैर्विराजितं ।
पीनवृतायतभुजैश्चतुर्भिरुपशोभितं ।। २७ ।।
अंगुलीयैश्चकटकैः केयूरैरतिमंडिलं ।
वालार्ककोटिशं संकाशकौस्तुभादिविभूषिसौ ।। २८ ।।
विराजित महावक्ष्यस्थलं सर्वांगसुंदरं ।
दिव्यमालांवरधरं वनमालीविराजितं ।। २९ ।।
विधातुज्जननस्थाननाभिपंकजशोभितं ।
वालातपनिभश्लक्ष्णपीतवस्त्रयुगांवृत्तं ।। ३० ।।
नानारत्नविचित्राढ्यकटकाभ्यां विराजितं ।
सज्योथ्यचंद्रप्रतिमनखपंङ्क्तिविभूषितं ।। ३१ ।।
कोटिकंदर्पलावण्यसौदर्यनिधिमच्युतं ।
दिव्याचंदनलिप्तांगं दिव्यपुष्पस्रगन्वितं ।। ३२ ।।
संखचक्रगृहीताभ्यामुहुभ्यां विराजितं ।
वरदाभयहस्ताभ्यामितराभ्यां तथैव च ।। ३३ ।।
वामांकेसंस्थितां देवीं महालक्ष्मीं महेश्वरीं ।
हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतत्प्रजां ।। ३४ ।।
सर्वलक्षणसंपन्नां यौवनारंभविग्रहां ।
रत्नकुंडलसंयुक्तां वालीयुगलशोभितां ।। ३५ ।।
दिव्यचंदनलिप्तांगीं दिव्यपुष्पोपशोभितां ।
मंदारकेतकीजातीकुसुमांचितकुंडलां ।। ३६ ।।
मुक्तामाणिक्य खचितनासिकाभरणान्वितां ।
भगवच्चायसदृश भूयुग्मेन विराजितां ।। ३७ ।।
राजीवायतनेत्रांतामंजनांच्चितलोचनां ।
अलंकशरच्चंद्र सहस्रसदृशाननी ।। ३८ ।।
मुक्ताजालसमप्रख्यं दंतपंङ्क्तिविभूषितां ।
एकविंवफलप्रख्याधरं द्वयविराजितां ।। ३९ ।।
तरुणादित्यसंकाशकर्णपुष्पोपशोभितां ।
सुस्रिग्ननीअकुटिलकुंतलैरुपशोभितां ।। ४० ।।
स्मितवक्त्रां विशालाक्षीं प्रसन्नवदनांवुजां ।
आद्यभूषणचिंताकपदकादिविभूषितां ।। ४१ ।।
हारस्वर्णस्रगासक्तकं युग्नीवविराजितां ।
तप्तकांचन वर्णाभां तप्तकांचनभूषणं ।। ४२ ।।
हस्तैश्चतुर्भिस्संयुक्तां कनकांवरभूषणां ।
नानारत्नविचित्राढ्यकनकांवुजमालया ।। ४३ ।।
प्. ६१ब्)
हारकेयूरकंटकैरंगुलीयैश्चशोभितां ।
भुजद्वयधृतोदग्र पद्मयुग्मविराजितां ।। ४४ ।।
गृहीतमातुलुंगाख्याजांवूनदकरांञ्चितां ।
मातरं सर्वजगतांशरणागतवत्सलां ।। ४५ ।।
ब्रह्मरुद्र महेंद्रादिमौलिमाणिक्यजातया ।
कांत्याविराजितपदांभक्तत्राणपरायणां ।। ४६ ।।
एवं नित्यातपापिन्या महालक्ष्म्या समन्वितं ।
अं तकोटिब्रह्मांडेनायकं भक्तवत्सलं ।। ४७ ।।
तेजोमयं जगद्वंष्ट्यं श्रीपतं परमेश्वरं ।
पार्श्वयोधरणीदेव्यानीलादेव्या समन्वितं ।। ४८ ।।
संसेवितं चाष्टदिक्षु विमलाद्यष्टसक्तिभिः ।
अनंतविहगाधीशं सेनान्याद्यैः सुरेश्वरैः ।। ४९ ।।
नित्यमुक्तैः समाकीर्णमन्यैः परिजनैरपि ।
सर्वदेवोत्तमैर्वंद्यं ध्येयं सकलयोगिभिः ।। ५० ।।
नारायणमहं वंदेभक्तप्राणपरायणं ।
इत्थं लक्ष्मीपतिं ध्यात्वा नारायणमजं विभुं ।। ५१ ।।
आचार्यं मस्तकेनत्वा श्रीमद्दष्टाक्षरीं जपेत् ।
आचार्यवदनादेवध्यानसूक्तमिदं शुभं ।। ५२ ।।
गृहीत्वा सततं ध्यात्वा पठित्वापि दिने दिने ।
ब्रह्मतादात्म्यसंसिद्धिं व्रजत्याशु न संशयः ।। ५३ ।।
वालार्कमंडले यद्वा संसप्तकनकप्रभं ।
वेदाश्वरथमारूढं पीतांवरविराजितं ।। ५४ ।।
किरीटकुंडलधरं मुक्ताहारविराजितं ।
सुवर्णरत्नखचितमुद्रिकाभिरलंकृतं ।। ५५ ।।
राजीवायतनेत्रांतं प्रसन्नवदनांवुजं ।
वालादित्य सहस्राभं कामकोटि समद्युतिं ।। ५६ ।।
अकलंकशरत्पूर्णचंद्रसाहस्रसन्निभं ।
सुवर्णरत्नखचितमुद्रिकाभिरलंकृतं ।। ५७ ।।
प्. ६२अ)
शंखचक्रगदापद्मधरं श्रीवत्सवक्षसं ।
कौस्तुभोद्भासितोरस्कं वनमालाविभूषितं ।। ५८ ।।
मूर्तिमद्भिश्चतुर्वेदैः संस्तुतं परमेश्वरी ।
मुनिभिर्वालखिल्याद्यैर्ब्रह्मरुद्रादिदैवतैः ।। ५९ ।।
योगिभिस्सनकाद्यैश्चस्तूयमानमहर्निशं ।
वीरासन समाशीनं विद्युत्कोटि समाश्रिया ।। ६० ।।
श्रिया देव्या महालक्ष्म्या राज्यलक्ष्म्यासमन्वितं ।
श्रियः पतिं त्रिजगतां हेतु भूतं सनातनं ।। ।।
भजामि परमात्मानं श्रीभूनीलापतिंहरिं ।
ध्यानसूक्तद्वयं पुण्यमिदमुक्तं मया तव ।। ।।
आचार्यानुग्रहादेव गृहीत्वा सुशुभेदिने ।
तोषयित्वा शुभैरर्थैर्जप्त्वा ध्यात्वा च संततं ।। ।।
श्रीमदष्टाक्षरीं जप्त्वा सहस्रं वा चतुःशतं ।
त्रिशतं शतमेकं वा साक्षान्नारायणो भवेत् ।।
आश्चर्यानुतयानित्य ध्यानसूक्तद्वयं तु वा ।
पठित्वा प्रत्यहं धीमान् विमुक्तो खिलपातकैः ।। ।।
दिहांते परमंधामपाती विष्णोस्सनातनं ।
इति दाशरथीयेस्मिन्तंवेदार्थसंग्रहेध्यानसूक्तद्वयध्याय उक्ता
एकोनविंशकः ।। ६८ ।।
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीये तंत्रे वेदार्थसंग्रहे
एकोनविंशोध्यायः ।।</poem>
ey6c0sejp3ehj2h1886bcsjfm6uv49k
दाशरथीयतन्त्रम्/अध्यायः २०
0
163646
409274
2025-06-27T05:06:16Z
Shubha
190
{{header | title = [[../]] | author = | translator = | section = अध्यायः २० | previous = [[../अध्यायः १९|अध्यायः १९]] | next = [[../अध्यायः २१|अध्यायः २१]] | notes = }} <poem> प्. ६२अ) श्रीभगवानुवाच यंत्रोद्धारमथोवक्ष्य... नवीन पृष्ठं निर्मीत अस्ती
409274
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः २०
| previous = [[../अध्यायः १९|अध्यायः १९]]
| next = [[../अध्यायः २१|अध्यायः २१]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ६२अ)
श्रीभगवानुवाच
यंत्रोद्धारमथोवक्ष्ये शृणुष्वावहितो नृप |
यत्र संपूज्य लक्ष्मीशं ब्रह्मानंदसुखं लभेत् || १ ||
न्यासजालंय उदितं मया पूर्वं महीपते |
अवश्यं सकलन्यासाः कर्तव्या गुर्वनुज्ञया || २ ||
न्यासेन भगवद्रूपी भूत्वा मंत्रमयः पुमान् |
ततः हृदयांभोजे ध्यायेन्नारायणं विभुं || ३ ||
प्. ६२ब्)
यद्वा नारायणात्मानं ध्यायेत् स्वचार्यमीश्वरं |
तत्प्रलीमपि च ध्योयेत्त्रिजगन्मातरं श्रियं || ४ ||
भगवन्मूर्तिसिध्यर्थमात्मनोथमहीयते |
किरीटविद्यामुच्चार्य मनसा कुसुमांजलिं || ५ ||
पंचवारं हृदंभोजे प्रदद्यान्मौनमाश्रितः |
त्रयीवीजं किरीटेतिके पूरेति पदं ततः || ६ ||
हारेति मुकुटेत्युक्ताकुंडलेति धरेत्यथ |
शंखचक्रगदापद्महस्तशब्दमतः परं || ७ ||
पीतांवरधरेत्युक्ता श्रीवत्सांकित शब्दतः |
वक्षस्थलपदं पश्चाच्छ्रीभूमिसहितेत्यथ || ८ ||
स्वात्मज्योतिरिति प्रोक्ता ततो क्षयपदं नृप |
पदं दीप्ति करापानंतादित्येति पदादथ || ९ ||
तेजसे हृदयोपेत वह्नि पत्नी पदं नृप |
अयंकिरीटमंत्रः स्याद्भगवन्मूर्ति सिद्धिदः || १० ||
यदुक्तमंत्रदेवस्य मंत्रेस्मिन् भूषणादिकं |
तद्दिव्य भूषणं प्रोक्तमन्यन्मानुषभूषणं || ११ ||
दिव्यैर्विभूषणैः शिष्यौय आचार्य समर्चयेत् |
अवश्यं भगवद्रूपी स्वयमेव भवेद्ध्रुवं || १२ ||
मुखालंकरणं दिव्यं यदुक्तं कुंडलद्वयं |
तदुक्तमालंकरणमेतेष्वपि महीयते || १३ ||
तस्मादवश्यं संतप्तकनकेन विनिर्मितं |
सुशुद्धपद्मरागाख्यं मणिविंदुविभूषितं || १४ ||
शुभेदिने शुभेलग्ने पुरश्चर्यादि कर्मसु |
आचार्यकर्णयोर्दत्वा प्रणिपातपुरसरं || १५ ||
सुवर्णवालीयुग्मेनताटंकाभरणेन वा |
आचार्यपत्नीमभ्यर्च्य षण्माषादिं दिरापतिं || १६ ||
पश्यत्येव स्वचक्षुर्भ्यां सत्यमेव महीपते |
आचार्यरूपिणं विद्धिमामेव जगतीपतिं || १७ ||
तत्पत्नीं मत्प्रियां विद्धि श्रियं त्रिजगदंविकां |
मकराकृति संतप्तकांचनेन विनिर्मितं || १८ ||
कुंडलद्वितयं रम्यं पद्मरागविभूषितं |
आचार्यकर्णयोर्दत्वा शुभलग्ने शुभेदिने || १९ ||
प्. ६३अ)
अवश्यं पितृसाहस्रंमग्नं च नरकार्णवे |
उद्धृत्य कांचनमयं विमानं दिव्यमक्षयं || २० ||
आरुह्यकोटिकंदर्पसुंदरो दिव्यभोगभाक् |
ब्रह्मांडमखिलं भित्वा पदं प्राप्नोति शाश्वतं || २१ ||
इहापि परमामृद्धिं धनधान्यादि संकुलां |
पुत्रपौत्रवती मायुरा रोग्यसहितां लभेत् || २२ ||
यद्यद्विभूषणं दिव्यमाचार्याय समर्पयेत् |
ब्रह्मानंद सुखावाप्तिकरं ततन्न संशयः || २३ ||
पीतांवरयुगं नित्यं वासस्सुभगवद्धृतं |
तदेव भगवत्यल्याश्रियापिधृत भन्वहं || २४ ||
आचार्यायापि तत्पत्न्यैदुकूलयः प्रयच्छति |
ग्रहणादिषु पुण्येषु कालेषु नियतव्रतः || २५ ||
दिव्यपीतांवरधरोदिव्यालंकरणान्वितः |
ब्रह्मतादात्म्यसंसिद्धिमवश्यं प्राप्नुयादसौ || २६ ||
तस्मादवश्यं दातव्यमलंकारधनादिकं |
आचार्याय कपल्यै तत्सुतेभ्योपि संततं || २७ ||
यंत्रस्वरूपं वक्ष्यामि श्रीयेतः परमात्मनः |
यत्र संपूज्य लक्ष्मीशं ब्रह्मानंदसुखं लभेत् || २८ ||
विलिख्य षडरं पूर्वं वृतमष्टदलं ततः |
तद्वहिर्विलिखेद्वृतं चतुरस्रमतः परं || २९ ||
षट्कोणमध्ये प्रणवद्वयांतरविदर्भितं |
साध्यं कर्म समालिख्य षट्सुकोणेष्वतः परं || ३० ||
संदर्शन नृसिंहस्य वर्णषट्कं समालिखेत् |
श्रीमदृष्टाक्षरी वर्णान् विलिखेदष्टपत्रके || ३१ ||
तदग्रेषु श्रीकरस्यमनोरेकैकमक्षरं |
लिखित्वा द्वादशारेषु वासुदेव महामनोः || ३२ ||
एकैकं वर्णमालिख्य द्वात्रिंशारे ततः परं |
नृसिंहानुष्टुभनोरेकैकं वर्णमालिखेत् || ३३ ||
नृसिंहैकाक्षरेणाथवेष्टयेद्धृतमंततः |
श्रीमदष्टाक्षरीवियायंत्रमतदुदीरितं || ३४ ||
पंचाशदक्षरौ पश्चाद्देष्टयेच्चतुरस्रकं |
चतुरस्रं विनाष्टार्णयंत्रं लघुसमीरितं || ३५ ||
प्. ६३ब्)
चतुरस्र समायुक्तं वृहद्यंत्रमुदीरितं |
यंत्रमेतलिखित्वादौ सैवर्णं राजतंतु वा || ३६ ||
भूतं यत्रमयं ताम्रलिखीतंवां श्रियः पतेः |
प्राणसंस्थापनं कृत्वा सुभलग्ने शुभेदिने || ३७ ||
खाचार्यचरणांभोजहयं संपूज्य वस्तूभिः |
अलंकारैश्चवासोभिरपि तस्य कलत्रकं || ३८ ||
श्रीमदष्टाक्षरीं विद्यां शमस्तन्यास संयुतां |
त्रिशग्रेशुभेदिने ********* || ३७ ||
खाचार्यचरणांभोजहयं संपूज्य वस्तूभिः |
अलंकारैश्च ताधिक साहस्रं जप्त्वा हुत्वा शतं घृतं || ३९ ||
रश्मिमंत्रैः सकृत्वा पूजयेत् प्रत्यहं नय |
अथवाधारयेयंत्रंगुलीकृत्य यत्नतः || ४० ||
धारणार्थं व पूजार्थयंत्रद्वितयमादरात् |
विलिख्य धारयित्वादौ पूजयेद्यदिसंततं || ४१ ||
मंदभाग्योपि सकलसंपदा माश्वायो भवेत् |
चलंति संपदोन्यस्य मंदिरे कुत्रचित् क्वचित् || ४२ ||
आधिव्याधि भये रक्षः कूष्माडांदिभयेयु च |
रक्षाकरं शुभकरं सर्कारिष्टविमर्ददनं || ४३ ||
धारणात् पूजनादस्य मृत्युकालभयं न हि|
आचार्यानुग्रहातस्ये मोक्ष श्रीशाश्वातीश्रुभा || ४४ ||
तत्याणि कमलेष्ठत्यवंश्यं नात्रं संशयः |
अथ पूजाविधानंते प्रवक्ष्यामि द्विधान्दय || ४५ ||
यस्य विज्ञानमात्रेण माक्षाद्विक्षु मयो भवेत् |
विमलोत्कर्षिणी ज्ञानाक्रियायोगा तथैव च || ४६ ||
मद्वो सत्यातथेशातानानुपहानवशक्तयः |
नवसक्ति धृतंयीटमभ्यर्च्यादौश्रियः पतेः || ||
शंखं ओं नमः यदमामाष्यपदं भगवते ततः || ४७ ||
विष्णवे यदमुच्चार्य सर्वभूतात्मने पदं |
वासुदेवाय शब्दं च ततः सर्वात्मनेयद्दं || ४८ ||
योगपीठात्मने पश्चात्मने यश्चान्नति शब्दसमन्वितं |
अनेन पीठं मंत्रेणपीठं भगवती यजेत् || ४९ ||
षट्कोणमध्ये मूलेत् लक्ष्मीमंत्रेयुतेनव |
श्रीश्रीशब्दावृशाक्षेर्या समावाह्यश्रियःपतिं || ५० ||
कुर्यात् सर्वोपचारांश्च श्रीश्रीशब्रह्मदिष्टाया |
मूलविद्यां श्रियांश्रियो मंत्रान्ब्रह्मविद्यां सामुच्चरन् || ५१ ||
अभ्यच्येयं च धायश्चाल्लक्ष्मीनारायणौ विभू |
हृदयादि षडंगाति षट्कौणैषथाच्चयंत् || ५२ ||
वासुदेवं संकर्षणं प्रद्युम्नमनिरुद्धकं |
दिक्ष्वभ्यच्येश्चियं वाणीं रतिं प्रीतिं विदिक्षु च || ५३ ||
प्. ६४अ)
द्वितीयावरणं प्रोक्तं चक्रं शंखं गहांवुजे |
कौस्तुभं मुशलं खड्गं वनमाला मतःपरं || ५४ ||
तृतीयावरणं प्रोक्तं ध्वजं पद्मनिधिं ततः |
गरुत्मंतं शंखनिधिं दिक्षु विद्मेश्वरं तत || ५५ ||
वटुकं च ततोदर्गां विष्णुवते ततं विदिक्षु च |
चतुर्थावरणं प्रोक्तं दिक्पालैः पंचमं विदः || ५६ ||
त्वद्यु पूजाविधामंत्रे प्रोक्तमेतदभीष्टदं |
इत्थं तंत्रे ससमभ्यर्च्यरमानाथं जगत्पतिं || ५७ ||
विमुक्तस्सर्वयथोद्यैस्ममस्तफलसिद्धिभाक् |
वृसूजाविधानंते रहस्यमपि संततं || ५८ ||
अनुग्रहा सुवक्ष्यामितुभ्यंत्र न कभूयते |
चंद्रं प्रचं ईत्यग्द्वारेयाशेभद्रसुभद्रकौ || ५९ ||
जयं च विजयं पश्चाद्वारपालोसमर्चयेत् |
धातारं च विधातारसुतरद्वाति पूजयेत् || ६० ||
कुभुदं कुमुदाक्षं च पुंडुरीकंचवामन |
अंवुकर्णं संवं नेत्रं सुसमुखसुझतिष्टितं || ६१ ||
दिक्पतीनर्चयेद्दिस्थमयो ध्यानगरोठहिः |
तन्मध्ये भगवद्दिव्यांतं पुरेति गृहाय च || ६२ ||
नम उल्काभगवतोगहीतः पुरमेर्वयेत् |
मणिप्राक्यरसह्रिततोमरेति यदासरं || ६३ ||
भगवद्दिव्यय इतो विमानयनमस्तथा |
विमानं तत्र संपूज्यं तन्मध्ये दिव्यशब्दतः || ६४ ||
अशरस्त्रीभ्य इत्युक्ता हृदयेनाशरस्त्रियः |
तन्मध्ये यदसच्चार्य राजास्थानयंदं ततः || ६५ ||
महोच्चयपदं मंडयोति नम उच्चरेत् |
इत्थं मम्डयमभ्यर्च्य तन्मध्ये यदमध्यथ || ६६ ||
माणिक्य स्तंभ साहस्रजुष्टा यदमप्यथ |
रत्नमंडपमभ्यर्च्यं चतुर्थ्यंतं नमोचितं || ६७ ||
अभ्यच्ये मंडपं पश्चाद्भयोपिवसुधायते |
तन्मध्ये सर्वर्ववेहेति समद्दिष्यपदांत्परं || ६८ ||
रत्नसिंहासनायेति नभिमुच्चामंडपमभ्यच्ये चतुर्थ्यंतंतनान्वितं || ६७ ||
अभ्यर्च्य मंडपं पश्चाद्भूयोपि वसुधायते |
तन्मध्ये सर्ववेदेति सुमद्दिव्य पदात्परं || ६८ ||
रत्नसिंहं सिंहामनायेतिनभिमुच्चार्य भूयते |
सिंहासनं संमभ्यर्च्य धर्मं ज्ञानमतः परं || ६९ ||
वैराग्यमप्यथैश्वर्यं शिश्वधर्मतः परं |
अज्ञानमप्यवैराग्यमनैश्वर्यं विदिक्ष च || ७० ||
समभ्यर्च्ययतेत्यश्चादृग्वेहं यत्तुषांगणं |
सामवेदं ततो वेदमथर्वणमतः परं || ७१ ||
प्. ६४ब्)
शतिर्माधारशक्तिं च चिच्छक्तिं च सदाशिवां |
अभ्यर्च्य मंडलं वह्नेर्यर्जदर्कस्यमंडलं || ७२ ||
चंद्रं मंडलमभ्यर्च्य कूर्मं नागाधियं ततः |
चैनतेयंत्रयीराजं यजेच्छंदांस्यतः परम् || ७३ ||
सर्वमंत्रान्समभ्यर्च्य सर्वमंत्राक्षरेत्यथ |
या यद्दिव्यपदं योगपीडायनम इत्यथ || ७४ ||
योगपीठं समभ्यर्च्य पूर्वोक्त मनूनापि च |
तन्मध्ये यदमुच्चार्यवाल सूयशतेत्यथ || ७५ ||
सन्निभायाष्टदलतः पद्माय मम उच्चरेत् |
पद्ममभ्यर्च्य तन्मध्ये सावित्र्यै नम उच्चरेत् || ७६ ||
श्रीमदष्टार्णमंत्रस्यह्यार्थ चंधौथ दैवतं |
वीजशती ततोन्यस्य देवदेवं श्रियः पति || ७७ ||
ध्यात्वा त्वास्वदुदुयांभोजे यंत्रेप्या वाद्यात्रतः |
श्रीमदष्टाक्षरींविद्यां वासुदेवमनंततः || ७८ ||
षडक्षरी वैष्णवीचीश्रीमंत्रानथ संस्मरेत् |
ब्रह्मविद्यां समुच्चार्य समावाह्य श्रियःपरतिं |
सवोवचारान्कुर्वीत श्रीश्रीब्रह्मविद्यया || ७९ ||
प्रणवं चित्कालावीजं श्रीशाष्टाक्षरं ततः |
रत्नसिंहासनं यश्चात्कल्पयामि नमः पदं || ८० ||
उपचार्यासनमुख्यैश्च यत्तेत् सर्वोयचारकैः |
रत्नसिंहासंसनं याद्यमर्घ्यमाचमनीयकं || ८१ ||
कृत्वा पंचामृतस्नानंह्यनं शुद्धोदकैरथ |
च स्रद्वयं स्वपर्णच्चोयवीःतयं ततः || ८२ ||
दिव्य श्रीचंदनं यश्चीदक्षतान्कल्पयेदथ |
नानाविधानि दिव्यानिं कुसुमानि च कल्पयेत् || ८३ ||
नानाविधीनिद्दिव्यानिभूषणन्पर्ययेदथ |
धूपदीपं कल्पयित्वानीराजनमतःपरं || ८४ ||
छत्रं च चामरं द्वंद्वं दर्पणं चापि कल्पयेत् |
रक्षीमाचमनीयं च भूयो नैवेद्यमादरारात् || ८५ ||
यानीयमपिहस्ताहाप्रक्षालनमतः परं |
तां कृष्णं च चतुर्विशत्युपचारान् प्रकलपयेत् || ८६ ||
पूर्वोक्तविधिनालक्ष्मीपतिंनारायणंविभुं |
षालग्रामशिलाचक्तोध्यायंत्तेःथवां ततः || ८७ ||
ब्रह्मविद्यां समुच्चार्य पंचवारमथायेत |
भूदेवीं दक्षिणेयाश्वैवामेनीला समर्चयेत् || ८८ ||
षडंगान्यर्चयेत्पश्चाद्दग्रीशासुरदिक्षु च |
वायव्ये मध्यभागे च सर्वदिक्षु क्रम्मत्रय || ८९ ||
प्. ६५अ)
अष्टदिक्षुदलाग्रेष्वविमलास्ततः परं |
विमलामादितोभ्यर्च्य तत उत्कर्षिणीं नृप || ९० ||
ज्ञानां क्रियांतथा योगां प्रह्वीं सत्यामतः परं |
इंशामानुग्रहे पश्चार्चयेद्वसुधायते || ९१ ||
ततः प्राच्यादिभागेषु वासुदेवं श्रियं यजेत् |
संकर्षणमथोवाणीं प्रद्युम्नं रतिमप्यथ || ९२ ||
अनिरुद्धतथा शांतिं द्वितीयावरणं स्मृतं |
केशं च नारायणं माधवं गोविंदं विष्णुमेव च || ९३ ||
म्मधुसूदनमभ्यर्च्यतौ त्रिविक्रमवामनौ |
श्रीधरं न हृषीकेशं यमनाभमतः परं || ९४ ||
दामोदरं संकर्षणं वासुदेवमतःपरं |
प्रद्युम्नमनिरुद्धं च पुरुषोत्तममप्यथ || ९५ ||
अधोक्षजं नारसिंहमच्युतंवजनार्दनं |
उपेंद्रं च हरिं पश्चाच्छरी कृष्णं चक्रमाघनेत् || ९६ ||
तृतीयायरणं पश्चान्मत्स्यं कूर्मं वराहकं |
नारसिंहं वामनं च जामदग्र्यमतः परं || ९७ ||
रामंदाशरथिं पश्चाद्वलराममतः परं |
बुद्ध च कल्किमिह्येतानंवां रतारान्त्रमाद्यजेत् || ९८ ||
चतुर्थाचरणं प्रोक्तं सत्यमच्युतमेव च |
अनंतं सर्वमभ्यर्च्य विष्णर्षुनमतः परं || ९९ ||
गजाननं शंखनिधिं यजेत्य प्रतिनिधिं ततः |
पंचमावरणं प्रोक्तमृग्वेदं यजुषांगणं || १०० ||
सामवेदमथर्वाणं सावित्रीं विहगेश्वरं |
धर्मं च यज्ञपुरुषं षष्ठांवरणमीरितं || १ ||
शंखं चक्रं गदां पद्मं खड्गं शार्ङ्हलं तथा |
मुशलं ससमं प्रोक्तं हेवस्यावरणं शुभं || २ ||
शधीमहेंद्रौस्वाहाग्री तथा संहारिणी यमौ |
तामसीनिसृतीययश्चभार्गवीवरूणौ तथा || ३ ||
गतिवायुचं स पतिकुवेणै च ततः परं |
रुद्राणीशंकरौपश्चादुर्द्ध्वे वाक्चतुराननौ || ४ ||
लक्ष्मीनारायणैश्च पश्चादष्टमावरणं स्मृतं |
वज्रायुधं शक्तिदडौखड्गंयाशंध्वंजंगदां || ५ ||
त्रिशूलमंवुजं चक्रं नवमावरणं स्मृतं |
ध्यान्मरुहुणाश्चैव विश्वेदेवानतः परं || ६ ||
योगिनः सनकाद्यांश्च देवषीन्नारदादिकान् |
कपिलादि महासिद्धां नृतात्रेयादियोगिना || ७ ||
प्रह्रादादि महाभक्तानांज्जनेयादि किं करान् |
ज्ञानिनोजनकाद्याश्चनृयाक्षशरथादिकान् || ८ ||
अर्चयित्वायनः श्रीशब्रह्मविद्यां समुच्चरन् |
अर्कावृत्या समभ्यर्च्य लक्ष्मीनारायणौ विभू || ९ ||
उपचारान्धूपदीपनैवेधादीन्समर्पयत् |
तत आचार्यमुद्दिश्य भगवत्सत्रिधौ नृप || १० ||
प्. ६५ब्)
यत्किंचिदपि वा देयं सुवर्णंरतंतं तु वा |
ताम्रं धान्यं घृतं वापि प्रसहंश्चेय इच्छता || १११ ||
यद्वा संल्पितं चितेदीतव्यंमासिनासिव |
अवंध्यं दिवसं कुर्यादन्यथा पापभुग्भवेत् || ११२ ||
पूजाविधानमेतते सम्पङ्नह उदीरितं |
महापातकसंद्यौद्यनाशनं भुक्तिमुक्तिद || १३ ||
अशक्तः प्रसहं कर्तुं कुर्याद्भार्गववासरे |
मासिमास्यथा वा कुर्यात् प्रथमेभागर्वदिने || १४ ||
नवरात्रव्रतेवश्यं कुर्यात् ब्रह्महमर्चनं |
अलभ्ययोमेगेषु सदाकर्तव्यं पूजनं नृप || १५ ||
तंपालयति लक्ष्मीशः प्रसहं पुत्रवत्संदाः |
इत्थमर्च्यतः पुंसः श्रेयो राशिर्दिनेदिने || १६ ||
सिध्यंति संपदः सर्वभोगा अपि सुदर्लभाः |
इत्थं श्रीश्रीशयजनं महान्याग उदाहृतः || १७ ||
राजसूयोश्च मेधो वानै तेन सदृशो भवेत् |
न्यूनातिरिक्त संपूत्यै यागसाफल्यसिद्धये || १८ ||
आचार्यदीक्षिणादद्याद्वितलोभ विवर्जितः |
आचार्यदक्षिणाहीनं यद्दिनं वसुधापते || १९ ||
यमहृतैर्यमेनापितत्र दृष्टो भवत्यसौ |
यमभीतिहं पुंसां भोगखर्गायवर्गर्द || २० ||
आचार्यदक्षिणादानं प्रत्यहं वसुधापते |
लक्ष्मीनारायणैनित्यमित्थमर्चतोनृपे || २१ ||
सिध्यंति सिद्धयः सर्वास्त्रिदशैरपि दुर्लभाः |
पूजाविधानमेतते प्रोक्तं जनकभूयज || २२ ||
वेदाध्यनसुक्तस्य सदाचारवतीन्वहं |
श्रीमदष्टाक्षरीविद्या जयासक्तस्य संततं || २३ ||
अनेन विधिना पुजा कर्तुरन्वहीमादरात् |
समस्ताभीशितं तस्या सिध्यपि सुदुर्लर्भ || २४ ||
अनुतरब्रह्मतत्वरहस्ये श्रुतिसंग्रहे |
इति दाशरथीयेत्रविंशोध्याय उदीरितः || १२५ ||
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीयेतंत्रे विंशोध्यायः समाप्तः ||</poem>
7j4bm0hle7prakktzy2q6hlc40zcbrr
409275
409274
2025-06-27T05:06:35Z
Shubha
190
409275
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः २०
| previous = [[../अध्यायः १९|अध्यायः १९]]
| next = [[../अध्यायः २१|अध्यायः २१]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ६२अ)
श्रीभगवानुवाच
यंत्रोद्धारमथोवक्ष्ये शृणुष्वावहितो नृप ।
यत्र संपूज्य लक्ष्मीशं ब्रह्मानंदसुखं लभेत् ।। १ ।।
न्यासजालंय उदितं मया पूर्वं महीपते ।
अवश्यं सकलन्यासाः कर्तव्या गुर्वनुज्ञया ।। २ ।।
न्यासेन भगवद्रूपी भूत्वा मंत्रमयः पुमान् ।
ततः हृदयांभोजे ध्यायेन्नारायणं विभुं ।। ३ ।।
प्. ६२ब्)
यद्वा नारायणात्मानं ध्यायेत् स्वचार्यमीश्वरं ।
तत्प्रलीमपि च ध्योयेत्त्रिजगन्मातरं श्रियं ।। ४ ।।
भगवन्मूर्तिसिध्यर्थमात्मनोथमहीयते ।
किरीटविद्यामुच्चार्य मनसा कुसुमांजलिं ।। ५ ।।
पंचवारं हृदंभोजे प्रदद्यान्मौनमाश्रितः ।
त्रयीवीजं किरीटेतिके पूरेति पदं ततः ।। ६ ।।
हारेति मुकुटेत्युक्ताकुंडलेति धरेत्यथ ।
शंखचक्रगदापद्महस्तशब्दमतः परं ।। ७ ।।
पीतांवरधरेत्युक्ता श्रीवत्सांकित शब्दतः ।
वक्षस्थलपदं पश्चाच्छ्रीभूमिसहितेत्यथ ।। ८ ।।
स्वात्मज्योतिरिति प्रोक्ता ततो क्षयपदं नृप ।
पदं दीप्ति करापानंतादित्येति पदादथ ।। ९ ।।
तेजसे हृदयोपेत वह्नि पत्नी पदं नृप ।
अयंकिरीटमंत्रः स्याद्भगवन्मूर्ति सिद्धिदः ।। १० ।।
यदुक्तमंत्रदेवस्य मंत्रेस्मिन् भूषणादिकं ।
तद्दिव्य भूषणं प्रोक्तमन्यन्मानुषभूषणं ।। ११ ।।
दिव्यैर्विभूषणैः शिष्यौय आचार्य समर्चयेत् ।
अवश्यं भगवद्रूपी स्वयमेव भवेद्ध्रुवं ।। १२ ।।
मुखालंकरणं दिव्यं यदुक्तं कुंडलद्वयं ।
तदुक्तमालंकरणमेतेष्वपि महीयते ।। १३ ।।
तस्मादवश्यं संतप्तकनकेन विनिर्मितं ।
सुशुद्धपद्मरागाख्यं मणिविंदुविभूषितं ।। १४ ।।
शुभेदिने शुभेलग्ने पुरश्चर्यादि कर्मसु ।
आचार्यकर्णयोर्दत्वा प्रणिपातपुरसरं ।। १५ ।।
सुवर्णवालीयुग्मेनताटंकाभरणेन वा ।
आचार्यपत्नीमभ्यर्च्य षण्माषादिं दिरापतिं ।। १६ ।।
पश्यत्येव स्वचक्षुर्भ्यां सत्यमेव महीपते ।
आचार्यरूपिणं विद्धिमामेव जगतीपतिं ।। १७ ।।
तत्पत्नीं मत्प्रियां विद्धि श्रियं त्रिजगदंविकां ।
मकराकृति संतप्तकांचनेन विनिर्मितं ।। १८ ।।
कुंडलद्वितयं रम्यं पद्मरागविभूषितं ।
आचार्यकर्णयोर्दत्वा शुभलग्ने शुभेदिने ।। १९ ।।
प्. ६३अ)
अवश्यं पितृसाहस्रंमग्नं च नरकार्णवे ।
उद्धृत्य कांचनमयं विमानं दिव्यमक्षयं ।। २० ।।
आरुह्यकोटिकंदर्पसुंदरो दिव्यभोगभाक् ।
ब्रह्मांडमखिलं भित्वा पदं प्राप्नोति शाश्वतं ।। २१ ।।
इहापि परमामृद्धिं धनधान्यादि संकुलां ।
पुत्रपौत्रवती मायुरा रोग्यसहितां लभेत् ।। २२ ।।
यद्यद्विभूषणं दिव्यमाचार्याय समर्पयेत् ।
ब्रह्मानंद सुखावाप्तिकरं ततन्न संशयः ।। २३ ।।
पीतांवरयुगं नित्यं वासस्सुभगवद्धृतं ।
तदेव भगवत्यल्याश्रियापिधृत भन्वहं ।। २४ ।।
आचार्यायापि तत्पत्न्यैदुकूलयः प्रयच्छति ।
ग्रहणादिषु पुण्येषु कालेषु नियतव्रतः ।। २५ ।।
दिव्यपीतांवरधरोदिव्यालंकरणान्वितः ।
ब्रह्मतादात्म्यसंसिद्धिमवश्यं प्राप्नुयादसौ ।। २६ ।।
तस्मादवश्यं दातव्यमलंकारधनादिकं ।
आचार्याय कपल्यै तत्सुतेभ्योपि संततं ।। २७ ।।
यंत्रस्वरूपं वक्ष्यामि श्रीयेतः परमात्मनः ।
यत्र संपूज्य लक्ष्मीशं ब्रह्मानंदसुखं लभेत् ।। २८ ।।
विलिख्य षडरं पूर्वं वृतमष्टदलं ततः ।
तद्वहिर्विलिखेद्वृतं चतुरस्रमतः परं ।। २९ ।।
षट्कोणमध्ये प्रणवद्वयांतरविदर्भितं ।
साध्यं कर्म समालिख्य षट्सुकोणेष्वतः परं ।। ३० ।।
संदर्शन नृसिंहस्य वर्णषट्कं समालिखेत् ।
श्रीमदृष्टाक्षरी वर्णान् विलिखेदष्टपत्रके ।। ३१ ।।
तदग्रेषु श्रीकरस्यमनोरेकैकमक्षरं ।
लिखित्वा द्वादशारेषु वासुदेव महामनोः ।। ३२ ।।
एकैकं वर्णमालिख्य द्वात्रिंशारे ततः परं ।
नृसिंहानुष्टुभनोरेकैकं वर्णमालिखेत् ।। ३३ ।।
नृसिंहैकाक्षरेणाथवेष्टयेद्धृतमंततः ।
श्रीमदष्टाक्षरीवियायंत्रमतदुदीरितं ।। ३४ ।।
पंचाशदक्षरौ पश्चाद्देष्टयेच्चतुरस्रकं ।
चतुरस्रं विनाष्टार्णयंत्रं लघुसमीरितं ।। ३५ ।।
प्. ६३ब्)
चतुरस्र समायुक्तं वृहद्यंत्रमुदीरितं ।
यंत्रमेतलिखित्वादौ सैवर्णं राजतंतु वा ।। ३६ ।।
भूतं यत्रमयं ताम्रलिखीतंवां श्रियः पतेः ।
प्राणसंस्थापनं कृत्वा सुभलग्ने शुभेदिने ।। ३७ ।।
खाचार्यचरणांभोजहयं संपूज्य वस्तूभिः ।
अलंकारैश्चवासोभिरपि तस्य कलत्रकं ।। ३८ ।।
श्रीमदष्टाक्षरीं विद्यां शमस्तन्यास संयुतां ।
त्रिशग्रेशुभेदिने ********* ।। ३७ ।।
खाचार्यचरणांभोजहयं संपूज्य वस्तूभिः ।
अलंकारैश्च ताधिक साहस्रं जप्त्वा हुत्वा शतं घृतं ।। ३९ ।।
रश्मिमंत्रैः सकृत्वा पूजयेत् प्रत्यहं नय ।
अथवाधारयेयंत्रंगुलीकृत्य यत्नतः ।। ४० ।।
धारणार्थं व पूजार्थयंत्रद्वितयमादरात् ।
विलिख्य धारयित्वादौ पूजयेद्यदिसंततं ।। ४१ ।।
मंदभाग्योपि सकलसंपदा माश्वायो भवेत् ।
चलंति संपदोन्यस्य मंदिरे कुत्रचित् क्वचित् ।। ४२ ।।
आधिव्याधि भये रक्षः कूष्माडांदिभयेयु च ।
रक्षाकरं शुभकरं सर्कारिष्टविमर्ददनं ।। ४३ ।।
धारणात् पूजनादस्य मृत्युकालभयं न हि।
आचार्यानुग्रहातस्ये मोक्ष श्रीशाश्वातीश्रुभा ।। ४४ ।।
तत्याणि कमलेष्ठत्यवंश्यं नात्रं संशयः ।
अथ पूजाविधानंते प्रवक्ष्यामि द्विधान्दय ।। ४५ ।।
यस्य विज्ञानमात्रेण माक्षाद्विक्षु मयो भवेत् ।
विमलोत्कर्षिणी ज्ञानाक्रियायोगा तथैव च ।। ४६ ।।
मद्वो सत्यातथेशातानानुपहानवशक्तयः ।
नवसक्ति धृतंयीटमभ्यर्च्यादौश्रियः पतेः ।। ।।
शंखं ओं नमः यदमामाष्यपदं भगवते ततः ।। ४७ ।।
विष्णवे यदमुच्चार्य सर्वभूतात्मने पदं ।
वासुदेवाय शब्दं च ततः सर्वात्मनेयद्दं ।। ४८ ।।
योगपीठात्मने पश्चात्मने यश्चान्नति शब्दसमन्वितं ।
अनेन पीठं मंत्रेणपीठं भगवती यजेत् ।। ४९ ।।
षट्कोणमध्ये मूलेत् लक्ष्मीमंत्रेयुतेनव ।
श्रीश्रीशब्दावृशाक्षेर्या समावाह्यश्रियःपतिं ।। ५० ।।
कुर्यात् सर्वोपचारांश्च श्रीश्रीशब्रह्मदिष्टाया ।
मूलविद्यां श्रियांश्रियो मंत्रान्ब्रह्मविद्यां सामुच्चरन् ।। ५१ ।।
अभ्यच्येयं च धायश्चाल्लक्ष्मीनारायणौ विभू ।
हृदयादि षडंगाति षट्कौणैषथाच्चयंत् ।। ५२ ।।
वासुदेवं संकर्षणं प्रद्युम्नमनिरुद्धकं ।
दिक्ष्वभ्यच्येश्चियं वाणीं रतिं प्रीतिं विदिक्षु च ।। ५३ ।।
प्. ६४अ)
द्वितीयावरणं प्रोक्तं चक्रं शंखं गहांवुजे ।
कौस्तुभं मुशलं खड्गं वनमाला मतःपरं ।। ५४ ।।
तृतीयावरणं प्रोक्तं ध्वजं पद्मनिधिं ततः ।
गरुत्मंतं शंखनिधिं दिक्षु विद्मेश्वरं तत ।। ५५ ।।
वटुकं च ततोदर्गां विष्णुवते ततं विदिक्षु च ।
चतुर्थावरणं प्रोक्तं दिक्पालैः पंचमं विदः ।। ५६ ।।
त्वद्यु पूजाविधामंत्रे प्रोक्तमेतदभीष्टदं ।
इत्थं तंत्रे ससमभ्यर्च्यरमानाथं जगत्पतिं ।। ५७ ।।
विमुक्तस्सर्वयथोद्यैस्ममस्तफलसिद्धिभाक् ।
वृसूजाविधानंते रहस्यमपि संततं ।। ५८ ।।
अनुग्रहा सुवक्ष्यामितुभ्यंत्र न कभूयते ।
चंद्रं प्रचं ईत्यग्द्वारेयाशेभद्रसुभद्रकौ ।। ५९ ।।
जयं च विजयं पश्चाद्वारपालोसमर्चयेत् ।
धातारं च विधातारसुतरद्वाति पूजयेत् ।। ६० ।।
कुभुदं कुमुदाक्षं च पुंडुरीकंचवामन ।
अंवुकर्णं संवं नेत्रं सुसमुखसुझतिष्टितं ।। ६१ ।।
दिक्पतीनर्चयेद्दिस्थमयो ध्यानगरोठहिः ।
तन्मध्ये भगवद्दिव्यांतं पुरेति गृहाय च ।। ६२ ।।
नम उल्काभगवतोगहीतः पुरमेर्वयेत् ।
मणिप्राक्यरसह्रिततोमरेति यदासरं ।। ६३ ।।
भगवद्दिव्यय इतो विमानयनमस्तथा ।
विमानं तत्र संपूज्यं तन्मध्ये दिव्यशब्दतः ।। ६४ ।।
अशरस्त्रीभ्य इत्युक्ता हृदयेनाशरस्त्रियः ।
तन्मध्ये यदसच्चार्य राजास्थानयंदं ततः ।। ६५ ।।
महोच्चयपदं मंडयोति नम उच्चरेत् ।
इत्थं मम्डयमभ्यर्च्य तन्मध्ये यदमध्यथ ।। ६६ ।।
माणिक्य स्तंभ साहस्रजुष्टा यदमप्यथ ।
रत्नमंडपमभ्यर्च्यं चतुर्थ्यंतं नमोचितं ।। ६७ ।।
अभ्यच्ये मंडपं पश्चाद्भयोपिवसुधायते ।
तन्मध्ये सर्वर्ववेहेति समद्दिष्यपदांत्परं ।। ६८ ।।
रत्नसिंहासनायेति नभिमुच्चामंडपमभ्यच्ये चतुर्थ्यंतंतनान्वितं ।। ६७ ।।
अभ्यर्च्य मंडपं पश्चाद्भूयोपि वसुधायते ।
तन्मध्ये सर्ववेदेति सुमद्दिव्य पदात्परं ।। ६८ ।।
रत्नसिंहं सिंहामनायेतिनभिमुच्चार्य भूयते ।
सिंहासनं संमभ्यर्च्य धर्मं ज्ञानमतः परं ।। ६९ ।।
वैराग्यमप्यथैश्वर्यं शिश्वधर्मतः परं ।
अज्ञानमप्यवैराग्यमनैश्वर्यं विदिक्ष च ।। ७० ।।
समभ्यर्च्ययतेत्यश्चादृग्वेहं यत्तुषांगणं ।
सामवेदं ततो वेदमथर्वणमतः परं ।। ७१ ।।
प्. ६४ब्)
शतिर्माधारशक्तिं च चिच्छक्तिं च सदाशिवां ।
अभ्यर्च्य मंडलं वह्नेर्यर्जदर्कस्यमंडलं ।। ७२ ।।
चंद्रं मंडलमभ्यर्च्य कूर्मं नागाधियं ततः ।
चैनतेयंत्रयीराजं यजेच्छंदांस्यतः परम् ।। ७३ ।।
सर्वमंत्रान्समभ्यर्च्य सर्वमंत्राक्षरेत्यथ ।
या यद्दिव्यपदं योगपीडायनम इत्यथ ।। ७४ ।।
योगपीठं समभ्यर्च्य पूर्वोक्त मनूनापि च ।
तन्मध्ये यदमुच्चार्यवाल सूयशतेत्यथ ।। ७५ ।।
सन्निभायाष्टदलतः पद्माय मम उच्चरेत् ।
पद्ममभ्यर्च्य तन्मध्ये सावित्र्यै नम उच्चरेत् ।। ७६ ।।
श्रीमदष्टार्णमंत्रस्यह्यार्थ चंधौथ दैवतं ।
वीजशती ततोन्यस्य देवदेवं श्रियः पति ।। ७७ ।।
ध्यात्वा त्वास्वदुदुयांभोजे यंत्रेप्या वाद्यात्रतः ।
श्रीमदष्टाक्षरींविद्यां वासुदेवमनंततः ।। ७८ ।।
षडक्षरी वैष्णवीचीश्रीमंत्रानथ संस्मरेत् ।
ब्रह्मविद्यां समुच्चार्य समावाह्य श्रियःपरतिं ।
सवोवचारान्कुर्वीत श्रीश्रीब्रह्मविद्यया ।। ७९ ।।
प्रणवं चित्कालावीजं श्रीशाष्टाक्षरं ततः ।
रत्नसिंहासनं यश्चात्कल्पयामि नमः पदं ।। ८० ।।
उपचार्यासनमुख्यैश्च यत्तेत् सर्वोयचारकैः ।
रत्नसिंहासंसनं याद्यमर्घ्यमाचमनीयकं ।। ८१ ।।
कृत्वा पंचामृतस्नानंह्यनं शुद्धोदकैरथ ।
च स्रद्वयं स्वपर्णच्चोयवीःतयं ततः ।। ८२ ।।
दिव्य श्रीचंदनं यश्चीदक्षतान्कल्पयेदथ ।
नानाविधानि दिव्यानिं कुसुमानि च कल्पयेत् ।। ८३ ।।
नानाविधीनिद्दिव्यानिभूषणन्पर्ययेदथ ।
धूपदीपं कल्पयित्वानीराजनमतःपरं ।। ८४ ।।
छत्रं च चामरं द्वंद्वं दर्पणं चापि कल्पयेत् ।
रक्षीमाचमनीयं च भूयो नैवेद्यमादरारात् ।। ८५ ।।
यानीयमपिहस्ताहाप्रक्षालनमतः परं ।
तां कृष्णं च चतुर्विशत्युपचारान् प्रकलपयेत् ।। ८६ ।।
पूर्वोक्तविधिनालक्ष्मीपतिंनारायणंविभुं ।
षालग्रामशिलाचक्तोध्यायंत्तेःथवां ततः ।। ८७ ।।
ब्रह्मविद्यां समुच्चार्य पंचवारमथायेत ।
भूदेवीं दक्षिणेयाश्वैवामेनीला समर्चयेत् ।। ८८ ।।
षडंगान्यर्चयेत्पश्चाद्दग्रीशासुरदिक्षु च ।
वायव्ये मध्यभागे च सर्वदिक्षु क्रम्मत्रय ।। ८९ ।।
प्. ६५अ)
अष्टदिक्षुदलाग्रेष्वविमलास्ततः परं ।
विमलामादितोभ्यर्च्य तत उत्कर्षिणीं नृप ।। ९० ।।
ज्ञानां क्रियांतथा योगां प्रह्वीं सत्यामतः परं ।
इंशामानुग्रहे पश्चार्चयेद्वसुधायते ।। ९१ ।।
ततः प्राच्यादिभागेषु वासुदेवं श्रियं यजेत् ।
संकर्षणमथोवाणीं प्रद्युम्नं रतिमप्यथ ।। ९२ ।।
अनिरुद्धतथा शांतिं द्वितीयावरणं स्मृतं ।
केशं च नारायणं माधवं गोविंदं विष्णुमेव च ।। ९३ ।।
म्मधुसूदनमभ्यर्च्यतौ त्रिविक्रमवामनौ ।
श्रीधरं न हृषीकेशं यमनाभमतः परं ।। ९४ ।।
दामोदरं संकर्षणं वासुदेवमतःपरं ।
प्रद्युम्नमनिरुद्धं च पुरुषोत्तममप्यथ ।। ९५ ।।
अधोक्षजं नारसिंहमच्युतंवजनार्दनं ।
उपेंद्रं च हरिं पश्चाच्छरी कृष्णं चक्रमाघनेत् ।। ९६ ।।
तृतीयायरणं पश्चान्मत्स्यं कूर्मं वराहकं ।
नारसिंहं वामनं च जामदग्र्यमतः परं ।। ९७ ।।
रामंदाशरथिं पश्चाद्वलराममतः परं ।
बुद्ध च कल्किमिह्येतानंवां रतारान्त्रमाद्यजेत् ।। ९८ ।।
चतुर्थाचरणं प्रोक्तं सत्यमच्युतमेव च ।
अनंतं सर्वमभ्यर्च्य विष्णर्षुनमतः परं ।। ९९ ।।
गजाननं शंखनिधिं यजेत्य प्रतिनिधिं ततः ।
पंचमावरणं प्रोक्तमृग्वेदं यजुषांगणं ।। १०० ।।
सामवेदमथर्वाणं सावित्रीं विहगेश्वरं ।
धर्मं च यज्ञपुरुषं षष्ठांवरणमीरितं ।। १ ।।
शंखं चक्रं गदां पद्मं खड्गं शार्ङ्हलं तथा ।
मुशलं ससमं प्रोक्तं हेवस्यावरणं शुभं ।। २ ।।
शधीमहेंद्रौस्वाहाग्री तथा संहारिणी यमौ ।
तामसीनिसृतीययश्चभार्गवीवरूणौ तथा ।। ३ ।।
गतिवायुचं स पतिकुवेणै च ततः परं ।
रुद्राणीशंकरौपश्चादुर्द्ध्वे वाक्चतुराननौ ।। ४ ।।
लक्ष्मीनारायणैश्च पश्चादष्टमावरणं स्मृतं ।
वज्रायुधं शक्तिदडौखड्गंयाशंध्वंजंगदां ।। ५ ।।
त्रिशूलमंवुजं चक्रं नवमावरणं स्मृतं ।
ध्यान्मरुहुणाश्चैव विश्वेदेवानतः परं ।। ६ ।।
योगिनः सनकाद्यांश्च देवषीन्नारदादिकान् ।
कपिलादि महासिद्धां नृतात्रेयादियोगिना ।। ७ ।।
प्रह्रादादि महाभक्तानांज्जनेयादि किं करान् ।
ज्ञानिनोजनकाद्याश्चनृयाक्षशरथादिकान् ।। ८ ।।
अर्चयित्वायनः श्रीशब्रह्मविद्यां समुच्चरन् ।
अर्कावृत्या समभ्यर्च्य लक्ष्मीनारायणौ विभू ।। ९ ।।
उपचारान्धूपदीपनैवेधादीन्समर्पयत् ।
तत आचार्यमुद्दिश्य भगवत्सत्रिधौ नृप ।। १० ।।
प्. ६५ब्)
यत्किंचिदपि वा देयं सुवर्णंरतंतं तु वा ।
ताम्रं धान्यं घृतं वापि प्रसहंश्चेय इच्छता ।। १११ ।।
यद्वा संल्पितं चितेदीतव्यंमासिनासिव ।
अवंध्यं दिवसं कुर्यादन्यथा पापभुग्भवेत् ।। ११२ ।।
पूजाविधानमेतते सम्पङ्नह उदीरितं ।
महापातकसंद्यौद्यनाशनं भुक्तिमुक्तिद ।। १३ ।।
अशक्तः प्रसहं कर्तुं कुर्याद्भार्गववासरे ।
मासिमास्यथा वा कुर्यात् प्रथमेभागर्वदिने ।। १४ ।।
नवरात्रव्रतेवश्यं कुर्यात् ब्रह्महमर्चनं ।
अलभ्ययोमेगेषु सदाकर्तव्यं पूजनं नृप ।। १५ ।।
तंपालयति लक्ष्मीशः प्रसहं पुत्रवत्संदाः ।
इत्थमर्च्यतः पुंसः श्रेयो राशिर्दिनेदिने ।। १६ ।।
सिध्यंति संपदः सर्वभोगा अपि सुदर्लभाः ।
इत्थं श्रीश्रीशयजनं महान्याग उदाहृतः ।। १७ ।।
राजसूयोश्च मेधो वानै तेन सदृशो भवेत् ।
न्यूनातिरिक्त संपूत्यै यागसाफल्यसिद्धये ।। १८ ।।
आचार्यदीक्षिणादद्याद्वितलोभ विवर्जितः ।
आचार्यदक्षिणाहीनं यद्दिनं वसुधापते ।। १९ ।।
यमहृतैर्यमेनापितत्र दृष्टो भवत्यसौ ।
यमभीतिहं पुंसां भोगखर्गायवर्गर्द ।। २० ।।
आचार्यदक्षिणादानं प्रत्यहं वसुधापते ।
लक्ष्मीनारायणैनित्यमित्थमर्चतोनृपे ।। २१ ।।
सिध्यंति सिद्धयः सर्वास्त्रिदशैरपि दुर्लभाः ।
पूजाविधानमेतते प्रोक्तं जनकभूयज ।। २२ ।।
वेदाध्यनसुक्तस्य सदाचारवतीन्वहं ।
श्रीमदष्टाक्षरीविद्या जयासक्तस्य संततं ।। २३ ।।
अनेन विधिना पुजा कर्तुरन्वहीमादरात् ।
समस्ताभीशितं तस्या सिध्यपि सुदुर्लर्भ ।। २४ ।।
अनुतरब्रह्मतत्वरहस्ये श्रुतिसंग्रहे ।
इति दाशरथीयेत्रविंशोध्याय उदीरितः ।। १२५ ।।
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीयेतंत्रे विंशोध्यायः समाप्तः ।।</poem>
7kh2mahs152xbaysak3024wleynbjfu
दाशरथीयतन्त्रम्/अध्यायः २१
0
163647
409276
2025-06-27T05:27:22Z
Shubha
190
{{header | title = [[../]] | author = | translator = | section = अध्यायः २१ | previous = [[../अध्यायः २०|अध्यायः २०]] | next = [[../अध्यायः २२|अध्यायः २२]] | notes = }} <poem> प्. ६५ब्) श्रीरामाय नमः त्रषय ऊचुः ऋष्य शृंग म... नवीन पृष्ठं निर्मीत अस्ती
409276
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः २१
| previous = [[../अध्यायः २०|अध्यायः २०]]
| next = [[../अध्यायः २२|अध्यायः २२]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ६५ब्)
श्रीरामाय नमः
त्रषय ऊचुः
ऋष्य शृंग महाभागभगवन्योगिनांवरं |
वेदोदितं सदाचारं मन्वाद्यैरप्युदीरितं || १ ||
श्लत्वन्मुखाच्छ्येतु मिच्छायः परं कौतूहलं हिनः |
यथाश्रियथतिस्तुषो भक्तानां सतं भवेत् || २ ||
यथाचित्स्युशुद्धिः स्याद्यथा शुद्धं कलेवरं |
श्रीमदष्टाक्षरी विद्यारश्मिमालासमन्विता || ३ ||
यथानायासतः सिध्येतत्यंरं कहिनो मुने |
श्रीक्रथ शृंप्र उवाच
पुरा भगवता प्रोकं रुद्राय परिपृच्छते || ४ ||
प्. ६६अ)
जानकीपतिना श्रौतं सदाचारं वदाम्यहं |
साध्य नारायणे नादावुक्तं राज्ञे महात्मने || ५ ||
पुनर्दाशरथिः प्राहशंभवे जानकीपतिः |
ब्रह्मचर्यं वगाहम्स्थ्यं वनवासश्चतिक्षुता || ६ ||
चत्वार आश्रमाराते द्विजातीनां नहामते |
श्रीमदष्टाक्षरीविद्या समस्ताश्रमिणामपि || ७ ||
जप्त्वाभीशित संसिद्धिं हृद्यान्मुक्ति च शाश्वतीं |
सदाचारवतानित्यं समस्तन्याससंयुता || ८ ||
श्रीमदष्टाक्षरीविद्या दद्यान्सिद्धिं च दुर्लभां |
संक्षेयाददित्तं पूर्वं सदाचारं महामते || ९ ||
पुनर्विशेषतो वक्ष्ये सावधानमुनाः शृणु |
श्रीभगवानुवाच
शृणु राजन्प्रवक्ष्यामि सदाचारं महामते || १० ||
यच्छ्रुत्वापि नरोधीमान्नाज्ञानतिमिरविशेत् |
ब्राह्मणाक्षतियावैश्यास्त्रयोवर्णाद्विजाः स्मृता || ११ ||
प्रथमं मातृंतोजन्मद्वितीयंवोयनापुनात् |
येषां क्रियाभिषेकादि श्मशानांता च वैहिकी || १२ ||
आदधीत सुधीर्गर्भमृर्तोमूलयर्मांस्मजं |
तस्यंदनात्याक्युं सवनं सीमंतीन्नयनं ततः || १३ ||
मासिषष्टोष्टमेवापिजातेथो जातकर्म च |
नामह्येकादशेगेहाञ्चतुर्थेमासिनिक्षमः || १४ ||
मासेन्न प्राशनं षष्टे ऋगद्वेवा यथाकुलं |
शममेनी व्रजत्येव वीजगर्भजमेव च || १५ ||
स्त्रीणामेताः क्रियास्तूष्णीपाणिग्राहस्तु मंत्रवान् |
सममेवाष्टमे देवा सावित्रीं ब्राह्मणोहंति || १६ ||
नृपुस्त्वैकादशेवैरयोद्वादशेवायथाकुलं |
ब्रह्मतेजोभिवृध्यर्थं विप्रोब्देयं वमेर्हति || १७ ||
षष्टेवलाथीनृप्रतिमौंजीवैश्योःष्टमेधिये |
महाव्याहृति पूर्वचिवेदमध्याययेद्गुरुः || १८ ||
उपनीय ततः शिष्यं शौचरि च शिक्षयेत् |
धूर्वोक्तविधिना शौचं कुर्यादा च मनसदा || १९ ||
दंतान् जिह्वां स विशोध्यत्वामत विशोधनं |
स्रात्वांवुदेतैर्मंत्रैः प्राणानायम्ययस्रतः || २० ||
उपस्थानं स्वेः कृत्वा संध्ययोहभयोरपि |
अग्निकार्ये ततः कृत्वा श्रीमददष्टाक्षरीरतः || २२ ||
आचार्यमभिवाद्याथविप्राग्र्यांश्चाभिवादयेत् |
वुवश्चसावहमितिस्वुपाप्तीत ततो गुरुं || २३ ||
अभिवादनशीलस्य वृद्धसेवारतस्य च |
आपुर्वलं यशोकृद्धिर्वर्द्धेतहेरहर्निशं || २४ ||
प्. ६६ब्)
अधीते गुरुणाह्रतः प्रात्यं तस्मै निवेदयेत् |
कर्मणामनसावाचाहितंतस्यत्वरेत् सदा || २५ ||
उध्याप्याधर्मतोन्वथंत्साध्वात्यज्ञानवतथा |
शक्ता कृतज्ञाःश्चचयोद्रीहिकल्यानसूयकाः || २६ ||
कुर्वंतः सदुसेराज्ञां पालनं धर्ममासुयुः |
श्रीमदःष्टाक्षरीं सांगां ज्ञातुंजसु च संततं || २७ ||
आश्रयेहह्यचर्येपि ब्राह्मणोमुक्तिसिद्धये |
वेदीध्ययनसिध्यर्थं प्रात्ययेष्टाक्षरस्थ च || २८ ||
आश्रयेत् सहृरूंधीमान् गुरुद्वयमथापि वा |
धारयेन्मेखिलादंडेय वीलाजिनमेव च || २९ ||
अनिद्येषु चरेवैक्ष्यं ब्राह्मणेधालवृतये |
ब्राह्मणक्षत्रियविशामादिमध्यावसा ततः || ३० ||
भैक्ष्यचर्याक्रमेणस्थाभ्दृवछह्वोपलक्षिता |
वाग्यतो गुर्वनुज्ञातीभुंजीतान्नमकुत्सयन् || ३१ ||
एकान्नं न समश्रीयाच्छाद्धेष्णीया तथा यदि |
अनायुरोग्यमनायुष्यमसुर्ग्यं चाति भोजनं || ३२ ||
अपुरायं लोकविद्विष्टं तस्मातत्परिवर्जर्यत् |
न द्विर्भुजीतचैकस्मिन् दिवाक्वापि द्विजोत्तमः || ३३ ||
सायं प्रातद्विजीष्णीयादग्रहोत्र विधानवत् |
मधुमांसं प्राणिहिंसांभास्करालोकंनांजमे || ३४ ||
स्त्रियं ययुषितीच्छीष्टं वस्विदेववज्जेयेत् |
औपनायनिकःकासो ब्रह्मक्षत्रविशांपरः || ३५ ||
आषोडशात् द्वार्विशादा चतुर्विंशतिदब्दतः |
इतोथ्यूर्वेन संस्कार्याः पतिताधर्मवर्जिताः || ३६ ||
ब्राह्मर्स्तामेन यज्ञेन तत्पति संपरिसजेत् |
सावित्रीयतितैः सार्धं संसार्गंनि समावरेत् || ३७ ||
वैणं च रौरवं चास्तं क्रमाच्चर्मद्विजन्मनां |
उपवीतं क्रमेणस्यात्कार्यासंशाणमाविकं || ३८ ||
त्रिवृद्वर्ध्रुव्रतं तच्च भवत्यायुर्विवृद्धये |
विल्वयालाशयोर्द्वंगे ब्राह्मणस्थनृयस्थतुं || ३९ ||
न्यग्रेध वालदलयोवांदरोदुंवरौविशः |
आमौलित्वाललाटं वा नासिकोद्धे प्रमाणतः || ४० ||
ब्राह्मक्षत्रविशादं श्रुत्वगाव्यीनाग्निभूषितः |
प्रदक्षिणं परीसाग्निमुयस्यापदिवाकदं || ४१ ||
देहाजिनीपवीताक्य श्लोद्भक्षं यथोहितं
मातृमातृद्यसूपितृपितृष्णसृपुरस्मराः || ४२ ||
प्रथमं भिक्षणीयाः स्युर्वंधुनार्थस्ततःपरं |
औपनाद्य निकेकालेततो विप्राग्र्यमंदिर || ४३ ||
भिक्षचर्यं चरेद्धीमाननिधेवसुधापते |
यावद्वेदमधीतेसौचरेद्वेदतानित्र || ४४ ||
प्. ६७अ)
ब्रह्मचारी भवेता वहूर्द्ध्वं स्नानोगृही भवेत् |
उपकुर्वन् गुरोर्नित्यं तदक्तेषु नैष्टिकः || ४५ ||
तिष्णेतावद्वरुकुले यावत्स्याहायुषःक्षयः |
गृहाश्रमं समाश्रिसयः पुनर्ब्रह्मचर्यभाक् || ४६ ||
नासौयतिवं नस्थौवास्यात् सर्वाश्रमवर्जितः |
अनाश्रमी न तिष्ठेत दिनमेकमपिद्विजः || ४७ ||
आश्रमं तु विनातिष्ठन्प्रायश्चित्तीयते हिस्यः |
जयं हीमं व्रतंदानं स्वाध्यायं पितृर्यणं || ४८ ||
विनाश्रमं प्रकुर्वाणो नासौ तत्फलमश्रूते |
मेखलाजिनदंडाश्चलिंगं स्याद्ब्रह्मचारिणः || ४९ ||
गृहिणो वेदयल्ल्याद्दिनखरोमविहीनता |
त्रिदंडादियतेरुक्तमुपलक्षणमत्रवै || ५० ||
एतल्लक्षणहीनस्तु प्रायऽऽचित्ती दिने दिने |
जीर्णं कमंडलं दंडमयवीतादिने अपि || ५१ ||
अश्रुचैतानि निक्षिप्य गृह्णीयान्य च मंत्रवत् |
विदृध्यास्षोडशेवर्षेकेशांतं कर्म चक्रमात् || ५२ ||
द्वाविंशेवा चतुर्विंशेगाहंस्थ्यस्य प्रवृतये |
तपोमज्ञ व्रतेभ्यश्च सवेस्माच्छ्रुभकर्मणः || ५३ ||
श्रुतिरेकोद्वितातीनां हेतुर्नि श्रेयस श्रियः |
वेदारंभे विसर्गेव विदद्यास्त्रणवं सदा || ५४ ||
अफलोनोंकृत्तो चस्मायस्मात्यटितीपिन सिद्धये |
वेदस्यवदनं प्रोक्तं गायत्रीन्नियद्दापरा || ५५ ||
तिसृभिः प्रणवाधाभिर्महीव्या हृतिभिस्सदाः |
सहस्रंसाधिकं किंचित्त्रिकमेतज्जयंत्यमी || ५६ ||
मासं वहिः प्रतिदिनं महीवादृपिमुच्यते |
आत्र्यव्दृमेतधोभ्यस्थे स्रुतिद्यस्त्रमनन्यधीः || ५७ ||
सव्योममूर्तिः शुद्धात्मायां ब्रह्मोधि गच्छति |
त्रिवर्णमयमोंकारं भूर्भुवः स्वामितित्रयं || ५८ ||
पदत्रयं तु गायत्र्यास्त्रयोवेदानददृहतरात् |
दक्ष्रमेताश्चजयः व्याहृति पूर्वकं पूर्वकं || ५९ ||
ध्ययोर्वेदविद्धि प्रोवेध्युरायेन युज्यते |
विःधिक्रतोर्दशगुणो जपक्रतुरुदीरित् || ६० ||
वेष्मात्जंयोवि संश्रीमदष्टासरीजयः |
अश्वमेधादियागेभ्यो द्वावुक्तावंधिकौक्रत् || ६१ ||
आचार्यदक्षिणादानं महादानशतादपि |
अधिकं प्रोक्तमाचार्यैवेदवेदांतचेद्दिभिः || ६२ ||
अधीत्यवेदान् वेदौ वा वेदं वा शक्तितो द्विजः |
संपूर्णधान्यधरणीद्दानस्यकलमश्रुते || ६३ ||
प्. ६७ब्)
श्रुतिमेवः सदाभ्यस्येतपस्तप्यन् द्विजोत्तमः |
श्रुत्यभ्यासोहि विप्रस्य परमं तप उच्यते || ६४ ||
हित्वा श्रुतेरध्ययनंयोन्यसहितुमिच्छति |
सदोग्धीं धेनुमुत्सृज्यग्रामकोडं दधुक्षति || ६५ ||
उपनीयतुयःशिथं वेदमध्याययेद्विजः |
सुकल्यं सरद्वस्यं च तमाचार्यां विदुर्वधाः || ६६ ||
भगवद्रश्मिसहितासमस्तन्यासंसयुता |
श्रीमदष्टाक्षरीसांगालभ्यतेयन्मुखांवुजात् || ६७ ||
आचार्योयं शतगुणेधिकः पूर्वगुरोरपि |
योध्याय वेदेकदेशं श्रुते रंगान्यथापि वा || ६८ ||
वृत्यर्थं सु उयाध्यायोविद्वद्भिः परिपठ्यते |
यथाविधि निषंकादियः कर्म कुरुते द्विजः || ६९ ||
संभावये तथान्येन गुरुस्स इह कीर्त्यते |
अथाधानात्याकयज्ञादग्रीयोमादिकान्मख्यात् || ७० ||
सहस्रशः पितामातागौरवेणातिरिच्यते |
पितुर्मातुरूपाध्यायाऽहरोराचार्यतोपि च || ७१ ||
भगवद्रश्मिसहितश्रीमदष्टाक्षरीप्रदः |
सहस्रशोधिकः प्रोक्त आचार्योभगवानसौ || ७२ ||
ब्रह्मनारायणीविवाहं सभारायणाभिधा |
षोडशार्णादिविद्याश्च नृसिंहानुष्टुभादयःशु || ७३ ||
शुद्धाष्टस्यर विद्यायाः कलांनांहंतषोडशीं |
स स कोरियन्नूनांवशास्त्राणामपि संतंतं || ७४ ||
चतुर्णामपि भूवेदानां पुराणनां च भूयते |
शुद्धैव श्रीमदष्टार्णा राज्ञीनातोधिकापरा || ७५ ||
श्रीमदष्टाक्षरीं विद्यां सांगां रश्मिसमन्वितां |
यः प्रयच्छति विप्रोसौ साधकाय महीयते || ७६ ||
पितुर्मातुरूपाध्याद्वरोवाचार्यतोप्यसौ |
ब्रह्मविष्णूमहेशेभ्योप्यधिकः शतशोनृप || ७७ ||
विज्ञायेत्थं सदाचार्य तत्वं गुसमपिश्रुतौ |
आचार्यचरणंभोजे भक्तस्सदा भवेत् || ७८ ||
विप्राणां ज्ञानतोत्यैत्थं वाहुत्तानां च वीर्यतः |
वैश्यानांधान्यधेनतश्चतुर्थानां तु जन्मतः || ७९ ||
यथादारूमयोहस्ती यथा च ममयोगः |
तथा विप्रोनधीयामस्त्रयोमीनामधारिणः || ८० ||
स्वकर्मनिरतांनां च वेदयज्ञाक्रियावतां |
ब्रह्मचारीवरेदैक्ष्यं वेश्यसुप्रयतीन्वहं || ८१ ||
यथेष्टचेष्टोनभवेहृदोर्नयनगोचरे |
न नाम प्रतिगृह्णीयात्परोक्षेप्यवहं न || ८२ ||
गुरुनिंदाभवेद्यत्र परिवादस्तु यत्र च |
कर्णौपिधाववास्थेयं यातव्यं वाततोन्यक्तः || ८३ ||
खरोरोःपरीवादात् श्वाभवेहुरुनिदृकः |
मत्सक्षरीक्षद्रकीरः स्याति रस्काराद्भावेत् क्रिमिः || ८४ ||
प्. ६८अ)
श्रीमदष्टाक्षराचार्यं निदां श्रुत्वापि वा सकृत् |
पुष्टिर्वष सहस्राणिवष्टासुकृमितां व्रजेत् || ८५ ||
नामिवाद्या गुरौःपत्नी स्पृष्टा स्त्रीपुवतिः सती |
कृपिविंशतिवर्षेणज्ञाणागुरुदोषयोः || ८६ ||
स्वभावश्चं वलस्त्रीदीर्षः पुंसामतः स्मृताः |
प्रमदासप्रभावंति कृचिन्नैवविपश्चितः || ८७ ||
विद्वां समप्यविद्धां संस्त्रियस्ताधर्षवत्सलं |
स्ववशं चापि कुर्वंति सूत्रवद्धशकुंतवत् || ८८ ||
नमात्रानदहित्रावानस्वस्रैकांतशीलता |
वलवंतीद्रियाण्पत्रमोहयंत्यपिकोविद || ८९ ||
गुरुशुश्रूषयानित्यं प्राणैरर्थैश्च पुष्कलैः |
विद्यासिध्यतितल्पश्चाद्ब्रह्मपश्यतिकेवलं || ९० ||
सूतस्य संभवक्लेशं सहंति पितरौचयं |
शक्त्या वर्षशतेनापिनोकर्तुत्तस्य निष्णुतिः || ९१ ||
अतस्तयोः प्रियकुर्योदाचार्यस्य वसंततं |
श्रीमदष्टाक्षरीसांगा भगवद्रश्मिसंवुता || ९२ ||
यस्य वक्त्रां वुजाल्लब्धाभोगस्वर्गोपवर्गद्री |
तस्योयकर्तं केनापि न शक्यं कल्पकोटिभिः || ९३ ||
तमवश्यं यजेद्धीमान् नारायणमिवायां |
जनकेमातरिगुणैरुषुतुष्टेषु संतत || ९४ ||
ततयः परमप्राहुब्रह्मसायुज्यसिद्धिदं |
त्रीन्युस्समतिक्रम्य त्रिकल्पं नियतत्यथ || ९५ ||
त्रीनेवासून्समाराध्यत्रोल्फ्रौकात्सजयेत्सुधी |
पीतामाता च वेद्दानायुयदेष्टा ततः परं || ९६ ||
श्रीमदष्टाक्षरीदाता चतुर्थोगुरुरुच्यते |
चतुर्वर्गफलं प्रोक्तं चतुर्गुरुसमर्चनात् || ९७ ||
पितरं मातरं वापि त्यजेद्वेदगुरुतपि |
ब्रह्मविद्याप्रदाचार्यं प्राणांतेपिनः संत्यजेत् || ९८ ||
एकैकापि महाविद्याय सवत्रे लभ्यते |
तंप्तक्तानरकेघोरेतिष्ठसाचंद्रतारकं || ९९ ||
रश्मिमालाप्रदाचार्य सागे वक्तुं न शक्यते |
सर्वा अपि मक्षविद्या यत्रा तिष्ठंति सिद्धिदः || १०० ||
तस्माद्भगवतो रश्मिविद्यादातागुरुर्महान् |
स एव साक्षाद्भागवान्भोगस्वर्गायवर्गदः || १ ||
नंतसतेच्चप्राणांतसरावकुलदैवतं |
रश्मिविद्याप्रदावार्योस्वसमीपस्थिते परं || २ ||
तंहात्कायोर्चयेदर्थैराकल्पं नरके वसेत् |
रत्नजातैस्सूवह्निभिस्मतोष्याचार्यमन्वहं || ३ ||
अपि ब्रह्मविदेन्यस्मैददानुनददातु वा |
निर्वाणार्यप्रक्तोयं सदाचारश्चधीमतां || ४ ||
प्. ६८ब्)
सदाचारो गृहे यद्वन्मतथास्त्याश्रमांतरे |
विद्याजातंयवित्वा तु गृहाश्रममथाश्रयेत् || ५ ||
गृहाश्रमात्य इं नास्ति यदियत्नोवशंवहा |
आत्रुकूल्यं हिदंयत्योस्त्रिवर्गफलहेतवे || ६ ||
अनुकूलं कलन्नं चेत्त्रिदिवेनहि किं ततः |
प्रतिकूलं कलत्रेचेन्नस्केणहि किं सततः || ७ ||
गहाश्रमः सुखार्थाय भार्ग्या मूलं हि तत्सुखं |
स्वभार्यायं विनीतायां त्रिवर्गोवर्द्धते ध्रुवं च || ८ ||
तलौकयोयमीयंते प्रमदामंदबुद्धिभिः |
जलौकाकेवलं रक्तमाददानाममस्विनी || ९ ||
प्रगोहशांजलौकानां विचारान्महदंतरं |
प्रमदा सर्वंमादते चित्तं वित्तंवलं सुखं || १० ||
दक्षीप्रजावती साक्षास्त्रियवाक्यवशंवदो |
गुर्णेरमीभिस्संयुक्ताज्ञास्त्रीःह्रायनां
विचारान्महदंतरप्रयदासर्षमादतेचितंविलंवलं सुखः श्रीरूपधीरीणी ||
१११ ||
गुरोरनुज्ञया स्रात्वाव्रर्तवेहं समाप्य च |
उद्वहेन ततो भार्यां सवर्णे साहुलक्षणं || १२ ||
रोगहीनाप्राप्तमतीं खस्मात् किं विष्णधीयसीं |
उद्वहेतद्विजोभार्यांम्यास्यां मृदुभाषिणीं || १३ ||
लक्षणानि परोक्ष्यादौ ततः कन्या समुद्वहेत् |
सुलक्षणमुचारित्राय सुरायुर्विवर्द्धयेत् || १४ ||
सुलक्षणापिदुःशीलाकुलक्षणशिरोमणीः |
कुलक्षणापियासाध्वी सर्वलक्षणयूसुसा || १५ ||
सुलक्षणा सुचारि आस्वाधीनायति देवता |
लक्ष्मीशानुग्रहादेव गृहेयोपि दषवाप्यते || १६ ||
अलंकृताह् सुवासिन्योधाभिः प्राक्तनजन्मनि |
नानाविधैरलंकारैस्सुरूयास्ताभवंतिहि || १७ ||
सुतीर्थेषु वयुर्यामिः क्षालितं त्याजितंलुवा
तालावरायतरंगिरायो भवंति हि सुलक्षणः || १८ ||
अर्चिताजगतांमाःतापाभिः शिववधूरिह |
नारायणप्रियाश्रीर्वाशचीवाशक्रवल्लभा || १९ ||
ताभवंति सुचारित्रायोषाअः स्वाधीनभर्तृकाः |
स्वाधीनयतिकानांचसुशीलानामृगीदशां || २० ||
स्वर्गां यवर्गावत्रैव सुलक्षणफलं हि तत् |
सुलक्षणैः स्मचारित्रैरपि मंदोयुषंपतिं || २१ ||
दीपोयुषं प्रकुर्वंति प्रमदाह्यं यदास्यद |
आचार्यपत्नीश्रीवुध्यावासोलंकरणादिभिः || २२ ||
प्. ६९अ)
प्राग्जन्मन्यर्चिताशिष्यैस्तसत्रीभिरेववा |
ते सर्वभाग्यसहिताः कंदर्पसदृशप्रभाः || २३ ||
पुत्रपौत्रादिसहिताराज्ञराजसमाश्रियः |
अनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये श्रुतिसंग्रहे || ||
अध्याय एकविंशोयं तंत्रे दाशरथीरिते || १२४ ||
इति श्रीमदनुतरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीये तंत्रे वेदार्थसंग्रहे
एकविंशोध्यायः ||</poem>
brcolzb8zxr7kwgknjha1blx35p8kcd
409277
409276
2025-06-27T05:28:12Z
Shubha
190
409277
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः २१
| previous = [[../अध्यायः २०|अध्यायः २०]]
| next = [[../अध्यायः २२|अध्यायः २२]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ६५ब्)
श्रीरामाय नमः
त्रषय ऊचुः
ऋष्य शृंग महाभागभगवन्योगिनांवरं ।
वेदोदितं सदाचारं मन्वाद्यैरप्युदीरितं ।। १ ।।
श्लत्वन्मुखाच्छ्येतु मिच्छायः परं कौतूहलं हिनः ।
यथाश्रियथतिस्तुषो भक्तानां सतं भवेत् ।। २ ।।
यथाचित्स्युशुद्धिः स्याद्यथा शुद्धं कलेवरं ।
श्रीमदष्टाक्षरी विद्यारश्मिमालासमन्विता ।। ३ ।।
यथानायासतः सिध्येतत्यंरं कहिनो मुने ।
श्रीक्रथ शृंप्र उवाच
पुरा भगवता प्रोकं रुद्राय परिपृच्छते ।। ४ ।।
प्. ६६अ)
जानकीपतिना श्रौतं सदाचारं वदाम्यहं ।
साध्य नारायणे नादावुक्तं राज्ञे महात्मने ।। ५ ।।
पुनर्दाशरथिः प्राहशंभवे जानकीपतिः ।
ब्रह्मचर्यं वगाहम्स्थ्यं वनवासश्चतिक्षुता ।। ६ ।।
चत्वार आश्रमाराते द्विजातीनां नहामते ।
श्रीमदष्टाक्षरीविद्या समस्ताश्रमिणामपि ।। ७ ।।
जप्त्वाभीशित संसिद्धिं हृद्यान्मुक्ति च शाश्वतीं ।
सदाचारवतानित्यं समस्तन्याससंयुता ।। ८ ।।
श्रीमदष्टाक्षरीविद्या दद्यान्सिद्धिं च दुर्लभां ।
संक्षेयाददित्तं पूर्वं सदाचारं महामते ।। ९ ।।
पुनर्विशेषतो वक्ष्ये सावधानमुनाः शृणु ।
श्रीभगवानुवाच
शृणु राजन्प्रवक्ष्यामि सदाचारं महामते ।। १० ।।
यच्छ्रुत्वापि नरोधीमान्नाज्ञानतिमिरविशेत् ।
ब्राह्मणाक्षतियावैश्यास्त्रयोवर्णाद्विजाः स्मृता ।। ११ ।।
प्रथमं मातृंतोजन्मद्वितीयंवोयनापुनात् ।
येषां क्रियाभिषेकादि श्मशानांता च वैहिकी ।। १२ ।।
आदधीत सुधीर्गर्भमृर्तोमूलयर्मांस्मजं ।
तस्यंदनात्याक्युं सवनं सीमंतीन्नयनं ततः ।। १३ ।।
मासिषष्टोष्टमेवापिजातेथो जातकर्म च ।
नामह्येकादशेगेहाञ्चतुर्थेमासिनिक्षमः ।। १४ ।।
मासेन्न प्राशनं षष्टे ऋगद्वेवा यथाकुलं ।
शममेनी व्रजत्येव वीजगर्भजमेव च ।। १५ ।।
स्त्रीणामेताः क्रियास्तूष्णीपाणिग्राहस्तु मंत्रवान् ।
सममेवाष्टमे देवा सावित्रीं ब्राह्मणोहंति ।। १६ ।।
नृपुस्त्वैकादशेवैरयोद्वादशेवायथाकुलं ।
ब्रह्मतेजोभिवृध्यर्थं विप्रोब्देयं वमेर्हति ।। १७ ।।
षष्टेवलाथीनृप्रतिमौंजीवैश्योःष्टमेधिये ।
महाव्याहृति पूर्वचिवेदमध्याययेद्गुरुः ।। १८ ।।
उपनीय ततः शिष्यं शौचरि च शिक्षयेत् ।
धूर्वोक्तविधिना शौचं कुर्यादा च मनसदा ।। १९ ।।
दंतान् जिह्वां स विशोध्यत्वामत विशोधनं ।
स्रात्वांवुदेतैर्मंत्रैः प्राणानायम्ययस्रतः ।। २० ।।
उपस्थानं स्वेः कृत्वा संध्ययोहभयोरपि ।
अग्निकार्ये ततः कृत्वा श्रीमददष्टाक्षरीरतः ।। २२ ।।
आचार्यमभिवाद्याथविप्राग्र्यांश्चाभिवादयेत् ।
वुवश्चसावहमितिस्वुपाप्तीत ततो गुरुं ।। २३ ।।
अभिवादनशीलस्य वृद्धसेवारतस्य च ।
आपुर्वलं यशोकृद्धिर्वर्द्धेतहेरहर्निशं ।। २४ ।।
प्. ६६ब्)
अधीते गुरुणाह्रतः प्रात्यं तस्मै निवेदयेत् ।
कर्मणामनसावाचाहितंतस्यत्वरेत् सदा ।। २५ ।।
उध्याप्याधर्मतोन्वथंत्साध्वात्यज्ञानवतथा ।
शक्ता कृतज्ञाःश्चचयोद्रीहिकल्यानसूयकाः ।। २६ ।।
कुर्वंतः सदुसेराज्ञां पालनं धर्ममासुयुः ।
श्रीमदःष्टाक्षरीं सांगां ज्ञातुंजसु च संततं ।। २७ ।।
आश्रयेहह्यचर्येपि ब्राह्मणोमुक्तिसिद्धये ।
वेदीध्ययनसिध्यर्थं प्रात्ययेष्टाक्षरस्थ च ।। २८ ।।
आश्रयेत् सहृरूंधीमान् गुरुद्वयमथापि वा ।
धारयेन्मेखिलादंडेय वीलाजिनमेव च ।। २९ ।।
अनिद्येषु चरेवैक्ष्यं ब्राह्मणेधालवृतये ।
ब्राह्मणक्षत्रियविशामादिमध्यावसा ततः ।। ३० ।।
भैक्ष्यचर्याक्रमेणस्थाभ्दृवछह्वोपलक्षिता ।
वाग्यतो गुर्वनुज्ञातीभुंजीतान्नमकुत्सयन् ।। ३१ ।।
एकान्नं न समश्रीयाच्छाद्धेष्णीया तथा यदि ।
अनायुरोग्यमनायुष्यमसुर्ग्यं चाति भोजनं ।। ३२ ।।
अपुरायं लोकविद्विष्टं तस्मातत्परिवर्जर्यत् ।
न द्विर्भुजीतचैकस्मिन् दिवाक्वापि द्विजोत्तमः ।। ३३ ।।
सायं प्रातद्विजीष्णीयादग्रहोत्र विधानवत् ।
मधुमांसं प्राणिहिंसांभास्करालोकंनांजमे ।। ३४ ।।
स्त्रियं ययुषितीच्छीष्टं वस्विदेववज्जेयेत् ।
औपनायनिकःकासो ब्रह्मक्षत्रविशांपरः ।। ३५ ।।
आषोडशात् द्वार्विशादा चतुर्विंशतिदब्दतः ।
इतोथ्यूर्वेन संस्कार्याः पतिताधर्मवर्जिताः ।। ३६ ।।
ब्राह्मर्स्तामेन यज्ञेन तत्पति संपरिसजेत् ।
सावित्रीयतितैः सार्धं संसार्गंनि समावरेत् ।। ३७ ।।
वैणं च रौरवं चास्तं क्रमाच्चर्मद्विजन्मनां ।
उपवीतं क्रमेणस्यात्कार्यासंशाणमाविकं ।। ३८ ।।
त्रिवृद्वर्ध्रुव्रतं तच्च भवत्यायुर्विवृद्धये ।
विल्वयालाशयोर्द्वंगे ब्राह्मणस्थनृयस्थतुं ।। ३९ ।।
न्यग्रेध वालदलयोवांदरोदुंवरौविशः ।
आमौलित्वाललाटं वा नासिकोद्धे प्रमाणतः ।। ४० ।।
ब्राह्मक्षत्रविशादं श्रुत्वगाव्यीनाग्निभूषितः ।
प्रदक्षिणं परीसाग्निमुयस्यापदिवाकदं ।। ४१ ।।
देहाजिनीपवीताक्य श्लोद्भक्षं यथोहितं
मातृमातृद्यसूपितृपितृष्णसृपुरस्मराः ।। ४२ ।।
प्रथमं भिक्षणीयाः स्युर्वंधुनार्थस्ततःपरं ।
औपनाद्य निकेकालेततो विप्राग्र्यमंदिर ।। ४३ ।।
भिक्षचर्यं चरेद्धीमाननिधेवसुधापते ।
यावद्वेदमधीतेसौचरेद्वेदतानित्र ।। ४४ ।।
प्. ६७अ)
ब्रह्मचारी भवेता वहूर्द्ध्वं स्नानोगृही भवेत् ।
उपकुर्वन् गुरोर्नित्यं तदक्तेषु नैष्टिकः ।। ४५ ।।
तिष्णेतावद्वरुकुले यावत्स्याहायुषःक्षयः ।
गृहाश्रमं समाश्रिसयः पुनर्ब्रह्मचर्यभाक् ।। ४६ ।।
नासौयतिवं नस्थौवास्यात् सर्वाश्रमवर्जितः ।
अनाश्रमी न तिष्ठेत दिनमेकमपिद्विजः ।। ४७ ।।
आश्रमं तु विनातिष्ठन्प्रायश्चित्तीयते हिस्यः ।
जयं हीमं व्रतंदानं स्वाध्यायं पितृर्यणं ।। ४८ ।।
विनाश्रमं प्रकुर्वाणो नासौ तत्फलमश्रूते ।
मेखलाजिनदंडाश्चलिंगं स्याद्ब्रह्मचारिणः ।। ४९ ।।
गृहिणो वेदयल्ल्याद्दिनखरोमविहीनता ।
त्रिदंडादियतेरुक्तमुपलक्षणमत्रवै ।। ५० ।।
एतल्लक्षणहीनस्तु प्रायऽऽचित्ती दिने दिने ।
जीर्णं कमंडलं दंडमयवीतादिने अपि ।। ५१ ।।
अश्रुचैतानि निक्षिप्य गृह्णीयान्य च मंत्रवत् ।
विदृध्यास्षोडशेवर्षेकेशांतं कर्म चक्रमात् ।। ५२ ।।
द्वाविंशेवा चतुर्विंशेगाहंस्थ्यस्य प्रवृतये ।
तपोमज्ञ व्रतेभ्यश्च सवेस्माच्छ्रुभकर्मणः ।। ५३ ।।
श्रुतिरेकोद्वितातीनां हेतुर्नि श्रेयस श्रियः ।
वेदारंभे विसर्गेव विदद्यास्त्रणवं सदा ।। ५४ ।।
अफलोनोंकृत्तो चस्मायस्मात्यटितीपिन सिद्धये ।
वेदस्यवदनं प्रोक्तं गायत्रीन्नियद्दापरा ।। ५५ ।।
तिसृभिः प्रणवाधाभिर्महीव्या हृतिभिस्सदाः ।
सहस्रंसाधिकं किंचित्त्रिकमेतज्जयंत्यमी ।। ५६ ।।
मासं वहिः प्रतिदिनं महीवादृपिमुच्यते ।
आत्र्यव्दृमेतधोभ्यस्थे स्रुतिद्यस्त्रमनन्यधीः ।। ५७ ।।
सव्योममूर्तिः शुद्धात्मायां ब्रह्मोधि गच्छति ।
त्रिवर्णमयमोंकारं भूर्भुवः स्वामितित्रयं ।। ५८ ।।
पदत्रयं तु गायत्र्यास्त्रयोवेदानददृहतरात् ।
दक्ष्रमेताश्चजयः व्याहृति पूर्वकं पूर्वकं ।। ५९ ।।
ध्ययोर्वेदविद्धि प्रोवेध्युरायेन युज्यते ।
विःधिक्रतोर्दशगुणो जपक्रतुरुदीरित् ।। ६० ।।
वेष्मात्जंयोवि संश्रीमदष्टासरीजयः ।
अश्वमेधादियागेभ्यो द्वावुक्तावंधिकौक्रत् ।। ६१ ।।
आचार्यदक्षिणादानं महादानशतादपि ।
अधिकं प्रोक्तमाचार्यैवेदवेदांतचेद्दिभिः ।। ६२ ।।
अधीत्यवेदान् वेदौ वा वेदं वा शक्तितो द्विजः ।
संपूर्णधान्यधरणीद्दानस्यकलमश्रुते ।। ६३ ।।
प्. ६७ब्)
श्रुतिमेवः सदाभ्यस्येतपस्तप्यन् द्विजोत्तमः ।
श्रुत्यभ्यासोहि विप्रस्य परमं तप उच्यते ।। ६४ ।।
हित्वा श्रुतेरध्ययनंयोन्यसहितुमिच्छति ।
सदोग्धीं धेनुमुत्सृज्यग्रामकोडं दधुक्षति ।। ६५ ।।
उपनीयतुयःशिथं वेदमध्याययेद्विजः ।
सुकल्यं सरद्वस्यं च तमाचार्यां विदुर्वधाः ।। ६६ ।।
भगवद्रश्मिसहितासमस्तन्यासंसयुता ।
श्रीमदष्टाक्षरीसांगालभ्यतेयन्मुखांवुजात् ।। ६७ ।।
आचार्योयं शतगुणेधिकः पूर्वगुरोरपि ।
योध्याय वेदेकदेशं श्रुते रंगान्यथापि वा ।। ६८ ।।
वृत्यर्थं सु उयाध्यायोविद्वद्भिः परिपठ्यते ।
यथाविधि निषंकादियः कर्म कुरुते द्विजः ।। ६९ ।।
संभावये तथान्येन गुरुस्स इह कीर्त्यते ।
अथाधानात्याकयज्ञादग्रीयोमादिकान्मख्यात् ।। ७० ।।
सहस्रशः पितामातागौरवेणातिरिच्यते ।
पितुर्मातुरूपाध्यायाऽहरोराचार्यतोपि च ।। ७१ ।।
भगवद्रश्मिसहितश्रीमदष्टाक्षरीप्रदः ।
सहस्रशोधिकः प्रोक्त आचार्योभगवानसौ ।। ७२ ।।
ब्रह्मनारायणीविवाहं सभारायणाभिधा ।
षोडशार्णादिविद्याश्च नृसिंहानुष्टुभादयःशु ।। ७३ ।।
शुद्धाष्टस्यर विद्यायाः कलांनांहंतषोडशीं ।
स स कोरियन्नूनांवशास्त्राणामपि संतंतं ।। ७४ ।।
चतुर्णामपि भूवेदानां पुराणनां च भूयते ।
शुद्धैव श्रीमदष्टार्णा राज्ञीनातोधिकापरा ।। ७५ ।।
श्रीमदष्टाक्षरीं विद्यां सांगां रश्मिसमन्वितां ।
यः प्रयच्छति विप्रोसौ साधकाय महीयते ।। ७६ ।।
पितुर्मातुरूपाध्याद्वरोवाचार्यतोप्यसौ ।
ब्रह्मविष्णूमहेशेभ्योप्यधिकः शतशोनृप ।। ७७ ।।
विज्ञायेत्थं सदाचार्य तत्वं गुसमपिश्रुतौ ।
आचार्यचरणंभोजे भक्तस्सदा भवेत् ।। ७८ ।।
विप्राणां ज्ञानतोत्यैत्थं वाहुत्तानां च वीर्यतः ।
वैश्यानांधान्यधेनतश्चतुर्थानां तु जन्मतः ।। ७९ ।।
यथादारूमयोहस्ती यथा च ममयोगः ।
तथा विप्रोनधीयामस्त्रयोमीनामधारिणः ।। ८० ।।
स्वकर्मनिरतांनां च वेदयज्ञाक्रियावतां ।
ब्रह्मचारीवरेदैक्ष्यं वेश्यसुप्रयतीन्वहं ।। ८१ ।।
यथेष्टचेष्टोनभवेहृदोर्नयनगोचरे ।
न नाम प्रतिगृह्णीयात्परोक्षेप्यवहं न ।। ८२ ।।
गुरुनिंदाभवेद्यत्र परिवादस्तु यत्र च ।
कर्णौपिधाववास्थेयं यातव्यं वाततोन्यक्तः ।। ८३ ।।
खरोरोःपरीवादात् श्वाभवेहुरुनिदृकः ।
मत्सक्षरीक्षद्रकीरः स्याति रस्काराद्भावेत् क्रिमिः ।। ८४ ।।
प्. ६८अ)
श्रीमदष्टाक्षराचार्यं निदां श्रुत्वापि वा सकृत् ।
पुष्टिर्वष सहस्राणिवष्टासुकृमितां व्रजेत् ।। ८५ ।।
नामिवाद्या गुरौःपत्नी स्पृष्टा स्त्रीपुवतिः सती ।
कृपिविंशतिवर्षेणज्ञाणागुरुदोषयोः ।। ८६ ।।
स्वभावश्चं वलस्त्रीदीर्षः पुंसामतः स्मृताः ।
प्रमदासप्रभावंति कृचिन्नैवविपश्चितः ।। ८७ ।।
विद्वां समप्यविद्धां संस्त्रियस्ताधर्षवत्सलं ।
स्ववशं चापि कुर्वंति सूत्रवद्धशकुंतवत् ।। ८८ ।।
नमात्रानदहित्रावानस्वस्रैकांतशीलता ।
वलवंतीद्रियाण्पत्रमोहयंत्यपिकोविद ।। ८९ ।।
गुरुशुश्रूषयानित्यं प्राणैरर्थैश्च पुष्कलैः ।
विद्यासिध्यतितल्पश्चाद्ब्रह्मपश्यतिकेवलं ।। ९० ।।
सूतस्य संभवक्लेशं सहंति पितरौचयं ।
शक्त्या वर्षशतेनापिनोकर्तुत्तस्य निष्णुतिः ।। ९१ ।।
अतस्तयोः प्रियकुर्योदाचार्यस्य वसंततं ।
श्रीमदष्टाक्षरीसांगा भगवद्रश्मिसंवुता ।। ९२ ।।
यस्य वक्त्रां वुजाल्लब्धाभोगस्वर्गोपवर्गद्री ।
तस्योयकर्तं केनापि न शक्यं कल्पकोटिभिः ।। ९३ ।।
तमवश्यं यजेद्धीमान् नारायणमिवायां ।
जनकेमातरिगुणैरुषुतुष्टेषु संतत ।। ९४ ।।
ततयः परमप्राहुब्रह्मसायुज्यसिद्धिदं ।
त्रीन्युस्समतिक्रम्य त्रिकल्पं नियतत्यथ ।। ९५ ।।
त्रीनेवासून्समाराध्यत्रोल्फ्रौकात्सजयेत्सुधी ।
पीतामाता च वेद्दानायुयदेष्टा ततः परं ।। ९६ ।।
श्रीमदष्टाक्षरीदाता चतुर्थोगुरुरुच्यते ।
चतुर्वर्गफलं प्रोक्तं चतुर्गुरुसमर्चनात् ।। ९७ ।।
पितरं मातरं वापि त्यजेद्वेदगुरुतपि ।
ब्रह्मविद्याप्रदाचार्यं प्राणांतेपिनः संत्यजेत् ।। ९८ ।।
एकैकापि महाविद्याय सवत्रे लभ्यते ।
तंप्तक्तानरकेघोरेतिष्ठसाचंद्रतारकं ।। ९९ ।।
रश्मिमालाप्रदाचार्य सागे वक्तुं न शक्यते ।
सर्वा अपि मक्षविद्या यत्रा तिष्ठंति सिद्धिदः ।। १०० ।।
तस्माद्भगवतो रश्मिविद्यादातागुरुर्महान् ।
स एव साक्षाद्भागवान्भोगस्वर्गायवर्गदः ।। १ ।।
नंतसतेच्चप्राणांतसरावकुलदैवतं ।
रश्मिविद्याप्रदावार्योस्वसमीपस्थिते परं ।। २ ।।
तंहात्कायोर्चयेदर्थैराकल्पं नरके वसेत् ।
रत्नजातैस्सूवह्निभिस्मतोष्याचार्यमन्वहं ।। ३ ।।
अपि ब्रह्मविदेन्यस्मैददानुनददातु वा ।
निर्वाणार्यप्रक्तोयं सदाचारश्चधीमतां ।। ४ ।।
प्. ६८ब्)
सदाचारो गृहे यद्वन्मतथास्त्याश्रमांतरे ।
विद्याजातंयवित्वा तु गृहाश्रममथाश्रयेत् ।। ५ ।।
गृहाश्रमात्य इं नास्ति यदियत्नोवशंवहा ।
आत्रुकूल्यं हिदंयत्योस्त्रिवर्गफलहेतवे ।। ६ ।।
अनुकूलं कलन्नं चेत्त्रिदिवेनहि किं ततः ।
प्रतिकूलं कलत्रेचेन्नस्केणहि किं सततः ।। ७ ।।
गहाश्रमः सुखार्थाय भार्ग्या मूलं हि तत्सुखं ।
स्वभार्यायं विनीतायां त्रिवर्गोवर्द्धते ध्रुवं च ।। ८ ।।
तलौकयोयमीयंते प्रमदामंदबुद्धिभिः ।
जलौकाकेवलं रक्तमाददानाममस्विनी ।। ९ ।।
प्रगोहशांजलौकानां विचारान्महदंतरं ।
प्रमदा सर्वंमादते चित्तं वित्तंवलं सुखं ।। १० ।।
दक्षीप्रजावती साक्षास्त्रियवाक्यवशंवदो ।
गुर्णेरमीभिस्संयुक्ताज्ञास्त्रीःह्रायनां
विचारान्महदंतरप्रयदासर्षमादतेचितंविलंवलं सुखः श्रीरूपधीरीणी ।।
१११ ।।
गुरोरनुज्ञया स्रात्वाव्रर्तवेहं समाप्य च ।
उद्वहेन ततो भार्यां सवर्णे साहुलक्षणं ।। १२ ।।
रोगहीनाप्राप्तमतीं खस्मात् किं विष्णधीयसीं ।
उद्वहेतद्विजोभार्यांम्यास्यां मृदुभाषिणीं ।। १३ ।।
लक्षणानि परोक्ष्यादौ ततः कन्या समुद्वहेत् ।
सुलक्षणमुचारित्राय सुरायुर्विवर्द्धयेत् ।। १४ ।।
सुलक्षणापिदुःशीलाकुलक्षणशिरोमणीः ।
कुलक्षणापियासाध्वी सर्वलक्षणयूसुसा ।। १५ ।।
सुलक्षणा सुचारि आस्वाधीनायति देवता ।
लक्ष्मीशानुग्रहादेव गृहेयोपि दषवाप्यते ।। १६ ।।
अलंकृताह् सुवासिन्योधाभिः प्राक्तनजन्मनि ।
नानाविधैरलंकारैस्सुरूयास्ताभवंतिहि ।। १७ ।।
सुतीर्थेषु वयुर्यामिः क्षालितं त्याजितंलुवा
तालावरायतरंगिरायो भवंति हि सुलक्षणः ।। १८ ।।
अर्चिताजगतांमाःतापाभिः शिववधूरिह ।
नारायणप्रियाश्रीर्वाशचीवाशक्रवल्लभा ।। १९ ।।
ताभवंति सुचारित्रायोषाअः स्वाधीनभर्तृकाः ।
स्वाधीनयतिकानांचसुशीलानामृगीदशां ।। २० ।।
स्वर्गां यवर्गावत्रैव सुलक्षणफलं हि तत् ।
सुलक्षणैः स्मचारित्रैरपि मंदोयुषंपतिं ।। २१ ।।
दीपोयुषं प्रकुर्वंति प्रमदाह्यं यदास्यद ।
आचार्यपत्नीश्रीवुध्यावासोलंकरणादिभिः ।। २२ ।।
प्. ६९अ)
प्राग्जन्मन्यर्चिताशिष्यैस्तसत्रीभिरेववा ।
ते सर्वभाग्यसहिताः कंदर्पसदृशप्रभाः ।। २३ ।।
पुत्रपौत्रादिसहिताराज्ञराजसमाश्रियः ।
अनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये श्रुतिसंग्रहे ।। ।।
अध्याय एकविंशोयं तंत्रे दाशरथीरिते ।। १२४ ।।
इति श्रीमदनुतरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीये तंत्रे वेदार्थसंग्रहे
एकविंशोध्यायः ।।</poem>
6g6zsvvayyfb8lx7x5e6bv0wh7rydly
दाशरथीयतन्त्रम्/अध्यायः २२
0
163648
409278
2025-06-27T05:29:38Z
Shubha
190
{{header | title = [[../]] | author = | translator = | section = अध्यायः २२ | previous = [[../अध्यायः २१|अध्यायः २१]] | next = [[../अध्यायः २३|अध्यायः २३]] | notes = }} <poem> प्. ६९अ) श्रीभगवानुवाच विवाहानपि वक्ष्यामि नि... नवीन पृष्ठं निर्मीत अस्ती
409278
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः २२
| previous = [[../अध्यायः २१|अध्यायः २१]]
| next = [[../अध्यायः २३|अध्यायः २३]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ६९अ)
श्रीभगवानुवाच
विवाहानपि वक्ष्यामि निवोधवसुधायते |
येषां विज्ञानमात्रेण सर्वयायैः प्रमुच्यते || १ ||
विवाहाब्राह्मदैवार्षाः प्राजाप्रत्यासुणैतथा |
गांधर्वोराक्षसश्चीपियैशाचोष्मदुच्यतं || २ ||
स ब्राह्मो परमाहूय यत्र कन्या स्वलंकृता |
दीयते तत्सुतः एयासुरुषानेकविंशति || ३ ||
यदार्थमृत्विजेदैवस्तज्रः पाति चतुर्दश |
पराहादापगोद्दं द्वयार्षस्तज्जः पुनातिषद्र || ४ ||
सहोमौचरतां धर्ममीत्युक्तादीयतेर्थिने |
तत्कन्यायां समुहान्नोवंश्यानष्टौ पुनातिसः || ५ ||
चत्वार एते विप्रीणांधम्यां पाणिं ग्रहीः स्मृताः |
आसुरः क्रयणाद्रव्यैर्गांधर्वोन्योन्यंद्यंतः || ६ ||
प्रसह्यकन्योहरणं राक्षसोनिंदितस्सतां |
छलेन कन्याहरणात्यैशाचोगहिंतोष्टमः || ७ ||
प्रायक्षत्रविशामुक्तागांधवोसुरराक्षसाः |
अष्टमस्तेयुयापिषूःपाषिष्ठानां हि संभवेत् || ८ ||
सवर्णयारोग्रास्वोधायं सुत्रियपाशरः |
प्रतोदोर्वेश्ययादेयोवासोंतः शूद्रया तथा || ९ ||
असवःर्णोर्द्येषविधिः स्मृत उत्कृष्टवेतने |
सवर्णाभिस्त सर्वाभिः पाणिर्ग्रास्वास्वयंविधिः || १० ||
धर्म्यैविवाहैर्जायंते धर्म्या एवशतागुषह् |
अधर्प्यैर्धर्मरहितामंदभाग्यधनायुषः || ११ ||
ऋतुकालाभिगमनंधमैयं गृहिणः परः |
स्त्रीणं वरमनुस्मृत्वा यथा काम्यथ वा भवेत् || १२ ||
दिवाभिगमनं पुसामता पुष्पं परंमतं |
श्रीद्धार्हसर्वपर्वाणि यत्वासाज्यानिधीमता || १३ ||
तत्र गष्टन् श्रियं मोहायुतोचंमोद्भवत्यसौ |
ऋतुकालाभिगामोयः स्वदारतिरतश्चयः || १५ ||
ससाधुब्रह्मचारीहविज्ञेयः सहृहाश्रमी |
ऋतुः षोडशयामिन्यश्चतस्त्रस्तासुवहिंताः || १६ ||
प्रक्रास्तास्ववियायुग्मा अयुग्माः कन्यकाप्रजाः |
युक्त्वा चंद्रमसदुस्थं मद्यांमूलं विहीय च || १७ ||
शुचिः सन्निर्विशेत्पत्नीं पुन्नामर्क्षे विशेषतः |
शुचिं पुत्रं प्रसूयेत पुरुषार्थप्रसाधकं || १८ ||
प्. ६९ब्)
आर्षेविवाहोगोद्वंद्वं युदक्तं तन्न शस्यते |
शुक्लमरायपि कन्यायाः कन्याविक्रयाय यकृत् || १९ ||
अयत्यविक्रयीकृत्यं वसेत् विद्क्रिमिभोजने |
अतोना एवपि कन्याया उपजीवे सिताधने || २० ||
स्त्रीधनादयजीवंतिये मोहादिहवांधवाः |
केवलं निरयगास्तेषामपि च यूर्वजाः || २१ ||
पत्न्याथ्यति यत्र स्त्रीतुष्येयत्र स्त्रीयापतिः |
तत्र तुष्ठा महालक्ष्मीर्निवेसेद्वानवारिणाः || २२ ||
वाणिज्यं नृपतेस्सैवावेदानध्ययनं तथाः |
कुविवाहः क्रियालोपः कुलेपात न हेतवः || २३ ||
कुर्याद्वैवाहिकेवह्रौगार्ह्यं कर्मान्वहंगृही |
पंचयज्ञक्रियां वापि पत्नीदैनंदिनीमपि || २४ ||
गृहस्थाश्रमिण पंचसूनाकर्मः दिने दिने |
खंडिनी येषिणी चुक्षो खदकुंचमार्जनी || २५ ||
तासां च यंचसूनां नानिराकरणहेतवः |
ऋतवः पंचनिर्द्विष्टापृहीश्रेय विवर्द्धनाः || २६ ||
पठनं ब्रह्मयज्ञः स्यातर्पणं च पितृक्रतुः |
होमोदैवोवलिभौतोतिथ्यचांदिक्रतुः क्रमात् || ||
खुपितु प्रीतिं प्रकुर्वाणः कुर्वीतमश्रीद्धमन्वर्हं |
अत्रोदकुपयोभूलफलैवोपि गृहाश्रमी || २८ ||
धेनुदानेन यत्पुण्यंयाःत्रायविद्धिपूर्वकं |
सत्कृत्य भिक्षवे भिक्षां दत्वा तु माप्नुयात् || २९ ||
तयो विद्या समिदीं सेहुतं विप्रास्थयावके |
तारयेद्विघ्नसंघेभ्यः यायौधादपिदुस्तरात् || ३० ||
अनर्चितोतिथिगेंहाद्भग्राशो यस्य गच्छति |
आजन्मसंचितात्पुण्यापृत्छणात्सवहिर्भवेत् || ३१ ||
सांत्वहृर्वाणिवाक्यानिशप्यायं भूतणेदके |
एतान्यपि प्रदेयानि सदाभ्यागततुष्टये || ३२ ||
गहस्थः परयाकादीप्रेत्यतत्यशुतां व्रजेत् |
श्रेयः परान्नपुष्टस्य गृह्णीयादन्नदोयतः || ३३ |
भुंजानो तिथिशेषान्नमायुर्वर्धनभाद्भवेत् |
प्रणोधातिथिमन्नाशीकिलिषी च गृहाश्रीमी || ३४ ||
वैश्वदेवांत संप्राप्तसूर्याधोतिथिरागतः |
न पूर्वकाल आया तीनचदेष्ट ततः क्वचित् || ३५ ||
वलिपात्रकरेविप्रेय पद्यन्न्योतिथिरागतः |
अदत्वातंवलिं तस्मै यथा शक्त्यन्नमप्ये येत् || ३६ ||
कुमार्यश्च सुवासिन्योगर्भिरायोतिरुत्ताक्तिताः |
अतिथिश्चार्थिनोप्येंतेभोज्या नात्र विवारणा || ३७ ||
प्. ७०अ)
पितृदेवमनुद्येभ्यो दत्वा मोसुमृतं गृही |
स्वार्थं यचन्नद्यं भुंक्ते केवलं स्वोदरंभरः || ३८ ||
आचार्यपत्नीपुत्राणामत्रसूयघृतादिकं |
अपरामृश्ययोभुंङ्क्ते सभुङ्गपापमक्षयं || ३९ ||
मध्याह्निकवं वैश्वदेवं नित्यं कुर्यात् प्रत्यत्नतः |
वैश्वदेवविविहीनाये आतिथ्येन विवर्जिताः || ४० ||
ते सर्वेवृषलाज्ञेयाः प्रावेहा अपि द्विजाः |
अकृत्वा वैश्वदेवं तु भुंजते यद्विजाधः || ४१ ||
इहलोकेपिहीनास्युः काकेयोनिं व्रजंत्यथ |
वेदोदितं स्वकंकर्मनित्यं कुर्यादतंद्रितः || ४२ ||
तत्यकुर्वन्यथांशक्तिप्रान्युयात्स्वगीतिं परां |
षुष्ट्याष्टम्योस्म्यजेद्भयं तैलं मासस्यभक्ष्यंसां || ४३ ||
चुनुदेश्यायं च दश्यां स्त्रीसंगमपि वर्जयेत् |
नोदयंतमवेक्ष्येत् नास्तं यांतं न मध्यगं || ४४ ||
न राहुणेम स्पृष्टं चनांवुसंस्थं द्विवाकरं |
न वीक्षेतीत्मनीरूपमसधावेन्नवर्षति || ४५ ||
नोल्लंघयेद्वत्सतरीं न नग्रोजलमाविशेत् |
देवतायतनं विप्रं धेनुं मधुमृदेघृतं || ४६ ||
जानवृद्धं वयोवृंद्धं विद्याष्टंतस्विनं |
अश्वत्थचैसवृक्ष्यं च गुरुंजलघृतं घट || ४७ ||
सिद्धान्नंदभिसिद्धार्थंगच्छन्कुर्यात्यदक्षिणं |
हजस्वलां न सेवेतनाष्णीयात् सहभार्यया || ४८ ||
एकवासानभुंजीतनभुंजीतीत्कटासने |
नाष्णंतीं स्त्रियमीक्षेततेजस्कामोद्विजोत्ततः || ४९ ||
असंतर्प्ययिन्दन्देवान्नाद्यादन्नं नवं क्वचित् |
असंतर्प्ये सदाचार्यं न रत्नं धारयेत् क्वचित् || ५० ||
पश्चिष्टी च विनामांसं दीर्घकालंजिजीविषु |
न मूत्रं गौव्रजेकुयोन्नवल्मीकेन भस्मनि || ५१ ||
न गर्तेषु न सत्वेषु न तिष्ठन् जन्नपिगो |
विप्रसूर्य वायवग्रिचंद्रार्कोवगुस्तपि || ५२ ||
अभिपश्यन्नकवीतमलमूत्रविसर्जनं |
दिवां संध्यासुकर्णस्य ब्रह्मसूत्र उदमुखः || ५३ ||
पलं मूत्रं सजेन्नित्यं निशायां दक्षिणामुखः |
मुखेनोपधमेन्नाग्रिं नग्रां नेक्षेतयोषितां || ५४ ||
नंध्रीप्रतापयेदग्नौः नवस्त्य शुचि निक्षिपेत् |
प्रणिहिंसानुकुवितनाष्णीयात् संध्ययोर्द्वयोः || ५५ ||
नं संविशेच्च संध्यायां प्रत्यग्र्याप्य शिरा अपि |
विरामूत्रष्ठिवनं नास्युकुर्याद्दीर्घजिजीविषुः || ५६ ||
प्. ७०ब्)
नाचक्षेत्तधयंतींगीं नेद्रचायं प्रर्शयेत् |
नैकः स्वध्यात्कृचिच्छत्येनशयानेसवोधयेयेत् || ५७ ||
नैकोयापान्नंयंथानांनवार्यं जलिनापिवेत् |
नदिवोद्धतसारं च भक्षयेदधिनोनिशि || ५८ ||
स्त्रीधर्मिण्यानाभिवदेन्नाद्यादातृप्रिरा विषुतौ |
यंत्रिकप्रियो नस्यात्कां स्येयादौनधावयेत् || ५९ ||
श्रीद्धकृत्वायरश्राद्धयोष्णीयीज्ञानवर्जितः |
दातुः श्रीद्व्रफलनास्तिभोक्ता किल्विष भाग्भवेत् || ६० ||
न धारयेदन्यनुक्तं वासश्चोयानहायपि |
नभिन्नभोजनेष्णीयान्नाष्णीताग्न्यादिहृषितं || ६१ ||
आरोहणंगचां पृष्टे प्रेतधूमसरितमं |
वालातयंदिवास्वायंत्यजेदीर्यजजीविषुः || ६२ ||
स्रोत्वा न मार्जयेहात्रं विसृजेन्नशिखांपथि |
हस्तौशिरोनुधनुयान्नाकर्षेहासनं यदा || ६३ ||
नोत्यादयेल्लोमनखं दशनेन कदाच्च |
करजैः करजच्छेरं तृणवेदंववर्जयेत् || ६४ ||
शुभायनयदायातित्यजेतत्कमेयततः |
नायद्वोरेणगंतव्यं खं वेश्मपरवेश्मनोः || ६५ ||
क्रीडेत्राक्षैः सहासीतनधर्मद्यैनर्रागिभिः |
नशयीत कृचिग्रः प्राणैर्भुत्तोतनैव च || ६६ ||
आर्द्रयादकरास्योन्नं दीर्घकालं च जीवाति |
संविशेन्नार्द्रचरणोनीच्छीष्टः क्वचिदव्रजेत् || ६७ ||
शयनस्योन वाष्णीयान्नपिवेन्नजयेद्विजः |
सोयानत्कश्चनाचामन्नतिष्टन् धारयार्षिवेत् || ६८ ||
सर्वं तिलमयं नाधात्सायं शर्माभिलाषुकः |
न च वीक्षेतविरामूत्रेनोच्छिष्टसंस्पृशेद्विरः || ६९ ||
नाचितिष्ठेतुषागारभस्मदेशकयालीकाः |
पतितैस्सहसं वा सष्यतनायैव जायते || ७० ||
श्रीवयेद्वैदिकं मंत्रं न शूद्राद्दाद्यकदाचन |
ब्राह्मण्याद्धायते विप्रः शूद्रोधमोच्चहीयते || ७१ ||
धर्मोपदेशः शूद्राणां स्वांश्रेयः प्रतिपादयेत् |
द्विजुश्रूषणं धर्मः शूद्राणां परमः स्मृतः || ७२ ||
कंडयनं न शिरसः पाणिभ्यां शुभदं मतं |
आंदोलनं कराभ्यां च केशानां केशलुंछनं || ७३ ||
अशस्त्रवर्तिनो भूयाल्लब्धात् कृत्वा प्रतिग्रहं |
ब्राह्मणः सान्वयो याति नरकानैकविंशति || ७४ ||
अकालविद्युस्तनितेषर्षयोर्यां शुवर्षणे |
महावातर्धनौरात्रावनध्यायाः प्रकीर्तिता || ७५ ||
उल्कापातधनौकं येदिहाहेमध्यरात्रिषु |
संध्ययोर्दृषलोयांते राजवाधे च सूपके || ७६ ||
हर्शेष्टकासुभूतायांश्राद्विकं प्रतिगृह्य च |
प्रतिपद्यपि पूर्णाः वाममायां सर्वयसु || ७७ ||
प्. ७१अ)
स्वरोषृअक्त्रोष्टुविरुते समुदोयेरुत्यपि |
उपाकर्मणिवोत्सर्गेनाविभानौतरौतले || ७८ ||
आरण्यकमधीत्यापिशाणसोन्नोरतिध्वनौ |
अनध्योषु चैतेषुनाधीयीव्रद्विजः क्वचित् || ७९ ||
कृतांतरायोनृपठेत्फकलासादिवभ्रुभिः |
भूताष्टम्योः पंचदश्योर्ब्रह्मचारी भवेत् सदा || ८० ||
अवापुष्पं परं चेहपरदोरोयधर्षणं |
तस्मात दूरतस्त्याज्य वरिणां चोपसेवनं || ८१ ||
पूर्वादिभिः परित्यक्तमात्मानं नायमानयेत् |
मवतां यस्माछ्रेयोविद्यानदर्लभा || ८२ ||
सत्यंलूयास्वियं क्रयान्नद्भयात् स समप्रियं |
प्रीपंचनानृतं व्रूयादेषधमौ महीयते || ८३ ||
भद्रमेववदेन्नित्यं भद्रमेव विचिंतयेत् |
भद्रैरवहिसंसर्गोनाभद्रैश्च कदाचन || ८४ ||
स्तूपवितकुलैहीनानसुधीर्नाधिशियेन्न |
एतवीक्षीतनाश्रिचिस्सत्यब्रह्मर्षिग्रहतारकाः || ८५ ||
वाधोवेगं मनोगं दिह्वावेगं च वर्जयेत् |
उत्कोचधूतदीनार्तद्रव्यं दूरात्परित्यजेत् || ८६ ||
गोब्राह्मणाग्रीनुच्छिष्टः वाणिता नैव संस्पृशेत् |
न स्पृशेदनिमितेतस्वानिखानित्वनातुरः || ८७ ||
गुह्यजान्यपिरोमाणि तत्स्यर्शादशुचिर्भवेत् |
पादशोदोदकं सूत्रन्न्मुच्छिष्टत्रोदकानि || ८८ ||
निष्टीवंच श्रेश्मीद्यं गृहाद्रौरेविक्षिपेत् |
अहर्निशं श्रतिजोयाष्णौता वानिषेवणात् || ८९ ||
अद्रोहवत्यां मत्यां च जातिं स्मरतियौविकीं |
वृद्धान्प्रयत्नाद्वंदेतनेषांदद्यात् खमासनं || ९० ||
विनम्रमानसस्त्वैषामनुयायावतश्चतान् |
श्रुतिभूदेवदेवानां नृपसाधुतयस्विनां || ९१ ||
पतिव्रतीनां नारीणां निंदी कुर्यात्र कुत्रचित् |
नमनुष्यस्तुतिं कुस्यात्रात्मानं वहुमानयेत् || ९२ ||
अभ्युद्यतं न प्रणमेत्यं रमर्माणिनीच्चरेत् |
अधर्मान्सेवते पूर्वविषूनविसर्जयन् || ९३ ||
सर्वतो भद्रगम्यापि नरो नश्यति सान्वयः |
उद्धृत्यं पंचमृत्पिंडात्सायात्यरजलाशये || ९४ ||
अनुद्धत्य च तत्कर्तुरेनसः स्यातुंरोयभा |
कुश्राद्धयां पात्रभूतायत्किंचिदीयतेवसु || ९५ ||
ब्रह्मबिछतकोटिभ्योदतंदानसहस्रकं |
आचार्यदानलेशस्यकुलां नांहीति षोडशीं || ९८ ||
श्रद्धया प्रतिगृह्णाति श्रद्धया प्रद्रदाति च |
स्वर्गेर्णौतावुभौस्यातांय ततो श्रद्धया स्वधः || ९९ ||
अनृते नक्षरेद्यज्ञस्नयोविस्मयतःक्षरेत् |
क्षरेत्कीर्तनतोदानमायुर्विप्रावमानतः || १०० ||
गंधपुष्पकुशान्शययांकंशामांसंययोदधि |
मणिमाल्यगृहंधान्यं ग्राह्यमेतदुपस्थितः || १ ||
प्. ७१ब्)
मधुदकं फलं मूलमेधांस्य भयदक्षिणां |
अभ्युद्यतानि ग्राह्याणि चेतान्यपिनिगृष्टातः || २ ||
इत्थमानृरायद्यदेवर्षियितृजादणात् |
माध्यस्यमाश्रयेद्देदीसुतेविद्यग्निसृःज्य च || ३ ||
गृहेविज्ञानमभ्यस्येच्छीमदष्टाक्षरीं जयेत् |
अवश्यं गृहिणीकार्यमाचायेचरणार्चनं || ४ ||
एकेन जन्मनामुक्तिः श्रीमद्दष्टाक्षरितर्पत् |
एकन तन्मनामुक्तिर्नरनारायणाश्रमे || ५ ||
एकेन जन्मना मुक्तिर्वाराणस्यां महीयते |
जन्मनामुक्तिराचार्यचरणर्चनात् || ६ ||
मनसापि सदाचामलं विद्वान्न लंघयेत् |
सदाचार परो नित्यं मिसमाचार्यसेवकः || ७ ||
भगवद्रश्मिसहितां समस्तन्यास संयुता |
श्रीमदष्टाक्षरीं जप्त्वा साक्षाद्ब्रह्ममयो भवेत् || ८ ||
गृहस्थस्य सदाचार इति प्रोक्तो महीयते |
यमाकर्ण्य नरोधीमान्मुंचत्यज्ञानजतंमः || ९ ||
इति श्रीमदनुत्तर ब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीयेतंत्रेवेहोर्थसंग्रहे
द्वाविंशोध्यायः ||</poem>
ez3m1lu4rwln026sj5fxj0ad5llhto3
409279
409278
2025-06-27T05:30:13Z
Shubha
190
409279
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः २२
| previous = [[../अध्यायः २१|अध्यायः २१]]
| next = [[../अध्यायः २३|अध्यायः २३]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ६९अ)
श्रीभगवानुवाच
विवाहानपि वक्ष्यामि निवोधवसुधायते ।
येषां विज्ञानमात्रेण सर्वयायैः प्रमुच्यते ।। १ ।।
विवाहाब्राह्मदैवार्षाः प्राजाप्रत्यासुणैतथा ।
गांधर्वोराक्षसश्चीपियैशाचोष्मदुच्यतं ।। २ ।।
स ब्राह्मो परमाहूय यत्र कन्या स्वलंकृता ।
दीयते तत्सुतः एयासुरुषानेकविंशति ।। ३ ।।
यदार्थमृत्विजेदैवस्तज्रः पाति चतुर्दश ।
पराहादापगोद्दं द्वयार्षस्तज्जः पुनातिषद्र ।। ४ ।।
सहोमौचरतां धर्ममीत्युक्तादीयतेर्थिने ।
तत्कन्यायां समुहान्नोवंश्यानष्टौ पुनातिसः ।। ५ ।।
चत्वार एते विप्रीणांधम्यां पाणिं ग्रहीः स्मृताः ।
आसुरः क्रयणाद्रव्यैर्गांधर्वोन्योन्यंद्यंतः ।। ६ ।।
प्रसह्यकन्योहरणं राक्षसोनिंदितस्सतां ।
छलेन कन्याहरणात्यैशाचोगहिंतोष्टमः ।। ७ ।।
प्रायक्षत्रविशामुक्तागांधवोसुरराक्षसाः ।
अष्टमस्तेयुयापिषूःपाषिष्ठानां हि संभवेत् ।। ८ ।।
सवर्णयारोग्रास्वोधायं सुत्रियपाशरः ।
प्रतोदोर्वेश्ययादेयोवासोंतः शूद्रया तथा ।। ९ ।।
असवःर्णोर्द्येषविधिः स्मृत उत्कृष्टवेतने ।
सवर्णाभिस्त सर्वाभिः पाणिर्ग्रास्वास्वयंविधिः ।। १० ।।
धर्म्यैविवाहैर्जायंते धर्म्या एवशतागुषह् ।
अधर्प्यैर्धर्मरहितामंदभाग्यधनायुषः ।। ११ ।।
ऋतुकालाभिगमनंधमैयं गृहिणः परः ।
स्त्रीणं वरमनुस्मृत्वा यथा काम्यथ वा भवेत् ।। १२ ।।
दिवाभिगमनं पुसामता पुष्पं परंमतं ।
श्रीद्धार्हसर्वपर्वाणि यत्वासाज्यानिधीमता ।। १३ ।।
तत्र गष्टन् श्रियं मोहायुतोचंमोद्भवत्यसौ ।
ऋतुकालाभिगामोयः स्वदारतिरतश्चयः ।। १५ ।।
ससाधुब्रह्मचारीहविज्ञेयः सहृहाश्रमी ।
ऋतुः षोडशयामिन्यश्चतस्त्रस्तासुवहिंताः ।। १६ ।।
प्रक्रास्तास्ववियायुग्मा अयुग्माः कन्यकाप्रजाः ।
युक्त्वा चंद्रमसदुस्थं मद्यांमूलं विहीय च ।। १७ ।।
शुचिः सन्निर्विशेत्पत्नीं पुन्नामर्क्षे विशेषतः ।
शुचिं पुत्रं प्रसूयेत पुरुषार्थप्रसाधकं ।। १८ ।।
प्. ६९ब्)
आर्षेविवाहोगोद्वंद्वं युदक्तं तन्न शस्यते ।
शुक्लमरायपि कन्यायाः कन्याविक्रयाय यकृत् ।। १९ ।।
अयत्यविक्रयीकृत्यं वसेत् विद्क्रिमिभोजने ।
अतोना एवपि कन्याया उपजीवे सिताधने ।। २० ।।
स्त्रीधनादयजीवंतिये मोहादिहवांधवाः ।
केवलं निरयगास्तेषामपि च यूर्वजाः ।। २१ ।।
पत्न्याथ्यति यत्र स्त्रीतुष्येयत्र स्त्रीयापतिः ।
तत्र तुष्ठा महालक्ष्मीर्निवेसेद्वानवारिणाः ।। २२ ।।
वाणिज्यं नृपतेस्सैवावेदानध्ययनं तथाः ।
कुविवाहः क्रियालोपः कुलेपात न हेतवः ।। २३ ।।
कुर्याद्वैवाहिकेवह्रौगार्ह्यं कर्मान्वहंगृही ।
पंचयज्ञक्रियां वापि पत्नीदैनंदिनीमपि ।। २४ ।।
गृहस्थाश्रमिण पंचसूनाकर्मः दिने दिने ।
खंडिनी येषिणी चुक्षो खदकुंचमार्जनी ।। २५ ।।
तासां च यंचसूनां नानिराकरणहेतवः ।
ऋतवः पंचनिर्द्विष्टापृहीश्रेय विवर्द्धनाः ।। २६ ।।
पठनं ब्रह्मयज्ञः स्यातर्पणं च पितृक्रतुः ।
होमोदैवोवलिभौतोतिथ्यचांदिक्रतुः क्रमात् ।। ।।
खुपितु प्रीतिं प्रकुर्वाणः कुर्वीतमश्रीद्धमन्वर्हं ।
अत्रोदकुपयोभूलफलैवोपि गृहाश्रमी ।। २८ ।।
धेनुदानेन यत्पुण्यंयाःत्रायविद्धिपूर्वकं ।
सत्कृत्य भिक्षवे भिक्षां दत्वा तु माप्नुयात् ।। २९ ।।
तयो विद्या समिदीं सेहुतं विप्रास्थयावके ।
तारयेद्विघ्नसंघेभ्यः यायौधादपिदुस्तरात् ।। ३० ।।
अनर्चितोतिथिगेंहाद्भग्राशो यस्य गच्छति ।
आजन्मसंचितात्पुण्यापृत्छणात्सवहिर्भवेत् ।। ३१ ।।
सांत्वहृर्वाणिवाक्यानिशप्यायं भूतणेदके ।
एतान्यपि प्रदेयानि सदाभ्यागततुष्टये ।। ३२ ।।
गहस्थः परयाकादीप्रेत्यतत्यशुतां व्रजेत् ।
श्रेयः परान्नपुष्टस्य गृह्णीयादन्नदोयतः ।। ३३ ।
भुंजानो तिथिशेषान्नमायुर्वर्धनभाद्भवेत् ।
प्रणोधातिथिमन्नाशीकिलिषी च गृहाश्रीमी ।। ३४ ।।
वैश्वदेवांत संप्राप्तसूर्याधोतिथिरागतः ।
न पूर्वकाल आया तीनचदेष्ट ततः क्वचित् ।। ३५ ।।
वलिपात्रकरेविप्रेय पद्यन्न्योतिथिरागतः ।
अदत्वातंवलिं तस्मै यथा शक्त्यन्नमप्ये येत् ।। ३६ ।।
कुमार्यश्च सुवासिन्योगर्भिरायोतिरुत्ताक्तिताः ।
अतिथिश्चार्थिनोप्येंतेभोज्या नात्र विवारणा ।। ३७ ।।
प्. ७०अ)
पितृदेवमनुद्येभ्यो दत्वा मोसुमृतं गृही ।
स्वार्थं यचन्नद्यं भुंक्ते केवलं स्वोदरंभरः ।। ३८ ।।
आचार्यपत्नीपुत्राणामत्रसूयघृतादिकं ।
अपरामृश्ययोभुंङ्क्ते सभुङ्गपापमक्षयं ।। ३९ ।।
मध्याह्निकवं वैश्वदेवं नित्यं कुर्यात् प्रत्यत्नतः ।
वैश्वदेवविविहीनाये आतिथ्येन विवर्जिताः ।। ४० ।।
ते सर्वेवृषलाज्ञेयाः प्रावेहा अपि द्विजाः ।
अकृत्वा वैश्वदेवं तु भुंजते यद्विजाधः ।। ४१ ।।
इहलोकेपिहीनास्युः काकेयोनिं व्रजंत्यथ ।
वेदोदितं स्वकंकर्मनित्यं कुर्यादतंद्रितः ।। ४२ ।।
तत्यकुर्वन्यथांशक्तिप्रान्युयात्स्वगीतिं परां ।
षुष्ट्याष्टम्योस्म्यजेद्भयं तैलं मासस्यभक्ष्यंसां ।। ४३ ।।
चुनुदेश्यायं च दश्यां स्त्रीसंगमपि वर्जयेत् ।
नोदयंतमवेक्ष्येत् नास्तं यांतं न मध्यगं ।। ४४ ।।
न राहुणेम स्पृष्टं चनांवुसंस्थं द्विवाकरं ।
न वीक्षेतीत्मनीरूपमसधावेन्नवर्षति ।। ४५ ।।
नोल्लंघयेद्वत्सतरीं न नग्रोजलमाविशेत् ।
देवतायतनं विप्रं धेनुं मधुमृदेघृतं ।। ४६ ।।
जानवृद्धं वयोवृंद्धं विद्याष्टंतस्विनं ।
अश्वत्थचैसवृक्ष्यं च गुरुंजलघृतं घट ।। ४७ ।।
सिद्धान्नंदभिसिद्धार्थंगच्छन्कुर्यात्यदक्षिणं ।
हजस्वलां न सेवेतनाष्णीयात् सहभार्यया ।। ४८ ।।
एकवासानभुंजीतनभुंजीतीत्कटासने ।
नाष्णंतीं स्त्रियमीक्षेततेजस्कामोद्विजोत्ततः ।। ४९ ।।
असंतर्प्ययिन्दन्देवान्नाद्यादन्नं नवं क्वचित् ।
असंतर्प्ये सदाचार्यं न रत्नं धारयेत् क्वचित् ।। ५० ।।
पश्चिष्टी च विनामांसं दीर्घकालंजिजीविषु ।
न मूत्रं गौव्रजेकुयोन्नवल्मीकेन भस्मनि ।। ५१ ।।
न गर्तेषु न सत्वेषु न तिष्ठन् जन्नपिगो ।
विप्रसूर्य वायवग्रिचंद्रार्कोवगुस्तपि ।। ५२ ।।
अभिपश्यन्नकवीतमलमूत्रविसर्जनं ।
दिवां संध्यासुकर्णस्य ब्रह्मसूत्र उदमुखः ।। ५३ ।।
पलं मूत्रं सजेन्नित्यं निशायां दक्षिणामुखः ।
मुखेनोपधमेन्नाग्रिं नग्रां नेक्षेतयोषितां ।। ५४ ।।
नंध्रीप्रतापयेदग्नौः नवस्त्य शुचि निक्षिपेत् ।
प्रणिहिंसानुकुवितनाष्णीयात् संध्ययोर्द्वयोः ।। ५५ ।।
नं संविशेच्च संध्यायां प्रत्यग्र्याप्य शिरा अपि ।
विरामूत्रष्ठिवनं नास्युकुर्याद्दीर्घजिजीविषुः ।। ५६ ।।
प्. ७०ब्)
नाचक्षेत्तधयंतींगीं नेद्रचायं प्रर्शयेत् ।
नैकः स्वध्यात्कृचिच्छत्येनशयानेसवोधयेयेत् ।। ५७ ।।
नैकोयापान्नंयंथानांनवार्यं जलिनापिवेत् ।
नदिवोद्धतसारं च भक्षयेदधिनोनिशि ।। ५८ ।।
स्त्रीधर्मिण्यानाभिवदेन्नाद्यादातृप्रिरा विषुतौ ।
यंत्रिकप्रियो नस्यात्कां स्येयादौनधावयेत् ।। ५९ ।।
श्रीद्धकृत्वायरश्राद्धयोष्णीयीज्ञानवर्जितः ।
दातुः श्रीद्व्रफलनास्तिभोक्ता किल्विष भाग्भवेत् ।। ६० ।।
न धारयेदन्यनुक्तं वासश्चोयानहायपि ।
नभिन्नभोजनेष्णीयान्नाष्णीताग्न्यादिहृषितं ।। ६१ ।।
आरोहणंगचां पृष्टे प्रेतधूमसरितमं ।
वालातयंदिवास्वायंत्यजेदीर्यजजीविषुः ।। ६२ ।।
स्रोत्वा न मार्जयेहात्रं विसृजेन्नशिखांपथि ।
हस्तौशिरोनुधनुयान्नाकर्षेहासनं यदा ।। ६३ ।।
नोत्यादयेल्लोमनखं दशनेन कदाच्च ।
करजैः करजच्छेरं तृणवेदंववर्जयेत् ।। ६४ ।।
शुभायनयदायातित्यजेतत्कमेयततः ।
नायद्वोरेणगंतव्यं खं वेश्मपरवेश्मनोः ।। ६५ ।।
क्रीडेत्राक्षैः सहासीतनधर्मद्यैनर्रागिभिः ।
नशयीत कृचिग्रः प्राणैर्भुत्तोतनैव च ।। ६६ ।।
आर्द्रयादकरास्योन्नं दीर्घकालं च जीवाति ।
संविशेन्नार्द्रचरणोनीच्छीष्टः क्वचिदव्रजेत् ।। ६७ ।।
शयनस्योन वाष्णीयान्नपिवेन्नजयेद्विजः ।
सोयानत्कश्चनाचामन्नतिष्टन् धारयार्षिवेत् ।। ६८ ।।
सर्वं तिलमयं नाधात्सायं शर्माभिलाषुकः ।
न च वीक्षेतविरामूत्रेनोच्छिष्टसंस्पृशेद्विरः ।। ६९ ।।
नाचितिष्ठेतुषागारभस्मदेशकयालीकाः ।
पतितैस्सहसं वा सष्यतनायैव जायते ।। ७० ।।
श्रीवयेद्वैदिकं मंत्रं न शूद्राद्दाद्यकदाचन ।
ब्राह्मण्याद्धायते विप्रः शूद्रोधमोच्चहीयते ।। ७१ ।।
धर्मोपदेशः शूद्राणां स्वांश्रेयः प्रतिपादयेत् ।
द्विजुश्रूषणं धर्मः शूद्राणां परमः स्मृतः ।। ७२ ।।
कंडयनं न शिरसः पाणिभ्यां शुभदं मतं ।
आंदोलनं कराभ्यां च केशानां केशलुंछनं ।। ७३ ।।
अशस्त्रवर्तिनो भूयाल्लब्धात् कृत्वा प्रतिग्रहं ।
ब्राह्मणः सान्वयो याति नरकानैकविंशति ।। ७४ ।।
अकालविद्युस्तनितेषर्षयोर्यां शुवर्षणे ।
महावातर्धनौरात्रावनध्यायाः प्रकीर्तिता ।। ७५ ।।
उल्कापातधनौकं येदिहाहेमध्यरात्रिषु ।
संध्ययोर्दृषलोयांते राजवाधे च सूपके ।। ७६ ।।
हर्शेष्टकासुभूतायांश्राद्विकं प्रतिगृह्य च ।
प्रतिपद्यपि पूर्णाः वाममायां सर्वयसु ।। ७७ ।।
प्. ७१अ)
स्वरोषृअक्त्रोष्टुविरुते समुदोयेरुत्यपि ।
उपाकर्मणिवोत्सर्गेनाविभानौतरौतले ।। ७८ ।।
आरण्यकमधीत्यापिशाणसोन्नोरतिध्वनौ ।
अनध्योषु चैतेषुनाधीयीव्रद्विजः क्वचित् ।। ७९ ।।
कृतांतरायोनृपठेत्फकलासादिवभ्रुभिः ।
भूताष्टम्योः पंचदश्योर्ब्रह्मचारी भवेत् सदा ।। ८० ।।
अवापुष्पं परं चेहपरदोरोयधर्षणं ।
तस्मात दूरतस्त्याज्य वरिणां चोपसेवनं ।। ८१ ।।
पूर्वादिभिः परित्यक्तमात्मानं नायमानयेत् ।
मवतां यस्माछ्रेयोविद्यानदर्लभा ।। ८२ ।।
सत्यंलूयास्वियं क्रयान्नद्भयात् स समप्रियं ।
प्रीपंचनानृतं व्रूयादेषधमौ महीयते ।। ८३ ।।
भद्रमेववदेन्नित्यं भद्रमेव विचिंतयेत् ।
भद्रैरवहिसंसर्गोनाभद्रैश्च कदाचन ।। ८४ ।।
स्तूपवितकुलैहीनानसुधीर्नाधिशियेन्न ।
एतवीक्षीतनाश्रिचिस्सत्यब्रह्मर्षिग्रहतारकाः ।। ८५ ।।
वाधोवेगं मनोगं दिह्वावेगं च वर्जयेत् ।
उत्कोचधूतदीनार्तद्रव्यं दूरात्परित्यजेत् ।। ८६ ।।
गोब्राह्मणाग्रीनुच्छिष्टः वाणिता नैव संस्पृशेत् ।
न स्पृशेदनिमितेतस्वानिखानित्वनातुरः ।। ८७ ।।
गुह्यजान्यपिरोमाणि तत्स्यर्शादशुचिर्भवेत् ।
पादशोदोदकं सूत्रन्न्मुच्छिष्टत्रोदकानि ।। ८८ ।।
निष्टीवंच श्रेश्मीद्यं गृहाद्रौरेविक्षिपेत् ।
अहर्निशं श्रतिजोयाष्णौता वानिषेवणात् ।। ८९ ।।
अद्रोहवत्यां मत्यां च जातिं स्मरतियौविकीं ।
वृद्धान्प्रयत्नाद्वंदेतनेषांदद्यात् खमासनं ।। ९० ।।
विनम्रमानसस्त्वैषामनुयायावतश्चतान् ।
श्रुतिभूदेवदेवानां नृपसाधुतयस्विनां ।। ९१ ।।
पतिव्रतीनां नारीणां निंदी कुर्यात्र कुत्रचित् ।
नमनुष्यस्तुतिं कुस्यात्रात्मानं वहुमानयेत् ।। ९२ ।।
अभ्युद्यतं न प्रणमेत्यं रमर्माणिनीच्चरेत् ।
अधर्मान्सेवते पूर्वविषूनविसर्जयन् ।। ९३ ।।
सर्वतो भद्रगम्यापि नरो नश्यति सान्वयः ।
उद्धृत्यं पंचमृत्पिंडात्सायात्यरजलाशये ।। ९४ ।।
अनुद्धत्य च तत्कर्तुरेनसः स्यातुंरोयभा ।
कुश्राद्धयां पात्रभूतायत्किंचिदीयतेवसु ।। ९५ ।।
ब्रह्मबिछतकोटिभ्योदतंदानसहस्रकं ।
आचार्यदानलेशस्यकुलां नांहीति षोडशीं ।। ९८ ।।
श्रद्धया प्रतिगृह्णाति श्रद्धया प्रद्रदाति च ।
स्वर्गेर्णौतावुभौस्यातांय ततो श्रद्धया स्वधः ।। ९९ ।।
अनृते नक्षरेद्यज्ञस्नयोविस्मयतःक्षरेत् ।
क्षरेत्कीर्तनतोदानमायुर्विप्रावमानतः ।। १०० ।।
गंधपुष्पकुशान्शययांकंशामांसंययोदधि ।
मणिमाल्यगृहंधान्यं ग्राह्यमेतदुपस्थितः ।। १ ।।
प्. ७१ब्)
मधुदकं फलं मूलमेधांस्य भयदक्षिणां ।
अभ्युद्यतानि ग्राह्याणि चेतान्यपिनिगृष्टातः ।। २ ।।
इत्थमानृरायद्यदेवर्षियितृजादणात् ।
माध्यस्यमाश्रयेद्देदीसुतेविद्यग्निसृःज्य च ।। ३ ।।
गृहेविज्ञानमभ्यस्येच्छीमदष्टाक्षरीं जयेत् ।
अवश्यं गृहिणीकार्यमाचायेचरणार्चनं ।। ४ ।।
एकेन जन्मनामुक्तिः श्रीमद्दष्टाक्षरितर्पत् ।
एकन तन्मनामुक्तिर्नरनारायणाश्रमे ।। ५ ।।
एकेन जन्मना मुक्तिर्वाराणस्यां महीयते ।
जन्मनामुक्तिराचार्यचरणर्चनात् ।। ६ ।।
मनसापि सदाचामलं विद्वान्न लंघयेत् ।
सदाचार परो नित्यं मिसमाचार्यसेवकः ।। ७ ।।
भगवद्रश्मिसहितां समस्तन्यास संयुता ।
श्रीमदष्टाक्षरीं जप्त्वा साक्षाद्ब्रह्ममयो भवेत् ।। ८ ।।
गृहस्थस्य सदाचार इति प्रोक्तो महीयते ।
यमाकर्ण्य नरोधीमान्मुंचत्यज्ञानजतंमः ।। ९ ।।
इति श्रीमदनुत्तर ब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीयेतंत्रेवेहोर्थसंग्रहे
द्वाविंशोध्यायः ।।</poem>
luyb1uvohrh43t4pyk42g0hmgs94e5t
दाशरथीयतन्त्रम्/अध्यायः २३
0
163649
409280
2025-06-27T05:34:00Z
Shubha
190
{{header | title = [[../]] | author = | translator = | section = अध्यायः २३ | previous = [[../अध्यायः २२|अध्यायः २२]] | next = [[../अध्यायः २४|अध्यायः २४]] | notes = }} प्. ७१ब्) श्रीभगवानुवाच पुनर्विशेषं वक्ष्यामि स... नवीन पृष्ठं निर्मीत अस्ती
409280
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः २३
| previous = [[../अध्यायः २२|अध्यायः २२]]
| next = [[../अध्यायः २४|अध्यायः २४]]
| notes =
}}
प्. ७१ब्)
श्रीभगवानुवाच
पुनर्विशेषं वक्ष्यामि सदाचारस्य भूषते |
यं श्रुत्वोपि नरोहीमान्मुच्यतेयायराशिभिः || १ ||
सुसोहितार्थसंसिद्धिल्लभ्यर्तपुण्यभारतः |
तत्र पुण्यं भवेद्विप्रस्मृतिवर्त्मनानुभाजनात् || २ ||
स्तुतिवन्मंजुषं पुंसः सस्पर्शात्तप्यत्ते मुने |
कलिकालाद्वपि सदाछिद्रं प्राथजिघांसतः || ३ ||
वर्जितस्य विधानेन प्रोक्तस्याकरणीयतः |
कलिकालाहपि हतो ब्राह्मणे रंध्रदर्शनात || ४ ||
निषिद्धा चरणं तस्मात् कथयिष्येत वाग्रतः |
तद्ररतः परित्यज्य नरो न निरयी भवेत् || ५ ||
ब्रह्मश्चनान्वृक्षनिर्यासान् पायसाकृप एयूलीः |
अदौवपित्र्यं पललमवत्साणोय यस्यजेत् || ६ ||
लशुनं गजनमपि पलांडुं च परित्यजेत् |
वयवेकशफंद्वेपतक्रमेरकमाविकं || ७ ||
रात्रौ हधिनभोक्तव्यं हि वा च नवनीनकं |
आयुष्कामैः स्वर्गकामैःस्त्याज्यं मांसं प्रयत्नतः || ८ ||
यज्ञार्थद्यश्रुहिसायासाखग्यानेतरा क्वचित् |
त्यजेत्यर्युषितं सर्वमखंडस्नेहनिर्मित || ९ ||
प्राणाहायेक्रतौ श्राद्धेभेषजे विप्रद्राकाम्यया |
काल्यमित्थं यलं भक्षयन्न च दोषभाक् || १० ||
न तादृशं भवेत्यायं मृगयावृत्तिकांक्षिणः |
यादशांभवतीप्रत्यलौल्यान्मांसोयज्ञेविनः || ११ ||
मखार्थं ब्रह्मणा सृष्टाः पशुदमलः तौषधीः |
निघ्रन्नहिंसकोविप्रस्तासामपिशुभगतिः || १२ ||
पितृदेवक्र तु कृते मधुपर्क्वार्थमेव च |
अत्र हि साथ हिंसास्याद्विंसान्यत्र सुदस्तरा || १३ ||
योजंतूनान्मतत्यर्थं हि नस्तिज्ञानदुर्वलः |
दराचारस्यतस्थेह नामत्रापि सुखां क्वचित् || १४ ||
प्. ७२अ)
भाक्तानुमंतासंस्कर्ताक्रयविक्रयहिंसकाः |
उपकर्ताघातपिताहिंसका अष्टधा स्मृताः || १५ ||
प्रत्यब्दमश्वमेधेन शतवर्षाणि यो यजेत् |
अंमासभक्षको यस्तु द्वितीयोत्र विशिष्यते || १६ ||
यथैवात्मापरस्तवद्वृव्यः सखमिच्छता |
सुखदुःखानि तुल्यानि यथात्म्रनि तथापरे || १७ ||
सुखं वा यदिवाचान् यत् यत्किंत्कित्क्रियते परे |
यक्वातं हि पुनः यश्चित्सार्वमात्मनिसर्भवेत् || १८ ||
नल्केशेन विना द्रव्यमर्थहीनेहीने कुतः |
क्रियां क्रियाहीने कुतो धर्मो धर्महीने कुतः सुखं || १९ ||
हि सर्वैराकांक्ष्यं तत्रं धर्मसमुदवं |
तस्माद्धेर्मोत्रकर्तव्यश्चातुर्वणे न यत्नतः || २० ||
सायागतेव द्रव्येण कर्तव्यं यारलोकिक |
दानं च विधिनादेयं कालेयात्रेवमावतः || २१ ||
विधिहीनमयात्रेपियो ददाति प्रतिग्रहं |
न केवलं हि धाति शेषं तस्य च नश्यति || २२ ||
व्यसनार्थे कुदुवार्थे यदगार्थे च दीयते |
तदक्षंय भवेदत्र यरत्र च न संशयः || २३ ||
आमचायेपत्नीपुत्रादिषोपणार्थं यतव्रतः |
ग्रहणादिषु कालेषु योध्वादादाराधृत || २४ ||
तस्य पुण्यफलं वक्तुं नथक्तोस्मि महीयते |
वर्ष्यशनमितं तद्द्रव्यं शतनिष्कमुदाहृतं || २५ ||
तदर्ध वा तदर्धं वा तत्र्यूनिनिष्यह्यं स्मृत |
आचार्यचरणांभोजे वर्षाशनमितं धनं || २६ ||
एकस्मिन्दिवसे दत्वा प्रतिप्तं वत्सरं नृप |
तुलापुरुषमुख्यानि महादानानि भूरिशः || २७ ||
कृत्वा दिने दिने वश्य तत्फलं प्राप्नुयादसौ |
पितृवश्यशतैयुक्तो मातर्वश्य शतैरपि || २८ ||
भगवत्सुन्निधावत्ते सुखमक्षयमश्रुते |
मातापितृविहीनये मौजीपाणि ग्रहादिभिः || २९ ||
संस्कारयतियेवितैस्तेषों श्रेयोक्षयं स्मृतं |
ब्राह्मणायदरिद्रायपाणिग्रहमितंधनं || ३० ||
यः प्रयच्छति धर्मात्मातस्यपुरांपयच्छति |
नाग्निहोत्रैर्नतर्च्चैयोनाग्निष्णोमादिभिर्मखैः || ३१ ||
यच्छ्रेयः प्राप्यतं मर्त्यैक विप्रप्रतिष्ठिते |
पित्तगेहेपियाकन्यारतः पश्य ससंस्कृना || ३२ ||
भूषणहातत्पिताज्ञेयो ज्ञेषलीसापि कन्यका |
यस्तापरिणयेन्मोहात् सभवेद्वषलोपतिः || ३३ ||
तेन संभाषणं लाज्यमयांज्गेयेन संततं |
विज्ञाप्य दोषभयोः कन्यायाश्च वरस्य च || ३४ ||
संकधरचयेत्पश्चदन्यथादोषभाक्पिता |
स्त्रियः पवित्राः सततं नैतादष्यंती कुत्रवित् || ३५ ||
प्. ७२ब्)
स्त्रीणां सौ ददौ सोमः पावकः सर्वमेध्यातां |
कल्याणवाणीं गंधर्वस्तेनमेध्यास्सदास्त्रियः || ३६ ||
कन्यां भुक्ते रजः कालेग्रिः शशिरोमदर्शने |
श्रुतोद्भवेत्तुगंधर्वास्तल्यागे च प्रदीयते || ३७ ||
दश्यरोमत्वयत्यघ्नीकुलघ्र्युहतयौवना |
पितघ्नाविकृतरजास्रतस्तां परिवर्जयेत् || ३८ ||
कयादानफलप्रेशुस्तस्मादृवादग्नीकां |
अन्यथा तत्फलदातुः प्रतिग्राहीय तत्यधः || ३९ ||
कन्यामभुक्तं सोमाद्यैर्दघ्हानफलं लभेत् |
देवभुक्तां दददाता न स्वर्गमधिगच्छति || ४० ||
शयनासनदानानि कुतयः स्त्रीमुखं श्रुकं |
यज्ञेयात्राणि सर्वासिनदुष्यंति वुधाः क्वचित् || ४१ ||
वत्सः प्रस्तवने वने मेध्यः शकुनिः फलयातने |
नार्योरति प्रयोगेष्यश्घ्रामृगग्रहणेशुचिः || ४२ ||
अजाश्चयोमुखं मेध्ये गावो मेध्यास्तुष्टष्ठतः |
ब्राह्मणाह् यादतो मेध्याः स्त्रियोमेध्याश्च सर्वतः || ४३ ||
वलारेण भुक्तावाचोरहस्तगतापि वा |
नत्यात्यादूषितानारीनारुपागोनविधीयते || ४४ ||
अश्लेनताम्रशुद्धिस्याच्छद्विः कांस्यंप्त्यभस्मना |
संशुद्धारजसानार्यस्तटिनीवेगतः शुचिः || ४५ ||
मनसपिनयानारीस्मरेत्पुरुषांतरं |
सोमयाससौख्यानिभुंजेचात्रीपिकीर्तिभाक् || ४६ ||
यितापितामहोभ्रातासुकुल्योजननी तथा |
कन्याप्रदः प्रर्वनाशे प्रकृतिस्थः परः परः || ४७ ||
अप्रच्छन्समामोतिभूणहसामृतौनृप |
गम्यं त्वभावेदातणां कन्याकुर्यात् स्वयंवरं || ४८ ||
हताधिकासमलिनां पिडमात्रो यजोविनी |
परिभूतामधः शययां वासयेधभिचारिणी || ४९ ||
व्यभिचाराहतौ शुद्धिर्गर्भौत्यार्गोविषोयत्ते |
गर्भभर्तवधादौ च भक्षत्यपिचयातके || ५० ||
आरोप्य शूशूद्रां शवयने विप्रोगच्छत्यधी |
गत्तिं उत्याद्यपुत्रं शूद्रायां ब्राह्मण्यादेवहीयते || ५१ ||
दैवपि आतिथीप्याति तत्प्रदानानि यस्य तु |
देवाघास्तनवाश्रंति स वह्व च स्वार्गं न गच्छति || ५२ ||
यागयोग्यानिहेहानिश्यं स प्रतिपूजिताः |
कृत्याभिर्निहतानीवयश्येयुष्मान्यं संशयः || ५३ ||
तदभ्यर्च्याः सुवासिन्यो भूषरागछादनाशनैः |
भूतिकामैतरैतित्यं संकटेषूत्कटेषु च || ५४ ||
यत्रनार्यः प्रमुदिता भूषणाच्छाअनाशनैः |
रमंतेवतास्तत्र तत्रस्युः सफलाः क्रियाः || ५५ ||
अक्षयश्रेय इच्छाद्भेर्वासोन्नैर्दिव्यभूष |
आचार्यपत्नी संपूज्या विशेषाद्भार्गवेदिने || ५६ ||
प्. ७३अ)
अक्षयायांततीयायां न ग्वरात्र व्रतेपि च |
ताटंकहेमचिंताकवाली युग्मादिभूषणैः || ५७ ||
आचार्यपत्नीमभ्यव्ये साक्षाल्लक्ष्मीधिया नृप |
विमुक्तः सकलायभ्णेदुस्तरात्संकटादपि || ५८ ||
कुवेरसदृशोलक्ष्म्यात्ततोतेमुक्तिःभाग्भवेत् |
यत्र तुष्यति भर्त्रा स्त्रीययाभर्ताचतुष्यति || ५९ ||
तत्र वेश्मनिकल्याणं संयधेत पदे पदे |
तयो हतो हतो हतो होमः प्रहुतोभौतिकोवलिः || ६० ||
प्रास्तितं पितृ संहृप्रिःर्हुतं ब्राह्मद्विजार्घनं |
पंचयज्ञानिमान्कुर्वन्ब्राह्मणोनासीदति || ६१ ||
एतस्या अननुष्टानात्यं च सूनीमवाप्नुयात् |
ब्राह्माणं कुशलं पृच्छेद्वाहुजातमनामयं || ६२ ||
वैश्यं सुखं स्वमागप्यशूद्रं संतोषमेव च |
जातमात्रः शिश्रुस्तावधावदष्टौ समाः स्मृताः || ६३ ||
भक्ष्याभक्ष्येपुनोदुष्येद्यावन्नेवोपनीयते |
भरणं योष्यवर्गस्य दृष्टादष्टफलोदयं || ६४ ||
प्रसवायो स्वभरणे भर्तव्यस्त प्रयत्नतः |
आचार्यः स्वयित्तामात्वपसानि समाश्रिताः || ६५ ||
अन्यागतो तिथिश्चाग्रीः प्रोष्यवर्गा अमोनव |
सजीवति युमान्यत्रैवह्निभिश्चीयजीव्यते || ६६ ||
जीवन्मतोथविज्ञेयः केवलं स्वोदरंभरः |
दो नानाःथ विशिष्टेभ्यो दातव्यं भूति काम्यया || ६७ ||
अदतदानाजपंतेयरभाग्योयजीविनः |
विभागशीलसंयुक्तोदयावोंश्च क्षमान्वितः || ६८ ||
देवतातिथिभक्तश्च गृहस्थोधार्मिकः स्मृतः |
शर्वरामध्यमौयामौहुतशेषं च यद्धविः || ६९ ||
तत्र स्वयस्तदश्चश्च ब्राह्माणो नावसीदति |
नवैतानि गृहस्थेन कायोरायभ्यागतेगुरो || ७० ||
मुदा व्ययानि यत्साम्यं वाष्यं चतुक्षुर्मनोमुखं |
अभ्युत्थानमिहायातसस्तेहं पूर्वभाषणं || ७१ ||
उपासनमनुवज्यगृहर्स्थेन्नति हेतवः |
तथैवव्यययुक्तानि कार्याण्येतामिनैव || ७२ ||
आसनं यादशौचं च यथाशक्ताशयनं क्षितिः |
शययातृणजलाभ्यंगदिवागार्हस्थासिद्धिदाः || ७३ ||
तथैव नवकर्माणि त्याज्यानिगृहामेधिना |
पैशून्यं यरदाराश्चद्रोहः क्रोधानृताप्रियः || ७४ ||
द्वेषोदंभश्च माया च स्वर्गमार्गार्गलात्यिहि |
नवाश्यककर्माणि कार्याणि प्रतिवासरं || ७५ ||
स्नानसंध्याजपोहोमः स्वाध्यायो देवतार्चने |
वैश्च देवं तथातिथ्यं नवमं पितृतर्पणं || ७६ ||
नवगोप्यानियान्यत्रमुनेतानि निशामय |
जन्मर्क्षमैथुनं मंत्रीगृहछिद्र च वनं || ७७ ||
प्. ७३ब्)
आयुर्धुनामदानं च स्त्री न प्रकास्यानि सर्वदी |
नवैतानि प्रकाश्यानिरहः पापमकुत्सितं || ७८ ||
प्रायीश्चमणशुद्धिश्रीस्वान्वयः क्रयविक्रयौ |
कन्यादानं गुणोत्वा षोनान्यत्केनापि कुत्रचित् || ७९ ||
यात्रमित्रविनीतेषुदीनानाथोयकारिषु |
मातापितृगृरुष्वेवनवकंदतमक्षय || ८० ||
निष्फलं न वस्तत्कं चाटवारणतस्करे |
कुवैद्येकितवे धूर्ते शठे मल्ले च वंदिषु || ८१ ||
आपःत्स्वपि न देयानि नववस्तूनि सर्वदो |
पुत्रेषु सात्ससर्वस्वंदाराश्च शरणागताः || ८२ ||
न्यासार्थः कुलवृत्तिश्च निक्षेपः स्त्रीधनंसुतः |
यो ददाति सभूढात्मा प्राप्रश्रितैर्विशूध्यति || ८३ ||
आचार्यायैव सर्वस्वं पुरश्चरणकर्मणि |
देयं च विश्वविद्यागेनान्यत्कस्मापि कुत्रचित् || ८४ ||
एतन्नवानां नवकं ज्ञात्वा श्रियमवाप्रुया |
अन्यति नवकं वच्मि सर्वेषां स्वर्गमार्गदं || ८५ ||
सत्यं शौचमहिंसा वक्षांतिदोनं दयादयः |
उस्तेयमिंद्रियाक्रोधस्सर्वेषोधर्मसाधनं || ८६ ||
अम्यस्थं नवति चैतां स्वर्गमार्गप्रदीपिकां |
सतामभिमतां पुण्यं गृहस्थोनावसीदति || ८७ ||
जिह्वाभार्यासुतोभ्रातीमित्रदास समाश्रिताः |
यस्यैतैविनयाढ्याश्च तस्य सर्वत्र गौरवं || ८८ ||
यानं दुर्जनसंसर्गः यत्या च विरहोटनं |
स्यायोन्यगृहवासश्चनारीणां दूषणानी षट् || ८९ ||
समर्धधान्यसुद्वसह्यनर्येयः प्रयच्छे |
सवार्धुषिक इत्युक्तस्सर्वकर्मवहिच्छ्रुतः || ९० ||
महिषो सुच्यते भायोया भवेढ्यभिरिणीतां |
दष्टांकामयातो सोनाम्रामाहिषिकह् स्मृतः || ९१ ||
अग्रैमाहिषिकं दृष्ट्वा मध्ये तु द्वाषलीपतिं |
अतेवार्धुषिकं दृष्ट्वा निराशाःपिरामाः पीतरोगताः || ९२ ||
यावदष्णंभवत्यन्नं यावत्मोनीमभुज्यते |
तावदश्रंतितरोयावभीक्तोहविर्गुणः || ९३ ||
विधाविनयसंपन्नेश्रीत्रियेगृहमागते |
क्रीडत्योषधयः सर्वायास्यामः परमांगतिं || ९४ ||
भ्रष्टशौचव्रताचारे विप्रेवेदविवर्जिते |
रोदित्यन्नदीपमानं किं मयादुष्टतंकृतं || ९५ ||
यस्योदणतस्यात्रं वेदाभ्यासेनतीर्यते |
सतारयति दातारं दशपूर्वान्दृशापरान् || ९६ ||
न स्त्रीणां वयनं कार्यं नवगाः समनुव्रजेत् |
नवरात्रौवसेर्जाष्टेन कुर्याद्वैदिकां श्रुतिं || ९७ ||
सर्वान्कशान्समुद्वत्यछेदयेद्वंगुलीद्वयं |
सुवासिनीनामेवं स्यान्नाथश्चामुंडनं भवेत् || ९८ ||
राजा वा राजपुत्रो वा ब्राह्मणो वहुशो श्रुतः |
केशानां रक्षणार्थायष्वाद्विगुणदक्षिणां || ९९ ||
यो गृहीत्वा विवासिनी नामेवं स्यान्नान्यथा मुंडनं भवेत् || ९८ ||
प्. ७४अ)
राजा वा राजयुक्तो वा ब्राह्मणो वहुथो श्रुतः |
केशानां रक्षणार्थाय दद्याद्विगुणदक्षिणां || ९९ ||
यो गृहीत्वा विंवाद्वाग्रो गृहस्थांति मन्यते |
अन्नतस्य न भोक्तव्यं कृथायाकोहि संस्मृतः || १०० ||
दाराग्री हीत्रदीक्षी च कुरुते यो ग्रजोस्थिते |
परिवेता स विज्ञेयःषरिविती च पूर्यतः || १ ||
सर्वे सर्वेते नरकं यां दातयाजकयंचमाः |
पीठेदेशांतरस्थे च सूके प्रव्रतितं जडे || २ ||
कर्ष्टुखर्वेचयति तेन दोषः वरिवेदने |
वेदाक्षराणि यावंति नियुंज्यादर्थकारणात् || ३ ||
तावंति भूणहत्या निर्वदविक्रयकृल्लभेत् |
यस्वसुव्रातितो भूत्वासेवग्तेमैथुनपुनः || ४ ||
वष्टिर्वर्ष सहस्राणिविष्टायाटे कृमिः शूद्रीन्नं |
शूरसंसंपर्कं शूद्रेण सहासनं || ५ ||
शूद्राद्विद्यागमः कश्चिज्जाक्षलंतमपि पातयेत् |
शूद्रादाहृत्यनिर्वायंये यत्यवुधाद्विजाः || ६ ||
तेयांति नरकं घोरकं ब्रह्मतेजो विवर्जितताः |
हस्तदतातिलवणव्यं जनादीनि संततं || ७ ||
दातारं नोयतिष्टंविभोक्तार्भहेतु किल्विषं |
आससे नैव पात्रेणयदन्नमुपदीयते || ८ ||
भोक्तः स्याद्विणं यायं दाता च नरकं व्रजेत् |
अंगुल्यादतकाव्यं प्रलक्षलवणं च यत् || ९ ||
मृतिकाभक्षणमविसमंगोत्यां सभक्षणं |
अग्रतोनिवसेन्सूखोहृरैश्चगुणान्वितः || १० ||
गुणान्विताय दातव्यं नास्मिमूर्कहिव्यतिक्रमः |
ब्राह्मणाति क्रमोनास्ति विप्रे वेदविवर्जित || ११ ||
ज्वलेतमग्निमुत्स्मृज्य नहिभस्मनिहूयते |
सान्निकृष्टमधीयातं ब्राह्मणं यो व्यतिक्रामेत || १२ ||
भोजनै च वदाने च विनाचार्यं स किल्विषी |
गोरक्षकान् वाणितकात्स्तथा कामकुशीलकान् || १३ ||
प्रोष्यान्वाहुषिकांश्चापि विप्रान् ष्यद्रवदाचरेत् |
देवद्रव्यविभागेनाचार्यं स किल्विषी गोरक्षाकान् वाणिजकात्स्तथा
कामकुशीलकान् || १३ ||
प्रेष्यान्वार्द्धषिकांश्चापि विद्रान्ष्यद्रावदाचरेत् |
देवद्रव्यनिभागेन ब्रह्मस्वहरणेन च || १४ ||
कुलान्याशुविनश्यंतिश्वाहार्योतिक्रेणेगाच |
मादेएहीति वचः प्रोक्तोगवादि ब्राह्मणेषू च श्यतिर्यग्योण्मासाभ्यंतरेपि वा || १७
||
पयलेनापि दातव्यमिच्छद्भिः श्रेय उत्तमं |
आचार्यचरणांभोजेपुरश्चरणाकर्मणि || १८ ||
सद्य एव प्रदातव्यादथ्रिणाशास्त्रधोदिना |
मासास्यंतरतोवश्यमथवा दक्षिणाशुभा || १९ ||
आचार्याय प्रदातव्या महती सिद्धिमिच्छता |
मासाद्वयात्त्रिभिर्मासैर्दाः तव्यावृद्धिसंयुताः || २० ||
प्. ७४ब्)
मासत्रयमतिक्रम्य दातव्या द्विगुणानृप |
मासषसूमतिक्रम्यस्वर्णेयीपतत्यधः || २१ ||
आचार्ययप्रतिज्ञातं यत्किंचिपित्रावप्तु |
मासेननेनेरुसदृशघृणंदसुधायते || २२ ||
तस्मातवश्यंमाचार्ययादाब्जयुगलेधने |
सद्य एव प्रदातव्यं पुरश्चरणकर्मसु || २३ ||
एव नानपिभिक्षित्वा स्वंत्यजानषि |
सद्योवितरणं कार्यमाचार्यार्थे महीयते || २४ ||
क्रुणं कृत्वापि वा देवं सद्य आचार्यपादयोः |
भिक्षान्नमपिवाचार्यकुले भिक्षे तत्रैव हि || २५ ||
अग्रीष्टोमादियागेपि दक्षिणाशस्त्र चोदिता |
सधरावप्रदातव्यामासत्रितयतोषि वा || २६ ||
सुपुत्रो यजमानीसौ विनश्यत्यन्यथा नृप |
विद्यसाशी भवेन्नित्यं चाग्रतभोजनः || २७ ||
अमृतं यज्ञशेवः स्याद्विद्यसंभुक्तशेषकुं |
हस्तौ प्रक्षाल्यगह्वषयः पिवेद्भोजनोत्तरैः || २८ ||
दैवं पित्मृतथात्मानं त्रयं स उपधातयेत् |
****** गणा अंगणिकान्नं चयाके || २९ ||
स्त्रीणां प्रथमगर्भेषु भुक्ताचांद्रायुणं चरेत् |
पक्षे वा यदि मासे वा यस्यगेहेति न द्विजः || ३० ||
नुक्तादुरात्मनस्तस्य चरैच्चंद्रायण व्रतं |
सत्रिणां दीक्षितानां च यतीनां ब्रह्मधाणां || ३१ ||
एतेषां सूतकं नास्ति क्रहितां कर्मकुर्वतां |
अजीर्णोत्युदितवांते श्मश्रुकर्मणि मैथुने || ३२ ||
दुःस्वप्नेदुजेनस्पर्शेस्तीनमेव विधीयते |
चैसुवृक्षेधिंतिंपूयं शिवनिमोल्यभोजनं || ३३ ||
वेदविक्रयिणं स्पृष्ट्वा सवासातलुमाविशेत् |
अग्र्याग्रारगवांगोष्ठेदेव ब्राह्मणसन्निधी || ३४ ||
स्वाध्यायेभोजमेयानेयादुके परिवर्जयेत् |
खलक्षेत्रगतं धान्यं कूपवारिषु तज्जलं || ३५ ||
अग्राखादपितद्भाखं यच्च गोष्ठगतं ययः |
यद्वेष्टितशिराभुंक्ते घान्दङ्गे दक्षिणामुखः || ३६ ||
सोयानत्कः पिवेद्भेतद्वैरत्यांसिभुंजते |
धर्मशास्त्ररथारुषवेदखड्गधराद्विजा || ३७ ||
क्रोडोर्थमपि यद्वायुः धर्मपरमः स्मृतः |
गंधाभरणयात्यानियः प्रायच्छति संततं || ३८ ||
स सुगंधिं सदादृष्टो यत्र यत्र प्रजापते |
अमृतं ब्राह्मणं स्याभंक्षत्रियान्नं ययः स्मृतः || ३९ ||
वैश्यस्यस्य चाःन्नमेवात्रं शूद्रान्नं रुधिरं स्मृतं |
वैश्वदेवेन होमेन देवताभ्यर्चनैर्जयैः || ४० ||
अमृतं तेन विप्रान्नमृग्ययुः सामसं स्मृतं |
व्यवहारानुरूपेणन्यायेन यद्दयाज्जनं || ४१ ||
क्षत्रियस्य ययस्तेन प्रजापालन कोद्रवं |
प्रवाहानद्ध वायमत्रमुत्वाधमिच्छति || ४२ ||
प्. ७५अ)
निरायज्ञविधानेन वैश्यान्नं तेन संस्मृतं |
अज्ञानतिमिराधस्यमद्यपानरतस्यत्र || ४३ ||
रुधिरं तेन शूद्रान्नं दैवमंत्र विवर्जितं |
नवृथांशयथं कुर्यात् स्वल्येप्यर्थेनरोवुधः || ४४ ||
वृथा हि शयथं कर्वन्प्रेत्यवेह विनश्यति |
कामिनीषु विवाहेषु गवां भक्तं जनक्षये || ४५ ||
ब्राहमणाद्युययतौवशयथे नास्ति यातकं |
नयमं यमष्णाहरात्मावैयम उच्यते || ४६ ||
आत्मनं यमितो येन तं यमः किकरिष्यति |
एकः क्षमावतां दोषानद्वितीयः कथंचन || ४७ ||
यदेनं क्षमयायुक्तमशक्तं मन्यते जनः || ४८ ||
न तस्य शास्त्राभिरतस्य मोक्षो न चैव रम्यावसथ प्रियस्य |
न भोजनाच्छादनतरस्य न लोकचितग्रहणेरतस्य || ||
एकांतशीलस्यसु दैवतस्य सवैद्रियप्रीतिनिवर्तकिस्य |
स्वाध्याययोगेरतमानसस्य मोक्षो ध्रुवं नित्यमहिंसकस्य || ४९ ||
श्रीभगवानुवाच
न्यायागतधनस्तत्वज्ञाननिष्ठेतिव्यिप्रियः |
श्रीद्व्रत्सत्यवादी च नित्यमाचार्यसेवकः || ५० ||
भगवद्रश्मिसहित श्रीमदष्टाक्षरीतः |
देवतानामृषीणां वाप्यनुग्रहात् || ५१ ||
आचार्यानुग्रहान्मुक्तिं प्राप्रोत्येव गृहाश्रामी |
अनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये श्रुतिसंग्रहे || ||
अध्यायोयंत्रयो विशस्तंत्रे दाशरथीरित || १५२ ||
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीये तंत्रे वेदार्थसंग्रहे
त्रयोविंशोध्यायः ||
6okpz11d86vvbp4vy09fqscm9d27186
409281
409280
2025-06-27T05:34:56Z
Shubha
190
409281
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः २३
| previous = [[../अध्यायः २२|अध्यायः २२]]
| next = [[../अध्यायः २४|अध्यायः २४]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ७१ब्)
श्रीभगवानुवाच
पुनर्विशेषं वक्ष्यामि सदाचारस्य भूषते |
यं श्रुत्वोपि नरोहीमान्मुच्यतेयायराशिभिः || १ ||
सुसोहितार्थसंसिद्धिल्लभ्यर्तपुण्यभारतः |
तत्र पुण्यं भवेद्विप्रस्मृतिवर्त्मनानुभाजनात् || २ ||
स्तुतिवन्मंजुषं पुंसः सस्पर्शात्तप्यत्ते मुने |
कलिकालाद्वपि सदाछिद्रं प्राथजिघांसतः || ३ ||
वर्जितस्य विधानेन प्रोक्तस्याकरणीयतः |
कलिकालाहपि हतो ब्राह्मणे रंध्रदर्शनात || ४ ||
निषिद्धा चरणं तस्मात् कथयिष्येत वाग्रतः |
तद्ररतः परित्यज्य नरो न निरयी भवेत् || ५ ||
ब्रह्मश्चनान्वृक्षनिर्यासान् पायसाकृप एयूलीः |
अदौवपित्र्यं पललमवत्साणोय यस्यजेत् || ६ ||
लशुनं गजनमपि पलांडुं च परित्यजेत् |
वयवेकशफंद्वेपतक्रमेरकमाविकं || ७ ||
रात्रौ हधिनभोक्तव्यं हि वा च नवनीनकं |
आयुष्कामैः स्वर्गकामैःस्त्याज्यं मांसं प्रयत्नतः || ८ ||
यज्ञार्थद्यश्रुहिसायासाखग्यानेतरा क्वचित् |
त्यजेत्यर्युषितं सर्वमखंडस्नेहनिर्मित || ९ ||
प्राणाहायेक्रतौ श्राद्धेभेषजे विप्रद्राकाम्यया |
काल्यमित्थं यलं भक्षयन्न च दोषभाक् || १० ||
न तादृशं भवेत्यायं मृगयावृत्तिकांक्षिणः |
यादशांभवतीप्रत्यलौल्यान्मांसोयज्ञेविनः || ११ ||
मखार्थं ब्रह्मणा सृष्टाः पशुदमलः तौषधीः |
निघ्रन्नहिंसकोविप्रस्तासामपिशुभगतिः || १२ ||
पितृदेवक्र तु कृते मधुपर्क्वार्थमेव च |
अत्र हि साथ हिंसास्याद्विंसान्यत्र सुदस्तरा || १३ ||
योजंतूनान्मतत्यर्थं हि नस्तिज्ञानदुर्वलः |
दराचारस्यतस्थेह नामत्रापि सुखां क्वचित् || १४ ||
प्. ७२अ)
भाक्तानुमंतासंस्कर्ताक्रयविक्रयहिंसकाः |
उपकर्ताघातपिताहिंसका अष्टधा स्मृताः || १५ ||
प्रत्यब्दमश्वमेधेन शतवर्षाणि यो यजेत् |
अंमासभक्षको यस्तु द्वितीयोत्र विशिष्यते || १६ ||
यथैवात्मापरस्तवद्वृव्यः सखमिच्छता |
सुखदुःखानि तुल्यानि यथात्म्रनि तथापरे || १७ ||
सुखं वा यदिवाचान् यत् यत्किंत्कित्क्रियते परे |
यक्वातं हि पुनः यश्चित्सार्वमात्मनिसर्भवेत् || १८ ||
नल्केशेन विना द्रव्यमर्थहीनेहीने कुतः |
क्रियां क्रियाहीने कुतो धर्मो धर्महीने कुतः सुखं || १९ ||
हि सर्वैराकांक्ष्यं तत्रं धर्मसमुदवं |
तस्माद्धेर्मोत्रकर्तव्यश्चातुर्वणे न यत्नतः || २० ||
सायागतेव द्रव्येण कर्तव्यं यारलोकिक |
दानं च विधिनादेयं कालेयात्रेवमावतः || २१ ||
विधिहीनमयात्रेपियो ददाति प्रतिग्रहं |
न केवलं हि धाति शेषं तस्य च नश्यति || २२ ||
व्यसनार्थे कुदुवार्थे यदगार्थे च दीयते |
तदक्षंय भवेदत्र यरत्र च न संशयः || २३ ||
आमचायेपत्नीपुत्रादिषोपणार्थं यतव्रतः |
ग्रहणादिषु कालेषु योध्वादादाराधृत || २४ ||
तस्य पुण्यफलं वक्तुं नथक्तोस्मि महीयते |
वर्ष्यशनमितं तद्द्रव्यं शतनिष्कमुदाहृतं || २५ ||
तदर्ध वा तदर्धं वा तत्र्यूनिनिष्यह्यं स्मृत |
आचार्यचरणांभोजे वर्षाशनमितं धनं || २६ ||
एकस्मिन्दिवसे दत्वा प्रतिप्तं वत्सरं नृप |
तुलापुरुषमुख्यानि महादानानि भूरिशः || २७ ||
कृत्वा दिने दिने वश्य तत्फलं प्राप्नुयादसौ |
पितृवश्यशतैयुक्तो मातर्वश्य शतैरपि || २८ ||
भगवत्सुन्निधावत्ते सुखमक्षयमश्रुते |
मातापितृविहीनये मौजीपाणि ग्रहादिभिः || २९ ||
संस्कारयतियेवितैस्तेषों श्रेयोक्षयं स्मृतं |
ब्राह्मणायदरिद्रायपाणिग्रहमितंधनं || ३० ||
यः प्रयच्छति धर्मात्मातस्यपुरांपयच्छति |
नाग्निहोत्रैर्नतर्च्चैयोनाग्निष्णोमादिभिर्मखैः || ३१ ||
यच्छ्रेयः प्राप्यतं मर्त्यैक विप्रप्रतिष्ठिते |
पित्तगेहेपियाकन्यारतः पश्य ससंस्कृना || ३२ ||
भूषणहातत्पिताज्ञेयो ज्ञेषलीसापि कन्यका |
यस्तापरिणयेन्मोहात् सभवेद्वषलोपतिः || ३३ ||
तेन संभाषणं लाज्यमयांज्गेयेन संततं |
विज्ञाप्य दोषभयोः कन्यायाश्च वरस्य च || ३४ ||
संकधरचयेत्पश्चदन्यथादोषभाक्पिता |
स्त्रियः पवित्राः सततं नैतादष्यंती कुत्रवित् || ३५ ||
प्. ७२ब्)
स्त्रीणां सौ ददौ सोमः पावकः सर्वमेध्यातां |
कल्याणवाणीं गंधर्वस्तेनमेध्यास्सदास्त्रियः || ३६ ||
कन्यां भुक्ते रजः कालेग्रिः शशिरोमदर्शने |
श्रुतोद्भवेत्तुगंधर्वास्तल्यागे च प्रदीयते || ३७ ||
दश्यरोमत्वयत्यघ्नीकुलघ्र्युहतयौवना |
पितघ्नाविकृतरजास्रतस्तां परिवर्जयेत् || ३८ ||
कयादानफलप्रेशुस्तस्मादृवादग्नीकां |
अन्यथा तत्फलदातुः प्रतिग्राहीय तत्यधः || ३९ ||
कन्यामभुक्तं सोमाद्यैर्दघ्हानफलं लभेत् |
देवभुक्तां दददाता न स्वर्गमधिगच्छति || ४० ||
शयनासनदानानि कुतयः स्त्रीमुखं श्रुकं |
यज्ञेयात्राणि सर्वासिनदुष्यंति वुधाः क्वचित् || ४१ ||
वत्सः प्रस्तवने वने मेध्यः शकुनिः फलयातने |
नार्योरति प्रयोगेष्यश्घ्रामृगग्रहणेशुचिः || ४२ ||
अजाश्चयोमुखं मेध्ये गावो मेध्यास्तुष्टष्ठतः |
ब्राह्मणाह् यादतो मेध्याः स्त्रियोमेध्याश्च सर्वतः || ४३ ||
वलारेण भुक्तावाचोरहस्तगतापि वा |
नत्यात्यादूषितानारीनारुपागोनविधीयते || ४४ ||
अश्लेनताम्रशुद्धिस्याच्छद्विः कांस्यंप्त्यभस्मना |
संशुद्धारजसानार्यस्तटिनीवेगतः शुचिः || ४५ ||
मनसपिनयानारीस्मरेत्पुरुषांतरं |
सोमयाससौख्यानिभुंजेचात्रीपिकीर्तिभाक् || ४६ ||
यितापितामहोभ्रातासुकुल्योजननी तथा |
कन्याप्रदः प्रर्वनाशे प्रकृतिस्थः परः परः || ४७ ||
अप्रच्छन्समामोतिभूणहसामृतौनृप |
गम्यं त्वभावेदातणां कन्याकुर्यात् स्वयंवरं || ४८ ||
हताधिकासमलिनां पिडमात्रो यजोविनी |
परिभूतामधः शययां वासयेधभिचारिणी || ४९ ||
व्यभिचाराहतौ शुद्धिर्गर्भौत्यार्गोविषोयत्ते |
गर्भभर्तवधादौ च भक्षत्यपिचयातके || ५० ||
आरोप्य शूशूद्रां शवयने विप्रोगच्छत्यधी |
गत्तिं उत्याद्यपुत्रं शूद्रायां ब्राह्मण्यादेवहीयते || ५१ ||
दैवपि आतिथीप्याति तत्प्रदानानि यस्य तु |
देवाघास्तनवाश्रंति स वह्व च स्वार्गं न गच्छति || ५२ ||
यागयोग्यानिहेहानिश्यं स प्रतिपूजिताः |
कृत्याभिर्निहतानीवयश्येयुष्मान्यं संशयः || ५३ ||
तदभ्यर्च्याः सुवासिन्यो भूषरागछादनाशनैः |
भूतिकामैतरैतित्यं संकटेषूत्कटेषु च || ५४ ||
यत्रनार्यः प्रमुदिता भूषणाच्छाअनाशनैः |
रमंतेवतास्तत्र तत्रस्युः सफलाः क्रियाः || ५५ ||
अक्षयश्रेय इच्छाद्भेर्वासोन्नैर्दिव्यभूष |
आचार्यपत्नी संपूज्या विशेषाद्भार्गवेदिने || ५६ ||
प्. ७३अ)
अक्षयायांततीयायां न ग्वरात्र व्रतेपि च |
ताटंकहेमचिंताकवाली युग्मादिभूषणैः || ५७ ||
आचार्यपत्नीमभ्यव्ये साक्षाल्लक्ष्मीधिया नृप |
विमुक्तः सकलायभ्णेदुस्तरात्संकटादपि || ५८ ||
कुवेरसदृशोलक्ष्म्यात्ततोतेमुक्तिःभाग्भवेत् |
यत्र तुष्यति भर्त्रा स्त्रीययाभर्ताचतुष्यति || ५९ ||
तत्र वेश्मनिकल्याणं संयधेत पदे पदे |
तयो हतो हतो हतो होमः प्रहुतोभौतिकोवलिः || ६० ||
प्रास्तितं पितृ संहृप्रिःर्हुतं ब्राह्मद्विजार्घनं |
पंचयज्ञानिमान्कुर्वन्ब्राह्मणोनासीदति || ६१ ||
एतस्या अननुष्टानात्यं च सूनीमवाप्नुयात् |
ब्राह्माणं कुशलं पृच्छेद्वाहुजातमनामयं || ६२ ||
वैश्यं सुखं स्वमागप्यशूद्रं संतोषमेव च |
जातमात्रः शिश्रुस्तावधावदष्टौ समाः स्मृताः || ६३ ||
भक्ष्याभक्ष्येपुनोदुष्येद्यावन्नेवोपनीयते |
भरणं योष्यवर्गस्य दृष्टादष्टफलोदयं || ६४ ||
प्रसवायो स्वभरणे भर्तव्यस्त प्रयत्नतः |
आचार्यः स्वयित्तामात्वपसानि समाश्रिताः || ६५ ||
अन्यागतो तिथिश्चाग्रीः प्रोष्यवर्गा अमोनव |
सजीवति युमान्यत्रैवह्निभिश्चीयजीव्यते || ६६ ||
जीवन्मतोथविज्ञेयः केवलं स्वोदरंभरः |
दो नानाःथ विशिष्टेभ्यो दातव्यं भूति काम्यया || ६७ ||
अदतदानाजपंतेयरभाग्योयजीविनः |
विभागशीलसंयुक्तोदयावोंश्च क्षमान्वितः || ६८ ||
देवतातिथिभक्तश्च गृहस्थोधार्मिकः स्मृतः |
शर्वरामध्यमौयामौहुतशेषं च यद्धविः || ६९ ||
तत्र स्वयस्तदश्चश्च ब्राह्माणो नावसीदति |
नवैतानि गृहस्थेन कायोरायभ्यागतेगुरो || ७० ||
मुदा व्ययानि यत्साम्यं वाष्यं चतुक्षुर्मनोमुखं |
अभ्युत्थानमिहायातसस्तेहं पूर्वभाषणं || ७१ ||
उपासनमनुवज्यगृहर्स्थेन्नति हेतवः |
तथैवव्यययुक्तानि कार्याण्येतामिनैव || ७२ ||
आसनं यादशौचं च यथाशक्ताशयनं क्षितिः |
शययातृणजलाभ्यंगदिवागार्हस्थासिद्धिदाः || ७३ ||
तथैव नवकर्माणि त्याज्यानिगृहामेधिना |
पैशून्यं यरदाराश्चद्रोहः क्रोधानृताप्रियः || ७४ ||
द्वेषोदंभश्च माया च स्वर्गमार्गार्गलात्यिहि |
नवाश्यककर्माणि कार्याणि प्रतिवासरं || ७५ ||
स्नानसंध्याजपोहोमः स्वाध्यायो देवतार्चने |
वैश्च देवं तथातिथ्यं नवमं पितृतर्पणं || ७६ ||
नवगोप्यानियान्यत्रमुनेतानि निशामय |
जन्मर्क्षमैथुनं मंत्रीगृहछिद्र च वनं || ७७ ||
प्. ७३ब्)
आयुर्धुनामदानं च स्त्री न प्रकास्यानि सर्वदी |
नवैतानि प्रकाश्यानिरहः पापमकुत्सितं || ७८ ||
प्रायीश्चमणशुद्धिश्रीस्वान्वयः क्रयविक्रयौ |
कन्यादानं गुणोत्वा षोनान्यत्केनापि कुत्रचित् || ७९ ||
यात्रमित्रविनीतेषुदीनानाथोयकारिषु |
मातापितृगृरुष्वेवनवकंदतमक्षय || ८० ||
निष्फलं न वस्तत्कं चाटवारणतस्करे |
कुवैद्येकितवे धूर्ते शठे मल्ले च वंदिषु || ८१ ||
आपःत्स्वपि न देयानि नववस्तूनि सर्वदो |
पुत्रेषु सात्ससर्वस्वंदाराश्च शरणागताः || ८२ ||
न्यासार्थः कुलवृत्तिश्च निक्षेपः स्त्रीधनंसुतः |
यो ददाति सभूढात्मा प्राप्रश्रितैर्विशूध्यति || ८३ ||
आचार्यायैव सर्वस्वं पुरश्चरणकर्मणि |
देयं च विश्वविद्यागेनान्यत्कस्मापि कुत्रचित् || ८४ ||
एतन्नवानां नवकं ज्ञात्वा श्रियमवाप्रुया |
अन्यति नवकं वच्मि सर्वेषां स्वर्गमार्गदं || ८५ ||
सत्यं शौचमहिंसा वक्षांतिदोनं दयादयः |
उस्तेयमिंद्रियाक्रोधस्सर्वेषोधर्मसाधनं || ८६ ||
अम्यस्थं नवति चैतां स्वर्गमार्गप्रदीपिकां |
सतामभिमतां पुण्यं गृहस्थोनावसीदति || ८७ ||
जिह्वाभार्यासुतोभ्रातीमित्रदास समाश्रिताः |
यस्यैतैविनयाढ्याश्च तस्य सर्वत्र गौरवं || ८८ ||
यानं दुर्जनसंसर्गः यत्या च विरहोटनं |
स्यायोन्यगृहवासश्चनारीणां दूषणानी षट् || ८९ ||
समर्धधान्यसुद्वसह्यनर्येयः प्रयच्छे |
सवार्धुषिक इत्युक्तस्सर्वकर्मवहिच्छ्रुतः || ९० ||
महिषो सुच्यते भायोया भवेढ्यभिरिणीतां |
दष्टांकामयातो सोनाम्रामाहिषिकह् स्मृतः || ९१ ||
अग्रैमाहिषिकं दृष्ट्वा मध्ये तु द्वाषलीपतिं |
अतेवार्धुषिकं दृष्ट्वा निराशाःपिरामाः पीतरोगताः || ९२ ||
यावदष्णंभवत्यन्नं यावत्मोनीमभुज्यते |
तावदश्रंतितरोयावभीक्तोहविर्गुणः || ९३ ||
विधाविनयसंपन्नेश्रीत्रियेगृहमागते |
क्रीडत्योषधयः सर्वायास्यामः परमांगतिं || ९४ ||
भ्रष्टशौचव्रताचारे विप्रेवेदविवर्जिते |
रोदित्यन्नदीपमानं किं मयादुष्टतंकृतं || ९५ ||
यस्योदणतस्यात्रं वेदाभ्यासेनतीर्यते |
सतारयति दातारं दशपूर्वान्दृशापरान् || ९६ ||
न स्त्रीणां वयनं कार्यं नवगाः समनुव्रजेत् |
नवरात्रौवसेर्जाष्टेन कुर्याद्वैदिकां श्रुतिं || ९७ ||
सर्वान्कशान्समुद्वत्यछेदयेद्वंगुलीद्वयं |
सुवासिनीनामेवं स्यान्नाथश्चामुंडनं भवेत् || ९८ ||
राजा वा राजपुत्रो वा ब्राह्मणो वहुशो श्रुतः |
केशानां रक्षणार्थायष्वाद्विगुणदक्षिणां || ९९ ||
यो गृहीत्वा विवासिनी नामेवं स्यान्नान्यथा मुंडनं भवेत् || ९८ ||
प्. ७४अ)
राजा वा राजयुक्तो वा ब्राह्मणो वहुथो श्रुतः |
केशानां रक्षणार्थाय दद्याद्विगुणदक्षिणां || ९९ ||
यो गृहीत्वा विंवाद्वाग्रो गृहस्थांति मन्यते |
अन्नतस्य न भोक्तव्यं कृथायाकोहि संस्मृतः || १०० ||
दाराग्री हीत्रदीक्षी च कुरुते यो ग्रजोस्थिते |
परिवेता स विज्ञेयःषरिविती च पूर्यतः || १ ||
सर्वे सर्वेते नरकं यां दातयाजकयंचमाः |
पीठेदेशांतरस्थे च सूके प्रव्रतितं जडे || २ ||
कर्ष्टुखर्वेचयति तेन दोषः वरिवेदने |
वेदाक्षराणि यावंति नियुंज्यादर्थकारणात् || ३ ||
तावंति भूणहत्या निर्वदविक्रयकृल्लभेत् |
यस्वसुव्रातितो भूत्वासेवग्तेमैथुनपुनः || ४ ||
वष्टिर्वर्ष सहस्राणिविष्टायाटे कृमिः शूद्रीन्नं |
शूरसंसंपर्कं शूद्रेण सहासनं || ५ ||
शूद्राद्विद्यागमः कश्चिज्जाक्षलंतमपि पातयेत् |
शूद्रादाहृत्यनिर्वायंये यत्यवुधाद्विजाः || ६ ||
तेयांति नरकं घोरकं ब्रह्मतेजो विवर्जितताः |
हस्तदतातिलवणव्यं जनादीनि संततं || ७ ||
दातारं नोयतिष्टंविभोक्तार्भहेतु किल्विषं |
आससे नैव पात्रेणयदन्नमुपदीयते || ८ ||
भोक्तः स्याद्विणं यायं दाता च नरकं व्रजेत् |
अंगुल्यादतकाव्यं प्रलक्षलवणं च यत् || ९ ||
मृतिकाभक्षणमविसमंगोत्यां सभक्षणं |
अग्रतोनिवसेन्सूखोहृरैश्चगुणान्वितः || १० ||
गुणान्विताय दातव्यं नास्मिमूर्कहिव्यतिक्रमः |
ब्राह्मणाति क्रमोनास्ति विप्रे वेदविवर्जित || ११ ||
ज्वलेतमग्निमुत्स्मृज्य नहिभस्मनिहूयते |
सान्निकृष्टमधीयातं ब्राह्मणं यो व्यतिक्रामेत || १२ ||
भोजनै च वदाने च विनाचार्यं स किल्विषी |
गोरक्षकान् वाणितकात्स्तथा कामकुशीलकान् || १३ ||
प्रोष्यान्वाहुषिकांश्चापि विप्रान् ष्यद्रवदाचरेत् |
देवद्रव्यविभागेनाचार्यं स किल्विषी गोरक्षाकान् वाणिजकात्स्तथा
कामकुशीलकान् || १३ ||
प्रेष्यान्वार्द्धषिकांश्चापि विद्रान्ष्यद्रावदाचरेत् |
देवद्रव्यनिभागेन ब्रह्मस्वहरणेन च || १४ ||
कुलान्याशुविनश्यंतिश्वाहार्योतिक्रेणेगाच |
मादेएहीति वचः प्रोक्तोगवादि ब्राह्मणेषू च श्यतिर्यग्योण्मासाभ्यंतरेपि वा || १७
||
पयलेनापि दातव्यमिच्छद्भिः श्रेय उत्तमं |
आचार्यचरणांभोजेपुरश्चरणाकर्मणि || १८ ||
सद्य एव प्रदातव्यादथ्रिणाशास्त्रधोदिना |
मासास्यंतरतोवश्यमथवा दक्षिणाशुभा || १९ ||
आचार्याय प्रदातव्या महती सिद्धिमिच्छता |
मासाद्वयात्त्रिभिर्मासैर्दाः तव्यावृद्धिसंयुताः || २० ||
प्. ७४ब्)
मासत्रयमतिक्रम्य दातव्या द्विगुणानृप |
मासषसूमतिक्रम्यस्वर्णेयीपतत्यधः || २१ ||
आचार्ययप्रतिज्ञातं यत्किंचिपित्रावप्तु |
मासेननेनेरुसदृशघृणंदसुधायते || २२ ||
तस्मातवश्यंमाचार्ययादाब्जयुगलेधने |
सद्य एव प्रदातव्यं पुरश्चरणकर्मसु || २३ ||
एव नानपिभिक्षित्वा स्वंत्यजानषि |
सद्योवितरणं कार्यमाचार्यार्थे महीयते || २४ ||
क्रुणं कृत्वापि वा देवं सद्य आचार्यपादयोः |
भिक्षान्नमपिवाचार्यकुले भिक्षे तत्रैव हि || २५ ||
अग्रीष्टोमादियागेपि दक्षिणाशस्त्र चोदिता |
सधरावप्रदातव्यामासत्रितयतोषि वा || २६ ||
सुपुत्रो यजमानीसौ विनश्यत्यन्यथा नृप |
विद्यसाशी भवेन्नित्यं चाग्रतभोजनः || २७ ||
अमृतं यज्ञशेवः स्याद्विद्यसंभुक्तशेषकुं |
हस्तौ प्रक्षाल्यगह्वषयः पिवेद्भोजनोत्तरैः || २८ ||
दैवं पित्मृतथात्मानं त्रयं स उपधातयेत् |
****** गणा अंगणिकान्नं चयाके || २९ ||
स्त्रीणां प्रथमगर्भेषु भुक्ताचांद्रायुणं चरेत् |
पक्षे वा यदि मासे वा यस्यगेहेति न द्विजः || ३० ||
नुक्तादुरात्मनस्तस्य चरैच्चंद्रायण व्रतं |
सत्रिणां दीक्षितानां च यतीनां ब्रह्मधाणां || ३१ ||
एतेषां सूतकं नास्ति क्रहितां कर्मकुर्वतां |
अजीर्णोत्युदितवांते श्मश्रुकर्मणि मैथुने || ३२ ||
दुःस्वप्नेदुजेनस्पर्शेस्तीनमेव विधीयते |
चैसुवृक्षेधिंतिंपूयं शिवनिमोल्यभोजनं || ३३ ||
वेदविक्रयिणं स्पृष्ट्वा सवासातलुमाविशेत् |
अग्र्याग्रारगवांगोष्ठेदेव ब्राह्मणसन्निधी || ३४ ||
स्वाध्यायेभोजमेयानेयादुके परिवर्जयेत् |
खलक्षेत्रगतं धान्यं कूपवारिषु तज्जलं || ३५ ||
अग्राखादपितद्भाखं यच्च गोष्ठगतं ययः |
यद्वेष्टितशिराभुंक्ते घान्दङ्गे दक्षिणामुखः || ३६ ||
सोयानत्कः पिवेद्भेतद्वैरत्यांसिभुंजते |
धर्मशास्त्ररथारुषवेदखड्गधराद्विजा || ३७ ||
क्रोडोर्थमपि यद्वायुः धर्मपरमः स्मृतः |
गंधाभरणयात्यानियः प्रायच्छति संततं || ३८ ||
स सुगंधिं सदादृष्टो यत्र यत्र प्रजापते |
अमृतं ब्राह्मणं स्याभंक्षत्रियान्नं ययः स्मृतः || ३९ ||
वैश्यस्यस्य चाःन्नमेवात्रं शूद्रान्नं रुधिरं स्मृतं |
वैश्वदेवेन होमेन देवताभ्यर्चनैर्जयैः || ४० ||
अमृतं तेन विप्रान्नमृग्ययुः सामसं स्मृतं |
व्यवहारानुरूपेणन्यायेन यद्दयाज्जनं || ४१ ||
क्षत्रियस्य ययस्तेन प्रजापालन कोद्रवं |
प्रवाहानद्ध वायमत्रमुत्वाधमिच्छति || ४२ ||
प्. ७५अ)
निरायज्ञविधानेन वैश्यान्नं तेन संस्मृतं |
अज्ञानतिमिराधस्यमद्यपानरतस्यत्र || ४३ ||
रुधिरं तेन शूद्रान्नं दैवमंत्र विवर्जितं |
नवृथांशयथं कुर्यात् स्वल्येप्यर्थेनरोवुधः || ४४ ||
वृथा हि शयथं कर्वन्प्रेत्यवेह विनश्यति |
कामिनीषु विवाहेषु गवां भक्तं जनक्षये || ४५ ||
ब्राहमणाद्युययतौवशयथे नास्ति यातकं |
नयमं यमष्णाहरात्मावैयम उच्यते || ४६ ||
आत्मनं यमितो येन तं यमः किकरिष्यति |
एकः क्षमावतां दोषानद्वितीयः कथंचन || ४७ ||
यदेनं क्षमयायुक्तमशक्तं मन्यते जनः || ४८ ||
न तस्य शास्त्राभिरतस्य मोक्षो न चैव रम्यावसथ प्रियस्य |
न भोजनाच्छादनतरस्य न लोकचितग्रहणेरतस्य || ||
एकांतशीलस्यसु दैवतस्य सवैद्रियप्रीतिनिवर्तकिस्य |
स्वाध्याययोगेरतमानसस्य मोक्षो ध्रुवं नित्यमहिंसकस्य || ४९ ||
श्रीभगवानुवाच
न्यायागतधनस्तत्वज्ञाननिष्ठेतिव्यिप्रियः |
श्रीद्व्रत्सत्यवादी च नित्यमाचार्यसेवकः || ५० ||
भगवद्रश्मिसहित श्रीमदष्टाक्षरीतः |
देवतानामृषीणां वाप्यनुग्रहात् || ५१ ||
आचार्यानुग्रहान्मुक्तिं प्राप्रोत्येव गृहाश्रामी |
अनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये श्रुतिसंग्रहे || ||
अध्यायोयंत्रयो विशस्तंत्रे दाशरथीरित || १५२ ||
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीये तंत्रे वेदार्थसंग्रहे
त्रयोविंशोध्यायः ||
</poem>
hxrrj17o0nuaqfw8q8fjeqi7d9gyh52
409282
409281
2025-06-27T05:35:14Z
Shubha
190
409282
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः २३
| previous = [[../अध्यायः २२|अध्यायः २२]]
| next = [[../अध्यायः २४|अध्यायः २४]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ७१ब्)
श्रीभगवानुवाच
पुनर्विशेषं वक्ष्यामि सदाचारस्य भूषते ।
यं श्रुत्वोपि नरोहीमान्मुच्यतेयायराशिभिः ।। १ ।।
सुसोहितार्थसंसिद्धिल्लभ्यर्तपुण्यभारतः ।
तत्र पुण्यं भवेद्विप्रस्मृतिवर्त्मनानुभाजनात् ।। २ ।।
स्तुतिवन्मंजुषं पुंसः सस्पर्शात्तप्यत्ते मुने ।
कलिकालाद्वपि सदाछिद्रं प्राथजिघांसतः ।। ३ ।।
वर्जितस्य विधानेन प्रोक्तस्याकरणीयतः ।
कलिकालाहपि हतो ब्राह्मणे रंध्रदर्शनात ।। ४ ।।
निषिद्धा चरणं तस्मात् कथयिष्येत वाग्रतः ।
तद्ररतः परित्यज्य नरो न निरयी भवेत् ।। ५ ।।
ब्रह्मश्चनान्वृक्षनिर्यासान् पायसाकृप एयूलीः ।
अदौवपित्र्यं पललमवत्साणोय यस्यजेत् ।। ६ ।।
लशुनं गजनमपि पलांडुं च परित्यजेत् ।
वयवेकशफंद्वेपतक्रमेरकमाविकं ।। ७ ।।
रात्रौ हधिनभोक्तव्यं हि वा च नवनीनकं ।
आयुष्कामैः स्वर्गकामैःस्त्याज्यं मांसं प्रयत्नतः ।। ८ ।।
यज्ञार्थद्यश्रुहिसायासाखग्यानेतरा क्वचित् ।
त्यजेत्यर्युषितं सर्वमखंडस्नेहनिर्मित ।। ९ ।।
प्राणाहायेक्रतौ श्राद्धेभेषजे विप्रद्राकाम्यया ।
काल्यमित्थं यलं भक्षयन्न च दोषभाक् ।। १० ।।
न तादृशं भवेत्यायं मृगयावृत्तिकांक्षिणः ।
यादशांभवतीप्रत्यलौल्यान्मांसोयज्ञेविनः ।। ११ ।।
मखार्थं ब्रह्मणा सृष्टाः पशुदमलः तौषधीः ।
निघ्रन्नहिंसकोविप्रस्तासामपिशुभगतिः ।। १२ ।।
पितृदेवक्र तु कृते मधुपर्क्वार्थमेव च ।
अत्र हि साथ हिंसास्याद्विंसान्यत्र सुदस्तरा ।। १३ ।।
योजंतूनान्मतत्यर्थं हि नस्तिज्ञानदुर्वलः ।
दराचारस्यतस्थेह नामत्रापि सुखां क्वचित् ।। १४ ।।
प्. ७२अ)
भाक्तानुमंतासंस्कर्ताक्रयविक्रयहिंसकाः ।
उपकर्ताघातपिताहिंसका अष्टधा स्मृताः ।। १५ ।।
प्रत्यब्दमश्वमेधेन शतवर्षाणि यो यजेत् ।
अंमासभक्षको यस्तु द्वितीयोत्र विशिष्यते ।। १६ ।।
यथैवात्मापरस्तवद्वृव्यः सखमिच्छता ।
सुखदुःखानि तुल्यानि यथात्म्रनि तथापरे ।। १७ ।।
सुखं वा यदिवाचान् यत् यत्किंत्कित्क्रियते परे ।
यक्वातं हि पुनः यश्चित्सार्वमात्मनिसर्भवेत् ।। १८ ।।
नल्केशेन विना द्रव्यमर्थहीनेहीने कुतः ।
क्रियां क्रियाहीने कुतो धर्मो धर्महीने कुतः सुखं ।। १९ ।।
हि सर्वैराकांक्ष्यं तत्रं धर्मसमुदवं ।
तस्माद्धेर्मोत्रकर्तव्यश्चातुर्वणे न यत्नतः ।। २० ।।
सायागतेव द्रव्येण कर्तव्यं यारलोकिक ।
दानं च विधिनादेयं कालेयात्रेवमावतः ।। २१ ।।
विधिहीनमयात्रेपियो ददाति प्रतिग्रहं ।
न केवलं हि धाति शेषं तस्य च नश्यति ।। २२ ।।
व्यसनार्थे कुदुवार्थे यदगार्थे च दीयते ।
तदक्षंय भवेदत्र यरत्र च न संशयः ।। २३ ।।
आमचायेपत्नीपुत्रादिषोपणार्थं यतव्रतः ।
ग्रहणादिषु कालेषु योध्वादादाराधृत ।। २४ ।।
तस्य पुण्यफलं वक्तुं नथक्तोस्मि महीयते ।
वर्ष्यशनमितं तद्द्रव्यं शतनिष्कमुदाहृतं ।। २५ ।।
तदर्ध वा तदर्धं वा तत्र्यूनिनिष्यह्यं स्मृत ।
आचार्यचरणांभोजे वर्षाशनमितं धनं ।। २६ ।।
एकस्मिन्दिवसे दत्वा प्रतिप्तं वत्सरं नृप ।
तुलापुरुषमुख्यानि महादानानि भूरिशः ।। २७ ।।
कृत्वा दिने दिने वश्य तत्फलं प्राप्नुयादसौ ।
पितृवश्यशतैयुक्तो मातर्वश्य शतैरपि ।। २८ ।।
भगवत्सुन्निधावत्ते सुखमक्षयमश्रुते ।
मातापितृविहीनये मौजीपाणि ग्रहादिभिः ।। २९ ।।
संस्कारयतियेवितैस्तेषों श्रेयोक्षयं स्मृतं ।
ब्राह्मणायदरिद्रायपाणिग्रहमितंधनं ।। ३० ।।
यः प्रयच्छति धर्मात्मातस्यपुरांपयच्छति ।
नाग्निहोत्रैर्नतर्च्चैयोनाग्निष्णोमादिभिर्मखैः ।। ३१ ।।
यच्छ्रेयः प्राप्यतं मर्त्यैक विप्रप्रतिष्ठिते ।
पित्तगेहेपियाकन्यारतः पश्य ससंस्कृना ।। ३२ ।।
भूषणहातत्पिताज्ञेयो ज्ञेषलीसापि कन्यका ।
यस्तापरिणयेन्मोहात् सभवेद्वषलोपतिः ।। ३३ ।।
तेन संभाषणं लाज्यमयांज्गेयेन संततं ।
विज्ञाप्य दोषभयोः कन्यायाश्च वरस्य च ।। ३४ ।।
संकधरचयेत्पश्चदन्यथादोषभाक्पिता ।
स्त्रियः पवित्राः सततं नैतादष्यंती कुत्रवित् ।। ३५ ।।
प्. ७२ब्)
स्त्रीणां सौ ददौ सोमः पावकः सर्वमेध्यातां ।
कल्याणवाणीं गंधर्वस्तेनमेध्यास्सदास्त्रियः ।। ३६ ।।
कन्यां भुक्ते रजः कालेग्रिः शशिरोमदर्शने ।
श्रुतोद्भवेत्तुगंधर्वास्तल्यागे च प्रदीयते ।। ३७ ।।
दश्यरोमत्वयत्यघ्नीकुलघ्र्युहतयौवना ।
पितघ्नाविकृतरजास्रतस्तां परिवर्जयेत् ।। ३८ ।।
कयादानफलप्रेशुस्तस्मादृवादग्नीकां ।
अन्यथा तत्फलदातुः प्रतिग्राहीय तत्यधः ।। ३९ ।।
कन्यामभुक्तं सोमाद्यैर्दघ्हानफलं लभेत् ।
देवभुक्तां दददाता न स्वर्गमधिगच्छति ।। ४० ।।
शयनासनदानानि कुतयः स्त्रीमुखं श्रुकं ।
यज्ञेयात्राणि सर्वासिनदुष्यंति वुधाः क्वचित् ।। ४१ ।।
वत्सः प्रस्तवने वने मेध्यः शकुनिः फलयातने ।
नार्योरति प्रयोगेष्यश्घ्रामृगग्रहणेशुचिः ।। ४२ ।।
अजाश्चयोमुखं मेध्ये गावो मेध्यास्तुष्टष्ठतः ।
ब्राह्मणाह् यादतो मेध्याः स्त्रियोमेध्याश्च सर्वतः ।। ४३ ।।
वलारेण भुक्तावाचोरहस्तगतापि वा ।
नत्यात्यादूषितानारीनारुपागोनविधीयते ।। ४४ ।।
अश्लेनताम्रशुद्धिस्याच्छद्विः कांस्यंप्त्यभस्मना ।
संशुद्धारजसानार्यस्तटिनीवेगतः शुचिः ।। ४५ ।।
मनसपिनयानारीस्मरेत्पुरुषांतरं ।
सोमयाससौख्यानिभुंजेचात्रीपिकीर्तिभाक् ।। ४६ ।।
यितापितामहोभ्रातासुकुल्योजननी तथा ।
कन्याप्रदः प्रर्वनाशे प्रकृतिस्थः परः परः ।। ४७ ।।
अप्रच्छन्समामोतिभूणहसामृतौनृप ।
गम्यं त्वभावेदातणां कन्याकुर्यात् स्वयंवरं ।। ४८ ।।
हताधिकासमलिनां पिडमात्रो यजोविनी ।
परिभूतामधः शययां वासयेधभिचारिणी ।। ४९ ।।
व्यभिचाराहतौ शुद्धिर्गर्भौत्यार्गोविषोयत्ते ।
गर्भभर्तवधादौ च भक्षत्यपिचयातके ।। ५० ।।
आरोप्य शूशूद्रां शवयने विप्रोगच्छत्यधी ।
गत्तिं उत्याद्यपुत्रं शूद्रायां ब्राह्मण्यादेवहीयते ।। ५१ ।।
दैवपि आतिथीप्याति तत्प्रदानानि यस्य तु ।
देवाघास्तनवाश्रंति स वह्व च स्वार्गं न गच्छति ।। ५२ ।।
यागयोग्यानिहेहानिश्यं स प्रतिपूजिताः ।
कृत्याभिर्निहतानीवयश्येयुष्मान्यं संशयः ।। ५३ ।।
तदभ्यर्च्याः सुवासिन्यो भूषरागछादनाशनैः ।
भूतिकामैतरैतित्यं संकटेषूत्कटेषु च ।। ५४ ।।
यत्रनार्यः प्रमुदिता भूषणाच्छाअनाशनैः ।
रमंतेवतास्तत्र तत्रस्युः सफलाः क्रियाः ।। ५५ ।।
अक्षयश्रेय इच्छाद्भेर्वासोन्नैर्दिव्यभूष ।
आचार्यपत्नी संपूज्या विशेषाद्भार्गवेदिने ।। ५६ ।।
प्. ७३अ)
अक्षयायांततीयायां न ग्वरात्र व्रतेपि च ।
ताटंकहेमचिंताकवाली युग्मादिभूषणैः ।। ५७ ।।
आचार्यपत्नीमभ्यव्ये साक्षाल्लक्ष्मीधिया नृप ।
विमुक्तः सकलायभ्णेदुस्तरात्संकटादपि ।। ५८ ।।
कुवेरसदृशोलक्ष्म्यात्ततोतेमुक्तिःभाग्भवेत् ।
यत्र तुष्यति भर्त्रा स्त्रीययाभर्ताचतुष्यति ।। ५९ ।।
तत्र वेश्मनिकल्याणं संयधेत पदे पदे ।
तयो हतो हतो हतो होमः प्रहुतोभौतिकोवलिः ।। ६० ।।
प्रास्तितं पितृ संहृप्रिःर्हुतं ब्राह्मद्विजार्घनं ।
पंचयज्ञानिमान्कुर्वन्ब्राह्मणोनासीदति ।। ६१ ।।
एतस्या अननुष्टानात्यं च सूनीमवाप्नुयात् ।
ब्राह्माणं कुशलं पृच्छेद्वाहुजातमनामयं ।। ६२ ।।
वैश्यं सुखं स्वमागप्यशूद्रं संतोषमेव च ।
जातमात्रः शिश्रुस्तावधावदष्टौ समाः स्मृताः ।। ६३ ।।
भक्ष्याभक्ष्येपुनोदुष्येद्यावन्नेवोपनीयते ।
भरणं योष्यवर्गस्य दृष्टादष्टफलोदयं ।। ६४ ।।
प्रसवायो स्वभरणे भर्तव्यस्त प्रयत्नतः ।
आचार्यः स्वयित्तामात्वपसानि समाश्रिताः ।। ६५ ।।
अन्यागतो तिथिश्चाग्रीः प्रोष्यवर्गा अमोनव ।
सजीवति युमान्यत्रैवह्निभिश्चीयजीव्यते ।। ६६ ।।
जीवन्मतोथविज्ञेयः केवलं स्वोदरंभरः ।
दो नानाःथ विशिष्टेभ्यो दातव्यं भूति काम्यया ।। ६७ ।।
अदतदानाजपंतेयरभाग्योयजीविनः ।
विभागशीलसंयुक्तोदयावोंश्च क्षमान्वितः ।। ६८ ।।
देवतातिथिभक्तश्च गृहस्थोधार्मिकः स्मृतः ।
शर्वरामध्यमौयामौहुतशेषं च यद्धविः ।। ६९ ।।
तत्र स्वयस्तदश्चश्च ब्राह्माणो नावसीदति ।
नवैतानि गृहस्थेन कायोरायभ्यागतेगुरो ।। ७० ।।
मुदा व्ययानि यत्साम्यं वाष्यं चतुक्षुर्मनोमुखं ।
अभ्युत्थानमिहायातसस्तेहं पूर्वभाषणं ।। ७१ ।।
उपासनमनुवज्यगृहर्स्थेन्नति हेतवः ।
तथैवव्यययुक्तानि कार्याण्येतामिनैव ।। ७२ ।।
आसनं यादशौचं च यथाशक्ताशयनं क्षितिः ।
शययातृणजलाभ्यंगदिवागार्हस्थासिद्धिदाः ।। ७३ ।।
तथैव नवकर्माणि त्याज्यानिगृहामेधिना ।
पैशून्यं यरदाराश्चद्रोहः क्रोधानृताप्रियः ।। ७४ ।।
द्वेषोदंभश्च माया च स्वर्गमार्गार्गलात्यिहि ।
नवाश्यककर्माणि कार्याणि प्रतिवासरं ।। ७५ ।।
स्नानसंध्याजपोहोमः स्वाध्यायो देवतार्चने ।
वैश्च देवं तथातिथ्यं नवमं पितृतर्पणं ।। ७६ ।।
नवगोप्यानियान्यत्रमुनेतानि निशामय ।
जन्मर्क्षमैथुनं मंत्रीगृहछिद्र च वनं ।। ७७ ।।
प्. ७३ब्)
आयुर्धुनामदानं च स्त्री न प्रकास्यानि सर्वदी ।
नवैतानि प्रकाश्यानिरहः पापमकुत्सितं ।। ७८ ।।
प्रायीश्चमणशुद्धिश्रीस्वान्वयः क्रयविक्रयौ ।
कन्यादानं गुणोत्वा षोनान्यत्केनापि कुत्रचित् ।। ७९ ।।
यात्रमित्रविनीतेषुदीनानाथोयकारिषु ।
मातापितृगृरुष्वेवनवकंदतमक्षय ।। ८० ।।
निष्फलं न वस्तत्कं चाटवारणतस्करे ।
कुवैद्येकितवे धूर्ते शठे मल्ले च वंदिषु ।। ८१ ।।
आपःत्स्वपि न देयानि नववस्तूनि सर्वदो ।
पुत्रेषु सात्ससर्वस्वंदाराश्च शरणागताः ।। ८२ ।।
न्यासार्थः कुलवृत्तिश्च निक्षेपः स्त्रीधनंसुतः ।
यो ददाति सभूढात्मा प्राप्रश्रितैर्विशूध्यति ।। ८३ ।।
आचार्यायैव सर्वस्वं पुरश्चरणकर्मणि ।
देयं च विश्वविद्यागेनान्यत्कस्मापि कुत्रचित् ।। ८४ ।।
एतन्नवानां नवकं ज्ञात्वा श्रियमवाप्रुया ।
अन्यति नवकं वच्मि सर्वेषां स्वर्गमार्गदं ।। ८५ ।।
सत्यं शौचमहिंसा वक्षांतिदोनं दयादयः ।
उस्तेयमिंद्रियाक्रोधस्सर्वेषोधर्मसाधनं ।। ८६ ।।
अम्यस्थं नवति चैतां स्वर्गमार्गप्रदीपिकां ।
सतामभिमतां पुण्यं गृहस्थोनावसीदति ।। ८७ ।।
जिह्वाभार्यासुतोभ्रातीमित्रदास समाश्रिताः ।
यस्यैतैविनयाढ्याश्च तस्य सर्वत्र गौरवं ।। ८८ ।।
यानं दुर्जनसंसर्गः यत्या च विरहोटनं ।
स्यायोन्यगृहवासश्चनारीणां दूषणानी षट् ।। ८९ ।।
समर्धधान्यसुद्वसह्यनर्येयः प्रयच्छे ।
सवार्धुषिक इत्युक्तस्सर्वकर्मवहिच्छ्रुतः ।। ९० ।।
महिषो सुच्यते भायोया भवेढ्यभिरिणीतां ।
दष्टांकामयातो सोनाम्रामाहिषिकह् स्मृतः ।। ९१ ।।
अग्रैमाहिषिकं दृष्ट्वा मध्ये तु द्वाषलीपतिं ।
अतेवार्धुषिकं दृष्ट्वा निराशाःपिरामाः पीतरोगताः ।। ९२ ।।
यावदष्णंभवत्यन्नं यावत्मोनीमभुज्यते ।
तावदश्रंतितरोयावभीक्तोहविर्गुणः ।। ९३ ।।
विधाविनयसंपन्नेश्रीत्रियेगृहमागते ।
क्रीडत्योषधयः सर्वायास्यामः परमांगतिं ।। ९४ ।।
भ्रष्टशौचव्रताचारे विप्रेवेदविवर्जिते ।
रोदित्यन्नदीपमानं किं मयादुष्टतंकृतं ।। ९५ ।।
यस्योदणतस्यात्रं वेदाभ्यासेनतीर्यते ।
सतारयति दातारं दशपूर्वान्दृशापरान् ।। ९६ ।।
न स्त्रीणां वयनं कार्यं नवगाः समनुव्रजेत् ।
नवरात्रौवसेर्जाष्टेन कुर्याद्वैदिकां श्रुतिं ।। ९७ ।।
सर्वान्कशान्समुद्वत्यछेदयेद्वंगुलीद्वयं ।
सुवासिनीनामेवं स्यान्नाथश्चामुंडनं भवेत् ।। ९८ ।।
राजा वा राजपुत्रो वा ब्राह्मणो वहुशो श्रुतः ।
केशानां रक्षणार्थायष्वाद्विगुणदक्षिणां ।। ९९ ।।
यो गृहीत्वा विवासिनी नामेवं स्यान्नान्यथा मुंडनं भवेत् ।। ९८ ।।
प्. ७४अ)
राजा वा राजयुक्तो वा ब्राह्मणो वहुथो श्रुतः ।
केशानां रक्षणार्थाय दद्याद्विगुणदक्षिणां ।। ९९ ।।
यो गृहीत्वा विंवाद्वाग्रो गृहस्थांति मन्यते ।
अन्नतस्य न भोक्तव्यं कृथायाकोहि संस्मृतः ।। १०० ।।
दाराग्री हीत्रदीक्षी च कुरुते यो ग्रजोस्थिते ।
परिवेता स विज्ञेयःषरिविती च पूर्यतः ।। १ ।।
सर्वे सर्वेते नरकं यां दातयाजकयंचमाः ।
पीठेदेशांतरस्थे च सूके प्रव्रतितं जडे ।। २ ।।
कर्ष्टुखर्वेचयति तेन दोषः वरिवेदने ।
वेदाक्षराणि यावंति नियुंज्यादर्थकारणात् ।। ३ ।।
तावंति भूणहत्या निर्वदविक्रयकृल्लभेत् ।
यस्वसुव्रातितो भूत्वासेवग्तेमैथुनपुनः ।। ४ ।।
वष्टिर्वर्ष सहस्राणिविष्टायाटे कृमिः शूद्रीन्नं ।
शूरसंसंपर्कं शूद्रेण सहासनं ।। ५ ।।
शूद्राद्विद्यागमः कश्चिज्जाक्षलंतमपि पातयेत् ।
शूद्रादाहृत्यनिर्वायंये यत्यवुधाद्विजाः ।। ६ ।।
तेयांति नरकं घोरकं ब्रह्मतेजो विवर्जितताः ।
हस्तदतातिलवणव्यं जनादीनि संततं ।। ७ ।।
दातारं नोयतिष्टंविभोक्तार्भहेतु किल्विषं ।
आससे नैव पात्रेणयदन्नमुपदीयते ।। ८ ।।
भोक्तः स्याद्विणं यायं दाता च नरकं व्रजेत् ।
अंगुल्यादतकाव्यं प्रलक्षलवणं च यत् ।। ९ ।।
मृतिकाभक्षणमविसमंगोत्यां सभक्षणं ।
अग्रतोनिवसेन्सूखोहृरैश्चगुणान्वितः ।। १० ।।
गुणान्विताय दातव्यं नास्मिमूर्कहिव्यतिक्रमः ।
ब्राह्मणाति क्रमोनास्ति विप्रे वेदविवर्जित ।। ११ ।।
ज्वलेतमग्निमुत्स्मृज्य नहिभस्मनिहूयते ।
सान्निकृष्टमधीयातं ब्राह्मणं यो व्यतिक्रामेत ।। १२ ।।
भोजनै च वदाने च विनाचार्यं स किल्विषी ।
गोरक्षकान् वाणितकात्स्तथा कामकुशीलकान् ।। १३ ।।
प्रोष्यान्वाहुषिकांश्चापि विप्रान् ष्यद्रवदाचरेत् ।
देवद्रव्यविभागेनाचार्यं स किल्विषी गोरक्षाकान् वाणिजकात्स्तथा
कामकुशीलकान् ।। १३ ।।
प्रेष्यान्वार्द्धषिकांश्चापि विद्रान्ष्यद्रावदाचरेत् ।
देवद्रव्यनिभागेन ब्रह्मस्वहरणेन च ।। १४ ।।
कुलान्याशुविनश्यंतिश्वाहार्योतिक्रेणेगाच ।
मादेएहीति वचः प्रोक्तोगवादि ब्राह्मणेषू च श्यतिर्यग्योण्मासाभ्यंतरेपि वा ।। १७
।।
पयलेनापि दातव्यमिच्छद्भिः श्रेय उत्तमं ।
आचार्यचरणांभोजेपुरश्चरणाकर्मणि ।। १८ ।।
सद्य एव प्रदातव्यादथ्रिणाशास्त्रधोदिना ।
मासास्यंतरतोवश्यमथवा दक्षिणाशुभा ।। १९ ।।
आचार्याय प्रदातव्या महती सिद्धिमिच्छता ।
मासाद्वयात्त्रिभिर्मासैर्दाः तव्यावृद्धिसंयुताः ।। २० ।।
प्. ७४ब्)
मासत्रयमतिक्रम्य दातव्या द्विगुणानृप ।
मासषसूमतिक्रम्यस्वर्णेयीपतत्यधः ।। २१ ।।
आचार्ययप्रतिज्ञातं यत्किंचिपित्रावप्तु ।
मासेननेनेरुसदृशघृणंदसुधायते ।। २२ ।।
तस्मातवश्यंमाचार्ययादाब्जयुगलेधने ।
सद्य एव प्रदातव्यं पुरश्चरणकर्मसु ।। २३ ।।
एव नानपिभिक्षित्वा स्वंत्यजानषि ।
सद्योवितरणं कार्यमाचार्यार्थे महीयते ।। २४ ।।
क्रुणं कृत्वापि वा देवं सद्य आचार्यपादयोः ।
भिक्षान्नमपिवाचार्यकुले भिक्षे तत्रैव हि ।। २५ ।।
अग्रीष्टोमादियागेपि दक्षिणाशस्त्र चोदिता ।
सधरावप्रदातव्यामासत्रितयतोषि वा ।। २६ ।।
सुपुत्रो यजमानीसौ विनश्यत्यन्यथा नृप ।
विद्यसाशी भवेन्नित्यं चाग्रतभोजनः ।। २७ ।।
अमृतं यज्ञशेवः स्याद्विद्यसंभुक्तशेषकुं ।
हस्तौ प्रक्षाल्यगह्वषयः पिवेद्भोजनोत्तरैः ।। २८ ।।
दैवं पित्मृतथात्मानं त्रयं स उपधातयेत् ।
****** गणा अंगणिकान्नं चयाके ।। २९ ।।
स्त्रीणां प्रथमगर्भेषु भुक्ताचांद्रायुणं चरेत् ।
पक्षे वा यदि मासे वा यस्यगेहेति न द्विजः ।। ३० ।।
नुक्तादुरात्मनस्तस्य चरैच्चंद्रायण व्रतं ।
सत्रिणां दीक्षितानां च यतीनां ब्रह्मधाणां ।। ३१ ।।
एतेषां सूतकं नास्ति क्रहितां कर्मकुर्वतां ।
अजीर्णोत्युदितवांते श्मश्रुकर्मणि मैथुने ।। ३२ ।।
दुःस्वप्नेदुजेनस्पर्शेस्तीनमेव विधीयते ।
चैसुवृक्षेधिंतिंपूयं शिवनिमोल्यभोजनं ।। ३३ ।।
वेदविक्रयिणं स्पृष्ट्वा सवासातलुमाविशेत् ।
अग्र्याग्रारगवांगोष्ठेदेव ब्राह्मणसन्निधी ।। ३४ ।।
स्वाध्यायेभोजमेयानेयादुके परिवर्जयेत् ।
खलक्षेत्रगतं धान्यं कूपवारिषु तज्जलं ।। ३५ ।।
अग्राखादपितद्भाखं यच्च गोष्ठगतं ययः ।
यद्वेष्टितशिराभुंक्ते घान्दङ्गे दक्षिणामुखः ।। ३६ ।।
सोयानत्कः पिवेद्भेतद्वैरत्यांसिभुंजते ।
धर्मशास्त्ररथारुषवेदखड्गधराद्विजा ।। ३७ ।।
क्रोडोर्थमपि यद्वायुः धर्मपरमः स्मृतः ।
गंधाभरणयात्यानियः प्रायच्छति संततं ।। ३८ ।।
स सुगंधिं सदादृष्टो यत्र यत्र प्रजापते ।
अमृतं ब्राह्मणं स्याभंक्षत्रियान्नं ययः स्मृतः ।। ३९ ।।
वैश्यस्यस्य चाःन्नमेवात्रं शूद्रान्नं रुधिरं स्मृतं ।
वैश्वदेवेन होमेन देवताभ्यर्चनैर्जयैः ।। ४० ।।
अमृतं तेन विप्रान्नमृग्ययुः सामसं स्मृतं ।
व्यवहारानुरूपेणन्यायेन यद्दयाज्जनं ।। ४१ ।।
क्षत्रियस्य ययस्तेन प्रजापालन कोद्रवं ।
प्रवाहानद्ध वायमत्रमुत्वाधमिच्छति ।। ४२ ।।
प्. ७५अ)
निरायज्ञविधानेन वैश्यान्नं तेन संस्मृतं ।
अज्ञानतिमिराधस्यमद्यपानरतस्यत्र ।। ४३ ।।
रुधिरं तेन शूद्रान्नं दैवमंत्र विवर्जितं ।
नवृथांशयथं कुर्यात् स्वल्येप्यर्थेनरोवुधः ।। ४४ ।।
वृथा हि शयथं कर्वन्प्रेत्यवेह विनश्यति ।
कामिनीषु विवाहेषु गवां भक्तं जनक्षये ।। ४५ ।।
ब्राहमणाद्युययतौवशयथे नास्ति यातकं ।
नयमं यमष्णाहरात्मावैयम उच्यते ।। ४६ ।।
आत्मनं यमितो येन तं यमः किकरिष्यति ।
एकः क्षमावतां दोषानद्वितीयः कथंचन ।। ४७ ।।
यदेनं क्षमयायुक्तमशक्तं मन्यते जनः ।। ४८ ।।
न तस्य शास्त्राभिरतस्य मोक्षो न चैव रम्यावसथ प्रियस्य ।
न भोजनाच्छादनतरस्य न लोकचितग्रहणेरतस्य ।। ।।
एकांतशीलस्यसु दैवतस्य सवैद्रियप्रीतिनिवर्तकिस्य ।
स्वाध्याययोगेरतमानसस्य मोक्षो ध्रुवं नित्यमहिंसकस्य ।। ४९ ।।
श्रीभगवानुवाच
न्यायागतधनस्तत्वज्ञाननिष्ठेतिव्यिप्रियः ।
श्रीद्व्रत्सत्यवादी च नित्यमाचार्यसेवकः ।। ५० ।।
भगवद्रश्मिसहित श्रीमदष्टाक्षरीतः ।
देवतानामृषीणां वाप्यनुग्रहात् ।। ५१ ।।
आचार्यानुग्रहान्मुक्तिं प्राप्रोत्येव गृहाश्रामी ।
अनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये श्रुतिसंग्रहे ।। ।।
अध्यायोयंत्रयो विशस्तंत्रे दाशरथीरित ।। १५२ ।।
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीये तंत्रे वेदार्थसंग्रहे
त्रयोविंशोध्यायः ।।
</poem>
cwo3alotp9ayvy6q2e8gisssgs55ck2
दाशरथीयतन्त्रम्/अध्यायः २४
0
163650
409283
2025-06-27T05:40:05Z
Shubha
190
{{header | title = [[../]] | author = | translator = | section = अध्यायः २४ | previous = [[../अध्यायः २३|अध्यायः २३]] | next = [[../अध्यायः २५|अध्यायः २५]] | notes = }} <poem> प्. ७५अ) श्रीभगवानुवाच उषित्त्वैवं गृहे विप्र... नवीन पृष्ठं निर्मीत अस्ती
409283
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः २४
| previous = [[../अध्यायः २३|अध्यायः २३]]
| next = [[../अध्यायः २५|अध्यायः २५]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ७५अ)
श्रीभगवानुवाच
उषित्त्वैवं गृहे विप्रो गृहस्यादाश्रमासरं |
वलीयवित संयुक्तसूतीयाश्रममाश्रयेत् || १ ||
अपत्याय समालोक्य याम्याहारान् विसूज्य च |
पत्नीपुत्रेषु निःक्षिप्य यत्मावावनमाविशेत् || २ ||
वसानश्चर्मचीराणिसाग्नीन्मुन्यन्नवर्तनः |
शाकमूलफलैवोपि पंचयज्ञान्प्रवर्तयेत् || ३ ||
जटीसायं व्रहेत्सायीश्मश्रुलोनखरोनभृत् |
अमूलफलभिक्षाभिरर्चयेद्भिक्षुकातिथीन् || ४ ||
अन्यथा शाकदातावादांतः स्वाध्याय तत्परः |
आचार्यचरणांभोजशुश्राषणपरायणः || ५ ||
भगवद्रश्मिसहितश्रीमरष्टाक्षीरतः |
वैतानिक च जुहुयादग्निहोत्रं यथाविधि || ६ ||
मुत्पन्नैः स्वयमानीजैः पुरोडाशांश्च निर्वयेत् |
स्वयंकृतं चलचणनायान्मधुफलप्रदः || ७ ||
वर्जयेद्विल्वशिनूश्चकतकं पलनं मधु |
उत्यभूमाश्चिग्नेमासित्यजेनृत्यूवं संचितं || ८ ||
प्. ७५ब्)
रग्राम्यानि फलमूलानि पालजां न वसंत्यजेत् |
त्रिषद्वद्वादशमासान्नफलमूलादिसंग्रही || ९ ||
नक्ताश्येकांतराशी वा पक्षकालाशेनोपिवा |
चांद्रायणव्रतीवास्यात्यक्षभुग्वाथमासभुक् || १० ||
वैस्वानसमंतस्थो वा फलमूलाशनोपि वा |
तपसाशोषयेद्वेहं पितृदेवांश्च तर्पयेत् || ११ ||
अग्निमात्मनिचाधायविचरेदमिकंतनः |
भिक्षयेत् प्रोणयात्रार्थं तापसान् षनवासिनः || १२ ||
ग्रामादानीय वा श्रीपादष्टौग्रासान्वसन्वतेः |
इत्थं रनाश्रमीविप्रोब्रह्मतोकेमहीयते || १३ ||
अतिवाह्वायुषोभागं तृतीयमितिकानने |
आयुष्यस्यतुरीयांशेत्यत्कासंगान्परिव्रजेत् || १४ ||
क्राणत्रयमसंशोध्यत्वतुयाद्यसुतानपि |
तथा यज्ञाननिष्टाचमोक्षनिच्छव्रजत्यधः || १५ ||
मनागपि न भूतानां यस्मादुत्याद्यते भयं |
सर्वभूतानि तस्येह प्रयच्छंत्य भयं सदा || १६ ||
एकएव चरन्नित्य मनग्रिरनिकेतनः |
सिध्यर्थमसहायः स्याद्ब्राममन्नार्थमाश्रयेत् || १७ ||
जीवीतं मरणां वापि नाभिर्कांक्षेद्यतिः क्वचित् |
कालमेव प्रतीक्षेत नित्यमोंकारतायकः || १८ ||
कर्तव्यास्सकलन्यासायतिनावश्यमन्वह |
श्रीमदष्टार्णविद्यायामवश्यं निरतो भवेत् || १९ ||
गृहसमार्जनाद्यैश्च यादृसं वाहनादिभिः |
वस्त्रप्रक्षालनाद्यैश्च नित्यमावार्यसेवकः || २० ||
सर्वत्रममताशून्यस्सर्वत्रसमतायुतः |
वृक्षभूलनिकेतश्च मुमुक्षरिहशस्यते || २१ ||
स्नानं शौच तथा भिक्षानित्यमेकांतशीलता |
यतेश्चत्वारिकर्माणियं चर्मनोपयद्यते || २२ ||
वार्षिकान् चतुरोमासान् विचरेन्नयतिः क्वचित् |
वीज्जां कुराणां जंतूनां हिंसा तत्र यर यतो भवेत् || २३ ||
गच्छेत्यरिहरहरनत्तंतून् पिवेत्कंजस्त्रशोधितं |
वाचं वदेदनुद्वेगोसकृद्वाकेनचित्क्वचित् || २४ ||
चोदान्मसहायश्चनिरयेक्षोनिराश्रयःति |
समध्यात्यनिरतोनीचकेशनरवोदरी || २५ ||
कुसुमवौण इडाछोभिक्षाशीरम्यातिवजितः |
अलावुदारुमृद्वेणापात्रं शस्तं नयंचम || २६ ||
नग्राह्यं तैजसं संपात्रं भिक्षिकेण कदाचन |
एकाकालं वरोहैक्ष्यंतकुयो तत्र विस्तरं || २७ ||
विध्वमेसन्नमुशलेप्यंगारेभुक्तवर्जिते |
दतेशरावसंयात् भिक्षां नित्यं चरेयतिः || २८ ||
अल्पाहारोरहः स्थायीदंहियार्थद्यलोलुपः |
रागद्वेष विनिर्मुक्तो भिक्षुर्मोक्षायकल्पते || २९ ||
प्. ७६अ)
आश्रमेषु यतिर्यस्य मुहूर्तमपि विश्रमेत् |
किंतस्वानेकतंत्रेण कृतकृत्यः सजगत्पते || ३० ||
संचितं यहृहस्थस्यमायमाभरणांतिकं |
निर्दृहिव्यतित्सर्वमेकराप्रोविनोयतिः || ३१ ||
दष्ट्वाजराभिभवनमसह्यंरागषीडनं |
देहत्यतांयुनगर्भगर्भक्लेशं च दारुणं || २९ ||
नानायोनिसहस्रं चा वियोगं च प्रियैस्सह |
अप्रियैः सहसंयोगसधर्मदुःखसंभवं || ३० ||
पुनर्निरयसंनानानेरकयातनाः ** |
कर्मदीषससन्द्रतानृणां जातीरनेकधा || ३२ ||
देहस्यानित्यतांदृष्ट्वानिसतां परसात्मनः |
कुर्वडेतमुक्तयेयत्रं यत्र कुत्राश्रमेरतः || ३२ ||
ब्रह्मचारी गृहस्थो वावनीवाभिक्षुकापिवा |
अवश्यमाचार्ययदद्वंद्वश्रुश्रूषणेरतः || ३३ ||
स्वाश्रंमोचितवेदोत्मकर्मकुर्वन् दिने दिने |
रश्मिविद्यासमान्युक्तन्यासजालं समन्वितां || ३४ ||
श्रीमदष्टाक्षरीजत्वा ब्रह्मभूतीभवेद्ध्रुवं |
कृनत्रेताद्वापरेशुक्रमादाश्रमसंयुताः || ३५ ||
संति विप्रामहात्मानोनिग्रहानुग्राहाक्षमाः |
ब्रह्मचर्यं वनेवासोयुगेतिष्ठ्येन विद्यते || ३६ ||
यतिवेषोपिविप्राणां दोषायै च कलौयुगे |
पुत्रमित्रकलत्रादियोषणासक्तमानसाः || ३७ ||
यतिवेषधरा विप्राभवट्यस्मिन्कलौयुगे |
दंभतीभानृतयुताः शौचारविवर्जिताः || ३८ ||
अक्ष्यभोज्यघृतायूयनिरताः प्रत्यहं नृप |
वृथा शायं विमुंचति भिक्षार्थमपि संततं || ३९ ||
गतभर्तृकनारीवुचतुर्थाश्रमवोधकाः |
तासु संसर्गनिरताः पुत्रदर्शनलालसाः || ४० ||
यतिवेषं करिष्याति यंडिताश्चकलोयुगे |
गार्हस्वप्नेवसकलाश्रमेषूतममुच्यते || ४१ ||
कृत्वापि यातकं घोरं गृहस्थोमतिमान्नरः |
प्रायश्चितैर्विमुक्तः स्थान्नान्यत्रासक्त आमे || ४२ ||
गृहस्थरात्र सर्वेषामाधारः परिकीर्तितरः |
अस्मिन्कलियुगे घोरे गृहस्था अपि संततं || ४३ ||
वेदाचारयरिभ्रष्टायाखंडामरसंयुताः |
परनारीषुनिरतादंभलोभानृतप्रियाः || ४४ ||
अभ्यस्यापि महाविद्यामाचार्ययदिनिंदकाः |
एतेयमातिथीभूतास्सर्वेनरकभागिनः || ४५ ||
तस्माद्वैदिकमाचारस्वाश्रमोन्वितमन्वहं |
कुर्वत्नाचार्यश्रुशूषां कुर्वन्प्राणधनैरपि || ४६ ||
वेदाःध्ययनवान्निसंसमस्तन्याससंयुतां |
श्रीमदृष्टाक्षरीं जप्त्वा शुद्धकैवल्यमश्रुते || ४७ ||
अशक्तः सोमयागादियद्रोषुनियतः व्रतः |
यौणं मास्याममायांवामासीमाःसिसमाहितः || ४८ ||
प्. ७६ब्)
विधिवत् संस्कृते वह्नीमंत्रैरावरगोदितैः |
एकैकशोहुनेदात्यं मूलनाष्टोतरंशतं || ४९ ||
रश्मिमंत्रैः सकृद्वत्वा तत आचार्यपादयोः |
निष्कतेकनदर्धं वा प्रदत्वा दक्षिणां नृप || ५० ||
प्रत्यहं वा जपे यस्य मासिमासि लभेत् फलं |
अमासोमेन रविणा सहिता यदि भूयते || ५१ ||
कृत्वेत्थं विधिना होममाचार्यचरणद्वये |
दत्वा शेषतोनिष्कसुवर्णं वा प्रयत्नतः || ५२ ||
संपूर्णदक्षिणायुक्तदशाग्रिष्टोमजंकलं |
प्रसहं लभते वश्यं तस्मिन्मासि न संशयः || ५३ ||
अनधीत्यद्विजोविज्ञानानिष्कविपुलोर्मखैः |
अनुस्याद्यसुतानुविप्रोनरकेषु निमज्जति || ५४ ||
तस्मादवश्यं वेदानां कार्यमध्यमनंवुधैः |
अग्निष्टोमादयोयागाः कायोः संपूर्णदक्षिणाः || ५५ ||
उत्पादनीयाः पुत्राश्च इहामुत्र सुखप्रदाः |
अथ वा सर्वयागीनी फलमिच्छन्महीतले || ५६ ||
श्रीमाष्टाक्षरी विद्या भगवद्रश्मिसंयुता |
न्यास युक्ता प्रजप्तव्या होतव्या हविषा सदा || ५७ ||
शतसाहस्रंशो यागदक्षिणा फलमिच्छता |
ग्रहणादिषु कोलेषु नवरात्रव्रते शुभे || ५८ ||
अक्षयायां तृतीयायामलभ्यार्द्धौदृयादिषु |
यथोक्त दक्षिणासांगादातव्या च सुधायते || ५९ ||
लक्ष्मीनारायणीविधासहस्रार्णायशस्करी |
नारायणभिधं सूतांमपि पातकभंजनं || ६० ||
वेदपारायणफलप्रेशुनित्यं जयेद्वुधः |
आचार्यचरणांभोज शुश्रूषान्यहमादरात् || ६१ ||
रश्मिविद्यान्यासयुतश्रीमदष्टाक्षरीरतिः |
यावज्जीवं निवासश्च वाराणस्यां महीयते || ||
कलेवरस्य स्रागोवाक्षेत्रे श्रीपुरुषोत्तमे |
मोक्षलक्ष्मीसाधनानि चत्वार्ये तानि भूयते || ६३ ||
पंचमं सधनेनास्तिं साक्षान्मूतिफलप्रदं |
तत्राप्याचार्य शुश्रूषा श्रीमदष्टाक्षरीरतिः || ६४ ||
इहीपि सकलैश्वर्यप्रदांते मुक्तिसिद्धिदा |
गृहस्थ एव देवानापि गृहस्थ एव देवानापि रहणां योगिनामपि || ६५ ||
प्. ७७अ)
आश्रायस्सर्वभूतानां नाश्रयाभिक्षुकादयः |
यंगधोवधिरा अंधावैदिकं कर्तमक्षमाः || ६६ ||
यत्याश्रम मममुप्राथमुक्तिभाजोभवंति हि |
श्रौते कर्मरायशक्तानां चतुर्थाश्चम ईरितः || ६७ ||
गृहस्थस्सर्वकर्माणि कुर्वन्प्रसहमारात् |
कृत्वाचार्यस्य शुश्रूषां श्रीमदष्टाक्षरीं तयन् || ६८ ||
पितृवंशसमुद्भ्रतोमातृवंशशतान्वितः |
ब्रह्मनंदमषीक्तिमावश्यं अभते नृपः || ६९ ||
आचार्य पादांवुजयुग्मसेवासंसक्तचितोन्वहमादरेण |
न्यासस्सहाष्टारामिनुप्रजायीहीताष्टाताद्यैर्मिथुनार्चकश्च || ७० ||
ब्रह्मेमुहर्तेकमलाधिनाथरश्मिप्रजापीग्रहणेरवीदोः |
वैशाखशुक्लेदिवसेक्षयाख्येयोगेघलभ्येषुरमेशयोगे || ७१ ||
शरन्नवम्यां च महत्सुयवस्वमादिनेभास्करंद्रयुक्ते |
जप्त्वा च हुत्वा गुरुपादयुमिसमर्प्यवित्तं वहुलं महीश || ७२ ||
कर्णद्वये कुंडलयुग्ममादरात् समर्प्यपत्नीमपि सहीरोश्च |
ताटंकवालीयुगलादिभूषणैरभ्यर्च्य विप्रालथभोजनीयाः || ७३ ||
प्रत्यब्दमिथं नियमान्वितोयः कणैति विद्याजपहोमकर्म |
आयुष्यमारोग्यमथार्थसिद्धिं रत्नानिमक्ताहयहस्तिसंघान् || ७४ ||
संप्राप्य पुत्रानथपौत्रकांश्च विद्यांश्रियं भाग्यमथाक्षयं च |
मातुः पितुर्वशशतान्वितोतेदिव्यं विमानं मणीकां चनाह्यं || ७५ ||
आरुह्य साक्षाद्भगवत्स्वरूपो प्रामोत्य योध्यानगरं सुरम्यं |
भृगोस्सुतापि दिने दिने योजस्वावहुत्वाविधिवन्मनुष्यः || ७६ ||
आचार्यपत्नीमपि पूज्यवस्त्रौराकल्पसद्यैः श्रियमेति दिव्यां |
पुन्नघपौत्रेरस्सहितां समृद्धिं प्राप्याथ साक्षीद्धरि हृयमेति || ७७ ||
मासे मासे भार्गवे वासरे वायषे कस्मिन् सद्गुरोः पुत्रयुक्तां |
भक्ष्यै राज्यभोक्ष्यैश्च वस्त्रैशकल्यैर्वातौषपित्वा द्विजाग्र्यः || ७८ ||
प्राप्तो सवश्यधनरत्नसंकुलं श्रियं तथारोग्यमनुतमंच |
वंशाभिवृद्धिं समवाप्य चाते विष्णोः पदं तत्पुरमं प्रयाति || ७९ ||
अष्टार्णविधा जपहोमतत्परा आचार्यपादांतुजसेवकाश्च धान्याः |
कृतार्थामनुजे इं नित्यं संप्रात्यकामा अथयांति मुक्तिं || ८० ||
प्. ७७ब्)
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीये तंत्रे वेदार्थसंग्रहे
चतुर्विंशोध्यायः ||</poem>
l82vylqse0191bm3y5e6tf2kfcsc3w5
409284
409283
2025-06-27T05:40:23Z
Shubha
190
409284
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः २४
| previous = [[../अध्यायः २३|अध्यायः २३]]
| next = [[../अध्यायः २५|अध्यायः २५]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ७५अ)
श्रीभगवानुवाच
उषित्त्वैवं गृहे विप्रो गृहस्यादाश्रमासरं ।
वलीयवित संयुक्तसूतीयाश्रममाश्रयेत् ।। १ ।।
अपत्याय समालोक्य याम्याहारान् विसूज्य च ।
पत्नीपुत्रेषु निःक्षिप्य यत्मावावनमाविशेत् ।। २ ।।
वसानश्चर्मचीराणिसाग्नीन्मुन्यन्नवर्तनः ।
शाकमूलफलैवोपि पंचयज्ञान्प्रवर्तयेत् ।। ३ ।।
जटीसायं व्रहेत्सायीश्मश्रुलोनखरोनभृत् ।
अमूलफलभिक्षाभिरर्चयेद्भिक्षुकातिथीन् ।। ४ ।।
अन्यथा शाकदातावादांतः स्वाध्याय तत्परः ।
आचार्यचरणांभोजशुश्राषणपरायणः ।। ५ ।।
भगवद्रश्मिसहितश्रीमरष्टाक्षीरतः ।
वैतानिक च जुहुयादग्निहोत्रं यथाविधि ।। ६ ।।
मुत्पन्नैः स्वयमानीजैः पुरोडाशांश्च निर्वयेत् ।
स्वयंकृतं चलचणनायान्मधुफलप्रदः ।। ७ ।।
वर्जयेद्विल्वशिनूश्चकतकं पलनं मधु ।
उत्यभूमाश्चिग्नेमासित्यजेनृत्यूवं संचितं ।। ८ ।।
प्. ७५ब्)
रग्राम्यानि फलमूलानि पालजां न वसंत्यजेत् ।
त्रिषद्वद्वादशमासान्नफलमूलादिसंग्रही ।। ९ ।।
नक्ताश्येकांतराशी वा पक्षकालाशेनोपिवा ।
चांद्रायणव्रतीवास्यात्यक्षभुग्वाथमासभुक् ।। १० ।।
वैस्वानसमंतस्थो वा फलमूलाशनोपि वा ।
तपसाशोषयेद्वेहं पितृदेवांश्च तर्पयेत् ।। ११ ।।
अग्निमात्मनिचाधायविचरेदमिकंतनः ।
भिक्षयेत् प्रोणयात्रार्थं तापसान् षनवासिनः ।। १२ ।।
ग्रामादानीय वा श्रीपादष्टौग्रासान्वसन्वतेः ।
इत्थं रनाश्रमीविप्रोब्रह्मतोकेमहीयते ।। १३ ।।
अतिवाह्वायुषोभागं तृतीयमितिकानने ।
आयुष्यस्यतुरीयांशेत्यत्कासंगान्परिव्रजेत् ।। १४ ।।
क्राणत्रयमसंशोध्यत्वतुयाद्यसुतानपि ।
तथा यज्ञाननिष्टाचमोक्षनिच्छव्रजत्यधः ।। १५ ।।
मनागपि न भूतानां यस्मादुत्याद्यते भयं ।
सर्वभूतानि तस्येह प्रयच्छंत्य भयं सदा ।। १६ ।।
एकएव चरन्नित्य मनग्रिरनिकेतनः ।
सिध्यर्थमसहायः स्याद्ब्राममन्नार्थमाश्रयेत् ।। १७ ।।
जीवीतं मरणां वापि नाभिर्कांक्षेद्यतिः क्वचित् ।
कालमेव प्रतीक्षेत नित्यमोंकारतायकः ।। १८ ।।
कर्तव्यास्सकलन्यासायतिनावश्यमन्वह ।
श्रीमदष्टार्णविद्यायामवश्यं निरतो भवेत् ।। १९ ।।
गृहसमार्जनाद्यैश्च यादृसं वाहनादिभिः ।
वस्त्रप्रक्षालनाद्यैश्च नित्यमावार्यसेवकः ।। २० ।।
सर्वत्रममताशून्यस्सर्वत्रसमतायुतः ।
वृक्षभूलनिकेतश्च मुमुक्षरिहशस्यते ।। २१ ।।
स्नानं शौच तथा भिक्षानित्यमेकांतशीलता ।
यतेश्चत्वारिकर्माणियं चर्मनोपयद्यते ।। २२ ।।
वार्षिकान् चतुरोमासान् विचरेन्नयतिः क्वचित् ।
वीज्जां कुराणां जंतूनां हिंसा तत्र यर यतो भवेत् ।। २३ ।।
गच्छेत्यरिहरहरनत्तंतून् पिवेत्कंजस्त्रशोधितं ।
वाचं वदेदनुद्वेगोसकृद्वाकेनचित्क्वचित् ।। २४ ।।
चोदान्मसहायश्चनिरयेक्षोनिराश्रयःति ।
समध्यात्यनिरतोनीचकेशनरवोदरी ।। २५ ।।
कुसुमवौण इडाछोभिक्षाशीरम्यातिवजितः ।
अलावुदारुमृद्वेणापात्रं शस्तं नयंचम ।। २६ ।।
नग्राह्यं तैजसं संपात्रं भिक्षिकेण कदाचन ।
एकाकालं वरोहैक्ष्यंतकुयो तत्र विस्तरं ।। २७ ।।
विध्वमेसन्नमुशलेप्यंगारेभुक्तवर्जिते ।
दतेशरावसंयात् भिक्षां नित्यं चरेयतिः ।। २८ ।।
अल्पाहारोरहः स्थायीदंहियार्थद्यलोलुपः ।
रागद्वेष विनिर्मुक्तो भिक्षुर्मोक्षायकल्पते ।। २९ ।।
प्. ७६अ)
आश्रमेषु यतिर्यस्य मुहूर्तमपि विश्रमेत् ।
किंतस्वानेकतंत्रेण कृतकृत्यः सजगत्पते ।। ३० ।।
संचितं यहृहस्थस्यमायमाभरणांतिकं ।
निर्दृहिव्यतित्सर्वमेकराप्रोविनोयतिः ।। ३१ ।।
दष्ट्वाजराभिभवनमसह्यंरागषीडनं ।
देहत्यतांयुनगर्भगर्भक्लेशं च दारुणं ।। २९ ।।
नानायोनिसहस्रं चा वियोगं च प्रियैस्सह ।
अप्रियैः सहसंयोगसधर्मदुःखसंभवं ।। ३० ।।
पुनर्निरयसंनानानेरकयातनाः ** ।
कर्मदीषससन्द्रतानृणां जातीरनेकधा ।। ३२ ।।
देहस्यानित्यतांदृष्ट्वानिसतां परसात्मनः ।
कुर्वडेतमुक्तयेयत्रं यत्र कुत्राश्रमेरतः ।। ३२ ।।
ब्रह्मचारी गृहस्थो वावनीवाभिक्षुकापिवा ।
अवश्यमाचार्ययदद्वंद्वश्रुश्रूषणेरतः ।। ३३ ।।
स्वाश्रंमोचितवेदोत्मकर्मकुर्वन् दिने दिने ।
रश्मिविद्यासमान्युक्तन्यासजालं समन्वितां ।। ३४ ।।
श्रीमदष्टाक्षरीजत्वा ब्रह्मभूतीभवेद्ध्रुवं ।
कृनत्रेताद्वापरेशुक्रमादाश्रमसंयुताः ।। ३५ ।।
संति विप्रामहात्मानोनिग्रहानुग्राहाक्षमाः ।
ब्रह्मचर्यं वनेवासोयुगेतिष्ठ्येन विद्यते ।। ३६ ।।
यतिवेषोपिविप्राणां दोषायै च कलौयुगे ।
पुत्रमित्रकलत्रादियोषणासक्तमानसाः ।। ३७ ।।
यतिवेषधरा विप्राभवट्यस्मिन्कलौयुगे ।
दंभतीभानृतयुताः शौचारविवर्जिताः ।। ३८ ।।
अक्ष्यभोज्यघृतायूयनिरताः प्रत्यहं नृप ।
वृथा शायं विमुंचति भिक्षार्थमपि संततं ।। ३९ ।।
गतभर्तृकनारीवुचतुर्थाश्रमवोधकाः ।
तासु संसर्गनिरताः पुत्रदर्शनलालसाः ।। ४० ।।
यतिवेषं करिष्याति यंडिताश्चकलोयुगे ।
गार्हस्वप्नेवसकलाश्रमेषूतममुच्यते ।। ४१ ।।
कृत्वापि यातकं घोरं गृहस्थोमतिमान्नरः ।
प्रायश्चितैर्विमुक्तः स्थान्नान्यत्रासक्त आमे ।। ४२ ।।
गृहस्थरात्र सर्वेषामाधारः परिकीर्तितरः ।
अस्मिन्कलियुगे घोरे गृहस्था अपि संततं ।। ४३ ।।
वेदाचारयरिभ्रष्टायाखंडामरसंयुताः ।
परनारीषुनिरतादंभलोभानृतप्रियाः ।। ४४ ।।
अभ्यस्यापि महाविद्यामाचार्ययदिनिंदकाः ।
एतेयमातिथीभूतास्सर्वेनरकभागिनः ।। ४५ ।।
तस्माद्वैदिकमाचारस्वाश्रमोन्वितमन्वहं ।
कुर्वत्नाचार्यश्रुशूषां कुर्वन्प्राणधनैरपि ।। ४६ ।।
वेदाःध्ययनवान्निसंसमस्तन्याससंयुतां ।
श्रीमदृष्टाक्षरीं जप्त्वा शुद्धकैवल्यमश्रुते ।। ४७ ।।
अशक्तः सोमयागादियद्रोषुनियतः व्रतः ।
यौणं मास्याममायांवामासीमाःसिसमाहितः ।। ४८ ।।
प्. ७६ब्)
विधिवत् संस्कृते वह्नीमंत्रैरावरगोदितैः ।
एकैकशोहुनेदात्यं मूलनाष्टोतरंशतं ।। ४९ ।।
रश्मिमंत्रैः सकृद्वत्वा तत आचार्यपादयोः ।
निष्कतेकनदर्धं वा प्रदत्वा दक्षिणां नृप ।। ५० ।।
प्रत्यहं वा जपे यस्य मासिमासि लभेत् फलं ।
अमासोमेन रविणा सहिता यदि भूयते ।। ५१ ।।
कृत्वेत्थं विधिना होममाचार्यचरणद्वये ।
दत्वा शेषतोनिष्कसुवर्णं वा प्रयत्नतः ।। ५२ ।।
संपूर्णदक्षिणायुक्तदशाग्रिष्टोमजंकलं ।
प्रसहं लभते वश्यं तस्मिन्मासि न संशयः ।। ५३ ।।
अनधीत्यद्विजोविज्ञानानिष्कविपुलोर्मखैः ।
अनुस्याद्यसुतानुविप्रोनरकेषु निमज्जति ।। ५४ ।।
तस्मादवश्यं वेदानां कार्यमध्यमनंवुधैः ।
अग्निष्टोमादयोयागाः कायोः संपूर्णदक्षिणाः ।। ५५ ।।
उत्पादनीयाः पुत्राश्च इहामुत्र सुखप्रदाः ।
अथ वा सर्वयागीनी फलमिच्छन्महीतले ।। ५६ ।।
श्रीमाष्टाक्षरी विद्या भगवद्रश्मिसंयुता ।
न्यास युक्ता प्रजप्तव्या होतव्या हविषा सदा ।। ५७ ।।
शतसाहस्रंशो यागदक्षिणा फलमिच्छता ।
ग्रहणादिषु कोलेषु नवरात्रव्रते शुभे ।। ५८ ।।
अक्षयायां तृतीयायामलभ्यार्द्धौदृयादिषु ।
यथोक्त दक्षिणासांगादातव्या च सुधायते ।। ५९ ।।
लक्ष्मीनारायणीविधासहस्रार्णायशस्करी ।
नारायणभिधं सूतांमपि पातकभंजनं ।। ६० ।।
वेदपारायणफलप्रेशुनित्यं जयेद्वुधः ।
आचार्यचरणांभोज शुश्रूषान्यहमादरात् ।। ६१ ।।
रश्मिविद्यान्यासयुतश्रीमदष्टाक्षरीरतिः ।
यावज्जीवं निवासश्च वाराणस्यां महीयते ।। ।।
कलेवरस्य स्रागोवाक्षेत्रे श्रीपुरुषोत्तमे ।
मोक्षलक्ष्मीसाधनानि चत्वार्ये तानि भूयते ।। ६३ ।।
पंचमं सधनेनास्तिं साक्षान्मूतिफलप्रदं ।
तत्राप्याचार्य शुश्रूषा श्रीमदष्टाक्षरीरतिः ।। ६४ ।।
इहीपि सकलैश्वर्यप्रदांते मुक्तिसिद्धिदा ।
गृहस्थ एव देवानापि गृहस्थ एव देवानापि रहणां योगिनामपि ।। ६५ ।।
प्. ७७अ)
आश्रायस्सर्वभूतानां नाश्रयाभिक्षुकादयः ।
यंगधोवधिरा अंधावैदिकं कर्तमक्षमाः ।। ६६ ।।
यत्याश्रम मममुप्राथमुक्तिभाजोभवंति हि ।
श्रौते कर्मरायशक्तानां चतुर्थाश्चम ईरितः ।। ६७ ।।
गृहस्थस्सर्वकर्माणि कुर्वन्प्रसहमारात् ।
कृत्वाचार्यस्य शुश्रूषां श्रीमदष्टाक्षरीं तयन् ।। ६८ ।।
पितृवंशसमुद्भ्रतोमातृवंशशतान्वितः ।
ब्रह्मनंदमषीक्तिमावश्यं अभते नृपः ।। ६९ ।।
आचार्य पादांवुजयुग्मसेवासंसक्तचितोन्वहमादरेण ।
न्यासस्सहाष्टारामिनुप्रजायीहीताष्टाताद्यैर्मिथुनार्चकश्च ।। ७० ।।
ब्रह्मेमुहर्तेकमलाधिनाथरश्मिप्रजापीग्रहणेरवीदोः ।
वैशाखशुक्लेदिवसेक्षयाख्येयोगेघलभ्येषुरमेशयोगे ।। ७१ ।।
शरन्नवम्यां च महत्सुयवस्वमादिनेभास्करंद्रयुक्ते ।
जप्त्वा च हुत्वा गुरुपादयुमिसमर्प्यवित्तं वहुलं महीश ।। ७२ ।।
कर्णद्वये कुंडलयुग्ममादरात् समर्प्यपत्नीमपि सहीरोश्च ।
ताटंकवालीयुगलादिभूषणैरभ्यर्च्य विप्रालथभोजनीयाः ।। ७३ ।।
प्रत्यब्दमिथं नियमान्वितोयः कणैति विद्याजपहोमकर्म ।
आयुष्यमारोग्यमथार्थसिद्धिं रत्नानिमक्ताहयहस्तिसंघान् ।। ७४ ।।
संप्राप्य पुत्रानथपौत्रकांश्च विद्यांश्रियं भाग्यमथाक्षयं च ।
मातुः पितुर्वशशतान्वितोतेदिव्यं विमानं मणीकां चनाह्यं ।। ७५ ।।
आरुह्य साक्षाद्भगवत्स्वरूपो प्रामोत्य योध्यानगरं सुरम्यं ।
भृगोस्सुतापि दिने दिने योजस्वावहुत्वाविधिवन्मनुष्यः ।। ७६ ।।
आचार्यपत्नीमपि पूज्यवस्त्रौराकल्पसद्यैः श्रियमेति दिव्यां ।
पुन्नघपौत्रेरस्सहितां समृद्धिं प्राप्याथ साक्षीद्धरि हृयमेति ।। ७७ ।।
मासे मासे भार्गवे वासरे वायषे कस्मिन् सद्गुरोः पुत्रयुक्तां ।
भक्ष्यै राज्यभोक्ष्यैश्च वस्त्रैशकल्यैर्वातौषपित्वा द्विजाग्र्यः ।। ७८ ।।
प्राप्तो सवश्यधनरत्नसंकुलं श्रियं तथारोग्यमनुतमंच ।
वंशाभिवृद्धिं समवाप्य चाते विष्णोः पदं तत्पुरमं प्रयाति ।। ७९ ।।
अष्टार्णविधा जपहोमतत्परा आचार्यपादांतुजसेवकाश्च धान्याः ।
कृतार्थामनुजे इं नित्यं संप्रात्यकामा अथयांति मुक्तिं ।। ८० ।।
प्. ७७ब्)
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीये तंत्रे वेदार्थसंग्रहे
चतुर्विंशोध्यायः ।।</poem>
p9myu8azchzlv6itdsoy14xuqfko78a
दाशरथीयतन्त्रम्/अध्यायः २५
0
163651
409302
2025-06-27T09:39:22Z
Shubha
190
{{header | title = [[../]] | author = | translator = | section = अध्यायः २५ | previous = [[../अध्यायः २४|अध्यायः २४]] | next = [[../अध्यायः २६|अध्यायः २६]] | notes = }} <poem> प्. ७७ब्) राजोवाच धन्योस्मिकृतकृत्योस्मिनार... नवीन पृष्ठं निर्मीत अस्ती
409302
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः २५
| previous = [[../अध्यायः २४|अध्यायः २४]]
| next = [[../अध्यायः २६|अध्यायः २६]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ७७ब्)
राजोवाच
धन्योस्मिकृतकृत्योस्मिनारायणजगत्पते |
श्रीमदष्टाक्षरीन्यास छंद आर्षादिकंवुव || १ ||
पुरश्चरणकृत्यं च साधनं काम्ययथ |
षट्मेकुरुणामूर्तेकृत्यया धर्मनंदन || २ ||
श्रीभगवानुवाच
अथातः संप्रत्वक्ष्यामिन्यासजालस्य सिद्धिदं |
छंद आषादिकं सर्वं यद्वात्वा सिद्धिमान्भवेत् || ३ ||
अंतर्वहिर्मातकाया ऋषिर्ब्रह्मप्रजापतिः |
छंदोगायत्रमुद्दिष्टं विद्रया श्रीःसरस्वती || ४ ||
देवताकथिता श्रीशप्रीतयेयोग ईरितः |
अक्लीवदीर्घह्रीस्वाधवर्गौः षड्भिः षडंगकं || ५ ||
विन्यस्य भावयेद्धीमानुमातृकापरमेश्वरीं पंचाशल्लिपिर्विभक्तमुखदोः
परामध्यवक्षस्थलां स्वन्मौलिनिवद्धाचंद्रशकलामायीनु तु गुस्तनी |
मुद्रामक्षसुधीहाहेमकलशंविद्यावहस्तांवुजैविश्राणां विशदप्रभां
त्रिनयनां वाग्देवतामाश्रये || ६ ||
अंतर्वहिर्मातृकाख्यमकृत्वान्यासमन्वहं |
न सिद्धिलभते मंत्रीपुरश्चर्या शतैरपि || ७ ||
प्रणवाद्यां न्यसेसश्चान्मातृकां परमेश्वरी |
कृत्वा पूर्वोदितन्यासमार्षछंदादिकं तथा || ८ ||
सिंदूरकांतिममिताभरणं त्रिनेत्रं विद्याक्षसूत्रमृगयाशवरान्दधान
पार्श्वस्थतां |
भगवईमपि कांचनाभ्याध्यायेतन्या समार्षछंदादिकं तथा || ८ ||
सिदूरकांतिममिताभरणं त्रिनेत्रं विद्याक्षसूत्रमृगयाशवरान्दधानं |
पार्श्वस्थितां
भगवतीमपिकांचनाभ्याध्यायेस्कराज्जघृतपुस्तकवर्णमालां || ९ ||
प्रणवाधामिमान्यस्यमातृकां सर्वसिद्धिदां |
ब्रह्मरूपी भवत्येव सत्यानंदचिदात्मकः || २० ||
वागाद्यां मातृकान्यस्येत् सर्वविद्या फलप्रदां |
ऋषिः प्रजापतिः छंदोगायत्रदेवताह्यापरा || ११ ||
वागीश्वरी मातृकास्यान्नासः पूर्वोक्त एव हि अक्षस्रजं हरिणयो
तदमुदग्रटंकं विद्याकरैरविरतदधती |
त्रिनेत्रां अद्वैदमौलिमरुणापरविंदभाववर्णेश्वरी प्रणमतस्तनभारनन्ना ||
१२ ||
वाग्भद्यमिमं न्यासं कृत्वा मातृकयावुधः |
पारंगतो सौ विधानां भवत्येव जडोपि च || १३ ||
पंचब्रह्मकलान्यस्येक्त्रयी वर्णादिकास्ततः |
ऋषि प्रजापति छंदोगायत्रसमुदांहृतं || १४ ||
कलात्मावर्णजननीदेवताशारदीस्मृता |
ह्रस्वदीर्घांतरगतैः षडंगं प्रणवै स्मृतः || १५ ||
प्. ७७अ)
हस्तैः प्रप्तंरथांगंराणमथहरिणं पुस्तकं वर्णमालां टंकं
शुभ्रंकपालंदरममृतलसद्वेमकुभं वहंती |
मुक्ताविद्युत्पयोदस्फुरितनवतयावंधुरैः पंचवक्त्रैः स्त्रर्क्षेवक्षोतनम्रां
सकलशशिनिभांशारदानां नमामि || १६ ||
निवृत्तिश्च प्रतिष्ठा च विधाशांतिस्तथैव च |
रोधिका दीपिका चैव रेचिका मोचिका परा || १७ ||
सूक्ष्मासूक्ष्मामृतायश्चीज्ञानामृता तथा |
आप्यापिनी व्यापिनी च व्योमनी च क साद्धमा || १८ ||
सदाशिवसमुद्भतः षोडशोक्ता महो || १९ ||
सृष्टिऋद्धिःस्मतिर्मेधाकांतिर्लक्ष्मीर्द्युतिः स्थिरा |
स्थितिः सीद्विरिति प्रीकादेशवह्यकला इमाः || २० ||
जरा च पालिनीशांतिरीश्वरी रतिकामिके |
वरदाह्रादिनी प्रीतिदीघोविष्णुकलादश || २१ ||
तीक्ष्णरौद्री भयात्रिदातंदांश्रुर्त्कधिनी क्रिया |
उत्कारी मृत्युरित्युक्तादशरुद्रदकला इमाः || २२ ||
** पीतारुणापश्चीदसिता च चतुष्कलाः |
ईश्वरांग समुद्भताः कलाः पंचाशदीरितः || २३ ||
कलान्याअमिमं कृत्कोसाक्षाद्ब्रह्मकलान्वितः |
आज्ञासिद्धिं समासाद्यतेजोमयतनुर्भवेत् || २४ ||
श्रीकंठमातृकान्यासंव्योमशक्तिसमन्वितं |
न्यसेच्छीकंठपूर्णादि पंचाशान् मिथुनात्मकं || २५ ||
तंतीयपूर्वातान्यस्येत्रमोंतां रुद्रसंयुतां |
स धातुप्राणशक्त्यात्मयुक्तायाहिषिते क्रमात् || २६ ||
ऋषिःस्यादक्षिणापूर्तिर्गायत्रं छंद ईरितं अर्द्धनारीश्वरः |
प्रोक्तो देवतां तन्नवेदिभिः हसाषड्दीर्घयुक्तेन कुर्यादगानिदेशिकः || २७ ||
वंधूककांचननिभरुचिराक्षमीला पाशांकुशौ च वरदं निजवाहुददौ |
विभ्राणमिदं शकुलाभरणं त्रिनेत्रेमर्धाविकेशमनीशंव पुराश्रयामः ||
२८ ||
श्रीकंठानंत सूक्ष्मेशास्त्रिमूर्तिरमरेश्वरः |
अद्योःशोभारभूतेशोतिथीशः स्थाणनांहरः || २९ ||
कंठोशोभौतिकस्सद्योजातश्चानुग्रहेश्वरः |
अक्राश्च महासेनः शिवषोडशशमूर्तय || ३० ||
यश्चोत्कोधीशचंडीशंयचास्येशशिचोत्तमाह् |
अथैकरुद्रकृर्मोकनेज्ञाद्वचतुराननाः || ३१ ||
अजेशशर्वसोमेशराजहिगुलधारकौ |
अर्द्धनारीश्वारश्चीमाकांतश्चाषाजडंडिनौ || ३२ ||
प्. ७७ब्)
स्युरत्रिमोनमेषाख्यालोहिताख्यां शिवै तथा |
छगलंड**(?)द्विरंडेशौमहीकालकपालिनौ || ३३ ||
भुंजेगेशः पिनायीशः खड्गीशा द्रव्यौ वकस्ततः |
श्वेतभृन्वीशलकूलिशिवस्संवर्तकुस्ततः || ३४ ||
एते रुद्राः सितारक्ताधतशूलकपालकाः |
पूर्णोदरीस्थाद्विरजाशाल्मलीतदनंतरं || ३५ ||
कोलाक्षीवर्तुलाक्षी च दीर्घकर्णासमीरिता |
सदीर्घमुस्विगोमुख्यौदीर्घजिह्वा तथैव च || ३६ ||
कुंडोदर्पूर्द्धकेशी च तथविकृतमुख्यपि |
ज्वालामुखी ततोज्ञेया पश्चादुल्कामुखीतथा || ३७ ||
सुश्रीमुखी च विद्यामुखी ह्येताः स्वरशक्तयः |
महाकालीसरस्वत्यौ सर्वसिद्धिसमन्विता || ३८ ||
गौरीत्रैलोक्यविद्यास्यान्मंत्रशक्तिस्ततःपरं |
आत्मशक्तिभूतमाता तहा लंवोदरीमता || ३९ ||
शविणीनागिनी मायाखेचरीचापिमंजरी |
रूपिणीवारिणी पश्चात्क्यकोदतना || ४० ||
स्याद्भद्रकालीयोगिन्यौशंखिनीगर्जिनी तथा |
कालरात्रिश्च कुब्जीस्यात् कपर्दिन्यपि वज्रया || ४१ ||
जया च सुमुखेश्चर्यारेवती च वरा तथा |
वारुणीवायवि प्रोक्ता यश्चाद्द्रक्षोपधारिणी || ४२ ||
ततश्च सहजालक्षीर्व्यापिनी माययान्विता |
एतारुद्रां पीठस्थाः सिंदूणरुणविग्रहीः || ४३ ||
रक्तोत्पलकपालाभ्यामलंकृतकरांवुजाः |
श्रीकंठमातृकामेतां विन्यस्यादौ दिने दिने || ४४ ||
श्रीमदष्टाक्षरीं जातहृवसाक्षाद्ब्रह्ममयी भवेत् |
रुद्रमूर्तिस्समहर्ता कर्ता साक्षान्न संशयः || ५४ ||
त्रयीयारमाकामवीजपूर्वक इष्टदः |
कर्तव्यस्सततंन्यासो ब्रह्मतादात्म्यसिद्धिदाः || ४६ ||
स्मराद्यां वान्यसेदेतां मातृकाभिष्टसिद्धिदां |
स धातु प्राडणशक्त्यात्मयुक्तायादिषुविष्णवः || ४७ ||
ऋषिः प्रजापतिः प्रोतो गायत्रं यं इ इरितं |
नारायणोद्वेलक्ष्मीशोदेवतान्नसमीरिता || ४८ ||
दीर्घ******(?) षडंगानि प्रविन्यसेत्
अस्तैर्विभ्रत्सरसिजगदाशंखचक्राणिविधां ||
ययादशौ कनककलशं मेघविद्युद्विलासं |
वामेतुगस्तनमविरताकल्पमाश्लेषलोभादेकीभूतं वपुरवत्तुनः
पुंडरीकाक्षलक्ष्म्योः || ४९ ||
शंखं चक्रगहांवुजानि सततं हस्रांवुजैधारं यत्रादर्श च
हिराम्मयंधरमथो विद्यत्ययोदाकृती |
केपूणंगदहारकुंडलधरोमाणिक्यभूषोल्लसद्वक्त्रार्घ्रोर्द्धेरमान्वितोविजय
ते नारायणः श्रीपतिः ५०
प्. ७८अ)
वैष्णवीं मातृकामेकामपि विन्यस्य षानकाहं |
श्रीमदष्टाक्षरीं तत्वा साक्षान्नारायणो भवेत् || ५१ ||
मंत्री चात्र न संदेहीनिग्रहानुग्रहक्षमः |
भवेद्ब्रह्ममयः साक्षाद्वैष्णवीन्यस्यमातृकां || ५२ ||
शक्तिपूर्वांतनौन्यस्यैन्मातृकांमनुवित्तमः |
ऋषिःशक्तिः स्पृतः छंदीगायत्रं देवतावुधैः || ५३ ||
संप्रोक्तावीश्वजननी सर्वसौभाग्यदायिनी |
दीर्घाद्धयुजांगानि कुर्यान्मायात्मनावुधः || ५४ ||
उद्यत्कोटि
द्विवाकरप्रतिभरितांगोरूपोनस्तनीवद्वार्द्वदकिरीठहाररशमामंजीरसं
शोभिता |
विभ्राणकरपंकजैमवंरीपाशांकुशौपुस्तकं
दिवाद्वोजगतीश्वरोत्रिनयनापद्मेनिषस्तासुखं || ५५ ||
शक्तिवीजादिकं न्यस्य मातृकां सर्वसिद्धिदां |
आश्रयस्सर्वभाग्यानां भवत्यत्र न सप्तयः || ५५ ||
न्यसेच्छी वीजसंपन्नां मातृकां विधिनातनौ |
ऋषिर्भृगुः स्मृतच्छंदीगायत्रंदेवतामता || ५६ ||
समस्तसंयदापादिर्जगतांनापिकावुधैः |
प्राक्त्रस्तुनेन वीजेन कुर्यादंगानिसाधकः || ५७ ||
विंददामसहस्राभांहिभगिरिप्रख्यैश्चतुभिर्गजैः
शुंडादांडसमुद्धतामृतमयैरासिंच्यमानामिर्भां |
विभ्राणां करपंकजेर्जवरीं यग्रद्वयं पुस्तकं भास्वद्रत्वसमुज्वलां
कुचनतां ध्यायेज्जगत्स्वामिनीं || ५८ ||
श्रीवीजपूर्वोविन्यस्यमातृकां सर्वसिद्धिद्धांदां |
आचार्यानुग्रहात्साक्षाद्भवेच्छ्रीकलयान्वितः || ५९ ||
न्यसेन्स्मराद्यांवपुषिमातृकां मंगलप्रदां |
ऋषिः संमोहनः प्रोक्तः छंदोगायत्रमुच्यते || ६० ||
देवतामंत्रिभिः प्रोक्ता समस्तजननीपरा |
स्मरेणदीर्घयुक्तेन विदध्यादंगकल्पनां || ६१ ||
वालार्ककोटिरुचिरां स्फरिकाक्षामालांकोदंडमिक्षुजनितं स्मरयाचवाणान् |
विद्यां च हस्तकमलैदेधती त्रिनेत्रत्रां ध्यायेत् समस्तजननीं नवचंद्रवुध ||
६२ ||
स्मराद्यां यातृकान्यस्य कर्ध्यसमकांतिमान् |
वशीकरोतिन्नैलोक्यं किंच ब्रह्ममयो भवेत् || ६३ ||
श्रीशक्तिकामवीजाद्यां मातृकां विन्यसेदपि |
ऋषिस्संमोहनछंदोगायत्रं छवतामनोः || ६४ ||
त्रैलोक्यमोहिनी प्रोक्ता सवेलोकवशंकरी |
भावर्तितैस्त्रिभिवीजैः षडंगानि प्रकल्पयेत् || ६५ ||
प्. ७८ब्)
ध्येयेयमक्षवलयेक्षुशरान्सयाशान् यमद्वयशुकशरान् नवपुस्तकं च |
आविभ्रतीं निजकरैकरुणां कुचार्तां संमोहिनां त्रिनयंनांतरुणेंद
चूडां || ६६ ||
वीजत्रयाद्यां विन्यस्य मातृकामिष्टसिद्धिदां |
सर्वसौभाग्यसंयमभस्सकलैश्वर्यसंयुतः || ६७ ||
समस्तविद्यासंपन्नी जीवेच्च शरदोशतं |
हंसविद्यादिकां न्यसेन्मातृकामखिलेष्टदो || ६८ ||
ऋषिर्ब्रह्मासमुद्दिष्टच्छदां गायत्रमीरितं |
समस्तवस्तुसंप्राप्तिकरं तेजोभयशिव || ६९ ||
दैवंतयरर्मब्रह्मपरमात्माभिधं नृप |
खाहाद्यौः पंचमुनिभिः पंचागानि प्रकल्पयेत् || ७० ||
अस्त्रदिक्षु समुस्तनमूलनवसूद्यायत्ते |
वेदादिशक्तिरजयापरमात्ममहामतः || ७१ ||
वह्निजाया च काथिता पंचंन्नाः शुभावहाः ब्रह्मातादात्म्यसिध्यर्थं |
समस्तफलसिद्धिद्याहं साद्योमात्तकां न्यसेत् परब्रह्ममयीमथ || ७२ ||
ताराहियुंचमनुभिः पुरियिमानमानैकगम्यमनिशं जगदेकमूलं |
सच्चित्समस्तभुवनेश्वरमच्युतं तत्तेजः परंभजतसांद्रसुधांवुराशिं || ७३
||
हंसाद्यां मातृकां न्यस्य श्रीमदष्टाक्षरींतयन् |
अणिमादिगुणौश्वर्यसहितो भगवानसौ || ७४ ||
इत्थमेकादशविधं मातृकान्यासमवहं |
आचार्यानुग्रहाल्लब्धा श्रीमदष्टाक्षरीजयनं || ७५ ||
साक्षान्नारायणो ज्ञेयो निग्रहानुग्रहक्षमः |
सरावसर्वजगतां कर्ता हर्ता च पालकः || ७६ ||
वतानासषीणं च नमस्कार्यो भवत्यसौ |
एकादशविधन्यासेषशक्तोवसुधापते || ७७ ||
वैष्णवीनात्कीं वापि विन्यसेत् दन्वहशुचिः |
तत्वन्यासं ततः कुर्याद्येन तत्वमयः पुमान् || ७८ ||
विरा इवीहरिः साक्षीद्भवत्यत्र न संशयः |
ऋषिर्ब्रह्माततच्छंदोगायत्रं दैवतं स्मृतं || ७९ ||
देवताभगवान्साक्षात्सर्वतत्वमयोहरिः |
षड्दीर्घमाययाकुर्यात् षडंगं प्रणावाद्यया || ८० ||
भूतोयाग्रिमरुद्वियहुणमयसर्वप्रपंचात्मकं विश्वस्थितिस्सर्गसंहृतिकरं
सत्यात्मकचीद्वनं विष्णुब्रह्मशिवाकृतिसुरमुनिस्तूत्यं |
हृदब्जस्थितं युक्तं चित्कलयाश्रयेहमनिशं नारायणाख्यं महः || ८१ ||
प्. ७९अ)
ज्ञात्वा तत्वमयं न्यासमाचार्यवदनांवुजात् |
विन्यस्थ श्रीमदष्टार्ण प्रजपन्वुधः || ८२ ||
नारायणामयः साक्षादाज्ञासिद्धो भवत्यसौ |
तन्मूर्तियः जरन्यासं ततः कुर्यादिनन्यधोः || ८३ ||
अपिरादिप्त भगवानथवर्षिः प्रजापतिः गायत्रं देवेतं |
छंदस्मृवितुर्मंडलस्थितः आदित्यात्माजगत्स्यामीदेवोनायणः स्मृतः || ८४ ||
ध्येयस्सदासवितुमंडलमध्यवती नारायणः सुरसिजातसनसन्निविष्टाः |
केयूरवामकरकुंडलवान्किरीटीहरीहिरण्मयवुपुर्वृतशंखचक्रः || ८५ ||
तन्मूर्तियंजरन्यासं विन्यस्यादौ दिने दिने |
भवेत् स भगवान्मूर्तिः शब्दब्रह्ममयः पुमान् || ८६ ||
वर्णन्यासंदशविधं कुर्याद्धह्मेसिद्धिदं |
ऋषिरस्याहमेवाःस्मिसाध्यानारायणोनृप || ८७ ||
गायत्रं दैवतं छंदः साक्षाल्लक्ष्मीपतिर्विभूः |
हरिर्नारायणः स्वामीदेवतान्न समीरितः || ८८ ||
वंदेनीलययोदकोमलतनुं शंखं च चक्रगदांविभ्राणं कमलं
रमावसुमती संशोभियाश्चैद्वयं |
दिव्याकल्पशताभिराममनिशं रत्नासनेसंस्थितं शांतं
सुंदारमच्युतसुरमुनि ब्रह्मेश शक्रार्चित || ८९ ||
वर्णत्यासंदशविधं कृष्णेत्थं नित्यमादरात् |
आचार्यानुग्रहात्पश्चादवश्यं हरिरूपभाक् || ९० ||
चिद्द्रूपमातृकान्यां संभवद्भावसिद्धिहं |
कुर्यादवश्यं सकलन्यास जातफलप्रहं || ९१ ||
मुनिरस्याप्यहं प्रोक्तः साध्यो नारायणपरोविभुः |
छंदश्चदेवीगायत्री परमाश्रियःपतिः || ९२ ||
नारायणो जगत्स्वामीदेवता संस्मृतोवुधैः अस्यापि भूलपंचांगन्यासः |
सद्भिरूदीरितः षद्भिर्वर्गौः षडंगं वा विन्यसेद्वसुधायते || ९३ ||
मूलेकल्पतरोर्महामये सिंहासने संस्थितं देव्याचित्कलयाश्रिया च सहित
नीलामहीसेवितदिव्याकल्पशतातिराममनिशं |
नित्यं प्रसन्नं विभुं वंदेदेवमुनींद्रवं हि तपदं नारायणं चिद्वनं
|| ९४ ||
चिरयमातकान्यासं समस्तफलसिद्धिदं |
सर्वन्यासेषष्टेशक्तोपि स्वाचार्यानुग्रहान्नृप || ९५ ||
कृत्वादापन्वहधीमोः श्रीमदष्टाक्षरी जपेत् |
चिद्रूयमातृकां न्यस्य साक्षान्नारायणो भवेत् || ९६ ||
सर्वमंत्रमयः सर्वदेवैरप्यच्चितो भवेत् आचार्यं वेदांतपारगं श्रोत्रियं
द्विजं |
सहस्रं योजनं वापि गत्वा वश्यं महीयते
ब्रह्मतादात्म्यमन्विच्छनमुक्तिमेकेन जन्मना || ९८ ||
प्. ७९ब्)
पूर्वां संप्राप्त्यविद्योपिसंसत्य सकुलानारुन् |
संसेव्य वहुवर्षंवारत्प्रप्राणार्धनैरपि || ९९ ||
श्रीमदष्टाक्षरीविद्यां भगवद्रश्मिसंयुतां |
अवश्यमपि गृहीयात् समस्तन्यासगूर्विका || १०० ||
तमाचार्यं विजानीयान्मामेवामेदतस्सदा |
अवश्यं सकलन्यासा आचार्यचंदनांवुजात् || १ ||
न्यस्तव्याश्चागृहीतव्यादेवताभावसिद्धिदाः |
अवश्यंमुपदेष्टव्याः करोतु न करोतु वा || २ ||
आचार्येण स्वशिष्यायविनीताय महान्मुने |
आचार्योनुप्रहाहात्वान्यासजालमिदं शुभं || ३ ||
विन्यस्य श्रीमदष्टार्णे शताधिक सहस्रकं |
जप्त्वामासत्रयं यश्चासश्यत्येव श्रियःपतिं || ४ ||
भगवत्कालयापूर्णः कामकोटि समप्रभः |
तेजोमयतुर्मृत्युजरामुक्तेत्भवत्यसौ || ५ ||
अविच्छिन्नोयासनयासिद्धिरेषा प्रजायते |
कृत्वा दिने दिने वश्यं न्याअजालमिदं शुभं || ६ ||
विताचार्यानचंदे तु मातरं पिप्तरं तु वा |
वंद्यमानी व्रतव्रत्येन मृत्युं मासान्नसंशयः || ७ ||
मासत्रयाद्रवंत्यस्य शक्राद्या अपि किंकराः |
शुभे दिने शुभेलग्ने न्यासजालमिदं शुभ्रं || ८ ||
गृहीत्वै च तृतीष्टार्णागृह्णीयाच्छेयसेनृप |
ससद्वोयवती भूर्मिर्धनधान्यौद्यसंकुला || ९ ||
दक्षिणाविहिताशास्त्रे सर्वस्वमपिवानप |
वर्षाशनमितद्रव्यमथवागुरवेर्ययेत् || १० ||
सद्यः सिद्धिमवान्योत्तितपहीमादिकं विना |
कृत्वा वश्यमिदं न्यासजातं प्रत्यहमादरात् || १११ ||
अष्टोत्तरशतं वापि श्रीमदष्टाक्षरीजपेत् |
भार्गवेवासरेवापि यक्षेवामासिमासि वा || १२ ||
मासत्रयेवाषणसेन्यासजालमिदं सन्येत् |
महतिं सिद्धिमिच्छद्भिर्न्यस्तव्यं प्रत्यहं बुधैः || १३ ||
वेदवेदीतशाश्त्रौघसारभूतार्थसंग्रहं |
न्यासजालमिदं पुण्यं भगवद्रावसिद्धिदं || १४ ||
प्. ८०अ)
अक्षयायां तृतीयायां रवीदग्रहणोपि वा |
आश्विनेनवरात्रे च विजीयेदश्मिमीदिने || १५ ||
आचार्यवदनांभीताद्भगद्राश्मि संयुता |
समस्तन्याससहिता श्रीमदष्टाक्षरीशुभ || १६ ||
आचार्यदक्षिणां दत्वा अध्येतव्या पुनः पुनः |
अवश्यं महतीं सिद्धिमणिमादि गुणान्वितां || १७ ||
ब्रह्मतादात्म्यसंसिहिद्धि हेतुभूतां सनातनीं |
प्राप्रोत्यत्र न संदेहो विवाह्येमजयादिकं || १८ ||
सर्वन्यासेष्च शक्तश्चेन्मातृकां वैष्णवीमपि |
तत्वन्यासं ततः कृत्वान्यासंतन्मूर्मिर्तीयंव्रर || १९ ||
वर्णन्यासंदशविधं न्यस्य चिद्रयमातृकां |
श्रीमदष्टांक्षरं मंत्रं जपेन्नित्यं महीयते || २० ||
तत्राप्य शक्तोमतिमान्यस्य वैष्णवमातृकां |
वर्णन्यासं दशविधं न्यस्य चिद्रूयमातृकं || २१ ||
श्रीमदष्टाक्षरं मंत्रे जपेत् सकलमिद्धिदं |
न्यास्य अवश्यं न्यस्तव्यास्सवैसन्दुर्वनुग्रहान् || २२ ||
वक्ष्ये वा मासमासे वा षण्मासे वा महीयते |
अवश्यं सकलन्यासा कर्तव्या हरिशासनात् || २३ ||
अन्यथा महतीसिद्धिर्लभ्यतेनं कदाचन |
जपंतीष्ठाषि सर्वासु भार्गवासरेपि वा || २४ ||
एकादश्याममायां वारविसंक्रमणेपिवा |
व्यतीयात्तेपि वा कार्यं न्यासजालमिदं शुभं || २४ ||
न्यासैस्सहाष्टार्णमनुजायोस्वाचार्य शुश्रूषणसक्तचित्तः दिने दिने |
वैदिकयावकेचु हृत्वा हविर्दादशधापि भूय || २५ ||
विशेषतो भार्गवासरेथ जप्त्वा च हुत्वाथ गुरुप्रियायै भक्ष्यं च |
भोज्यं घृतसूयसंयुतं वर्णामुक्ताफलभूषणादिकं || २६ ||
दत्वा लभेदक्षयं यदद्धिं च शाभिवृद्धिं च तथाचियुः |
त्यध्वाविभानं मणिहेमनिर्मितं प्राप्रोत्यथांते भगवत्पदं च || २७ ||
अवश्यमाघेपि भृगोर्द्विने वा मासस्य समाहितात्मा जप्त्वा च |
हुत्वा विधिवत्समर्च्यचार्यवल्यैमणिकांचनादिक || २८ ||
आयुष्यमारोग्यमक्षाक्षयं च वितं च मुक्ता फलरत्नजातवः |
वंशामिवृद्धि समवाप्य भोगा आप्रोति साक्षाद्भगवत्युदं च || २९ ||
न्यासैसहार्णजपी महोत्मान्यासैस्सहाष्टाणं जपीविधाता |
न्यासेस्महाष्टार्णजयी शिवश्चन्यासैस्सचूष्टाक्षरमंत्रजायी || ३० ||
प्. ८०ब्)
ताद्भगवत्यदं च न्यासैसहार्णाजयीमहात्मान्यासैस्महाष्टार्णजयीविधाता |
न्यासैस्सहानारायणस्सर्व चराचरस्य गुरुर्गरीयानपि विश्ववंद्यः || ३१ ||
सत्यं सत्यं पुनः सत्यं न मृषा प्रोच्यते मया |
एतदेव परं तत्वं विजानीहमहीपते || १३२ ||
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीये तंत्रे वेदार्थसंग्रहेयं च
विंशोध्यायः ||</poem>
nfqgbfk6yaqxgo12bu1xudbj71rl8as
409303
409302
2025-06-27T09:39:45Z
Shubha
190
409303
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः २५
| previous = [[../अध्यायः २४|अध्यायः २४]]
| next = [[../अध्यायः २६|अध्यायः २६]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ७७ब्)
राजोवाच
धन्योस्मिकृतकृत्योस्मिनारायणजगत्पते ।
श्रीमदष्टाक्षरीन्यास छंद आर्षादिकंवुव ।। १ ।।
पुरश्चरणकृत्यं च साधनं काम्ययथ ।
षट्मेकुरुणामूर्तेकृत्यया धर्मनंदन ।। २ ।।
श्रीभगवानुवाच
अथातः संप्रत्वक्ष्यामिन्यासजालस्य सिद्धिदं ।
छंद आषादिकं सर्वं यद्वात्वा सिद्धिमान्भवेत् ।। ३ ।।
अंतर्वहिर्मातकाया ऋषिर्ब्रह्मप्रजापतिः ।
छंदोगायत्रमुद्दिष्टं विद्रया श्रीःसरस्वती ।। ४ ।।
देवताकथिता श्रीशप्रीतयेयोग ईरितः ।
अक्लीवदीर्घह्रीस्वाधवर्गौः षड्भिः षडंगकं ।। ५ ।।
विन्यस्य भावयेद्धीमानुमातृकापरमेश्वरीं पंचाशल्लिपिर्विभक्तमुखदोः
परामध्यवक्षस्थलां स्वन्मौलिनिवद्धाचंद्रशकलामायीनु तु गुस्तनी ।
मुद्रामक्षसुधीहाहेमकलशंविद्यावहस्तांवुजैविश्राणां विशदप्रभां
त्रिनयनां वाग्देवतामाश्रये ।। ६ ।।
अंतर्वहिर्मातृकाख्यमकृत्वान्यासमन्वहं ।
न सिद्धिलभते मंत्रीपुरश्चर्या शतैरपि ।। ७ ।।
प्रणवाद्यां न्यसेसश्चान्मातृकां परमेश्वरी ।
कृत्वा पूर्वोदितन्यासमार्षछंदादिकं तथा ।। ८ ।।
सिंदूरकांतिममिताभरणं त्रिनेत्रं विद्याक्षसूत्रमृगयाशवरान्दधान
पार्श्वस्थतां ।
भगवईमपि कांचनाभ्याध्यायेतन्या समार्षछंदादिकं तथा ।। ८ ।।
सिदूरकांतिममिताभरणं त्रिनेत्रं विद्याक्षसूत्रमृगयाशवरान्दधानं ।
पार्श्वस्थितां
भगवतीमपिकांचनाभ्याध्यायेस्कराज्जघृतपुस्तकवर्णमालां ।। ९ ।।
प्रणवाधामिमान्यस्यमातृकां सर्वसिद्धिदां ।
ब्रह्मरूपी भवत्येव सत्यानंदचिदात्मकः ।। २० ।।
वागाद्यां मातृकान्यस्येत् सर्वविद्या फलप्रदां ।
ऋषिः प्रजापतिः छंदोगायत्रदेवताह्यापरा ।। ११ ।।
वागीश्वरी मातृकास्यान्नासः पूर्वोक्त एव हि अक्षस्रजं हरिणयो
तदमुदग्रटंकं विद्याकरैरविरतदधती ।
त्रिनेत्रां अद्वैदमौलिमरुणापरविंदभाववर्णेश्वरी प्रणमतस्तनभारनन्ना ।।
१२ ।।
वाग्भद्यमिमं न्यासं कृत्वा मातृकयावुधः ।
पारंगतो सौ विधानां भवत्येव जडोपि च ।। १३ ।।
पंचब्रह्मकलान्यस्येक्त्रयी वर्णादिकास्ततः ।
ऋषि प्रजापति छंदोगायत्रसमुदांहृतं ।। १४ ।।
कलात्मावर्णजननीदेवताशारदीस्मृता ।
ह्रस्वदीर्घांतरगतैः षडंगं प्रणवै स्मृतः ।। १५ ।।
प्. ७७अ)
हस्तैः प्रप्तंरथांगंराणमथहरिणं पुस्तकं वर्णमालां टंकं
शुभ्रंकपालंदरममृतलसद्वेमकुभं वहंती ।
मुक्ताविद्युत्पयोदस्फुरितनवतयावंधुरैः पंचवक्त्रैः स्त्रर्क्षेवक्षोतनम्रां
सकलशशिनिभांशारदानां नमामि ।। १६ ।।
निवृत्तिश्च प्रतिष्ठा च विधाशांतिस्तथैव च ।
रोधिका दीपिका चैव रेचिका मोचिका परा ।। १७ ।।
सूक्ष्मासूक्ष्मामृतायश्चीज्ञानामृता तथा ।
आप्यापिनी व्यापिनी च व्योमनी च क साद्धमा ।। १८ ।।
सदाशिवसमुद्भतः षोडशोक्ता महो ।। १९ ।।
सृष्टिऋद्धिःस्मतिर्मेधाकांतिर्लक्ष्मीर्द्युतिः स्थिरा ।
स्थितिः सीद्विरिति प्रीकादेशवह्यकला इमाः ।। २० ।।
जरा च पालिनीशांतिरीश्वरी रतिकामिके ।
वरदाह्रादिनी प्रीतिदीघोविष्णुकलादश ।। २१ ।।
तीक्ष्णरौद्री भयात्रिदातंदांश्रुर्त्कधिनी क्रिया ।
उत्कारी मृत्युरित्युक्तादशरुद्रदकला इमाः ।। २२ ।।
** पीतारुणापश्चीदसिता च चतुष्कलाः ।
ईश्वरांग समुद्भताः कलाः पंचाशदीरितः ।। २३ ।।
कलान्याअमिमं कृत्कोसाक्षाद्ब्रह्मकलान्वितः ।
आज्ञासिद्धिं समासाद्यतेजोमयतनुर्भवेत् ।। २४ ।।
श्रीकंठमातृकान्यासंव्योमशक्तिसमन्वितं ।
न्यसेच्छीकंठपूर्णादि पंचाशान् मिथुनात्मकं ।। २५ ।।
तंतीयपूर्वातान्यस्येत्रमोंतां रुद्रसंयुतां ।
स धातुप्राणशक्त्यात्मयुक्तायाहिषिते क्रमात् ।। २६ ।।
ऋषिःस्यादक्षिणापूर्तिर्गायत्रं छंद ईरितं अर्द्धनारीश्वरः ।
प्रोक्तो देवतां तन्नवेदिभिः हसाषड्दीर्घयुक्तेन कुर्यादगानिदेशिकः ।। २७ ।।
वंधूककांचननिभरुचिराक्षमीला पाशांकुशौ च वरदं निजवाहुददौ ।
विभ्राणमिदं शकुलाभरणं त्रिनेत्रेमर्धाविकेशमनीशंव पुराश्रयामः ।।
२८ ।।
श्रीकंठानंत सूक्ष्मेशास्त्रिमूर्तिरमरेश्वरः ।
अद्योःशोभारभूतेशोतिथीशः स्थाणनांहरः ।। २९ ।।
कंठोशोभौतिकस्सद्योजातश्चानुग्रहेश्वरः ।
अक्राश्च महासेनः शिवषोडशशमूर्तय ।। ३० ।।
यश्चोत्कोधीशचंडीशंयचास्येशशिचोत्तमाह् ।
अथैकरुद्रकृर्मोकनेज्ञाद्वचतुराननाः ।। ३१ ।।
अजेशशर्वसोमेशराजहिगुलधारकौ ।
अर्द्धनारीश्वारश्चीमाकांतश्चाषाजडंडिनौ ।। ३२ ।।
प्. ७७ब्)
स्युरत्रिमोनमेषाख्यालोहिताख्यां शिवै तथा ।
छगलंड**(?)द्विरंडेशौमहीकालकपालिनौ ।। ३३ ।।
भुंजेगेशः पिनायीशः खड्गीशा द्रव्यौ वकस्ततः ।
श्वेतभृन्वीशलकूलिशिवस्संवर्तकुस्ततः ।। ३४ ।।
एते रुद्राः सितारक्ताधतशूलकपालकाः ।
पूर्णोदरीस्थाद्विरजाशाल्मलीतदनंतरं ।। ३५ ।।
कोलाक्षीवर्तुलाक्षी च दीर्घकर्णासमीरिता ।
सदीर्घमुस्विगोमुख्यौदीर्घजिह्वा तथैव च ।। ३६ ।।
कुंडोदर्पूर्द्धकेशी च तथविकृतमुख्यपि ।
ज्वालामुखी ततोज्ञेया पश्चादुल्कामुखीतथा ।। ३७ ।।
सुश्रीमुखी च विद्यामुखी ह्येताः स्वरशक्तयः ।
महाकालीसरस्वत्यौ सर्वसिद्धिसमन्विता ।। ३८ ।।
गौरीत्रैलोक्यविद्यास्यान्मंत्रशक्तिस्ततःपरं ।
आत्मशक्तिभूतमाता तहा लंवोदरीमता ।। ३९ ।।
शविणीनागिनी मायाखेचरीचापिमंजरी ।
रूपिणीवारिणी पश्चात्क्यकोदतना ।। ४० ।।
स्याद्भद्रकालीयोगिन्यौशंखिनीगर्जिनी तथा ।
कालरात्रिश्च कुब्जीस्यात् कपर्दिन्यपि वज्रया ।। ४१ ।।
जया च सुमुखेश्चर्यारेवती च वरा तथा ।
वारुणीवायवि प्रोक्ता यश्चाद्द्रक्षोपधारिणी ।। ४२ ।।
ततश्च सहजालक्षीर्व्यापिनी माययान्विता ।
एतारुद्रां पीठस्थाः सिंदूणरुणविग्रहीः ।। ४३ ।।
रक्तोत्पलकपालाभ्यामलंकृतकरांवुजाः ।
श्रीकंठमातृकामेतां विन्यस्यादौ दिने दिने ।। ४४ ।।
श्रीमदष्टाक्षरीं जातहृवसाक्षाद्ब्रह्ममयी भवेत् ।
रुद्रमूर्तिस्समहर्ता कर्ता साक्षान्न संशयः ।। ५४ ।।
त्रयीयारमाकामवीजपूर्वक इष्टदः ।
कर्तव्यस्सततंन्यासो ब्रह्मतादात्म्यसिद्धिदाः ।। ४६ ।।
स्मराद्यां वान्यसेदेतां मातृकाभिष्टसिद्धिदां ।
स धातु प्राडणशक्त्यात्मयुक्तायादिषुविष्णवः ।। ४७ ।।
ऋषिः प्रजापतिः प्रोतो गायत्रं यं इ इरितं ।
नारायणोद्वेलक्ष्मीशोदेवतान्नसमीरिता ।। ४८ ।।
दीर्घ******(?) षडंगानि प्रविन्यसेत्
अस्तैर्विभ्रत्सरसिजगदाशंखचक्राणिविधां ।।
ययादशौ कनककलशं मेघविद्युद्विलासं ।
वामेतुगस्तनमविरताकल्पमाश्लेषलोभादेकीभूतं वपुरवत्तुनः
पुंडरीकाक्षलक्ष्म्योः ।। ४९ ।।
शंखं चक्रगहांवुजानि सततं हस्रांवुजैधारं यत्रादर्श च
हिराम्मयंधरमथो विद्यत्ययोदाकृती ।
केपूणंगदहारकुंडलधरोमाणिक्यभूषोल्लसद्वक्त्रार्घ्रोर्द्धेरमान्वितोविजय
ते नारायणः श्रीपतिः ५०
प्. ७८अ)
वैष्णवीं मातृकामेकामपि विन्यस्य षानकाहं ।
श्रीमदष्टाक्षरीं तत्वा साक्षान्नारायणो भवेत् ।। ५१ ।।
मंत्री चात्र न संदेहीनिग्रहानुग्रहक्षमः ।
भवेद्ब्रह्ममयः साक्षाद्वैष्णवीन्यस्यमातृकां ।। ५२ ।।
शक्तिपूर्वांतनौन्यस्यैन्मातृकांमनुवित्तमः ।
ऋषिःशक्तिः स्पृतः छंदीगायत्रं देवतावुधैः ।। ५३ ।।
संप्रोक्तावीश्वजननी सर्वसौभाग्यदायिनी ।
दीर्घाद्धयुजांगानि कुर्यान्मायात्मनावुधः ।। ५४ ।।
उद्यत्कोटि
द्विवाकरप्रतिभरितांगोरूपोनस्तनीवद्वार्द्वदकिरीठहाररशमामंजीरसं
शोभिता ।
विभ्राणकरपंकजैमवंरीपाशांकुशौपुस्तकं
दिवाद्वोजगतीश्वरोत्रिनयनापद्मेनिषस्तासुखं ।। ५५ ।।
शक्तिवीजादिकं न्यस्य मातृकां सर्वसिद्धिदां ।
आश्रयस्सर्वभाग्यानां भवत्यत्र न सप्तयः ।। ५५ ।।
न्यसेच्छी वीजसंपन्नां मातृकां विधिनातनौ ।
ऋषिर्भृगुः स्मृतच्छंदीगायत्रंदेवतामता ।। ५६ ।।
समस्तसंयदापादिर्जगतांनापिकावुधैः ।
प्राक्त्रस्तुनेन वीजेन कुर्यादंगानिसाधकः ।। ५७ ।।
विंददामसहस्राभांहिभगिरिप्रख्यैश्चतुभिर्गजैः
शुंडादांडसमुद्धतामृतमयैरासिंच्यमानामिर्भां ।
विभ्राणां करपंकजेर्जवरीं यग्रद्वयं पुस्तकं भास्वद्रत्वसमुज्वलां
कुचनतां ध्यायेज्जगत्स्वामिनीं ।। ५८ ।।
श्रीवीजपूर्वोविन्यस्यमातृकां सर्वसिद्धिद्धांदां ।
आचार्यानुग्रहात्साक्षाद्भवेच्छ्रीकलयान्वितः ।। ५९ ।।
न्यसेन्स्मराद्यांवपुषिमातृकां मंगलप्रदां ।
ऋषिः संमोहनः प्रोक्तः छंदोगायत्रमुच्यते ।। ६० ।।
देवतामंत्रिभिः प्रोक्ता समस्तजननीपरा ।
स्मरेणदीर्घयुक्तेन विदध्यादंगकल्पनां ।। ६१ ।।
वालार्ककोटिरुचिरां स्फरिकाक्षामालांकोदंडमिक्षुजनितं स्मरयाचवाणान् ।
विद्यां च हस्तकमलैदेधती त्रिनेत्रत्रां ध्यायेत् समस्तजननीं नवचंद्रवुध ।।
६२ ।।
स्मराद्यां यातृकान्यस्य कर्ध्यसमकांतिमान् ।
वशीकरोतिन्नैलोक्यं किंच ब्रह्ममयो भवेत् ।। ६३ ।।
श्रीशक्तिकामवीजाद्यां मातृकां विन्यसेदपि ।
ऋषिस्संमोहनछंदोगायत्रं छवतामनोः ।। ६४ ।।
त्रैलोक्यमोहिनी प्रोक्ता सवेलोकवशंकरी ।
भावर्तितैस्त्रिभिवीजैः षडंगानि प्रकल्पयेत् ।। ६५ ।।
प्. ७८ब्)
ध्येयेयमक्षवलयेक्षुशरान्सयाशान् यमद्वयशुकशरान् नवपुस्तकं च ।
आविभ्रतीं निजकरैकरुणां कुचार्तां संमोहिनां त्रिनयंनांतरुणेंद
चूडां ।। ६६ ।।
वीजत्रयाद्यां विन्यस्य मातृकामिष्टसिद्धिदां ।
सर्वसौभाग्यसंयमभस्सकलैश्वर्यसंयुतः ।। ६७ ।।
समस्तविद्यासंपन्नी जीवेच्च शरदोशतं ।
हंसविद्यादिकां न्यसेन्मातृकामखिलेष्टदो ।। ६८ ।।
ऋषिर्ब्रह्मासमुद्दिष्टच्छदां गायत्रमीरितं ।
समस्तवस्तुसंप्राप्तिकरं तेजोभयशिव ।। ६९ ।।
दैवंतयरर्मब्रह्मपरमात्माभिधं नृप ।
खाहाद्यौः पंचमुनिभिः पंचागानि प्रकल्पयेत् ।। ७० ।।
अस्त्रदिक्षु समुस्तनमूलनवसूद्यायत्ते ।
वेदादिशक्तिरजयापरमात्ममहामतः ।। ७१ ।।
वह्निजाया च काथिता पंचंन्नाः शुभावहाः ब्रह्मातादात्म्यसिध्यर्थं ।
समस्तफलसिद्धिद्याहं साद्योमात्तकां न्यसेत् परब्रह्ममयीमथ ।। ७२ ।।
ताराहियुंचमनुभिः पुरियिमानमानैकगम्यमनिशं जगदेकमूलं ।
सच्चित्समस्तभुवनेश्वरमच्युतं तत्तेजः परंभजतसांद्रसुधांवुराशिं ।। ७३
।।
हंसाद्यां मातृकां न्यस्य श्रीमदष्टाक्षरींतयन् ।
अणिमादिगुणौश्वर्यसहितो भगवानसौ ।। ७४ ।।
इत्थमेकादशविधं मातृकान्यासमवहं ।
आचार्यानुग्रहाल्लब्धा श्रीमदष्टाक्षरीजयनं ।। ७५ ।।
साक्षान्नारायणो ज्ञेयो निग्रहानुग्रहक्षमः ।
सरावसर्वजगतां कर्ता हर्ता च पालकः ।। ७६ ।।
वतानासषीणं च नमस्कार्यो भवत्यसौ ।
एकादशविधन्यासेषशक्तोवसुधापते ।। ७७ ।।
वैष्णवीनात्कीं वापि विन्यसेत् दन्वहशुचिः ।
तत्वन्यासं ततः कुर्याद्येन तत्वमयः पुमान् ।। ७८ ।।
विरा इवीहरिः साक्षीद्भवत्यत्र न संशयः ।
ऋषिर्ब्रह्माततच्छंदोगायत्रं दैवतं स्मृतं ।। ७९ ।।
देवताभगवान्साक्षात्सर्वतत्वमयोहरिः ।
षड्दीर्घमाययाकुर्यात् षडंगं प्रणावाद्यया ।। ८० ।।
भूतोयाग्रिमरुद्वियहुणमयसर्वप्रपंचात्मकं विश्वस्थितिस्सर्गसंहृतिकरं
सत्यात्मकचीद्वनं विष्णुब्रह्मशिवाकृतिसुरमुनिस्तूत्यं ।
हृदब्जस्थितं युक्तं चित्कलयाश्रयेहमनिशं नारायणाख्यं महः ।। ८१ ।।
प्. ७९अ)
ज्ञात्वा तत्वमयं न्यासमाचार्यवदनांवुजात् ।
विन्यस्थ श्रीमदष्टार्ण प्रजपन्वुधः ।। ८२ ।।
नारायणामयः साक्षादाज्ञासिद्धो भवत्यसौ ।
तन्मूर्तियः जरन्यासं ततः कुर्यादिनन्यधोः ।। ८३ ।।
अपिरादिप्त भगवानथवर्षिः प्रजापतिः गायत्रं देवेतं ।
छंदस्मृवितुर्मंडलस्थितः आदित्यात्माजगत्स्यामीदेवोनायणः स्मृतः ।। ८४ ।।
ध्येयस्सदासवितुमंडलमध्यवती नारायणः सुरसिजातसनसन्निविष्टाः ।
केयूरवामकरकुंडलवान्किरीटीहरीहिरण्मयवुपुर्वृतशंखचक्रः ।। ८५ ।।
तन्मूर्तियंजरन्यासं विन्यस्यादौ दिने दिने ।
भवेत् स भगवान्मूर्तिः शब्दब्रह्ममयः पुमान् ।। ८६ ।।
वर्णन्यासंदशविधं कुर्याद्धह्मेसिद्धिदं ।
ऋषिरस्याहमेवाःस्मिसाध्यानारायणोनृप ।। ८७ ।।
गायत्रं दैवतं छंदः साक्षाल्लक्ष्मीपतिर्विभूः ।
हरिर्नारायणः स्वामीदेवतान्न समीरितः ।। ८८ ।।
वंदेनीलययोदकोमलतनुं शंखं च चक्रगदांविभ्राणं कमलं
रमावसुमती संशोभियाश्चैद्वयं ।
दिव्याकल्पशताभिराममनिशं रत्नासनेसंस्थितं शांतं
सुंदारमच्युतसुरमुनि ब्रह्मेश शक्रार्चित ।। ८९ ।।
वर्णत्यासंदशविधं कृष्णेत्थं नित्यमादरात् ।
आचार्यानुग्रहात्पश्चादवश्यं हरिरूपभाक् ।। ९० ।।
चिद्द्रूपमातृकान्यां संभवद्भावसिद्धिहं ।
कुर्यादवश्यं सकलन्यास जातफलप्रहं ।। ९१ ।।
मुनिरस्याप्यहं प्रोक्तः साध्यो नारायणपरोविभुः ।
छंदश्चदेवीगायत्री परमाश्रियःपतिः ।। ९२ ।।
नारायणो जगत्स्वामीदेवता संस्मृतोवुधैः अस्यापि भूलपंचांगन्यासः ।
सद्भिरूदीरितः षद्भिर्वर्गौः षडंगं वा विन्यसेद्वसुधायते ।। ९३ ।।
मूलेकल्पतरोर्महामये सिंहासने संस्थितं देव्याचित्कलयाश्रिया च सहित
नीलामहीसेवितदिव्याकल्पशतातिराममनिशं ।
नित्यं प्रसन्नं विभुं वंदेदेवमुनींद्रवं हि तपदं नारायणं चिद्वनं
।। ९४ ।।
चिरयमातकान्यासं समस्तफलसिद्धिदं ।
सर्वन्यासेषष्टेशक्तोपि स्वाचार्यानुग्रहान्नृप ।। ९५ ।।
कृत्वादापन्वहधीमोः श्रीमदष्टाक्षरी जपेत् ।
चिद्रूयमातृकां न्यस्य साक्षान्नारायणो भवेत् ।। ९६ ।।
सर्वमंत्रमयः सर्वदेवैरप्यच्चितो भवेत् आचार्यं वेदांतपारगं श्रोत्रियं
द्विजं ।
सहस्रं योजनं वापि गत्वा वश्यं महीयते
ब्रह्मतादात्म्यमन्विच्छनमुक्तिमेकेन जन्मना ।। ९८ ।।
प्. ७९ब्)
पूर्वां संप्राप्त्यविद्योपिसंसत्य सकुलानारुन् ।
संसेव्य वहुवर्षंवारत्प्रप्राणार्धनैरपि ।। ९९ ।।
श्रीमदष्टाक्षरीविद्यां भगवद्रश्मिसंयुतां ।
अवश्यमपि गृहीयात् समस्तन्यासगूर्विका ।। १०० ।।
तमाचार्यं विजानीयान्मामेवामेदतस्सदा ।
अवश्यं सकलन्यासा आचार्यचंदनांवुजात् ।। १ ।।
न्यस्तव्याश्चागृहीतव्यादेवताभावसिद्धिदाः ।
अवश्यंमुपदेष्टव्याः करोतु न करोतु वा ।। २ ।।
आचार्येण स्वशिष्यायविनीताय महान्मुने ।
आचार्योनुप्रहाहात्वान्यासजालमिदं शुभं ।। ३ ।।
विन्यस्य श्रीमदष्टार्णे शताधिक सहस्रकं ।
जप्त्वामासत्रयं यश्चासश्यत्येव श्रियःपतिं ।। ४ ।।
भगवत्कालयापूर्णः कामकोटि समप्रभः ।
तेजोमयतुर्मृत्युजरामुक्तेत्भवत्यसौ ।। ५ ।।
अविच्छिन्नोयासनयासिद्धिरेषा प्रजायते ।
कृत्वा दिने दिने वश्यं न्याअजालमिदं शुभं ।। ६ ।।
विताचार्यानचंदे तु मातरं पिप्तरं तु वा ।
वंद्यमानी व्रतव्रत्येन मृत्युं मासान्नसंशयः ।। ७ ।।
मासत्रयाद्रवंत्यस्य शक्राद्या अपि किंकराः ।
शुभे दिने शुभेलग्ने न्यासजालमिदं शुभ्रं ।। ८ ।।
गृहीत्वै च तृतीष्टार्णागृह्णीयाच्छेयसेनृप ।
ससद्वोयवती भूर्मिर्धनधान्यौद्यसंकुला ।। ९ ।।
दक्षिणाविहिताशास्त्रे सर्वस्वमपिवानप ।
वर्षाशनमितद्रव्यमथवागुरवेर्ययेत् ।। १० ।।
सद्यः सिद्धिमवान्योत्तितपहीमादिकं विना ।
कृत्वा वश्यमिदं न्यासजातं प्रत्यहमादरात् ।। १११ ।।
अष्टोत्तरशतं वापि श्रीमदष्टाक्षरीजपेत् ।
भार्गवेवासरेवापि यक्षेवामासिमासि वा ।। १२ ।।
मासत्रयेवाषणसेन्यासजालमिदं सन्येत् ।
महतिं सिद्धिमिच्छद्भिर्न्यस्तव्यं प्रत्यहं बुधैः ।। १३ ।।
वेदवेदीतशाश्त्रौघसारभूतार्थसंग्रहं ।
न्यासजालमिदं पुण्यं भगवद्रावसिद्धिदं ।। १४ ।।
प्. ८०अ)
अक्षयायां तृतीयायां रवीदग्रहणोपि वा ।
आश्विनेनवरात्रे च विजीयेदश्मिमीदिने ।। १५ ।।
आचार्यवदनांभीताद्भगद्राश्मि संयुता ।
समस्तन्याससहिता श्रीमदष्टाक्षरीशुभ ।। १६ ।।
आचार्यदक्षिणां दत्वा अध्येतव्या पुनः पुनः ।
अवश्यं महतीं सिद्धिमणिमादि गुणान्वितां ।। १७ ।।
ब्रह्मतादात्म्यसंसिहिद्धि हेतुभूतां सनातनीं ।
प्राप्रोत्यत्र न संदेहो विवाह्येमजयादिकं ।। १८ ।।
सर्वन्यासेष्च शक्तश्चेन्मातृकां वैष्णवीमपि ।
तत्वन्यासं ततः कृत्वान्यासंतन्मूर्मिर्तीयंव्रर ।। १९ ।।
वर्णन्यासंदशविधं न्यस्य चिद्रयमातृकां ।
श्रीमदष्टांक्षरं मंत्रं जपेन्नित्यं महीयते ।। २० ।।
तत्राप्य शक्तोमतिमान्यस्य वैष्णवमातृकां ।
वर्णन्यासं दशविधं न्यस्य चिद्रूयमातृकं ।। २१ ।।
श्रीमदष्टाक्षरं मंत्रे जपेत् सकलमिद्धिदं ।
न्यास्य अवश्यं न्यस्तव्यास्सवैसन्दुर्वनुग्रहान् ।। २२ ।।
वक्ष्ये वा मासमासे वा षण्मासे वा महीयते ।
अवश्यं सकलन्यासा कर्तव्या हरिशासनात् ।। २३ ।।
अन्यथा महतीसिद्धिर्लभ्यतेनं कदाचन ।
जपंतीष्ठाषि सर्वासु भार्गवासरेपि वा ।। २४ ।।
एकादश्याममायां वारविसंक्रमणेपिवा ।
व्यतीयात्तेपि वा कार्यं न्यासजालमिदं शुभं ।। २४ ।।
न्यासैस्सहाष्टार्णमनुजायोस्वाचार्य शुश्रूषणसक्तचित्तः दिने दिने ।
वैदिकयावकेचु हृत्वा हविर्दादशधापि भूय ।। २५ ।।
विशेषतो भार्गवासरेथ जप्त्वा च हुत्वाथ गुरुप्रियायै भक्ष्यं च ।
भोज्यं घृतसूयसंयुतं वर्णामुक्ताफलभूषणादिकं ।। २६ ।।
दत्वा लभेदक्षयं यदद्धिं च शाभिवृद्धिं च तथाचियुः ।
त्यध्वाविभानं मणिहेमनिर्मितं प्राप्रोत्यथांते भगवत्पदं च ।। २७ ।।
अवश्यमाघेपि भृगोर्द्विने वा मासस्य समाहितात्मा जप्त्वा च ।
हुत्वा विधिवत्समर्च्यचार्यवल्यैमणिकांचनादिक ।। २८ ।।
आयुष्यमारोग्यमक्षाक्षयं च वितं च मुक्ता फलरत्नजातवः ।
वंशामिवृद्धि समवाप्य भोगा आप्रोति साक्षाद्भगवत्युदं च ।। २९ ।।
न्यासैसहार्णजपी महोत्मान्यासैस्सहाष्टाणं जपीविधाता ।
न्यासेस्महाष्टार्णजयी शिवश्चन्यासैस्सचूष्टाक्षरमंत्रजायी ।। ३० ।।
प्. ८०ब्)
ताद्भगवत्यदं च न्यासैसहार्णाजयीमहात्मान्यासैस्महाष्टार्णजयीविधाता ।
न्यासैस्सहानारायणस्सर्व चराचरस्य गुरुर्गरीयानपि विश्ववंद्यः ।। ३१ ।।
सत्यं सत्यं पुनः सत्यं न मृषा प्रोच्यते मया ।
एतदेव परं तत्वं विजानीहमहीपते ।। १३२ ।।
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीये तंत्रे वेदार्थसंग्रहेयं च
विंशोध्यायः ।।</poem>
iw0fdgrd50qq6ubxip4rasa6vyip01c
दाशरथीयतन्त्रम्/अध्यायः २६
0
163652
409304
2025-06-27T09:45:15Z
Shubha
190
{{header | title = [[../]] | author = | translator = | section = अध्यायः २६ | previous = [[../अध्यायः २५|अध्यायः २५]] | next = [[../अध्यायः २७|अध्यायः २७]] | notes = }} <poem> प्. ८०ब्) श्रीभगवानुवाच श्रीमदष्टार्णविद्या... नवीन पृष्ठं निर्मीत अस्ती
409304
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः २६
| previous = [[../अध्यायः २५|अध्यायः २५]]
| next = [[../अध्यायः २७|अध्यायः २७]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ८०ब्)
श्रीभगवानुवाच
श्रीमदष्टार्णविद्यायास्सद्धनस्सर्वसिद्धिदं |
पुरश्चर्याभिधं कर्मवक्ष्यमिव सुधायते || १ ||
इत्थं पंचदशन्यासैस्सनद्वनिजविग्रहः |
आचार्यचरणांभोजं ध्यात्वा ब्रह्मविलेशुभे || २ ||
हृत्यप्रकर्णिकामध्ये श्रीपतिं जातां यति |
ध्यात्वाथ श्रीमदष्टार्णा यथा शक्त्यान्वहं जपेत् || ३ ||
सहसुसाधिकं किंचिषण्मासंवत्सरं तु वा |
जप्त्वा हृत्वान्यहं भूयत्वलिते जातवेतवेदसि || ४ ||
आचार्यपत्नीपुत्रादीनभ्यर्च्यधनराशिभीः |
वत्सरान् महतीं सिद्धिं देवानामपि दुर्लभां || ५ ||
जरामरणशून्यत्वं दीर्घमापुरणगतां |
कंदर्प समसौभाग्यं वाचां सिद्धिमनुत्तमां || ६ ||
परकायप्रवेशादि सामर्थ्यं चलभेदसौ |
मृतानामपि साहस्रकरस्पर्शनमात्रतः || ७ ||
संजीवयति भूयालसशेयोनात्रविद्यते |
अणिमादिगर्णोर्युक्तोवत्सरात्स्वेचरो भवेत् || ८ ||
अष्टार्णवियासंसिद्धिः पुरश्चर्यं विनापि च |
उक्तयेत महाभाग यदिविघ्रो न जायते || ९ ||
चतुर्लक्षंकृतो प्रोक्तं त्रेतायामष्टलक्षकं |
द्वापरेरविलक्षं स्यात्कलौ षोडशलक्षकं || १० ||
गंगागोदावरीतीरंतर्मदातीरमुत्तमं |
तथा सरस्वतीतीरं यमुनातटमप्यथ || ११ ||
कावेरीकृष्णवेण्याश्चतुगाभीमरथां तटं |
समुद्रतीरंगोष्ठं च सुवर्णामुखरीतितं || १२ ||
तुलसीवनमध्यं च प्रशस्तजपवूर्मसु |
सुतेद्याच्चार्यसान्निध्यं विशिष्टं प्राहुरिष्टद || १३ ||
कुर्वन्वदांदितं कर्मप्रत्यहं विजितेंद्रियः |
नक्ताश्येकांतराशी वा फलमूलाशनोपि वा || १४ ||
प्. ८१अ)
हविष्यमत्रमश्रन्वानित्यं त्रिषतणोरतः |
तयेत् षोडशलक्षाणि श्रीमदष्टाक्षरं मनुं || २५ ||
विधिवत् त्वलिते वह्नौ यप्तैर्मव्यघृतप्लुतैः |
हुनेत् षोडशसाहस्रं तत आचार्ययादयोः || १६ ||
सर्वस्वमर्प्ययेद्वीमान्वसुधांशस्यसंकुलांगवां |
द्वादशकं वत्सं वहुक्षीरसमन्वितं || १७ ||
कुंडलद्वितयं चापि वा सोन्षुन्दाषणाष्णिकं |
दत्वाचार्यप्रियापुत्रानपि संतोष्यवस्तुभिः || १८ ||
ब्राह्मणान्भोजयेत् पश्चाच्छतं साग्रं सवासिनीः |
इत्थं कृत्वा पुरश्चर्यामिविधिनावक्षुधायते || १९ ||
श्रीमदष्टाक्षरीविधा सिद्धिं सद्यो व्रजत्यसौ |
श्रीमदष्टाक्षरी सिद्धापदो भवति भूयते || २० ||
तदैव चक्षुषा साक्षाद्भगवंतं प्रपश्यति |
अथस्तप्रेपिवासाक्षाद्धाष्वरुद्रादिविवंदितं || २१ ||
विनकृतनयारूढं श्रीभूनिलासमन्वितं |
नारायणं परब्रह्मरूपिर्णयश्यति ध्रुवं || २२ ||
मनौरथार्थसंसिद्धिर्दैवतैरपि दुर्लभा |
भवत्येव न संदेहस्रस्मिन्वर्षे महीयते || २३ ||
भगवत्कलयापूर्णः किंचासौ भवति ध्रुवं |
जपहोमाच्चं नंदानं व्रतंदेव द्विजार्चन || २४ ||
पुरश्चरणकृत्येन विनाव सफलं भवेत् |
तस्मादवश्य कर्तव्यं पुरश्चरणमादरात् || २५ ||
न सिद्धिरत्यथा भूअजपकोटिशतैरपि |
महतीपुरच्चर्या संपूर्णोक्तामयात || २६ ||
विद्यासिद्धिरवश्यं स्याद्विधानेन कृतायदि |
आनायासेनविधायाः शिर्द्विगुप्ततरामपि || २७ ||
प्रवक्ष्यामि महीपालशूणुद्यावहितो भवान् |
वैशाखेमासि शुकेवात् तीयाक्षयसंज्ञिता || २८ ||
भृगुवास संयुक्ता प्राजापत्यक्षं संयुता |
होहिरायां संस्थितो जीवेमेषराशिगतेरवौ || २९ ||
लक्ष्मीभवानीयोगोयं दुर्लभः सर्वदेहिनां |
योगोयंषड्विभिर्वषैर्ल्लभ्यते नान्यथा नृप || ३० ||
त्रेतायुणर्घदिवसमिदमेव वदंति हि |
पितृणामपि सर्वेषामक्षनंदकारकं || ३१ ||
तत्र गौरी समुत्पन्नामेनकायां हिमाचलात् |
तत्रैव भृगुवारेणप्तहितेदेवसेशुभे || ३२ ||
भृगोः स्यात्यां समुत्पन्ना तपसातोषितेहिरा |
अस्मिन्नेवदिने भूयरोहिण्यां भगवान् विभुः || ३३ ||
वलरामाकृइजौतोद्वापरांते श्रियःपतिः |
किं च धर्मस्यतयसातोषितोवसुधायते || ३४ ||
प्. ८१ब्)
दाक्षायण्यांशमुत्पन्नोनाम्नानारायणोस्म्यहं |
प्राजापत्यर्क्षसहिते भृगुवासरसंयुते || ३५ ||
प्राजापत्यर्क्षगेजीवेमेषराशिसितेरवौ |
वैशाखेशुक्लपक्षेहमुत्यनोस्मिन्दिने नृप || ३६ ||
हिताय सर्वजगतां धर्मस्थाय न सिद्धयेः |
धर्मस्य तपसातुष्टोदाक्षायण्यामहं नृप || ३७ ||
आविभूतोस्ति विश्वात्मा नाम्ना नारायणीमुनिः |
अस्मिन्नेवदिने पूर्वरीहिण्यां भृगुवासरे || ३८ ||
उपयेमेहरिः साक्षाद्भगावनिदिरां हरिः |
किं चास्मिन्नेवदिवसेरोहिणयांशशिशेखरः || ३९ ||
उपयेमेविधानेन देवी हिमवतः सुतां |
तस्मादक्षयनाम्नीयं तृतीया सर्वसिद्धिदा || ४० ||
दिनयात्रपपिप्रोक्तमक्षयाभीष्टसिद्धिदं |
एतै समन्वितो योगौरलक्ष्योयोग ईतिरतः || ४१ ||
अक्षयाख्य तृतीयेयंतिथिरुक्तामहीयते |
रोहिणी भृगुचारेण सहितात्र भवेद्यदि || ४२ ||
श्रीगौरीयोग इत्याख्यांगतोसौ सर्वसिद्धिदः |
रीहिणीसस्थितिजीवेमेसुराशिगतेरवौ || ४३ ||
लक्ष्मीनारायणोयागो भवानीशंकरोपि च |
अक्षयाख्य तृतीयं यंमहत्पर्वममेरिर्त || ४४ ||
कातिकपौर्णमींशुक्लामारभ्यामरनायकाः |
ऋषयस्सिद्धसंघाश्च प्रत्यहं पूजयंतिमां || ४५ ||
एतद्द्विवसपर्यंतं दिने स्मिन्वसुधायते |
मतोक्षयलं प्राप्य गच्छंति त्रिदिवंसुराः || ४६ ||
दिवसेस्मिन्हुतं जप्तंदतमक्षयसिद्धिदं |
मत्मसाद्भवत्येव दिनमे तत्रथाथाक्षयं || ४७ ||
वदरी च न मध्यस्थे नानानारायणेस्म्यहं |
नारायणाश्रमोनाम्नातन्मनस्था न मुच्यते || ४८ ||
अत्राश्रमेस्मिन् दिवसे धर्मस्यतनयं विभुं |
दाक्षायणीसुतं नाषारव्यातं नारायणां मुनिं || ४९ ||
नरेण सहितं दृष्ट्वा मामेव जगतीपतिं |
कोटिजन्मार्जीतैःपायसंघैरपि सुदारुणैः || ५० ||
विमुक्तः संकरेभ्योपिदेहांते मस्वरूपभाकु |
अक्षयेस्मिन् दिने तस्मादुक्तयोगोभवेद्य हि || ५१ ||
योगोयं षष्टिभिवर्षेरलम्योलभ्यते नृप |
अलभ्ययोगे संप्राप्तोदिवसेक्षयसंज्ञिते || ५२ ||
प्रातरुत्थामहायंप्रणम्याचार्यमादरात् |
नैसकं कर्मकृत्वाथ तदनुज्ञापुरस्सरं || ५३ ||
सहपंचदशन्यासैः श्रीमदष्टाक्षरं जयेत् |
त्रिशताधिकसाहस्रं श्रीमंत्रान्यतमंशतं || ५४ ||
प्. ८२अ)
प्रह्वाविधि वह्नौ संस्कतेवैटिकोपि वा |
विवपत्रैर्घृताभ्यक्तैः श्रीमदष्टार्णविद्यया || ५५ ||
त्रिशतं तु हृयासश्चाद्रव्येनाज्येन वावानृप |
श्रीमंत्रान्यतमेनाथहुत्वा द्वादशधा घृतं || ५६ ||
रश्मिमंत्रे सकृद्धत्वा प्रायश्चिताहतीहीनेत् |
उत्पलैर्विल्वपत्रैर्वायैर्वाकरवीरकैः || ५७ ||
त्रिशतं पूजयेत् पश्चाद्धस्तविद्यां समुच्चरन् |
सांगावरणपूजां च कृत्वादौ नियतव्रतः || ५८ ||
पूर्वोपदिष्टाप्याचार्य च नात्वाम्नहीपते |
अध्येतव्या रश्मिमालाशिष्येणनियतात्मना || ५९ ||
भूयोपि सकलन्यासा अह्येतव्याः प्रायत्नतः |
अवश्यमस्यिन्दिवसे श्रीमदष्टाक्षरीशुभा || ६० ||
उपदिष्टाथ भूयोपि स्वाचार्यवदनांवुजात् |
अध्येतव्या प्रयत्नेन सर्वन्यासपुरस्सरा || ६१ ||
नारायणी सहृस्रर्णप्राप्तव्याथपुनर्नृप |
तत आचार्यपादाब्जेधैर्यगांभार्यसंयुतः || ६२ ||
सर्वस्वं दक्षिणं दद्यातर्धं वा तदधकं |
वर्षाशनमितं द्रवमथवावश्यमर्यर्पत् || ६३ ||
कुंडलद्वितयं रम्यंतसकांचननिर्मितं |
आचार्यकर्णयोर्देयमवश्यं रत्नसंयुतं || ६४ ||
शालग्रामशिलामेकांद्रद्यादक्षिणयान्वितं |
पीतांवरयुगंदाद्यात्स्सक्ष्यकार्यासकंतु वा || ६४ ||
विभवेसतिमूहानं कुर्याह्रीदानमप्यथ |
अवश्यं गुरवेदेयंयानसं फलपंचकं || ६५ ||
पनसत्रितयं वापि विधासिध्यर्यमाहरात् |
दृष्ट्वात्फुलनिचान्यानि धनार्ढ्या भूमियो यदि || ६६ ||
मुक्तारत्नमंयोराशिं धनराशिं समर्पयेत् |
धान्यराशिमथाश्वंचगतानांदोलिकांदिकं || ६७ ||
समर्प्ययेद्भगवतः प्रासादार्थं महीयते |
तत दक्षयमेवस्याद्याद्यदस्मिन्दिने कृतं || ६८ ||
कुंडलद्वितयं देवमवश्यं वसुधामते |
अवश्यं यानसफलं यंचकंत्रितः प्रातयंतु वा || ६९ ||
शालग्रामशिलैकापिहातव्या दक्षिणान्विता |
वर्षोशनमितद्रव्यंदयमावश्यकं वुधैः || ७० ||
अथ द्वादशनिष्कं वाषरिग्रष्कं वा त्रिनिष्णकं |
दरिद्रोधनहीनीपिदक्षिणांगुरवेर्यत् || ७१ ||
वासोभिस्समलं कृत्य गंधपुष्पाक्षतादिभिः |
अवश्यंगुरवेदेर्यदरिवैरपि साधकैः || ७२ ||
अक्षयांसिद्धिमन्विच्छन् अर्थायांश्रियमूर्तितां |
अक्षयां पुत्रपौत्रादिसमृद्धिजानमक्षयं || ७३ ||
प्. ८२ब्)
अक्षयायां तृतीयायामित्थं कृत्वा यतः |
आकल्यमक्षयासिद्धिः श्रीमदृष्टार्णाजापिभिः || ७४ ||
दुर्लभाययमरादीनांतभ्यते नात्रसंशयः |
आचार्यालिंगनं प्राथतदाशीभिः कृतादरः || ७५ ||
आचार्यपत्निं संपूज्यविशेषेणाक्षयेद्दिने |
भोजयेद्विप्रवर्षोश्चसुवासिन्योष्टभूयते || ७६ ||
आचार्यचरणांभोजनिर्णेजनजलंशुभं |
पीत्वा कृतार्थतां प्राप्यभुंजीयाद्वंधभिस्सह || ७७ ||
अक्षयायातृतीयायांपुरश्चर्यामिमां शुभां |
विनूशाठ्यं परित्यज्य कृत्वोक्त विधिना शुचिः || ७८ ||
महतीयापुरश्चर्यो पूर्वभूक्तामयात्तृव |
तादृशीनाशतं साग्रं कृत्वा यत्फसमश्रुते || ७९ ||
तत्फलंभते सांगमवश्यं नात्र संशयः |
श्रियाचिद्रययाथास्थियोगे फलमुदीरितं || ८० ||
सरस्वत्यैज्यगन्मात्र्यैपुरावैकुंठमंदिरे वैशाखमासेपि च
शुक्लपक्षेविरंचितीरणभृगोः |
सुतेन युक्ते विरिंचिस्थित देवदेवसदूणै मेषस्थितेर्केदिवसेतृतीये || ८१ ||
गौरीरमायोरागसुदाहरंति लक्ष्मीशनारायणयोगमाहुः |
उमामहेशाभिधमाहरेकेतत्रैवगौरोचरे मात्रजाता || ८२ ||
दक्षप्रजायक कन्यकायां धर्मस्य पत्न्यामपि लोकनाथः |
तक्षीपतिः प्राहुरभूद्धरित्र्यां नारायणोनामनरैणयुक्तः || ८३ ||
मद्भतुरष्टार्णमनुप्रक्षापोन्यासैस्समस्तैरपियोद्दिनेत्र |
हुत्वा च हव्यं विधिसंस्कृतेग्रौयूवौयदिष्टामपिरश्मिमालां || ८४ ||
आचार्यवक्त्रांवुजतो गृहीत्वान्यासैस्सहाष्टार्णमनुंचयश्चीत् |
भूयो गृहीत्वा गुरुपादयुग्मेदयुग्मेदत्वा समस्तं च धनं मणिं च || ८५ ||
रम्यां प्रदद्यादथ कुंडद्वयां वासोयुग ब्राह्माणान्भोजयेच्च |
फलत्रयं पानसंपंचकं वाह्यत्वा सदाचार्य यदारविंदे || ८६ ||
श्रियं व्रतत्यक्षयरलवितहयाश्वधान्यौपसमृद्धियुक्तां |
पुत्राभिवृद्धिसकलांश्चनोगायुर्महद्भाग्यमथाक्षयं च || ८७ ||
पितुश्चमातुः कुलकोटियुक्ताममैतदक्षप्ययंदं प्रयाति || ८८ ||
सरस्वत्यै पुरात्योक्तमित्थधिद्रययाश्रिया |
दिनमात्रेण कृत्वेत्थं महतीं सिद्धिमश्रुते || ८९ ||
प्. ८३अ)
किं पुनर्यौगसहितेफलंवक्तुं न शक्यते |
अनेन योगराजेन समोलभ्योनविह्वते || ९० ||
अक्षयां सिद्धिमन्विच्छन् कुर्याद्विवसंवृथा |
पुरश्चर्योरतरं वक्ष्ये शृणुषां वह्निओ नृप || ९१ ||
यत्कृत्वा श्रीमदष्टार्णसंसिद्धिं लभते परां |
भास्करग्रहणेप्राप्ते चंद्रस्यदिवसेपि वा || ९२ ||
एकं कालंमिताहीरस्तत्पूर्वदिनपंचकं |
ग्रहणस्पर्श समये गत्वा सागणां नदीं || ९३ ||
स्रात्वा संकल्प्यनामानि केशवादीन्ययोच्चरन् |
स्नात्वा शूमेधावभृथस्नानपुण्यसमन्वितः || ९४ ||
आचार्यचरणांभोज प्रक्षालनजलं पिवेत् |
अंतस्समस्तयायेभ्यो मुक्तः स्यात् सद्य एव हि || ९५ ||
स्पर्शकालं ससारभ्यविधिवत्संस्कृतेनले |
कृष्णैस्तिलैर्हुनेद्रव्यघृतं युक्तैस्ततः परं || ९६ ||
विना भार्गववारेण तत्रापि जुहुयाद्वतं |
शिर्ष्टेर्धनाडिकामात्रे स्मृत्वा ब्रह्मार्यणाहुतिं || ९७ ||
वहुसस्य समाकीर्णां चतुर्वृषभसंयुतां |
वहविन्नयुक्तां भूमिंमावार्याय समर्पयेत् || ९८ ||
दक्षिणाविहिताशाह्येवषोशनमित्तं धनं |
अथ द्वादशनिष्कंवाषड्विंता समर्पयेत् || ९९ ||
शालग्रामशिलामेकामाचार्याय समर्पयेत् |
दक्षिणावसुनिष्कं वा त्रिनिष्कंवाथ दक्षिणां || १०० ||
दरिद्रोमंदभाग्यश्चभिक्षित्वेत्थं समर्पयेत् |
ददाति पद्यद्गृहणेसवितुः शशिनोपि च || १ ||
ततदक्षयर्मवस्थादा चंद्रार्कनसंशयः |
ग्रहणेव सुधां दत्वा सत्यद्वीपवतीं महौ || २ ||
दत्वायत्फलमाप्नोति तत्फलं समुदीरितं |
शालग्रामशिलामेका दत्वा पूर्वोक्तदक्षिणां || ३ ||
ब्रह्मांडकोटिदानस्यफलमत्यंत ममश्रुते |
धनं धान्यं च वा सांसिभूषणं कुंडलादिकं || ४ ||
श्रोत्रियेभ्योदधिमधुघृतकुंभान्समर्प्य च |
समस्ताभीष्टसंसिद्धिमत्यंतं महती लभेत् || ५ ||
जाह्नीवीसदृशंतीयं द्वैयाय न समाद्विजाः |
स्वर्णदानं मेरुसंयं प्राहुश्चंद्रार्कपर्वणि || ६ ||
अमेरयत्यं प्रथमं हिरण्यं गोर्वेणवीसूर्यसुताश्चगावः |
दत्तास्त्र यस्तेन भवंतिलोकायः कांचनगाचगहीं प्रदृद्यात् || ७ ||
आचार्यानुग्रहात् सद्यः श्रीमदष्टाक्षरीशुभा |
ददाति महतीसिद्धिं दैवतैरपि दुर्लभां || ८ ||
प्. ८३ब्)
इंदिरारमणस्तस्य भगवान् संप्रसीदति |
किमसाध्य भवेत् तस्य प्रसन्नेकमलाधिय |
सीध्यर्थमेव मंत्राणिं नित्यं यत्नपरो भवेत् || ९ ||
अष्टाक्षरी महाविद्या सिद्धिर्यस्य यदा भवेत् |
तदा तस्य प्रसस्ताभिकल्याणाभि भवंति हि || १० ||
आयुष्यमारोग्यमधंचलाश्रीः पुत्राभिवृद्धिं सुखमक्षयं च |
विद्याः समस्ता अपि दिव्यभोगान प्राप्रोत्यथांते भगवत्यहं च || १११ ||
महानुभावामुनयः पुरातुनान्यासैः सहाष्टाक्षरं मंत्रसताः |
सिद्धिगता ब्रह्मसंरूपतां च श्रियं परां सर्वगुर्णाययभां || १२ ||
हुत्वा रवींदग्रहणे घृतेन दत्वा सदाचार्य यदाक्ष्रयुग्मे धनं च |
दिव्यामरणानिधान्यं नारायणं पश्यति चक्षुषासौ || १३ ||
दृष्ट्वा हरितं स्यलान्वितो सौ पुनातिवशान् शंतसंथशोपि |
पितुश्च मातुश्चकुलान्यितो सौ परंपदं यातिनं संयोत्र || १४ ||
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीये तंत्रे
वेदार्थसंग्रही षद्विशोध्यायः ||</poem>
oi87dxofwe17u379y58ah0bux823l7u
409305
409304
2025-06-27T09:45:33Z
Shubha
190
409305
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः २६
| previous = [[../अध्यायः २५|अध्यायः २५]]
| next = [[../अध्यायः २७|अध्यायः २७]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ८०ब्)
श्रीभगवानुवाच
श्रीमदष्टार्णविद्यायास्सद्धनस्सर्वसिद्धिदं ।
पुरश्चर्याभिधं कर्मवक्ष्यमिव सुधायते ।। १ ।।
इत्थं पंचदशन्यासैस्सनद्वनिजविग्रहः ।
आचार्यचरणांभोजं ध्यात्वा ब्रह्मविलेशुभे ।। २ ।।
हृत्यप्रकर्णिकामध्ये श्रीपतिं जातां यति ।
ध्यात्वाथ श्रीमदष्टार्णा यथा शक्त्यान्वहं जपेत् ।। ३ ।।
सहसुसाधिकं किंचिषण्मासंवत्सरं तु वा ।
जप्त्वा हृत्वान्यहं भूयत्वलिते जातवेतवेदसि ।। ४ ।।
आचार्यपत्नीपुत्रादीनभ्यर्च्यधनराशिभीः ।
वत्सरान् महतीं सिद्धिं देवानामपि दुर्लभां ।। ५ ।।
जरामरणशून्यत्वं दीर्घमापुरणगतां ।
कंदर्प समसौभाग्यं वाचां सिद्धिमनुत्तमां ।। ६ ।।
परकायप्रवेशादि सामर्थ्यं चलभेदसौ ।
मृतानामपि साहस्रकरस्पर्शनमात्रतः ।। ७ ।।
संजीवयति भूयालसशेयोनात्रविद्यते ।
अणिमादिगर्णोर्युक्तोवत्सरात्स्वेचरो भवेत् ।। ८ ।।
अष्टार्णवियासंसिद्धिः पुरश्चर्यं विनापि च ।
उक्तयेत महाभाग यदिविघ्रो न जायते ।। ९ ।।
चतुर्लक्षंकृतो प्रोक्तं त्रेतायामष्टलक्षकं ।
द्वापरेरविलक्षं स्यात्कलौ षोडशलक्षकं ।। १० ।।
गंगागोदावरीतीरंतर्मदातीरमुत्तमं ।
तथा सरस्वतीतीरं यमुनातटमप्यथ ।। ११ ।।
कावेरीकृष्णवेण्याश्चतुगाभीमरथां तटं ।
समुद्रतीरंगोष्ठं च सुवर्णामुखरीतितं ।। १२ ।।
तुलसीवनमध्यं च प्रशस्तजपवूर्मसु ।
सुतेद्याच्चार्यसान्निध्यं विशिष्टं प्राहुरिष्टद ।। १३ ।।
कुर्वन्वदांदितं कर्मप्रत्यहं विजितेंद्रियः ।
नक्ताश्येकांतराशी वा फलमूलाशनोपि वा ।। १४ ।।
प्. ८१अ)
हविष्यमत्रमश्रन्वानित्यं त्रिषतणोरतः ।
तयेत् षोडशलक्षाणि श्रीमदष्टाक्षरं मनुं ।। २५ ।।
विधिवत् त्वलिते वह्नौ यप्तैर्मव्यघृतप्लुतैः ।
हुनेत् षोडशसाहस्रं तत आचार्ययादयोः ।। १६ ।।
सर्वस्वमर्प्ययेद्वीमान्वसुधांशस्यसंकुलांगवां ।
द्वादशकं वत्सं वहुक्षीरसमन्वितं ।। १७ ।।
कुंडलद्वितयं चापि वा सोन्षुन्दाषणाष्णिकं ।
दत्वाचार्यप्रियापुत्रानपि संतोष्यवस्तुभिः ।। १८ ।।
ब्राह्मणान्भोजयेत् पश्चाच्छतं साग्रं सवासिनीः ।
इत्थं कृत्वा पुरश्चर्यामिविधिनावक्षुधायते ।। १९ ।।
श्रीमदष्टाक्षरीविधा सिद्धिं सद्यो व्रजत्यसौ ।
श्रीमदष्टाक्षरी सिद्धापदो भवति भूयते ।। २० ।।
तदैव चक्षुषा साक्षाद्भगवंतं प्रपश्यति ।
अथस्तप्रेपिवासाक्षाद्धाष्वरुद्रादिविवंदितं ।। २१ ।।
विनकृतनयारूढं श्रीभूनिलासमन्वितं ।
नारायणं परब्रह्मरूपिर्णयश्यति ध्रुवं ।। २२ ।।
मनौरथार्थसंसिद्धिर्दैवतैरपि दुर्लभा ।
भवत्येव न संदेहस्रस्मिन्वर्षे महीयते ।। २३ ।।
भगवत्कलयापूर्णः किंचासौ भवति ध्रुवं ।
जपहोमाच्चं नंदानं व्रतंदेव द्विजार्चन ।। २४ ।।
पुरश्चरणकृत्येन विनाव सफलं भवेत् ।
तस्मादवश्य कर्तव्यं पुरश्चरणमादरात् ।। २५ ।।
न सिद्धिरत्यथा भूअजपकोटिशतैरपि ।
महतीपुरच्चर्या संपूर्णोक्तामयात ।। २६ ।।
विद्यासिद्धिरवश्यं स्याद्विधानेन कृतायदि ।
आनायासेनविधायाः शिर्द्विगुप्ततरामपि ।। २७ ।।
प्रवक्ष्यामि महीपालशूणुद्यावहितो भवान् ।
वैशाखेमासि शुकेवात् तीयाक्षयसंज्ञिता ।। २८ ।।
भृगुवास संयुक्ता प्राजापत्यक्षं संयुता ।
होहिरायां संस्थितो जीवेमेषराशिगतेरवौ ।। २९ ।।
लक्ष्मीभवानीयोगोयं दुर्लभः सर्वदेहिनां ।
योगोयंषड्विभिर्वषैर्ल्लभ्यते नान्यथा नृप ।। ३० ।।
त्रेतायुणर्घदिवसमिदमेव वदंति हि ।
पितृणामपि सर्वेषामक्षनंदकारकं ।। ३१ ।।
तत्र गौरी समुत्पन्नामेनकायां हिमाचलात् ।
तत्रैव भृगुवारेणप्तहितेदेवसेशुभे ।। ३२ ।।
भृगोः स्यात्यां समुत्पन्ना तपसातोषितेहिरा ।
अस्मिन्नेवदिने भूयरोहिण्यां भगवान् विभुः ।। ३३ ।।
वलरामाकृइजौतोद्वापरांते श्रियःपतिः ।
किं च धर्मस्यतयसातोषितोवसुधायते ।। ३४ ।।
प्. ८१ब्)
दाक्षायण्यांशमुत्पन्नोनाम्नानारायणोस्म्यहं ।
प्राजापत्यर्क्षसहिते भृगुवासरसंयुते ।। ३५ ।।
प्राजापत्यर्क्षगेजीवेमेषराशिसितेरवौ ।
वैशाखेशुक्लपक्षेहमुत्यनोस्मिन्दिने नृप ।। ३६ ।।
हिताय सर्वजगतां धर्मस्थाय न सिद्धयेः ।
धर्मस्य तपसातुष्टोदाक्षायण्यामहं नृप ।। ३७ ।।
आविभूतोस्ति विश्वात्मा नाम्ना नारायणीमुनिः ।
अस्मिन्नेवदिने पूर्वरीहिण्यां भृगुवासरे ।। ३८ ।।
उपयेमेहरिः साक्षाद्भगावनिदिरां हरिः ।
किं चास्मिन्नेवदिवसेरोहिणयांशशिशेखरः ।। ३९ ।।
उपयेमेविधानेन देवी हिमवतः सुतां ।
तस्मादक्षयनाम्नीयं तृतीया सर्वसिद्धिदा ।। ४० ।।
दिनयात्रपपिप्रोक्तमक्षयाभीष्टसिद्धिदं ।
एतै समन्वितो योगौरलक्ष्योयोग ईतिरतः ।। ४१ ।।
अक्षयाख्य तृतीयेयंतिथिरुक्तामहीयते ।
रोहिणी भृगुचारेण सहितात्र भवेद्यदि ।। ४२ ।।
श्रीगौरीयोग इत्याख्यांगतोसौ सर्वसिद्धिदः ।
रीहिणीसस्थितिजीवेमेसुराशिगतेरवौ ।। ४३ ।।
लक्ष्मीनारायणोयागो भवानीशंकरोपि च ।
अक्षयाख्य तृतीयं यंमहत्पर्वममेरिर्त ।। ४४ ।।
कातिकपौर्णमींशुक्लामारभ्यामरनायकाः ।
ऋषयस्सिद्धसंघाश्च प्रत्यहं पूजयंतिमां ।। ४५ ।।
एतद्द्विवसपर्यंतं दिने स्मिन्वसुधायते ।
मतोक्षयलं प्राप्य गच्छंति त्रिदिवंसुराः ।। ४६ ।।
दिवसेस्मिन्हुतं जप्तंदतमक्षयसिद्धिदं ।
मत्मसाद्भवत्येव दिनमे तत्रथाथाक्षयं ।। ४७ ।।
वदरी च न मध्यस्थे नानानारायणेस्म्यहं ।
नारायणाश्रमोनाम्नातन्मनस्था न मुच्यते ।। ४८ ।।
अत्राश्रमेस्मिन् दिवसे धर्मस्यतनयं विभुं ।
दाक्षायणीसुतं नाषारव्यातं नारायणां मुनिं ।। ४९ ।।
नरेण सहितं दृष्ट्वा मामेव जगतीपतिं ।
कोटिजन्मार्जीतैःपायसंघैरपि सुदारुणैः ।। ५० ।।
विमुक्तः संकरेभ्योपिदेहांते मस्वरूपभाकु ।
अक्षयेस्मिन् दिने तस्मादुक्तयोगोभवेद्य हि ।। ५१ ।।
योगोयं षष्टिभिवर्षेरलम्योलभ्यते नृप ।
अलभ्ययोगे संप्राप्तोदिवसेक्षयसंज्ञिते ।। ५२ ।।
प्रातरुत्थामहायंप्रणम्याचार्यमादरात् ।
नैसकं कर्मकृत्वाथ तदनुज्ञापुरस्सरं ।। ५३ ।।
सहपंचदशन्यासैः श्रीमदष्टाक्षरं जयेत् ।
त्रिशताधिकसाहस्रं श्रीमंत्रान्यतमंशतं ।। ५४ ।।
प्. ८२अ)
प्रह्वाविधि वह्नौ संस्कतेवैटिकोपि वा ।
विवपत्रैर्घृताभ्यक्तैः श्रीमदष्टार्णविद्यया ।। ५५ ।।
त्रिशतं तु हृयासश्चाद्रव्येनाज्येन वावानृप ।
श्रीमंत्रान्यतमेनाथहुत्वा द्वादशधा घृतं ।। ५६ ।।
रश्मिमंत्रे सकृद्धत्वा प्रायश्चिताहतीहीनेत् ।
उत्पलैर्विल्वपत्रैर्वायैर्वाकरवीरकैः ।। ५७ ।।
त्रिशतं पूजयेत् पश्चाद्धस्तविद्यां समुच्चरन् ।
सांगावरणपूजां च कृत्वादौ नियतव्रतः ।। ५८ ।।
पूर्वोपदिष्टाप्याचार्य च नात्वाम्नहीपते ।
अध्येतव्या रश्मिमालाशिष्येणनियतात्मना ।। ५९ ।।
भूयोपि सकलन्यासा अह्येतव्याः प्रायत्नतः ।
अवश्यमस्यिन्दिवसे श्रीमदष्टाक्षरीशुभा ।। ६० ।।
उपदिष्टाथ भूयोपि स्वाचार्यवदनांवुजात् ।
अध्येतव्या प्रयत्नेन सर्वन्यासपुरस्सरा ।। ६१ ।।
नारायणी सहृस्रर्णप्राप्तव्याथपुनर्नृप ।
तत आचार्यपादाब्जेधैर्यगांभार्यसंयुतः ।। ६२ ।।
सर्वस्वं दक्षिणं दद्यातर्धं वा तदधकं ।
वर्षाशनमितं द्रवमथवावश्यमर्यर्पत् ।। ६३ ।।
कुंडलद्वितयं रम्यंतसकांचननिर्मितं ।
आचार्यकर्णयोर्देयमवश्यं रत्नसंयुतं ।। ६४ ।।
शालग्रामशिलामेकांद्रद्यादक्षिणयान्वितं ।
पीतांवरयुगंदाद्यात्स्सक्ष्यकार्यासकंतु वा ।। ६४ ।।
विभवेसतिमूहानं कुर्याह्रीदानमप्यथ ।
अवश्यं गुरवेदेयंयानसं फलपंचकं ।। ६५ ।।
पनसत्रितयं वापि विधासिध्यर्यमाहरात् ।
दृष्ट्वात्फुलनिचान्यानि धनार्ढ्या भूमियो यदि ।। ६६ ।।
मुक्तारत्नमंयोराशिं धनराशिं समर्पयेत् ।
धान्यराशिमथाश्वंचगतानांदोलिकांदिकं ।। ६७ ।।
समर्प्ययेद्भगवतः प्रासादार्थं महीयते ।
तत दक्षयमेवस्याद्याद्यदस्मिन्दिने कृतं ।। ६८ ।।
कुंडलद्वितयं देवमवश्यं वसुधामते ।
अवश्यं यानसफलं यंचकंत्रितः प्रातयंतु वा ।। ६९ ।।
शालग्रामशिलैकापिहातव्या दक्षिणान्विता ।
वर्षोशनमितद्रव्यंदयमावश्यकं वुधैः ।। ७० ।।
अथ द्वादशनिष्कं वाषरिग्रष्कं वा त्रिनिष्णकं ।
दरिद्रोधनहीनीपिदक्षिणांगुरवेर्यत् ।। ७१ ।।
वासोभिस्समलं कृत्य गंधपुष्पाक्षतादिभिः ।
अवश्यंगुरवेदेर्यदरिवैरपि साधकैः ।। ७२ ।।
अक्षयांसिद्धिमन्विच्छन् अर्थायांश्रियमूर्तितां ।
अक्षयां पुत्रपौत्रादिसमृद्धिजानमक्षयं ।। ७३ ।।
प्. ८२ब्)
अक्षयायां तृतीयायामित्थं कृत्वा यतः ।
आकल्यमक्षयासिद्धिः श्रीमदृष्टार्णाजापिभिः ।। ७४ ।।
दुर्लभाययमरादीनांतभ्यते नात्रसंशयः ।
आचार्यालिंगनं प्राथतदाशीभिः कृतादरः ।। ७५ ।।
आचार्यपत्निं संपूज्यविशेषेणाक्षयेद्दिने ।
भोजयेद्विप्रवर्षोश्चसुवासिन्योष्टभूयते ।। ७६ ।।
आचार्यचरणांभोजनिर्णेजनजलंशुभं ।
पीत्वा कृतार्थतां प्राप्यभुंजीयाद्वंधभिस्सह ।। ७७ ।।
अक्षयायातृतीयायांपुरश्चर्यामिमां शुभां ।
विनूशाठ्यं परित्यज्य कृत्वोक्त विधिना शुचिः ।। ७८ ।।
महतीयापुरश्चर्यो पूर्वभूक्तामयात्तृव ।
तादृशीनाशतं साग्रं कृत्वा यत्फसमश्रुते ।। ७९ ।।
तत्फलंभते सांगमवश्यं नात्र संशयः ।
श्रियाचिद्रययाथास्थियोगे फलमुदीरितं ।। ८० ।।
सरस्वत्यैज्यगन्मात्र्यैपुरावैकुंठमंदिरे वैशाखमासेपि च
शुक्लपक्षेविरंचितीरणभृगोः ।
सुतेन युक्ते विरिंचिस्थित देवदेवसदूणै मेषस्थितेर्केदिवसेतृतीये ।। ८१ ।।
गौरीरमायोरागसुदाहरंति लक्ष्मीशनारायणयोगमाहुः ।
उमामहेशाभिधमाहरेकेतत्रैवगौरोचरे मात्रजाता ।। ८२ ।।
दक्षप्रजायक कन्यकायां धर्मस्य पत्न्यामपि लोकनाथः ।
तक्षीपतिः प्राहुरभूद्धरित्र्यां नारायणोनामनरैणयुक्तः ।। ८३ ।।
मद्भतुरष्टार्णमनुप्रक्षापोन्यासैस्समस्तैरपियोद्दिनेत्र ।
हुत्वा च हव्यं विधिसंस्कृतेग्रौयूवौयदिष्टामपिरश्मिमालां ।। ८४ ।।
आचार्यवक्त्रांवुजतो गृहीत्वान्यासैस्सहाष्टार्णमनुंचयश्चीत् ।
भूयो गृहीत्वा गुरुपादयुग्मेदयुग्मेदत्वा समस्तं च धनं मणिं च ।। ८५ ।।
रम्यां प्रदद्यादथ कुंडद्वयां वासोयुग ब्राह्माणान्भोजयेच्च ।
फलत्रयं पानसंपंचकं वाह्यत्वा सदाचार्य यदारविंदे ।। ८६ ।।
श्रियं व्रतत्यक्षयरलवितहयाश्वधान्यौपसमृद्धियुक्तां ।
पुत्राभिवृद्धिसकलांश्चनोगायुर्महद्भाग्यमथाक्षयं च ।। ८७ ।।
पितुश्चमातुः कुलकोटियुक्ताममैतदक्षप्ययंदं प्रयाति ।। ८८ ।।
सरस्वत्यै पुरात्योक्तमित्थधिद्रययाश्रिया ।
दिनमात्रेण कृत्वेत्थं महतीं सिद्धिमश्रुते ।। ८९ ।।
प्. ८३अ)
किं पुनर्यौगसहितेफलंवक्तुं न शक्यते ।
अनेन योगराजेन समोलभ्योनविह्वते ।। ९० ।।
अक्षयां सिद्धिमन्विच्छन् कुर्याद्विवसंवृथा ।
पुरश्चर्योरतरं वक्ष्ये शृणुषां वह्निओ नृप ।। ९१ ।।
यत्कृत्वा श्रीमदष्टार्णसंसिद्धिं लभते परां ।
भास्करग्रहणेप्राप्ते चंद्रस्यदिवसेपि वा ।। ९२ ।।
एकं कालंमिताहीरस्तत्पूर्वदिनपंचकं ।
ग्रहणस्पर्श समये गत्वा सागणां नदीं ।। ९३ ।।
स्रात्वा संकल्प्यनामानि केशवादीन्ययोच्चरन् ।
स्नात्वा शूमेधावभृथस्नानपुण्यसमन्वितः ।। ९४ ।।
आचार्यचरणांभोज प्रक्षालनजलं पिवेत् ।
अंतस्समस्तयायेभ्यो मुक्तः स्यात् सद्य एव हि ।। ९५ ।।
स्पर्शकालं ससारभ्यविधिवत्संस्कृतेनले ।
कृष्णैस्तिलैर्हुनेद्रव्यघृतं युक्तैस्ततः परं ।। ९६ ।।
विना भार्गववारेण तत्रापि जुहुयाद्वतं ।
शिर्ष्टेर्धनाडिकामात्रे स्मृत्वा ब्रह्मार्यणाहुतिं ।। ९७ ।।
वहुसस्य समाकीर्णां चतुर्वृषभसंयुतां ।
वहविन्नयुक्तां भूमिंमावार्याय समर्पयेत् ।। ९८ ।।
दक्षिणाविहिताशाह्येवषोशनमित्तं धनं ।
अथ द्वादशनिष्कंवाषड्विंता समर्पयेत् ।। ९९ ।।
शालग्रामशिलामेकामाचार्याय समर्पयेत् ।
दक्षिणावसुनिष्कं वा त्रिनिष्कंवाथ दक्षिणां ।। १०० ।।
दरिद्रोमंदभाग्यश्चभिक्षित्वेत्थं समर्पयेत् ।
ददाति पद्यद्गृहणेसवितुः शशिनोपि च ।। १ ।।
ततदक्षयर्मवस्थादा चंद्रार्कनसंशयः ।
ग्रहणेव सुधां दत्वा सत्यद्वीपवतीं महौ ।। २ ।।
दत्वायत्फलमाप्नोति तत्फलं समुदीरितं ।
शालग्रामशिलामेका दत्वा पूर्वोक्तदक्षिणां ।। ३ ।।
ब्रह्मांडकोटिदानस्यफलमत्यंत ममश्रुते ।
धनं धान्यं च वा सांसिभूषणं कुंडलादिकं ।। ४ ।।
श्रोत्रियेभ्योदधिमधुघृतकुंभान्समर्प्य च ।
समस्ताभीष्टसंसिद्धिमत्यंतं महती लभेत् ।। ५ ।।
जाह्नीवीसदृशंतीयं द्वैयाय न समाद्विजाः ।
स्वर्णदानं मेरुसंयं प्राहुश्चंद्रार्कपर्वणि ।। ६ ।।
अमेरयत्यं प्रथमं हिरण्यं गोर्वेणवीसूर्यसुताश्चगावः ।
दत्तास्त्र यस्तेन भवंतिलोकायः कांचनगाचगहीं प्रदृद्यात् ।। ७ ।।
आचार्यानुग्रहात् सद्यः श्रीमदष्टाक्षरीशुभा ।
ददाति महतीसिद्धिं दैवतैरपि दुर्लभां ।। ८ ।।
प्. ८३ब्)
इंदिरारमणस्तस्य भगवान् संप्रसीदति ।
किमसाध्य भवेत् तस्य प्रसन्नेकमलाधिय ।
सीध्यर्थमेव मंत्राणिं नित्यं यत्नपरो भवेत् ।। ९ ।।
अष्टाक्षरी महाविद्या सिद्धिर्यस्य यदा भवेत् ।
तदा तस्य प्रसस्ताभिकल्याणाभि भवंति हि ।। १० ।।
आयुष्यमारोग्यमधंचलाश्रीः पुत्राभिवृद्धिं सुखमक्षयं च ।
विद्याः समस्ता अपि दिव्यभोगान प्राप्रोत्यथांते भगवत्यहं च ।। १११ ।।
महानुभावामुनयः पुरातुनान्यासैः सहाष्टाक्षरं मंत्रसताः ।
सिद्धिगता ब्रह्मसंरूपतां च श्रियं परां सर्वगुर्णाययभां ।। १२ ।।
हुत्वा रवींदग्रहणे घृतेन दत्वा सदाचार्य यदाक्ष्रयुग्मे धनं च ।
दिव्यामरणानिधान्यं नारायणं पश्यति चक्षुषासौ ।। १३ ।।
दृष्ट्वा हरितं स्यलान्वितो सौ पुनातिवशान् शंतसंथशोपि ।
पितुश्च मातुश्चकुलान्यितो सौ परंपदं यातिनं संयोत्र ।। १४ ।।
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीये तंत्रे
वेदार्थसंग्रही षद्विशोध्यायः ।।</poem>
s03ffqdye2hw6n7t5bumd9rucehinh0
दाशरथीयतन्त्रम्/अध्यायः २७
0
163653
409306
2025-06-27T09:46:25Z
Shubha
190
{{header | title = [[../]] | author = | translator = | section = अध्यायः २७ | previous = [[../अध्यायः २६|अध्यायः २६]] | next = [[../अध्यायः २८|अध्यायः २८]] | notes = }} <poem> प्. ८३ब्) श्रीभगवानुवाच भूयोप्यष्टार्णविद्य... नवीन पृष्ठं निर्मीत अस्ती
409306
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः २७
| previous = [[../अध्यायः २६|अध्यायः २६]]
| next = [[../अध्यायः २८|अध्यायः २८]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ८३ब्)
श्रीभगवानुवाच
भूयोप्यष्टार्णविद्यायाः सिध्यर्थं संप्रवक्ष्यते |
यच्छत्वा पितरो धीमान् न ज्ञानतिमितं विशेत् || १ ||
वैशाखेमासियाभुक्ता तृतीयाक्षयसंज्ञिता |
पूर्वोक्तयागसदिता सर्वसिद्धिप्रदेता || २ ||
महावुद्धिप्रदं सद्यो विधानांतरमप्यथ |
अतिगुप्ततरं वक्ष्ये सावधानमनाः शृणुः || ३ ||
प्रातरुत्थाय सुस्नातो नत्वा स्वाचार्यमीश्वरं |
पंचवाद्येषु नत्वादौगणनायकं || ५ ||
सुवर्णैरपि रत्नौद्यैर्वासोभिर्भूषणैरपि |
अलंकृत्यसचार्यं पुनर्नत्वार्थ दंडवत् || ६ ||
आचार्यं चरणर्द्वर्द्वकरयुग्मं समर्प्य च |
श्रीमन्नावार्य सर्वज्ञा यावज्जीव महंतव || ७ ||
प्राणैरर्थैर्धियावाचाकरोमि चरणार्चनं |
त्वहाज्ञोर्यूघनं नाहकरोमि करणनिधि || ८ ||
अत्र लक्ष्मीपतिः साक्षी तत्रैव चरणद्वयं |
शरणं मम सर्वज्ञ गतिर्नान्यास्तिमे सदा || ९ ||
तवैव चरणद्वंद्वमाश्रयेद्वं पुनः पुनः |
पितामातापि भयवत्वमेव मम दैवतं || १० ||
दुस्तराद्भवदः स्वौधान्मुक्तं मामां कुरु संततं |
प्रार्थयित्वेत्थमाचार्यं प्रार्थयित्वा महीयते || १३ ||
न्यासान्पूर्वेद्यदिष्टांश्च समस्तानपिसाधकः |
आचार्यवदनांभोता हृह्णीयाद्व सुधायते || १४ ||
प्. ८४अ)
ततस्सयस्तविद्यानां राज्ञीं सकलसिद्धिदां |
उपदिष्टां च भूयोपि स्वाचार्यवदनांवुजात् || १५ ||
श्रीमदष्टाक्षरीं विद्यां गृह्णते याद्वसुधापते |
इत्थं मंत्रंमयीं दीक्षं सर्वन्यासमयीमपि || १६ ||
संप्राप्यकृतकृत्योहमित्यात्मानं विचिंतयेत् |
स्वतोज्योतिर्मयौविद्यांगच्छंतीं भावयेद्धरु || १७ ||
आगतां भावयेच्छिष्यो धन्योस्मीति पुनः युतः |
शरीरमर्थं प्राणंश्च स्वाचार्य चरणद्वये || १८ ||
समर्प्य कृतकृत्योहं धर्न्यास्मीति विचिंतयेत् |
अक्षयायां तृतीयायांमिहं दीक्षीद्वयं शुभं || १९ ||
गृहीत्वा कृतकृत्यः स्थाद्यावज्जीवनं संशयः |
अवश्यं भगवांस्तस्यतस्मिन्मामिन्यसीदति || २० ||
आचार्यानुग्रहाद्दीक्षाद्वयमेतदनुत्तमं |
गृहीत्वाचार्यसध्ये प्रतिष्ठाप्याथ याचकं || २१ ||
इक्षुरघंडैर्गव्यघृताभ्यक्तैरष्टार्णविद्यया |
होमं शताधिकं कुर्याद्देकसाहस्रमादरात् || २२ ||
यद्वा शुद्धेन गत्येन जुहुयान् यश्री |
मंत्रान्यतमेनापि शतमष्टोत्तरं जुनेत् || २३ ||
हौमं कुर्यात्ततस्त्रेधारश्मिमंत्रैरपि क्रमात् |
जयादिभिस्ततोहुत्वात्वन्यायश्रित्ताहतीर्हुनेत् || २४ ||
** उत्पलैः कमलैविल्वपत्रैर्वातुलसीः |
मल्लिकाकुसुमैवापिनंद्यावर्तैरथापि वा || २५ ||
श्रीश्रीयत्यर्चयेह्यश्घ्रीत्ब्राह्मविद्यां समुच्चरन् |
सांगावरणपूजां च कृत्वादौ नियतव्रतः || २६ ||
त्रिशतं द्विशतं वापि शतमष्टोत्तरं तु वा |
तत आचार्ययादावुद्धितयं प्रणिपत्य च || २७ ||
दुकूलयुगलं वापि सूक्ष्मं कार्यासकं तु वा |
समर्प्य पूर्वमाचार्यमलंकृत्य ततः परे || २८ ||
फलपंचकमादाय यानसं त्रितयं तु वा |
मध्यफलेरंध्रमेकं कृत्वाराजतयात्रकं || २९ ||
कांस्यपात्र मथोवापि पलद्वितयनिर्मित |
सर्वस्वमपि रत्नौषंधनौद्यंमंदिरस्थितं || ३० ||
संस्थाथकसान्निध्ये किंचित्यात्रेपिनिक्षिपेत् |
फलस्यो परितत्यात्रं रंध्रमध्योनिधाय च || ३१ ||
लक्ष्मीनारायणप्रीत्यौ भवत्पूर्णे कृपात्यये |
त्वद्रशिविद्यासंसिध्यौ मंत्रराजस्य सिद्धये || ३२ ||
समर्पयिष्ये वस्तूनि तर्त्तकामो भवार्णर्वः |
सिद्धिर्भवतुमेस्वाभिन्नाचार्यकरुणानिर्ध || ३३ ||
ममंत्रद्वयं प्रोक्त्वा स्वाचार्यचरणंवुजे |
अर्पयेत् सकलवस्तु धनधान्यौव संकुलं || ३४ ||
अक्षयायां ततीयामक्षयासिद्धिमिच्छता |
सर्वस्वं दक्षिणादेयातदर्धेवां तदर्धकं || ३५ ||
प्. ८४ब्)
वर्षाशनमितद्रव्यमथवादेयमादरात् |
अथवा कुंडलयुग्मं तत्यकांचननिमितं || ३६ ||
आचार्यकर्णेयुगले प्रदत्वा वश्यकं नृप |
निष्कद्वास्शकस्वर्णं सूक्ष्मवासो युगान्वितं || ३७ ||
फलपंचकसंयुक्तं निक्षित्यं यात्र मध्यतः |
प्रदत्वा महातौ सिद्धिमक्षयां प्राप्नुयादसौ || ३८ ||
मंदभाग्योदरिद्रश्चेद्याचित्वासकलानपि |
षणिनष्क्तमथवादद्यात्त्रिनिष्कं वा प्रयत्नतः || ३९ ||
दक्षयायां तृतीयायामाचार्य ओत्रयोर्नृप |
कुंडलद्वितयं दत्वा महेंद्रसदृशः श्रिया || ४० ||
निमग्नाभन्नरकौद्येषु पिहृनपिपितामहान् |
मातामहांश्च शतश उद्धत्यासौ महीयते || ४१ ||
नारायणयंदसद्यः प्रापयत्येव शाश्वतं |
अक्षयायां तृतीयाया वर्षाशनमितंधनं || ४२ ||
प्रदत्वाचार्ययादार्जशतकोटिमितंधनं |
दत्वा यथ्पलमान्योति तत्फलं समुदीरितं || ४३ ||
कुंडलद्वितयं दत्वा निष्कद्वादशकं धनं |
फलपंचकसंयुक्तं दत्वाचार्य पदांवुज || ४४ ||
शतकोणि सुवर्णानां दानस्य फलमुह्यते |
अक्षयायां तृतीयायां हरिचदनमुत्तमं || ४५ ||
चत्वारिंशत्यपलं वापि दत्वा विंशत्फलं तु वा |
कल्पदमगणाकोणे निवसेद्भगवत्पदे || ४६ ||
अक्षयायां तृतीयायां शाकसूपद्यतादिकं |
अन्नं दधियुतं वापि दत्वा विप्रेभ्य आदरात् || ४७ ||
विमुक्तस्सं कलायद्भाः श्रियमिष्टश्चदुर्लभान् |
प्राप्नोत्यत्र न संदेहस्सत्यं सत्यं दाम्यहं || ४८ ||
महतीया पुरश्चर्या सांगापूर्वोमयेरिता |
तादृशीनांशतं साग्रमक्षयायां कृतं भवेत् || ४९ ||
इत्थंकृते विधानेन संशीयी नात्र विद्यते |
वाजियेयशतंसाग्रसंपूर्णेवरदक्षिणां || ५० ||
तेनेष्ट नात्र संदेहो ज्योतिष्ठोमसहस्रकं |
अस्मिन्माज्जन्मदिवसेतर्वुकामोभवार्णर्व || ५१ ||
श्रीमदष्टाक्षरी सिद्धिं महतीं लभते ध्रुवं |
मनोरथानां सर्वेषां भवेत् सिद्धिरिहाक्षया || ५२ ||
मनोरथतृतीयेति तेन ख्यातेयमादरात् |
अप्यत्रपितभिगीतं दक्षिणामूर्तितापि च |
शेषेणापि पुनगीतं सर्वमप्यत्र वक्षते || ५३ ||
प्. ८५अ)
महानुभावामुनिसिद्धसंघा ब्रह्मर्षयश्चापि महर्षश्च |
वैशाहमासेदवसेक्षयाहव्येमंत्रेण नारायणवाचकेन || ५४ ||
हृत्वा सहस्रं गुरुपादयुग्मे समर्प्य वित्रं मणिजालमिष्टं |
संतप्तहैमं मणिर्विदुयुक्तमाकल्पयुग्मं गुरुकर्णयुगे || ५५ ||
दत्वा कृतार्थः पितृमातृवंशशतैर्युता दिव्ययदंप्रयाताः |
किं चात्र सिद्धो च परामवाप्यप्रात्याः स्युर्भागान यदुर्लभांश्च || ५६ ||
आचार्य पादांवुजयुग्मसेवारतीस्तथाष्टाक्षरसंत्रसक्ताः |
वैशाखमासे चिवसेक्षयेस्मिन् नारायणोक्तव्रतमादरेण || ५७ ||
कृत्वा दरिद्रा अपि लोकवाथ नौरायणं दैवतसार्वभौमं पश्यंति |
साक्षाहुरुडाधिरूढं दृष्टकत्तार्थास्युरनंतभोगात् || ५८ ||
पितुश्चमातुर्नरकेणमग्रं कुसंसमुद्धत्यविभानरत्नं |
आरूत्वसाक्षात्कमलाधि वा सपदं प्रयांत्यैवनसंशयोन्न || ५९ ||
जत्यं हृतं सथृयादयुग्मेदत्तं तथास्मिन्दिवसे क्षयं स्यात् |
अष्टाक्षरो होमकलं विशिष्ट समस्तपुरायेषु दिनेक्षयेस्मिन् || ६० ||
लक्ष्मीपतिर्दैवतसार्वभौमो नारायसौर्वज्ञगन्निवासः |
इत्थं कृतेष्टाक्षर होमकर्मण्यस्य प्रसीदत्यस्विसामरेशः || ६१ ||
साक्षात्युसन्नेजगदेकनाथे किमस्य साध्यं नभवेदभीष्ट |
न राजसूयो न च वाज्ञिमेधोनगोसवीवापिहिनेक्षयास्त्ये || ६२ ||
अष्टाक्षरी होमसमं महीयसमं न गोदान सहस्रकं वा |
अष्टाक्षरी होमरतं दिनेस्मिन् वैशाखसासेक्षयसंज्ञितेथ || ६३ ||
नारायाणौ दैवतसार्वभौमो रुद्रौ विधिर्दक्षमुखप्रतेशाः |
शक्रादयोदिकयुतयोपि सिद्धास्त् सध्याश्च सर्वे समरुहणश्च || ६४ ||
ब्रह्मर्षयः कौशिकर्णेतमाद्यायोगान्वितादत्तकुमारमुख्याः |
गौरीरमावाप्नुखशक्तश्चश्चतुष्टाः प्रसन्नावरदां भवति || ६५ ||
अस्यमाचार्य कलत्रमस्मिन्नभ्यर्च्यमत्युत्तमभूषणैद्यैः |
स्स्रपृष्यौपिचंदनैश्च-भक्ष्यैश्चभोज्यैर्भिक्षुनान्यथापि || ६६ ||
इत्थं कृते सौ भगवत्यु सादाद्धिन्यः कृतार्थो मुनिसिद्वचद्यः |
सान्योत्यवश्यं सकर्लाश्च कामान्नारायणापश्यति चक्षुर्षेव || ६७ ||
इति शेषाद्विभिर्गीतमपि पूर्वमहीपते |
अक्षयायां तृतीयायामित्थं सिध्यर्थमाचरेत् || ६८ ||
प्. ८५ब्)
श्रीमाचरेत् मदष्टाक्षरी सिद्धिरक्षयास्यान्नसंशयः |
श्रियःपतेः प्रसादोपि भवत्येवाक्षयो नृप || ६९ ||
आचार्यचरणांभोजेदत्तमप्यक्षयं भवेत् |
भगवत्सन्निधावंतेभवेजतिरथीक्षया || ७० ||
श्रीमदष्टार्णविधायाविथिष्टं साधनांतरं |
भूयोपि संयवक्ष्यामि समाहितमनः शृणु || ७१ ||
मासि भाद्रपदेप्रासे शुक्लेह्येकादशीदिने |
अतिगंडेन योगेन यद्वा युक्तेत्यु कर्मण || ७२ ||
वैष्णवर्क्ष समायुक्ते सोमवासरसंयुते |
सौम्यवासरयुक्ते वा द्वादशीदिवसेपि वा || ७३ ||
पंचाननस्थितेभानौ लक्ष्मीनारायणाभिधः |
योगराजोमजानुक्तोरविपर्वशतप्रभः || ७४ ||
अक्षयायां तृतीयांयोमाहीन् योग ईरितः |
लक्ष्मीनारायणोयेगस्ते नैव सम उच्यते || ७५ ||
अत्र जप्तं हुतं दत्तं मर्वमक्षयसिद्धिदं |
वर्षैर्द्वाशभिर्भूमौ लभ्यतेयं महीपते || ७६ ||
लक्ष्मीनारायणः साक्षाद्भक्तानां सर्वसिद्धिदः |
जपहोमादिकर्तृणं ददात्यक्षयमाशितं || ७७ ||
अश्वमेध सहस्रं वा राजसूयशतं तु वा |
महादान सहस्रं वाजियेयायुंतं तु वा || ७८ ||
लक्ष्मीनारायणोयोगेनाणुदानेन तत्सम |
अलभ्यो नामयोगोयं सर्वयोगोत्तमोमः || ७९ ||
अलभ्ययोगे संप्राप्त्ये लक्ष्मीनारायणामिधे |
स्रात्वा नवांविधानेन देवानृषियोहृनपि || ८० ||
तर्पयित्वा मनोरम्यं यागमंदिरमाविशेत् |
आचार्यचरणंभोजयुग्मं नत्वा ततः परं || ८१ ||
संपूज्यदेवं विमेशं कृत्वा पुण्याहवाचनं |
त्रिशताधिक साहस्रं समसन्याससंयुतां || ८२ ||
श्रीमदष्टाक्षरीं जप्त्वा द्वादशार्णां श्रियस्ततः |
साम्राज्यलक्ष्मीविद्यां वा षडर्णीमथवाश्रियः || ८३ ||
अष्टाक्षरं वा प्रजयेच्छ तत्र यमथादरात् |
यथा रुचिजयेद्विद्यां कोमलैसुलसीहलैः || ८४ ||
केतकीसहितैर्विल्वपत्रैर्वाथमर्चयेत् |
लक्ष्मीनारायणि पश्चात्रिशतं ब्रह्मविद्यया || ८५ ||
सांगवरणपूजां च कृत्वादौ नियतव्रतः |
विधिवत् संस्कृते वह्नौ तिलैर्गव्यघृतप्लुतैः || ८६ ||
त्रिशतं जुहुयादग्नौश्चोमदष्टार्ण विद्यया |
अष्टोत्तरशतं दत्वा श्रीमंत्रेणाज्यमादरात् || ८७ ||
प्. ८४अ)
त्रेधा भगवतो रश्मिममंत्रैराज्यमथोहुनेत् |
प्रायश्चित्ताहुता हृत्वा ब्रह्मार्पणाहुति || ८८ ||
संतसहोमरचितं ब्रह्मरागविनिर्मितं |
आचार्यकर्णयोर्दत्वा कुंडलद्वयमादरात् || ८९ ||
आथं कृत्य तथाचीर्यं मुद्रिकाद्यैश्चभूषणैः |
सूक्ष्मं वासोयुगं दत्वा शालग्रामशिलांशुभां || ९० ||
वर्षाशनमितद्भव्यदक्षिणा संहितामथ |
प्रार्थयित्वापि वहुशस्तिलानपि समर्पयेत् || ९१ ||
प्रतिगृह्णाति वामावातित्वद्रोणचतुष्टाय |
तदर्धं वा तदावार्यमंचिरेस्थापयेद्वुधः || ९२ ||
गोदानं तिलदानं वुशुभाकार्यषु संततं |
प्रतिगृह्याणमात्रं वा पातकं न लभेत् क्वचित् || ९३ ||
तीव्यैवुशुभकार्येषु तिलराशि प्रतिग्रही महत्यातकसान्योद्वादशकं तु वा |
आचार्याचरणांभोजदेयमावश्यकंतितन्निवृत्तिरथोच्यते || ९४ ||
स्वगृहीतार्धवित्तस्यदानेन सहितानस्तिआन |
श्रीत्रियायतथान्यस्मैदत्वा मुच्येतपातकान् || ९५ ||
वर्षाशनधनानाभावेनिष्कद्वादशकं तु वा |
आचार्यचरणांभोजेदेयमावश्यकं धनं || ९६ ||
एकां सवत्सां दद्यान्निष्चदक्षिणयान्वितां |
धेनुप्रतिनिधिद्रव्यं यद्वादद्यात् सक्षिणं || ९७ ||
विभवसतिभूदानं दद्यादानमथापरं |
लक्ष्मीनारायणेनाम्नायोगेस्मिन् सर्ववीमिद्विदे || ९८ ||
यद्यत्करोतितिनत्सर्वमनंतःस्यान्नसंशयः |
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाद्भौजयेच्च सुवासिनीः || ९९ ||
आचार्यानुज्ञयापश्चीत्स्वयर्भुजीतवाग्यतः |
लक्ष्मीनारायणोयोगेश्रीमदष्टाक्षरं मनुं || १०० ||
इत्थं जप्त्वा ततो हुत्वा दत्वाचार्या यद्दक्षिणं |
श्रीमदष्टाक्षरीसिद्धिमावश्यं महीतीमपि || १ ||
दुल्लेमादेव संश्रैश्च संप्राप्या वश्यमक्षयां |
प्राप्नोत्यत्र न संदेहस्सत्यंनीत्र विचारण || २ ||
महातीयारश्चयीसांगा पूर्वं मयेरिता |
तादग्द्वादशाकंतेनकृतं स्यान्नात्र संशयः || ३ ||
लक्ष्मीनारायणोयोगे तिलैर्गव्यघृतप्लुतैः |
एकामाप्याहऋतिर्कृत्वा लक्ष्मीहोमफलं स्पृतं || ४ ||
लक्ष्मीनारायणे यागे सालग्रामशिलां शुभां |
एकां स दक्षिणा दत्वा कोटि ब्रह्मांडदानतः || ५ ||
प्. ८४ब्)
फलमान्योति भूयालविद्यते नात्रं संशयः |
लक्ष्मीनारायणे योगेनिष्कंवाकांचनं शुभं || ६ ||
दत्वामेरुसमखणं दानस्य फलमश्नुते |
आचार्यकर्णयुगले कुंडलद्वयदामन || ७ ||
दिव्यालंकारकीटीनां दानस्य फलमश्नुते |
लक्ष्मीनारायणे यो सहस्रजयमात्रतः || ८ ||
श्रीमदष्टाक्षरीविद्यां जप्त्वा लक्षसस्रकुं |
यत्फलं स भवाप्नोति तदेव फलमीरितं || ९ ||
लक्ष्मीनारायणोयोगेपुरश्चरणमादरात् |
कृत्वेत्थं नाम्नसंदेहोभगवंतं प्रशस्यति || १११ ||
अथ वागरूडारूढं ब्रह्मारुद्रादिवंदितं |
स्तत्येयश्यत्यसौ सर्वकामदं भक्तवत्सलं || १२ ||
तदारेभ्यदिरावासे कृत्वा पूर्णशरीरवान् |
वियुक्तः पापरीशिभ्यः कल्याणानि दिने दिने || १३ ||
अचललांश्रियमासाद्य धन्यादि संकुलां |
वंशाभिवृद्धिमतुलां पुत्रपौत्रादिसंकुलां || १४ ||
संप्राप्य सकलान्भोगान् दिव्यानपि च मानुषान् |
दिव्यं विमानमारुह्यकुलविंशतिं संयुतः || १५ ||
अक्षयं परमं याति शाश्वतं भगवत्पदं |
श्रीमदष्टार्णविधायास्मिध्यर्थं साधनं परं |
न दिवसेनोक्तं पुनरन्यत्प्रवक्ष्यते || १६ ||
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीये तंत्रे वेदसारसरसंग्रहे
सप्तविशोध्यायाः ||</poem>
ixxa5lmq8ujuv70f2y3s9bspdbyft39
409307
409306
2025-06-27T09:46:46Z
Shubha
190
409307
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः २७
| previous = [[../अध्यायः २६|अध्यायः २६]]
| next = [[../अध्यायः २८|अध्यायः २८]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ८३ब्)
श्रीभगवानुवाच
भूयोप्यष्टार्णविद्यायाः सिध्यर्थं संप्रवक्ष्यते ।
यच्छत्वा पितरो धीमान् न ज्ञानतिमितं विशेत् ।। १ ।।
वैशाखेमासियाभुक्ता तृतीयाक्षयसंज्ञिता ।
पूर्वोक्तयागसदिता सर्वसिद्धिप्रदेता ।। २ ।।
महावुद्धिप्रदं सद्यो विधानांतरमप्यथ ।
अतिगुप्ततरं वक्ष्ये सावधानमनाः शृणुः ।। ३ ।।
प्रातरुत्थाय सुस्नातो नत्वा स्वाचार्यमीश्वरं ।
पंचवाद्येषु नत्वादौगणनायकं ।। ५ ।।
सुवर्णैरपि रत्नौद्यैर्वासोभिर्भूषणैरपि ।
अलंकृत्यसचार्यं पुनर्नत्वार्थ दंडवत् ।। ६ ।।
आचार्यं चरणर्द्वर्द्वकरयुग्मं समर्प्य च ।
श्रीमन्नावार्य सर्वज्ञा यावज्जीव महंतव ।। ७ ।।
प्राणैरर्थैर्धियावाचाकरोमि चरणार्चनं ।
त्वहाज्ञोर्यूघनं नाहकरोमि करणनिधि ।। ८ ।।
अत्र लक्ष्मीपतिः साक्षी तत्रैव चरणद्वयं ।
शरणं मम सर्वज्ञ गतिर्नान्यास्तिमे सदा ।। ९ ।।
तवैव चरणद्वंद्वमाश्रयेद्वं पुनः पुनः ।
पितामातापि भयवत्वमेव मम दैवतं ।। १० ।।
दुस्तराद्भवदः स्वौधान्मुक्तं मामां कुरु संततं ।
प्रार्थयित्वेत्थमाचार्यं प्रार्थयित्वा महीयते ।। १३ ।।
न्यासान्पूर्वेद्यदिष्टांश्च समस्तानपिसाधकः ।
आचार्यवदनांभोता हृह्णीयाद्व सुधायते ।। १४ ।।
प्. ८४अ)
ततस्सयस्तविद्यानां राज्ञीं सकलसिद्धिदां ।
उपदिष्टां च भूयोपि स्वाचार्यवदनांवुजात् ।। १५ ।।
श्रीमदष्टाक्षरीं विद्यां गृह्णते याद्वसुधापते ।
इत्थं मंत्रंमयीं दीक्षं सर्वन्यासमयीमपि ।। १६ ।।
संप्राप्यकृतकृत्योहमित्यात्मानं विचिंतयेत् ।
स्वतोज्योतिर्मयौविद्यांगच्छंतीं भावयेद्धरु ।। १७ ।।
आगतां भावयेच्छिष्यो धन्योस्मीति पुनः युतः ।
शरीरमर्थं प्राणंश्च स्वाचार्य चरणद्वये ।। १८ ।।
समर्प्य कृतकृत्योहं धर्न्यास्मीति विचिंतयेत् ।
अक्षयायां तृतीयायांमिहं दीक्षीद्वयं शुभं ।। १९ ।।
गृहीत्वा कृतकृत्यः स्थाद्यावज्जीवनं संशयः ।
अवश्यं भगवांस्तस्यतस्मिन्मामिन्यसीदति ।। २० ।।
आचार्यानुग्रहाद्दीक्षाद्वयमेतदनुत्तमं ।
गृहीत्वाचार्यसध्ये प्रतिष्ठाप्याथ याचकं ।। २१ ।।
इक्षुरघंडैर्गव्यघृताभ्यक्तैरष्टार्णविद्यया ।
होमं शताधिकं कुर्याद्देकसाहस्रमादरात् ।। २२ ।।
यद्वा शुद्धेन गत्येन जुहुयान् यश्री ।
मंत्रान्यतमेनापि शतमष्टोत्तरं जुनेत् ।। २३ ।।
हौमं कुर्यात्ततस्त्रेधारश्मिमंत्रैरपि क्रमात् ।
जयादिभिस्ततोहुत्वात्वन्यायश्रित्ताहतीर्हुनेत् ।। २४ ।।
** उत्पलैः कमलैविल्वपत्रैर्वातुलसीः ।
मल्लिकाकुसुमैवापिनंद्यावर्तैरथापि वा ।। २५ ।।
श्रीश्रीयत्यर्चयेह्यश्घ्रीत्ब्राह्मविद्यां समुच्चरन् ।
सांगावरणपूजां च कृत्वादौ नियतव्रतः ।। २६ ।।
त्रिशतं द्विशतं वापि शतमष्टोत्तरं तु वा ।
तत आचार्ययादावुद्धितयं प्रणिपत्य च ।। २७ ।।
दुकूलयुगलं वापि सूक्ष्मं कार्यासकं तु वा ।
समर्प्य पूर्वमाचार्यमलंकृत्य ततः परे ।। २८ ।।
फलपंचकमादाय यानसं त्रितयं तु वा ।
मध्यफलेरंध्रमेकं कृत्वाराजतयात्रकं ।। २९ ।।
कांस्यपात्र मथोवापि पलद्वितयनिर्मित ।
सर्वस्वमपि रत्नौषंधनौद्यंमंदिरस्थितं ।। ३० ।।
संस्थाथकसान्निध्ये किंचित्यात्रेपिनिक्षिपेत् ।
फलस्यो परितत्यात्रं रंध्रमध्योनिधाय च ।। ३१ ।।
लक्ष्मीनारायणप्रीत्यौ भवत्पूर्णे कृपात्यये ।
त्वद्रशिविद्यासंसिध्यौ मंत्रराजस्य सिद्धये ।। ३२ ।।
समर्पयिष्ये वस्तूनि तर्त्तकामो भवार्णर्वः ।
सिद्धिर्भवतुमेस्वाभिन्नाचार्यकरुणानिर्ध ।। ३३ ।।
ममंत्रद्वयं प्रोक्त्वा स्वाचार्यचरणंवुजे ।
अर्पयेत् सकलवस्तु धनधान्यौव संकुलं ।। ३४ ।।
अक्षयायां ततीयामक्षयासिद्धिमिच्छता ।
सर्वस्वं दक्षिणादेयातदर्धेवां तदर्धकं ।। ३५ ।।
प्. ८४ब्)
वर्षाशनमितद्रव्यमथवादेयमादरात् ।
अथवा कुंडलयुग्मं तत्यकांचननिमितं ।। ३६ ।।
आचार्यकर्णेयुगले प्रदत्वा वश्यकं नृप ।
निष्कद्वास्शकस्वर्णं सूक्ष्मवासो युगान्वितं ।। ३७ ।।
फलपंचकसंयुक्तं निक्षित्यं यात्र मध्यतः ।
प्रदत्वा महातौ सिद्धिमक्षयां प्राप्नुयादसौ ।। ३८ ।।
मंदभाग्योदरिद्रश्चेद्याचित्वासकलानपि ।
षणिनष्क्तमथवादद्यात्त्रिनिष्कं वा प्रयत्नतः ।। ३९ ।।
दक्षयायां तृतीयायामाचार्य ओत्रयोर्नृप ।
कुंडलद्वितयं दत्वा महेंद्रसदृशः श्रिया ।। ४० ।।
निमग्नाभन्नरकौद्येषु पिहृनपिपितामहान् ।
मातामहांश्च शतश उद्धत्यासौ महीयते ।। ४१ ।।
नारायणयंदसद्यः प्रापयत्येव शाश्वतं ।
अक्षयायां तृतीयाया वर्षाशनमितंधनं ।। ४२ ।।
प्रदत्वाचार्ययादार्जशतकोटिमितंधनं ।
दत्वा यथ्पलमान्योति तत्फलं समुदीरितं ।। ४३ ।।
कुंडलद्वितयं दत्वा निष्कद्वादशकं धनं ।
फलपंचकसंयुक्तं दत्वाचार्य पदांवुज ।। ४४ ।।
शतकोणि सुवर्णानां दानस्य फलमुह्यते ।
अक्षयायां तृतीयायां हरिचदनमुत्तमं ।। ४५ ।।
चत्वारिंशत्यपलं वापि दत्वा विंशत्फलं तु वा ।
कल्पदमगणाकोणे निवसेद्भगवत्पदे ।। ४६ ।।
अक्षयायां तृतीयायां शाकसूपद्यतादिकं ।
अन्नं दधियुतं वापि दत्वा विप्रेभ्य आदरात् ।। ४७ ।।
विमुक्तस्सं कलायद्भाः श्रियमिष्टश्चदुर्लभान् ।
प्राप्नोत्यत्र न संदेहस्सत्यं सत्यं दाम्यहं ।। ४८ ।।
महतीया पुरश्चर्या सांगापूर्वोमयेरिता ।
तादृशीनांशतं साग्रमक्षयायां कृतं भवेत् ।। ४९ ।।
इत्थंकृते विधानेन संशीयी नात्र विद्यते ।
वाजियेयशतंसाग्रसंपूर्णेवरदक्षिणां ।। ५० ।।
तेनेष्ट नात्र संदेहो ज्योतिष्ठोमसहस्रकं ।
अस्मिन्माज्जन्मदिवसेतर्वुकामोभवार्णर्व ।। ५१ ।।
श्रीमदष्टाक्षरी सिद्धिं महतीं लभते ध्रुवं ।
मनोरथानां सर्वेषां भवेत् सिद्धिरिहाक्षया ।। ५२ ।।
मनोरथतृतीयेति तेन ख्यातेयमादरात् ।
अप्यत्रपितभिगीतं दक्षिणामूर्तितापि च ।
शेषेणापि पुनगीतं सर्वमप्यत्र वक्षते ।। ५३ ।।
प्. ८५अ)
महानुभावामुनिसिद्धसंघा ब्रह्मर्षयश्चापि महर्षश्च ।
वैशाहमासेदवसेक्षयाहव्येमंत्रेण नारायणवाचकेन ।। ५४ ।।
हृत्वा सहस्रं गुरुपादयुग्मे समर्प्य वित्रं मणिजालमिष्टं ।
संतप्तहैमं मणिर्विदुयुक्तमाकल्पयुग्मं गुरुकर्णयुगे ।। ५५ ।।
दत्वा कृतार्थः पितृमातृवंशशतैर्युता दिव्ययदंप्रयाताः ।
किं चात्र सिद्धो च परामवाप्यप्रात्याः स्युर्भागान यदुर्लभांश्च ।। ५६ ।।
आचार्य पादांवुजयुग्मसेवारतीस्तथाष्टाक्षरसंत्रसक्ताः ।
वैशाखमासे चिवसेक्षयेस्मिन् नारायणोक्तव्रतमादरेण ।। ५७ ।।
कृत्वा दरिद्रा अपि लोकवाथ नौरायणं दैवतसार्वभौमं पश्यंति ।
साक्षाहुरुडाधिरूढं दृष्टकत्तार्थास्युरनंतभोगात् ।। ५८ ।।
पितुश्चमातुर्नरकेणमग्रं कुसंसमुद्धत्यविभानरत्नं ।
आरूत्वसाक्षात्कमलाधि वा सपदं प्रयांत्यैवनसंशयोन्न ।। ५९ ।।
जत्यं हृतं सथृयादयुग्मेदत्तं तथास्मिन्दिवसे क्षयं स्यात् ।
अष्टाक्षरो होमकलं विशिष्ट समस्तपुरायेषु दिनेक्षयेस्मिन् ।। ६० ।।
लक्ष्मीपतिर्दैवतसार्वभौमो नारायसौर्वज्ञगन्निवासः ।
इत्थं कृतेष्टाक्षर होमकर्मण्यस्य प्रसीदत्यस्विसामरेशः ।। ६१ ।।
साक्षात्युसन्नेजगदेकनाथे किमस्य साध्यं नभवेदभीष्ट ।
न राजसूयो न च वाज्ञिमेधोनगोसवीवापिहिनेक्षयास्त्ये ।। ६२ ।।
अष्टाक्षरी होमसमं महीयसमं न गोदान सहस्रकं वा ।
अष्टाक्षरी होमरतं दिनेस्मिन् वैशाखसासेक्षयसंज्ञितेथ ।। ६३ ।।
नारायाणौ दैवतसार्वभौमो रुद्रौ विधिर्दक्षमुखप्रतेशाः ।
शक्रादयोदिकयुतयोपि सिद्धास्त् सध्याश्च सर्वे समरुहणश्च ।। ६४ ।।
ब्रह्मर्षयः कौशिकर्णेतमाद्यायोगान्वितादत्तकुमारमुख्याः ।
गौरीरमावाप्नुखशक्तश्चश्चतुष्टाः प्रसन्नावरदां भवति ।। ६५ ।।
अस्यमाचार्य कलत्रमस्मिन्नभ्यर्च्यमत्युत्तमभूषणैद्यैः ।
स्स्रपृष्यौपिचंदनैश्च-भक्ष्यैश्चभोज्यैर्भिक्षुनान्यथापि ।। ६६ ।।
इत्थं कृते सौ भगवत्यु सादाद्धिन्यः कृतार्थो मुनिसिद्वचद्यः ।
सान्योत्यवश्यं सकर्लाश्च कामान्नारायणापश्यति चक्षुर्षेव ।। ६७ ।।
इति शेषाद्विभिर्गीतमपि पूर्वमहीपते ।
अक्षयायां तृतीयायामित्थं सिध्यर्थमाचरेत् ।। ६८ ।।
प्. ८५ब्)
श्रीमाचरेत् मदष्टाक्षरी सिद्धिरक्षयास्यान्नसंशयः ।
श्रियःपतेः प्रसादोपि भवत्येवाक्षयो नृप ।। ६९ ।।
आचार्यचरणांभोजेदत्तमप्यक्षयं भवेत् ।
भगवत्सन्निधावंतेभवेजतिरथीक्षया ।। ७० ।।
श्रीमदष्टार्णविधायाविथिष्टं साधनांतरं ।
भूयोपि संयवक्ष्यामि समाहितमनः शृणु ।। ७१ ।।
मासि भाद्रपदेप्रासे शुक्लेह्येकादशीदिने ।
अतिगंडेन योगेन यद्वा युक्तेत्यु कर्मण ।। ७२ ।।
वैष्णवर्क्ष समायुक्ते सोमवासरसंयुते ।
सौम्यवासरयुक्ते वा द्वादशीदिवसेपि वा ।। ७३ ।।
पंचाननस्थितेभानौ लक्ष्मीनारायणाभिधः ।
योगराजोमजानुक्तोरविपर्वशतप्रभः ।। ७४ ।।
अक्षयायां तृतीयांयोमाहीन् योग ईरितः ।
लक्ष्मीनारायणोयेगस्ते नैव सम उच्यते ।। ७५ ।।
अत्र जप्तं हुतं दत्तं मर्वमक्षयसिद्धिदं ।
वर्षैर्द्वाशभिर्भूमौ लभ्यतेयं महीपते ।। ७६ ।।
लक्ष्मीनारायणः साक्षाद्भक्तानां सर्वसिद्धिदः ।
जपहोमादिकर्तृणं ददात्यक्षयमाशितं ।। ७७ ।।
अश्वमेध सहस्रं वा राजसूयशतं तु वा ।
महादान सहस्रं वाजियेयायुंतं तु वा ।। ७८ ।।
लक्ष्मीनारायणोयोगेनाणुदानेन तत्सम ।
अलभ्यो नामयोगोयं सर्वयोगोत्तमोमः ।। ७९ ।।
अलभ्ययोगे संप्राप्त्ये लक्ष्मीनारायणामिधे ।
स्रात्वा नवांविधानेन देवानृषियोहृनपि ।। ८० ।।
तर्पयित्वा मनोरम्यं यागमंदिरमाविशेत् ।
आचार्यचरणंभोजयुग्मं नत्वा ततः परं ।। ८१ ।।
संपूज्यदेवं विमेशं कृत्वा पुण्याहवाचनं ।
त्रिशताधिक साहस्रं समसन्याससंयुतां ।। ८२ ।।
श्रीमदष्टाक्षरीं जप्त्वा द्वादशार्णां श्रियस्ततः ।
साम्राज्यलक्ष्मीविद्यां वा षडर्णीमथवाश्रियः ।। ८३ ।।
अष्टाक्षरं वा प्रजयेच्छ तत्र यमथादरात् ।
यथा रुचिजयेद्विद्यां कोमलैसुलसीहलैः ।। ८४ ।।
केतकीसहितैर्विल्वपत्रैर्वाथमर्चयेत् ।
लक्ष्मीनारायणि पश्चात्रिशतं ब्रह्मविद्यया ।। ८५ ।।
सांगवरणपूजां च कृत्वादौ नियतव्रतः ।
विधिवत् संस्कृते वह्नौ तिलैर्गव्यघृतप्लुतैः ।। ८६ ।।
त्रिशतं जुहुयादग्नौश्चोमदष्टार्ण विद्यया ।
अष्टोत्तरशतं दत्वा श्रीमंत्रेणाज्यमादरात् ।। ८७ ।।
प्. ८४अ)
त्रेधा भगवतो रश्मिममंत्रैराज्यमथोहुनेत् ।
प्रायश्चित्ताहुता हृत्वा ब्रह्मार्पणाहुति ।। ८८ ।।
संतसहोमरचितं ब्रह्मरागविनिर्मितं ।
आचार्यकर्णयोर्दत्वा कुंडलद्वयमादरात् ।। ८९ ।।
आथं कृत्य तथाचीर्यं मुद्रिकाद्यैश्चभूषणैः ।
सूक्ष्मं वासोयुगं दत्वा शालग्रामशिलांशुभां ।। ९० ।।
वर्षाशनमितद्भव्यदक्षिणा संहितामथ ।
प्रार्थयित्वापि वहुशस्तिलानपि समर्पयेत् ।। ९१ ।।
प्रतिगृह्णाति वामावातित्वद्रोणचतुष्टाय ।
तदर्धं वा तदावार्यमंचिरेस्थापयेद्वुधः ।। ९२ ।।
गोदानं तिलदानं वुशुभाकार्यषु संततं ।
प्रतिगृह्याणमात्रं वा पातकं न लभेत् क्वचित् ।। ९३ ।।
तीव्यैवुशुभकार्येषु तिलराशि प्रतिग्रही महत्यातकसान्योद्वादशकं तु वा ।
आचार्याचरणांभोजदेयमावश्यकंतितन्निवृत्तिरथोच्यते ।। ९४ ।।
स्वगृहीतार्धवित्तस्यदानेन सहितानस्तिआन ।
श्रीत्रियायतथान्यस्मैदत्वा मुच्येतपातकान् ।। ९५ ।।
वर्षाशनधनानाभावेनिष्कद्वादशकं तु वा ।
आचार्यचरणांभोजेदेयमावश्यकं धनं ।। ९६ ।।
एकां सवत्सां दद्यान्निष्चदक्षिणयान्वितां ।
धेनुप्रतिनिधिद्रव्यं यद्वादद्यात् सक्षिणं ।। ९७ ।।
विभवसतिभूदानं दद्यादानमथापरं ।
लक्ष्मीनारायणेनाम्नायोगेस्मिन् सर्ववीमिद्विदे ।। ९८ ।।
यद्यत्करोतितिनत्सर्वमनंतःस्यान्नसंशयः ।
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाद्भौजयेच्च सुवासिनीः ।। ९९ ।।
आचार्यानुज्ञयापश्चीत्स्वयर्भुजीतवाग्यतः ।
लक्ष्मीनारायणोयोगेश्रीमदष्टाक्षरं मनुं ।। १०० ।।
इत्थं जप्त्वा ततो हुत्वा दत्वाचार्या यद्दक्षिणं ।
श्रीमदष्टाक्षरीसिद्धिमावश्यं महीतीमपि ।। १ ।।
दुल्लेमादेव संश्रैश्च संप्राप्या वश्यमक्षयां ।
प्राप्नोत्यत्र न संदेहस्सत्यंनीत्र विचारण ।। २ ।।
महातीयारश्चयीसांगा पूर्वं मयेरिता ।
तादग्द्वादशाकंतेनकृतं स्यान्नात्र संशयः ।। ३ ।।
लक्ष्मीनारायणोयोगे तिलैर्गव्यघृतप्लुतैः ।
एकामाप्याहऋतिर्कृत्वा लक्ष्मीहोमफलं स्पृतं ।। ४ ।।
लक्ष्मीनारायणे यागे सालग्रामशिलां शुभां ।
एकां स दक्षिणा दत्वा कोटि ब्रह्मांडदानतः ।। ५ ।।
प्. ८४ब्)
फलमान्योति भूयालविद्यते नात्रं संशयः ।
लक्ष्मीनारायणे योगेनिष्कंवाकांचनं शुभं ।। ६ ।।
दत्वामेरुसमखणं दानस्य फलमश्नुते ।
आचार्यकर्णयुगले कुंडलद्वयदामन ।। ७ ।।
दिव्यालंकारकीटीनां दानस्य फलमश्नुते ।
लक्ष्मीनारायणे यो सहस्रजयमात्रतः ।। ८ ।।
श्रीमदष्टाक्षरीविद्यां जप्त्वा लक्षसस्रकुं ।
यत्फलं स भवाप्नोति तदेव फलमीरितं ।। ९ ।।
लक्ष्मीनारायणोयोगेपुरश्चरणमादरात् ।
कृत्वेत्थं नाम्नसंदेहोभगवंतं प्रशस्यति ।। १११ ।।
अथ वागरूडारूढं ब्रह्मारुद्रादिवंदितं ।
स्तत्येयश्यत्यसौ सर्वकामदं भक्तवत्सलं ।। १२ ।।
तदारेभ्यदिरावासे कृत्वा पूर्णशरीरवान् ।
वियुक्तः पापरीशिभ्यः कल्याणानि दिने दिने ।। १३ ।।
अचललांश्रियमासाद्य धन्यादि संकुलां ।
वंशाभिवृद्धिमतुलां पुत्रपौत्रादिसंकुलां ।। १४ ।।
संप्राप्य सकलान्भोगान् दिव्यानपि च मानुषान् ।
दिव्यं विमानमारुह्यकुलविंशतिं संयुतः ।। १५ ।।
अक्षयं परमं याति शाश्वतं भगवत्पदं ।
श्रीमदष्टार्णविधायास्मिध्यर्थं साधनं परं ।
न दिवसेनोक्तं पुनरन्यत्प्रवक्ष्यते ।। १६ ।।
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीये तंत्रे वेदसारसरसंग्रहे
सप्तविशोध्यायाः ।।</poem>
3jer3u2fn4ji8t7emfizfffcwlmwy9i
दाशरथीयतन्त्रम्/अध्यायः २८
0
163654
409308
2025-06-27T09:47:59Z
Shubha
190
{{header | title = [[../]] | author = | translator = | section = अध्यायः २८ | previous = [[../अध्यायः २७|अध्यायः २७]] | next = [[../अध्यायः २९|अध्यायः २९]] | notes = }} <poem> प्. ८४ब्) श्रीभगवानुवाच सद्यस्सिद्धिप्रदं श्... नवीन पृष्ठं निर्मीत अस्ती
409308
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः २८
| previous = [[../अध्यायः २७|अध्यायः २७]]
| next = [[../अध्यायः २९|अध्यायः २९]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ८४ब्)
श्रीभगवानुवाच
सद्यस्सिद्धिप्रदं श्रीमदष्टार्णस्य महामनोः |
भूयोपि संप्रवक्ष्यामि शूणुष्व वसुधापते || १ ||
ग्रहणं सवितुश्चेंदोर्महत्यवंसनीरित |
तत्रोक्ता श्रीमदष्टार्ण पुरश्चर्यामयातव || २ ||
विशेषमपि वक्ष्यनिग्रहणे शशिसूर्ययोः |
श्रावणेमासिपौर्णभ्यां चंद्रस्यग्रहणं यदि || ३ ||
सोमवासरसंयुक्तं वैष्णवक्षं समन्वितं |
वसुनक्षत्रयुक्तं वायोगोलभ्यो महानयं || ४ ||
चंद्रचूडामणिर्नाम्न्यदैवंतैरपि दुर्लभः |
सर्वासामनिविद्यानामवश्यं सिद्धिरुत्तमा || ५ ||
जायते जपहोमाद्यैरक्षयाभीष्टसिद्धिदा |
श्रीमदष्टर्णविधायास्सिद्धिक्तुं न शक्यते || ६ ||
प्. ८५अ)
एककालंमिताहारस्तसूर्वदिवसत्रयं |
प्रातस्तस्मिन्दिने स्रात्वा स्वाचार्यचरणद्वयं || ७ ||
प्रणम्य श्रीमदष्टार्णां समस्तन्याससंयुतां |
त्रिशताधिक साहस्रं प्रजपेत्रियतव्रातः || ८ ||
श्रीमंत्रान्यतमंजप्त्वा शतत्रितषदरात् |
पंचधा भगवद्रश्मिविद्यासूक्तं ततो जपेत् || ९ ||
ग्रेहणे स्पर्शसमये स्नात्वा नतः परं |
केशवादीनि नामानिमौनेनमनसोच्चरन् || १० ||
चतुर्विंशतिधास्नाविमुक्तः सर्वपातकैः |
वाससीपरीधायाथत्रिराचम्ययतव्रतः || ११ ||
आचार्यचरणांभोजोजप्रक्षालितजलंशुभं |
पीत्वा विमुक्तः पयौद्यैर्वहिरंतस्थितैरपि || १२ ||
प्राणानाय संकल्प्य विधिवत् संस्कृतेनले |
हनेद्रव्याजसंमिश्रैस्तिलैकृष्णैःस्ततः परं || १३ ||
शताधिकसुहस्रं वा श्रीमदष्टीर्णविद्यया |
हुनित्यं पंचशतं वापि चतुःशतमथापि वा || १४ ||
श्रीमत्रांन्यतमेनाथहुनं द्रव्यं घृतं शतं |
एकधावाद्विधा प्रेधारश्मिमंत्रैर्हुनैत्तृतः || १५ ||
प्रायाश्चित्तहुतीर्हृत्वा कृत्वा ब्रह्मर्पणाहुतिं |
प्रदक्षिण्यं नमस्कृत्य जातवेदसमादरात् || १६ ||
आचार्यचरणंभोजयुगलं प्रणिपत्यं च |
सर्वस्वमर्यद्वीमान् यद्वावर्षाशनं धनं || १७ ||
कुंडलद्वितयं दत्वानिष्कद्वादशकुंतुवा |
वणिष्कं चात्रिनिष्कंवातन्यूनं न समर्प्य यत् || १८ ||
वितशाठ्य समायुक्तो न विद्यासिद्धिमश्रुते |
सालग्रामशिलामेकामवश्यं गुरवेर्यपेत् || १९ ||
पुराणं धर्मशास्त्रं वायुस्तकं च समर्पयेत् |
विभवे सति भूदानं गोद्वयं च समर्पयेत् || २० ||
अन्यान्ययि च दानानिद्दद्यादाचार्यपादयोः |
श्रीमदष्टाक्षरीविद्यासिद्धिं सुमहतीमपि || २१ ||
प्राप्नोत्यक्त न संदेहस्सद्य एव महीयते |
चंद्रचूडामणिर्थ्योजस्त्रिंशद्वत्सरती भवेत् || २२ ||
चंद्राचूडामणौ योगे कृत्वैकांचतिलाहुतिं |
कोटिशस्तिलहोमस्य फलमान्योसनुत्तमं || २३ ||
प्. ८५ब्)
चंद्रचूडामणौयोगेदानमाचार्यपादयोः |
तुलापुरुषकोटीनामवश्यं लभते फलं || २४ ||
इत्थं कृत्वा पुरश्रर्यं चंद्रेचूडामणौ नृप |
श्रीमदष्टाक्षरीविद्यापुरश्चर्याशतात्फल || २५ ||
अवश्यं प्राप्त्युयात्सद्यः पश्यत्यतिरमायति |
तस्मिन्नेवदिर्नस्वये यद्वा साक्षाच्छ्रियः पतिं || २६ ||
विनतानयारूढं ब्रह्मारुद्रा दिवंदिवंदितं |
दृष्ट्वा समस्तभाग्यानामाश्रीयोसौभवेद्ध्रुवं || २७ ||
भगवत्कलयायुकः श्रियमष्टगुणन्वितां |
चिरायुष्यमथारोग्यं वाचां सिद्धिं च दुर्लभां || २८ ||
वंशाभिवृद्धिमतुलामाचंद्रार्कं महीयते |
संप्राप्यसकलान्भोगान्दिव्यानपि च मानुषान् || २९ ||
पितुर्मातुश्च वंशानां सहस्रेण समीन्वितः |
विमानवरमारूठोलभते भगवसद || ३० ||
आश्वयुग्मासिसा प्राप्ते प्रतियद्दिंनमादितः |
नवरात्रमिति प्रोतं नवनवप्यंतं महीयते || ३१ ||
तत्रैकैकं च दिवसं रवियर्वसमप्रभं |
दिवसे दिवसेज संहुतंत्त च भूयते || ३२ ||
आनंतकलंदं प्रोक्ता मक्षयब्रह्मसौस्वयंद |
या महानवमी प्रोक्ता नवारात्रे तथाश्विर्न || ३३ ||
चंद्रार्कयर्वसाहस्रसत्रिभासासमीरिता |
सकृज्जसंहतमपि तत्रानंत फलप्रदं || ३४ ||
भृगुवास रसंयुतावौश्च दैवससंयुता |
मरेद्युर्वैष्णवं तारं यदि सा नवमी परा || ३५ ||
साम्राज्यलक्ष्मीयोगौयं दुर्लभोयं महीतले |
वर्षमध्यस्थितमिदं यर्वरत्नं महीपितं || ३६ ||
नवरात्रव्रतंभूयसमस्तेशितमिद्विदं |
नवरात्रे प्रतियदि स्वाचार्याज्ञापुरस्सर || ३७ ||
प्रातः स्रात्वा विशुद्धात्मानित्यकर्मसमाथ च |
संपूज्यादौगणाधीशमध्यर्च्याचार्यमादरात् || ३८ ||
अलंकारैश्च वा सोभिर्गंध पुष्पाक्षतैरपि |
स्वाचार्यचणांभोजसन्निधौशंसितव्रतः || ३९ ||
प्रणनायम्य संकल्प्यसमस्तन्याससंयुतां |
श्रीमदष्टाक्षरींविद्यां सहस्रं च चतुःशतं || ४० ||
दिने दिने जपेन्मौनी श्रीमंत्रद्वादशाक्षरं |
साम्राज्यलक्ष्मीमंत्रंषाश्रीषडर्णमथपि वा || ४१ ||
प्. ८६अ)
अष्टाक्षरं श्रियो यद्वाजपदकं सहस्रकं |
चतुःशताधिकं यद्वा सहस्रं प्रत्वतुःहं जपेत् || ४२ ||
श्रीम्राज्यलक्ष्मीमंत्रं वा श्रीषडर्णमथापि वा || ४१ ||
अष्टाक्षरं श्रियो यद्वा जपदर्क |
श्रीमदष्टाक्षीरीविधामपि भानुसहस्राकं |
नवरात्रवृते यद्वाकौमाइस्तुलसीदलैः || ४३ ||
सपुष्पैर्विल्वपत्रैर्वात्रिशतं ब्रह्मविद्यया |
श्रीश्रीपतीसमभ्यर्च्यस्तांगाचरणपूर्वकं || ४४ ||
अष्टेत्तरशतं श्लोकमंत्रात्मकनुत्तमं |
आथर्वण महासूक्तं लक्ष्मीदुदयनामकं || ४५ ||
नवरात्रे जपेदेकोत्तरवृद्धिकामान्नृप |
पंचाधिकां वा चत्वारिंशवृतिंजपेन्नु वा || ४६ ||
माहानवम्यां प्राप्ता वामाचायज्ञिपुरस्सरं |
प्राणानायम्य सकल्प्यज्वलिते जातवेदसि || ४७ ||
अंगावरणमंत्रैश्चघृतमेकैकशो हुनेत् |
श्रीमदष्टाक्षरिणाथ सहस्रं त्रिशताधिकं || ४८ ||
गव्याज्यं जुयादग्रौयासेन ततः परं |
मधुत्रितययुक्तेन द्वादशार्ण श्रिया हुनेत् || ४९ ||
अष्टाक्षरेण वाक्ष्म्याः श्रीषडर्णेवाहुनंत |
अथ साम्राज्य लक्ष्म्यावाशाताधिक सहस्रकं || ५० ||
हुत्वा भगवतो रश्मि मंत्रैरेकैकशोघृतं |
लक्ष्मीहृदयमंत्रैश्च श्लोकरूपैरतः परं || ५१ ||
प्रतिश्लोकेन होक्षव्यंयायसंत्रिमःधुत्युतं |
जायादि होमं कृत्वाथ प्रायश्चित्ताहुनीर्हुनेत् || ५२ ||
ब्रह्मार्पणाहुर्ति कृत्वा प्रणम्याग्निमतः पुरं |
श्रीश्रीयाती समभ्यर्च्य पूर्ववद्ब्रह्मविया || ५३ ||
अथाचार्य यद्वां भोजद्वयं साष्टांगमादरात् |
नमस्कृत्यार्प्ययेद्वोमानकुंडलद्वितयं शुभं || ५४ ||
भूषणैरप्यलंकृत्य मुद्रिकाद्यैर्मनोहरैः |
वासोभिर्गंध पुष्पाद्यैर्वहूशस्यौघ संकुलं || ५५ ||
गोचर्मसस्मितां भूमिं निवर्तनमितां तु वा |
भगवत्मन्निधौ दत्वादाचार्यायमहात्मने || ५६ ||
ववर्षाशनमिंद्रव्यमुत्तमादक्षिणास्मृता |
निष्कद्वादशकं मध्यदक्षिणा च त्रिविनिर्मिता || ५७ ||
अधवामसुनित्यं स्यात् षणिष्कमधमाधमा |
दृद्यादवश्यमाचायेकराब्जेः दक्षिणान्वितां || ५८ ||
प्. ८६ब्)
सालग्रामशिलां शुद्धां शुद्धचक्रसमन्वितां |
एकां सोपस्करां शययामपि दक्षिणं यान्वितां || ५९ ||
दद्यादाचार्ययादात्वेअगामेकां च सदक्षिणां |
चतुर्वृषभसंयुक्तादातव्या सततं मही || ६० ||
महीप्रतिनिधिद्रव्यमथवाचार्यपादयोः |
पंचविंशतिनिर्ष्णुवा तदर्धं वात्वर्धकं || ६१ ||
वृषप्रतिनिनिद्रव्यं निष्कद्वयमुदीहृतं |
एकनिष्कसुवर्णं वा वित्तलोभं विवर्जयेत् || ६२ ||
धेनुप्रतिनिधिद्रव्यं निष्कंमेकमुदाहृतं |
निष्कार्वमथवादेयं धेनुमूल्यं महीयते || ६३ ||
सालग्रामशिलादीनमुक्तचानुक्तमेव वा |
श्रीमदष्टार्णे सिध्यर्थं कार्यमावश्यकंवुधीः || ६४ ||
महानवम्यां प्राप्त्याया श्रीमदष्टार्णविद्यया |
हुत्वैकामाहुतिमपि कोटिहोमफलं लभेत् || ६५ ||
वहुसस्य समायुक्तमहींचोचर्मसम्मितां |
महानवम्यां दत्वासौ सत्यद्वीयप्रदानतः || ६६ ||
यत्फलं समवान्योति तत्कोटि गुणमश्रुते |
महावम्या प्रात्यायां कुंडलक्षितंयं शुभं || ६७ ||
दिव्यालकारकोटीनां दत्वा तत्फलमश्रुते |
किं वास्यपितरोमग्रानरकौद्येशु कोटिशः || ६८ ||
व्रजंति वैष्णवंधाम दिव्याभरणभूषिताः |
महानवम्यां भगवत्सालग्रामाशेलीशुभां || ६९ ||
दत्वा दक्षिणयायुक्ता ब्रह्मांगर्वुददानतः |
फलमासाद्यशुद्धात्मा भगवंतं प्रपश्यति || ७० ||
महानवम्यां प्राप्तायां दत्वाष्टषा चतुष्टयं |
तन्माल्य स्वल्पस्वर्णमथवालक्षगोदानजं फलं || ७१ ||
संप्राप्यपितं वंशानां सहस्रेण समन्वितः |
प्राप्नोति भगवद्धामशाश्वतं दिव्यमक्षयं || ७२ ||
कुर्वीत तस्मिन्दिवसे धनाढ्यो भूमियोथ वा |
तुलापुरुषमुख्यानि हानानिवसुधापते || ७३ ||
इत्थं सांगव्रतं कृत्वा तन्महानवमीदिने |
श्रीमदष्टाक्षरीविद्या पुरश्चयो सहस्रजं || ७४ ||
अवश्यफलमासायाभगवत्कलयान्वितः |
प्राप्नोति महतीं लक्ष्मीं धन्रत्नौद्यसंकुला || ७५ ||
आयुरारोग्यसहितां गजाश्वरथसंकुलां |
विधा सिद्धिं च महती निग्रहोनुग्रहक्षीमां || ७६ ||
पुत्रपौत्रवतीमृद्धिधोगानपि सुदुर्लभान् |
अवाप्यैच्छरीरांते प्राप्नोति हारिसत्रिधिं || ७७ ||
प्. ८७अ)
नवरात्रव्रतसमं व्रतमन्यन्नविद्यते |
श्रीमदष्टाक्षरी सिद्धियादशी नवरात्रके || ७८ ||
न तादृशी महासिद्धिर्व्रतधर्न्यषु भूयते |
नवरात्रव्रते यावत् प्रसाहःस्याच्छ्रियःपतेह् || ७९ ||
व्रतेष्वन्येषु भगवत्प्रसादस्तादृशोनं हि |
नवरात्रव्रतंसांगं कृत्वेथां विधिनादरात् || ८० ||
श्रीमदष्टाक्षरीसिद्धिं देवानामपि दुर्लर्भा |
अवाथ ब्रह्मरुद्राद्यौः शक्राद्यैरपि पूजितः || ८१ ||
महती सिद्धिमासाषशाश्वतीमनानयायिनीं |
प्राप्नोति भगवद्वामकुलानांशतसंयुतः || ८२ ||
नवरात्रव्रते नित्यसर्वकल्याणसिद्धिदे |
आचार्यतोषणातुष्टाब्रह्मविष्णुमहेश्वारा || ८३ ||
प्राहद्युर्महतीं सिद्धिमपि दैवतल्लर्भां |
शक्राया आपि दिक्पालाः केंकर्यप्राप्नुवंतिहि || ८४ ||
कपिलाद्या महासिद्धावरदाः स्युर्नसंशयः |
नवरात्रव्रतमिदं यावज्जीवं समाचरेत् || ८५ ||
संकटेपि च संप्राप्ते वद्धविष्णोषु सस्वपि |
नवरात्र प्रतकुर्याच्छ्रियस्कामो द्विजोत्तमः || ८६ ||
व्रतभंगां भवेद्यस्य सकृदप्यवनीपत्ते |
अरिष्टां जायते तस्य तस्मिन्वर्वेनासंशयः || ८७ ||
इच्छन् समस्त्कल्याणराशिश्रोयः परयंपरंपरां |
नवरात्रव्रतं कुर्याच्छ्रोमदष्टार्णे सिद्धये || ८८ ||
सर्वासामपिविद्यानां नवारात्रव्रते शुभे |
उदीरिता महासिद्धिर्ब्रह्मविद्भिसमोष्टताः || ८९ ||
सारात्सारतं संषुरायं गुह्यं रत्यतमां शुभं |
नवरात्रव्रतमिहं समस्ताधौधभंजनं || ९० ||
वासंते नवरात्रेपि संप्राप्तो वसुधापते |
आचार्यानुज्ञाया प्रातःस्नात्वा प्रतिपदादितः || ९१ ||
समस्तन्याससहितां श्रीमदष्टाक्षरीशुभां |
संकल्पार्कासहस्रीणि प्रजयेन्नवरात्रके || ९२ ||
श्रीमंत्रीन्यतमं यश्चीज्जपेदके सहस्राक |
प्रजपेदष्टसाहस्रं पंचसाहस्रकं तु वा || ९३ ||
नक्ताश्येकांतराशीवाहविष्याशी दिने दिने |
श्रीरामजन्मनवमीदिवसे सर्वसिद्धिदे || ९४ ||
प्रातः स्रात्वा विशुद्धान्मास्वाचायंसौवसन्निधौ |
विधिवत् संस्कृते वहाविक्षुखंडैर्घृतत्थतै || ९५ ||
श्रीमदष्टार्णमंत्रेणशताधिकसहस्रकं |
जुहुयाद्वित्वापत्रैर्वागव्याज्यत्रिभधुप्लुतै || ९६ ||
प्. ८७ब्)
मधुन्नितयसंमिश्रेहविषावाहुने नृप |
अथवा शुद्धगव्येनद्यानेन जुहुयाशुचिः || ९७ ||
श्रीमंत्रेणहुनेत्यश्चात् त्रिशतं केवलं घृतं |
पुरतोरतो जुहुयान्मंत्रैर्ष्टहदावरणोदितैः || ९८ ||
श्रीहोमानंतरं रश्मिमंत्रेस्रिधाहुनेधद्वातः |
जयाहि होमं कृत्वाथ कृत्वा ब्रह्मर्पणाहतिं || ९९ ||
अग्निप्रदक्षिणीकृत्य नमस्कऋत्य ततः परं |
आचार्याचरणांभोजद्वयसाययंगमादरात् || १०० ||
नमस्कृत्यार्ययेद्धोमान्वर्षाशनमितं धनं |
सालग्रामशिलां शुद्धानिक्षित्यांकाप्यपात्रके || १ ||
कांस्ययाल्लेथवा कृत्वा श्रीश्रीशब्रह्मविद्यया |
निष्णेर्द्वादशभिः स्वर्णैर्वसुनिष्कैरथापि वा || २ ||
पंचनिष्कसुवर्णैवासंपूज्यश्रीजगत्पती |
प्रीणा तु भगवान्साक्षाच्छीरामात्माश्रियःपतिः || ३ ||
कौशल्यागर्भसंभुतो व्रतेनानेनसंततं |
श्रीमदष्टाक्षरीविद्यासंसिद्धिमहतीमपि || ४ ||
श्रीभूतीनाद्यतिः स्वामी दत्वात्रतुमांसहा |
इति त्रद्वयेनाथ सालग्रामशिलाशुभां || ५ ||
यथोक्त दक्षिणायुक्तामाचाय निवेदयेत् |
सूक्ष्मवासोद्युगं दत्वा हरिचनमुत्तमं || ६ ||
विभवे सत्यलंकारान् हृद्यात् कांचननिर्मितान् |
अथाचायलत्रस्यकर्णे लंकरणादिकं || ७ ||
अर्पयित्वारमावुध्यारेद्युर्ब्राह्मणानवं |
नवभोज्याः सवासिन्योवासोभिर्दिक्षिणादिभिः || ८ ||
संतोष्यवंधुभिः सार्धभुजीहन्नमादरात् |
वासंते नवरात्रेपिव्रतं कृत्वेत्थमादरात् || ९ ||
श्रीमदष्टाक्ष्रीसिद्धिसंघस्सलभते ध्रुवं |
श्रीरामजन्मदिवसे श्रीमदष्टार्णविद्या || १० ||
होमं कृत्वा विधानेन कोटि होमफललं लभेत् |
श्रीरामजन्मदिविसेसालग्रामशिलांशुभां || १११ ||
यथोक्तदक्षिणायुक्तादत्वाचार्याय ससाधकः |
ब्रह्माण्डकोटिदानस्य फलमत्यंतमश्रुतं || १२ ||
वासंते नवरात्रेपि श्रीमदष्टाक्षरं जपन् |
पुरश्चर्याशतंफलं प्राप्नोत्यत्र न संशयः || १३ ||
श्रीमदष्टार्णविद्याया दैवतैरपिदल्लभां |
आवश्यं महतींसिद्धिमिहं च प्राप्यसाधकः || १४ ||
प्. ८८अ)
चिरापुष्पमथारोग्यधनेरत्नादिसंकुलां |
संप्राप्य महतीं लक्ष्मीवाक्यद्विं वा तुलां शुभां || १५ ||
पुत्रपौत्रादिकामृद्विद्विंकान्भोगाक्ष्वमानुषान् |
संप्रथकुलसाहस्रस्रसहितो भगवत्पदे || १६ ||
रमते नात्रसंदेहो दिव्यकन्याशताचितः |
अथापरं प्रवक्ष्यामि विशिष्टं पर्वसिद्धिदं || १७ ||
श्रीमदष्टार्णविद्यास्सिद्धिदं याममात्रतः |
अमार्कवासरयुतासोमेनेसहितापि वा || १८ ||
भास्करग्रहणं तत्र जायते यदि भूयते |
रविचूडामणिर्वाम्नायोगोयं समुदाहृतः || १९ ||
संवत्सरैर्द्वौदशभिर्लभ्यते योगराडयं |
अत्रजससंकृद्वापि कोटिशोजप्तमेवहि || २० ||
अत्रिकपापिवाहत्याकोटिहोमसमोनहि |
अत्रेकनिष्कस्वर्णे वा दत्वाचार्य यदांवुज || २१ ||
शतमेरु प्रदानस्य फलमाप्नोति शाश्वतं |
रविपर्वणि संप्राप्ते तत्पूर्वदिवं सत्रयं || २२ ||
एकवारं हविभुजन् मनस्मन्नुक्तमप्यथ |
भास्करग्रहणेस्पर्शकाले प्राते ततः परं || २३ ||
केशवादि चतुर्विशन्नामान्युच्चार्य यत्नतः |
स्तुत्वामसस्तुपायौद्यैर्विमुक्तस्सद्यरावहि || २४ ||
गुरुपादोदकयीत्व त्रिधातः शुद्धचित्तवान् |
आचासन्निधावग्निं प्रतिष्ठाप्यविधानतः || २५ ||
उप्रतो जयान्मंत्रीवृहदावरणोदितैः |
मंत्रैरात्येनगव्येन ततस्त्रिमधुसत्युतीः || २६ ||
घृताभ्यक्तैस्तीलैहोमं मोक्षकालातमादरात् |
कृत्वा श्रीमनुनायश्चीच्छातमष्टोत्तरं हुनेत् || २७ ||
भगवद्रश्मिविद्याभिरपि हुत्वा घृतं सकृत् |
प्रायश्चित्तहुतीर्हुत्वा कृत्वा ब्रह्मार्पणाहुतिं || २८ ||
आचार्यचरणद्वंद्वं नत्वा साष्टंगमादरात् |
दत्वा च स्त्रीसूक्ष्मीसिस्वर्ण निष्कसहस्रकं || २९ ||
दद्यात्सस्यौद्यसंहितां महीगां च स दक्षिणं |
यावच्छकामलंकारं दत्वा श्रीगुरवेथ वा || ३० ||
वर्षाशनमितद्रव्यमर्कनिष्कमथापि वा |
पंचनिष्कसुवर्णं वा निष्कत्रयमितं तु वा || ३१ ||
अवश्यं गुरवेदयाद्वित्तशाक्यविवर्जितः |
श्रोत्रियेभ्यः प्रदेद्यानिदशदानान्यतःपरं || ३२ ||
आशक्तः सद्गुरोः कमलद्वयमेवदि |
अभ्यर्चयेत्त्रिनिष्कादियावच्छवचमितौर्धनैः || ३३ ||
प्. ८८ब्)
द्विजातिवर्ज्याः संभोज्यास्सुवासिन्योपियंचधा |
इत्थं कृत्वा विधानेनेन ग्रहणे सांगमादरात् || ३४ ||
महतीयापुरश्चर्यामयाप्रोक्ता पुरातवः |
श्रीमदष्टार्णविद्यायास्ततोपि महती परां || ३५ ||
अवश्यसिद्धिमाप्नोतिदैवतरपिदुर्लभां |
आयुरारोग्यसहितः श्रियाधनदसन्निभः || ३६ ||
वाचस्पति समस्सर्वविद्याभिरपिसंततं |
प्राप्यवंशाभिवृद्धिं च कल्पातं वसुधापते || ३७ ||
मानुषानपि दिव्यांश्च भुक्त्वा भोगान्मनोरमान् |
कुलसाहस्रमादायवरीद्विष्णुयुर्रसुखी || ३८ ||
रवींद्रग्रहणेप्रात्येनापि सूतकं स्पर्शया |
रम्यमोक्षांते शुद्धारावहितातयः || ३९ ||
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मातत्वरहस्ये दाशरथीये तंत्रे वेदार्थसंग्रहे
अष्टाविंशोध्यायः ||</poem>
a7a12tl5fjyvj6j9gwq2l3zyokveiyw
409309
409308
2025-06-27T09:48:16Z
Shubha
190
409309
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः २८
| previous = [[../अध्यायः २७|अध्यायः २७]]
| next = [[../अध्यायः २९|अध्यायः २९]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ८४ब्)
श्रीभगवानुवाच
सद्यस्सिद्धिप्रदं श्रीमदष्टार्णस्य महामनोः ।
भूयोपि संप्रवक्ष्यामि शूणुष्व वसुधापते ।। १ ।।
ग्रहणं सवितुश्चेंदोर्महत्यवंसनीरित ।
तत्रोक्ता श्रीमदष्टार्ण पुरश्चर्यामयातव ।। २ ।।
विशेषमपि वक्ष्यनिग्रहणे शशिसूर्ययोः ।
श्रावणेमासिपौर्णभ्यां चंद्रस्यग्रहणं यदि ।। ३ ।।
सोमवासरसंयुक्तं वैष्णवक्षं समन्वितं ।
वसुनक्षत्रयुक्तं वायोगोलभ्यो महानयं ।। ४ ।।
चंद्रचूडामणिर्नाम्न्यदैवंतैरपि दुर्लभः ।
सर्वासामनिविद्यानामवश्यं सिद्धिरुत्तमा ।। ५ ।।
जायते जपहोमाद्यैरक्षयाभीष्टसिद्धिदा ।
श्रीमदष्टर्णविधायास्सिद्धिक्तुं न शक्यते ।। ६ ।।
प्. ८५अ)
एककालंमिताहारस्तसूर्वदिवसत्रयं ।
प्रातस्तस्मिन्दिने स्रात्वा स्वाचार्यचरणद्वयं ।। ७ ।।
प्रणम्य श्रीमदष्टार्णां समस्तन्याससंयुतां ।
त्रिशताधिक साहस्रं प्रजपेत्रियतव्रातः ।। ८ ।।
श्रीमंत्रान्यतमंजप्त्वा शतत्रितषदरात् ।
पंचधा भगवद्रश्मिविद्यासूक्तं ततो जपेत् ।। ९ ।।
ग्रेहणे स्पर्शसमये स्नात्वा नतः परं ।
केशवादीनि नामानिमौनेनमनसोच्चरन् ।। १० ।।
चतुर्विंशतिधास्नाविमुक्तः सर्वपातकैः ।
वाससीपरीधायाथत्रिराचम्ययतव्रतः ।। ११ ।।
आचार्यचरणांभोजोजप्रक्षालितजलंशुभं ।
पीत्वा विमुक्तः पयौद्यैर्वहिरंतस्थितैरपि ।। १२ ।।
प्राणानाय संकल्प्य विधिवत् संस्कृतेनले ।
हनेद्रव्याजसंमिश्रैस्तिलैकृष्णैःस्ततः परं ।। १३ ।।
शताधिकसुहस्रं वा श्रीमदष्टीर्णविद्यया ।
हुनित्यं पंचशतं वापि चतुःशतमथापि वा ।। १४ ।।
श्रीमत्रांन्यतमेनाथहुनं द्रव्यं घृतं शतं ।
एकधावाद्विधा प्रेधारश्मिमंत्रैर्हुनैत्तृतः ।। १५ ।।
प्रायाश्चित्तहुतीर्हृत्वा कृत्वा ब्रह्मर्पणाहुतिं ।
प्रदक्षिण्यं नमस्कृत्य जातवेदसमादरात् ।। १६ ।।
आचार्यचरणंभोजयुगलं प्रणिपत्यं च ।
सर्वस्वमर्यद्वीमान् यद्वावर्षाशनं धनं ।। १७ ।।
कुंडलद्वितयं दत्वानिष्कद्वादशकुंतुवा ।
वणिष्कं चात्रिनिष्कंवातन्यूनं न समर्प्य यत् ।। १८ ।।
वितशाठ्य समायुक्तो न विद्यासिद्धिमश्रुते ।
सालग्रामशिलामेकामवश्यं गुरवेर्यपेत् ।। १९ ।।
पुराणं धर्मशास्त्रं वायुस्तकं च समर्पयेत् ।
विभवे सति भूदानं गोद्वयं च समर्पयेत् ।। २० ।।
अन्यान्ययि च दानानिद्दद्यादाचार्यपादयोः ।
श्रीमदष्टाक्षरीविद्यासिद्धिं सुमहतीमपि ।। २१ ।।
प्राप्नोत्यक्त न संदेहस्सद्य एव महीयते ।
चंद्रचूडामणिर्थ्योजस्त्रिंशद्वत्सरती भवेत् ।। २२ ।।
चंद्राचूडामणौ योगे कृत्वैकांचतिलाहुतिं ।
कोटिशस्तिलहोमस्य फलमान्योसनुत्तमं ।। २३ ।।
प्. ८५ब्)
चंद्रचूडामणौयोगेदानमाचार्यपादयोः ।
तुलापुरुषकोटीनामवश्यं लभते फलं ।। २४ ।।
इत्थं कृत्वा पुरश्रर्यं चंद्रेचूडामणौ नृप ।
श्रीमदष्टाक्षरीविद्यापुरश्चर्याशतात्फल ।। २५ ।।
अवश्यं प्राप्त्युयात्सद्यः पश्यत्यतिरमायति ।
तस्मिन्नेवदिर्नस्वये यद्वा साक्षाच्छ्रियः पतिं ।। २६ ।।
विनतानयारूढं ब्रह्मारुद्रा दिवंदिवंदितं ।
दृष्ट्वा समस्तभाग्यानामाश्रीयोसौभवेद्ध्रुवं ।। २७ ।।
भगवत्कलयायुकः श्रियमष्टगुणन्वितां ।
चिरायुष्यमथारोग्यं वाचां सिद्धिं च दुर्लभां ।। २८ ।।
वंशाभिवृद्धिमतुलामाचंद्रार्कं महीयते ।
संप्राप्यसकलान्भोगान्दिव्यानपि च मानुषान् ।। २९ ।।
पितुर्मातुश्च वंशानां सहस्रेण समीन्वितः ।
विमानवरमारूठोलभते भगवसद ।। ३० ।।
आश्वयुग्मासिसा प्राप्ते प्रतियद्दिंनमादितः ।
नवरात्रमिति प्रोतं नवनवप्यंतं महीयते ।। ३१ ।।
तत्रैकैकं च दिवसं रवियर्वसमप्रभं ।
दिवसे दिवसेज संहुतंत्त च भूयते ।। ३२ ।।
आनंतकलंदं प्रोक्ता मक्षयब्रह्मसौस्वयंद ।
या महानवमी प्रोक्ता नवारात्रे तथाश्विर्न ।। ३३ ।।
चंद्रार्कयर्वसाहस्रसत्रिभासासमीरिता ।
सकृज्जसंहतमपि तत्रानंत फलप्रदं ।। ३४ ।।
भृगुवास रसंयुतावौश्च दैवससंयुता ।
मरेद्युर्वैष्णवं तारं यदि सा नवमी परा ।। ३५ ।।
साम्राज्यलक्ष्मीयोगौयं दुर्लभोयं महीतले ।
वर्षमध्यस्थितमिदं यर्वरत्नं महीपितं ।। ३६ ।।
नवरात्रव्रतंभूयसमस्तेशितमिद्विदं ।
नवरात्रे प्रतियदि स्वाचार्याज्ञापुरस्सर ।। ३७ ।।
प्रातः स्रात्वा विशुद्धात्मानित्यकर्मसमाथ च ।
संपूज्यादौगणाधीशमध्यर्च्याचार्यमादरात् ।। ३८ ।।
अलंकारैश्च वा सोभिर्गंध पुष्पाक्षतैरपि ।
स्वाचार्यचणांभोजसन्निधौशंसितव्रतः ।। ३९ ।।
प्रणनायम्य संकल्प्यसमस्तन्याससंयुतां ।
श्रीमदष्टाक्षरींविद्यां सहस्रं च चतुःशतं ।। ४० ।।
दिने दिने जपेन्मौनी श्रीमंत्रद्वादशाक्षरं ।
साम्राज्यलक्ष्मीमंत्रंषाश्रीषडर्णमथपि वा ।। ४१ ।।
प्. ८६अ)
अष्टाक्षरं श्रियो यद्वाजपदकं सहस्रकं ।
चतुःशताधिकं यद्वा सहस्रं प्रत्वतुःहं जपेत् ।। ४२ ।।
श्रीम्राज्यलक्ष्मीमंत्रं वा श्रीषडर्णमथापि वा ।। ४१ ।।
अष्टाक्षरं श्रियो यद्वा जपदर्क ।
श्रीमदष्टाक्षीरीविधामपि भानुसहस्राकं ।
नवरात्रवृते यद्वाकौमाइस्तुलसीदलैः ।। ४३ ।।
सपुष्पैर्विल्वपत्रैर्वात्रिशतं ब्रह्मविद्यया ।
श्रीश्रीपतीसमभ्यर्च्यस्तांगाचरणपूर्वकं ।। ४४ ।।
अष्टेत्तरशतं श्लोकमंत्रात्मकनुत्तमं ।
आथर्वण महासूक्तं लक्ष्मीदुदयनामकं ।। ४५ ।।
नवरात्रे जपेदेकोत्तरवृद्धिकामान्नृप ।
पंचाधिकां वा चत्वारिंशवृतिंजपेन्नु वा ।। ४६ ।।
माहानवम्यां प्राप्ता वामाचायज्ञिपुरस्सरं ।
प्राणानायम्य सकल्प्यज्वलिते जातवेदसि ।। ४७ ।।
अंगावरणमंत्रैश्चघृतमेकैकशो हुनेत् ।
श्रीमदष्टाक्षरिणाथ सहस्रं त्रिशताधिकं ।। ४८ ।।
गव्याज्यं जुयादग्रौयासेन ततः परं ।
मधुत्रितययुक्तेन द्वादशार्ण श्रिया हुनेत् ।। ४९ ।।
अष्टाक्षरेण वाक्ष्म्याः श्रीषडर्णेवाहुनंत ।
अथ साम्राज्य लक्ष्म्यावाशाताधिक सहस्रकं ।। ५० ।।
हुत्वा भगवतो रश्मि मंत्रैरेकैकशोघृतं ।
लक्ष्मीहृदयमंत्रैश्च श्लोकरूपैरतः परं ।। ५१ ।।
प्रतिश्लोकेन होक्षव्यंयायसंत्रिमःधुत्युतं ।
जायादि होमं कृत्वाथ प्रायश्चित्ताहुनीर्हुनेत् ।। ५२ ।।
ब्रह्मार्पणाहुर्ति कृत्वा प्रणम्याग्निमतः पुरं ।
श्रीश्रीयाती समभ्यर्च्य पूर्ववद्ब्रह्मविया ।। ५३ ।।
अथाचार्य यद्वां भोजद्वयं साष्टांगमादरात् ।
नमस्कृत्यार्प्ययेद्वोमानकुंडलद्वितयं शुभं ।। ५४ ।।
भूषणैरप्यलंकृत्य मुद्रिकाद्यैर्मनोहरैः ।
वासोभिर्गंध पुष्पाद्यैर्वहूशस्यौघ संकुलं ।। ५५ ।।
गोचर्मसस्मितां भूमिं निवर्तनमितां तु वा ।
भगवत्मन्निधौ दत्वादाचार्यायमहात्मने ।। ५६ ।।
ववर्षाशनमिंद्रव्यमुत्तमादक्षिणास्मृता ।
निष्कद्वादशकं मध्यदक्षिणा च त्रिविनिर्मिता ।। ५७ ।।
अधवामसुनित्यं स्यात् षणिष्कमधमाधमा ।
दृद्यादवश्यमाचायेकराब्जेः दक्षिणान्वितां ।। ५८ ।।
प्. ८६ब्)
सालग्रामशिलां शुद्धां शुद्धचक्रसमन्वितां ।
एकां सोपस्करां शययामपि दक्षिणं यान्वितां ।। ५९ ।।
दद्यादाचार्ययादात्वेअगामेकां च सदक्षिणां ।
चतुर्वृषभसंयुक्तादातव्या सततं मही ।। ६० ।।
महीप्रतिनिधिद्रव्यमथवाचार्यपादयोः ।
पंचविंशतिनिर्ष्णुवा तदर्धं वात्वर्धकं ।। ६१ ।।
वृषप्रतिनिनिद्रव्यं निष्कद्वयमुदीहृतं ।
एकनिष्कसुवर्णं वा वित्तलोभं विवर्जयेत् ।। ६२ ।।
धेनुप्रतिनिधिद्रव्यं निष्कंमेकमुदाहृतं ।
निष्कार्वमथवादेयं धेनुमूल्यं महीयते ।। ६३ ।।
सालग्रामशिलादीनमुक्तचानुक्तमेव वा ।
श्रीमदष्टार्णे सिध्यर्थं कार्यमावश्यकंवुधीः ।। ६४ ।।
महानवम्यां प्राप्त्याया श्रीमदष्टार्णविद्यया ।
हुत्वैकामाहुतिमपि कोटिहोमफलं लभेत् ।। ६५ ।।
वहुसस्य समायुक्तमहींचोचर्मसम्मितां ।
महानवम्यां दत्वासौ सत्यद्वीयप्रदानतः ।। ६६ ।।
यत्फलं समवान्योति तत्कोटि गुणमश्रुते ।
महावम्या प्रात्यायां कुंडलक्षितंयं शुभं ।। ६७ ।।
दिव्यालकारकोटीनां दत्वा तत्फलमश्रुते ।
किं वास्यपितरोमग्रानरकौद्येशु कोटिशः ।। ६८ ।।
व्रजंति वैष्णवंधाम दिव्याभरणभूषिताः ।
महानवम्यां भगवत्सालग्रामाशेलीशुभां ।। ६९ ।।
दत्वा दक्षिणयायुक्ता ब्रह्मांगर्वुददानतः ।
फलमासाद्यशुद्धात्मा भगवंतं प्रपश्यति ।। ७० ।।
महानवम्यां प्राप्तायां दत्वाष्टषा चतुष्टयं ।
तन्माल्य स्वल्पस्वर्णमथवालक्षगोदानजं फलं ।। ७१ ।।
संप्राप्यपितं वंशानां सहस्रेण समन्वितः ।
प्राप्नोति भगवद्धामशाश्वतं दिव्यमक्षयं ।। ७२ ।।
कुर्वीत तस्मिन्दिवसे धनाढ्यो भूमियोथ वा ।
तुलापुरुषमुख्यानि हानानिवसुधापते ।। ७३ ।।
इत्थं सांगव्रतं कृत्वा तन्महानवमीदिने ।
श्रीमदष्टाक्षरीविद्या पुरश्चयो सहस्रजं ।। ७४ ।।
अवश्यफलमासायाभगवत्कलयान्वितः ।
प्राप्नोति महतीं लक्ष्मीं धन्रत्नौद्यसंकुला ।। ७५ ।।
आयुरारोग्यसहितां गजाश्वरथसंकुलां ।
विधा सिद्धिं च महती निग्रहोनुग्रहक्षीमां ।। ७६ ।।
पुत्रपौत्रवतीमृद्धिधोगानपि सुदुर्लभान् ।
अवाप्यैच्छरीरांते प्राप्नोति हारिसत्रिधिं ।। ७७ ।।
प्. ८७अ)
नवरात्रव्रतसमं व्रतमन्यन्नविद्यते ।
श्रीमदष्टाक्षरी सिद्धियादशी नवरात्रके ।। ७८ ।।
न तादृशी महासिद्धिर्व्रतधर्न्यषु भूयते ।
नवरात्रव्रते यावत् प्रसाहःस्याच्छ्रियःपतेह् ।। ७९ ।।
व्रतेष्वन्येषु भगवत्प्रसादस्तादृशोनं हि ।
नवरात्रव्रतंसांगं कृत्वेथां विधिनादरात् ।। ८० ।।
श्रीमदष्टाक्षरीसिद्धिं देवानामपि दुर्लर्भा ।
अवाथ ब्रह्मरुद्राद्यौः शक्राद्यैरपि पूजितः ।। ८१ ।।
महती सिद्धिमासाषशाश्वतीमनानयायिनीं ।
प्राप्नोति भगवद्वामकुलानांशतसंयुतः ।। ८२ ।।
नवरात्रव्रते नित्यसर्वकल्याणसिद्धिदे ।
आचार्यतोषणातुष्टाब्रह्मविष्णुमहेश्वारा ।। ८३ ।।
प्राहद्युर्महतीं सिद्धिमपि दैवतल्लर्भां ।
शक्राया आपि दिक्पालाः केंकर्यप्राप्नुवंतिहि ।। ८४ ।।
कपिलाद्या महासिद्धावरदाः स्युर्नसंशयः ।
नवरात्रव्रतमिदं यावज्जीवं समाचरेत् ।। ८५ ।।
संकटेपि च संप्राप्ते वद्धविष्णोषु सस्वपि ।
नवरात्र प्रतकुर्याच्छ्रियस्कामो द्विजोत्तमः ।। ८६ ।।
व्रतभंगां भवेद्यस्य सकृदप्यवनीपत्ते ।
अरिष्टां जायते तस्य तस्मिन्वर्वेनासंशयः ।। ८७ ।।
इच्छन् समस्त्कल्याणराशिश्रोयः परयंपरंपरां ।
नवरात्रव्रतं कुर्याच्छ्रोमदष्टार्णे सिद्धये ।। ८८ ।।
सर्वासामपिविद्यानां नवारात्रव्रते शुभे ।
उदीरिता महासिद्धिर्ब्रह्मविद्भिसमोष्टताः ।। ८९ ।।
सारात्सारतं संषुरायं गुह्यं रत्यतमां शुभं ।
नवरात्रव्रतमिहं समस्ताधौधभंजनं ।। ९० ।।
वासंते नवरात्रेपि संप्राप्तो वसुधापते ।
आचार्यानुज्ञाया प्रातःस्नात्वा प्रतिपदादितः ।। ९१ ।।
समस्तन्याससहितां श्रीमदष्टाक्षरीशुभां ।
संकल्पार्कासहस्रीणि प्रजयेन्नवरात्रके ।। ९२ ।।
श्रीमंत्रीन्यतमं यश्चीज्जपेदके सहस्राक ।
प्रजपेदष्टसाहस्रं पंचसाहस्रकं तु वा ।। ९३ ।।
नक्ताश्येकांतराशीवाहविष्याशी दिने दिने ।
श्रीरामजन्मनवमीदिवसे सर्वसिद्धिदे ।। ९४ ।।
प्रातः स्रात्वा विशुद्धान्मास्वाचायंसौवसन्निधौ ।
विधिवत् संस्कृते वहाविक्षुखंडैर्घृतत्थतै ।। ९५ ।।
श्रीमदष्टार्णमंत्रेणशताधिकसहस्रकं ।
जुहुयाद्वित्वापत्रैर्वागव्याज्यत्रिभधुप्लुतै ।। ९६ ।।
प्. ८७ब्)
मधुन्नितयसंमिश्रेहविषावाहुने नृप ।
अथवा शुद्धगव्येनद्यानेन जुहुयाशुचिः ।। ९७ ।।
श्रीमंत्रेणहुनेत्यश्चात् त्रिशतं केवलं घृतं ।
पुरतोरतो जुहुयान्मंत्रैर्ष्टहदावरणोदितैः ।। ९८ ।।
श्रीहोमानंतरं रश्मिमंत्रेस्रिधाहुनेधद्वातः ।
जयाहि होमं कृत्वाथ कृत्वा ब्रह्मर्पणाहतिं ।। ९९ ।।
अग्निप्रदक्षिणीकृत्य नमस्कऋत्य ततः परं ।
आचार्याचरणांभोजद्वयसाययंगमादरात् ।। १०० ।।
नमस्कृत्यार्ययेद्धोमान्वर्षाशनमितं धनं ।
सालग्रामशिलां शुद्धानिक्षित्यांकाप्यपात्रके ।। १ ।।
कांस्ययाल्लेथवा कृत्वा श्रीश्रीशब्रह्मविद्यया ।
निष्णेर्द्वादशभिः स्वर्णैर्वसुनिष्कैरथापि वा ।। २ ।।
पंचनिष्कसुवर्णैवासंपूज्यश्रीजगत्पती ।
प्रीणा तु भगवान्साक्षाच्छीरामात्माश्रियःपतिः ।। ३ ।।
कौशल्यागर्भसंभुतो व्रतेनानेनसंततं ।
श्रीमदष्टाक्षरीविद्यासंसिद्धिमहतीमपि ।। ४ ।।
श्रीभूतीनाद्यतिः स्वामी दत्वात्रतुमांसहा ।
इति त्रद्वयेनाथ सालग्रामशिलाशुभां ।। ५ ।।
यथोक्त दक्षिणायुक्तामाचाय निवेदयेत् ।
सूक्ष्मवासोद्युगं दत्वा हरिचनमुत्तमं ।। ६ ।।
विभवे सत्यलंकारान् हृद्यात् कांचननिर्मितान् ।
अथाचायलत्रस्यकर्णे लंकरणादिकं ।। ७ ।।
अर्पयित्वारमावुध्यारेद्युर्ब्राह्मणानवं ।
नवभोज्याः सवासिन्योवासोभिर्दिक्षिणादिभिः ।। ८ ।।
संतोष्यवंधुभिः सार्धभुजीहन्नमादरात् ।
वासंते नवरात्रेपिव्रतं कृत्वेत्थमादरात् ।। ९ ।।
श्रीमदष्टाक्ष्रीसिद्धिसंघस्सलभते ध्रुवं ।
श्रीरामजन्मदिवसे श्रीमदष्टार्णविद्या ।। १० ।।
होमं कृत्वा विधानेन कोटि होमफललं लभेत् ।
श्रीरामजन्मदिविसेसालग्रामशिलांशुभां ।। १११ ।।
यथोक्तदक्षिणायुक्तादत्वाचार्याय ससाधकः ।
ब्रह्माण्डकोटिदानस्य फलमत्यंतमश्रुतं ।। १२ ।।
वासंते नवरात्रेपि श्रीमदष्टाक्षरं जपन् ।
पुरश्चर्याशतंफलं प्राप्नोत्यत्र न संशयः ।। १३ ।।
श्रीमदष्टार्णविद्याया दैवतैरपिदल्लभां ।
आवश्यं महतींसिद्धिमिहं च प्राप्यसाधकः ।। १४ ।।
प्. ८८अ)
चिरापुष्पमथारोग्यधनेरत्नादिसंकुलां ।
संप्राप्य महतीं लक्ष्मीवाक्यद्विं वा तुलां शुभां ।। १५ ।।
पुत्रपौत्रादिकामृद्विद्विंकान्भोगाक्ष्वमानुषान् ।
संप्रथकुलसाहस्रस्रसहितो भगवत्पदे ।। १६ ।।
रमते नात्रसंदेहो दिव्यकन्याशताचितः ।
अथापरं प्रवक्ष्यामि विशिष्टं पर्वसिद्धिदं ।। १७ ।।
श्रीमदष्टार्णविद्यास्सिद्धिदं याममात्रतः ।
अमार्कवासरयुतासोमेनेसहितापि वा ।। १८ ।।
भास्करग्रहणं तत्र जायते यदि भूयते ।
रविचूडामणिर्वाम्नायोगोयं समुदाहृतः ।। १९ ।।
संवत्सरैर्द्वौदशभिर्लभ्यते योगराडयं ।
अत्रजससंकृद्वापि कोटिशोजप्तमेवहि ।। २० ।।
अत्रिकपापिवाहत्याकोटिहोमसमोनहि ।
अत्रेकनिष्कस्वर्णे वा दत्वाचार्य यदांवुज ।। २१ ।।
शतमेरु प्रदानस्य फलमाप्नोति शाश्वतं ।
रविपर्वणि संप्राप्ते तत्पूर्वदिवं सत्रयं ।। २२ ।।
एकवारं हविभुजन् मनस्मन्नुक्तमप्यथ ।
भास्करग्रहणेस्पर्शकाले प्राते ततः परं ।। २३ ।।
केशवादि चतुर्विशन्नामान्युच्चार्य यत्नतः ।
स्तुत्वामसस्तुपायौद्यैर्विमुक्तस्सद्यरावहि ।। २४ ।।
गुरुपादोदकयीत्व त्रिधातः शुद्धचित्तवान् ।
आचासन्निधावग्निं प्रतिष्ठाप्यविधानतः ।। २५ ।।
उप्रतो जयान्मंत्रीवृहदावरणोदितैः ।
मंत्रैरात्येनगव्येन ततस्त्रिमधुसत्युतीः ।। २६ ।।
घृताभ्यक्तैस्तीलैहोमं मोक्षकालातमादरात् ।
कृत्वा श्रीमनुनायश्चीच्छातमष्टोत्तरं हुनेत् ।। २७ ।।
भगवद्रश्मिविद्याभिरपि हुत्वा घृतं सकृत् ।
प्रायश्चित्तहुतीर्हुत्वा कृत्वा ब्रह्मार्पणाहुतिं ।। २८ ।।
आचार्यचरणद्वंद्वं नत्वा साष्टंगमादरात् ।
दत्वा च स्त्रीसूक्ष्मीसिस्वर्ण निष्कसहस्रकं ।। २९ ।।
दद्यात्सस्यौद्यसंहितां महीगां च स दक्षिणं ।
यावच्छकामलंकारं दत्वा श्रीगुरवेथ वा ।। ३० ।।
वर्षाशनमितद्रव्यमर्कनिष्कमथापि वा ।
पंचनिष्कसुवर्णं वा निष्कत्रयमितं तु वा ।। ३१ ।।
अवश्यं गुरवेदयाद्वित्तशाक्यविवर्जितः ।
श्रोत्रियेभ्यः प्रदेद्यानिदशदानान्यतःपरं ।। ३२ ।।
आशक्तः सद्गुरोः कमलद्वयमेवदि ।
अभ्यर्चयेत्त्रिनिष्कादियावच्छवचमितौर्धनैः ।। ३३ ।।
प्. ८८ब्)
द्विजातिवर्ज्याः संभोज्यास्सुवासिन्योपियंचधा ।
इत्थं कृत्वा विधानेनेन ग्रहणे सांगमादरात् ।। ३४ ।।
महतीयापुरश्चर्यामयाप्रोक्ता पुरातवः ।
श्रीमदष्टार्णविद्यायास्ततोपि महती परां ।। ३५ ।।
अवश्यसिद्धिमाप्नोतिदैवतरपिदुर्लभां ।
आयुरारोग्यसहितः श्रियाधनदसन्निभः ।। ३६ ।।
वाचस्पति समस्सर्वविद्याभिरपिसंततं ।
प्राप्यवंशाभिवृद्धिं च कल्पातं वसुधापते ।। ३७ ।।
मानुषानपि दिव्यांश्च भुक्त्वा भोगान्मनोरमान् ।
कुलसाहस्रमादायवरीद्विष्णुयुर्रसुखी ।। ३८ ।।
रवींद्रग्रहणेप्रात्येनापि सूतकं स्पर्शया ।
रम्यमोक्षांते शुद्धारावहितातयः ।। ३९ ।।
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मातत्वरहस्ये दाशरथीये तंत्रे वेदार्थसंग्रहे
अष्टाविंशोध्यायः ।।</poem>
29nhajh6mhgn7jbdp4veet4zypgqio4
दाशरथीयतन्त्रम्/अध्यायः २९
0
163655
409310
2025-06-27T09:49:11Z
Shubha
190
{{header | title = [[../]] | author = | translator = | section = अध्यायः २९ | previous = [[../अध्यायः २८|अध्यायः २८]] | next = [[../अध्यायः ३०|अध्यायः ३०]] | notes = }} <poem> प्. ८८ब्) श्रीभगवानपुनरन्यत्प्रवक्ष्यामि श्र... नवीन पृष्ठं निर्मीत अस्ती
409310
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः २९
| previous = [[../अध्यायः २८|अध्यायः २८]]
| next = [[../अध्यायः ३०|अध्यायः ३०]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ८८ब्)
श्रीभगवानपुनरन्यत्प्रवक्ष्यामि श्रीमदष्टार्णेशाधमं |
एकेन दिवसे नैव समाहितमानाःश्चरा || १ ||
यापूवेमभक्षयानाम्नाततीयासमुदीरिता |
पूर्वोक्ता योगसहिता दैवतैरपिदुल्लेभा || २ ||
श्रीमदष्टार्साविद्यायास्सद्यस्सिद्धिकं परं |
भूयोपि संवः प्रवक्ष्यामि विशेषाद्वसधायते || ३ ||
आक्षयायांततीयायां यत्रोत्पन्नौस्म्यहं नृप |
यत्राविरासोत्कामलाभृगोःख्यात्यांत्रयीमयी || ४ ||
यत्तोत्पन्ना जगन्मातगिरिजाशंकरप्रिया |
यत्रोयमेभगवान्च्युतः प्रियमीश्वरीं || ५ ||
यत्रामूर्छकरस्यापि गौरीयाणि ग्रहः शुभः |
तत्राक्षर तृतीयायाश्रीमदष्टाक्षरं मनुं || ६ ||
समस्तन्याससहितं स्मृत्वा त्रिशातमादरात् |
श्रीमदष्टाक्षरी सिद्धिरवश्यं भवति ध्रुवं || ७ ||
व्यतीयातो महायोगः सर्वयोगोत्तमः स्मृतः |
अमावास्यापूर्णिमा च तद्वादश समास्मृता || ८ ||
तद्वादशसमंयर्नरविसंक्रमणं विदुः |
सविवारे संक्रमणं तद्वादशसंमस्मतं || ९ ||
तद्वादशसमः प्रोक्तो वासरोभार्गवः स्मृतः |
चंद्रचूडामणिसमोयेगश्रीद्धौदयःस्म्तः || १० ||
तद्वादश समोयोगो लक्ष्मीनारायणाभिधः |
वैशाखेमासियाश्चक्त्रततीयाक्षयसंज्ञित् || ११ ||
तत्सहस्रसापादेया माहासिद्धिवारीशुभा |
अक्षयांयाततृतीयायां मुक्तं योगत्रयं शुभं || १२ ||
प्. ८९अ)
लभ्यते षष्टिभिर्वर्षन्नन्यथावसुधायत |
अक्षयायां तृतीयाया मुक्तोयोगोभवेद्यदि || १३ ||
हीमाद्धि कर्मणं सिद्धिर्मतीह्यार्त्तदेव हि |
विधानामुपदिष्टानामपितस्मिन् दिनेशूसे || १४ ||
आचार्यवदनांभोतात्पुनरध्यनं यदि |
अवश्यं महनीसिद्विस्सद्यरानाक्षया भवेत् || १५ ||
कुब्जामत्ताश्च वृद्धाश्च वालाः काणश्चवंगवः |
नपुसकाश्चयुर्मत्राः स्त्रीमंत्रावैदिणस्तथा || १६ ||
आदिमित्रविचेकादिविशोधन विवर्जिताः |
निषिद्धमासतारेषु लब्धाश्च शुभसिद्धिदाः || १७ ||
दीक्षासंस्कारसहिताजपहोमविवर्जितः |
पुरश्चरणनीनाश्चन्यासहीमाश्च संततं || १८ ||
आचार्यर्यदक्षिणहीना आचार्यवदनांवुजात् |
प्राप्ता अवश्यंभूयोपि सच्छिष्यैर्द्वित्यवेक्षये || १९ ||
सद्यस्सिद्धाभवत्यंवलक्ष्मीशानुग्रहप्रदाः |
तत्र प्रातः समुह्यायनत्वाचार्य पदांवुजं || २० ||
ब्रह्मविद्यां प्रजप्तादौ त्रिशतं वाचतुःशतं |
अवश्यं भगवद्रश्मिमालिकं पंचद्यास्मरेत् || २१ ||
स्रात्वा सहस्रं गायत्रीं जपेसंचशतं तु वा |
त्रिशतं वातयेच्छद्वानान्प्रथासिद्धिभागसौ || २२ ||
नित्यहोमसमाप्याथगच्छेदाचर्यसत्रिधि |
प्रार्थद्वंशः साक्षादीवां भगवन्मयं || २३ ||
श्रीमन्नाचार्य सर्वज्ञसद्गुरो करुणनिधि |
भवत्पादाव्रयुग्मस्य किंकरीस्सिदिनेदिने || २४ ||
काये न मनसा वाआन्याणैरर्थैश्चयुष्कलैः |
करोमितवपादात्वकैकर्पशाश्धिमां विभो || २५ ||
याज्जीवमहं स्वाभिन्नाचार्य करुणानिधे |
अवश्यं तवयाद्दात्व किंकरोस्मिद्यशाधिमां || २६ ||
इत्याचार्यत्रिभिः श्लोकैः संप्रार्थ्यवहशाननृप |
भूयः समस्तविद्यानां ग्रहणय समाहितः || २७ ||
प्रार्थयेत् सकलैरर्थैः प्राणेरपि महीर्यत |
*** आचार्योपि कृपासिधुर्वैदिकैपि वा || २८ ||
श्रीमदष्टाणया हुत्वा शतमष्टोत्तरंघृतं |
भगवद्रश्मिविद्याभिरेके कामाहुति हुनेत् || २९ ||
प्रदक्षिणं परीत्याग्निं नमस्कृत्य ततः परं |
ह्यवामभागे संस्थाप्य सच्छिष्यं करुणानिधिः || ३० ||
प्. ८९ब्)
स्वगुरुमनसानत्वाभूयोभूयोगणधियं |
दत्तात्रेयं महात्मानं कृष्णद्वैयायनं मुनिं || ३१ ||
गायत्रीपादितः कृत्वा भगवद्रश्मिमालिकां |
शिष्यस्यदक्षिणे कर्णे प्रहृद्याद्वसुधापते || ३२ ||
निधाय शिष्या शिरसिद्वक्षिणं हस्तमादरात् |
शिष्यस्य दक्षिणेकर्णो प्रदद्याह्रश्मिमालिकां || ३३ ||
तस्यै कृतार्थता दत्वा शिष्यायाचार्य आदरात् |
उपदिष्टांश्च भूयोपिन्यानुयद्दिशेद्वधः || ३४ ||
दृत्वान्यासान्समस्तांश्चन्यस्य प्रत्यगमादरान् |
राज्ञी समस्तविद्यानाश्रीमदष्टाक्षरीशुभां || ३५ ||
त्रिवारं दक्षिणेकर्णेदद्याच्छिष्यस्य सद्गुरुः |
कृतार्थोस्मीतिमत्वासावर्तवासीमहामतिं || ३६ ||
आचार्याचरणद्वंद्वं वहवस्तुभिरर्चयेत् |
विधानां ग्रहणार्थाय सर्वसयस्समृद्धये || ३७ ||
द्वौदशवधिपिमासेषु वैशाखः सर्वसिद्धिदः |
यस्मिन्मासेतसमपिदत्तचुलुकमात्रकं || ३८ ||
सर्वदानफलं प्राहः किमुहव्यप्रदानतः |
उपानेहौ च छत्रं च मधुदध्योहनादिकं || ३९ ||
वैशाखे संप्रदर्त्रानित्यदद्युर्भाग्यमक्षयं |
यस्मनासीयौर्णमालीविशारयासहिताशुभा || ४० ||
सर्वसिद्धिकरी सद्योभोगस्वगोयवर्गदा |
योगा भवंति यद्यन्न मया पूर्वमुदीरिताः || ४१ ||
किंच शोभनद्योगोवात्थार्तिगजेपि वा भवेत् |
राजराजमिमं प्राहुलक्ष्मी नारायणाभिधं || ४२ ||
गौरीशंकरयोगं च श्रीगौरीयोगमययध |
आवश्यं सर्वविद्यानामचार्यवदनांवुजात् || ४३ ||
ग्रहणाद्देवसिद्धिस्यात्किमुहीमादिभिर्नृप |
इत्थं समस्तविद्यानामाचार्यवदनांवुजात् || ४४ ||
संप्राप्य ग्रहणं शिष्यः कृतार्थेस्सीति चिंतयेत् |
आचार्यनुज्ञया तत्र विधिवत् संस्कृतेनले || ४५ ||
एकैकामाहुतिं मन्नैहादावरणोदितैः |
कृत्वाप्य श्रिमदीष्टार्ण मनुनासाधकोत्तमः || ४६ ||
मधुत्रितयसंयुक्तं पापसंतोद्यातयुतं |
शताधिकंहानेच्छीमद्दष्टार्यो न सहस्रकं || ४७ ||
श्रीमंत्रेण हुनेत्य श्रीत्त्रिशतंघृतमादरात् |
भगवद्रश्मिविद्याभिर्हुनेद्दव्यं घृतं त्रिधा || ४८ ||
यद्वेक्षुयर्वमिर्गव्यघृतयुक्तैरथोदरात् |
श्रीमदष्टार्णमंत्रणशताधिकसहस्रकं || ४९ ||
प्. ९०अ)
हुत्वा गव्यघृतेनाथ त्रिशतं रमया हुनेत् |
भगवद्रश्मि विद्याभिस्त्रिधा हुत्वाज्यमादरात् || ५० ||
प्रायश्चित्ताहुतीः कृत्वा कृत्वा ब्रह्मार्पणाहुतिं |
प्रदक्षिणं नमस्कृसजातवेदसमादरात् || ५१ ||
त्रिशतं पूजयेत् पश्चीच्छ्रीश्रीशब्रह्मविद्यया |
मल्लिकाकुसुमैर्वापिकरेवीरैरथपि वा || ५२ ||
कमलैरुत्पलैर्वापिनंद्यावर्व्रैरथापि च |
आर्चद्विल्वपत्रे वा तुलसीदलमिश्रितैः || ५३ ||
केतकीकुसुसाद्यैर्वासुगंधिभिरथाचेयेत् |
फलपंचकमादायानसंसमनोहरं || ५४ ||
बद्धासत्रयं त्रम्यं स्थूलं बहुफलान्वितं |
निक्षिप्य भूतले शूद्वे यत्किं वित्पात्रमध्यतः || ५५ ||
पात्रं वा राजितं कांस्यपात्रं व मध्यमे फले |
निक्षिप्य भगवन्मूर्तिसालग्रामशिलांशुभां || ५६ ||
संस्थाप्य मध्यमे तत्रं सांगावरणमर्चयेत् |
अष्टोत्तरशतं निष्कसुवर्णैर्ब्रह्मविद्यया || ५७ ||
*** च शता वापियं च विंशतिरंव वा |
ब्रह्मविद्यां समुच्चार्यलक्ष्मीनारायणौ यजेजेत् || ५८ ||
अत्र सूयाज्य सहितं शाकभक्ष्यसमन्वितं |
दध्योदनं ततो दद्याच्छीश्रीश्रीभ्यां महीयते || ५९ ||
उपचारैस्समभ्यर्च्य ततो नीराजनीदिभिः |
आचार्यं समलंकृत्यं वस्त्रालंकरणादिभिः || ६० ||
अवश्यं कुंडलयुगं दत्वाचार्यस्य कर्णयोः |
सूक्ष्मवासोपुगंदत्वा सालग्रामशिलां शुभां || ६१ ||
संपूजितद्रव्ययुतमिमंमंत्रं समुच्चरन् |
समाहितमनादयाच्छीमदष्टार्णसिद्धये || ६२ ||
फलं मनोरथकलं प्रददाति सदानृणं |
फलस्यास्यप्रदीनेन ममसंतुमनोरथाः || ६३ ||
सालग्रामशिलाचक्रे ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः |
शक्ताद्या अपि दिक्पालानिवंसंत्यमराधियः || ६४ ||
रमासरस्वतीगौरीशचीमुख्याश्च शक्तयः |
निवसंतिसदीसर्वसिद्धेयोपि जगत्त्रयं || ६५ ||
तस्मादिमाभगवतः शालग्रामसिसांशुभां |
सर्वदेवमयींदीस्ये प्रीतोमेस्तश्रियःपतिः || ६६ ||
इत्थं फलद्रव्ययुतां सालग्रामशिलाशुभां |
दद्यादाधार्यहस्तान्नं श्रीश्रीशप्रीतिकारिणीं || ६७ ||
फलमध्यस्थिते पात्रे यद्वा भगवतः शुभां |
सालग्रामशिलां शुद्धसांपूज्य कुसुमादिभिः || ६८ ||
दत्वादध्योदनं तत्र फलसूयादिसंयुतं |
तत्सन्निधावक्षाचार्यकर्णयोः कुंडलद्वयं || ६९ ||
प्. ९०ब्)
सूक्ष्मं वासेयुगं दत्वा फलपंचक संयुता |
सालग्रामशिलां श्रद्धां पूतितां यात्र संयुतां || ७० ||
तद्यादाचार्यहस्ताव्रे अक्षिणासहितामथ |
सर्वस्वं दक्षिणप्रोका वर्षाशनधनं तु वा || ७१ ||
वर्षाशनमितं द्रव्यं शतनिष्कमुदाहृतं |
तदर्धं वा तदर्धं वा हाचार्यहस्तावेदक्षिणासहिताभयसवेस्वं
दक्षिणाप्रोक्त वर्षाशनधनं नु वा तन्न्यनं नहि भूयते || ७२ ||
अर्कनिष्कंदरिद्रश्चेत्कुंडलद्वितयान्वित |
समर्प्य श्रीमदष्टार्णसंसिद्धिप्राप्नुयात्परां || ७३ ||
अथाचार्य प्रियां साक्षान्महालक्ष्मीधियार्द्धयेत् |
वस्त्रैराभरणैर्दिव्यैर्भोजनाद्यैरथादरात् || ७४ ||
यथाशक्तिधनं वापि मंदभाग्यः संदार्पयेत् |
पंचविंशंतिसरव्याकविप्रेभ्योदधिसंयुतं || ७५ ||
भक्ष्या सूयं घृतोपेतूं दद्यादभमथादरात् |
ततः षड्गससूयाज्यभक्ष्यभोज्यैः सुवासिनीः || ७७ ||
श्रीवुध्याद्वादशभ्यर्च्योदक्षिणाभिश्चतोषयेत् |
आचार्यचरणांभोज प्रक्ष्यातितजल.,म् शुभं || ७८ ||
पीत्वा सद्यो विशुद्धात्मातच्छेषं भोजयेद्वती |
उपानहौ च छत्राणिव्यं तनान्यपि भूयते || ७८ ||
चुक्तवद्भ्योद्विजात्तिभ्योदद्यादक्षिणया सह |
आचार्यालिंगनं प्राप्य तदाशीर्भिः कृतादरः || ७९ ||
आक्षयां महतीं सिद्धिं प्राप्नुयादुर्लभां तथा |
कोटी सहस्रसंख्याकस्वर्णदक्षिणयान्वितं || ८० ||
आश्वमेधशंत कृत्वा यत्फलं पुरुषोष्णुते |
इत्थमेतुद्धतं सांगं कृत्वा तत्फलमश्रुते || ८१ ||
महातीयापुरश्चर्यासांगापूर्वं मयेरिता |
तादशीनां शतं सामं कृतं तेन न संशयः || ८२ ||
आचार्यानुग्रहात् साक्षात्स्वन्येवोवापि श्रियः पतिं |
निवतातनयारूढे ब्रह्मरुद्रादिभिर्वृर्त || ८३ ||
सर्वसिद्धिप्रदातारं शेखचक्रादिचिह्नितं |
इक्षा तदादितोमासिमासि स्वप्ने श्रियःपतिं || ८४ ||
मनोरथप्रदातारं पश्यत्येवमहीते |
साक्षात्स्वमेपि वा दृष्टे कमलाधिपतौहणै || ८५ ||
किं किं न साध्यते तेन ऐवतैरपि दुर्लभं |
चिराद्युष्यमनारोग्यं भाग्यं माहदचंचलं || ८६ ||
श्रीरष्टगुणां संयुक्ता धनधान्यादिसंकुलां |
सर्वविद्याधियत्यं च जातिस्मरणनुत्तमं || ८७ ||
चिकालज्ञानसंपत्रिः सर्वज्ञत्वं मानोज्ञता |
परकायं प्रवेशादि सामर्थ्यं वाक्षयं नृप || ८८ ||
प्. ९१अ)
सिर्व्रत्येव हि तस्याशु योगश्चीष्टांगसंयुतः |
त्रैलोक्यनायकः स्वामी भगवानिंदिरापतिः || ८९ ||
स्वसारूप्यं ददात्यस्मैदुर्लभांश्च मनोरथान् |
अस्मिन्नर्थेशुभंजीतं दक्षिणामूर्तिनापुरा ||
यार्यतीनंदि चंडीशगणेशेभ्यो महात्मना || ९० ||
वैशाखमासेदिवसेक्षयारव्ये युक्तिकर्मणः |
स शोभने वा भृगुवारयुक्ते विरिंचितक्षन्नयुते तथैव || ९१ ||
वृषस्थिते दैवगुणै तथार्केमेषुगतेमेषंगतेभृगौ च |
योगं महाराजमुदाहरंति लक्ष्मीपतियोगमथाहुरन्ये || ९२ ||
उमामहेशभिधमाहुरेकेगौरीरमायोगमुदाहरंति |
आलभ्यराषौधुहवषलभ्योगाधिराजोभूविद्यार्थिवेद || ९३ ||
अधीतविद्या आधीतविद्याश्चवश्यंमीचार्ययुस्वारविंदात् |
प्राप्तास्तद्दैवाक्षयसिद्धिदाः स्युरत्राप्यमुत्रापिसदाद्विजानीं || ९४ ||
अनंतशायी भगवान्मुकुंडो लक्ष्मीपतिदैवत सार्वभौमः |
स्वेद्या गृहीतुर्द्विवसेक्षयेस्मिन् होमादिकर्तश्चवणन् ददाति || ९५ ||
वैशाखमासेसेदिवसेक्षयेस्मिभवश्यश्यमाचर्यमुखारविंदात् |
संप्राप्तविद्या आपि सर्वसिद्धिसमन्विताः स्युर्नहिंसंशवोत्र || ९६ ||
विशेषतः श्रीपतिमंत्रराजमष्टाक्षरं न्यास रहस्ययुक्तं |
हुत्वाथ जप्त्वाय गुरोर्मुखाहाद्वधापि साक्षाद्भावतमेति || ९७ ||
गुरोः प्रसादेन समस्तविद्या सर्वापितस्मिनिवसेसक्षयारष्ये |
उवाथ सिद्धिमहतीं पितृणां शतान्वितो दिव्यपदं प्रयाति || ९८ ||
वैशाखेमासे दिवसे तृतीये योगत्रयं यस्याद्यदि तत्र भूय |
अवश्यमाचार्यमुखारविंदादृष्टाक्षरंन्याससमेतमादौ || ९९ ||
अब्ध्वाथ हुत्वा हविष्याधनेन स्वाचार्य पादांवुजमर्चयित्वा |
इहापि सीद्धीं महतीमवाप्यसिद्यष्टकं चापुरणेगतां च || १०० ||
वंशामिवृद्धिसफलार्थसिद्धिमंते कुलानां शतसंयुतो सौ |
विमानसारुह्यरमाधिवां सप्रयाति वैकुंठपदं महीश || १ ||
नानेयोगेन समोसियोगोलक्ष्मीशसाक्षीत्कृतिसिद्धिदायी |
अनेनलक्ष्मीशमसूत्रत्वासकृद्वापि जगत्पतिः स्यात् || २ ||
आचार्यपादाब्जायुगं प्रपन्नाः प्राणैश्च रत्नैर्मनसापिवा वा |
समस्तदेवैरपि पूज्यमानाप्रयांति सर्वेशितसिद्धिमग्र्यां || ३ ||
प्. ९१ब्)
भुक्तेश्च मुक्तेश्च मनोरथानामाचार्य शुश्वषणमेव मूलं |
जानी हि मामेव पुरुंगुरुणामाचार्यमीशं जगदेवनाथ || ४ ||
एतावदेवास्विलवेदशास्त्रमारं रहस्यं परमं पवित्रं |
मयायिरक्तेण विरिचिं मुख्यैर्निश्चित्यनिश्चित्य च भूधभूय उक्तं || ५ ||
नाचार्यया व्रपुणद्वरिष्टं संपूज्यमस्तीहजगत्पवित्रं |
नानेन योगेन समोस्ति योगः सत्यपुनस्सत्यमिदं महीश || ६ ||
सद्योमहीसिद्धिकरोमन्हनां नानेन योगेन समोस्ति लोके |
विशेषतोष्टाक्षरसिद्धिदोयमाचार्यसंतोषणतोनृपाल || ७ ||
वैशाखमासे दिवसेक्षयेस्मिन् न्यासौः सहादाक्षरमंत्रजायी |
सहस्रमेकं त्रिशतं शतं वा सधोमहासिद्धिसमौप्रयाति || ८ ||
विशेषतोष्टाक्षरविद्ययायोहविहुनेद्रव्यघृतेन युक्तं |
वैल्वैश्चपत्रैस्त्रिमधुत्प्रतं च स्वाचार्य पाहास्रयुगेथभूय || ९ ||
साकल्युवित्तान्वितयानप्तानिफलानिवासो युगलान्वितानि |
दत्वाम्र संभूत भवानि सद्योरमारमाधीश महाप्रसादात् || १० ||
संप्राप्यसिद्धिं जगदेकनाथं पश्यत्यसौनेत्रयुगेन साक्षात् |
लक्ष्मीकलापूर्णशरीरधारीकंदर्पसाहस्रसंमानतेजाः || १११ ||
वाचस्पतिः श्रीपतिरिष्टाभोगानवाप्यपुत्रैस्सहपौत्रसंद्यैः |
प्रयाति लक्ष्मीपतिधामदिव्यं स प्रीप्राप्यदीर्घापुररोगताव || १२ ||
एतावत्सर्ववेदोनोसारभूतार्थसंग्रहं |
निणीतमत्यकृष्णरुद्रमुख्यैः सुरोत्तमैः || १३ ||
महादरिद्रोप्यष्टार्णमंत्रवानसद्येदिने |
हुत्वा जप्त्वापि वा विद्यांमार्यवाथ तत्सृत् || १४ ||
गृहसमार्जनालेपवस्त्रप्रक्षालनादिभिः |
संसेव्यवत्सरयुगं पादं संवाहनादिभिः || १५ ||
संतोषयेदयस्वस्यपुत्रिकां वा समर्पयेत् |
विद्यासिद्धिमवाप्यासौभगवंतं प्रपश्यति || १६ ||
इति स्वायंभूवेनापि मनुना पूर्वमीरित |
दीक्षिणामूर्तिनाप्येतहीतं भत्येभ्य आदरात् || १७ ||
त्वमपि श्रद्धया भूप सर्वयोगसमन्वितः |
अक्ष्ययेस्मिन् दिने भूयकुरुव्रतमनुत्तमं || १८ ||
अवश्यं महतीसिद्धिदुर्लभा दैवतौरपि |
भविष्यति न संदेहौ माकुसद्यात्रसंशयं || १९ ||
वैष्णवात्सकलामंत्री सावित्राश्चमनूत्रमान् |
गाणयत्यमहामंत्रीरमायामनवोपि च || २० ||
प्. ९२अ)
पार्वत्याश्च महामंत्रास्तथामाहेश्वरादपि |
क्षेत्रपालकमंत्राश्चचादीमीनवोपि च || २१ ||
जप्ताहुता अक्षयेस्मिन् दिवसे सर्वसिद्धिद |
सद्यः सिद्धाभवंतेव संशयोनात्रविद्यते || २२ ||
अक्षयेदिनमात्रेपि कृत्वा हीमतयादिकं |
अक्षयाभीष्टसंसिद्धिं प्राप्तोत् यत्र न संशयः || २३ ||
इति दाशरथीयेस्मिन्तंत्रेवेदीर्थसंग्रहे |
एकोनत्रिंश उतो यमध्यायोखिलकामधुक् || २४ ||
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीये तंत्रे वेदार्थसंग्रहे
एकोनत्रिशोध्यायः ||</poem>
n1wm8o181pmfe56hagw9kxkntf1ciji
409311
409310
2025-06-27T09:49:32Z
Shubha
190
409311
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः २९
| previous = [[../अध्यायः २८|अध्यायः २८]]
| next = [[../अध्यायः ३०|अध्यायः ३०]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ८८ब्)
श्रीभगवानपुनरन्यत्प्रवक्ष्यामि श्रीमदष्टार्णेशाधमं ।
एकेन दिवसे नैव समाहितमानाःश्चरा ।। १ ।।
यापूवेमभक्षयानाम्नाततीयासमुदीरिता ।
पूर्वोक्ता योगसहिता दैवतैरपिदुल्लेभा ।। २ ।।
श्रीमदष्टार्साविद्यायास्सद्यस्सिद्धिकं परं ।
भूयोपि संवः प्रवक्ष्यामि विशेषाद्वसधायते ।। ३ ।।
आक्षयायांततीयायां यत्रोत्पन्नौस्म्यहं नृप ।
यत्राविरासोत्कामलाभृगोःख्यात्यांत्रयीमयी ।। ४ ।।
यत्तोत्पन्ना जगन्मातगिरिजाशंकरप्रिया ।
यत्रोयमेभगवान्च्युतः प्रियमीश्वरीं ।। ५ ।।
यत्रामूर्छकरस्यापि गौरीयाणि ग्रहः शुभः ।
तत्राक्षर तृतीयायाश्रीमदष्टाक्षरं मनुं ।। ६ ।।
समस्तन्याससहितं स्मृत्वा त्रिशातमादरात् ।
श्रीमदष्टाक्षरी सिद्धिरवश्यं भवति ध्रुवं ।। ७ ।।
व्यतीयातो महायोगः सर्वयोगोत्तमः स्मृतः ।
अमावास्यापूर्णिमा च तद्वादश समास्मृता ।। ८ ।।
तद्वादशसमंयर्नरविसंक्रमणं विदुः ।
सविवारे संक्रमणं तद्वादशसंमस्मतं ।। ९ ।।
तद्वादशसमः प्रोक्तो वासरोभार्गवः स्मृतः ।
चंद्रचूडामणिसमोयेगश्रीद्धौदयःस्म्तः ।। १० ।।
तद्वादश समोयोगो लक्ष्मीनारायणाभिधः ।
वैशाखेमासियाश्चक्त्रततीयाक्षयसंज्ञित् ।। ११ ।।
तत्सहस्रसापादेया माहासिद्धिवारीशुभा ।
अक्षयांयाततृतीयायां मुक्तं योगत्रयं शुभं ।। १२ ।।
प्. ८९अ)
लभ्यते षष्टिभिर्वर्षन्नन्यथावसुधायत ।
अक्षयायां तृतीयाया मुक्तोयोगोभवेद्यदि ।। १३ ।।
हीमाद्धि कर्मणं सिद्धिर्मतीह्यार्त्तदेव हि ।
विधानामुपदिष्टानामपितस्मिन् दिनेशूसे ।। १४ ।।
आचार्यवदनांभोतात्पुनरध्यनं यदि ।
अवश्यं महनीसिद्विस्सद्यरानाक्षया भवेत् ।। १५ ।।
कुब्जामत्ताश्च वृद्धाश्च वालाः काणश्चवंगवः ।
नपुसकाश्चयुर्मत्राः स्त्रीमंत्रावैदिणस्तथा ।। १६ ।।
आदिमित्रविचेकादिविशोधन विवर्जिताः ।
निषिद्धमासतारेषु लब्धाश्च शुभसिद्धिदाः ।। १७ ।।
दीक्षासंस्कारसहिताजपहोमविवर्जितः ।
पुरश्चरणनीनाश्चन्यासहीमाश्च संततं ।। १८ ।।
आचार्यर्यदक्षिणहीना आचार्यवदनांवुजात् ।
प्राप्ता अवश्यंभूयोपि सच्छिष्यैर्द्वित्यवेक्षये ।। १९ ।।
सद्यस्सिद्धाभवत्यंवलक्ष्मीशानुग्रहप्रदाः ।
तत्र प्रातः समुह्यायनत्वाचार्य पदांवुजं ।। २० ।।
ब्रह्मविद्यां प्रजप्तादौ त्रिशतं वाचतुःशतं ।
अवश्यं भगवद्रश्मिमालिकं पंचद्यास्मरेत् ।। २१ ।।
स्रात्वा सहस्रं गायत्रीं जपेसंचशतं तु वा ।
त्रिशतं वातयेच्छद्वानान्प्रथासिद्धिभागसौ ।। २२ ।।
नित्यहोमसमाप्याथगच्छेदाचर्यसत्रिधि ।
प्रार्थद्वंशः साक्षादीवां भगवन्मयं ।। २३ ।।
श्रीमन्नाचार्य सर्वज्ञसद्गुरो करुणनिधि ।
भवत्पादाव्रयुग्मस्य किंकरीस्सिदिनेदिने ।। २४ ।।
काये न मनसा वाआन्याणैरर्थैश्चयुष्कलैः ।
करोमितवपादात्वकैकर्पशाश्धिमां विभो ।। २५ ।।
याज्जीवमहं स्वाभिन्नाचार्य करुणानिधे ।
अवश्यं तवयाद्दात्व किंकरोस्मिद्यशाधिमां ।। २६ ।।
इत्याचार्यत्रिभिः श्लोकैः संप्रार्थ्यवहशाननृप ।
भूयः समस्तविद्यानां ग्रहणय समाहितः ।। २७ ।।
प्रार्थयेत् सकलैरर्थैः प्राणेरपि महीर्यत ।
*** आचार्योपि कृपासिधुर्वैदिकैपि वा ।। २८ ।।
श्रीमदष्टाणया हुत्वा शतमष्टोत्तरंघृतं ।
भगवद्रश्मिविद्याभिरेके कामाहुति हुनेत् ।। २९ ।।
प्रदक्षिणं परीत्याग्निं नमस्कृत्य ततः परं ।
ह्यवामभागे संस्थाप्य सच्छिष्यं करुणानिधिः ।। ३० ।।
प्. ८९ब्)
स्वगुरुमनसानत्वाभूयोभूयोगणधियं ।
दत्तात्रेयं महात्मानं कृष्णद्वैयायनं मुनिं ।। ३१ ।।
गायत्रीपादितः कृत्वा भगवद्रश्मिमालिकां ।
शिष्यस्यदक्षिणे कर्णे प्रहृद्याद्वसुधापते ।। ३२ ।।
निधाय शिष्या शिरसिद्वक्षिणं हस्तमादरात् ।
शिष्यस्य दक्षिणेकर्णो प्रदद्याह्रश्मिमालिकां ।। ३३ ।।
तस्यै कृतार्थता दत्वा शिष्यायाचार्य आदरात् ।
उपदिष्टांश्च भूयोपिन्यानुयद्दिशेद्वधः ।। ३४ ।।
दृत्वान्यासान्समस्तांश्चन्यस्य प्रत्यगमादरान् ।
राज्ञी समस्तविद्यानाश्रीमदष्टाक्षरीशुभां ।। ३५ ।।
त्रिवारं दक्षिणेकर्णेदद्याच्छिष्यस्य सद्गुरुः ।
कृतार्थोस्मीतिमत्वासावर्तवासीमहामतिं ।। ३६ ।।
आचार्याचरणद्वंद्वं वहवस्तुभिरर्चयेत् ।
विधानां ग्रहणार्थाय सर्वसयस्समृद्धये ।। ३७ ।।
द्वौदशवधिपिमासेषु वैशाखः सर्वसिद्धिदः ।
यस्मिन्मासेतसमपिदत्तचुलुकमात्रकं ।। ३८ ।।
सर्वदानफलं प्राहः किमुहव्यप्रदानतः ।
उपानेहौ च छत्रं च मधुदध्योहनादिकं ।। ३९ ।।
वैशाखे संप्रदर्त्रानित्यदद्युर्भाग्यमक्षयं ।
यस्मनासीयौर्णमालीविशारयासहिताशुभा ।। ४० ।।
सर्वसिद्धिकरी सद्योभोगस्वगोयवर्गदा ।
योगा भवंति यद्यन्न मया पूर्वमुदीरिताः ।। ४१ ।।
किंच शोभनद्योगोवात्थार्तिगजेपि वा भवेत् ।
राजराजमिमं प्राहुलक्ष्मी नारायणाभिधं ।। ४२ ।।
गौरीशंकरयोगं च श्रीगौरीयोगमययध ।
आवश्यं सर्वविद्यानामचार्यवदनांवुजात् ।। ४३ ।।
ग्रहणाद्देवसिद्धिस्यात्किमुहीमादिभिर्नृप ।
इत्थं समस्तविद्यानामाचार्यवदनांवुजात् ।। ४४ ।।
संप्राप्य ग्रहणं शिष्यः कृतार्थेस्सीति चिंतयेत् ।
आचार्यनुज्ञया तत्र विधिवत् संस्कृतेनले ।। ४५ ।।
एकैकामाहुतिं मन्नैहादावरणोदितैः ।
कृत्वाप्य श्रिमदीष्टार्ण मनुनासाधकोत्तमः ।। ४६ ।।
मधुत्रितयसंयुक्तं पापसंतोद्यातयुतं ।
शताधिकंहानेच्छीमद्दष्टार्यो न सहस्रकं ।। ४७ ।।
श्रीमंत्रेण हुनेत्य श्रीत्त्रिशतंघृतमादरात् ।
भगवद्रश्मिविद्याभिर्हुनेद्दव्यं घृतं त्रिधा ।। ४८ ।।
यद्वेक्षुयर्वमिर्गव्यघृतयुक्तैरथोदरात् ।
श्रीमदष्टार्णमंत्रणशताधिकसहस्रकं ।। ४९ ।।
प्. ९०अ)
हुत्वा गव्यघृतेनाथ त्रिशतं रमया हुनेत् ।
भगवद्रश्मि विद्याभिस्त्रिधा हुत्वाज्यमादरात् ।। ५० ।।
प्रायश्चित्ताहुतीः कृत्वा कृत्वा ब्रह्मार्पणाहुतिं ।
प्रदक्षिणं नमस्कृसजातवेदसमादरात् ।। ५१ ।।
त्रिशतं पूजयेत् पश्चीच्छ्रीश्रीशब्रह्मविद्यया ।
मल्लिकाकुसुमैर्वापिकरेवीरैरथपि वा ।। ५२ ।।
कमलैरुत्पलैर्वापिनंद्यावर्व्रैरथापि च ।
आर्चद्विल्वपत्रे वा तुलसीदलमिश्रितैः ।। ५३ ।।
केतकीकुसुसाद्यैर्वासुगंधिभिरथाचेयेत् ।
फलपंचकमादायानसंसमनोहरं ।। ५४ ।।
बद्धासत्रयं त्रम्यं स्थूलं बहुफलान्वितं ।
निक्षिप्य भूतले शूद्वे यत्किं वित्पात्रमध्यतः ।। ५५ ।।
पात्रं वा राजितं कांस्यपात्रं व मध्यमे फले ।
निक्षिप्य भगवन्मूर्तिसालग्रामशिलांशुभां ।। ५६ ।।
संस्थाप्य मध्यमे तत्रं सांगावरणमर्चयेत् ।
अष्टोत्तरशतं निष्कसुवर्णैर्ब्रह्मविद्यया ।। ५७ ।।
*** च शता वापियं च विंशतिरंव वा ।
ब्रह्मविद्यां समुच्चार्यलक्ष्मीनारायणौ यजेजेत् ।। ५८ ।।
अत्र सूयाज्य सहितं शाकभक्ष्यसमन्वितं ।
दध्योदनं ततो दद्याच्छीश्रीश्रीभ्यां महीयते ।। ५९ ।।
उपचारैस्समभ्यर्च्य ततो नीराजनीदिभिः ।
आचार्यं समलंकृत्यं वस्त्रालंकरणादिभिः ।। ६० ।।
अवश्यं कुंडलयुगं दत्वाचार्यस्य कर्णयोः ।
सूक्ष्मवासोपुगंदत्वा सालग्रामशिलां शुभां ।। ६१ ।।
संपूजितद्रव्ययुतमिमंमंत्रं समुच्चरन् ।
समाहितमनादयाच्छीमदष्टार्णसिद्धये ।। ६२ ।।
फलं मनोरथकलं प्रददाति सदानृणं ।
फलस्यास्यप्रदीनेन ममसंतुमनोरथाः ।। ६३ ।।
सालग्रामशिलाचक्रे ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।
शक्ताद्या अपि दिक्पालानिवंसंत्यमराधियः ।। ६४ ।।
रमासरस्वतीगौरीशचीमुख्याश्च शक्तयः ।
निवसंतिसदीसर्वसिद्धेयोपि जगत्त्रयं ।। ६५ ।।
तस्मादिमाभगवतः शालग्रामसिसांशुभां ।
सर्वदेवमयींदीस्ये प्रीतोमेस्तश्रियःपतिः ।। ६६ ।।
इत्थं फलद्रव्ययुतां सालग्रामशिलाशुभां ।
दद्यादाधार्यहस्तान्नं श्रीश्रीशप्रीतिकारिणीं ।। ६७ ।।
फलमध्यस्थिते पात्रे यद्वा भगवतः शुभां ।
सालग्रामशिलां शुद्धसांपूज्य कुसुमादिभिः ।। ६८ ।।
दत्वादध्योदनं तत्र फलसूयादिसंयुतं ।
तत्सन्निधावक्षाचार्यकर्णयोः कुंडलद्वयं ।। ६९ ।।
प्. ९०ब्)
सूक्ष्मं वासेयुगं दत्वा फलपंचक संयुता ।
सालग्रामशिलां श्रद्धां पूतितां यात्र संयुतां ।। ७० ।।
तद्यादाचार्यहस्ताव्रे अक्षिणासहितामथ ।
सर्वस्वं दक्षिणप्रोका वर्षाशनधनं तु वा ।। ७१ ।।
वर्षाशनमितं द्रव्यं शतनिष्कमुदाहृतं ।
तदर्धं वा तदर्धं वा हाचार्यहस्तावेदक्षिणासहिताभयसवेस्वं
दक्षिणाप्रोक्त वर्षाशनधनं नु वा तन्न्यनं नहि भूयते ।। ७२ ।।
अर्कनिष्कंदरिद्रश्चेत्कुंडलद्वितयान्वित ।
समर्प्य श्रीमदष्टार्णसंसिद्धिप्राप्नुयात्परां ।। ७३ ।।
अथाचार्य प्रियां साक्षान्महालक्ष्मीधियार्द्धयेत् ।
वस्त्रैराभरणैर्दिव्यैर्भोजनाद्यैरथादरात् ।। ७४ ।।
यथाशक्तिधनं वापि मंदभाग्यः संदार्पयेत् ।
पंचविंशंतिसरव्याकविप्रेभ्योदधिसंयुतं ।। ७५ ।।
भक्ष्या सूयं घृतोपेतूं दद्यादभमथादरात् ।
ततः षड्गससूयाज्यभक्ष्यभोज्यैः सुवासिनीः ।। ७७ ।।
श्रीवुध्याद्वादशभ्यर्च्योदक्षिणाभिश्चतोषयेत् ।
आचार्यचरणांभोज प्रक्ष्यातितजल.,म् शुभं ।। ७८ ।।
पीत्वा सद्यो विशुद्धात्मातच्छेषं भोजयेद्वती ।
उपानहौ च छत्राणिव्यं तनान्यपि भूयते ।। ७८ ।।
चुक्तवद्भ्योद्विजात्तिभ्योदद्यादक्षिणया सह ।
आचार्यालिंगनं प्राप्य तदाशीर्भिः कृतादरः ।। ७९ ।।
आक्षयां महतीं सिद्धिं प्राप्नुयादुर्लभां तथा ।
कोटी सहस्रसंख्याकस्वर्णदक्षिणयान्वितं ।। ८० ।।
आश्वमेधशंत कृत्वा यत्फलं पुरुषोष्णुते ।
इत्थमेतुद्धतं सांगं कृत्वा तत्फलमश्रुते ।। ८१ ।।
महातीयापुरश्चर्यासांगापूर्वं मयेरिता ।
तादशीनां शतं सामं कृतं तेन न संशयः ।। ८२ ।।
आचार्यानुग्रहात् साक्षात्स्वन्येवोवापि श्रियः पतिं ।
निवतातनयारूढे ब्रह्मरुद्रादिभिर्वृर्त ।। ८३ ।।
सर्वसिद्धिप्रदातारं शेखचक्रादिचिह्नितं ।
इक्षा तदादितोमासिमासि स्वप्ने श्रियःपतिं ।। ८४ ।।
मनोरथप्रदातारं पश्यत्येवमहीते ।
साक्षात्स्वमेपि वा दृष्टे कमलाधिपतौहणै ।। ८५ ।।
किं किं न साध्यते तेन ऐवतैरपि दुर्लभं ।
चिराद्युष्यमनारोग्यं भाग्यं माहदचंचलं ।। ८६ ।।
श्रीरष्टगुणां संयुक्ता धनधान्यादिसंकुलां ।
सर्वविद्याधियत्यं च जातिस्मरणनुत्तमं ।। ८७ ।।
चिकालज्ञानसंपत्रिः सर्वज्ञत्वं मानोज्ञता ।
परकायं प्रवेशादि सामर्थ्यं वाक्षयं नृप ।। ८८ ।।
प्. ९१अ)
सिर्व्रत्येव हि तस्याशु योगश्चीष्टांगसंयुतः ।
त्रैलोक्यनायकः स्वामी भगवानिंदिरापतिः ।। ८९ ।।
स्वसारूप्यं ददात्यस्मैदुर्लभांश्च मनोरथान् ।
अस्मिन्नर्थेशुभंजीतं दक्षिणामूर्तिनापुरा ।।
यार्यतीनंदि चंडीशगणेशेभ्यो महात्मना ।। ९० ।।
वैशाखमासेदिवसेक्षयारव्ये युक्तिकर्मणः ।
स शोभने वा भृगुवारयुक्ते विरिंचितक्षन्नयुते तथैव ।। ९१ ।।
वृषस्थिते दैवगुणै तथार्केमेषुगतेमेषंगतेभृगौ च ।
योगं महाराजमुदाहरंति लक्ष्मीपतियोगमथाहुरन्ये ।। ९२ ।।
उमामहेशभिधमाहुरेकेगौरीरमायोगमुदाहरंति ।
आलभ्यराषौधुहवषलभ्योगाधिराजोभूविद्यार्थिवेद ।। ९३ ।।
अधीतविद्या आधीतविद्याश्चवश्यंमीचार्ययुस्वारविंदात् ।
प्राप्तास्तद्दैवाक्षयसिद्धिदाः स्युरत्राप्यमुत्रापिसदाद्विजानीं ।। ९४ ।।
अनंतशायी भगवान्मुकुंडो लक्ष्मीपतिदैवत सार्वभौमः ।
स्वेद्या गृहीतुर्द्विवसेक्षयेस्मिन् होमादिकर्तश्चवणन् ददाति ।। ९५ ।।
वैशाखमासेसेदिवसेक्षयेस्मिभवश्यश्यमाचर्यमुखारविंदात् ।
संप्राप्तविद्या आपि सर्वसिद्धिसमन्विताः स्युर्नहिंसंशवोत्र ।। ९६ ।।
विशेषतः श्रीपतिमंत्रराजमष्टाक्षरं न्यास रहस्ययुक्तं ।
हुत्वाथ जप्त्वाय गुरोर्मुखाहाद्वधापि साक्षाद्भावतमेति ।। ९७ ।।
गुरोः प्रसादेन समस्तविद्या सर्वापितस्मिनिवसेसक्षयारष्ये ।
उवाथ सिद्धिमहतीं पितृणां शतान्वितो दिव्यपदं प्रयाति ।। ९८ ।।
वैशाखेमासे दिवसे तृतीये योगत्रयं यस्याद्यदि तत्र भूय ।
अवश्यमाचार्यमुखारविंदादृष्टाक्षरंन्याससमेतमादौ ।। ९९ ।।
अब्ध्वाथ हुत्वा हविष्याधनेन स्वाचार्य पादांवुजमर्चयित्वा ।
इहापि सीद्धीं महतीमवाप्यसिद्यष्टकं चापुरणेगतां च ।। १०० ।।
वंशामिवृद्धिसफलार्थसिद्धिमंते कुलानां शतसंयुतो सौ ।
विमानसारुह्यरमाधिवां सप्रयाति वैकुंठपदं महीश ।। १ ।।
नानेयोगेन समोसियोगोलक्ष्मीशसाक्षीत्कृतिसिद्धिदायी ।
अनेनलक्ष्मीशमसूत्रत्वासकृद्वापि जगत्पतिः स्यात् ।। २ ।।
आचार्यपादाब्जायुगं प्रपन्नाः प्राणैश्च रत्नैर्मनसापिवा वा ।
समस्तदेवैरपि पूज्यमानाप्रयांति सर्वेशितसिद्धिमग्र्यां ।। ३ ।।
प्. ९१ब्)
भुक्तेश्च मुक्तेश्च मनोरथानामाचार्य शुश्वषणमेव मूलं ।
जानी हि मामेव पुरुंगुरुणामाचार्यमीशं जगदेवनाथ ।। ४ ।।
एतावदेवास्विलवेदशास्त्रमारं रहस्यं परमं पवित्रं ।
मयायिरक्तेण विरिचिं मुख्यैर्निश्चित्यनिश्चित्य च भूधभूय उक्तं ।। ५ ।।
नाचार्यया व्रपुणद्वरिष्टं संपूज्यमस्तीहजगत्पवित्रं ।
नानेन योगेन समोस्ति योगः सत्यपुनस्सत्यमिदं महीश ।। ६ ।।
सद्योमहीसिद्धिकरोमन्हनां नानेन योगेन समोस्ति लोके ।
विशेषतोष्टाक्षरसिद्धिदोयमाचार्यसंतोषणतोनृपाल ।। ७ ।।
वैशाखमासे दिवसेक्षयेस्मिन् न्यासौः सहादाक्षरमंत्रजायी ।
सहस्रमेकं त्रिशतं शतं वा सधोमहासिद्धिसमौप्रयाति ।। ८ ।।
विशेषतोष्टाक्षरविद्ययायोहविहुनेद्रव्यघृतेन युक्तं ।
वैल्वैश्चपत्रैस्त्रिमधुत्प्रतं च स्वाचार्य पाहास्रयुगेथभूय ।। ९ ।।
साकल्युवित्तान्वितयानप्तानिफलानिवासो युगलान्वितानि ।
दत्वाम्र संभूत भवानि सद्योरमारमाधीश महाप्रसादात् ।। १० ।।
संप्राप्यसिद्धिं जगदेकनाथं पश्यत्यसौनेत्रयुगेन साक्षात् ।
लक्ष्मीकलापूर्णशरीरधारीकंदर्पसाहस्रसंमानतेजाः ।। १११ ।।
वाचस्पतिः श्रीपतिरिष्टाभोगानवाप्यपुत्रैस्सहपौत्रसंद्यैः ।
प्रयाति लक्ष्मीपतिधामदिव्यं स प्रीप्राप्यदीर्घापुररोगताव ।। १२ ।।
एतावत्सर्ववेदोनोसारभूतार्थसंग्रहं ।
निणीतमत्यकृष्णरुद्रमुख्यैः सुरोत्तमैः ।। १३ ।।
महादरिद्रोप्यष्टार्णमंत्रवानसद्येदिने ।
हुत्वा जप्त्वापि वा विद्यांमार्यवाथ तत्सृत् ।। १४ ।।
गृहसमार्जनालेपवस्त्रप्रक्षालनादिभिः ।
संसेव्यवत्सरयुगं पादं संवाहनादिभिः ।। १५ ।।
संतोषयेदयस्वस्यपुत्रिकां वा समर्पयेत् ।
विद्यासिद्धिमवाप्यासौभगवंतं प्रपश्यति ।। १६ ।।
इति स्वायंभूवेनापि मनुना पूर्वमीरित ।
दीक्षिणामूर्तिनाप्येतहीतं भत्येभ्य आदरात् ।। १७ ।।
त्वमपि श्रद्धया भूप सर्वयोगसमन्वितः ।
अक्ष्ययेस्मिन् दिने भूयकुरुव्रतमनुत्तमं ।। १८ ।।
अवश्यं महतीसिद्धिदुर्लभा दैवतौरपि ।
भविष्यति न संदेहौ माकुसद्यात्रसंशयं ।। १९ ।।
वैष्णवात्सकलामंत्री सावित्राश्चमनूत्रमान् ।
गाणयत्यमहामंत्रीरमायामनवोपि च ।। २० ।।
प्. ९२अ)
पार्वत्याश्च महामंत्रास्तथामाहेश्वरादपि ।
क्षेत्रपालकमंत्राश्चचादीमीनवोपि च ।। २१ ।।
जप्ताहुता अक्षयेस्मिन् दिवसे सर्वसिद्धिद ।
सद्यः सिद्धाभवंतेव संशयोनात्रविद्यते ।। २२ ।।
अक्षयेदिनमात्रेपि कृत्वा हीमतयादिकं ।
अक्षयाभीष्टसंसिद्धिं प्राप्तोत् यत्र न संशयः ।। २३ ।।
इति दाशरथीयेस्मिन्तंत्रेवेदीर्थसंग्रहे ।
एकोनत्रिंश उतो यमध्यायोखिलकामधुक् ।। २४ ।।
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीये तंत्रे वेदार्थसंग्रहे
एकोनत्रिशोध्यायः ।।</poem>
tbww986xubz5rfby9e7xsmrf8l1pp4y
दाशरथीयतन्त्रम्/अध्यायः ३०
0
163656
409314
2025-06-27T10:41:46Z
Shubha
190
{{header | title = [[../]] | author = | translator = | section = अध्यायः ३० | previous = [[../अध्यायः २९|अध्यायः २९]] | next = [[../अध्यायः ३१|अध्यायः ३१]] | notes = }} <poem> प्. ९२अ) श्रीभगवानुवाच अथातः श्रीमदष्टार्णेस... नवीन पृष्ठं निर्मीत अस्ती
409314
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः ३०
| previous = [[../अध्यायः २९|अध्यायः २९]]
| next = [[../अध्यायः ३१|अध्यायः ३१]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ९२अ)
श्रीभगवानुवाच
अथातः श्रीमदष्टार्णेसाधनं नधर्वसिद्धिदं |
भूयोपि संप्रवक्ष्यामि समाहितमनाःशूण || १ ||
दित्वास्थिते सुराचर्पिसवितर्यपिसिंहगे |
सार्धत्रिओटितीर्थानां स त्रिध्यं गौतमीतरे || २ ||
आहौ पुष्करयोगह् स्यादंतेपिद्वादशाहकं |
महापुष्करयोगेत्रदेवतामुनिभिस्सह || ३ ||
स्रतुमायांतिगोदायाजलेसिंहस्थितेगुणै |
समस्तदेवसान्निध्यं समस्तमुनिसमिधिः || ४ ||
समयतीर्थसान्निध्यं सिंहराशिगतेगुरौ |
आआवंते द्वाशाहं पुष्करेण समागमः || ५ ||
महापुष्करयोगेत्रगौतमीतद उत्तमे |
एकैकं दिनमप्यत्ररवियर्वशतप्रभं || ६ ||
महापुष्करयोगेन्न महायाययुतोपि वा |
स्तात्वा जपांदिकं कृत्वा मुच्यते सर्वपातकैः || ७ ||
नानेन सदृशः पुण्यकालोस्ति वसुधातले |
सर्वासामपि विधानामंत्रहोमजपादिभिः || ८ ||
एकैकस्मिन्नपिदीनेमहतीसिद्धिरीरिती |
माहापुष्करयोयेत्र स्नात्वा प्रातरन्सन्यधीः || ९ ||
परिमृत्याथ वा गात्रं लकृकमोन्वहं वुधः |
उदितेथ सहस्राशौ नित्यहोमं समाप्य च || १० ||
आगत्य गौतमीतीरं गंधपुष्पाक्षतादिभिः |
अभ्यर्च्यगोतमीदेवीमुराचार्यमपि प्रभुं || ११ ||
गोदावारीजले स्रत्वा विधिना सांगमादरात् |
आचार्यानुज्ञया श्रीमदष्टार्णन्यासं संयुतं || १२ ||
त्रिशताधिः अभ्यर्च्य गौतमीदेवी सुराचार्यमपि प्रभुकसाहस्रमेकैकस्मिन् |
दिने दिने जपेत् दर्वलोर्रागयुस्सस्तूनमस्कृत्यपि गौतमी || १३ ||
श्रीमदष्टाक्षरीविद्यां समस्तन्यासंयुतां |
प्रजयेह्नौतमीतीरिस्वाचार्यानज्ञयान्वहं || १४ ||
त्रिशतं प्रजपेल्लक्ष्मीमंत्रेष्टिष्टतमंमनुं |
त्रिशतं जुहुयादांत्यमधुत्रितयमिश्रितं || १५ ||
विल्वपत्रसमायुक्तं यायसन्निलमिश्रितं |
श्रीमदष्टार्णमंत्रेण श्रीमंत्रेणशतं हुनेत् || १६ ||
प्. ९२ब्)
एकैकां भगवद्रश्मिमंत्रैरोज्याहुतिं ततः |
अयोध्याधुरचक्रेथलक्ष्मीनारायणाभिधे || १८ ||
श्रीश्रीयातीयजेत्पश्चांगावरणपूर्वकं |
शालग्रामाशिताचक्रे वृच्चक्रेथ वा यजेत् || १९ ||
लघुचक्रेथ वानित्यं श्रीश्रीयत्यर्चयेत्क्रमत् |
कुसुमैरत्तेयेन्नि संविल्वपत्रविमिश्रितैः || २० ||
तुलसीदलयुतौर्वाश्रीश्राशब्रह्मश्विद्यया |
अर्चयेत्त्रिशतं नित्यमुपचारान् समर्यत् || २१ ||
आचार्यपादुकायुग्ममच्चयेत् तत्र सन्निधौ |
स वीयचारैरभ्यर्च्य शतनिष्कंदिनी नंदने || २२ ||
अर्पयेत्यादत्यादकापुमिनिष्कद्वादशकं तु वा |
आचार्यपादुकायुग्मेतिष्कमेकमथापि वा || २३ ||
एकैकस्मिन् दिने दत्वाद्याचार्याय समर्पयेत् |
आचार्यपादुकाभावेपादकामंत्रमादरात् || २४ ||
अष्टाविंशतिधा जप्त्वा स्वाचार्य चरणंवुजे |
एकैकस्मिन् दिने दद्याद्वनं लोभविवर्जितः || २५ ||
आचार्यपुत्रायाचार्याभावेवश्यं समर्पयेत् |
अवश्यं तत्कलं यतत्यौत्रायापि वार्ययेत् || २६ ||
आचार्यपत्नी साधार्यसुतपत्नीमथापि वा |
दिवसे प्रथमे मध्यदिवसेत्यदिनेपि च || २७ ||
दत्वा सांसिसूक्ष्मीणि शुद्धैराकल्पसंचयैः |
अवश्यमन्त्रविद्धीमान्सर्वसंयत्समृद्धये || २८ ||
एकैकस्मिन् दिने सिद्धं कृत्वां सदिवसेपि च |
कृत्वा पूर्वोदितं होमजपादिकमनुक्रमात् || २९ ||
अष्टाभिकशतैः श्लोकमंत्रैः श्रीहृदयस्थितोः |
कापिलाज्यं हुतेन्नेधाकेवलगव्यमेव वा || ३० ||
प्रायश्चिन्ताहुतीः कृत्वा कुर्याद्ब्रह्मह्मार्पणाहुतिं |
ततः श्रीगुरूसरूमभ्यर्च्य स्वाचार्यं हरिरूपिणं || ३१ ||
वस्त्रैराभरणैर्होममुद्रिका कुंडलादिभिः |
सालग्रामशिलां शुद्धांवत् कीटविनिर्मितां || ३२ ||
वहुदक्षिणयायुक्तामाचाधोप समर्पयेत् |
अभावेवहुलव्यरत्नीदीनां महीयते || ३३ ||
निष्कद्वादशकं दद्यादवश्यं शुभदक्षिणां |
षणिनष्कमथवादद्यात्त्रिनिष्कवाथ दक्षिणं || ३४ ||
वहुक्षीरयुतं वत्स सहितादक्षिणान्वितं |
आचार्याप्रप्रदातव्यमेकाचापिययस्विनी || ३४ ||
प्. ९३अ)
एकैकस्मिन्दिनेप्यत्र ब्राह्मणान्भोजयेद्व्रती |
एकासुवासिनी वापि श्रीवध्यानित्यमर्चयेत् || ३६ ||
द्वादशापि सुवासिन्योद्वादशब्राह्मणा अपि |
महापुस्करयोगित्रसंभोज्यः पश्चिमेदिने || ३७ ||
आचार्यचरणंभोज प्रक्षालित तत्वं शुभं |
अन्वहं प्रपिवेद्धीमान् ब्रह्मदर्शनसिद्धयं || ३८ ||
पुष्कराख्यमहायोगे कृत्वेत्थं व्रतमादरात् |
महायातकसंघैश्च कोटिजन्मकृतैरपि || ३९ ||
विमुक्तोथहरिं साक्षात्यश्यसेवश्रियः पतिं |
श्रीमदष्टाक्षरीसिद्धिर्दैवतैरपि दुर्लभां || ४२ ||
प्रोन्योकदिने चापि विश्वासं कुरु भूयपते |
यत्पुरश्चरणं सांग महत्प्राक्तं मया पुरा || ४१ ||
तद्वीदशफलं सांगं लभ्यते नात्र संशयः |
श्रीमदष्टाक्ष्री सिद्धिर्देवतैरपिदुर्लभा || ४२ ||
अवश्यं लभ्यते तेनेन व्रतकतांनुसंशयः |
महापुष्करयोगेस्मिनौतमीतीरवासिभि || ४३ ||
तर्पितावंधुभिर्वापि निमग्रानरकेष्वपि |
प्रयांतोद्रिपुररण्यं यावच्चंद्रदिवाकरा || ४४ ||
दक्षिणाभक्ष्यभोज्याद्यैःपितरो यस्य तर्पिताः |
महापुष्करयोगेते सत्यलोकेवसंतिति || ४५ ||
आचार्यमहीयेनदीयर्तदक्षिणान्विता |
चतुर्ष्टषभसंयुक्तावक्तुं शक्यं न तत्फलं || ४६ ||
सालग्रामशिलादानखर्णदानं च भूयत |
महापुष्करयोर्गत्रवह्मातादात्म्येसिद्धिद || ४७ ||
दानं कुंडलयुग्मस्यमुद्रिकादानमष्यथ |
सूक्ष्मनस्त्रप्रदानं वच भगवद्वष्टिसिद्धिदं || ४८ ||
महायायहं रसद्यो जीवन्मुक्ति फलप्रदं |
श्रीमदष्टार्णसंसिद्धिप्रदसद्योमहीपते || ४९ ||
महापुष्करयोगेन्नश्रीमादाचार्यतोयणं |
यथोतविधिनावर्षार्ज्जातिस्माणसिद्धिदं || ५० ||
पिहृणामपि सर्वेषां भगवत्पदसिद्धिदं |
भूमियालेधनाढ्ये वाणरूपं वा ननंस्थितः || ५१ ||
महापुष्करयोगेप्रदिनदादशके शुभे |
श्वेताश्वदानं कुर्वीत हस्निदा न महत्फलं || ५४ ||
शिविकांहोलिकादानं रात्रदानं च नित्यशः |
वहुवस्त्रप्रदानं च धान्यदानं दिने दिने || ५३ ||
सालग्रामशिआदानमपि कुर्वीत नित्यथः |
नदारापूर्वकं हानमाचार्येभ्योविधीयते || ५४ ||
पूर्वोक्तपत्रानुच्चार्यसंकल्शुभगुवत्पुरः |
आचार्यचरणांभोजेदसाद्देव्य मतःपरं || ५५ ||
आचार्यमंदिरे धेनुसवत्सां प्रेषयेनृप |
पारितोषिकमेवास्मै स्वाचार्यायार्ययेद्धनं || ५६ ||
प्. ९३ब्)
आचार्यानुज्ञयै वान्यश्रोत्रियेभ्योपि भूयते |
दातव्यं सकलं दानं नान्यथा सिद्धिभश्च्युते || ५७ ||
चणकान्युहृमाषांश्चति सान्यायहरानपि |
दधिक्षीरं घृतं अव्यगुडं मधु च शर्करा || ५८ ||
महापुष्करयोगेन्न फलाराशिं समर्प्य च |
समस्तसंपत्साग्राज्यसिद्वयुक्तोयमुतिभाक् || ५९ ||
श्रीमदष्टार्णविद्यायाःपुरश्चरणमादरात् |
महापुष्करयोगेत्र कृत्वा सिद्धिं व्रजेत् परां || ६० ||
अष्टाक्षरे मंत्रराजेसम्यकुसिद्धे महीयते |
पश्यत्येव स्वचक्षुर्भ्या साक्षादेवश्रिवश्रियः पति || ६१ ||
भगवदर्शनेनासौ भगवत्कलयान्वितः |
स्वच्छपरणे भूत्वानिधिस्सकलसंपदां || ६२ ||
आधारस्सर्वविद्यानां पुत्रापौत्र सुखान्वितः |
मानुषानपि दिव्यांश्च भुक्त्वा भोगान्मनोरमान् || ६३ ||
कुलसाहास्रसहितोवैकुंठेवसतिध्रुवं |
पुष्पेमाद्दिवसे विष्णुनक्षत्रेर्कसमन्विते || ६४ ||
अर्कवासरसंयुक्ते व्यतीयातसमन्विते |
भानूदये सविज्ञेयोयोगोद्धोद्वयानामकः || ६५ ||
सहस्राकं ग्रहसमोयोगोलभ्यौ महीयते |
सोमवासासरयुक्तश्चेन्महोदय उदीरतः || ६६ ||
अवश्यं सागरेस्नानं तत्र पातकं भंजन |
भास्कंरोदयवेलायां तदास्तात्वा महोदधौ || ६७ ||
आचार्यसन्निभावपिं प्रतिष्ठाब्धि समाहितः |
लक्ष्मीपतिसंमाराध्यसेत्कास्कृते जातवेदसि || ६८ ||
वृहदावरणौर्मंत्रैः कृत्वैकामथाहातिं |
श्रीमदष्टार्णमंत्रेणतिलैर्गव्यघृतसुतैः || ६९ ||
त्रिशाताधिकासाहस्रां हुत्वा यश्चान्महीयते |
श्रीमंत्रेत्रणहुनेदाज्यं गव्यं त्रिशतमादरात् || ७० ||
भगवद्रश्मिविद्याभिः कृत्वैकैकामथाहुतिं |
जायाहि होमं कृत्वाथा प्रायश्चित्ताहुतीस्ततः || ७१ ||
ब्रह्मर्पणाहुतिं कृत्वा नमस्कृत्याग्निमादरात् |
श्रीश्रीयत्यर्चयेत्यश्ची त्रिशतं ब्रह्मविद्ययां || ७२ ||
आचार्यचारणांभोजद्वयं साष्टांगमादरात् |
नमस्कृत्य समभ्यर्च्ये वासो लंकरणदिभिः || ७३ ||
वहुशास्य समामीर्णं चतुकृय समवितां |
आचार्यामहांदद्याद्वहृदशिणयाव्वितां || ७४ ||
मयोक्ता दक्षिणतुभ्यमुत्तमामध्यमाधमा |
भूदानेदक्षिणांदद्यांत्त यथा वन्महीपते || ७५ ||
प्. ९४अ)
सालग्रामशिलांदद्योदवश्यां दक्षिणान्वितां |
आचार्यकर्णयोद्वेधान्मुक्ता संकरणं शुभं || ७६ ||
रत्नालंकरणं वापि दद्यादाचार्यकर्णयोः |
अवश्यंगोद्वयं दद्यात्यसत्संदक्षिणान्वितं || ७७ ||
महादानानि कुर्त्रातविभवेसतिसाधकः |
ब्राह्मणान्भोजयेत्प्रश्चाद्भोजयेच्च सुवासिनी || ७८ ||
समर्पयेदथाचार्यपत्न्यैवासोयुगं शुभं |
समर्पयेत्कांस्यपात्रभोजनार्थ सदक्षिणं || ७९ ||
चतुःष्वष्टियलं वापि विंशत्पलमितं तु वासिनीः |
समर्पयेदथाचा इत्थमर्धोदये कृत्वा कृत्वापि च महीदये || ८० ||
श्रीमदष्टाक्षरीसिद्धिं सद्य एव व्रजत्यसौ |
तदारभ्यहरिंमासिस्वमे प्रपश्यति || ८१ ||
मनोरथार्थ स सिद्धिदैवतैरपि दुर्लभां |
प्राप्नोत्यवश्यं भूपालसंशयो नात्र विद्यते || ८२ ||
अर्धोदयेसिंधुतीरे हेमाभार सहस्रकं |
दत्वा यत्फलमाप्नोति तत्फलं निष्कमात्रकं || ८३ ||
श्रीमदष्टार्णहोमांते समथाद्धौदये नृप |
ततीधिकफलं सांगं प्राप्नोत्यत्र न संशयः || ८४ ||
तदीरभ्य महीपालहंद्रांद्यमरी अपि |
सततं वरदास्तस्य भवत्पत्र न संशयः || ८५ ||
वैशाखेश्च लायक्षेया भौमवासरसंयुता |
चतुर्दशीवतिपातसहितास्वातिसंघुता || ८६ ||
लक्षीन्सिंहयोगोयं सायंकाले स उच्यते |
चतुर्विशतिभिर्वर्षैयोगोसौलभ्यते भुवि || ८७ ||
घुटीत्रयादस्तमयापूर्वंस्तानं समाचरेत् |
वाससीयरिधायाथ पितृन्संतर्प्य यत्नतः || ८८ ||
कृत्वासायतनी संध्यां माचार्य प्रणिपत्य च |
आचायो सान्निधौतस्य पुत्रं पत्नीमथापि वा || ८९ ||
नमस्कृत्वाथपितृन्संतर्प्य यत्नतः *** |
संकल्प्याप्राणानायम्यवाग्यतः त्रिशताधिकसाहस्रं समस्तन्यासं सद्यता ||
९० ||
श्रीमदष्टाक्षरीविद्याप्रजयेन्नियतव्रतः |
लक्ष्मीविद्यासुसर्वासु विद्यामीष्टतमांततः || ९१ ||
प्रजप्त्वा त्रिशतं यश्चीत्त्रिशतजातवेदसं |
संस्कृत्य जगातानाथं तत्राभ्यर्च्योयचारकैः || ९२ ||
श्रीमदष्टार्णमंत्रेणहुनेसं च शतं हविः |
मध्वत्रितयसंमिश्रं गव्याज्य स्रुतमादरात् || ९३ ||
घृतेन जुहुयाद यावष्टात्तरशतं श्रिया |
भगवद्रश्मिविद्यामिष्टतमेकैकशो हुनेत् || ९४ ||
प्रायश्चित्ताहुतिः कृत्वा कृत्वा ब्रह्मर्पणाहुतिं |
नमस्कृत्यापिमाचार्य पादाब्ज दंडवन्नभेत् || ९५ ||
प्. ९४ब्)
शर्करारससंयुक्तपात्रं पित्तलसंभवं |
पंचविशसलं वपि विंशत्यलमितं तु वा || ९६ ||
परिधानोत्तरीयार्थं वासोयुग्मं समर्थ च |
चत्वारिंशत्पलमित्तं विंशत्यतमितं तु वा || ९७ ||
आचार्ययादायोर्द्वत्वा हरिचंदनमुत्तमं |
स्थूलं सुमधुरं चतफलराशिं समर्प्य च || ९८ ||
आचार्यपादयोर्दद्याद्वर्षाशनमितं धनं |
निष्कद्वादाशकं वामिनिष्क षब्दमथापि वा || ||
वैशाखमासेप्यथ शुक्लपक्षे चतुर्दशी
मंगलवारयुक्तास्वातीव्यतीपानयुतायदिस्याल्लक्ष्मीनृसोहोयमलभ्ययोगः || १ ||
मन्मंत्रमष्टाक्षरमंत्रतत्वाहत्वाथसायं गुरुपादयुग्मे
स्वीतीव्यतीपातयुतायहिस्याल्लक्ष्मीनृसिः |
समर्प्यमातोत्थफलानि वासो युग्यं च गंधगुडनीरपात्र || २ ||
समर्थवित्तं वहुलं च पश्चीदष्टाक्षरीसिद्धिमयैत्यवश्य |
अहंप्रसन्नोच्छसमर्थसिद्धिंददीमिलक्ष्भावलां च विद्यां || ३ ||
सुपुत्रपौत्रोद्यवती समृद्धिं दीर्घायुरारोग्यमनंतसौख्यं भुक्त्वा च |
भोगानथ दिव्यमानुषान्प्रयाति वैकुंठपदममांते || ४ ||
इत्थमष्टाक्षरीविद्या सिध्यर्थवसुधायर्तं |
भूत्वा यत्नपरोनित्यमज्जेयेद्दक्षिणाधनं || ५ ||
अत्यल्प दक्षिणो यागो यजमानं विनाशयेत् |
अग्निछोमादयोयागाजपहोमादयो च || ६ ||
ब्रह्मायज्ञादयोनित्यं सर्जयेदक्षिणाधनुं पागा अपि |
महीयते सफलादक्षिणायुक्ता अफलादक्षिणां विना || ७ ||
द्रव्याभावेकुतो धर्मो धर्महीने कुतः सुखं |
तस्माद्वर्मरतोनित्यमर्जद्येद्वनसंधर्य || ८ ||
पितामाता तथाचार्यस्तत्पत्नीतत्स अपि |
कृत्वा कार्यशतं वापि योगोया दिने दिने || ९ ||
यवानानपिभिक्षिप्त्वा शूद्रानप्यथयं च |
मान आर्चयपत्नीपुत्राद्याः पोषणीयाने दिने || १०० ||
न स्त्रीणां वचनं कार्यं मंदप्रज्ञापतः स्त्रियः |
आचार्यस्याज्ञयानित्ये श्रेयस्कामीवसेन्नप || १११ ||
वर्षे वर्षे पुरश्चर्यो कृत्वै कामपि साधकः |
स्वर्वस्वदक्षिणं दद्याद्वर्षाशनमितं तु वा || १२ ||
श्रीमदष्टाक्षरीसिद्धिषेवर्षे प्रजायते |
रवौदुग्रहणं वर्षे वर्षेपि सततं भवेत् || १३ ||
अवश्यं तत्र कर्तव्यं पुरश्चरणमादरात् |
तत्रावश्यं पुरश्चर्या कृत्वा सूर्यस्य पर्वणि || १४ ||
प्. ९५अ)
निष्कद्वयधनं वापि दत्वा सिद्धिमवाप्नुयात् |
उक्तेष्वलभ्ययोगेषु संप्राप्त्येषु महीयते || १५ ||
तत्रीवश्यं पुरश्चर्यां कृत्वा सांगां महीयते |
वित्तशाठ्यं परित्यज्य दक्षिणामधमानुवा || १६ ||
समष्ये श्रीमदष्टार्णमहासिद्धिसंमश्रुते |
कृत्वा वश्यं पुरश्चर्यं योगे लभ्ये महीयते || १७ ||
सोगदक्षिणयायुक्तां सद्यः सिद्धिसमन्वितः |
भगवत्कलयायुक्तस्सद्यरावमवत्यसौ || १८ ||
श्रीमदष्टाक्षरीविद्यापुरश्च्र्या यशस्करो |
सांगदक्षिणयायुक्ता नवरात्रव्रतेकृताः || १९ ||
अश्वमेध सहस्रस्यफलाअसानसंशयः |
सहस्रकोटिसंख्याकस्वर्णदक्षिणयायुतं || २० ||
सह्मवांजिमेधाना नवरात्र ततेशुभे |
पुरश्चरणकृत्येनतेनेष्टं नात्रसंशयः || २१ ||
व्रतांतरं प्रवक्ष्यामि चतुर्वर्गफलप्रदं |
गुलं समस्तवेदेषु शास्त्रेष्वपि सुगोपितं || २२ ||
कार्तिकेमार्गशीर्षे वा मेघे वा फाल्गुनेथ वा |
वैशाखे श्रावणे वापि प्रथमे भृगुवासरे || २३ ||
व्रतमारभ्यकुर्वातवर्षवर्षेत्रयंत वा |
वर्षद्वादशकं वा विप्राणांतं वा महीपते || २४ ||
प्रथमे भार्गवेवारे मासिमासि महीयते |
श्रीमदष्टाक्षरीजस्वायाथाशक्त्या ससाहितः || २५ ||
विधिवत्संस्कृते वह्नौ श्रीमदष्टार्णविद्यया |
त्रिशतं जुहुयाद्रव्येनाज्येननियतव्रतः || २६ ||
श्रीमंत्रेणापि जुहुयादष्टोत्तरशतं घृतं |
भगवद्रश्मिविद्यामिरेकैकामाहुतिदृत् || २७ ||
त्रिशतं पूजयेत् पुष्पैर्विल्वपत्रैरथापि वा |
जोह्वप्रावालैरथवाश्रीश्रीशब्रह्मविद्ययाअ || २८ ||
अष्टोत्तरशतं वापि पूजयेतुलसीदलौः |
आवश्यभोजयेद्भक्ष्यभोज्यैराजायेवल्लभां || २९ ||
मिथुनद्वितयंभोत्यमेकं मिथुनमेव वा |
भार्गवे वासरेवश्यं निष्केनिप्लार्धमेवा वा || ३० ||
समर्पयेदथाचार्ययंयल्यैकांचनमुत्तमं |
सततं भार्गवेवारिदद्यादित्थं धनाधिकं || ३१ ||
प्रथमेभार्गवेवारेमासिमास्य श्रवार्ययत् |
आचार्यपत्नी संभोज्यामासिमास्यथवादिने || ३२ ||
भार्गवेवासरेवश्यं निष्कमानसुवणेर्क |
निष्काद्यं वायं येद्धीमान्भक्ष्याद्यैरपितौषयेत् || ३३ ||
भोजनां तर्पयेद्धीमान्मिथुनस्यापि दक्षिणां |
गुरुपत्न्या आसाभिध्ये लक्ष्मीलक्ष्मीश सन्निधौ || ३४ ||
प्. ९५ब्)
आचार्यपत्नीमुद्दिश्य संकल्प्याप्यथ दक्षिणं |
आदिमेभार्गवेवारे गुरुपादावतोर्पयेत् || ३५ ||
नत्पुत्रायाथ वा दद्यात्संकल्पितधनं नृप |
प्रथमेभार्गवेवारे मास्मिसीत्थमाचरेत् || ३६ ||
मिथुनद्वितयं भोज्यमित्तेरषु ५ दिनेष्वपि |
एकं वामीथुनंदद्यथाशक्त्या च दक्षिणं || ३७ ||
श्रीमदष्टाक्षारीविद्यासिद्धिंसुमहतीपरा |
इच्छन्व्रतमिदं कुर्यादवश्यं सिद्धिमश्नुते || ३८ ||
आशौचादिपुतोवापिणेगैस्संपीडितोथवा |
भार्गववासरे प्राप्ते प्रार्थयित्वा गुरुं विभुं || ३९ ||
कारयेद्गुरुणावपि तत्पुत्ररथवा व्रतं |
द्विगुणाद्दक्षिणादेया तदा चायोयधीमता || ४० ||
भृगुवारव्रतमिदं लक्ष्मीनारायणप्रियं |
कृत्वावश्यं महासिद्धिं व्रजत्यत्र नस्यंशयः || ४१ ||
भृगुवारव्रतारुषोदर्वागेव महीयते |
आचार्यानुग्रहाल्लक्ष्मीधनधान्यादि संकुलां || ४२ ||
आचलां प्राप्यकं दर्पसमसौभाग्यसंयुतः |
आयुष्यं महदारोग्यं श्रियमृषगुणा अपि || ४३ ||
अभते नात्र संदेहष्पुत्रपौत्रादिसंकुलां |
न वियुक्तो भवेत्यल्यापत्रैर्वायश्रुभिर्धनैः || ४४ ||
नेष्टवंधुवियुक्तो वा भृगुवारव्रताद् भवेत् |
इच्छता महतीं सिसिद्धिं श्रोयश्चाप्यक्षयं परं || ४५ ||
भृगुवारव्रत्मिदं कर्तव्यं वसुधायते |
एतच्छरीरयातांते दशापूर्वेर्दशापरैः || ४६ ||
सहितः पुष्पंकदिव्यं दिव्यकल्याशत्ताचितं |
आरूस्वभगवद्धामप्रयासत्र न संशयः || ४७ ||
श्रीमदष्टाक्षीरी सिद्धिर्वह्वाधोक्तामयातव |
श्रीमदष्टार्णविद्यायासिद्धियोर्यदि भविष्यति || ४८ ||
प्रयांति भगवद्वामतस्यवंशोद्भवा अपि |
अमुत्तर ब्रह्मतत्वरहस्ये श्रुतिसंदेहे |
इति दाशरथीयेस्मिन् त्रिंशोध्याय उदीरितः || ४९ ||
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीये तंत्रे वेदार्थसंग्रहे त्रिंशोध्यायाः
||</poem>
4fmx2ephh15ay7h9um85esv33u1cfae
409315
409314
2025-06-27T10:42:08Z
Shubha
190
409315
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः ३०
| previous = [[../अध्यायः २९|अध्यायः २९]]
| next = [[../अध्यायः ३१|अध्यायः ३१]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ९२अ)
श्रीभगवानुवाच
अथातः श्रीमदष्टार्णेसाधनं नधर्वसिद्धिदं ।
भूयोपि संप्रवक्ष्यामि समाहितमनाःशूण ।। १ ।।
दित्वास्थिते सुराचर्पिसवितर्यपिसिंहगे ।
सार्धत्रिओटितीर्थानां स त्रिध्यं गौतमीतरे ।। २ ।।
आहौ पुष्करयोगह् स्यादंतेपिद्वादशाहकं ।
महापुष्करयोगेत्रदेवतामुनिभिस्सह ।। ३ ।।
स्रतुमायांतिगोदायाजलेसिंहस्थितेगुणै ।
समस्तदेवसान्निध्यं समस्तमुनिसमिधिः ।। ४ ।।
समयतीर्थसान्निध्यं सिंहराशिगतेगुरौ ।
आआवंते द्वाशाहं पुष्करेण समागमः ।। ५ ।।
महापुष्करयोगेत्रगौतमीतद उत्तमे ।
एकैकं दिनमप्यत्ररवियर्वशतप्रभं ।। ६ ।।
महापुष्करयोगेन्न महायाययुतोपि वा ।
स्तात्वा जपांदिकं कृत्वा मुच्यते सर्वपातकैः ।। ७ ।।
नानेन सदृशः पुण्यकालोस्ति वसुधातले ।
सर्वासामपि विधानामंत्रहोमजपादिभिः ।। ८ ।।
एकैकस्मिन्नपिदीनेमहतीसिद्धिरीरिती ।
माहापुष्करयोयेत्र स्नात्वा प्रातरन्सन्यधीः ।। ९ ।।
परिमृत्याथ वा गात्रं लकृकमोन्वहं वुधः ।
उदितेथ सहस्राशौ नित्यहोमं समाप्य च ।। १० ।।
आगत्य गौतमीतीरं गंधपुष्पाक्षतादिभिः ।
अभ्यर्च्यगोतमीदेवीमुराचार्यमपि प्रभुं ।। ११ ।।
गोदावारीजले स्रत्वा विधिना सांगमादरात् ।
आचार्यानुज्ञया श्रीमदष्टार्णन्यासं संयुतं ।। १२ ।।
त्रिशताधिः अभ्यर्च्य गौतमीदेवी सुराचार्यमपि प्रभुकसाहस्रमेकैकस्मिन् ।
दिने दिने जपेत् दर्वलोर्रागयुस्सस्तूनमस्कृत्यपि गौतमी ।। १३ ।।
श्रीमदष्टाक्षरीविद्यां समस्तन्यासंयुतां ।
प्रजयेह्नौतमीतीरिस्वाचार्यानज्ञयान्वहं ।। १४ ।।
त्रिशतं प्रजपेल्लक्ष्मीमंत्रेष्टिष्टतमंमनुं ।
त्रिशतं जुहुयादांत्यमधुत्रितयमिश्रितं ।। १५ ।।
विल्वपत्रसमायुक्तं यायसन्निलमिश्रितं ।
श्रीमदष्टार्णमंत्रेण श्रीमंत्रेणशतं हुनेत् ।। १६ ।।
प्. ९२ब्)
एकैकां भगवद्रश्मिमंत्रैरोज्याहुतिं ततः ।
अयोध्याधुरचक्रेथलक्ष्मीनारायणाभिधे ।। १८ ।।
श्रीश्रीयातीयजेत्पश्चांगावरणपूर्वकं ।
शालग्रामाशिताचक्रे वृच्चक्रेथ वा यजेत् ।। १९ ।।
लघुचक्रेथ वानित्यं श्रीश्रीयत्यर्चयेत्क्रमत् ।
कुसुमैरत्तेयेन्नि संविल्वपत्रविमिश्रितैः ।। २० ।।
तुलसीदलयुतौर्वाश्रीश्राशब्रह्मश्विद्यया ।
अर्चयेत्त्रिशतं नित्यमुपचारान् समर्यत् ।। २१ ।।
आचार्यपादुकायुग्ममच्चयेत् तत्र सन्निधौ ।
स वीयचारैरभ्यर्च्य शतनिष्कंदिनी नंदने ।। २२ ।।
अर्पयेत्यादत्यादकापुमिनिष्कद्वादशकं तु वा ।
आचार्यपादुकायुग्मेतिष्कमेकमथापि वा ।। २३ ।।
एकैकस्मिन् दिने दत्वाद्याचार्याय समर्पयेत् ।
आचार्यपादुकाभावेपादकामंत्रमादरात् ।। २४ ।।
अष्टाविंशतिधा जप्त्वा स्वाचार्य चरणंवुजे ।
एकैकस्मिन् दिने दद्याद्वनं लोभविवर्जितः ।। २५ ।।
आचार्यपुत्रायाचार्याभावेवश्यं समर्पयेत् ।
अवश्यं तत्कलं यतत्यौत्रायापि वार्ययेत् ।। २६ ।।
आचार्यपत्नी साधार्यसुतपत्नीमथापि वा ।
दिवसे प्रथमे मध्यदिवसेत्यदिनेपि च ।। २७ ।।
दत्वा सांसिसूक्ष्मीणि शुद्धैराकल्पसंचयैः ।
अवश्यमन्त्रविद्धीमान्सर्वसंयत्समृद्धये ।। २८ ।।
एकैकस्मिन् दिने सिद्धं कृत्वां सदिवसेपि च ।
कृत्वा पूर्वोदितं होमजपादिकमनुक्रमात् ।। २९ ।।
अष्टाभिकशतैः श्लोकमंत्रैः श्रीहृदयस्थितोः ।
कापिलाज्यं हुतेन्नेधाकेवलगव्यमेव वा ।। ३० ।।
प्रायश्चिन्ताहुतीः कृत्वा कुर्याद्ब्रह्मह्मार्पणाहुतिं ।
ततः श्रीगुरूसरूमभ्यर्च्य स्वाचार्यं हरिरूपिणं ।। ३१ ।।
वस्त्रैराभरणैर्होममुद्रिका कुंडलादिभिः ।
सालग्रामशिलां शुद्धांवत् कीटविनिर्मितां ।। ३२ ।।
वहुदक्षिणयायुक्तामाचाधोप समर्पयेत् ।
अभावेवहुलव्यरत्नीदीनां महीयते ।। ३३ ।।
निष्कद्वादशकं दद्यादवश्यं शुभदक्षिणां ।
षणिनष्कमथवादद्यात्त्रिनिष्कवाथ दक्षिणं ।। ३४ ।।
वहुक्षीरयुतं वत्स सहितादक्षिणान्वितं ।
आचार्याप्रप्रदातव्यमेकाचापिययस्विनी ।। ३४ ।।
प्. ९३अ)
एकैकस्मिन्दिनेप्यत्र ब्राह्मणान्भोजयेद्व्रती ।
एकासुवासिनी वापि श्रीवध्यानित्यमर्चयेत् ।। ३६ ।।
द्वादशापि सुवासिन्योद्वादशब्राह्मणा अपि ।
महापुस्करयोगित्रसंभोज्यः पश्चिमेदिने ।। ३७ ।।
आचार्यचरणंभोज प्रक्षालित तत्वं शुभं ।
अन्वहं प्रपिवेद्धीमान् ब्रह्मदर्शनसिद्धयं ।। ३८ ।।
पुष्कराख्यमहायोगे कृत्वेत्थं व्रतमादरात् ।
महायातकसंघैश्च कोटिजन्मकृतैरपि ।। ३९ ।।
विमुक्तोथहरिं साक्षात्यश्यसेवश्रियः पतिं ।
श्रीमदष्टाक्षरीसिद्धिर्दैवतैरपि दुर्लभां ।। ४२ ।।
प्रोन्योकदिने चापि विश्वासं कुरु भूयपते ।
यत्पुरश्चरणं सांग महत्प्राक्तं मया पुरा ।। ४१ ।।
तद्वीदशफलं सांगं लभ्यते नात्र संशयः ।
श्रीमदष्टाक्ष्री सिद्धिर्देवतैरपिदुर्लभा ।। ४२ ।।
अवश्यं लभ्यते तेनेन व्रतकतांनुसंशयः ।
महापुष्करयोगेस्मिनौतमीतीरवासिभि ।। ४३ ।।
तर्पितावंधुभिर्वापि निमग्रानरकेष्वपि ।
प्रयांतोद्रिपुररण्यं यावच्चंद्रदिवाकरा ।। ४४ ।।
दक्षिणाभक्ष्यभोज्याद्यैःपितरो यस्य तर्पिताः ।
महापुष्करयोगेते सत्यलोकेवसंतिति ।। ४५ ।।
आचार्यमहीयेनदीयर्तदक्षिणान्विता ।
चतुर्ष्टषभसंयुक्तावक्तुं शक्यं न तत्फलं ।। ४६ ।।
सालग्रामशिलादानखर्णदानं च भूयत ।
महापुष्करयोर्गत्रवह्मातादात्म्येसिद्धिद ।। ४७ ।।
दानं कुंडलयुग्मस्यमुद्रिकादानमष्यथ ।
सूक्ष्मनस्त्रप्रदानं वच भगवद्वष्टिसिद्धिदं ।। ४८ ।।
महायायहं रसद्यो जीवन्मुक्ति फलप्रदं ।
श्रीमदष्टार्णसंसिद्धिप्रदसद्योमहीपते ।। ४९ ।।
महापुष्करयोगेन्नश्रीमादाचार्यतोयणं ।
यथोतविधिनावर्षार्ज्जातिस्माणसिद्धिदं ।। ५० ।।
पिहृणामपि सर्वेषां भगवत्पदसिद्धिदं ।
भूमियालेधनाढ्ये वाणरूपं वा ननंस्थितः ।। ५१ ।।
महापुष्करयोगेप्रदिनदादशके शुभे ।
श्वेताश्वदानं कुर्वीत हस्निदा न महत्फलं ।। ५४ ।।
शिविकांहोलिकादानं रात्रदानं च नित्यशः ।
वहुवस्त्रप्रदानं च धान्यदानं दिने दिने ।। ५३ ।।
सालग्रामशिआदानमपि कुर्वीत नित्यथः ।
नदारापूर्वकं हानमाचार्येभ्योविधीयते ।। ५४ ।।
पूर्वोक्तपत्रानुच्चार्यसंकल्शुभगुवत्पुरः ।
आचार्यचरणांभोजेदसाद्देव्य मतःपरं ।। ५५ ।।
आचार्यमंदिरे धेनुसवत्सां प्रेषयेनृप ।
पारितोषिकमेवास्मै स्वाचार्यायार्ययेद्धनं ।। ५६ ।।
प्. ९३ब्)
आचार्यानुज्ञयै वान्यश्रोत्रियेभ्योपि भूयते ।
दातव्यं सकलं दानं नान्यथा सिद्धिभश्च्युते ।। ५७ ।।
चणकान्युहृमाषांश्चति सान्यायहरानपि ।
दधिक्षीरं घृतं अव्यगुडं मधु च शर्करा ।। ५८ ।।
महापुष्करयोगेन्न फलाराशिं समर्प्य च ।
समस्तसंपत्साग्राज्यसिद्वयुक्तोयमुतिभाक् ।। ५९ ।।
श्रीमदष्टार्णविद्यायाःपुरश्चरणमादरात् ।
महापुष्करयोगेत्र कृत्वा सिद्धिं व्रजेत् परां ।। ६० ।।
अष्टाक्षरे मंत्रराजेसम्यकुसिद्धे महीयते ।
पश्यत्येव स्वचक्षुर्भ्या साक्षादेवश्रिवश्रियः पति ।। ६१ ।।
भगवदर्शनेनासौ भगवत्कलयान्वितः ।
स्वच्छपरणे भूत्वानिधिस्सकलसंपदां ।। ६२ ।।
आधारस्सर्वविद्यानां पुत्रापौत्र सुखान्वितः ।
मानुषानपि दिव्यांश्च भुक्त्वा भोगान्मनोरमान् ।। ६३ ।।
कुलसाहास्रसहितोवैकुंठेवसतिध्रुवं ।
पुष्पेमाद्दिवसे विष्णुनक्षत्रेर्कसमन्विते ।। ६४ ।।
अर्कवासरसंयुक्ते व्यतीयातसमन्विते ।
भानूदये सविज्ञेयोयोगोद्धोद्वयानामकः ।। ६५ ।।
सहस्राकं ग्रहसमोयोगोलभ्यौ महीयते ।
सोमवासासरयुक्तश्चेन्महोदय उदीरतः ।। ६६ ।।
अवश्यं सागरेस्नानं तत्र पातकं भंजन ।
भास्कंरोदयवेलायां तदास्तात्वा महोदधौ ।। ६७ ।।
आचार्यसन्निभावपिं प्रतिष्ठाब्धि समाहितः ।
लक्ष्मीपतिसंमाराध्यसेत्कास्कृते जातवेदसि ।। ६८ ।।
वृहदावरणौर्मंत्रैः कृत्वैकामथाहातिं ।
श्रीमदष्टार्णमंत्रेणतिलैर्गव्यघृतसुतैः ।। ६९ ।।
त्रिशाताधिकासाहस्रां हुत्वा यश्चान्महीयते ।
श्रीमंत्रेत्रणहुनेदाज्यं गव्यं त्रिशतमादरात् ।। ७० ।।
भगवद्रश्मिविद्याभिः कृत्वैकैकामथाहुतिं ।
जायाहि होमं कृत्वाथा प्रायश्चित्ताहुतीस्ततः ।। ७१ ।।
ब्रह्मर्पणाहुतिं कृत्वा नमस्कृत्याग्निमादरात् ।
श्रीश्रीयत्यर्चयेत्यश्ची त्रिशतं ब्रह्मविद्ययां ।। ७२ ।।
आचार्यचारणांभोजद्वयं साष्टांगमादरात् ।
नमस्कृत्य समभ्यर्च्ये वासो लंकरणदिभिः ।। ७३ ।।
वहुशास्य समामीर्णं चतुकृय समवितां ।
आचार्यामहांदद्याद्वहृदशिणयाव्वितां ।। ७४ ।।
मयोक्ता दक्षिणतुभ्यमुत्तमामध्यमाधमा ।
भूदानेदक्षिणांदद्यांत्त यथा वन्महीपते ।। ७५ ।।
प्. ९४अ)
सालग्रामशिलांदद्योदवश्यां दक्षिणान्वितां ।
आचार्यकर्णयोद्वेधान्मुक्ता संकरणं शुभं ।। ७६ ।।
रत्नालंकरणं वापि दद्यादाचार्यकर्णयोः ।
अवश्यंगोद्वयं दद्यात्यसत्संदक्षिणान्वितं ।। ७७ ।।
महादानानि कुर्त्रातविभवेसतिसाधकः ।
ब्राह्मणान्भोजयेत्प्रश्चाद्भोजयेच्च सुवासिनी ।। ७८ ।।
समर्पयेदथाचार्यपत्न्यैवासोयुगं शुभं ।
समर्पयेत्कांस्यपात्रभोजनार्थ सदक्षिणं ।। ७९ ।।
चतुःष्वष्टियलं वापि विंशत्पलमितं तु वासिनीः ।
समर्पयेदथाचा इत्थमर्धोदये कृत्वा कृत्वापि च महीदये ।। ८० ।।
श्रीमदष्टाक्षरीसिद्धिं सद्य एव व्रजत्यसौ ।
तदारभ्यहरिंमासिस्वमे प्रपश्यति ।। ८१ ।।
मनोरथार्थ स सिद्धिदैवतैरपि दुर्लभां ।
प्राप्नोत्यवश्यं भूपालसंशयो नात्र विद्यते ।। ८२ ।।
अर्धोदयेसिंधुतीरे हेमाभार सहस्रकं ।
दत्वा यत्फलमाप्नोति तत्फलं निष्कमात्रकं ।। ८३ ।।
श्रीमदष्टार्णहोमांते समथाद्धौदये नृप ।
ततीधिकफलं सांगं प्राप्नोत्यत्र न संशयः ।। ८४ ।।
तदीरभ्य महीपालहंद्रांद्यमरी अपि ।
सततं वरदास्तस्य भवत्पत्र न संशयः ।। ८५ ।।
वैशाखेश्च लायक्षेया भौमवासरसंयुता ।
चतुर्दशीवतिपातसहितास्वातिसंघुता ।। ८६ ।।
लक्षीन्सिंहयोगोयं सायंकाले स उच्यते ।
चतुर्विशतिभिर्वर्षैयोगोसौलभ्यते भुवि ।। ८७ ।।
घुटीत्रयादस्तमयापूर्वंस्तानं समाचरेत् ।
वाससीयरिधायाथ पितृन्संतर्प्य यत्नतः ।। ८८ ।।
कृत्वासायतनी संध्यां माचार्य प्रणिपत्य च ।
आचायो सान्निधौतस्य पुत्रं पत्नीमथापि वा ।। ८९ ।।
नमस्कृत्वाथपितृन्संतर्प्य यत्नतः *** ।
संकल्प्याप्राणानायम्यवाग्यतः त्रिशताधिकसाहस्रं समस्तन्यासं सद्यता ।।
९० ।।
श्रीमदष्टाक्षरीविद्याप्रजयेन्नियतव्रतः ।
लक्ष्मीविद्यासुसर्वासु विद्यामीष्टतमांततः ।। ९१ ।।
प्रजप्त्वा त्रिशतं यश्चीत्त्रिशतजातवेदसं ।
संस्कृत्य जगातानाथं तत्राभ्यर्च्योयचारकैः ।। ९२ ।।
श्रीमदष्टार्णमंत्रेणहुनेसं च शतं हविः ।
मध्वत्रितयसंमिश्रं गव्याज्य स्रुतमादरात् ।। ९३ ।।
घृतेन जुहुयाद यावष्टात्तरशतं श्रिया ।
भगवद्रश्मिविद्यामिष्टतमेकैकशो हुनेत् ।। ९४ ।।
प्रायश्चित्ताहुतिः कृत्वा कृत्वा ब्रह्मर्पणाहुतिं ।
नमस्कृत्यापिमाचार्य पादाब्ज दंडवन्नभेत् ।। ९५ ।।
प्. ९४ब्)
शर्करारससंयुक्तपात्रं पित्तलसंभवं ।
पंचविशसलं वपि विंशत्यलमितं तु वा ।। ९६ ।।
परिधानोत्तरीयार्थं वासोयुग्मं समर्थ च ।
चत्वारिंशत्पलमित्तं विंशत्यतमितं तु वा ।। ९७ ।।
आचार्ययादायोर्द्वत्वा हरिचंदनमुत्तमं ।
स्थूलं सुमधुरं चतफलराशिं समर्प्य च ।। ९८ ।।
आचार्यपादयोर्दद्याद्वर्षाशनमितं धनं ।
निष्कद्वादाशकं वामिनिष्क षब्दमथापि वा ।। ।।
वैशाखमासेप्यथ शुक्लपक्षे चतुर्दशी
मंगलवारयुक्तास्वातीव्यतीपानयुतायदिस्याल्लक्ष्मीनृसोहोयमलभ्ययोगः ।। १ ।।
मन्मंत्रमष्टाक्षरमंत्रतत्वाहत्वाथसायं गुरुपादयुग्मे
स्वीतीव्यतीपातयुतायहिस्याल्लक्ष्मीनृसिः ।
समर्प्यमातोत्थफलानि वासो युग्यं च गंधगुडनीरपात्र ।। २ ।।
समर्थवित्तं वहुलं च पश्चीदष्टाक्षरीसिद्धिमयैत्यवश्य ।
अहंप्रसन्नोच्छसमर्थसिद्धिंददीमिलक्ष्भावलां च विद्यां ।। ३ ।।
सुपुत्रपौत्रोद्यवती समृद्धिं दीर्घायुरारोग्यमनंतसौख्यं भुक्त्वा च ।
भोगानथ दिव्यमानुषान्प्रयाति वैकुंठपदममांते ।। ४ ।।
इत्थमष्टाक्षरीविद्या सिध्यर्थवसुधायर्तं ।
भूत्वा यत्नपरोनित्यमज्जेयेद्दक्षिणाधनं ।। ५ ।।
अत्यल्प दक्षिणो यागो यजमानं विनाशयेत् ।
अग्निछोमादयोयागाजपहोमादयो च ।। ६ ।।
ब्रह्मायज्ञादयोनित्यं सर्जयेदक्षिणाधनुं पागा अपि ।
महीयते सफलादक्षिणायुक्ता अफलादक्षिणां विना ।। ७ ।।
द्रव्याभावेकुतो धर्मो धर्महीने कुतः सुखं ।
तस्माद्वर्मरतोनित्यमर्जद्येद्वनसंधर्य ।। ८ ।।
पितामाता तथाचार्यस्तत्पत्नीतत्स अपि ।
कृत्वा कार्यशतं वापि योगोया दिने दिने ।। ९ ।।
यवानानपिभिक्षिप्त्वा शूद्रानप्यथयं च ।
मान आर्चयपत्नीपुत्राद्याः पोषणीयाने दिने ।। १०० ।।
न स्त्रीणां वचनं कार्यं मंदप्रज्ञापतः स्त्रियः ।
आचार्यस्याज्ञयानित्ये श्रेयस्कामीवसेन्नप ।। १११ ।।
वर्षे वर्षे पुरश्चर्यो कृत्वै कामपि साधकः ।
स्वर्वस्वदक्षिणं दद्याद्वर्षाशनमितं तु वा ।। १२ ।।
श्रीमदष्टाक्षरीसिद्धिषेवर्षे प्रजायते ।
रवौदुग्रहणं वर्षे वर्षेपि सततं भवेत् ।। १३ ।।
अवश्यं तत्र कर्तव्यं पुरश्चरणमादरात् ।
तत्रावश्यं पुरश्चर्या कृत्वा सूर्यस्य पर्वणि ।। १४ ।।
प्. ९५अ)
निष्कद्वयधनं वापि दत्वा सिद्धिमवाप्नुयात् ।
उक्तेष्वलभ्ययोगेषु संप्राप्त्येषु महीयते ।। १५ ।।
तत्रीवश्यं पुरश्चर्यां कृत्वा सांगां महीयते ।
वित्तशाठ्यं परित्यज्य दक्षिणामधमानुवा ।। १६ ।।
समष्ये श्रीमदष्टार्णमहासिद्धिसंमश्रुते ।
कृत्वा वश्यं पुरश्चर्यं योगे लभ्ये महीयते ।। १७ ।।
सोगदक्षिणयायुक्तां सद्यः सिद्धिसमन्वितः ।
भगवत्कलयायुक्तस्सद्यरावमवत्यसौ ।। १८ ।।
श्रीमदष्टाक्षरीविद्यापुरश्च्र्या यशस्करो ।
सांगदक्षिणयायुक्ता नवरात्रव्रतेकृताः ।। १९ ।।
अश्वमेध सहस्रस्यफलाअसानसंशयः ।
सहस्रकोटिसंख्याकस्वर्णदक्षिणयायुतं ।। २० ।।
सह्मवांजिमेधाना नवरात्र ततेशुभे ।
पुरश्चरणकृत्येनतेनेष्टं नात्रसंशयः ।। २१ ।।
व्रतांतरं प्रवक्ष्यामि चतुर्वर्गफलप्रदं ।
गुलं समस्तवेदेषु शास्त्रेष्वपि सुगोपितं ।। २२ ।।
कार्तिकेमार्गशीर्षे वा मेघे वा फाल्गुनेथ वा ।
वैशाखे श्रावणे वापि प्रथमे भृगुवासरे ।। २३ ।।
व्रतमारभ्यकुर्वातवर्षवर्षेत्रयंत वा ।
वर्षद्वादशकं वा विप्राणांतं वा महीपते ।। २४ ।।
प्रथमे भार्गवेवारे मासिमासि महीयते ।
श्रीमदष्टाक्षरीजस्वायाथाशक्त्या ससाहितः ।। २५ ।।
विधिवत्संस्कृते वह्नौ श्रीमदष्टार्णविद्यया ।
त्रिशतं जुहुयाद्रव्येनाज्येननियतव्रतः ।। २६ ।।
श्रीमंत्रेणापि जुहुयादष्टोत्तरशतं घृतं ।
भगवद्रश्मिविद्यामिरेकैकामाहुतिदृत् ।। २७ ।।
त्रिशतं पूजयेत् पुष्पैर्विल्वपत्रैरथापि वा ।
जोह्वप्रावालैरथवाश्रीश्रीशब्रह्मविद्ययाअ ।। २८ ।।
अष्टोत्तरशतं वापि पूजयेतुलसीदलौः ।
आवश्यभोजयेद्भक्ष्यभोज्यैराजायेवल्लभां ।। २९ ।।
मिथुनद्वितयंभोत्यमेकं मिथुनमेव वा ।
भार्गवे वासरेवश्यं निष्केनिप्लार्धमेवा वा ।। ३० ।।
समर्पयेदथाचार्ययंयल्यैकांचनमुत्तमं ।
सततं भार्गवेवारिदद्यादित्थं धनाधिकं ।। ३१ ।।
प्रथमेभार्गवेवारेमासिमास्य श्रवार्ययत् ।
आचार्यपत्नी संभोज्यामासिमास्यथवादिने ।। ३२ ।।
भार्गवेवासरेवश्यं निष्कमानसुवणेर्क ।
निष्काद्यं वायं येद्धीमान्भक्ष्याद्यैरपितौषयेत् ।। ३३ ।।
भोजनां तर्पयेद्धीमान्मिथुनस्यापि दक्षिणां ।
गुरुपत्न्या आसाभिध्ये लक्ष्मीलक्ष्मीश सन्निधौ ।। ३४ ।।
प्. ९५ब्)
आचार्यपत्नीमुद्दिश्य संकल्प्याप्यथ दक्षिणं ।
आदिमेभार्गवेवारे गुरुपादावतोर्पयेत् ।। ३५ ।।
नत्पुत्रायाथ वा दद्यात्संकल्पितधनं नृप ।
प्रथमेभार्गवेवारे मास्मिसीत्थमाचरेत् ।। ३६ ।।
मिथुनद्वितयं भोज्यमित्तेरषु ५ दिनेष्वपि ।
एकं वामीथुनंदद्यथाशक्त्या च दक्षिणं ।। ३७ ।।
श्रीमदष्टाक्षारीविद्यासिद्धिंसुमहतीपरा ।
इच्छन्व्रतमिदं कुर्यादवश्यं सिद्धिमश्नुते ।। ३८ ।।
आशौचादिपुतोवापिणेगैस्संपीडितोथवा ।
भार्गववासरे प्राप्ते प्रार्थयित्वा गुरुं विभुं ।। ३९ ।।
कारयेद्गुरुणावपि तत्पुत्ररथवा व्रतं ।
द्विगुणाद्दक्षिणादेया तदा चायोयधीमता ।। ४० ।।
भृगुवारव्रतमिदं लक्ष्मीनारायणप्रियं ।
कृत्वावश्यं महासिद्धिं व्रजत्यत्र नस्यंशयः ।। ४१ ।।
भृगुवारव्रतारुषोदर्वागेव महीयते ।
आचार्यानुग्रहाल्लक्ष्मीधनधान्यादि संकुलां ।। ४२ ।।
आचलां प्राप्यकं दर्पसमसौभाग्यसंयुतः ।
आयुष्यं महदारोग्यं श्रियमृषगुणा अपि ।। ४३ ।।
अभते नात्र संदेहष्पुत्रपौत्रादिसंकुलां ।
न वियुक्तो भवेत्यल्यापत्रैर्वायश्रुभिर्धनैः ।। ४४ ।।
नेष्टवंधुवियुक्तो वा भृगुवारव्रताद् भवेत् ।
इच्छता महतीं सिसिद्धिं श्रोयश्चाप्यक्षयं परं ।। ४५ ।।
भृगुवारव्रत्मिदं कर्तव्यं वसुधायते ।
एतच्छरीरयातांते दशापूर्वेर्दशापरैः ।। ४६ ।।
सहितः पुष्पंकदिव्यं दिव्यकल्याशत्ताचितं ।
आरूस्वभगवद्धामप्रयासत्र न संशयः ।। ४७ ।।
श्रीमदष्टाक्षीरी सिद्धिर्वह्वाधोक्तामयातव ।
श्रीमदष्टार्णविद्यायासिद्धियोर्यदि भविष्यति ।। ४८ ।।
प्रयांति भगवद्वामतस्यवंशोद्भवा अपि ।
अमुत्तर ब्रह्मतत्वरहस्ये श्रुतिसंदेहे ।
इति दाशरथीयेस्मिन् त्रिंशोध्याय उदीरितः ।। ४९ ।।
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीये तंत्रे वेदार्थसंग्रहे त्रिंशोध्यायाः
।।</poem>
sxaw57eb55rii7nw3htpfs3j7i55opb
दाशरथीयतन्त्रम्/अध्यायः ३१
0
163657
409316
2025-06-27T10:43:43Z
Shubha
190
{{header | title = [[../]] | author = | translator = | section = अध्यायः ३१ | previous = [[../अध्यायः ३०|अध्यायः ३०]] | next = [[../अध्यायः ३२|अध्यायः ३२]] | notes = }} <poem> प्. ९५ब्) श्रीभगवानुवाच श्रीमदष्टार्णमंत्रे... नवीन पृष्ठं निर्मीत अस्ती
409316
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः ३१
| previous = [[../अध्यायः ३०|अध्यायः ३०]]
| next = [[../अध्यायः ३२|अध्यायः ३२]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ९५ब्)
श्रीभगवानुवाच
श्रीमदष्टार्णमंत्रेणसिद्धनेत्थं महीयते |
साधयेत्काम्यकर्माणि समस्तानि ततः पर || १ ||
विनातातनयारूढमष्टवाहुं श्रियान्वितं |
दरारिचार्मासिगदायाराचायेषुधारिणं || २ ||
प्. ९६अ)
ध्यात्वा नारायणं मंत्री जप्त्वाष्टार्णं सहस्रकं |
स्थावरं जंगमं वापि कृतिमंचापि यद्विषं || ३ ||
तच्छरीरमनप्राप्यसद्यराववीनश्यति |
रविग्रहणे प्राप्तेतद्दिने सगुपोषितः || ४ ||
स्पर्शकालं समारभ्य मोक्षकालांतमादरात् |
स्पृशन्ब्राह्मीररंविधां श्रीमदष्टाक्षरीं जापन् || ५ ||
तत्पीत्वामंदबुद्धिर्वाजडोमूकोपि वा नृप |
पारगस्सर्वविद्यानां मासाभ्यंतरतो भवेत् || ६ ||
समुद्रतीरगोष्ठे वा लक्षं जप्त्वा ययो व्रतः |
पलाशा कुसुमैर्हुत्वादशसाहस्रमादरात् || ७ ||
मंदवद्विद्विद्धिरपि प्रज्ञासंपन्न कवितानिधिः |
चतुर्णामपि वेदानां पारगोवाग्विभूतिमान् || ८ ||
प्रवक्ताड श्रुते शास्त्राणां श्रातानामिवजायते |
तुलसीवनमध्यस्थो जप्त्वालक्षं यतव्रतः || ९ ||
दूर्वाभिरयुतं हुत्वा सर्वरोगविवर्जितः |
दीर्घापुष्पमवाप्नोति स्वच्छंदमरणे भवेत् || १० ||
शनैश्चरदिनेश्वत्थं सम्यगालभ्यपाणिना |
त्रिशताधिकसाहस्रं समस्तन्याससंतां || ११ ||
श्रीमदष्टाक्षरी जप्त्वा मृयते नायमृत्युभिः |
पंचविंशतिधानित्यमभिर्मंत्र्य जलं पिवेत् || १२ ||
विमुक्तः स्यान्महायायैरपि रोगैश्चदारुणौः |
पंचविंशतिधानित्यमभिमंत्र्याभमादरात् || १३ ||
भुंजानोलभते जातिस्मरणं ब्रह्मदर्शनं |
प्रतिमासव्यतीपाले योगे लक्ष्मीपतिश्रिये || १४ ||
त्रिशताधिक साहस्रं समस्तन्याससंयुतां |
श्रीमदष्टाक्षरीं जप्त्वा श्रीमंत्रत्रिशतं जपेत् || १५ ||
तिलैर्गव्योज्यसंमिश्रैः केवलेन घृतेन वा |
श्रीमदष्टार्णमंत्रेण त्रिशतं जुहुयादथ || १६ ||
आष्टोत्तरशतं पश्चीच्छ्रीमंत्रेण घृतेहनेत् |
भगवद्दश्मिविद्याभिरेकैकामाहुतिं हुनेत् || १७ ||
शतमष्टोत्तरं पुष्पैरर्चयेद्धस्तविद्याया |
निष्कनिष्कार्दमथवा स्वाचार्याया समर्प्ययेत् || १८ ||
वर्षमेकं व्यतीयात व्रतमित्थं समाचरन् |
महायायोययायीद्यौरपि रोरोगैर्विमुच्यते || १९ ||
संप्राप्य धनधान्याहि संकुलामचलांश्रियः |
भूव्या समस्तविद्यानां यारगस्सुदराकृतिः || २० ||
देहांते भगवद्धामव्रजत्पुत्र न संशयह् |
विल्वमूले समासीनो मंत्रराजं श्रियःपतेः || २१ ||
शतसाहस्रकं जप्त्वाल्वपत्रैर्घृतल्युतैः |
हुत्वाथ दशसाहास्रं राज्यलक्ष्मीमवान्युयात् || २२ ||
प्. ९६ब्)
नदीतीरेथगोष्ठे वा श्रीमदष्टाक्षरीशुभां |
लक्षमेकं प्रजप्त्वाथतपत्रैर्घृतप्लुतैः || २३ ||
हुत्वा युतं राजराजसहशोभवति श्रिया |
मार्गशीर्षे पौर्णमास्यामाचार्यानुज्ञयाशुचिः || २४ ||
प्रातः स्रात्वा विशुद्धात्मानि सकर्म समाप्य च |
समस्तन्यास सहितां श्रीमदष्टाक्षरीं श्रीभा || २५ ||
त्रिशताधिकसाहस्रं प्रजप्त्वामियत व्रतः |
त्रिशतं प्रजयेत्यश्चादिष्टमेकं श्रियोमनुं || २६ ||
त्रिशतं पूजयेत् पुष्पैः श्रीश्रीशब्रह्मविद्यया |
सालग्रामशिलाः चक्रमयोध्यानगराभिधं || २७ ||
प्रतिष्ठाप्य महच्चक्रमपिगुत्यंश्चियःपतेः |
प एकधैवोभयत्रापि लक्ष्मीनारायणै विभू || २८ ||
आर्चयित्वांपचारैश्च पूजयेद्ब्रह्मविद्यया |
पूर्णं निशाकरंदसूसायं सध्यामुपास्य च || २९ ||
मधुत्रितयसंयुक्तं गव्यक्षीरान्नमादरा |
न्निशतंजुयादग्रौश्रीमदष्टार्णविद्यया || ३० ||
श्रीमंत्रेणघृतं प्रश्चादष्टोत्तरशनं हुनेत् |
भगवद्रश्मिविद्याभिर्यतमेकैकशो हुनेत् || ३१ ||
अर्प्यत्रय प्रदायाथ श्रीश्रीशाम्यामर्थदवे |
आचार्यचरणांभोजे निष्कमानसुवर्णकं || ३२ ||
निष्कार्धेवा प्रद्रत्वाथ क्षीराहारो भवेद्व्रती |
हविष्याशी फलाशीवावरेष्कर्मिथुतद्वयं || ३३ ||
भोजयित्वा दक्षिणां चतांकलं च समर्पयेत् |
भुंजीत वंधुभिः सार्धमिष्टमन्नं ततः पर || ३४ ||
एकसंवत्सरं वापि कृत्वेत्थं व्रतमादरात् |
भगवंतं श्रियासार्धं पश्यत्येव स्वचक्षुषा || ३५ ||
धनधान्यगजाश्वाहिसहीतां रत्नसंकुलां |
अचलां श्रियमान्योति प्रसादार्हिदिरायतेः || ३६ ||
निरामयोपि दीर्घायुः कांत्यांकंहर्यसन्निभः |
महाकविर्महावाह्रीपुत्रपौत्रायौत्रादिसंयुतः || ३७ ||
भकेहसकलान्भोगान्कुलविंशतिसंयुतः |
प्राप्नोति भगवद्धागदेर्हाते नात्रसंशयः || ३८ ||
पौर्णमासीव्रतमिदं वत्सरन्नयमादरात् |
यः करोति विशुद्धात्माजातिंस्सरतियौर्विकी || ३९ ||
अणिमादि गुणैश्वर्यस्थे च रत्वं मनोजावं |
योगमद्यांगसहितमजरामरतामपि || ४० ||
प्राप्नोत्यवश्यं भूपालसंशयो नात्र विद्यते |
पौर्णमासीव्रतं पुण्यं विशेषर्क्षुदिनान्वितं || ४१ ||
प्रवक्ष्यामि समासेन सद्यरावेशितप्रदं |
चित्रायुक्तेदुवारेणसहिता चैत्रप्ताया || ४२ ||
प्. ९७अ)
पौर्णमाः महती ज्ञेया समस्ताद्यौद्यभंजीनी |
आचार्यानुज्ञया तत्र स्नात्वा प्रातस्समाहित || ४३ ||
तर्पयित्वा जलैः कृष्णातिलमिश्रौः पितृनथ आसने सम्यगा |
सीनास्समस्तन्याःद्यौवभंजनी आचार्यानुज्ञया तत्र ससंयुतां || ४४ ||
त्रिशताधिकसाहस्रं श्रीमदष्टाक्षरीं जपेत् |
त्रिशतं प्रजपेत्यश्चीदिष्टं श्रीमनुमादरात् || ४५ ||
जयेच्छी हृत् यस्तोतंत्रेधाथर्वणमिपूर्द |
पूर्णनिशाकरं इष्ट्वाज्वलिते जातवेदसि || ४६ ||
मधुत्रितयगव्याज्यप्लुतं हविरथादरात् |
श्रीमदष्टार्णमंत्रेण त्रिशतं जुहयादथ || ४७ ||
शतमष्टोत्तरं वह्नौ श्रीमंत्रेणघृतं हुनेत् |
आष्टोत्तरथथैः पुष्पैः श्रीश्रीशद्वादशार्णया || ४८ ||
अभ्यर्च्याचार्यपादाजेनिष्कत्रयमितंधनं |
द्विनिष्कमेकनिष्कं वा दक्षिणामर्ययेदथ || ४९ ||
क्षीराशीवाहविष्याशी पौर्णमासी दिने शुभे |
मिथुनत्रितयंभोज्यपरेद्युद्धिंतयं तु वा || ५० ||
इत्थां कृत्वा पुरश्चयोफलं प्राप्नोति साधकः |
इदमेव व्रतं कृत्वा रविसंक्रमणान्विते || ५२ ||
पुरश्वत्थूयां त्रयफले प्राप्नोत्यत्र न संशयः |
एतदेव्रतं कुर्वन्निदग्रहणसंयुत || ५२ ||
पुरश्चर्या द्वादशाकफलं प्राप्नोति सोधकः |
एकेन दिवसेनेत्थेमवस्यं सिद्धिमान्भवेत् || ५३ ||
वैशाखे पौर्णेमीसौम्यवासरेण समन्विता |
विशाखासहिपूणीवैशाखामहतिसृता || ५४ ||
तत्राचार्यं नमस्कृत्यन्यातः स्नात्वा यतव्रतः |
नैत्यकं कर्मकृत्वाथ समीमस्तन्याससंयुतां || ५५ ||
त्रिशताधिकसाहस्रं श्रीमदष्टाक्षरि जपेत् |
त्रिरात्रं व्रजयेत्पश्चादिष्टं श्रीमंत्रमादरा || ५६ ||
अभ्यर्च्य त्रिशतं पुष्पेःपत्रैर् वा ब्रह्मविद्याया |
दष्टनिशाकरं पूर्णेज्वलितेताजातवेदसि || ५७ ||
श्रीमदष्टार्णमंत्रेणत्रिमधुप्नुतपायसं |
श्रीमंत्रेणहुनेद्रव्यमाज्यं त्रिशतमादरात् || ५८ ||
एकैकीभागवद्रश्मिमंत्रेराज्याहुतिं ततः |
चत्वारिंशत्पलवीपिविशत्पलमित्तं तु वा || ५९ ||
आचार्यचरणांभोजे समर्प्य हरिवंदनं |
शययां सोयस्करां दत्वा यथा शक्त्या सा दक्षिणं || ६० ||
फलराशिधधुतस्यपनसस्यफलद्वयं |
समर्च्य दक्षिणां दद्यादेकनिष्कधनं तु वा || ६१ ||
प्. ९७ब्)
भक्ष्यभोज्यघृतायूययुतं दध्योवनं शुभं |
मिथुनद्वितयं भोज्यं परे पूर्वसुधायते || ६२ ||
भुजीतवंधुभिस्स्यर्द्धसयमथन्नमादरात् |
श्रीमदष्टाणैविद्यायाः पुरश्चर्याद्वयं शुभ || ६३ ||
कृतं तेन न संदेहस्सत्यं सत्यं वादाम्यहं |
कृतेत्थमेव सविसुशां क्रमेणप्तमन्विते || ६४ ||
पुरश्चर्याष्टकस्या सौ प्राप्नोति फलमक्षयं |
यदीद्ग्रहणं तत्र वै**(?)रेव पौर्णसी दिने || ६५ ||
एतदेवव्रत कृत्वा दैवतैरपि दुर्लभां |
श्रीमदष्टार्णविद्याया महतीं सिद्धिमश्रुते || ६६ ||
द्विगुणदशिणादेयापूर्णद्यां रविसंक्रमे |
त्रिगुणादक्षिणादया चंद्रपर्वसमन्विते || ६७ ||
पौर्णमासीत्येष्ठमासे याभृगुवासरसंयुता |
ज्येष्टानक्षत्रसंयुक्ता महतीज्येष्टपौर्णमा || ६८ ||
आचागुणां दक्षिणादेयाचंद्रपर्वसमन्विते |
आचार्याज्ञां समादाय प्रातेः स्रात्वा विशुद्धधीः || ६९ ||
आवश्यकं कर्मकृत्वा समस्तन्यास संयुतां |
त्रिशताधिकसाहस्रं श्रीमद्दृष्टाक्षरीती जपेत् ||
जप्त्वायीष्टमनुं लक्ष्म्याः साधकस्त्रिंशतं ततः || ७० ||
सायं सम्ध्यामुयास्याथजलितेजातवेदसि |
त्रिशतं श्रीमदष्टार्णविद्या त्रिमधुस्रातं || ७१ ||
पायसं जुहुमात्यश्रीच्छीमंत्रेण शतं घृतं |
भगवद्रश्मिविद्यामिराज्येन जुहुयात्त्रिधा || ७२ ||
त्रिशतं पूज्ययेत्पश्चाच्च्वी श्रीशद्वादशार्णया |
आचार्यचरणांभोजे निष्कमानधनं तु वा || ७३ ||
समप्येपानसद्राक्षा फलव्रतफलान्वितं |
आचार्यपत्न्यै श्रीवुध्यासत्पालंकारमर्पयेत् || ७४ ||
निष्कमानसुवर्णं वा निष्कार्धं वा महीपते |
मिथुनचितयंभोज्यत्तस्मिन्नेव दिने वुधैः || ७५ ||
स्वायमप्यवनीनाथभूंजीयाद्वधुभिस्सह |
पुरश्चर्यात्रयफलंव्रतेनानेन जायते || ७६ ||
यदि संक्रमणं तत्र पौर्णमास्यां प्रजापते || ७८ ||
विशेषहीमं कृत्वाय श्रीमादृष्टार्णविद्याया |
त्रिनिष्कदक्षिणां वापि दत्वाचार्य पदांवुजः || ७९ ||
चतुर्विंशत्पुरश्चर्याफलं प्राप्नोति शाश्वतं |
आषाढे पौर्णमासीयवैश्वद्दैवत्यसंयुता || ८० ||
भानुवास स संयुक्ता महती समुदीरिता |
द्वैपापनः पुरातस्या ममून्मत्वा लयान्वितः || ८१ ||
अवश्यं तत्र कर्तव्यं व्रतं सकलसिद्धिहं |
पौर्णेमास्यामाथाषाठ्याप्रातःस्रात्वा विशुद्धधीः || ८२ ||
प्राताः संध्यामुयास्याथ नित्यहोमसमाप्य च |
तर्पयित्वापि हृन्यश्चात् समस्तन्यास संयुता || ८३ ||
त्रिशताधिक साहस्रं श्रीमदष्टाक्षरीं जपेत् |
त्रिशत प्रजयेल्लक्ष्मीमंत्रमि.ष्ततंमंशुतं || ८४ ||
प्. ९८अ)
भगवद्रश्मिसूक्तं च यं वधावर्तयते ततः |
सायं संध्यामुयास्याथ मधुत्यरितयमिश्रितं || ८५ ||
पायसं जुहुयाच्छीमदष्टार्णेन शतत्रयं |
श्रीमत्रेण हुनेत् प्रश्चीदृष्टोत्तरशतं घृतं || ८६ ||
नगवद्रश्मिविद्याभिश्चीज्यमेवौकशोहुनेत् |
अर्चयेत्त्रिशतं ब्रह्मविद्ययाकुसुमादिभिः || ८७ ||
क्षीराशीवालाशीवाहिनेतस्मीन्व्रती भवेत् |
गुरुपादाब्जयुग्मेथ दद्यात्रिष्कधनं तु वा || ८८ ||
परेषुर्भोजयेद्भक्ष्यभोज्याद्यैर्मिथुनद्वयं |
इत्थं कृत्वा पुरश्चर्याफलं सांगमवाप्नुयात् || ८९ ||
श्रीमदष्टर्णं विद्यायाः सुधाः सिद्धिः प्रजायते |
यदि संक्रमणं तत्र कृत्वेत्थेव्रतमादरात् || ९० ||
अवश्यं फलमान्योति त्रिपुरश्चरणीद्भवं |
ग्रहणं यदि तत्र स्यात् सुधाशोर्वसुधायते || ९१ ||
एतुचेव व्रतं कुर्वनुरश्चरणपंचकात् |
यादृशी जायते सिद्धिस्तामेवाप्नोति शाश्वातो || ९२ ||
श्रीवणे पौर्णोमासी यावैष्यं समन्विता |
ईदवाससं युक्ता मूरती समुदीरिती || ९३ ||
तस्यानादिकं पुण्यमक्षयानंद सौख्यदं |
तत्राधार्याज्ञायास्रात्वा कृत्वा धर्माथनैत्यकं || ९४ ||
आसने सगासी भस्ममस्तन्यासं सयुतां |
त्रिशताधिकसाहस्रश्रीमदाष्टाक्षरी जपेत् || ९५ ||
त्रिशतं प्रजपेदिष्टा श्रियोमत्र मतःपरं |
सार्ये सध्यामुयास्याथज्वलिते जातवेदसि || ९६ ||
श्रीमदष्टार्णमंत्रेण त्रिशतं त्रिमधुसुतं |
पायसं जुहुयाल्लक्ष्मीमंत्रेणाथ घृतं शुभ || ९७ ||
भगवद्रश्मिविद्याभिः कृत्वकैकीघृताहुति |
अर्चयेत्त्रिशतं पुष्पैः पत्रेर्वा ब्रह्मविद्याद्यया || ९८ ||
आचार्यपादयोर्दत्वानिष्कमात्रधनं तु वा |
पुरश्चर्याफलं सागसद्यराव लभेध्रुवं || ९९ ||
रविसंक्रमयं तत्र जायते यदि भूपते |
पुरश्चर्यात्र एकलं प्राप्रोत्यत्र न संशयः || १०० ||
सोमस्य ग्रहणं तत्र यदिस्यादूधायते |
चंद्रचूडामासिनोन्नायोणै लभ्य उदाहृतः || १ ||
तत्रावश्यं पुरश्चर्यौ कृत्वा पूर्वमुदीरितां |
वर्षाशनमितद्रव्यमथवागुरवेर्प्ययेत् || २ ||
शालग्राम्शिलीशुद्धां निष्कित्रितयदाक्षिणां |
आथवाचार्यहस्ता दत्वा समाहती परा || ३ ||
सिद्धिमाप्नोति शुद्धात्मापुरश्चर्योशतीद्भवां |
आजनक्षात्रसहितापूर्णा भाद्रपदेपियाः || ४ ||
सौम्यवासरसंयुक्तां महती समुदीरिता |
तत्राचार्यज्ञया प्रातर्नित्यकर्मसमाथ च || ५ ||
प्. ९८ब्)
त्रिशताधिकसाहस्रं समस्तन्याससंयुतां |
श्रीमदष्टाक्षीरीजाप्त्वा श्रीमंत्रं त्रिशतं जपेत् || ६ ||
सायंसंध्याप्नुयास्याथ संस्कृतेजातवेदसि |
मधुत्रितयगव्याज्यप्लुतं पायससादरात् || ७ ||
त्रिशतं जुहुयाच्छ्रीमदष्टाक्षपत्तितः परं |
श्रीमंत्रेणहुनेदात्यमष्टोत्तरशतं नृप || ८ ||
आज्येनाहुतिमैकेकाकुर्याद्रश्मिभिरादरात् |
त्रिशतं तुलसीर्षत्रैरर्चयद्वब्रह्मविद्याया || ९ ||
निष्कमात्र सुवर्णांदि प्रदृत्वाचार्यपादयोः |
क्षीराशी वा फलाशी वा दिवसेत्र ततः परं || १० ||
मिथुनद्वियं यश्चीसरेद्युभोजयद्व्रती |
पुरश्चर्याफलं प्रीप्यसिद्धिप्रीप्नोति शाश्वतीं || ११ ||
यदि संक्रमणां तत्र पुरश्चर्या त्रयोद्भवं |
फलं प्राप्नोति सोमस्यग्रहणं जायते यदि || १२ ||
निष्कत्रयं द्विनिष्कं वा प्रदत्वाचार्यपादयोः |
एकविंशत्पुरश्चर्याप्रान्यात्व यथाक्षयंश्चर्यात्रयोद्भवं |
फलं प्राप्नोति सोमस्य ग्रहण्णं जायते यदि || १३ ||
अश्विनक्षत्र सहिता पौर्णमास्याश्विने यदि |
गुरुवासरसंयुक्तामक्तामहतीसाससीरिता || १४ ||
श्रीमदष्टार्णविधायाजपहोमादिकं शुभं |
कृत्वा पूर्ववदारभ्यदत्वाचार्यस्य दक्षिणं || १५ ||
परेद्युभौजपेद्युम्रत्रिजपं दक्षिणान्वितं |
पुरश्चर्यात्रयफलं सांगमंत्रव्रजत्यसौ || १६ ||
रविसक्रांतिसहिते कृत्वेदं व्रतमादरात् |
पंचवारपुरश्चर्याफलसांगमप्रुयात् || १७ ||
ग्रहणं यदि तत्रस्याज्जपहोमादिकं शुभं |
कृत्वाचार्य पदांभोजे समथोथ त्रिनिष्क || १८ ||
एकादशपुरश्चर्याफलं प्राप्नोत्यथाक्षयं |
कार्तिके पौर्णेमासीयावहिदैवत्यसंयुता || १९ ||
इंदूवासरसं युक्ता कार्तिकीमहीतीस्मृती |
आचायोनुज्ञाया तत्र नित्यकर्मसामाप्य च || २० ||
त्रिशताधिकसाहस्रं समस्तन्याससंयुतां |
श्रीमदष्टाक्षरितस्वाश्रीमंत्रत्रिशतं जपेत् || २१ ||
दिवैवजुहुयादग्रौयायसंत्रिमधुप्लुतं |
श्रीमदृष्ट्वाणं मंत्रेण त्रिशतं साधाकोत्तमाः || २२ ||
श्रीमंत्रेणाथ जुहुयाच्छतमष्टोत्तरं घृतं |
एकैकोभागवाद्रश्मिमंत्रैराज्याहुतिं हुनेत् ||
धात्रीमूलेर्चयेत् यश्चीद्धात्रीभिर्ब्रह्मविद्यया |
राशिंधात्री फलानां च संस्थाप्याचार्य स सन्निधौ || २४ ||
निष्कयद्वमितं वापि निष्कद्वयामितं तु वा |
दक्षिणां गुरुपाआन्नेदत्वाधात्री फलान्वितं || २५ ||
तत्रैव भोजयेद्युग्मपंचकं भगवद्धिया |
पूर्णं निशाकरदृष्ट्वा प्रदत्वार्घ्यं त्रिधेदवे || २६ ||
आचार्यपत्नीमभ्यर्च्य श्रीवुध्यावस्त्रभूषणैः |
श्रीमदष्टाक्षरीविधा सिद्धिसुमहातीमपि || २७ ||
प्. ९९अ)
प्राप्नोत्यवश्यंदेवानां दुल्लेभामपि भूपते |
रविसंक्रमणं तत्र यदिस्याद्वषुधायते || २८ ||
जपहोमादिर्क कृत्वा श्रीमदष्टार्णे विद्यया |
द्विगुणं दक्षिणां दद्यादाचार्यस्य पदांवुजे || २९ ||
पुरश्चर्याद्वादशाकफलं सागमवाप्नुयात् |
सुधांशुग्रहणे तत्र व्रतमेवेदमादरात् || ३० ||
कृत्वाथयं च निष्कणिप्रहृत्वाचार्ययादयोः |
चतुःषष्ठिपुरश्चयां फलं सांग्रमवान्युयात् || ३१ ||
मार्गशीर्षे पौर्णमासीत्योमदैवत्यसंयुता |
भूगवासरसंयुक्तामहतासंप्रकीकीर्तित || ३२ ||
तत्राचार्याज्ञयाप्रातर्नित्यकर्मसमाथ च |
त्रिसत्ताधिकासाहस्रं समस्तन्याससयतां || ३३ ||
श्रीमदष्टक्षरीं जप्त्वासंस्कृते जातवेदसि |
मधुत्रितयगव्याज्यमिश्रंतिल्वदृसान्वितं || ३४ ||
श्रीमदष्टार्णेमंत्रेण त्रिशतं पापपसं हुनेत् |
श्रीमंत्रेणहुनेराज्यं शतमष्टोत्तरं वुधः || ३५ ||
भगवद्रश्मिभिस्रेधाकुर्यादाज्याहुतीस्ततः |
मिथुनत्रिनयंभोज्यं भक्ष्यसूपघृतादिभिः || ३६ ||
प्रदद्याद्वहलं द्रव्यमाचार्यस्य पदांवुजै |
निष्कश्यं प्रदातव्य हरिद्रेणापि भूपते || ३७ ||
निष्कमात्रसु वर्णे वा गुरुपत्न्यै समर्प्येर्यत् |
सायं संध्यामुपास्याथ जपेच्छ्री हृदयस्तवं || ३८ ||
पंचधाश्रीमदष्टार्णसिद्धिमत्यंतिकीपरां |
आष्टावारपुरश्चर्यासमुद्द्रूतां व्रजत्यसो || ३९ ||
तत्रापिरिविसंक्रांतियंदिस्याद्वसुधापते |
विल्वपत्रैस्सुमभ्यर्च्य त्रिशतं ब्रह्मविद्यया || ४० ||
दक्षिणं द्विगुणं दत्वा महासिद्धिमवोप्रयात् |
मृगांकग्रहणं तत्र यदिस्यद्व सुधायते || ४१ ||
***** अलभ्यो सौ महीयोनाम्ना चिंतः |
चंद्रचूडामणावुक्त होमं कृत्वा सदक्षिणं || ४२ ||
पुरश्चयो शतफलमवश्यं लभते ध्रुवं |
पुष्पमास्यर्कचारेण सहितायौणौमीयदि || ४३ ||
वाचस्पत्य समाद्युक्ता महती समुदीरिता |
आचार्यानुज्ञायाप्यत्रमातः संध्यो समाप्य च || ४४ ||
नित्यहोमं समाप्याथ समस्तन्याससंयुतां |
त्रिशताधिकसाहस्रं श्रीमदष्टाक्षरीतयेत् || ४५ ||
त्रिशतं प्रजपेत्यश्चाद्दिष्टं श्रीमनुमादरात् |
आचार्यसच्चिधाष्वग्निं संस्कृत्यविधि च ततः || ४६ ||
श्रीमदष्टार्णमंत्रेणतिलविल्वदलान्वितं |
त्रिशतं जुहुयादग्नौ पापसंत्रिमधुप्लुतं || ४७ ||
श्रीमंत्रेणहुनेदात्यमष्टोत्तरशतं ततः |
भगवद्रश्मिविद्याभिः कुर्यादाज्याहुतिं त्रिधाः || ४८ ||
उत्पलैरच्चेयेत्पश्चात्त्रिशतं ब्रह्मतीद्यया |
तिकद्वय सुवर्णं वा दृधाहाचार्यपादयो || ४९ ||
प्. ९९ब्)
यद्यर्क संक्रमस्तत्रजायते वसुधापते |
चूडामणिरयं योगोनाम्नालभ्य उदाहृतः || ५० ||
हत्वा पंचशतं वह्नौतिनभध्वाज्यपायसं |
त्रिनिष्कदक्षिणावापि दृत्वाचार्य पदांवुजे || ५१ ||
चतुर्विशत्पुरश्चर्याफलं सांगमवाप्नुयात् |
मृगांकग्रहणं पुण्यं यदितप्रभवेन्नृप || ५२ ||
श्रीमदष्टार्णमनुनाजपहोमादिकं शुभं |
शुद्धमंडलर्यंत कर्तस्याद्विशेषतः || ५३ ||
त्रिनिष्कदक्षिणां वापि सालग्रामशिलांशुभां |
कुंडलद्वयसंयुक्तां प्रदृत्वाचार्य पादयोः || ५४ ||
चतुःषष्टिपुरश्चर्याफलं सांगं महीयते |
प्राथावश्यपरां सिद्धिं व्रजत्यत्र न संशयः || ५५ ||
युग्मद्वादशाशकं भोज्यं मिथुनत्रितयं तु वा |
माद्यमासे पौर्णमासो पितृनक्षत्रसंयुता || ५६ ||
इंद्रवासरसक्तां माहती संप्रकीर्तिता |
गुरोरनुज्ञायाप्यत्र समाष्यावश्यकं विधिं || ५७ ||
त्रिशताधिकसाहस्रं समस्तन्यासंयुता |
श्रीमदष्टाक्षरीं जाह्वा श्रीमत्रत्रिशत जुहुयाद्धविः || ५९ ||
अष्टोत्तरशतं पश्चाच्छ्रीमंत्रेण घृतं हुनेत् |
मिथुनत्रितयंभोज्यं भक्षसूयादिकैरथै || ६० ||
सायं संध्यामुपाह्याथ दत्वात्रेधार्घ्यमिदवे |
उत्पलैरर्चयेत् पश्चात्रिशतेव वहविद्यया || ६१ ||
निष्कमान सुवर्णं वा दत्वाचार्य पदांवुजे |
पुरश्चर्यात्र फलं सांगं प्राप्नोति शाश्वतं || ६२ ||
यदिस्याद्रविसंक्राति कृत्वेदृं व्रत मत्र
सहिगुणाद्दक्षिणाहेयास्वाचार्यपदपंअजे पुरश्चरण |
षट्कस्य लभते फलमुत्तयंयुदीदग्रराहणं तत्र जायते सुधापते || ६३ ||
चंडचूडामणिनाम्ना योगोलभ्योप्ययं |
नयचंद्रचूडामणावुक्तजपाहिकमथादरात् || ६४ ||
आत्राप्यवश्यं कर्तव्यं महतीसिद्धिच्छता |
चतुःषष्टिपुरश्चर्य फलंसागंगं व्रजत्यसौ || ६५ ||
फाल्गुनाषौर्णेमासीद्याभगद्वैवत्यासंवुता |
भानुवासरसं युक्ता महाते सा समीरिता || ६६ ||
आचार्यानुज्ञयाप्यत्रस्नात्वामं समाप्य च |
जपहोमाद्विकं कार्य माघवद्वसुधापते || ६७ ||
पुरश्चर्या फलं मार्यमादृगुक्तं माहीयते |
तद्देव कलमुद्दिष्टमत्रापि नहि संशयः || ६८ ||
एकस्यां पूर्णियायां वामहत्यां वसुधाययैत् |
यथोक्तमेतत्कृत्वासो सिद्धविधः प्रजायते || ६९ ||
प्. १००अ)
तत्र न क्षत्रसहिता प्रह्मारसामन्विता |
तत्तन्मासेपौर्णमासी महती सा प्रकीर्तिताः || ७० ||
श्रीमदष्टार्णविद्याया इच्छन्सिद्धिमनुत्तमां |
एकस्यां पौर्णमास्या वा व्रतं कर्तव्यमादरात् || ७१ ||
साधाको सौ भगवतकलयासहितो भवेत् |
येषु पूवसुद्यत्सांगं जपहोमादि कि शुभं || ७२ ||
यद्यद्दुक्तं मयाभूयत कृत्वा सांगमादरात् |
न विद्या सिद्विमात्योति नास्यसिद्धिति वांछितं || ७३ ||
नानायेनि सहस्रेषु जन्मकर्मविमिश्रितं |
नानरकदः खानिचार्य च पुनः पुना || ७४ ||
श्रीमदष्टार्णविद्यायास्सिध्यर्थ यत्रवान्भवेत् |
श्रीमदाष्टाक्षरिसिद्धियादिस्याद्दषुधायर्त || ७५ ||
भगवत्कलयायुक्तः स्वच्छंदमरणे भवेत् |
अलभ्ययोगे संप्राप्ते भिक्षित्वा शूद्रकानपि || ७६ ||
आचार्यदक्षिणंदत्वा जपहोमादिकं चरेत् |
सद्य एव प्रदातव्यं हानद्रवां महीयते || ७७ ||
ऋणं कृपिभिक्षित्वाविद्यासिद्धिमभीशता |
अन्नंग्रासमितं वापि याचयेन्नगुरोः कुलेः || ७८ ||
आचार्यात् पितृमातृम्यानं ग्राह्यस्वर्णम एवपि |
प्रयत्ने नापि संपाद्य दातव्यं गुरवे धनं || ७९ ||
मनः संकल्पितं द्रव्यमाचार्य चरणांवुजे |
सद्य एव प्रदातव्यमीच्छतासिद्धिमुत्तमां || ८० ||
प्. १००ब्)
नवित्तशाठ्यं प्रकुर्वीत सिद्धिकामोजित्तमः |
कुंडलद्वितयाप्यातं यदलंकरणमुत्तमं || ८१ ||
आचार्यकर्णयोर्दत्वा योगे लभ्येयशास्कारे |
सद्यसीद्धिमवाप्या सौपीन्दृन् स्वर्गं न यत्यति || ८२ ||
उत्तमादक्षीणासद्यः प्रहृता सर्वसीद्धिता |
अर्द्धसीद्धिप्रदाप्रोक्ता दक्षिणामासमात्रतः || ८३ ||
अधमा मासयुग्मेन प्रदता धर्मसीद्धिदा |
उर्द्धं मासत्रयादत्तानिस्कलामात्रसंशयः || ८४ ||
येनकेनाप्युपायेन गुरुपादायादाब्ज सन्निधौ |
प्रदक्षीणा सद्यौ मासाद्वाफलदायिनी || ८५ ||
इमारमेशसंपूर्णं प्रसादार्यं महीयते |
श्रीमदष्टाक्षरीति भवर्तव्या फलदायिनी || ८६ ||
अनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये श्रुतिसंग्रहे |
अध्या एकत्रिंशोयमुक्तोभीष्टफलप्रदः || ८७ ||
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीतंत्रेवेदार्थसंग्रहे
एकत्रींशोध्याय ||</poem>
l1tc5g7drwkvpsjctzg8wzdyzz1b885
409317
409316
2025-06-27T10:44:01Z
Shubha
190
409317
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः ३१
| previous = [[../अध्यायः ३०|अध्यायः ३०]]
| next = [[../अध्यायः ३२|अध्यायः ३२]]
| notes =
}}
<poem>
प्. ९५ब्)
श्रीभगवानुवाच
श्रीमदष्टार्णमंत्रेणसिद्धनेत्थं महीयते ।
साधयेत्काम्यकर्माणि समस्तानि ततः पर ।। १ ।।
विनातातनयारूढमष्टवाहुं श्रियान्वितं ।
दरारिचार्मासिगदायाराचायेषुधारिणं ।। २ ।।
प्. ९६अ)
ध्यात्वा नारायणं मंत्री जप्त्वाष्टार्णं सहस्रकं ।
स्थावरं जंगमं वापि कृतिमंचापि यद्विषं ।। ३ ।।
तच्छरीरमनप्राप्यसद्यराववीनश्यति ।
रविग्रहणे प्राप्तेतद्दिने सगुपोषितः ।। ४ ।।
स्पर्शकालं समारभ्य मोक्षकालांतमादरात् ।
स्पृशन्ब्राह्मीररंविधां श्रीमदष्टाक्षरीं जापन् ।। ५ ।।
तत्पीत्वामंदबुद्धिर्वाजडोमूकोपि वा नृप ।
पारगस्सर्वविद्यानां मासाभ्यंतरतो भवेत् ।। ६ ।।
समुद्रतीरगोष्ठे वा लक्षं जप्त्वा ययो व्रतः ।
पलाशा कुसुमैर्हुत्वादशसाहस्रमादरात् ।। ७ ।।
मंदवद्विद्विद्धिरपि प्रज्ञासंपन्न कवितानिधिः ।
चतुर्णामपि वेदानां पारगोवाग्विभूतिमान् ।। ८ ।।
प्रवक्ताड श्रुते शास्त्राणां श्रातानामिवजायते ।
तुलसीवनमध्यस्थो जप्त्वालक्षं यतव्रतः ।। ९ ।।
दूर्वाभिरयुतं हुत्वा सर्वरोगविवर्जितः ।
दीर्घापुष्पमवाप्नोति स्वच्छंदमरणे भवेत् ।। १० ।।
शनैश्चरदिनेश्वत्थं सम्यगालभ्यपाणिना ।
त्रिशताधिकसाहस्रं समस्तन्याससंतां ।। ११ ।।
श्रीमदष्टाक्षरी जप्त्वा मृयते नायमृत्युभिः ।
पंचविंशतिधानित्यमभिर्मंत्र्य जलं पिवेत् ।। १२ ।।
विमुक्तः स्यान्महायायैरपि रोगैश्चदारुणौः ।
पंचविंशतिधानित्यमभिमंत्र्याभमादरात् ।। १३ ।।
भुंजानोलभते जातिस्मरणं ब्रह्मदर्शनं ।
प्रतिमासव्यतीपाले योगे लक्ष्मीपतिश्रिये ।। १४ ।।
त्रिशताधिक साहस्रं समस्तन्याससंयुतां ।
श्रीमदष्टाक्षरीं जप्त्वा श्रीमंत्रत्रिशतं जपेत् ।। १५ ।।
तिलैर्गव्योज्यसंमिश्रैः केवलेन घृतेन वा ।
श्रीमदष्टार्णमंत्रेण त्रिशतं जुहुयादथ ।। १६ ।।
आष्टोत्तरशतं पश्चीच्छ्रीमंत्रेण घृतेहनेत् ।
भगवद्दश्मिविद्याभिरेकैकामाहुतिं हुनेत् ।। १७ ।।
शतमष्टोत्तरं पुष्पैरर्चयेद्धस्तविद्याया ।
निष्कनिष्कार्दमथवा स्वाचार्याया समर्प्ययेत् ।। १८ ।।
वर्षमेकं व्यतीयात व्रतमित्थं समाचरन् ।
महायायोययायीद्यौरपि रोरोगैर्विमुच्यते ।। १९ ।।
संप्राप्य धनधान्याहि संकुलामचलांश्रियः ।
भूव्या समस्तविद्यानां यारगस्सुदराकृतिः ।। २० ।।
देहांते भगवद्धामव्रजत्पुत्र न संशयह् ।
विल्वमूले समासीनो मंत्रराजं श्रियःपतेः ।। २१ ।।
शतसाहस्रकं जप्त्वाल्वपत्रैर्घृतल्युतैः ।
हुत्वाथ दशसाहास्रं राज्यलक्ष्मीमवान्युयात् ।। २२ ।।
प्. ९६ब्)
नदीतीरेथगोष्ठे वा श्रीमदष्टाक्षरीशुभां ।
लक्षमेकं प्रजप्त्वाथतपत्रैर्घृतप्लुतैः ।। २३ ।।
हुत्वा युतं राजराजसहशोभवति श्रिया ।
मार्गशीर्षे पौर्णमास्यामाचार्यानुज्ञयाशुचिः ।। २४ ।।
प्रातः स्रात्वा विशुद्धात्मानि सकर्म समाप्य च ।
समस्तन्यास सहितां श्रीमदष्टाक्षरीं श्रीभा ।। २५ ।।
त्रिशताधिकसाहस्रं प्रजप्त्वामियत व्रतः ।
त्रिशतं प्रजयेत्यश्चादिष्टमेकं श्रियोमनुं ।। २६ ।।
त्रिशतं पूजयेत् पुष्पैः श्रीश्रीशब्रह्मविद्यया ।
सालग्रामशिलाः चक्रमयोध्यानगराभिधं ।। २७ ।।
प्रतिष्ठाप्य महच्चक्रमपिगुत्यंश्चियःपतेः ।
प एकधैवोभयत्रापि लक्ष्मीनारायणै विभू ।। २८ ।।
आर्चयित्वांपचारैश्च पूजयेद्ब्रह्मविद्यया ।
पूर्णं निशाकरंदसूसायं सध्यामुपास्य च ।। २९ ।।
मधुत्रितयसंयुक्तं गव्यक्षीरान्नमादरा ।
न्निशतंजुयादग्रौश्रीमदष्टार्णविद्यया ।। ३० ।।
श्रीमंत्रेणघृतं प्रश्चादष्टोत्तरशनं हुनेत् ।
भगवद्रश्मिविद्याभिर्यतमेकैकशो हुनेत् ।। ३१ ।।
अर्प्यत्रय प्रदायाथ श्रीश्रीशाम्यामर्थदवे ।
आचार्यचरणांभोजे निष्कमानसुवर्णकं ।। ३२ ।।
निष्कार्धेवा प्रद्रत्वाथ क्षीराहारो भवेद्व्रती ।
हविष्याशी फलाशीवावरेष्कर्मिथुतद्वयं ।। ३३ ।।
भोजयित्वा दक्षिणां चतांकलं च समर्पयेत् ।
भुंजीत वंधुभिः सार्धमिष्टमन्नं ततः पर ।। ३४ ।।
एकसंवत्सरं वापि कृत्वेत्थं व्रतमादरात् ।
भगवंतं श्रियासार्धं पश्यत्येव स्वचक्षुषा ।। ३५ ।।
धनधान्यगजाश्वाहिसहीतां रत्नसंकुलां ।
अचलां श्रियमान्योति प्रसादार्हिदिरायतेः ।। ३६ ।।
निरामयोपि दीर्घायुः कांत्यांकंहर्यसन्निभः ।
महाकविर्महावाह्रीपुत्रपौत्रायौत्रादिसंयुतः ।। ३७ ।।
भकेहसकलान्भोगान्कुलविंशतिसंयुतः ।
प्राप्नोति भगवद्धागदेर्हाते नात्रसंशयः ।। ३८ ।।
पौर्णमासीव्रतमिदं वत्सरन्नयमादरात् ।
यः करोति विशुद्धात्माजातिंस्सरतियौर्विकी ।। ३९ ।।
अणिमादि गुणैश्वर्यस्थे च रत्वं मनोजावं ।
योगमद्यांगसहितमजरामरतामपि ।। ४० ।।
प्राप्नोत्यवश्यं भूपालसंशयो नात्र विद्यते ।
पौर्णमासीव्रतं पुण्यं विशेषर्क्षुदिनान्वितं ।। ४१ ।।
प्रवक्ष्यामि समासेन सद्यरावेशितप्रदं ।
चित्रायुक्तेदुवारेणसहिता चैत्रप्ताया ।। ४२ ।।
प्. ९७अ)
पौर्णमाः महती ज्ञेया समस्ताद्यौद्यभंजीनी ।
आचार्यानुज्ञया तत्र स्नात्वा प्रातस्समाहित ।। ४३ ।।
तर्पयित्वा जलैः कृष्णातिलमिश्रौः पितृनथ आसने सम्यगा ।
सीनास्समस्तन्याःद्यौवभंजनी आचार्यानुज्ञया तत्र ससंयुतां ।। ४४ ।।
त्रिशताधिकसाहस्रं श्रीमदष्टाक्षरीं जपेत् ।
त्रिशतं प्रजपेत्यश्चीदिष्टं श्रीमनुमादरात् ।। ४५ ।।
जयेच्छी हृत् यस्तोतंत्रेधाथर्वणमिपूर्द ।
पूर्णनिशाकरं इष्ट्वाज्वलिते जातवेदसि ।। ४६ ।।
मधुत्रितयगव्याज्यप्लुतं हविरथादरात् ।
श्रीमदष्टार्णमंत्रेण त्रिशतं जुहयादथ ।। ४७ ।।
शतमष्टोत्तरं वह्नौ श्रीमंत्रेणघृतं हुनेत् ।
आष्टोत्तरथथैः पुष्पैः श्रीश्रीशद्वादशार्णया ।। ४८ ।।
अभ्यर्च्याचार्यपादाजेनिष्कत्रयमितंधनं ।
द्विनिष्कमेकनिष्कं वा दक्षिणामर्ययेदथ ।। ४९ ।।
क्षीराशीवाहविष्याशी पौर्णमासी दिने शुभे ।
मिथुनत्रितयंभोज्यपरेद्युद्धिंतयं तु वा ।। ५० ।।
इत्थां कृत्वा पुरश्चयोफलं प्राप्नोति साधकः ।
इदमेव व्रतं कृत्वा रविसंक्रमणान्विते ।। ५२ ।।
पुरश्वत्थूयां त्रयफले प्राप्नोत्यत्र न संशयः ।
एतदेव्रतं कुर्वन्निदग्रहणसंयुत ।। ५२ ।।
पुरश्चर्या द्वादशाकफलं प्राप्नोति सोधकः ।
एकेन दिवसेनेत्थेमवस्यं सिद्धिमान्भवेत् ।। ५३ ।।
वैशाखे पौर्णेमीसौम्यवासरेण समन्विता ।
विशाखासहिपूणीवैशाखामहतिसृता ।। ५४ ।।
तत्राचार्यं नमस्कृत्यन्यातः स्नात्वा यतव्रतः ।
नैत्यकं कर्मकृत्वाथ समीमस्तन्याससंयुतां ।। ५५ ।।
त्रिशताधिकसाहस्रं श्रीमदष्टाक्षरि जपेत् ।
त्रिरात्रं व्रजयेत्पश्चादिष्टं श्रीमंत्रमादरा ।। ५६ ।।
अभ्यर्च्य त्रिशतं पुष्पेःपत्रैर् वा ब्रह्मविद्याया ।
दष्टनिशाकरं पूर्णेज्वलितेताजातवेदसि ।। ५७ ।।
श्रीमदष्टार्णमंत्रेणत्रिमधुप्नुतपायसं ।
श्रीमंत्रेणहुनेद्रव्यमाज्यं त्रिशतमादरात् ।। ५८ ।।
एकैकीभागवद्रश्मिमंत्रेराज्याहुतिं ततः ।
चत्वारिंशत्पलवीपिविशत्पलमित्तं तु वा ।। ५९ ।।
आचार्यचरणांभोजे समर्प्य हरिवंदनं ।
शययां सोयस्करां दत्वा यथा शक्त्या सा दक्षिणं ।। ६० ।।
फलराशिधधुतस्यपनसस्यफलद्वयं ।
समर्च्य दक्षिणां दद्यादेकनिष्कधनं तु वा ।। ६१ ।।
प्. ९७ब्)
भक्ष्यभोज्यघृतायूययुतं दध्योवनं शुभं ।
मिथुनद्वितयं भोज्यं परे पूर्वसुधायते ।। ६२ ।।
भुजीतवंधुभिस्स्यर्द्धसयमथन्नमादरात् ।
श्रीमदष्टाणैविद्यायाः पुरश्चर्याद्वयं शुभ ।। ६३ ।।
कृतं तेन न संदेहस्सत्यं सत्यं वादाम्यहं ।
कृतेत्थमेव सविसुशां क्रमेणप्तमन्विते ।। ६४ ।।
पुरश्चर्याष्टकस्या सौ प्राप्नोति फलमक्षयं ।
यदीद्ग्रहणं तत्र वै**(?)रेव पौर्णसी दिने ।। ६५ ।।
एतदेवव्रत कृत्वा दैवतैरपि दुर्लभां ।
श्रीमदष्टार्णविद्याया महतीं सिद्धिमश्रुते ।। ६६ ।।
द्विगुणदशिणादेयापूर्णद्यां रविसंक्रमे ।
त्रिगुणादक्षिणादया चंद्रपर्वसमन्विते ।। ६७ ।।
पौर्णमासीत्येष्ठमासे याभृगुवासरसंयुता ।
ज्येष्टानक्षत्रसंयुक्ता महतीज्येष्टपौर्णमा ।। ६८ ।।
आचागुणां दक्षिणादेयाचंद्रपर्वसमन्विते ।
आचार्याज्ञां समादाय प्रातेः स्रात्वा विशुद्धधीः ।। ६९ ।।
आवश्यकं कर्मकृत्वा समस्तन्यास संयुतां ।
त्रिशताधिकसाहस्रं श्रीमद्दृष्टाक्षरीती जपेत् ।।
जप्त्वायीष्टमनुं लक्ष्म्याः साधकस्त्रिंशतं ततः ।। ७० ।।
सायं सम्ध्यामुयास्याथजलितेजातवेदसि ।
त्रिशतं श्रीमदष्टार्णविद्या त्रिमधुस्रातं ।। ७१ ।।
पायसं जुहुमात्यश्रीच्छीमंत्रेण शतं घृतं ।
भगवद्रश्मिविद्यामिराज्येन जुहुयात्त्रिधा ।। ७२ ।।
त्रिशतं पूज्ययेत्पश्चाच्च्वी श्रीशद्वादशार्णया ।
आचार्यचरणांभोजे निष्कमानधनं तु वा ।। ७३ ।।
समप्येपानसद्राक्षा फलव्रतफलान्वितं ।
आचार्यपत्न्यै श्रीवुध्यासत्पालंकारमर्पयेत् ।। ७४ ।।
निष्कमानसुवर्णं वा निष्कार्धं वा महीपते ।
मिथुनचितयंभोज्यत्तस्मिन्नेव दिने वुधैः ।। ७५ ।।
स्वायमप्यवनीनाथभूंजीयाद्वधुभिस्सह ।
पुरश्चर्यात्रयफलंव्रतेनानेन जायते ।। ७६ ।।
यदि संक्रमणं तत्र पौर्णमास्यां प्रजापते ।। ७८ ।।
विशेषहीमं कृत्वाय श्रीमादृष्टार्णविद्याया ।
त्रिनिष्कदक्षिणां वापि दत्वाचार्य पदांवुजः ।। ७९ ।।
चतुर्विंशत्पुरश्चर्याफलं प्राप्नोति शाश्वतं ।
आषाढे पौर्णमासीयवैश्वद्दैवत्यसंयुता ।। ८० ।।
भानुवास स संयुक्ता महती समुदीरिता ।
द्वैपापनः पुरातस्या ममून्मत्वा लयान्वितः ।। ८१ ।।
अवश्यं तत्र कर्तव्यं व्रतं सकलसिद्धिहं ।
पौर्णेमास्यामाथाषाठ्याप्रातःस्रात्वा विशुद्धधीः ।। ८२ ।।
प्राताः संध्यामुयास्याथ नित्यहोमसमाप्य च ।
तर्पयित्वापि हृन्यश्चात् समस्तन्यास संयुता ।। ८३ ।।
त्रिशताधिक साहस्रं श्रीमदष्टाक्षरीं जपेत् ।
त्रिशत प्रजयेल्लक्ष्मीमंत्रमि.ष्ततंमंशुतं ।। ८४ ।।
प्. ९८अ)
भगवद्रश्मिसूक्तं च यं वधावर्तयते ततः ।
सायं संध्यामुयास्याथ मधुत्यरितयमिश्रितं ।। ८५ ।।
पायसं जुहुयाच्छीमदष्टार्णेन शतत्रयं ।
श्रीमत्रेण हुनेत् प्रश्चीदृष्टोत्तरशतं घृतं ।। ८६ ।।
नगवद्रश्मिविद्याभिश्चीज्यमेवौकशोहुनेत् ।
अर्चयेत्त्रिशतं ब्रह्मविद्ययाकुसुमादिभिः ।। ८७ ।।
क्षीराशीवालाशीवाहिनेतस्मीन्व्रती भवेत् ।
गुरुपादाब्जयुग्मेथ दद्यात्रिष्कधनं तु वा ।। ८८ ।।
परेषुर्भोजयेद्भक्ष्यभोज्याद्यैर्मिथुनद्वयं ।
इत्थं कृत्वा पुरश्चर्याफलं सांगमवाप्नुयात् ।। ८९ ।।
श्रीमदष्टर्णं विद्यायाः सुधाः सिद्धिः प्रजायते ।
यदि संक्रमणं तत्र कृत्वेत्थेव्रतमादरात् ।। ९० ।।
अवश्यं फलमान्योति त्रिपुरश्चरणीद्भवं ।
ग्रहणं यदि तत्र स्यात् सुधाशोर्वसुधायते ।। ९१ ।।
एतुचेव व्रतं कुर्वनुरश्चरणपंचकात् ।
यादृशी जायते सिद्धिस्तामेवाप्नोति शाश्वातो ।। ९२ ।।
श्रीवणे पौर्णोमासी यावैष्यं समन्विता ।
ईदवाससं युक्ता मूरती समुदीरिती ।। ९३ ।।
तस्यानादिकं पुण्यमक्षयानंद सौख्यदं ।
तत्राधार्याज्ञायास्रात्वा कृत्वा धर्माथनैत्यकं ।। ९४ ।।
आसने सगासी भस्ममस्तन्यासं सयुतां ।
त्रिशताधिकसाहस्रश्रीमदाष्टाक्षरी जपेत् ।। ९५ ।।
त्रिशतं प्रजपेदिष्टा श्रियोमत्र मतःपरं ।
सार्ये सध्यामुयास्याथज्वलिते जातवेदसि ।। ९६ ।।
श्रीमदष्टार्णमंत्रेण त्रिशतं त्रिमधुसुतं ।
पायसं जुहुयाल्लक्ष्मीमंत्रेणाथ घृतं शुभ ।। ९७ ।।
भगवद्रश्मिविद्याभिः कृत्वकैकीघृताहुति ।
अर्चयेत्त्रिशतं पुष्पैः पत्रेर्वा ब्रह्मविद्याद्यया ।। ९८ ।।
आचार्यपादयोर्दत्वानिष्कमात्रधनं तु वा ।
पुरश्चर्याफलं सागसद्यराव लभेध्रुवं ।। ९९ ।।
रविसंक्रमयं तत्र जायते यदि भूपते ।
पुरश्चर्यात्र एकलं प्राप्रोत्यत्र न संशयः ।। १०० ।।
सोमस्य ग्रहणं तत्र यदिस्यादूधायते ।
चंद्रचूडामासिनोन्नायोणै लभ्य उदाहृतः ।। १ ।।
तत्रावश्यं पुरश्चर्यौ कृत्वा पूर्वमुदीरितां ।
वर्षाशनमितद्रव्यमथवागुरवेर्प्ययेत् ।। २ ।।
शालग्राम्शिलीशुद्धां निष्कित्रितयदाक्षिणां ।
आथवाचार्यहस्ता दत्वा समाहती परा ।। ३ ।।
सिद्धिमाप्नोति शुद्धात्मापुरश्चर्योशतीद्भवां ।
आजनक्षात्रसहितापूर्णा भाद्रपदेपियाः ।। ४ ।।
सौम्यवासरसंयुक्तां महती समुदीरिता ।
तत्राचार्यज्ञया प्रातर्नित्यकर्मसमाथ च ।। ५ ।।
प्. ९८ब्)
त्रिशताधिकसाहस्रं समस्तन्याससंयुतां ।
श्रीमदष्टाक्षीरीजाप्त्वा श्रीमंत्रं त्रिशतं जपेत् ।। ६ ।।
सायंसंध्याप्नुयास्याथ संस्कृतेजातवेदसि ।
मधुत्रितयगव्याज्यप्लुतं पायससादरात् ।। ७ ।।
त्रिशतं जुहुयाच्छ्रीमदष्टाक्षपत्तितः परं ।
श्रीमंत्रेणहुनेदात्यमष्टोत्तरशतं नृप ।। ८ ।।
आज्येनाहुतिमैकेकाकुर्याद्रश्मिभिरादरात् ।
त्रिशतं तुलसीर्षत्रैरर्चयद्वब्रह्मविद्याया ।। ९ ।।
निष्कमात्र सुवर्णांदि प्रदृत्वाचार्यपादयोः ।
क्षीराशी वा फलाशी वा दिवसेत्र ततः परं ।। १० ।।
मिथुनद्वियं यश्चीसरेद्युभोजयद्व्रती ।
पुरश्चर्याफलं प्रीप्यसिद्धिप्रीप्नोति शाश्वतीं ।। ११ ।।
यदि संक्रमणां तत्र पुरश्चर्या त्रयोद्भवं ।
फलं प्राप्नोति सोमस्यग्रहणं जायते यदि ।। १२ ।।
निष्कत्रयं द्विनिष्कं वा प्रदत्वाचार्यपादयोः ।
एकविंशत्पुरश्चर्याप्रान्यात्व यथाक्षयंश्चर्यात्रयोद्भवं ।
फलं प्राप्नोति सोमस्य ग्रहण्णं जायते यदि ।। १३ ।।
अश्विनक्षत्र सहिता पौर्णमास्याश्विने यदि ।
गुरुवासरसंयुक्तामक्तामहतीसाससीरिता ।। १४ ।।
श्रीमदष्टार्णविधायाजपहोमादिकं शुभं ।
कृत्वा पूर्ववदारभ्यदत्वाचार्यस्य दक्षिणं ।। १५ ।।
परेद्युभौजपेद्युम्रत्रिजपं दक्षिणान्वितं ।
पुरश्चर्यात्रयफलं सांगमंत्रव्रजत्यसौ ।। १६ ।।
रविसक्रांतिसहिते कृत्वेदं व्रतमादरात् ।
पंचवारपुरश्चर्याफलसांगमप्रुयात् ।। १७ ।।
ग्रहणं यदि तत्रस्याज्जपहोमादिकं शुभं ।
कृत्वाचार्य पदांभोजे समथोथ त्रिनिष्क ।। १८ ।।
एकादशपुरश्चर्याफलं प्राप्नोत्यथाक्षयं ।
कार्तिके पौर्णेमासीयावहिदैवत्यसंयुता ।। १९ ।।
इंदूवासरसं युक्ता कार्तिकीमहीतीस्मृती ।
आचायोनुज्ञाया तत्र नित्यकर्मसामाप्य च ।। २० ।।
त्रिशताधिकसाहस्रं समस्तन्याससंयुतां ।
श्रीमदष्टाक्षरितस्वाश्रीमंत्रत्रिशतं जपेत् ।। २१ ।।
दिवैवजुहुयादग्रौयायसंत्रिमधुप्लुतं ।
श्रीमदृष्ट्वाणं मंत्रेण त्रिशतं साधाकोत्तमाः ।। २२ ।।
श्रीमंत्रेणाथ जुहुयाच्छतमष्टोत्तरं घृतं ।
एकैकोभागवाद्रश्मिमंत्रैराज्याहुतिं हुनेत् ।।
धात्रीमूलेर्चयेत् यश्चीद्धात्रीभिर्ब्रह्मविद्यया ।
राशिंधात्री फलानां च संस्थाप्याचार्य स सन्निधौ ।। २४ ।।
निष्कयद्वमितं वापि निष्कद्वयामितं तु वा ।
दक्षिणां गुरुपाआन्नेदत्वाधात्री फलान्वितं ।। २५ ।।
तत्रैव भोजयेद्युग्मपंचकं भगवद्धिया ।
पूर्णं निशाकरदृष्ट्वा प्रदत्वार्घ्यं त्रिधेदवे ।। २६ ।।
आचार्यपत्नीमभ्यर्च्य श्रीवुध्यावस्त्रभूषणैः ।
श्रीमदष्टाक्षरीविधा सिद्धिसुमहातीमपि ।। २७ ।।
प्. ९९अ)
प्राप्नोत्यवश्यंदेवानां दुल्लेभामपि भूपते ।
रविसंक्रमणं तत्र यदिस्याद्वषुधायते ।। २८ ।।
जपहोमादिर्क कृत्वा श्रीमदष्टार्णे विद्यया ।
द्विगुणं दक्षिणां दद्यादाचार्यस्य पदांवुजे ।। २९ ।।
पुरश्चर्याद्वादशाकफलं सागमवाप्नुयात् ।
सुधांशुग्रहणे तत्र व्रतमेवेदमादरात् ।। ३० ।।
कृत्वाथयं च निष्कणिप्रहृत्वाचार्ययादयोः ।
चतुःषष्ठिपुरश्चयां फलं सांग्रमवान्युयात् ।। ३१ ।।
मार्गशीर्षे पौर्णमासीत्योमदैवत्यसंयुता ।
भूगवासरसंयुक्तामहतासंप्रकीकीर्तित ।। ३२ ।।
तत्राचार्याज्ञयाप्रातर्नित्यकर्मसमाथ च ।
त्रिसत्ताधिकासाहस्रं समस्तन्याससयतां ।। ३३ ।।
श्रीमदष्टक्षरीं जप्त्वासंस्कृते जातवेदसि ।
मधुत्रितयगव्याज्यमिश्रंतिल्वदृसान्वितं ।। ३४ ।।
श्रीमदष्टार्णेमंत्रेण त्रिशतं पापपसं हुनेत् ।
श्रीमंत्रेणहुनेराज्यं शतमष्टोत्तरं वुधः ।। ३५ ।।
भगवद्रश्मिभिस्रेधाकुर्यादाज्याहुतीस्ततः ।
मिथुनत्रिनयंभोज्यं भक्ष्यसूपघृतादिभिः ।। ३६ ।।
प्रदद्याद्वहलं द्रव्यमाचार्यस्य पदांवुजै ।
निष्कश्यं प्रदातव्य हरिद्रेणापि भूपते ।। ३७ ।।
निष्कमात्रसु वर्णे वा गुरुपत्न्यै समर्प्येर्यत् ।
सायं संध्यामुपास्याथ जपेच्छ्री हृदयस्तवं ।। ३८ ।।
पंचधाश्रीमदष्टार्णसिद्धिमत्यंतिकीपरां ।
आष्टावारपुरश्चर्यासमुद्द्रूतां व्रजत्यसो ।। ३९ ।।
तत्रापिरिविसंक्रांतियंदिस्याद्वसुधापते ।
विल्वपत्रैस्सुमभ्यर्च्य त्रिशतं ब्रह्मविद्यया ।। ४० ।।
दक्षिणं द्विगुणं दत्वा महासिद्धिमवोप्रयात् ।
मृगांकग्रहणं तत्र यदिस्यद्व सुधायते ।। ४१ ।।
***** अलभ्यो सौ महीयोनाम्ना चिंतः ।
चंद्रचूडामणावुक्त होमं कृत्वा सदक्षिणं ।। ४२ ।।
पुरश्चयो शतफलमवश्यं लभते ध्रुवं ।
पुष्पमास्यर्कचारेण सहितायौणौमीयदि ।। ४३ ।।
वाचस्पत्य समाद्युक्ता महती समुदीरिता ।
आचार्यानुज्ञायाप्यत्रमातः संध्यो समाप्य च ।। ४४ ।।
नित्यहोमं समाप्याथ समस्तन्याससंयुतां ।
त्रिशताधिकसाहस्रं श्रीमदष्टाक्षरीतयेत् ।। ४५ ।।
त्रिशतं प्रजपेत्यश्चाद्दिष्टं श्रीमनुमादरात् ।
आचार्यसच्चिधाष्वग्निं संस्कृत्यविधि च ततः ।। ४६ ।।
श्रीमदष्टार्णमंत्रेणतिलविल्वदलान्वितं ।
त्रिशतं जुहुयादग्नौ पापसंत्रिमधुप्लुतं ।। ४७ ।।
श्रीमंत्रेणहुनेदात्यमष्टोत्तरशतं ततः ।
भगवद्रश्मिविद्याभिः कुर्यादाज्याहुतिं त्रिधाः ।। ४८ ।।
उत्पलैरच्चेयेत्पश्चात्त्रिशतं ब्रह्मतीद्यया ।
तिकद्वय सुवर्णं वा दृधाहाचार्यपादयो ।। ४९ ।।
प्. ९९ब्)
यद्यर्क संक्रमस्तत्रजायते वसुधापते ।
चूडामणिरयं योगोनाम्नालभ्य उदाहृतः ।। ५० ।।
हत्वा पंचशतं वह्नौतिनभध्वाज्यपायसं ।
त्रिनिष्कदक्षिणावापि दृत्वाचार्य पदांवुजे ।। ५१ ।।
चतुर्विशत्पुरश्चर्याफलं सांगमवाप्नुयात् ।
मृगांकग्रहणं पुण्यं यदितप्रभवेन्नृप ।। ५२ ।।
श्रीमदष्टार्णमनुनाजपहोमादिकं शुभं ।
शुद्धमंडलर्यंत कर्तस्याद्विशेषतः ।। ५३ ।।
त्रिनिष्कदक्षिणां वापि सालग्रामशिलांशुभां ।
कुंडलद्वयसंयुक्तां प्रदृत्वाचार्य पादयोः ।। ५४ ।।
चतुःषष्टिपुरश्चर्याफलं सांगं महीयते ।
प्राथावश्यपरां सिद्धिं व्रजत्यत्र न संशयः ।। ५५ ।।
युग्मद्वादशाशकं भोज्यं मिथुनत्रितयं तु वा ।
माद्यमासे पौर्णमासो पितृनक्षत्रसंयुता ।। ५६ ।।
इंद्रवासरसक्तां माहती संप्रकीर्तिता ।
गुरोरनुज्ञायाप्यत्र समाष्यावश्यकं विधिं ।। ५७ ।।
त्रिशताधिकसाहस्रं समस्तन्यासंयुता ।
श्रीमदष्टाक्षरीं जाह्वा श्रीमत्रत्रिशत जुहुयाद्धविः ।। ५९ ।।
अष्टोत्तरशतं पश्चाच्छ्रीमंत्रेण घृतं हुनेत् ।
मिथुनत्रितयंभोज्यं भक्षसूयादिकैरथै ।। ६० ।।
सायं संध्यामुपाह्याथ दत्वात्रेधार्घ्यमिदवे ।
उत्पलैरर्चयेत् पश्चात्रिशतेव वहविद्यया ।। ६१ ।।
निष्कमान सुवर्णं वा दत्वाचार्य पदांवुजे ।
पुरश्चर्यात्र फलं सांगं प्राप्नोति शाश्वतं ।। ६२ ।।
यदिस्याद्रविसंक्राति कृत्वेदृं व्रत मत्र
सहिगुणाद्दक्षिणाहेयास्वाचार्यपदपंअजे पुरश्चरण ।
षट्कस्य लभते फलमुत्तयंयुदीदग्रराहणं तत्र जायते सुधापते ।। ६३ ।।
चंडचूडामणिनाम्ना योगोलभ्योप्ययं ।
नयचंद्रचूडामणावुक्तजपाहिकमथादरात् ।। ६४ ।।
आत्राप्यवश्यं कर्तव्यं महतीसिद्धिच्छता ।
चतुःषष्टिपुरश्चर्य फलंसागंगं व्रजत्यसौ ।। ६५ ।।
फाल्गुनाषौर्णेमासीद्याभगद्वैवत्यासंवुता ।
भानुवासरसं युक्ता महाते सा समीरिता ।। ६६ ।।
आचार्यानुज्ञयाप्यत्रस्नात्वामं समाप्य च ।
जपहोमाद्विकं कार्य माघवद्वसुधापते ।। ६७ ।।
पुरश्चर्या फलं मार्यमादृगुक्तं माहीयते ।
तद्देव कलमुद्दिष्टमत्रापि नहि संशयः ।। ६८ ।।
एकस्यां पूर्णियायां वामहत्यां वसुधाययैत् ।
यथोक्तमेतत्कृत्वासो सिद्धविधः प्रजायते ।। ६९ ।।
प्. १००अ)
तत्र न क्षत्रसहिता प्रह्मारसामन्विता ।
तत्तन्मासेपौर्णमासी महती सा प्रकीर्तिताः ।। ७० ।।
श्रीमदष्टार्णविद्याया इच्छन्सिद्धिमनुत्तमां ।
एकस्यां पौर्णमास्या वा व्रतं कर्तव्यमादरात् ।। ७१ ।।
साधाको सौ भगवतकलयासहितो भवेत् ।
येषु पूवसुद्यत्सांगं जपहोमादि कि शुभं ।। ७२ ।।
यद्यद्दुक्तं मयाभूयत कृत्वा सांगमादरात् ।
न विद्या सिद्विमात्योति नास्यसिद्धिति वांछितं ।। ७३ ।।
नानायेनि सहस्रेषु जन्मकर्मविमिश्रितं ।
नानरकदः खानिचार्य च पुनः पुना ।। ७४ ।।
श्रीमदष्टार्णविद्यायास्सिध्यर्थ यत्रवान्भवेत् ।
श्रीमदाष्टाक्षरिसिद्धियादिस्याद्दषुधायर्त ।। ७५ ।।
भगवत्कलयायुक्तः स्वच्छंदमरणे भवेत् ।
अलभ्ययोगे संप्राप्ते भिक्षित्वा शूद्रकानपि ।। ७६ ।।
आचार्यदक्षिणंदत्वा जपहोमादिकं चरेत् ।
सद्य एव प्रदातव्यं हानद्रवां महीयते ।। ७७ ।।
ऋणं कृपिभिक्षित्वाविद्यासिद्धिमभीशता ।
अन्नंग्रासमितं वापि याचयेन्नगुरोः कुलेः ।। ७८ ।।
आचार्यात् पितृमातृम्यानं ग्राह्यस्वर्णम एवपि ।
प्रयत्ने नापि संपाद्य दातव्यं गुरवे धनं ।। ७९ ।।
मनः संकल्पितं द्रव्यमाचार्य चरणांवुजे ।
सद्य एव प्रदातव्यमीच्छतासिद्धिमुत्तमां ।। ८० ।।
प्. १००ब्)
नवित्तशाठ्यं प्रकुर्वीत सिद्धिकामोजित्तमः ।
कुंडलद्वितयाप्यातं यदलंकरणमुत्तमं ।। ८१ ।।
आचार्यकर्णयोर्दत्वा योगे लभ्येयशास्कारे ।
सद्यसीद्धिमवाप्या सौपीन्दृन् स्वर्गं न यत्यति ।। ८२ ।।
उत्तमादक्षीणासद्यः प्रहृता सर्वसीद्धिता ।
अर्द्धसीद्धिप्रदाप्रोक्ता दक्षिणामासमात्रतः ।। ८३ ।।
अधमा मासयुग्मेन प्रदता धर्मसीद्धिदा ।
उर्द्धं मासत्रयादत्तानिस्कलामात्रसंशयः ।। ८४ ।।
येनकेनाप्युपायेन गुरुपादायादाब्ज सन्निधौ ।
प्रदक्षीणा सद्यौ मासाद्वाफलदायिनी ।। ८५ ।।
इमारमेशसंपूर्णं प्रसादार्यं महीयते ।
श्रीमदष्टाक्षरीति भवर्तव्या फलदायिनी ।। ८६ ।।
अनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये श्रुतिसंग्रहे ।
अध्या एकत्रिंशोयमुक्तोभीष्टफलप्रदः ।। ८७ ।।
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीतंत्रेवेदार्थसंग्रहे
एकत्रींशोध्याय ।।</poem>
5vrdxr6ygjdxhv6dz01pgc4vxxoc4og
दाशरथीयतन्त्रम्/अध्यायः ३२
0
163658
409320
2025-06-27T10:49:09Z
Shubha
190
{{header | title = [[../]] | author = | translator = | section = अध्यायः ३२ | previous = [[../अध्यायः ३१|अध्यायः ३१]] | next = [[../अध्यायः ३३|अध्यायः ३३]] | notes = }} <poem> प्. १००ब्) श्रीऋष्यशृंग उवाच एतावदुक्ता भगवान... नवीन पृष्ठं निर्मीत अस्ती
409320
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः ३२
| previous = [[../अध्यायः ३१|अध्यायः ३१]]
| next = [[../अध्यायः ३३|अध्यायः ३३]]
| notes =
}}
<poem>
प्. १००ब्)
श्रीऋष्यशृंग उवाच
एतावदुक्ता भगवान् रामोदाशरथीर्विभुः |
पुनराहकृहादेवं ब्रह्मर्षीणां च सन्निधौ || १ ||
श्रीभगवान उवाच
शृणु शंकरगौरीश भूयोथोष्टार्णसाधनं |
यच्छ्रुत्वापीनरोधीमानसीद्धीमेतां महत्तरां || २ ||
श्रीमदष्टार्णविद्यायापत्पुरश्चरणं महत् |
लक्षषोडषकं प्रोक्तं यद्यैत्सद्यसीद्धिहेतुकं || ३ ||
सततं धर्मचितत्वादायुषोवह्वलत्वतः |
तत्पुरश्चरणादेवसीद्धिः कृतयुगादिषु || ४ ||
अस्मीन्कलियुगेघोरेश्चित्तस्छैर्याद्यभावतः |
*** रोगादोष वह्वलत्वतः तया तथा || ५ ||
एकेनदिवसे नैव सीद्धिः कार्याविचक्षणैः |
श्रीमदष्टार्णविद्यायामसीद्धायां महीतले || ६ ||
श्रीमदष्टार्णमंत्रस्यकोटि सोपि जपादीभीः |
लक्ष्मीपतिसादस्यालेशोपी न हि जायते || ७ ||
प्. १०१अ)
तस्मादवर्शं कर्तव्यं पुरश्चरश्चणमादरात् |
अवस्यंसीद्धिमाप्नोति पुरश्चरणकृत्यतः || ८ ||
लक्ष्मीनारायणेयोगेंखीदुग्रहणे तथा |
नवरात्रोव्रते चापी पुरश्चरणकर्मणा || ९ ||
अवश्यं जायते सीद्धिर्मंत्रराजस्य सीद्धिदा |
नवरात्रेव्रते प्राप्ते रवींवुग्रहणे तथा || १० ||
लक्ष्मीनारायणेयोगेवंध्ये कुर्वीत न क्वचीत् |
महापुस्करयोगेत्रयोगेप्यर्धोदयानिधे || ११ ||
नवध्यंदीवसं कुर्यात् सीद्धीकामोद्वीजोतमः |
यत्पुरश्चरणं मुक्तमादौषोडषलक्षकं || १२ ||
अलभ्ययोगे कृत्वेत्थं तादगेव भवेत्यं |
सर्वेष्वलभ्ययोगेषु पुरश्चर्या यदीरीता || १३ ||
लक्षवे षोडशकं प्रोपंयत् पुरश्चरणं मया |
आक्षयायां तृतीयायां ततो दशगुणोपरा || १४ ||
अवश्यं जायते सीद्धिराचार्यस्य प्रसादतः |
अक्षयेदिनमात्रेपी कृत्वा मजयादिकं || १५ ||
अपीनीस्कत्रयं दत्वा सद्यः सीद्धीमवाप्नुयात् |
किमुक्तयोगे सहिते वैशाखेदिवसेक्षये || १६ ||
पुरश्चर्या पुरुषवक्तं हरीणापीनशक्यते |
उक्त वैशाखे दीवसेक्षयेमदष्टार्णविद्या || १७ ||
******** सिद्धिश्रेधातकथ्यते |
जपहोमादिभीर्नीत्यमाचार्येण दीने दीने || १८ ||
अर्जिजं सुकृतं यस्या चतुर्वर्गफलप्रदं |
सचासाद्मपि विद्यानां भूयः षीश्योपदेशतः || १९ ||
तपसार्द्धं प्रविशति स्वशीष्यकलेवरं |
शीष्यश्यदक्षीणे कर्णयायां विद्यां ददात्यसौ || २० ||
जपहोमादिकं पुण्यमर्द्धं तस्यही गच्छति |
उत्तमां दक्षीणां दद्याचार्य पदांवुजे || २१ ||
वर्षाशतमीतं द्रव्यमथचोत्तमदक्षीणामहासीद्धी |
मध्यदक्षिणयासीद्धिर्मध्येमेव विधीयते || २३ ||
प्. १०१ब्)
दक्षीणामधमां दत्वा किंचीसीद्धिमवाप्नुयात् |
तश्मादवश्यमाचार्य पादाद्वयुगले शुभे || २४ ||
येन केनाप्युपायेन संपद्यद्रव्यमादरात् |
उत्तमां दक्षीणामेव दत्वाचार्यमुखांवुजात् || २५ ||
गृहीत्वा सकलाविद्यास्तत्तयोर्धसमन्वीताः |
ग्रहणे नैव विद्यानां सद्य ऐं वमहत्तरां || २६ ||
श्रीमदष्टार्णविद्यादिसीद्धीं प्राप्नोतिशायीनीं |
आचार्यणावीशीष्येभ्यस्म प्राप्ते दिवसेक्षये || २७ ||
पूर्णानुग्रहतोदेयं विद्याजालं फलप्रदं |
सर्वस्वस्य प्रदात्रे वा प्राणानामपि यत्नतः || २८ ||
विद्यानगुरुणादेयावैशाखेदिवसेक्षये |
आचार्यतपसः सिद्धीर्यतः शीष्यगच्छति || २९ ||
ददाति यदीसच्छीष्यः प्राणानपी समर्पयेत् |
तदा प्रभृतिसच्छिष्यः आचार्यस्य पदांवुजे || ३० ||
शरीरमर्थं प्राशांश्च दद्यात् पुत्राश्च पुत्रिकाः |
ग्रहणादिषु योगेषु ततादृक्सीद्धिसीद्धिरीरीता || ३१ ||
अक्षयायां तृतीयायां दृक् सीद्धिपुरोरीता |
होमेनापी महासीद्धीसारवेदीवसेक्षये || ३२ ||
आचार्यदक्षीणामीष्टधरं दत्वा ततः परं |
मिथनानि समर्भ्यर्च्यतेभ्यो दत्वाथ दक्षीणां || ३३ ||
न्यासयुक्ता प्रजप्तव्या पुनरष्टाक्षरी शुभा |
त्रिशताधिक साहस्रं वा शताधिकं || ३४ ||
शतमात्रं प्रजपव्यः श्रीमंत्रः स्वेष्टमंत्र * |
वासु देवमहाविद्यां वैष्णवीं च षडक्षरी || ३५ ||
अष्टोत्तरं शतं पश्चात् सीद्धीकामो जपोच्छुवी |
तश्मीदीनेफलाशीतवाहविष्याशि भवेद्व्रति || ३६ ||
जपेच्छी हृदयंस्तोत्रंत्रे धारात्रौ ततः परं |
गुरुः प्रसादो भोक्तव्यः परद्युर्गीरीजायते || ३७ ||
आचार्यमंदिरेशीष्यैः स्वगृहे वा शशाधकं |
पुरश्चरणकृत्येषु समाप्तेषु ततः परं || ३८ ||
प्. १०२अ)
सीष्यै सर्वत्र भोक्तव्यं गुरुशीष्टान्नमादरात् |
अनेन सर्वपापैद्यनीवृर्तिः सीद्धिरुत्तमा || ३९ ||
ज्ञायते नात्रसंदेहस्मत्वं सत्योमयोच्यते |
तपः सीद्वगुरोर्वक्त्राच्छीष्यैः साधकपुंगवैः || ४० ||
अलभ्ययोगे संप्राप्ते विद्याजालं फलप्रदं |
भूयोपी संग्रहितव्यं दत्वोत्तमदक्षिणां || ४१ ||
आलभ्ययोगे संप्राप्ते प्राणैः कंठगतैरपी |
विद्याजालं न दातव्यं तपोनाशीनधीमता || ४२ ||
सततं गुरुपादाब्जे दृढभक्तायधीयते |
वहूप्रार्थनयादेयं योगेलभ्ये यशस्करे || ४३ ||
श्रीमदष्टाक्षरी विद्यासीध्यनंतरमादरात् |
अष्टोत्तरशतं वापी जपत्वा नीत्यं लभेत् फलं || ४४ ||
अथ होमविधीं वक्ष्ये सद्यस्सकलसीद्धीदं |
नारायणे नयत्प्रोक्तं जनकाय महात्मने || ४५ ||
सालग्रामशीलाचक्रमयोध्याचक्रमीश्रीतं |
संपूज्यं द्वादशाक्षर्या प्रजस्वाष्टाक्षरं मनुं || ४६ ||
लक्षमेकं हूनेदाज्यं गव्यं दशासहस्रकं |
अणीमादिगुणेश्वरलभते नात्र संशयः || ४७ ||
लक्षमेकं शुचीर्जप्त्वा नारंगैर्घृतमीश्रीतैः |
दशसाहस्रकं हूत्वा दीयुदीर्घायुसान्नीरायम || ४८ ||
जंवीरैयुतं हुत्वा घृत त्रिमधुमीश्रीऐ |
असौभाग्येन युक्ता पीसुभगः कामवद्भवेत् || ४९ ||
नारीकेलफलैर्हत्वाघृतत्रिमधुमीश्रीतै |
भगवत्कलयायुक्तः कांतिमानर्कवद्भवेत् || ५० ||
हूत्वा फलैखर्जुरैरयुतत्रितमधुप्लुतैः |
जडोपीपर्ववीद्याभीर्वचस्यति समो भवेत् || ५१ ||
स्थूलैः सुमुधुरैश्चतकूलैस्तीमधुमीश्रीतै |
भगवत्कलयायुक्तः कांतिमानर्कवद्भवेत् || ५२ ||
महिंशाति संदेहो इयुश्च निरामयः ** |
यनसस्य फलैदूर्त्वानधूत्रिमधुसंप्लुतैः || ५४ ||
अक्षयं धनरत्नौघं प्राप्नौत्यत्रः संशयः |
हूत्वा विलाफलैनीर्गव्यघृतात्रिमधुमीश्रीतै || ५५ ||
राजराराजसमोलक्ष्या भवत्प्रभु न संशयः |
घृतत्रिमधुसंमीश्रां हूत्वा पायसमादरात् || ५६ ||
प्. १०२ब्)
राजराज समोलक्ष्म्याविद्ययाभीषणायते |
घृतत्रीमधुसंमीश्रैहूत्वा तु कदलीफलैः || ५७ ||
अयुतं सुतमाप्नोति भवत्कलान्वितं || ५७ ||
तुलसीदस्सीश्रैर्हूत्वा शोहूत्वा नीलोत्पलैः शुभैः || ५८ ||
अद्यूतं सुरराजैन सदृशीं श्रीयमश्रुते |
द्राक्षाफलैर्गव्यघृतमधुत्रीतयमीश्रीतैः || ५९ ||
हूत्वा युतं निधाननामधीयते जायते ध्रुवं |
इक्षूखंडैर्घृताभ्यक्तैर्मधूत्रितयामीश्रीतैः || ६० ||
हूत्वा युतं स्वचक्षुर्भ्यां पश्यत्येव श्रीयःपति |
क्षीरवृक्षसमुद्भूतैफलैः षष्ठीमीतैशुभैः || ६१ ||
गव्याज्यमधुसंमीश्रेहूर्त्वा दशसाहस्रकं |
अष्टांगयोगमासाद्यखेचरोजायते ध्रुवं || ६२ ||
जुहुयादरणौंभोजैर्गव्याज्या त्रिमधुप्लुतैः |
अयुतं चित्तमाप्नोति वांछीनं नात्र संशयः || ६३ ||
चंपकैरयुतं हूत्वा गोघृततृमधूप्नुतैः |
भवत्युसावथा पुष्पान् धनेशो वाक्यनिर्भवेत् || ६४ ||
मदन्निकाकुसुमैहूत्वा गोघृततृमधुप्नुतैः |
अयुतद्वीतीयं स्वर्णशरीरोभवति ध्रुवं || ६५ ||
जानीपुष्पैस्त्रीमध्वक्तैरयुतं गोघृतह्नुतैः |
हूत्वा वा लरवीप्राख्यः कांत्या भवति साधकः || ६६ ||
करवीरैधुनैदाज्यमधुत्रीतयमीश्रीतैः |
अनुनद्वितयं पश्चात्सुवर्णसदृशः श्रीया || ६७ ||
स्थावरं जंगमं वापी विषं संहरत्नध्रुवं |
सर्पी स्त्रीमधुसंमीश्रैहूत्वा गुग्गुलुभीः शूचीः || ६८ ||
अयुतं सर्वसौभाग्यप्राप्तोत्यपि च वांछीन्नं |
अयुतं सर्खरां खंडैर्गव्याज्य त्रीमधुस्रुतै || ६९ ||
हूत्वा समस्तलोकेषु श्रेयः प्राप्नोत्यनुमं |
श्रीमदष्टाक्षरीं वीद्यां जप्त्वैकं लक्षमादरात् || ७० ||
असाध्यैरपीपापौद्यैर्मुच्यते नात्र संशयः |
लक्षद्वयं जपेयस्तु श्रीमदष्टाक्षरं मनुं || ७१ ||
अस्वमेधसहस्रस्यफलं प्राप्नोति शास्वतं |
चतुर्लक्ष्य जपादाश्रुमहतीं श्रीयमक्षयां || ७२ ||
प्राप्नोति सर्वसौभाग्यं लक्षषट्कप्रजापतः |
श्रीमदष्टाक्षरं जप्त्वा वस्तुलक्षं जीतेंद्रियः || ७३ ||
प्. १०३अ)
अणीमादृष्टसीद्धीनां नायको भवती ध्रुवं |
लक्षद्वादशकं जप्त्वा श्रीमदष्टाक्षरीमनुं || ७४ ||
तेजसारवीसंकाशो वा चाषणसन्निभः |
श्रीयाधानदशं भवत्येव न संशयः || ७५ ||
लक्षषोडशकं मंत्र श्रीमदष्टाक्षरी जपन् |
शंखादीनां निधानानामपीयो जायते ध्रुवं || ७६ ||
एकविंशभीर्लक्ष्यैः साधाक्षात्स्वायंभुवो मनुः |
स्वत्यारूपं प्रदत्वा स्मैकल्पायुस्ममचंचलं || ७७ ||
अणीमादिगुणैश्वर्यं प्रददाति न संशयः |
पंचविंशति लक्षाणी श्रीमदष्टाक्षरं ममुं || ७८ ||
प्रजप्त्वा सर्वलोकेषु शक्राद्यैरपी पूजीतः |
दिव्यदृष्टौ समासाद्यकामकामरूपी भवत्यसौ || ७९ ||
द्वात्रिंश लक्षजपतिः सीद्धानामधीया भवेत् || ८१ ||
द्वात्रिंश लक्षजपतोगंधर्वाधीपतिर्भवेत् |
षड्वींशन्नक्षजापेन महाविद्याधारोर्भवेत् || ८१ ||
चत्वारीशतिभीर्लक्षैवीराद्रूपी भवत्यसौ |
पंचाशलक्सजपतः सीद्धानामजीतो भवेत् || ८१ ||
अधीरोति तेजप्त्वी दिव्यकन्या सतान्वितः || ८२ ||
जप्त्वा शप्त्वतिलक्षाणी मनोविगीमहामहामतिः |
अजरामरणो भूत्वा देवत्वं लभते ध्रुवं || ८३ ||
अशीतिलीक्षजपतस्सर्गसाम्राज्यभक्ष्ययं |
प्राप्नोतिद्रं समो भूत्वा जरामृत्यु विवर्जितः || ८४ ||
जप्त्वा नवतिलक्षाणी भीरभीष्टुतः |
अजरामरणो भूत्वा सत्यलोयो भवेत् || ८५ ||
श्रीमदष्टाक्षरं शतलक्षमथादरात् |
दक्षीणामूर्ति दृषोविद्याभीर्दीव्यदेहभाक् || ८६ ||
अजरामरणो पंचशतिवार्शीकिः *** |
अणीमादिगुणैश्वर्यं पादुकाद्यष्टकं तथा || ८७ ||
सर्वेज्ञत्वं मनोज्ञत्वं कामरूपी मवाप्नुयात् |
अष्टाधिकशतं लक्षजपेन नियतव्रतः || ८८ ||
श्रीमदष्टार्णविद्यायाजरामरणवर्जीतः |
ब्रह्मविष्णुमहेशानामपीवंद्य पदांवुजः || ८९ ||
साक्षान्मारायणासासौ भूत्वा खेचरतामपि |
अवाप्ययोगमष्टांगं सर्वज्ञत्वं मनोज्ञतां || ९० ||
प्. १०३ब्)
परकायवेशादि सामर्थ्यमयी निश्चलं |
अवाप्यदि कन्यानां सहस्रेण समन्वीतं || ९१ ||
अनेनैव सरीणेन मानमधीरोहति |
भृत्यानामग्रगण्योसौ भूत्वा भगवतो महान् || ९२ ||
मोदते परमेधाम्नी सन्निधाविंदीरापरे |
आचार्य सदृशं पूज्यमष्टाक्षरसमोमनुः |
नारायणसमं दैवनास्तीनास्ती महीपते || ९३ ||
वैसाखेमासेदीवसेक्षयाभीधेजत्पूर्यथा सीरीहप्रजायते |
अन्यत्रयोगे जपहोमतर्पणः न तादृशी सीद्धिमुपैति विप्रः || ९४ ||
आचार्यपादार्चनसक्तविमोन्यासैस्सहाष्टक्षरमंत्रजापी स एव |
नारायणस्तयधारीवंद्यपूज्यश्च गुरुगरीयान् || ९५ ||
नाचार्य पादाब्दयुगात्यवित्रविष्टार्णमनु |
प्रजापीवंध्यं न कुर्याद्दिवसंमनुष्यः || ९७ ||
सर्वैरूपायैः फलमेव साध्यं फलप्रदष्टार्णमनोः प्रजापात् |
न्यासैसहाष्टाक्षरमंत्रजापीनारायणानमस्मना एव || ९८ ||
इत्थं पुरा दाशरथीर्महारथी दशर्महात्मा रहस्यमेतत् |
भगवानुवाच नारायणेनामरनायके न राज्ञे यदुक्तं परमं पवीत्रं || ९९ ||
इति दाशरथीयेस्मीन्तंत्रेवेदार्थसंग्रहे द्वात्रींशोध्यायः उक्तोयं
वेददांतागर्भीतः १०० ||
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीयतंत्रेवेदार्थसंग्रहे
द्वात्रिंशोध्यायः ||</poem>
2hcmrb1t1zmm7c7wd1dyqqrrewk20kf
409321
409320
2025-06-27T10:49:28Z
Shubha
190
409321
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः ३२
| previous = [[../अध्यायः ३१|अध्यायः ३१]]
| next = [[../अध्यायः ३३|अध्यायः ३३]]
| notes =
}}
<poem>
प्. १००ब्)
श्रीऋष्यशृंग उवाच
एतावदुक्ता भगवान् रामोदाशरथीर्विभुः ।
पुनराहकृहादेवं ब्रह्मर्षीणां च सन्निधौ ।। १ ।।
श्रीभगवान उवाच
शृणु शंकरगौरीश भूयोथोष्टार्णसाधनं ।
यच्छ्रुत्वापीनरोधीमानसीद्धीमेतां महत्तरां ।। २ ।।
श्रीमदष्टार्णविद्यायापत्पुरश्चरणं महत् ।
लक्षषोडषकं प्रोक्तं यद्यैत्सद्यसीद्धिहेतुकं ।। ३ ।।
सततं धर्मचितत्वादायुषोवह्वलत्वतः ।
तत्पुरश्चरणादेवसीद्धिः कृतयुगादिषु ।। ४ ।।
अस्मीन्कलियुगेघोरेश्चित्तस्छैर्याद्यभावतः ।
*** रोगादोष वह्वलत्वतः तया तथा ।। ५ ।।
एकेनदिवसे नैव सीद्धिः कार्याविचक्षणैः ।
श्रीमदष्टार्णविद्यायामसीद्धायां महीतले ।। ६ ।।
श्रीमदष्टार्णमंत्रस्यकोटि सोपि जपादीभीः ।
लक्ष्मीपतिसादस्यालेशोपी न हि जायते ।। ७ ।।
प्. १०१अ)
तस्मादवर्शं कर्तव्यं पुरश्चरश्चणमादरात् ।
अवस्यंसीद्धिमाप्नोति पुरश्चरणकृत्यतः ।। ८ ।।
लक्ष्मीनारायणेयोगेंखीदुग्रहणे तथा ।
नवरात्रोव्रते चापी पुरश्चरणकर्मणा ।। ९ ।।
अवश्यं जायते सीद्धिर्मंत्रराजस्य सीद्धिदा ।
नवरात्रेव्रते प्राप्ते रवींवुग्रहणे तथा ।। १० ।।
लक्ष्मीनारायणेयोगेवंध्ये कुर्वीत न क्वचीत् ।
महापुस्करयोगेत्रयोगेप्यर्धोदयानिधे ।। ११ ।।
नवध्यंदीवसं कुर्यात् सीद्धीकामोद्वीजोतमः ।
यत्पुरश्चरणं मुक्तमादौषोडषलक्षकं ।। १२ ।।
अलभ्ययोगे कृत्वेत्थं तादगेव भवेत्यं ।
सर्वेष्वलभ्ययोगेषु पुरश्चर्या यदीरीता ।। १३ ।।
लक्षवे षोडशकं प्रोपंयत् पुरश्चरणं मया ।
आक्षयायां तृतीयायां ततो दशगुणोपरा ।। १४ ।।
अवश्यं जायते सीद्धिराचार्यस्य प्रसादतः ।
अक्षयेदिनमात्रेपी कृत्वा मजयादिकं ।। १५ ।।
अपीनीस्कत्रयं दत्वा सद्यः सीद्धीमवाप्नुयात् ।
किमुक्तयोगे सहिते वैशाखेदिवसेक्षये ।। १६ ।।
पुरश्चर्या पुरुषवक्तं हरीणापीनशक्यते ।
उक्त वैशाखे दीवसेक्षयेमदष्टार्णविद्या ।। १७ ।।
******** सिद्धिश्रेधातकथ्यते ।
जपहोमादिभीर्नीत्यमाचार्येण दीने दीने ।। १८ ।।
अर्जिजं सुकृतं यस्या चतुर्वर्गफलप्रदं ।
सचासाद्मपि विद्यानां भूयः षीश्योपदेशतः ।। १९ ।।
तपसार्द्धं प्रविशति स्वशीष्यकलेवरं ।
शीष्यश्यदक्षीणे कर्णयायां विद्यां ददात्यसौ ।। २० ।।
जपहोमादिकं पुण्यमर्द्धं तस्यही गच्छति ।
उत्तमां दक्षीणां दद्याचार्य पदांवुजे ।। २१ ।।
वर्षाशतमीतं द्रव्यमथचोत्तमदक्षीणामहासीद्धी ।
मध्यदक्षिणयासीद्धिर्मध्येमेव विधीयते ।। २३ ।।
प्. १०१ब्)
दक्षीणामधमां दत्वा किंचीसीद्धिमवाप्नुयात् ।
तश्मादवश्यमाचार्य पादाद्वयुगले शुभे ।। २४ ।।
येन केनाप्युपायेन संपद्यद्रव्यमादरात् ।
उत्तमां दक्षीणामेव दत्वाचार्यमुखांवुजात् ।। २५ ।।
गृहीत्वा सकलाविद्यास्तत्तयोर्धसमन्वीताः ।
ग्रहणे नैव विद्यानां सद्य ऐं वमहत्तरां ।। २६ ।।
श्रीमदष्टार्णविद्यादिसीद्धीं प्राप्नोतिशायीनीं ।
आचार्यणावीशीष्येभ्यस्म प्राप्ते दिवसेक्षये ।। २७ ।।
पूर्णानुग्रहतोदेयं विद्याजालं फलप्रदं ।
सर्वस्वस्य प्रदात्रे वा प्राणानामपि यत्नतः ।। २८ ।।
विद्यानगुरुणादेयावैशाखेदिवसेक्षये ।
आचार्यतपसः सिद्धीर्यतः शीष्यगच्छति ।। २९ ।।
ददाति यदीसच्छीष्यः प्राणानपी समर्पयेत् ।
तदा प्रभृतिसच्छिष्यः आचार्यस्य पदांवुजे ।। ३० ।।
शरीरमर्थं प्राशांश्च दद्यात् पुत्राश्च पुत्रिकाः ।
ग्रहणादिषु योगेषु ततादृक्सीद्धिसीद्धिरीरीता ।। ३१ ।।
अक्षयायां तृतीयायां दृक् सीद्धिपुरोरीता ।
होमेनापी महासीद्धीसारवेदीवसेक्षये ।। ३२ ।।
आचार्यदक्षीणामीष्टधरं दत्वा ततः परं ।
मिथनानि समर्भ्यर्च्यतेभ्यो दत्वाथ दक्षीणां ।। ३३ ।।
न्यासयुक्ता प्रजप्तव्या पुनरष्टाक्षरी शुभा ।
त्रिशताधिक साहस्रं वा शताधिकं ।। ३४ ।।
शतमात्रं प्रजपव्यः श्रीमंत्रः स्वेष्टमंत्र * ।
वासु देवमहाविद्यां वैष्णवीं च षडक्षरी ।। ३५ ।।
अष्टोत्तरं शतं पश्चात् सीद्धीकामो जपोच्छुवी ।
तश्मीदीनेफलाशीतवाहविष्याशि भवेद्व्रति ।। ३६ ।।
जपेच्छी हृदयंस्तोत्रंत्रे धारात्रौ ततः परं ।
गुरुः प्रसादो भोक्तव्यः परद्युर्गीरीजायते ।। ३७ ।।
आचार्यमंदिरेशीष्यैः स्वगृहे वा शशाधकं ।
पुरश्चरणकृत्येषु समाप्तेषु ततः परं ।। ३८ ।।
प्. १०२अ)
सीष्यै सर्वत्र भोक्तव्यं गुरुशीष्टान्नमादरात् ।
अनेन सर्वपापैद्यनीवृर्तिः सीद्धिरुत्तमा ।। ३९ ।।
ज्ञायते नात्रसंदेहस्मत्वं सत्योमयोच्यते ।
तपः सीद्वगुरोर्वक्त्राच्छीष्यैः साधकपुंगवैः ।। ४० ।।
अलभ्ययोगे संप्राप्ते विद्याजालं फलप्रदं ।
भूयोपी संग्रहितव्यं दत्वोत्तमदक्षिणां ।। ४१ ।।
आलभ्ययोगे संप्राप्ते प्राणैः कंठगतैरपी ।
विद्याजालं न दातव्यं तपोनाशीनधीमता ।। ४२ ।।
सततं गुरुपादाब्जे दृढभक्तायधीयते ।
वहूप्रार्थनयादेयं योगेलभ्ये यशस्करे ।। ४३ ।।
श्रीमदष्टाक्षरी विद्यासीध्यनंतरमादरात् ।
अष्टोत्तरशतं वापी जपत्वा नीत्यं लभेत् फलं ।। ४४ ।।
अथ होमविधीं वक्ष्ये सद्यस्सकलसीद्धीदं ।
नारायणे नयत्प्रोक्तं जनकाय महात्मने ।। ४५ ।।
सालग्रामशीलाचक्रमयोध्याचक्रमीश्रीतं ।
संपूज्यं द्वादशाक्षर्या प्रजस्वाष्टाक्षरं मनुं ।। ४६ ।।
लक्षमेकं हूनेदाज्यं गव्यं दशासहस्रकं ।
अणीमादिगुणेश्वरलभते नात्र संशयः ।। ४७ ।।
लक्षमेकं शुचीर्जप्त्वा नारंगैर्घृतमीश्रीतैः ।
दशसाहस्रकं हूत्वा दीयुदीर्घायुसान्नीरायम ।। ४८ ।।
जंवीरैयुतं हुत्वा घृत त्रिमधुमीश्रीऐ ।
असौभाग्येन युक्ता पीसुभगः कामवद्भवेत् ।। ४९ ।।
नारीकेलफलैर्हत्वाघृतत्रिमधुमीश्रीतै ।
भगवत्कलयायुक्तः कांतिमानर्कवद्भवेत् ।। ५० ।।
हूत्वा फलैखर्जुरैरयुतत्रितमधुप्लुतैः ।
जडोपीपर्ववीद्याभीर्वचस्यति समो भवेत् ।। ५१ ।।
स्थूलैः सुमुधुरैश्चतकूलैस्तीमधुमीश्रीतै ।
भगवत्कलयायुक्तः कांतिमानर्कवद्भवेत् ।। ५२ ।।
महिंशाति संदेहो इयुश्च निरामयः ** ।
यनसस्य फलैदूर्त्वानधूत्रिमधुसंप्लुतैः ।। ५४ ।।
अक्षयं धनरत्नौघं प्राप्नौत्यत्रः संशयः ।
हूत्वा विलाफलैनीर्गव्यघृतात्रिमधुमीश्रीतै ।। ५५ ।।
राजराराजसमोलक्ष्या भवत्प्रभु न संशयः ।
घृतत्रिमधुसंमीश्रां हूत्वा पायसमादरात् ।। ५६ ।।
प्. १०२ब्)
राजराज समोलक्ष्म्याविद्ययाभीषणायते ।
घृतत्रीमधुसंमीश्रैहूत्वा तु कदलीफलैः ।। ५७ ।।
अयुतं सुतमाप्नोति भवत्कलान्वितं ।। ५७ ।।
तुलसीदस्सीश्रैर्हूत्वा शोहूत्वा नीलोत्पलैः शुभैः ।। ५८ ।।
अद्यूतं सुरराजैन सदृशीं श्रीयमश्रुते ।
द्राक्षाफलैर्गव्यघृतमधुत्रीतयमीश्रीतैः ।। ५९ ।।
हूत्वा युतं निधाननामधीयते जायते ध्रुवं ।
इक्षूखंडैर्घृताभ्यक्तैर्मधूत्रितयामीश्रीतैः ।। ६० ।।
हूत्वा युतं स्वचक्षुर्भ्यां पश्यत्येव श्रीयःपति ।
क्षीरवृक्षसमुद्भूतैफलैः षष्ठीमीतैशुभैः ।। ६१ ।।
गव्याज्यमधुसंमीश्रेहूर्त्वा दशसाहस्रकं ।
अष्टांगयोगमासाद्यखेचरोजायते ध्रुवं ।। ६२ ।।
जुहुयादरणौंभोजैर्गव्याज्या त्रिमधुप्लुतैः ।
अयुतं चित्तमाप्नोति वांछीनं नात्र संशयः ।। ६३ ।।
चंपकैरयुतं हूत्वा गोघृततृमधूप्नुतैः ।
भवत्युसावथा पुष्पान् धनेशो वाक्यनिर्भवेत् ।। ६४ ।।
मदन्निकाकुसुमैहूत्वा गोघृततृमधुप्नुतैः ।
अयुतद्वीतीयं स्वर्णशरीरोभवति ध्रुवं ।। ६५ ।।
जानीपुष्पैस्त्रीमध्वक्तैरयुतं गोघृतह्नुतैः ।
हूत्वा वा लरवीप्राख्यः कांत्या भवति साधकः ।। ६६ ।।
करवीरैधुनैदाज्यमधुत्रीतयमीश्रीतैः ।
अनुनद्वितयं पश्चात्सुवर्णसदृशः श्रीया ।। ६७ ।।
स्थावरं जंगमं वापी विषं संहरत्नध्रुवं ।
सर्पी स्त्रीमधुसंमीश्रैहूत्वा गुग्गुलुभीः शूचीः ।। ६८ ।।
अयुतं सर्वसौभाग्यप्राप्तोत्यपि च वांछीन्नं ।
अयुतं सर्खरां खंडैर्गव्याज्य त्रीमधुस्रुतै ।। ६९ ।।
हूत्वा समस्तलोकेषु श्रेयः प्राप्नोत्यनुमं ।
श्रीमदष्टाक्षरीं वीद्यां जप्त्वैकं लक्षमादरात् ।। ७० ।।
असाध्यैरपीपापौद्यैर्मुच्यते नात्र संशयः ।
लक्षद्वयं जपेयस्तु श्रीमदष्टाक्षरं मनुं ।। ७१ ।।
अस्वमेधसहस्रस्यफलं प्राप्नोति शास्वतं ।
चतुर्लक्ष्य जपादाश्रुमहतीं श्रीयमक्षयां ।। ७२ ।।
प्राप्नोति सर्वसौभाग्यं लक्षषट्कप्रजापतः ।
श्रीमदष्टाक्षरं जप्त्वा वस्तुलक्षं जीतेंद्रियः ।। ७३ ।।
प्. १०३अ)
अणीमादृष्टसीद्धीनां नायको भवती ध्रुवं ।
लक्षद्वादशकं जप्त्वा श्रीमदष्टाक्षरीमनुं ।। ७४ ।।
तेजसारवीसंकाशो वा चाषणसन्निभः ।
श्रीयाधानदशं भवत्येव न संशयः ।। ७५ ।।
लक्षषोडशकं मंत्र श्रीमदष्टाक्षरी जपन् ।
शंखादीनां निधानानामपीयो जायते ध्रुवं ।। ७६ ।।
एकविंशभीर्लक्ष्यैः साधाक्षात्स्वायंभुवो मनुः ।
स्वत्यारूपं प्रदत्वा स्मैकल्पायुस्ममचंचलं ।। ७७ ।।
अणीमादिगुणैश्वर्यं प्रददाति न संशयः ।
पंचविंशति लक्षाणी श्रीमदष्टाक्षरं ममुं ।। ७८ ।।
प्रजप्त्वा सर्वलोकेषु शक्राद्यैरपी पूजीतः ।
दिव्यदृष्टौ समासाद्यकामकामरूपी भवत्यसौ ।। ७९ ।।
द्वात्रिंश लक्षजपतिः सीद्धानामधीया भवेत् ।। ८१ ।।
द्वात्रिंश लक्षजपतोगंधर्वाधीपतिर्भवेत् ।
षड्वींशन्नक्षजापेन महाविद्याधारोर्भवेत् ।। ८१ ।।
चत्वारीशतिभीर्लक्षैवीराद्रूपी भवत्यसौ ।
पंचाशलक्सजपतः सीद्धानामजीतो भवेत् ।। ८१ ।।
अधीरोति तेजप्त्वी दिव्यकन्या सतान्वितः ।। ८२ ।।
जप्त्वा शप्त्वतिलक्षाणी मनोविगीमहामहामतिः ।
अजरामरणो भूत्वा देवत्वं लभते ध्रुवं ।। ८३ ।।
अशीतिलीक्षजपतस्सर्गसाम्राज्यभक्ष्ययं ।
प्राप्नोतिद्रं समो भूत्वा जरामृत्यु विवर्जितः ।। ८४ ।।
जप्त्वा नवतिलक्षाणी भीरभीष्टुतः ।
अजरामरणो भूत्वा सत्यलोयो भवेत् ।। ८५ ।।
श्रीमदष्टाक्षरं शतलक्षमथादरात् ।
दक्षीणामूर्ति दृषोविद्याभीर्दीव्यदेहभाक् ।। ८६ ।।
अजरामरणो पंचशतिवार्शीकिः *** ।
अणीमादिगुणैश्वर्यं पादुकाद्यष्टकं तथा ।। ८७ ।।
सर्वेज्ञत्वं मनोज्ञत्वं कामरूपी मवाप्नुयात् ।
अष्टाधिकशतं लक्षजपेन नियतव्रतः ।। ८८ ।।
श्रीमदष्टार्णविद्यायाजरामरणवर्जीतः ।
ब्रह्मविष्णुमहेशानामपीवंद्य पदांवुजः ।। ८९ ।।
साक्षान्मारायणासासौ भूत्वा खेचरतामपि ।
अवाप्ययोगमष्टांगं सर्वज्ञत्वं मनोज्ञतां ।। ९० ।।
प्. १०३ब्)
परकायवेशादि सामर्थ्यमयी निश्चलं ।
अवाप्यदि कन्यानां सहस्रेण समन्वीतं ।। ९१ ।।
अनेनैव सरीणेन मानमधीरोहति ।
भृत्यानामग्रगण्योसौ भूत्वा भगवतो महान् ।। ९२ ।।
मोदते परमेधाम्नी सन्निधाविंदीरापरे ।
आचार्य सदृशं पूज्यमष्टाक्षरसमोमनुः ।
नारायणसमं दैवनास्तीनास्ती महीपते ।। ९३ ।।
वैसाखेमासेदीवसेक्षयाभीधेजत्पूर्यथा सीरीहप्रजायते ।
अन्यत्रयोगे जपहोमतर्पणः न तादृशी सीद्धिमुपैति विप्रः ।। ९४ ।।
आचार्यपादार्चनसक्तविमोन्यासैस्सहाष्टक्षरमंत्रजापी स एव ।
नारायणस्तयधारीवंद्यपूज्यश्च गुरुगरीयान् ।। ९५ ।।
नाचार्य पादाब्दयुगात्यवित्रविष्टार्णमनु ।
प्रजापीवंध्यं न कुर्याद्दिवसंमनुष्यः ।। ९७ ।।
सर्वैरूपायैः फलमेव साध्यं फलप्रदष्टार्णमनोः प्रजापात् ।
न्यासैसहाष्टाक्षरमंत्रजापीनारायणानमस्मना एव ।। ९८ ।।
इत्थं पुरा दाशरथीर्महारथी दशर्महात्मा रहस्यमेतत् ।
भगवानुवाच नारायणेनामरनायके न राज्ञे यदुक्तं परमं पवीत्रं ।। ९९ ।।
इति दाशरथीयेस्मीन्तंत्रेवेदार्थसंग्रहे द्वात्रींशोध्यायः उक्तोयं
वेददांतागर्भीतः १०० ।।
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीयतंत्रेवेदार्थसंग्रहे
द्वात्रिंशोध्यायः ।।</poem>
ak7ho5wd75qkjwmh0r0atrmat82yvnn
दाशरथीयतन्त्रम्/अध्यायः ३३
0
163659
409322
2025-06-27T10:53:46Z
Shubha
190
{{header | title = [[../]] | author = | translator = | section = अध्यायः ३३ | previous = [[../अध्यायः ३२|अध्यायः ३२]] | next = [[../अध्यायः ३४|अध्यायः ३४]] | notes = }} <poem> प्. १०३ब्) श्रीभगवानुवाच शृणु राजन् महीपालपीत... नवीन पृष्ठं निर्मीत अस्ती
409322
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः ३३
| previous = [[../अध्यायः ३२|अध्यायः ३२]]
| next = [[../अध्यायः ३४|अध्यायः ३४]]
| notes =
}}
<poem>
प्. १०३ब्)
श्रीभगवानुवाच
शृणु राजन् महीपालपीतामहसुतः पुरा |
अवश्यत्सागरेकूर्ममहांतं दिव्यवर्चसं || १ ||
धन्योसीत्याहतं दृष्ट्वा नारदो भगवान्रूपी |
नाहं धन्य इति प्राहकुर्मस्तं नारदंमुनी || २ ||
इमामदाश्रया अयोधन्यास्रैलोकपावनः |
धन्या भवत्य इत्याहूतो आपो नारदोमुनीः || ३ ||
आपो वनधन्य इत्युचः पृथ्वी धन्यास्मदाश्रया |
नारदस्ताभुवं प्राहधन्यासीति वसुंधने || ४ ||
नाहंधनेभुप्राहतं ब्रह्मजनयं मुनीं |
साधारभूतागीरयदुमेधन्यामहामते || ५ ||
इत्युक्तो भूधरो प्राहयूयं धन्यतरा इति |
धन्यानवयमीत्याहूर्नारभूधरा अपी || ६ ||
प्. १०४अ)
अस्महादि जगर्कर्तादन्योदेवः पीतामहः |
समीपं ब्रह्मणो गत्वाधन्योसीत्याहतं मुनीः || ७ ||
पीतं प्रमहोपीतं प्राहनाहं धन्यं इति प्रभुः |
सृज्यंते सकलोकावैदैनृत्यं सनातनेः || ८ ||
पान्त्यंतेसंह्रीयंते च वेदाधन्यास्तातौ मुने |
इत्युक्तो नारदोवेदानाहनत्वादंडवत् || ९ ||
धन्याभवतः सर्वज्ञासृष्टीस्ठीतीलयाधियः |
वेदाश्च नारदं प्राह्वधन्या नवयमीत्यपी || १० ||
वयंहीसृष्टयज्ञार्थं भगवद्वहनांजात् |
युयंधन्यतरायज्ञा इति नार आहतान् || ११ ||
उचुस्रेवयं धन्या अस्माभीरभी संततं |
इज्यते भगवान् साक्षादेवदेवः श्रीयःपति || १२ ||
यज्ञोषोयज्ञपुरुषो हरीर्नारायणो विभु |
सर्ववियामयः स्वामी त्रिजगत्पतिरीश्च || १३ ||
स एव धन्यस्मपरतनं परामात्मा सनातनः |
पितामहस्तुतोगत्वा सन्निधं प्ररमात्माना || १४ ||
धन्यो हि कृत्य कृत्योसीहदेवं स्रीयःपतिं |
नारदप्राहविश्वात्मादक्षिणाभीस्सहेत्यथ || १५ ||
तच्छृत्वा भगद्वाक्यं नारदो ब्रह्मनंदनः |
दक्षिणाभीस्सकथं धन्यो भगवन्नीदीरा भवे || १६ ||
इत्युक्तो भगवान्स्तत्र नारदं ब्रह्मनंदनं |
उवाच लक्ष्मी सानीध्यमूर्ति स द्वेदशनीधौ || १७ ||
दक्षीणासीहेत्युक्तंमय यद्वचनं मने |
एते वक्षंति वेदास्ते निश्चीतं मन्मुखोद्भ्वः || १८ ||
एतावदुक्ता भगवान् रमयासहितो विभुः |
भुंजहीती भूस्त्वायन्नगाशनवाहनः || १९ ||
वेदा अपी ब्रह्म अपीसुचुस्तमुचस्तत्वं स निवीश्चीतं || २० ||
समाहीतमनाभूत्वा शृणुस्व ब्रह्मनंदन |
वयं लोकहीतार्थाय सृष्टा भगवते मुने || २१ ||
अस्माभीरुच्यते यद्यतत्सर्वं द्विजातिभीः |
अवश्यमपीकर्तव्यंमसीदाज्ञावलियसी || २२ ||
अस्मदाज्ञां समुद्ययस्तीष्टति महीतले सोवश्यं
वलीयसेनरकौद्येषु मज्जत्याचंद्रतारकं || २३ ||
अध्येतव्याः सादादेव्याषडंगपदक्रमाकर्तव्या |
सकलायागासंपूर्णवरदक्षीणारहीतोपीच || २४ ||
नीत्यंनैमीतिकं काम्यकर्मकमहं प्रत्यहं |
दक्षीणायुक्तमेव कर्यंमते ***** || २५ ||
प्. १०४ब्)
आचरेद्विहीनित्यंनिसीद्धं परीवर्जयेत् |
दक्षीणाभीसहेत्युक्तं वचो यत्परमात्मना || २६ ||
दक्षीरहितं सर्वं कर्मस्त्या द्वैदीकं वृथा |
स्वल्पदक्षीणयागोपीदक्षीरहितोपीच || २७ ||
यातमादुरवदोदृणःमीहामुत्रापी संततं |
यज्ञेश्वरो यज्ञो भोक्ता साक्षाद्यज्ञपुमान् विभुः || २८ ||
इज्यते इज्यते सकलैयज्ञेर्वेदसंसूयते सदा |
सकुटोस्थे च लोचव्यक्तः परमात्मा श्रीयपतिः || २९ ||
सर्वदेवमयसर्वयज्ञारूपी परामामान् |
यष्टव्यमहायागैसंपूर्ण वरदक्षीणैः || ३० ||
संपूर्णादीयते येन महादानेषु दक्षीणा |
अवशशहितरूप एव लभते गतिं || ३१ ||
दानहीनं नृणां जन्मनरकल्केशभाजनं |
दरीद्रेणापीदेयस्यानीत्यं शाकादीने मुने || ३२ ||
भीक्षीत्वायी प्रदातव्यं दरीद्रेणापि संततं |
विशेशतः कलौ प्राप्तो नारकोदा नमोवही || ३३ ||
यज्ञेषु जययज्ञोसौ महायाग उदारितः |
जपहोमादीकं कर्मकृत्वा प्रत्यहमादरात् || ३४ ||
आचार्यचरणंभोजेदेययत्किंचिदप्यथ |
संकपमासीमासे वा दातव्यं भूतिमीच्छसी || ३५ ||
चतुर्वर्गप्रदाविद्या महाविद्या इति स्मृताः |
जपहोमादिकं तासां कृयते यै सदक्षीणं || ३६ ||
तज्जन्मसफलं ज्ञेयं न एव सुखभागीनः |
तत्रापीश्रीमदष्टार्णोमहं नरः || ३७ ||
तदात्मैव परंब्रह्ममयोनारायणः पुमान् |
तस्यैव रश्मयः सर्वसृजंवीद्यांतियांति च || ३८ ||
सर्वविद्यामयः सर्वन्यासरूपश्रीयःपतिः |
श्रीमदष्टार्णविद्यात्माहरीर्नायणो विभुः || ३९ ||
पुरश्चर्यादिभीर्यागैः सयष्टव्यो जगत्पतिः |
श्रीमदर्णवीद्यायाजपोहामादिकं शुभं || ४० ||
अस्वमेधायादियागेभ्योप्यधीकं फलमश्रूते |
नास्वमेधसद्वस्त्रैर्वानरहादानकोटिभिः || ३४ ||
न तीर्थयात्राकोद्यापुरश्चरणकर्मभीः लक्ष्मीनारायणोयोगे |
चूणावरदक्षीणां कृतं तेन न संदेहः पश्यपीरमापतिं || ४४ ||
दृष्टेनास्यणे साक्षादिंदिरारमणेविभौ |
ब्रह्मरूद्रादिभीर्देवैरप्यसौ पूज्यते पुने || ४५ ||
प्. १०५अ)
पौरश्चरणीकं कर्म कृत्वा संपूर्णदक्षीणां |
अदत्वाचार्य पादाब्देनसीद्धीं महतिंजेत् || ४६ ||
स्त्वार्जितं सकलं द्रव्यमेकस्मीन्यीवसरे |
सर्वस्वमीति तत्मोक्षं तदुक्ता पूर्णदक्षीणा || ४७ ||
पत्न्यादिकमपीपुत्राणामपीभूषणं |
वस्त्रादिकं च सकलं सर्वस्वं तत्समीरीतं || ४८ ||
उत्तमां दक्षीणामिजामाहूर्ब्रह्मैक्यसीद्धिदां |
अथवर्षाषनमीनद्रव्यं चोत्तमदक्षिणां || ४९ ||
श्रीमदष्टार्णवरदजयायुतं वा पीतथा सर्वस्वदक्षीणं |
अष्टाक्षरीपुरश्च्र्यासदृशं न महामते || ६४ ||
वेदा अपी च वेदांता धर्मशास्त्रणी संततं |
पुराणजातं सकलं कल्पसूत्रादिकं च यत् || ६५ ||
श्रीमदष्टार्णमंत्रस्य भाष्यं वृद्धि महामने |
भगवदृशीसहिता समस्तन्यासंयूता || ६६ ||
श्रीमदष्टाक्षरीविद्या सांगदक्षीषायाचिता |
यस्य सीद्धिर्थितितं वृद्धितितं वृद्धी ब्रह्मरूपीणमच्यूतं || ६७ ||
तस्मादवश्यं कर्तव्यो यत्नः सीध्यर्थमादरात् |
श्रीमदष्टार्णविद्यायां सीद्धायां दिवीवा भुवी || ६८ ||
रसातले वानासाध्यं विद्यते ब्रह्मनंदन |
अणीमादिगुणैस्वर्यसंपूर्णख्यातिरक्षया || ६९ ||
अचंचलं महभाग्यमजरामरतारपी च |
अष्टांगसहितोयागोजातिजातिश्मरमणप्यथा || ७० ||
एकेन जन्मनैवास्यसंशीति न संशयः |
आचार्यचरद्वंद्वस्सलसीद्धिदा एतदेवीजानीहीपरब्रह्मैकसीद्धीदं || ७३ ||
अष्टाक्षरीविद्या दुर्लभं निदानमीति कथ्यते |
ब्रह्मदर्शशंसीद्धि हेतुभूतमुदिरयेत् || ७४ ||
श्रीमष्ठार्णविद्याया जपहोमादिकं शूभं |
धर्मार्थमोक्षधर्माणां निदानममीतिकथते || ७५ ||
नारायणाभीधं ब्रह्मयहस्मादिभीर्दीने |
कथ्यते श्रूयनित्यम्यर्च्यते ध्यायए तथा || ७६ ||
नारयणे मयो विज्ञानविधिरूच्यत सक्यते |
साधकैप्राप्नुमक्षरमनोजयेत् || ७७ ||
भूयो भूयो वक्षामीप्राप्तेशु शुभवर्तशु |
श्रीमदष्टाक्षश्रीद्धीयत्नकर्तव्य आदरात् || ७८ ||
भूयो भूयो भूयोपी वक्ष्यामी ब्रह्मनंदन |
आचार्यवदनांभोजात्संप्राप्याष्टाक्षरं मनुं || ७९ ||
प्. १०५ब्)
पुरश्चरणासंसीद्धिं कृत्वाद्ब्रह्मयोभयेवेत् |
नारायणमुनेर्जन्मदिवसेक्षयसंज्ञीते || ८० ||
श्रीमदष्टार्णसंसीध्यैयत्नः कर्तव्य आदरात् |
अष्टाक्षरस्यसंसीद्धिर्महादानमहतपः || ||
महान् धर्मोमहद्रानीमेतस्दधीकं नही |
इति श्रीमदनुदरब्रह्मरहस्ये दाशरथीये तंत्रे वेदार्थसंग्रहेत्रयस्त्रीशायः ||</poem>
iqolq68eyyocg1no0h3jb3nah5xveb8
409323
409322
2025-06-27T10:54:08Z
Shubha
190
409323
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः ३३
| previous = [[../अध्यायः ३२|अध्यायः ३२]]
| next = [[../अध्यायः ३४|अध्यायः ३४]]
| notes =
}}
<poem>
प्. १०३ब्)
श्रीभगवानुवाच
शृणु राजन् महीपालपीतामहसुतः पुरा ।
अवश्यत्सागरेकूर्ममहांतं दिव्यवर्चसं ।। १ ।।
धन्योसीत्याहतं दृष्ट्वा नारदो भगवान्रूपी ।
नाहं धन्य इति प्राहकुर्मस्तं नारदंमुनी ।। २ ।।
इमामदाश्रया अयोधन्यास्रैलोकपावनः ।
धन्या भवत्य इत्याहूतो आपो नारदोमुनीः ।। ३ ।।
आपो वनधन्य इत्युचः पृथ्वी धन्यास्मदाश्रया ।
नारदस्ताभुवं प्राहधन्यासीति वसुंधने ।। ४ ।।
नाहंधनेभुप्राहतं ब्रह्मजनयं मुनीं ।
साधारभूतागीरयदुमेधन्यामहामते ।। ५ ।।
इत्युक्तो भूधरो प्राहयूयं धन्यतरा इति ।
धन्यानवयमीत्याहूर्नारभूधरा अपी ।। ६ ।।
प्. १०४अ)
अस्महादि जगर्कर्तादन्योदेवः पीतामहः ।
समीपं ब्रह्मणो गत्वाधन्योसीत्याहतं मुनीः ।। ७ ।।
पीतं प्रमहोपीतं प्राहनाहं धन्यं इति प्रभुः ।
सृज्यंते सकलोकावैदैनृत्यं सनातनेः ।। ८ ।।
पान्त्यंतेसंह्रीयंते च वेदाधन्यास्तातौ मुने ।
इत्युक्तो नारदोवेदानाहनत्वादंडवत् ।। ९ ।।
धन्याभवतः सर्वज्ञासृष्टीस्ठीतीलयाधियः ।
वेदाश्च नारदं प्राह्वधन्या नवयमीत्यपी ।। १० ।।
वयंहीसृष्टयज्ञार्थं भगवद्वहनांजात् ।
युयंधन्यतरायज्ञा इति नार आहतान् ।। ११ ।।
उचुस्रेवयं धन्या अस्माभीरभी संततं ।
इज्यते भगवान् साक्षादेवदेवः श्रीयःपति ।। १२ ।।
यज्ञोषोयज्ञपुरुषो हरीर्नारायणो विभु ।
सर्ववियामयः स्वामी त्रिजगत्पतिरीश्च ।। १३ ।।
स एव धन्यस्मपरतनं परामात्मा सनातनः ।
पितामहस्तुतोगत्वा सन्निधं प्ररमात्माना ।। १४ ।।
धन्यो हि कृत्य कृत्योसीहदेवं स्रीयःपतिं ।
नारदप्राहविश्वात्मादक्षिणाभीस्सहेत्यथ ।। १५ ।।
तच्छृत्वा भगद्वाक्यं नारदो ब्रह्मनंदनः ।
दक्षिणाभीस्सकथं धन्यो भगवन्नीदीरा भवे ।। १६ ।।
इत्युक्तो भगवान्स्तत्र नारदं ब्रह्मनंदनं ।
उवाच लक्ष्मी सानीध्यमूर्ति स द्वेदशनीधौ ।। १७ ।।
दक्षीणासीहेत्युक्तंमय यद्वचनं मने ।
एते वक्षंति वेदास्ते निश्चीतं मन्मुखोद्भ्वः ।। १८ ।।
एतावदुक्ता भगवान् रमयासहितो विभुः ।
भुंजहीती भूस्त्वायन्नगाशनवाहनः ।। १९ ।।
वेदा अपी ब्रह्म अपीसुचुस्तमुचस्तत्वं स निवीश्चीतं ।। २० ।।
समाहीतमनाभूत्वा शृणुस्व ब्रह्मनंदन ।
वयं लोकहीतार्थाय सृष्टा भगवते मुने ।। २१ ।।
अस्माभीरुच्यते यद्यतत्सर्वं द्विजातिभीः ।
अवश्यमपीकर्तव्यंमसीदाज्ञावलियसी ।। २२ ।।
अस्मदाज्ञां समुद्ययस्तीष्टति महीतले सोवश्यं
वलीयसेनरकौद्येषु मज्जत्याचंद्रतारकं ।। २३ ।।
अध्येतव्याः सादादेव्याषडंगपदक्रमाकर्तव्या ।
सकलायागासंपूर्णवरदक्षीणारहीतोपीच ।। २४ ।।
नीत्यंनैमीतिकं काम्यकर्मकमहं प्रत्यहं ।
दक्षीणायुक्तमेव कर्यंमते ***** ।। २५ ।।
प्. १०४ब्)
आचरेद्विहीनित्यंनिसीद्धं परीवर्जयेत् ।
दक्षीणाभीसहेत्युक्तं वचो यत्परमात्मना ।। २६ ।।
दक्षीरहितं सर्वं कर्मस्त्या द्वैदीकं वृथा ।
स्वल्पदक्षीणयागोपीदक्षीरहितोपीच ।। २७ ।।
यातमादुरवदोदृणःमीहामुत्रापी संततं ।
यज्ञेश्वरो यज्ञो भोक्ता साक्षाद्यज्ञपुमान् विभुः ।। २८ ।।
इज्यते इज्यते सकलैयज्ञेर्वेदसंसूयते सदा ।
सकुटोस्थे च लोचव्यक्तः परमात्मा श्रीयपतिः ।। २९ ।।
सर्वदेवमयसर्वयज्ञारूपी परामामान् ।
यष्टव्यमहायागैसंपूर्ण वरदक्षीणैः ।। ३० ।।
संपूर्णादीयते येन महादानेषु दक्षीणा ।
अवशशहितरूप एव लभते गतिं ।। ३१ ।।
दानहीनं नृणां जन्मनरकल्केशभाजनं ।
दरीद्रेणापीदेयस्यानीत्यं शाकादीने मुने ।। ३२ ।।
भीक्षीत्वायी प्रदातव्यं दरीद्रेणापि संततं ।
विशेशतः कलौ प्राप्तो नारकोदा नमोवही ।। ३३ ।।
यज्ञेषु जययज्ञोसौ महायाग उदारितः ।
जपहोमादीकं कर्मकृत्वा प्रत्यहमादरात् ।। ३४ ।।
आचार्यचरणंभोजेदेययत्किंचिदप्यथ ।
संकपमासीमासे वा दातव्यं भूतिमीच्छसी ।। ३५ ।।
चतुर्वर्गप्रदाविद्या महाविद्या इति स्मृताः ।
जपहोमादिकं तासां कृयते यै सदक्षीणं ।। ३६ ।।
तज्जन्मसफलं ज्ञेयं न एव सुखभागीनः ।
तत्रापीश्रीमदष्टार्णोमहं नरः ।। ३७ ।।
तदात्मैव परंब्रह्ममयोनारायणः पुमान् ।
तस्यैव रश्मयः सर्वसृजंवीद्यांतियांति च ।। ३८ ।।
सर्वविद्यामयः सर्वन्यासरूपश्रीयःपतिः ।
श्रीमदष्टार्णविद्यात्माहरीर्नायणो विभुः ।। ३९ ।।
पुरश्चर्यादिभीर्यागैः सयष्टव्यो जगत्पतिः ।
श्रीमदर्णवीद्यायाजपोहामादिकं शुभं ।। ४० ।।
अस्वमेधायादियागेभ्योप्यधीकं फलमश्रूते ।
नास्वमेधसद्वस्त्रैर्वानरहादानकोटिभिः ।। ३४ ।।
न तीर्थयात्राकोद्यापुरश्चरणकर्मभीः लक्ष्मीनारायणोयोगे ।
चूणावरदक्षीणां कृतं तेन न संदेहः पश्यपीरमापतिं ।। ४४ ।।
दृष्टेनास्यणे साक्षादिंदिरारमणेविभौ ।
ब्रह्मरूद्रादिभीर्देवैरप्यसौ पूज्यते पुने ।। ४५ ।।
प्. १०५अ)
पौरश्चरणीकं कर्म कृत्वा संपूर्णदक्षीणां ।
अदत्वाचार्य पादाब्देनसीद्धीं महतिंजेत् ।। ४६ ।।
स्त्वार्जितं सकलं द्रव्यमेकस्मीन्यीवसरे ।
सर्वस्वमीति तत्मोक्षं तदुक्ता पूर्णदक्षीणा ।। ४७ ।।
पत्न्यादिकमपीपुत्राणामपीभूषणं ।
वस्त्रादिकं च सकलं सर्वस्वं तत्समीरीतं ।। ४८ ।।
उत्तमां दक्षीणामिजामाहूर्ब्रह्मैक्यसीद्धिदां ।
अथवर्षाषनमीनद्रव्यं चोत्तमदक्षिणां ।। ४९ ।।
श्रीमदष्टार्णवरदजयायुतं वा पीतथा सर्वस्वदक्षीणं ।
अष्टाक्षरीपुरश्च्र्यासदृशं न महामते ।। ६४ ।।
वेदा अपी च वेदांता धर्मशास्त्रणी संततं ।
पुराणजातं सकलं कल्पसूत्रादिकं च यत् ।। ६५ ।।
श्रीमदष्टार्णमंत्रस्य भाष्यं वृद्धि महामने ।
भगवदृशीसहिता समस्तन्यासंयूता ।। ६६ ।।
श्रीमदष्टाक्षरीविद्या सांगदक्षीषायाचिता ।
यस्य सीद्धिर्थितितं वृद्धितितं वृद्धी ब्रह्मरूपीणमच्यूतं ।। ६७ ।।
तस्मादवश्यं कर्तव्यो यत्नः सीध्यर्थमादरात् ।
श्रीमदष्टार्णविद्यायां सीद्धायां दिवीवा भुवी ।। ६८ ।।
रसातले वानासाध्यं विद्यते ब्रह्मनंदन ।
अणीमादिगुणैस्वर्यसंपूर्णख्यातिरक्षया ।। ६९ ।।
अचंचलं महभाग्यमजरामरतारपी च ।
अष्टांगसहितोयागोजातिजातिश्मरमणप्यथा ।। ७० ।।
एकेन जन्मनैवास्यसंशीति न संशयः ।
आचार्यचरद्वंद्वस्सलसीद्धिदा एतदेवीजानीहीपरब्रह्मैकसीद्धीदं ।। ७३ ।।
अष्टाक्षरीविद्या दुर्लभं निदानमीति कथ्यते ।
ब्रह्मदर्शशंसीद्धि हेतुभूतमुदिरयेत् ।। ७४ ।।
श्रीमष्ठार्णविद्याया जपहोमादिकं शूभं ।
धर्मार्थमोक्षधर्माणां निदानममीतिकथते ।। ७५ ।।
नारायणाभीधं ब्रह्मयहस्मादिभीर्दीने ।
कथ्यते श्रूयनित्यम्यर्च्यते ध्यायए तथा ।। ७६ ।।
नारयणे मयो विज्ञानविधिरूच्यत सक्यते ।
साधकैप्राप्नुमक्षरमनोजयेत् ।। ७७ ।।
भूयो भूयो वक्षामीप्राप्तेशु शुभवर्तशु ।
श्रीमदष्टाक्षश्रीद्धीयत्नकर्तव्य आदरात् ।। ७८ ।।
भूयो भूयो भूयोपी वक्ष्यामी ब्रह्मनंदन ।
आचार्यवदनांभोजात्संप्राप्याष्टाक्षरं मनुं ।। ७९ ।।
प्. १०५ब्)
पुरश्चरणासंसीद्धिं कृत्वाद्ब्रह्मयोभयेवेत् ।
नारायणमुनेर्जन्मदिवसेक्षयसंज्ञीते ।। ८० ।।
श्रीमदष्टार्णसंसीध्यैयत्नः कर्तव्य आदरात् ।
अष्टाक्षरस्यसंसीद्धिर्महादानमहतपः ।। ।।
महान् धर्मोमहद्रानीमेतस्दधीकं नही ।
इति श्रीमदनुदरब्रह्मरहस्ये दाशरथीये तंत्रे वेदार्थसंग्रहेत्रयस्त्रीशायः ।।</poem>
p43yb8wms6d2wmbtcqae6uy8t03pkuf
दाशरथीयतन्त्रम्/अध्यायः ३४
0
163660
409324
2025-06-27T10:55:01Z
Shubha
190
{{header | title = [[../]] | author = | translator = | section = अध्यायः ३४ | previous = [[../अध्यायः ३३|अध्यायः ३३]] | next = [[../अध्यायः ३५|अध्यायः ३५]] | notes = }} <poem> प्. १०५ब्) श्रीराजोवाच भगवान्भाषीताषेष विशेष... नवीन पृष्ठं निर्मीत अस्ती
409324
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः ३४
| previous = [[../अध्यायः ३३|अध्यायः ३३]]
| next = [[../अध्यायः ३५|अध्यायः ३५]]
| notes =
}}
<poem>
प्. १०५ब्)
श्रीराजोवाच
भगवान्भाषीताषेष विशेषकरुणानीधे |
समस्तलक्ष्मीविद्यानांन्यासध्यानादिकं वध || १ ||
श्रीभगवान उवाच
शृणुराजन्महीपाल भगवतापृष्टमादरात् |
विधानमपी संक्षीप्तं श्रीमंत्राणां प्रवक्षते || २ ||
त्रयीवीजंजलेशात्वं वामनेत्रविभूषीतं |
अग्निवींदु समायुक्तं द्वीतियं वीजमूधृतं || ३ ||
श्यर्शांत्यं व्योमवीजं मुखवृतविभूषणां |
भूविजंमूखक्षतत्यं वायुमार्तंडसंयूतं || ४ ||
द्वादशस्वरसंयूक्तं हृदयेन समन्वितं |
अष्टाक्षरी महाविद्या महालक्ष्म्यादुदीरीता || ५ ||
समस्तसंयत् साम्राज्य महीसीहसनेश्वरी |
दारीद्रदुखसमनीसमस्तै सर्वसीद्धिद || ६ ||
भृगुब्रह्मसुतोर्व्रक्तोमुनीरस्यामहामने |
छंदोगायत्रमीत्युक्तं महालक्ष्मीस्त्रयीमयी || ७ ||
देवताकथीता सर्वजगमाताहरीप्रीया |
श्रीवीजऋत्युक्तं शक्तिवीजं रुदिरीता || ||
सडंगं विन्यसेत् पश्चाच्छ्रीया षट्दीर्घयुक्ता || ८ ||
आताम्रार्क समस्तसन्निभततुंसौभाग्यवारान्निधीं |
पद्मादर्शदरां हीरण्यघटं विद्यां तथा भीतीं || ||
मूले कृत्यतरोमहामणीमये दिव्यासने |
संहीतां दीव्याकल्मतिराजितां सुवदनां || ||
पीतां वरां लंकृतां महालक्ष्मीमीति ध्यात्वा जपेन्नित्यममेमनुं || १० ||
सर्वसपत्सृमृद्धीः स्याद्भाग्यराशि पदे पदे |
अष्टलक्षं परश्चर्यदुत्यत्रैर्वाथपंकजैः || ११ ||
मधुतृतयसंमीश्रैर्विन्यपत्रैरथापी वा |
हूत्वाचार्य पदांभोजे दत्वा वह्वलक्षीणां || १२ ||
विद्यासीद्धिमवाप्नोति नात्र कार्या विचारीणा |
वैसाखे फाल्गुने वापीवायेत्वा श्रावणेपीवा || १३ ||
कार्तिके मार्गशीर्षे वा प्रथमे भृगुवासरे |
संकल्प्य पौर्णमाश्यंतं पंचविंशत्सहकं || १४ ||
प्रजप्त्वा जूहूयादाज्य महूत्रितयमीश्रितैः |
दृशांशं जुहुयाद्मै विल्वपत्रैदथापीवा || १५ ||
ततः चार्यपादाब्जे धेनुनितयमादरात् |
दक्षीणासहितं दत्वा कांचनेन वीचनेविनिर्मी || १६ ||
यज्ञोपवीतं त्रयं वासोयगलयोयतुं |
दत्वा द्वादशभुंजीवादलंकृत्य सुवासीनीः || १७ ||
आचार्यपत्नीमभ्यर्च वासौलकासं चयै सद्यः |
सीद्धिमवाप्नोति विद्यायानात्रशंशयः || १८ ||
इत्यमेव महाविद्या दुखदारीद्रभंजीनी |
आधीव्याधी प्रसमनी सर्वसंपृत्समृद्धीये || १९ ||
प्. १०६अ)
अष्टाक्षरी महालक्ष्म्याजपेद्भाग्यसमृद्धये |
आलक्ष्मीकलहाधारातद्गेहेनवत्यग्वचित् || २० ||
आयुरारोग्यर्थं पुत्रयौ समृद्धये *** |
अष्टाक्षरीं महालक्ष्म्या जपेद्भाग्यसमृद्धये || २१ ||
आस्वीने नवरात्रे वा वा रात्रे वा वा संते वा समागते |
प्रदिपद्वीरमाभ्यनवम्यं तथमादरा || २२ ||
आचार्यानुज्ञयातत्र श्रीमदष्टाक्षरं मनुं जपेत् |
द्वादशहस्रं कृत्वा संकृत्यमादरात् || २३ ||
पंचविंशत् सहस्राणी जपेदष्टाक्षरीं श्रीयः |
नवम्यां ज्वलिवहौ शूद्धं गव्याज्यमादरात् || २४ ||
हूनेदष्टार्णमंत्रेणताधिकसहस्रकं |
अष्टार्णविद्ययालक्ष्म्यामधुतितयमीश्रीतं || २५ ||
त्रिशताधिकं सहस्रं हूनेजव्याज्यमीश्रीतं |
विष्ण्वपत्र समायुक्तं हवीतीलान्वितं || २६ ||
अथाचर्मा नमस्कृत्य कुंडद्वीतिशुभंदत्या |
कर्णयोपश्चाद्वहूश्यशौद्यशंकुलां || २७ ||
समर्पयेन्महीविद्वान् हूयादक्षीणान्वीतां |
सदक्षीणं तप्तो देद्याद्धे तु द्वयमलंकृतं || २८ ||
धनाढ्योराजपुत्रोपिदद्याद्वितं सहस्रशः |
अलंकारैश्च वासौभीर्दक्षीणाभीश्चभौजने || २९ ||
आचार्यवल्लभां पश्चान्महालक्ष्मीधियार्चयेत् |
विवाहरहिताकन्या अवशंपूजयेन्नरः || ३० ||
एवर्षद्वीवर्षादीनवर्षांतकन्यकाः ** |
अथ वावौ च नारूढाः यत्र वत्योगुणान्वितः || ३१ ||
भोजनाद्यै समभ्यर्च्यनवतिर्नवलाव नृप |
विभवे सत्यलंकारं तासां वा सांसिचार्ययेत् || ३२ ||
पंचविंशति शंख्याब्राह्मणान् वेदपारगान् |
भोजयित्वा मृष्ठान्नं दक्षीणाभीश्चतोषयेत् || ३३ ||
अथाचार्याशीषः प्राप्यद्यूपं भुंजीत वंधुभीः |
एवं कृते विधाने नवरात्रव्रजेशु ** || ३४ ||
इदिरासहितस्य भस्य भगचितोविभुः |
ददितिमहसतिसीद्धित्रैलोक्यनापीदुर्भां || ३५ ||
पंचविंशति संख्याक ब्राह्मणादपारगान् |
भोजयीत्वाथमीष्टान्नं भगवात्यंकुलीमहहीश्रीयं || ३६ ||
मानुषामपिदीव्यांश्चभोगान् पुत्राश्च पौत्रकान् |
ददाति भगवांस्तस्मैशंशयोनात्र विद्ययो || ३७ ||
जप्त्वा लक्ष्मामीमं मंत्रं दशांशं तर्पये श्रुतिः |
ययज्ञेशुरसेद्यूरीगु उमीश्वजलेन वा || ३८ ||
तद्दशांशं हूनेत्पद्मैमधुत्रीतयमीश्रीतै |
धनसेनसमोलथा जीवं भगवत्यसौ || ३९ ||
श्रीवीष्णुमंदिरे विल्वमूलमंत्रास्य मंत्रवित् |
अष्टाक्षरीं महालक्ष्म्या जप्त्वा लक्षमतंद्रियः || ४० ||
विल्वग्वव्यघृतमधुत्रितयसंप्लुतैः कृत्वा |
सौलनतेवीतवृद्धीं ******** || ४१ ||
अलक्ष्मीनासनं नित्यमीच्छीताविजीतात्मना |
श्रीमदष्टाक्षरीविद्या जपकर्तादीनेदीने || ४२ ||
प्. १०६ब्)
अष्टाक्षरी महालक्ष्म्या जप्तव्या वत्स्यमादरात् |
इति दाशरथीयेस्मीन्तंत्रेदार्थसंग्रहे अध्यायोयं चतुस्त्रींश उक्तो भगवता
परा || ४३ ||
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीयेतंत्रेवीदार्थसंग्रहे
चतुस्त्रींशोध्यायः ||</poem>
75qf2a5qk99gzqzcnxdeueqi06rsopy
409325
409324
2025-06-27T10:55:23Z
Shubha
190
409325
wikitext
text/x-wiki
{{header
| title = [[../]]
| author =
| translator =
| section = अध्यायः ३४
| previous = [[../अध्यायः ३३|अध्यायः ३३]]
| next = [[../अध्यायः ३५|अध्यायः ३५]]
| notes =
}}
<poem>
प्. १०५ब्)
श्रीराजोवाच
भगवान्भाषीताषेष विशेषकरुणानीधे ।
समस्तलक्ष्मीविद्यानांन्यासध्यानादिकं वध ।। १ ।।
श्रीभगवान उवाच
शृणुराजन्महीपाल भगवतापृष्टमादरात् ।
विधानमपी संक्षीप्तं श्रीमंत्राणां प्रवक्षते ।। २ ।।
त्रयीवीजंजलेशात्वं वामनेत्रविभूषीतं ।
अग्निवींदु समायुक्तं द्वीतियं वीजमूधृतं ।। ३ ।।
श्यर्शांत्यं व्योमवीजं मुखवृतविभूषणां ।
भूविजंमूखक्षतत्यं वायुमार्तंडसंयूतं ।। ४ ।।
द्वादशस्वरसंयूक्तं हृदयेन समन्वितं ।
अष्टाक्षरी महाविद्या महालक्ष्म्यादुदीरीता ।। ५ ।।
समस्तसंयत् साम्राज्य महीसीहसनेश्वरी ।
दारीद्रदुखसमनीसमस्तै सर्वसीद्धिद ।। ६ ।।
भृगुब्रह्मसुतोर्व्रक्तोमुनीरस्यामहामने ।
छंदोगायत्रमीत्युक्तं महालक्ष्मीस्त्रयीमयी ।। ७ ।।
देवताकथीता सर्वजगमाताहरीप्रीया ।
श्रीवीजऋत्युक्तं शक्तिवीजं रुदिरीता ।। ।।
सडंगं विन्यसेत् पश्चाच्छ्रीया षट्दीर्घयुक्ता ।। ८ ।।
आताम्रार्क समस्तसन्निभततुंसौभाग्यवारान्निधीं ।
पद्मादर्शदरां हीरण्यघटं विद्यां तथा भीतीं ।। ।।
मूले कृत्यतरोमहामणीमये दिव्यासने ।
संहीतां दीव्याकल्मतिराजितां सुवदनां ।। ।।
पीतां वरां लंकृतां महालक्ष्मीमीति ध्यात्वा जपेन्नित्यममेमनुं ।। १० ।।
सर्वसपत्सृमृद्धीः स्याद्भाग्यराशि पदे पदे ।
अष्टलक्षं परश्चर्यदुत्यत्रैर्वाथपंकजैः ।। ११ ।।
मधुतृतयसंमीश्रैर्विन्यपत्रैरथापी वा ।
हूत्वाचार्य पदांभोजे दत्वा वह्वलक्षीणां ।। १२ ।।
विद्यासीद्धिमवाप्नोति नात्र कार्या विचारीणा ।
वैसाखे फाल्गुने वापीवायेत्वा श्रावणेपीवा ।। १३ ।।
कार्तिके मार्गशीर्षे वा प्रथमे भृगुवासरे ।
संकल्प्य पौर्णमाश्यंतं पंचविंशत्सहकं ।। १४ ।।
प्रजप्त्वा जूहूयादाज्य महूत्रितयमीश्रितैः ।
दृशांशं जुहुयाद्मै विल्वपत्रैदथापीवा ।। १५ ।।
ततः चार्यपादाब्जे धेनुनितयमादरात् ।
दक्षीणासहितं दत्वा कांचनेन वीचनेविनिर्मी ।। १६ ।।
यज्ञोपवीतं त्रयं वासोयगलयोयतुं ।
दत्वा द्वादशभुंजीवादलंकृत्य सुवासीनीः ।। १७ ।।
आचार्यपत्नीमभ्यर्च वासौलकासं चयै सद्यः ।
सीद्धिमवाप्नोति विद्यायानात्रशंशयः ।। १८ ।।
इत्यमेव महाविद्या दुखदारीद्रभंजीनी ।
आधीव्याधी प्रसमनी सर्वसंपृत्समृद्धीये ।। १९ ।।
प्. १०६अ)
अष्टाक्षरी महालक्ष्म्याजपेद्भाग्यसमृद्धये ।
आलक्ष्मीकलहाधारातद्गेहेनवत्यग्वचित् ।। २० ।।
आयुरारोग्यर्थं पुत्रयौ समृद्धये *** ।
अष्टाक्षरीं महालक्ष्म्या जपेद्भाग्यसमृद्धये ।। २१ ।।
आस्वीने नवरात्रे वा वा रात्रे वा वा संते वा समागते ।
प्रदिपद्वीरमाभ्यनवम्यं तथमादरा ।। २२ ।।
आचार्यानुज्ञयातत्र श्रीमदष्टाक्षरं मनुं जपेत् ।
द्वादशहस्रं कृत्वा संकृत्यमादरात् ।। २३ ।।
पंचविंशत् सहस्राणी जपेदष्टाक्षरीं श्रीयः ।
नवम्यां ज्वलिवहौ शूद्धं गव्याज्यमादरात् ।। २४ ।।
हूनेदष्टार्णमंत्रेणताधिकसहस्रकं ।
अष्टार्णविद्ययालक्ष्म्यामधुतितयमीश्रीतं ।। २५ ।।
त्रिशताधिकं सहस्रं हूनेजव्याज्यमीश्रीतं ।
विष्ण्वपत्र समायुक्तं हवीतीलान्वितं ।। २६ ।।
अथाचर्मा नमस्कृत्य कुंडद्वीतिशुभंदत्या ।
कर्णयोपश्चाद्वहूश्यशौद्यशंकुलां ।। २७ ।।
समर्पयेन्महीविद्वान् हूयादक्षीणान्वीतां ।
सदक्षीणं तप्तो देद्याद्धे तु द्वयमलंकृतं ।। २८ ।।
धनाढ्योराजपुत्रोपिदद्याद्वितं सहस्रशः ।
अलंकारैश्च वासौभीर्दक्षीणाभीश्चभौजने ।। २९ ।।
आचार्यवल्लभां पश्चान्महालक्ष्मीधियार्चयेत् ।
विवाहरहिताकन्या अवशंपूजयेन्नरः ।। ३० ।।
एवर्षद्वीवर्षादीनवर्षांतकन्यकाः ** ।
अथ वावौ च नारूढाः यत्र वत्योगुणान्वितः ।। ३१ ।।
भोजनाद्यै समभ्यर्च्यनवतिर्नवलाव नृप ।
विभवे सत्यलंकारं तासां वा सांसिचार्ययेत् ।। ३२ ।।
पंचविंशति शंख्याब्राह्मणान् वेदपारगान् ।
भोजयित्वा मृष्ठान्नं दक्षीणाभीश्चतोषयेत् ।। ३३ ।।
अथाचार्याशीषः प्राप्यद्यूपं भुंजीत वंधुभीः ।
एवं कृते विधाने नवरात्रव्रजेशु ** ।। ३४ ।।
इदिरासहितस्य भस्य भगचितोविभुः ।
ददितिमहसतिसीद्धित्रैलोक्यनापीदुर्भां ।। ३५ ।।
पंचविंशति संख्याक ब्राह्मणादपारगान् ।
भोजयीत्वाथमीष्टान्नं भगवात्यंकुलीमहहीश्रीयं ।। ३६ ।।
मानुषामपिदीव्यांश्चभोगान् पुत्राश्च पौत्रकान् ।
ददाति भगवांस्तस्मैशंशयोनात्र विद्ययो ।। ३७ ।।
जप्त्वा लक्ष्मामीमं मंत्रं दशांशं तर्पये श्रुतिः ।
ययज्ञेशुरसेद्यूरीगु उमीश्वजलेन वा ।। ३८ ।।
तद्दशांशं हूनेत्पद्मैमधुत्रीतयमीश्रीतै ।
धनसेनसमोलथा जीवं भगवत्यसौ ।। ३९ ।।
श्रीवीष्णुमंदिरे विल्वमूलमंत्रास्य मंत्रवित् ।
अष्टाक्षरीं महालक्ष्म्या जप्त्वा लक्षमतंद्रियः ।। ४० ।।
विल्वग्वव्यघृतमधुत्रितयसंप्लुतैः कृत्वा ।
सौलनतेवीतवृद्धीं ******** ।। ४१ ।।
अलक्ष्मीनासनं नित्यमीच्छीताविजीतात्मना ।
श्रीमदष्टाक्षरीविद्या जपकर्तादीनेदीने ।। ४२ ।।
प्. १०६ब्)
अष्टाक्षरी महालक्ष्म्या जप्तव्या वत्स्यमादरात् ।
इति दाशरथीयेस्मीन्तंत्रेदार्थसंग्रहे अध्यायोयं चतुस्त्रींश उक्तो भगवता
परा ।। ४३ ।।
इति श्रीमदनुत्तरब्रह्मतत्वरहस्ये दाशरथीयेतंत्रेवीदार्थसंग्रहे
चतुस्त्रींशोध्यायः ।।</poem>
396tu3otseuucxalvquens7kb47upxf